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शनिवार, 31 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--16

गुरु है द्वार—प्रवचन—सोलहवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्‍न सार:

1—नानकदेव भी जाग्रतपुरूष थे, लेकिन उन्‍होंने स्‍वयं को भगवान नहीं कहा। आप........?

2—ध्‍यान के एक गहन अनुभव पर भगवान से मार्ग दर्शन की प्रार्थाना

3—अफसोस, दिल का हाल कोई पूछता नहीं। और सब कहते है तेरी सूरत बदल गई।
और सब कुछ लूटा के होश में आये तो क्‍या किया।  मैं क्‍या करूं...... ?

4—आप उत्‍तर न देंगे तो मैं पागल हो जाऊंगा


पहला प्रश्न:

नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे। लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए। और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना चाहिए।

पूछा है आर. एस. गिल ने। सिक्ख ही पूछ सकता है ऐसा प्रश्न। क्योंकि प्रश्न हृदय से नहीं आया। प्रश्न थोथा है, और बुद्धि से आया। प्रश्न परंपरा से आया। मान्यता से आया। पक्षपात से आया। पर समझने-जैसा है, क्योंकि ऐसे पक्षपात सभी के भीतर भरे पड़े हैं।
पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा है--नानकदेव! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता है दिव्य, डिवाइन। दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता। नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से ऊपर; दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है--भाग्यवान। कुछ और बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान? जिसने अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान? जिसकी कली खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान? जिसे पाने को कुछ न रहा--जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल खिल जाता है, तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है, तो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है।
भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न रही होगी कि वे समझ पाते। कृष्ण तो नहीं डरे। कृष्ण ने तो अर्जुन से कहा--सर्व धर्मान परित्यज्य..., छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा। नानक को पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा में कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे।
नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक समन्वय बन जाए। मुसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह भाषा समझ ही नहीं सकता कि मैं भगवान हूं। जिसने ऐसा कहा उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली।
नानक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी भाषा बोलनी उचित थी जो मुसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू और मुसलमान के एक होने की।
जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने बड़ी गहरी चेष्टा की।
इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है।
लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को सोचना चाहिए नानक देव क्यों?
इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मुसलमान होता है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है।
तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं--नानकदेव! नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? "भगवान' शब्द का उपयोग न किया, "देव' शब्द को उपयोग किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं।
और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां समाप्ति नहीं।
"नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।' निश्चित ही। इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। फर्क क्या है? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है? बुद्ध जागे हुए, तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है।
एक आदमी सो रहा है, उसी सोये आदमी के पास एक जागा हुआ आदमी बैठा है। दोनों आदमी हैं, सही। लेकिन क्या दोनों एक ही जैसे आदमी हैं? तो फिर नींद और जागरण में कुछ फर्क करोगे, न करोगे? नींद और जागरण में इतना क्रांतिकारी फर्क है कि अगर हम जागे हुओं को कहें कि यह बिलकुल दूसरे ही ढंग का आदमी है, तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि सोया हुआ आदमी क्या आदमी है! सोये हुए आदमी में और चट्टान में क्या फर्क है? सोये हुए आदमी और वृक्ष में क्या फर्क है? मूर्च्छित आदमी और पत्थर में क्या फर्क है? न पत्थर जाग रहा है, न सोया हुआ आदमी जाग रहा है। दोनों समान हैं।
नींद में हम प्रकृति में गिर जाते हैं। जागकर हम परमात्मा में उठने लगते हैं। और यह जागरण जिसको अभी हम जागरण कहते हैं, यह तो शुद्ध जागरण नहीं है। इसमें तो नब्बे प्रतिशत से ज्यादा नींद समाविष्ट है। जब कोई व्यक्ति सौ प्रतिशत जाग जाता है, तो उसी को किसी परंपरा में भगवान कहा है, किसी परंपरा में अरिहंत कहा है, किसी परंपरा में तीर्थंकर, किसी परंपरा में पैगंबर, किसी परंपरा में गुरु, कोई फर्क नहीं पड़ता, शब्दों का ही फर्क है। लेकिन हम शब्दों से बंध जाते हैं। सिक्ख है, तो जो उसने सुना है उससे बंध गया है। हिंदू है, तो बंध गया है; जैन है, तो बंध गया है। हम सब सुने हुए शब्दों से बंध जाते हैं। और फिर शब्दों के कारण सत्यों को देखने में अड़चन हो जाती है।
"नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं।' उन्हें अर्जुन न मिला होगा। क्योंकि मैं भगवान हूं, यह कहने के लिए कोई सुननेवाला चाहिए। कोई समझनेवाला चाहिए। कोई आत्यंतिक प्रेम से सुननेवाला चाहिए। अन्यथा यह बात विवाद ही पैदा करेगी, इससे कुछ हल न होगा। मैं भगवान हूं, यह तो कहा ही जा सकता है किसी बड़े गहरे श्रद्धा के क्षण में, जबकि दो व्यक्ति इतने जुड़े हों कि संदेह का उपाय न हो। कृष्ण कह सके।
फिर यह भी खयाल रखें कि प्रत्येक जाग्रतपुरुष अपनी भाषा चुनता है, अपना ढंग चुनता है। कोई जाग्रतपुरुष किसी और जाग्रतपुरुष का अनुकरण नहीं करता। तालमेल बैठ जाए, ठीक; अनुकरण नहीं करता। नानक ने अपने ढंग से चुना। नानक को अपनी शैली बनानी पड़ी। अब अगर तुम इस तरह सोचते फिरे कि जो बुद्ध ने कहा है वही नानक कहें, जो नानक ने कहा है वही मैं कहूं, तो तुम व्यर्थ की उलझन में पड़ रहे हो। मैं वही कहूंगा जो मैं कह सकता हूं। नानक ने मुझसे नहीं पूछा, मैं उनसे क्यों पूछूं? नानक की मौज, उन्होंने नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। मेरी मौज, मैं कहता हूं।
