समन्वय
नहीं—साधना
करो
प्रश्न—सार:
1—आप
कहते हैं कि
मनुष्य अपने
लिए पूरी तरह
जिम्मेवार
है। और दूसरी
ओर आप कहते
हैं कि "समस्त' सब करता है।
इन दो
वक्तव्यों के
बीच समन्वय कैसे
हो?
2—संसार
में एक आप ही
हैं जिससे भय
नहीं लगता था।
पर इधर कुछ
दिनों से आपसे
भय लगने लगा
है। यह क्या
स्थिति है, प्रभु?
3—आपने
कहा कि गीता
के कृष्ण से
मीरा का कोई
संबंध नहीं।
लेकिन मीरा तो
कहती है मेरे
तो गिरधर
गोपाल, दूसरो
न कोई। तो यह
गिरधर गोपाल
कौन है?
4—मैं
बहुत दुखी हूं,
मुझे मार्ग
दिखाएं।
5—मैं
आपका संदेश घर—घर
पहुंचाना
चाहता हूं, लेकिन कोई
मेरी सुनता ही
नहीं है। मैं
क्या करूं ? तड़फता
हूं और चुप
हूं।
पहला
प्रश्न: आप
कहते हैं कि
मनुष्य अपने
लिए पूरी तरह
जिम्मेवार है, और यह कि वह
अपने स्वर्ग—नरक
अपने साथ लिए
चलता है। और
आप यह भी कहते
हैं कि "समस्त'
सब कुछ करता
है, अंश
क्या कर सकता
है?
इन
दो वक्तव्यों
के बीच समन्वय
कैसे हो?
समन्वय
करना ही क्यों
चाहते हैं? समन्वय हो
भी जाए तो
क्या होगा? बुद्धि की
थोड़ी सी
खुजलाहट
मिटेगी। कोई
समन्वय से
जीवन में
क्रांति नहीं
होगी। समन्वय
की आकांक्षा
ही व्यर्थ है।
साधना
कैसे हो, यह
पूछो। समन्वय
कैसे हो, इससे
क्या होगा? दार्शनिक
बनना है? बड़े
विचारक बनना
है? बड़े
सिद्धांतवादी
बनना है?
हमारी
जिज्ञासाएं
भी मौलिक रूप
से गलत होती हैं, इसलिए तो हम
भटकते रहते
हैं।
समन्वय
से क्या
प्रयोजन है? क्या करोगे
समन्वय करके?
आम और नीम
में कैसे
समन्वय हो? आम भी खराब
हो जाएगा, नीम
भी खराब हो
जाएगी। दोनों
गुण खो देंगे।
ये
दोनों बातें
अपने—अपने
स्थान पर सही
हैं। समन्वय
में दोनों गलत
हो जाएंगी।
पहली बात
ज्ञान—मार्ग
की घोषणा है—कि
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
जीवन, अपनी
नियति के लिए
परिपूर्ण रूप
से जिम्मेवार
है। क्योंकि
ज्ञान का
मार्ग संकल्प
पर आधारित है।
तुम्हारे
संकल्प की
प्रगाढ़ता चाहिए।
समर्पण की कोई
जरूरत नहीं है
ज्ञान के मार्ग
पर। श्रम
चाहिए, समर्पण
नहीं। जहां
श्रम की जरूरत
है वहां अगर यह
कहा जाए कि सब
बातों के लिए
परमात्मा
जिम्मेवार है,
तो श्रम असंभव
हो जाएगा। तो
यह वक्तव्य तो
सिर्फ एक निमित्त
है, एक
उपाय है—तुम्हें
संकल्प में
नियोजित करने
का। जिसे यह
जंच जाए, उसे
दूसरे की
चिंता नहीं
करनी चाहिए।
समन्वय की
चिंता तो करनी
ही नहीं
चाहिए।
तुम्हें
यह बात समझ
में आ जाए कि
मैं ही जिम्मेवार
हूं—अपने सुख, अपने दुख, अपनी शांति,
अपनी
अशांति, अपने
संसार, अपने
निर्वाण के
लिए—तो इस
जिम्मेवारी
के बोध के साथ
ही तुम्हारे जीवन
में रूपांतरण
शुरू होगा।
अगर नरक के
लिए तुम्हीं
जिम्मेवार हो
तो फिर नरक
बनाना क्यों?
फिर हटाओ।
जिन—जिन बातों
से नरक
निर्मित होता
है उन्हें गलाओ,
जलाओ। और जब
स्वर्ग भी
तुम्हारे हाथ
में है, तो
फिर क्यों न
बना लो पूरा
स्वर्ग, फिर
क्यों न बनाओ
एक बगिया
जिसमें फूल
खिलें स्वर्ग
के! फिर सींचो
उन पौधों
को!...तो सारी
ऊर्जा स्वर्ग
के निर्माण
में लग जाए।
संकल्प
के मार्ग पर
तुम ही
निर्णायक हो, तुम ही
नियति हो
अपनी। यह बात
जितनी
प्रगाढ़ता से
बैठ जाए उतना
ही उचित है।
लेकिन, अगर तुमने
समन्वय कर
लिया तो तुम
दुविधा में पड़
जाओगे।
समन्वय का
मतलब होगा; परमात्मा
जिम्मेवार है,
मैं भी
जिम्मेवार
हूं। तब
प्रश्न
उठेंगे: कौन जिम्मेवार
है? इस
दुविधा में
तुम खड़े ही रह
जाओगे, चल
न पाओगे। जिसे
चलना है वह
समन्वय में
नहीं पड़ता।
समन्वय चलने
वालों की बात
ही नहीं है। यह
तो खाली, बैठे—ठाले
लोगों की बात
है। जिन्हें
कुछ करना नहीं
है, उन्हें
समन्वय के
आधार पर न
करने के लिए
सुविधा मिल
जाएगी।
दूसरा
वक्तव्य कि
परमात्मा
जिम्मेवार है, पूर्ण जिम्मेवार
है। अंश क्या
करेगा? बूंद
क्या करेगी
सागर में? सागर
ही जिम्मेवार
है। सागर जहां
जाएगा बूंद वहां
जाएगी। बूंद
की अपनी क्या
यात्रा, अपनी
क्या गति, अपना
क्या गंतव्य?
यह भक्ति के
मार्ग की
घोषणा है। यह
विपरीत घोषणा
है। इस घोषणा
का अर्थ है:
मेरे किए कुछ
भी न होगा।
मेरे किए कुछ
भी नहीं होने
वाला है, तो
इस "मैं' के
बोझ को क्यों
ढोऊं? जब
इससे कुछ होता
ही नहीं है, तो यह अकड़
लिए क्यों
फिरूं? इस
अकड़ को
परमात्मा के
चरणों में डाल
दूं। झुका दूं
सिर वहां। कह
दूं कि अब जो
तेरी मर्जी, जैसी तेरी
मर्जी! दुख
देगा तो दुख स्वीकार
होगा।
क्योंकि तेरी
मर्जी
स्वीकार है।
सुख देगा तो
सुख स्वीकार
होगा, क्योंकि
तेरे
अतिरिक्त और
कोई मर्जी
चलती ही नहीं,
तो अब रोना
क्या? शिकायत
क्या?
वृक्ष
रोते तो नहीं
कि हरे हैं, क्यों हरे
हैं? चांदत्तारे
रोते तो नहीं,
नदी—पहाड़
रोते तो नहीं।
जो जैसा है
वैसा है।
प्रभु—मर्जी!
भक्त
ऐसा ही, जैसा
है वैसा ही
प्रभु को
समर्पित हो
जाता है। वह
कहता है: बुरा—भला
जैसा हूं, तुम
जानो। बुरे की
जरूरत हो तो
बुरा बना लो, भले की
जरूरत हो तो
भला बना लो।
मैं तुम्हारा चित्र
हूं, तुम
चित्रकार हो;
जैसे रंग
भरने हों, भर
दो। चित्र की
क्या हैसियत!
चित्र क्या
चित्रकार को कहे!
यह
बिलकुल दूसरी
ही बात है। यह
दूसरी ही
घोषणा है। इस
घोषणा में
अहंकार को
समर्पित करना
है। पहली
घोषणा में
श्रम को
प्रज्वलित
करना है; दूसरी
घोषणा में
अहंकार को
समर्पित करना
है। ये इलाज
अलग हैं।
तुम्हें अगर
पहली बात जम
जाए तो दूसरी
को भूल ही
जाना कि किसी
ने कही है।
समन्वय की तो
बात ही मत
करना। यह भी
स्मरण भूल
जाना कि कोई
ऐसा भी कहने
वाला है जगत में,
कि सब कुछ
करने वाला
परमात्मा है,
क्योंकि वह
बात तुम्हारे
मन में अगर
गूंजती रही, तो समर्पण
को पंगु कर
देगी, नपुंसक
कर देगी। वह
तो एंटी—डोट हो
जाएगा। वह तो
उलटी दवा पी
ली। और अगर
समर्पण की बात
जम जाए, तुम्हारा
रोआं पुलकित
होता हो
समर्पण की बात
सुन कर, हृदय
उमगता हो, रस
बहता हो—कि
हां, यही
ठीक है कि
उसके चरणों
में सब रख दूं,
जो वह करे
वही हो! दूसरी
बात जम जाए तो
पहली बात को
विस्मृत कर
देना।
तुम
पूछ रहे हो:
"दोनों का
समन्वय कैसे
करें?'
मैं कह
रहा हूं: चलना
हो तो एक पर ही
चला जा सकता है, दो पर नहीं
चला जा सकता।
दो रास्तों पर
कोई कैसे
चलेगा? और
यह भी सही है
कि दोनों
रास्ते वहीं
पहुंचते हैं,
तो भी तो दो
रास्तों पर एक
साथ नहीं चल
सकते। पहाड़ पर
अनेक रास्ते
चोटी की तरफ जाते
हैं। लेकिन
चलोगे तो एक
रास्ते पर।
अनेक रास्तों
पर इकट्ठे तो
न चलोगे।
सब
रास्तों के
समन्वय का
क्या अर्थ
होगा? पहाड़
पर चढ़ते वक्त
तुम यह नहीं
पूछते कि यह
एक रास्ता
बाईं तरफ जाता
है, एक
दाईं तरफ; दोनों
का समन्वय कैसे
करें? मुझे
पहाड़ के ऊपर
जाना है, मैं
समन्वय का
मार्ग
बनाऊंगा। एक
कदम इस रास्ते
पर चलूंगा, एक कदम उस
रास्ते पर
चलूंगा। तुम
कभी शिखर पर न
पहुंचोगे।
तुम बड़ी झंझट
में पड़ जाओगे।
तुम विक्षिप्त
हो जाओगे। दौड़
कर एक कदम इस
पर चलोगे, दौड़
कर एक कदम उस
पर चलोगे। यह
दौड़ने में ही
जान उखड़
जाएगी। और
पहुंचोगे कब?
पहुंचोगे
कैसे? आदमी
पहुंचता है एक
ही मार्ग पर
सतत चल कर। कदम
के बाद कदम एक
ही मार्ग पर
चलता है, तो
पहुंचता है।
लेकिन
दुनिया में
महात्मा
गांधी और उन
जैसे लोगों ने
समन्वय की
बहुत बकवास
फैला दी है।
उस समन्वय की
बकवास के पीछे
राजनीतिक
उद्देश्य
हैं। साधना से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। "अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम'—ठीक है, बात
तो ठीक है।
लेकिन अगर
दोनों नाम
जपते रहे, तो
कभी न पहुंच
पाओगे। और
कहते रहे
महात्मा गांधी
"अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम', लेकिन
जब गोली लगी
तो अल्लाह
नहीं निकला, तब राम ही
निकला। तब
अल्लाह कहां
गया? तब
राम—अल्लाह या
अल्लाह—राम, इतना तो कह
देते जाते
वक्त! थोड़ा तो
हिसाब रखते, जिंदगी भर
बोलते रहे
अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम! यह
मरते वक्त राम
क्यों निकला?
अल्लाह तो
सिर्फ
राजनीति थी।
वह तो मुसलमान
को राजी करने
का उपाय भर था।
उसमें कुछ
प्राण नहीं
थे। जब गोली
लगी तो राजनीति
भूल ही जाएगी।
तब तो जो
अंतरतम में था,
वही निकला।
अब उस क्षण
में राजनीति
कौन याद रखेगा?
उस क्षण कौन
सोचेगा कि
जिन्ना क्या
सोचेगा, कि
मुसलमान क्या
सोचेंगे? इसकी
फुरसत कहां
रही! गोली ने
सब राजनीति
मिटा दी। जो
हार्दिक था, वही निकल
आया।
अल्लाह
भी प्यारा है, राम भी
प्यारा है।
अल्लाह जंचे
तो अल्लाह जपो,
राम जंचे तो
राम जपो। मगर
अल्लाह—ईश्वर
दोनों मत जपो।
दोनों का स्वर—विज्ञान
अलग है। दोनों
की चोट अलग
है। दोनों का
परिणाम अलग
है। दोनों दो
अलग तरह के
साधकों के लिए
निर्मित किए
गए हैं।
सदा
याद रखो:
प्रत्येक
साधना—पद्धति
अपने आप में
पूर्ण है। उसे
किसी दूसरी साधना—पद्धति
के सहारे की
जरूरत नहीं
है। लेकिन समन्वय
का यही परिणाम
होता है।
एलोपैथी
एक शास्त्र
है।
जिन्होंने
पूछा है, वे
डाक्टर हैं, इसलिए
उपयोगी होगा।
एलोपैथी एक
शास्त्र है।
होमियोपैथी
से मिलाना मत।
समन्वय मत
करना।
होमियोपैथी
दूसरे ढंग की
बात है। होमियोपैथी
में भी सार
है। लेकिन
उसकी
प्रक्रिया, आयोजना अलग
है। और
आयुर्वेद में
भी सार है। और,
और भी
चिकित्सा—विधियां
हैं—यूनानी
हैं...। इन सब
में सार है।
लेकिन इन सबका
संयोग किया तो
मरीज मरेगा।
इनका संयोग
करना मत। मरीज
पर ध्यान
रखना। समन्वय
पर ध्यान मत
रखना।
समर्पण
की एक विधि है
कि अहंकार
जाए। और अहंकार
तभी जाएगा जब
कृत्य जाए, कर्ता जाए।
संकल्प की
दूसरी विधि है,
कि
तुम्हारा
सोया हुआ
चैतन्य
सक्रिय हो उठे;
तुम्हारी
मूर्च्छा टूटे।
मूर्च्छा तभी
टूटेगी जब तुम
प्रगाढ़ श्रम करोगे;
नहीं तो
नहीं टूटेगी।
ये दोनों अलग
द्वारों से
परमात्मा की
तरफ जा रहे
हैं।
तुम
समन्वय की
पूछो ही मत।
तुम साधना की
पूछो।
"आप
कहते हैं कि
मनुष्य अपने
लिए पूरी तरह
जिम्मेवार है,
और यह भी
कहते हैं कि
समस्त कुछ प्रभु
करता है, अंश
क्या कर सकता
है? इन दो
वक्तव्यों के
बीच समन्वय
कैसे हो?'
