श्रद्धा है द्वार प्रभु का
प्रश्न—सार:
1—श्रद्धा क्या है?
2—जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा आया!
3—प्रवचन में आपका प्यार बरस रहा है;
उससे भी कहीं अधिक मार पड़ रही है। अब मार की तिलमिलाहट सहन नहीं
होती।
4—स्मृति और स्वप्न से मैं आपके पास
कभी—कभी पहुंच जाती हूं। लेकिन इस जन्म के पति की मेहरबानी से मैं अभी तक आप तक
नहीं पहुंच पाई। आपकी प्रेम—दीवानी होने के लिए मैं क्या करूं?
5—यह कैसा विद्यापीठ है आपका,
जहां सिखाया जाता है कि दो और दो चार होते हैं; और चार नहीं होते, पांच भी हो सकते हैं!
पहला प्रश्न: श्रद्धा क्या
है?
श्रद्धा है एक प्रकार
का पागलपन; लेकिन सिर्फ धन्यभागियों को ही ऐसा पागलपन मिलता है। अभागे हैं वे जो
श्रद्धा के पागलपन से अपरिचित हैं। श्रद्धा का पागलपन जीवन की सबसे बड़ी संपदा है,
क्योंकि उसी के आधार पर, जो नहीं दिखाई पड़ता
उसकी खोज शुरू होती है।
जिसके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है, वह
इंद्रियों पर अटका रह जाता है; उसका यथार्थ—आंख से जितना
दिखाई पड़े, हाथ से जितना छूने में आ जाए, कान से जितना सुनाई पड़े—इसी पर अटक जाता है। और इंद्रियों की सीमा है।
इंद्रियां बड़ी छोटी हैं; अस्तित्व विराट है।
इंद्रियां ऐसी हैं जैसे चाय की चम्मच; और
अस्तित्व ऐसे है जैसे महासागर। चाय की चम्मच से जो सागर को नापने चलता है, कब नाप पाएगा! कैसे नाप पाएगा! चाय के चम्मच में सागर का कोई दर्शन नहीं
हो सकता; यद्यपि चाय की चम्मच में जो भर जाता है वह भी सागर
है। पर बड़ा गुण—भेद हो गया। कहां सागर के तूफान, कहां सागर
की मौज, कहां सागर की मस्ती, कहां सागर
की उत्तुंग लहरें, कहां सागर की गहराइयां—जिनमें हिमालय जैसा
पहाड़ खो जाए तो पता भी न चले कहां गया! उस चाय की चम्मच में न तो गहराई होगी सागर
की, न सागर की तरंगों की मौज—मस्ती होगी, न नृत्य होगा, न तूफान—आंधी होंगे, हालांकि चम्मच में जो भर गया है वह सागर का ही एक छोटा सा हिस्सा है।
लेकिन गुणात्मक परिवर्तन भी हो गया। परिमाण तो कम हुआ ही हुआ, गुण का भी अंतर हो गया। सागर में डूब सकते हो; चाय
की चम्मच में कैसे डूबोगे!
ऐसी ही इंद्रियों की स्थिति है। इनसे जो
हमें दिखाई पड़ता है,
वह विराट का ही हिस्सा है, पर अति क्षुद्र।
इतना क्षुद्र कि परिमाण का भेद तो पड़ता ही है, गुण का भेद भी
पड़ जाता है। अदृश्य न मिलेगा तो सागर न मिलेगा।
मगर अदृश्य को खोजने के लिए पहला सूत्र है—वह
है: श्रद्धा। श्रद्धा का मतलब होता है: जो नहीं देखा, उस पर भी
भरोसा; जो नहीं सुना, उस पर भी भरोसा।
श्रद्धा का अर्थ होता है: अनजान में उतरने का साहस।
इसलिए मैं कहता हूं: श्रद्धा एक पागलपन है।
जो तथाकथित समझदार हैं,
वे ऐसी झंझट में नहीं पड़ते। वे जाने—माने की सीमा में रहते हैं।
जहां तक जाना—माना है वहीं तक जाते हैं, उससे आगे नहीं जाते।
उससे आगे विराट का जंगल है; भटक जाने का डर है। भटक जाने की
जोखिम उठाने का नाम श्रद्धा है।
जोखिम तो है। कोई गारंटी हो नहीं सकती। कौन
देगा गारंटी?
