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शनिवार, 2 जुलाई 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--04)

मृत्यु का वरण: अमृत का स्वाद—(प्रवचन—चौथा)
प्रश्न-सार

1—प्रवचन सुनते समय भीतर ऐसी खलबली मच जाती है कि जिसका हिसाब नहीं।...क्या प्राण लेकर ही रहेंगे?
2—भक्ति के शास्त्र और भक्ति के गीत में क्या फर्क है?
3—क्या पुराने शास्त्र और उनकी सिखावन पर्याप्त नहीं?
4—कई संत-महात्मा कहते हैं कि मीरा कृष्ण के सगुण रूप से बंधी रही, इसलिए परमपद को प्राप्त न हो सकी।...?
5—मैं हार गया, तब भार गया। मैं झुक गया तो रुक गया। अब आप मिले, प्रभु साथ करें।
6—मैं जो पा रहा हूं, उसे बांटना चाहता हूं। लेकिन शब्द नहीं जुड़ते। मैं क्या करूं?


पहला प्रश्न: प्रवचन सुनते समय भीतर ऐसी खलबली मच जाती है कि जिसका हिसाब नहीं। कुछ समझ में नहीं आता है। आंसू बहते ही चले जाते हैं। क्या प्राण लेकर ही रहेंगे?

ससे कम में कभी काम चला नहीं। उससे कम में काम चलाने की सोचना भी नहीं। उससे कम में काम चल जाता तो परमात्मा सस्ता होता। उससे कम में काम नहीं चलता, इसलिए तो इतने लोग वंचित हैं परमात्मा से। स्वयं को दिए बिना उसे पाने का कोई उपाय नहीं।
लेकिन स्वयं में ऐसा मूल्यवान क्या है, जिसको बचाने की इतनी आतुरता? संपदा क्या है तुम्हारे पास? जिसको तुम अपना प्राण कहते हो, उसमें भी क्या है? लेकिन शायद हम इस तरह सोचते ही नहीं कि हमारे होने में क्या है! अगर इसे गंवाना पड़े तो क्या गंवाओगे?
अर्थहीन है यह अस्तित्व; इसमें अर्थ तो परमात्मा के आने से ही आता है। यह वीणा तो ऐसी ही पड़ी है; जब तक उसके हाथ न छुएं, इसमें कोई संगीत पैदा होता नहीं। और अगर वीणा के टूटने से ही संगीत पैदा होना है, तो टूटने की तैयारी रखो। क्योंकि असली लक्ष्य संगीत है, वीणा नहीं है।
जिन्होंने अपने को गंवाया, उन्होंने परम धन पाया--राम रतन पाया। जो अपने को बचाते रहे, वे अपने को नाहक गंवाते रहे: खाली आए, खाली गए।
मृत्यु तो आनी ही है; उससे भयभीत होने से क्या होगा? तुम भयभीत होते रहोगे, फिर भी मृत्यु तो आएगी ही। मृत्यु तो आ ही गई है उसी दिन, जिस दिन तुम पैदा हुए। जन्म के साथ ही आ गई है। वह जन्म का ही दूसरा छोर है। जन्म के बाद एक बात निश्चित है कि मरोगे। जन्म के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई जन्मा हो और मरा न हो। फिर सात दिन बाद मरोगे कि सात साल बाद कि सत्तर साल बाद; इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मृत्यु तो आ ही रही है, चल ही पड़ी है। हम रोज-रोज मृत्यु की तरफ सरकते ही जा रहे हैं। एक-एक पल जो बीत रहा है, उसमें मृत्यु बड़ी होती जा रही है; हम छोटे होते जा रहे हैं।
यह तुम्हारा होना तो छिन जाएगा। इसके पहले कि छिन जाए, क्यों न इसे परमात्मा के चरणों में चढ़ा दो। और मजा यह है कि अगर परमात्मा के चरणों में इसे चढ़ा दो, जो कि छीना जाने वाला है, तो तुम कुछ ऐसा पा लोगे जो कभी नहीं छिन सकता है।
मृत्यु को वरण कर लेने से अमृत का स्वाद मिलता है।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं: मृत्यु से डरे हुए लोग, कंपते हुए लोग; और मृत्यु को सहज स्वीकार करने वाले लोग। जो स्वीकार कर लेते हैं, उनके लिए परमात्मा का द्वार खुला है। जो मृत्यु से डरे हैं, वे अपने ही अंधकार में डूबे रहेंगे; वे कभी द्वार-दरवाजे न खोल सकेंगे, क्योंकि भय उन्हें लगा ही है कि कहीं प्राण न चले जाएं। वे कभी प्रेम न कर सकेंगे, क्योंकि प्रेम भी प्राण मांगता है। वे कभी प्रार्थना न कर सकेंगे, क्योंकि प्रार्थना भी प्राण मांगती है। परमात्मा के द्वार पर वे दस्तक न दे सकेंगे, क्योंकि परमात्मा भी उससे कम नहीं मांगता।
इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह प्राण देने से ही मिलता है। और मजा ऐसा है कि प्राण में कुछ भी नहीं है। राख ढो रहे हो।
वही तो है जिंदगी कि जिसमें अटूट अहसास हो बका का,
है मौत का जिसमें खौफ, हरदम वह जिंदगी जिंदगी नहीं है।
वही तो है रौशनी हो जिससे दिलो दिमागे बेशर दरकशां
करे जो दीवारो दर को रौशन वह रौशनी, रौशनी नहीं है।
वही तो है ताजगी जो दौड़े रगों में मौजे निशात बन कर,
जो आरजो लब को रंग दे बस, वो ताजगी ताजगी नहीं है।
वही तो है कैफे हस्त जिसमें पता न हो कैफे हस्त का भी,
है जिसमें एहसास बेखुदी का वो बेखुदी बेखुदी नहीं है।
वही तो है आशकी सरूरे निशाते रहती हो जिसमें हरदम,
हो गम का एहसास जिसमें पैदा वह आशकी आशकी नहीं है।
वही तो है खुद सपुर्दगी, जिसमें हे शऊरे खुदी का फना सब,
खयाल अपना हो जिसमें बाकी वो बेदिली बेदिली नहीं है।
वही तो है बंदगी फक्त जो तेरी खुशी के लिए अदा हो,
तलब कि जिसमें हो लाग कुछ भी वो बंदगी बंदगी नहीं है।
जिंदगी जिंदगी ही तब है, जब मौत की छाया से तुम मुक्त हो गए। कौन होता है मौत की छाया से मुक्त?--जो मौत को वरण करने को तैयार है।
तुम्हारे जीवन में उसी दिन अर्थ होता है जिस दिन तुम्हारे जीवन में ऐसी बात पैदा हो जाती है, जिसके लिए तुम जीवन को भी दे सको। नहीं तो जीवन निरर्थक होता है। जीवन से बड़ी और क्या बात हो सकती है, सिवाय परमात्मा के? जिसके लिए जीवन अर्पित हो सके, उसी के साथ असली जिंदगी शुरू होती है।
वही तो है जिंदगी जिसमें अटूट एहसास हो बका का!
और कौन अपने को कुर्बान कर सकता है परमात्मा के चरणों में?--वही जिसे पता है; जिसे इस बात का अनुभव होने लगा है कि जो है वह सदा रहेगा और जो नहीं है उसे बचाने से भी कुछ बचता नहीं है।
तुम्हारे भीतर जो है--वह पहले भी था, अभी है, आगे भी रहेगा। और जो तुम्हारे भीतर उधार है, बाहर से आया है, वह लौट जाएगा। जो पृथ्वी ने दिया है, पृथ्वी ले लेगी। जो आकाश ने दिया है, आकाश ले लेगा। जो सूरज ने दिया है, सूरज छीन लेगा। आग-पानी से जो आया है, आग-पानी में वापस लौट जाएगा। हवा से तुमने जो उधार मांगा है वह अमानत है; वह देनी पड़ेगी। यह देह जाएगी। यह श्वास जाएगी। यह रक्त-मांस-मज्जा, यह सब जाएगा। सिर्फ एक तुम्हारे पास कुछ है, जिसका तुम्हें पता ही नहीं चल रहा है--तुम्हारी चेतना--वही भर नहीं जाएगी।
परमात्मा को जब तुम सब चढ़ा देते हो तो जो छिन जाने वाला है वही चढ़ता है और जो नहीं छिन सकता वही बच रहता है। और जब अकेला बच रहता है, तो प्रगाढ़ता से प्रकट होता है; साफ-साफ दिखाई पड़ता है।
चढ़ाना सीखो अपने को।
वही तो है जिंदगी जिसमें अटूट एहसास हो बका का,
है मौत का जिसमें खौफ, हरदम वो जिंदगी जिंदगी नहीं है।
वही तो है रौशनी जिसमें दिलो दिमागे बशर दरकशां,
करे जो दीवारो दर को रौशन वह रौशनी, रौशनी नहीं है।
घर और मकान को जिस रोशनी से रोशन कर लेते हो, उसको रोशनी मत समझ लेना--जब तक कि भीतर की चेतना रोशन न हो।
वही तो है कैफे हस्त जिसमें पता न हो कैफे हस्त का भी।
और आत्मानंद क्या है? आत्मानंद वहीं है जहां आत्मानंद का पता भी नहीं होता--जहां पता करने वाला अलग नहीं बचता; जहां लीनता परिपूर्ण है।
है जिसमें एहसास बेखुदी का वह बेखुदी बेखुदी नहीं है।
जहां तुम्हें याद रहे कि मैंने चढ़ा दिया, मैंने सब चढ़ा दिया--तो तुमने कुछ नहीं चढ़ाया। तुम तो बचे ही हो। यह चढ़ाने वाला अभी बचा ही है। इसी को चढ़ाना था। यह अस्मिता, यह अहंकार जाना चाहिए था।
अगर तुम्हें ऐसा लगे कि देखो कितना आनंद आ रहा है, कितना आनंदित हूं मैं--तो अभी आनंद नहीं आया। यह जो आया है, यह चला जाएगा। क्योंकि तुम इससे दूर खड़े हो; इसमें डूब नहीं गए हो; इसमें एक नहीं हो गए हो। तुम्हें यह दिखाई पड़ रहा है। यह दृश्य की भांति है। तुम द्रष्टा हो। जब आनंद ऐसा होता है कि तुम इसके साथ एक होते हो--न देखने वाला, न दिखाई पड़ने वाला, दृश्य और द्रष्टा का भेद मिट जाता है--तभी बेखुदी बेखुदी है। और जहां तुम बेखुद हो, वहीं खुदा है। जहां तुम नहीं हो वहीं परमात्मा है। इधर तुम मिटे उधर वह हुआ।
वही तो है बंदगी फक्त जो तेरी खुशी के लिए अदा हो।
किसे हम कहते हैं प्रेमी? किसे हम कहते हैं भक्त? किसे हम कहते हैं आशिक? उसे कहते हैं--
वही तो है बंदगी फक्त जो तेरी खुशी के लिए अदा हो।
जिसकी कोई मांग नहीं परमात्मा से। जो उसकी खुशी के लिए सब समर्पित कर दिया है। उसकी खुशी में जिसकी खुशी है।
मीरा ने कहा है: जहां बिठाता, वहां बैठ जाती; जो खिलाता, खा लेती; जो सुलाता, सो जाती; उठाता, उठ आती। उसकी ही खुशी! अपनी अब न कोई आकांक्षा है, न कोई खुशी है।
वही तो है बंदगी फक्त जो तेरी खुशी के लिए अदा हो,
तलब कि जिसमें हो लाग कुछ भी वो बंदगी बंदगी नहीं है।
और जहां कुछ भी पाने की आकांक्षा बनी रहे, वहां तुमने परमात्मा पर अपने को समर्पित नहीं किया; प्राण को बचाए हो अभी। तुम्हारी सारी आकांक्षाओं के जोड़ का नाम ही तुम्हारा प्राण है। जब तुम सारी आकांक्षाओं को उसके चरणों में रख देते हो, फिर तुम कहां बचे? फिर तुम्हारा अलग होना न बचा। बूंद गिर गई सागर में, हो गई सागर।
इतना पागलपन चाहिए ही होगा।
जहां तक एहसासे बेखुदी है कमाले दीवानगी नहीं है।
और जहां तक तुम्हें अपना अहसास हो रहा है कि मैं अलग-थलग, वहां तक कमाले दीवानगी नहीं--वहां तुम्हें अभी पागलपन का कमाल नहीं आया; अभी तुम्हें भक्त की कला नहीं आई।
पूछा तुमने: "प्रवचन सुनते समय भीतर ऐसी खलबली मच जाती है कि जिसका हिसाब नहीं।'
मचने दो यह खलबली। ऐसे ही तो परमात्मा आता है। यह उसके आने की खबर है। यह उसके पैरों की आवाज है। यह तुम्हारे हृदय पर दी गई दस्तक है। यह खलबली खलबली नहीं--यह होने वाली क्रांति का सूत्रपात है। यह पुकार है उसकी। धन्यभागी हो तुम। अभागे तो वे हैं जिनमें कोई खलबली नहीं मचती। परमात्मा का नाम उनके कान पर पड़ जाता है, वे बहरे की तरह बैठे रहते हैं। मीरा का भजन आता है, चला जाता है; उनके हृदय में रोमांच नहीं होता। मीरा नाचती है, चली जाती है; वे ऐसे देखते रहते हैं जैसे कहीं कुछ नहीं हो रहा। जूं नहीं रेंगती; खलबली की तो बात दूर। एक रोआं नहीं कंपता; प्राणों के कंपने की तो बात दूर।
तुम धन्यभागी हो। तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है। इस खलबली को आने दो। इसे बुलाओ। इसे मेहमान बनाओ। इसे संवारो। इससे डरना मत। इससे चोट भी लगेगी पहले, क्योंकि बहुत कुछ पुराना गिरने लगेगा। यह भूकंप जैसा होगा। मकान कंपेगा, चीजें गिरेंगी। पुरानी सब व्यवस्था टूटेगी। नई व्यवस्था तो देर से आएगी, पुरानी पहले टूट जाएगी। पुराने को मिट जाना पड़ता है--नये के आने के लिए। तुम डरोगे। तुम्हारी सुरक्षा; तुम्हारे अब तक के आयोजन, तुम्हारे अब तक के विचार, विश्वास, आस्थाएं, मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे गिरेंगे; तुम्हारी गीता-कुरान, तुम्हारी बाइबिल, वेद लड़खड़ाएंगे। तुम भयभीत होओगे। तुम उन्हें पकड़ लेना चाहोगे।