समन्वय
बौद्धिक
खुजलाहट है।
खुजलाने से
कुछ लाभ नहीं
होता।
खुजलाहट और
बढ़ती है।
अस्तित्वगत
खोज करो।
दोनों सच हैं।
और दोनों मैं
कहता हूं।
क्योंकि मैं
दोनों तरह के
लोगों के लिए बोल
रहा हूं। मैं
सब तरह के
लोगों के लिए
बोल रहा हूं।
महावीर ने एक
बात कही, मीरा
ने दूसरी बात
कही। महावीर
के पास जो लोग इकट्ठे
हुए, वे वे
ही थे जो
संकल्प की तरफ
जा सकते थे।
मीरा के पास
वे लोग इकट्ठे
हुए, जो
समर्पण में
गति कर सकते
थे।
मेरे
पास सब तरह के
लोग हैं। मैं
किसी एक पंथ
की बात नहीं
कर रहा हूं—जान
कर। क्योंकि
एक पंथ की बात
बड़ी खतरनाक
सिद्ध हुई।
उसका एक लाभ
था कि लोग
दुविधा में
नहीं पड़े।
महावीर एक ही
बात कहते रहे—जिसको
जमे, रहे; जिसको
न जमे, जाए।
महावीर को, अपनी बात
सही है, यह
कहने के लिए
दूसरे की बात
गलत है, यह
भी कहने के
लिए मजबूर
होना पड़ा—जानते
हुए कि दूसरा
मार्ग भी ले
जाता है। मीरा
को यह जानते
हुए कि दूसरा
मार्ग भी ले
जाता है, फिर
भी उसे गलत
कहना पड़ा।
नहीं तो जो
सुनने वाले
हैं, वे
दुविधा में
पड़ते हैं। यह
तो लाभ था।
अब तक
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
यही प्रक्रिया
जारी रही।
प्रत्येक ने
एक मार्ग की
बात कही; और
सब मार्ग गलत
हैं। इसलिए
नहीं कि और सब
मार्ग गलत
हैं। यह कैसे
हो सकता है कि
बुद्ध और महावीर,
कृष्ण और
क्राइस्ट को
इतनी समझ न हो—कि
अनंत मार्ग
हैं उस तक
पहुंचने के।
उन्हें पता
है। उन्हें
भलीभांति पता
है कि दूसरे
मार्गों से भी
लोग पहुंचे
हैं। लेकिन एक
मजबूरी है। और
मजबूरी यह है
कि अगर वे
कहें कि सभी
मार्गों से
लोग पहुंचते
हैं, तो
जैसे तुमने
प्रश्न पूछा
है ऐसे ही
उनके अनुयायी
भी पूछते: तो
फिर समन्वय
कैसे करें? और समन्वय
से कोई नहीं
पहुंचता। तो
उन्होंने निश्चित
रूप से कहा: एक
ही रास्ता है,
बस एक ही
रास्ता है।
इससे सुनने
वाले को सुविधा
रही, स्पष्टता
रही, उलझन
न बढ़ी। समन्वय
की झंझट न आई।
समन्वय की झंझट
से बचाने के
लिए उन्हें
कहना पड़ा कि
कोई दूसरा
रास्ता सही
नहीं है, बस
यही रास्ता
सही है।
तो
साधना के
अतिरिक्त कोई
मार्ग न बचा।
समन्वय की कोई
सुविधा ही
नहीं है। कुछ
करना हो तो
साधना करो।
फिर जिसको
रुचा वह रुका; जिसको नहीं
रुचा, वह
दूसरे
मार्गों पर
चला गया। यह
तो लाभ था। लेकिन
एक नुकसान
हुआ। नुकसान
हुआ कि
वैमनस्य पैदा
हुआ। सारे
पंथों के लोग
एक—दूसरे के
दुश्मन हो गए।
पृथ्वी बड़ी
शत्रुता से भर
गई। हिंदू
मुसलमान से
लड़ा, जैन
बौद्ध से लड़ा,
बौद्ध
हिंदू से लड़ा।
हिंदू ईसाई से
लड़ा, ईसाई
किसी और से।
और इस तरह
सारी पृथ्वी
कलह से भर गई।
अब
समझना।...अगर
तुमसे कहा जाए
सब मार्ग
पहुंचाते हैं, तो तुम
समन्वय की
झंझट में पड़ते
हो। अगर तुमसे
कहा जाए एक ही
मार्ग
पहुंचाता है,
तो तुम
दूसरों से
विवाद करने
में लग जाते
हो—कि
तुम्हारा
मार्ग गलत, मेरा मार्ग
सही। चलते
नहीं तुम।
चलना जैसे है ही
नहीं। या तो
समन्वय करोगे
या विवाद
करोगे। मार्ग
चलने के लिए
है। मार्ग उसी
का है जो चलता
है। वही समझा
मार्ग को जो चला।
चलने के
अतिरिक्त
मार्ग को कोई
कैसे समझेगा?
लेकिन
आदमी बड़ा
उपद्रवी है।
तो महावीर, बुद्ध और
कृष्ण ने
लोगों को बचा
लिया—समन्वय
के उपद्रव से।
मगर लोग दूसरे
उपद्रव में
उतर गए—लोग
विवाद में उतर
गए। या तो
दूसरा गलत है,
यह सिद्ध
करेंगे; या
दोनों सही हैं,
यह सिद्ध
करेंगे। और
दोनों ही हालत
में आदमी बुद्धि
की ही बातों
में उलझा रह
जाता है।
तो यह
हानि हुई।
पृथ्वी हिंसा
से भर गई।
सारी मनुष्य—जाति
का इतिहास
धर्म के नाम
पर हत्या का
इतिहास है।
ऐसा होना नहीं
चाहिए था।
धर्म के कारण
जितना अधर्म
हुआ है, उतना
अधर्म किसी और
बात के कारण
नहीं हुआ। यह
बड़ी हैरानी की
बात है! धर्म
तो प्रेम का
संदेश है।
धर्म तो प्रभु
का संदेश है।
लेकिन धर्म
शैतान के हाथ
में पड़ गया।
मंदिर में
प्रतिमाएं
प्रभु की हैं,
लेकिन पीछे
जो बैठा है
प्रतिमाओं के,
वह शैतान
है। बातें
प्रेम की—और
हाथों में
तलवारें!
शांति के
कबूतर उड़ाए जा
रहे हैं और
पीछे जहर
तैयार किया जा
रहा है—हिंसा
का, क्रोध
का, शत्रुता
का।
मनुष्य
को दोनों
झंझटों से
बचाना है कि
वह विवाद में
भी न पड़े और
समन्वय में भी
न पड़े। इसलिए मैं
सभी मार्गों
की बात कर रहा
हूं। कभी
समर्पण की
चर्चा करता
हूं, कभी
संकल्प की
चर्चा करता
हूं—ताकि
तुम्हें यह
बात समझ में आ
जाए कि दूसरा
भी सही है। यह
और बात है कि
तुम्हें वह
मार्ग नहीं
रुचता। यह
तुम्हारी
मर्जी की बात
है। इससे मार्ग
गलत नहीं
होता।
कोई
आदमी पूरब की
तरफ हाथ उठा
कर प्रार्थना
करता है, कोई
पश्चिम की
तरफ। तुम्हें
पूरब की तरफ
हाथ उठा कर
प्रार्थना
करनी जंचती है,
ठीक, किसी
को पश्चिम की
तरफ हाथ उठा
कर प्रार्थना
करनी जंचती
है। इससे कुछ
दूसरा गलत
नहीं हो जाता।
दोनों
प्रार्थना कर
रहे हैं।
दोनों सही हैं।
हाथ किस तरफ
जोड़ते हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? क्योंकि
सब तरफ परमात्मा
है। कहीं भी
हाथ जोड़ो, हाथ
उसी के लिए
जुड़ते हैं।
काशी जाओ कि
काबा, कुछ
भेद नहीं
पड़ता। और
कुरान पढ़ो कि
वेद, कुछ
भेद नहीं
पड़ता।
लेकिन
ध्यान रखना, दूसरे खतरे
में मत पड़
जाना कि अब
वेद और कुरान में
समन्वय करना
है। न समन्वय
करना है, न
संघर्ष करना
है। सारे मार्ग
तुम्हें
उपलब्ध किए दे
रहा हूं।
उसमें से जो
रुच जाए, जो
तुम्हारे मन
में उमंग भर
दे, जिसके
साथ तुम डोल
उठो—उस पर
चलना है। और
चलने से ही
यात्रा तय
होती है।
ये
दोनों
वक्तव्य—बुद्ध
जिसे कहते
हैं: कुशल
उपाय। ये
दोनों वक्तव्य
कुशल उपाय
हैं।
मैं
जानता हूं:
तुम्हारे मन
में फिर भी
सवाल उठ रहा
होगा कि चलो, न करेंगे
समन्वय, मगर
ये दोनों एक
साथ सही कैसे
हो सकते हैं? स्वभावतः, नहीं करते
समन्वय, हमें
कोई झंझट में
नहीं पड़ना
समन्वय की।
मगर दोनों
वक्तव्य
विपरीत हैं, विरोधाभासी
हैं। इन दोनों
में एक ही सही
हो सकता है, ऐसा
तुम्हारी
बुद्धि कहती
है।
बुद्धि
के तर्क सीमित
हैं। बुद्धि
कहती है: या तो
यह सही या वह
सही, दोनों
कैसे सही
होंगे? या
तो अभी रात है
या अभी दिन
है। मैं कहूं
कि अभी रात है
और फिर में
कहूं कि अभी
दिन है, तो
तुम कहोगे:
हमें समन्वय
भी नहीं करना,
हम किसी
विवाद में भी
नहीं पड़ना
चाहते। मगर आप
हमें उलझन में
डाल रहे हैं।
क्योंकि
दोनों बातें
कैसे हो सकती
हैं कि अभी
दिन भी अभी
रात भी?
दोनों
बातें हो सकती
हैं, क्योंकि
तुमने दिन और
रात को अलग
समझा है, वहीं
भूल हो गई।
इसे ऐसा समझो:
जैसे मुर्गी
और अंडा!
सदियों से
दार्शनिक
पूछते रहे
हैं: कौन पहले—मुर्गी
पहले कि अंडा
पहले? प्रश्न
बिलकुल
सार्थक लगता
है। लेकिन जब
प्रश्न को
विचारने जाओ
तो झंझट आती
है। अगर कहो मुर्गी
पहले, तो
प्रश्न उठता
है: मुर्गी आई
कहां से होगी?
और तब अंडा
उभरने लगता
है। अगर कहो
अंडा पहले, तो झंझट खड़ी
होती है कि
अंडा आएगा
कहां से, कोई
मुर्गी रखेगी
तभी न? तो
तुम एक
दुष्चक्र में
पड़े। कभी तय न
कर सकोगे कि
कौन पहले?
मैं
तुमसे क्या
कहना चाहता
हूं? मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
तुमने उनको दो
माना, वहीं
भूल हो गई।
उसी भूल से
भूल—भरा
प्रश्न पैदा
हुआ। मुर्गी—अंडा
दो नहीं हैं।
अंडा मुर्गी
हो रहा है, मुर्गी
अंडा हो रही
है। ये दो
अवस्थाएं हैं
एक ही घटना
की। अंडा एक
अवस्था है
मुर्गी की, मुर्गी
दूसरी अवस्था
है अंडे की।
ये दो नहीं हैं,
जैसे जवानी
और बुढ़ापा दो
नहीं हैं।
जैसे जवानी से
ही बुढ़ापा आता
है—ऐसे ही
अंडे से
मुर्गी, मुर्गी
से अंडा आता
है। ये
वर्तुलाकार
अवस्थाएं
हैं। अंडा
मुर्गी होने
के मार्ग पर
है। मुर्गी
अंडा होने के
मार्ग पर है।
जिसको
तुम रात कहते
हो, वह दिन
होने के मार्ग
पर है। जब तुम
कहते हो रात
है, तब दिन
होने की
तैयारी कर रहा
है। तब दिन
पैदा हो रहा
है—रात के गर्भ
में छिपा हुआ
दिन तैयार हो
रहा है। जब तुम
कहते हो दिन
है, तब रात
करीब आ रही
है। दिन के
गर्भ में छिपी
रात बैठी है।
रात और दिन एक
सिक्के के दो
पहलू हैं।
इसलिए अगर मैं
कहूं अभी दिन
है, तो भी
ठीक कहता हूं
और कहूं अभी
रात है, तो
भी ठीक कहता
हूं, क्योंकि
रात और दिन दो
नहीं हैं। ऐसे
ही जीवन और
मृत्यु भी दो
नहीं हैं।
संयुक्त हैं।
एक ही हैं।
तो
तुम्हारी
अड़चन मैं
समझता हूं। मन
में सवाल उठता
होगा: इतने
विपरीत
वक्तव्य कि सब
कुछ जिम्मेवारी
मेरी है और
कुछ भी
जिम्मेवारी
मेरी नहीं है!—ये
दोनों एक साथ
कैसे ठीक
होंगे?
