घातक
छाया—प्रवचन—सातवां
ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 12
फरवरी,1973
हे
शिष्य, उस
घातक छाया से
सावधान रह। उस
समय तक कोई भी
उच्चस्थ
आत्मा का
प्रकाश
निम्नस्थ
आत्मा के अंधकार
को नहीं मिटा
सकता, जिस
समय तक उससे
सभी अहंकारी
विचार निकल
नहीं गए हैं
और यात्री यह
नहीं कहता है
कि मैंने इस
क्षणभंगुर शरीर
को त्याग दिया
है, मैंने
कारण का नाश
कर दिया है।
अतः जो छायाएं
पड़ती हैं, वे
अब नहीं टिक
सकतीं।
क्योंकि अब
उच्चस्थ और निम्नस्थ
आत्मा के बीच
अंतिम
महायुद्ध
आरंभ हो गया
है। इस
महायुद्ध में
समस्त
रण-क्षेत्र समा
गया है, वह
मानो है ही
नहीं।
लेकिन, जब एक बार तू
क्षांति
(धैर्य) के
द्वार को पार
कर जाता है, तब तीसरा
चरण भी उठ
जाता है। तेरा
शरीर तेरा सेवक
है। और अब
चौथे चरण की
तैयारी कर। यह
लोभ का द्वार
है जो अंतरस्थ
मनुष्य को फांसता
है।
इसके
पहले कि तू
गंतव्य के
निकट पहुंचे, इसके पहले
कि तेरे हाथ
चौथे द्वार के
सांकल को
उठाने के लिए उठें, तुझे
अपनी आत्मा के
उन सभी मानसिक
परिवर्तनों
को पराभूत
करना और
विचार-वृत्तियों
का हनन करना
है, जो सूम
और कपटपूर्ण
ढंग से आत्मा
के ज्योतित मंदिर
में बिना पूछे
घुस जाते हैं।
यदि
तुझे उनके
हाथों नहीं
मरना है, तो तुझे
अपने सृजनों
को, अपने
विचारों की
संतान को
निर्दोष
बनाना है, जो
अदृश्य और
अजाने ढंग से
मनुष्य मात्र
के बीच, उसके
पार्थिव
अर्जनों के
बीच घर बना
लेती है और जो
पूर्ण सा
भासता है, उसकी
शून्यता को और
जो शून्य सा भासता
है, उसकी
पूर्णता को
तुझे समझना
है। ओ निर्भय
मुमुक्षु, अपने
ही दृश्य के
कुएं की गहराई
में झांक और तब
उत्तर दे। हे बाहय
छायाओं के
द्रष्टा, अपनी
ही आत्मा की
शक्तियों को
जान।
यदि
यह नहीं करता
है, तो तू
नष्ट हो
जाएगा।
अंधेरे
का अपना कोई
अस्तित्व
नहीं, अस्तित्व
तो प्रकाश का
है।
पर
अंधेरा भी
दिखाई पड़ता है
और वास्तविक
मालूम होता
है। और कौन
कहेगा कि
अंधेरा नहीं
है? अनुभव
में तो ऐसा
आता है कि
प्रकाश से भी
ज्यादा
वास्तविक
अंधेरा है, क्योंकि
प्रकाश को तो
जलाना पड़ता है,
फिर भी
बुझ-बुझ जाता
है; अंधेरे
को जलाना भी
नहीं पड़ता, फिर भी बना रहता
है। और प्रकाश
तो कितना ही
बड़ा दिखाई पड़े,
सीमित
मालूम पड़ता है;
अंधेरा
असीम है। और
ऐसा लगता है
कि अंधेरे के सागर
में प्रकाश
कभी जलता है
और बुझ जाता
है, लेकिन
सागर बना रहता
है, जबकि
वस्तुतः
अंधेरा नहीं
है। फिर
अंधेरा दिखाई
कैसे पड़ता है?
और अगर
अंधेरा नहीं
है, तो
अंधेरा है
क्या? अगर
उसका
अस्तित्व
नहीं है, तो
उसकी यह
प्रतीति, उसकी
यह भ्रांत
प्रतीति भी
क्यों होती है?
इसे
थोड़ा समझ लें, तो इस सूत्र
में प्रवेश हो
सके।
प्रकाश
है। और अंधेरा
केवल प्रकाश
का अभाव है, उसकी गैर
मौजूदगी है, उसकी
अनुपस्थिति
है। इसलिए हम
प्रकाश को जला
सकते हैं, अंधेरे
को नहीं जला
सकते। इसलिए
हम प्रकाश को बुझा
सकते हैं, अंधेरे
को नहीं बुझा
सकते। इसीलिए
हम प्रकाश को
एक जगह से
दूसरी जगह ले
जा सकते हैं, अंधेरे को
एक जगह से
दूसरी जगह
नहीं ले जा
सकते। जो है
ही नहीं, उसे
ले जाने का भी
कोई उपाय नहीं।
जो है ही नहीं,
उसे बनाने
का भी कोई
उपाय नहीं। जो
है ही नहीं, उसे मिटाने
का भी कोई
उपाय नहीं।
क्योंकि अंधेरे
के साथ हम कुछ
भी नहीं कर
सकते, इसलिए
अंधेरा नहीं
है। जो है, उसके
साथ ही कुछ
किया जा सकता
है।
और
हमें अगर
अंधेरे के साथ
भी कुछ करना
हो, तो प्रकाश
के साथ ही कुछ
करना पड़ता है।
अगर अंधेरा चाहिए
ही, तो
प्रकाश
बुझाना पड़ता
है, अंधेरा
नहीं जलाना
पड़ता। अगर
अंधेरा न
चाहिए, तो
प्रकाश जलाना
पड़ता
है; अंधेरे
को हटाना नहीं
पड़ता। अंधेरे
के साथ कुछ
करने का
उपाय
ही नहीं। जो
नहीं है, उसके
साथ कुछ किया
भी नहीं जा सकता।
अंधेरा है
अभाव; वह
प्रकाश के न
होने का नाम
है, आंखें
जब प्रकाश को
नहीं पातीं, तो उसमें
नहीं पाने में
जो प्रतीति
होती है, वह
है अंधकार।
अंधकार खाली
जगह है। और
हमारे भीतर
बड़ा अंधकार
है।
बाहर
के अंधकार को
तो हम बाहर के
प्रकाश से मिटा
लेते हैं, भीतर के अंधकार
को भीतर के
प्रकाश से ही
मिटा सकेंगे।
बहुत लोग
नासमझी में पड़
जाते हैं। वे
भीतर के अंधेरे
को सीधा ही
मिटाने की
कोशिश में लग
जाते हैं, तब
अड़चन खड़ी हो
जाती है। जब
वे भीतर के
अंधेरे को
सीधा ही
काटने-पीटने
लगते हैं, तो
उलझन में पड़
जाते हैं, तनाव
से भर जाते
हैं, और भी
अशांत हो जाते
हैं। भीतर भी
अंधेरे को मिटाने
का यही उपाय
है कि भीतर का
प्रकाश जलाया
जाए। सीधे
अंधेरे की बात
ही मत करें, सीधे अंधेरे
की चिंता ही
मत करें।
ऐसा
समझें, कोई
मेरे पास आता
है और कहता है,
क्रोध बहुत
है, क्या
करूं? उससे मैं
कहता हूं, क्रोध
की बात ही मत
करो। तुम
क्रोध को रहने
दो, तुम
शांत कैसे हो
सकते हो, इसकी
बात करो। और
जिस दिन तुम
शांत होने
लगोगे, क्रोध
अपने आप
तिरोहित हो
जाएगा।
क्योंकि क्रोध
केवल अभाव है।
कोई कहता है, कामवासना से
कैसे छुटकारा
हो। उसे मैं
कहता हूं उसे
तुम छुओ ही
मत। तुम प्रेम
को फैलाओ।
जितना प्रेम
विराट होता
जाएगा, उतना
ही काम क्षीण
और शून्य होता
जाएगा।
नकार
में मत पड़ो, विधेय की
खोज करो। जो
वस्तुतः है, उसकी ही
चिंता
में
लगो, तो कुछ हो
सकेगा।
लेकिन
हममें से बहुत
लोग इसीलिए
भटकते हैं कि हम
नकार के साथ
ही उलझ जाते
हैं, हम
छायाओं से
लड़ते हैं और
फिर हार जाते
हैं। तो मन
में सीधा लगता
है कि जब छाया
से हार गए तो
छाया बहुत
शक्तिशाली
होनी चाहिए।
स्वभावतः
सीधा तर्क और
गणित है कि
जिससे हम हार
गए, वह मजबूत
होना चाहिए।
लेकिन छाया से
आप हारते नहीं
हैं, छाया
से जीत भी
नहीं सकते।
छाया है ही
नहीं। छाया से
लड़कर आप
अपनी शक्ति ही
नष्ट करते
हैं। और खुद
की शक्ति नष्ट
हो जाती है, तो पराजित, हारे हुए
गिर जाते हैं।
छाया को न कोई
चोट पहुंचती
है और न छाया
आपको कोई चोट पहुंचाती
है, लेकिन
हार हो जाती
है। अपनी ही
शक्ति खोकर
आदमी हार जाता
है। और धर्म है
विधायकता। जब
तक कोई नकार
से चलता है, तब तक
धार्मिक
विज्ञान की
प्रक्रिया
उसके हाथ में
नहीं आती है।
इस
सूत्र को अब
हम समझें।
"हे
शिष्य, उस
घातक छाया से
सावधान रह। उस
समय तक कोई भी
उच्चस्थ
आत्मा का
प्रकाश
निम्नस्थ
आत्मा के अंधकार
को नहीं मिटा
सकता, जिस
समय तक उससे
सभी अहंकारी
विचार नहीं
निकल गए हैं
और यात्री यह
नहीं कहता कि
मैंने इस क्षणभंगुर
शरीर को त्याग
दिया है।'
आदमी
के भीतर उस
प्रकाश के
जलाने के लिए
क्या करें?