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: यह खलबली असली चीज है, इसे पकड़ना। वेद जाए, जाने देना; कुरान जाए, जाने देना। क्योंकि यह खलबली के पीछे वह आ रहा है जिससे वेद आए, जिससे कुरान पैदा हुए। वह इस खलबली के पीछे आ रहा है।
परमात्मा तूफान की तरह आता है; आंधी-अंधड़ की तरह आता है। विराट ऊर्जा है। जैसे एक छोटा सा तिनका आंधी में फंस जाता है, ऐसा ही तुम भी फंसोगे। मगर अगर तिनका राजी है तो आंधी उठा लेगी उसे सिर पर; आंधी उसे आकाशों की यात्रा करा देगी। तुम राजी हो जाना और तिनके बन जाना।
"प्रवचन सुनते समय भीतर ऐसी खलबली मच जाती है कि जिसका हिसाब नहीं।'
हिसाब तुम करना भी चाहो तो न कर सकोगे। परमात्मा की तरफ से जो भी आता है सब बेहिसाब है। उसे तुम गिनती नहीं कर सकते; नाप नहीं सकते तराजू पर; कोई मापदंड नहीं है--कोई माप नहीं है, अमाप है सब।
"कुछ समझ में नहीं आता है।'
समझ तो तुम्हारी जो है, वह जाएगी, तब समझ में आएगा। यह तुम्हारी समझ ही तो आने में बाधा है। तुम्हारी समझ यानी तुम्हारे अतीत से आए हुए संस्कार, तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारे शास्त्र। तुम्हारी समझ यानी क्या? धूल--जो तुमने इकट्ठी कर ली है--बिना अनुभव के। तुम्हारी समझ यानी तुम्हारा पांडित्य, तुम्हारा तर्क, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी बुद्धिमत्ता। तुमने पढ़ी जो बातें, सुनी जो बातें, उन सबका जो संग्रह तुम्हारे भीतर पड़ा है--वही तुम्हारी समझ है।
नहीं, परमात्मा तुम्हारी समझ में न आएगा। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए, कि तुम रेखाबद्ध कर लो उसे, कि उसकी परिभाषा कर सको। जब परमात्मा आएगा, सब परिभाषाएं उखड़ जाएंगी; सब रेखाएं अस्त-व्यस्त हो जाएंगी। तुम्हारे बनाए गए धारणाओं के भवन ऐसे गिर जाएंगे जैसे पत्तों के मकान गिर जाते हैं। और तुम्हारे शास्त्र ऐसे डूबने लगेंगे जैसे कागज की नावें डूब जाती हैं।
शास्त्र हैं भी कागज की नावें। उनमें बैठ कर कभी यात्रा न हुई है, न हो सकती है। हां, जिन्हें कभी जाना ही न हो यात्रा पर, वे मजे से किनारे पर बैठ कर कागज की नाव तैराते रहें; रंग-बिरंगी नावें--हिंदू की, मुसलमान की, जैन की, ईसाई की नावें--और विवाद करते रहें और एक-दूसरे के सिर तोड़ते रहें, कि किसकी नाव सुंदर है और किसकी नाव ज्यादा रंगीन है और किसकी नाव ले जाने वाली है। कोई नाव पर तो बैठता नहीं। नाव का विवाद चलता है। लेकिन जिस दिन उसकी आंधी आनी शुरू होगी, ये सब नावें उलट जाती हैं; फिर न तुम हिंदू रह जाते, न मुसलमान, न ईसाई।
मीरा कौन है? हिंदू है कि मुसलमान है कि ईसाई है? मीरा कोई भी नहीं। मीरा बस "उसकी' है। "उसका' होना ही बस उसकी विशेषता है।
समझ में नहीं आएगा और जब समझ में न आएगा तब यह घटना घटेगी। जिसने भी प्रश्न पूछा--स्वामी यशभारती ने--यह प्रश्न बौद्धिक नहीं है। यह प्रश्न बिलकुल ठीक है; जैसा घटना है वैसा है। पहले खलबली मचती है, फिर कुछ समझ में नहीं आता। फिर आंसू बहे चले जाते हैं। जब समझ में न आएगा, जब बुद्धि थकी हो जाएगी--तो हृदय खुलेगा, आंसू बहेंगे। समझ में आ जाएगा तो फिर आंसू नहीं बहेंगे, फिर जरूरत न रही; तुमने हिसाब-किताब लगा दिया; बुद्धि ने काम कर दिया; निबटा दिया बुद्धि के बाहर ही बाहर। आया था मेहमान, चौकीदार ने ही निबटा दिया; घर के मेजबान को पता ही न चला। उसने ही वहीं सब समझा-बुझा दिया कि सब ठीक है; कोई जरूरत नहीं भीतर जाने की। मैं पहुंचा दूंगा खबर; मैंने सब ठीक से समझ लिया है; आपने जो कहा, बिलकुल समझ में आ गया; मालिक तक पहुंचा दूंगा। मालिक भीतर सोया है, उसे पता ही नहीं चला।
आंसू तो तभी आएंगे जब चौकीदार समझ नहीं पाएगा। थोड़ी अड़चन आएगी चौकीदार को। उसकी बुद्धि की पकड़ में नहीं आएगा, कि यह क्या कह रहे हो, यह क्या है। आ जाए समझ में तो निश्चिंततः वहीं से निबटा दे। वही बुद्धि का काम है। इसलिए बुद्धि समझने को बड़ी आतुर होती है। जो समझ में आ गया, उसे बुद्धि से पार जाने की जरूरत नहीं रहती।
तो उस क्षण में जब तुम्हें कुछ समझ में न आता हो, स्वभावतः हृदय बहेगा। आंसू आएंगे।
आंसू तुम्हारी प्रार्थनाएं हैं। और ध्यान रखना: तुम्हारे कृत्य तुम्हें नहीं शुद्ध कर पाएंगे; तुम्हारे आंसू ही तुम्हें शुद्ध करेंगे। तुम्हारे आंसुओं की बाढ़ में ही तुम्हारे पाप बहेंगे। तुम्हारे आंसुओं की बाढ़ में ही तुम्हारा अंधकार बहेगा। ये आंसू ही तुम्हें फिर कुंआरा करेंगे। ये आंसू ही तुम्हें फिर निर्मल और पवित्र करेंगे। भक्ति के शास्त्र में आंसू उपाय है--आंसू ही एकमात्र उपाय है। इसलिए जो रो नहीं सकता वह भक्त नहीं हो सकता। जिसकी आंखें पत्थर हो गई हैं और जिसका हृदय पथरा गया है, और जिसमें आंसू नहीं खिलते--वह भक्त नहीं हो सकता। भक्त होने की क्षमता उसी की है जिसकी आंखें सरलता से गीली हो सकती हैं; जिसका हृदय आंसू उंडेल सकता है। जिसके भीतर भावना है, वही भक्त हो सकता है। जिसके भीतर भाव है, वही भक्त हो सकता है। और भाव के पास शब्द नहीं हैं। भाव के पास आंसू हैं। भाव के पास तर्क नहीं है। भाव के पास नाच है, गीत है, गान है।
इसलिए तो मीरा नाची, रोई, गाई।
आने दो उन आंसुओं को। सहयोग करना। रोकना मत। तुम्हारी जड़ धारणाएं कहेंगी कि क्या करते हो! मर्द होकर और रोते हो! पुरुष होकर रोते हो! यह तो स्त्रियों का काम है।
इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों में मत पड़ना, क्योंकि परमात्मा ने आंखें तुम्हें दी हैं--चाहे तुम पुरुष हो, चाहे स्त्री। और आंखों के पीछे उतनी ही आंसुओं की ग्रंथियां दी हैं--चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष, कुछ भेद नहीं किया है।
मनुष्य-जाति में एक जो बड़ी से बड़ी भ्रांति फैली है, वह यह है कि मनुष्य में विभाजन है--स्त्री और पुरुष का।...कोई विभाजन नहीं है। जहां तक परमात्मा को पाने का संबंध है, जरा भेद नहीं है। जहां तक जीवन की किसी भी गहरी सचाई का संबंध है, कोई भेद नहीं है। अगर भेद है तो बहुत शारीरिक है, जैविक है।
तुम्हारी आंखों के पीछे "यश' उतने ही आंसू की ग्रंथियां हैं जितनी किसी स्त्री के पीछे। तो तुम्हारी धारणा अगर कहे कि रोओ मत, मर्द होकर रोते हो, कोई क्या कहेगा...।
छोटे-छोटे बच्चों से हम कहने लगते हैं कि अरे तू रो रहा है! अब तू बड़ा हो गया! छोटे-छोटे बच्चों से हम कहने लगते हैं कि तू लड़का होकर रो रहा है! यह क्या लड़कियों जैसी, लड़कियाना बात! बेचारा छोटा सा बच्चा रोक लेता अपने आंसू, पी जाता आंसू। घोंट देता आंसुओं की गर्दन को पकड़ कर वहीं, दबा लेता।
तुम चकित होओगे यह जान कर कि मनस्विद इस नतीजे पर पहुंचे हैं: दुगुने मनुष्य आत्महत्याएं करते हैं स्त्रियों के मुकाबले। दुगुने पुरुष आत्महत्याएं करते हैं। दुगुने पुरुष पागल होते हैं स्त्रियों की बजाय। और उनमें से एक कारण, बहुत कारणों में एक कारण यह है कि पुरुष रोना भूल गया है। क्योंकि भाव की उमंग नहीं उठती, धीरे-धीरे जड़ होता जाता है। एक दिन पागलपन आएगा, या एक दिन आत्महत्या आएगी, या एक दिन हत्या करेगा। और यह तो संख्या में उनकी गिनती की गई है जो आत्महत्या करते हैं, पागल हो जाते हैं; उनकी क्या कहो जो बड़े-बड़े युद्ध लड़ते हैं। स्त्रियों ने तो कोई युद्ध लड़ा नहीं। स्त्रियों के ऊपर और कोई लांछन हो, यह लांछन नहीं है।
हर दस साल में पुरुषों को एक बड़ा युद्ध लड़ना पड़ता है, जिसमें कि लाखों लोग काटे-पीटे जाते हैं। यह काट-पीट भी मनस्विद कहते हैं कि आदमी के भीतर जो भाव नहीं बहता उसका ही परिणाम है। अगर थोड़े रोने लगें, थोड़े हंसने लगें, थोड़े नाचने लगें, थोड़ी बांसुरी बजाने लगें, थोड़ी कृष्ण की सुनें, थोड़ी मीरा की सुनें--तो युद्ध कम हो जाएंगे; तो हिंसा कम होगी; तो विक्षिप्तता कम होगी।
मगर आदमी की विक्षिप्तता बढ़ती चली जाती है। एटम बम बनाया, हाइड्रोजन बम बनाया; अब कहते हैं न्यूट्रान बम बना लिया। न्यूट्रान बम बड़ा अदभुत है। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि मकान नहीं उसमें खराब होंगे, दुकानें नहीं जलेंगी, सड़कें नहीं टूटेंगी, आदमी भर मरेगा। पशु-पक्षी, आदमी--जीवन भर मरेगा। न्यूट्रान बम की यह खूबी है। यह बड़े मजे की बात रही--जैसे कि मकान बचाने को हैं; आदमी मारने को हैं। मकान बचा कर क्या करोगे? जरूर राजनीतिज्ञों को यह चिंता लगी रहती है कि इतना नुकसान हो जाता है, मकान गिर जाते हैं, फिर बनाना पड़ते हैं। आदमी का क्या है! आदमी तो राजनीतिज्ञों को बनाना नहीं पड़ते; वह परमात्मा जाने। पशु-पक्षी मर जाएं, किसको क्या लेना-देना है!
तो न्यूट्रान बम आदमी की आखिरी बुद्धिमत्ता का प्रमाण है। एक वर्गमील में कोई जीवन नहीं बचेगा--चींटी से लेकर मनुष्य तक। किसी तरह का जीवन नहीं बचेगा। वृक्ष भी मर जाएंगे, क्योंकि वे भी जीवित हैं। जो भी जीवित है, मर जाएगा। सिर्फ मुर्दा चीजें बचेंगी--रास्ते, दुकानें, सामान, मकान। जीवन तिरोहित हो जाएगा, लाश पड़ी रह जाएगी। अगर बंबई पर गिरे न्यूट्रान बम तो बस लाश पड?ी रह जाएगी; बड़े-बड़े मकान खड़े रहेंगे, दुकानें सजी रहेंगी। एक चीज भी नष्ट नहीं होगी, क्योंकि न्यूट्रान बम सिर्फ जाकर जीवन पर सीधा हमला करता है। वह तरंग मात्र है। कपड़ा नहीं जलेगा। कार नहीं जलेगी। सिर्फ जाकर हृदय एकदम से दग्ध होकर रह जाएगा। और किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कब घटना घट गई। ये आदमी की विक्षिप्तता के सबूत हैं।
शुभ है कि तुम्हारी आंखों में आंसू आ रहे हैं। सदियों के गलत शिक्षण ने भी तुम्हारे आंसू समाप्त नहीं किए। इनका सहयोग करना। आनंद-भाव से सहयोग करना। संकोच नहीं करना।
तुम पूछते हो कि "क्या प्राण लेकर ही रहेंगे?'
प्यार से ही पूछा है। अहोभाव से ही पूछा है।
प्राण लिए बिना कोई उपाय नहीं। प्राण दिए बिना कोई उपाय नहीं।
चढ़ा दो जो तुम्हारे पास है प्रभु के चरणों में! और तुम सब पा लोगे--जो तुम सदियों से पाना चाहते हो और नहीं पा सके हो।
मिटे बिना पाने का कोई उपाय नहीं है।

