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सोमवार, 25 जुलाई 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--17)

भक्ति का प्राण: प्रार्थना—(प्रवचन—सत्रहवां)
 सूत्र :

झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
सावन में उमग्यो मेरा मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनंद मंगल गावन की।

राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन, काल—ब्याल ते बांची।
उन बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भक्ति रसीली जांची।

मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ।
लूटे ही लेत विवेक का डेरा। बुधिबल यदपि करूं बहुतेरा।
हाय राम नहिं कछु बस मोरा। मरती बिबस प्रभु धाओ—धाओ।
धर्म उपदेस नित ही सुनती हूं। मन कुचाल से बहु डरती हूं।
सदा साधु सेवा करती हूं। सुमिरण ध्यान में चित्त धरती हूं।
भक्ति मार्ग दासी को दिखाओ। मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ।

भी तक स्पर्श—संवेदित सुनहली धूप की बालें।
प्रतीक्षा से सतत चित्रित घने हेमंत की छाया
अभी तक सुन रहा आकाश अपने छोर फैला कर
अरुण आलोक के मन में दिवा का गीत गदराया
अभी तक है सहेजे पंछियों की पांत बादल तक
बिछुड़ती, बेसंवारी, फैलती रेखा सगेपन की
अभी तक है बसाए डूबता दिन वक्र किरणों में
अचिह्नित तलतृणों की राह देखी लय विसर्जन की।
प्रभु के सान्निध्य के क्षण भूले नहीं भूलते। उसकी पगध्वनि एक बार सुनाई पड़, जाए तो अमिट रेखा छूट जाती हृदय पर। उसकी सुवास एक बार घेर ले, तो फिर उसे भुलाने का, विस्मरण करने का कोई उपाय नहीं।
प्रभु—सान्निध्य की जो रेखाएं बनती हैं, वे मन पर नहीं बनतीं, आत्मा पर बनती हैं। परमात्मा का संस्पर्श आत्मा से होता है। मन पर बनी स्मृति तो मिट जाती है, धूमिल हो जाती है। आज नहीं कल, समय की धूल जम जाती है। लेकिन आत्मा पर जो संस्पर्श होते हैं, वे सदा ताजे हैं, सदा ताजे बने रहते हैं। वे कभी बासे नहीं पड़ते। मन पर तो बात घटी नहीं कि अतीत हो जाती है, व्यतीत हो जाती है। आत्मा पर जो घटता है, वह शाश्वत है, सदा वर्तमान है। अतीत नहीं होता, व्यतीत नहीं होता। क्योंकि परमात्मा का जो संस्पर्श है, वह समय के भीतर नहीं होता—वह शाश्वत घटना है, कालातीत है। यद्यपि काल की धारा में उतरती हैं वे किरणें, लेकिन वे काल की नहीं हैं।
जैसे अंधेरे में उतरे कोई किरण; अंधेरे में उतरती है, लेकिन अंधेरे की नहीं है। ऐसे ही समय की धारा में भी भक्त कभी—कभी कालातीत को बुला लेता है। उसके रुदन से, उसके प्राणों की पुकार से, जो नहीं होना चाहिए वह भी घट जाता है। अघट घट जाता है। असंभव भी संभव हो जाता है।
भक्त के जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार यह नहीं है कि वह पानी पर चल ले। पानी चलने को बना भी नहीं है। भक्त के जीवन का बड़ा चमत्कार यह नहीं है कि वह आकाश में उड़ ले। परमात्मा को आदमी को आकाश में उड़ाना होता तो पंख दिए होते। भक्त के जीवन का बड़ा चमत्कार यही है—एकमात्र चमत्कार यही है कि समय की धारा में समयातीत को खींच लाता है; क्षुद्र के मध्य विराट को बुला लेता है। यहां जहां वासना ने सभी को मरुस्थल बना दिया है, वहां प्रभु के प्रसाद की वर्षा हो जाती है। यह चमत्कार है भक्त का। भक्त सावन की बदरिया को बुला लेता है। जन्मों—जन्मों से पड़ी थी जो भूमि हृदय की—सूखी, तपती हुई, दरारें पड़ गई थीं जिस हृदय में, सिवाय पीड़ा के जिस हृदय ने कभी कुछ नहीं जाना था—वहां महोत्सव घट जाता है। भक्त का यही चमत्कार है।
भक्त से और तरह के चमत्कार चाहने मूलतः गलत हैं। वह आकांक्षा ही भूल—भरी है। इससे बड़ा और क्या चमत्कार हो सकता है कि परमात्मा, जो अदृश्य है, भक्त के सामने दृश्य हो जाता है? उन्हीं अपूर्व क्षणों का स्मरण है मीरा के इन शब्दों में—
झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
जैसे बादल झुक आते हैं सावन में। स्मरण करो। पृथ्वी उमंग से भर जाती है, अहोभाव से भर जाती है। मंगलगान छिड़ जाता है। वृक्ष नाचने लगते हैं। पक्षी गीत गाने लगते हैं। सब तरफ हरियाली हो जाती है। सब तरफ हरा—भरा हो जाता है। पृथ्वी दुल्हन बनती है।
अभी कुछ दिन पहले आए होते तो सब रूखा पड़ा था, सब सूखा पड़ा था, सब विदग्ध था, मरुस्थल था। संसार वैसा ही मरुस्थल है—जहां सब दग्ध पड़ा है, सब जल गया है, ठूंठ खड़े हैं। लोग ठूंठ हो गए हैं। न उनमें पत्ते लगते हैं, फूलों की तो बात ही क्या करनी! वसंत आता ही नहीं; पतझड़ नियति हो गई है। जो है, वह खोता जाता है। जो मिलना चाहिए, वह तो मिलता नहीं। जो पास का है, वह भी रीतता चला जाता है। बूंद—बूंद कर लोग धीरे—धीरे बिलकुल सूख जाते हैं, जड़ हो जाते हैं। कठोर हो जाते हैं, पथरीले हो जाते हैं। फूल खिलें तो खिलें कहां?
ठीक मीरा ने प्रतीक चुना है, जैसे सावन की बदरिया घिर आई हो। और जैसे पृथ्वी मंगलगान से नाच उठती है, ऐसे ही एक दिन मनमोहन की बदरिया भी भक्त पर घिर आती है। हृदय उमंग बन जाता है। रोआं—रोआं नृत्य—मग्न हो जाता है। जीवन में पहली दफे अर्थ का उदय होता है। पहली बार अनुभव में आना शुरू होता है: सब व्यर्थ नहीं है। कुछ सार्थक भी है। और सार्थक जो है वह इतना बड़ा है कि उसके लिए सारी व्यर्थता झेली जा सकती है। जन्मों—जन्मों तक जो पीड़ा झेली, वह ना—कुछ हो जाती है—उस घड़ी में, जब पहली बार मनभावन की बदरिया भक्त को घेर लेती है।
बादल का प्रतीक समझने जैसा है। बादल लाता है जल। और सावन के बादल तो बहुत जल—भरे होते हैं! जैसे आकाश में सागर लहराता हो! बादल सागर से ही आते हैं, सागर से ही उठते हैं, सागर का ही रूप हैं। तो पहले तो बादल के प्रतीक में यह भी बात खयाल रखना: अनंत सागर से आते हैं! ऐसे ही परमात्मा के अनंत सागर से, उसकी महाकृपा की बदली भक्त को घेर लेती है।
जैसे सावन के बादल खूब भरे होते हैं, तैयार ही होते हैं बरस जाने को, जरा सा बहाना मिल जाए और बरसने को आतुर! और बहाना न मिले तो भी बरसने को आतुर। और बेशर्त बरसते हैं। ऐसा नहीं कि सूखी पृथ्वी पर ही बरसते हैं, भरी झीलों में भी बरसते हैं। फिर देखते नहीं कहां बरस रहे हैं। बरसना ही है! जब बादल इतना भरा हो तो बरसना ही पड़ेगा।
भक्त को जब पहली बार परमात्मा की सन्निधि मिलती है, तब उसे पता चलता है कि मेरे कारण नहीं, मेरे किसी कृत्य के कारण नहीं, न मेरी प्रार्थनाओं के कारण, न मेरे भजन के कारण, न मेरे व्रत—नियम—उपवास के कारण—बल्कि इसलिए कि परमात्मा की अनुकंपा है, प्रसाद है, इसलिए वर्षा हो रही है। इसलिए नहीं कि मैंने पुकारा था। इसलिए नहीं कि मैंने बड़ी प्रार्थना और पूजा की थी। बल्कि इसलिए कि परमात्मा इतना भरा है कि न बरसेगा तो करेगा क्या! मेरे प्रयास से नहीं, उसके प्रसाद से वर्षा हो रही है।
सावन के बादल के घिरते ही सारा माहौल बदल जाता है, सारा वातावरण बदल जाता है। वातावरण जीवंत हो जाता है। वर्षा के बादल जल ही नहीं लाते, जीवन लाते हैं। जल के बिना जीवन हो भी नहीं सकता।
तुम्हें पता है, तुम्हारी देह में अस्सी प्रतिशत जल है! तुम्हारी देह जल को खो दे कि तुम जी न सकोगे। अस्सी प्रतिशत, तुम्हारा बड़ा हिस्सा जल है। अस्सी प्रतिशत तुम जल हो। और यही अनुपात आत्मा का है तुम्हारे भीतर। बीस प्रतिशत ही संसार है। अस्सी प्रतिशत तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है, लेकिन तुम बीस में इस बुरी तरह उलझे हो कि अस्सी का पता नहीं चलता। तुम जितने हो, उससे बहुत ज्यादा गुना परमात्मा तुम्हारे भीतर है। लेकिन तुम अपनी क्षुद्रता में ऐसे तल्लीन हो गए हो, ऐसे व्यस्त हो गए हो कि तुम्हारी आंख ही विराट की तरफ नहीं उठती। तुमने देह को ही पकड़ कर समझा है कि सब मिल गया। और देह तो केवल दीवाल है। मालिक तो भीतर बैठा है। देह तो मंदिर है। परमात्मा तो भीतर विराजा है।
जैसे कोई मंदिर की दीवालों की ही पूजा करके लौट आए और भीतर के देवता तक न पहुंचे—ऐसा अधिक लोगों का जीवन है।
आकाश में जब बादल घिर जाते हैं सावन के, तो सब तरफ जीवन की वर्षा हो जाती है। जमीन अंकुरित होने लगती है। हरियाली छा जाती है। घास ही घास फैल जाती है। फूल ही फूल खिलने लगते हैं। ठीक ऐसा ही हरापन, ऐसा ही जीवंत रूप भक्त के भीतर प्रकट होता है। तो मीरा ठीक कहती है:
झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
वह जो मन के लिए सदा से प्यारा है, जो मनचीता है, जिसको सदा से चाहा है, अनेक—अनेक रूपों में जिसकी मांग की है, जिसे न मालूम कितने—कितने ढंग से खोजा है—वह आ गया! वह शुभ घड़ी आ गई, जिसकी जन्मों तक प्रतीक्षा की थी। प्रतीक्षा करते—करते न मालूम कितनी बार आशा की डोर भी हाथ से छूट गई थी। बहुत बार लगा था कि शायद परमात्मा नहीं है; होता तो मिलता। बहुत बार लगा था कि शायद मैं व्यर्थ ही खोज रहा हूं, लौट चलूं। बहुत बार लगा था कि मैं भी किस उलझन में पड़ गया हूं! यह मुझे कौन सा पागलपन सवार हो गया है! सारी दुनिया एक अर्थ में प्रसन्न मालूम होती है। धन को खोजती है, पद को खोजती है—पा लेती है। मैं किस पागलपन में पड़ गया—परमात्मा को खोजने निकला! शायद परमात्मा है ही नहीं। शायद यह मनुष्य की कल्पना ही है।
स्वभावतः लंबी यात्रा में बहुत बार इस तरह का संदेह पकड़े, बहुत बार इस तरह की दुविधा उठे, बहुत बार पैर लौटने—लौटने को हो पड़ें। बहुत बार लौट भी जाता है भक्त। फिर लौट आता है। फिर लौट आता है। बहुत बार पीछे चला जाता है। बहुत बार रास्ता छोड़ देता है। बहुत बार थक कर पटक देता है अपनी माला को। बहुत बार सोच लेता है कि नहीं, कोई नहीं है, आकाश खाली है, मैं किससे प्रार्थना कर रहा हूं? ये सब प्रार्थनाएं व्यर्थ का अरण्य रोदन है। मैं जंगल में रो रहा हूं, जहां कोई सुनने वाला नहीं है। और मेरी ये प्रार्थनाएं मेरी विक्षिप्तताएं हैं। मैं किससे कह रहा हूं? यहां कोई भी तो नहीं है।
यह बिलकुल स्वाभाविक है कि भक्त को हो। ऐसा तुम्हें कभी—कभी हो तो बहुत घबड़ा मत जाना। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यात्रा लंबी है। आदमी असहाय है। आदमी की क्षमता सीमित है और असीम को खोजने निकला है। सफलता मिलती है, यह चमत्कार है। विफलता मिलती है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। परमात्मा न मिले तो कुछ बहुत ऐसा मत सोच लेना कि महापापी हो, इसलिए नहीं मिलता; यह स्वाभाविक है। परमात्मा मिल जाए तो ऐसा मत सोचना कि महा पुण्यात्मा हो, इसलिए मिलता है। उसकी करुणा है, इसलिए मिलता है।
आदमी अपने ही प्रयास से खोजता रहे तो खोजता ही रहेगा—और खोज न पाएगा। इस बात को भी खयाल में लेना। खोजते—खोजते—खोजते एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि खोज तो मिट जाती है, क्योंकि अपनी असहाय अवस्था का पूर्ण बोध होता है, कि मेरे किए कुछ भी न होगा। जिस दिन यह बात इतनी सघन हो जाती है कि सौ प्रतिशत तुम्हारे भीतर बैठ जाती है कि मेरे किए कुछ भी न होगा, उसी दिन तुम्हारी प्रार्थना सच्ची होती है। उसके पहले प्रार्थना में संकल्प होता है। तुम कहते हो: प्रार्थना के जरिए तुझे पा लूंगा। तुम्हें अपने पर भरोसा होता है। तुम कहते हो: उपवास करूंगा, व्रत करूंगा, नियम पालूंगा—तुझे पा लूंगा। लेकिन भरोसा तुम्हें अपने पर है—अपने व्रत, अपने नियम, अपनी प्रार्थना, अपनी पूजा पर। जब तक यह भरोसा है तब तक तुम भटकोगे। यह अहंकार है। यह अहंकार का बड़ा सूक्ष्म रूप है। इसमें बहुत सार मिलने वाला नहीं है। कुछ भी मिलने वाला नहीं है। लेकिन यह जाते ही जाते जाएगा। इसे तुम आज छोड़ भी दो तो नहीं छोड़ सकते—जब तक तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें न बता दे और एक बार नहीं हजार बार बता दे कि तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होने वाला है; जिस दिन तुम्हें अपने पर पूरा भरोसा खो जाएगा—उस दिन जो प्रार्थना उठेगी वही सच हो जाएगी। उसी दिन सावन की बदरिया घिर आएगी।
खूब बारीकी से इस बात को खयाल में ले लेना, ध्यान में समाहित हो जाने देना। तुम्हारी प्रार्थनाएं चूकती हैं—इसलिए नहीं कि परमात्मा बहरा है। तुम्हारी प्रार्थनाएं चूकती हैं, क्योंकि तुम्हारे अहंकार से उठती हैं। अहंकार कैसे प्रार्थना करेगा? अहंकार प्रार्थना का धोखा दे सकता है। प्रार्थना अहंकार पूर्ण हृदय में उठ ही नहीं सकती। अहंकार तो प्रार्थना से बिलकुल ही विपरीत है।
तो अहंकार धोखा पैदा कर लेता है प्रार्थना का। जाते हो तुम मंदिर में, हाथ जोड़ते हो, झुकते भी हो—जरा भीतर देखना, तुम्हारे भीतर कोई नहीं झुका, सिर्फ देह झुकी। यह देह की कवायद हो गई।
एक मुसलमान मित्र ने एक किताब लिखी है। उसमें सिद्ध करने की कोशिश की है कि इस्लाम में जो नमाज का ढंग है, वह एक तरह का योग है। क्योंकि मुसलमान झुकता है, बार—बार झुकता है। तो उस किताब में सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि यह झुकने से शरीर का व्यायाम होता है; यह एक तरह का योग—आसन है। यह इस्लामिक योग है।
वे मित्र किताब लेकर मेरे पास आए थे। मैंने उनसे कहा: तुमने बिलकुल ठीक ही किया। यह कवायद ही है।
वे बोले: आपका मतलब?