और मैं मानता हूं कि अस्तित्व एक ऐसी घड़ी के करीब आ रहा है, जहां यह घोषणा करनी उपयोगी है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना एक ऐसे द्वार के निकट आती है, जहां जागरण बड़ा आसान है। बुद्ध से, महावीर से पच्चीस सौ वर्ष पहले कृष्ण हुए। कृष्ण ने भगवत्ता की घोषणा की। फिर पच्चीस सौ साल बाद बुद्ध, महावीर हुए; जरथुस्त्र हुआ परसिया में; लाओत्सू, कन्फयूशियस हुए चीन में; हेराक्लाइटस, सुकरात हुए यूनान में। पच्चीस सौ वर्ष के बाद फिर एक गहन विस्फोट हुआ और सब तरफ सारे जगत में एक गुनगुनाहट गूंज गयी अध्यात्म की। फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होते हैं। इस सदी के पूरे होतेऱ्होते सारी पृथ्वी पर धर्म की अनुगूंज होगी। घड़ी करीब आ रही है, जब लोग हिम्मत से घोषणा करें भगवत्ता की।
क्योंकि जब कोई तुमसे कहता है मैं भगवान हूं...अगर वह यह कहता हो कि मैं भगवान हूं और तुम भगवान नहीं हो, तब तो वह तुम्हारा दुश्मन है; और अगर वह इसलिए कहता हो कि मैं भगवान हूं, क्योंकि तुम भी भगवान हो; वह इसलिए घोषणा करता हो कि मैं भगवान हूं, ताकि तुम्हें भी याद आये तुम्हारे भगवान होने की...देखो मेरी तरफ, अगर मैं भगवान हो सकता हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते, कोई भी कारण नहीं, कोई रुकावट नहीं; ठीक तुम जैसा हूं मैं, अगर मैं भगवान हो सकता हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते? हो सकते हो। अगर यह फूल खिला, तो तुम्हारी कली भी खिल सकती है।
यह घोषणा जरूरी है अब, क्योंकि द्वार फिर करीब आयेगा। जैसे हर वर्ष मौसम का एक वर्तुल घूमता है--मंडलाकार; फिर वर्षा आती, फिर सर्दी आती, फिर गर्मी आती है, फिर वर्षा आती है--जैसे बारह महीने में एक वर्तुल घूमता है मौसम का, ऐसे ही आध्यात्मिक मौसम का भी एक वर्तुल है जो घूमता है। जैसे चौदह वर्ष में बच्चा जवान होने लगता, वीर्य परिपक्व होता, वासना जगती; और अगर सब ठीक चलता रहे तो बयालीस वर्ष के करीब वासना क्षीण होने लगती, ब्रह्मचर्य की याद आने लगती; अगर सब ठीक चलता रहे, तो सत्तर वर्ष का होतेऱ्होते व्यक्ति पुनः फिर बच्चे की तरह सरल हो जाता है। कुछ गड़बड़ हो जाए, तो बात अलग है। वह नियम की बात नहीं है। भटक गये तो बात अलग। अन्यथा नियम से सब चलता रहे, तो ऐसा होगा। एक वर्तुल है जीवन का भी। मरते-मरते फिर व्यक्ति सरल हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा जन्म के बाद सरल होता।
ठीक ऐसा ही एक बड़ा वर्तुल है, जो पच्चीस सौ वर्ष का घेरा लेता है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना ज्वार पर होती है। और जब ज्वार हो, तब बड़ी सुगमता से ऊंचाइयां छुई जा सकती हैं। जब ज्वार न हो, तब बड़ी कठिनता से ऊंचाइयां छुई जा सकती हैं।
नानक ने अपना समय देखा, मैं अलग अपना समय देख रहा हूं। नानक मेरे समय के लिए नहीं बोले, मैं उनके समय के लिए नहीं बोलूंगा। नानक अपने भक्तों से बोले, मैं अपने भक्तों से बोल रहा हूं। नानक का अपना प्रयोजन है, मेरा अपना प्रयोजन है। इसलिए व्यर्थ के प्रश्न बीच में मत उठाओ। क्या नानक ने कहा, यह नानक से पूछो कहीं मिल जाएं तो। मुझसे क्या पूछते हो? क्या मैं कहता हूं, वह मुझसे पूछो।
"उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए।' मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, हर मानने में एक ही परमात्मा को मान सकते हो, करोगे क्या? पूजो पीपल को कि पहाड़ को, चरण उसी के पाओगे। वहीं सिर झुकेगा। उसके अतिरिक्त कोई है नहीं। मैं तो तुमसे कहता हूं कहीं भी चढ़ाओ पूजा के फूल, सब पूजा के फूल उसी के चरणों में गिर जाते हैं, क्योंकि उसी के चरण हैं, और कुछ है ही नहीं। फूल भी उसी के हैं, चरण भी उसी के हैं, चढ़ानेवाला भी उसी का है। इसलिए मैं तुम्हें संकीर्ण नहीं बनाता। मैं नहीं कहता कि सिर्फ एक को छोड़कर किसी को मत मानो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, एक ही माना जाएगा। अंततः तुम पाओगे वही एक पूजा गया। मंदिर में पूजो कि मस्जिद में, राम में कि कृष्ण में, बुद्ध में कि महावीर में, कहीं भी सिर झुकाओ, किसी के भी सामने सिर झुकाओ
तुमने नानक की कहानी सुनी? गये काबा, रात सो गये तो काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो गये। मुल्ला-मौलवी नाराज हो गये होंगे, भागे हुए आये। कहा कि कैसे नासमझ हो! और हमने तो सुना कि तुम बड़े ज्ञानी हो, औलिया हो; यह कैसा ज्ञान? तुम्हें तो साधारण शिष्टाचार के नियम भी मालूम नहीं। पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे! परमात्मा की तरफ पैर करके सो रहे! कहानी कहती है कि नानक हंसे और उन्होंने कहा ऐसा करो, तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। कहते हैं उन्होंने पैर घुमाये सब तरफ, लेकिन जहां भी पैर घुमाये, वहीं काबा का पत्थर हो गया।
ऐसा हुआ हो, जरूरी नहीं। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। मैं नहीं मानता कि ऐसा वस्तुतः हुआ है। पर इतना मैं जानता हूं कि होना चाहिए ऐसा ही। क्योंकि काबा का ही पत्थर सब तरफ है, सब पत्थरों में वही पत्थर है। पत्थर मात्र काबा के पत्थर हैं, तो कहां पैर करो! और ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा उत्तर में है, दक्षिण में नहीं; पूरब में है, पश्चिम में नहीं; ऊपर है, नीचे नहीं। परमात्मा ने तो सभी कुछ घेरा है। चलो तो उसमें, बैठो तो उसमें, सोओ तो उसमें; ओढ़नी भी वही है, बिछौनी भी वही है, करोगे क्या! खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, श्वास लो तो उसकी, उपाय कहां है, परमात्मा से बचने की जगह कहां है!
मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जितने भी तुम्हें पूजना हो। तुम्हें जो रूप भा जाए, पूजो। तुम्हें जो नाम भा जाए, पूजो। इस अर्थ में हिंदू बड़े अदभुत हैं। दुनिया का कोई धर्म हिंदुओं जैसी गहराई को नहीं छू पाया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म किसी अर्थों में थोड़े संकीर्ण हैं। हिंदुओं के पास एक ग्रंथ है--विष्णु सहस्रनाम। उसमें परमात्मा के हजार नाम हैं। कोई भी नाम छोड़ा ही नहीं। जो भी नाम हो सकते थे संभव, वह सब जोड़ दिये हैं। कोई भी नाम लो, उसी का नाम है। कोई को भी पुकारो, उसी को पुकार रहे हो। चुप रहो, तो उसके साथ चुप बैठे हो; बोलो, तो उसके साथ बोल रहे हो। इधर तुम सोचते हो मैं तुमसे बोल रहा हूं, तो तुम गलती में हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुमसे मैं नाहक सिर नहीं मारूंगा। तुम तो दीवाल जैसे हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुम्हें जब पुकारता हूं, तो उसी को पुकार रहा हूं।