बुद्ध
ने इसको कुशल
उपाय कहा है।
वह भी समझ लेना
जरूरी है।
कुशल उपाय का
अर्थ होता है:
जो कहा जा रहा
है वह सत्य है, ऐसा नहीं; लेकिन सत्य
को जानने में
उपयोगी है, बस इतना।
भेद समझ लेना।
जो कहा जा रहा
है वह सत्य है,
ऐसा नहीं।
आत्यंतिक
सत्य है, ऐसा
नहीं। लेकिन
सत्य को जानने
में सहयोगी है,
उपाय है।
समझो।
तुम घर के
भीतर बैठे हो, और घर में आग
लग गई है।
बाहर से कोई
चिल्लाया घर
में आग लगी
है। तुम तो
भाग कर निकल
गए, लेकिन
छोटे—छोटे
बच्चे हैं घर
में, उन्हें
कुछ अनुभव ही
नहीं कि आग
लगने का क्या मतलब
होता है। वे
अपने खिलौनों
में खेल रहे
हैं। अब तुम
चिल्लाते हो
बाहर से कि
बच्चो, बाहर
आ जाओ, घर
में आग लगी है!
तुम भीतर भी
नहीं जा सकते
बच्चों को
लेने। लपटें
बढ़ती जा रही
हैं। किसी की हिम्मत
भीतर जाने की
नहीं है। तुम
सब चिल्लाते
हो कि बच्चो, बाहर आ जाओ, घर में आग
लगी है! लेकिन
बच्चों को आग
लगी है, इससे
कुछ परिणाम
नहीं होता, क्योंकि
उन्होंने कभी
जाना ही नहीं
कि आग लगी है।
और आग लगना है
तो लगी रहे।
बल्कि शायद
प्रसन्न ही हो
रहे हैं कि
अहा, कैसी
लपटें उठ रही
हैं! कैसा मजा
आ रहा है! ज्यादा
से ज्यादा
उन्होंने
फिल्म में लगी
आग देखी है, टेलीविजन पर
लगी आग देखी
है। वे
आह्लादित हो
रहे हैं कि आज
घर में भी लगी
है।
तुम
क्या करोगे? बुद्ध कहते
हैं: कुशल
उपाय करना
होगा। जो बात बच्चे
समझ सकें, वह
कहनी होगी।
बुद्ध ने कहा
है: तो समझदार
बाप कहता है
कि बच्चो बाहर
आ जाओ, मैं
मेला गया था, तुम्हारे
लिए खिलौने
खरीद कर लाया
हूं। खिलौने
इत्यादि
बिलकुल नहीं
हैं। यह सुन
कर ही कि बाप
खिलौने लाया
है मेले से, बच्चे भागे
बाहर आ जाते
हैं। आग नहीं
निकाल पाती
बाहर। आग
वास्तविक है।
खिलौने हैं
नहीं। बाप झूठ
बोला है।
लेकिन क्या
तुम इसे झूठ
कहोगे? क्या
तुम यह कहोगे
कि बाप पाप का
भागीदार हुआ,
असत्य बोला?
नहीं; इसको
बुद्ध कहते
हैं: कुशल
उपाय! यह झूठ
भी नहीं है।
क्योंकि इससे
सत्य का बोध
हो रहा है। यह सत्य
की सेवा में
संलग्न है, तो झूठ कैसे
होगा? लेकिन
इस परिस्थिति
में बाप का यह
कहना कि बच्चो
बाहर आ जाओ, तुमने कहा
था कि खिलौने
खरीद लाना, बहुत खिलौने
ले आया हूं, देखो कितने
खिलौने ले आया
हूं! तब बच्चे
भूल जाते हैं
आग, छोड़
आते हैं
पुराने
खिलौने, भाग
कर बाहर निकल
आते हैं।
पूछते हैं:
कहां हैं
खिलौने?
अब यह
दूसरी बात है।
अब बाप समझा
लेगा कि आग लगी
है, पागलो!
मगर बाहर तो
निकल आए!
ये कुशल
उपाय हैं।
ये
दोनों कुशल
उपाय हैं। यह
कहना कि सब
कुछ तुम्हारी
जिम्मेवारी
है, एक उपाय
है। जो यह सुन
कर बाहर आ जाए
तो ठीक। यह कहना
कि तुम्हारी
कोई भी
जिम्मेवारी
नहीं, सब
परमात्मा का
खेल है—यह भी
कुशल उपाय है।
जो इसे सुन कर
बाहर आ जाए, वह भी ठीक।
बाहर आकर तुम
पाओगे कि
अंततः न ऐसा
है न वैसा है।
क्यों
अंततः न ऐसा
है न वैसा? क्योंकि यह
बात ही सोचनी
कि तुम
परमात्मा से अलग
हो, गलत
है। और दोनों
में यह बात
मान ली गई कि
तुम परमात्मा
से अलग हो। इस
पर तुमने खयाल
नहीं किया कि
जब यह कहा गया
कि तुम ही
जिम्मेवार हो,
अस्तित्व
जिम्मेवार
नहीं—तब भी
तुमको अलग मान
लिया गया, भिन्न
मान लिया गया।
तुम अस्तित्व
से अलग स्वीकार
कर लिए गए।
पृथक। तुम
जिम्मेवार हो!
और
तुमने खयाल
किया? दूसरी
घटना में जहां
कहा गया, "तुम
जिम्मेवार
नहीं हो, परमात्मा
जिम्मेवार है'—वहां भी
परमात्मा को
तुमसे अलग मान
लिया गया।
दोनों हालत
में तुम
परमात्मा से
भिन्न हो, यह
बात स्वीकार
कर ली गई।
दोनों विपरीत
दिखाई पड़ते
हैं, लेकिन
यहां दोनों
बिलकुल एक
हैं। दोनों का
मौलिक अर्थ एक
है कि तुम
परमात्मा से
भिन्न हो। एक
में कहा गया:
अपनी भिन्नता
को स्पष्ट कर
लो। दूसरे में
कहा गया:
समर्पित कर
दो। मगर भिन्न
हो, यह
स्वीकार कर
लिया गया।
और ये
दोनों बातें
गलत हैं। तुम
भिन्न नहीं हो।
न तो तुम्हारी
जिम्मेवारी
है, न
परमात्मा की;
क्योंकि
तुम दो ही
नहीं हो, एक
ही है। मगर यह
अनुभव तो तब
होगा जब तुम
घर के बाहर आ
जाओ; यह आग
लगे घर को छोड़
दो।
कोई
खिड़की से कूद
कर निकल आए तो
ठीक; कोई
दरवाजे से
निकल आए तो
ठीक। और कभी—कभी
ऐसा भी हो
जाता है कि
द्वार—दरवाजे
काम नहीं आते;
दीवाल तोड़
कर भी निकलना
पड़ता है। कैसे
तुम बाहर आते
हो, यह बात
गौण बात है।
बाहर आ जाते
हो, यही
बात सार्थक
है।
लेकिन
तुम उलटी बात
पूछ रहे हो: घर
में आग लगी
है। खिड़की के
पास खड़ा कोई
चिल्ला रहा है
कि छलांग मारो
खिड़की से, निकल आओ
खिड़की से! कोई
दरवाजे पर खड़ा
कह रहा है कि
प्यारे, दरवाजे
से भाग आओ! तुम
पूछते हो:
दोनों में समन्वय
कैसे हो? खिड़की
सही कि दरवाजा
सही? घर
में आग लगी
है। तुम कहते
हो: जब तक
समन्वय न हो
जाए, तब तक
हम न
निकलेंगे।
अब, खिड़की और
दरवाजे का
समन्वय कैसे
होगा? और
समन्वय में
बड़ी देर लग
जाएगी। फिर
शायद निकलने
का कोई अर्थ
भी न रह
जाएगा। शायद
घर जल कर और घर
के साथ जल कर
तुम भी राख हो
जाओगे।
इसलिए
मैं कहता हूं:
समन्वय की
फिकर छोड़ो, साधना की
फिकर करो।
खिड़की के पास
हो तो खिड़की से
कूद आओ; दरवाजे
के पास हो तो
दरवाजे से कूद
आओ। अब इसमें
शिष्टाचार और
संस्कार और
संस्कृति का
भी विचार मत
करो कि खिड़की
से कूदेंगे तो
कैसा रहेगा!
जब घर में आग
लगती है तो
आदमी यह नहीं
सोचता कि
खिड़की से
कूदना शोभायुक्त
है, कि लोग
क्या कहेंगे
कि खिड़की से
कूदा तो हवा में
कपड़े उड़
जाएंगे और लोग
देख लें कि
नंगा हूं, कि
आज तो
अंडरवियर भी
नहीं पहना हुआ
है। यह भी नहीं
सोचोगे। यह
कौन फिकर करता
है! जब घर में आग
लगी हो तो
आदमी बच जाना
चाहता है।
ऐसी ही
घर में आग लगी
है। जितने
शास्ता हुए, जितने
सदगुरु हुए—उन
सबने, जो
निकटतम मार्ग
दिखाई पड़ा, या जिस
मार्ग से
उन्होंने आग
से अपने को
बचाया, उसकी
बात कह दी है।
उन्हें जो
निकट पड़ रहा
हो...। अब कई बार
ऐसा हो जाता
है खिड़की पास
है, दरवाजा
बहुत दूर है; लेकिन तुम
कहते हो कि हम
तो दरवाजे से
निकलेंगे, क्योंकि
हमारे पिताजी
भी दरवाजे से
निकले थे, उनके
पिताजी भी
दरवाजे से
निकले थे। हम
सदा दरवाजे से
ही निकलते आए।
रघुकुल रीत
सदा चली आई! हम
तो दरवाजे से
ही निकलेंगे।
प्राण जाएं पर
वचन न जाई!...तो
जाने दो प्राण,
तुम समझो।
जो निकट
हो...तुम्हारे
पिताजी निकले
कि नहीं
उससे...।
तुम्हें
समझाया गया है
उससे निकलने
के लिए या
नहीं, तुम्हें
संस्कार दिए
गए हैं या
नहीं—यह सवाल
नहीं है।
अब
मेरे पास
निरंतर ऐसे
लोग आते हैं।
कोई जैन घर
में पैदा हुआ
है और उसे
संकल्प का
मार्ग जमता ही
नहीं; उसे
भक्ति का भाव
जमता है। लेकिन
महावीर के साथ
भक्ति बैठती
नहीं। और भक्ति
बिठाओ तो
महावीर का
मार्ग विकृत
होता है। महावीर
के मार्ग पर
कहां भक्ति? महावीर के
मार्ग पर
भगवान भी नहीं
तो भक्ति कहां?
मूल ही नहीं
है। महावीर
कहते हैं: कोई
भगवान नहीं है,
तुम ही
भगवान हो।
आत्मा ही
परमात्मा है।
किसकी पूजा कर
रहे हो?—अपनी
पूजा! किसकी
आरती उतार रहे
हो?—अपनी
आरती! समय मत
गंवाओ—आरती
इत्यादि में,
पूजा—प्रार्थनाओं
में! सुधारो
अपने को, संवारो
अपने को!
वहां
गीत नहीं, गान नहीं।
वह जो मीरा
कहती है कि
मृदंग बज उठी,
वीणा छेड़ी
गई है, पैरों
में घूंघर बंध
गए हैं, बड़ा
अजीब संगीत उठ
रहा है—ऐसा
कोई संगीत
महावीर के
मार्ग पर नहीं
है। वहां
बिलकुल
सन्नाटा है।
वहां सिर्फ एक
संगीत स्वीकार
है—वह शून्य
का संगीत है; वह शांति का
संगीत है।
स्वर—हीन...वहां
स्वर नहीं
उठते। वहां
अदभुत मृदंग नहीं
बजती। वहां डफ
नहीं बजती। वहां
बांसुरी की
आवाज नहीं।
लेकिन
जिसको रस है, जिसको भाव
है, भक्ति
है, वह
क्या करे?
जैन घर
में पैदा हुआ, तो अड़चन है।
वह महावीर की
पूजा करता
रहेगा। वह
महावीर की
बातें भी
सुनता रहेगा।
लेकिन उसके हृदय
में कोई बीज न
पड़ेगा। उसे
कृष्ण की
बांसुरी
चाहिए थी।
ऐसा
दूसरे घर में
भी हो रहा है।
कोई भक्ति—मार्ग
में पैदा हुआ
है और उसे बात
बिलकुल नहीं
जंचती। उसे यह
रासलीला
इत्यादि सब
पाखंड मालूम
होता है। ये
कृष्ण
कन्हैया, ये
बांसुरी
बजाते हुए
कृष्ण...उसे
बिलकुल नाटकीय
मालूम पड़ते
हैं। उसकी
बुद्धि को यह
बात जंचती
नहीं कि यह
क्या माजरा है?
परम अवस्था
तो महावीर
जैसी होनी
चाहिए। यह क्या
मोरमुकुट
बांधे खड़े हैं?
यह कोई नाटक
हो रहा है? यह
क्या मामला है?
स्त्रियां
नाच रही हैं, आप बीच में
खड़े बांसुरी
बजा रहे हैं!
यह तो सांसारिक
है। वीतरागता
कहां है? वीतरागता
महावीर में
है।
मगर वह
हिंदू घर में
पैदा हुआ है, भक्त—घर में
पैदा हुआ है।
वह महावीर के
मंदिर में नहीं
जा सकता। उसके
बाप—दादे वहां
नहीं गए। उसे
तो जाना है
कृष्ण के मंदिर
में, तो
जाता है।
कृष्ण को झूला
झुलाता है। और
भीतर जानता है
कि सब नासमझी
है, मैं यह
क्या कर रहा
हूं? किसको
झूला झुला रहा
हूं? यहां
कोई भी नहीं
है। मगर
झुलाना है, क्योंकि
पिताजी
झुलाते रहे; उसके पहले
और भी पिताजी
झुलाते रहे।
यह सदा से
झूला झूलता
रहा है। इसको
किसी तरह
झुलाओ और बच्चों
को भी सिखा
जाओ कि बेटे
तुम भी
झुलाना। मगर
जीवन में कहीं
कोई क्रांति
पैदा नहीं होती।
मैं
तुमसे कहता
हूं: अपने
भीतर झांको।
परंपरा में मत
झांको। अपने
भीतर झांको।
क्योंकि
परंपरा मुक्त
होने को नहीं
है, तुम्हें
मुक्त होना
है। इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि तुम्हारे
पिता कैसे
मुक्त हुए थे?
