प्रश्न—सार:
1—मैं
असहाय हूं, मैं बेबस
हूं! मैं क्या
करूं?
2—मंसूर
और सरमद के
अफसाने
पुराने हो गए।
3—ऐ
रजनीश! मेरे
लिए किस्सा
नया तजवीज कर।
क्या मेरी
प्रार्थना
सुनी जाएगी?
4—सुना
है कि जिंदगी
चार दिनों की
होती है और
मिलन पांचवें
दिन होता है।
तो क्या करूं?
पहला
प्रश्न:
मैं असहाय हूं, मैं बेबस हूं। मैं क्या करूं?
मैं असहाय हूं, मैं बेबस हूं। मैं क्या करूं?
असहाय
हो, बेबस हो,
फिर भी कुछ
करना चाहते हो?
असहाय हो, बेबस हो, अब
तो करना छोड़ो।
कृत्य पर
भरोसा कब
छोड़ोगे? कृत्य
पर भरोसा छूट
जाए तो जो
होना है अभी
हो जाए।
मीरा
की सुनो।
करने
से ही
परमात्मा
मिलता होता तो
मिल ही नहीं
सकता था। आदमी
की करने की
बड़ी सीमा है।
जो कर सकते
हैं, उनका
करना भी
क्षुद्र है।
आदमी कर ही
क्या सकेगा? हाथ छोटे
हैं।
चांदत्तारों
की तरफ बढ़ा
सकते हो, लेकिन
पा थोड़े ही
पाओगे। और
चांदत्तारों
की तरफ बढ़े
हुए हाथ सिर्फ
तुम्हारी भूख
की खबर देते
हैं, तुम्हारी
प्यास की खबर
देते हैं। और
जितने तुम हाथ
बढ़ाओगे उतने
तुम विषाद से
भर जाओगे, क्योंकि
हाथ बढ़े रह
जाते हैं, पहुंचते
नहीं। हाथ
छोटे हैं।
जिस
दिन तुम्हें
यह ठीक—ठीक
समझ में आ जाए
कि मैं असहाय
हूं, उस क्षण
तुम्हारी
आंखों में
आंसू आएंगे।
और कुछ भी
करने को नहीं
है। और मैं यह
नहीं कह रहा हूं
कि तुम आंसू
लाना। लाए गए
आंसू दो कौड़ी
के हैं। लाए
गए आंसू तो
अभिनय हैं।
मैं कह रहा
हूं कि आंसू
आएंगे जब तुम
परिपूर्ण
असहाय अवस्था
को समझोगे।
मझधार में
डूबते हुए, न यह किनारा
दिखाई पड़ता, न वह किनारा
दिखाई पड़ता।
सहारों की कौन
कहे, तिनकों
का सहारा भी
नहीं है। कोई
आशा नहीं। सब
तरफ अंधकार है
और निराशा है।
उस परम हताशा
की दशा में
आंसू आएंगे, अपने से
आएंगे। सारा
प्राण आंसू बन
जाएगा। वैसे
ही आंसू
प्रार्थना
बनते हैं।
प्रार्थना
की नहीं जाती—होती
है। आह उठेगी।
तुम उठाओगे, ऐसा नहीं।
तुम्हारी
उठाई गई आह का
क्या मूल्य हो
सकता है? तुम्हारे
बावजूद
उठेगी। तुम न
भी उठाना चाहो
तो उठेगी। वही
आह प्रार्थना
बन जाती है।
तुम
कहते तो हो कि
मैं असहाय हूं, मैं बेबस
हूं; लेकिन
सुनी—सुनाई
कहते हो।
तुमने बात
गुनी नहीं।
तुमने बात पर
बहुत ध्यान
नहीं दिया। यह
बात तुम्हारे अनुभव
से नहीं आती।
नहीं तो फिर
तुम यह न पूछते
कि मैं क्या
करूं। करने
में तो बल है।
करने में तो
अभी भरोसा
कायम है। करने
में तो अहंकार
है। करने वाला
सोचता है:
शायद अभी जिस
ढंग से कर रहा
था, वह ढंग
गलत था, तो
नये ढंग से
करूंगा; जिस
राह से चलता
था वह राह गलत
थी, तो नई
राह खोज
लूंगा। यह
असहाय अवस्था
नहीं है।
असहाय
अवस्था का
अर्थ ही यही
है कि मैं
किसी भी राह
से चलूं तो
मैं ही चलूंगा
न! मेरे पैर
छोटे, मेरी
क्षमता छोटी।
यह राह की
गलती नहीं है।
मैं पहुंच ही
नहीं सकता।
मेरी तरह मैं
पहुंच ही नहीं
सकता। यह विधि
की गलती नहीं
है, विधान
की गलती नहीं
है, मार्ग
की गलती नहीं
है, शास्त्र
की गलती नहीं
है। मुझे ठीक
शास्त्र मिल
जाए तो भी
नहीं पहुंच
सकता। मुझे
ठीक मार्ग मिल
जाए, तो भी
नहीं पहुंच
सकता। मैं ही
कमजोर हूं।
जब ऐसी
प्रतीति होती
है कि मैं ही
कमजोर हूं, तुम गिर
जाते एक ढेर
की तरह। उसी
ढेर से उठती है
प्रार्थना—की
नहीं जाती।
उसी ढेर में
भक्ति का
आविर्भाव होता
है। उसी ढेर
में...तुम गिर
पड़े ढेर की
तरह, परमात्मा
तुम्हें
तलाशता आता
है। जब तक
तुम्हें यह
अस्मिता है कि
मैं कुछ कर
लूंगा, तब
तक परमात्मा
सोचता है: अभी
तुम कर ही रहे
हो, अभी
बीच में बाधा
देने की जरूरत
भी क्या है?
मुझे
बड़ी प्यारी एक
कथा है, जिसको
मैं निरंतर
कहता हूं।
कृष्ण भोजन को
बैठे हैं। एक
कौर मुंह में
लिया है, दूसरा
लेने को हैं
कि छोड़ कर उठ
खड़े हुए। रुक्मणी
पंखा झलती है।
उसने पूछा:
कहां जाते हैं?
लेकिन
उत्तर भी न
दिया, भागे
द्वार की तरफ।
लेकिन फिर
देहरी पर ठिठक
कर खड़े हो गए।
लौट आए उदास।
फिर थाली पर
बैठ भोजन करने
लगे। रुक्मणी
ने कहा: आप
अचानक भागे, उससे तो मन
में बड़ा
प्रश्न उठा था
कि क्या हुआ, किसलिए जा
रहे हैं, जैसे
कहीं आग लग गई
हो! उत्तर
देने का भी
आपके पास समय
नहीं था।
मैंने पूछा, कहां जाते
हैं थाली
अधूरी छोड़ कर?
उत्तर भी
नहीं दिया, उससे तो
प्रश्न उठा ही
था, अब और
प्रश्न उठता
है दूसरा कि
द्वार पर ठिठक
क्यों गए? मैं
तो अंधी हूं, मुझे दिखाई
नहीं पड़ता, मुझे कुछ
कहें। मेरी
जिज्ञासा
शांत करें। फिर
लौट क्यों आए?
गए इतनी
तेजी से, फिर
इतनी उदासी से
लौट क्यों आए?
कृष्ण
ने कहा: मेरा
एक प्यारा एक
राजधानी से गुजर
रहा है। फकीर
है—नंगा फकीर
है। अपना
एकतारा बजा
रहा है।
एकतारे के
सिवाय उसके
पास और कुछ भी
नहीं है। उस
एकतारे में भी
मेरे नाम की
धुन के सिवाय
और कोई धुन
नहीं है। उसके
तन—प्राण में
मैं ही बसा
हूं। लोग
पत्थर मार रहे
हैं। लोग
खिल्ली उड़ा
रहे हैं। लोग
उसे पागल समझ
रहे हैं। उसके
माथे से खून
की धार बह रही
है और वह
एकतारे पर
मेरा ही
गुणगान किए
जाता है।
इसलिए आधा कौर
गिरा कर दौड़ना
पड़ा। दौड़ना ही
पड़ेगा, इतना
असहाय है!
रुक्मणी
ने पूछा: फिर
लौट क्यों आए? तो कृष्ण ने
कहा: जब तक मैं
द्वार पर
पहुंचूं, तब
तक उसने
एकतारा नीचे
पटक दिया और
पत्थर हाथ में
उठा लिए। अब
मेरी कोई जरूरत
न रही। अब वह
खुद ही उत्तर
देने में
तत्पर हो गया
है। अब मेरा
जाना व्यर्थ
है। जरा और
रुक जाता तो
मैं पहुंच गया
होता। मगर अब
एकतारा गिर
गया है।
एकतारे में
मेरे उठते नाम
की धुन गिर गई
है। उसके भीतर
से मैं विलीन
गया हूं जैसे।
वह मुझे भूल
गया क्षण भर
को।
मेरो
मन बड़ो हरामी!
शायद
वर्षों से हरि—गीत
गाता हो और इन
पत्थरों की
चोट ने सब
भुला दिया। मन
खिसक आया
नीचे। उत्तर
देने को तैयार
हो गया। पत्थर
हाथ में उठा
लिए।
प्रतिशोध की
अग्नि जल उठी।
प्रार्थना खो
गई।
प्रार्थना
राख हो गई।
कृष्ण को जाने
की जरूरत न
रही।
यह कथा
मधुर है। सूचक
है। गहन संकेत
है इसमें। तुम
जब ढेर की तरह
पड़ जाते हो, जब तुम
जानते हो मेरे
किए कुछ भी न
होगा, पूछते
भी नहीं कि
मैं क्या करूं,
जानते ही हो
कि मेरे किए
कुछ भी न होगा!
और कब जानोगे
यह? कितने
जन्मों से कर
रहे हो, कुछ
भी तो नहीं
हुआ। सब तो
उपाय कर लिए।
सब तो योग, जपत्तप
कर लिए। सब तो
विधि—विधान कर
लिए। यज्ञ—हवन,
पूजा—पाठ!
कितने
मंदिरों में
नहीं गए!
कितनी मूर्तियों
के सामने सिर
नहीं पटका!
मस्जिद में, मंदिर में, गुरुद्वारे
में, चर्च
में—कहां नहीं
गए! सब जगह हो
आए हो। चारों
धाम कर लिए।
अब तो समझो कि मेरे
किए कुछ भी न
होगा।
क्योंकि मैं
ही कुछ नहीं
हूं तो मेरे
किए क्या हो
सकता है? मैं
ही नहीं हूं
तो मेरे किए
क्या हो सकता
है? इस
नहीं से कैसे
कोई कृत्य
निकलेगा? मैं
एक
शून्यमात्र
हूं। मेरी तरह
मैं शून्य हूं,
परमात्मा
की तरह मैं
पूर्ण हूं।
लेकिन परमात्मा
की तरह, मेरी
तरह नहीं।
मेरी तरह तो
मैं नपुंसक
हूं। परमात्मा
की तरह सर्व
शक्तिमान
हूं। लेकिन परमात्मा
की तरह। और जब
परमात्मा है
तो मैं नहीं
हूं। और जब तक
मैं हूं तो
परमात्मा
नहीं है।
तो मत
पूछो कि क्या
करूं। भक्ति
उठती तभी है जब
सब करना छूट
जाता है। और
इसका यह अर्थ
नहीं कि भक्त
कुछ नहीं
करता। भक्त का
करना छूट जाता
है, फिर
परमात्मा
उससे करता है।
भक्त का करना
जब छूट जाता
है, तभी
असली करना
शुरू होता है।
फिर भगवान
करता है। फिर
भक्त
निमित्तमात्र
है। बहुत होता
है भक्त से, लेकिन भक्त
कर्ता नहीं
होता; माध्यम
हो जाता है।
जैसे
बांसुरीवादक
बांसुरी को
ओंठ पर रख कर
गीत गाता है, ऐसा ही भक्त
को ओंठ पर रख
कर भगवान गीत
गाता है। भक्त
बांसुरी हो
जाता है।
बांसुरी में
क्या है? पोला
बांस का टुकड़ा
है। ऐसे ही
भक्त पोले
बांस का टुकड़ा
हो जाता है।
कुछ भी नहीं, खाली है।
खाली है, इसलिए
आवाज गीत बन
कर बह सकती
है। भरा हो तो
फिर नहीं बह सकती।
बांस
की बांसुरी
बनती है। और
किसी लकड़ी की
नहीं बनती।
क्यों? क्या
बांस कोई
आखिरी बात है
लकड़ियों में?
सुंदर
लकड़ियां हैं,
बहुमूल्य
लकड़ियां हैं।
बांस भी कोई
बात है? बांस
की कोई कीमत
है? लेकिन
बांसुरी बनती
बांस से है।
देवदारु से
नहीं, चीड़
से नहीं, टीक
से नहीं, लेबनान
के सीदारों से
नहीं; आकाश
छूते बड़े—बड़े
वृक्ष हैं, उनसे नहीं
बनती—बनती है
बांस की
पोंगरी से।
क्या खूबी है
बांस की? क्या
राज है बांस
का?
जो राज
बांस का है, वही राज
भक्त का है।
भक्त बांसुरी
बनता है। तपस्वी—त्यागी
नहीं बनते।
तपस्वी—त्यागी
आकाश में उठे
लेबनान के
दरख्त हैं, लेबनान के
सीदार हैं।
बड़ी उनकी अकड़
है। बड़ा उनका
बल है। दूर
जमीन में फैली
उनकी जड़ें हैं—तप
की, तपश्चर्या
की। उनका
इतिहास है।
भक्त का क्या इतिहास!
दीन—हीन! बांस
की पोंगरी!
मगर भक्त बनता
है परमात्मा
के गीत का
वाहन।
देखो न
मीरा को! जैसा
मीरा गाई, कौन तपस्वी
गाया है? जैसा
मीरा गाई है, कौन योगी
गाया है? जैसी
मीरा नाची, कौन कब नाचा
है? मीरा
बेजोड़ है। कला
क्या है मीरा
की? बांस
की पोंगरी है।
एक बात जान ली
कि मेरे किए कुछ
भी न होगा, क्योंकि
मैं ही नहीं
हूं। कृत्य तो
तब उठे जब
मेरा होना सिद्ध
हो। मेरा होना
ही सिद्ध नहीं
होता, तो
कृत्य कैसे
उठेगा? कृत्य
जाता है, मैं
जाता है, तब
कोई बहने लगता
है—अज्ञात लोक
से कोई उतरने
लगता है! कोई
किरण आती दूर
से! कोई गीत
आता दूर से!