मुसलमान, ईसाई, यहूदी, तीनों धर्म यहूदियों की संकीर्णता से पैदा हुए हैं। तीनों धर्मों का मूलस्रोत यहूदी है। और सिक्ख-धर्म भी आधा यहूदी है। इसलिए थोड़ी-सी संकीर्णता है। नानक में तो न रही होगी, सिक्खों में है।
हिंदू कहते हैं, सभी कुछ उसका है। इसलिए तो हिंदू बड़े अदभुत हैं। पत्थर रख लेते हैं वृक्ष के नीचे, सिंदूर पोत देते हैं, पूजा शुरू! अभी पत्थर था, अभी सिंदूर लगाया, पूजा शुरू! पत्थर को भगवान बनाने में देर नहीं लगती। अनगढ़ पत्थर पूजने लगते हैं। गढ़ो, मूर्ति बनाओ, समय जाया होता है। मिट्टी के गणेश बना लेते हैं। पूज भी लेते हैं, पूजने के बाद समुंदर में सिरा भी आते हैं। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि उसी का समुंदर है, मिट्टी उसी की है; बना लिया, सिरा दिया। दुनिया में कोई जाति अपनी मूर्तियों को सिराती नहीं। बना ली, तो फिर घबड़ाती है, कहीं मूर्ति का अपमान न हो जाए। हिंदू अदभुत हैं। नाच-गाना करके जाकर नदी में डुबा आते हैं कि अब बस विश्राम करो, अब हमको भी तो चैन लेने दो। और भी तो काम हैं! फिर अगले साल देखेंगे। और फिर तुम सभी जगह हो। सागर तुम्हारा, मिट्टी तुम्हारी, आकाश तुम्हारा। सब तुम्हारा है। तो ऐसा मोह क्या बांधना!
ध्यान रखना, परमात्मा निराकार है, इसका अर्थ यही हुआ कि सभी आकार उसके। मुसलमानों ने बड़ी जिद्द पकड़ ली कि परमात्मा निराकार है तो मूर्तियां तोड़ने लगे। अगर समझे होते कि परमात्मा निराकार है, तो यही समझ में आता कि सभी आकार उसके। निराकार का अर्थ आकार तोड़ना नहीं है, आकार में उसको देखना है। आकार रोक न पाये, आकार द्वार बने, दरवाजा बने; बाधा न बने।
मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जिसको पूजना हो, कम से कम पूजो तो। क्योंकि मेरा जोर तुम्हारी पूजा में है। तुमने पूजा, तुमने प्रार्थना की, तुम झुके, बस काफी है। जहां तुम झुके, वहीं परमात्मा के चरण हो गये।
परमात्मा के चरण तो वहां थे ही, तुम झुक नहीं रहे थे इसलिए दिखायी नहीं पड़ते थे। झुके कि दिखायी पड़ गये। और हिसाब कौन लगाये कि कहां है और कहां नहीं है! मंदिर में है कि मस्जिद में है कि गुरुद्वारे में है। हिसाब लगाने की जरूरत कहां। बेहिसाब सब जगह है। अमर्याद सब जगह है।
जिन मित्र ने पूछा है, वह नानक को समझे न होंगे। "आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए।' मान ही नहीं सकते। यही कहा होगा नानक ने कि जहां भी मानो, उसी को मानना, उस एक को ही मानना। सिक्ख कुछ गलत समझे होंगे। कम से कम पूछनेवाला सिक्ख तो गलत समझा ही है। मानना एक को ही। इसका अर्थ हुआ, जहां भी आंख पड़े, उसी को खोजना। जहां सिर झुके, उसी के चरण टटोलना। जहां तक हाथ पहुंच सके, उसी की तलाश करना। जहां तक मन जा सके, उसी में उड़ने देना मन को। जहां तक स्वप्न उठ सकें, उठने देना उसी में। जीना तो उसमें, सोना तो उसमें। उठना, बैठना, तो उसमें। उस एक में।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम एक धारणा को पकड़ लेना, और सब धारणाओं को इनकार कर देना। अगर एक धारणा ही भगवान का ढंग है, तो भगवान बड़ा सीमित हुआ। फिर वह निराकार न हुआ, फिर असीम न हुआ, फिर सारी सत्ता उसकी न हुई। वही होना चाहिए सभी में, तभी निराकार है। तभी शाश्वत है, सर्वव्यापी है।
"और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना चाहिए।' गुरु भी क्यों कहना! क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं, गुरु परमात्मा है, गुरुर्ब्रह्मा। झंझट हो जाएगी! अगर किसी को गुरु कहा, तो परमात्मा मान लिया उसको। सारे भारत के शास्त्र कहते हैं कि गुरु साक्षात ब्रह्म है। परमात्मा तो दूर है, दिखायी नहीं पड़ता है। गुरु दिखायी पड़ता है। परमात्मा तो आकाश की गंगा है, कहां है पता नहीं, गुरु ऐसी गंगा है जो तुम्हारे घर के द्वार से बह रही है। स्नान तो उसी में हो सकता है। इसमें स्नान होगा, तो ही तुम परमात्मा की गंगा के योग्य बनोगे। पहला परमात्मा तो गुरु ही है। गुरु से मिलने पर ही तो पहली दफा, परमात्मा है, इसकी प्रतीति होती है।
मगर लोग जड़ हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं, गुरु कहेंगे हम तो, भगवान नहीं कह सकते। इसलिए नानक को गुरु कहते हैं। लेकिन गुरु का अर्थ ही यही है, जिसमें भगवान प्रगट हुआ हो। जो भगवान के साथ एकाकार हो गया हो। जिसकी मौजूदगी में भगवान की झलक मिले। जिसके सत्संग में तुम्हारे भीतर का भगवान भी जगे और नाचे और प्रफुल्लित हो। गुरु का अर्थ ही यही है, जो तुम्हें खींचने लगे, प्रबल आकर्षण बन जाए। जो चुंबक की तरह तुम्हें खींचने लगे। किसी ऐसी जगह ले जाने लगे जहां तुम अपने से न जा सकते। भय पकड़ता, हिम्मत न होती। गुरु तो परमात्मा है। कबीर ने कहा है--
गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय
किसके चरण छुऊं पहले? दोनों सामने खड़े हैं। दुविधा बड़ी साफ है। अगर परमात्मा के चरण पहले लगूं, तो गुरु का अपमान होता है। और गुरु के बिना परमात्मा तो कभी मिल नहीं सकता था। तो यह तो अकृतज्ञ होगा कृत्य। यह तो गुरु के प्रति आभार न हुआ। गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय। अगर गुरु के पैर पड़ता हूं, तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा। गुरु के साथ इसीलिए तो थे कि परमात्मा को खोजना था। बड़ी दुविधा है! क्या करूं?
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय
लेकिन गुरु ने तत्क्षण गोविंद को बता दिया कि तू गोविंद के ही पैर लग। पद तो कबीर का यहीं पूरा हो जाता है, पक्का नहीं फिर वह पैर किसके लगे! मैं जानता हूं कि वह गुरु के लगे। क्योंकि उनकी इस दूसरी पंक्ति में ही साफ है--"बलिहारी गुरु आपकी।' गुरु ने कह दिया कि लग परमात्मा के, देर क्यों कर रहा है, रुक क्यों रहा है, सोच क्या रहा है? चुनाव थोड़े ही करना है। यहीं के लिए तो तुझे ले आया था अपने साथ, आ गयी वह घड़ी, अब झुक परमात्मा को, भूल मुझे। पद तो यहां पूरा हो जाता है, फिर किसी ने कभी कबीर को पूछा नहीं कि वस्तुतः तुम लगे किसके पैर? मैं मानता हूं कि कबीर गुरु के ही पैर लगे--"बलिहारी' शब्द में ही बात आ गयी। अब कैसे और कुछ किया जा सकता है।