कोई इंश्योरेंस भी नहीं हो सकता। अज्ञात की तरफ जो चला है उसने एक
जोखिम तो ली है। हो सकता है खो जाए। हो सकता है भटक जाए। हो सकता है लौटने की
संभावना न रहे। क्योंकि विराट से संबंध जोड़ना खतरनाक तो है ही। जब नदी सागर से
संबंध जोड़ती है तो खतरा तो लेती ही है। खतरा यही है कि खो जाएगी। और सौभाग्य यह है
कि खोकर ही नदी सागर हो जाती है।
इसलिए मैं कहता हूं: श्रद्धा एक तरह का
पागलपन है। और इसलिए जो थोड़े—बहुत श्रद्धा से पागल हैं, उनको ही
मैं स्वस्थ कहता हूं, क्योंकि उनके जीवन में झरोखा खुला है।
वे आकाश को बाहर छोड़ नहीं दिए हैं; आकाश उनके भीतर आता—जाता
है। उनके पंख अभी भी फड़फड़ाते हैं। वे अभी भी उड़ने को तत्पर हैं। वे अभी भी दूर
चांदत्तारों से मिलने की तैयारी कर रहे हैं। छोटी है क्षमता; छोटी है शक्ति—लेकिन आकांक्षा विराट की है। यही श्रद्धा का अर्थ है।
जब एक किसान बीज बोता है तो श्रद्धा है—क्योंकि
कौन जाने बीज पनपेंगे,
न पनपेंगे! सभी बीज पनपते तो नहीं। सभी बीज सदा नहीं पनपते। फिर कौन
जाने वर्षा आएगी कि नहीं आएगी, मेघ घिरेंगे कि नहीं घिरेंगे।
सदा मेघ घिरते भी नहीं। सूखा भी पड़ता है। और कौन जाने, जैसा
कल तक हुआ है वैसा आगे भी कल होगा कि नहीं! आज तक सूरज उगा है, सच; लेकिन कल उगे न उगे। कल के बाबत क्या कहोगे! कोई
निश्चय से उत्तर नहीं दे सकता।
एक दिन तो ऐसा जरूर आएगा जब सूरज नहीं
उगेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि कभी न कभी वह दिन आएगा जब सूरज का ईंधन चुक जाएगा।
आखिर तेल का छोटा सा दिया जलाते हो, वह भी उतनी ही देर तक जलता है
जितनी देर तक तेल है। सूरज का भी तेल एक दिन चुक जाएगा। उसकी क्षमता भी रोज कम
होती जा रही है, प्रतिदिन कम होती जा रही है; क्योंकि जितनी रोशनी देता जाता है, उतना कम होता
जाता है। एक न एक दिन ठंडा हो जाएगा। हो सकता है वह दिन कल ही हो। कल का क्या
भरोसा—सूरज निकलेगा कि नहीं; बादल घिरेंगे कि नहीं; और क्या भरोसा कि बीज अब तक तो धोखा नहीं दिए, कल भी
अपनी पुरानी प्रतिष्ठा कायम रखेंगे कि नहीं रखेंगे। बीज सड़ भी जा सकते हैं।
सब डर है; फिर भी किसान बीज बोता है।
हाथ में जो है उनको गंवाता है—उसकी आशा में, जो अभी हाथ में
नहीं है। हालांकि बुद्धिमानों का तर्क है यह कि हाथ की आधी रोटी, आकांक्षा और आशा की पूरी रोटी से बेहतर है। यह बुद्धिमानों का कहना है।
श्रद्धालु का कहना यह है कि हाथ में कितना ही हो, वह उसके
लिए गंवाने की तैयारी रखनी चाहिए, जो हाथ के अभी बाहर है,
तो विकास होता है।
बुद्धिमानों की बात मानी तो जड़ हो जाओगे।
पागलों की सुनो।
श्रद्धा का सूत्र जीवन में सारी संभावनाओं
को अपने में लिए है। आमतौर से लोग सोचते हैं कि श्रद्धालु व्यक्ति कमजोर होता है।
बिलकुल ही गलत बात है। श्रद्धालु ही शक्तिशाली है। अश्रद्धालु कमजोर होता है। वह
अपनी कमजोरी को बड़े तर्क देता है। वह कहता है: जब तक मुझे प्रमाण न मिल जाएं, मैं मानूं
कैसे? लेकिन श्रद्धालु कहता है: कुछ चीजें जीवन में ऐसी भी
हैं कि मानो तो प्रमाण मिलते हैं; अगर मानो ही न तो प्रमाण
मिलते ही नहीं।
जैसे कोई कहे कि प्रेम मैं तब करूंगा जब प्रेम