कोई नृत्य आता
दूर से! भर
जाता है
तुम्हें।
आपूर कर जाता
है तुम्हें।
इतना भर देता
है कि
तुम्हारे ऊपर
से बहने लगता
है। दूसरों को
भी मिलने लगता
है। बाढ़ आ
जाती है।
तुम यह
पूछो ही मत कि
मैं क्या
करूं! असहाय
हो, बस असहाय
ही रह जाओ। अब
करने को मत
जोड़ो। करने को
जोड़ने का मतलब
है कि फिर तुम
असहाय न रहे, फिर कुछ
करने लगे।
बेबस हो, अब
बेबस ही हो
जाओ। अब इसमें
जोड़ो मत कुछ
करना। अब
पत्थर मत उठाओ,
अन्यथा आते
कृष्ण रुक
जाएंगे, देहली
पर रुक
जाएंगे।
अब जो
प्रभु कराए, उसे होने
दो। उससे
अन्यथा की चाह
भी मत करो, मांग
भी मत करो। तब
तुम्हें कला आ
गई भक्ति की।
असहाय अवस्था
में पूरी तरह
डूब जाना
भक्ति का जन्म
है।
नारद
के सूत्रों को
पढ़ कर तुम
भक्ति न समझ
पाओगे। भक्ति
का शास्त्र
समझना हो—असहाय
हो जाओ।
वो
राग छेड़
तरन्नुम की जो
करे तशकील
सुना
वो नगमा जो
तखलीक सोजो
साज करे।
तेरा
वजूद हकीकत को
दे लबासे मजाज
कि
जिसपे फखर
बहार काएनात
नाज करे।
तेरा
गुजर हो चमन
को नबीद रंगो
बू
गुलों
को फस्ले
बहारों से
बेनियाज करे।
तू
ऐसे जी कि
जमाना
बइख्तयारे
तमाम
तेरी
गरीबी तेरी
बेबसी पे नाज
करे।
जिसे
शिकायतें हों
हुस्न से वो
इश्क नहीं
हवस
है लालाओ गुल
में जो
इम्तयाज करे।
कभी
जो कहना पड़े
कुछ तो ऐसी
बात कहो
जो
सबको अपने
अहले नजर
आशनाए राज
करे।
तू
ऐसे जी कि
जमाना
बइख्तयारे
तमाम
तेरी
गरीबी तेरी
बेबसी पे नाज
करे।
भक्त
ऐसे हो जीता
है कि उसकी
गरीबी, उसकी
बेबसी, उसकी
असहाय अवस्था
ही उसका
साम्राज्य बन
जाती है, उसकी
समृद्धि बन
जाती है। खोकर
ही भक्त पा
लेता है। मिट
कर ही हो जाता
है। अपने को
ना—कुछ जान कर
परमात्मा को
झेलने का
हकदार हो जाता
है। अपने को
पोंछ कर, मिटा
कर परमात्मा
को पाने की
पात्रता बन
जाता है।
तू
ऐसे जी कि
जमाना
बइख्तयारे
तमाम
तेरी
गरीबी तेरी
बेबसी पे नाज
करे।
अब तक
जमाना नाज
करता है मीरा
पर! राज क्या
है मीरा का? मीरा हुई, इससे पृथ्वी
सुंदर हुई।
मीरा हुई, इससे
मनुष्य के
इतिहास में
रंग पड़ा। मीरा
हुई, इससे
मनुष्य के
सौभाग्य में
चार चांद
जुड़े!
और
मीरा का राज
क्या है! मीरा
ने किया क्या
है? महावीर
ने बारह वर्ष
तपश्चर्या की,
मीरा ने
क्या किया? बुद्ध ने छह
वर्ष अथक श्रम
किया, मीरा
ने क्या किया?
कुछ भी नहीं
किया। इसलिए
तो जैन से अगर
पूछोगे तो जैन
कहेगा:
तपश्चर्या
क्या की? उपवास
कितने किए? व्रत कितने
साधे?
योगी
से पूछोगे तो
वह पूछेगा कि
पतंजलि के कितने
नियमों का
पालन किया? आष्टांगिक
योग में क्या—क्या
साधा—आसन, प्राणायाम,
व्यायाम, प्रत्याहार?
क्या किया?
बौद्ध
से पूछोगे तो
वह कहेगा कि
भगवान ने चार आर्य
सत्य बताए हैं, उन चार आर्य
सत्यों को
पाने के आठ
मार्ग बताए हैं,
उनमें से
क्या मीरा ने
साधा?—सम्यक
दृष्टि? सम्यक
आहार? सम्यक
आजीविका? सम्यक
स्मृति? सम्यक
समाधि? क्या
साधा?
और
मीरा का प्रेम
करने वाला कोई
भी उत्तर न दे सकेगा।
शायद तुम अपने
को भीतर—भीतर
सोचोगे: जब
कुछ भी नहीं
साधा तो कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि मीरा
सिर्फ गीत
गाना जानती है
और भीतर कुछ
भी न हो?
मीरा
की सारी कला
उसकी असहाय
अवस्था में
है। भक्त का
सारा राज वहां
है, कुंजी
वहां है। वही
तो भक्ति और
ज्ञान का भेद है,
ज्ञानी कह
सकता है यह
साधा, यह
साधा, यह
साधा! ज्ञानी
के पास हिसाब
है। ज्ञानी का
इतिहास है।
भक्त का कोई
इतिहास नहीं,
कोई हिसाब
नहीं, कोई
खाता—बही
नहीं। भक्त
कहता है: साधा
क्या? जनम—जनम
साधा, कुछ
भी न पाया।
पाया तब, जब
सब साधना गया।
भक्ति
की कोई साधना
नहीं होती।
असहाय अवस्था में
अपने को पूरी
तरह छोड़ देना।
करोगे भी क्या? जब किए कुछ
होता ही नहीं
है, तब
इसके सिवाय
उपाय भी क्या
है कि समर्पण
कर दो?
तुम
अभी भी पूछते
हो कि मैं
क्या करूं? तो दो में से
एक बात तय कर
लो। या तो तय
कर लो कि मैं
असहाय हूं, मैं बेबस
हूं। तब करने
को कुछ नहीं
बचता। तब तुम्हारी
असहाय अवस्था
और तुम्हारी
बेबसी ही काम
कर देगी; जो
तुम नहीं कर
पाए वह हो
जाएगा। और अगर
तुम पूछते हो
कि मैं क्या
करूं, यही
तुम्हें करना
है, तो फिर
मत कहो कि मैं
असहाय हूं, मत कहो कि
बेबस हूं। फिर
करो तप! फिर
करो योग! फिर
चेष्टा करो, संकल्प करो।
फिर महावीर को
पकड़ो, फिर
पतंजलि को
पकड़ो। फिर
मीरा
तुम्हारे काम
की नहीं।
लेकिन
इसके पहले कि
तुम निर्णय
करो, मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
दुनिया में
जितने लोगों
ने पाया है
उनमें संकल्प
के मार्ग से
जाने वाले
बहुत थोड़े
लोगों ने पाया
है। समर्पण के
मार्ग से जाने
वाले बहुत
लोगों ने पाया
है। और सच तो
यह है कि जब
बिना किए मिल
जाता हो, तो
करना नासमझी
है। फिर
जिन्होंने
करके भी पाया
है, उसमें
भी बड़ी सोचने
की बात है कि उनको
करने से मिला
है या करने से
इतना ही मिला कि
करने से कुछ
नहीं होता।
बुद्ध
के साथ ऐसा ही
हुआ। छह वर्ष
तक अथक श्रम किया; सब किया, जो
किया जा सकता
है—जो मानवीय
है, जो
संभव है
मनुष्य के
लिए। और छह
वर्षों के बाद
पाया कि कुछ
मिलता नहीं।
पहले धन छोड़
दिया, पद छोड़
दिया, राज्य
छोड़ दिया, आकांक्षा
छोड़ दी, वासना
छोड़ दी—साधना
पकड़ी। छह वर्ष
तक साधना की
और रत्ती भर बचाव
नहीं किया।
ऐसे नहीं की
कि कुनकुनी, कुनकुनी—सौ
डिग्री पर
उबले। जिन
गुरुओं के पास
गए, उन
गुरुओं ने ही
कहा कि भई, जितना
हम जानते थे
बता दिया और
तुमने कर भी
लिया और नहीं
हुआ, तो हम
मजबूर हैं, अब तुम कहीं
और जाओ। कोई
गुरु यह नहीं
कह सका कि
तुमने किया ही
नहीं जो मैंने
कहा, इसलिए
नहीं हुआ। छह
वर्ष में बहुत
गुरु, लेकिन
हर गुरु ने एक
दिन हाथ जोड़
कर बुद्ध को कहा
कि आप कहीं और
खोजें; जो
मेरे पास था
वह मैंने बता
दिया; और
तुमने वह पूरा
कर भी लिया, फिर तुम्हें
नहीं हुआ तो
मैं क्या करूं!
सारे
गुरु छूट गए
और एक दिन
वैसी घड़ी भी
आई, वैसे बोध
का परम क्षण
भी आया, बोधिवृक्ष
के नीचे, उस
पूर्णिमा की
रात बैठे—बैठे
बुद्ध को समझ
आई कि मेरे
किए कुछ नहीं
होता है। सब
मैंने कर
लिया। करने को
कुछ बचा नहीं।
अब करने को भी
जाने दूं।
और यह
बोध भी एक
छोटी सी घटना
से आया। स्नान
करने उतरे हैं
निरंजना नदी
में। इतने
कमजोर हो गए
हैं क्योंकि
बहुत दिन से
उपवास कर रहे
हैं। किसी मूढ़
ने बता दिया
कि बस एक चावल
का दाना रोज
लेना है। तो
एक चावल का
दाना रोज ले
रहे हैं। तीन
महीने से।
शरीर बिलकुल
हड्डी—हड्डी
हो गया है। उस
समय की एक
प्रतिमा किसी
ने बनाई है, तो सिर्फ
हड्डियां
दिखाई पड़ती
हैं उस प्रतिमा
में। चमड़ी रह
गई है
हड्डियों पर
चढ़ी, मांस
सब खो गया है।
पेट पीठ से लग
गया है। बिलकुल
अस्थिपंजर रह
गए हैं। निरंजना
में स्नान
करने उतरे हैं,
लेकिन इतने
कमजोर हैं कि
स्नान करने से
थक गए हैं और
निरंजना के
बाहर निकलने
की सामर्थ्य नहीं
मालूम होती, शक्ति नहीं
मालूम होती।
तो एक वृक्ष
की जड़ को पकड़
कर लटके रह गए
हैं। उसी
वृक्ष की जड़
को पकड़ कर
लटके हुए यह
खयाल आया: इस
छोटी सी दीन—हीन
नदी को पार
नहीं कर पाता
हूं! निरंजना
कोई बहुत बड़ी
नदी नहीं है।
और गर्मी के
दिन थे; बिलकुल
सूखी—साखी
हालत होगी। इस
क्षीण देह, नदी को पार
नहीं कर पाता
हूं, इतना
कमजोर हो गया—और
भवसागर पार
करने चला हूं!
यह कैसे होगा?
किसी
तरह निकल पाए
नदी से, लेकिन
वह क्रांति बन
गई बात। उस
रात सब
तपश्चर्या छोड़
दी, उस रात
सब साधना छोड़
दी, सब योग
भी त्याग
दिया। भोग तो
त्याग ही चुके
थे, उस रात
योग भी त्याग
दिया।
अब यह
बात समझना कि
भोगी भी
अहंकार से
जीता है और
योगी भी
अहंकार से
जीता है। भोगी
का अहंकार
बाहर की तरफ
दौड़ता है, योगी का
अहंकार भीतर
की तरफ दौड़ता
है—मगर अहंकार
तो रहता ही
है। और जब तक
अहंकार है, तब तक मिलन
कैसा! उस रात
क्रांति हो
गई। भोगी का
यह अहंकार तो
जा ही चुका था;
धन पाना है,
पद पाना है—यह
तो जा चुका
था। आज वह
वासना भी चली
गई कि परमात्मा
पाना है, मोक्ष
पाना है। वह
वासना भी चली
गई। कुछ पाना
ही है, यह
बात ही व्यर्थ
हो गई। पाया
कुछ जा नहीं
सकता। सब कर
लिया, कुछ
मिलता नहीं।
उस दिन असहाय
अवस्था पूर्ण
हो गई। बुद्ध
निढाल होकर
पड़े रहे वृक्ष
के तले। उस
रात गहरी नींद
आई, जैसी
जन्मों में न
आई होगी।
क्योंकि जब
कोई चिंता ही
नहीं रही और
पाने को कुछ न
रहा, तो
नींद की गहराई
तुम समझ सकते
हो। उस रात
सुषुप्ति
घटी। और सुबह
जब आंख खुली, रात का
आखिरी तारा
डूबता था, उस
तारे के डूबने
के साथ ही
बुद्ध का सारा
अहंकार डूब
गया। क्योंकि
आज पहली दफे
चित्त शांत था,
प्रफुल्लित
था, प्रसादपूर्ण
था। धीमे—धीमे
स्वर उठ रहे
थे। ऐसा कभी न
हुआ था। भीतर
रोशनी फैल रही
थी। ऐसा कभी न
हुआ था। और यह
बिना किए हुआ।
यह करने से
नहीं हुआ। उस
क्षण सारा अहंकार
विसर्जित हो
गया। बुद्ध ने
पाया।
अब
सवाल उठ सकता
है कि बुद्ध
ने श्रम करके
पाया? छह
वर्ष मेहनत तो
की थी, यह
पक्का है; लेकिन
क्या छह वर्ष
की मेहनत से
पाया? यह
बात पक्की
नहीं है। पाया
तो उस दिन जिस
दिन सब श्रम
छूट गया।
इस जगत
में जो भी
घटनाएं घटी
हैं, अंततः
चाहे ज्ञानी
को घटती हो, चाहे भक्त
को...। महावीर
के संबंध में
ऐसा कुछ उल्लेख
नहीं है कि
उन्होंने
कैसे पाया।
लेकिन मेरे
देखे, सिवाय
इसके
अतिरिक्त कोई
उपाय पाने का
नहीं है।
महावीर ने
बारह वर्ष
श्रम किया
होगा और अंतिम
दिन उस श्रम
से भी छूट गए
होंगे
क्योंकि श्रम
तो अहंकार का
ही है, अंतिम
दिन उस श्रम
से भी छुटकारा
हो गया होगा।
अंतिम दिन
शांत रह गए
होंगे। कुछ
करना न बचा
होगा, कुछ
करने वाला न
बचा होगा। तभी
घटना घटी
होगी। इसे मैं
अपनी भीतरी
साक्ष्य के
आधार पर कहता हूं,
यद्यपि जैन—शास्त्रों
में इसका कोई
उल्लेख नहीं।
जब भी यह घटना
घटती है, तभी
इसी भावदशा
में घटती है।
भक्त शुरू से
ही इस पर चल
पड़ता है, ज्ञानी
अंत में चल
पाता है। मीरा
पहले से ही इस
पर चल पड़ी, बुद्ध
छह वर्ष बाद
चले।
तुम्हारी
जैसी मर्जी
हो। मगर तय कर
लो। इस प्रश्न
में तुम्हारे
दो मन हैं। एक
कहता है: असहाय।
एक कहता है:
क्या करूं? तुम किसके
साथ जाना
चाहते हो, तय
कर लो। और
अपने को धोखा
मत देना।
इसलिए मत तय
कर लेना कि
चलो असहाय ही
हो जाएं, अगर
इस तरह मिलता
हो। तो यह तो
बड़ी सुगम बात
हुई, चलो
आज असहाय होकर
ही बैठ जाएं, ढूंढ लें
कोई
बोधिवृक्ष और
बिलकुल निढाल
हो जाएं और कह
दें साफ जोर
से कि भाई
करने से तो
मिलता नहीं; और फिर राह
देखें रात भर
कि अब मिला, अब मिला, तब
मिला; फिर
सुबह आंख
खोलें और
देखें, आखिरी
तारा डूब रहा
है और अभी तक
नहीं मिला!...तो नहीं
मिलेगा। और
सुबह उठ कर
तुम अपने घर आ
जाओगे और फिर
अपनी दुकान
खोल लोगे कि
यह सब बेकार है।
बुद्ध को भी
मिला हो, संदिग्ध
हो गया।
पाने
की आकांक्षा
से ऐसा मत कर
लेना, नहीं
तो वह झूठी
बात होगी। तुम
बीच—बीच में
आंख खोल—खोल
कर देखते
रहोगे: अभी तक
आया कि नहीं
आया। तनाव तो
बना ही रहेगा।
सुषुप्ति
लगेगी ही नहीं।
विश्राम होगा
ही नहीं। अगर
अभी करने की
खुजलाहट बची
हो, थोड़ा
कर ही लो।
मतलब: थोड़ा
पाप और बचा
है। इसलिए तो
पाप को कर्म
कहते हैं। थोड़ा
कर्म और बचा
है। कर ही लो!