मैंने कहा: तुमने सच्ची बात कह दी, हालांकि तुम्हारा प्रयोजन यह नहीं था। तुम तो सिद्ध कर रहे थे कि बहुत बड़ी बात है, यह योग है; लेकिन बात सच्ची निकल गई है। यह कवायद ही है। क्योंकि आदमी तो झुकता ही नहीं; देह ही झुकती है। आदमी तो भीतर अकड़ा खड़ा है।
तुम जब मंदिर में जाकर झुकते हो, तुम झुके हो? तुम नहीं झुके, देह झुक गई है। तुम जरा गौर से देखना। तुम अपने को अकड़ा हुआ खड़ा पाओगे। हो सकता है, मंदिर में प्रार्थना के समय, झुकते समय भी तुम चारों तरफ ध्यान रखे हो कि लोग देख रहे हैं कि नहीं, कि मैं कितना बड़ा धर्मात्मा, कितना बड़ा प्रार्थना करने वाला, जरा मेरी तरफ देखो।
जब मंदिर में भीड़—भाड़ होती है तो तुम्हारी प्रार्थना लंबी हो जाती है; तुम जरा ज्यादा देर तक झुके रहते हो। तुम पड़ ही जाते हो बिलकुल परमात्मा के चरणों में—जरा लोग ठीक से देख ही लें। और अगर फोटोग्राफर भी मौजूद हो, फिर तो कहना क्या है! अगर अखबार वाले भी उस दिन मंदिर आए हों तब तो फिर बात ही—फिर तो तुम उठोगे ही नहीं। उस दिन तुम छोड़ोगे—जाने दो दफ्तर आज, आज प्रार्थना में ही लग जाओ।
मगर यह प्रार्थना तुम किसकी कर रहे हो? तुम परमात्मा की कर रहे हो, या लोगों की जो तुम्हें देख रहे हैं? या फोटोग्राफर की? या पत्रकारों की? तुम किसके चरणों में झुके हो? तुम किसको धोखा दे रहे हो? यह तो तुम अहंकार ही अर्जित कर रहे हो कि मैं कितना बड़ा प्रार्थना करने वाला, कैसा पुण्यात्मा, कैसा विनम्र!
जिस दिन भक्त प्रार्थना कर—कर के हारता है, हारता चला जाता है; पराजय के सिवा और कोई स्वाद नहीं मिलता; विफलता, विफलता, विफलता—विफलता बिलकुल छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाती है—तब एक दिन बोध होता है: परमात्मा बहरा नहीं है। जरूर मेरी प्रार्थना में कहीं भूल हो जा रही है—मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकती। अहंकार मेरी प्रार्थना का गला घोंट देता है।
उस दिन अहंकार चारों खाने चित्त जमीन पर गिर जाता है। फिर उठती है एक प्रार्थना। तुम उस प्रार्थना को कर नहीं सकते—वह प्रार्थना उठती है। तुम्हारे किए की प्रार्थना नहीं है वह। अचानक तुम पाते हो, तुम्हारे भीतर से एक आह उठी! एक तुमुलनाद उठा! तुम देखते हो कि उठ रहा है। तुम उठाने वाले नहीं हो। तुम करने वाले नहीं हो। तुम कर्ता नहीं हो अब। अब तो यह अवश हुआ जा रहा है।
जिस दिन तुम्हारे बिना किए प्रार्थना हो जाती है, उसी दिन पहुंच जाती है। तुम्हारे द्वारा की गई प्रार्थना नहीं पहुंचेगी। तुमने की कि खराब कर दी। तुम जो भी करोगे, उससे तुम्हारा अहंकार भरेगा। कृत्य से अहंकार भरता है। जिस दिन प्रार्थना सहज उठेगी। जिसको कबीर ने कहा है: साधो सहज समाधि भली। जिस दिन सहज उठेगी। सहज का मतलब? तुम्हारे किए न उठेगी, तुम्हारे आयोजन से न उठेगी, तुम्हारी व्यवस्था से न उठेगी। जिस दिन तुम पाओगे कि तुम तो कुछ भी नहीं कर रहे हो और प्रार्थना उठी जा रही है; तुम तो नहीं झुक रहे हो और झुके जा रहे हो; तुम हो ही नहीं मौजूद, तुम बिलकुल रिक्त खड़े हो; तुम तो हार गए; तुम तो अपनी हार में मर गए—अब तुम्हारे चले जाने के बाद जो बचा है तुम्हारे भीतर, वह प्रार्थना में तल्लीन है। उसी दिन प्रार्थना पहुंच जाती है। उसी दिन परमात्मा की बदली तुम्हें घेर लेती है।
झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।
वह बदली तो तुम्हारी राह देख रही है कि कब तुम झुको कि वह भी झुक आए। क्योंकि वह, झुक गया है जो, उसी पर झुक सकती है। जो मिट गया है, उसी पर बरस सकती है। जो अभी अकड़ा खड़ा है, उस पर नहीं।
जो खाली है, उसी को भर सकेगा परमात्मा। जो अभी भरा है, उसको कैसे भरेगा?
झेन कथा है। एक विश्वविद्यालय का प्रोफेसर सदगुरु नानइन के पास गया। पहाड़ पर नानइन का झोपड़ा था। हांफ गया प्रोफेसर चढ़ते—चढ़ते। पहुंचा जाकर बैठा। जाते ही उसने कहा कि दर्शनशास्त्र पर कुछ बात करने आया हूं। ईश्वर है?
नानइन बूढ़े फकीर ने कहा: थके—मांदे हैं आप, थोड़ा विश्राम कर लें। चेहरे पर पसीना है, थोड़ा सूख जाने दें। और तब तक मैं चाय बना लाता हूं। जहां तक तो चाय पीते—पीते ही उत्तर मिल जाएगा। अगर न मिला तो पीछे उत्तर दे दूंगा। नानइन यह कह कर भीतर चाय बनाने चला गया। वह प्रोफेसर सोचने लगा: चाय पीते—पीते उत्तर मिल जाएगा! यह आदमी पागल तो नहीं है? मैं पूछता हूं, ईश्वर है? यह कहता है चाय पीते—पीते उत्तर मिल जाएगा। ईश्वर के होने का उत्तर चाय पीते—पीते कैसे मिल सकता है? शक होने लगा कि मैं नाहक इतना पहाड़ चढ़ा। यह आदमी कुछ विक्षिप्त मालूम होता है। खैर, लेकिन अब आ ही गया हूं, तो दो घड़ी और सही।
नानइन चाय बना लाया। उसने प्रोफेसर के हाथ में प्याली दे दी। चाय ढालने लगा केतली से। प्याली भर गई, कप भर गया, फिर भी ढालता गया। बसी भी भर गई, फिर भी ढालता जा रहा था, तो प्रोफेसर चिल्लाया कि रुकिए! मुझे पहले ही शक हो गया कि आपका दिमाग कुछ खराब है। एक बूंद रखने की जगह नहीं है प्याली में, अब क्या फर्श पर भी चाय उंडेल देनी है?
नानइन हंसने लगा। उसने कहा: तो उत्तर यही है। तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि प्याली में एक बूंद चाय रखने की जगह नहीं है। तुम्हारे भीतर परमात्मा को रखने की एक बूंद भी जगह है? पूछने चले आए हो, ईश्वर है या नहीं! पहले यह तो पूछो कि तुम्हारे भीतर उसे रखने की जगह है? तुम खाली हो? जो खाली है, वही प्रश्न पूछने का हकदार है, क्योंकि खाली में ही प्रवेश हो सकता है।
परमात्मा तो चारों तरफ से कोशिश कर रहा है तुम में प्रवेश कर जाने की, मगर तुम्हारी प्याली इतनी भरी है कि कहीं कोई जगह ही नहीं। उसकी बदलियां तो तुम्हें अभी भी घेरे खड़ी हैं। उसके लोक में तो सदा सावन है। उसके लोक में तो कभी सावन के अतिरिक्त और कोई ऋतु होती ही नहीं; वहां तो सदा एक ही ऋतु है—सदा हरापन, सदा जीवन, सदा यौवन! वहां पतझड़ कभी नहीं आता।
परमात्मा तो केवल वसंत को ही जानता है। जैसे तुम केवल पतझड़ को ही जानते हो, ऐसे परमात्मा केवल वसंत को ही जानता है। जैसे तुम केवल मृत्यु को ही जानते हो, परमात्मा केवल अमृत को ही जानता है।
परमात्मा तुमसे ठीक विपरीत छोर पर खड़ा है, और चारों तरफ से घेरे हुए है कि कभी मौका मिल जाए, कभी तुम से भूल—चूक हो जाए, द्वार—दरवाजे खुले छूट जाएं, तो वह प्रवेश कर जाए। वह चोर की तरह रात भी तुम्हारे चारों तरफ खड़ा रहता है।
इसलिए तो हिंदुओं ने उसको एक नाम दिया है—हरि! हरि का अर्थ होता है: चोर। जो हर ले, वह हरि! जो झपट ले, जो मौका पा जाए तो तुम्हें ले उड़े—वह हरि! तुम्हें घेरे खड़ा है। कभी मौका मिल जाए, शायद, तुम्हारे बावजूद, कभी तुम द्वार पर सांकल लगाना भूल जाओ, कि खिड़की रात खुली छूट जाए, कि कहीं से दरवाजे में संध मिल जाए—तो वह घुस आए। मगर कहीं से तुम्हारे भीतर जगह नहीं, तुम बिलकुल भरे हो। बूंद भर भी रखने को जगह नहीं। नहीं तो उसकी बदली तुम्हें सदा घेरे है।
देखते हो, वर्षा जब होती है, पहाड़ पर भी होती है, लेकिन पहाड़ खाली रह जाते हैं! क्योंकि पहले से ही भरे हैं, अब और भरें कैसे? गङ्ढों में जल भर जाता है, पहाड़ खाली रह जाते हैं। तुम गङ्ढों से राज सीखो भक्ति का। गङ्ढे की कला क्या है? क्योंकि गङ्ढा खाली है, इसलिए भर जाता है, झील बन जाती है। जो खाली है, वह भर जाता है और जो भरा खड़ा है, वह खाली का खाली रह जाता है। वर्षा उस पर भी होती है। हिमालय के शिखर पर भी वर्षा होती है, लेकिन सब बह कर गङ्ढों में चला जाता है। पहाड़ पर कुछ भी रुकता नहीं।
तुम पर भी परमात्मा बरस रहा है, मीरा पर भी बरस रहा है। मीरा में भर जाता है, तुम पर नहीं भर पाता। तुम्हारे अहंकार के पहाड़ बड़े ऊंचे हैं। तुम्हारा अहंकार बिलकुल गौरीशंकर जैसा है। मीरा झील बन जाती है। खूब प्यारी झील बन जाती है! खूब गहरी झील बन जाती है।
उतना ही गहरा परमात्मा तुममें उतरेगा जितना गहरा तुम खाली हो गए। उसी अनुपात में उतरेगा। उससे ज्यादा उतर नहीं सकता। कैसे तुम खाली होओ? तुम्हारा कृत्य पर भरोसा छूट जाए, तो तुम खाली हो जाओ।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।
मीरा कहती है: हरि के आने की भनक सुनाई पड़ी, इतना ही काफी हो गया। अभी दिखाई भी नहीं पड़ा हरि। अभी तो उसकी पदचाप सुनाई पड़ी, दूर...लेकिन बादल उमड़—घुमड़ कर आ रहा है। उसकी आवाज आने लगी है। इतना भी काफी है।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा...