एक और
बात समझ लें।
पहली
तो बात यह है:
अंधेरे से मत
लड़ें, प्रकाश
को जलाने की
चेष्टा करें। दूसरी
बात, जो
प्रकाश जलाया
जाता है, वह
बुझ जाएगा।
सभी निर्मित
चीजें नष्ट हो
जाती हैं। और
जो प्रकाश
पैदा किया
जाता है, वह
कल मरेगा।
जन्म के बाद
मृत्यु है।
भीतर का प्रकाश
अगर हमने
जलाया--तो
कितनी देर
चलेगा? जिसके
ईंधन में हम
हैं, वह
कितनी देर
चलेगा? और
जिसको हमने
पैदा किया, वह हमसे बड़ा
नहीं हो सकता,
वह हमसे
क्षुद्र
होगा। और हम
ही मिट जाते
हैं, तो
हमारा जलाया
हुआ दीया
कितना टिकेगा?
और जो हमारा
ही पैदा किया
हुआ है, वह
हमें
मार्ग-दर्शन
नहीं दे सकता।
तो
दूसरी बात समझ
लें कि भीतर
का प्रकाश
जलता नहीं है।
भीतर का प्रकाश
है ही; आवृत
है, ढंका
है; उघाड़ना
है, अनढंका
करना है। जैसे
कि पत्थर की
ओट में एक झरना
छिपा
हो और
धक्का मार रहा
हो पत्थर को, कि हटो
द्वार से, तो
मैं फूट पडूं,
वैसा ही
भीतर का
प्रकाश है।
द्वार पर कोई
पत्थर है, वह
अटका रहा है।
एक बड़े
मजे की बात है
कि अंधकार
प्रकाश को जरा
भी नहीं रोक
सकता। इसलिए
असली दुश्मन
अंधकार नहीं
है। आप दीया
जलाएं, तो
अंधकार यह
नहीं कह सकता
कि नहीं जलने
देंगे।
अंधकार दीए को
बुझा भी नहीं
सकता। कभी
सुना है कि
अंधकार ने दीए
को बुझा दिया,
कि अंधकार
ने हमला किया
हो और दीया
मिट गया हो? कभी सुना है
कि अंधकार ने
बाधा डाली? एक घर में
जाएं, जो
हजार साल से
अंधेरे में
दबा हो और
वहां भी एक
छोटा-सा दीया
जलाएं तो हजार
साल पुराना
अंधकार भी उस
नए दीए की
ज्योति को
बुझा न सकेगा;
रोक भी न
सकेगा जलने
से। अंधकार
नहीं रोकता है।
फिर कौन रोक
रहा है पत्थर
की तरह भीतर
प्रकाश को
जलने से, या
प्रकाश को
प्रगट होने से?
कौन अड़ा है
झरने पर?
अंधकार
नहीं, अहंकार--"मैं'
का भाव। और
क्यों "मैं' का भाव बाधा
बनता होगा? जब तक हमें
खयाल है कि
"मैं हूं,' तब
तक हम विराट
से अपने को तोड़कर
चलते हैं। और
वह प्रकाश
विराट का है।
प्रकाश हमारा
नहीं है। हम
तो जब तक हैं, तब तक वह
प्रकाश प्रगट
न हो सकेगा।
हम ही बाधा हैं।
बुद्ध ने बहुत
बार कहा है, तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। और तुम
समझ रहे हो
स्वयं को
साधक। और
तुम्हारे अतिरिक्त
कोई बाधा नहीं
है। और तुम
सोच रहे हो, मैं साध
लूंगा इस सत्य
को! और
तुम्हीं हो
अड़चन।
तुम्हीं अड़े
हो मार्ग में,
मध्य में; तुम्हीं
झरने को फूटने
नहीं देते।
"मैं' का
भाव, "मैं
हूं,' इस
घोषणा में ही
विराट दब गया
है। और विराट
के रास्ते बड़े
मौन हैं। और
विराट के
रास्ते बड़े विनम्र
हैं। और विराट
जबर्दस्ती
नहीं करता है।
विराट आक्रमक
नहीं है।
विराट
प्रतीक्षा
करता है। और
हमारे "मैं' की जो आवाज
है, वह
रुकावट बन
जाती है।
यह
सूत्र कहता है, अहंकार के
विचार जब तक
नहीं निकल गए
हैं, तब तक
वह प्रकाश
नहीं उपलब्ध
होगा, जिससे
अंधेरा मिट
जाए।
अहंकार
है क्या? क्या
है आपके भीतर
जिसको आप कहते
हैं "मैं' हूं?
शब्द के
अतिरिक्त और
क्या है? कभी
आपने सोचा, किसे आप
पुकारते हैं
"मैं'? कौन
है यह उसका
कोई भी पता
नहीं--सिर्फ
एक लेबल! भीतर
क्या है, उसका
हमें कोई पता
नहीं। ऊपर से
एक नाम है। बच्चा
पैदा होता है,
तो हमें नाम
देना पड़ता है।
कहना पड़ता है
राम, कृष्ण
कुछ नाम देना
पड़ता है।
बच्चा बिना
नाम के पैदा
होता
है। और
इस दुनिया में
बिना नाम के
बड़ी मुश्किल
हो जाती है।
उसका कोई नाम
न हो तो बड़ी
कठिनाइयां
खड़ी हो जाती
हैं। एक नाम
उसे देते हैं
कि तेरा नाम
हुआ राम। इस
नाम से दूसरे
उसे पुकारते हैं।
लेकिन उसे खुद
को पुकारने के
लिए भी एक नाम
चाहिए अलग।
क्योंकि अगर
वह भी कहे राम, तो लोग
समझेंगे पता
नहीं, किसी
दूसरे को
पुकारता है।
स्वामी
राम ऐसा करते
थे। स्वामी
राम ने "मैं' कहना बंद कर
दिया और वे
सीधा राम का
ही उपयोग करने
लगे थे। वे
कहते थे, राम
को बड़ी प्यास
लगी, तो सुनने
वाला समझ ही
नहीं पाता था
कि वे कह रहे हैं
मुझे प्यास
लगी है। तो
सुनने वाला
पूछता, किसको?
वे कहते राम
को। तो वह
आसपास देखता
कि किसकी बात
चल रही है।
राम एक
दिन गांव से
लौटे, तो
उन्होंने कहा
कि आज राम को
रास्ते में
बड़ी गालियां
पड़ रही थीं।
जिसके घर मेहमान
थे, उन्होंने
कहा, किसको?
तो
उन्होंने कहा,
राम को। तो
उन घर वालों
ने पूछा कि
महाराज, सीधा-सीधा
क्यों नहीं
कहते कि आपको
गालियां पड़
गईं। राम ने
कहा, लेकिन
राम को ही पड़
रही थीं, मैं
तो खड़ा हुआ
सुन भी नहीं
रहता कि आपका
खुद का नाम
क्या है? इस
नाम से आपका
क्या
लेना-देना?
और अगर
नाम ही अपना
नहीं है, तो
फिर और क्या
है आपका? बताइएगा
किसके
बेटे हैं? किसके भाई
हैं? किसके
पति हैं? किसकी
पत्नी हैं? यह बताइएगा?
ये
संबंध हैं।
इनका आपसे कोई
लेना-देना
नहीं। इन
संबंधों के
बिना आप हो
सकते हैं। इन
संबंधों के
बिना आप थे।
ये कल खो
जाएंगे, तो
आप मिट नहीं
जाएंगे। आपका
अपना होना
है। वह
होना क्या है? वह अस्तित्व
क्या है? संबंधों
में जो बंधा
है, वह
भीतर जो
संबंधों से
जुड़ा है, वह
कौन है? उसका
उसे कोई पता
नहीं चलता। आप
दुकानदार हैं,
कि डाक्टर
हैं, कि
शिक्षक हैं, कि चोर हैं, कि साधु हैं;
इससे भी कोई
पता नहीं
चलता। इससे
यही पता चलता
है कि आप क्या
करते हैं। यह
पता नहीं चलता
कि आप क्या
हैं। एक आदमी
डाक्टरी करता
है, एक
आदमी चोरी
करता है--ये
उनके काम हैं।
और जो चोरी
करता है, वह
डाक्टर हो
सकता है। आज
जो डाक्टर है,
वह कल चोर
हो सकता है।
इससे अस्तित्व
का कोई पता
नहीं चल सकता
कि वह क्या है?
तो आप बताएंगे
अपना
परिचय--नाम, धाम, पता-ठिकाना,
काम; लेकिन
इसमें कोई भी
आप नहीं हैं, यह सब झूठा
मामला है।
लेकिन इसको हम
मानकर चलते
हैं कि यही
हमारा होना है,
और यही
पत्थर बन जाता
है। इस झूठे
होने के कारण
वास्तविक
होना प्रकट
नहीं हो पाता।
और जो नकली से
राजी हो गया
है, उसके
असली होने के
लिए कोई जगह
नहीं।
क्योंकि मान
लिया कि अपने
को पा ही लिया,
जान ही लिया,
अब जानने को
कुछ बाकी
नहीं।
अगर
सुकरात से
लेकर आज तक
सभी जानने
वालों ने एक
ही बात कही है
कि अपने को
जानो--तो बड़ी
अजीब-सी लगती
है। सभी तो
अपने को जानते
हैं। ऐसा कोई
आदमी देखा, जो अपने को
नहीं जानता हो?
