चित्त
वृत्ति निरोध (अध्याय—6)
प्रवचन—दसवां
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र
चैवात्मनात्मानं
पश्यन्नात्मनि
तुष्यति।।
20।।
और
हे अर्जुन, जिस अवस्था
में योग के
अभ्यास से
निरुद्ध हुआ चित्त
उपराम हो जाता
है और जिस
अवस्था में
परमेश्वर के
ध्यान से
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि
द्वारा
परमात्मा को
साक्षात करता
हुआ सच्चिदानंदघन
परमात्मा में
ही संतुष्ट
होता है।
योग
से उपराम हुआ
चित्त!
इस
सूत्र में, कैसे योग से
चित्त उपराम
हो जाता है और
जब चित्त
उपराम को
उपलब्ध होता
है, तो
प्रभु में
कैसी
प्रतिष्ठा
होती है, उसकी
बात कही गई
है।
चित्त
के संबंध में दोत्तीन
बातें
स्मरणीय हैं।
एक, चित्त तब तक
उपराम नहीं
होता, जब
तक चित्त का
विषयों की ओर
दौड़ना सुखद है,
ऐसी
भ्रांति हमें
बनी रहती है।
तब तक चित्त
उपराम, तब
तक चित्त
विश्रांति को
नहीं पहुंच
सकता है। जब
तक हमें यह
खयाल बना हुआ
है कि विषयों
की ओर दौड़ता
हुआ चित्त
सुखद
प्रतीतियों
में ले जाएगा,
तब तक
स्वाभाविक है
कि चित्त दौड़ता
रहे।
चित्त
के दौड़ने का
नियम है। जहां
सुख मालूम होता
है, चित्त
वहां दौड़ता
है। जहां दुख
मालूम होता है,
चित्त वहां
नहीं दौड़ता
है। जहां भी
सुख मालूम हो,
चाहे भ्रांत
ही सही, चित्त
वहां दौड़ता
है। जैसे पानी
गङ्ढों
की तरफ दौड़ता
है, ऐसा
चित्त सुख की
तरफ दौड़ता
है। दुख के
पहाड़ों पर
चित्त नहीं चढ़ता, सुख
की झीलों की
तरफ भागता है।
चाहे वे झील
कितनी ही मृग-मरीचिकाएं
क्यों न हों; चाहे
पहुंचकर झील
पर पता चले कि
वहां कुछ भी नहीं
है--न झील है, न गङ्ढा
है, न पानी
है। लेकिन
जहां भी चित्त
को दिखाई पड़ता
है सुख, चित्त
वहीं दौड़ता
है। चित्त की
दौड़ सुखोन्मुख
है।
और दौड़
जब तक है, तब
तक चित्त
विश्राम को
उपलब्ध नहीं
होता, तब
तक तो वह श्रम
में ही लगा
रहता है। एक
सुख से जैसे
ही मुक्त हो
पाता
है--मुक्त
होने का अर्थ?
अर्थ यह
नहीं कि एक
सुख को जान
लेता है। जैसे
ही पता चलता
है कि यह सुख
सुख सिद्ध
नहीं हुआ, मन
तत्काल दूसरे
सुखों की ओर
दौड़ना शुरू कर
देता है। दौड़
जारी रहती है।
मन अगर जी
सकता है, तो
दौड़ने में ही
जी सकता है।
अगर गहरी बात
कहनी हो, तो
कह सकते हैं
कि दौड़ का नाम
ही मन है।
चेतना की दौड़ती
हुई स्थिति का
नाम मन है और
चेतना की उपराम
स्थिति का नाम
आत्मा है।
करीब-करीब
चित्त की
स्थिति वैसी
है, जैसे
साइकिल आप
चलाते हैं
रास्ते पर। जब
तक पैडल चलाते
हैं, साइकिल
चलती है; पैडल
बंद कर लेते
हैं, थोड़ी
ही देर में
साइकिल रुक
जाती है।
साइकिल को
चलाना जारी
रखना हो, तो
पैरों का चलते
रहना जरूरी
है। चित्त का
चलना जारी
रखना हो, तो
सुखों की खोज
जारी रखना
जरूरी है। अगर
एक क्षण को भी
ऐसा लगा कि
सुख कहीं भी
नहीं है, तो
चित्त
विश्राम में
आना शुरू हो
जाता है।
इसलिए
बुद्ध ने
चित्त के
विश्राम और
चित्त के
उपराम अवस्था
के लिए चार
आर्य-सत्य कहे
हैं। वह मैं
आपको कहूं। वे
योग की बहुत
बुनियादी
साधना में सहयोगी
हैं।
बुद्ध
ने कहा है, जीवन दुख है,
इसकी
प्रतीति पहला
आर्य-सत्य है।
जो भी हम चाहते
हैं, सुख
दिखाई पड़ता है,
निकट
पहुंचते ही
दुख सिद्ध
होता है। जो
भी हम खोजते
हैं, दूर
से सुहावना, प्रीतिकर
लगता है; निकट
आते ही कुरूप,
अप्रीतिकर
हो जाता है।
जीवन
दुख है, ऐसा
साक्षात्कार
न हो, तो
चित्त उपराम
में नहीं जा
सकेगा। ऐसा
साक्षात्कार
हुआ, कि
चित्त की दौड़
अपने से ही खो
जाती है। उसको
पैडल मिलने
बंद हो जाते
हैं। फिर आपके
पैर उसे गति नहीं
देते, ठहर
जाते हैं। और
चित्त चल नहीं
सकता आपके बिना
सहयोग के।
आपके बिना कोआपरेशन
के चित्त दौड़
नहीं सकता।
इसलिए
आप ऐसा कभी मत
कहना कि मैं
क्या करूं! यह चित्त
भटका रहा है।
ऐसा कभी भूलकर
मत कहना। क्योंकि
आपके सहयोग के
बिना चित्त
भटका नहीं
सकता। आपका सहयोग
अनिवार्य है।
आपका सहयोग
टूटा कि चित्त
की गति टूटी।
हां, थोड़ी देर मोमेंटम
चल सकता है।
साइकिल के
पैडल बंद कर
दिए, तो भी
दस-बीस गज
साइकिल चल
सकती है।
लेकिन बंद करते
ही पैर साइकिल
के प्राण
छूटने शुरू हो
जाएंगे। पुरानी
गति से दस-बीस
कदम चल सकती
है; लेकिन
वह चलना सिर्फ
मरना ही होगा।
साइकिल की गति
मरती चली
जाएगी।
जीवन
दुख है, इसकी
प्रतीति।
पूछेंगे हम कि
कैसे इसकी
प्रतीति हो? बड़ा गलत
सवाल पूछते
हैं। इसकी
प्रतीति
प्रतिपल हो
रही है। लेकिन
उस प्रतीति से
आप कभी कोई निर्णय
नहीं लेते।
प्रतीति की
कोई कमी नहीं
है। पूरा जीवन
इसका ही अनुभव
है कि जीवन
दुख है, लेकिन
निष्कर्ष
नहीं लेते। और
निष्कर्ष न लेने
की तरकीब यह
है कि अगर एक
सुख दुख सिद्ध
होता है, तो
आप कभी ऐसा
नहीं सोचते कि
दूसरा सुख भी
दुख सिद्ध
होगा।
नहीं; दूसरे का
मोह कायम रहता
है। वह भी दुख
सिद्ध हो जाता
है, तो
तीसरे पर मन
सरक जाता है; और तीसरे का
मोह कायम रहता
है। हजार बार
अनुभव हो, फिर
भी निष्पत्ति
हम नहीं ले
पाते कि जीवन
दुख है। हां, ऐसा लगता है
कि एक सुख दुख
सिद्ध हुआ, लेकिन समस्त
सुख दुख सिद्ध
हो गया है, ऐसी
निष्पत्ति हम
नहीं ले पाते।
यह
निष्पत्ति कब
लेंगे? हर
जन्म में वही
अनुभव होता
है। पीछे
जन्मों को छोड़
भी दें, तो
एक ही जन्म
में लाख बार
अनुभव होता
है। ऐसा मालूम
पड़ता है कि
मनुष्य निष्पत्तियां
लेने वाला
प्राणी नहीं
है; वह कनक्लूजन
लेता ही नहीं
है! और निरंतर
वही भूलें करता
है, जो
उसने कल की
थीं। बल्कि कल
की थीं, इसलिए
आज और सुगमता
से करता है।
भूल से एक ही बात
सीखता है, भूल
को करने की
कुशलता! भूल
से कोई
निष्पत्ति नहीं
लेता, सिर्फ
भूल को करने
में और कुशल
हो जाता है।
एक बार
क्रोध किया; पीड़ा पाई, दुख पाया, नर्क
निर्मित हुआ;
उससे यह
निष्कर्ष
नहीं लेता कि
क्रोध दुख है।
न, उससे
सिर्फ अभ्यास
मजबूत होता
है। कल क्रोध
करने की
कुशलता और बढ़
जाती है। कल
फिर दुख, पीड़ा।
तब एक नतीजा
फिर ले सकता
है कि क्रोध
दुख है। वह
नहीं लेता, बल्कि
दुबारा क्रोध
करने से दुख
का जो आघात है,
मन उसके लिए
तैयार हो जाता
है, और कम
दुख मालूम
पड़ता है।
तीसरी बार और
कम, चौथी
बार और कम।
धीरे-धीरे दुख
का अभ्यासी हो
जाता है। और
यह अभ्यास
इतना गहरा हो
सकता है कि
दुख की
प्रतीति ही
क्षीण हो जाए;
मन की
संवेदना ही
क्षीण हो जाए।
अगर आप
दुर्गंध के
पास बैठे रहते
हैं, बैठे रहते
हैं--एक दफा, दो दफा, तीन
दफा--धीरे-धीरे
नाक की
संवेदना
क्षीण हो जाएगी,
दुर्गंध की
खबर देनी बंद
हो जाएगी। अगर
आप शोरगुल में
जीते हैं, तो
पहले खबर देगा
मन कि बहुत
शोरगुल है, बहुत उपद्रव
है। फिर
धीरे-धीरे-धीरे
खबर देना बंद
कर देगा, संवेदनशीलता
कुंठित हो जाएगी।
ऐसा भी हो
सकता है कि
फिर बिना
शोरगुल के बैठना
आपको मुश्किल
हो जाए।
जो लोग
दिन-रात ट्रेन
में सफर करते
हैं, जब कभी
विश्राम के
दिन घर पर
रुकते हैं, तो उनको
नींद ठीक से
नहीं आती!
इतनी अधिक
शांति की आदत
नहीं रह जाती।
उतना शोरगुल
चाहिए। उसके
बीच एट होम
मालूम होता है;
घर में ही
हैं!
हम
अपने मन से दो
ही स्थितियां
पैदा कर पाते
हैं--अभ्यास
गलत का।
क्योंकि हम गलत
करते हैं, उसका अभ्यास
होता है। और
दूसरा, कुशलता।
और भी कुशल हो
जाते हैं वही
करने में।
लेकिन जो
निष्पत्ति
लेनी चाहिए, वह हम कभी
नहीं लेते।
बुद्ध
को दिखाई पड़ा
है एक मुर्दा।
और बुद्ध ने
पूछा कि यह
क्या हो गया? बुद्ध के
सारथी ने कहा
कि यह आदमी मर
गया है। तो
बुद्ध ने
तत्काल पूछा
कि क्या मैं
भी मर जाऊंगा!
अगर आप होते
बुद्ध की जगह,
तो आप कहते,
बेचारा! बड़ा
बुरा हुआ।
इसके बच्चों
का क्या होगा?
इसकी पत्नी
का क्या होगा?