हुए थे कि
नहीं हुए थे, इससे भी कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। सवाल यह
है कि तुम्हें
मुक्त होना
है। तुम कैसे
मुक्त हो
सकोगे? तुम्हें
कौन सी बात
रास आती है? तुम किस बात
के साथ राजी
हो पाते हो? किस बात के
साथ सहज संबंध
जुड़ जाता है? सहज। चेष्टा
नहीं करनी
पड़ती।
तुम
देखते हो न? मीरा की बात
चलती है, कोई
सहज रोने लगता
है। उसके ही
पास कोई बैठा
है, बिलकुल
उसे कुछ भी
नहीं होता।
जिसको कुछ
नहीं होता, वह सोचता है
कि यह औरत कुछ
पागल मालूम
होती है। इसका
दिमाग खराब है,
हिस्टीरिकल
है। अब इसको
मिर्गी—विर्गी
तो नहीं आ
जाएगी? अब
क्या करना—यहां
से सरक जाएं
या क्या करें?
कि अपने ऊपर
ही पड़ने वाली
है?
तुम फिकर
में पड़ जाते
हो। और जिसकी
आंख से आंसू
बह रहे हैं, उसे हैरानी
होती है कि
तुम अंधे हो? तुम बहरे हो?
तुम्हें
कुछ सुनाई
नहीं पड़ता? तुम पत्थर
हो, पाषाण
हो? बात
क्या है? तुम
मूर्ति की तरह
क्यों बैठे
हुए हो? हिलते
भी नहीं!
तुम्हें
सुनाई नहीं पड़
रहा है? तुम्हारे
हृदय में कोई
तार नहीं छिड़
रहे हैं?
और
दोनों सही
हैं। दोनों
अपने—अपने में
सही हैं। और
दोनों में
समन्वय करने की
कोई जरूरत
नहीं है। मैं
न चाहूंगा कि
ये सज्जन जो
बिलकुल
मूर्तिवत
बैठे हैं, इस स्त्री
का हाथ पकड़ कर
और नाचें। नाच
भी खराब हो
जाएगा, इनकी
शांति भी खराब
हो जाएगी।
दोनों ही खराब
हो जाएंगे।
नहीं! ये कृपा
करके अलग—अलग
ही रहें।
स्त्री को
नाचने दो, इनको
ध्यान करने
दो। उसे
प्रार्थना
करने दो, इनको
संकल्प करने
दो। उसे रस
में जाने दो, इन्हें विरस
में जाने दो।
उसे राग से
मिलेगा परमात्मा,
इन्हें
विराग से
मिलेगा परमात्मा।
दोनों
परमात्मा में
पहुंच जाएं—यह
बात
महत्वपूर्ण
है।
मार्ग
का क्या मूल्य
है? तुम किस
मार्ग से चल
कर यहां तक आए
हो, इसका
अब क्या मूल्य
है? तुम
बैलगाड़ी पर
बैठ कर आए, कि
घोड़ागाड़ी पर
बैठ कर आए, कि
ऊंटगाड़ी पर
बैठ कर आए, कि
पैदल ही चले
आए हो, कि
पूरब से, कि
पश्चिम से, कि दौड़ते, कि हांफते—कैसे
तुम चले आए, अब इसका
क्या मूल्य है?
यहां तुम
बैठ गए आकर, तुम्हारे इस
बैठने में
तुम्हारे आने
का, तुम्हारे
मार्ग का क्या
लेना—देना है?
बात खत्म हो
गई। परमात्मा
में विराजमान
हो जाओ।
ये दो
मूल उपाय हैं।
अगर संकल्प
तुम्हारे
भीतर चुनौती
पैदा करता हो, संकल्प की
बात सुन कर
तुम्हारे पर
फड़फड़ाते हों
कि उड़ जाऊं
आकाश में, तो
ठीक, उसी
मार्ग से चल
पड़ो। अगर
संकल्प की बात
सुन कर
तुम्हारे
भीतर कोई
ऊर्जा न उठती
हो, कोई
उमंग न जगती
हो, कोई
स्वर न गूंजता
हो, कोई
सिहरन न आती
हो; और जब
समर्पण की बात
होती हो तब
तुम ऐसे डोलने
लगते हो जैसे
बीन को सुन कर
सांप डोलने
लगता है—तो
वही तुम्हारा
मार्ग है।
साधना—समन्वय
नहीं।
और
अंततः तुम
पाओगे: न ऐसा
है, न वैसा
है। तुम पूछना
चाहोगे: फिर
अंततः कैसा है?
नहीं कहा जा
सकता। कहने का
कोई उपाय नहीं
है। कोई नहीं
कह पाया। कोई
नहीं कह
पाएगा। जो भी
कहा जाएगा, वह या तो ऐसा
होगा, या
वैसा होगा। या
तो संकल्प का
होगा, या
समर्पण का
होगा। ये दो
भाषाएं हैं।
या तो भक्ति
या ज्ञान।
लेकिन
जो वस्तुतः है, जैसा है, सब
मार्ग जहां
जाकर समाप्त
हो जाते हैं, जो
मार्गातीत—उसे
कहने का कोई
उपाय नहीं है,
क्योंकि
उसको कहने के
लिए भाषा का
उपयोग करना पड़ेगा।
भाषाएं दो ही
हैं—भक्ति की
या ज्ञान की।
या तो महावीर
की भाषा है, या मीरा की।
या तो पतंजलि
की भाषा है या
चैतन्य की। दो
ही भाषाएं
हैं। तो जैसे
ही कही जाएगी बात...या
तो पहली हो
जाएगी या दूसरी...कहते
ही विकृत हो
जाएगी।
जैसा
है, उसे तो
जानना पड़ेगा।
मगर ये दोनों
मार्ग उस तक
पहुंचा देते
हैं।
चलो!
बैठे—बैठे
सोचो मत!
सोचना बहुत हो
चुका। कब तक
और सोचना है?
दूसरा
प्रश्न: संसार
में एक आप ही
हैं जिससे भय
नहीं लगता था।
पर इधर कुछ
दिनों से आपसे
भी भय लगने
लगा है। इतने
प्यारे भगवान
से भय लगे, ऐसा तो मैं
नहीं चाहता।
यह क्या
स्थिति है प्रभु?
पूछा
है, अगेह
भारती ने।
अच्छा है।
यह भय
वस्तुतः मेरा
नहीं है।
तुम्हारा
ध्यान धीरे—धीरे
गहन हो रहा है; मृत्यु के
करीब आ रहा है,
इसलिए पैदा
हो रहा है।
जैसे—जैसे ध्यान
गहरा होगा, भय आना शुरू
होता है।
क्योंकि
ध्यान की
अंतिम गहराई
में मृत्यु
है। वास्तविक
मृत्यु वहीं घटती
है। और
मृत्युएं तो
ऊपर—ऊपर हैं।
देह मर जाती
है, मन तो
जारी रहता है।
फिर मन नई देह
धर लेता है। फिर
नया गर्भ, फिर
नई यात्रा
शुरू हो जाती
है। वस्त्र
बदलते हैं
साधारण
मृत्यु में, तुम नहीं
बदलते।
ध्यान
में
महामृत्यु
घटती है।
तुम्हारा मन ही
मर जाता है।
तुम्हारा मैं—भाव
मर जाता है।
तो जब
उस मृत्यु के
करीब आने
लगोगे तो गहन
घबड़ाहट होगी, भय होगा। और
स्वभावतः, चूंकि
मेरे संग—साथ
चल कर वह
मृत्यु करीब आ
रही है, इसलिए
तुम मुझसे भी
भयभीत होने
लगोगे, क्योंकि
यही आदमी
तुम्हें उस
तरफ लिए जा
रहा है।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं: आचार्यो
मृत्युः! गुरु
मृत्यु—रूपी
है। गुरु
मृत्यु है। वह
आचार्य की
परिभाषा है।
जिसके पास
मृत्यु घट जाए, वही आचार्य!
वही गुरु!
कठोपनिषद
की कथा
तुम्हें याद
है? वह कथा
वस्तुतः
मृत्यु के पास
भेजने की नहीं,
गुरु के पास
भेजने की कथा
है। नचिकेता
के बाप ने बड़ा
यज्ञ किया है।
और वह बांट
रहा है यज्ञ के
बाद
ब्राह्मणों
को। नचिकेता
बैठा है—छोटा
सा नचिकेता!
जरा सा बच्चा
है।
जिज्ञासाएं
उसे उठती हैं।
छोटा बच्चा
है। बाप तो
पुराना घाघ है,
अनुभवी
आदमी है, चालाक,
चतुर है।
बेटा तो
निष्कपट है, सरल—चित्त
है। वह बाप की
बेईमानियां
देख रहा है वहीं
बैठा—बैठा।
बाप ऐसी गाएं
ब्राह्मणों
को दे रहा है, जिनका दूध
कई दिन पहले
ही समाप्त हो
गया है। वह
नचिकेता को
पता है। वह
कहता है:
पिताजी, ये
गाएं किसलिए
दे रहे हैं? इनमें दूध
इत्यादि तो है
ही नहीं। बाप
को बड़ी नाराजगी
होती है, क्योंकि
वे ब्राह्मण
भी सुन रहे
हैं।
बेटे
अक्सर पोल खोल
देते हैं। वह
वहीं बैठा है।
और वह कहता है
कि यह गाय तो
बिलकुल मरी—मराई
है, इसमें
कुछ नहीं है।
यह
ब्राह्मणों
को उलटा घास—पात
इसको खिलाना
पड़ेगा।
पिताजी, आप
यह क्या कर
रहे हैं? यह
कैसा दान? कुछ
मतलब की चीज
दो!
बाप
गुस्से में आ
जाता है। और
वह पूछता ही
चला जाता है।
बाप कहता है
कि मैं सब दान
कर दूंगा। कुछ
भी बचाऊंगा
नहीं।
महादानी होना
चाहता हूं।
तो
बेटा कहता है:
पिताजी, मैं
भी तो आपका
हूं, मुझे
भी दान कर
देंगे क्या? यह बात बड़ी
कीमत की पूछता
है वह।
क्योंकि हम तो
व्यक्तियों
पर भी परिग्रह
कर लेते हैं।
तुम कहते हो:
पत्नी—मेरी
पत्नी! पति—मेरा
पति। जैसे कि
पति—पत्नी कोई
संपत्ति है!
मगर यही चलता
रहा है। "स्त्री—संपत्ति'
ऐसा शब्द है
हमारे पास।
नारी—संपत्ति!
बेहूदे शब्द
हैं, कुरूप
शब्द हैं।
भाषा से चले
जाने चाहिए।
अपमानजनक
हैं। क्योंकि
कोई स्त्री
तुम्हारी संपत्ति
कैसे हो सकती
है?
बाप
बेटी का विवाह
करता है तो
कहता है:
कन्या—दान! हद
हो गई पागलपन
की! दान कर रहे
हो? जीवंत
आत्माएं दान
की जा सकती
हैं? तुम
हो कौन दान
करने वाले? यह आत्मा
तुम्हारी
नहीं है, तुम
से आई हो भला।
तुम रास्ते
बने थे इसके
आने में। मगर
यह आती तो
परमात्मा से
है, तुम्हारी
नहीं है। तुम
दान कर रहे हो!
एक आत्मा पैदा
करके तो बताओ,
फिर दान
करना। जो पैदा
कर सको, उसके
मालिक तुम हो
सकते हो; लेकिन
जो तुम पैदा
नहीं कर सकते
उसके मालिक कैसे?
और तब तो
मालकियत किसी
चीज की नहीं
हो सकती। गाय
तुम पैदा कर
सकते हो, कि
वृक्ष तुम
पैदा कर सकते
हो, कि
जमीन तुम पैदा
कर सकते हो? क्या तुम
पैदा कर सकते
हो? यहां
जो भी
मूल्यवान है,
जीवंत है—कुछ
भी पैदा नहीं
किया जा सकता।
तुम मुफ्त में
दावेदार बन
जाते हो।
तो
नचिकेता ने
पूछा कि
पिताजी, आप
सदा कहते हैं
कि मैं आपका
हूं। तो, तो
झंझट खड़ी हुई,
आप मुझको भी
दान कर देंगे
क्या? आप
कहते हैं, जो
आपका है, सब
दान कर देंगे।
बाप तब
तक बड़े गुस्से
में आ गया था।
उसने कहा: हां, दान कर
दूंगा। तुझे
मृत्यु को दे
दूंगा। और नचिकेता
जिद्द करने
लगा कि फिर कब
देंगे मृत्यु को?
तो बाप ने
कहा: तू जा, मृत्यु
का यह मार्ग
रहा। खोज
मृत्यु को।
मैंने तुझे दे
दिया।
और
नचिकेता गया।
मृत्यु के
द्वार पर तीन
दिन बैठा रहा, क्योंकि
मृत्यु के
देवता बाहर गए
थे। गए होंगे
लेने लोगों को—कहीं
मलेरिया होगा,
कहीं प्लेग
होगी। गए
होंगे
डाक्टरों से
जूझने।
मृत्यु—देवता
की पत्नी ने
बहुत समझाया।
छोटा सा बच्चा।
भोजन कर ले, पानी पी ले।
उसने कहा: कुछ
भी नहीं। पहले
मृत्यु—देवता
से मिलूंगा।
और तीन
दिन बाद
मृत्यु के देवता
आए। और बहुत
खुश हुए इस
बच्चे की
निष्ठा से।
इसकी सरलता से
भी। यह अपने
बाप से ज्यादा
सरल साबित
हुआ। और अदभुत
साहस वाला है
कि बाप ने तो
क्रोध में कहा
था मृत्यु को
देता हूं, यह चला ही
आया। इसने मान
ही लिया। इसने
ना—नुच भी न
की। इसने न
कहा: मैं न
मरूंगा, मैं
नहीं मरना
चाहता। ऐसा भी
न कहा। इसने
कहा: ठीक है, जब पिता
कहते हैं
मृत्यु तो
मृत्यु! जब
दान कर दिया
तो कर दिया।
और मैं
तीन दिन बाहर
था तो इसने
पानी भी न
लिया और भोजन
भी न लिया। तो
बहुत मृत्यु
के देवता उसकी
सरलता, निष्कपटता,
साहस, अदम्य
साहस से
प्रभावित हुए।
उन्होंने कहा:
तू तीन वरदान
मांग ले। तू जो
चाहे मांग ले।
लेकिन
उसने कहा कि
मुझे तो सिर्फ
एक बात जाननी
है, कि मरने
के बाद क्या
होता है? मृत्यु
के बाद क्या
होता है? कोई
बचता है कि
नहीं बचता है?