थोड़ा और करने
का उपद्रव है,
इसको झेल ही
लो।
फिर
तुम क्या करते
हो, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
हिंदू के ढंग
से करते हो कि
मुसलमान के
ढंग से कि
ईसाई के ढंग
से, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
तुम्हें कुछ
करना है तो कर
ही लो अभी।
इससे तुम तभी
छूट पाओगे, जब तुम्हारा
अनुभव ही
तुम्हारे लिए
अंतिम रूप से
कह जाएगा कि
करने से कुछ
नहीं होता है।
कर—कर के ही
तुम, हार—हार
कर ही, विफल
हो—हो कर ही
जानोगे कि
करने से कुछ
नहीं होता है।
जिस दिन यह
बात सौ
प्रतिशत
तुम्हारे
प्राणों में
समा जाएगी और
तुम गिर जाओगे
निढाल होकर, जहां गिरोगे
वहीं
बोधिवृक्ष बन
जाएगा। और तुम
अपने ढंग से
गिरोगे। और
तुम्हारा
वृक्ष अपना
होगा। बुद्ध
का वृक्ष अपना
है, बुद्ध
के गिरने का
ढंग अपना है।
मगर गिरना तो तुम्हें
पड़ेगा। तुम
जिस दिन
गिरोगे उसी
दिन परमात्मा
उठता है।
परमात्मा
प्रतीक्षा कर
रहा है कि कब
तुम अपने पर
भरोसा छोड़ दो।
जिसे
अपने पर भरोसा
है उसे
परमात्मा पर
भरोसा नहीं।
जिसे
परमात्मा पर
भरोसा है, वह क्या खाक
फिकर करेगा इस
बात की कि मैं
क्या करूं! वह
कहता है: तू
कर। तू करने
वाला है।
और
ध्यान रखना, फिर तुम्हें
सचेत कर दूं
कि यह बात आलस्य
से नहीं उठनी
चाहिए, कि
तू कर, मैं
कौन करने वाला
हूं! यह बात
आलस्य से नहीं
उठनी चाहिए।
यह बात अनुभव
से उठनी चाहिए
कि मेरे किए
कुछ भी नहीं
होता। यह
असहाय अवस्था
से उठनी
चाहिए।
आलस्य
और असहाय
अवस्था में
फर्क है। आलसी
तो होशियार
है। वह तो
दूसरे से काम
लेना चाहता
है। ऐसा नहीं
कि वह सोचता
है कि मेरे किए
कुछ न होगा।
वह कहता: जब तक
दूसरे के कंधे
पर बंदूक रख
कर चलती हो, तब तक काहे
को अपने कष्ट
उठाना, तो
दूसरे ही के
कंधे पर रख कर
चला लें
बंदूक।
मैं जब
विद्यार्थी
था
विश्वविद्यालय
में, तो मेरे
एक अध्यापक
थे। परम आलसी!
मेरे जो विभाग—अध्यक्ष
थे, उनका
मुझसे भी बहुत
लगाव था और उन
अध्यापक से भी
बहुत लगाव था।
वे अध्यापक भी
पहले उनके विद्यार्थी
थे। उन्होंने
मुझसे कहा कि
देखो, यह
बड़ा आलसी है
और बड़ी तकलीफ
में रहता है।
अच्छा यह होगा
कि तुम दोनों
ही साथ रहो।
मैंने
कहा: जैसी मर्जी।
वे आलसी तो
पक्के थे।
दोनों हम साथ
रहे। उन्होंने
पहले ही दिन
मुझसे कहा कि
सुबह दूध लेने
कौन जाएगा? मैंने कहा:
जो पहले उठे।
वे बोले: तब
ठीक। आठ बज गए,
कोई उठे न।
मैं भी उनको
आंख खोल कर
देख लूं, वे
भी मुझे आंख
खोल कर देख
लें। नौ बज
गए। वे जरा
बेचैन होने लगे
क्योंकि साढ़े
दस बजे उन्हें
कक्षा लेने जाना
है। मैं तो
विद्यार्थी
था, गया न
गया, चलेगा।
उनकी तो नौकरी
का सवाल था।
साढ़े नौ बजने
लगे, अब वे
काफी तेजी से
करवट बदलने
लगे। मैंने
उनसे कहा:
कितनी करवट
बदलो, दूध
लेने जाना ही
पड़ेगा। आज
चाहे जिंदगी
भर इसी बिस्तर
पर रहना पड़े, मैं उठने
वाला नहीं
हूं।
तब वे
घबड़ा कर उठे।
तब भागे, दूध
लेने गए।
प्रधान को
उन्होंने
जाकर कहा कि यह
साथ नहीं
चलेगा। यह तो
मामला बहुत
कठिन है। इससे
तो मैं अकेला
ही बेहतर। जब
मर्जी हुई तब अपना
दूध ले आता था;
या नहीं भी
लाना हुआ तो
नहीं लाता था।
मैंने
अपने प्रधान
को कहा कि अब
हमें अलग न
करें। मैं
इन्हें
रास्ते पर ले
आऊंगा। ये दो—चार
दिन में
रास्ते पर आ
जाएंगे। इनको
दूसरे के कंधे
पर बंदूक रख
कर चलाने की
आदत हो गई है।
आलस्य
को तुम मत समझ
लेना कि असहाय
अवस्था है।
आलस्य तो
चालाकी है, धोखा है, बेईमानी
है। तो यह मत
सोचना कि चलो
ठीक है, करने
से बचे, झंझट
मिटी; अब
यही कह दें
साफ कि हे
प्रभु, आओ।
धाओ—धाओ! देखो,
इधर भक्त
मरा जा रहा
है। हालांकि
तुम जानते हो
कि कौन मर रहा
है! कहां की
बातों में पड़े
हो! भीतर तुम
यही कह रहे हो
कि कौन मर रहा
है! और भीतर तुम
यह भी जान रहे
हो कि कौन आने
वाला है!
विवेकानंद
अमरीका में एक
गांव में बोले, तो उन्होंने
जीसस का
प्रसिद्ध वचन
उदधृत किया:
फेथ कैन मूव
माउंटेंस।
श्रद्धा से
पहाड़ भी हटाए
जा सकते हैं।
एक
बूढ़ी औरत, बुढ़िया
सामने ही बैठी
थी। बूढ़ों के
सिवा तो कोई
धर्म—प्रवचन
सुनने जाता भी
नहीं। वह
सामने ही बैठी
थी। वह बड़ी
प्रसन्न होने
लगी, क्योंकि
उसके मकान के
पीछे एक छोटी
पहाड़ी थी। और
उस पहाड़ी की
वजह से न हवा आ
पाती थी, न
सूरज की रोशनी
आ पाती थी। वह
बड़ी परेशान थी
कि कैसे यह
पहाड़ी से
छुटकारा
मिले। उसने
कहा: यह तो बड़ा
अच्छा है, श्रद्धा
से ही हट सकता
है! कह दिया
परमात्मा से
श्रद्धा—भाव
से हट जाएगा।
वह भागी घर
गई। उसने एक
बार, आखिरी
बार खिड़की में
से झांक कर
पहाड़ी को देखा
कि एक बार तो
और देख लो, फिर
तो हट ही
जाएगी। फिर
खिड़की बंद
करके वह वहीं
बैठी और उसने
कहा: हे प्रभु,
श्रद्धापूर्वक
कहती हूं—हटा
ले इस पहाड़ को!
फिर दोत्तीन
मिनट बैठी रही,
फिर उसने
खिड़की खोल कर
देखी: हटा कि
नहीं? पहाड़
वहीं के वहीं
था। और उसने
कहा: धत् तेरे
की! मुझे पहले
से ही पता था, कहीं कोई
पहाड़—वहाड़
हटना है!
मगर
अगर पहले से
ही पता था कि
कहीं पहाड़
हटना है, तो
श्रद्धा कहां?
श्रद्धा से
पहाड़ हटते हैं,
लेकिन
श्रद्धा में
संदेह होता ही
नहीं। अगर पहाड़
न हटे तो यही
समझना कि
श्रद्धा नहीं
है। और सच तो
यह है: अगर
श्रद्धा पूरी
हो तो तुम
पहाड़ हटाना भी
न चाहोगे, क्योंकि
श्रद्धा की
परीक्षा लेने
का मतलब ही यह
होता है कि
संदेह है।
पहाड़ हटाना
क्यों चाहोगे?
जहां
परमात्मा ने
बनाया, ठीक
ही जगह बनाया
होगा। तुम
हटाना क्यों
चाहोगे पहाड़?
पहाड़ की तो
बात अलग, तुम
एक तिनका न
हटाना
चाहोगे। जहां
उसने बनाया, जैसा उसने
बनाया, वैसा
ही ठीक। मैं
उससे ज्यादा
बुद्धिमान
थोड़े ही हूं।
तो श्रद्धा
पहाड़ हटा सकती
है, लेकिन
श्रद्धा तो
तिनका भी नहीं
हटाना
चाहेगी। और अश्रद्धा
से तो तिनका
भी नहीं हट
सकता और अश्रद्धा
पहाड़ भी हटाना
चाहती।
अश्रद्धा
श्रद्धा का
बाना पहन लेती
है।
तो
खयाल रखना, आलस्य कहीं
असहाय अवस्था
का बाना न पहन
ले, नहीं
तो धोखा हो
जाएगा। तो
बहुत—बहुत
सम्हल कर चलने
की बात है।
करने पर भरोसा
हो तो करो।
खूब करने के
लिए उपाय पड़े
हैं।
प्राणायाम
करो, आसन
करो, सिर
के बल खड़े होओ,
माला जपो, मंदिरों में
जाओ, उपवास,
व्रत, हजार
ढंग हैं करने
के। ढंग ही
ढंग हैं करने
के। कर लो।
मगर, अगर असहाय
अवस्था समझ
में आने लगी
हो, अब तो
मत पूछो कि
क्या करूं। अब
असहाय हो जाओ।
करने को कुछ
बचा नहीं, करने
वाला नहीं
बचा। क्रांति
घटती है उस
दशा में।
अपूर्व है दशा
वह। आलस्य की
नहीं है। अकर्मण्यता
की भी नहीं
है। अहंकार—शून्यता
की है। और तब
ऐसी घड़ी आ
सकती है:
तू
ऐसे जी कि
जमाना
बइख्तयारे
तमाम
तेरी
गरीबी तेरी
बेबसी पे नाज
करे।
उसी
गरीबी, उसी
बेबसी से
परमात्मा मिल
सकता है।
तुम्हारा
जीवन
अपूर्वरूप से
प्रसाद से भर
सकता है। तुम्हारे
जीवन में
उत्सव, फूल
खिल सकते हैं,
गीत झर सकते
हैं। तुम भी
एक दिन "पद
घुंघरू बांध'
मीरा की
भांति नाच
सकते हो।
लेकिन ध्यान
रहे: परमात्मा
ही नाचेगा
तुम्हारे
भीतर; पैर
तुम्हारे
होंगे, नाच
परमात्मा का
ही होगा।
दूसरा
प्रश्न: कोई
प्रश्न नहीं
है। यह बस एक प्रार्थना
है। मंसूर और
सरमद के
अफसाने पुराने
हो गए। ऐ
रजनीश, मेरे
लिए किस्सा
नया तजबीज कर।
क्या मेरी प्रार्थना
सुनी जाएगी?
दिनेश!
इस जगत में
नया कुछ भी
नहीं है। सूरज
के तले नया
कुछ भी नहीं।
जो तुम्हें
नया जैसा
मालूम पड़ता है, उसका इतना
ही अर्थ है कि
इतिहास का
तुम्हें पता
नहीं। जो
तुम्हें नया
जैसा मालूम
पड़ता है, नया
इसलिए मालूम
पड़ता है, क्योंकि
अतीत में वह
जो बार—बार
हुआ है उसकी
तुम्हें
स्मृति नहीं
है, उसका
तुम्हें बोध
नहीं है।
इस जगत
में नया कुछ
भी नहीं। इससे
तुम जल्दी से
यह नतीजा मत
निकाल लेना कि
इस जगत में सब
पुराना है।
क्योंकि जब
नया ही कुछ
नहीं है तो
पुराना कैसे
हो सकता है? नया हो तो ही
पुराना हो
सकता है। जो
आज नया है वह
कल पुराना हो
जाएगा। लेकिन
अगर नया कभी
होता ही नहीं
तो पुराना भी
नहीं हो सकता।
नया और पुराना
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
तो
पहले तो मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं: इस
जगत में नया
कुछ भी नहीं
है। जो हो रहा
है, सदा होता
रहा है। जो हो
रहा है, हजार
बार होता रहा
है। जो हो रहा
है, वह
अनंत बार हो
चुका है और
अनंत बार
होगा।
और
दूसरी बात
तुमसे कहना
चाहता हूं:
तुम यह नतीजा
मत लेना कि
मैं कह रहा
हूं कि जगत
में सब पुराना
है। पुराना तो
हो ही कैसे
सकता है? जब
नया ही नहीं
होता तो
पुराना कैसे
होगा? बूढ़ा
होना हो तो
जवान होना
जरूरी है पहले।
जवानी के बिना
बुढ़ापा नहीं
होता। जिस दिन
जवानी नहीं
होगी, उस
दिन बुढ़ापा
नहीं होगा।
तुम एक
कार खरीद लिए
थे पिछले वर्ष, वह पुरानी
पड़ गई अब, क्योंकि
पिछले वर्ष नई
थी। नई न होती
तो पुरानी
नहीं पड़ सकती
थी।
नया और
पुराना साथ—साथ
जुड़े हैं।
विपरीत नहीं
है, शत्रु नहीं
हैं—संगी—साथी
हैं; प्रणय—सूत्र
में बंधे हैं।
सात चक्कर
उनमें पड़े हैं;
उनकी भांवर
पड़ गई है। नया
और पुराना पति—पत्नी
हैं। अलग होते
ही नहीं, तलाक
का उपाय भी
नहीं है। तो न
तो इस जगत में
कुछ नया है, न इस जगत में
कुछ पुराना
है। फिर क्या
है? सब
शाश्वत है, सनातन है।
पुरातन नहीं—सनातन।
ऐसा ही है। जब
तुम देखोगे, तुम्हें नया
लगेगा।
ऐसा ही
समझो: जब कोई
जवान आदमी
पहली बार
प्रेम में
पड़ता है तो वह
सोचता है: अहा!