गुरु अंततः तुम्हें अपने से भी मुक्त कर देता है--"बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय'
तो गुरु तो परमात्मा है। गुरु तो परमातमा का द्वार है। ये जो प्रश्न उठते हैं, ये उठ आते हैं संस्कारों से। संस्कार बाधा हैं। संस्कारों से मुक्त होना है। और एक ऐसा चित्त पाना है, जहां कोई संस्कार तथ्यों पर धूमिल छाया न डालते हों। जहां तथ्य प्रगट होते हों, जैसे हैं वैसे ही। भक्त की कोशिश यही है कि भगवान होना है।
तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं
ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं
भक्त बेचैन भी होता है कि यह भी क्या चाह रहा हूं! लेकिन तुझ ही को तुझ ही से छीनना चाहता हूं, चेष्टा तो यही है कि यहां जो प्राणों का दीया जल रहा है, यह भगवत्ता का दीया हो जाए। जब तक भक्त भगवान न हो जाए, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। इंचभर भी दूरी रह गयी, तो कुछ पाने को शेष रहेगा। है क्या ईश्वर?       
ईश्वर वह प्रेरणा है
जिसे अब तक शरीर नहीं मिला
टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल,
जो वृंत पर अब तक नहीं खिला
टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, जो वृंत पर अब तक नहीं खिला--बस वही ईश्वर है। ईश्वर भविष्य है, संभावना है। ईश्वर तुम जो हो सकते हो उसका नाम है। ईश्वर तुम्हें जो होना ही चाहिए उसका नाम है। ईश्वर तुम्हारी बीजरूप संभावना है। तुम्हारे बीज में छिपा हुआ सत्य है।
टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल,
जो वृंत पर अब तक नहीं खिला
मैं जब ईश्वर की बात कर रहा हूं तो मैं किसी दर्शनशास्त्र की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हारे जीवन-काव्य की बात कर रहा हूं। तुम मुझे एक कवि की तरह याद रखना। मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई शास्त्र नहीं दे रहा हूं। संकेत दे रहा हूं। और जीवन के काव्य को समझना हो तो बंधी-बंधायी, पिटी-पिटायी धारणाओं को हटाना, ताकि जीवन अपनी सुषमा को, अपने सौंदर्य को प्रगट कर सके। मन को थोड़ा किनारे कर के रखना।
तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद
सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूं तुम्हारा संवाद--
बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहां साक्षात
कौन-सी वह प्रात, जिसमें खिल उठेगी क्लिन्न,
सूनी शिशिर-भीगी रात?
चला हूं मैं; मुझे संबल रहा केवल बोध--
पग-पग आ रहा हूं पास;
रहा आतप-सा यही विश्वास
स्नेह के मृदुघाम से गतिमान रखना निबिड़
मेरे सांस और उसांस।
आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें किया है याद!
तुमने जब भी कुछ चाहा है, मैं कहता हूं, तुमने परमात्मा ही चाहा है। तुमने धन चाहा, तो धन में भी तुम परमात्मा को ही खोजते थे। तुमने पद चाहा, तो पद में भी तुम परमपद को ही खोजते थे। तुमने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू बहाये, तो तुम प्रार्थना को ही टटोलते थे। तुम किसी मोह से भरे, तुम किसी राग में गिरे, तो उन सब खाई-खड्डों में भी तुम प्रभु का ही मार्ग खोजते थे। अनंत-अनंत रूपों में अनंत-अनंत ढंगों से आदमी उसी को खोज रहा है। भला तुम्हारी खोज गलत हो, लेकिन तुम्हारे प्राणों की अकुलाहट गलत नहीं है। भला तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा कर रहे होओ, लेकिन तेल निचोड़ने की आकांक्षा थोड़े ही गलत है। तुम वहां खोज रहे हो, जहां न पा सकोगे, विषाद हाथ लगेगा, विफलता हाथ लगेगी, लेकिन इससे तुम्हारी खोज की ईमानदारी को तो इनकारा नहीं जा सकता। पत्थर पूजो, प्रेमी को पूजो, अनजाने, तुम्हारी बिना पहचान के परमात्मा की तरफ ही तुम बढ़ रहे हो।
तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद
और कोई उपाय भी नहीं है। जिस दिन तुम ऐसा समझोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता आ जाएगी। तब तुम देखोगे, सब कदम जो किन्हीं भी रास्तों पर पड़े, सभी मंदिर की तरफ पड़े। कभी भटके भी तो मंदिर से ही भटके। कभी दूर भी गये, तो परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसी की तरफ जाने की लगी थी। हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह सब उसी के मार्ग पर घटा है। और अंतिम निर्णय में तुम पाओगे, इस सबने ही तुम्हें मार्ग को खोजने में सहायता दी है। कुछ भी व्यर्थ नहीं गया है। कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता।
जीवन के परम अर्थशास्त्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। लेकिन पता तो तब चलता है जब हम पहुंच गये--आखिरी घड़ी। तब हम लौटकर देख सकते हैं कि अरे, अगर मैं भटका न होता तो मार्ग भी पाना मुश्किल होता! कि मैंने धन से पाने की कोशिश की, वह भी जरूरी था। वह भी शिक्षण था। कि मैंने प्रेम में प्रार्थना खोजी, वह भी शिक्षण था। उस सबसे बचकर अगर आ जाता, तो इस मंदिर तक आ ही नहीं सकता था।
इसलिए मैं तो कहता हूं, जिस तरह तुम्हें याद आ सके उसी तरह याद करो। सब में वही है। और सबसे उसी की खोज चल रही है। श्रद्धा चाहिए। एक आदमी पीपल के वृक्ष के पास श्रद्धा से जल चढ़ा रहा है। तुम पीपल का वृक्ष देखते हो, हाथ से गिरती जलधार देखते हो, मैं उसके भीतर गिरती श्रद्धा की धार देखता हूं। एक आदमी मंदिर की मूर्ति के सामने बैठा दीया जला रहा है। तुम पत्थर देखते हो, मृण्मय दीया देखते हो, उसके भीतर चिन्मय की धार नहीं देखते। एक आदमी विराट, सूनी मस्जिद में बैठा परमात्मा का गीत गुनगुना रहा है। कोई है जो चुप बैठा है वृक्ष के तले, बुद्ध की भांति--न कोई प्रार्थना है, न कोई पूजा है; न कोई बाह्य उपकरण है, न कोई साधन है; न मंदिर है, न मस्जिद है; आंख बंद है--अपने में लीन। लेकिन इन सबके भीतर एक बात समान है, वह भीतर की चैतन्य-धारा। बाहर के उपकरण भिन्न-भिन्न हैं। बाहर के तो सब खिलौने हैं, जिससे मर्जी हो उससे खेल लेना, भीतर रसधार बहती रहे।
कल मैं पढ़ रहा था--
खके-सेहरा पे जमे, या कफे-कातिल पे जमे
फर्के-इंसाफ पे या पाये-सलासिल पे जमे
तेग-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा
कहां खून गिरता है--पत्थर पर गिरता है, कि लाश पर गिरता है, कि मंदिर पर गिरता है--कहां गिरता है, इससे क्या फर्क पड़ता है?
खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा
ऐसा ही मैं तुमसे कहता हूं--श्रद्धा फिर श्रद्धा है, टपकेगी तो जम जाएगी। और जहां श्रद्धा जमी, वहीं भगवान है। श्रद्धा होनी चाहिए। असली बात भीतर है, असली बात अंतर्तम की है। अगर वहां न हो, तो कहीं भी भगवान नहीं है। अगर वहां श्रद्धा हो, तो सब कहीं, सब दिशाओं में वही है। भीतर हो, तो बाहर भी वही है। भीतर न हो, तो फिर बाहर कहीं भी नहीं है। फिर जाओ तीर्थयात्रा, काबा और काशी, कोई अंतर न पड़ेगा। तुम व्यर्थ ही भटकोगे। घर आओ, कहीं और नहीं जाना है। तुम्हारे भीतर है तीर्थ।
फिर खयाल रखना, आदमी आदमी में बड़े भेद हैं। तो आदमी आदमी के ईश्वर में भी भेद होंगे। चांद निकला आकाश में--पूर्णिमा की रात, शरद पूनो--हजारों, करोड़ों प्रतिबिंब बनते हैं पृथ्वी पर। सागर भी प्रतिबिंब बनाता है, मानसरोवर में भी प्रतिबिंब बनेगा। शांत झीलों में भी बनेगा। तूफान आये हुए सागर में भी बनेगा। मिट्टी के कूड़े-कचरे से भरे डबरों में भी बनेगा। नाली का जल कहीं इकट्ठा हो गया होगा, उसमें भी बनेगा। चांद के प्रतिबिंब करोड़-करोड़ बनेंगे, चांद एक है। गंदे डबरे में भी बनेगा। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो जाएगा। क्योंकि प्रतिबिंब तो है ही कहां, जो गंदा हो जाए! प्रतिबिंब तो मात्र प्रतिछाया है।
लेकिन फिर भी गंदा डबरा तो गंदा है। तो गंदे डबरे से अगर तुम पूछोगे कि जो चांद तेरे भीतर बना, उसके संबंध में तेरा क्या खयाल है? तो गंदा डबरा जो कहेगा, उसमें गंदगी जुड़ी होगी। स्वाभाविक है। उसने तो वही चांद देखा, जो उसकी गंदगी में प्रतिछायित हो सकता था। मानसरोवर से पूछोगे, तो वह अपने चांद की बात करेगी। इसीलिए तो दुनिया में इतने धर्म हैं। अगर ठीक से समझो, तो हर आदमी का खुदा अलग होगा। आदमी आदमी में इतने फर्क हैं।
मेरे भीतर का ईश्वर,
विकराल क्रोध है, ऊसर, अनजोती जमीन
पर तांडव का त्यौहार रचानेवाला!
मेरे भीतर का ईश्वर,
है मेरे मन के स्वर्ग-लोक की नींव हिला
मेरे भीतर भूकंप मचानेवाला!
मेरे भीतर का ईश्वर,
है अग्निचंड, मैं उसके भीतर जलता हूं
मेरे भीतर का ईश्वर,
है घन घमंड, अंबर का उद्वेलित समुद्र,
मेघों को, जाने, हांक कहां ले जाता है।
मेरे भीतर का ईश्वर
है नामहीन, एकाकी, अभिशापित विहंग
जो हृदय-व्योम में चिल्लाता, मंडराता है।
मेरे भीतर का ईश्वर,
है जोर-जोर से पटक रहा मेरे मस्तक को पत्थर पर।
मेरे भीतर का ईश्वर,
पर चतुरंग प्रभंजन वेगवान
मेरे मन के निर्जन, अकूल, आश्रयविहीन,
उत्तप्त प्रांत में ज्वालाएं भड़काता है।
भीतर उर के मुद्रिक कपाट
बाहर-बाहर वह प्रलय-केतु फहराता है।
आदमी आदमी का ईश्वर अलग-अलग होगा। तुम क्रोधित हो, तो तुम्हारा ईश्वर क्रोधित होगा। तुम अहंकारी हो, तो तुम्हारे भीतर का ईश्वर अहंकारी होगा। तुम शांत हो, तो तुम्हारा ईश्वर शांत होगा। तुम उदास हो, तो तुम्हारा ईश्वर उदास होगा। क्योंकि तुम ही तो तुम्हारे ईश्वर को प्रतिबिंब दोगे। तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे भीतर रूप धरेगा। तुम ही तो उसकी परिभाषा बनोगे। तुम ही तो सीमा बनाओगे। तुम ही तो बागुड़ लगाओगे। तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे-जैसा होगा।
इसीलिए दुनिया में इतने ईश्वरों की भिन्न धारणाएं हैं। इसीलिए हर सदी का ईश्वर भी अलग होता है। बदलता चला जाता है। ईश्वर बदलता, ऐसा नहीं, प्रतिबिंब बदलते हैं। क्योंकि प्रतिबिंब धारण करनेवाले बदलते हैं। पुरानी बाइबिल का ईश्वर बड़ा क्रोधी, रुद्र-रूप, जरा-सी बात पर नाराज हो जानेवाला, जरा-सी बात पर अग्नि बरसा देनेवाला, जरा-सी बात पर महाप्रलय ला देनेवाला। क्रोध में उसने डुबा दी दुनिया एक दफा। थोड़े-से लोग चुने हुए बचा लिये थे नोह की नाव में; बाकी सब डुबा दिये। आग बरसा दी नगरों पर। जरा नाराज हुआ कि विकराल क्रोध!
ईश्वर क्रोधी है? नहीं, जिन यहूदियों ने पुरानी बाइबिल लिखी, वे क्रोधी रहे होंगे। पुरानी बाइबिल यहूदियों के संबंध में खबर देती है। वेद में ईश्वर की धारणा है, वह धारणा ईश्वर की खबर नहीं देती, वेद जिन्होंने रचे उनकी खबर देती है। कोई ऋषि प्रार्थना कर रहा है कि मेरी गौओं के थन में दूध बढ़ जाए और मेरे दुश्मन की गौओं के थन का दूध सूख जाए। हे प्रभु, ऐसा कुछ कर कि मेरी फसल तो खूब आये, पड़ोसी की फसल न आ पाये। क्या ईश्वर इस तरह की प्रार्थनाएं सुनता है? क्या ईश्वर की इससे कोई धारणा हमारे मन में साफ होती है--यह कैसा ईश्वर है? नहीं, इससे इतना ही पता चलता है, जो प्रार्थना करनेवाले थे उनकी याचना, उनके हृदय की खबर।
तुम जब ईश्वर के संबंध में बोलते हो, तो ध्यान रखना कि तुम्हारे ईश्वर के संबंध में बोल रहे हो। मैं जब ईश्वर के संबंध में बोलता हूं, तो ध्यान रखना मैं अपने ईश्वर के संबंध में बोल रहा हूं। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
ईश्वर बड़ी निजी धारणा है। और हर एक की अपनी दृष्टि से प्रभावित होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारी सारी दृष्टि चली गयी, जब तुम्हारे मन में कोई पक्षपात न रहा--न हिंदू का, न मुसलमान का, न सिक्ख का, न जैन का, कोई पक्षपात न रहा--तुम सब शास्त्रों, सब शब्दों से मुक्त हुए, तुम शून्य में विराजमान हुए, तब उस मानसरोवर में जो झलकता है, वह ईश्वर की निकटतम प्रतिमा है। वह प्रतिमा इतनी निकटतम है, क्योंकि मानसरोवर का स्वच्छ स्फटिक जैसा जल कोई विकृति पैदा नहीं करता है। पारदर्शी। जैसा है वैसा ही झलका देता है। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी ईश्वर जैसी है, इसलिए उपनिषद के ऋषि कह सके--अहं ब्रह्मास्मि। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी साफ कि उपनिषद के ऋषि कह सके, हम ब्रह्म हैं। ब्रह्म में और उस झलक में कोई फर्क न रहा। कभी-कभी बहुत थोड़े-से लोग उस ऊंचाई पर पहुंचे हैं, जिन्होंने "अहं ब्रह्मास्मि' की घोषणा की है। कोई मंसूर कह सका, अनलहक--मैं हूं सत्य।
यह तब घटता है, जब समाधि घटती है। जब सब कचरा तुम्हारे चित्त का बह गया। तुम भी जब निर्विकार, निराकार, निर्विकल्प हुए, तब घटता है। इसकी आकांक्षा करो। इस पर भरोसा करो। क्योंकि श्रद्धा न होगी, तो यह कभी भी न घटेगा।
यह मानकर तो चलो कि परमात्मा ने जिन्हें बनाया है, उनकी अंतिम नियति परमात्मा ही हो सकता है। परमात्मा ने जिसे सृजा है, उसका अंतिम निखार परमात्मा ही हो सकता है। और तुम जब तक परमात्मा न हो जाओगे, तब तक तुम वापिस-वापिस भेजे जाओगे। क्योंकि परमात्मा तब तक राजी न होगा, जब तक तुम उसके जैसे ही होकर चरणों में नैवेद्य न बन जाओ। तब तक राजी न होगा, जब तक तुम ठीक उस जैसे न हो जाओ। इसीलिए मैं कहता हूं, स्मरण रखो इस बात का कि तुम अभी बंद कली हो, खिलना है। तुम बंद परमात्मा हो, खिलना है। तुम छिपे परमात्मा हो, प्रगट होना है।