बहुत
समझाया
मृत्यु के
देवता ने: तू
यह ले ले, तू
वह ले ले, धन
ले ले, घोड़े
ले ले, रथ
ले ले, सारा
साम्राज्य ले
ले पृथ्वी का।
उसने
कहा: क्या
करूंगा, क्योंकि
एक दिन मौत
आएगी और आप सब
छीन लेंगे। आप
किससे कह रहे
हैं यह बात? आप ही कह रहे
हैं! अभी दे
देंगे, थोड़े
दिन भुलावा
रहेगा, फिर
मौत आएगी, फिर
छीन लेंगे।
मैं तो असली
बात जानना
चाहता हूं कि
मौत के बाद
क्या होता है?
मुझे तो
जीवन का वह
परम राज बता
दें। सब मिट
जाता है या
कुछ बचता है? जो बचता है, वह क्या है? वह अमृत
क्या है? बस
मैं उसी को
जानना चाहता
हूं। वही
संपत्ति, वही
साम्राज्य।
देना हो तो
वही दे दें।
ऐसा
कठोपनिषद
चलता है। यह
बड़ी गहन कथा
है। इस कथा का
रहस्य यही है
कि नचिकेता
गुरु के पास
गया है।
आचार्यो
मृत्युः! यदि
आचार्य
मृत्यु है, तो फिर
मृत्यु ही
आचार्य है।
और तुम
यही जानना कि
दुनिया में
सारे धर्मों का
जन्म मृत्यु
के कारण हुआ
है। मृत्यु से
हुआ है। वही
सदगुरु है।
अगर मृत्यु न
हो तो धर्म
विलीन हो
जाएंगे। अगर
तुम मरो न, कभी न मरो, तो तुम
बुद्ध की
सुनोगे, कि
महावीर की, कि कृष्ण की,
कि राम की, किसकी
सुनोगे? तुम
किसी की न
सुनोगे। तुम
कहोगे: हटाओ
बातचीत! सदा
यहां मजे से
रहना है, कहां
की बातें कर
रहे हो? स्वर्ग
यहीं
बनाएंगे। अभी
भी कहां सुनते
हो। सत्तर साल
रहना है तो भी
स्वर्ग बनाने
की कोशिश करते
हो। और अगर
सदा रहना होता,
तब तो तुम
कैसे सुनते!
अभी तो मौत
तुम्हें डरा देती
है, मौत
तुम्हें कंपा
देती है। तो
जैसे—जैसे
बूढ़े होने
लगते हो, थोड़ा—थोड़ा
सुनने लगते हो
कि शायद कुछ
मतलब की बात हो,
सुन लें, अब मौत करीब
आ रही है।
इसलिए
देखते हैं, मंदिर—मस्जिद
में बूढ़े और
बूढ़ियां
दिखाई पड़ते
हैं! जवान
वहां नहीं
जाते। जवान
वहां जाएं
क्यों? जवान
अभी लड़खड़ाया
नहीं है। अभी
मौत ने धक्का
नहीं दिया।
अभी होने दो
एकाध हार्ट—अटैक,
बढ़ने दो
ब्लड—प्रेशर।
होने दो कोई
खतरा। पैर
कंपने दो, हाथ
में कंपन आने
दो, घबड़ाहट
आने दो, मौत
का पहला झोंका
आने दो। तब यह
जाएगा मंदिर।
तब यह राम—राम
जपेगा। तब यह
माला फेरेगा।
मौत
धर्म की
जन्मदात्री
है।
अगेह
पूछते हैं:
"संसार में एक
आप ही हैं
जिससे भय नहीं
लगता था।'
जब तक
संबंध गहरा
नहीं था, तब
भय नहीं लगता
था। अब संबंध
निश्चित गहरा
होना शुरू हुआ
है, तो भय
लगेगा। और
एकदम से पहले—पहले
मैं डराऊं, वह बात ठीक
भी नहीं। पहले—पहले
तो फुसलाना
पड़ता है। पहले—पहले
तो कहना पड़ता
है: आप बड़े
सुंदर! सब ठीक!
पहले तो धीरे—धीरे
अंगुली पकड़नी
पड़ती है, फिर
पहुंचा। फिर
गर्दन!
आहिस्ता चलना
होता है, नहीं
तो तुम भाग ही
जाओ। फिर
मनमोहन की
फांसी कैसे
लगे? वह
फांसी तो तभी
लग सकती है, जब धीरे—धीरे
तुम राजी हो
जाओ; तुम
कहो कि ठीक है,
चलो हाथ ही
पकड़े हैं, कोई
हर्जा नहीं—चलेगा।
धीरे—धीरे तुम
राजी होते
जाते हो।
तो
अंततः तो
तुम्हारा मन
मरे, यही
सिखाना है।
तुम्हारा
अहंकार मरे, यही सिखाना
है। अंततः तो
तुम मिट जाओ, यही सिखाना
है। जैसे बीज
मिट जाता है
तो अंकुर होता
है, ऐसे
तुम मिटोगे तो
आत्मा होगी।
तुम्हारे रहते
आत्मा नहीं हो
सकती। जैसे
बूंद सागर में
गिर जाती है
और खो जाती है,
ऐसे तुम जब
खो जाओगे, गिर
जाओगे शाश्वत
के सागर में, जरा भी न
बचोगे, तुम्हारी
रेखा भी शेष न
रहेगी, तभी
तुम जानोगे
सत्य क्या है!
तो भय
लगना
स्वाभाविक
है। इससे यह
सोचना मत कि
तुम्हारा
प्रेम मेरे
प्रति कम हो
गया या मेरा
प्रेम
तुम्हारे
प्रति कम हो
गया है, इसलिए
भय लग रहा है।
नहीं! प्रेम
बढ़ा है, बढ़
रहा है। तुम
करीब आ रहे
हो। पतंगा
ज्योति के
करीब आ रहा
है।
दूर जब
पतंगा होता है
तब तो ज्योति
उष्ण है, ऐसा
मालूम नहीं
पड़ता। कैसे
मालूम पड़े? ज्योति जला
देगी, ऐसा
नहीं मालूम
पड़ता। पतंगा
ज्योति से
आह्लादित
होकर नाचता
हुआ चला आता
है। जैसे—जैसे
करीब आता है, वैसे—वैसे
उष्णता बढ़ती
है। मगर अब
ज्योति का
आकर्षण भी
प्रबल होने
लगता है। और
करीब आता है
कि पंख जलने
लगते हैं।
लेकिन अब
लौटने का उपाय
नहीं रह जाता।
अब ज्योति का
अदम्य आकर्षण
खींचता है। और
पतंगा गिर
जाता ज्योति
में और एक हो
जाता ज्योति
के साथ। ऐसे
ही शिष्य को
गुरु में गिर
कर एक हो जाना
है।
भय तो
लगेगा। भय
बिलकुल
स्वाभाविक
है।
और तुम
चाहो या न
चाहो—"इतने
प्यारे भगवान
से भय लगे, ऐसा तो मैं
नहीं चाहता।'
तुम्हारे
चाहने न चाहने
से अब कुछ भी न
होगा। अब तो
यह भय तभी
मिटेगा जब तुम
मिटोगे; उसके
पहले नहीं
मिटने वाला।
यह तुम को
मिटा कर ही
मिटेगा। पीछे
लौटने का उपाय
भी नहीं है अगेह!
और आगे गए तो
तुम न बचोगे।
और जहां हो
वहां अटके रहे,
तो भय
कंपाता
रहेगा। आगे
जाना ही होगा।
ज्योतिर्मय
की तरफ जो कदम
लिए हैं, वे
अब पीछे नहीं
मुड़ सकते।
साधना
के मार्ग पर
पीछे जाने का
उपाय नहीं है।
और बहुत बार
मन करेगा: लौट
चलो। बहुत बार
मन करेगा: पहले
ही ठीक था।
बहुत बार मन
करेगा: यह किस
उलझन में पड़े? यह किस झंझट
में पड़े? यह
कैसी दीवानगी
आई चली जाती
है?
मेरो
मन बड़ो हरामी!
यह मन तो
कहेगा। यह मन
तो छिटकाएगा।
यह मन तो
कहेगा: यह तो
भय होने लगा, अब यहां
क्या सार है, हटो! हम तो
प्रेम का
स्वाद लेने आए
थे।
प्रेम
के स्वाद से
ही यह भय आ रहा
है, क्योंकि
अब और बड़े
प्रेम के पैदा
होने की संभावना
है। मनुष्य को
बहुत—बहुत बार
मरना होता है।
बहुत—बहुत
रूपों में
मरना होता है।
बहुत—बहुत
तलों पर मरना
होता है। जिस
तल पर आदमी
मरता है, उससे
ऊपर के तल पर
जन्म पाता है।
मैंने
तुमसे पीछे
कहा कि सात तल
हैं। मूलाधार पर
मरता है तो
स्वाधिष्ठान
में पैदा होता
है। स्वाधिष्ठान
में मरता है
तो मणिपुर में
पैदा होता है।
मणिपुर में
मरता है तो
अनाहत में पैदा
होता है। ऐसे
मरता है और
पैदा होता है।
ऐसे भीतर की
यात्रा होती
है।
अब
आज्ञाचक्र पर
मरता
है...समझते
हो...आज्ञाचक्र
का अर्थ होता
है: वहां तक
अहंकार जा
सकता है। वहां
तक तुम्हारा
बस है इसलिए
उसका नाम
"आज्ञा' है।
वहां तक
तुम्हारी
आज्ञा चल सकती
है। उसके आगे
नहीं। वहां तक
संकल्प चल
सकता है, उसके
आगे नहीं।
वहां तक तुम
बचे रहते हो।
शुद्ध होते
जाते हो, स्वर्णमय
होते जाते हो,
मगर बचे
रहते हो।
अहंकार
परिपूर्ण
शुद्ध हो जाता
है, सूक्ष्म
हो जाता है, मगर बचा
रहता है।
आखिरी रेखा
बची रहती है।
इसलिए उसको
"आज्ञा' कहा
है। वहां तक
तुम्हारा बस
है; उसके
पार तुम अवश
हो जाते हो।
आज्ञा में जो
मरता है, वह
सहस्रार में
पैदा होता है।
सहस्रार है
हजार
पंखुड़ियों
वाला कमल!
आज्ञा छोटा सा
फूल है। छोटे
से फूल में जो
मरता है, वह
विराट फूल हो
जाता है।
ऐसे
सात तलों पर
मरना होता है।
गुरु के पास
आते—आते भी ये
सात मृत्युएं
घटती हैं।
क्योंकि गुरु
से जो
वास्तविक
मिलन है, वह
सहस्रार पर ही
होता है, उसके
पहले नहीं। उस
गगन—मंडल में,
उस आकाश में
ही, गुरु
से वास्तविक
मिलन होता है।
गुरु
की बात सुननी, एक बात।
गुरु की देह
के मोह और
प्रेम में पड़
जाना, एक
बात। गुरु के
व्यक्तित्व, गुरु की
गरिमा से
आंदोलित हो
जाना, एक
बात। गुरु—मिलन—बड़ी
दूसरी बात! उस
मिलन में फिर
तुम नहीं बचते।
वहां दुई नहीं
रह जाती। गुरु
के साथ पहली
दफे अद्वैत का
अनुभव होता
है।
तो भय
तो लगेगा।
घबड़ाहट तो
होगी। बहुत मन
कंपेगा कि यह
क्या कर लिया!
क्योंकि एक
अर्थ में यह
आत्मघात है।
अपने हाथ से
अपनी मृत्यु
को बुलाना है।
इसलिए
तो लोग भागते
हैं। बुद्ध से
बचते हैं, कृष्ण से
बचते हैं, क्राइस्ट
से बचते हैं।
कभी—कभी तो
लोग इतने
नाराज हो जाते
हैं कि खुद
मरने की बजाय
क्राइस्ट को
मार डालते
हैं। क्योंकि
इतना भय पैदा
कर देता है यह
आदमी कि दो ही
विकल्प रह
जाते हैं या
तो मरो इसके
साथ, या
इसको मारो।
अगर यह मौजूद
रहा तो हमको
मिटा कर
रहेगा। यह
घबड़ाहट पैदा
हो जाती है।
और तुम
ध्यान रखना, जीसस को
मारा हो
किन्हीं ने, लेकिन बेचा
था उनके
निकटतम शिष्य
ने, जुदास
ने। तीस रुपये
में बेच दिया
था।
जुदास
की कथा बहुत—बहुत
अर्थों में
समझने जैसी
है। इस अर्थ
में भी समझने
जैसी है, क्योंकि
जुदास निकटतम
शिष्य था।
सबसे समझदार
शिष्य था जीसस
का। सबसे
बुद्धिमान, सबसे पढ़ा—लिखा,
सबसे
ज्यादा
सुसंस्कारवान,
सबसे
ज्यादा
तर्कयुक्त! इस
बात की पूरी
संभावना है कि
वह घड़ी करीब आ
गई, जब या
तो जुदास मरे
या जीसस को
मरना पड़े।
दोनों का साथ
जीना संभव न
रहा। जुदास ने
यही तय किया
कि जीसस मरें,
मैं बचूं।
लेकिन ज्यादा
देर बच भी
नहीं सका। चौबीस
घंटे ही जीया।
जीसस को जब
सूली लग गई, तब पछताया।
तब उसे अपना
कृत्य दिखाई
पड़ा कि यह
मैंने क्या कर
लिया! जिसमें
मिट कर मैं परम
हो सकता था, उसे मैंने
मिटा डाला! उस
चौबीस घंटे के
पश्चात्ताप
के बाद उसने
आत्मघात कर
लिया। मिटना
तो पड़ा।
गुरु
के इतने पास
आकर बचा नहीं
जा सकता। गुरु
को मिटा दो तो
भी नहीं बचा
जा सकता। पीछे
लौटने का उपाय
नहीं है।
तो
घबड़ाओ मत! भय
है, उसे
देखो।
साक्षीभाव
रखो।
लजते
जीस्त को हम
सोजे जिगर
कहते हैं
राहले
कल्ब को हम
दीदए तर कहते
हैं
तेरी
ही यादे
मुसलसल की
हलावत है जिसे
अहले
दिल मसलहतन
दर्दे जिगर
कहते हैं
दर्द
बढ़ने से जो
मिलती है हमें
इक तसकीन
हम
उसे अपनी
दुआओं का असर
कहते हैं
है
ये तेरा ही
मुअत्तर नफसो
रंगे जमाल
सहने
गुलशन में
जिसे हम
गुलेतर कहते
हैं
रात
कहते हैं जिसे
है तेरी
फुर्कत का
खयाल
वस्ल
की आस को हम
नूरे सहर कहते
हैं
मस्ति—ओ—हाल
जिसे कहते हैं
दुनिया वाले
तेरे
दीवाने इसे
तेरी नजर कहते
हैं
एक
ही बात है जलवा
कहीं कहते हैं
इसे
कहीं
दीदार—ए—खुदी
हुस्न—ए—नजर
कहते हैं
तेरी
रफ्तार ही
अपनी है सकूने
कामल
वही
मंजिल है जिसे
शौक—ए—सफर
कहते हैं
लजते
जीस्त को हम
सोजे जिगर
कहते हैं
जीने
का स्वाद
प्यार के दर्द
के बिना मिलता
ही नहीं।
लजते
जीस्त को हम
सोजे जिगर
कहते हैं
जीवन
के आनंद को, जीवन के
स्वाद को हम
प्यार की पीड़ा
का नाम देते
हैं। प्यार की
पीड़ा को ही हम
जीवन का स्वाद
कहते हैं।
लजते
जीस्त को हम
सोजे जिगर
कहते हैं
राहते
कल्ब को हम
दीदए तर कहते
हैं
और
दिल का आराम
कहां है?