ऐसा प्रेम दुनिया
में कभी घटा
ही नहीं। सभी
जवानों को ऐसा
होता है कि
ऐसा प्रेम कभी
हुआ ही नहीं।
सब प्रेम फीके
पड़ गए। सब
प्रेम दो कौड़ी
के हो गए।
करोड़ों—अरबों
लोग इस जमीन
पर रहे हैं और
सभी को यह भ्रम
हुआ है। सभी
जवान थे और
सभी ने प्रेम
किया है। और
सभी ने जब
प्रेम किया है
तो ऐसा ही
सोचा है कि जो
मुझे हो रहा
है, ऐसा कभी
नहीं हुआ।
मेरे
पास रोज लोग
आते हैं। वे
कहते हैं: यह
प्रेम ही और
है। ऐसा तो
कभी हुआ ही
नहीं था। ऐसा
किसी को हुआ
ही नहीं।
लोग
मुझसे कहते
हैं: कैसे
अपना हृदय
आपको हम बताएं? यह बिलकुल
ऐसी नई बात हो
रही है, अपूर्व
हो रही है।
और मैं
समझता हूं
उनकी तकलीफ।
उन्हें और
दूसरों के
प्रेमों का तो
पता भी नहीं, क्योंकि
दूसरे के हृदय
में प्रवेश का
उपाय नहीं है।
ऐसा ही
समझो कि
तुम्हारी
बगिया में
गुलाब की झाड़ी
में आज फूल
खिला। यह खिला
हुआ फूल अगर
सोचे कि ऐसा
कभी नहीं हुआ, तो ठीक ही
सोच रहा है, क्योंकि
अतीत के फूलों
से तो इसका
कोई मिलना नहीं
हुआ। जब वे थे,
तब यह नहीं
था। अब वे चले
गए हैं, तब
इसका आगमन हुआ
है। और भविष्य
के फूलों से भी
इसका कोई
मिलना नहीं
हुआ।
लेकिन
झाड़ी से तो
पूछो, जिस
पर न मालूम
कितने फूल
खिले और न
मालूम कितने
फूल गिरे! उस
झाड़ी से तो
पूछो! यह नया
फूल जो अभी
उठा है सुबह—सुबह,
रात की ओस
की बूंदों से
ताजा, सुबह
की सूरज की
किरणों में
सिर उठाए, पक्षियों
का गीत सुनता—अगर
इसे यह वहम
होता हो कि
मेरे जैसी
घटना कभी नहीं
घटी! ऐसा
सौंदर्य कब
घटा, ऐसी
लाली, ऐसी
ताजगी कब घटी!
कभी नहीं घटी!
तो यह भी गलत
नहीं कह रहा
है, क्योंकि
इसे पहले फूल
घटे, उनका
कुछ पता कैसे
हो? और आगे
भी फूल घटते
रहेंगे, उसका
पता कैसे हो? इसके पास जो
बौड़ियां हैं
वे भी फूल
बनेंगी, इसका
पता कैसे हो? और नीचे जो
कल के खिले
फूलों की
पंखुड़ियां
गिर गई हैं, वे भी कभी
फूल थीं—इसका
इसे पता कैसे
हो?
ऐसी ही
दशा तुम्हारी
है, दिनेश।
जीवन
वर्तुलाकार
है। वर्षा आती
है। गर्मी आती
है। सर्दी आती
है। घूमता
रहता है चाक।
फिर वर्षा आती
है। फिर वही
होता है। फिर
वही होता है।
सुबह होती है, सूरज निकलता
है। सांझ होती
है, सूरज
ढल जाता है।
फिर सुबह होती
है। दिन आता, रात आती, फिर
दिन आता है।
ऐसा ही होता
रहता है। यह
शाश्वत चक्र
है। इसलिए
इसको हमने
संसार कहा है।
"संसार'
शब्द का
अर्थ होता है:
चाक, जो
घूम रहा है; व्हील, जो
घूमता चला
जाता है।
लेकिन
हमारी जिंदगी
छोटी है।
सत्तर साल की
जिंदगी में हम
कुछ जान पाते
हैं थोड़ा—बहुत।
हमारा बोध
संकीर्ण।
हमसे पहले भी
लोग हुए हैं।
उन्होंने भी
ऐसा ही चाहा, उन्होंने भी
ऐसा ही जीया
है—इसका हमें
पता नहीं
होता।
तुम जब
पद की
आकांक्षा में
दौड़ते हो तो
तुम सोचते हो:
तुम नये दौड़ने
वाले हो, तुम
नये धावक! तो
फिर नेपोलियन
और सिकंदर और
तैमूर और
चंगीज और
नादिर
तुम्हें याद
नहीं।
जब
तुम्हें पहली
दफा समाधि
घटित होगी, तब भी
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि यह
तो कभी किसी
को नहीं हुआ।
फिर बुद्ध और
महावीर और
मीरा और चैतन्य
और कबीर...? जब
तुम्हारा
परमात्मा से
पहली दफा मिलन
होगा तब भी
ऐसा लगेगा कि
ऐसा तो कभी
नहीं हुआ।
तुम्हें तो
कभी नहीं हुआ
था पहले, यह
सच है।
तुम्हें नया
हो रहा है, लेकिन
यह घटना जगत
में नई नहीं
है। यह शाश्वत
है।
मनुष्य
का मन नये के
लिए बड़ा आतुर
है। मनुष्य का
मन उत्तेजना
खोजता है। नये
में उत्तेजना
होती है।
मनुष्य का मन
सदा नये की
तलाश करता है।
तुमने आज जो
भोजन किया, कल भी करना
पड़े तो मन
राजी नहीं
होता।
हालांकि आज जब
किया था, तुमने
बड़ी प्रशंसा
की थी।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी मुझसे
कह रही थी कि
मेरे पति को
क्या हो गया? उनका दिमाग
कुछ ठिकाने पर
नहीं है। आपके
पास आते हैं, उन्हें कुछ
समझाएं।
मैंने
पूछा: मामला
क्या है? कारण
क्या है तेरा
ऐसा सोचने का?
उसने
कहा कि सोमवार
को भिंडी बनाई
थी, बोले खूब
अच्छी है। बड़ी
प्रशंसा की।
तो मंगल को भी
बनाई। मंगल को
कुछ नहीं
बोले। बुध को
भी बनाई, तो
बड़े बेरुखे मन
से भोजन किया।
बृहस्पति को भी
बनाई, तो
बड़े भन्नाए
हुए थे। शुक्र
को भी बनाई तो
थाली उठा कर
फेंक दी।
दिमाग इनका
ठीक है कि
नहीं? इन्हीं
ने कहा था कि
खूब सुंदर, खूब
स्वादिष्ट।
अब
भिंडी कितने
दिन खा सकते
हो? मन नये की
तलाश करता है।
मन कहता है:
कुछ नया तो चाहिए।
इसलिए तो पति
को पत्नी में
सौंदर्य नहीं
दिखाई पड़ता, पत्नी को
पति में कुछ
रस नहीं दिखाई
पड़ता। मन कहता
है: कुछ नया
चाहिए।
पुराना मकान है,
तो नया
चाहिए।
पुरानी कार है,
तो नई
चाहिए।
पुराने कपड़े
हैं, तो
नये कपड़े
चाहिए।
मन
कहता है: कुछ
नया चाहिए।
नये की तलाश
में मन तुम्हें
भटकाता है।
नये की तलाश
में तुम संसार
में यात्रा
करते रहते हो।
जो इस बात को
समझ लेता है
कि यहां नया
कुछ भी नहीं
है और पुराना
भी कुछ नहीं, उसकी संसार
की यात्रा
समाप्त हो
जाती है। इस सत्य
को गहराई से
समझना जरूरी
है।
तुम
पूछते हो:
"मंसूर और
सरमद के
अफसाने पुराने
हो गए।'
नहीं
हो सकते
पुराने, क्योंकि
नये ही कभी
नहीं थे।
पुराने कैसे
हो जाएंगे? मंसूर कुछ
पहला तो आदमी
नहीं था, जिसने
अनलहक की
घोषणा की। फिर
उपनिषद के
ऋषियों का क्या
हुआ, जिन्होंने
कहा अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म हूं!
मंसूर ने वही
कहा था: अनलहक!
मैं सत्य हूं!
मैं ब्रह्म
हूं! मैं
परमात्मा हूं!
मंसूर को ही थोड़े
पहली दफा सूली
लगी, फिर
जीसस का क्या
हुआ? फिर
सुकरात का
क्या हुआ? सरमद
का ही थोड़े
सिर कटा, और
भी बहुत सिर
कटे हैं।
सरमद
और मंसूर के
अफसाने कभी
नये ही नहीं
थे, तो
पुराने कैसे
हो सकते हैं? अफसाना तो
एक ही है, पात्र
बदल जाते हैं।
खेल तो वही
है। कभी बुद्ध
खेलते उस खेल
को, कभी
महावीर खेलते,
कभी पतंजलि,
कभी
मोहम्मद, कभी
जरथुस्त्र।
खेल वही है।
हालांकि भाषा
भी बदल जाती
है। पात्र के
बदलने के साथ—साथ
रंग—ढंग भी
बदल जाता है।
लेकिन रंग—ढंग
तो ऊपर—ऊपर की
बातें हैं, भीतर राज की
बात वही है, एक ही है।
जीसस
सूली पर लटके, कि मंसूर
सूली पर लटके,
कि सरमद का
सर काटा जाए, कि सुकरात
को जहर पिलाया
जाए—कहानी तो
वही है।
पिछले
वर्ष जो फूल
आए थे, वे
फिर—फिर आएंगे—हालांकि
हर बार देह
अलग होगी, पर
आत्मा वही
होगी।
नये की
आकांक्षा
विषाद में ले
जाएगी, क्योंकि
नया मिला नहीं
कि पुराना
होना शुरू हो
जाता है।
बायरन, अंग्रेजी का
बड़ा कवि हुआ।
कहते हैं, उसने
सैकड़ों
स्त्रियों को
प्रेम किया।
वह जल्दी चुक
जाता था, दो—चार
दिन में ही एक
स्त्री से चुक
जाता था। सुंदर
था, प्रतिष्ठित
था, महाकवि
था।
व्यक्तित्व
में उसके
चुंबक था, तो
स्त्रियां
खिंच जाती थीं—जानते
हुए कि दो—चार
दिन बाद दूध
में से निकाल
कर फेंकी गई
मक्खियों की
हालत हो
जाएगी। मगर दो—चार
दिन भी बायरन
के साथ रहने
का सौभाग्य
कोई छोड़ना
नहीं चाहता
था। कहते हैं:
लोग इतने डर गए
थे बायरन से
कि बायरन जिस
रेस्त्रां
में जाता, पति
अपनी
पत्नियों के
हाथ पकड़ कर
दूसरे दरवाजे
से बाहर निकल
जाते। सभा—सोसायटियों
में बायरन आता
तो लोग अपनी
पत्नियों को न
लाते। थी कुछ
बात उस आदमी
में। कुछ
गुरुत्वाकर्षण
था। मगर एक
स्त्री उससे
झुकी नहीं।
जितनी नहीं
झुकी, उतना
बायरन ने उसे
झुकाना चाहा।
लेकिन उस स्त्री
ने एक शर्त
रखी कि जब तक
विवाह न हो
जाए, तब तक
मेरा हाथ भी न
छू सकोगे।
विवाह पहले, फिर बात।
स्त्री
सुंदर थी। और
ऐसी चुनौती
कभी किसी ने बायरन
को दी भी नहीं
थी।
स्त्रियां
पागल थीं उसके
लिए। उसका
इशारा काफी
था। और यह
स्त्री जिद
पकड़े थी और
स्त्री सुंदर
थी। सुंदर
चाहे बहुत न
भी रही हो, लेकिन उसकी
चुनौती ने उसे
और सुंदर बना
दिया। क्योंकि
जो हमें पाने
में जितना
दुर्गम हो, उतना ही
आकर्षित हो
जाते हैं हम।
एवरेस्ट पर चढ़ने
का कोई खास
मजा नहीं, पूना
की पहाड़ी पर
भी चढ़ो तो भी
चलेगा; मगर
एवरेस्ट
दुर्गम है, कठिन है।
कठिन है, यही
चुनौती है।
एडमंड
हिलेरी जब
पहली दफा
एवरेस्ट फर
चढ़ा और लौट कर
आया तो उससे
पूछा गया कि
आखिर क्या बात
थी, किसलिए
तुम एवरेस्ट
फर चढ़ना चाहते
थे? तो
उसने कहा:
किसलिए!
क्योंकि
एवरेस्ट अन—चढ़ा
था, यह
काफी चुनौती
थी। यह आदमी
के अहंकार को
बड़ी चोट थी।
एवरेस्ट पर
चढ़ना ही था।
चढ़ना ही पड़ता।
हालांकि वहां
पाने को कुछ
भी नहीं था।
वह
महिला
एवरेस्ट बन गई
बायरन के लिए।
बायरन दीवाना
हो गया।
महिलाएं उसके
लिए दीवानी
थीं, बायरन इस
महिला के लिए
दीवाना हो
गया। और अंततः
उसे झुक जाना
पड़ा, विवाह
के लिए राजी
होना पड़ा। जिस
दिन चर्च से विवाह
करके वे उतरते
थे सीढ़ियों पर,
अभी उनके
सम्मान में, स्वागत में
जलाई गई
मोमबत्तियां
बुझी भी न
थीं। अभी
मेहमान जा ही
रहे थे। अभी
चर्च की
घंटियां बज
रही थीं। वह
उस स्त्री का
हाथ पकड़ कर
सीढ़ियां उतर
रहा है और तभी
एक क्षण ठिठक
कर खड़ा हो
गया। एक
स्त्री को
उसने सामने से
रास्ते पर
गुजरते देखा।
बायरन, ऐसे आदमी
ईमानदार था।
उसने अपनी
पत्नी को कहा:
सुनो! तुम्हें
दुख तो होगा, लेकिन सच
बात मुझे कहनी
चाहिए। कल तक
मैं दीवाना था,
लेकिन जैसे
ही तुम्हारा
हाथ मेरे हाथ
में आ गया और
हम विवाहित हो
गए हैं, मेरा
सारा रस चला
गया। तुम
पुरानी पड़
गईं। अभी कोई
संबंध भी नहीं
बना है, लेकिन
तुम पुरानी पड़
गईं। और वह जो
स्त्री सामने
से गई है
गुजरती हुई, एक क्षण को
मैं उसके
प्रति
मंत्रमुग्ध
हो गया। मैं
तुम्हें भूल
ही गया कि
तुम्हारा हाथ
मेरे हाथ में
है। मुझे
तुम्हारी याद
भी नहीं रही।
यह मैं तुमसे
कह देना चाहता
हूं। मेरा रस
खत्म हो गया, चूंकि तुम
मेरे हाथ में
हो। मेरा रस समाप्त
हो गया।
तुम
शायद इतने
ईमानदार न भी
होओ, लेकिन
तुमने खयाल
किया है: जिस
चीज को पाने
के लिए तुम
परेशान थे...।
एक सुंदर कार
खरीदना चाहते
थे, वर्षों
धन कमाया, मेहनत
की, फिर
जिस दिन आकर
पोर्च में
गाड़ी खड़ी हो
गई, तुमने
उसको चारों
तरफ चक्कर लगा
कर देखा और छाती
बैठ गई, कि
बस हो गया। अब?