फिर, यह
सुकरात का
दिमाग फिर गया
है? उपनिषद
के ऋषि पागल
हैं? यह
बुद्ध और
महावीर एक ही
रटन लगाए हुए
हैं कि अपने
को जानो। और
यहां एक आदमी
नहीं है ऐसा, जो अपने को न
जानता हो।
जरूर कहीं कोई
गड़बड़ हो रही
है। हमारे जानने
में कहीं न
कहीं भ्रांति
है, तभी तो
इतना
चिल्लाते
हैं। और हमको
भी हैरानी होती
है सुनकर कि
क्या बकवास
लगा रखी है कि
अपने को जानो।
अपने को तो हम
जानते ही हैं
कि मेरा नाम
यह है, मेरा
घर का पता यह
है, मैं इस
बाप का बेटा
हूं, इसका
भाई हूं, इसका
पति हूं, यह
मेरी दुकान है,
यह मेरा फोन
नंबर है। यह
मेरा होना है।
अब और क्या
अपने को जानूं?
आपका
फोन नंबर आप
नहीं हैं।
आपकी दुकान
में लगी तख्ती
आप नहीं हैं।
आपके नाम के
पीछे लगी उपाधियां
आप नहीं हैं।
आपके नाम के
जो आगे लगे, कुछ भी नाम
के आगे-पीछे
आप नहीं हैं।
नाम भी आप नहीं
हैं। काम-चलाऊ
हैं ये शब्द।
और इस दुनिया में
अड़चन होगी, इसलिए
कामचलाऊ
व्यवस्था
करनी पड़ती है।
अहंकार
कामचलाऊ
व्यवस्था है, एक उपाय है
और हम उसी को
सत्य मानकर अड़
जाते हैं। बस
फिर वह जो
भीतर छिपा था,
उसको प्रकट
होने के लिए
हम ही बाधा बन
जाते हैं।
तो
पहली बात तो
जाननी जरूरी
यह है कि आप
अपने को अब तक
जो-जो मानते
रहे, वह-वह आप
नहीं हैं। यह
विचार गहन हो
जाए, तो
अहंकार को छोड़
देने में कोई
भी अड़चन नहीं
है। क्योंकि
हाथ में लेबल
के सिवाय कुछ
भी नहीं है।
बिलकुल कागजी
नोट है, चलते
हैं, काम
देते हैं, लेकिन
सत्व उनमें
जरा भी नहीं
है। इस झूठ के
प्रति जागें।
सूत्र कहता है,
अहंकारी
विचार जब तक
नहीं निकल गए,
उस समय तक
कोई भी
उच्चस्थ
आत्मा का
प्रकाश निम्नस्थ
आत्मा के
अंधकार को
नहीं मिटा
सकता, और
यात्री यह
नहीं कहता कि
मैंने इस क्षणभंगुर
शरीर को त्याग
दिया है, मैंने
कारण का नाश
कर दिया है।
अतः छायाएं
पड़ती हैं, वे
अब नहीं टिक
सकती हैं।
कारण
है अहंकार। और
अहंकार ही
कारण है इस
भाव का कि मैं
शरीर हूं। इसे
भी थोड़ा खयाल
में ले लें।
मैं है
केवल नाम, एक शब्द
जरूरी; लेकिन
बिलकुल
असत्य। और इस
असत्य के पास
अपनी कोई भी
संपदा नहीं है,
कोई आत्मा
नहीं है, आत्मा
का इसे कोई
पता नहीं है।
लेकिन ये नाम,
ये शब्द
थोथे हैं, औपचारिक
उपाय भर हैं।
यह अहंकार भी
तो कहीं अपने
पैर टिकाएगा।
इसको भी तो
कोई जगह चाहिए,
जिस पर यह
खड़ा हो सके।
यह अहंकार
कहां खड़ा हो और
कहां पैर टिकाए?
यह शरीर पर
पैर टिका
देगा। शरीर है
"पदार्थ' यह
उस पर पैर
टिका देता है।
शरीर कभी भी
इंकार नहीं
करता। यह शरीर
पर पैर टिका
देता है और कहता
है, यह मैं
हूं। मैं यानी
मेरा शरीर। और
तब एक अदभुत
जाल निर्मित
होता है--एक
झूठ। शरीर
बहुत वास्तविक
है। एक
वास्तविक चीज
के ऊपर झूठ
खड़ा हो जाता
है।
ध्यान
रहे, झूठ को भी
चलना हो, तो
किसी न किसी
वास्तविकता
का सहारा लेना
जरूरी है, खुद
नहीं चल सकता,
उसके पास
कुछ भी नहीं
है। झूठ का
मतलब ही यह है कि
उसके पास कुछ
भी नहीं है, उसे सहारा
लेना पड़ता है।
इसलिए झूठ बोलनेवाला
हमेशा पूरे
उपाय करता है
आपको समझाने
का, कि मैं
सच बोल रहा
हूं। अगर
भरोसा आ जाए
कि यह झूठ है, तो झूठ वहीं
गिर जाता है।
एमेनुअल
कांट ने बड़ी
कीमत की बात
कही है। उसने
कहा है कि अगर
सारी दुनिया
में सभी लोग
झूठ बोलने
लगें, तो
झूठ बिलकुल
बेकार हो जाए।
झूठ तभी तक
चलता है, जब
तक कुछ लोग सच
बोल रहे हैं, या आशा रहती
है कि कोई न
कोई सच बोलता
है। अगर सभी
लोग तय ही कर
लें कि हम झूठ
ही बोलेंगे, और जो भी
बोलेंगे वह
झूठ ही होगा, तो फिर झूठ
के चलने का
कोई उपाय न रह
जाएगा। पर बड़ी
अड़चनें
होंगी, काम
चलना ही
मुश्किल हो
जाएगा।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक दिन ट्रेन
में सवार हुआ।
जिस धंधे में
वह लगा था, उसी धंधे का
एक दूसरा आदमी
भी उसी डिब्बे
में चलती-भागती
गाड़ी में सवार
हुआ। वह
मुल्ला का प्रतियोगी
था, उसी
धंधे में।
मुल्ला ने मन
में सोचा अगर
मैं इससे पूछूंगा
कि कहां जा
रहे हो, तो
यह जरूर झूठ
बोलेगा। फिर
भी मुल्ला ने
कहा देखें और
पूछा, कहां
जा रहे हो? उस
आदमी ने कहा, दिल्ली जा
रहा हूं।
मुल्ला ने मन
में कहा कि जरूर
कलकत्ता जा
रहा होगा। यह
आदमी विरोधी
है धंधे में, और सिवाय
झूठ के कभी सच
बताता नहीं, जरूर
कलकत्ता जा
रहा होगा; पक्का
है मामला।
लेकिन तभी उसे
खयाल आया कि
गाड़ी तो
दिल्ली जा रही
है।
मुस्कुराया
वह, हंस कर
बोला कि क्यों
झूठ बोलते हो?
दिल्ली जा
रहे हो और झूठ
बोलते हो कि
दिल्ली जा रहे,
ताकि समझूं
कि कलकत्ते
जा रहे हो!
बड़ी
अड़चन हो जाए, यदि सारे
लोग झूठ बोल
रहे हों। तो हिसाब
लगाना
मुश्किल हो
जाए, और
किसी बात का
कोई भरोसा भी
न रहे। दुनिया
चलती है थोड़े
से सच के
सहारे। झूठ भी
चलता है सच के
सहारे।
अहंकार
बिलकुल सरासर
झूठ है, उसका
कोई भी
अस्तित्व
नहीं है। शरीर
का अस्तित्व
है, आत्मा
का अस्तित्व
है; अहंकार
का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
अहंकार मात्र
एक खयाल है।
या तो अहंकार
आत्मा में
अपने पैर गड़ाए
तो चल सकता
है। लेकिन
आत्मा में वह
पैर गड़ा
नहीं सकता; क्योंकि
आत्मा के
प्रकाश
में--वह
क्योंकि अंधकार
है--टिकेगा
नहीं। इसलिए
शरीर के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
अहंकार अपनी
जड़ें शरीर में
डाल देता है।
शरीर के सहारे
अहंकार सच्चा
हो जाता है, वास्तविक हो
जाता है, यथार्थ
हो जाता है।
अहंकार
की प्रतीति है
यह कि मैं
शरीर हूं। यह आपकी
प्रतीति नहीं
है, यह आपके
अहंकार की
प्रतीति है कि
मैं शरीर हूं।
इसलिए जिस दिन
अहंकार छूटता
है, उसी
दिन यह खयाल
भी छूट जाता
है कि मैं
शरीर हूं। तब
तो वही रह
जाता है, जो
आप हैं। वह
शरीर में है, शरीर में
रमा है, बसा
है, शरीर
उसका घर है, देह है, आवास
है, एक पड़ाव,
एक मुकाम
है। अभी है इस
घर में, कल
नहीं होगा। और
बहुत घरों में
रहा, बहुत
घर बदले, और
बहुत घर बदलने
पड़ेंगे। और जब
भी जीर्ण-शीर्ण
हो जाते हैं
वस्त्र, तो
हम फेंक देते
हैं और नए
वस्त्र ग्रहण
कर लेते हैं।
रामकृष्ण
मरने के करीब
थे। उनकी
पत्नी बहुत रोने-पीटने, चिल्लाने
लगी। तो
रामकृष्ण ने
कहा, तू
क्यों घबराती
है? क्योंकि
मैं नहीं मर
रहा हूं; ये
तो वस्त्र
जीर्ण-शीर्ण
हो गए हैं। देखती
है, गले
में कैंसर हो
गया है और यह
शरीर सड़
गया है। अब इस
शरीर में रहना
एक गिरते हुए
घर में रहना
है, जो
किसी भी क्षण
गिर सकता है।
इसलिए छोड़ता