दूसरा प्रश्न: आपने कहा कि नारद ने भक्ति का शास्त्र दिया और मीरा ने भक्ति का गीत। भक्ति के शास्त्र और भक्ति के गीत में क्या फर्क है? और क्या भक्ति का शास्त्र संभव है?

हली तो बात, भक्ति का शास्त्र संभव नहीं है; फिर भी शास्त्र बनाना पड़ा है। बहुत सी बातें संभव नहीं हैं; फिर भी करनी पड़ती हैं। जैसे परमात्मा को नहीं कहा जा सकता; फिर भी कहना पड़ता है। कोई कहने का उपाय नहीं है। जो भी हम कहेंगे गलत होगा। कहा नहीं, कहते ही गलत हो जाएगा।
सत्य को कहा ही नहीं जा सकता। सत्य तो मौन में अनुभव होता है; मौन में ही संवादित होता है। लेकिन फिर भी सदा से सत्य को पाए व्यक्तियों ने, चेष्टा की है कहने की। क्योंकि अगर वे चुप रह जाएं, तब तो तुम समझोगे ही नहीं। चिल्ला-चिल्ला कर मर जाते हैं, तब नहीं समझते, तो चुप रह जाने पर तो कैसे समझोगे।
बुद्ध चालीस साल बोलते रहे--सुबह-सांझ, सतत--तब नहीं समझे। तो बुद्ध चुपचाप अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे-बैठे विदा हो जाते, तो तुम कैसे समझते?
जीसस अपने शिष्यों से कहते हैं कि जाओ, चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर और चिल्लाओ, क्योंकि लोग बहरे हैं। हालांकि जीसस यह भी कहते हैं कि जो है उसे कहा नहीं जा सकता। ये दोनों बातों में विरोधाभास मालूम होगा। नहीं, विरोधाभास नहीं है।
सत्य नहीं कहा जा सकता, लेकिन लोग बहरे हैं; उनको चिल्लाना तो पड़ेगा। सत्य को कहने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को जगाने का उपाय है।
भक्ति का शास्त्र नहीं हो सकता, लेकिन नारद ने अपूर्व प्रयास किया है; जो नहीं हो सकता उसको करीब-करीब करके दिखाया है।...करीब-करीब ही। हो तो सकता नहीं। हम बिलकुल भक्ति को शास्त्र में तो बांध नहीं सकते; क्योंकि भक्ति भाव है; शब्द नहीं, विचार नहीं, तर्क नहीं।
शास्त्र का अर्थ होता है: तर्क, विचार, व्यवस्था। भक्ति तो भाव-दशा है; आंसुओं का कैसे शास्त्र बनाओ! हृदय में उठती हुई तरंगों को कैसे शब्दों में ढालो! प्रेम को कैसे उतारो कागज पर! वह ढाई आखर प्रेम का उतरता ही नहीं। लेकिन फिर भी हम शोरगुल मचा सकते हैं। शोरगुल मचाने से लोगों को सत्य समझ में आ जाएगा, ऐसा नहीं; शोरगुल मचाने से यह समझ में आ जाएगा कि जो हमें नहीं मिला है वह किसी को मिला है। उससे प्यास जगेगी।
मैं तुमसे रोज बोलता हूं। इसमें कभी भी यह भ्रांति मेरे मन में नहीं है कि मुझे सुन कर तुम सत्य को समझ लोगे। यह भ्रांति का तो सवाल ही नहीं उठता। फिर मैं क्यों बोलता हूं रोज? बोलता इसलिए हूं कि सत्य तो तुम्हें मुझे सुन कर समझ में नहीं आएगा; लेकिन मुझे सुन कर सत्य को समझना है, यह आकांक्षा जग सकती है। फिर आकांक्षा के सहारे तुम चलोगे अपने भीतर, तो किसी दिन सत्य भी समझ में आएगा।
इसलिए सत्य के संबंध में जो बातें कही जाती हैं; अंततः सत्य तक ले जा सकती हैं--मगर बड़े घुमाव से, बड़े परोक्ष रूप से, प्रत्यक्ष, सीधे-सीधे नहीं। ऐसा नहीं कि मैंने कहा और तुम समझ गए और बात खत्म हो गई। मैंने जो कहा, अगर वह तुम समझे तो बात शुरू हुई, खतम नहीं। यात्रा आरंभ हुई। फिर बहुत होने को है।
जिन्होंने भी भक्ति के शास्त्र निर्मित किए हैं, उनमें नारद ने बड़ी कुशलता से, असंभव को संभव करके दिखाया है। लेकिन बस करीब-करीब सत्य के पहुंचते हैं--भनक--आभास।
ऐसा ही समझो कि मेरा कोई चित्र उतारे, तो तुम यह तो नहीं कहोगे कि मेरा चित्र मैं हो गया। कोई तुम्हें मेरा चित्र दे दे, तो चित्र ही दिया उसने; मुझे तो तुम्हें नहीं दे दिया। तुम चित्र को अपनी जेब में रख लोगे, अपने घर ले जाओगे, सम्हाल कर रख लोगे; लेकिन फिर भी उस चित्र में मैं नहीं हूं। यह तो तुम्हें भी समझ में आता है कि चित्र में मैं कैसे हो सकता हूं। कागज पर पड़े हुए सफेद और काले धब्बों में मैं कैसे हो सकता हूं। जीवन को ऐसे नहीं पकड़ा जा सकता। लेकिन फिर भी चित्र मेरा है। चित्र किसी और का नहीं है। यह भी सच है।
और फिर चित्र उतारने में भी कुशलता हो सकती है। दस लोग चित्र उतारेंगे तो सभी के इतनी कुशलता से नहीं आ जाएंगे। दस चित्रों में तुम कहोगे: यह चित्र सबसे ज्यादा ठीक। क्यों? क्योंकि सत्य के सबसे ज्यादा करीब पहुंचता है। यद्यपि फिर भी सत्य नहीं है।
ऐसे नारद का सूत्र है। बड़े करीब पहुंचता है, यद्यपि स्वयं भक्ति नहीं है। भक्ति के संबंध में बुद्धि जितना सोच-विचार कर सकती है, उसका सार-संक्षिप्त है।
फिर मैंने कहा कि नारद ने तो शास्त्र दिया भक्ति का और मीरा ने गीत दिया। गीत ज्यादा करीब पहुंचता है; शास्त्र से ज्यादा करीब। क्योंकि शास्त्र होता है तर्कबद्ध। गीत को कोई तर्कबद्धता नहीं होती। गीत होता है मुक्त। शास्त्र में तुम्हारी बुद्धि को समझाने का उपाय होता है; गीत में तुम्हारे हृदय को सहलाने का। शास्त्र तुम्हारे विचार को प्रभावित करता है; गीत तुम्हारे हृदय को आंदोलित करता है। ये दोनों अलग प्रक्रियाएं हैं। क्योंकि हृदय और बुद्धि अलग-अलग हैं।
तुम नारद का शास्त्र समझ कर पारंगत हो सकते हो, फिर भी उससे तुम में भक्ति की कोई शुरुआत होगी, नहीं कहा जा सकता। हो सकता है तुम सिर्फ किसी विश्वविद्यालय में पीएच.डी. की उपाधि लेने के लिए नारद के सूत्र पढ़ो और उनकी ठीक-ठीक सम्यक व्याख्या, विश्लेषण करो; उनके लिए ठीक-ठीक तर्क, संदर्भ जुटाओ। और तुम बड़े पंडित हो जाओ। मगर उससे कुछ भाव पैदा नहीं हो जाएगा।
मीरा का गीत ज्यादा कारगर हो सकता है, क्योंकि यह तीर सीधा हृदय के लिए है।
जब मैंने कहा कि मीरा भक्ति की साकार प्रतिमा है, तो मीरा को समझने के लिए तुम्हें ज्यादा निकट आना पड़ेगा। नारद को समझना हो तो नारद की किताब पर्याप्त है; नारद के पास जाने की कोई खास जरूरत नहीं है। लेकिन मीरा को समझना हो तो मीरा का गीत काफी नहीं है; गायक के पास जाना पड़े।
तुमने कभी यह बात खयाल की: एक ही राग को दो वीणावादक बजाएं, तो भी उसमें भेद होता है! एक ही राग, मगर दो वीणावादक बजाएं तो भेद होता है। एक ही गीत को दो गायक गाएं तो भेद होता है। एक ही गीत है, एक ही राग में बांधा है, एक ही व्यवस्था से गाया गया है; फिर भी दो गायक में भेद हो जाएगा, क्योंकि कंठों का भेद होगा, प्राणों का भेद होगा।
अब तुम देखे, "तरु' सूत्र गाती है, तो डूब कर गाती है! जैसे मीरा ने गाए होंगे, वैसे गाती है। पीछे खड़े होकर, अलग होकर नहीं गाती। रसविभोर हो जाती है।...तो तुम्हारे हृदय को छूता है।
गीत को समझना हो तो गायक के पास आना पड़े। नृत्य को समझना हो तो नर्तक के पास आना पड़े। ध्यान को समझना हो तो ध्यानी के पास आना पड़े। शास्त्र को समझना हो तो शास्त्र के पास जाना पड़ता है; शास्त्रकार के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है।
मीरा जीवंत है। मीरा में तो डूबोगे तो समझोगे। मगर मीरा से स्वाद मिल सकता है। नारद से सिद्धांत मिलेगा; मीरा से स्वाद मिल सकता है। और स्वाद ही अंततः निर्णायक है।

तीसरा प्रश्न: आप रोज नई-नई बातें कहे जाते हैं, इससे उलझन बढ़ती है। क्या पुराने शास्त्र और उनकी सिखावन पर्याप्त नहीं है?