अब क्या
करने को है? शायद एकाध
दिन उमंग रही,
राह पर
निकले कार
लेकर। लेकिन
कार उसी दिन
से पुरानी
पड़नी शुरू हो
गई, जिस
दिन से तुम
पोर्च में ले
आए। अब रोज
पुरानी ही
होगी। और रोज—रोज
तुम्हारे और
उसके बीच का
जो रस था वह कम
होता चला जाएगा।
इसी कार के
लिए तुम कई
दिन सोए नहीं,
रात सपने
देखे, दिन
सोचा—विचारा—और
यही अब
तुम्हारे
पोर्च में आकर
खड़ी है और इसकी
याद भी नहीं
आती। यही
तुम्हारे
पूरे जीवन की
कथा है।
मन नये
की मांग करता
है, लेकिन
नया तो मिलते
ही पुराना हो
जाता है और फिर
मन विषाद से
भरता है। जो
नये को
मांगेगा, वह
बार—बार दुख
में पड़ेगा, क्योंकि नया
पुराना होता
है। शाश्वत को
खोजो, जो
नया भी नहीं
है, पुराना
कभी होता
नहीं। जो सदा
एक सा है, एकरस
है। उस एकरसता
का नाम ही
परमात्मा है।
परमात्मा
नया है, ऐसा
कहोगे? कि
परमात्मा
पुराना है, ऐसा कहोगे? दोनों ही
बातें गलत
होंगी।
परमात्मा
दोनों के अतीत
है।
तुम
पूछते हो:
"मंसूर और
सरमद के
अफसाने पुराने
हो गए।'
नहीं
हुए, क्योंकि
वे नये ही कभी
न थे। वे
शाश्वत
कहानियां
हैं। वे पुराण
हैं। यही फर्क
है कहानियों में
और पुराणों
में। जो कहानी
अखबार में
छपती है, साप्ताहिक
अखबार में
छपती है, वह
छपी नहीं कि
पुरानी हो
जाती है। राम—कथा
पुरानी नहीं
होती। कृष्ण
की लीला
पुरानी नहीं
होती। क्यों?
शाश्वत की
भनक है। कितनी
बार रामलीला
देखी! तुम जरा
सोचो, इतनी
बार तुम एक
फिल्म देख
सकते हो? पागल
हो जाओगे।
कितनी ही
अच्छी फिल्म
हो, दुबारा
देखोगे तो कुछ
रस न मालूम
पड़ेगा। लेकिन
रामलीला
कितनी बार
देखी है, हर
वर्ष होती है—कुछ
बात है! कुछ
अनूठी बात है!
कुछ विस्मय—विमुग्ध
कर देने वाली
बात है!
तुम्हें
पूरी कथा
मालूम है।
तुम्हें सब
डायलाग मालूम
है कि अब
रामचंद्रजी
क्या कहने
वाले हैं, कि अब
सीताजी चुराई
जाएंगी। सब
तुम्हें मालूम
है। नया तो
कभी—कभी होता
है। नया कभी—कभी
हो जाता है
रामलीला में।
ऐसा एक
गांव में हो
गया था। जो
आदमी रावण बना
था और जो
स्त्री सीता
बनी थी, वह
सच में ही उस
स्त्री के
प्रेम में पड़ा
था। तो बड़ी
गड़बड़ हो गई।
जब धनुषबाण तोड़ने
का समय आया और
जोर से खबर आई
कि हे रावण, लंका में आग
लगी है, उसने
कहा: लगी रहने
दो। आज तो
सीता को लेकर
ही जाऊंगा।
अब बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो गई। सब
चौंक कर बैठ
गए होंगे। लोग, जो सो रहे
होंगे, वे
भी जग गए, कि
ऐसा तो
रामलीला में
कभी हुआ नहीं;
यह तो कुछ
नई बात हो रही
है! रावण चला
जाता है। लंका
में आग लगी है,
बेचारा
भागता है लंका
बचाने। इसी
बीच रामचंद्रजी
सीता को ले
जाते हैं। फिर
सारी कहानी
शुरू हो जाती
है। यह तो
कहानी ही तोड़े
दे रहा है। यह
कह रहा है:
सीता को लेकर
जाएंगे। और वह
सबसे मजबूत
आदमी था गांव
का। तो ही तो
रावण बनाया था
उसको। और
रामचंद्रजी
बेचारे जरा से
छोकरे थे। वह
एक रपट लगा
देगा उनको, तो वे
दुबारा कभी
मंच पर न
आएंगे फिर।
लक्ष्मणजी भी
घबड़ा गए। जनक
महाराज भी
घबड़ाए, क्योंकि
यह आदमी
खतरनाक है। और
सीता भी घबड़ाई
कि अगर यह ले
जाना चाहे तो
ले ही जाएगा।
यह बात ही
खत्म हो गई।
रामलीला तो
खत्म ही हो गई,
यह दूसरा ही
काम शुरू हो
गया वहां।
और
उसने फिर आव
देखी न ताव, क्योंकि
उसको फुरसत
कहां! उसने तो,
उठा और
धनुषबाण रखा
था, वह तोड़
कर उसके चार
टुकड़े करके
जनता में फेंक
दिए। बात भी
हो गई पूरी।
धनुषबाण ही
तोड़ना था, उसने
तोड़ दिया। वह
तो सीता को ले
जाने की
तैयारी करने लगा।
अब
रामचंद्रजी
मुंह बाए बैठे
हैं।
वह तो
जनक बूढ़ा आदमी
था और कई बार
जनक का काम कर चुका
था, उसे थोड़ी
सदबुद्धि आई।
उसने कहा: कुछ
करना पड़ेगा, नहीं तो यह
तो मामला ही
खत्म हो गया।
और दुनिया
हंसेगी। और
फिर यह रामलीला
भी चलना है दस—बारह
दिन, वह
कैसे चलेगी? तो वह जल्दी
से चिल्लाया
कि भृत्यो, यह तुम मेरे
बच्चों का
खेलने का
धनुषबाण उठा लाए,
शंकरजी का
धनुषबाण लाओ।
परदा
गिरवाया।
किसी तरह समझा—बुझा
कर रावण को
बाहर निकाला।
दूसरे आदमी को
जल्दी से रंग
पोत कर रावण
बनाया, क्योंकि
यह आदमी फिर
गड़बड़ कर दे।
तब रामलीला
चली।
कभी—कभी
ऐसा होता है, लेकिन अक्सर
तो रामलीला
वही की वही
है। कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है। ऐसा एक और
गांव में हो
गया। जब रावण
को हरा कर राम
लौटने लगे और
पुष्पक विमान
में बैठने को
ही जा रहे हैं
कि रस्सी किसी
ने जल्दी खींच
दी। वह रस्सी
में बंधा
पुष्पक
विमान। वे बैठ
ही न पाए और
किसी ने ऊपर
से रस्सी खींच
दी, वह
पुष्पक विमान
उठ गया। तो
लक्ष्मणजी ने
पूछा कि बड़े
भय्या, आपके
पास टाइम टेबल
हो तो देखें
कि फिर हवाई जहाज
कब आएगा? लड़के
ही थे। तो उस
लड़के ने सोचा
कि यह तो गए।
तो अब टाइम टेबल
देखें तो। लोग
बड़े चौंके कि
टाइम टेबल और हवाई
जहाज फिर कब
आएगा!
कभी—कभी
ऐसा होता है।
ऐसा एक
बार और हुआ।
हनुमानजी
पहाड़ लेकर आए
और वे अभी
रस्सी पर चले
आ रहे हैं।
रस्सी उलझ गई।
अब वे लटके
हैं। उतर भी
नहीं सकते। वह
जो आदमी रस्सी
चलाने के
चार्ज में था, उसको कुछ
नहीं सूझा कि
अब करना क्या,
अब जनता भी
हंसने लगी और
लोग भी हैरान,
और
रामचंद्रजी
देख रहे हैं
और लक्ष्मणजी
मरे जा रहे
हैं और
हनुमानजी
लटके। न वे
उतरें, न
जड़ी—बूटी आए।
और यह सब
सामने ही हो
रहा है। रस्सी
वाले को कुछ
नहीं सूझा तो
उसने रस्सी
काट दी। तुम
सोच सकते हो, जो होना था
हुआ।
हनुमानजी
धड़ाम से गिरे।
पहाड़ भी उनके
ऊपर गिरा।
रामचंद्रजी, जो सीखे
बैठे थे, उन्होंने
पूछा कि
हनुमानजी, जड़ी—बूटी
ले आए? हनुमानजी
ने कहा: ऐसी की
तैसी जड़ी—बूटी
की! पहले यह
बताओ, रस्सी
किसने काटी?
मगर यह
कभी—कभी होता
है, अन्यथा
तो रामलीला
वही है। फिर
भी लोग
प्रतिवर्ष
देखते हैं। रामलीला
कोई अफसाना
नहीं है—पुराण
है। उसमें कुछ
शाश्वत है।
कथा का ऊपरी जो
आवरण है वही
सब कुछ नहीं—भीतर
आत्मा भी है।
वह कोई फिल्म
नहीं है। फिल्म
में कोई आत्मा
नहीं होती, सिर्फ देह
होती है। एक
बार देख ली, बात खत्म हो
गई। रामलीला
में तो उतना
अर्थ है जितना
तुम खोजो।
कृष्ण की लीला
में तो उतना
अर्थ है जितनी
तुम्हारी समझ
हो। जितनी
तुम्हारी समझ
बढ़ती जाएगी, नये—नये
अर्थ प्रकट
होंगे, नये—नये
फूल, नई—नई
सुगंध
खिलेगी।
पुराण
का अर्थ होता
है—ऐसी कथा, जो शब्दों
में सीमित
नहीं है, शब्दों
में है, लेकिन
वस्तुतः
शब्दों के पार
है।
तुम
कहते हो:
"मंसूर और
सरमद के
अफसाने
पुराने हो गए।'
नहीं
हुए, कभी नहीं
होंगे। नये ही
नहीं थे, पुराने
कैसे होंगे? शाश्वत हैं।
"ऐ
रजनीश, मेरे
लिए किस्सा
नया तजबीज कर।'
यह नये
की आकांक्षा
नरक में
भटकाती है। नये
की आकांक्षा
दुख में ले
जाती है। नये
की आकांक्षा
का नाम ही
संसार है। नया
मिल भी जाएगा
तो कितनी देर
नया रहेगा, यह तो बताओ!
मिला कि
पुराना होना
शुरू हो गया। हाथ
में आया कि
पुराना पड़ने
लगा। आधी घड़ी
बीती तो आधी
घड़ी पुराना हो
गया। और समय
तो बीता जा रहा
है।
तो नये
के साथ कैसे
सुख मिल सकता
है? जब तक नया
मिलता नहीं तब
तक दुख रहता
है कि अभी मिला
नहीं; और
जब मिलता है
तो पुराना
होने लगता है
फिर दुख मिलता
है। न मिले तो
दुख है; मिल
जाए तो दुख
है। नये के
साथ दुख का
जोड़ है।
शाश्वत
को खोजो!
शाश्वत में न
दुख है न सुख।
शाश्वत में
आनंद है।
और यह
नये का जो
कुतूहल बना
रहता है, उसको
समझो। इससे
होगा क्या? यह ऐसे ही है,
जैसे कोई
खुजली उठ आती
है। खुजलाना
अच्छा लगता है,
मगर उससे
कुछ लाभ नहीं
होता, नुकसान
ही होता है।
लहूलुहान हो
जाओगे, फिर
पछताओगे।
नये की
खोज खुजलाहट
जैसी है। यह तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे तो तुम न
नये को खोजोगे
और न फिर कभी
कुछ पुराना
पड़ेगा। तब
तुमने जीवन
में एक नया
आयाम खोज
लिया।
नये
आयाम से मेरा
अर्थ? तुम
समय के बाहर
हो गए।
कालातीत से
संबंध जुड़ा।
वही पुराण है।
ये सब
पुराण—पुरुष
हैं—मंसूर, सरमद, जीसस,
सुकरात। ये
सब पुराण—पुरुष
हैं।
इन्होंने जो
शाश्वत है
उसको ही समय
की धारा में
प्रकट किया
है। क्या है
इनकी सारी
कथाओं का सार?
इतना ही है
कि सत्य जब भी
आएगा, लोग
इतने झूठ हो
गए हैं कि
सत्य को सूली
दी जाएगी।
सत्य जब भी
प्रकट होगा, लोग नाराज
होंगे। लोग
दुश्मन हो
जाएंगे, क्योंकि
लोग झूठ में
जीए हैं, झूठ
में पगे हैं।
झूठ लोगों की
जिंदगी है।
फ्रेड्रिक
नीत्शे ने कहा
है: आदमी बिना
झूठ के नहीं
रह सकता।
फ्रेड्रिक
नीत्शे ने यह
भी कहा है कि
कोई आदमी के
झूठ न छीने।
आदमी झूठ के
बिना जी ही
नहीं सकता।
उसे प्यारे
झूठ दो और वह
मस्त रहेगा और
तुम्हारी
पूजा करेगा।
और तुमने उसके
झूठ तोड़े और
तुमने उसे
कड़वा सत्य
दिया, वह
तुम्हारी
गरदन काटेगा।
जीसस को ऐसे
ही थोड़े काटा।
सरमद को ऐसे
ही थोड़े मारा।
इन्होंने सत्य
कहा; जैसा
था वैसा कह
दिया। जैसा था
वैसा कहोगे, तो हजारों
लोग नाराज हो
जाएंगे, क्योंकि
उनके झूठ
दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे। इस
दुनिया में
कोई अपने झूठ
को नहीं देखना
चाहता।
कल एक
मित्र ने पूछा
था कि दृढ़
निश्चय करके
आया हूं
संन्यास का, मगर यहां
आकर आपके
सत्संग में
बैठ कर तो
संन्यास का
भाव ही चला
गया। तो जब
मैंने कल यह
कहा कि अपने
को धोखा मत दो,
मन बहुत
बेईमान है—तो
उन्होंने आज
लिख कर भेजा
है कि सुनते
वक्त तो ऐसा
लगा कि आप ठीक
कह रहे हैं, कि मन
बेईमान है, यह मन शैतान
है, इसकी
सुनना ठीक
नहीं; फिर
जब यहां से
बाहर चला गया
और धीरे—धीरे
आपका प्रभाव
कम हो गया, तो
मुझे लगा कि
कहीं यह आदमी
धोखेबाज तो
नहीं? फ्राड!
जालसाज तो
नहीं कि ऐसी
बातों में
फंसा कर और
मुझे संन्यास
दिलवा दे!
अब वे
पूछते हैं कि
भगवान, आप
कहिए, मैं
क्या करूं?
अब मैं
तुमसे जो भी
कहूंगा, तुम्हारा
मन फिर उसमें
कुछ सोचेगा।
असल में तुम
यह चाहते हो
कि मैं तुमसे
कह दूं: क्या
रखा है
संन्यास में?
तुम तो
संन्यासी हो
ही। तुम तो
परम संन्यासी
हो। तुम तो
भीतर से
संन्यासी हो
ही गए, बाहर
के कपड़ों में
क्या रखा है? फिर तुम
प्रसन्न हो
जाओगे। तुम
कहोगे: हां, यह
आदमी...सच्चा
भगवान मिल
गया! फिर तुम
मस्त अपने घर
जाओगे, क्योंकि
तुम्हारे मन
की कह दी गई।
तुम्हारे मन की
कह दी जाए तो
तुम राजी हो
जाते हो।
लोग
मेरे पास
पूछने आते हैं
और वे राह
देखते हैं कि
उनकी मन की
मैं कहूं। अगर
उनकी मन की
कहूं तो
बिलकुल ठीक है, एकदम मेरे
चरणों में गिर
जाते हैं कि
आपने बिलकुल
सत्य कह दिया।
और मैं जानता
हूं कि उनके मन
का पड़ रहा है, इसलिए सत्य
है। अगर उनके
मन के अनुकूल
न पड़े तो वे बड़े
उदास हो जाते
हैं, बड़े
नाराज हो जाते
हैं।
तुम
अपने झूठ के
लिए सहारे खोज
रहे हो। तुम
झूठ से छूटना
नहीं चाहते।
झूठ सत्य है—ऐसा
कोई तुम्हें
समझाए, कोई
तुम्हें
बताए। तुम
उससे राजी
होते हो। इसलिए
तो तुम पंडित
पुरोहित के
पास जाते हो, क्योंकि उसे
कोई मतलब नहीं
है सत्य से।
तुम्हारा जो
झूठ है वह उसी
को सत्य
प्रमाणित
करता है। सरमद
को तुम क्षमा
नहीं कर पाते।
मंसूर को तुम
कैसे क्षमा
करोगे? वे
तुम्हारे
झूठों को कोई
सहारा नहीं
देते। वे बड़ी
रोशनी प्रकट
करते हैं कि
तुम सबको अपने
झूठ दिखाई पड़
जाएं। वे
तुम्हारे
चेहरे को झटक
लेते हैं, ताकि
तुम्हारा
मुखौटा उखड़
जाए; तुम्हें
दिखाई पड़ जाए
कि यह
तुम्हारा
चेहरा नहीं।
लेकिन
तुम्हारे
मुखौटे को कोई
बाजार में झपट
ले, बीच
बाजार में
लोगों के
सामने झपट ले,
तुम्हारे
झूठ को झूठ कह
दे और सिद्ध
कर दे कि झूठ
है—तुम कैसे
उसे क्षमा
करोगे?