हूं इस
जीर्ण-शीर्ण
देह हो। मैं
नहीं मर रहा
हूं, केवल
वस्त्र बदल
रहा हूं।
शारदा
ने रामकृष्ण
की आंखों में
देखा।
क्योंकि यह जो
आदमी था, यह
कोई सिद्धांत
की बात नहीं
कह रहा था, कोई
शास्त्र पढ़कर
नहीं कह रहा
था कि मैं
आत्मा हूं।
अनुभव से ही
कह रहा था, आंखों
में वह अनुभव
की झलक थी। और
जब भीतर प्रकाश
फूटता है, तो
उसकी झलक
स्वभावतः
आंखों तक आ
जाती है। और मरते
क्षण में रामकृष्ण
ने कहा कि मैं
नहीं मरूंगा,
तू चिंता न
कर, मेरी
कोई मृत्यु
नहीं, सिर्फ
कपड़े बदल रहा
हूं। और ये
कपड़े तो तू भी
कहेगी कि
अकारण हो गए
हैं, बोझ
हो गए हैं, बदल
दें।
और
रामकृष्ण की
मृत्यु हो गई।
और एक ही स्वर
उन आंखों में
देखा, झलक
उस प्रकाश की
जो अहंकार के हट
जाने पर दिखाई
देती है।
लेकिन सभी को
दिखाई पड़ेगी
रामकृष्ण की
आंखों में झलक,
ऐसा जरूरी
नहीं है।
शारदा को
दिखाई पड़ सकी;
क्योंकि
उसका बड़ा गहन
प्रेम था।
उसने रामकृष्ण
पर भरोसा किया
था सदा। वह
भरोसा कारण बन
गया। और
रामकृष्ण जब
कह रहे हैं कि
मैं नहीं मरूंगा,
तो बात खतम
हो गई कि वे
नहीं मरेंगे।
रामकृष्ण
मर गए और
शारदा विधवा न
हुई। सारे प्रियजन, परिचित, सब
इकट्ठा हो गए
और कहा, चूड़ियां फोड़ डालो,
वस्त्र बदल डालो। मगर
शारदा ने कहा,
वे कह कर गए
हैं कि मैं
नहीं मरूंगा,
और वे नहीं
मरे हैं। मैं
अनुभव करती
हूं कि जीर्ण-शीर्ण
देह छूट गई है,
वे हैं।
शारदा अकेली
स्त्री है
भारत में, जो
पति के मरने
पर विधवा न
हुई। वह बहुत
वर्ष जीयी, लेकिन चूड़ियां
हाथ पर रहीं
और उसकी आंखों
में कभी आंसू
दिखाई नहीं
पड़े। और वह
जैसे रोज
रामकृष्ण की
मौजूदगी में
थी, वैसे
ही रही। लोग
तो समझने लगे
कि पागल हो गई
है, क्योंकि
जिस वक्त ठीक
रामकृष्ण के
सोने का समय
होता, उस
वक्त वह मसहरी
भी डालती, उन्हें
सुलाती भी। जब
उनके भोजन का
वक्त होता, तो उन्हें
बुलाने भी आती,
उनका खाना
भी लगाती, थाली
भी लगाती, बैठकर
पंखा भी
चलाती।
एक दफा
विवेकानंद ने
उससे पूछा कि
मां, यह भी मान
लें कि देह
मिट गई, वे
हैं, लेकिन
यहां तो नहीं
हैं? तो
शारदा हंसने
लगी। उसने कहा,
देह की वजह
से यहां और
वहां का सवाल
था। जब देह ही
मिट गई, तो
अब सब जगह
हैं। अब तो
जहां भी देखूं,
उनको देख पा
सकती हूं, जहां
भी उनको
निमंत्रण दे
सकूं, वहीं
से वे निमंत्रित
हैं। देह की
वजह से अड़चन
थी कि वे कहीं होते
थे; अब सब
जगह हैं।
पर
हमारे भीतर भी
अस्तित्व है।
उस अस्तित्व पर
एक भारी पर्दा
है--एक झूठ का
पर्दा। और वह
पर्दा
वास्तविक हो
गया है, शरीर
की सहायता से।
शरीर दुश्मन
नहीं है आपका,
दुश्मन
अहंकार है।
जैसे आपने देखा
न, वृक्षों
पर एक पीले
रंग की बेल
फैल जाती है।
वह बिना जड़ों
की होती है, उसे अमरबेल
कहते हैं।
अहंकार
अमरबेल है।
उसमें कोई जड़
नहीं है।
लेकिन किसी भी
वृक्ष पर अमरबेल
फैल जाती है, तो वृक्ष का
रस चूसने लगती
है; उसी को
चूस कर जीती
है। वृक्ष
धीरे-धीरे
सूखता जाता है
और बेल फैलती
रहती है। और
उसकी कोई जड़
नहीं है!
अहंकार
अमरबेल है। वह
शरीर को पकड़
लेता है; उसी
को चूसने लगता
है और हम शरीर
के खिलाफ हो जाते
हैं। हम सोचते
हैं कि शरीर
हमें दिक्कत
डाल रहा है।
शरीर की वजह
से हमें आत्मा
का पता नहीं
चलता। भूल है
आपकी। शरीर कोई
बाधा नहीं डाल
रहा है। शरीर
तो सिर्फ वाहन
है। आप जहां
ले जाएं--नरक
ले जाएं तो
नरक चला जाएगा,
स्वर्ग ले
जाएं तो
स्वर्ग। आप
मुक्त होना
चाहें, तो
मुक्ति के
द्वार तक आपको
पहुंच देगा।
शरीर तो केवल
साधन है। असली
अड़चन शरीर से
नहीं, अहंकार
से है। लेकिन
दिखाई पड़ती है
शरीर में;क्योंकि
अहंकार की
अमरबेल शरीर
को ग्रस लेती है
और शरीर से रस
पाती है। झूठ
को कोई न कोई
सच्चा सहारा
चाहिए।
"अहंकार
जब तक निकल न
जाए और यात्री
यह न कह सके कि
मैंने
क्षणभंगुर
शरीर का त्याग
कर दिया है'
त्याग
का अर्थ है कि
अब मैं नहीं
मानता हूं कि
यह क्षणभंगुर
शरीर मैं हूं।
त्याग का मतलब
यह न समझना कि
आप शरीर को
छोड़ दें, कि
शरीर से अलग
हो जाएं। यह
बोध कि मैं
शरीर नहीं हूं,
त्याग हो
गया। यह
प्रतीति कि
मैं शरीर नहीं
हूं, त्याग
हो गया।
"मैंने
कारण का नाश
कर दिया है।’
कारण
है अहंकार।
"अतः
जो छायाएं पड़ती
हैं, वे अब
नहीं टिक
सकतीं।
क्योंकि अब
उच्चस्थ और निम्नस्थ
आत्मा के बीच
महायुद्ध
आरंभ हो गया है।
इस महायुद्ध
में समस्त
रण-क्षेत्र
समा गया है।
वह मानो है ही
नहीं।’
यहां
एक बहुत
विचारणीय बात
है, और जटिल
भी। इस जगत
में प्रत्येक
चीज द्वंद्व में
है। इस जगत
में प्रत्येक
चीज अपने
विपरीत के साथ
है। होने का
यही उपाय है।
जन्म है
मृत्यु के
साथ। हम कितना
ही चाहें कि
जन्म हो और
मृत्यु न हो, यह हो नहीं
सकता। जन्म एक
छोर है उसी
चीज का, मृत्यु
दूसरा छोर है
उसी चीज का।
कोई उपाय नहीं
है इस द्वंद्व
में से एक को
बचाने का, और
दूसरे को
समाप्त करने
का।
अब तो
वैज्ञानिक भी
कहते हैं कि
हर चीज की विपरीत
चीज अनिवार्य
है। और वे तो
यहां तक गए
हैं कि बहुत न
समझ में
आनेवाली
बातें
विज्ञान को खयाल
में आने लगी
हैं। अभी एक
विचारक ने
प्रस्तावना
की है कि समय
बढ़ता है आगे
की तरफ; अतीत
जाता है, वर्तमान
आता है; वर्तमान
जाता है, भविष्य
आता है। यह
समय अगर है, तो इसके
विपरीत समय भी
होना चाहिए।
नहीं तो यह
नहीं हो सकता।
इसका दूसरा
छोर होना
चाहिए, रिवर्स
टाइम--जहां
पहले भविष्य
होता हो, फिर
वर्तमान होता
हो, फिर
अतीत होता
हो।
इससे उल्टी
कोई धारा होनी
चाहिए। हमें
पता न हो, लेकिन
जरूर कोई
उल्टी धारा
होनी चाहिए।
उस उल्टी धारा
के बिना यह
समय न हो
सकेगा।
पदार्थ
है, तो भौतिक
विज्ञान फिजिक्स
का नया
सिद्धांत है
कि एंटी-मैटर,
विपरीत
पदार्थ भी
होना चाहिए।
क्या होगा विपरीत
पदार्थ? बड़ा
कठिन है।
लेकिन एक बात
खयाल में लेनी
जरूरी है कि
विज्ञान भी इस
बात को स्वीकार
कर रहा है कि
जगत में किसी
भी चीज में एक
ध्रुव नहीं हो
सकता। दो
ध्रुव
अनिवार्य
हैं। जैसे हम
सोचें, पुरुष
ही पुरुष हों
जगत में, स्त्रियां
न हों, यह
हो नहीं सकता।
हम सोचें, स्त्रियां
हों, पुरुष
न हों जगत में,
यह हो नहीं
सकता। यह पोलर
अपोजिट
हैं। ये दो
ध्रुव हैं। और
ये दोनों एक
साथ ही हो
सकते हैं, जैसे
ऋण और धन
विद्युत एक
साथ हो सकती
हैं।
लाओत्से
ने चीन में
हजारों साल
पहले जो विचार
प्रस्तुत
किया था, वह
बहुत ठीक-ठीक
विकसित होता
चला गया है।
और अनेक-अनेक
आयामों में
सही सिद्ध हुआ
है। चीन में