जब
आंखें आंसुओं
से भरी हों, तब!
राहते
कल्ब को हम
दीदए तर कहते
हैं
भीगी
आंख को ही हम
हृदय का
विश्राम कहते
हैं।
रोना
भी पड़ेगा, पीड़ा भी
झेलनी पड़ेगी।
ये सब इस
रास्ते पर
मिलने वाली
भेंटें हैं।
भेंट याद
रखना। इनको
पीड़ा मत
समझना। ये
कांटे
तुम्हें
प्रतिपल
मंजिल के करीब
ला रहे हैं।
तेरी
ही यादे मुसलसल
की हलावत है
जिसे
अहले
दिल मसलहतन
दर्दे जिगर
कहते हैं।
और
जिसे उस
प्यारे की याद
बैठ गई है—उसके
दिल में दर्द
बैठ गया; उसके
दिल में गहन
पीड़ा बैठ गई, विरह बैठ
गया। खूब
कांटे
चुभेंगे।
इन्हीं कांटों
के चुभने के
माध्यम से
फूलों के पैदा
होने की
संभावना करीब
आती है।
दर्द
बढ़ने से जो
मिलती है हमें
इक तस्कीन
जो
जानता है, जो पहचानता
है, जिसने
यह पीड़ा सही
है—वह कहेगा:
दर्द बढ़ने से
जो मिलती है
हमें इक तस्कीन।
एक शांति
मिलती है, एक
राहत मिलती
है। तस्कीन
मिलती है।
दर्द के बढ़ने
से! क्योंकि
जितना दर्द
बढ़ता है उतना
प्यारे के
करीब आना होने
लगता है। उसके
करीब आने के
कारण ही दर्द
बढ़ता है
हम
इसे अपनी
दुआओं का असर
कहते हैं
यह
हमारी
प्रार्थनाओं
का परिणाम है।
दुआओं का असर, कि दर्द बढ़
रहा है। प्रभु
और दर्द दे, ताकि हम और
करीब आएं!
प्रभु मिटाए,
ताकि प्रभु
ही बचे और हम न
बचें।
मस्ति—ओ—हाल
जिसे कहते हैं
दुनियावाले
भीतर
तो दर्द होता
है भक्त के, बड़ी पीड़ा
होती है, गहन
पीड़ा होती है।
आग की लपटें
जलती होती
हैं। क्योंकि
मौत रोज—रोज
करीब आती है।
लेकिन बाहर
भक्त बड़ा मस्त
होता है।
मस्ति—ओ—हाल
जिसे कहते हैं
दुनियावाले
बाहर
की दुनिया तो
देखती है उसकी
मस्ती को।
मीरा की मस्ती
को सबने देखा, मीरा की
पीड़ा को किसने
देखा? मगर
उस पीड़ा के
बिना मस्ती है
ही नहीं। असल
में जिसको तुम
बाहर मस्ती कह
रहे हो, वह
उसी पीड़ा का
छलकना है। वही
पीड़ा लबालब हो
गई है, भर
गई है पात्र
में, उछल
रही है।
मस्ति—ओ—हाल
जिसे कहते हैं
दुनियावाले
तेरे
दीवाने इसे
तेरी नजर कहते
हैं
बस
तेरी एक नजर
हो जाती है तो
सब दुख मिट
जाते हैं, सब पीड़ा मिट
जाती है। तेरी
एक नजर हो
जाती है तो सब
कांटे भूल
जाते हैं।
लंबी—लंबी
यात्राएं, यात्राओं
के कष्ट, सब
विस्मृत हो
जाते हैं।
दुनिया के लोग
जिसे मस्ती
कहते हैं, तेरे
दीवाने इसे
तेरी नजर कहते
हैं।
एक
ही बात है
जलवा कहीं
कहते हैं इसे
कहीं
दीदार—ए—खुदी
हुस्न—ए—नजर
कहते हैं
कोई तो
कहता है कि
देखो इस मस्ती
के जलवे को!...मीरा
के जलवे को
लोगों ने देखा, उत्सव को
देखा। यह जो
चमत्कार मीरा
के जीवन में
घटा! यह जो
मदिरा बही! यह
जो फिर से
ब्रज उतरा, और फिर से
कृष्ण नाचे!
नाचना ही पड़ा
कृष्ण को। यह
फिर से
बांसुरी बजी।
जिन्होंने भी
मीरा के करीब
बैठ कर सुना
है, उन्होंने
कृष्ण की
बांसुरी फिर
से सुनी। फिर मृदंग
पर थाप पड़ी!
फिर नृत्य।
फिर जलवा हुआ!
फिर उसकी
ज्योति उतरी!
एक
ही बात है, जलवा कहीं
कहते हैं इसे
कहीं
दीदार—ए—खुदी
हुस्न—ए—नजर
कहते हैं
बाहर
के लोग इसको
कहते हैं जलवा; भीतर जो
जानता है वह
कहता है, यह
उस परम प्यारे
की दृष्टि है!
उसके सौंदर्य की
प्रतीति!
तेरी
रफ्तार ही
अपनी है सकूने
कामल
वही
मंजिल है जिसे
शौक—ए—सफर
कहते हैं
भक्त
को मंजिल की
भी चिंता नहीं
है। वह कहता है:
यह यात्रा भी
बड़ी प्यारी है, यही मेरी
मंजिल है।
कहीं पहुंचूं,
इसका उसे
आकर्षण नहीं
है। जहां हूं,
जैसा हूं—यह
भी कम नहीं
सौभाग्य! इतना
भी बहुत है।
तो
घबड़ाना मत।
पीड़ा हो तो
समझना दुआओं
का असर। भय हो, डर लगे, कंपन
पैदा हो जाए, लौट जाने की
आकांक्षा
होने लगे—तो
भी समझना कि
दुआओं का असर।
सौभाग्य
समझना। जो भी
हो इस मार्ग
पर, उसे
सौभाग्य
समझना। और तब
तुम पाओगे: जो
भी हुआ, सब
सौभाग्य में
परिणत हो गया
है।
यहां
के सब कांटे
फूल बन सकते
हैं। यहां के
कंकड़—पत्थर
हीरे बन सकते
हैं। सिर्फ
दृष्टि की बात
है। गलत
व्याख्या कर
ली तो कठिनाई
में पड़ जाओगे।
तुमने अगर ऐसा
सोच लिया कि
भय तो बुरी
बात है। भय तो
नहीं होना
चाहिए। यह
क्यों हो रहा
है? तो तुम एक
गलत व्याख्या
में उलझे।
तुम्हारा मार्ग
अस्तव्यस्त
हो जाएगा।
क्योंकि भय से
बचने का एक ही
उपाय होगा कि
थोड़े और दूर
जाकर खड़े हो
जाओ, जैसे
पहले खड़े थे।
तो भय नहीं
लगेगा। लेकिन
दूर खड़े हो
गए। पतंगा दूर
चला गया दीये
से, तो
अपने सौभाग्य
से ही दूर चला
गया। वह दीये
में जो पतंगे
की मृत्यु है,
वही शाश्वत
जीवन का
प्रारंभ है।
तीसरा
प्रश्न: आपने
कहा कि गीता
के कृष्ण से
मीरा का कोई संबंध
नहीं है।
लेकिन मीरा तो
कहती है कि
मेरे तो गिरधर
गोपाल, दूसरो
न कोई। तो यह
गिरधर गोपाल
कौन है? स्पष्ट
करने की कृपा
करें।
गिरधर
गोपाल का गीता
में कहीं भी
उल्लेख है?
कृष्ण
पूर्ण अवतार
हैं। कृष्ण के
बहुत रूप हैं।
कृष्ण उतने
रूपों में
प्रकट हुए हैं
जितने रूप हो
सकते हैं।
गीता का कृष्ण
तो सिर्फ एक
ही रूप है
कृष्ण का।
शंकराचार्य
उस रूप के प्रेम
में हैं, श्री
अरविंद उस रूप
के प्रेम में
हैं, लोकमान्य
तिलक उस रूप
के प्रेम में
हैं।
गीता
पर हजारों
टीकाएं लिखी
गई हैं। कृष्ण
उसमें समाप्त
नहीं हैं। वह
कृष्ण की एक
तरंग है। वह
एक दृश्य है
कृष्ण के जीवन
का। उस दृश्य
को पूरा कृष्ण
मत समझ लेना, अन्यथा भूल
हो जाती है।
कृष्ण उससे
बहुत ज्यादा
हैं।
इसलिए
तो मीरा कहती
है: मेरे तो
गिरधर गोपाल!
यह गिरधर
गोपाल कृष्ण
का दूसरा रूप
है, जिसने
पर्वत को हाथ
पर उठा लिया
था। ये श्रीमद्भागवत
के कृष्ण हैं।
ये कृष्ण हैं,
जिन्होंने
मटकियों से
माखन चुराया।
ये कृष्ण हैं,
जिन्होंने
गोपियों की
मटकियों पर
कंकड़ मार कर
मटकियां
तोड़ीं। ये
कृष्ण हैं, जिन्होंने
रास रचाया
यमुना के तट
पर। ये कृष्ण
हैं, जो नाचे;
जिनके हाथ
में बांसुरी
है; जिनके
सिर पर
मोरमुकुट है;
जो पीतांबर
ओढ़े हुए हैं।
ये कृष्ण की
सौंदर्य—प्रतिमा,
ये कृष्ण का
शृंगार रूप!
ये कृष्ण
मनमोहन हैं!
तो तुम
गलत मत समझ
लेना। मैंने
यह नहीं कहा
कि मीरा किसी
और कृष्ण के
प्रेम में है।
मैंने सिर्फ
इतना कहा कि
गीता के कृष्ण
के प्रेम में
मीरा नहीं है।
नहीं तो गीता
पर व्याख्या
करती। कृष्ण
को मीरा ने
ऐसे देखा जैसे
राधा ने देखा
होगा, जैसे
और सखियों ने
देखा होगा।
युद्ध के
मैदान पर खड़े
कृष्ण नहीं—ब्रज
की कुंज गलिन
में रास रचाते,
बंसी वट में
बांसुरी
बजाते, गाएं
चराते! कृष्ण
का यह जो
मनमोहक रूप है,
कृष्ण का यह
जो प्रीतम रूप
है—मीरा इस
रूप के प्रेम
में है।
और
ध्यान रखना:
कृष्ण इतने
विराट हैं कि
तुम अपनी
मनपसंद का
कृष्ण चुन
सकते हो।
सूरदास ने कोई
तीसरा ही
कृष्ण चुना
है। वह छोटा
सा बालक कृष्ण, पैर में
गुनगुनियां
बांधे, नंग—धड़ंग,
यशोदा को
परेशान कर रहा
है। सूरदास ने
बालक कृष्ण को
चुना है।
सूरदास के लिए
बालकृष्ण
काफी हैं। वह
छोटे से कृष्ण
की लीला, बाललीला!
वह सूरदास को
भा गई है।
सूरदास का प्रेम
कृष्ण के
प्रति
वात्सल्य का
प्रेम है। छोटे
बच्चे के
प्रति। छोटे
बच्चे की
लीलाएं, खेलों
के प्रति।
छोटे बच्चे के
मचलने के प्रति।
सूरदास
वात्सल्य से
कृष्ण को
देखे।
मीरा
का कृष्ण मीरा
का पति है।
मीरा का कृष्ण
मीरा का
प्यारा है, प्रीतम है।
छोटे बच्चे की
तरह मीरा ने
कृष्ण को नहीं
चुना है; संगी—साथी
की तरह, मित्र
की तरह। जैसे
कोई स्त्री
पति को चुने, ऐसा मीरा ने
कृष्ण को चुना
है।
प्यारी
कहानी है।
छोटी थी मीरा।
और घर में एक साधु
ठहरा। उस साधु
के पास कृष्ण
की बड़ी प्यारी
प्रतिमा थी।
छोटी सी
प्रतिमा!