लझन बढ़ सकती है, अगर पुराने शास्त्रों पर बहुत पकड़ हो। अगर सत्य की खोज हो तो जरा भी उलझन न बढ़ेगी। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, वह सभी शास्त्रों का सार है।
मेरे शब्द नये हो सकते हैं, लेकिन सार वही है। और शब्द हमेशा नये चाहिए। क्योंकि पुराने शब्द पिट जाते हैं; जैसे पुराने सिक्के घिस जाते हैं। जितना शब्द बहुत दिन चल चुकता है, उतना ही अर्थहीन हो जाता है; पिटा-पिटाया हो जाता है। बार-बार सुनते-सुनते, उसकी चोट चली जाती है। उसमें जो आघात था, जो तुम्हारी हृदयत्तंत्री को छेड़ देता--वह नहीं रह जाता।
धर्म को रोज-रोज नये शब्द की देह लेनी पड़ती है। वेद ने कुछ कहा था; जब कहा था तब न मालूम कितने हृदयों की वीणा उनसे छिड़ गई होगी और न मालूम कितने जीवन में सुवास उठी होगी। फिर पंडित दोहराता रहा, दोहराता रहा, सदियां बीत गईं--फिर सब जड़ हो गया: दोहरते-दोहरते, पंडित को सुनते-सुनते। जिन्होंने पहली दफा कहा था, वे पंडित नहीं थे; वे प्रज्ञावान पुरुष थे। उन्होंने अनुभव किया था, उन्होंने ईश्वर को देखा था, वे प्रत्यक्षदर्शी थे, वे गवाह थे, वे साक्षी थे, उन्होंने जाना था, जीया था, अनुभव किया था। उनके शब्दों में एक जीवंतता थी, एक ज्योति थी। मिट्टी का दीया था जरूर, लेकिन दीये में ज्योति भी थी।
फिर ज्ञानी, ऐसे ज्ञाता गए, उनके शब्द पंडितों के हाथ में पड़ गए। यह हमेशा ही होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। अंततः शब्द पंडित के हाथ में पड़ ही जाएगा। क्योंकि पंडित शब्द की तलाश में है।
समझो, मुझे तुम यहां सुन रहे हो। मैं जो कह रहा हूं, वह दो तरह के लोगों के हाथ में पड़ेगा। एक तो वे जो मेरी बात को समझेंगे, जीएंगे, डुबकी मार जाएंगे। और दूसरे वे, जो मेरे शब्द को पकड़ेंगे, संग्रह करेंगे, शब्द का विश्लेषण करेंगे, व्यवस्था जुटाएंगे--पंडित हो जाएंगे। इन दोनों का मार्ग अलग हो जाएगा। मेरे साथ जो रस में डूबेंगे, वे एक--और मेरे शब्द को पकड़ कर जो संग्रह करेंगे, वे दो।
और आश्चर्य की बात यह है कि जो रस में डूबेंगे, उनका इतना प्रभाव दुनिया में नहीं होगा। रस में डूबने वाले आदमी को प्रभाव की चिंता भी नहीं होती। वह अपनी मस्ती में जी लेता है और विदा हो जाता है। मगर जो पंडित है, जिसको रस तो कुछ मिला नहीं, जिसने शब्द की ही संपदा इकट्ठी की है, वह शब्द को उछालता फिरेगा। वह सब जगह समझाता फिरेगा, बताता फिरेगा। वह अपने शब्द का फायदा उठाएगा, अपने शब्द से अपने अहंकार को भरेगा। फिर पंडित विवाद करेंगे; कौन ठीक, कौन गलत। और वे निर्णायक हो जाएंगे। जिसने सच में भोगा था रस को, वह तो किनारे से दूर हट जाएगा, अपनी पगडंडियों पर विलीन हो जाएगा। राजपथ बनाता है पंडित। फिर वह शब्द का मालिक हो जाता है। जब तक मैं हूं तब तक तो वह मालिक नहीं हो सकता है; लेकिन जैसे ही मैं गया वह मालिक हो जाएगा। वह शब्द का धनी है। वह तर्क से सिद्ध कर सकता है; असिद्ध कर सकता है। उसके पास एक कुशलता है।
तो वेद, जिन्होंने परमात्मा जाना, उन्होंने गुनगुनाए। जल्दी ही पंडित के हाथ में पड़ गए। पंडित के हाथ में पड़े कि वह उनको दोहराने लगा; उछालने लगा, जगह-जगह फेंकने लगा। एक-दूसरे के ऊपर उनका उपयोग करने लगा।
पंडित तो शास्त्र का उपयोग शस्त्र की तरह करता है--दूसरों के अहंकार को गिराने; अपने अहंकार को बढ़ाने। तो ब्राह्मणों का एक बड़ा जाल पैदा हुआ। उस जाल में वेद को फांसी लग गई। वेद को किसी ने मारा तो ब्राह्मणों ने मारा।
मगर सदा ऐसा होता है। कुछ ऐसा यहीं हुआ, वेद के साथ ही हुआ, ऐसा नहीं। ऐसा सदा होता है, सब जगह होता है, सदा होगा, सब जगह होगा। यह अनिवार्य दोष है; इससे बचा नहीं जा सकता।
तो फिर बुद्ध और महावीर को नये शब्द खोजने पड़े। फिर बुद्ध और महावीर को वेद को इनकार करना पड़ा क्योंकि वेद के साथ जो पंडित खड़े थे उनको इनकार करने का और कोई उपाय नहीं था। इस बात को समझना। नहीं तो बुद्ध और महावीर वेद को इनकार करें? बुद्ध और महावीर साक्षी बनते वेद के, गवाह बनते वेद के। वे फिर वैसे ही पुरुष थे, जैसे वेद के ऋषि थे। मगर उनको विरोध करना पड़ा वेद का, क्योंकि अब एक ही उपाय था। वेद की आत्मा को पंडितों से छुड़ाने का एक ही उपाय था, कि वेद के शब्दों का विरोध किया जाए, क्योंकि उसके तो मालिक तैयार हो गए थे। उन्होंने तो पूंजी बना ली थी। तो जैन और बौद्ध धर्म पैदा हुए, जो वेद-विरोधी धर्म हैं। और आश्चर्य की बात यह है कि उनमें जरा भी वेद-विरोध नहीं है। हो ही नहीं सकता। दो सत्य कभी एक-दूसरे के विरोध में नहीं होते, क्योंकि दो सत्य ही नहीं होते; सत्य की दो अभिव्यक्तियां मात्र होती हैं। सत्य तो एक ही है।
लेकिन वही फिर महावीर-बुद्ध के साथ हो गया। पंडित आ गया। तुम्हें यह जान कर हैरानी होगी कि महावीर तो क्षत्रिय थे, लेकिन उनके जो ग्यारह गणधर हैं, वे सब ब्राह्मण हैं। जिन्होंने महावीर के शब्द को इकट्ठा किया, वे सब ब्राह्मण और पंडित। बुद्ध तो क्षत्रिय थे, लेकिन बुद्ध के जो बड़े शिष्य हैं, जिन्होंने बुद्ध का शास्त्र निर्मित किया, वे सब ब्राह्मण हैं। और ब्राह्मण से मेरा मतलब कुछ ब्राह्मण कुल में पैदा होने वाले आदमी से ही नहीं होता। जिसकी भी पकड़ शब्दों पर है वह ब्राह्मण। फिर वही जाल खड़ा हो गया। फिर ब्राह्मणों ने, फिर पंडितों ने बुद्ध-महावीर को मार डाला।
फिर आए कबीर, मीरा, दादू, नानक। फिर शब्द को मुक्त किया। फिर विरोध करना पड़ा उन्हें। और ऐसा निरंतर होगा।
तो मैं जब पुराने शब्दों का कभी विरोध करता हूं तो इसलिए ताकि पुराने शब्दों में पड़ी हुई आत्मा को मुक्त कर लूं। शब्द का ही विरोध है; आत्मा को बाहर निकाल लेना है। जब तुम समझोगे मेरी बात तो तुम्हें यह बात भी समझ में आएगी ही, निश्चित समझ में आएगी कि जिन्होंने भी जाना है, मैं उनकी ही बात कह रहा हूं। लेकिन संदर्भ नया है; भाषा नई है; उपाय नया है। लोग नये हैं। परिस्थिति नई है। काल नया है। सब बदल गया है।
जब सब बदल गया तो पुराने शब्द काम के नहीं रह गए; वे संदर्भ के बाहर पड़ जाते हैं।
पांच हजार साल पहले किसी ने कुछ बात कही थी। वह निश्चित ही पांच हजार साल पुरानी भाषा में आबद्ध है। अब न तो तुम बैलगाड़ी में चलते। अब तुम जेट हवाई जहाज में चलते हो। तुम्हारी भाषा जेट हवाई जहाज की भाषा है; बैलगाड़ी की भाषा नहीं है। लेकिन तुम्हारा सत्य अभी भी बैलगाड़ी की भाषा में आबद्ध है। उसे मुक्त करना होगा। तुम्हारे सत्य को भी जेट की यात्रा करानी होगी। संदर्भ बदलने होंगे।
सत्य को हमेशा नये शब्द का आवरण चाहिए; जैसे पुराने वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, फिर हम उन्हें बदल देते हैं; नये वस्त्र पहन लेते हैं। तुम सत्य को पुराने ही वस्त्र पहनाए रखोगे सदा-सदा?
वेद ने संस्कृत के शब्द दिए सत्य को, बुद्ध ने पाली के शब्द दिए, मीरा ने हिंदी के शब्द दिए। भाषा बदल गई, ढंग बदल गया--क्योंकि लोग बदल गए थे। और अगर तुमने जिद्द की, कि तुम पुराने को पकड़ कर वैसे ही चलोगे जैसा पुराना था, तो तुम अक्सर पाओगे कि तुम समसामयिक नहीं हो। और अक्सर तुम झंझटों में पड़ोगे।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था। मैं चाहूंगा इस पर तुम ध्यान करो।
एक बड़े मियां जिन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ कमाया-बनाया था, आखिर बीमार हुए। मृत्यु-रोग में गिरफ्तार हुए। उन्हें कोई फिक्र थी तो बस यही एक कि उनके पांच बेटों की आपस में नहीं बनती थी। गाढ़ी क्या, पतली भी नहीं छनती थी। लड़ते ही रहते थे। कभी किसी बात पर इत्तफाक न होता था। हालांकि इत्तफाक में बड़ी बरकत है। आखिर बड़े मियां ने एकता और इत्तफाक की खूबियां बेटों के दिल में उतारने के लिए एक पुरानी तरकीब खयाल में लाई। पढ़ी होगी ईसप की किताब में या पंचतंत्र में या लुकमान के वचनों में।