और मेरा मन उमंग से भर गया है। और मेरा मन नाच रहा है। और मैंने पग—घुंघरू बांध लिए हैं।
...भनक सुनी हरि आवन की।
और अभी हरि आ नहीं गया है, सिर्फ भनक पड़ी है कान में कि आता है; कि आता हूं, ऐसी आवाज आ गई है। इतना भी काफी है। परमात्मा को मिलने पर तो आनंद होता ही है। मिलने की भनक भी पड़ जाए तो भी अपार आनंद होता है। सम्हाले न सम्हले, ऐसा आनंद होता है।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
और जैसे बादल चारों दिशाओं से उमड़—घुमड़ कर आते हैं, ऐसा ही परमात्मा आता है। उसकी कोई दिशा नहीं है कि पूरब से कि पश्चिम से। हिंदू पूरब की तरफ सिर झुकाते, मुसलमान पश्चिम की तरफ सिर झुकाते। परमात्मा की कोई दिशा नहीं है। तुम जहां भी सिर झुकाओ, उसी को झुकता है, क्योंकि सब दिशाओं में वही है। सब दिशाएं उसकी हैं।
नानक के जीवन की कहानी पढ़ी न? वे गए काबा और सो गए रात पैर करके काबा की तरफ। पुजारी नाराज हो गए। लाख लोग कहें कि हम मूर्ति नहीं पूजते, मगर मूर्ति वापस लौट—लौट आती है। तो काबा ही की मूर्ति बन गई। काबा का पत्थर, वह मूर्ति बन गया। उसकी तरफ पैर नहीं कर सकते।
अब, इस्लाम का मौलिक सिद्धांत यही है कि परमात्मा की कोई मूर्ति मत बनाना। क्यों? क्योंकि मूर्ति बनाने से दिशा हो जाती है, मूर्ति कहीं रखोगे, तो उससे यह भ्रांति पैदा होती है कि परमात्मा बस यहीं है। और परमात्मा सब जगह है, तो यह तो बड़ी भ्रांति हो गई कि परमात्मा बस यहीं है। पूजा होगी तो मंदिर में होगी, प्रार्थना होगी तो मंदिर में होगी। और कहीं प्रार्थना नहीं हो सकती? इन वृक्षों के नीचे बैठ कर प्रार्थना नहीं हो सकती?
जब तुम परमात्मा को कहीं आरोपित कर लेते हो तो संकुचित कर देते हो, सीमित कर देते हो। तुम तो विराट होने से रहे, उसको भी सीमा में बांध देते हो! होना तो यह था कि तुम भी सीमा तोड़ कर विराट होते, तुम भी सीमा के बाहर असीम में उड़ते। तुमने उलटा किया। तुमने, परमात्मा असीम था, उसको भी सीमा में बांध दिया। तुम परमात्मा जैसे होते, तो तो क्रांति घटती; तुमने उलटा किया: परमात्मा को अपने जैसा बना लिया।
बाइबिल कहती है कि परमात्मा ने आदमी को अपनी शक्ल में बनाया। वह बात गलत है। आदमी ने परमात्मा को अपनी शक्ल में बना लिया है। इसलिए मूर्तियां खड़ी हो गईं।
इस्लाम का मौलिक सिद्धांत है कि मूर्ति मत बनाना। मगर बात रुकती नहीं। बन ही जाती है मूर्ति। आदमी ऐसा मूढ़ है कि मूर्ति बिना बनाए रह नहीं सकता। सिर्फ परम भक्ति को जिसने जाना है, वही मूर्ति बनाने से बचे तो बचे।
...तो काबा के पुजारी नाराज हो गए। उन्होंने नानक को कहा कि बदतमीज हो! देखने में साधु मालूम पड़ते हो। लेकिन तुम्हें इतना भी सऊर नहीं, इतना भी संस्कार नहीं है कि पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे हो? परमात्मा के मंदिर की तरफ पैर करके सो रहे हो?
नानक ने ठीक कहा। नानक ने कहा: तो मेरे पैर तुम वहां कर दो, जहां परमात्मा न हो।
मुश्किल में पड़ गए होंगे पुजारी। लेकिन पुजारियों जैसे मूढ़ तो खोजने कठिन हैं। कहानी यह कहती है कि उन्होंने कोशिश की। नानक के पैर उन्होंने दूसरी दिशा में करने चाहे। लेकिन जहां—जहां उन्होंने नानक के पैर किए, काबा उसी तरफ सरक गया। यह बात शायद हुई हो, न हुई हो। जहां तक तो नहीं हुई होगी। लेकिन इसके पीछे अर्थ गहरा है।
ये इस तरह की कहानियां इतिहास नहीं हैं। इस तरह की कहानियां पुराण हैं। और पुराण इतिहास से बहुत मूल्यवान हैं। इतिहास तो कूड़ा—कर्कट का हिसाब है। पुराण शाश्वत की दृष्टि है।
अब तुम यह जिद्द मत करना—जैसा कि सिक्ख करते हैं—कि सच में ही काबा चारों तरफ हटा। लेकिन बात बड़ी मूल्य की है। नानक के पैर जिस तरफ गए होंगे, उसी तरफ पुजारियों को खयाल आया होगा: परमात्मा तो यहां भी है! ऐसी कौन सी जगह है जहां परमात्मा नहीं है? यही काबा के हटने का अर्थ है। तो फिर उन्होंने पहले पूरब कर दिए होंगे, फिर दक्षिण कर दिए होंगे, फिर उत्तर कर दिए होंगे—और सब दिशाओं में करके उन्होंने बार—बार सोचा होगा कि नानक ने शर्त यह रखी है कि मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा नहीं है। हर तरफ पैर करके उनको संदेह पैदा हुआ होगा कि परमात्मा तो यहां भी है; यह बात भी ठीक नहीं है। नानक के पैर उस तरफ करने संभव नहीं हैं, जहां परमात्मा न हो। क्योंकि ऐसी कौन सी जगह है जहां परमात्मा नहीं?
परमात्मा सब दिशाओं में है। सब दिशाएं उसकी हैं। सारा अस्तित्व उसका है। वह अस्तित्व में सब तरफ डूबा है, हर तरफ डूबा है। वही पत्थर है, वही नदी है, वही वृक्ष है, वही पशु—पक्षी है, वही चांदत्तारा है। सब तरफ काबा है। कहां करोगे पैर?
नानक ने कहा: अब तुम्हीं सोचो। आखिर मुझ गरीब को सोना भी पड़ेगा कि नहीं? कहीं तो पैर करूंगा? तो काबा की तरफ करूं कि काबा की तरफ न करूं, क्या फर्क होता है? पैर तो परमात्मा की तरफ ही होंगे। फिर पैर भी तो उसी के हैं। फिर पैर के भीतर भी तो वही विराजमान है। तो अड़चन क्या है? नाराजगी क्या है?
मीरा कहती है: उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए! वह चारों दिशाओं से आता है। वह सब तरफ से आता है। तुम भर खाली हो जाओ। तुम भर शून्य हो जाओ। तुम भर रिक्त हो जाओ। इसी तरह तो सावन के बादल भी आते हैं।
तुम वैज्ञानिक से पूछो: बादल क्यों उमड़—घुमड़ कर आते हैं? तो वैज्ञानिक कहता है कि गर्मी में जब धूप पड़ती है सघन, सूरज तपता है अग्नि की तरह, तो जहां—जहां सूरज बहुत गहन अग्नि की तरह बरसता है, वहां—वहां वायु विरल हो जाती है। ताप के कारण वायु विरल हो जाती है, फैल जाती है। ताप को सह नहीं पाती और भाग खड़ी होती है। तो वह जहां—जहां से वायु भाग खड़ी होती है, वहां—वहां गङ्ढे हो जाते हैं। वायु में गङ्ढे हो जाते हैं। जैसे पृथ्वी में गङ्ढे होकर झील बनती है, ऐसे वायु में गङ्ढे हो जाते हैं। और उन गङ्ढों को भरने के लिए बादल चारों तरफ से भागने लगते हैं। बादल भी भागते हैं गङ्ढों की तरफ।
और परमात्मा के बादल भी तभी भागते हैं जब तुम्हारे भीतर ध्यान का गङ्ढा हो, प्रार्थना का गङ्ढा हो। जब तुम इतने विरल हो जाओ कि यह पत्थर जैसा सख्त तुम्हारा अहंकार, छितर—बितर हो जाए।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
खूब बिजली चमकती है।
...दामण दमक झर लावन की।
और पानी से भरी हुई बदली करीब आती है। और खूब बिजली चमकती है।
ठीक ऐसी ही घटना भीतर भी घटती है। इसलिए यह प्रतीक मीरा ने खूब प्यारा चुना है। परमात्मा के बादल जब तुम्हारे भीतर आते हैं तो खूब बिजली चमकती है। खूब रोशनी होती है! उसी रोशनी की चर्चा तो संतों ने की है। कबीर ने कहा है: जैसे हजार—हजार सूरज एक साथ आ गए हों, ऐसी रोशनी हो जाती है। भीतर आलोक ही आलोक फैल जाता है। आलोक के झरने बह जाते हैं। आलोक के फव्वारे फूट उठते हैं। रोआं—रोआं भीतर आलोक से भर जाता है, कोना—कोना आलोक से भर जाता है। सब अंधकार भीतर मिट जाता है।
इस बिजली के चमकने की अलग—अलग तरह से कथाएं हैं। अलग—अलग परंपराएं अलग—अलग ढंग से इस बात को कहती हैं। लेकिन सभी इस बात को कहती हैं, कि भीतर परमात्मा के आने के पूर्व खूब रोशनी हो जाती है। जैसे रोशनी परमात्मा के रास्ते को साफ करती है! जैसे उसे आने के लिए रास्ता बनाती है! जैसे रोशनी के पीछे—पीछे परमात्मा चला आता है!