दूसरा प्रश्न:

सक्रिय-ध्यान के तीसरे चरण में काफी शक्ति लगाने पर वहां प्रकाश के सिवाय कुछ भी नहीं बचता है। फिर भय पकड़ता है कि मरा! हे प्रभो, उस घड़ी में क्या करना चाहिए?         

स घड़ी में मरना चाहिए। मरे बिना थोड़े ही चलेगा। उस घड़ी में अपने को बचाने की चेष्टा ही फिर तुम्हें वापस लौटा लायेगी। उस घड़ी में खुद को खो देना। उस घड़ी तो कहना--
अंतिम यह अभिलाष हृदय में!
जीवन दीप जलाकर मेरा,
चाहे कोई हरे अंधेरा;
किंतु बुझे यदि दीप कभी तो
बुझे तुम्हारे कोमल कर से,
अंतिम यह अभिलाष हृदय में!
परमात्मा के हाथ से अगर तुम्हारा दीया बुझता हो, तो और क्या सौभाग्य हो सकता है!
किंतु बुझे यदि दीप कभी तो,
बुझे तुम्हारे कोमल कर से
अंतिम यह अभिलाष हृदय में!
पूछा है कि ध्यान के अंतिम चरण में केवल प्रकाश बचता है। और क्या चाहते हो? कुछ और की भी इच्छा है? प्रकाश का तो अर्थ हुआ, जो बचना चाहिए वही बचा अब। शुद्धतम बचा। प्रकाश प्रभुरूप है। प्रभु प्रकाश की आभा है। इस प्रकाश में तुम भी मत बचो। इसीलिए तो घबड़ाहट लगती है। सब गया, तो आखिर में लगता है, अब मैं भी जाऊंगा। क्योंकि तुमने अब तक अपना जो रूप जाना है, वह उसी सभी का जोड़ था। वह सब तो गया, अब तुम कैसे बचोगे? तुम्हारा सब गया, तो तुम भी जाओगे। इससे घबड़ाहट पैदा होती है।
ध्यान के अंतिम चरण में मृत्यु घटेगी है। उसको घटने देना है। स्वागत से घटने देना है। सहर्ष घटने देना है। तो समाधि तत्क्षण उपलब्ध हो जाएगी। अगर डर-डरकर वापिस लौटते रहे, तो यह यात्रा तो ऐसी हुई कि गंगा गयी सागर तक और ठिठककर खड़ी रह गयी और लौटने लगी गंगोत्री की तरफ। सागर तक गये हैं, तो गिरना ही होगा। फिर यह गंगा कहे कि नहीं, अब मैं गिरना नहीं चाहती, मैं तो मिलने आयी थी, गिरने थोड़े ही आयी थी; मैं तो सागर होने आयी थी, मिटने थोड़े ही आयी थी, तो क्या कहोगे तुम गंगा से? तुम कहोगे, सागर होने का एक ही उपाय है कि सागर में खो जाओ। तुममें सागर तभी खो सकता है, जब तुम सागर में खो जाओ। तुम मिटो, तो सागर हो जाए।
ध्यान की आखिरी घड़ी में तुम्हारी गंगा सागर के किनारे आकर खड़ी हो जाती है, तब मन घबड़ाता है, स्वाभाविक है। मैं समझ सकता हूं। सभी का घबड़ाया है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई नानक, कोई कबीर उस घबड़ाहट से बचा नहीं। वह सभी का घबड़ाया है। वह मनुष्य का स्वाभाविक रूप है। अब तक जिसे अपना जाना था, जीवन जाना था, वह सब छूटता लगता है, बिखरता लगता है। सारा अतीत शून्य में लीन होता मालूम पड़ता है, भविष्य का कुछ पता नहीं है, तो मृत्यु मुंह बाकर खड़ी हो जाती है। उस क्षण नाचते हुए मृत्यु में समा जाना। लौटकर पीछे मत देखना। लौटकर पीछे देखा कि मुश्किल में पड़ जाओगे। लौट भी न पाओगे और गिर भी न पाओगे, त्रिशंकु हो जाओगे। बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे, बड़े द्वैत में पड़ जाओगे। उधर सागर बुला रहा होगा, इधर पीछे का अतीत बुला रहा होगा। उधर भविष्य खींचेगा, इधर अतीत खींचेगा। तुम दोनों के बीच खिंचकर पिस जाओगे।
बहुत बार ऐसा हुआ है कि जिन लोगों ने ध्यान की इस घड़ी में मरने से विरोध किया, वे विक्षिप्त हो गये हैं। क्योंकि लौट भी नहीं सकते अब; अब गंगोत्री तक जाना कैसे संभव है? जहां तक आ गये, आ गये, लौटना तो होगा नहीं; और आगे जाना नहीं चाहते, तो सारी ऊर्जा तुम्हारे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगेगी। उससे विक्षिप्तता पैदा हो सकती है। धर्म के जगत में या तो मृत्यु को घटने दो, या पागल हो जाओगे।
इसलिए मैं कहता हूं--मरो।
पूछा है--हे प्रभो! उस घड़ी में क्या करना चाहिए?' कुछ करना नहीं चाहिए। चुपचाप सरक जाना चाहिए सागर में। जैसे ओस की बूंद, घास की पत्ती से सरककर पृथ्वी में गिर जाती है, खो जाती है, ऐसे चुपचाप सरक जाना चाहिए और गिर जाना चाहिए। गिरकर तुम पाओगे कि पहली दफे जाना तुम कौन हो। मिटकर तुम पाओगे कि हुए। शून्य होकर पाओगे कि पूर्ण उतरा तुममें। इधर तुम गये कि उधर परमात्मा आया। प्रकाश तो उसके आगमन की खबर है। जैसे सुबह सूरज निकलने के पहले एक लाली छा जाती है क्षितिज पर, प्राची सुर्ख होने लगती है--सूरज की अगवानी में यह सूरज का पहला संदेश हुआ। आता ही है सूरज अब। अब देर नहीं। पक्षी चहकने लगते हैं, हवाएं फिर गतिमान होने लगती हैं, प्रकृति जागने लगती है, प्राची लाल हो गयी, सूरज आता ही है अब।
जब ध्यान के आखिरी चरण में प्रकाश बचे, तो समझना कि प्राची लाली हो उठी, लाल हो उठी, अब सूरज आता ही है। अब मंत्रमुग्ध, नाचते, अहोभाग्य मानकर गिरने को तैयार हो जाना, मिटने को तैयार हो जाना। ध्यान का अंतिम चरण मृत्यु है। इसीलिए ध्यान के बाद जो घटना घटती है, उसे हम समाधि कहते हैं। समाधि का अर्थ, महामृत्यु। जो मरने योग्य था, मर गया; जो नहीं मर सकता था, वही बचा। मर्त्य गया, अमृत बचा। मरणधर्मा से छुटकारा हुआ, अमृत से गांठ बंधी।
और जिसे तुम जिंदगी कहते हो, उसमें बचाने-जैसा भी क्या है! क्या है बचाने को तुम्हारे पास? तुम व्यर्थ ही बचाने की चिंता में लगे रहते हो, बचाने को कुछ भी नहीं! हालत वैसी ही है जैसे कोई नंगा नहाता नहीं, क्योंकि कहता है कि नहाऊंगा तो कपड़े कहां सुखाऊंगा? नंगा है, कपड़े सुखाने की चिंता के कारण नहाता नहीं! तुम्हारे पास है क्या? तुम्हारे हाथ बिलकुल खाली हैं। तुम्हारे प्राण खाली हैं, तुम रिक्त हो। इस रिक्तता को भी नहीं छोड़ पाते! नहीं है कुछ, तो भी मुट्ठी नहीं खोल पाते! अगर कुछ होता, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाती।
बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं
ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है
कुछ भी नहीं है--
ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है
बेदिलों की हस्ती क्या जीते हैं न मरते हैं
तुम जिसे जीवन कहते हो, वह जीवन नहीं है। जीवन और मृत्यु के बीच में अटके हो। तुम जिसे मृत्यु कहते हो वह मृत्यु नहीं है, तुम जिसे जीवन कहते हो वह जीवन नहीं है। मृत्यु तो केवल उन्होंने ही जानी, जो समाधि में मरे। तुम जिसे मृत्यु कहते हो, वह तो एक बीमारी का दूसरी बीमारी में बदल जाना है। वह तो वस्तुओं का परिवर्तन है। घर बदल लेना है। भीतर के सब रोग वही के वही रहते हैं, घर बदल जाता है। तुम जिसे जीवन कहते हो, अगर वही जीवन है, तो फिर परमात्मा की खोज व्यर्थ है। परमात्मा को हम खोजते इसीलिए हैं कि जिसे हमने अब तक जीवन जाना है, वह धीरे-धीरे सिद्ध होता है कि जीवन नहीं था, भ्रांति थी। माया थी, एक सपना था।
परमात्मा की खोज का इतना ही अर्थ है कि यह जीवन, जीवन सिद्ध नहीं हुआ, अब हम महाजीवन को खोजते हैं, किसी और जीवन को खोजते हैं।
लेकिन जिन मित्र ने पूछा है, उनका प्रश्न बिलकुल ही अनिवार्य है। सभी ध्यानियों को घटता है, इसलिए चिंता मत लेना। डर लगे, तो अपराध-भाव भी मत पैदा होने देना, स्वाभाविक है। कोई भी उस घड़ी आकर ठिठक जाता है। यहीं तो गुरु की जरूरत हो जाती है। उस घड़ी अगर गुरु न हो, तो तुम लौट जाओगे। या कम से कम वहीं अटके रह जाओगे। गुरु के बिना इस घड़ी में पागल होने की पूरी संभावना है। गुरु का केवल इतना मतलब है कि वह तुम्हें आश्वस्त कर सके कि मत डरो, देखो मैं खो गया हूं, फिर भी हूं। बहुत होकर हूं। अनंत होकर हूं। शाश्वत होकर हूं। आ जाओ, ले लो छलांग। डरो मत। झिझको मत। संदेह न करो। उतर आओ। गुरु हाथ बढ़ा दे, खींच ले, मरने की हिम्मत दे दे, मिटने का बल दे दे, तो उतरते से ही तुम्हें पता चलेगा कि नाहक परेशान थे।
मैंने सुना है, एक आदमी एक अंधेरी अमावस की रात में पहाड़ पर भटक गया। अंधेरा गहन। हाथ को हाथ न सूझे। किसी तरह टटोल-टटोलकर वह रास्ता खोज रहा था कि एक खड्ड में गिर गया। खड्ड में गिरा तो उसने एक वृक्ष की जड़ को पकड़ लिया जोर से। सारी रात कैसे कटी, कहना कठिन है। रोते ही, आंसू बहाते ही रात बीती। सर्द रात, ठिठुर रहा, हाथ जड़ हुए जाते, कब वृक्ष की जड़ हाथ से छूट जाएगी, कहना मुश्किल! बल खोता जाता, मृत्यु निश्चित है, पता नहीं नीचे कितना बड़ा खड्ड हो! और फिर आधी रात के करीब हाथ बिलकुल ठंडे सुन्न हो गये। पकड़ संभव न रही। जड़ छूट गयी और वह आदमी गिरा। और गिरने के बाद उस घाटी में एक खिलखिलाहट की आवाज आयी, क्योंकि नीचे कोई खाई न थी, समतल जमीन थी। गिरकर पता चला कि गिरने को कुछ नीचे था ही नहीं। नाहक कष्ट झेला।
लेकिन अंधेर में पता कैसे चले? गिरकर पता चला कि नीचे समतल भूमि थी। खिलखिलाकर हंसने लगा।
सुनो मेरी, उतर आओ! लौटकर मत देखो; जो गया, गया। और प्रभु द्वार पर खड़ा है। सुनो मेरी। स्वागत कर लो! गले भेंट लो। आनंद से उतर आओ। नाचते, गुनगुनाते। सौभाग्य समझो! प्रकाश आया, प्राची लाल हो उठी, सूरज करीब है। मैं तुमसे कहता हूं--मरो!