अभी तो कोई
उम्र भी न थी
मरने की।
लेकिन एक बात पक्की
है कि बुद्ध
ने जो पूछा, वह आप न
पूछते।
बुद्ध
ने न तो यह कहा
कि बेचारा; न कहा यह कि
इसकी पत्नी का
क्या होगा; कि इसके
बच्चों का
क्या होगा; अभी तो कोई
उम्र न थी, अभी
तो मरने का
कोई समय न था।
बुद्ध ने दूसरा
सवाल सीधा जो
पूछा, वह
यह कि क्या
मैं भी मर जाऊंगा?
यह
आपने, कभी
कोई रास्ते पर
मरे हुए आदमी
की अर्थी निकली,
तब पूछा है
कि क्या मैं
भी मर जाऊंगा?
जब किसी को
बूढ़ा हुआ देखा
है, तो
पूछा है कि
क्या मैं भी
बूढ़ा हो जाऊंगा?
जब किसी को
अपमानित होते
देखा है, तो
पूछा है कि
क्या मैं भी
अपमानित हो जाऊंगा? जब कोई
स्वर्ण-सिंहासन
से उतरकर
और धूल में
गिर गया है, तब कभी पूछा
है कि क्या
मैं भी गिर जाऊंगा?
नहीं
पूछा, तो
फिर बुद्ध
जैसे योग की
प्रतिष्ठा को
आप उपलब्ध
होने वाले
नहीं। आपने
बुनियादी
सवाल ही नहीं
पूछा है कि जो
यात्रा शुरू
करे।
बुद्ध
ने पूछा, क्या
मैं भी मर जाऊंगा?
सारथी
भयभीत हुआ।
कैसे कहे! पर
बुद्ध की
आंखों में
देखा, तो
और भी डरा।
क्योंकि झूठ
बोले, तो
भी ठीक नहीं
है। उसने कहा,
क्षमा
करें। कैसे
अपने मुंह से
कहूं कि आप भी मर
जाएंगे! लेकिन
कोई भी अपवाद
नहीं। मृत्यु
तो होगी।
तो
बुद्ध ने यह
नहीं पूछा कि
कोई उपाय है
कि मैं अपवाद
हो जाऊं? यह
नहीं पूछा कि
मृत्यु आने ही
वाली है, तो
जल्दी से जीवन
में जो भी
भोगा जा सकता
है, उसको
भोग लूं। यह
नहीं पूछा कि
फिर समय खोना
ठीक नहीं; फिर
समय खोना ठीक
नहीं। मौत
करीब आती है, तो जीवन
जितनी देर है,
उसका पूरा
रस निचोड़
लूं।
बुद्ध
ने कहा, कोई
अपवाद नहीं है,
तो फिर घर
वापस लौट चलो।
मैं मर ही
गया। सारथी ने
कहा, अभी
आप नहीं मर गए
हैं। मैंने यह
नहीं कहा। अभी
तो आप जिंदा
हैं! बुद्ध ने
कहा, इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि कल
मौत होगी कि
परसों मौत
होगी। जब मौत
निश्चित है, तो जीवन
व्यर्थ हो
गया। अब जितना
भी समय मेरे पास
है, मैं
मौत की खोज
में लगा दूं
कि मौत क्या
है! क्योंकि
जो निश्चित है,
उसी की खोज
उचित है। जीवन
तो अनिश्चित
हो गया कि
समाप्त हो
जाएगा। मौत, एक तुम कहते
हो, निरपवाद
है; होगी
ही। निश्चित
एक तथ्य दिखाई
पड़ा है, मौत।
अब मैं इसकी
खोज कर लूं कि
मौत क्या है!
क्योंकि
निश्चित की ही
खोज करने में
कोई अर्थ है।
अनिश्चित की,
खो जाने
वाले की खोज
करना व्यर्थ
है।
हैरानी
होगी हमें। हम
सुख की खोज
करते हैं, बुद्ध दुख
की खोज करते
हैं। हम जीवन
की खोज करते
हैं, बुद्ध
मृत्यु की खोज
करते हैं। और
बुद्ध मृत्यु
की खोज करके
परम जीवन को
पा लेते हैं।
और हम जीवन को
खोजते-खोजते
सिवाय मृत्यु
के और कुछ भी
नहीं पाते! और
बुद्ध दुख की
खोज करते हैं
और परम आनंद
को उपलब्ध हो
जाते हैं। और
हम सुख को
खोजते-खोजते
सिवाय कचरे के
हाथ में ढेर लग
जाने के और
छाती पर
व्यर्थ का भार
इकट्ठा हो जाने
के, कहीं
भी नहीं
पहुंचते हैं।
उलटा
दिखाई पड़ेगा, लेकिन यही
सत्य है। जो
मृत्यु को
खोजता है, वह
अमृत को खोज
लेता है। जो
दुख के प्रति
सजग होकर दुख
की खोज करता
है, वह
आनंद को
उपलब्ध हो
जाता है।
इसलिए
बुद्ध ने जब
अपने
भिक्षुओं को
पहला उपदेश
दिया, तो
कहा कि
तुम्हें मैं
पहला
आर्य-सत्य
कहता हूं।
पहला महान
सत्य, वह
यह है कि जीवन
दुख है। तुम
इसकी खोज करो।
योग का
आधारभूत वही
है कि जीवन
दुख है। तभी
चित्त उपराम
होगा। यह तो
पहली प्रतीति
है कि जीवन
दुख है।
दूसरी
बात आपसे कहूं।
जैसे ही आपको
यह स्पष्ट हो
जाएगा कि जीवन
दुख है, आप
जीवन के
अतिक्रमण की
चेष्टा में
संलग्न हो जाएंगे।
क्योंकि दुख
के बीच कोई भी
विश्राम को
उपलब्ध नहीं
हो सकता। अगर
यह प्रतीत हो
जाए कि पूरा
जीवन दुख है, तो आप इस
जीवन से छलांग
लगाने की
कोशिश में लग जाएंगे।
क्योंकि दुख
के साथ ठहर
जाना असंभव
है।
सुख के
साथ हम ठहर
सकते हैं, चाहे भ्रांत
ही क्यों न
हो। चाहे
चेहरे पर ही क्यों
न सिर्फ सुख
मालूम पड़ता हो
और भीतर सब दुख
छिपा हो, लेकिन
फिर भी हम रात
ठहर सकते हैं,
इस सुख को
हम बिस्तर में
सुला सकते हैं
अपने साथ।
चाहे चेहरा ही
सुख का क्यों
न हो, भीतर
सब दुख ही
क्यों न भरा
हो, रात हम
इस सुख के साथ
सो सकते हैं।
लेकिन अगर चौंककर
रात में पता
चल जाए कि दुख
है, तो हम
छलांग लगाकर
बिस्तर के
बाहर हो
जाएंगे। दुख
के साथ जीना
असंभव है।
तो
पहला
आर्य-सत्य, बुद्ध कहते
हैं, जीवन
दुख है। दूसरा
आर्य-सत्य, बुद्ध कहते
हैं कि दुख से
मुक्ति का
उपाय है। जैसे
ही प्रतीत हो,
वैसे ही
उपाय की खोज
शुरू हो जाती
है कि दुख से मुक्ति
का उपाय क्या!
ध्यान
रखें, हम
सुख खोजते हैं,
बुद्ध दुख
से मुक्ति
खोजते हैं। इन
दोनों की दिशाएं
बिलकुल अलग
हैं।
सुख की
खोज संसार है।
दुख से मुक्ति
की खोज योग
है। सुख की खोज
संसार है। दुख
से मुक्ति की
खोज, बहुत
निगेटिव खोज
है योग की। और
संसारी की खोज
बड़ी पाजिटिव
मालूम पड़ती
है। लगता है, हम सुख को
खोज रहे हैं।
योग कहता है, दुख से
मुक्ति खोजी
जा सकती है।
और जब दुख से मुक्ति
हो जाती है, तो जो शेष रह
जाता है, वही
आनंद है।
क्योंकि वह
स्वभाव है।
सिर्फ व्यर्थ
को हटा देना
है, जो
स्वभाव है, वह प्रकट हो
जाएगा।
तो
बुद्ध कहते
हैं, दूसरा
आर्य-सत्य भिक्षुओ,
दुख से
मुक्ति का
उपाय है।
लेकिन वह उपाय
तुम्हारी समझ
में तभी आएगा,
जब दुख
तुम्हारी
प्रतीति, साक्षात्कार
बन जाए।
सच तो
यह है, प्रतीति
से ही उपाय
निकलता है।
आपके घर में
आग लग गई है, तो आप उपाय
खोजते हैं घर
के बाहर
निकलने का? आप शास्त्र
पढ़ते हैं, कि
कोई किताब
देखें, जिसमें
घर में आग
लगती हो, तो
निकलने की
विधियां लिखी
हों? कि
किसी गुरु के
चरणों में
जाएं और उससे
पूछें कि घर
में आग लगी है,
निकलने का
उपाय क्या है?
कि भगवान से
प्रार्थना
करें कि घर
में आग लगी है,
घुटने टेककर
भगवान से कहें
कि हे प्रभु, रास्ता बता,
घर में आग
लगी है!
घर में
अगर आग लगी है
और इसकी
प्रतीति हो
गई। हां, प्रतीति
न हो, तो
बात अलग है।
तब, लगी न
लगी बराबर है।
घर में आग लगी
है, इसकी
प्रतीति उपाय
बन जाती है।
आप छलांग लगाकर
बाहर हो
जाएंगे।
खिड़की से कूद
सकते हैं, दरवाजे
से निकल सकते
हैं, छत से
कूद सकते हैं।
यह प्रतीति
उपाय खोज लेगी।
जैसे ही यह
प्रतीति हुई
कि घर में आग
लगी है, आपकी
पूरी चेतना
संलग्न हो
जाएगी और उपाय
खोज लेगी।
अगर
ठीक समझा जाए, तो इस बात का
साक्षात्कार
कि घर जल रहा
है, आपके
निकलने का
मार्ग बन जाता
है। लेकिन
हमें लगता ही
नहीं कि घर जल
रहा है। हां, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण
कहते हैं, घर
जल रहा है। तो
हम कहते हैं
कि महाराज, आप ठीक कहते
हैं! क्योंकि
हम में इतनी
भी हिम्मत नहीं
कि हम बुद्ध
और कृष्ण से
कह सकें कि आप
गलत कहते हैं।
किस मुंह से
कहें कि गलत
कहते हैं? कहीं
गहरे में तो
हम भी जानते
हैं कि ठीक ही
कहते हैं।
जीवन में
सिवाय दुख के
कुछ हाथ तो
लगा नहीं; सिवाय
आग और राख के
कुछ हाथ तो
लगा नहीं।
सिवाय लपटों
में झुलसने
के और कुछ हाथ
तो लगा नहीं।
इसलिए
गहरे मन में
हम जानते तो
हैं कि ठीक
कहते हैं।
इसलिए हिम्मत
भी नहीं होती
कि बुद्ध को
कह दें कि गलत
कहते हैं।
जीवन सुख है।
किस चेहरे से
कहें? चेहरे
पर एक भी रेखा
नहीं बताती कि
जीवन सुख है।
अनुभव का एक
टुकड़ा नहीं
बताता कि जीवन
सुख है। और
बुद्ध से किस
मुंह से कहें,
क्योंकि
बुद्ध के
रोएं-रोएं से
आनंद झलक रहा
है। तो बुद्ध
से किस मुंह
से कहें कि
जीवन सुख है!
अगर
जीवन सुख है, तो बुद्ध ही
कहते, तो
कह सकते थे।
लेकिन बुद्ध
तो कहते हैं
कि जीवन दुख
है। और हम, जो
कि दुख में
डूबे खड़े हैं
सराबोर, हम
किस मुंह से
कहें कि जीवन
सुख है! तो
बुद्ध को
इनकार भी नहीं
कर सकते कि आप
गलत कहते हैं।
लेकिन हमारी
प्रतीति भी
नहीं होती कि
जीवन दुख है।
तो हम
कहते हैं कि
आप ठीक कहते
हैं। समय पर, अनुकूल समय
पर मैं भी इस
घर को छोड़
दूंगा। कृपा
करके, जब
तक अभी इस घर
में हूं, मुझे
इतना बताएं कि
कैसे इस घर
में शांति से
रहूं! और वह
रास्ता भी बता
दें, क्योंकि
फिर दुबारा आप
मिलें न मिलें,
जब मुझे
प्रतीति हो कि
घर में आग लगी
है, तो
मुझे वह मेथड,
वह विधि भी
बता दें कि घर
के बाहर कैसे निकलूं!