यह
शाश्वत कथा
है। सत्य
क्षमा नहीं
किया जा सकता
है। सत्य को
सूली दी जाती
है। अलग—अलग
ढंग से, लेकिन
सत्य को सूली
दी जाती है।
लोग झूठे हैं,
भीड़ उनकी
है। वे नाराज
होते हैं। यह
अफसाना नहीं
है। यह कहानी
नहीं है। यह
जीवन की
प्रक्रिया
है। और जब भी
सत्य आएगा, लोग नाराज
होंगे। अनेक—अनेक
तलों से
नाराजगियां
जाहिर
करेंगे। मूढ़ हैं।
झूठ से भरे
हैं। लेकिन, यह बात
स्वीकार नहीं
कर सकते हैं।
स्वीकार ही कर
लें तो झूठ के
बाहर आने
लगें।
स्वीकार कर लें
तो मूढ़ता के
बाहर आने
लगें। यह
स्वीकार नहीं
कर सकते। और
जो भी जगाएगा
उस पर नाराज
हो जाते हैं।
ऐसा
पहले भी हुआ, आज भी हो रहा
है, कल भी
होता रहेगा।
ऐसा सौभाग्य
का दिन कभी न आएगा
लगता है जब
सत्य को सूली
न लगे, जब
सत्य का
तिरस्कार न हो,
जब सत्य को
जहर न पिलाया
जाए। ऐसी आशा
नहीं लगती कि
कभी ऐसा होगा।
इसलिए नहीं
होगा कि यह जो
भीड़ है, यह
सत्य के साथ
जी ही नहीं
सकती।
तुम
अपने झूठ
पहचानना शुरू
करो। कितने
तरह के झूठ
तुमने बोल रखे
हैं! कितने
तरह के झूठ
तुमने सम्हाल
रखे हैं! उन
झूठों में
तुमने
सुरक्षा बना
ली है। तुम
कहते हो: यह
मेरी पत्नी है, यह मेरा पति
है। तुम
बिलकुल अकेले
हो; न कोई
पत्नी है, न
कोई पति है।
लेकिन
अकेलेपन से
डरते हो, तो
तुमने संबंध
बना लिए हैं।
फिर संबंधों
को ठीक से
बिठा लेने के
लिए बड़े रीति—रिवाज
बना लिए हैं।
सात फेरे
लगाते हो, मंत्र
पढ़े जाते हैं।
पंडित—पुरोहित
शास्त्रों से
वचन उदधृत
करते हैं।
बैंड—बाजे
बजाए जाते हैं,
भीड़—भाड़
इकट्ठी की
जाती है। यह
सब सिर्फ एक
बात को तुम्हारे
मन पर ठीक से
खींच देने के
लिए कि यह संबंध
बिलकुल पक्का
हो गया। सिर्फ
इस बात के लिए
कि यह संबंध
बिलकुल पक्का
हो गया, अब
तुम अकेले
नहीं हो; कोई
तुम्हारा
संगी—साथी है,
जीवन—मरण का
साथी है।
कौन
किसके जीवन—मरण
का साथी! न तो
जीवन का कोई
साथी है, न
मरण का कोई
साथी है। धोखे—धड़ी
में साथ है।
पत्नी अकेली
है; वह भी
चाहती है
अकेले होने
में डर लगता
है, अकेले
में घबड़ाहट
होती है, कोई
साथ चाहिए, तो हाथ पकड़े
है। तुम भी
अकेले हो। तुम
लाख कहो कि
तुम मर्द
बच्चे हो, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। अकेले
हो। और तुम भी
डर रहे हो।
पत्नी मौजूद
रहती है तो
तुम भी अकड़े
रहते हो।
किसी
पति से झगड़ा
मत लेना, अगर
उसकी पत्नी
मौजूद हो; क्योंकि
पत्नी की
मौजूदगी में
वह एकदम बहादुर
हो जाता है।
पत्नी को
दिखाना पड़ता
है न उसको कि
बहादुर! अगर
पत्नी न हो तो
वह अपनी पूंछ
दबा कर निकल
जाए, लेकिन
पत्नी के
सामने अगर
तुमने छेड़
दिया तो वह
बिलकुल पागल
हो जाएगा।
सिद्ध करना है
पत्नी के
सामने, क्योंकि
यह पत्नी यही
तो भरोसा माने
बैठी है कि एक
बलशाली
व्यक्ति का
सहारा मिल गया;
एक बड़े
वृक्ष के साथ
मेरी लता का
जोड़ हो गया है!
पत्नी के
सामने दब्बू
से दब्बू पति
भी एकदम
बहादुर हो
जाता है।
पत्नी
धोखा खा रही
है। पति धोखा
खा रहा है। दोनों
धोखा खाना
चाहते हैं, इसलिए खा
रहे हैं।
दोनों अकेले
हैं। और जब दो अकेलेपन
मिलते हैं तो
अकेलापन
दोहरा हो जाता
है कम नहीं
होता, खयाल
रखना। कैसे कम
हो जाएगा? कुछ
गणित तो सोचो!
दो बीमार आदमी
एक कमरे में हैं
तो बीमारियां
दुगनी हो जाती
हैं; कम
नहीं होती। दो
उदास आदमी एक
साथ जोड़ दो तो
उदासी दोहरी
हो जाती है।
दो चिंतातुर
आदमी जोड़ दो, दोहरी चिंता
हो जाती है।
दो पागलों को
साथ बिठा दो, पागलपन हजार
गुना हो जाता
है, दुगना
ही नहीं।
गुणनफल होता
है।
लेकिन
हम अपने को
मनाए रखते हैं
कि सब ठीक है। कुछ
भी ठीक नहीं!
तुम किसी से
पूछते हो: कहो
भाई, सब कैसा
चल रहा है; वह
कह रहा है: सब
ठीक है। जरा
पूछो भी फिर
से कि सच कह
रहे, सब
ठीक है? लेकिन
हम ऐसा कहते
नहीं, क्योंकि
वह अशिष्ट
होगा। क्यों
बेचारे का राग
छेड़ना, क्यों
किसी का दुख, क्यों किसी
की रग छेड़नी!
क्यों किसी का
घाव छेड़ना!
तुम भी कहते
हो, हम भी
मजे में, तुम
भी मजे में।
कोई भी
मजे में नहीं
है। चेहरे
हैं! बना कर
घूम रहे हैं।
इन्हीं
चेहरों को झपट
लेता है कोई
मंसूर। और कह
देता है और
तुम झूठ हो; जरा भी ठीक
नहीं हो! और
तुम्हारी
जिंदगी बिलकुल
नरक है। सुख
तुमने जाना
नहीं है, सिर्फ
वहम में हो।
दुख ही दुख
जाना है।
कोई
मंसूर एकदम
खोल कर रख
देता है
तुम्हारे हृदय
के नासूर।
कहता है: जरा
यहां तो देखो, यह हो तुम!
तुम
नाराज न होओ
तो क्या करो? तुम कैसे
बरदाश्त करो
अपनी यह पीड़ा?
तुम किसी
तरह भुलाए
बैठे थे, अपने
घाव को छिपा
लिया था, मलहम—पट्टी
कर ली थी, ऊपर
से फूल का
गजरा रख दिया
था। सब ठीक
मालूम हो रहा
था। फूल की
गंध आ रही थी।
यह आदमी आया, इसने फूल का
गजरा हटा दिया,
मलहम—पट्टी
उखेड़ दी, भीतर
की मवाद बहने
लगी। दुर्गंध
आने लगी। तुम नाराज
होओ, यह भी
स्वाभाविक
है।
धन्यभागी
हैं वे, जो
उनके मुखौटे
छीने जाने पर
नाराज नहीं
होते, बल्कि
अनुग्रह
मानते हैं।
बुद्धिमान
हैं वे जो
नाराज नहीं
होते, अनुग्रह
मानते हैं।
क्योंकि एक
दफा मुखौटा
छिन जाए, तो
असली चेहरे की
खोज शुरू हो
सकती है। और
एक बार झूठ से
नाता टूट जाए,
तो सत्य से
नाता जुड़ सकता
है। सत्य से
नाता जुड़ ही
नहीं सकता जब
तक झूठ से
नाता जुड़ा हुआ
है। सांत्वनाओं
से नहीं होगा
कुछ—सत्य
चाहिए। झूठी
आशाओं से नहीं
होगा कुछ, सत्य
का सीधा अनुभव
चाहिए।
ऐसा
पहले हुआ, ऐसा आगे भी
होता रहेगा।
नया इस पृथ्वी
पर कुछ भी
नहीं होता।
पुराना भी इस
पृथ्वी पर कुछ
नहीं है। सब
शाश्वत है।
वही खेल चल
रहा है। ज्ञानी—अज्ञानी
के बीच वही
संघर्ष। कुछ
बदलाहट नहीं मालूम
पड़ती। पुराने
से पुराने
शास्त्र जो कहते
हैं, वैसा
का वैसा आज है,
कोई फर्क
नहीं पड़ा है।
छह
हजार वर्ष
पुरानी
मनुष्य की खाल
पर लिखी गई एक
सूचना चीन में
मिली है। जो
लिखा है, वह
ऐसा है, जो
आज भी सच है।
लिखा है कि
बेटे बाप का
आदर नहीं करते
हैं। धर्म
विनष्ट हो गया
है। नीति नष्ट
हो गई है।
महाअंधकार का
युग आ गया है।
छह हजार साल
पहले! और यही
तो तुम अब भी कहते
हो। यही तुम
सदा कहते रहे
हो। कुछ फर्क
नहीं हुआ है।
जो पहले था, वैसा ही आज
है। जैसा आज
है, वैसा
ही आगे भी
होगा।
लेकिन
एक शाश्वत खेल
चल रहा है।
ज्ञानी आते हैं, चमत्कार है।
इतने
महाअज्ञान
में भी कभी—कभी
कोई ज्ञानी
पैदा हो जाता
है। इतने
मरुस्थल में
कभी—कभी कोई
मरूद्यान, कहीं
कोई जल का
झरना प्रकट हो
जाता है। थोड़ी
हरियाली हो
जाती है, थोड़े
फूल खिलते हैं,
वृक्ष होते
हैं, थोड़ी
शीतल बयार
बहती है, थोड़ा
वसंत आता है।
लेकिन पूरा
मरुस्थल
नाराज हो जाता
है। क्योंकि
जब तक मरूद्यान
नहीं होता, मरुस्थल को
यह पता नहीं
होता कि मैं
मरुस्थल हूं।
मरूद्यान को
देख कर तुलना
पैदा होती है।
जीसस
तुम्हारे पास
में खड़े हो
जाते हैं, तब तुम्हें
पता चलता है
तुम
महाअंधकार
हो। वह जो
ज्योतिर्मय
पुरुष पास में
खड़ा है, उसकी
ज्योति
तुम्हारे
अंधकार को दिखाती
है। जो
बुद्धिहीन
हैं, वे उस
ज्योति को
बुझाने में लग
जाते हैं ताकि
उनको अपना
अंधकार न
दिखाई पड़े। जो
बुद्धिमान हैं,
वे अपने
अंधकार को
मिटाने में लग
जाते हैं। वे
उस ज्योति से
ज्योति लेने
लगते हैं।
अंधकार मिट
जाए तो फिर
दिखाई नहीं
पड़ेगा। दोनों
का लक्ष्य एक
ही है। समझना!
वह जो
आदमी जीसस का
दीया बुझाना
चाहता है, उसका भी
लक्ष्य यही है
कि मुझे मेरा
अंधकार न दिखाई
पड़े। मगर वह
गलत काम कर
रहा है। जीसस
का दीया बुझ
जाएगा, इससे
उसका अंधकार
नहीं मिटेगा,
बल्कि
अंधकार और सघन
हो जाएगा।
शायद जीसस की
कुछ किरणें
उसके अंधकार
को कम भी करती
थीं। शायद
जीसस की लपट
से वह लपट
उधार भी ले
सकता था। अपने
दीये को पास
ले जाता। जीसस
का सत्संग
करता। साध—संगत
में बैठता। तो
शायद घटना घट
जाती। अंधकार
सच में ही मिट
जाता। मगर
आकांक्षा
उसकी समझो।
आकांक्षा
उसकी है कि वह
नहीं चाहता कि
मैं अंधकारपूर्ण।
मगर काम गलत
कर रहा है।
जो
आदमी जीसस को
प्रेम करने
लगता है, वह
भी यही चाहता
है कि मैं
अंधकारपूर्ण
न रहूं, लेकिन
वह ठीक मार्ग
पर चल रहा है।
वह जीसस को नहीं
मिटाता; वह
अपने को
मिटाता है, ताकि जीसस
के लिए जगह
खाली हो जाए।
देखना, दोनों
की आकांक्षा
एक जैसी है।
तुमने
प्रसिद्ध
कहानी सुनी है
न कि अकबर एक
दिन दरबार में
आया और उसने
एक लकीर खींच
दी दीवाल पर
और अपने
दरबारियों से
कहा: इस लकीर
को बिना छुए
छोटा कर दो।
अब बिना छुए
कैसे लकीर
छोटी हो? वे
दरबारी
चिंतित हुए।
उन्होंने कहा:
यह तो बेबूझ
पहेली है।
छूना तो पड़ेगा
ही। छोटा
करेंगे तो
छूना पड़ेगा।
मिटानी पड़ेगी
लकीर, थोड़ी
कम करनी पड़ेगी,
काटनी
पड़ेगी, तो
छोटी होगी।
फिर बीरबल उठा
और उसने एक
बड़ी लकीर उसके
नीचे खींच दी।
उसने उस लकीर
को छुआ नहीं, सिर्फ उसके
नीचे एक बड़ी
लकीर खींच दी।
वह लकीर छोटी
हो गई।
तुम
जानते हो, यही नाराजगी
है। मंसूर
तुम्हारे पास
खड़ा होता है—बड़ी
लकीर! तुम
एकदम छोटे हो
जाते हो। तुम
छोटे नहीं
होना चाहते।
तुम्हें
अपमान लगता
है: इस आदमी ने
छोटा कर दिया!
तुम इस लकीर
को मिटा देते हो।
इस लकीर के
मिटने से
तुम्हारा दंश
मिट जाता है।
तुम फिर वैसे
के वैसे हो गए,
जैसे थे, कुछ बदलाहट
न हुई। अवसर
चूक गए। एक
महा अवसर चूक
गए—क्रांति का,
रूपांतरण
का। जो समझदार
है, वह इस
बड़ी लकीर से
बड़ी लकीर होने
की कला सीख लेता
है। वह कहता
है: ठीक, मैं
छोटी लकीर हूं,
लकीर तो हूं
न! तुम बड़ी
लकीर हो—लकीर
ही हो न! हम
दोनों लकीर
हैं—मैं छोटी,
तुम बड़ी। तो
छोटी लकीर बड़ी
हो सकती है।
नाराज क्या
होना! तुम
अच्छे आए!