बादल भी बिना बिजली के नहीं बरसते। अगर तुम वैज्ञानिक से पूछोगे तो वैज्ञानिक कहता है: बिजली के बिना पानी बन नहीं सकता। पानी बनता ही बिजली की मौजूदगी में है। बिजली की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट है। बनता तो है पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से। लेकिन दोनों का मिलन तभी होता है जब बिजली मौजूद हो। अगर बिजली मौजूद न हो तो मिलन नहीं होता। उतना उत्ताप चाहिए बिजली का। उसी उत्ताप में, उसी उत्ताप की मौजूदगी में आक्सीजन और हाइड्रोजन मिल जाते हैं और पानी बन जाता है।
शायद वैसी ही कुछ घटना भीतर रस के पैदा होने में भी होती है। उसका विज्ञान अभी खोजा नहीं गया। उसका रसायनशास्त्र किसी ने लिखा नहीं है। लेकिन सारे संत कहते हैं कि उसके आने के पूर्व खूब बिजली चमकती है, खूब रोशनी होती है। फिर ही वह आता है।
तो जरूर परमात्म—अनुभव भी, वह परमात्मा की जो रसधार बहेगी, वह भी, शायद रोशनी के बिना नहीं बह सकती। शायद रोशनी रास्ता बनाती है। रोशनी कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है। रोशनी की उपस्थिति में तुम्हारे भीतर जो बिखरे हुए तत्व पड़े हैं, वे संगृहीत हो जाते हैं, एक हो जाते हैं। तुम्हारे भीतर एकता का जन्म हो जाता है। शायद उसी एकता में परमात्मा बरस सकता है। उस एकता के बिना परमात्मा नहीं बरस सकता।
तो दो तत्व मिले। एक कि तुम शून्य हो जाओ, दूसरा कि शून्य में तुम एक हो जाओ। ये दो तत्व पूरे हो जाएं तो भक्त और भगवान में फिर कोई दूरी नहीं रह जाती। भक्त भगवान हो जाता है।
इन दोनों तत्वों को स्मरण रखो। पहला कि शून्य हो जाओ। और जब तुम शून्य हो जाओगे तो एक होना बहुत कठिन न रहेगा। शून्य में अपने आप एक का आविर्भाव हो जाता है, क्योंकि शून्य में खंड नहीं हो सकते, शून्य के टुकड़े नहीं हो सकते। तुम अगर दो शून्यों को पास रखो तो एक शून्य बनेगा, जल्दी ही एक शून्य बन जाएगा। दो शून्यों को दूर रखने वाली कोई सीमा नहीं है। तुम पचास शून्य रखो, वे भी एक हो जाएंगे। इसलिए तो गणित में तुम एक शून्य, दो शून्य, तीन शून्य, कितने ही शून्य जोड़ो, एक ही शून्य बनता है। दस शून्य जोड़ने से दस शून्य नहीं बनते, एक शून्य बनता है। शून्य का एकता स्वभाव है।
तो पहले शून्य हो जाओ—निर—अहंकार! और फिर तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे भीतर एक तत्व का उदय हुआ। तुम्हारे भीतर एकता सधी। इस एकता का ही पूरा शास्त्र योग है। योग यानी जुड़ जाओ, एक हो जाओ। भक्ति का सारा जोड़ है: शून्य हो जाओ। योग का सारा जोड़ है: एक हो जाओ। अगर तुम शून्य हो जाओ तो एक हो जाओगे। अगर तुम एक हो जाओ तो शून्य हो जाओगे। ये एक ही घटना को दो तरफ से पकड़ने के उपाय हैं।
भक्त कहता है: शून्य हो जाओ, पूर्ण उतरेगा। योग कहता है: तुम एक हो जाओ, तो तुम पूर्ण हो जाओगे। मगर ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कसक बढ़—बढ़ के दर्दे दिल का दरमा होती जाती है
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है
यहां हर शै खुशी का मेरी सामां होती जाती है
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
जरा सी खाक इश्के मेहरे ताबां होती जाती है
जहां का जर्रा—जर्रा नूरे जल्वा से चमक उट्ठा
जमीं खुर्शीद से बढ़ कर दरक्शां होती जाती है
कसक बढ़—बढ़ के दर्दे दिल का दरमां होती जाती है
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
दर्द बढ़ते—बढ़ते ही दवा हो जाता है। पीड़ा बढ़ते ही बढ़ते एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि उसी पीड़ा में तुम डूब जाते और मिट जाते। वही इलाज है। तुम्हारा मिट जाना तुम्हारा इलाज है। और फिर—
खिजां आखिर मेरी रश्के बहारां होती जाती है
फिर तुम्हारा पतझड़ वसंत में रूपांतरित होने लगता है। फिर गए उमस और धूप के दिन। झुक आई बदरिया सावन की!
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है
खयाल रखना, तुम्हारे मिटने में ही सारा राज है। तुम मिटो तो परमात्मा हो जाए। तुम रहो तो परमात्मा मिटा रहेगा। दो में से एक ही हो सकता है। तुम भी और परमात्मा भी, ऐसा नहीं हो सकता। या तुम या परमात्मा।
जहां में जब से अपने आप को मैंने मिटाया है,
यहां हर शै खुशी का मेरी सामां होती जाती है।
तो फिर हर घटना, हर घड़ी आनंद का आधार बनती जाती है। मिटो भर...फिर आनंद ही आनंद है।
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
और तेरी अनुकंपा की जो बिजलियां मुझ पर कौंध रही हैं, तेरी कृपा की जो बिजलियां मुझ पर कौंध रही हैं—
तेरी चश्मे करम की बिजलियों की मेहरबानी से
जरा सी खाक इश्के मेहरे ताबां होती जाती है।
यह प्रेम की जो छोटी सी धूल मैं तेरे चरणों में चढ़ाने को ले आया था, इस धूल का कण—कण ऐसी रोशनी से भर गया है कि जैसे सूरज बन गया हो। यह तेरी कृपा की बिजलियों का ही परिणाम है।
जहां का जर्रा—जर्रा नूरे जल्वा से चमक उट्ठा
और जब तक तुम न चमक उठोगे नूरे—जल्वे से, जब तक तुम्हारे भीतर परमात्मा का नूर पूरा प्रकट न होगा, तब तक तुम्हें उसका नूर बाहर भी दिखाई न पड़ेगा। तुम वही देख सकते हो, जो तुम हो। तुम अपने से ज्यादा को नहीं देख सकते हो। तुम अपने से पार को नहीं देख सकते हो।
दृष्टि उतना ही देख सकती है, जितनी दृष्टि की क्षमता है। जो तुमने भीतर देखा है, वही तुम बाहर देख सकते हो। जो तुमने भीतर नहीं देखा है, उसे तुम बाहर भी न देख सकोगे। इसलिए तो चोर, चारों तरफ चोर को देखता है। बेईमान बेईमानों को देखता है। ईमानदार को बेईमानी नहीं दिखाई पड़ती। और अगर ईमानदार को बेईमानी दिखाई पड़ती हो तो समझ लेना अभी ईमानदारी ऊपर—ऊपर है, भीतर नहीं गई।
भक्त को तो सब तरफ भगवान दिखाई पड़ता है। चोर कैसे दिखाई पड़ेगा! बेईमान कैसे दिखाई पड़ेगा! जिस दिन तुम्हें भीतर अनुभव हो जाएगा...वही तो तुम्हारे बाहर फैलने लगता है।
जहां का जर्रा—जर्रा नूरे जल्वा से चमक उट्ठा
एक बार भीतर रोशनी हो जाए, फिर सब तरफ रोशनी पड़ने लगती है।
जमीं खुर्शीद से बढ़ कर दरक्शां होती जाती है
और फिर तो यह साधारण सी पत्थर—मिट्टी की बनी जमीन चांद से भी ज्यादा सुंदर होने लगती है।
सब तरफ सौंदर्य है। अगम सौंदर्य है, अपार सौंदर्य है। लेकिन तुम्हारे पास सौंदर्य को देखने की आंख नहीं है, रोशनी नहीं है।
उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे...
और परमात्मा जब बरसता है तो नन्हीं—नन्हीं बूंदों में, कि तुम्हें जरा भी चोट न हो। फुहार की तरह बरसता है।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे...
मेह की तरह बरसता है। ऐसी भयंकर जलधार नहीं लग जाती। तुम जितना पचा सको उतना बरसता है।
तुमने देखा? जीवन की यही व्यवस्था है। छोटा बच्चा सिर्फ दूध पचा सकता है, तो परमात्मा उसके लिए दूध बन कर आता है मां के स्तन से। जैसे—जैसे बच्चा ज्यादा पचाने लगेगा वैसे—वैसे मां के स्तन का दूध विदा होने लगेगा। जिस दिन बच्चा भोजन को पचाने में समर्थ हो जाएगा, दूध विलीन हो जाएगा। अब बच्चा दूध से बंधा रहे, इसकी आवश्यकता नहीं है।
तो पहले तो परमात्मा बूंदों की तरह बरसता है। जब तुम उतनी बूंदें पचा लेते हो तब और बड़ी धार आती है। जब तुम और बड़ी धार पचा लेते हो, तब सागर की तरह तुम पर बरसता है। परमात्मा की अनुकंपा प्रतिपल मौजूद है। तुम जितना पचा सकते हो उतना ही तुम्हें मिलता है। इसलिए परमात्मा को खोजने की बजाय अपनी पाचन—शक्ति को बढ़ाना जरूरी है।
लोग कहते हैं, परमात्मा कहां है? यह ऐसे ही है कि जैसे तुम कहो कि सूरज कहां है, और सूरज को आंख खोल कर खड़े हो जाओ तो आंखें अंधी हो जाएं। पचाने की क्षमता...कितनी है तुम्हारी पचाने की क्षमता? जितने तुम खाली हो, उतनी पचाने की क्षमता है। अगर तुम परम शून्य हो गए तो पूरे परमात्मा को पचा लेने की क्षमता है।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।
बादल भी बरस रहा है—छोटी—छोटी बूंदों में फुहार की तरह। और ठंडी हवा बहने लगी है।
जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर हरियाली आएगी वैसे—वैसे शीतल हवा भी आएगी। असल में तुम जब हरे हो जाते हो, तो जो भी तुम्हें छूता है वह शीतल हो जाता है। यह शीतलता बाहर से नहीं आती—तुम्हारी हरियाली का परिणाम है। चूंकि तुम तप्त हो और जल रहे हो और नरक लिए चल रहे हो और सब तरह की आग तुम्हारे भीतर है...इसलिए जो भी तुम्हें छूता है, वह भी तप्त मालूम होता है, उष्ण मालूम होता है।
तुमने कहानी सुनी है कि नरक में भयंकर आग जल रही है। और लोग उस आग में फेंके जा रहे हैं। तुमने अगर इसे ठीक से समझा तो तुम पाओगे, यह तुम्हारी दशा अभी है।
लोग सोचते हैं: मरने के बाद अगर पाप किए तो नरक जाएंगे, लेकिन प्रत्येक पाप तुम्हारे भीतर नरक पैदा कर देता है। बुद्ध ने कहा है कि आदमी का मकान प्रतिपल जल रहा है। तुम लपटों से घिरे हो, बुद्ध लोगों से कहते थे। जो उनके पास आता, वे कहते: पागल! तेरा मकान लपटों से घिरा है!
और बुद्ध ने कहा: तीन तरह की लपटें हैं। एक तो तृष्णा की लपट है—कि जो मेरे पास नहीं है, वह मेरे पास हो। जो मेरे पास अभी नहीं है, वह कल मेरे पास हो। दूसरी लपट, क्रोध की लपट है। जब तुम्हारी तृष्णा को कोई पूरी नहीं होने देता और बाधा डालता है तो क्रोध पैदा होता है। तुम धन कमाने जा रहे हो, किसी ने बाधा डाल दी, किसी ने अड़ंगा लगा दिया, क्योंकि दूसरे लोग भी धन कमाने निकले हैं, तुम अकेले ही नहीं निकले हो। तो प्रतियोगी जितने कम हो जाएं, उतना ही अच्छा। क्योंकि धन सीमित है और आकांक्षी बहुत हैं। तो तुम जब जाओगे धन कमाने तो तुम्हें जगह—जगह बाधाएं मिलेंगी। जगह—जगह लोगों ने रास्ता रोक रखा है। जगह—जगह लोग बंदूकें लिए खड़े हैं। वे कहते हैं: लौट जाओ, अपना भला चाहते हो तो, अब आगे मत बढ़ो। बस यहीं तक बहुत है।
तो जिस व्यक्ति के जीवन में तृष्णा है उसके जीवन में आज नहीं कल क्रोध की लपट भी जलेगी। जब कोई रुकावट डालेगा तो क्रोध पैदा होगा। और जब, अगर रुकावट के पार निकल गए तुम, अगर रुकावटें तुम्हें न रोक पाईं और तुम सफल हो गए धन पाने में, पद पाने में, तो फिर लोभ पैदा होगा। लोभ का मतलब होता है: जो मुझे मिल गया, अब वह मेरे पास रहे। तृष्णा का अर्थ होता है: जो मेरे पास नहीं, मेरे पास हो। लोभ का अर्थ है: जो मेरे पास है, अब किसी और के पास न जाए। और दोनों के बीच में क्रोध है।
बुद्ध ने कहा: ये तीन अग्नियां हैं, जिनमें हर आदमी जल रहा है। हर आदमी इन तीन लपटों में घिरा है। और इन तीन लपटों से तुम्हारे भीतर अहंकार पैदा होता है।
क्रोध, अहंकार का भोजन है। तृष्णा, अहंकार का फैलाव है। लोभ, अहंकार का पैर जमा कर खड़ा हो जाना है। जो मेरा है वह मेरा है, और जो तेरा है वह भी तेरा नहीं रहने दूंगा, उसे भी मेरा करके रहूंगा! फैलूंगा, घेर लूंगा सारी पृथ्वी को! इन तीन लपटों में तुम जलते हो तो तीनों लपटों का जो परिणाम है—वह है अहंकार! और अहंकार नरक है। बुद्ध ने कहा: अगर ये तीन लपटें बुझ जाएं तो अहंकार भी बुझ जाता है। क्योंकि ये तीन लपटें अहंकार के लिए ईंधन का काम करती हैं।
जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे चाहो मत। और जो तुम्हारे पास है, उस पर मालकियत मत रखो। प्रभु की कृपा कि तुम्हारे पास है और जब लेना चाहे ले ले! जिसने दिया है वह वापस ले ले, तो तुम अड़चन मत डालो।
और, लोग अगर दौड़ रहे हैं धन पाने और तुम्हारे मार्ग में बाधा डाल देते हैं, तो क्रोध मत करो। क्योंकि तुम भी उनके मार्ग में बाधा डाल रहे हो। तुम्हें मार्ग में पाकर ही तो वे हटा रहे हैं। तो उन जगहों से हट जाओ, जहां क्रोध पैदा होता हो।
लोभ, क्रोध और वासना—ये तीनों अगर न हों तो तुम्हारा अहंकार बुझ जाएगा। और जहां अहंकार बुझा कि शून्य पैदा हुआ। उसी शून्य में परमात्मा अवतरित होता है। उसी खाली जगह में। अहंकार जिस सिंहासन पर विराजा है, उसी सिंहासन पर परमात्मा भी बैठेगा। अहंकार को हटा दो। सिंहासन खाली करो।
नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।
और जब सब शांत हो जाता है भीतर—अहंकार, वासना, तृष्णा, मोह, लोभ, क्रोध—स्वभावतः शीतल हवाएं बहने लगती हैं। सुगंधित हवाएं बहने लगती हैं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनंद मंगल गावन की।
मीरा कहती है: आ गई घड़ी—आनंद मंगल गावन की! आ गई घड़ी नाचने की! आ गई घड़ी पैर में घुंघरू बांध लेने की! आ गई घड़ी, जिसकी प्रतीक्षा थी जन्मों—जन्मों से!