बुद्ध
कहा करते थे
कि जो आदमी
पूछता है कि
घर में आग लगी
हो, तो मुझे
रास्ता बता
दें कि कैसे निकलूं, वह सिर्फ
इतनी ही खबर
देता है कि
उसे पता नहीं है
कि घर में आग
लगी है। और
कुछ पता नहीं
देता। क्योंकि
जिसके घर में
आग लगी है, वह
विधि की बात
नहीं पूछता।
वह छलांग
लगाकर बाहर
निकल जाता है।
बताने वाला
पीछे रह जाए; जिसको पता
चला, घर
में आग लगी है,
वह मकान के
बाहर हो
जाएगा।
दूसरा
सत्य बुद्ध
कहते हैं, उपाय है।
योग उपाय है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, योग से
उपराम को
उपलब्ध हुआ
चित्त। योग
उपाय है, विधि
है, मेथड है। योग नाव है,
साधन है, जिससे
दुख-मुक्ति हो
सकती है। सुख
नहीं मिलेगा।
इसलिए
जो व्यक्ति
योग के पास
सुख की खोज
में आए हों, वे गलत जगह आ
गए हैं। योग
से सुख नहीं
मिलेगा। जब
मैं ऐसा कहता
हूं, तो
इसलिए कह रहा
हूं कि आप सुख
की तलाश में
योग के पास न
जाएं। योग से
दुख-मुक्ति मिलेगी।
इसलिए अगर
आपको जीवन दुख
प्रतीत हो गया
हो, तो योग
आपके काम का
हो सकता है।
लेकिन
हममें से अधिक
लोग योग के
पास सुख की तलाश
में जाते हैं।
हम योग को भी
अपने
सांसारिक चित्त
की दौड़ के लिए
एक साधन बनाना
चाहते हैं! हम
योग से भी
चित्त की
साइकिल को
पैडल देना चाहते
हैं! तब हम बड़ा
कंट्राडिक्टरी, बड़ा व्यर्थ
का, बड़ा स्वविरोधी
काम कर रहे
हैं। हम चाहते
हैं, योग
से धन मिल
जाए। और ऐसे
लोग मिल जाते
हैं, जो
कहेंगे, हां
मिल जाएगा! हम
चाहते हैं, योग से
शांति मिल जाए,
ताकि शांति
के द्वारा हम
धन और यश और
कामनाओं की
दौड़ को ज्यादा
आसानी से पूरा
कर सकें!
हम योग
को भी संसार
का एक वाहन
बनाना चाहते
हैं। यह नहीं
होगा।
क्योंकि योग
दूसरा सूत्र
है। पहला
सूत्र तो है, दुख का
अनिवार्य बोध,
तभी उपाय का
बोध पैदा होता
है।
बुद्ध
तीसरा
आर्य-सत्य भी
कहते हैं। यह
दूसरे आर्य-सत्य
को मैं और
समझाना
चाहूंगा।
तीसरा
आर्य-सत्य भी
बुद्ध कहते
हैं। कहते हैं, दुख है।
कहते हैं, दुख
से मुक्ति का
उपाय है। कहते
हैं, दुख
की मुक्ति के
बाद की अवस्था
है।
यह
बुद्ध अपने
अनुभव से कहते
हैं कि
दुख-मुक्ति के
बाद की अवस्था
है।
दुख-मुक्ति को
उपलब्ध हुए
लोग हैं।
बुद्ध खुद प्रमाण
हैं। कोई पूछे, क्या है
प्रमाण? तो
योग का प्रमाण
बहिर्प्रमाण
नहीं हो सकता
है। योग का
प्रमाण तो अंतर्साक्ष्य
हो सकता है।
बुद्ध कह सकते
हैं, मैं
हूं प्रमाण।
जब
जीसस से कोई
पूछता है कि
क्या है मार्ग? तो जीसस
कहते हैं, आई
एम दि वे--मैं
हूं मार्ग।
देखो मेरी तरफ;
प्रवेश कर
जाओ मेरी
आंखों में। जब
बुद्ध से कोई
पूछता है, क्या
है प्रमाण? तो बुद्ध
कहते हैं, मैं
हूं प्रमाण।
देखो मुझे।
दुख से उपराम
पाया हुआ
चित्त है, मैं
हूं।
यह
तीसरा सत्य तो
केवल वे ही
लोग उदघोषित
कर सकते हैं, जो प्रमाण
हैं। दो तक, पहला और
दूसरा सत्य तो
हम समझ सकते
हैं बुद्धि से,
लेकिन
तीसरा सत्य
बुद्धि का
सवाल नहीं रह
जाता, प्रमाण
का सवाल है।
लेकिन एक बात
हम तीसरे सत्य
के संबंध में
भी समझ सकते
हैं। और वह यह
कि जब अशांत
चित्त होता है
जगत में, तो
शांत हो सके, इसकी
असंभावना
नहीं है। जब
कोई आदमी
बीमार हो सकता
है जगत में, तो स्वस्थ
हो सके, इसकी
असंभावना
क्यों कर है? जब दुखी हो
सकता है कोई, तो दुख के
पार हो सके, इसकी
असंभावना
क्या है?
और अगर
बुद्धि से ही
केवल सोचें, तो भी यह साफ
होता है कि
दुख का बोध ही
यह बताता है
कि हम दुख के
बोध के पार
हैं। अन्यथा
बोध किसे होगा?
और बोध भी
तभी होता है, जब विपरीत
हो, नहीं
तो बोध नहीं
होता है। अगर
आपके भीतर
आनंद जैसी कोई
चीज न हो, तो
आपको दुख का
कभी भी पता
नहीं चल सकता।
कैसे चलेगा? किसको चलेगा?
कौन जानेगा
कि यह दुख है?
जो
जानता है, उसे दुख की
चोट पड़नी
चाहिए, उसे
दुख में अपने
से विपरीत कुछ
दिखाई पड़ना
चाहिए।
इसीलिए तो दुख
अप्रीतिकर
है। एक अनुभव
तो हमारा है
कि जीवन
अशांति से भरा
हुआ है। दूसरा
अनुभव हमारा
नहीं है कि
जीवन एक शांति
का झरना भी हो
सकता है; कि
जीवन के
रोएं-रोएं में
एक शांति की
गूंज भी हो
सकती है; कि
प्राण एक झील
बन सकते हैं, जहां एक भी
तरंग न उठती
हो अशांति की।
बुद्ध
कहते हैं, वह भी संभव
है। उसका
प्रमाण मैं
हूं।
और
बुद्ध चौथी
बात भी कहते
हैं कि ऐसा
नहीं है कि वह
मुझे ही घट
गया है, मैं
कोई अपवाद
नहीं हूं। सब
को घट सकता
है। क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति गहरे
में वही है।
हमारे सब भेद,
सब फासले
ऊपरी हैं।
भीतर अंतस में
कोई फासला, कोई भेद
नहीं है। भीतर
वही है, एक
ही। लेकिन उस
भीतर तक कोई
पहुंचे, तभी
उसका पता चले,
अन्यथा
उसका पता चलना
कठिन है। योग
उसका मार्ग
है।
यह योग
क्या है, जिससे
चित्त उपराम
को पहुंच जाए?
तो तीन
बातें आपसे कहूं,
जिनसे योग
की प्रक्रिया
का आप उपयोग
भी कर सकें और
चित्त उपराम
को पहुंच सके।
एक, जब भी मन
किसी चीज में
कहे, सुख
है, तो मन
से एक बार और
पूछना कि सच? पुराना
अनुभव ऐसा
कहता है? किसी
और व्यक्ति का
अनुभव ऐसा
कहता है? पृथ्वी
पर कभी किसी
ने कहा है कि
इस बात से सुख
मिल सकेगा? अनंत-अनंत
लोगों का
अनुभव क्या
कहता है? खुद
के जीवन का
अनुभव क्या
कहता है? बार-बार
अनुभव किया है,
उसका क्या
निष्कर्ष है?
एक बार
प्रश्न जरूर
पूछ लेना। जब
मन कहे, इसमें
सुख है। ठिठककर,
खड़े होकर
पूछ लेना, सच
सुख है?
और
जल्दी न करना; क्योंकि मन कहेगा
कि कहां की
बातों में पड़े
हो; सुख का
क्षण चूक
जाएगा! किन
बातों में पड़े
हो; अवसर
खो जाएगा!
जल्दी न करना।
मन इसीलिए
जल्दी करता है
कि अगर आप
थोड़ी देर, एक
क्षण के लिए
भी सजग होकर
रुक गए, तो
सुख दिखाई
नहीं पड़ेगा, दुख का
दर्शन हो
जाएगा।
जब
किसी हाथ में
सुख मालूम पड़े
और हाथ हाथ को
लेने को
उत्सुक हो जाए
हाथ में, तक
एक क्षण को
सोचना कि बहुत
हाथ हाथ में
लिए, सुख
पाया है? जब
राह चलता कोई
व्यक्ति
सुंदर मालूम
पड़े, तो एक
क्षण रुककर
अपने मन से
पूछना कि सच
में सौंदर्य
पास आ जाए, तो
कोई सुख पाया
है? जब
किसी फूल को
तोड़ लेने का
मन हो जाए, तो
पूछना कि बहुत
बार फूल तोड़े,
फिर उनका
किया क्या? थोड़ी देर
में मसलकर
रास्तों पर
फेंक दिए! जब
भी नई कोई गति
मन में पैदा
हो, तब एक
क्षण ठिठककर
खड़े होना।
वह
क्षण
अवेयरनेस का, जागरूकता का,
साक्षी का,
जीवन दुख है,
इसकी
प्रतीति को
गहरा करेगा।
और जैसे-जैसे
यह प्रतीति
गहरी होगी, वैसे-वैसे
उपराम अवस्था
आएगी।
दूसरा
सूत्र, जब
भी कोई दुख आए,
तब गौर से
खोजना कि पहले
जब इसे सोचा
था, तो यह
दुख था? जब
भी कोई दुख आए,
तो सोचना
लौटकर पीछे कि
जब पहली दफा
इसे चाहा था, तो यह दुख था?
नहीं; तब
यह सुख था।
अगर यह दुख
होता, तो
हम चाहते ही
न। जब पहली
दफे आलिंगन को
हाथ फैलाए थे,
तो यह दुख
था? अगर
दुख होता, तो
हम भाग गए
होते; आलिंगन
के लिए हाथ न
फैलाए होते।
यह तो अब आलिंगन
में बंधकर
पता चलता है
कि दुख है। तो
जब भी दुख आए, तो लौटकर
देखना कि जब
इसे चाहा था, तब यह दुख था?