तुमने मुझे
याद दिलाई कि
मेरी लकीर बड़ी
हो सकती है।
तुम्हारा मैं अनुग्रह
मानता हूं। जो
ऐसे
बुद्धिमान
हैं, वे
शिष्य हो जाते
हैं। जो
बुद्धू हैं, वे दुश्मन
हो जाते हैं।
बुद्धू बहुत
हैं।
बुद्धिमान
बहुत कम हैं।
इसलिए यह
कहानी पहले भी
हुई, अब भी
हो रही है, आगे
भी होगी।
तीसरा
प्रश्न: सुना
है कि जिंदगी
चार दिनों की
होती है और
मिलन पांचवें
दिन होता है।
तो क्या करूं?
पांचवां
दिन चार दिनों
के पहले है।
पांचवां दिन चार
दिनों में
किसी भी दिन आ सकता
है। दूसरे दिन
आ सकता है, तीसरे दिन आ
सकता है, चौथे
दिन आ सकता है,
पहले दिन आ
सकता है।
पांचवां
दिन का अर्थ
होता है:
परमात्मा से
मिलन मृत्यु
में होता है, जिंदगी चार
दिन की है।
चार दिनों में
नहीं होता
परमात्मा से
मिलन, क्योंकि
जिंदगी
तुम्हारी है—अहंकार
की है। मिलन
होता है
मृत्यु में।
जो मिटता है, उसका मिलन
होता है। वह
पांचवां दिन
है। वह जिंदगी
के बाहर।
मरना
सीखो। मरने की
कला ही धर्म
है। ऐसे मरने की
कला कि फिर
दुबारा पैदा
भी नहीं होना
पड़े। ऐसे मरने
की कला कि मरे
सो बिलकुल मरे—सदा
के लिए मरे।
है बका
का ख्वाहां तो
तालिबे फना हो
जा
असली
जिंदगी चाहते
हो तो फना हो
जाओ। अस्तित्व
चाहते हो—वास्तविक
अस्तित्व—तो
मिट जाओ।
है
बका का
ख्वाहां तो
तालिबे फना हो
जा
जिंदगी
के मुतलाशी
मर्गे आशना हो
जा
जीस्त
के समझ मानी
राज मौत का पा
ले
मर
के बेनिशां हो
जा, जी के
लापता हो जा।
अगर
जिंदगी का राज
समझना हो तो
मौत का राज
समझ लो। मौत
में कुंजी रखी
है जिंदगी की।
तुम जिंदगी
में तलाशते
रहते हो, इसलिए
राज नहीं
मिलता। राज
उन्हें मिलता
है, जो
मृत्यु में
तलाश लेते
हैं।
तुमने
कहानियां
सुनी हैं न
पुरानी!
बच्चों की कहानियों
में अब भी ऐसा
आता है कि कोई
राजा है, उसने
अपने को बचाने
के लिए अपनी
जिंदगी एक तोते
में रख दी है, अपनी आत्मा
एक तोते में
रख दी है। अब
तुम राजा को
कितना ही मारो,
मार न पाओगे,
क्योंकि
उसकी जिंदगी
तोते में है।
तोते को मरोड़
दो, तोते
की गरदन मरोड़
दो, राजा
मर जाएगा।
ये कहानियां
बड़ी
अर्थपूर्ण
हैं। ये
बच्चों की कहानियां
हैं, बूढ़े भी
इनको समझते
नहीं। इसका
मतलब यह हुआ
कि जहां
तुम्हें
जिंदगी दिखाई
पड़ती है, वहां
जिंदगी नहीं
है—जिंदगी का
राज कहीं और
छिपा है। तुम
सोच भी नहीं
सकते, वहां
छिपा है।
छिपती ही
चीजें ऐसी जगह
हैं, जहां
तुम सोच न
सको। इसलिए जो
होशियार हैं,
वे चीजें
ऐसी जगह
छिपाते हैं
जहां सोची न
जा सके।
जैसे
समझो, तुम्हारे
पास हीरा है
और तुम्हारे
घर में जो कूड़ा—कर्कट
हैं, उसमें
तुम छिपा दो, कोई चोर उसे
न चुरा सकेगा।
कूड़ा—कर्कट
में कोई हीरा
छिपाता है!
खोजेगा
तिजोड़ी में, खोजेगा जहां
बड़े ताले लटके
होंगे।
खोदेगा जमीन,
वहां
खोजेगा। कोई
सोच भी नहीं
सकता कि हीरा
जो है, वह
बाहर जो
बाल्टी रखी है,
जिसमें घर
का कूड़ा—कर्कट
फेंका जाता है,
उसमें छिपा
होगा।
जिंदगी
का राज मौत
में छिपा है, कोई सोच भी
नहीं सकता।
मौत तो जिंदगी
से उलटी है!
जिंदगी का राज
वहां क्यों
होगा?
जीस्त
के समझ मानी
राज मौत का पा
ले
मर
के बेनिशां हो
जा, जी के
लापता हो जा।
इस ढंग
से जीओ कि
तुम्हारा पता
खो जाए। इस
ढंग से मरो कि
तुम्हारा
निशान भी न रह
जाए।
है
बका का
ख्वाहां तो
तालिबे फना हो
जा
जिंदगी
के मुतलाशी
मर्गे आशना हो
जा
जीस्त
के समझ मानी
राज मौत का पा
ले
मर
के बेनिशां हो
जा, जी के
लापता हो जा
वस्ले
दोस्त के तालब
वस्ले दोस्त
की खातिर
आरजू
हो सरतापा
सरबसर दुआ हो
जा
ख्वाहिशों
से दुनिया की
दिल को अपने
कर खाली
होके
उसका ही रह जा
उसकी ही रजा
हो जा
दिल
में हो खयाल
उसका आंख में
हो जमाल उसका
गैर
के तसव्वर से
गैर आशना हो
जा
शम्मे
हुस्न से इसकी
नूरे सिदक कर
हासिल
शीशाए
मोहब्बत में
जल्वाए सफा हो
जा
गैर
और अपने का
खुद ब खुद
मिटेगा फरक
या
मिटा दे अपना
आप या खुद
आशना हो जा
हर
किसी से उल्फत
कर, हर किसी
की खिदमत कर
खादिमे
बशर बन कर
बंदए खुदा हो
जा।
एक ही
उपाय है:
पांचवां दिन।
चार दिन
जिंदगी के। ये
जिंदगी के चार
दिन ऐसे ही
बीत जाते हैं—दो
आरजू में, दो इंतजार
में। दो
मांगने में, दो
प्रतीक्षा
करने में। कुछ
हाथ कभी लगता
नहीं।
पांचवां दिन
असली दिन है।
जब भी तुम्हें
समझ आ गई इस
बात की, कि
मेरा होना ही
मेरे होने में
अड़चन
है...क्योंकि
मेरे होने का
मतलब है कि
मैं परमात्मा
से अलग हूं।
मेरे होने का
मतलब है कि
मैं इस विराट से
अलग हूं। मेरे
होने का मतलब
है कि मैं एक
नहीं, संयुक्त
नहीं, इस
परिपूर्ण के
साथ एकरस
नहीं। यही तो
अड़चन है। यही
दुख है। यही
नरक है। दीवाल
हट जाए। यह
मेरे होने का
भाव खो जाए।
मृत्यु।
मृत्यु
का अर्थ यह
नहीं कि तुम
जाकर गरदन काट
लो अपनी।
मृत्यु का यह
अर्थ नहीं कि
जाकर जहर पी
लो। मृत्यु का
अर्थ है:
अहंकार काट दो
अपना। मैं हूं
तुझसे अलग, यह बात भूल
जाए। मैं हूं
तुझमें। मैं
हूं ऐसे ही
तुझमें जैसे
लहर सागर में।
लहर सागर से
अलग नहीं हो
सकती। कितनी
ही छलांग ले
और कितनी ही
ऊंची उठे, जहाजों
को डुबाने
वाली हो जाए।
पहाड़ों को डूबा
दे—लेकिन लहर
सागर से अलग
नहीं हो सकती।
लहर सागर में
है, सागर
की है।
ऐसे ही
तुम हो—विराट
चैतन्य के
सागर की एक
छोटी सी लहर।
एक ऊर्मि! एक
किरण! अपने को
अलग मानते हो, वहीं अड़चन
शुरू हो जाती
है। वहीं से
परमात्मा और
तुम्हारे बीच
संघर्ष शुरू
हो जाता है।
और
उससे लड़ कर
क्या तुम
जीतोगे? कैसे
जीतोगे? क्षुद्र
विराट से कैसे
जीतेगा? अंश
अंशी से कैसे
जीतेगा? लहर
सागर से लड़ कर
कैसे जीतेगी?
कितनी ही
बड़ी हो, सागर
के समक्ष तो
बड़ी छोटी है।
यह भाव
तुम्हारा चला
जाए, उसका
नाम मृत्यु।
मैं सागर की
लहर हूं। सागर
मुझमें, मैं
सागर में।
मेरा अलग—थलग
होना नहीं है।
और उसी
क्षण तुम
पाओगे
पांचवां दिन
घट गया। फिर
भी तुम जी
सकते हो। बुद्ध
का पांचवां
दिन घटा, फिर
चालीस साल और
जीए। मगर वह
जिंदगी फिर और
थी। कुछ गुण
धर्म और था उस
जिंदगी का। उस
जिंदगी का रस
और था, उत्सव
और था। फिर सच
में जीए। उसके
पहले जिंदगी
क्या जिंदगी
थी?
बुद्ध
अपने शिष्यों
को कहते थे:
तुम अपनी जिंदगी
उसी दिन से
गिनना, जिस
दिन से
संन्यास लो; उसके पहले
की जिंदगी
गिनती मत
करना। तो कभी—कभी
बड़ी अनूठी
घटना घटती थी।
उस समय
का एक बड़ा
सम्राट
प्रसेनजित
बुद्ध के दर्शन
को आया। वह
पास ही बैठा
था। तभी एक
भिक्षु आया, जिसकी उम्र
होगी कोई
पचहत्तर
वर्ष। बूढ़ा
आदमी। उसने
झुक कर बुद्ध
को नमस्कार
किया।
बुद्ध
ने पूछा:
भिक्षु...! वे
अक्सर पूछते
थे—अक्सर क्या, निरंतर ही, जो आता उसी
से पूछते थे:
भिक्षु, तेरी
उम्र कितनी है?
उस बूढ़े
भिक्षु ने
कहा: चार वर्ष,
प्रभु!
प्रसेनजित
तो बड़ा हैरान
हुआ। उसने
कहा: हद हो गई!
चार वर्ष! दो—चार
वर्ष कम—ज्यादा
कहे तो समझ
में आ जाए, पचहत्तर का
दिखता है, सत्तर
का होगा, पैंसठ
का होगा कि
अस्सी का होगा;
मगर
पचहत्तर साल
का दिखने वाला
आदमी चार साल
का! सोचा कि
शायद ठीक से
सुन नहीं
पाया। तो प्रसेनजित
ने कहा कि
महानुभाव, मैं
ठीक से सुन
नहीं पाया
आपने क्या
उत्तर दिया।
जरा जोर से कहें।
कितनी उम्र
आपकी?
उस
बूढ़े ने कहा:
महाराज, चार
वर्ष।
प्रसेनजित ने
बुद्ध की तरफ
देखा। बुद्ध
हंसने लगे।
उन्होंने कहा:
तुम्हें शायद पता
नहीं, हम
किस तरह उम्र
गिनते हैं। यह
आदमी चार साल
पहले
संन्यस्त हुआ,
तो यही इसकी
उम्र है, बाकी
इकहत्तर साल
तो नींद में गए।
सोया—सोया था!
ध्यान की भनक
ही न पड़ी थी।
उस नींद को क्या
गिनना! रात को
क्या गिनना!
अंधेरे को
क्या गिनना!
वह गिनती
फिजूल है।
इसलिए हम उस
दिन से गिनते
हैं जिस दिन
से व्यक्ति
ध्यान में
उतरा। जिस दिन
से व्यक्ति
श्रोतापन्न
हुआ, जिस
दिन से उसने
सत्य को खोजने
की तलाश में
पहला कदम
उठाया—उस दिन
से उम्र गिनते
हैं।
बुद्ध
का पांचवां
दिन चालीस साल
के थे तब आया।
फिर चालीस साल
और जीए; मगर
ये जो चालीस
साल थे, किसी
और ही महिमा
के! इनकी
गरिमा और! यह
परमात्ममय, यह
भगवत्तापूर्ण!
इनमें
क्षुद्रता न
रही फिर, सीमा
न रही फिर। चालीस
साल तक लहर की
तरह जीए, फिर
पांचवां दिन आ
गया। और फिर
शेष चालीस साल
सागर की तरह
जीए।
पांचवां
दिन आने दो!
पांचवां दिन
बड़े से बड़ा सौभाग्य
है!
अंतिम
प्रश्न:
परमात्मा
कहां है और
मैं उसे कहां
खोजूं?
परमात्मा
कहां नहीं है? तुम कहां हो,
जो उसे
खोजोगे? ठीक
प्रश्न यह
होगा। तुमने
एक बात तो मान
ही ली कि मैं
हूं, वहीं
भूल हो रही
है। उसी भूल
के कारण दूसरी
भूल हो रही है
कि परमात्मा
कहां है। जब
तुम हो तो परमात्मा
नहीं हो सकता।
तुमने
कभी बच्चों की
किताब में एक
चित्र देखा? एक जवान
स्त्री का
चित्र होता
है। गौर से
देखते रहो तो
थोड़ी देर में
वह बूढ़ी का
चित्र हो जाता
है। फिर गौर
से देखते रहो
तो फिर जवान
स्त्री का
चित्र हो जाता
है। तुमने कभी
विचार किया उस
चित्र पर? वे
ही रेखाएं, जो जवान
स्त्री का
चेहरा बनाती
हैं, वे ही
रेखाएं थोड़ा
घूम—फिर कर
बूढ़ी स्त्री
का चेहरा
बनाती हैं।
दोनों एक—दूसरे
में छिपे हैं।
जब तुमने पहली
दफा देखा, हो
सकता है बूढ़ी
दिखाई पड़ी। जब
तक तुम्हें
बूढ़ी दिखाई
पड़ती रहेगी, तब तक जवान
नहीं दिखाई
पड़ेगी, खयाल
रखना। अगर तुम
देखते रहे, देखते रहे, तो आंखें
ज्यादा देर
किसी एक चीज
पर थिर नहीं रह
सकतीं। आंखों
का स्वभाव
चंचल है। तो
जब तक तुम
बूढ़ी को देखते
रहे, देखते
रहे, देखते
रहे, थोड़ी
देर में आंखें
ऊब जाती हैं, अब बूढ़ी को
नहीं देखना
चाहतीं, अब
नये की तलाश
शुरू होती है।
आंखें चंचल
हैं। उस नई
तलाश में
अचानक तुम
पाते हो: अरे, ये रेखाएं
तो एक जवान
चेहरा बना रही
हैं! फिर जवान
स्त्री दिखाई
पड़ने लगी। जब
तुम्हें जवान स्त्री
दिखाई पड़ने
लगेगी तब तुम
यह मत सोचना कि
तुम्हें बूढ़ी
दिखाई पड़ती
रहेगी। दो में
से कोई एक ही
दिखाई पड़ सकता
है। हालांकि
तुमने बूढ़ी भी
देखी है। ऐसा
भी नहीं कि
तुमने न देखी
हो।
पहली
दफा जब देखा
था, तब तक
तुम्हें पता
नहीं था कि दो
छिपे हैं। अब
तो तुम्हें पता
है। तुमने
बूढ़ी भी देख
ली। तुमने
जवान भी देख
ली। अब तुम
दोनों को एक
साथ देखने की
कोशिश करना और
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
उस छोटे से चित्र
में तुम दोनों
को एक साथ कभी
न देख पाओगे।
एक ही देखा जा
सकता है।
क्योंकि वे ही
रेखाएं जो
जवान को बनाती
हैं, वे ही
रेखाएं बूढ़ी
को बनाती हैं।
अगर उन रेखाओं
की एक
व्याख्या
दिखाई पड़ रही
है—जवान—तो
दूसरी
व्याख्या
कैसे दिखाई
पड़ेगी? दूसरी
व्याख्या
दिखाई पड़ी कि
पहली
व्याख्या खो
जाएगी।
और ऐसी
ही दशा है इस
अस्तित्व की।
जब तक तुम हो, परमात्मा
नहीं। जब
परमात्मा है,
तुम नहीं।
दोनों एक साथ
न कभी दिखाई
पड़े हैं, न
दिखाई पड़ सकते
हैं।
तुम
पूछते हो:
"परमात्मा
कहां है?'