पुरानी तरकीब है, तुमने भी सुनी है, पढ़ी है कि कोई बाप मर रहा था। उसने पांच लकड़ियां एक गट्ठे में बांध दीं, और अपने बेटों को कहा: तोड़ो। उन्होंने बड़ी तोड़ने की कोशिश की, लेकिन गट्ठर नहीं टूट सका। पांच लकड़ियां इकट्ठी मजबूत थीं। फिर उसने गट्ठर खोल दिया, और एक-एक लकड़ी बेटों को दे दी और कहा: अब तोड़ो। उन्होंने तत्क्षण लकड़ियां तोड़ दीं। और बाप ने कहा कि देखो, पांच इकट्ठे होते हैं तो शक्ति होती है, पांच अलग-अलग हो जाते हैं तो निर्बल हो जाते हैं। यही मेरा तुमसे आखिरी निवेदन है।
ऐसा कह कर बाप मर गया। बड़े मियां को यह कहानी याद आई। सोचा कि उसी कहानी का उपयोग कर लें।
बड़े मियां ने अपने बेटों को पास बुलाया और कहा: देखो, अब मैं कुछ ही दिन का मेहमान हूं। सब जाकर एक-एक लकड़ी लाओ।
एक ने कहा: लकड़ी! आप लकड़ियों का क्या करेंगे?
जमाना बदल गया; पुरानी कहानी में यह बात आती ही नहीं है कि आप लकड़ियों का क्या करेंगे। वह जमाना और था। बाप ने कहा, लकड़ियां लाओ, लड़के लकड़ियां ले आए थे। एक लड़के ने पूछा कि लकड़ी। आप लकड़ियों का क्या करेंगे? दूसरे ने आहिस्ता से कहा: बड़े मियां का दिमाग खराब हो गया है। लकड़ी नहीं, शायद ककड़ी कह रहे हैं। ककड़ी खाने को जी चाहता होगा।
तीसरे ने कहा: नहीं, कुछ सर्दी है, शायद आग जलाने को लकड़ियां मांग रहे हैं।
चौथे ने कहा: बाबूजी, कोयले लाऊं?
पांचवें ने कहा: नहीं जी, कोयले से क्या होगा, उपले लाता हूं। वे ज्यादा अच्छे रहेंगे।
बाप ने कराहते हुए कहा: अरे नालायको, मैं जो कहता हूं वह करो।
क्योंकि उसको तो एक सिद्धांत सिद्ध करना था। तो कोयले से तो होगा नहीं सिद्ध, उपले से होगा नहीं सिद्ध--यह तो बात ही इन्होंने बदल दी; सब कहानी खराब किए दे रहे हैं। और वह कहानी की बात भी नहीं कह सकता पहले से कि मैं वह पुरानी कहानी...नहीं तो मतलब ही खत्म हो गया। उसको तो छिपा कर रखनी है; वह तो सिद्धांत निकालना है।
बाप ने कराहते हुए कहा: अरे नालायको, मैं जो कहता हूं वह करो। कहीं से लकड़ियां लाओ जंगल से।
एक बेटे ने कहा: यह भी अच्छी रही, जंगल यहां कहां? और महकमा-जंगलात वाले लकड़ी कहां काटने देते हैं। सजा करवाओगे?
दूसरे ने कहा: अपने आपे में नहीं हैं बाबूजी। बक रहे हैं जुनून में क्या-क्या कुछ।
तीसरे कहा: भई लकड़ियों वाली बात अपनी समझ में तो बिलकुल नहीं आती।
चौथे ने कहा: बड़े मियां ने उम्र भर में एक ही तो ख्वाहिश की है, उसे पूरा करने में हर्ज भी क्या है? ले भी आओ। दिमाग तो मालूम होता है खराब हो गया है; मगर क्या बिगड़ता है, पांच लकड़ियां ले ही आओ।
पांचवें ने कहा: अच्छा मैं जाता हूं, टाल पर से लकड़ियां ले आता हूं।
चुनांचे वह टाल पर गया, टालवाले से कहा: खान साहब, जरा पांच लकड़ियां तो देना। अच्छी मजबूत हों।
टालवाले ने लकड़ियां दीं। हरेक खासी मोटी और मजबूत थी। बाप ने देखा तो उसका दिल बैठ गया, क्योंकि लकड़ियां इतनी मजबूत थीं कि एक-एक भी नहीं तोड़ी जा सकती थीं, पांच को तोड़ने का तो सवाल ही क्या था। यह बताना तो मतलब के खिलाफ था कि लकड़ियां क्यों मंगवाई गईं हैं और उससे क्या नैतिक परिणाम निकालने की आकांक्षा है। आखिर बेटों से कहा: ठीक, अब तुम जब इन लकड़ियों को ले ही आए तो गट्ठा बांधो। बेटों में फिर खुसर-पुसर होने लगी।
गट्ठा! वह क्यों? अब रस्सी कहां से लाएं? भई बहुत तंग किया इस बुङ्ढे ने!
आखिर एक ने अपने पाजामे से इजारबंद निकाला और गट्ठा बांधा।
जमाना बदल गया, तुम कहां की पुरानी कहानी लिए बैठे हो!
बड़े मियां ने कहा: अब इस गट्ठे को तोड़ो। बेटों ने कहा: लो भाई, यह भी अच्छी रही, कैसे तोड़ें! कुल्हाड़ा कहां से लाएं। अरे इस बूढ़े के दिमाग को हुआ क्या है। मरना हो तो मर ही जाओ। अब और तो न सताओ।
बाप ने कहा: कुल्हाड़े से नहीं, हाथों से तोड़ो, घुटने से तोड़ो, बाप ने देखा हाथ से तो टूटने वाली नहीं है। यह कहानी सब गड़बड़ ही हुई जा रही है। तो उसने कहा: हाथ से न टूटे तो घुटनों से तोड़ो, मगर तोड़ो।
बाप का हुक्म सिर आंखों पर। पहले एक ने कोशिश की, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने, फिर चौथे ने, फिर पांचवें ने। लकड़ियों का बाल भी बांका न हुआ। सबने कहा: बाबूजी, हमसे नहीं टूटता यह लकड़ियों का गट्ठा। बाप ने कहा: अच्छा, अब इन लकड़ियों को अलग-अलग कर दो। इनकी रस्सी खोल दो। एक ने जल कर कहा: रस्सी कहां है, मेरा इजारबंद है। अगर आपको खुलवाना ही था तो गट्ठा बंधवाया क्यों था? तुम होश में हो कि तुम्हारा होश बिलकुल खराब हो गया है? लाओ भाई कोई पेंसिल दो, मैं इजारबंद अपने पायजामे में वापस डाल लूं।
खैर, बाप की भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि करना क्या है? कहानी तो पुरानी थी और बड़े मतलब की थी। मगर वक्त बदल गया, लोग बदल गए, ढंग बदल गया, सोचने के हिसाब बदल गए। फिर बाप ने कहा: अच्छा। जब लड़के ने अपना इजारबंद निकाल लिया, तो कहा: इनको एक-एक लकड़ी को एक-एक करके तोड़ो। लकड़ियां मोटी-मोटी और मजबूत, बहुत कोशिश की, किसी से नहीं टूटीं। आखिर में बड़े भाई की बारी थी। उसने एक लकड़ी पर घुटने का पूरा जोर डाला, और तड़ाक की आवाज आई। बाप ने नसीहत करने के लिए आंखें एकदम खोल दीं। बाप तो तैयारी में था कि नसीहत करने के लिए एकाध तो टूट जाए। क्या देखता है कि बड़ा बेटा बेहोश पड़ा है। लकड़ी सही सलामत है, उसकी टांग टूट गई।
एक लड़के ने कहा: यह बुङ्ढा बहुत जाहिल है।
दूसरे ने कहा: अड़ियल! जिद्दी!
तीसरे ने कहा: खूसट! सनकी! अकल से पैदल! घामड़।
चौथे ने कहा: सारे बुङ्ढे ऐसे ही होते हैं, कमबख्त मरता भी नहीं।
बुङ्ढे ने इत्मीनान की सांस ली कि बेटे कम से कम एक बात पर एकमत तो हुए। इसके बाद आंखें बंद कीं और बड़ी शांति से जान दे दी।
और तुम पूछते हो कि पुराने को मैं नये-नये शब्द क्यों दिए जाता हूं!
सत्य को नये शब्दों की सदा जरूरत है। सत्य पुराने शब्दों में, पुराने ढांचों में आबद्ध होकर मर जाता है। सत्य को नई उदभावना चाहिए; नई तरंग चाहिए; नये गीत चाहिए--तो ही सत्य हृदय तक पहुंचता है। और जब ताजात्ताजा होता है, तभी पहुंचता है; बासा हो जाता है, फिर अर्थहीन हो जाता है।
सुनी-सुनाई बातों को जब तुम बार-बार सुनते हो तो सुनने की जरूरत ही नहीं रह जाती है। क्या सुनना है! कितनी बार तो तुम सुन चुके हो! पहले भी सुनने से कुछ नहीं हुआ; अब क्या हो जाएगा? तुम उसी किताब को पढ़ते रहते हो, पाठ करते रहते हो, रोज-रोज--कल भी किया था, आज भी कर लोगे, परसों भी कर लोगे--न कल कुछ हुआ था, न आज कुछ हुआ है, न परसों कुछ होगा। धीरे-धीरे तुम जड़ हो जाओगे।
मगर मैं समझता हूं कि तुम्हारी तकलीफ क्या है।
तुम पूछते हो: "क्या पुराने शास्त्र और उनकी सिखावन पर्याप्त नहीं है?'
सिखावन तो पर्याप्त है, लेकिन उस सिखावन को आज के लिए मौजूं बनाना होगा; तभी वह सिखावन होगी, नहीं तो सिखावन नहीं होगी।
जैसे आदमी जिंदगी भर जी लेता है, शरीर पुराना हो जाता है, तो आत्मा उड़ जाती है उस शरीर से; फिर उस शरीर को हम दफना देते हैं, जला देते हैं। फिर आत्मा नया गर्भ लेती है। ऐसा ही सत्य भी बार-बार पुराने शास्त्रों से उड़ जाता है; फिर नया जन्म लेता है; फिर किसी के गर्भ में पैदा होता है।
बुद्धपुरुष सत्य के लिए गर्भ बनते हैं; फिर से जन्म होता है सत्य का।
तुम्हारी अड़चन सत्य के नये शब्दों के कारण नहीं है; तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम पुराने को खूब जकड़े बैठे हो। तुम पुराने से खूब उलझे हो। यद्यपि पुराने से कुछ लाभ भी नहीं हो रहा है। लाभ ही होता होता, तो फिर ठीक थी; फिर कोई बात ही न थी; फिर मेरे पास आने की कोई जरूरत भी न थी। अगर पुराने से लाभ हो रहा हो तो मेरे पास आओ भी मत। फिर क्यों उलझन लेनी? पुराने से ही रास्ता बन जाएगा। जाना है परमात्मा तक, रास्ते थोड़े ही देखने हैं कि कहां से तुम गए! पहुंचना है उस तक! कैसे पहुंचे, तुम फिकर कर लो। अगर पुराना काम न दे रहा हो तो मेरी बात सुनो।
मैं वही कह रहा हूं जो पुराने में है, लेकिन मेरा ढंग अपना है। मेरा अंदाजे बयां अपना है। और कुछ फर्क नहीं है।