जो इन आंखों ने देखा क्या बताएं
जो गुजरी दिल पे अपनी क्या सुनाएं
फलक ने ढाए हम पर जुल्म क्या—क्या
जमीं ने हम पे कीं क्या—क्या जफाएं
न पूछ ऐ दोस्त रूदादे गमे दिल
तुझे भी साथ अपने क्यों रूलाएं
तमन्नाओं, उम्मीदों, हसरतों के
फिर अब खाबीदा फितने क्यों जगाएं
इसी में मसलहत है चुप रहें हम
जहां में हश्र आखर क्यों उठाएं
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उसी को देते जाएंगे दुआएं
चमक उठी हैं तेरे नक्शे पासे
जहाने शौक की तारीक राहें
तेरी चश्मे करम की एक झलक से
मिटी हैं आसमां की सब जफाएं
तेरे एक हर्फे जेरे लब से उठें
खलूसे इश्क की सारी वफाएं
दमे जां बख्श से तेरे हुई हैं
मुअत्तर दोनों आलम की फिजाएं
रूखे रोशन अम्बवाजे तबस्सुम
मेरी बख्शी गई हैं सब खताएं
भुला सकते हैं दुनिया की हर इक शै
मोहब्बत को तेरी कैसे भुलाएं!
जब भक्त भगवान के सान्निध्य में आना शुरू होता है तब उसे पता चलता है कि इतने दुख झेले, इतनी पीड़ाएं झेलीं, रास्ते में इतने कांटे चुभे, राह में इतने नरक भोगे—लेकिन सब अब भूले जा सकते हैं। उसकी अनुकंपा की एक बूंद भी उन सबको भुला देने के लिए काफी है।
जो इन आंखों ने देखा क्या बताएं
जो गुजरी दिल पे अपने क्या सुनाएं
फलक ने ढाए हम पर जुल्म क्या—क्या
जमीं ने हम पे कीं क्या—क्या जफाएं
न पूछ ऐ दोस्त रूदादे गमे दिल
तुझे भी साथ अपने क्यों रूलाएं।
सब मिट जाता है, जैसे एक दुख—स्वप्न देखा था। उसकी बात भी छेड़ने का मन नहीं रह जाता। भक्त बहुत बार सोचता है कि जब भगवान को मिलेगा तो करेगा सब शिकायतें। खोल कर रख देगा अपनी पीड़ाओं का चिट्ठा। कहेगा: ये तुमने क्यों इतने कष्ट दिए? क्यों इतनी तकलीफें दीं? क्यों ऐसा संसार बनाया? क्यों हमारे मन को ऐसा उपद्रवी रूप दिया? क्यों इतनी वासनाएं भरीं? क्यों? पूछूंगा...।
स्वभावतः सभी भक्तों के मन में यह भाव होता है कि जिस दिन भगवान मिलेगा, कुछ सवाल तो पूछ ही लेने हैं। ऐसा क्यों किया तूने? क्यों इतना दुख भरा संसार बनाया? तू तो करुणावान है, फिर तूने इतना दुखभरा संसार क्यों बनाया? तू तो परम रोशनी है, इतना अंधेरा रास्ते पर क्यों घना किया? क्या है हमारा कसूर? क्या था हमारा कसूर? हमें क्यों दिए ऐसे पाप से भरी हुई वृत्तियों के तूफान? हमारे मन में क्यों ऐसी वृत्तियां पैदा कीं? हमें क्यों इस ढंग से रचा?
लेकिन जब परमात्मा से मिलन होता है तब समझ में आता है—
तमन्नाओं, उम्मीदों, हसरतों के
फिर अब खाबीदा फितने क्यों जगाएं
अब उन खोई हुई बातों को क्यों उठाना? अब व्यर्थ की बातों का क्यों राग छेड़ना?
इसी में मसहलत है चुप रहें हम
जहां में हश्र आखर क्यों उठाएं
अब बात गई सो गई...।
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उस क्षण तो परमात्मा से मिलन के क्षण में सब शिकायत खो जाती हैं। उस क्षण तो धन्यवाद उठता है।
इनायत जिसने दर्दे दिल किया है
उसी को देते जाएंगे दुआएं
तब शिकायत नहीं उठती, दुआ उठती है। प्रार्थना उठती है। धन्यवाद उठता है।
चमक उठी हैं तेरे नक्शे पा से
जहाने शौक की तारीक राहें
और तेरे पैरों के चिह्न से सब अंधेरे मिट गए हैं। रास्ते रोशन हो गए हैं।
तेरी चश्मे करम की एक झलक से
तेरी अनुकंपा की एक बिजली कौंधी।
मिटी हैं आसमां की सब जफाएं
सब दुख—दर्द मिट गए, सब पीड़ाएं मिट गईं, सब नरक समाप्त हो गए। वह जो देखा था, एक दुख—स्वप्न था, असलियत न थी।
भुला सकते हैं दुनिया की हर इक शै
मोहब्बत को तेरी कैसे भुलाएं।
वह सब भूल गया। वह सब समाप्त हो गया।
ऐसा कभी—कभी तुम्हारे सामान्य जीवन में भी घटता है। अगर कोई स्त्री अपने प्रेमी की राह देख रही, तो हजार शिकायतें करती है मन में, कि इस बार आओ, तो यह कहूं, यह कहूं, यह कहूं...कितना रुलाया है, कितना सताया है, कितना गम दिया! इस बार आओ तो मुंह से बोलूंगी भी नहीं। और जब प्रेमी आता है तो नाचने लगती है। तो भूल जाती है। वह जो सब हुआ था, गया। उसकी बात भी छेड़ने जैसी नहीं लगती। इस शुभ घड़ी में, इस मंगल घड़ी में, इस गीत गाने की घड़ी में, उन कांटों की बात बेहूदी लगती है, उठाने जैसी नहीं लगती। यह एक झलक प्रेमी की—और सब दुख समाप्त हो गए!
यह तो साधारण प्रेम में हो जाता है। तो तुम उस परम प्रेम की कल्पना कर सकते हो? याद ही नहीं पड़ता कि कभी दुख उठाए थे। याद ही नहीं आता कि कभी अंधेरा था। याद ही नहीं आता कि कभी चिंताओं ने घेरा था। याद ही नहीं आता कि कभी रास्ते पर नरक भी मिले थे। याद ही नहीं आता।...भरोसा भी नहीं होता कि ऐसा कभी हुआ था। वह जरा सी रोशनी उसकी, उसकी छोटी से छोटी पड़ी हुई बूंद तृप्त कर जाती है।...आनंद मंगल गावन की! घड़ी आ गई!
राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
उस घड़ी के लिए ही मीरा कहती है: राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
मैं तो उस सांवरे के रंग में रंग गई, मैं तो सांवरी हो गई। मैं तो उसी जैसी हो गई। मैं तो वही हो गई।
यह परिवार को संबोधन है। यह उसके देवर को संबोधन है—मीरा के। मीरा के देवर को अड़चन थी। पूरे परिवार को अड़चन थी। देवर तो चूंकि गद्दी पर बैठा था, इसलिए सबसे ज्यादा अड़चन उसे थी। मीरा का गांव—गांव भटकना, जंगल—जंगल भटकना, सब लोकलाज खोकर रास्तों पर नाचना, साधु—संगति में बैठना! राज—घर की महिला ऐसे रास्तों पर घूमे...तो परिवार परेशान था। परिवार चाहता था घर में आ जाए, घर में रहे। यहां जो करना हो करे। लेकिन जो एक बार पिंजड़े से उड़ गया वह पिंजड़े में नहीं लौटना चाहता। जिसे खुला आकाश मिल गया, अब वह क्या फिकर करे? हालांकि पिंजड़ा सोने का था, मगर पिंजड़ा पिंजड़ा है, सोने का हो कि लोहे का हो। पिंजड़े पर हीरे—जवाहरात जड़े थे, यह सब सच है। मीरा कभी राजमहलों से नीचे न उतरी थी और फिर नंगे पैरों, धूल—भरे रास्तों पर भटकने लगी और जगह—जगह अपनी वीणा लेकर गीत गाने लगी। तो राणा बार—बार खबर भेजता है: अब भी लौट आओ, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। हम क्षमा कर देंगे।
मीरा कहती है: राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
अब लौटना नहीं हो सकता। लौटने वाला बचा नहीं अब। जो लौट सकता था, वह खो गया अब। अब तो सांवरिया बचा है। अब तो सांवरिया ही है, मैं नहीं हूं। अब तुम्हें मैं दिखाई पड़ती हूं, वह तुम्हारी भ्रांति है। मैंने तो अपनी भीतर सब तरफ खोज कर देख लिया कि मैं नहीं हूं। अब वही है। अब वही विराजमान है। अब वही मुझमें जी रहा है। वही श्वास लेता है। अब वही देखता है। वही चलता और नाचता है। मैं करूं भी तो क्या करूं, राणाजी?
राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
मैं तो रच गई, पच गई। अब उस जगह आ गई जहां से लौटना हो ही नहीं सकता।
कुछ जगहें होती हैं, जहां से लौटना नहीं हो सकता। जैसे कोई मर गया। अब यह जगह आ गई, अब यहां से लौटना नहीं हो सकता। अब लाख पुकारो, अब लाख कहो कि लौट आओ भाई, थोड़ी देर सही, घड़ी भर को बोल लो, चाल लो, और...। मगर अब जो मर गया सो मर गया। लेकिन कभी—कभी, कहते हैं, मुर्दा लौट आते हैं। शायद ठीक से मरे नहीं होंगे। अधूरे मरे होंगे और तुमने जल्दी मान लिया।...लोग तो बड़ी जल्दी में हैं। फुर्सत किसको है ज्यादा फिकर करने की! इधर सांस अटकी ही होगी कि तुमने मान लिया कि मर गए। तुम छाती पीटने को तैयार ही थे, पीटने लगे। कभी—कभी मुर्दे लौट आते हैं।
मगर, सांवरिया के रंग में जो रच गया, वह कभी नहीं लौटा है। तो वे मुर्दे शायद लौट भी आएं कभी, शायद चिकित्सा—शास्त्र थोड़ा उपाय करे, पंप वगैरह चलाए और हृदय में धड़कन मारे और किसी तरह धक्काधुक्की करे, थोड़ी देर को आदमी घबड़ाहट में आंख खोल दे कि भई इतना परेशान कर रहे हो...! शायद कुछ देर और जिंदा रह जाए।
ऐसा मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी। तो जब उसके ताबूत को निकालने लगे तो रास्ता आंगन में थोड़ा कम था, संकरा था। एक वृक्ष आंगन में था बीच में, उससे ताबूत टकरा गया। ताबूत टकरा गया तो पत्नी ने अंदर से आवाज दी कि मैं तो अभी जिंदा हूं। ताबूत खोला गया, पत्नी को वापस लाया गया। तीन साल पत्नी जिंदा रही। फिर तीन साल बाद मरी। जब फिर ताबूत उठाने लगे तो मुल्ला ने कहा: भाइयो, जरा सम्हाल कर, जरा झाड़ से बचाना। तुम्हारी जरा सी भूल...फिर भुगतना तो तीन साल हमको पड़ा। जरा बचा कर, जरा सावधानी से!