सांवले सलोने कृष्ण
की। मीरा छोटी
थी, होगी तीन—चार
साल की। सुबह
साधु ने पूजा
के लिए
प्रतिमा
निकाली, और
मीरा मचल गई।
वह प्रतिमा
चाहती थी।
साधु देने को
राजी नहीं था।
साधु ने साफ
इनकार भी कर दिया,
मीरा की मां
ने भी समझाया,
पैसा भी ले
लो। उसने कहा:
ये मेरे भगवान
हैं, इन्हें
मैं बेच नहीं
सकता हूं? यह
मैं नहीं दे
सकता। यह मुझे
बड़ी प्यारी
मूर्ति है।
इसके बिना मैं
नहीं रह सकता।
साधु
अपनी मूर्ति
लेकर चला गया।
दूसरे गांव में
रात सोया और
कथा है कि
कृष्ण उसे
प्रकट हुए निद्रा
में और कहा कि
तूने ठीक नहीं
किया। जिसकी
मूर्ति थी, उसे दे दे।
उसने
कहा: मूर्ति
मेरी है, उस
लड़की की नहीं।
कृष्ण ने कहा:
उसी की है।
तेरा संबंध मुझसे
औपचारिक है, तू और
मूर्ति उठा
लेना, उससे
भी चलेगा।
उसका संबंध
मुझसे बहुत
गहरा है। यह
मूर्ति उसी की
है, तू लौट
कर उसको दे आ।
इसी वक्त जा
और दे आ। तूने ठीक
नहीं किया।
और
वहां मीरा थी
कि दिन भर
भूखी बैठी थी।
उसने खाना
नहीं लिया।
उसने कहा:
मूर्ति
मिलेगी तो ही
खाना लूंगी, नहीं तो अब
मर जाऊंगी।
मां परेशान है,
घर के लोग
परेशान हैं।
अब यह भी कोई
जिद्द है! क्योंकि
दूसरे की चीज
है, वह दे, न दे। फिर
ऐसी—वैसी चीज
नहीं है, उसके
आराध्य देव की
प्रतिमा है; वह नहीं दे
तो कुछ
नाराजगी की
बात नहीं है, बिलकुल
स्वाभाविक
है।
लेकिन
दूसरे दिन
सुबह होते—होते
वह साधु भागा
हुआ आया। उसने
कहा: मुझे क्षमा
करो! मीरा के
पैरों में गिर
पड़ा और कहा:
सम्हालो अपने
कृष्ण को, वे तुम्हारे
हैं। फिर तो
मीरा चौबीस
घंटे उस मूर्ति
को अपनी छाती
से लगाए घूमती
रहती। फिर पड़ोस
में एक विवाह
हुआ किसी लड़की
का। मीरा वहां
गई है अपने
कृष्ण को लिए
हुए। पांच साल
की होगी। और
मां से पूछने
लगी: इसका विवाह
हो रहा है, मेरा
विवाह कब होगा?
और मां ने
ऐसे ही मजाक
में कहा: तेरा
विवाह तो हो
गया न! ये
कृष्णकन्हैया
से! और उसने
बात मान ली।
उस क्षण के
बाद उसने
कृष्ण के
अतिरिक्त किसी
को पति—रूप
में नहीं
देखा। विवाह
भी हुआ। लेकिन
कृष्ण ही पति
रहे। वह
कृष्णमय हो
गई।
मीरा
का कृष्ण गीता
का कृष्ण नहीं
है। ऐसा मेरा
कहने का मतलब
सिर्फ इतना
था: मीरा को
कृष्ण के
फलसफे में, उनके
दर्शनशास्त्र
में कोई रस
नहीं है। गीता
दर्शनशास्त्र
है। वह कृष्ण
का दार्शनिक
वक्तव्य है।
मीरा को कृष्ण
की आंखों में
रस है, उनके
शब्दों में
नहीं। मीरा को
कृष्ण के रूप
में रस है, उनके
सिद्धांतों
में नहीं।
मीरा को कृष्ण
में रस है; क्या
कहते हैं, इसमें
नहीं।
अभी
चार दिन पहले
यह घटना घटी।
एक यहूदी
मित्र, मनोवैज्ञानिक
हैं, सुशिक्षित
हैं, संपन्न
हैं; सत्य
की खोज में
अमरीका से
यहां चले आए।
संयोग की बात
थी कि जब वे
यहां पहुंचे
तो मैं जीसस
पर बोल रहा
था। यहूदी हैं
तो उनको बड़ा
कष्ट हुआ, संन्यस्त
होना चाहते थे,
लेकिन एक
बात ने अड़चन
डाल दी।
क्योंकि
मैंने जीसस पर
बोलते हुए कहा
कि जीसस से
बड़ा यहूदी
दुनिया में
दूसरा नहीं
हुआ। जीसस
यहूदी जाति के
सबसे ऊंचे
शिखर थे, गौरीशंकर
थे। यह बात
उनको चोट कर
गई। यहूदी का
मन यह मानने
को नहीं होता
कि—जीसस और
सबसे बड़े
यहूदी! यहूदी
तो मानता है
कि जीसस
भ्रष्ट
व्यक्ति हैं,
तभी तो सूली
दी, निष्कासन
किया। धोखेबाज
हैं, पाखंडी
हैं, असली
मसीहा नहीं
हैं। असली
मसीहा तो अभी
आने को है। और
इस आदमी ने
जबरदस्ती
शोरगुल मचा
दिया कि मैं
मसीहा हूं।
वे
संन्यास लेने
आए थे, मगर
यह एक वक्तव्य
उन्हें अड़चन
में डाल गया।
अब वे बड़ी
दुविधा में पड़
गए कि क्या
करूं, क्या
न करूं। मुझसे
पूछते थे कि
और सब तो ठीक
है, लेकिन
आपके इस
वक्तव्य से
राजी नहीं हो
पाता हूं।
बहुत सुनता
हूं, आपके
सब टेप सुन
रहा हूं, बार—बार
पढ़ता हूं, बार—बार
सुनता हूं, सब तरह की
कोशिश करता
हूं कि किसी
तरह राजी हो जाऊं,
लेकिन यह एक
वक्तव्य मुझे
अटकाए हुए है!
जीसस—और सबसे
बड़े यहूदी! यह
मैं नहीं मान
सकता हूं।
तो
मैंने उनसे
कहा: मेरे
वक्तव्य को
मानने की जरूरत
ही क्या है? मुझे मान
सकते हो सीधा—सीधा?
मैंने क्या
कहा, छोड़ो
फिकर! मैं
क्या हूं, इसकी
फिकर लो। और
जैसे बादल छंट
गए और मैं देख सका
सामने: उनकी
आंखों में जो
उलझन थी, वह
विदा हो गई।
जैसे सूरज
निकल आया आकाश
में!
मीरा
को, कृष्ण ने
क्या कहा है, इसमें
उत्सुकता ही
नहीं है।
कृष्ण की
दर्शन—प्रणाली,
कृष्ण का
सिद्धांत, शास्त्र,
कृष्ण के
वक्तव्य मीरा
के लिए गौण
हैं। विचार के
विषय नहीं
हैं। कृष्ण
सीधे—सीधे
हैं।
अगर
कृष्ण ने गीता
न कही होती तो
शंकराचार्य
को उनमें कोई
रस न होता।
अगर कृष्ण ने
गीता न कही
होती तो
लोकमान्य
तिलक ने उन पर
कोई किताब न
लिखी होती।
मीरा फिर भी
उनके गीत
गाती। मीरा
फिर भी
गुनगुनाती।
मीरा
का रस कृष्ण
के
व्यक्तित्व
में है। सीधा—सीधा
है। कृष्ण
क्या कहते हैं, कहने दो जो
कहते हों।
कृष्ण क्या
हैं, इसमें
मीरा का रस
है। इसलिए
मैंने कहा कि
गीता के कृष्ण
से कोई संबंध
नहीं है मीरा
का।
तुम
पूछते हो:
"आपने कहा कि
गीता के कृष्ण
से मीरा का
कोई संबंध
नहीं।'
तुम
मेरी बात समझे
नहीं।
"लेकिन
मीरा तो कहती
है कि मेरे तो
गिरधर गोपाल,
दूसरा न
कोई।'
मुझे
भी मालूम है
कि मीरा ऐसा
कहती है। मगर
खयाल रखना, गिरधर गोपाल
की कोई चर्चा
ही गीता में
नहीं है। यह
गिरधर गोपाल
कृष्ण का बड़ा
दूसरा आयाम
है।
कृष्ण
बहु—आयामी
हैं। महावीर
एक—आयामी हैं।
उसमें चुनाव
ज्यादा करने
की सुविधा
नहीं है।
महावीर में क्या
चुनाव करोगे? बहुत चुनाव
की सुविधा
नहीं है।
जैनों के दो
संप्रदाय हैं:
श्वेतांबर और
दिगंबर।
विपरीत हैं एक—दूसरे
से, भिन्न
हैं एक—दूसरे
से; लेकिन
फिर भी कितना
फर्क करोगे
महावीर में? ज्यादा फर्क
नहीं कर पाते,
थोड़ा ही सा
फर्क कर पाते
हैं। बड़ा
क्षुद्र! दिगंबर
की मूर्ति में
आंख बंद होती
है, श्वेतांबर
की मूर्ति में
आंख खुली होती
है। बस! और
फर्क ज्यादा
करोगे भी क्या?
और कुछ है
भी नहीं वहां,
नंग—धड़ंग
खड़े हैं। आंख
ही बची थी; उसको
चाहो खोल लो, चाहे बंद कर
लो। यह भी कोई
फर्क है? मगर
लड़ना हो तो यह
भी काफी है।
खोजा होगा
उन्होंने
बहुत, सब
तरफ निरीक्षण
किया होगा।
आगे—पीछे गए
होंगे। देखा
कि इस आदमी की
आंख भर हिलती,
बंद होती
है। बस यही
इसके दो ढंग
हैं—कभी आंख
खोल कर खड़ा
होता है, कभी
आंख बंद कर
लेता है। इतना
ही फर्क मिला
दिगंबर और
श्वेतांबरों
को। इतना सा
झगड़ा है। झगड़े
जैसा झगड़ा भी
नहीं।
क्षुद्र, दो
कौड़ी का है।
महावीर
एक—आयामी हैं।
ऐसे ही बुद्ध
भी एक—आयामी
हैं। कृष्ण
बहु—आयामी
हैं। खूब
चुनाव की
सुविधा है।
इसलिए ऐसा भी
हो सकता है कि
सूरदास को
सुनो तो
तुम्हें समझ
में न आए कि
किस कृष्ण की
बात कर रहे
हैं। और मीरा
को सुनो तो वह
कुछ दूसरे ही
कृष्ण की बात
कर रही है। और
शंकराचार्य
को सुनो तो वे
किसी तीसरे ही
कृष्ण की बात
कर रहे हैं।
मगर वे एक ही
कृष्ण की बात
कर रहे हैं।
लेकिन सबने
अपने अंग चुन
लिए हैं, जो
जिसको रुचिकर
लगा है। कृष्ण
तो एक सागर
हैं। उनके
बहुत घाट हैं।
तुम जो घाट से
चाहो, उतर
जाओ। गीता एक
घाट है। फिर
कृष्ण का
बालपन दूसरा
घाट है। फिर
कृष्ण की
युवावस्था
तीसरा घाट है।
बहुत घाट हैं।
कृष्ण के साथ
बड़ी स्वतंत्रता
है। तुम्हारा
जैसा भाव हो, कृष्ण की
तुम मूर्ति
वैसी ही गढ़ ले
सकते हो। कृष्ण
को तुम अपने
ढंग से प्यार
कर सकते हो, तुम्हें
स्वतंत्रता
है।
चौथा
प्रश्न: मैं
बहुत दुखी हूं, मुझे मार्ग
दिखाएं!
दुखी
कौन नहीं है? सभी दुखी
हैं। और मार्ग
भी एक है।
दुखी
हो इसलिए कि
जो है उससे भी
राजी नहीं होते।
क्या कारण है
दुख का? इतना
ही कारण है कि
जो है उससे
राजी नहीं
होते; कुछ
और होना
चाहिए। जहां
हो वहां राजी
नहीं होते; कहीं और
होना चाहिए।
जैसे हो वैसे
से राजी नहीं
होते; कुछ
और रूप होना
चाहिए। सदा
सपना देखते
हो। सपने के
कारण दुखी हो।
सपनों
को जाने दो।
जिस दिन सपने
चले जाते हैं, उसी दिन सुख
उतर आता है।
सुख सपनों के
अभाव में
उतरता है।
मांगो मत। कहो
मत कि क्या
होना चाहिए।
जैसा है, जो
है—इससे
अन्यथा न हो
सकता है, न
होगा। इससे
राजी हो जाओ।
इसके साथ
आनंदित हो जाओ—जैसा
है। फिर कैसा
दुख?
दुख
तुम्हारी
आकांक्षा के
कारण है। दस
हजार रुपये
तुम्हारे पास
हैं—क्या दुख
है दस हजार
रुपये में? दस हजार
रुपये में दुख
कैसे हो सकता
है? होगा
तो कुछ सुख ही
होगा, दुख
कैसे हो सकता
है? लेकिन
पड़ोसी के पास
बीस हजार हैं,
यह दुख है।
तुम्हारे पास
भी बीस हजार
रुपये होने
चाहिए, यह
दुख है।
मैं एक
घर में मेहमान
होता था। बड़े
धनपति थे। मुझे
लेने
एयरपोर्ट आए
थे। उनकी
पत्नी भी साथ थी।
कुछ उदास से
लगे। मुझे जब
भी लेने आते
थे तो कभी
उदास उन्हें
देखा नहीं था।
कम से कम मैं जब
तक रहता था
उनके घर, तब
तक वे प्रसन्न
रहते थे। उस
दिन उदास थे।
मैंने पूछा:
बात क्या है? उनकी पत्नी
बोली। उनकी
पत्नी ने कहा:
अब आप न ही
पूछें तो
अच्छा है।
इनके हिसाब से
पांच लाख का
नुकसान लग गया
है। मैंने
पूछा: इनके
हिसाब से? उसने
कहा: हां, इनके
हिसाब से।
मेरे हिसाब से
पांच लाख का
लाभ हुआ है।
मैंने पूछा:
मामला क्या है?
पति बोले कि
यह अपनी ही
जिद्द हांके
चली जाती है।
इधर मुझे पांच
लाख की हानि
हो गई है, यह
अपनी ही लगाए
चली जाती है।
मैंने
पूछा कि मुझे
पूरी बात
कहें।
उन्होंने कहा
कि बात यह है
कि कोई धंधा
किया था। दस
लाख मिलने की
आशा थी, पांच
ही लाख मिले।
दस लाख मिलने
का पक्का ही था,
आशा ही नहीं
थी। मिलने ही
चाहिए थे, और
नहीं मिले।
पांच ही लाख
मिले।
अब कौन
ठीक कह रहा है? दोनों ही
ठीक कह रहे
हैं। पांच लाख
नहीं मिले तो
दुख हो रहा
है। पांच लाख
मिले, उनका
सुख भी गंवाया
जा रहा है। जो
नहीं मिले, उनके कारण
जो मिले हैं, उनका सुख भी
नहीं भोग पा
रहे हो।
जीवन
को देखने का
ढंग बदलो।
तुम्हारी
व्याख्या में
कहीं भूल है।
कहीं
तुम्हारी
दृष्टि में
भूल है। जो है
वह बहुत है।
अहोभाग्य!