और तब
पता चलेगा इस
क्षण में, फिर
जागरूकता के
क्षण में पता
चलेगा कि सब
दुख सुखों की
तरह प्रतीत
होते हैं, सुखों
की तरह
निमंत्रण
देते हैं; बाद
में दुख की
तरह सिद्ध
होते हैं। और
यह भी प्रतीत
होगा कि सब
दुख अपने
बुलाए आते हैं,
हम खुद ही
उनको बुलाकर
आते हैं। कोई
दुख बिना
बुलाए नहीं
आता। और हम
बुलाकर इसीलिए
आते हैं कि
हमने सोचा था,
सुख है। एक
क्षण जब दुख
के साथ ऐसा
खड़े होकर देखेंगे,
तो फिर पुनः
मालूम पड़ेगा,
जीवन सब दुख
है।
और
तीसरी
बात--सुख के
साथ सोचना, दुख के साथ
सोचना और
अनुभव होगा
दुख है--तब तीसरा
सूत्र! जब भी
अनुभव हो कि
जीवन दुख
है--और ऐसे
अनुभव कई बार
होते हैं, हम
फिर उन्हें खो
देते हैं, कई
बार सूत्र हाथ
में आता है और
छूट जाता
है--जब ऐसा
अनुभव हो गहरा
कि सच में
जीवन दुख है
और कोई सुख
नहीं, तब
पीछे लौटकर एक
बार देखना कि
यह कौन है, जिसे
पता चलता है
कि जीवन दुख
है, सुख
नहीं? यह
कौन है? हू इज़ दिस? यह
कौन है, जो
सुख चाहता है
और दुख पाता
है? यह कौन
है, जो
दुखों में झांकता
है तो पाता है,
अपना ही
निमंत्रण है
सुख को दिया
गया? यह
कौन है, जो
सुख की कामना
होती है, तो
प्रश्न उठाता
है कि क्या सच
में ही सुख
मिलेगा?
जब किसी
भी क्षण में, एक्यूट इंटेंसिटी
के किसी क्षण
में, तीव्रता
के किसी क्षण
में चेतना जागकर
जाने कि सब
दुख है, तब
पीछे लौटकर
पूछना कि यह
कौन है, जो
जानता है कि
सब दुख है? तब
एक नया जानना
शुरू होगा। तब
एक नया अनुभव
शुरू होगा; एक नया
संबंध बनेगा,
एक नई पहचान,
एक नया
परिचय--उससे, जो भीतर है, जो सब जानता
है और सबके
पीछे खड़ा रहता
है। उससे
परिचय हो जाए,
तो तत्काल
उपराम हो जाता
है; चित्त
एकदम विश्राम
को उपलब्ध हो
जाता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, योग से
शांत हुआ
चित्त प्रभु
को, परमात्मा
को, परम
सत्य को पा
लेता है।
यह तो मैंने
योग की आंतरिक
विधि आपसे
कही। शायद यह
एकदम कठिन
मालूम पड़े।
शायद थोड़ी
जटिल मालूम पड़े
कि कैसे हो
पाएगा? यह
कब हो पाएगा? जिंदगी की
धारा में इतनी
व्यस्तता है,
चौबीस घंटे
इतने उलझे हैं
कि कहां रुककर
सोचेंगे? कहां
रुककर खड़े
होंगे? जिंदगी
तो बहाए लिए
जाती है, भीड़
चारों तरफ
धक्का दिए चली
जाती है। कहां
है वह क्षण, जहां हम
सोचें कि दुख
क्या है? सुख
क्या है? मैं
कौन हूं? इसकी
फुरसत नहीं
है।
जब ऐसा
लगे, तो फिर
फुरसत खोजनी
पड़े। फिर आप
जीवन की धारा में
खड़े न हो पाएं,
तो घर के एक
कोने में घड़ीभर
के लिए अलग ही
वक्त निकाल
लें। बाजार
में न जाग
पाएं, दुकान
में न जाग
पाएं, तो
घर में एक
कोना खोज लें
और घड़ीभर
का वक्त निकाल
लें। तय ही कर
लें कि चौबीस
घंटे में एक
घंटा इस चित्त
के उपराम होने
के लिए दे
देंगे।
और एक
घंटा कुछ न
करें। इन तीन
बातों का
चिंतन गहरे
में ले जाएं।
जीवन दुख है।
सब सुख दुखों
को निमंत्रण
हैं और वह कौन
है, जो
इन्हें जानता
है! एक घंटा
रोज। और जीवन
के अंत में आप
पाएंगे कि
बाकी कई घंटे
बेकार गए, यही
एक घंटा काम
पड़ा है।
लेकिन
लोग मुझे आकर
कहते हैं कि
नहीं, इतना
समय कहां? और
बहुत हैरानी
मालूम पड़ती है
कि जो लोग यह
कहते हैं कि
इतना समय कहां,
वे ही लोग
दूसरी दफे
कहते हुए सुने
जाते हैं कि
समय नहीं कटता
है! वे ही लोग!
समय नहीं कटता
है, तो ताश
खेलना पड़ता
है। समय नहीं
कटता है, तो
शतरंज बिछानी
पड़ती है। समय
नहीं कटता है,
तो उसी
अखबार को, जिसे
दिन में छः
दफे पढ़ चुके
हैं, फिर सातवीं
दफे पढ़ना
पड़ता है। समय
नहीं कटता है,
तो वे ही
बातें, जो
हजार दफे कर
चुके लोगों से,
फिर-फिर
करनी पड़ती
हैं। समय नहीं
कटता है, तो
उसी आदमी के
पास चले जाना
पड़ता है, जिससे
आखिर में यह
कहते लौटते
हैं कि बहुत
बोर करता है।
फिर उसी के
पास चले जाना
पड़ता है! फिर
वही फिल्म देख
लेते हैं। फिर
वही सब कर
लेते हैं और
कहते हैं, समय
नहीं कटता! और
जब
प्रभु-स्मरण
की कोई बात कहे,
तो तत्काल
कहते हैं, समय
कहां!
ये
दोनों बातें
एक साथ चलती
हैं। तो ऐसा
मालूम होता है
कि मन धोखा दे
रहा है। मन
धोखा दे रहा है।
जब भी
प्रभु-स्मरण
की बात चलती
है, तो मन
कहता है, समय
कहां है! और जब
प्रभु-स्मरण
की बात नहीं
कहता, तो
मन कहता है कि
इतना समय है, कुछ काटने
का उपाय करो।
तो
अपने मन को
थोड़ा समझने की
कोशिश करना कि
मन प्रवंचक है, डिसेप्टिव है। कोई
दूसरा आपको न
समझा सकेगा; आप ही अपने
मन को देखना
कि किस तरह के
धोखे देता है।
सच में
ही समय नहीं
है? इतना
दरिद्र आदमी
पृथ्वी पर
नहीं है, जिसके
पास एक घंटा न
हो, जो
प्रभु को दिया
जा सके। है ही
नहीं ऐसा कोई
आदमी। आठ घंटे
हम नींद को दे
देते हैं बिना
कठिनाई के, बिना अड़चन
के। अगर सारा
हिसाब लगाने
जाएं, तो
अगर साठ साल
आदमी जीए, तो
बीस साल सोता
है। और अगर
हिसाब लगाएं,
तो बाकी बीस
साल दफ्तर
जाना, घर
आना, दाढ़ी बनाना, स्नान
करना, भोजन
करना, इनमें
खो देता है।
बाकी जो बीस
साल बचते हैं,
उनको समय
काटने में
लगाता है। समय
काटने में, कि समय कैसे
कटे!
तो आप
कोई जिंदगी
काटने के लिए
आए हुए हैं, कि किस तरह
काट दें! तो
एकदम से ही
काट डालिए। छलांग
लगा जाइए किसी
पहाड़ से, समय
एकदम कट
जाएगा। तो ये ग्रेजुअल स्युसाइड,
ये
धीरे-धीरे
आत्महत्या को
आप कहते हैं
जीवन? यह
रोज-रोज
धीरे-धीरे
काटने को?
समय
काटने का अर्थ
है, जीवन को
काट रहे हैं।
क्योंकि समय
जीवन है, और
एक गया हुआ
क्षण वापस
नहीं लौटता।
और आप कहते
हैं, समय
काटना है!
होटल में
बैठकर
काटेंगे।
मित्रों से
गपशप करके
काटेंगे। और
एक क्षण गया
हुआ वापस नहीं
लौटता। एक
क्षण कटा हुआ
पुनः नहीं मिलेगा।
और एक क्षण
कटा कि एक
क्षण जीवन की
रेत खिसक गई, जीवन कम
हुआ।
बड़ा
मजेदार है
आदमी। एक तरफ
कहता है कि
उम्र कैसे बढ़
जाए! सारे
पश्चिम में
चिकित्सक लगे
हैं खोजने में, उम्र कैसे
बढ़ जाए! उम्र
बढ़ जाए, तो
पूछता है, समय
कैसे कटे!
क्या, कर
क्या रहे हैं?
चिकित्सक
उम्र बढ़ाते
चले जाते हैं
और आदमी मनोरंजन
के साधन खोजता
है कि समय
कैसे कटे!
अब
अमेरिका में
बहुत चिंता है
इस बात की।
क्योंकि एक
तरफ लोग मांग
करते हैं कि
काम के घंटे कम
करो। घंटे कम
हो गए हैं।
कभी बारह घंटे
थे; आठ घंटे
हुए, छः
घंटे हुए, पांच
घंटे हुए।
पांच घंटे काम
के हो गए हैं।
आदमी कहता है,
और घंटे कम
करो। काम कम।
संभावना है कि
जैसे ही सब
आटोमैटिक हो
जाए, यंत्रचालित
हो जाए, तो
समय और भी कम
हो जाए। शायद
आधा घंटा, घंटाभर
एक आदमी काम
कर आए, तो
बहुत हो।
अब उस
स्थिति में हम
आ गए कि जब
हमारी हजारों
साल की
आकांक्षा
पूरी होती है
कि हम काम से
मुक्त होते
हैं।
करीब-करीब उस अवस्था
में, जिसमें
देवता अगर
स्वर्ग में
रहते होंगे, तो आदमी
पहुंच गया।
काम नहीं करना
पड़ेगा। तो अब
अमेरिका के
सभी चिंतक
परेशान हैं कि
समय कैसे कटे!
समय को कैसे काटिएगा? काम तो काट
दिया, अब
समय को काटिए!
और डर
इस बात का है
कि काम से
इतना नुकसान
कभी नहीं हुआ था, जितना खाली
समय बच जाएगा,
तो हो जाने
वाला है।
क्योंकि खाली
आदमी क्या करेगा?
वह खाली
आदमी उपद्रव
करेगा। वह
उपद्रव कर रहा
है। इसलिए
जितना समृद्ध
समाज, उतना
उपद्रवी, उतने
हत्यारे, उतने
डकैत, उतने
चोर, उतने
बेईमान पैदा
कर देता है।
उसका कारण है
कि वे क्या करें?
समय कहां
काटें? खाली
बैठे रहें?
लेकिन
उन आदमियों से
भी अगर कहो कि
प्रभु-स्मरण
एक घंटा, तो
वे भी तत्काल
उत्तर देते
हैं--बिना
सोचे यह उत्तर
आता है--समय
कहां है!
नहीं; ऐसा लगता है
कि मन
आत्मवंचक है।
इस आत्मवंचना
को समझने की
जरूरत है। और
जब मन कहे, समय
कहां है, तो
सच में चौबीस
घंटे का
ब्यौरा लगाकर
देखना कि सच
में समय नहीं
है? समय
बहुत है।
और एक
मजे की बात है
समय के संबंध
में कि सबके पास
बराबर है। कोई
गरीब-अमीर
नहीं है। सबके
पास बराबर है।
यद्यपि सभी
समय का बराबर
उपयोग नहीं
करते हैं।
इमर्सन
से कोई पूछता
था, तुम्हारी
उम्र कितनी है?
तो इमर्सन
ने कहा कि तीन
सौ साठ वर्ष!
अब इमर्सन, ईमानदार और
सच्चा आदमी
झूठ बोलेगा
नहीं। जिसने
पूछा, उसने
समझा कि लगता
है, मेरे
सुनने में कोई
भूल हो गई।
उसने कहा, माफ
करें। मैं ठीक
से सुन नहीं
पाया। कान पास
लाया। इमर्सन
ने जोर से कहा
कि तीन सौ साठ
वर्ष! उस आदमी
ने कहा कि आप
मजाक तो नहीं
कर रहे!