यह
प्रश्न इसलिए
उठ रहा है कि
तुमने मान
लिया है कि
मैं हूं।
तुमने एक
गेस्टाल्ट, एक व्याख्या
स्वीकार कर ली
है कि मैं
हूं। बस परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ेगा।
परमात्मा भी
यहीं छिपा है—इन्हीं
वृक्षों की
रेखाओं में; इन्हीं
मनुष्यों की
रेखाओं में; इन्हीं
स्त्री—पुरुषों
में; इन्हीं
पहाड़—नदियों
में; इन्हीं
आकाश, चांदत्तारों
में! परमात्मा
भी यहीं छिपा
है, लेकिन
तुमने अहंकार
को खोज लिया
है। यह अहंकार
भी यहां है।
बस, परमात्मा
दिखाई पड़ना
बंद हो गया।
अब तुम इस अहंकार
को लेकर खोजते
रहो, खोजते
रहो, परमात्मा
को कभी न पा
सकोगे। उसे
पाओगे तभी जब
यह अहंकार
तुम्हारे हाथ
से छिटक
जाएगा। एक क्षण
को भी भूल
जाओगे इसे, उसी क्षण
तुम पाओगे
परमात्मा है।
तब
दूसरा प्रश्न
उठेगा कि
परमात्मा तो
है, मैं कहां!
कबीर
ने कहा है:
हेरत हेरत हे
सखी, रह्या
कबीर हेराई।
खोजते—खोजते
परमात्मा को
एक दिन ऐसी
घड़ी आई कि
कबीर खो गया।
और जहां कबीर
खो जाता है, वहीं
परमात्मा
प्रकट होते
हैं।
बुंद
समानी समुंद
में, सो कत
हेरी जाई।
हेरत
हेरत हे सखी, रह्या कबीर
हेराई।
इसी
अनुभव के बाद
कबीर ने कहा
है: प्रेम गली
अति सांकरी, ता में दो न
समाएं। एक ही
समाता है।
अब तुम
पूछते हो:
"परमात्मा
कहां है?'
मैं
तुमसे पूछता
हूं: परमात्मा
कहां नहीं है? मैं तुमसे
यह पूछना
चाहता हूं:
तुम कहां हो? उसी खोज में
लगो।
रमण
महर्षि कहते
थे: एक ही पूछो
प्रश्न, मैं
कौन हूं? बस
इसी को खोजते
चले जाओ। अनेक
लोग जो रमण को
मानते हैं वे
सोचते हैं यह
प्रश्न पूछने
से कि मैं कौन
हूं, एक
दिन पता चल
जाएगा कि मैं
कौन हूं।
उन्हें पता ही
नहीं कि रमण
का मतलब क्या
है। "मैं कौन हूं?'—पूछते—पूछते—पूछते,
खोदते—खोदते
एक दिन
तुम्हें पता
चलेगा: मैं
हूं ही नहीं।
और जिस क्षण
तुम्हें पता
चलेगा मैं हूं
ही नहीं, उसी
क्षण पता चल
जाएगा कि
परमात्मा
कहां है, परमात्मा
क्या है?
छीलते
जाओ अपने
अहंकार की
प्याज को। एक
पर्त, नई
पर्त आ जाती
है; दूसरी
पर्त निकाली,
फिर एक
तीसरी पर्त आ
गई। छीलते जाओ
अहंकार की प्याज
को। एक दिन
शून्य हाथ में
रह जाएगा। ऐसे
ही पूछते जाओ
मैं कौन हूं।
शरीर? शरीर
तो मैं नहीं
हो सकता।
क्योंकि शरीर
में पीड़ा होती
है, मुझे
पता चलती है।
शरीर कभी जवान
होता है, कभी
बूढ़ा होता है;
मैं न तो
कभी जवान होता
न बूढ़ा होता।
मैं शरीर में
भीतर छिपा हूं,
शरीर नहीं
हूं।
एक
प्याज की पर्त
छिल गई। पूछो:
मैं मन हूं? विचार हूं? कैसे हो
सकता हूं मैं
विचार? क्योंकि
विचार मेरे
सामने घूमते
हैं।
तुम
फिल्म देखते
हो जाकर, तुम
फिल्म तो नहीं
हो सकते, क्योंकि
फिल्म
तुम्हारी आंख
के सामने चलती
है पर्दे पर।
तुम दर्शक हो,
द्रष्टा
हो। और मन के
पर्दे पर
फिल्म चलती है
विचार की—अनंत—अनंत
विचार चलते
हैं। मैं
विचार नहीं हो
सकता।
दूसरी
पर्त निकल गई।
मैं भाव हूं? हृदय हूं? भावना हूं? नहीं हो
सकता। जब
क्रोध उठता है,
तब तुम
जानते, क्रोध
उठ रहा है। जब
प्रेम उठता है,
तब तुम
जानते, प्रेम
उठता है। तुम
देखने वाले
हो। तुम ज्ञाता
हो, साक्षी
हो। यह भी मैं
नहीं हूं।
ऐसे
पर्त—दर—पर्त
प्याज के
छिलके निकलते
चले जाते हैं।
एक दिन अचानक
तुम पाते हो
सारी पर्तें
निकल गईं, हाथ में
शून्य रह गया:
मैं हूं ही
नहीं। जिस दिन
यह घटता है कि
मैं हूं ही
नहीं, मैं
शून्य हूं।
इसको बुद्ध ने
कहा: अनत्ता, अनात्मा, मैं हूं ही
नहीं। जिस
क्षण यह घटा, उसी क्षण
चित्र बदल
जाता है, गेस्टाल्ट
बदल जाता है।
अचानक दिखाई
पड़ता है: सब
तरफ परमात्मा
है! कण—कण में
परमात्मा है!
क्षण—क्षण में
परमात्मा है!
लेकिन
तुम्हारा
प्रश्न भी मैं
टालना नहीं चाहता।
तुम्हारा
प्रश्न भी
सार्थक है—तुम्हारी
दृष्टि से।
मैं चाहूंगा
कि तुम यह पूछो
कि परमात्मा
कहां नहीं है।
लेकिन तुम कैसे
पूछ सकते हो? वह मेरा
प्रश्न है।
मैं चाहूंगा
कि तुम पूछो कि
मैं कहां हूं?
मैं कौन हूं?
लेकिन वह
तुम अभी नहीं
पूछ सकते। अभी
हिम्मत नहीं
इतनी पूछने की
कि मैं कौन
हूं। क्योंकि
डर लगता है
कहीं ऐसा न हो
कि मैं हूं ही
न! ऐसा न हो कि
मैं होऊं ही न!
ऐसा डर लगता
है, तो ऐसा
खतरनाक
प्रश्न पूछना
ठीक नहीं।
तुमने
कभी देखा
प्रयोग करके? यहां हम
प्रयोग करते
हैं बहुत तरह
के। उनमें एक
प्रयोग यही है।
अठारह घंटे का
एक प्रयोग है—सतत
यही पूछने का
कि मैं कौन
हूं। अठारह
घंटे तक और
कुछ नहीं
पूछना, एक
ही बात पूछनी
है कि मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? थोड़ी
ही देर में
मस्तिष्क
पगलाने लगता
है, घबड़ाने
लगता है, बेचैन
होने लगता है,
पसीना—पसीना
होने लगता है।
अठारह घंटे तक
सतत मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? तीन—चार
घंटे के बाद
तुम पाते हो
कि खोपड़ी घूमी
जा रही है। छह—सात
घंटों के बाद
तुम पाते हो
कि सारा जगत
घूम रहा है:
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
एक नशा, एक
खुमारी चढ़ने लगती
है। अठारह
घंटे पूरे
होते—होते कुछ
क्षणों के लिए
फिंक जाते हो
तुम एकदम, सन्नाटा
छा जाता है, कोई नहीं रह
जाता। पूछने
वाला नहीं रह
जाता। एक
शून्य पकड़
लेता है। उसी
पकड़ने में
पहली दफा झलक
मिलती है:
परमात्मा है!
वह तो
जब होगा होगा, जब उतनी
हिम्मत
जुटाओगे, तब।
अभी इतना तो
कर ही सकते हो
कि जरा गौर से
देखने लगो। जब
वृक्षों को
देखो तो जरा
गौर से देखो:
वे भी जीवंत
हैं! जीवन
परमात्मा का
रूप है। हरियाली,
उन पर खिले
फूल—वह भी
परमात्मा के
जीवन का ढंग
है। नदी को
बहते देखो, तो बहाव
परमात्मा का
है। गति
परमात्मा की
है। गत्यात्मकता
परमात्मा है।
किसी
बच्चे को
खिलखिलाते
देखो—हंसी
परमात्मा है!
खिलखिलाहट
परमात्मा है!
उत्सव
परमात्मा है!
किसी की आंख
में आंसू देखो—करुणा
परमात्मा है!
अनुकंपा
परमात्मा है!
इस
स्मरण को जगाए
चलो। खोजो जरा
गौर से! धीरे—धीरे
तुम्हारी
संवेदनशीलता
बढ़ेगी और
तुम्हें कभी—कभी
किसी वृक्ष
में, कभी किसी
तारे में, कभी
किसी चेहरे
में, परमात्मा
की झलक मिल
जाएगी। अभी
उसी झलक से भरोसा
रखो। एक झलक
मिले, एक
चुस्की ले ली।
ऐसे धीरे—धीरे
पोषण मिलेगा।
तू
आज तोड़ दे सब
बुत उस एक बुत
के सिवा
फसादो
जंगो जदल तर्क
कर मोहब्बत कर
कि
आशतीओ
मोहब्बत में
खुदा की रजा
समझ
ले सच्ची
इबादत के आज
मानी तू
तवहब्मायात
के असनाम की न
कर पूजा
खुदा
को देख
मुजस्सम खुदा
के बंदों में
खलूसे
खिदमते खल्के
खुदा की मांग
दुआ
यही
है जिंदा खुदा
जीता जागता
माबूद
वो
खाली हाथ
रहेगा जो इसको
पा न सका
इसी
के आगे झुका
दे सरे नमाज
अपना
तू
आज तोड़ दे सब
बुत इस एक बुत
के सिवा।
यह जो
चारों तरफ
फैला हुआ
निसर्ग है, इस एक
प्रतिमा के
सिवा और सारी
प्रतिमाएं
भूल जाओ।
तुम्हारे
मंदिरों में
रखी
प्रतिमाएं भगवान
नहीं हैं, वे
तुम्हारे हाथ
के बनाए गए
खिलौने हैं।
तुम्हारा कृत्य
है। सुंदर
होंगे, मगर
खिलौने हैं।
परमात्मा की
बनाई हुई
प्रकृति में
उसे खोजो, अगर
खोजना है।
आदमी के बनाए
खिलौनों में
मत खोजो।
हिंदू, मुसलमान,
ईसाई के
खिलौनों में
मत खोजो।
मंदिरों में
नहीं पाओगे
उसे, जब तक
तुम उसे
वृक्षों में,
पहाड़ों में,
पर्वतों
में नहीं पा
लेते। पहले
यहां पाओ।
इतने विराट
फैलाव में
तुम्हें नहीं
दिखाई पड़ता!
इतना जीवंत, इतना हरा—भरा!
तुम जाते
मंदिर की तरफ!
एक मुर्दा
आदमी के द्वारा
बनाई गई
मूर्ति की
पूजा करने!
तू तोड़
दे आज सब बुत
इस एक बुत के
सिवा
यह एक
प्रतिमा ही
परमात्मा के
लिए काफी है—ये
आकाश, ये
चांदत्तारे, ये लोग, यह
अस्तित्व।
फसादो
जंगो जदल तर्क
कर मोहब्बत कर
छोड़ो
बकवास कि कौन
सही—हिंदू कि
मुसलमान; कि
विवाद छोड़ो कि
कुरान कि वेद
सही। छोड़ो
तर्क। एक काम
करो—
फसादो
जंगो जदल तर्क
कर...
छोड़ दो
यह सब फसाद, यह विवाद।
...मोहब्बत
कर
कि आशतीओ
मोहब्बत में
खुदा की रजा
प्रेम
में ही खुदा
राजी होता है।
प्रेम में ही
परमात्मा
तुमसे राजी
होता है।
प्रेम उसकी एकमात्र
प्रार्थना
है।
समझ ले
सच्ची इबादत
के आज मानी तू
तू आज
तोड़ दे सब बुत
इस एक बुत के
सिवा।
प्रकृति
में खोजो—यही
इबादत है, यही
प्रार्थना है।
तवहब्मायात
के असनाम की न
कर पूजा
आदमी
के द्वारा
बनाई गई
मूर्तियों की
पूजा से कुछ
भी न होगा।
बहुत हो चुकी
पूजा। आदमी के
द्वारा रची गई
प्रार्थनाएं
बहुत हो
चुकीं। कहीं
नहीं पहुंचे
हो। अब तो
परमात्मा के
कृत्य में ही
उसे खोजो।
स्रष्टा को
खोजना हो—उसकी
सृष्टि में
खोजो।
खुदा
को देख
मुजस्सम खुदा
के बंदों में
ये जो
खुदा ने बनाए
हैं लोग, ये
जो खुदा ने
बनाई हैं
वस्तुएं—इनमें
उसे देखो।
खुदा
को देख
मुजस्सम खुदा
के बंदों में
खलूसे
खिदमते खल्के
खुदा की मांग
दुआ
और यह
जो चारों तरफ
मौजूद है, इसकी
प्रार्थना
करो। इसके
सामने झुको!
झुकने के लिए
कहीं और जाने
की जरूरत नहीं—जहां
हो, वहीं
जो सौंदर्य ने
तुम्हें घेरा
है, इसके
सामने झुको!
यही है
जिंदा खुदा
जीता जागता
माबूद
यह जो
जीता—जागता
अस्तित्व है, यह जो
प्रकृति है—यही
है परमात्मा।
पूछते
हो: "परमात्मा
कहां है?'
यहां है!
यही है
जिंदा खुदा
जीता जागता
माबूद
वो
खाली हाथ
रहेगा जो इसको
पा न सका।
इसी के
आगे झुका दे
सरे नमाज अपना
तू आज
तोड़ दे सब बुत
इस एक बुत के
सिवा।
आज
इतना ही।
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