तीसरा प्रश्न:

अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता। और सब यही कह रहे हैं--तेरी सूरत बदल गयी। और यह भी कह रहे हैं कि सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या आये! ऐसी मेरी हालत है, मैं क्या करूं? मेरे प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करेंगे। आपने उत्तर नहीं दिया, तो मैं सचमुच पागल हो जाऊंगा         

तो अभी क्या ढोंग ही रच रहे हो! सचमुच पागल हो जाओगे? तो पागल होना भी तुम्हारी स्वेच्छा पर है? कि जब होना चाहोगे तब हो जाओगे। तो स्वांग होगा। मेरे उत्तर देने न देने से पागल होने का क्या संबंध है? या तो पागल हो; और या पागल नहीं हो तो कैसे हो जाओगे?
जिसने संन्यास लिया, मेरे लिए तो पागल हो ही गया। संन्यास का अर्थ ही यह है कि तुम अब ऐसी डगर पर चले जहां हिसाब-किताब नहीं, जहां तर्क व्यर्थ हैं। जहां श्रद्धा सार्थक है। तुम ऐसी डगर पर चले, जो प्रेम की डगर है। और प्रेम तो अंधा है। या कि प्रेम के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको सिर्फ प्रेमी ही जानते हैं, और कोई नहीं जानता। और प्रेम तो एक पागलपन है, एक दीवानगी है। प्रेम तो मजनू होना है। प्रेम का तो अर्थ ही यही है कि अब सब दांव पर लगाने की तैयारी है, लेकिन अब और देर सहने की तैयारी नहीं।
तो तुम पूछते हो कि पागल हो जाऊंगा। मेरी तरफ से तो जिस दिन तुम्हें संन्यास दिया, उसी दिन मैंने मान लिया कि तुम पागल हो गये। पागल हुए बिना परमात्मा को कब किसने पाया है? पागल होने का इतना ही अर्थ है कि जीवन में बड़ी त्वरा से खोज हो रही है। कुनकुनी नहीं, उबलती हुई खोज। दुकानदारी नहीं, जुआरी की तरह--सब लगा दिया।
होशियार मेरे पास नहीं आते। मेरे पास तो प्यासे आते हैं। होशियारों के लिए तो बहुत और जगहें हैं, जहां वे संसार को भी सम्हाले रहते हैं, परमात्मा का भी थोड़ा सहारा पकड़े रहते हैं। न यह दुनिया जाए, न वह दुनिया जाए। कुछ दांव पर लगाना नहीं है। सब सम्हालकर रखना है, दोनों नाव पर सवार रहना है। मेरे पास तो तुम आये हो, तो उसका अर्थ ही यही है कि तुमने पागल होने की हिम्मत जुटायी।
और दूसरे तुम्हारे हृदय को नहीं देख सकते। पूछा है, "अफसोस कोई दिल का हाल नहीं पूछता।'
दिल तो दूसरों को दिखायी पड़ नहीं सकता। दिल तो वही है जिसे तुम जानते हो, अपने निजी एकांत में। दिल तो अत्यंत वैयक्तिक है। वहां तो तुम किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते। अपने निकटतम मित्र को भी वहां तुम नहीं ले जा सकते। उस जगह तो बस तुम्हारा ही आना-जाना है। दूसरे को तुम्हारे दिल का क्या पता चलेगा? इसलिए यह आशा ही छोड़ दो कि कोई तुमसे दिल का हाल पूछेगा। कोई पूछे तो तुम बता भी न सकोगे। एक तो कोई पूछेगा ही नहीं। दूसरे को तो यह भी पक्का नहीं होता कि तुम में दिल है भी!
इसीलिए तो लोग कहते हैं, आत्मा नहीं है। क्योंकि बाहर से तो सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ता है, शरीर है; बहुत से बहुत अनुमान लगता है कि मन होगा, वह भी अनुमान है, दिखायी तो कुछ पड़ता नहीं।
हृदय की तो बात ही नहीं जमती कि तुम्हारे भीतर हृदय होगा। फिर आत्मा तो और भी आखिरी बात हो गयी।
शरीर की पहचान तो साफ है। मन की थोड़ी-बहुत अनुमान से पहचान होती है कि मेरे भीतर भी विचार चलते हैं, दूसरे के भीतर भी चलते होंगे। चलने चाहिए। क्योंकि शरीर मेरा जैसा लगता है, तो मन भी शायद मेरे जैसा हो। फिर मन के भीतर छिपा हुआ हृदय, उस तक तो पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो केवल प्रेम से पहुंच हो पाती है, अनुमान से नहीं। फिर हृदय के भीतर छिपी आत्मा है। उस तक तो प्रेम से भी पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो ध्यान से ही पहुंच हो पाती है। फिर आत्मा के भीतर छिपा परमात्मा है, उस तक तो किसी चीज से भी पहुंच नहीं होती, ध्यान से भी नहीं होती। लेकिन जब तुम आत्मा में पहुंच जाते हो, तो परमात्मा तुम्हें खींच लेता है। आत्मा तक मनुष्य जा सकता है, वहां तक मनुष्य के कृत्य की सीमा है।
इसीलिए तो महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। क्योंकि जहां तक मनुष्य जा सकता है वहीं तक बात करनी उचित है, आगे की क्या बात करनी! आगे तो घटना घटती है--अपने से घटती है। ऐसा समझो कि तुम छत पर खड़े हो। जब तक खड़े हो, ठीक; छलांग लगा लो, तो छलांग लगाने के बाद फिर जमीन तक आने के लिए थोड़े ही तुम्हें कुछ करना पड़ता है। छलांग लगा ली कि फिर तो गुरुत्वाकर्षण काम करने लगता है। फिर तो जमीन का ग्रेविटेशन तुम्हें खींच लेता है, कशिश खींच लेती है। फिर तुम यह थोड़े ही पूछोगे कि छलांग लगाने के बाद फिर मैं क्या करूं कि जमीन तक आ जाऊं? हम कहेंगे, तुम सिर्फ छलांग लगा लो, बाकी काम छोड़ो, फिक्र तुम मत मरो, वह जमीन कर लेगी।
आत्मा तक मनुष्य जाता है। आत्मा के बाद कशिश परमात्मा की शुरू होती है। वहां से सीमा परमात्मा की। छलांग लग गयी, फिर वह तुम्हें खींच लेता, उसका गुरुत्वाकर्षण खींच लेता।
"अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता।'
अफसोस मत करो। ऐसे अफसोस किया तो व्यर्थ ही परेशान होओगे। कौन पूछेगा दिल का हाल तुमसे? कोई जरूरत भी नहीं किसी को पूछने की। और बताने की भी आकांक्षा मत करो। तुम्हारी प्रार्थना प्रदर्शन न बने।
"हां, लोग कहते हैं कि तेरी सूरत बदल गयी।'
सूरत तक उनकी पहचान है। चेहरा दिखायी पड़ता है, तुम थोड़े ही दिखायी पड़ते हो। उतना भी पूछ लेते हैं, बड़ी कृपा है, अन्यथा कौन किसकी सूरत देखता है! अपनी देखने से फुर्सत मिले तो आदमी दूसरे की सूरत देखे! अपनी देखने से तो फुर्सत मिलती नहीं। तुम जब घर से निकलते हो तो तुम्हीं बहुत परेशान होते हो आईना वगैरह देखकर कि कहीं कुछ गलती न रह जाए, कोई दाग न रह जाए, कोई कचरा न लगा रह जाए, कहीं कोई आदमी देख ले! कौन देखता है, तुम इसकी फिकर तो करो? तुम किसकी सूरत देखते हो? कोई किसी की सूरत नहीं देख रहा। लोग अपने-अपने अहंकारों में ग्रस्त हैं। लोग अपने-अपने में बंद हैं।
तो कोई अगर तुम्हारी सूरत भी देख लेता है, तो बड़ी कृपा! और कोई अगर इतना भी पहचान लेता है कि तुम्हारी सूरत बदल गयी है, तो उसे धन्यवाद दो। उसके मन में तुम्हारे लिए कुछ सहानुभूति होगी। कुछ जगह होगी तुम्हारे लिए। कुछ लगाव होगा, कुछ राग होगा। और लोग पहले सूरत ही पहचान पाते हैं। लेकिन सूरत निश्चित बदलती है, यह पक्का है। कभी तो क्षणभर में क्रांति हो जाती है।