जितना है उसका
रस लो। तो
रूखी—सूखी
रोटी भी परम
भोग हो जाती
है। और नहीं
तो परम भोग भी
पड़े रहते हैं
सामने, तुम
उदास बैठे
देखते रहते हो;
भूख ही नहीं
लगती। भूख लगे
तो कैसे लगे? तुम्हारी
कल्पनाएं
आकाश छूती
रहती हैं। छूती
हुई आकाश को
जो कल्पनाएं
हैं, उनके
कारण तुम
बिलकुल कीड़े—मकोड़े
की तरह मालूम
पड़ते हो, जमीन
पर रेंगते हुए—उनकी
तुलना में। यह
तुलना की
भ्रांति है।
सभी
दुखी हैं, क्योंकि सभी
वासनातुर
हैं। तुम जहां
हो, जैसे
हो, जरा
उसे तो देखो!
वर्तमान के इस
क्षण में कहां
दुख है? या
तो दुख अतीत
से आता है। कल
किसी ने गाली
दी थी, अब
तुम अभी तक
दुखी हो रहे
हो; न गाली
रही, न
गाली देने
वाला रहा।
गंगा में
कितना पानी बह
गया! अब तुम
बैठे गाली
लिए: कल एक
आदमी गाली दे
गया। अब तुम
उसी की
उधेड़बुन कर
रहे। गाली को
फिर—फिर सोच
रहे। इधर से, उधर से सजा
रहे, संवार
रहे। घाव में
और अंगुलियां
चला रहे। घाव
को भरने नहीं
दे रहे। फिर—फिर
बैठ जाते हो
कि अरे! उसने
गाली दी।
लेटते, करवट
लेते और गाली।
ऐसा क्यों हुआ?
क्यों उसने
गाली दी? कैसे
बदला लूं? क्या
करूं? क्या
न करूं?
या तो
दुख अतीत से
आता है, या
भविष्य से। कल
सुख मिलेगा या
नहीं मिलेगा?
कैसे आयोजन
करूं? कल
महल में कैसे
मेरा प्रवेश
हो? कल
कैसे
साम्राज्य
मेरे हो जाएं?
और डर लगता
है कि हो नहीं
पाएंगे।
क्योंकि पहले
भी तो तुम ऐसे
ही सोचते रहे
थे कई कल आए और
गए और राजमहल
तुम्हारे न
हुए। तो अब भी
क्या है कि कल
हो जाएंगे
राजमहल
तुम्हारे? इतने
कल आकर धोखा
दे गए, यह
कल भी उसी
पंक्ति में
जाएगा। तो
घबड़ाहट लगती
है। भय होता, दुख होता
है। लेकिन कभी
सोचा—इस क्षण
में—जो न तो
अतीत से
आक्रांत है और
न भविष्य से
आंदोलित—कहीं
दुख है? दुख
पाया है कभी
इस क्षण में?
तुम
कहोगे: हां, कभी—कभी
होता है। सिर
में दर्द हो
रहा हो, फिर?
या पैर में
कांटा गड़ा हो,
फिर?
मैं
तुमसे कहना
चाहूंगा: जब
सिर में दर्द
हो रहा हो तब
भी तुम शांति
से बैठ जाओ, सिर के दर्द
को स्वीकार कर
लो। राजी हो
जाओ। दर्द को
अलग मत रखो।
ऐसे दूर खड़े
मत रहो कि मैं
अलग, और यह
रहा दर्द।
दर्द है तो
दर्द है। तो
तुम दर्द हो।
तो एक हो जाओ।
डूब जाओ
सिरदर्द में।
स्वीकार कर
लो। और तुम
चकित हो
जाओगे।
तुम्हारे हाथ
में एक कुंजी
लगेगी उस दिन।
तुम पाओगे:
जितना तुम
राजी हो जाते,
उतना दर्द
कम हो जाता।
सिरदर्द
नाराजगी है। सिरदर्द
बेचैनी है, तनाव है।
जैसे तुम राजी
होने
लगते...सिरदर्द
से भी राजी हो
गए, कि ठीक,
चलो, दुआओं
का असर है!
परमात्मा ने
भेजा, कुछ
मतलब होगा।
ऐसे अकारण तो
भेज नहीं
देगा। तुमको
ही भेजा, इतना
खयाल रखा।
इतने सिर हैं—और
दर्द तुमको
भेजा! मतलब
होगा। तुम पर
विशेष कृपा
है। दुआओं का
असर है।
स्वीकार कर लो,
झुक जाओ।
और तुम
चकित होओगे:
जैसे—जैसे
तुमने
स्वीकार किया
वैसे—वैसे
दर्द कम हुआ।
और अगर
स्वीकृति
परिपूर्ण हो
जाए, सौ
प्रतिशत, उसी
क्षण दर्द खो
जाएगा। तुम
करके देखो! और
उस दिन तुम
पाओगे कि दुख
को मिटाने की
कला तुम्हारे
हाथ में है।
जिंदगी
राहे गम से
निकल जाएगी,
तेरी
दुनिया ही
यक्सर बदल
जाएगी।
उनके
कदमों में इस
बार सर तो
झुका,
उनकी
चश्मे करम फिर
मचल जाएगी।
दिल
को मिल जाएगा
तेरे अमनो
सकूं
वक्त
रुक जाएगा जां
सम्हल जाएगी।
तेरे
सर पर है जो आज
मुश्किल खड़ी।
तू
यकीं रख कि कल
तक वो टल जाएगी।
चांदनी
में धुली रात
भी आएगी।
धूप
रंजो अलम की
भी ढल जाएगी।
तेरी
रग—रग में
दौड़ेगी सच्ची
खुशी।
झूठी
ख्वाहिश इक
दिन दिल की जल
जाएगी।
जिंदगी
राहे गम से
निकल जाएगी।
तेरी
दुनिया ही
यक्सर बदल
जाएगी।
बदल
सकती है
जिंदगी। जहां
दुख है वहां
सुख हो सकता
है। दुख
तुम्हारे
कारण है।
तुम्हारी गलत
दृष्टि दुख की
जन्मदात्री
है। दृष्टि
सृष्टि है।
जैसी दृष्टि
वैसी सृष्टि।
उनके
कदमों में इक
बार सर तो
झुका!
स्वीकार
करो! समर्पण
करो! कहीं चरण
खोज लो, जहां
झुक सको। असली
सवाल झुकना है,
खयाल रखना।
चरण कुशल उपाय
है। कहां
झुकते हो, कुछ
मतलब नहीं है।
झुको कहीं।
बुद्धं शरणं
गच्छामि!—चलेगा;
कि महावीर
के शरण में
झुक जाओ, चलेगा;
कि कृष्ण के
पैर पकड़ लो, चलेगा। ये
सब बहाने हैं।
जिस दिन
पहुंचोगे, उस
दिन पाओगे:
चरण सब उसी के
हैं। किसी के
भी चरण में
झुक जाओ। चरण
तो निमित्त
हैं; झुकना
असली बात है।
इसलिए अगर
वृक्ष के
सामने भी झुक
गए तो भी
चलेगा।
वह
जिसने पीपल को
देवता मान
लिया है और
झुक जाता है, तो भी चल
जाता है। जो
जाकर गंगा में
परम श्रद्धा
से झुक जाता
है, तो भी
चल जाता है।
असली सवाल न
गंगा है, न
पीपल का वृक्ष
है, न
पत्थर की
मूर्ति है, न काबा है—असली
बात है झुक
जाना।
स्वीकार कर
लिया: ठीक है, जैसी प्रभु
ने जीवन—यात्रा
दी है, वैसी
ही शुभ है।
उनके
कदमों में इक
बार सर तो
झुका
उनकी
चश्मे करम फिर
मचल जाएगी।
तुम
इधर झुके कि
वहां
परमात्मा की
अनुकंपा बिखरी
तुम पर। उनकी
चश्मे करम फिर
मचल जाएगी। तुम्हारे
झुकते ही
परमात्मा
अपनी अनुकंपा
को नहीं रोक
कर रख सकता; वह मचल जाती
है। इधर तुम
झुके कि उधर
परमात्मा तुम
पर ढला। तुम
अकड़े रहे तो
परमात्मा कुछ
भी नहीं कर
सकता; उसकी
अनुकंपा आती
है और लौट—लौट
जाती है। तुम
उसे अंगीकार
नहीं करते।
दिल
को मिल जाएगा
तेरे अमनो
सकूं
वक्त
रुक जाएगा जां
सम्हल जाएगी।
एक बार
झुको तो! वक्त
रुक जाएगा।
समय रुक जाएगा।
न फिर कोई
अतीत है, न
फिर कोई
भविष्य है। बस
वर्तमान! बस
वर्तमान! वर्तमान
ही वर्तमान
है!
वक्त
रुक जाएगा जां
सम्हल जाएगी
चांदनी
में धुली रात
भी आएगी।
धूप
रंजो अलम की
भी ढल जाएगी।
जिंदगी
राहे गम से
निकल जाएगी।
तेरी
दुनिया ही
यक्सर बदल
जाएगी।
आखिरी
प्रश्न: मैं
आपका संदेश घर—घर
पहुंचाना
चाहता हूं, लेकिन कोई
मेरी सुनता ही
नहीं है। मैं
क्या करूं? तड़फता हूं
और चुप हूं।
परख
के, देख—भाल
के फरेबे
जीस्त खाए जा
समझ के, जान—बूझ के
जहां से जी
लगाए जा
यहां
बनी है जो भी
शै बिगड़ने को
ही बनी है
ये देख
के भी खूबतर
हर इक शै बनाए
जा
नहीं
बना कोई कभी
किसी का इस
जहान में
ये
जानते हुए भी
सबको अपना तू
बनाए जा
बुझे—बुझे
हैं दिल यहां—दिमाग
हैं धुआं—धुआं
तू इन
स्याहियों
में दीप प्रेम
के जलाए जा
इक और
हां इक और जाम
की तलब है
सबको यां
जो
तश्नगी को दे
मिटा वो जाम
तू पिलाए जा
न सोच
ये कि तेरी
बात पा भी
जाएगा कोई
है बात
काम की अगर तू
गलगला मचाए जा
यही
सदा उठेगी
नारा बन के
कायनात में
कोई
सुने नहीं
सुने सदा—ए—हक
लगाए जा
अगर
तुम्हें लगता
है कि जो
तुम्हें मिला
है, वह सत्य
है, तो फिर
फिकर मत करो।
न सोच
ये कि तेरी
बात पा भी
जाएगा कोई
है बात
काम की अगर तू
गलगला मचाए
जा।
फिर चढ़
जाओ मकानों की
मुंडेरों पर
और चिल्लाओ!
यही
सदा उठेगी
नारा बन के
कायनात में
कोई
सुने नहीं
सुने सदाए हक
लगाए जा
सत्य
को कहना होगा।
चुप रहने की
जरूरत नहीं
है। जो तड़प
भीतर है, उसे
प्रकट करो। सौ
से कहोगे, दस
सुनेंगे। दस
सुनेंगे, एक
गुनेगा। मगर
तो भी काफी
है। सौ में से
एक भी बदल जाए
तो भी काफी
है। तुम
धन्यभागी हो
कि तुम
निमित्त बने
एक व्यक्ति को
परमात्मा से
जोड़ देने के, कि तुम सेतु
बने! इसकी
फिकर न करो कि
लोग पागल समझेंगे।
उन्होंने सदा
समझा है। इसकी
भी फिकर न करो
कि वे नहीं
सुनना
चाहेंगे।
वे
क्यों सुनना
चाहें? तुम
उनकी बनी—बनाई
बिगाड़ते हो।
वे अपना कागज
का मकान, पत्तों
का मकान बनाए
बैठे हैं और
आप आ गए—कि यह
कागज का, पत्तों
का मकान है, यह गिर
जाएगा। वे बड़े
सपने देख रहे
थे, तुम
कहां का
अपशगुन वचन
बोल रहे हो कि
गिर जाएगा! वे
नाव चला रहे
थे, सोचते
थे पार उतर
जाएंगे। इधर
आप आ गए, कहने
लगे: कागज की
नाव है, डूब
जाओगे! इसमें
उतरना मत!
उन्होंने
बड़ी आशाएं
बांधी थीं, तुमने सब
पानी फेर
दिया। वे तुम
पर नाराज भी
होंगे।
लोग
सपनों में जी
रहे हैं। तुम
हांक लगाते हो, जग जाओ और वे
मधुर सपने देख
रहे हैं। उनके
सपने टूटते
हैं। उनकी
नाराजगी
स्वाभाविक
है। वे सुनना
भी नहीं
चाहते।
तुमने
देखा: कभी—कभी
तुम कह कर सो
जाते हो कि
सुबह मुझे
पांच बजे उठा
देना, ट्रेन
पकड़नी है।
तुम्हारे
कहने की वजह
से ही कोई
तुम्हें
उठाता है और
तुम नाराज
होते हो। और
तुम दिल ही
दिल में
भुनभुनाते हो
कि यह दुष्ट पीछे
पड़ा है और
तुम्हीं ने
कहा था। लेकिन
सुबह—सुबह भोर
में जब अच्छे
सपने चलते
हों...ब्रह्ममुहूर्त
में जैसे सपने
चलते हैं और
कभी नहीं
चलते...उस वक्त
यह जगाने आ
गया। अरे, मानो
भूल से कह
दिया था कि
जगाना—इसका
मतलब यह थोड़े
ही था कि
जगाना ही? कह
गए, गलती
हो गई, क्षमा
करो; मगर
इतना कुछ मान
ही लेने की
जरूरत थोड़े ही
थी कि जगा ही
दो।
कौन
नींद से जागना
चाहता है! कोई
भी नहीं जागना
चाहता है। मगर
फिर भी तुम
कहो। जगाओ।
लोग नाराज हों, घबड़ाना मत।
लोग न सुनें, बुरा न
मानना।
न सोच
ये कि तेरी
बात भी पा
जाएगा कोई
है बात
काम की अगर तू
गलगला मचाए
जा।
आज
इतना ही।
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