क्योंकि झूठ
तो आप नहीं
बोल सकते।
मजाक तो नहीं
कर रहे! तीन सौ
साठ! ज्यादा
से ज्यादा आप
साठ साल के
मालूम पड़ते
हैं।
इमर्सन
ने कहा कि
अच्छा, तो
तुम दूसरे
हिसाब से नाप
रहे हो। हमारा
हिसाब और है।
साठ साल में
आदमी जितना
जीता है, हम
उससे छः गुना
ज्यादा जी
चुके हैं।
एक-एक क्षण का
हमने छः गुना
ज्यादा उपयोग
किया है। हम उस
हिसाब से कहते
हैं, तीन
सौ साठ साल।
अगर तुम भी
साठ साल के हो,
तो हम तीन
सौ साठ साल के
हैं। क्योंकि
तुमने किया
क्या है? जीए
कहां हो?
तो वह
आदमी पूछने
लगा कि समझ
लें कि आप छः
गुना जी लिए।
पा क्या लिया? और हम छः
गुना कम जीए, तो क्या खो
दिया? तो
इमर्सन ने कहा,
मेरी आंख
में देखो, मुझे
देखो, दो
दिन मेरे पास
रुक जाओ।
वह
आदमी दो दिन
इमर्सन के पास
था। फिर उसके
पैर छूकर, माफी मांगकर
गया कि भूल हो
गई कि मैंने
आपसे पूछा कि
क्या पा लिया।
आज मैं पहली
दफा जीवन में
जानकर जा रहा
हूं कि मैंने
साठ साल सिर्फ
गंवाए
हैं; कुछ
पाया नहीं।
दो दिन
उसने देखी
इमर्सन की
शांति, देखी
वह झील, जहां
कोई एक रिपल,
एक छोटी-सी
तरंग भी नहीं
उठती। देखा दो
दिन इमर्सन के
पास बैठकर कि
उसके आस-पास
शीतल विकिरण
हो रहा है; उसके
पास भी बैठकर
जैसे स्नान हो
जाता है। देखा
इमर्सन के
कमरे में सोकर
और पाया कि
सिर्फ इमर्सन
के कमरे में
सोने से भी
उसके सपनों का
गुणात्मक रूप
बदल गया है; उसकी नींद
की क्वालिटी
बदल गई है।
इमर्सन के साथ
जंगल में चलकर
देखा कि जंगल
वही नहीं
मालूम होता है।
इस जंगल में
वह पहले भी
निकला था, लेकिन
वृक्ष इतने
हरे न मालूम
पड़े थे। और
फूल इतने ताजे
न मालूम पड़े
थे। और फूल
इतने खिले न दिखाई
पड़े थे। और
पक्षियों का
गीत इस तरह
सुनाई नहीं
पड़ा था, जैसा
इमर्सन के साथ
सुनाई पड़ने
लगा।
एक
शांत आदमी पास
है, तो वह
दूसरे को भी
शांत करने की
व्यवस्था
जुटा देता है।
दो दिन बाद वह
क्षमा मांगकर
लौटा। उसने
कहा, मेरे
साठ साल तो
बेकार चले गए।
अब जो
थोड़े-बहुत दिन
बचे हैं, क्या
मैं कुछ पा
सकता हूं?
इमर्सन
ने कहा कि अगर
छः क्षण भी
बचे हों, और
तुम अपने साथ
ईमानदार हो, तो उतना पा
सकते हो, जितना
तीन सौ साठ
साल में मैंने
पाया। लेकिन अपने
साथ ईमानदार,
टु बी
आनेस्ट विद वनसेल्फ।
दूसरे
के साथ
ईमानदार होना
बहुत कठिन
नहीं है।
क्यों? उसी
वजह से
दूकानों पर
लिखा हुआ है, आनेस्टी इज़ दि
बेस्ट
पालिसी।
दूसरे के साथ
ईमानदार होने में
बहुत कठिनाई
नहीं है।
होशियार आदमी
दूसरे के साथ
ईमानदार होते
हैं, क्योंकि
दैट इज़ दि
बेस्ट
पालिसी। वही
सबसे अच्छी
तरकीब है। लेकिन
अपने साथ
ईमानदार होना आर्डुअस
है, वह
सिर्फ योगी ही
हो पाता है।
लेकिन मैं
आपसे कहता हूं,
जो अपने साथ
ईमानदार हो
सके, वह
चित्त उपराम
को पा सकता
है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक में कहे
गए चित्त
वृत्ति निरोध
के बहुत-से
अर्थ लोगों ने
किए हैं। इसका
आप क्या अर्थ
करते हैं? कृपया
इसे भी स्पष्ट
करें।
चित्त
वृत्ति
निरोध। साधारणतः
लोग चित्त
वृत्ति निरोध
का अर्थ करते
रहे हैं, चित्त
वृत्तियों का
दमन। वह उसका
अर्थ नहीं है।
निरोध शब्द
दमन का सूचक
नहीं है। अगर
दमन ही कहना
होता, तो
कहते, चित्त
वृत्ति
विरोध। चित्त
वृत्ति विरोध!
निरोध
बहुत अदभुत
शब्द है।
चित्त वृत्ति
निरोध का अर्थ
है, चित्त की
इतनी गहरी समझ
कि वृत्तियां
निरोध को
उपलब्ध हो
जाएं। दमन
नासमझी है और
दमन सिवाय
अज्ञानी के
कोई भी करता
नहीं। और दमन
जिसने किया
वृत्तियों का,
वह मुश्किल
में पड़ता है।
क्रोध
को दबाया कि
क्रोध और बड़ा
होगा। क्रोध को
दबाना ऐसे ही
है, जैसे बीज
को जमीन के भीतर
दबाना। उससे
तो जमीन के
ऊपर ही रहता, तो बेहतर
था। जमीन के
भीतर बीज अब फूटेगा और
वृक्ष बनेगा।
जड़ें फैलेंगी;
आकाश को छू
जाएगा। करोड़-करोड़
बीज लगेंगे।
क्रोध को
दबाया, तो
क्रोध के बीज
को चित्त की अंतर्भूमि
में डाल दिया।
अब वह और बड़ा
होगा।
नहीं; दमन नहीं है निरोध।
चित्त वृत्ति
का निरोध, चित्त
वृत्ति की समझ
है। जैसे ही
कोई चित्त की
किसी वृत्ति
को समझता है, वह वृत्ति
निरुद्ध हो
जाती है। समझ
निरोध है।
अगर
कोई क्रोध को
समझ ले कि
क्रोध क्या है, तो सिवाय
दुख और आग के
पाएगा क्या? अगर कोई
क्रोध को पूरा
देख ले, तो
सिवाय जहर के
और मिलेगा
क्या? और
अगर दिखाई पड़े
कि जहर और आग, और अपने ही
हाथ से अपने
ऊपर, तो
ऐसा पागल
खोजना
मुश्किल है, जो क्रोध की
वृत्ति को
सक्रिय रख
सके। वृत्ति निरुद्ध
हो जाएगी। जहर
को जहर जानते
ही जहर से
छुटकारा हो
जाता है।
लेकिन
हम सबको
भ्रांति है कि
हम सबको पता
ही है कि
क्रोध बुरा
है। फिर
छुटकारा क्यों
नहीं होता? हम सबको
मालूम है कि
क्रोध बुरा
है। ऐसा आदमी पा
सकते हैं आप, जिसको मालूम
न हो कि क्रोध
बुरा है? सबको
मालूम है कि
क्रोध बुरा
है। तो फिर
मेरी बात तो
बड़ी उलटी
मालूम पड़ती
है। सबको
मालूम है, तो
फिर इतने लोग
सुबह से सांझ
तक क्रोध में
जीए चले जाते हैं!
नहीं; मैं आपसे
कहता हूं, आपको
जरा भी मालूम
नहीं है कि
क्रोध बुरा
है। आपको भीतर
से तो यही
मालूम है कि
क्रोध बहुत अच्छा
है। ऊपर से
सुना हुआ है
कि क्रोध बुरा
है। यह आपका
अनुभव, आपकी
प्रतीति, आपका
अपना
साक्षात्कार
नहीं है कि
क्रोध बुरा
है।
गुरजिएफ, अभी फ्रांस
में एक फकीर
था। शायद इस
सदी में थोड़े-से
लोग थे, जिनकी
इतनी गहरी समझ
है। अगर उसके
पास कोई जाता
और कहता कि
मैं क्रोध से
बहुत परेशान
हूं, क्रोध
इतना बुरा है,
फिर भी मैं
छूट नहीं पाता,
तो गुरजिएफ
कहता कि रुको।
पहली तो बात
यह छोड़ दो कि
क्रोध बुरा
है। पहली बात
यह छोड़ दो, क्योंकि
यह बात
तुम्हें कभी
समझने न देगी।
क्योंकि यह
बात समझदारी
का झूठा भ्रम
पैदा करती है
कि तुमको पता
है। तुमको पता
ही है कि
क्रोध बुरा
है!
तुम्हें
बिलकुल पता
नहीं है। पहले
तुम यह छोड़ दो।
क्रोध नहीं
छूटता। क्रोध
को रहने दो।
कृपा करके यह
छोड़ दो कि
क्रोध बुरा
है।
वह
आदमी कहता कि
क्रोध बुरा है, यह जानकर
मैं इतना
क्रोध कर रहा
हूं! और अगर यह छोड़
दूं कि क्रोध
बुरा है, तब
तो बहुत
मुसीबत हो
जाएगी!
गुरजिएफ
कहता कि तुम
रुको। हम
मुसीबत को
लेने को तैयार
हैं। मुसीबत
होने दो। और
गुरजिएफ ऐसे
उपाय करता कि
उस आदमी के
क्रोध को
जगाए। ऐसी सिचुएशंस, ऐसी स्थितियां
पैदा करता कि
उस आदमी का
क्रोध भभककर
जले। और उस
आदमी से कहता
कि पूरा करो।
थोड़ा भी छोड़ना
मत। पूरा ही
कर डालो।
उबल जाओ।
रोआं-रोआं जल
उठे। आग बन
जाओ। पूरा कर
लो। और वह ऐसी स्थितियां
पैदा
करता--अपमान
कर देता, गाली
दे देता या
किसी और से उस
आदमी को फंसवा
देता--उस आदमी
के घाव को छू
देता कि वह
एकदम किसी
क्षण में होश
खो देता और
उबल पड़ता। और
भयंकर रूप से।
और वह उसको
बढ़ावा दिए
जाता, उसके
क्रोध को, और
घी डालता।
और जब
वह पूरी आग
में जल रहा
होता, तब वह
चिल्लाकर
कहता कि
मित्र! इस
वक्त देख लो कि
क्रोध क्या
है। यह है
मौका। अभी देख
लो कि क्रोध
क्या है।
पहचान लो कि
क्रोध क्या
है। यह है।
आंख बंद करो, एंड मेडिटेट
आन इट। आंख
बंद कर लो, और
अब ध्यान करो
इस क्रोध पर।
रोआं-रोआं जल
रहा है। खून
का कण-कण आग हो
गया है। हृदय
फूट पड़ने को है।
मस्तिष्क की
शिरा-शिरा खून
से भर गई है और
पागल है। रुको
भीतर। अब तुम
जरा ठीक से
देख लो, क्रोध
पूरा मौजूद
है। और यह
आश्चर्य की
बात है कि
गुरजिएफ
जिसको भी ऐसा
क्रोध दिखा
देता, वह
आदमी दुबारा
क्रोध करने
में असमर्थ हो
जाता--असमर्थ!
लेकिन
हमारी पूरी
व्यवस्था
उलटी है।
छोटे-से बच्चे
को हम दमन
शुरू करवा
देते हैं, क्रोध मत
करना। क्रोध
दबाना; क्रोध
बहुत बुरा है।
और बच्चा
देखता है कि
बाप क्रोध
करता है; मां
क्रोध करती
है। सब जारी
है! वह बाप
बच्चे को समझा
रहा है कि
क्रोध मत करना;
क्रोध बुरा
है। और बच्चा
अगर न माने, तो बाप
क्रोध में आ
जाता है उसी
वक्त! वह
बच्चा देखता
है कि बड़ा मजा
चल रहा है, बड़ा
खेल चल रहा है!