चौथा प्रश्न: कई संत-महात्मा कहते हैं कि, क्योंकि मीरा बाई कृष्ण के सगुण रूप से बंधी रही, इसलिए वह मुक्ति और परमपद को उपलब्ध न हो सकी।

न संत-महात्माओं को कुछ भी पता नहीं है। ये संत-महात्मा निर्गुण शब्द से बंधे हैं। कम से कम मीरा तो सगुण कृष्ण से बंधी थी--कम से कम जीवंत कृष्ण! ये तुम्हारे तथाकथित संत-महात्मा सिर्फ निर्गुण शब्द से बंधे हैं। इनकी अड़चन यही है कि शब्दों का जाल इन्होंने फैला रखा है कि निर्गुण से मुक्ति होगी, सगुण से कैसे होगी? लेकिन सगुण में भी परमात्मा है और निर्गुण में भी परमात्मा है। वे उसके ही रूप हैं। आकार में भी वही है। निराकार में भी वही है। अगर आकार में भी वही है तो आकार से मुक्ति क्यों नहीं होगी? परमात्मा मुक्तिदायी है। तुम कहीं से भी प्रवेश करो, मुक्ति होगी ही। किस द्वार से प्रवेश करोगे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन संत-महात्माओं को तो आंखें नहीं हैं देखने की। मीरा को नहीं देखेंगे। यह मीरा में जो बरस रहा है अमृत, यह बिना मुक्ति के बरस ही नहीं सकता। यह जो मीरा के घुंघरुओं की झंकार है, यह परम आनंद के बिना हो ही नहीं सकती। और इन संत-महात्माओं में तुम कोई भी झंकार न पाओगे। जरा गौर से देखना: जो संत-महात्मा ऐसा कहता हो कि मीरा परमपद को नहीं पहुंची, पहले जरा इसकी तरफ देख लेना कि ये सज्जन किस पद तक पहुंचे हैं। जरा इनको हिला-डुला कर देख लेना, ठोंक-बजा कर देख लेना। आदमी दो पैसे की हंडी भी बाजार से खरीदता है तो ठोंक कर खरीदता है, इतनी जल्दी से मत खरीद लेना। ठीक से ठोंक-बजा कर देख लेना। और तुम बड़े हैरान होओगे कि परमपद की तो दूर बात, इन्हें सुगंध भी नहीं मिली उस फूल की। मगर बड़ी आसान है यह बात कह देना कि किसको नहीं मिला, क्यों नहीं मिला!
निर्णायक बनने में बड़ा मजा है। क्योंकि निर्णायक बनने में ऐसा लगता है कि हम ऊपर हो गए। जिसमें थोड़ा भी संतत्व पैदा हुआ होगा, पहले तो वह इस तरह का निर्णायक नहीं बनेगा। वह थोड़ा झिझकेगा। मीरा जैसे व्यक्तित्व पर वक्तव्य देने के लिए थोड़ा झिझकेगा, थोड़ा संकोच करेगा; इतनी निर्लज्जता नहीं करेगा।
और यही संत-महात्मा कहते फिरते हैं कि सब रूपों में वही है, सब आकारों में वही है; कण-कण में वही है। जब वही है पत्ते-पत्ते में, तो फिर पत्ते से भी मुक्ति हो सकती है। गोपाल की तो बात छोड़ो। अगर वही है तो कहीं से भी पकड़ लो उसका हाथ, वही से मुक्ति हो सकती है।
सितारों के जहां तक आ गए हैं
गुबारे कारवां तक आ गए हैं
तलाशे आस्ताने यार में हम
जमीं से आस्मां तक आ गए हैं,
मकान अपना मुअय्यन है न मंजिल,
कहें क्या हम कहां तक आ गए हैं,
फलक की वुसअतों से गुजर कर,
हदूदे ला-मकां तक आ गए हैं,
ये माना हमने वाइज और मोमन
सभी बागे जनां तक आ गए हैं,
मगर ऐसे भी हैं गुमगश्ता कुछ लोग,
जो रब्बे दो जहां तक आ गए हैं
ये माना हमने वाइज और मोमन
सभी बागे जनां तक आ गए हैं।
यह माना कि पंडित, पुरोहित, साधु, तथाकथित सज्जन, संत, वे स्वर्ग तक आ गए हैं--यह माना हमने। उन्होंने पुण्य के सुख को पा लिया है, यह माना हमने। लेकिन--मगर ऐसे भी हैं गुमगश्ता कुछ लोग--मगर कुछ ऐसे भूले हुए लोग भी हैं, भटके हुए लोग भी हैं--जो रब्बे दो जहां तक आ गए हैं--जो कि दोनों जहान का जो परमात्मा है, उस तक आ गए हैं, ऐसे कुछ भूले हुए लोग भी हैं। उन्हीं भूले हुए लोगों का नाम प्रेमी है। ऐसे कुछ आशिक भी हैं।
समझदार पहुंचते हैं--स्वर्ग से आगे तक नहीं। स्वर्ग यानी सुख। समझदार ज्यादा से ज्यादा सुख तक पहुंचता है। नासमझ दुख में पड़ जाता है; समझदार सुख तक पहुंच जाता है। लेकिन एक और भी समझदारी है, जो समझदारी से भी पार है। इसलिए उसको कहा--गुमगश्ता कुछ लोग--कुछ भूले-भटके लोग, जिनको समझदार भी नहीं कह सकते, नासमझ भी नहीं कह सकते--इतने भूले-भटके लोग! ऐसे पागल दीवाने! ऐसे कुछ लोग हैं जो उस परमात्मा तक पहुंच जाते हैं। परमात्मा यानी सच्चिदानंद।
इस फर्क को समझो।
दुख का अर्थ है: तुमने जीवन को बड़ी मूढ़ता से जीया। दुख का अंतिम रूप: नरक। सुख तो तुम पाना चाहते थे, लेकिन तुम इतनी मूढ़ता से जीए कि सुख कभी हो न पाया। सुख यानी स्वर्ग; अंततः जो स्वर्ग बन जाए। सुख का अर्थ होता है: बड़ी बुद्धिमत्ता से जीए। ऐसी बुद्धिमत्ता से जीए कि दुख जहां था वहां से बचाया; सुख जहां था वहां अपने को सरकाया; जीवन की शैली ऐसी बनाई; जीवन को ऐसा ढंग और सांचा दिया कि सुख ही सुख हुआ। लेकिन इन दोनों की स्थितियां एक-दूसरे से बंधी हैं, क्योंकि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
नरक और स्वर्ग दूर-दूर नहीं हैं, जैसा आमतौर से तुम सोचते हो--कि स्वर्ग ऊपर और नरक नीचे। स्वर्ग और नरक पड़ोसी हैं। और बीच में दरवाजा है दोनों के; आना-जाना जारी रहता है। पुराने शास्त्र भी कहते हैं कि स्वर्ग जो जाता है, जब उसका पुण्य चुक जाता है तो फिर वापस दुनिया में गिर जाता है। सुख कमा लिया था, वह चुक गया। तुमने दस-पांच दिन मेहनत की, दस-पच्चीस रुपये कमा लिए, फिर चले गए पहाड़ पर, एक-दो-चार दिन आराम कर लिया, वे चुक गए--फिर वापस। सुख चुक जाता है।
और जहां तक सुख है वहां तक दुख की छाया बनी ही रहेगी। और जहां तक दुख है वहां तक सुख की आशा भी बनी रहेगी। इन दोनों के पार हो जाने की जो अवस्था है उसको हम आनंद कहते हैं। आनंद का अर्थ सुख नहीं होता। खूब समझ लेना। भाषाकोश में कुछ भी लिखा हो, भाषाकोश से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। जीवन के कोश में आनंद का अर्थ सुख नहीं होता। आनंद का अर्थ होता है: सुख-दुख, दोनों के पार। परमात्मा को पाने का अर्थ होता है: आनंद को पा लिया; परम शांति को पा लिया। अब न दुख बचा, न सुख बचा; न पाप बचा, न पुण्य बचा। गए सब द्वंद्व, गए सब द्वैत, गई दुई। अब एक बचा।
ये माना हमने वाइज और मोमन
सभी बागे जनां तक आ गए हैं
मगर ऐसे भी हैं गुमगश्ता कुछ लोग,
जो रब्बे दो जहां तक आ गए हैं।
उन भूले-भटकों में मीरा बड़ी अप्रतिम है। उन थोड़े से भूले-भटके लोगों में एक है--जिसने न पुण्य साधा; जिसने न विधि-विधान किए; जिसने न योगासन साधे; न तंत्र-मंत्र-यंत्र जपा; जिसने इस सबकी चिंता ही नहीं की; जो औपचारिकताओं में उलझी ही नहीं; जिसने प्यारे को याद किया। बस इतना ही काफी है। जिसने अपने गिरधर को पुकारा। जिसने इतना ही कहा कि मैं तो गिरधर के घर जाऊं; मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई रे। जिसमें बस एक ही रटन...। पागल थी। दीवानी थी। खुद भी मानती है कि दीवानी है। बार-बार कहती है: मीरा भई दीवानी रे।
ये जो गुमगश्ता लोग हैं, यह तुम संत-महात्माओं से इनकी मत पूछना। संत-महात्माओं को इनका पता भी क्या! इनकी पूछना हो तो गुमगश्ता लोगों से पूछना। इनकी पूछना हो तो दीवानों से पूछना। ये दीवाने कुछ ऐसे रास्तों से जाते हैं जो राजपथ नहीं है।
एक तो आदमी होता है जो सामने के दरवाजे से आता है; घंटी बजाता है; अपना विजिटिंग कार्ड भेजता है; पहले से फोन करके समय लेता है। और एक आदमी चोर की तरह रात में आता है, खिड़की छलांग कर। ये गुमगश्ता लोग ऐसे हैं जो परमात्मा में कहीं से भी छलांग लगा जोते हैं। ये न कोई खबर देते पहले से कि हम आते हैं--न कोई समय मांगते हैं। न ये कहते हैं कि हमारी कोई पात्रता है; न दावा करते हैं। ये तो बस चले जाते हैं। ये तो कहते हैं: हमें तेरी करुणा का भरोसा है, और कोई भरोसा नहीं है।
फर्क समझ लेना। वह संत-महात्मा दावा करता है कि मैंने इतना तप किया, इतना जप किया, इतनी पूजा, इतना पाठ--इतना सब लेकर आ रहा हूं कमाई अपनी; सब खाते-बही मैंने तैयार रखे हैं, तुम देख लो। मैं हकदार हूं।
संत-महात्मा दावेदार होता है। भक्त दावेदार नहीं होता। भक्त कहता है: मेरे पास क्या! मेरे पास कुछ भी नहीं है। तूने जो जीवन दिया था, वह भी लुटा दिया है व्यर्थता में। तूने जो संपत्ति दी थी, वह भी गंवा दी है। सब तरह के पाप कर लिए हैं। सब तरह की भूलें कर ली हैं। मगर मुझे भरोसा है तो तेरी इस बात का है कि तू रहमान है, रहीम है; तू करुणावान है। बस मुझे भरोसा है तो इस बात का कि मेरे पाप कितने ही हों; तेरी क्षमा मेरे पापों से बड़ी है। बस भक्त का इतना भरोसा है।
इसलिए स्वभावतः अगर तुम किसी जैन मुनि से जाकर पूछो कि मीरा पहुंची मोक्ष, तो वह कहेगा: कहां की बातें कर रहे हो? इसने उपवास कितने किए? पहले उपवास का तो पक्का करो! याद ही नहीं मीरा ने कभी उपवास किया हो, कहीं उल्लेख नहीं। मीरा उपवास करे भी क्यों? न तो मीरा कोई सत्याग्रही है, न मीरा कोई मोरारजी भाई देसाई है, कि वह कोई उपवास करे कि यह करे कि वह करे, कि किसी तरह घुसो, कि कहीं सत्ता में पहुंच जाओ। मीरा को किसी का मन बदलने की भी कोई जरूरत नहीं है कि सत्याग्रह करो, कि अनशन करो, कि जबरदस्ती करो दूसरे पर। क्योंकि ये उपवास तो सब जबरदस्तियां हैं।
गांधीजी ने उपवास को बड़ा हिंसा का उपाय बना दिया। जिसको भी हिंसा करनी है, उपवास करो। उपवास का मतलब ही यह है कि दूसरे से जबरदस्ती करवा लेंगे। जबरदस्ती यानी हिंसा। समझाने-बुझाने की बात ठीक है, लेकिन आप किसी के सामने छाती पर छुरा लेकर खड़े हो गए, कि हम अपनी छाती में छुरा मार लेंगे अगर हमारी न मानोगे! अब यह भी कोई बात हुई? इसको अहिंसा कहते हो कि हम छुरा मार लेंगे अगर हमारी बात न मानी! मतलब: बात हमारी माननी ही पड़ेगी, नहीं तो हम छुरा मारते हैं। अब उस आदमी में अगर थोड़ी भी दया-ममता हो, या थोड़ी भी सज्जनता हो तो वह कहेगा: भई ठहरो, इतनी सी बात के लिए ऐसा मत करो।
डा.अंबेदकर हरिजनों को हिंदुओं से निकाल लेना चाहते थे। गांधी ने अनशन कर दिया। इसी पूना में। और कहा कि मेरी बात नहीं मानोगे तो मैं मर जाऊंगा--आमरण अनशन। अब यह कोई दलील हुई? यह कोई तर्क हुआ? इसको तर्क कहते हैं; इसको दलील कहते हैं। यह तो सज्जनता भी नहीं है। और अगर अंबेदकर राजी हो गए देख कर कि गांधी मर जाएंगे, तो मैं मानता हूं कि अंबेदकर के मन में कहीं ज्यादा करुणा है बजाय गांधी के। नहीं तो क्या जरूरत थी राजी होने की। अंबेदकर कहते कि ठीक है, मरना हो तो मरो, तुम्हारी मर्जी। तुम्हारी बात तुम्हारे मरने से सही सिद्ध नहीं होती। वैसे तुम्हारी मर्जी; किसी को आत्महत्या करनी हो तो करे।
पर अंबेदकर ने सोचा कि इस आदमी का मरना देश के लिए महंगा होगा। और मेरी जिद्द के कारण कोई मरे, यद्यपि मेरी बात सही है...।