कभी—कभी मुर्दा लौट आते हैं। ताबूत टकरा गया। मरी न होगी पत्नी। मुल्ला ने जल्दी कर ली। मुल्ला सोच रहा होगा कि कब मरे, कब मरे...। भरोसा कर लिया कि मर गई। जिंदा ही रही होगी, सुस्त पड़ी होगी, कि जरा बेहोश हो गई होगी।
तो मरे हुए तो कभी—कभी लौट आते हैं। लेकिन जो सांवरे के रंग में रच गया वह कभी नहीं लौटता। वह महामृत्यु है। साधारण मृत्यु में तो देह ही मरती है, भीतर तो आत्मा रहती है। लौटना हो सकता है। अगर देह फिर से व्यवस्थित कर दी जाए तो फिर आत्मा इस देह में रहने के लिए थोड़े दिन के लिए राजी हो सकती है। देह से संबंध टूट गया है आत्मा का, संबंध जोड़ दिया जाए तो शायद...आत्मा फिर टिक जाए। अक्सर हृदय गति से जो मरते हैं, अगर छह सेकेंड के भीतर सहायता पहुंचाई जा सके तो वे पुनरुज्जीवित हो सकते हैं। रूस में कोई आठ—दस आदमी इस तरह पुनरुज्जीवित हुए हैं। वे अभी जिंदा हैं। छह सेकेंड के भीतर। छह सेकेंड के बाद मुश्किल हो जाता है। छह सेकेंड गुजर जाने के बाद मस्तिष्क के तंतु टूटने शुरू हो जाते हैं। फिर आदमी लौट भी आए तो पागल होगा। क्योंकि सूक्ष्म तंतु टूट जाते हैं। इससे ज्यादा देर नहीं जी सकते हैं। मस्तिष्क के तंतुओं को प्रतिपल आक्सीजन मिलनी चाहिए। छह सेकेंड तक आक्सीजन न मिले तो वे शून्य हो जाते हैं। फिर उनको पुनरुज्जीवित नहीं किया जा सकता। शरीर लौट भी आए तो आदमी का मस्तिष्क खराब लौटेगा। लेकिन छह सेकेंड के भीतर अगर हृदय की धड़कन फिर से पैदा की जा सके, जो कि की जा सकती है, तो शायद आदमी कुछ दिन और जी जाए, कुछ वर्ष जी जाए।
मगर भक्ति महामृत्यु है। भक्त तो परमात्मा को पाता ही तब है जब अहंकार मर जाता है। और अहंकार की मृत्यु असली मृत्यु है। क्योंकि फिर दुबारा जन्म नहीं होता।
यह शरीर तो मरेगा, फिर जन्मेगा। अगर चिकित्सक न पैदा कर पाए, इसी शरीर को फिर से ठीक न कर पाए, तो नया शरीर लेगा। अभी वासना जिंदा है। अभी शरीर को पकड़ने का आग्रह जिंदा है। किसी नये गर्भ में प्रवेश करेगा। फिर कष्ट झेलेगा नौ महीने गर्भ के। फिर नौ महीने गर्भ की गंदगी झेलेगा। फिर यही यात्रा शुरू हो जाएगी। फिर यही पागलपन। फिर यही दौड़। यही संसार...!
लेकिन जिसको अहंकार समाप्त हो गया, वह दुबारा किसी गर्भ में प्रविष्ट नहीं होगा। वह बात खत्म हो गई। उसका तो महामरण हो गया। वह आत्यंतिक रूप से समाप्त हो गया।
वही मीरा कहती है: राणाजी! तुम व्यर्थ की खबरें मुझे मत भेजो। मेरे आने का उपाय नहीं क्योंकि मैं बची नहीं। बची होती तो जरूर आ गई होती।
मैं सांवरे रंग राची।
उसका रंग मुझे पूरी तरह रंग गया है।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
इसलिए तो नाच सकी—लोकलाज तज कर। क्योंकि जिसे लोकलाज की चिंता होती थी, वह अहंकार बचा नहीं। जब तुम लोकलाज की फिकर करते हो, तो क्या फिकर करते हो? अहंकार की ही फिकर है कि लोग क्या कहेंगे? अगर मैं ऐसा नाचा तो लोग क्या कहेंगे? बदनामी होगी। लोग कहेंगे: विक्षिप्त हो कि पागल हो? होश गंवा दिया। भले—चंगे थे, यह तुम्हें क्या हो गया?
लोग क्या कहेंगे, यह विचार ही अहंकार का है। लोकलाज, अहंकार को पोषण देना है।
मीरा कहती है: अब बड़ी मुश्किल है राणाजी!
सज सिंगार पद बांध घुंघरू...
अब तो मैंने शृंगार उसके लिए सजा लिया। अब तो मैं उसकी हो गई और अब किसी और की नहीं हो सकती। अब न परिवार की हो सकती हूं, न प्रियजनों की हो सकती हूं, अब उसकी हो गई। अब एकांततः उसकी हो गई। यह शृंगार अब उसके लिए है; अब किसी और के लिए नहीं हो सकता।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू...
और ये जो घुंघरू मैंने पैरों में बांध लिए, ऐसे ही नहीं बांध लिए हैं। आनंद मंगल गावन की घड़ी आ गई। मैं क्या करूं? यह मेरे बस के बाहर है। ये मैंने चेष्टा करके घुंघरू पैरों में नहीं बांध लिए हैं। मैं कोई नर्तकी नहीं हूं। यह घुंघरू वही बांध गया है। ये घुंघरू उसी ने ही बांध दिए हैं। इतना आनंद बरसा है, अब न नाचूं तो करूं क्या? अब सम्हालूं कैसे? जैसे शराब पीकर शराबी डांवाडोल होने लगता है; राह पर चलता है, कहीं पैर रखता है, कहीं पैर पड़ते हैं—ऐसी मेरी हालत है। उसको पी लेने के बाद अब पैर इस ढंग से पड़ते हैं कि नृत्य बन जाता है। यह मैं कुछ नृत्य कर नहीं रही हूं। तुम नाराज न होओ। तुम यह मत सोचो कि यह मीरा क्यों नाचने लगी रास्तों पर? वह नचा रहा है। वही नाच रहा है। वही मेरे भीतर प्रविष्ट हो गया है।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
इसलिए लोकलाज छोड़ सकी, क्योंकि जिसको लोकलाज थी राणाजी, वह रहा नहीं। वह मर चुका। तुम किसे खबरें भेज रहे हो?
यही तो बुद्ध ने अपने पिता को कहा था, जब बारह वर्ष बाद लौटे। पिता नाराज थे। और पिता ने कहा: तू मुझे बुढ़ापे में छोड़ कर भाग गया, तुझे शर्म भी न आई? क्षत्रिय होकर? और मैं बूढ़ा और तू मेरा अकेला बेटा और यह सारा राज्य तेरे लिए! और अब मैं थक गया हूं, चल भी नहीं सकता, उठ भी नहीं सकता, आंख से ठीक देख भी नहीं सकता...और यह सारा बोझ मुझे ढोना पड़ रहा है। यह समय मुझे सहायता देने का था, मेरे हाथ की लकड़ी बनने का था। मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं, मेरे भीतर हृदय है पिता का। तू घर वापस लौट आ।
बुद्ध चुपचाप सुनते रहे पिता की नाराजगी। तब बुद्ध ने कहा: आप जरा गौर से तो देखें! जो आपका घर छोड़ कर गया था, वही नहीं लौटा है। यह दूसरा ही व्यक्ति है।
बुद्ध के पिता नहीं समझ पाए। वे तो और नाराज हो गए। उन्होंने कहा: तू मुझे समझाने चला है? तू मुझे धोखा दे रहा है? मैं अपने बेटे को, और नहीं पहचानूंगा? मेरा खून तेरे खून में, मेरी हड्डी तेरी हड्डी में। मैंने तुझे पाला—पोसा, बड़ा किया। मैं तुझे नहीं पहचानूंगा कि तू मेरा बेटा है?
बुद्ध ने कहा: आप मेरी बात समझ नहीं रहे। जो गया था, वही नहीं लौटा है। देह वही है, भीतर सब बदल गया है। आप जरा गौर से देखें! आप जरा फिर से, गौर से देखें! पक्षपात छोड़ दें। यह खयाल छोड़ दें कि मैं आपका बेटा हूं। जरा गौर से देखें! यह वही चेहरा है? हां, रंग—रूप वही है। आभा वही है? ये मेरी आंखों में झांकें। ये आंखें वही हैं, लेकिन आंखों में जो आज झलक रहा है, यह वही है? मुझे फिर से देखें। मैं शपथ खाकर कहता हूं कि जो गया था, वह मर चुका है। मैं दूसरा ही व्यक्ति हूं।
बुद्ध ठीक कह रहे हैं। बुद्ध के पिता भी ठीक कह रहे हैं। दो अलग दुनियाओं की बात—जहां भाषाएं रूपांतरित नहीं हो पातीं, जहां भाषाएं एक—दूसरे के विपरीत खड़ी हो जाती हैं। बुद्ध के पिता देह की भाषा बोल रहे हैं। बुद्ध आत्मा की भाषा बोल रहे हैं।
वही मीरा कह रही है: लोकलाज छोड़ कर नाच सकी, राणाजी! क्योंकि जो तुम्हारे घर से गई थी, मैं वही नहीं हूं।
मैं सांवरे रंग राची।
गई कुमति लहि साधु संगति...
वह जो तुम्हारे घर को छोड़ कर गई थी वह कुमति से भरी थी। अब मैं सुमति हो गई हूं। यह सुमति साधु की संगति में घटी। यह दीवानों के पास बैठ—बैठ कर घटी। इन प्रभु के प्यारों के पास बैठ—बैठ कर घटी।
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
और भक्तों के पास बैठ—बैठ कर भक्ति का रूप सच्चा हो गया।
सांसारिकों के पास बैठे रहोगे—वही चर्चा...वही मशविरा सुनोगे—तो संसार का ही रूप सघन होता जाएगा। कहीं भक्त मिलते हों, चूकना मत। कहीं चार भक्त मिल कर बात करते हों, बैठ जाना। सुनना, उनके साथ डोलना। उनके साथ थोड़ा मस्त होना। उन पर बरस रही है प्रभु की बदरी, शायद उनके पास बैठने से कुछ छींटा—छांटी तुम पर भी हो जाए। उनको प्रभु ने घेरा है, शायद उनके पास बैठ कर प्रभु की थोड़ी सी झलक तुम्हें भी लग जाए। थोड़ी भनक तुम्हें भी पड़ जाए। और थोड़ी भनक काफी है। उसकी एक किरण काफी है, क्योंकि फिर उस एक किरण के सहारे तुम चढ़ते चले जाओ, तो तुम सूरज तक पहुंच जाओगे।
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
पहले तो सुना ही सुना था कि भक्ति ऐसी, भक्ति वैसी। साधु की संगति में रूप सघन हुआ।
खयाल रखना, तुम्हारी संगति तुम्हें निर्माण करती है। तुम जैसों के पास बैठोगे, वैसे हो जाओगे। असल में तुम उन्हीं के पास बैठते हो जैसे तुम होना चाहते हो। तुम खोजते उन्हीं को हो, जैसे तुम होना चाहते हो। अगर तुमको पद पर पहुंचना है, तो तुम राजनेता की संगति करोगे। अगर तुम्हें धन खोजना है, तो तुम धनी की संगति करोगे कि इसके हाथ से शायद नुस्खा कभी लग जाए।
मैंने सुना है, एक भिखमंगा रास्ते पर खड़ा था। बड़ा अकड़ से खड़ा था। भिखमंगों की भी अपनी अकड़ होती है! एक सेठ पास से गुजरते थे। भिखमंगे ने कहा: सुनो सेठ जी! कुछ मिल जाए! सेठ ने कहा: भले—चंगे हो, मस्त—मुस्तैद! कुछ कमाते क्यों नहीं? और उस भिखारी ने कहा: आपको पता नहीं कि मैं कौन हूं? मैंने एक किताब लिखी है। मैं एक लेखक हूं।
सेठ भी थोड़ा उत्सुक हुआ कि कौन सी किताब लिखी है? उस भिखमंगे ने कहा: मैंने एक किताब लिखी है—धन कमाने के सौ तरीके।
सेठ ने कहा: हद्द हो गई! तुमने किताब लिखी और भीख मांग रहे हो?
उसने कहा: यह भी उसमें एक तरीका है। कुछ मिल जाए!