और
बच्चे बहुत
एक्यूट आब्जर्वर्स
हैं, बड़े गौर
से देखते हैं।
क्योंकि अभी
उनकी निरीक्षण
की क्षमता
बहुत शुद्ध
है। वे बिलकुल
ठीक देखते हैं
कि हद बेईमानी
चल रही है! बाप
कह रहा है, क्रोध
मत करना, और
अगर हम क्रोध
करते हैं, तो
वह खुद ही
क्रोध कर रहा
है!
दमन हम
करवा रहे हैं।
कभी बच्चा
क्रोध को जान नहीं
पाएगा कि
क्रोध क्या
है। बस, इतना
ही जान पाएगा,
क्रोध बुरा
है। और
कुनकुने क्रोध
को जान पाएगा,
जो बीच-बीच
में फूटता
रहेगा।
कुनकुने
क्रोध से कभी
पहचान नहीं हो
सकती। कुनकुने
पानी में हाथ
डालने से कभी
वह स्थिति न आएगी
कि गरम पानी
जलाता है, इसका पता
चले। एक बार
उबलते पानी
में हाथ जाना
जरूरी है। फिर
हाथ बाहर रहने
लगेगा। फिर
कोई कहेगा कि
प्यारे आओ, बहुत अमृत
उबल रहा है।
हाथ डालो!
कहोगे कि
प्यारे
बिलकुल नहीं
आएंगे। अनुभव
है!
वृत्तियों
का
साक्षात्कार--उनकी
शुद्धतम स्थिति
में--निरोध
बनता है; कोई
भी वृत्ति का
शुद्धतम
साक्षात्कार।
लेकिन मनुष्य
की संस्कृति
ने इतने जाल
खड़े कर दिए
हैं कि कोई भी
आदमी किसी
वृत्ति का
शुद्ध
साक्षात्कार
नहीं कर पाता।
न तो कामवासना
का शुद्ध
साक्षात्कार
कर पाता है; न क्रोध का, न लोभ का, न
भय का। किसी
चीज का शुद्ध
साक्षात्कार
नहीं होता है।
इसलिए किसी से
छुटकारा नहीं
होता; कोई
चीज निरुद्ध
नहीं होती।
भय है।
कोई भय का
शुद्ध साक्षात्कार
नहीं कर पाता।
क्योंकि हर
बच्चे को
सिखाया जा रहा
है कि निर्भीक
रहो, डरना मत।
डरे हुए आदमी
से कह रहे हो, डरना मत!
जटिलता और बढ़
गई। भीतर
डरेगा; ऊपर
एक खोल तैयार
कर लेगा कि
मैं डरता नहीं
हूं। अंधेरी
गली में से
निकलेगा, सीटी
बजाएगा, और सोचेगा, मैं डरता
नहीं हूं।
सीटी इसीलिए
बजा रहा है कि
डर लग रहा है।
अपनी ही सीटी
सुनकर ऐसा
भ्रम पैदा
होता है कि
अकेला नहीं
हूं। कहेगा
यही कि मैं तो
सीटी बजाकर
निकल जाता हूं
अंधेरे में
से। लेकिन इसको
उजाले में कभी
किसी ने सीटी
बजाते नहीं देखा!
अंधेरे में
सीटी बजाता है,
ताकि भूल
जाए कि डर है।
दोहरा
व्यक्तित्व
हमारा हो जाता
है, डबल बाइंड।
ऊपर एक थोथी
खोल चढ़ जाती
है सिखाई हुई,
सिखावन की,
कंडीशनिंग
की, और
भीतर असली
आदमी रहता है
वृत्तियों
का। वह वृत्तियों
वाले आदमी को
हम ऊपर के
झूठे आदमी से
दबाए चले जाते
हैं। हां, जब
जरूरत नहीं रहती,
तब वह दबा
रहता है। जब
जरूरत आती है,
वह इसको
धक्का देकर
बाहर आ जाता
है। जब जरूरत निकल
जाती है, वह
फिर भीतर चला
जाता है।
हमारे
भीतर दो आदमी
हैं। एक आदमी
वह, जो
साधारण
स्थितियों
में काम करता
है। रास्ते पर
आप जा रहे हैं,
बड़े भले
आदमी मालूम पड़
रहे हैं। वह
आपका एक आदमी
है। किसी आदमी
ने एक धक्का
दे दिया; वह
जो बाहर आदमी
था, भीतर
चला गया; जो
भीतर आदमी था,
वह बाहर आ
गया। यह दूसरा
आदमी है। यह
असली आदमी है।
यही असली आदमी
है। वह जो
नकली आदमी सड़क
पर चला जा रहा
था बिलकुल
मुस्कुराता
हुआ, एकदम
सज्जन मालूम
पड़ रहा था, वह
असली आदमी
नहीं है। वह
तो बेकाम है।
वह तो सिर्फ
एक चेहरा है, जिसका उपयोग
हम करते रहते
हैं, एक
मास्क, एक
मुखौटा। असली
आदमी भीतर
बैठा है।
वह
असली आदमी तभी
निकलता है, जब कोई
जरूरत होती है,
नहीं तो वह
भीतर रहा आता
है। जब जरूरत
चली जाती है, वह पुनः
भीतर चला जाता
है। यह नकली
आदमी फिर ऊपर
आकर बैठ जाता
है। असली आदमी
क्रोध करता है,
नकली आदमी
माफी मांग
लेता है। असली
आदमी क्रोध
करता है, नकली
आदमी कसमें
खाता है कि
क्रोध नहीं
करूंगा। असली
आदमी क्रोध
करता चला जाता
है, नकली
आदमी गीता
पढ़ता चला जाता
है; सोचता
रहता है, क्रोध
का निरोध कैसे
करें! असली
आदमी गीता
नहीं पढ़ता, वह जो भीतर
बैठा है। यह
नकली आदमी
क्रोध नहीं करता।
और नकली आदमी
कसमें खाता
है।
ऐसे
दोहरे तल पर, समानांतर
रेखाओं की तरह
दो आदमी हमारे
भीतर हो जाते
हैं। वे कहीं
मिलते हुए
मालूम नहीं
पड़ते। रेल की
पटरियों की
तरह दिखाई
पड़ते हैं कि
आगे मिलते हैं,
मिलते कहीं
भी
नहीं--पैरेलल।
बस, चलते
चले जाते हैं।
पूरी जिंदगी
ऐसे ही बीत जाती
है। काम जब
पड़ता है, असली
आदमी निकल आता
है। जब कोई
काम नहीं रहता,
नकली आदमी
अपने बैठकखाने
में बैठा रहता
है।
इस
स्थिति को
तोड़ना पड़ेगा।
इस स्थिति को
तोड़ने का एक
ही उपाय है, वृत्तियों
का शुद्ध
साक्षात्कार।
यह बड़े मजे की
बात है कि
किसी भी
वृत्ति का
शुद्ध साक्षात्कार
आपको तत्काल
निरोध में ले
जाता है; क्योंकि
शुद्ध वृत्ति
का
साक्षात्कार
नरक का
साक्षात्कार
है। कोई उपाय
ही नहीं है; उसको जाना
कि आप बाहर
हुए। नहीं
जाना, तो
भीतर रहेंगे।
और हमारी सारी
व्यवस्था, उसको
न जानने की
व्यवस्था है,
निग्लेक्ट करने की।
मां
जानती है, बाप जानता
है कि बेटे की
उम्र हो गई है;
अब उसमें
कामवासना जग
रही है। लेकिन
मां-बाप ऐसे
चलते रहते हैं,
जैसे
उन्हें कुछ भी
पता नहीं कि
बेटे में कामवासना
जग रही है। वे
ऐसा मानकर
चलते रहते हैं
कि नहीं, सबके
बेटों में जग
रही होगी; अपने
बेटे में नहीं
जग रही है।
अपना बेटा
बिलकुल
सात्विक!
एक
युवक ने
संन्यास लिया
है। उसने मुझे
आकर बड़ी
मजेदार बात
कही। वह लौटकर
अपने पिता के
पास गया, तो
पिता ने कहा, संन्यास
लिया, यह
तो बहुत ठीक
है। विवाहित
युवक है। पिता
ने उपदेश दिया
कि अब संन्यास
लिया है, यह
तो बहुत ठीक
है। लेकिन
असली चीज
ब्रह्मचर्य
है।
ब्रह्मचर्य
की साधना
करना।
वह
बेटा मुझसे
आकर कह रहा था
कि मेरे मन
में हुआ कि
पिताजी, अगर
आप भी
ब्रह्मचर्य
की साधना करते,
तो मैं
संन्यास लेने
को नहीं हो
पाता! लेकिन
डर के मारे
नहीं कहा।
लेकिन भीतर के
मन ने तो कह ही
दिया। अब यह
पिता कह रहा
है, बिना
इस बात को
समझे कि
संन्यास क्या
है! ब्रह्मचर्य
क्या है!
कामवासना
क्या है! कुछ
बिना समझे!
उड़ते हुए शब्द
पकड़ गए हैं
दिमाग
में--ब्रह्मचर्य!
अगर
बाप समझदार हो, तो बेटे से
कहेगा, कामवासना
का इतना
साक्षात कर लो,
इतना
साक्षात कि
तुम उसे पूरा
पहचान जाओ।
जिस दिन तुम
पूरा पहचान
जाओगे, ब्रह्मचर्य
के कहने की
जरूरत नहीं; वह फलित
होगा। लेकिन
कोई बाप यह
नहीं कहेगा। बाप
कहेगा, ब्रह्मचर्य
साधो। न उसने साधा
है; न उसके
बाप ने साधा
है; न उसके
बाप ने साधा
है। क्योंकि
साधा होता, तो यह मौका
नहीं आता कहने
का।
कामवासना
से भी प्रतीति
नहीं है, साक्षात्कार
नहीं है।
कामवासना भी
आपके भीतर का
आदमी आपकी
छाती पर चढ़कर
पकड़ लेता है। क्षणभर
बाद लौट जाता
है भीतर। वह
जो ऊपरी आदमी
था, सतही
आदमी, वह
फिर पछताता
है। वह कहता
है, फिर
वही गलती, फिर
वही भूल! क्या
नासमझी!
वह
करते रहो भूल, चौबीस घंटे
तुम सोचते रहो,
चौबीस घंटे
बाद वह भीतर
वाला आदमी फिर
गर्दन दबाकर
सवार हो
जाएगा। उस
भीतर वाले
आदमी को ही समझना
कि मैं हूं।
इस थोथे चेहरे
को मत समझना
कि मैं हूं।
वह जो भीतर
बैठा है, वही
मैं हूं। इसको
समझना। और वह
जो भीतर है, उसकी एक-एक
वृत्ति के
पूरे के पूरे
शुद्ध प्रत्यक्षीकरण
में उतर जाना।
और एक बार भी
एक वृत्ति का
शुद्ध
साक्षात्कार
हो जाए, तो
निरोध उपलब्ध
होता है।
कृष्ण
जब कहते हैं, चित्त वृत्ति
निरोध, या
पतंजलि जब
कहते हैं, चित्त
वृत्ति निरोध,
तो पतंजलि
कोई फ्रायड से
कम समझदार
आदमी नहीं हैं;
ज्यादा ही
समझदार हैं।
और जब कृष्ण
कहते हैं, चित्त
वृत्ति निरोध,
तो फ्रायड
से बहुत गहरा
जानते हैं।
जो भी
इसका अर्थ
करता है दमन, वह नहीं
समझता।
उन्हीं अर्थ
करने वालों ने
यह हमारा समाज
पैदा किया है,
जो निपट
बेईमान है, हिपोक्रेट
है, पाखंडी
है; बिलकुल
झूठ है। और
सबको पता है
कि बिलकुल झूठ
है। लेकिन ऐसे
जीए चले जाते
हैं कि जैसे
बिलकुल सच है।
बस चेहरों से
ही संबंध
बनाते हैं। और
भीतर एक दूसरी
दुनिया हमारे
नीचे अंडर
करेंट की तरह
सरकती रहती
है। अगर कोई
आदमी चांद से
उतर आए, मंगल
ग्रह से आकर
हमें देखे, तो उसे कुछ
बातों का पता
ही नहीं
चलेगा। हमारे
चेहरों का ही
पता चलेगा।
उसे पता ही
नहीं चलेगा कि
भीतर एक और
असली दुनिया
है, वास्तविक,
जो चल रही
है।
पति-पत्नी
सड़क पर चलते हैं, तब वे एक
दूसरी दुनिया
में हैं, चेहरे
वाली दुनिया
में। जब उनको
घर उनके मुखौटे
उतारकर
और लड़ते-झगड़ते
देखो, तब
एक दूसरा
चेहरा है। यह
तो आईने-वाईने
में तैयार
होकर जब सड़क
पर निकलते हैं,
तो दूसरे
दंपतियों कोर्
ईष्या का कारण
हो जाते हैं
कि दांपत्य तो
यह है! कैसा
सुख है!