वे कहते हैं
"यिन' और "यांग'।
"यिन' है
स्त्री का नाम
और "यांग'
है पुरुष का
नाम। या "चिन'
को हम कहें
निषेध, और "यांग' को
हम कहें
विधेय। या
"यिन' को हम
कहें पृथ्वी
और "यांग'
को हम कहें
स्वर्ग--कोई
भी दो। लेकिन
"यिन' और "यांग' दो
से अस्तित्व
बना है। और एक
के होते ही हम
शून्य में
विलीन हो जाते
हैं। एक का
कोई अस्तित्व
नहीं होता।
ब्रह्म
इसलिए शून्य
है, वह अकेला
है। जैसे ही
हम दो से हटे
कि हम ब्रह्म
में लीन हो
जाते हैं। वह
है, लेकिन शून्यवत।
उसके होने को पदार्थवत
नहीं कहा जा
सकता। जब तक
हम हैं पदार्थ
में, तब तक
विपरीत होगा।
तो अगर आपके
भीतर आत्मा है,
तो आपके
भीतर विपरीत
आत्मा जैसी
चीज भी होगी; नहीं तो
आत्मा नहीं हो
सकती। अगर
आपके भीतर उच्चाशय
है, तो निम्नाशय
भी होगा। और
आपके भीतर अगर
श्रेष्ठ है, तो निकृष्ट
भी होगा। और
आपके भीतर अगर
स्वर्ग की तरफ
उड़ान की
कामना है, तो
नर्क की तरफ
जानेवाली
जड़ें भी
होंगी। आप एक
कुरुक्षेत्र
हैं; उसमें
आपके भीतर
पांडव भी
होंगे और कौरव
भी होंगे। आप
हो ही नहीं
सकते इस
द्वंद्व के
बिना।
जैसे
राज मकान
बनाता है, दरवाजे
उठाता है, तो
गोल दरवाजे
बनाता है, विपरीत
ईंटों को लगा
देता है।
विपरीत ईंटें
एक-दूसरे से
टकरा जाती
हैं। तो उनकी
टकराहट से ही
मंडल निर्मित
हो जाता है
शक्ति का। उस
शक्ति पर बड़ा
भवन खड़ा हो
जाता है। वह
भवन गिरेगा नहीं,
क्योंकि वह
बीच में
विपरीत ईंटें
जो नीचे लगी
हैं, वे
एक-दूसरे से
टकरा कर शक्ति
का एक वर्तुल
निर्मित कर
रही हैं। बड़ा
भवन उस पर टिका
रहेगा। वही
विरोध उस बड़े
भवन का आधार
है।
आपके
भीतर भी एक
विरोध है। उस
विरोध के कारण
ही आप संसार
में हैं।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं, जिस दिन
विरोध नहीं
होगा, उस
दिन तुम मुझसे
यह मत पूछो कि
आत्मा, तुम्हारी
आत्मा मोक्ष
में होगी कि
नहीं होगी।
मैं तुमसे
कहता हूं, नहीं
होगी; क्योंकि
तुम्हारी
आत्मा को होने
के लिए भी द्वंद्व
अनिवार्य है। निद्वंद्व
अवस्था में
होने का कोई
अर्थ नहीं है,
न-होने का
कोई अर्थ नहीं
है। दोनों
बातें व्यर्थ
हैं। इसलिए
बुद्ध ने
निर्वाण शब्द
चुना। निर्वाण
का अर्थ होता
है, दीए का
बुझ जाना।
द्वंद्व ही खो
गया, तो
तुम भी खो
जाओगे। जैसे
कोई दरवाजे
में लगी इट यह
पूछे कि अगर
यह विपरीत जो
विरोध हम ईंटों
में है, अगर
यह न रहे तो
दरवाजा होगा
कि नहीं होगा?
द्वंद्व
गया, दरवाजा
गया। आकाश
बचेगा, जो
दरवाजे में था;
दरवाजा
नहीं बचेगा।
आपके भीतर जो
एक है, वह
बचेगा; जो
दो की वजह से
दिखाई पड़ता था,
वह खो
जाएगा। उस एक
का आपको कोई
पता नहीं। आपको
इन दो का जरूर
पता है। आपके
भीतर कोई
निरंतर ऊंची
आवाज मालूम
पड़ती है। चोरी
करने जाते हैं,
कोई भीतर
शंकित होने
लगता है।
हत्या करने
जाते हैं, भीतर
द्वंद्व खड़ा
हो जाता है।
दान देने जाते
हैं, तो भी
एक नीचे की
आवाज है, जो
रोकने लगती है
कि ठहरो अभी।
मैंने
सुना है कि मार्कट्वेन
एक बार एक
चर्च में गया।
वह जो चर्च का
पुरोहित था, बोल रहा था।
वाणी उसकी
मधुर थी, शब्द
उसके प्यारे
थे, बड़ा
काव्य था, और
धर्म की बड़ी
सरल उसकी
व्याख्या थी। मार्कट्वेन
बड़ा प्रभावित
हो गया। उसने
खीसे में हाथ
डालकर सोचा कि
दस डालर दान
कर दूं। डालर
खीसे में थे।
लेकिन दस मिनट
व्याख्यान और
आगे चला, तो
मार्कट्वेन
ने सोचा, दस
भी देने की
क्या जरूरत है,
पांच से भी
काम चल सकता
है और फिर अभी
किसी को बताया
भी तो नहीं है
कि दस देना है,
तो कोई
अपराध भी नहीं
कर रहे हैं।
पांच से ही काम
चल जाएगा। और
व्याख्यान
लंबा चला, तो
ढ़ाई-दो पर
उतरता गया मार्कट्वेन।
और उसने लिखा
है, जब
मेरे सामने
बर्तन आया दान
का, तो
मेरी तबीयत
हुई कि
एकाध-दो डालर
इसमें से उठा
लूं। तब तक
मैं वहां
पहुंच चुका
था। किसी तरह
अपने को रोक
कर भागा कि
कहीं उठा ही न
लूं! देने की
तो बात ही खतम
हो गई।
वह जो
आपके भीतर जब
भी शुभ करने
का कुछ होता
है, तो एक
विपरीत शक्ति
बोलती है। जब
अशुभ करने का
होता है, तब
भी एक विपरीत
शक्ति बोलती
है। ये दो
आपके भीतर
आवाजें हैं।
इन आवाजों
को जो ठीक से
पहचानने लगता
है, उसे
अपने भीतर का
द्वंद्व और
युद्धक्षेत्र
स्पष्ट हो
जाता है। और
जैसे ही
व्यक्ति अपने
अहंकार को
छोड़ता है, अनुभव
करता है कि
मैं शरीर नहीं
हूं, वैसे
ही यह युद्ध
स्पष्ट होता
है। तब एक नए
तल पर उसे दिखाई
पड़ता है कि
मेरा होना ही
दो में विभाजन
है। कुछ है
मेरे भीतर जो
नीचे की तरफ
जा रहा है, और
कुछ है मेरे
भीतर जो ऊपर
की तरफ जा रहा
है। और उन
दोनों के
खिंचाव के
मध्य में "मैं'
हूं। और उन
दोनों के
खिंचाव की वजह
से मेरा संताप
है; मेरी
चिंता, दुख,
पीड़ा।
"इस
महायुद्ध में
समस्त
रण-क्षेत्र
समा गया है।
वह मानो है ही
नहीं।’
रणक्षेत्र
नहीं बचा है, सिर्फ
सेनाएं छा गई
हैं दोनों
तरफ। पर ये
आपको दिखाई
नहीं पड़ेगा, क्योंकि आप
तो शरीर में
इतने उलझे हुए
हैं कि आपको
यह पता चलना
भी मुश्किल है
कि शरीर के पीछे
छिपी आत्मा के
अस्तित्व में
क्या घटित हो
रहा है। आप तो
शरीर के तल पर
लगे हैं। वहीं
आपका संघर्ष
संसार में चल
रहा है; किसी
से धन के लिए, किसी से पद
के लिए।
भीतर
का संघर्ष तो
उन्हीं को पता
चलता है, जो
शरीर से हटते
हैं, आंख
उठाते हैं
भीतर को, देखते
हैं कि बाहर
भी संघर्ष है,
भीतर भी
संघर्ष है।
बाहर का
संघर्ष तो
बहुत क्षुद्र
है, भीतर
का संघर्ष
बहुत विराट
है। वह शाश्वत
युद्ध है, जहां
दो शक्तियां
आपको खींच रही
हैं--एक ऊपर की
तरफ, एक
नीचे की तरफ।
और जब आप ऊपर
की तरफ जाना
चाहते हैं, तो नीचे की
तरफ संतुलन
बनाने के लिए
आपको फौरन
खिंचाव शुरू
हो जाता है।
यह
बहुत मजे की
बात है, जब
तक आप ऊपर की
तरफ नहीं जाना
चाहते हैं तब
तक नीचे का
खिंचाव
ज्यादा नहीं
होता। जिस दिन
आप संत होना
चाहेंगे, उस
दिन आपको पता
चलेगा कि आपके
भीतर का शैतान
बहुत प्रबल
है। जब तक संत
नहीं होना है,
तब तक शैतान
का पता नहीं
चलेगा।
क्योंकि इसकी
कोई जरूरत
नहीं है। शैतान
को चुनौती तो
तब मिलती है, जब आप संत
होने की कोशिश
करते हैं। तब
आपको पता चलता
है कि कितनी
शैतानी भीतर
छिपी है।
कथाएं
हैं बौद्ध कि
बुद्ध जब ठीक
अपने भीतर प्रवेश
करने लगे, तो मार ने, काम ने उनके
ऊपर हमला
किया। जीसस जब
परमज्ञान
के निकट
पहुंचने लगे,
तब की घटना
है, कि
शैतान उन्हें
बहुत प्रलोभन
देने लगा। और
जीसस को कहना
पड़ा कि शैतान
हट, तेरे
प्रलोभन मेरे