अंबेदकर की बात बिलकुल सही है। हरिजनों को हिंदुओं के साथ रहने का कोई कारण नहीं है। उन्हें कभी का अलग हो जाना चाहिए था। सिवाय अपमान और सिवाय दुर्दशा के वहां कुछ भी नहीं है। अंबेदकर बिलकुल ठीक कह रहा था। और हिंदुओं को अगर कभी कोई बुद्धि आएगी तो भी वह तभी आएगी जब सारे हरिजन एक दफा इकट्ठे होकर अलग हो जाएं, तो ही इनको कुछ बुद्धि आ सकती है, नहीं तो बुद्धि आ भी नहीं सकती। अभी भी हरिजन जलाए जा रहे हैं, अब भी मारे जा रहे हैं।
दलील तो अंबेदकर की ही ठीक थी, तर्कयुक्त थी, विचारपूर्ण थी। लेकिन गांधी...जिद्दी! मगर लगता ऐसा है कि गांधी कोई अहिंसात्मक आंदोलन कर रहे हैं। यह अहिंसात्मक नहीं है; यह बिलकुल शुद्ध हिंसा है।
तो न तो मीरा कोई सत्याग्रही थी, अनशन क्यों करे! और जैन मुनि हैं; उसका जो अनशन है, उसका जो उपवास है, वह भी अपने को कष्ट देने की व्यवस्था है। मान्यता यह है कि जितना तुम अपने को कष्ट दोगे उतने पुण्यात्मा हो जाते हो। यह संतत्व नहीं है; यह केवल रुग्ण-दशा है। अपने को कष्ट देना रोगी चित्त का लक्षण है। मनोवैज्ञानिक उसको खास नाम देते हैं; वे कहते हैं: मैसोचिज्म।
पश्चिम में एक आदमी हुआ, मैसोच। वह अपने को मारता था कोड़ों से। कांटे चुभो लेता था अपने शरीर में। उसने कई औजार बना रखे थे। जैसे डाक्टर एक बक्सा रखता है न, ऐसा वह अपना बक्सा अपने पास रखता था, उसमें कई तरह के औजार थे--खुद को सताने के लिए। कीले कान में डाल लेगा, छेद कर लेगा। वह मैसोच उसका नाम था। उसके नाम पर मैसोचिज्म मनोवैज्ञानिकों ने बना लिया। ऐसे लोग हैं, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं।
अब यह जो जैन मुनि है, भूखा मर रहा है...। दिगंबर जैन मुनि होते हैं, जो अपने बाल लोंचते हैं। बाल कटवा नहीं सकते; लोंचते हैं; उखाड़ते हैं। और जब जैन मुनि बाल उखाड़ता है तो बड़ा जलसा होता है। केश-लोंच हो रही है! सारे भक्तजन इकट्ठे होते हैं; कहते हैं: अहा! अब यह पागलपन का लक्षण है। पागलों में एक खास किस्म का पागलपन होता है, जिसमें लोग अपने बाल लोंचते हैं।
तुमको भी पता होगा। तुम्हारी पत्नी कभी-कभी लोंचने लगती है बाल। वह कोई बड़ी शांति की अवस्था नहीं है। वह सिर्फ क्रोध है। वह जीवन में एक तरह के विषाद, हताशा का लक्षण है। मगर उसको गुण माना जाता है।
तो निश्चित ही, अगर तुम दिगंबर से जाकर पूछोगे, वह पूछेगा: मीरा ने कितनी दफा केश-लोंच किया? बिलकुल नहीं किया, तो फिर कैसे मोक्ष जाएगी? उपवास कितने किए? बिलकुल नहीं किए हैं। तो कैसे मोक्ष जाएगी?
उपवास मीरा करे क्यों? केश लोंचे क्यों? कारण क्या है? ये तो रोग के लक्षण हैं। ये कोई साधनाएं नहीं हैं। यह कहीं न कहीं मन में कोई विकृति है।
दूसरों को चोट करने में जैसी हिंसा है वैसे ही अपने को चोट करने में भी हिंसा है। और ध्यान रखना, दूसरे को चोट करने में तो एक सुविधा है, कि दूसरा अपनी रक्षा भी कर सकता है, जवाब भी दे सकता है; खुद को चोट करने में तो तुमने बिलकुल ही हालत खराब कर ली है, अब तो कोई बचाने वाला भी नहीं है, कोई रक्षा करने वाला भी नहीं है।
दुनिया में दो तरह के हिंसक लोग हैं। एक वे, जो दूसरों की हिंसा करते हैं। वे इतने खतरनाक नहीं हैं। क्योंकि दूसरे भी तो हैं; वे अपनी रक्षा कर लेंगे। कानून है, पुलिस है, अदालत है--हजार उपाय हैं सुरक्षा के। दूसरे वे लोग, जो अपनी हिंसा करते हैं। इनके साथ कोई उपाय नहीं है। न अदालत इनको दंड देती है। अगर मेरा चले तो जो आदमी अपनी हिंसा करता है उसको सजा मिलनी चाहिए, क्योंकि यह इस शरीर का अपमान कर रहा है। यह देह परमात्मा की उतनी ही है जितनी कोई और देह है। अगर मैं तुम्हें चांटा मारूं तो अदालत में मुकदमा चल सकता है और खुद को चांटा मार लूं तो कोई अदालत मुझ पर मुकदमा चला नहीं सकती। यह बात ठीक नहीं है। क्योंकि यह देह को भी उतना ही दर्द होता है जितना तुम्हारी देह को होता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि देह मेरी है कि तुम्हारी है?
जैन शास्त्रों में तो आत्महत्या की भी व्यवस्था है। जैन मुनि चाहे तो आमरण अनशन करके मर जाए; मर सकता है--उसकी आज्ञा है। निश्चित ही ऐसे लोग कहेंगे: यह मीरा कहां से पहुंचेगी।
फिर जैनों ने तो कृष्ण तक को नरक में डाला है। मीरा को तो कैसे पहुंचने देंगे परमपद! कृष्ण को नरक में डाले हुए हैं, जिनकी यह पूजा कर रही है; उनकी पूजा करके तो यह महानरक में जाएगी। इनके गुरु ही नरक में डले हुए हैं। कृष्ण को नरक में डालना पड़ा है उन्हें; क्योंकि जैन साधुता के हिसाब से कृष्ण साधु नहीं ठहरते। ये कैसे साधु! मोरमुकुट बांधे खड़े, सुंदर वस्त्र पहने हैं रेशम के, हाथ में बांसुरी ली है! और इतना ही नहीं, इतना ही करो, अकेले रहो तो भी ठीक है; गोपियां नाच रही हैं पास! यह तो बर्दाश्त के बाहर है। तो कृष्ण को नरक में डाला है।
तुम तो कहते हो मीरा को परमपद नहीं मिला। मीरा को तो मिलेगा कैसे, उनके गोपाल भी नरक में पड़े हैं। उन्हीं के साथ वह भी पड़ी होगी।
नहीं, ये दृष्टियां गलत हैं। ये दृष्टियां भ्रांत हैं। अभी तक धर्म ने जीवन की स्वस्थता को ठीक-ठीक अंगीकार नहीं किया। जीवन स्वस्थ होना चाहिए, संगीतपूर्ण होना चाहिए, सहज होना चाहिए, समर्पित होना चाहिए। साधना का अर्थ होना चाहिए: अहंकार का विसर्जन, न कि आत्म-दमन। साधना का अर्थ होना चाहिए: प्रभु के चरणों में समर्पण। जहां बिठाए, बैठे; जहां उठाए, उठे। अपना कर्ता-भाव खो जाए। बस यही परमपद है।
पूछा है तुमने: "कई संत-महात्मा कहते हैं, क्योंकि मीराबाई कृष्ण के सगुण रूप से बंधी रही, इसलिए वह मुक्ति और परमपद को उपलब्ध न हो सकी।'
न तो वे कहने वाले संत हैं और न महात्मा हैं। निर्गुण की तो बात...उन्हें अभी सगुण का भी कुछ पता नहीं है। निर्गुण की तो बात ही छोड़ दो। निर्गुण तो आगे का कदम है; वह तो सगुण की ही पराकाष्ठा है। इनमें कुछ विरोध थोड़े ही है। सगुण तो ऐसे है जैसे तुम एक नाव पर बैठे और उस पार गए। निर्गुण ऐसे है कि उस पार नाव छोड़ दी और उतर कर चल पड़े।
निर्गुण सगुण के आगे का कदम है। वह सहज है। मगर जो आदमी डर रहा है सगुण से, वह इसी पार अटका रह जाएगा।
तुम्हारे महात्मा इत्यादि इसी पार बैठे हैं--धूनी रमाए हुए। मीरा उस पार गई। उसने सगुण की नाव बना ली। मगर उस पार जाकर तो फिर नाव भी छूट जाती है। कोई नाव में ही थोड़े ही बैठे रहना है। जब तक गोपाल से दूर थी, तब तक गोपाल के लिए रोई। जब तक गोपाल से दूर थी, गोपाल को पुकारा। जब तक गोपाल से दूर थी, नाची, गुनगुनाई। यह तो नाव है। यह नाम-स्मरण तो नाव है। फिर जब गोपाल में प्रविष्ट हो गई, फिर कैसी पुकार! फिर तो दुई न रही तो पुकारेगा कौन किसको। फिर तो कैसा रूप! यह तो अभी कहती है कि नैनन बसो मेरे नंदलाल! यह तो...अभी, क्योंकि दूरी है। इस पार है। और प्रभु उस पार, और बड़ी दूरी है--तो पुकारती है कि मेरी आंखों में बस जाओ। मेरे हृदय में रम जाओ। मुझे सम्हालो। मुझे पकड़ लो। मेरे हाथ को हाथ में ले लो। यह तो अभी इस किनारे की बातें हैं, जैसे ही करीब आने लगेगी वैसे-वैसे ये बातें छूटती जाएंगी। जिस दिन हृदय में प्रविष्ट हो जाएगी, जिस दिन दो ज्योतियां मिल कर एक हो जाएंगी, फिर कौन किसको पुकारेगा! फिर जब पुकार न रही तो सगुण न रहा। निर्गुण अपने आप से फलित होता है।
निर्गुण का फल सगुण के ही बीज से लगता है। इनमें भेद नहीं है। जिन्होंने भेद किया वे कोरे पंडित हैं; दो कौड़ी की उनकी बातें हैं।
ये जामो सबू दे उठा मेरे साकी,
अब आंखों से अपनी पिला मेरे साकी,
पिलाता चला जा, जो पीना खता है,
तो होती रहे यह खता मेरे साकी,
मेरी तश्नगी फैज तक तेरे पहुंचे,
बढ़ा और उसको बढ़ा मेरे साकी,
बकाए हयाते खिरद से बचा ले,
मुझे बख्श कैफै फना मेरे साकी,
यही आरजू खत्मे सद आरजू है,
मुझे ऐसा बेखुद बना मेरे साकी,
यही मेरी मंजिल यही मेरा हासिल,
तू कदमों में दे दे मुझको जां मेरे साकी।
मीरा की अब यही पुकार है। भक्त की यही पुकार है सदा से।
ये जामो सबू दे उठा मेरे साकी।
भक्त कहता है कि क्या प्यालों में भर-भर के मुझे दे रहा है। ऐसी भी क्या कजूंसी।
ये जामो सबू दे उठा मेरे साकी,
अब आंखों से अपनी पिला मेरे साकी।
वह जो मीरा कहती है: मोहनी मूरत सांवली सूरत, नैना बने बिसाल। आन बसो नंदलाल मेरे नैनों में! मेरी आंखों में! वे तुम्हारी जो बड़ी-बड़ी आंखें हैं, वे मेरी आंखों में झुकाओ।
अब आंखों से अपनी पिला मेरे साकी,
पिलाता चला जा, जो पीना खता है,
और अगर कोई कहता हो कि यह पीना जुर्म है, अपराध है, पाप है--तो होती रहे यह खता मेरे साकी। भक्त कहता है: तो फिर मुझे फिकर नहीं है। होती रहे यह खता मेरे साकी।
मेरी तश्नगी फैज तक तेरे पहुंचे,
बढ़ा और उसको बढ़ा मेरे साकी।
और मेरी प्यास को ऐसा बढ़ा, ऐसा बढ़ा कि मैं तेरे पूरे सागर को पीने में समर्थ हो सकूं।
बकाए हयाते खिरद से बचा ले!
यह प्यारा वचन है, खयाल रखना।
बकाए हयाते खिरद से बचा ले!
मुझे बुद्धि से बचा ले, हे परमात्मा!
मुझे बख्श कैफे फना मेरे साकी।
मुझे समर्पित हो सकूं, तुझमें लीन हो सकूं, तल्लीन हो सकूं--ऐसा आशीष दे।
बकाए हयाते खिरद से बचा ले
मुझे बख्श कैफै फना मेरे साकी,
यही आरजू खत्मे सद आरजू है,
मुझे ऐसा बेखुद बना मेरे साकी।
भक्त यही मांगता है कि मुझे बेखुद बना दे। मुझसे मेरा-पन ले ले। मेरा अहंकार छीन ले। मुझमें मैं-भाव न रह जाए।
यही मेरी मंजिल यही मेरा हासिल
एक ही मेरी मंजिल है, और एक ही मेरी आकांक्षा है:
तू कदमों में दे दे मुझको जां मेरे साकी
तेरे कदमों में मुझे जगह मिल जाए, तेरे चरणों में जगह मिल जाए।
लेकिन चरणों में जगह मिलना तो बस नाव की ही बात है अभी। जैसे ही चरणों में जगह मिली, जैसे ही दीये इतने करीब आए, ज्योतियां एक हो जाती हैं। जिसने चरण पकड़े परमात्मा के, जल्दी ही उसके हृदय में प्रविष्ट हो जाता है।
कहीं से पकड़ो उसे। चरण से पकड़ो--मगर पकड़ो। उससे जुड़े कि एक हुए। उससे जुड़े तो दो नहीं रह सकते।
परमपद, भक्त उसकी आकांक्षा भी नहीं करता है। वह तो कहता है: तेरे चरणों में पड़ा रहूं। मगर इन्हीं चरणों में पड़ने के कारण पहुंच जाता है, परमपद उपलब्ध हो जाता है।
प्रेम मुक्ति है; भक्ति मोक्ष है। और जो प्रेमरहित हैं और निर्गुण की बकवास में लगे हैं और निराकार की बातें कर रहे हैं--उनसे सावधान रहना। जिन्होंने अभी सगुण को भी नहीं जाना, वे निर्गुण को क्या खाक जानेंगे? जो अभी आकार को नहीं पहचान सके, वे निराकार को कैसे पहचानेंगे? पहले आंखों को, आकार को पहचानने के योग्य बनाओ, फिर निराकार भी आता है। क्योंकि निराकार आकार के पीछे ही छिपा है।