हालांकि वे भी
यही सोच रहे
हैं उनके
चेहरे और
मुखौटों को
देखकर कि
दांपत्य तो यह
है! कैसा सुख
है!
असली
आदमी जो भीतर
बैठे हैं, हिंसा से
भरे, क्रोध
से भरे, वासना
से भरे, लोभ
से भरे, क्रूरता
से भरे, उस
असली आदमी को
पहचानना पड़े;
उस असली
आदमी को जीना
भी पड़े। उस
असली आदमी से
भागने का सीधा
कोई उपाय नहीं
है; जीकर
ही उससे
छुटकारा है।
उसको जीना पड़े,
उसकी पीड़ा
को अनुभव करना
पड़े, उसके
पूरे संताप से
गुजरना पड़े।
और जो आदमी भी
उसके पूरे
संताप से
गुजरने को
राजी है, वह
क्षण में बाहर
हो सकता है।
भागें
मत। एस्केप से
कुछ होने वाला
नहीं। अपने से
भागकर कहीं जा
नहीं सकते
हैं। जो भी
अपने भीतर है, उसे पूरी
तरह जीएं।
और साधक
मुखौटे को तोड़
डाले, हटा
दे। कह दे कि
जैसा हूं, बुरा-भला
ऐसा हूं। आदमी
बुरा हूं, बुरा
हूं। इस बुरेपन
के ऊपर मैं
कोई मुलम्मा
नहीं करूंगा,
कोई
मलहम-पट्टी नहीं
करूंगा। बुरा
हूं, तो
बुरा हूं, उसमें
क्या किया जा
सकता है! इसे
जाहिर करूंगा
कि मैं बुरा
हूं।
उसे कह
देना चाहिए
अपनी पत्नी को
कि जब सड़क पर कोई
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़ती है, तो मेरा मन
डोलता है। उसे
कह देना चाहिए,
ऐसा होता
है। और जैसे
ही वह इस
मुखौटे को तोड़ना
शुरू
करेगा...उसे कह
देना चाहिए
अपनी पत्नी को
या अपने पति
को या अपने
बेटे को कि जब
तुम मेरे
अहंकार को चोट
पहुंचाते हो,
तो मन होता
है, तुम्हारी
गर्दन दबा
दूं। ऐसा होता
है। इसमें कुछ
छिपाने जैसा
नहीं है। इतना
ही भीतर होता
है। इसे प्रकट
करने जैसा है।
मित्र
तो मैं उन्हें
ही कहता हूं, जिनके सामने
हमारे मुखौटे
न हों। परिवार
मैं उसे ही
कहता हूं, जिनके
सामने हमारे
मुखौटे न हों।
समाज मैं उसे
ही कहता हूं, जो हमें
स्वतंत्रता
देता हो कि हम
अपने मुखौटे उतारकर, जो
सीधे-सच्चे
हैं, हो
सकें। वही सुसंस्कृति
है, जहां
हमारे भीतर जो
है, हम वही
होने के लिए
स्वतंत्र
हैं।
और अगर
यह हो सके, अगर यह आप कर
पाएं, तो
आपको अपने
भीतर के असली
रूप में जीने
का अवसर
मिलेगा। और तब
आप पाएंगे, वह असली रूप
नरक है। और वह
असली रूप दुख
है। वह असली
रूप बुद्ध के
पहले
आर्य-सत्य को
प्रकट कर
जाएगा।
और वह
पहला
आर्य-सत्य
प्रकट हो जाए, तो उपाय
तत्काल मिल
जाता है। मकान
में आग लगी है
और छलांग
लगाकर कोई
बाहर निकल जाए,
ऐसे ही आप
अपनी तथाकथित
वृत्तियों के
जाल से छलांग
लगाकर बाहर हो
जाएंगे।
दुबारा लौटने
का मन न रह
जाएगा। इतना
जहर है वहां!
इतनी पीड़ा है वहां!
लेकिन
हमें उसकी
प्रतीति नहीं
होती।
क्योंकि हम अपने
को मानते हैं
कि नहीं, ये
सब बातें हम
में नहीं हैं।
कभी-कभी क्रोध
हो जाता है, वह दूसरी
बात है, परिस्थितिवश।
लेकिन हम में
कोई क्रोध है
नहीं।
लेकिन
नहीं है, तो
हो नहीं सकता।
स्थिति
बिलकुल उलटी
है; चौबीस
घंटे भीतर
क्रोध चल रहा
है। बिलकुल
जैसे बिजली
दौड़ रही है
तार में। जब
हाथ लगाओ, तब
शॉक मारती है।
इसका मतलब यह
नहीं कि जब
हाथ लगाते हैं,
तब दौड़ती
है। दौड़ती तो
चौबीस घंटे
रहती है; हाथ
लगाओ, तब
पता चलता है।
तो
क्रोध तो
आपमें चौबीस
घंटे दौड़ रहा
है, कोई जरा
हाथ लगाए, तब
शॉक निकलता
है। बिजली का
तार भी ऐसा ही
सोचता होगा, जैसा आप
सोचते हैं कि
हममें कोई
बिजली नहीं दौड़ती।
यह तो जब कोई
हाथ लगाता है,
तब शॉक पैदा
होता है। हाथ
लगाने वाले से
शॉक पैदा नहीं
होता। जब कोई
मुझे गाली
देता है, उससे
क्रोध नहीं
पैदा होता; वह तो सिर्फ
हाथ लगा रहा
है। क्रोध की
अंतर्धारा
मुझमें बहती
रहती है। गाली
से जरा संबंध
जुड़ा कि शॉक!
मैं विकराल हो
उठता हूं, पागल
हो उठता हूं।
वह पागलपन
हमारे भीतर है,
वह
विक्षिप्तता
हमारे भीतर
है।
वृत्ति
निरोध का अर्थ
है, वृत्ति
की इतनी गहरी
समझ कि वृत्ति
का होना असंभव
हो जाए। इतनी
गहरी
अंडरस्टैंडिंग,
इतना गहरा
अनुभव, ऐसी
गहरी अनुभूति
कि वृत्ति
असंभव हो जाए।
और ज्ञान के
अतिरिक्त और
कोई मुक्ति
नहीं है। और ज्ञान
के अतिरिक्त
और कोई निरोध
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, उपराम, शांत हुआ
चित्त, चित्त
वृत्ति निरोध
को उपलब्ध हुआ
चित्त, उस
निरोध के क्षण
में प्रभु को
जानता है।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति
यत्र न चैवायं
स्थितश्चलति
तत्त्वतः।। 21।।
तथा
इंद्रियों से
अतीत केवल
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि
द्वारा ग्रहण
करने योग्य जो
अनंत आनंद है, उसको जिस
अवस्था में अनुभव
करता है और
जिस अवस्था
में स्थित हुआ
यह योगी भगवत्स्वरूप
से नहीं
चलायमान होता
है।
उसी
सूत्र का और
भी गहरा रूप। भगवत्स्वरूप
से नहीं
चलायमान होता
है। वह चित्त, वह व्यक्ति,
वह योगी, जो
इंद्रियों के
पार हूं मैं, ऐसा जानता
है, भगवत्स्वरूप से चलायमान
नहीं होता है।
भगवत्स्वरूप
से चलायमान हम
होते इसीलिए
हैं कि मानते
हैं कि
इंद्रियां
हूं मैं।
इंद्रियां
हूं मैं, तो
यात्रा शुरू
हो गई। हमने
स्वयं से दूर
जाना शुरू कर
दिया। और फिर
इंद्रियां और
दूर ले जाएंगी,
क्योंकि
प्रत्येक
इंद्रिय
कहेगी कि मुझे
मेरा विषय
चाहिए। तो
उसकी विषय की
खोज होगी। और
प्रत्येक
विषय के बाद
अनुभव होगा कि
इससे तृप्ति
नहीं होती, दूसरा विषय
चाहिए, तो
दूसरे की खोज
होगी। और फिर
जीवन एक
यात्रा बन
जाएगा।
यात्रा
के दो चरण
हैं। पहला चरण, मैं
इंद्रियां
हूं, ऐसा
तादात्म्य
बनाना जरूरी
है। अगर संसार
में जाना है, तो जानना
जरूरी है कि
मैं
इंद्रियां
हूं। और यह
तादात्म्य बन
जाता है। यह
बन जाता है
इसी तरह कि
चेतना इतनी
निर्मल और
इतनी शुद्ध है
कि जिस चीज के
भी पास जाती
है, उसका
प्रतिबिंब
पकड़ लेती है।
पुराने
योग के ग्रंथ
उदाहरण देते
हैं नीलमणि का।
प्रीतिकर है
उदाहरण।
पुराने योग के
ग्रंथ कहते
हैं कि नीलमणि
को अगर शुद्ध
जल, एक बर्तन
में, एक
कटोरे में
शुद्ध जल रखा
हो, नीलमणि
को उस जल में
डाल दें, तो
पूरा जल नीला
मालूम होने
लगता है। वह
जो नीलमणि की
आभा है, वह
पूरे जल को
घेर लेती है।
अगर
नीलमणि को होश
आ जाए, तो
नीलमणि क्या
कहेगी कि मैं
मणि हूं, जल
से अलग? नहीं।
क्योंकि जल भी
तो नीला हो
गया है। नीलमणि
कैसे जान
पाएगी कि कहां
मणि समाप्त
होती है और
कहां जल शुरू
होता है!