लिए निरर्थक
हैं। हमें बहुत
हैरानी होती
है कि कुछ वहम
हो गया होगा
कि शैतान कहां
है? कौन
जीसस के पीछे
खड़ा होगा? खुद
का
ही कोई
वहम हो गया
होगा। बुद्ध
को कौन मार
हमला करने आता
है? कौन
कामदेव बाण
लेकर खड़ा है? खुद का ही
कोई वहम हो
गया होगा।
जहां
हम हैं, वहां
ऐसा सोचना
स्वाभाविक है;
क्योंकि
हमें भीतर के
युद्ध का कोई
भी पता नहीं, भीतर के
तनाव का कोई
पता नहीं। वह
तो उन्हीं को
पता चलता है, जो उस भीतर
के तनाव में
एक दिशा को पकड़ना
शुरू करते हैं,
दूसरी दिशा
तत्काल बलवती
हो जाती है।
अगर आप
जमीन पर लेटे
हुए हैं, तो
आपको थकान का
पता नहीं
चलता। इसलिए
रात हम लेट
जाते हैं, लेटने
से थकान मिट
जाती है।
क्यों? आपको
पता है, लेटने
में होता क्या
है? लेटने
का मतलब है कि
जमीन के
गुरुत्वाकर्षण
से दिन भर
आपका जो
संघर्ष चल रहा
था, वह
आपने छोड़ दिया;
अब आप लड़
नहीं रहे हैं।
अब आप जमीन पर
लेट गए हैं, गुरुत्वाकर्षण
से अब आप
दुश्मनी नहीं
कर रहे हैं।
जब आप खड़े हैं,
तब आप जमीन
से लड़ रहे
हैं। जमीन
नीचे खींच रही
है, आप खड़े
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
आपको
पता है, कमर
का दर्द सिर्फ
आदमी की जाति
में होता है, जानवरों में
कहीं नहीं
होता। सीधे
खड़े होने का
उपद्रव है कमर
का दर्द।
जो लोग
शरीर को अनुभव
करते हैं, जैसे
शरीर-शास्त्री
हैं वे कहते
हैं, आदमी
की रीढ़ अभी तक
पूरी सीधी
नहीं हो पाई; जमीन उसको
खींचती है। और
इसलिए अगर योग
में रीढ़ को
सीधा करने के
बड़े उपाय किए
हैं, तो
उसके पीछे
कारण है। वह
संघर्ष है
नीचे के गुरुत्वाकर्षण
से। जब आप रात
लेट जाते हैं,
संघर्ष
आपने छोड़ दिया,
फिर कोई
थकान नहीं
आती। और कोई
आदमी दौड़ता
रहा हो दिन भर,
और वह कहे
कि मैं बिलकुल
थका हूं। और
आप सदा लेटे
रहे हों, तो
आप कहेंगे कि
वहम में पड़ गए
हो, थकने का कोई सवाल
ही नहीं, हम
भी तो हैं।
बुद्ध
और महावीर खड़े
होकर चल रहे
हैं भीतर की दुनिया
में; हम वहां
लेटे हुए हैं।
वे थकते हैं, उन्हें
विपरीत का
अनुभव हो रहा
है। जीसस जब
भगवान होने
लगते हैं, तब
तत्क्षण
शैतान का
अनुभव होता
है। शैतान का मतलब
यह है कि खुद
के ही भीतर की
नीचे की ताकत
भी आखिरी उपाय
करती है कि
कहां जाते हो?
और यह
द्वंद्व भी तब
तक नहीं मिटता,
जब तक कोई
ऊपर जाना
चाहता है, तब
तक नीचे का
खिंचाव जारी
रहता है।
इसलिए हमारे
पास तीन शब्द
हैं। एक शब्द
है "स्वर्ग', वह ऊपर की
दिशा का सूचक
है--उच्चस्थ
आत्मा जहां
जाना चाहती है,
जैसी होना
चाहती है।
दूसरा शब्द है
हमारे पास "नरक',
वह
निम्नस्थ
आत्मा की
तीर्थ-यात्रा
का सूचक है--जहां
हमारी नीचे की
वृत्तियां
जाना चाहती
हैं। एक और
शब्द है हमारे
पास "मोक्ष'--उस अवस्था
का सूचक है, जहां हम न
ऊपर जाना
चाहते हैं, जहां न नीचे
जाना चाहते
हैं; हम
कहीं जाना ही
नहीं चाहते।
उस मध्य के
बिंदु पर
छुटकारा है।
मुसलमान
फकीर औरत थी राबिया।
एक दिन लोगों
ने बाजार में
देखा, एक
हाथ में आग लिए
है, लपटें
हैं, मशाल
है; और एक
हाथ में ठंडे
पानी की मटकी
लिए, राबिया भागी चली जा
रही है। लोगों
ने पूछा, राबिया, क्या कर रही
हो? दिमाग
तो खराब नहीं
हो गया? और
जा कहां रही
हो? तो राबिया
ने कहा कि
तुम्हारे नरक
को बुझाने और
तुम्हारे
स्वर्ग को
जलाने।
या तो तुम
नीचे जाते हो
या तुम ऊपर
जाते हो, लेकिन
तुम जाते जरूर
हो। उसी में
कलह है और उसी
में संघर्ष
है। लेकिन
ध्यान रहे
मध्य में कोई
एकदम से जा भी
नहीं सकता।
ऊपर जाए, तो
नीचे
जानेवाली
शक्तियों का
अनुभव होना शुरू
होता है। और
जब ऊपर और
नीचे जाने का
तनाव पूरा
होता है और
कोई तनाव का
आगे उपाय नहीं
रह जाता, जब
तार बिलकुल
पूरे खिंच
जाते हैं अपनी
आत्यंतिक
स्थिति में, तभी आप को, अपने आंतरिक
जीवन का जो
ढांचा है, उसकी
पूरी प्रतीति
होती है कि वह
नरक और स्वर्ग
दोनों से
मिलकर बना है।
तभी आपको
प्रतीति होती
है कि वह भीतर
शैतान और
भगवान दोनों
एक साथ खड़े
हैं। इन दोनों
की पूरी जो एक
साथ प्रतीति
है, उस
प्रतीति के
बाद ही दोनों
से छुटकारा हो
सकता है।
दोनों से
छुटकारा ही
वस्तुतः
भगवत्ता में
प्रवेश है, वस्तुतः
ब्रह्म में
प्रवेश है।
यह
सूत्र कहता
है: लेकिन जब
एक बार तू
धैर्य के द्वार
को पार कर
जाता है, तब
तीसरा चरण भी
उठ जाता है।
तेरा शरीर
तेरा सेवक है।
और अब चौथे
चरण की तैयारी
कर। यह लोभ का
द्वार है, जो
अंतरस्थ
मनुष्य को फांसता
है।
चौथा
द्वार है
विराग, और
इसे सूत्र कह
रहा है कि यह
द्वार लोभ से
बहुत गहन रूप
से संबंधित
है। हैरानी
होगी यहां!
विराग का लोभ
से क्या संबंध?
उलटे मालूम
पड़ते हैं।
कहीं कोई भूल
तो नहीं हो गई
सूत्र में।
विराग का
द्वार लोभ का
द्वार क्यों
है?
विराग
का द्वार लोभ
का द्वार है, भूल जरा भी
नहीं है।
लेकिन जरा
जटिल और सूम
है बात। संसार
से विरक्त हो
गया मन; संसार
की व्यर्थता जान
ली, सब देख
लिया, कहीं
कुछ पाया नहीं;
राख ही हाथ
में आई, हाथ
खाली के खाली
रहे, कुछ
भर न सका, मन
का भिक्षापात्र
खाली रहा; कोई
वासना, कोई
कामना, कोई
मांग पूरी न
हुई। उल्टे
जितना मांगा,
उतने दुख आए;
जितना चाहा,
उतनी पीड़ा
मिली; जितने
दौड़े उतने
भटके; यात्रा
बहुत की, मंजिल
कोई न मिली।
ऐसा सारा
अनुभव विराग
ले आता है। यह
द्वार है
विराग का।
संसार व्यर्थ
हो गया।
लेकिन
ध्यान रहे, संसार के
व्यर्थ हो
जाने से जरूरी
नहीं कि लोभ
व्यर्थ हो गया
हो। लोभ नया
रूप भी ले
सकता है। विरागी
के भी लोभ हो
सकते हैं।
इसलिए विराग
के द्वार पर
एक तरफ संसार
का लोभ छूट
गया, अब
कहीं परलोक का
लोभ न पकड़ ले!
इसलिए विराग
के द्वार लोभ
से बहुत सचेत
होना जरूरी
है। देखें चारों
तरफ दिखाई पड़
जाएगी, यह
बात सच है।
पूछें किसी
तपस्वी को, किसलिए तप कर रहे हो?
फौरन लोभ का
पता चल जाएगा।
कहता है कि
मुझे शाश्वत
आत्मा चाहिए,
कि मुझे
स्वर्ग चाहिए,
कि मुझे परम
आनंद चाहिए, कुछ चाहिए
या मुझे
परमात्मा
चाहिए, कुछ
चाहिए। चाह, चाहे धन की
हो, चाहे
धर्म की, चाह
तो चाह है।
लोभ तो
लोभ है; लोभ
का विषय क्या
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लोभ की
वृत्ति तो वही
है। कल तक मैं
चाहता था, यहां
पद मिले; अब
मैं कहता हूं
परम-पद मिले, मुझे
परमात्मा
चाहिए। कल तक
मैं कहता था
कि यहां धन
मिले, लेकिन
मैंने पाया कि
यहां का धन तो
क्षणभंगुर है;
अब मैं कहता
हूं मुझे ऐसा
धन मिले जो
शाश्वत हो। यह
लोभ घटा या
बढ़ा?