पांचवां प्रश्न: मैं हार गया, तब भार गया; और झुक गया; तो रुक गया। अब आप मिले, प्रभु साथ करें!

पूछा है चंद्रकांत ने। प्रश्न ही नहीं है--चंद्रकांत की पूरी आत्मकथा है। ऐसे वर्षों से मुझसे लड़ते और जुड़ते हैं। लड़-लड़ कर पाया है कि लड़ने में कुछ सार नहीं है। लड़ता है, वही पाता है कि लड़ने में कुछ सार नहीं। लड़-लड़ कर चिंता ही पैदा होती है।
मुझसे लड़ना--तुम अपने से ही लड़ रहे हो। मुझसे लड़ना छोड़ देना, अंततः तुम्हारे भीतर की सारी लड़ाई की समाप्ति हो जाएगी।
यह प्रश्न नहीं है--चंद्रकांत की पूरी आत्मकथा है। और यह सबके लिए उपयोगी हो सकता है। क्योंकि कुछ न कुछ लड़ाई जारी रहती है। क्योंकि कुछ न कुछ अहंकार सभी के भीतर है। तुम जब आकर मुझसे कहते भी हो कि सब छोड़ दिया, तब भी कहां सब छोड़ते, कहते ही हो--कहते हो सब समर्पित किया, तब भी कहां करते हो! वह भी अभी औपचारिक है। मंशा है, भाव है और भाव अच्छा है, मगर स्थिति बनते-बनते देर लगेगी। और मैं यह भी नहीं कहता कि लड़ना मत। लड़ने की थोड़ी भी वृत्ति शेष हो, उसे निकाल ही लेना; लड़ ही लेना। और लड़ने से कोई हानि भी नहीं है, क्योंकि जो न कहना जानता है, कभी जब हां कहेगा तो उसकी हां का मूल्य होता है।
चंद्रकांत में बड़ी संभावना है। और चंद्रकांत को मुझ तक आने में औरों से कहीं ज्यादा कठिनाई हुई है। चंद्रकांत बुनियादी रूप से कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्ट से संन्यासी तक लाना मैं भी जानता हूं लंबा मामला है। मगर हिम्मत उन्होंने नहीं छोड़ी। संदेह थे, शक-शुबहे थे। मगर कुछ भी हो रहा हो और कितना ही मेरी बात जंची हो, न जंची हो कभी--एक बात उन्होंने नहीं छोड़ी: लड़ते रहे, मगर मुझे छोड़ा नहीं। पीछे तो लगे ही रहे। लड़ाई जारी रखी। विवाद जारी रहा मन में। जबत्तब मुझे पत्र भी लिखते रहे। मगर एक बात, कि मुझसे से जो लगाव था, उसमें कभी कोई कमी नहीं आई। मेरी बात से राजी हुए, न राजी हुए; कभी मेरी बात ठीक लगी, कभी नहीं ठीक लगी। मगर मैं जो ठीक लग गया था, उसमें कभी कोई कमी नहीं पड़ी। इसलिए मैं जानता था कि धीरे-धीरे क्रांति तो घटने ही वाली है। जो इतनी हिम्मत से लगा रहा है और हिम्मत होती है तो ही लगा रह सकता था; नहीं तो हजार मौके थे तब मुझसे छिटक जाते। और बहुत उन जैसे मित्र थे जो छिटक गए।
एक समय था, मेरे पास बहुत से कम्युनिस्टों का आना-जाना था। अधिक उनमें से छिटक गए। चंद्रकांत इस अर्थ में अनूठे हैं।
"मैं हार गया, तब भार गया'--कहा है। ठीक कहा है। हारोगे, तभी भार जाएगा। और हार में जीत है। और हार में जीत है--यही तो सारी शिक्षा है। यही तो सारी सिखावन है--सब संतों की। वही तो मीरा कहती है। वही तो कबीर कहते हैं।
"मैं हार गया, तब भार गया; और झुक गया तो रुक गया।'
और रुक जाओ तो सब हो जाए। भागे-भागे हो--तर्क में, विचार में, संदेह में, चिंतन में। रुक जाओ तो ध्यान हो जाए।
अब आप मिले। रुकोगे तो ही मैं मिल सकता हूं; क्योंकि मैं रुका हूं और तुम भाग रहे हो, तो मिलन कैसे हो! मैं हाथ बढ़ाए खड़ा हूं, लेकिन तुम रुकते नहीं एक क्षण, तुम भागे जाते हो। तुम तो चकरी की तरह घूमते हो! मैं रुका हूं और तुम भाग रहे हो, तो दोस्ती कैसे हो? कभी-कभी भागते-भागते करीब भी आ जाते हो, फिर दूर निकल जाते हो।
मैं निर्भार हूं और तुम अगर भारी हो, तो साथ कैसे बने? कुछ-कुछ मेरे जैसे होने लगोगे तो ही साथ बनेगा। अगर थोड़ा सा भार गया है और हार में रस आना शुरू हुआ है और अगर झुकने का मजा समझ में आया है...और झुकने में मजा है, क्योंकि जो झुका वही सम्राट हो गया है। और जो रुका, वही पहुंच गया है।
लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है: खोजो और खो दोगे। रुक जाओ और पा लोगे। क्योंकि खोजने वाले को दौड़ना पड़ता है। भागता है यहां-वहां--यहां खोजूं, वहां खोजूं; इस दिशा में, उस दिशा में! जब सारी खोज छोड़ कर कोई बैठ जाता है, जहां बैठे वहीं सब हो गया।
वह कल कहा नहीं मीरा ने: जहां बिठाए तित बैठूं! जहां बिठा दिया वहीं बैठ गए, तो सब हो जाएगा। कुछ करना नहीं पड़ता; बिना किए हो जाता है।
यही तो चमत्कार है, इस अस्तित्व का कि यहां जो करना चाहते हैं, खाली रह जाते हैं, और जो कुछ नहीं करना चाहते, भर जाते हैं। जो पाना चाहते हैं, नहीं खोज पाते। और जो पाने तक की आकांक्षा छोड़ कर बैठ जाते हैं; उन्हें मिल जाता है।
"और झुक गया तो रुक गया। अब आप मिले।'
ठीक है। चंद्रकांत, अब थोड़ा मिलन हो रहा है। अब थोड़ी-थोड़ी संगति बैठ रही है। अब थोड़ा-थोड़ा मेरे हाथ में तुम्हारा हाथ रुक रहा है।
सावधान रहना। पुरानी आदतें फिर हमला न करें। पुरानी आदतें मजबूत होती हैं। सावधान रहोगे तो ही धीरे-धीरे वे विदा होंगी। सावधान रहोगे तो विदा हो ही जाएंगी। लेकिन यह जो नया अनुभव हो रहा है झुकने का, निर्भार होने का, रुकने का--इसको थोड़ा मौका देना, क्योंकि अभी यह नया पौधा है, ताजा पौधा है, कोमल है--पुराना झाड़ इसे नष्ट न कर दे! इसकी सुरक्षा करना। पुराने की जड़ काटते रहना। पुराने की शाखाएं काटते रहना। और पुराने को काट-काट कर इस नये पौधे की जड़ में खाद की तरह डालते रहना, तो यह पौधा मजबूत होगा। इस नये पौधे को तुम्हारी सारी पुरानी आदतों को खाद की तरह डाल दो। जल्दी ही यह भी एक बड़ा वृक्ष बन जाएगा। जल्दी ही इसमें फूल आएंगे। जल्दी ही इस पर पक्षी बसेरा करेंगे। जल्दी ही इसके नीचे यात्री बैठ कर विश्राम करेंगे।
एक बड़ा वृक्ष होने की संभावना सभी की है। मगर हम गलत से जुड़े रह जाते हैं। अहंकार से जुड़े अर्थात गलत से जुड़े। मुझसे जुड़ना है तो अहंकार तो छोड़ना ही होगा।
छूट रहा है धीरे-धीरे। पहली-पहली किरणें आने लगी हैं। प्राची लाल हो गई है। पहली झलक सुबह की करीब है। इसका स्वागत करना।
"अब आप मिले, प्रभु साथ करें।'
मैं तो बहुत दिन से साथ किए हूं। तुम्हीं साथ नहीं थे, चंद्रकांत। अब तुम भी साथ हो गए तो बात खत्म हो गई।

आखिरी प्रश्न: मैं जो पा रहा हूं, उसे बांटना चाहता हूं। लेकिन शब्द नहीं जुड़ते हैं। मैं क्या करूं?

स्वाभाविक है। जो मिल रहा है वह ऐसा नहीं जिसे तुम आसानी से शब्दों में बांध सको। लेकिन कोशिश करो। धीरे-धीरे कुशलता आएगी। नये-नये अनुभव हैं तो हमारे पास उन अनुभवों को प्रकट करने के शब्द नहीं होते।
जब पहली दफे तुम्हें ध्यान होता है तो बड़ी मुश्किल हो जाती है: कैसे कहें? क्या कहें? क्या हुआ है?
जब पहली दफे प्रेम होता है, तब भी मुश्किल हो जाती है। जबान लड़खड़ाती है: क्या कहें? कैसे कहें? और जो भी कहो, लगता है, कुछ पूरा नहीं। जो भी कहो, लगता है कुछ चूका-चूका। जो भी कहो, लगता है कि निशाना नहीं लगा।
मगर धीरे-धीरे कोशिश करो। मेरे पास जिन मित्रों को भी कुछ हो रहा है, उन सभी को बांटना है। बांटना ही है क्योंकि तुम अगर बांटोगे, तो ही यह बढ़ेगा। तुम बांटोगे तो और मिलेगा। तुम जितना बांटोगे उतना मिलेगा। अगर तुमने जरा कंजूसी की और बांटा नहीं, या जरा सुस्ती की और बांटा नहीं--तो तुम पाओगे कि बढ़ना बंद हो गया। यह कुंआ ऐसा है कि जितना उलीचोगे उतने ही नये झरने इसको भरते जाएंगे। मगर तकलीफ तो होती है।
मेरी आंखों ने जो देखा है, दिखलाया नहीं जाता
मेरे दिल ने जो समझा है वो समझाया नहीं जाता
मेरे सर में अजल से गूंजता है राग वहदत का
मगर कुछ बात है ऐसी, अभी गाया नहीं जाता
मेरी आंखों में है जल्वा तेरा, दिल में तेरा मसकन
मगर मुश्किल तो ये है, फिर भी तू पाया नहीं जाता
है तेरे हुस्ने आलम ताब से मुझको शिकायत तो
मगर हरफे शिकायत लब पे भी लाया नहीं जाता
तेरे दम से हुई कायम शबाबो शेर की दुनिया
शबाबो शेर में लेकिन तुझे पाया नहीं जाता।
कठिनाइयां हैं। जो खूब कहने में कुशल हैं, वे भी सफल नहीं हुए।
रवींद्रनाथ मर रहे थे। और किसी ने कहा कि आप तो धन्यभागी हैं, आपने छह हजार गीत लिखे हैं। इतने गीत दुनिया में किसी और महाकवि ने नहीं लिखे हैं। पश्चिम में बड़ा महाकवि हुआ शैली, उसने भी तीन हजार लिखे हैं। और आपके सब गीत ऐसे हैं कि संगीत में बंध जाते हैं। आप अपूर्व हैं। आप शांति से विदा लें।
लेकिन रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा: कैसी शांति? मैं तो परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, यह तू क्या कर रहा है? अभी तो मैं साज बिठा पाया था और यह मेरे जाने की घड़ी आ गई! किन गीतों की बात कर रहे हो? जो गीत मैंने गाए, वे, वे गीत नहीं हैं जो मैं गाना चाहता था। जो मैं गाना चाहता था। वह तो अभी भी अनगाया मेरे भीतर पड़ा है। जो मैं गाना चाहता था, वह अभी भी मैं गाना चाहता हूं। अभी कहा कहां!
रवींद्रनाथ कहते हैं: अभी तो मैंने साज बिठाया था। अभी तो यह जो ठोंक-पीट, तबला इत्यादि ठोंक रहा था, तार कस रहा था, इसकी जो आवाज हो रही थी--यही वे छह हजार गीत हैं। अब तार कस गए थे, तबला ठीक बैठ गया था, अब घड़ी करीब आ रही थी कि लगता था अब गा सकूंगा जो गाना है, और यह जाने की घड़ी आ गई।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहूंगा, कि रवींद्रनाथ अगर और भी सौ साल जी जाते तो भी बात ऐसी की ऐसी रहती, क्योंकि जो गाना है वह तो कभी गाया ही नहीं जाता। हमेशा ऐसा ही लगता है कि बस साज तैयार है, अब तैयार है, अब तैयार है, और तैयार हो गया। बस साज तैयार होता जाता है, लेकिन जो कहना है वह कहा नहीं जा सकता।
तो तुम्हारी अड़चन मेरी समझ में है। रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति की भी अड़चन थी--जो कहने में बड़ा कुशल था; जो गाने में कुशल था; जिसकी अभिव्यक्ति अपूर्व थी; जिसकी अभिव्यक्ति वैसी ही थी जैसे वेद के ऋषियों की है। उतनी ही कुशलता। उतना ही माधुर्य। लेकिन वे भी इतना ही कहते हैं कि मैं साज बिठा पाया था।
तो गा तो तुम न पाओगे, मगर फिर भी गाना है। और नाच तो तुम न पाओगे, फिर भी नाचना है। इसकी फिकर मत करना कि तुम्हारा नाच कितना कुशल है। तुम इसकी ही फिकर करना कि तुम्हारे नाच को देख कर किसी को नाचने की धुन आ जाए। बस पर्याप्त हो गया।
तुम यह मत सोचना कि मेरा गीत कितना पूर्ण है। कोई गीत पूर्ण नहीं है। पूर्ण भाषा में आता ही नहीं। तुम इतनी ही फिक्र करना कि तुम्हें गीत गाते देख कर किसी का कंठ खुल जाए। इतनी ही फिकर करना कि तुम्हारा गीत किसी पर चोट कर दे; किसी के तार कंपा दे। तुम्हारे गीत की लय में बंध कर कोई उसी खोज पर निकल जाए जिस खोज पर तुम मेरा गीत सुन कर निकल गए हो।
जिसको भी मिले, उसके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वह बांटे। जितना मिले उतना बांटे। जिस तरह बन सके उस तरह बांटे। कोई नाच कर बांटे, कोई गाकर बांटे। कोई चुप होकर बांटे। कोई शांत होकर बांटे। मगर बांटे। अपना रास्ता खोजे। क्योंकि बांटने से बढ़ती है यह संपदा; न बांटने से घट जाती है।
संसार की संपदाएं बांटने से घट जाती हैं; न बांटो तो इकट्ठी होती हैं। परमात्मा की संपदा बिलकुल उलटी है: बांटने से बढ़ती है; न बांटो तो घट जाती है।

आज इतना ही।


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