क्योंकि जल ने
भी नीलापन ले
लिया है। अगर
नीलमणि को होश
आ जाए, तो
नीलमणि जल की
परिधि को ही
अपनी परिधि
मानेगी, क्योंकि
वहां तक नील
का विस्तार
है।
ठीक
ऐसे ही, वह
जो भीतर शुद्ध
आत्मा है, वह
जो चेतना है, उसकी आभा
इंद्रियों को
घेर लेती है; शरीर के
कोने-कोने में
व्याप्त हो
जाती है। मेरी
आत्मा मेरी
अंगुलियों के
पोरों तक समा
गई है। मेरी
आत्मा मेरे
रोएं-रोएं के
कोने-कोने तक
प्रवेश कर गई
है। मेरी
आत्मा ने मेरी
पूरी इंद्रियों
को, मेरे
पूरे शरीर को
आवृत कर लिया
है। मेरी चेतना
की आभा में सब
समा गया है।
और यह आभा
अनंत है। इसलिए
चींटी के
छोटे-से शरीर
को भी घेर
लेती है, हाथी
के बड़े शरीर
को भी घेर
लेती है। अगर
मैं पूरे
ब्रह्मांड जैसा
शरीर भी पा
जाऊं, तो
भी मेरी आभा
इतने को घेर
लेगी। यह
आत्मा की आभा
अनंत है। और
यह आभा जहां
पड़ती है, जिस
सीमा को घेरती
है, उस
सीमा के साथ
लगता है कि
मैं एक हो
गया।
इसलिए
पहला कदम उठ
जाता है कि
मैं
इंद्रियां हूं, फिर दूसरा
कदम उठना
अनिवार्य हो
जाता है। क्योंकि
इंद्रियां
कहती हैं, कामेंद्रिय
कहती है कि
काम-विषय
खोजो। तो फिर काम-विषय
की खोज में
जाना पड़ता है।
ऐसे हम अपने
से बाहर जाते
हैं, या
चलायमान होते
हैं, गतिमान
होते हैं। ऐसे
हमारे भीतर वह
जो अचलायमान
है सदा, वह
चलायमान होने
की भ्रांति
में पड़ता है।
फिर वह खोजता
निकलता चला
जाता है--दूर, और दूर, और
दूर। और जितना
खोजता है, उतना
ही पाता है, नहीं मिलता,
तो और दूर
जाता है! ऐसे
जन्मों की
लंबी यात्रा होती
है।
कृष्ण
कह रहे हैं, जिसने जाना
कि मैं
इंद्रियों के
अतीत और पार हूं,
फिर
चलायमान नहीं
होता भगवत्स्वरूप
से, फिर
भगवान से
चलायमान नहीं
होता। फिर वह
भगवान में एक
हो जाता है, फिर वह
भगवान ही हो
जाता है।
लेकिन सूत्र
है, इंद्रियों
के पार हूं
मैं, इसे
जानना; ट्रांसेंडेंटल हूं, अतीत
हूं, इंद्रियां
नहीं हूं मैं,
इसे जानना।
एक
बहुत अजीब-सी
घटना मुझे याद
आती है। एक
फकीर हुआ है, लिंची, जापान
में एक बहुत
ज्ञानी फकीर
हुआ। लिंची की
सदा आदत थी कि
जब भी वह कुछ
समझाता, तो
एक अंगुली ऊपर
उठाकर
समझाता। जब भी
कुछ कहता, तो
उसकी एक
अंगुली ऊपर उठ
जाती। अद्वैत
की खबर वह
अंगुली से
देने लगता। जो
बोलने से नहीं
कह पाता था, वह अंगुली
से कहता। वह
जब तक बोलता
रहता, उसकी
अंगुली कंपित
होती रहती, ऊपर उठी
रहती।
फकीरों
में मजाक चलता
था। उसके
शिष्यों में
भी कभी-कभी
मजाक चलता था; वे भी
अंगुली उठाकर
बात करते थे।
उसके सामने तो
हिम्मत नहीं
पड़ती थी; लेकिन
पीठ पीछे उसके
शिष्य कभी-कभी
मजाक में अंगुली
उठा लेते।
एक दिन
एक शिष्य
अंगुली उठाकर
कुछ गपशप कर
रहा था। अचानक
लिंची मंदिर
के भीतर आ
गया। वह घबड़ा
गया। उसने
अंगुली अपनी
बंद की। लिंची
ने कहा कि
नहीं, उठी
रहने दो।
लिंची ने खीसे
से चाकू
निकाला और
अंगुली काटकर
फेंक दी। तड़फड़ा
गया।
लहूलुहान हो
गया हाथ।
लिंची ने कहा,
सावधान! देख,
अंगुली कटी
है, तू तो
नहीं कटा। बी
अवेयर। मौका
मत चूक। अंगुली
कटी है, तू
नहीं कटा। गौर
से देख!
चौंक
गया। लिंची की
आवाज! अंगुली
के कटने में एक
तो विचार वैसे
ही बंद हो गए।
एकदम घबड़ा गया।
विचार का कंपन
चला गया।
अंगुली कट
जाएगी, अनएक्सपेक्टेड,
कभी सोचा भी
नहीं था। और
लिंची जैसा
दयावान आदमी,
जो पत्ता न
तोड़े, वह
अंगुली काट
देगा, यह
कोई सोच ही
नहीं सकता था।
और फिर लिंची
की आवाज; और
लिंची का खड़ा
हुआ रूप; और
लिंची की उठी
हुई अंगुली!
देख, तू
नहीं कटा है, अंगुली कटी
है। उस आदमी
की आंख बंद हो
गई, उसने
भीतर देखा। वह
लिंची के
चरणों में गिर
पड़ा और उसने कहा
कि धन्यवाद!
पहली दफा मुझे
पता चला कि
मैं अंगुली
नहीं हूं।
एक-एक
इंद्रिय के
प्रति ऐसे ही
जागना पड़ता है
कि यह मैं
नहीं हूं, यह मैं नहीं
हूं, यह
मैं नहीं हूं।
और कठिन नहीं
है। जरूरी
नहीं है कि
अंगुली काटकर
ही जागें।
जरूरी नहीं है
कि अंगुली
काटकर ही
जागें, कभी
बैठकर शांति
से विचार ही
करें अंगुली
को उठाकर कि
क्या यह
अंगुली मैं
हूं? उठाए
रहें अंगुली
को; भीतर
सोचें, क्या
यह अंगुली मैं
हूं? बहुत
देर न लगेगी, अंगुली से
कोई चीज भीतर
वापस गिर
जाएगी। अंगुली
अलग, आप
अलग हो
जाएंगे।
कभी
आंख बंद करके
सोचें, यह
शरीर मैं हूं?
ध्यान रहे,
प्रश्न
पूछें, उत्तर
न दें! हम
उत्तर देने
में बड़े
होशियार हैं।
हम सबको मालूम
है कि मैं
शरीर नहीं
हूं! पूछा भी
नहीं कि उत्तर
तैयार है, रेडीमेड। कह दिया कि
मैं शरीर नहीं
हूं। बस, व्यर्थ
हो गया। नहीं;
सिर्फ
पूछें। उत्तर
को आने दें।
आप जल्दी न करें।
आपके उत्तर दो
कौड़ी के
हैं। क्योंकि
आपको उत्तर ही
मालूम होता, तो पूछने की
जरूरत क्या थी?
उत्तर आपको
मालूम नहीं
है।
लेकिन
शास्त्र
दुश्मन हो गए
हैं। पढ़ लिया
है उनको।
उनमें लिखा है
कि मैं शरीर
नहीं हूं! जो मित्र
हो सकते थे, उनको हमने
दुश्मन कर
लिया है।
कंठस्थ कर
लिया, मैं
शरीर नहीं
हूं। बैठे, पूछते हैं, मैं शरीर
हूं? पूछ
भी नहीं पाते,
हमको उत्तर
पहले से ही
पता है। वह
कहता है, क्या
बेकार में!
मैं शरीर नहीं
हूं। उठकर
वापस वही के
वही आदमी वापस
हो गए।
नहीं; पूछें, क्या
मैं शरीर हूं?
और चुप रह
जाएं। जाने
दें प्रश्न को
गहरा। उत्तर न
दें स्मृति
से। उतरने दें
प्रश्न को
गहरा। अनुभव
करें, क्या
मैं शरीर हूं?
शरीर
के प्रति
जागें, शरीर
को भीतर से
देखें कि यह
रहा शरीर।
जैसे कि कोई
आदमी अपने
मकान के भीतर
बैठा है और
देखता है कि चारों
तरफ दीवाल है,
ठीक ऐसे ही
अपने शरीर के
भीतर बैठकर
देखें, चारों
तरफ शरीर की
दीवाल है, हाथ
हैं, पैर
हैं। यह शरीर
रहा। क्या मैं
शरीर हूं? उत्तर
न दें। कृपा
कर उत्तर से
बचें। मैं
शरीर हूं? प्रश्न--और
प्रश्न को तीर
की तरह भीतर
उतर जाने दें।
और
जल्दी ही कोई
चीज भीतर गिर
जाएगी पर्दे
की तरह, और
अचानक प्रतीत
होगा, कहां!
शरीर तो वह
रहा; मैं
यह अलग हूं।
लेकिन यह
उत्तर आप मत
देना; यह
उत्तर आने
देना। और जब
यह आएगा, तो
आपके जीवन को
बदल जाएगा। और
जब आप देंगे, तो जीवन वही
का वही बना
रहेगा। यही
कसौटी है।
अगर इस
उत्तर के बाद
जीवन दूसरा हो
जाए, तो जानना
कि उत्तर आया।
और अगर जीवन
वही रहे कि
पूछ-पांछकर
उठे और सिगरेट
मुंह में
लगाकर जला ली
और फिर धुआं उड़ाने लगे!
और जीवन वही
का वही रहा, कोई अंतर न
पड़ा, कोई ट्रांसफार्मेशन
न हुआ, तो
जानना कि
उत्तर आथेंटिक
नहीं था; हमने
ही दे दिया
था।
और मन
की चालाकी
अनंत है। वह
उत्तर तैयार
रखे है, ताकि
आपको नाहक
भीतर न जाना
पड़े। वह कहता
है, कहां
जा रहे हो? पहरेदार
हूं, मैं
ही बताए देता
हूं। मालिक से
मिलने की जरूरत
क्या है? दरवाजे
पर पहरेदार की
तरह खड़ा है।
आपसे कहता है,
हम ही बताए
देते हैं, आप
कहां जाते हो?
बैठो यहीं।
सब उत्तर हमें
मालूम हैं; नाहक भीतर
जाने का कष्ट
क्यों उठाते
हो!
तो मन
से कहना कि
क्षमा करो।
तुम्हारे
उत्तर अपने
पास रखो।
तुम्हारे
उत्तर नहीं
चाहिए। तुम्हारे
शास्त्र, तुम्हारे
सिद्धांत
तुम्हीं
सम्हालो।
मुझे कृपा कर
भीतर जाने दो।
मैं ही जानना
चाहता हूं कि
क्या है। मुझे
कुछ भी पता नहीं
है।
पूछें!
और तब भीतर एक
पर्दा गिर
जाएगा। एक झीना-सा
पर्दा आभा का, सिर्फ आभा
का पर्दा है, वह सिकुड़
जाएगा। शरीर
अलग, आप
अलग हो
जाएंगे।
और जिस
क्षण यह अनुभव
होता है कि
शरीर अलग, मैं अलग; इंद्रियां
अलग, मैं
अलग; फिर
चेतना
चलायमान नहीं
होती है। फिर
प्रभु में रम
जाती है। फिर
प्रभु से एक
हो जाती है।
फिर कभी प्रभु
के घर को
छोड़कर जाती
नहीं। फिर कहीं
भी जाए, प्रभु
के घर में ही
रहती हुई जाती
है। फिर मंदिर
से चली जाए
दुकान पर, तो
मंदिर दुकान
पर पहुंच जाता
है। रास्ते से
गुजरे, तो
भी जानता है
व्यक्ति कि
मैं प्रभु में
ठहरा हुआ हूं।
चलेगा शरीर, मैं ठहरा
हुआ हूं।
कटेगा शरीर, मैं अनकटा
हूं। छिदेगा
शरीर, मैं
अनछिदा हूं।
मरेगा शरीर, मैं अमृत
हूं। वह जानता
ही रहता है; वह जानता ही
रहता है।
ऐसी
प्रतीति
प्रभु में थिर
कर जाती है।
और प्रभु में
थिरता आनंद
है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट
संन्यासी
कीर्तन करते
हैं, उनका
प्रसाद लेते
जाएं। उनके
पास देने को
आपके लिए कुछ
और नहीं है, इसलिए उठकर
जाएंगे, तो
उनको लगेगा कि
उनका प्रसाद
आप नहीं लेते
हैं! बैठे
रहें। और उनके
साथ सम्मिलित
हों, तो ही
प्रसाद मिलेगा,
अन्यथा
प्रसाद मिलने
का कोई और
उपाय नहीं है।
गाएं।
उनके गीत में
एक हो जाएं।
ताली बजाएं। डोलें।
आनंदित हों।
पांच मिनट के
लिए भूलें उस
सब को जो
हमारा चित्त
है, और एक नए
चित्त की
यात्रा पर निकलें।
thank you guruji
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