संसारी
का लोभ बड़ा
छोटा होता है, कौड़ियों से भर जाता
है। सरल लोभ
है, जटिल
नहीं है। साधु
का लोभ जटिल
है, कौड़ियों से नहीं
भरता। वह कहता
है, ये कौड़ियां
हैं, इनको
इकट्ठा करके
मैं क्या
करूंगा? इकट्ठा
वह भी करना
चाहता है, लेकिन
कौड़ियां
इकट्ठी नहीं
करना चाहता!
कोई हीरे
मिलते हों, तो इकट्ठे
करे। लेकिन इसमें
लोभी कौन बड़ा
है? जो कौड़ियां
इकट्ठी कर रहा
है वह? या
जो इसलिए कौड़ियां
छोड़ रहा है कि कौड़ियां
हैं, मुझे
हीरे चाहिए वह?
यह लोभ
नया हो गया और
इसने नया आयाम
ले लिया।
अगर हम
शास्त्रों को
देखें, तो
सौ में से
निन्यानबे
शास्त्र लोभ
के शास्त्र
हैं। इनमें
लोभ भरा पड़ा
है; लोभ
आध्यात्मिक
है। लेकिन
क्या
आध्यात्मिक लोभ
हो सकता है? क्या लोभ भी
आध्यात्मिक
हो सकता है? लोभ ही तो
संसार है।
लेकिन धोखा है;
क्योंकि हम
पदार्थ बदल
लेते हैं। जो
आदमी धन मांगता
है, हम उसे
कहते हैं, क्या
क्षुद्र मांग
रहे हो! जो
कहता है, मुझे
तो परमात्मा
तू ही
चाहिए--इसको
हम कहते हैं, देखो, धन
नहीं मांगता,
परमात्मा
को ही मांगता
है। संतों की,
तथाकथित
बहुत संतों की
कथाएं हैं कि
वे परमात्मा
के सामने खड़े
हो कर धन नहीं
मांगते, पद
नहीं मांगते,
स्वास्थ्य
नहीं मांगते;
वे कहते हैं,
हमें तो तू
ही चाहिए।
लेकिन मांगते
हैं। यह लोभ
छोटा हुआ या
बड़ा हुआ? और
ये ज्यादा
कुशल और चालाक
लोग हैं; क्योंकि
वे परमात्मा
को मांग रहे
हैं, बाकी
सब तो उसके
पीछे मिल ही
जाएगा। उस
बाकी के लिए
क्या मांगना?
मैंने
सुना है कि एक
सम्राट
यात्रा पर गया
था। और जब वह
वापिस लौट रहा
था युद्ध जीत
कर, बहुत धन लूटकर, तो
उसने अपनी
सारी रानियों
को खबर भिजवाई,
तुम क्या
चाहती हो? तो
किसी रानी ने
कहा कि
कोहिनूर लेते
आना, किसी
रानी ने कहा
यह ले आना, वह
ले आना। हजार
चीजें थी
दुनिया की; जिसकी जो
वासना थी।
लेकिन एक रानी
ने कहा कि मैं
तो सिर्फ
तुम्हें ही चाहती
हूं। सम्राट
अपने साथ एक
फकीर को ले
गया था, उससे
वह कभी-कभी
सलाह लेता था।
उसने फकीर को
कहा कि रानी
तो यह है एक
सच्ची, जिसने
कुछ भी न
मांगा। वह
फकीर हंसने
लगा। उसने कहा
कि इसकी तरकीब
हमसे पूछो। यह
रानी हम जैसी
है, यह
होशियार है।
बाकी सबने
व्यर्थ की
चीजें मांगीं,
इसने तुमको
ही मांगा है।
और बाकी सब जो
तुम लूट कर ला
रहे हो, वह
तुम्हारे साथ
अपने आप आ
जाता है। उसकी
कोई बात नहीं
है।
फकीर
ने कहा, यह
रानी हम जैसी
है, इसका
गणित हमसे
समझो। हम
परमात्मा को
ही मांगते हैं,
हम और संसार
वगैरह नहीं
मांगते हैं।
सब संसार उसके
हैं और वही
मिल गया, तो
फिर पाने को
कुछ बचता नहीं
है। लेकिन लोभ
बदलता नहीं है,
लोभ के विषय
बदल जाते हैं।
विराग
के द्वार पर
सचेत होना
जरूरी है, कि संसार ही
न छूटे, लोभ
भी छूट जाए।
नहीं तो विराग
का द्वार नए
लोभ की शुरुआत,
नए संसार का
जन्म बन जाता
है। तब उसकी
चिंता पकड़
लेती है। कोई
आदमी रात भर
नहीं सोया; क्योंकि धन
नहीं मिला, जितना चाहिए
था। कोई आदमी
रात भर नहीं
सोया; क्योंकि
अभी तक भगवान
के दर्शन नहीं
हुए। पर फर्क
क्या है? चिंता
तो दोनों को
पकड़ लेती है, दुख दोनों
को पकड़ लेता
है। रोते
दोनों हैं, तड़पते दोनों हैं।
फर्क क्या है?
आदमी वही का
वही है, सिर्फ
दिशा बदल ली
लोभ की। अब यह
जो लोभ है वह ज्यादा
सूम, ज्यादा
खतरनाक है।
मात्रा इसकी
बहुत बारीक है,
लेकिन यह
रोएं-रोएं में
बिंध
जाएगी।
वास्तविक
संन्यासी वह
नहीं है, जो
संसार का लोभ
छोड़ कर मोक्ष
का लोभ करने
लगता है।
वास्तविक
संन्यासी वह
है, जो लोभ
की व्यर्थता
समझ लेता और
लोभ नहीं करता
है। जो यह भी
लोभ नहीं करता
कि ध्यान
मिलना चाहिए।
जो यह भी लोभ
नहीं करता कि
आनंद मिलना चाहिए।
क्योंकि जहां
तक चाहिए लगा
है, वहां
तक कुछ मिलेगा
भी नहीं। चाह
ही तो उपद्रव
है। हम उसी को जोड़ते चले
जाते हैं
नई-नई चीजों
से; लेकिन
उसको साथ रखते
हैं। और जब
कुछ भी नहीं चाहिए,
तब कोई दुख
नहीं है।
इसलिए बुद्ध
ने तो आनंद शब्द
का उपयोग करने
से अपने को
रोका है।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा है कि आप
कभी नहीं कहते
हैं आनंद की
कुछ बात। तो
बुद्ध ने कहा, तुम्हारे
लोभ को जगाने
की मेरी इच्छा
नहीं; मैं
कहूं आनंद, तुम समझोगे
सुख। क्योंकि
तुम सुख ही
जानते हो। तो
मैं तुम से
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कह सकता
हूं कि वहां
दुख न होगा।
आनंद होगा, यह मैं तुम
से नहीं कह
सकता।
तुम्हारे लोभ
का डर है।
इतना ही कह
सकता हूं कि
वहां दुख न
होगा। इसलिए
बुद्ध ने
मोक्ष की
परिभाषा की है
"दुख-निरोध', आनंद की
उपलब्धि
नहीं।
स्वभावतः
बुद्ध को माननेवाले
बहुत लोग नहीं
मिल सके इस
मुल्क में। आज
तो बुद्ध का
भिक्षु खोजना
मुश्किल है।
लेकिन
शंकर को
हजारों
संन्यासी मिल
सके। और आज तो
सारे
संन्यासी करीब-करीब
शंकर के हो गए
हैं। क्या बात
होगी? और
बात वही कह
रहे हैं, बुद्ध
भी और शंकर
भी। शंकर के
जो विरोधी हैं,
रामानुज और
दूसरे, वे
तो कहते हैं, शंकर भी
छिपा हुआ
बौद्ध है, प्रच्छन्न
बौद्ध है। यह
आदमी हिंदू है
ही नहीं, यह
छिपा हुआ
बौद्ध है; सिर्फ
हिंदू शब्दों में
बौद्ध धर्म की
बातें कर रहा
है। उनकी बात में
सच्चाई है; क्योंकि
शंकर वही कह
रहे हैं, जो
बुद्ध ने कहा।
लेकिन एक फर्क
है। और बुद्ध जहां
कहते हैं
दुख-निरोध, वहां शंकर
कहते हैं परम
आनंद। हमारे
लोभ को शंकर
के साथ सुविधा
है, बुद्ध
के साथ सुविधा
नहीं है।
बुद्ध कहते
हैं दुख-निरोध,
समझ में आ
जाता है ठीक
है; लेकिन
सिर्फ
दुख-निरोध!