भिखमंगे भी किताबें लिखते हैं—धन कमाने के सौ तरीके! असल में भिखमंगे ही ऐसी किताबें लिखते हैं। जो धन कमा रहे हैं, उनको फुरसत कहां कि धन कमाने के सौ तरीके, यह किताब लिखें।
मैंने एक और घटना सुनी है। अमरीका का एक बहुत बड़ा अरबपति, एंड्ररू कारनेगी, एक किताब की दुकान पर गया। सामने ही उसने एक किताब देखी। उठा कर पन्ने पलटे, नई—नई छपी थी—हाउ टु ग्रो रिच? धनी कैसे हों? उसने किताब को ऐसा पलटा—उलटा, रख दिया।
दुकानदार ने कहा: किताब पढ़ने जैसी है। और अगर आप चाहें तो मैं किताब के लेखक से भी मिला दूं। संयोग की बात, लेखक अभी मौजूद है, दुकान के भीतर बैठे हैं।
एंड्ररू कारनेगी ने कहा कि मैं लेखक को मिलूं, फिर यह किताब खरीद सकता हूं। लेखक को बुलाया। फटे—पुराने कपड़े पहने लेखक हाजिर हुए। एंड्ररू कारनेगी हंसने लगा। उसने पूछा: यहां कैसे आए? लेखक से पूछा: यहां कैसे आए? बस में आए, ट्रेन में आए, कार में आए, टैक्सी में आए?
उसने कहा: पैदल आया।
तो एंड्ररू कारनेगी ने कहा: धन कमाना हो तो मेरे पास सीखने आना। धन कमाने के लिए किताब लिखी है, और अभी बस में चलने तक की हैसियत नहीं है? तुम्हारी किताब काम किसके आएगी?
एंड्ररू कारनेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने जितनी किताबें पढ़ी हैं धन कमाने के बाबत, वे उन्होंने लिखी हैं, जिनके पास धन था ही नहीं। असल में धन कमाने के बाबत किताबें ही वे लोग लिखते हैं। असल में यह किताब भी धन कमाने का ही एक ढंग है, और कुछ खास मतलब नहीं है। क्योंकि लोग धन कमाना चाहते हैं, तो किताब बिक जाती है।
भिखमंगा भी धन कमाने की योजनाएं बनाता रहता है। तो भिखमंगा भी कोशिश करता है कि कहीं से राज मिल जाए।
अगर तुम धन के पीछे दीवाने हो, तो तुम धनी की सेवा में रत रहोगे। अगर पद के पीछे दीवाने हो, तो राजनेता के हाथ—पैर दबाओगे। तुम वहीं जाओगे जो तुम पाना चाहते हो। जिस दिन तुम साधु के पास जाने लगे, उस दिन समझना शुभ घड़ी आई, तुम में प्रभु की प्यास उठी!
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
और वहीं भक्ति का असली रूप प्रकट होगा। शास्त्रों में नहीं, किताबों में नहीं—भक्तों के पास; जो भक्त हैं। क्योंकि भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है—जीवनचर्या है। एक जीने की शैली है। एक और ही ढंग है जीने का। परमात्मा में जीने की एक प्रक्रिया है। तैरना सीखना हो तो किताब पढ़ने की जरूरत नहीं—कोई तैरना जानता हो, उसके पास जाना। किताबों से कोई तैरना नहीं सीखता; और सीखो तो नदी में मत उतरना। नहीं तो डूबोगे, बुरी तरह डूबोगे! किताबों से तैरना सीखो तो अपनी गद्दी पर ही तैरना। वहीं हाथ—पैर मार लिए, विश्राम कर लिए। नदी में मत जाना भूल कर।
कुछ लोग भगवान को भी किताबों से समझते हैं। चूक हो जाती है। उनका भगवान भी किताबी और कागजी होता है। असली भगवान को सीखना हो तो वहां सीखना जहां असली भगवान की भनक पड़ गई हो; जहां कोई भक्त मस्त हो।
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन, काल—ब्याल ते बांची।
और मीरा कहती है: अब क्या तो करूं फिकर लोकलाज की? काल—ब्याल से भी बच गई! वह जो मौत आने वाली थी, वह भी गई। अब मरने वाली नहीं हूं। वह मरण तो हो गया। जो मरने वाला था मर गया। जो अमृत है, वह मेरे भीतर प्रकट हुआ है। अब किसकी चिंता करनी है! शाश्वत से मेरा संबंध जुड़ गया। शाश्वत से सगाई हो गई।
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन...
और कैसे यह हुआ? यह हुआ प्रभु की प्रशंसा करते—करते, उसकी स्तुति करते—करते। उसका गीत गाते, गाते, गाते—उसका गीत बैठ गया!
गाय—गाय हरि के गुण निसदिन, काल—ब्याल ने बांची।
उन बिन सब जग खारो लागत...
राणाजी! अब सारा जगत खारा है। अब तो और कोई स्वाद जंचता नहीं। प्रभु का स्वाद लग गया, प्रभु का रस लग गया।
उन बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
असली हीरा हाथ लग गया, अब और सब कांच है। कच्ची बातें हैं और सब। अब तुम्हारे कांच मुझे सोहते नहीं। मैं क्या करूं, मेरी मजबूरी है। मुझे क्षमा करना।
राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भक्ति रसीली जांची।
दो मार्ग हैं प्रभु तक जाने के। एक तो ध्यान का—सूखा—साखा, मरुस्थल जैसा मार्ग; और एक भक्ति का—रसपूर्ण, रसीला मार्ग—जहां खूब फूल खिलते और पक्षी गीत गाते और वृक्षों की छाया है।
मीरा कहती है: मुझे ध्यान का मार्ग नहीं जंचा। रूखा—सूखा था। हृदय का नहीं था। मुझे तो जंची बात भक्ति की। भक्ति रसीली जांची!
और जिसको भक्ति का मार्ग जंच जाएगा, उसको लोकलाज खोनी पड़ेगी। ध्यानी लोकलाज बचा कर चल सकता है। किसी को पता भी न चले, इस तरह ध्यान कर सकता है। लेकिन भक्त कैसे बचेगा? पता चल ही जाएगा। नाचोगे तो पता चल ही जाएगा। नाचोगे कैसे छिपा कर? हां, यह हो सकता है कि ध्यानी रात अपने बिस्तर में बैठ कर अपनी आंख बंद करके ध्यान कर ले। चुप बैठा रहे पत्थर की मूर्ति की तरह। पत्नी को भी पता न चले, जो पास ही सोई हो। बच्चों को भी पता न चले, घर के लोगों को भी पता न चले। ध्यान तो गुप्त रखा जा सकता है, लेकिन भक्ति गुप्त नहीं रखी जा सकती। भक्ति तो अभिव्यक्त होती है। भक्ति तो नाचती है, गाती है। भक्ति को कैसे रुकाओगे?
तो मीरा कहती है: मुझे तो भक्ति जंची। और जंची ही नहीं, उससे मैं पहुंच भी गई। बात भी हो गई। अब लौटने का तो कोई उपाय नहीं है। और ध्यान का मार्ग मुझे कभी पसंद नहीं आया था।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि राजस्थान ने बहुत भक्तों को जन्म दिया। शायद इसलिए कि राजस्थान रूखा—सूखा है। वैसे ही रूखे—सूखे में परेशान हो रहे हैं, अब और ध्यान का और रूखा—सूखापन भीतर क्या ले जाएं! बाहर तो जल बरसता ही नहीं, चलो भीतर ही बरस जाए! झुक आई बदरिया सावन की!
राजस्थान ने बड़े भक्त पैदा किए। मीरा और सहजो...ये सारे भक्त राजस्थान में पैदा हुए। और बड़ी अनूठी प्यार की धारा बही!
और ऐसा ही अरब के रेगिस्तान में हुआ, सूफी भक्त पैदा हुए। वे भी रेगिस्तान में थे।
और चिन्मय ने एक प्रश्न पूछा है—कि भगवान! अब आप क्यों कच्छ जा रहे हैं?
जाना पड़े...!
मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ।
सब मिल जाता है भक्त को, फिर भी और—और की प्यास जलती रहती है। भक्ति ऐसा मार्ग है कि सब मिल कर भी प्यास बुझती नहीं, बढ़ती ही चली जाती है। परमात्मा इतना प्यारा है कि कितना भी पा लो तो संतोष कहां? कितना ही मिल जाए, तो भी और मिले।
तो मीरा कहती है:
राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।
लेकिन इधर प्रभु से यह प्रार्थना करती है, राणाजी को यह कहती है। प्रभु को प्रार्थना करती है: मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। राणा को तो कह देती है कि प्रभु के प्रेम में रंग गई, पग गई, सब हो गया। लेकिन प्रभु को यह नहीं कहती कि सब हो गया। प्रभु को कहती है: सांची दासी बनाओ। और...और करीब लो, और पास लो। सब दूरी मिटाओ।
जरा सी दूरी भक्त को अखरती है। जरा सी दूरी अखरती है! इंच भर की दूरी अखरती है। भक्त जब तक भगवान में ही एक न हो जाए, जब तक मिलन परिपूर्ण न हो जाए...और ऐसा मिलन न हो जाए कि क्षण भर को भी विरह पैदा होने की संभावना न मिट जाए, तब तक...। और ऐसा कभी नहीं होता। कितना ही करीब आते चले जाओ, भगवान विराट है, महासागर है। तुम सागर में उतर गए; फिर तुम पूरे सागर को थोड़े ही अपनी बांहों में बांध लोगे? सागर में डूब जाओ, फिर भी सागर विराट है, तुम्हारी बांहें छोटी हैं। तो भक्त मिल भी जाता है, आलिंगन में भी लग जाता है परमात्मा के, लेकिन फिर भी परमात्मा इतना विराट है, उसका ओर—छोर पता नहीं, इसलिए प्यास बनी रहती है।
और यह प्यास भी बड़ी प्यारी है। इसलिए प्रार्थना बनी रहती है।
ध्यानी जब परम ध्यान को उपलब्ध हो जाता है तो ध्यान छूट जाता है, ध्यान की जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन भक्त परम भक्ति को उपलब्ध होकर भी प्रार्थना से मुक्त नहीं होता, प्रार्थना जारी रहती है। इस भेद को खयाल में रख लेना। ध्यान की परम पूर्णता यही है, जब ध्यान छूट जाए।
ध्यान औषधि है। कट गया संसार, कट गया चित्त का विकार, कट गए विचार, हो गए निर्विचार। अब ध्यान की क्या जरूरत? तलवार का काम था, काट डाला। अब तलवार को म्यान में रख दिया, अब निकालने की जरूरत दुबारा न आएगी। तलवार को फेंका भी जा सकता है। सम्हाल कर रखने की भी कोई जरूरत नहीं।
ध्यान एक विधि है। भक्ति विधि नहीं। भक्ति तो सारत्तत्व है। ध्यान विधि है। तो जिस दिन विधि का काम पूरा हो गया, उस दिन विधि समाप्त हो गई, तुम पार हो गए।
तो बुद्ध ने कहा है कि धर्म तो ऐसा है, जैसे नाव। वह ध्यानी का वचन है। नदी उतर गए, नाव बेकार हो गई। अब थोड़े ही नाव को सिर पर लिए चलना पड़ेगा। जो सिर पर लेकर चले, वह पागल है। लेकिन यह ज्ञानी का वचन है।
भक्त तो नाचता ही रहेगा। तब भी नाचता था जब परमात्मा नहीं मिले थे। तब नाचता था कि मिल जाओ। फिर मिलन हुआ, फिर नाचने लगा कि अब मिल गए, इसलिए नाचता है। पहले कहता था: मिले नहीं—नाचूंगा, रिझाऊंगा, मनाऊंगा। और अब कहता है: मिल गए, अब रुकूं कैसे? अब मिलने के कारण नाचता है।
आनंद मंगल गावन की! घड़ी आ गई। पहले भगवान नहीं मिले थे, इसलिए प्रार्थना करता था कि मिलो, कब मिलोगे! पुकारता था। अब मिल गए, अब इसलिए प्रार्थना करता है। पहले प्रार्थना में मांग थी, अब प्रार्थना में केवल धन्यवाद है। लेकिन प्रार्थना जारी रहती है।
प्रार्थना विधि नहीं है, उपचार नहीं है—प्रार्थना भक्ति का प्राण है।
ध्यान एक दिन छूट जाएगा। प्रार्थना सदा साथ रहेगी।
इसलिए परमात्मा से कहती है: मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। कई खोटें अभी हैं, इनको मिटाओ। बड़ी दूरियां हैं अभी भी। भनक तो पड़ गई। पास भी तुम्हें देख लिया। तुमने मेघ की तरह घेर भी लिया। तुमने बूंदाबांदी भी की। मगर अभी और...मगर अभी और....।
...झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ।
अभी और बहुत धंधे हैं झूठे। अभी यह देह लगी है साथ, यह भी बाधा बनती है।
तुमने कभी किसी को प्रेम से आलिंगन किया हो अगर, तो तुम्हें पता चला होगा कि देह बाधा बनती है। और अगर तुमने केवल वासना से आलिंगन किया होगा, तो तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि देह बाधा बनती है। वासना में देह साधक है। असल में वासना बिना देह के हो ही न सकेगी। वासना देह पर ही चढ़ कर चलती है। लेकिन प्रेम जब तुमने किसी को किया हो और किसी को गले लगाया हो, तब तुम को पता लगेगा कि दूरी रह गई, क्योंकि यह छाती की हड्डियां रुकावट डाल रही हैं। हृदय तुम्हारा यहां धड़क रहा है, प्रेमी का हृदय वहां धड़क रहा है, ये हड्डियां बीच में खड़ी हैं दीवाल बन कर।
प्रेम में देह बाधा है। वासना में देह साधक है। वासना के लिए देह उपकरण है, प्रेम में बाधा है। तो फिर प्रार्थना का तो क्या कहना! वहां तो जरा सा भी अस्तित्व अपना—बाधा है।
अभी मीरा है—देह में है। अभी कभी—कभी मन भी लौट आता है। अभी कभी मन खींच लेता है, गिरा देता है, कभी—कभी फिर अंधकार छा जाता है। कभी—कभी बदली बरसती है और कभी—कभी फिर रूखा—सूखा हो जाता है। मन अभी बिलकुल ही समाप्त नहीं हो गया है।
...झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ।
लूटे ही लेत विवेक का डेरा, बुधिबल यदपि करूं बहुतेरा।
और कुछ ऐसा मन है यह कि सब तरह के उपाय करती हूं, फिर भी लुट जाती हूं। कभी—कभी इसके हाथ लुट जाती हूं। इस ढंग से धोखे देता है।
...बुधिबल यदपि करूं बहुतेरा।
बहुत उपाय करती हूं। लेकिन जब तक तुम्हीं इसे न सम्हाल लोगे, तब तक मेरे सम्हाले न सम्हलेगा।
लूटे ही लेत विवेक का डेरा...