कभी-कभी मैं देखता हूं, एक आदमी आता है, अस्त- व्यस्त, संदिग्ध, मन डांवांडोल; उसकी चाल भी देखकर कह सकते हैं कि डांवांडोल है, कुछ तय नहीं किया है; भीतर कंपन है, बाहर भी कंपन है--मेरे सामने बैठता है, कहता है कि संन्यास लूं, या न लूं? कई दिन से सोच रहा हूं, कुछ तय नहीं हो पाता। जब कोई चीज तय नहीं हो पाती, तो तुम भीतर बहुत डांवांडोल हो जाते हो, बंट जाते हो। फिर वह हिम्मत जुटा लेता है, सुन लेता है मेरी पुकार। मैं कहता हूं--कूदो, देखेंगे; सोचना बाद में कर लेंगे। सोचना इतना जरूरी भी नहीं है। वह कहता है, बिना सोचे कैसे संन्यास ले लूं?
मैं कहता हूं, जिन्होंने लिया, बिना सोचे ही लिया। हालांकि लेने के बाद पछताये नहीं। क्योंकि लेने के बाद पाया कि लेने योग्य था। कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर ही पता चलता है क्या हैं। स्वाद से ही पता चलता है क्या हैं। पहले से पता भी कैसे चले? मैं कहता हूं, तुम ले लो। मैं देता हूं, तुम ले लो। फिर भीतर-भीतर स्वाद ले लेना, फिर बाद में तय कर लेना कि लेने योग्य था या नहीं। हिम्मतवर आदमी होता है, साहसी होता है, उतर जाता है। इधर मैं माला उसके गले में डालता हूं, उधर एक रूपांतरण शुरू होता है, उसकी सूरत बदलने लगती है। क्योंकि एक निष्कर्ष आ गया। एक दुविधा मिटी। दुविधा के मिटते ही भीतर जो लड़ते खंड थे, इकट्ठे हो जाते हैं। जब ले ही लिया, तो एक हलकापन हो जाता है, चिंता गयी। चेहरे पर प्रसाद आ जाता है। और ले सका, इतना आत्मविश्वास कर सका, इतनी श्रद्धा कर सका, तो जब वह आदमी जाता है तो उसकी चाल मैं देखता हूं अब और हो गयी। जैसे वृक्ष को जड़ें मिल गयी हों। उसके पैर जमीन में लगे होते हैं बल से। उसका सिर आकाश में उठा होता है बल से। यही आदमी क्षणभर पहले आया था, यही क्षणभर बाद जा रहा है, सूरत बदल जाती है।
लेकिन सूरत बदलती है भीतर की बदलाहट से। कोई रंगरोगन लगाने से सूरतें नहीं बदलतीं। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर रोशनी आ जाती है। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर आभा आ जाती है। कुछ रहस्यपूर्ण चेहरे को मंडित कर लेता है। एक प्रभामंडल पैदा हो जाता है।
लोग ठीक ही कहते हैं कि सूरत बदल गयी। सूरत इसीलिए बदल गयी कि दिल बदल गया है। लोग नहीं पूछेंगे दिल का हाल, क्योंकि लोगों को न अपने दिल का पता है, न तुम्हारे दिल का पता है। लोग दिल को तो भूल ही गये हैं। दिल को तो विस्मरण ही कर दिया है। दिल के विस्मरण करने के कारण ही तो परमात्मा से टूट गये हैं, क्योंकि दिल ही जोड़ है। मैंने तुमसे कहा, शरीर, शरीर के भीतर मन, मन के भीतर हृदय, हृदय के भीतर आत्मा, आत्मा के भीतर परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में है। इस तरफ मन और शरीर, उस तरफ आत्मा और परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में है। जोड़ है। सेतु है। कड़ी है।
जो लोग हृदय को भूल गये हैं, वे आत्मा को तो कैसे याद करेंगे! उनके लिए आत्मा तो केवल एक कोरा शब्द है, अर्थहीन। जो लोग हृदय को भूल गये हैं, उनके लिए परमात्मा तो बिलकुल व्यर्थ है। वे कैसे परमात्मा शब्द का सार्थक उपयोग करें, समझ में भी नहीं आ सकता।
तो पहली तो बात है, हृदय जगे। लेकिन मैं तुम्हारे हृदय की बात करूंगा, लोगों से आशा मत करो। वही मैं कर रहा हूं रोज सुबह-शाम। तुम्हारे हृदय की बात तुमसे कह रहा हूं कि धीरे-धीरे तुम अपने हृदय की भाषा पहचानने लगो। और रही पागल होने की बात, मेरे हिसाब से तो तुम हो ही गये हो। और अब तुम किसलिए रुके हो, अगर नहीं हो गये हो तो जाओ। पागल होने का अर्थ समझ लेना।
पागल होने का अर्थ है, तर्क से नाता तोड़ना। हिसाब-किताब के जगत से नाता तोड़ना। रहस्य के जगत में पदार्पण। पागल होने का अर्थ है, गद्य से पद्य की तरफ यात्रा। पागल होने का अर्थ है, साफ-सुथरे राजमार्गों को छोड़कर जीवन की रहस्य की पगडंडियों पर चलना। चलो तो बनती हैं। सीमेंट से पटे हुए राजमार्ग नहीं हैं, जहां सारी भीड़ चल रही है।
पागल होने का अर्थ है--अकेला होना। भीड़ चल रही है--हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की--जब तक तुम भीड़ के हिस्से बने हो, तब तक तुमने अभी परमात्मा की खोज पर कुछ दांव पर नहीं लगाया। जिस दिन तुम उतरते हो भीड़ को छोड़कर, राजमार्ग को छोड़कर; उतरते हो जीवन के बीहड़ जंगल में--और जीवन बीहड़ जंगल है, खतरे हैं वहां, वन्य-पशु हैं वहां, भटक जाने की पूरी संभावना है; पहुंचना, जरूरी नहीं कि पहुंचो ही, निश्चित नहीं है--जो आदमी राजमार्ग को छोड़कर बीहड़ के मार्ग पर उतरता है, पागल है। तुम्हारे संगी-साथी कहेंगे, क्या कर रहे हो? समझ-बूझ से काम लो। लेकिन अगर तुम समझ-बूझ को समझ पाये हो तो एक बात समझ में आ गयी होगी कि समझ-बूझ से कितना ही काम लो, हाथ कुछ आता नहीं। तो तुम कहते हो, अब तो समझ-बूझ छोड़कर जीकर देखना है। अब तो मस्त होकर जीकर देखना है। अब तो दीवाना होकर जीकर देखना है।
धार्मिक व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन की सुरक्षाओं को छोड़कर असुरक्षा को वरण करता है। तर्क, विचार, गणित की साफ-सुथरी, पटी-पटायी लीकों को छोड़कर प्रेम की, प्रार्थना की बेबूझ पहेलियों को सुलझाने चल पड़ता है।
लेकिन ऐसे ही व्यक्ति किसी दिन परमात्मा को पाने में सफल होते हैं। परमात्मा तार्किक नहीं है, प्रेमी है। और सत्य तर्क की कोई निष्पत्ति नहीं, नयी आंखों का दर्शन है। ये आंखें जो तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरी आंख पैदा करो। और यह कान जो तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरा कान पैदा करो। संन्यास उसी तीसरी आंख और तीसरे कान की खोज है।
मेरे साथ होना है, तो पागल होकर ही हो सकते हो। और जब तक मैं हूं, हो लो, क्योंकि पीछे पछताने से कुछ भी न होगा। पीछे पछताये होत का, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत।
भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें
बहुत याद आयेंगे हम याद रखना
इसलिए अभी जब तुम्हारे पास हैं, तो पागल हो लो, कल पर मत छोड़ो। यह नृत्य, यह संगीत, जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं, ले लो। संकोच मत करो। फैलाओ झोली और भर लो।
भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें
बहुत याद आयेंगे हम याद रखना।

आज इतना ही।


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