इतना उपद्रव,
और इतनी
चेष्टा, इतनी
साधना, इतने
पहाड़ दुर्गम
पार करने और
सिर्फ
दुख-निरोध! बस
कांटा निकल
जाएगा और कुछ
भी नहीं! तो
मन यहीं टूट
जाता है, हम
बैठ जाते हैं,
कोई लोभ
नहीं खींचता।
लेकिन
बुद्ध इस चौथे
द्वार का खयाल
रखकर कह रहे
हैं
दुख-निरोध।
नहीं तो चौथे
द्वार पर जब
संसार से
विराग होगा, तब परमात्मा
से राग हो
जाएगा। संसार
से विराग होगा,
मोक्ष से
राग हो जाएगा।
और तब हम फिर
घूमकर भीतर के
संसार में लौट
आएंगे। यह
रास्ता
पर्वतीय है और
घुमावदार है।
और इसमें कहीं
से भी आप नए
चक्कर निर्मित
कर ले सकते
हैं, और
शिखर पर
पहुंचने से
रुक सकते हैं।
इसलिए
बहुत सोचकर
कहा है सूत्र
में कि विराग
का चौथा द्वार
लोभ का द्वार
है, जो
अंतरस्थ
मनुष्य को फांसता
है।
अंतरस्थ
मनुष्य को फांसता
है।
दो तरह
के मनुष्य हैं।
बहिर्मुखी
मनुष्य, एकसट्रोवर्ट,
जुंग ने
जिनको कहा है,
उनको संसार फांसता
है। अंतरस्थ,
इंट्रोवर्ट,
अंतर्मुखी
मनुष्य जिनको
जुंग ने कहा
है, उनको
यह भीतर का
लोभ, आनंद,
शांति , मोक्ष,
ब्रह्म, ये
फांस लेते
हैं। अंतरस्थ
मनुष्य को
फांस लेता है
चौथे द्वार पर
लोभ। "इसके
पहले कि तू
गंतव्य के
निकट पहुंचे,
इसके पहले
कि तेरे हाथ
चौथे द्वार की
सांकल को
उठाने के लिए उठें, तुझे
अपनी आत्मा के
उन सभी मानसिक
परिवर्तनों
को पराभूत
करना और
विचार-वृत्तियों
का हनन करना
है, जो सूम
और कपटपूर्ण
ढंग से आत्मा
के ज्योतित मंदिर
में बिना पूछे
घुस जाते हैं।’
इस
चौथे द्वार पर
हाथ लगाने के
पहले, मन
में उन सारी
चीजों को ठीक
से समझ लेना
है, जो
तरकीब से, कपटपूर्ण
ढंग से इस
मंदिर में
प्रवेश करना
चाहेंगे। लोभ
नए नाम ले
लेगा, वासनाएं
नए वस्त्र पहन
लेंगी और आपके
साथ मंदिर में
घुस जाना
चाहेंगी। लेकिन
उनके साथ
मंदिर एकदम
तिरोहित हो
जाएगा। आप फिर
दूसरे घर में
प्रवेश कर गए,
जो आपका ही
बनाया हुआ है।
मंदिर में
प्रवेश तो उसी
का होता है, जो मन को
बाहर ही छोड़
जाता है। अगर
आप मन को मंदिर
के द्वार पर
नहीं रख गए, तो आप मंदिर
में कभी
प्रविष्ट
नहीं होते
हैं। ऐसे आप
जा-आ सकते हैं,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। और मन
सूम रास्ते खोजता
है। सूम
रास्ते मन के
बड़े जटिल हैं
और पकड़ में
नहीं आते। अगर
कोई आपसे कहे
कि अहंकार छोड़
दो, तो आप
अहंकार छोड़ने
लगते हैं और
विनम्रता पकड़ने
लगते हैं। और
एक दिन ऐसा आ
जाता है कि आप
कहते हैं कि इस
पृथ्वी पर
मुझसे ज्यादा
विनम्र कोई भी
नहीं है।
अहंकार पीछे
से आ गया
वापिस।
सुना
है मैंने, जंगल में
रहनेवाले एक
तपस्वी
संन्यासी के
पास एक
व्यक्ति गया
और उसने कहा
कि "हैं
संन्यासी तो
आप, कितनी
भीड़-भाड़ से
दूर जंगल में
आ गए! और मैंने
सुना है कि आप
किसी को शिष्य
भी नहीं
बनाते। आपको
कोई शिष्यों
का मोह नहीं
है। सुना है
मैंने, आप
कोई
प्रसिद्धि की
आकांक्षा भी
नहीं रखते हैं,
कोई यश की
कामना भी नहीं
करते। और भी
मैंने संन्यासी
देखे हैं।’ दो-चार
संन्यासी की
उसने बात कही।
और वह जो त्यागी
पुरुष था, उसकी
रीढ़ सीधी हो
गई, उसकी
आंखों में चमक
आ गई, चेहरे
पर रौनक आ गई।
उसने कहा कि
बिलकुल ठीक कहते
हो। अरे, वे
भी कोई
संन्यासी हैं,
जो यश चाहते
हैं, पद-प्रतिष्ठा
चाहते हैं! एक
मुझको देखो, जो एकांत
जंगल में बैठा
हूं। न पद की
कोई आकांक्षा
है, न यश की
कोई आकांक्षा
है; कोई आए
तो ठीक, कोई
न आए तो ठीक।
अब यह
आदमी सूम
रास्ते से
वापस लौट गया।
इसे भी इसने
पद बना लिया
कि इधर मैं
बैठा हूं
अकेले में। इस
ऊंचाई पर कोई
भी नहीं बैठा
है, जहां मैं
बैठा
हूं--भीड़-भाड़
से दूर। कोई
इच्छा ही नहीं
है कि कोई
मेरे संबंध
में जाने।
लेकिन भीतर यह
इच्छा जरूर होगी
कि लोग जानें
कि मेरी कोई
इच्छा नहीं है,
कि कोई मेरे
संबंध में
जाने। यह सूम
है और घूम कर
वर्तुलाकार
आदमी को वापस
वहां खड़ा
कर
देती है।
"यदि
तुझे उनके
हाथों नहीं
मरना है, तो
तुझे अपने सृजनों
को, अपने
विचारों की
संतानों को
निर्दोष
बनाना है, जो
अदृश्य और अजाने
ढंग से
मनुष्य-मात्र
के बीच, उसके
पार्थिव
अर्जनों के
बीच घर बना
लेती है और जो
पूर्ण सा
भासता है, उसकी
शून्यता को और
जो शून्य सा
भासता है उसकी
पूर्णता को
तुझे समझना
है। ओ निर्भय
मुमुक्षु
अपने ही हृदय
के कुएं की
गहराई में
झांक और तब
उत्तर दे। हे बाहय छायाओं
के द्रष्टा, अपनी ही
आत्मा की
शक्तियों को
जान।
"यदि
यह नहीं करता
है, तो तू
नष्ट हो जाएगा।’
और यह
जो सारे अपने
ही विचारों की
संतति-परंपरा
है, जो अपने
ही लोभ की सूम
तरंगें हैं, अपनी ही
वासना के सूम
जाल हैं, इनके
संबंध में अगर
तू ठीक से
सचेत नहीं हो
जाता है, तो
विराग के
द्वार से भी
पुनः लोभ के
गर्त में गिर
जाएगा। नहीं
जागता है, नहीं
सचेत होता है,
तो नष्ट हो
जाएगा। और इस
संबंध में जो
भी तुझे कहना
हो, सोचकर
मत कह, अपने
हृदय की गहराई
में झांक, जैसे
कोई कुएं में
झांके और वहां
से उत्तर दे।
यह
थोड़ा समझ लें।
उत्तर
दो तरह से हम
दे देते हैं।
एक उत्तर तो
सीधा खोपड़ी से
दे दिया जाता
है; उसका कोई
मूल्य नहीं है,
व्यर्थ है।
किसी ने आपसे
पूछा कि क्या
आप ईश्वर को
मानते हैं? आप जल्दी
उत्तर दे
देंगे; कहेंगे
हां या ना।
आस्तिक होंगे,
तो कह देंगे
कि मानता हूं,
ईश्वर है।
नास्तिक
होंगे, तो
कह देंगे कि
नहीं मानता
हूं, ईश्वर
नहीं है।
लेकिन क्या
कभी आपने रुक
कर अपने हृदय
की गहराई में झांका कि
ईश्वर को मैं
मानता हूं? जानता हूं, ईश्वर है? कभी आपने
आंख बंद की और
अपने भीतर
उतरे, और
खोजा कि मेरे
प्राणों की
गहराई में
क्या
भाव है? तो शायद आप
जल्दी उत्तर न
दे पाएं; तो
शायद आप कहें
कि रुको, कुछ
वर्ष मुझे
खोजने दो, तब
मैं उत्तर
दूंगा, क्योंकि
अभी मुझे पता
ही नहीं कि
मेरे प्राणों
की गहराई में
क्या भाव है? ईश्वर की
कोई है अनुगूंज
वहां?
अगर
मैं आपसे कहूं
कि विराग के
द्वार पर समझ
लेना ठीक से
कि कहीं लोभ न
पकड़ ले, तो
अपने भीतर
झांकना और
देखना कि आप
जो वैराग्य की
चेष्टा भी कर
रहे हैं, उसमें
ही तो कहीं
लोभ नहीं छिपा
है? ध्यान
अगर कर रहे
हैं, तो
उसमें भी कहीं
लोभ नहीं छिपा
है? अगर
परमात्मा की
थोड़ी खोज भी
कर रहे हैं, तो उसमें तो
कहीं लोभ नहीं
छिपा है? अगर
उसमें ही लोभ
छिपा है, तो
समझना कि वही
बाधा है।
परमात्मा की
तरफ से कोई
बाधा नहीं है
कि आप उसे न
जान लें। वह उघड़ा हुआ
है। अभी पर्दा
आपकी आंख पर
है, उस पर
नहीं। और आनंद
की कोई अड़चन
नहीं है। वह चारों
तरफ भरा है
आपके; रोएं-रोएं
से प्रवेश
करने को तैयार
है, लेकिन
कोई रोआं तक
आपका खुला
नहीं है; द्वार
सब बंद हैं।
लोभ
जिस-जिस की
मांग करता है, उस-उस के लिए
ही बाधा है।
लोभ जो मांगता
है, उसी के
लिए उपद्रव हो
जाता है, उसी
के लिए रुकावट
खड़ी हो जाती
है।
"अपने
अंतस की गहराई
में झांक और
तब उत्तर दे।’
यह
उत्तर भी किसी
दूसरे को देना
नहीं है, यह
उत्तर स्वयं
को ही दे लेना
है कि मेरी
मनोदशा क्या
है। मंदिर भी
जा रहा हूं, तो मंदिर ही
जा रहा हूं, या मंदिर भी
एक सौदे की
जगह है, जहां
मैं परलोक के
कुछ सौदे कर
रहा हूं, कुछ
दूरगामी
योजनाएं बना
रहा हूं? यह
अगर साफ-साफ न
हो, तो
श्रम व्यर्थ
जाता है और
साधक व्यर्थ
ही नष्ट हो
जाता है।
आज इतना
ही।
thank you guruji
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