कभी—कभी विवेक खो जाता है, होश खो जाता है।
हाय राम नहिं कछु बस मोरा...
यह भक्त की भाव—दशा है: हाय राम नहिं कछु बस मोरा...
मेरा कुछ भी वश नहीं है, बिलकुल अवश हूं!
...मरती विवस प्रभु धाओ—धाओ।
और मैं मर रही हूं। जैसे कोई रेगिस्तान में मरता हो और पानी को चिल्लाता हो: धाओ—धाओ! अब देर न करो, जल्दी ही मुझे अपने में लीन कर लो।
लाख सदमे उठा रहा हूं मैं
जख्म पर जख्म खा रहा हूं मैं
इस तरह से दिलो जिगर ऐ दोस्त
तेरे काबिल बना रहा हूं मैं
गिन रहा हूं मौत की घड़ियां
जीस्त के दिन बिता रहा हूं मैं
आखिर इक दिन आओगे ऐ दोस्त
आज आओ—बुला रहा हूं मैं
भक्त कहता है: एक दिन तो आओगे। एक दिन तो जरूर आओगे! एक दिन आना ही होगा। तुम्हारा ही हूं तो आना ही होगा। मगर अभी बुला रहा हूं, अभी आ जाओ! धाओ—धाओ में वही पुकार है: इसी क्षण आ जाओ, अभी आ जाओ! देर न करो, अब और प्रतीक्षा न कराओ।
हाय राम नहिं कछु बस मोरा। मरती विवस प्रभु धाओ—धाओ।
धर्म उपदेस नित ही सुनती हूं। मन कुचाल से बहु डरती हूं।
सदा साधु सेवा करती हूं। सुमिरण ध्यान में चित्त धरती हूं।
भक्ति मार्ग दासी को दिखाओ...
और मीरा कहती है: सब करती हूं, जो करने जैसा है। कुछ छोड़ती नहीं हूं, फिर भी कुछ चूकता है। मेरे किए पूरा न होगा, तेरे किए ही पूरा होगा। मेरे किए में अधूरा रहेगा ही, क्योंकि मैं अधूरी हूं।
धर्म उपदेस नित ही सुनती हूं...
जाती हूं, साधु—संग करती हूं। जहां भक्त मिलते हैं, मस्त होते हैं, वहां नाचती हूं। स्तुति करती हूं। धर्म के वचन सुनती हूं।
...मन कुचाल से बहु डरती हूं।
और मन से बड़ा सावधान रहती हूं कि कोई भूल—चूक न हो, दुबारा यह कोई फंदा न फेंक दे! यह फंदा फेंकता ही चला जाता है।
आखिर—आखिर तक मन चेष्टा करता है, अंत—अंत तक चेष्टा करता है। अंत—अंत में तो बहुत चेष्टा करता है कि खींच ले। तुमने जो सारी कहानियां सुनी हैं कि अंत—अंत में प्रत्येक महर्षि को शैतान सताता है। वह शैतान नहीं है। शैतान कहां है? वह मन ही है। मन अनेक रूप रख लेता है। मन अप्सराएं बन जाता है—नाचता है चारों तरफ नग्न होकर। आखिरी जाल फेंकता है कि निकल न जाओ मेरे फंदे से, आखिरी प्रलोभन देता है।
जीसस के जीवन में उल्लेख है। जब वे परम दशा के करीब पहुंचने को हैं, ध्यान उनका करीब—करीब आ रहा है, तब शैतान प्रकट होता है। और शैतान कहता है: तुमने तो पा लिया! अब यह बड़े मजे की बात है, शैतान कहता है: तुमने तो पा लिया! शैतान यह चाह रहा है कि जीसस को यह खयाल आ जाए कि हां, मैंने पा लिया, कि गिरे। क्योंकि मैंने पा लिया, तो अहंकार आ जाएगा। ऐसी चाल—बाजियां हैं। मन कहता है: अरे! तुमने तो पा लिया। अब कौन इनकार करेगा? लेकिन जीसस ने कहा: शैतान, पीछे हट! तेरी बकवास बहुत हो चुकी, तू मुझे उत्तेजित न कर पाएगा।
लेकिन शैतान आता है। और शैतान कहता है: अब तो तुम उस अवस्था में पहुंच गए कि अगर पहाड़ से कूद जाओ, तो भी चोट न खाओगे। आग में चले जाओ तो आग जलाएगी नहीं। चाहो तो पानी पर चल सकते हो। अब शैतान यह कह रहा है कि अब तुम्हारे पास शक्ति आ गई है, अब तुम इसका उपयोग करो। अब अहंकार को दूसरा उपाय सुझा रहा है। कि अब तुम चमत्कारी हो जाओ। पहाड़ से कूदो, देख लो। और शैतान कहता है: मेरी बात मानो, देख लो तुम कूद कर, चोट न लगेगी। आग में चले जाओ, जलोगे नहीं। तुमने तो पा लिया।
और जीसस चिल्लाते हैं कि तू हट पीछे! तू मुझे धोखा न दे सकेगा।
शैतान शास्त्रों का उल्लेख करता है। शैतान कहता है: तुम यह कर क्या रहे हो? शास्त्रों में उल्लेख है कि भक्त पानी पर चले गए हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि भक्त आग में चले गए हैं और जले नहीं। और पहाड़ों से कूद गए हैं और परमात्मा ने उनको अपने हाथों में झेला। तुम उस दशा में पहुंच गए हो। तुम्हें पता नहीं है। शास्त्र कहते हैं।
तो जीसस ने कहा: मुझे पता है। मुझे पता है कि शैतान भी शास्त्रों के उल्लेख कर सकता है।
यह मन ही है, जो आखिरी दांव लगा रहा है। इसके पहले कि मन बिलकुल चला जाए, आखिरी चेष्टा करेगा।
जैसे तुमने देखा, दीया जब बुझता है तो बुझने के पहले भभकता है! ऐसे ही मन भी बुझने के पहले भभक लेता है। जब कोई आदमी मरता है तो तुमने देखा? मरने के दो—चार मिनट पहले बिलकुल स्वस्थ हो जाता है, जीवन—धारा एकदम से चोट करती है। आखिरी चेष्टा करता है जीवन, बचने की। मरने के पहले लोग अक्सर स्वस्थ हो जाते हैं, बिलकुल ठीक हो जाते हैं। सारी तकलीफ चली जाती है। जीवन आखिरी कोशिश कर रहा है। ज्योति आखिरी लपट ले रही है। और ऐसा ही मन भी आखिरी लपट लेता है।
लूटे ही लेत विवेक का डेरा। बुधिबल यदपि करूं बहुतेरा।
हाय राम नहिं कछु बस मोरा। मरती विवस प्रभु धाओ—धाओ।
धर्म उपदेस नित ही सुनती हूं। मन कुचाल से बहु डरती हूं।
सदा साधु सेवा करती हूं। सुमिरण ध्यान में चित्त धरती हूं।
लेकिन यह सब मेरा किया है। मेरे किए से क्या होगा?
हाय राम नहिं कछु बस मोरा...भक्ति मार्ग दासी को दिखाओ...
अब तो तुम्हीं मेरे गुरु बनो। अब मैं उस जगह आ गई, जहां तक साधु ला सकते थे। मैं उस जगह आ गई, जहां तक शास्त्र ला सकते थे। अब तुम हाथ पकड़ो।
भक्ति मार्ग दासी को दिखाओ। मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ।
सांची दासी का अर्थ होता है कि जिसके मन में जरा भी भेद न रह जाए, जरा भी अंतर न रह जाए, जरा भी सीमा—रेखा न रह जाए। सब सीमाएं टूट जाएं। बूंद जैसे सागर में गिर कर एक हो जाती है, ऐसे ही मीरा कहती है: अब मुझे भी अपने में बिलकुल एक कर लो।...मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ।
ग्रहण करती निज सत्य स्वरूप तुम्हारे स्पर्श मात्र से धूल,
कभी बन जाती घट साकार, कभी रंजित सुवासमय फूल
और यह शिला खंड निर्जीव शाप से पाता सा उद्धार
शिल्पी, हो जाता पाकर स्पर्श एक पल में प्रतिमा साकार
तुम्हारी सांसों का यह खेल जलद में बनते अगणित चित्र
मृत्ति, प्रस्तर मेघों का पुंज लिए मैं देख रहा हूं राह
कि शिल्पी आएगा इस ओर पूर्ण करने को मेरी चाह
खिलेंगे किस दिन मेरे फूल, प्रकट होगी कब मूर्ति पवित्र,
और मेरे नभ में किस रोज जलद बिहरेंगे बन कर चित्र
शिल्पी, जो मुझमें व्याप्त—विलीन किरण वह कब होगी साकार?
जैसे शिल्पी पत्थर को छूकर एक जीवंत मूर्ति बना देता है, जैसे चित्रकार एक तूलिका से जीवन दे देता है, जैसे संगीतज्ञ छेड़ देता तार को, सोए संगीत को जन्म दे देता है—ऐसे ही भक्त अंतिम क्षण में पुकारता है कि अब तुम ही सम्हाल लो! अब इस वीणा पर तुम ही अपनी अंगुलियां रखो। इस पत्थर को अब तुम ही मूर्ति में रूपांतरित करो। मेरे किए जो हो सकता है, मैंने किया। जो मेरे किए नहीं हो सकता, अब तुम करो।
और एक बात खयाल रखना, जब भक्त जो कर सकता था स्वयं पूरा कर चुकता है, जब भक्त के पास करने को कुछ भी नहीं बचता—उसी क्षण परमात्मा के हाथ में सारी बात चली जाती है। उसी क्षण परमात्मा का हाथ तुम्हें सम्हाल लेता है। जब तुम बिलकुल ही अवश हो जाते हो, जब तुम बिलकुल असहाय हो जाते हो, जब तुम्हारा किया अब और कुछ हो नहीं सकता, तुम सब कर चुके जो किया जा सकता था—उसी क्षण अचानक पाते हो: आ गई वे अंगुलियां, बज गए तुम्हारे तार! आ गया शिल्पी, बनने लगी तुम्हारी प्रतिमा, होने लगी साकार। जो तुममें छिपा था, उस दिन परमात्मा के हाथों प्रकट होता है।
तुम्हारा जो अंतरतम है वह परमात्मा के स्पर्श से ही खिलेगा। तुम्हारा अंतरतम का कमल उसके स्पर्श के बिना नहीं खिल सकता है। इसलिए मीरा कहती है: मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। राणा को कहती है: राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।
जहां तक संसार का संबंध है, संसार से कह सकती है: मैंने प्रभु को पा लिया। लेकिन जहां तक प्रभु का संबंध है, कभी ऐसा नहीं होता कि भक्त कह पाए कि मैंने पूरा पा लिया। क्योंकि प्रभु अगर पूरा पाया जा सके तो सीमित हो जाएगा। प्रभु असीम है। इसलिए पूरा कभी पाया नहीं जा सकता। और यह सौभाग्य है, क्योंकि पाने को सदा शेष रह जाता है। यह सौभाग्य है, क्योंकि पूरा अगर प्रभु को पा लिया जाए तो प्रभु से भी ऊब पैदा हो जाएगी। उससे ही जल्दी ही ऊब पैदा हो जाएगी। चूंकि उसे कभी पूरा नहीं पाया जा सकता, रस बहता रहता है, जीवन—धारा बहती रहती है, अनंत यात्रा चलती रहती है।

आज इतना ही।


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