का पहले मुझे प्रमाण मिल जाए कि होता है। कोई बच्चा यह कहे कि मैं प्रेम तभी
करूंगा जब मुझे प्रेम का प्रमाण मिल जाए कि यह रहा प्रेम, ऐसा रहा
प्रेम; जब मैं प्रेम का पूरा शास्त्र समझ लूं, सब तरफ से जांच—परख कर लूं, भूल—चूक की कोई संभावना
न रहे—तब करूंगा प्रेम। तो फिर इस जगत में प्रेम विदा हो जाएगा। यह तो श्रद्धालु
के कारण प्रेम चल रहा है। क्योंकि श्रद्धालु कहता है: कर लेंगे पहले, फिर जांच—परख हो लेगी; फिर जांच—परख पीछे हो लेगी।
श्रद्धा बड़ी दुस्साहस की बात है; कमजोर के
बस की बात नहीं है। यह बलवान की बात है।
मैं पाबगिल हूं, सितारों
की बात करता हूं
खिजां जदां हूं, बहारों की
बात करता हूं।
श्रद्धा ऐसा पागलपन है कि जब चारों तरफ
मरुस्थल हो और कहीं हरियाली का नाम न दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा भरोसा रखती
है कि हरियाली है, फूल खिलते हैं। जब जल का कहीं कण भी न
दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा मानती है कि जल के झरने हैं,
प्यास तृप्त होती है। जब चारों तरफ पतझड़ हो, तब
भी श्रद्धा में वसंत ही होता है। श्रद्धा में वसंत का मौसम सदा ही होता है।
श्रद्धा एक ही मौसम जानती है—वह वसंत। बाहर होता रहे पतझड़, पतझड़
के सारे प्रमाण मिलते रहें, लेकिन श्रद्धा वसंत को मानती है।
संन्यास के लिए इस देश में हमने गैरिक
वस्त्र चुना है। गैरिक का एक दूसरा नाम है वासंती रंग। यह वसंत का रंग है। यह वसंत
के सौंदर्य की इसमें झलक है—वसंत की जवानी की; वसंत की आशा की, वसंत की श्रद्धा की। यह फूलों का रंग है। यह सूरज का रंग है। यह सुबह का
रंग है। इसको वासंती—बाना कहा है। यह शहीदों का रंग है। जो इतनी दूर तक राजी हो
जाते हैं कि अनजान—अपरिचित परमात्मा के लिए अपना जाना—माना प्राण भी चढ़ा देते हैं।
मैं पाबगिल हूं, सितारों
की बात करता हूं,
खिजां जदां हूं, बहारों की
बात करता हूं।
दबी हुई है, जहां—सोज
आग सीने में,
मैं राख हूं, पै शरारों
की बात करता हूं।
श्रद्धा राख में भी अंगारों की बात करती है; अंगारों
को खोजती है। जहां मृत्यु ही मृत्यु है, जहां मरघट ही मरघट
फैला है—वहां श्रद्धा अमृत का राज खोजती है।
यहां है क्या मृत्यु के सिवा? कुछ मर गए
हैं; कुछ मरने वाले हैं; कुछ जो अभी
पैदा नहीं हुए हैं वे भी मरेंगे। यहां मृत्यु के सिवा और कुछ भी निश्चित नहीं है।
अगर श्रद्धा के अतिरिक्त सोचो तो मृत्यु भर एक मात्र यथार्थ है, बाकी तो सब श्रद्धा है। जन्म के बाद एक ही बात निश्चित है जो होगी—वह
मृत्यु है; बाकी सब अनिश्चित है; बाकी
होगा नहीं होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
जीवन में एक ही बात पूर्ण रूप से निश्चित है—वह
मृत्यु है। अगर कोई ठीक—ठीक तर्कवादी हो तो मृत्यु के अतिरिक्त और किसी में उसको
विश्वास नहीं करना चाहिए,
क्योंकि और बाकी सब चीजें अनिश्चित हैं।
इसलिए पश्चिम में जहां तर्क का खूब विचार
हुआ है, फैलाव हुआ है—वहां लोगों का जीवन में कोई भरोसा नहीं रहा है। लोग कहते
हैं: जीवन अर्थहीन है। वहां मृत्यु एकमात्र तथ्य मालूम होने लगी है। बड़ी संख्या
में लोग आत्मघात करते हैं, क्योंकि जीवन अर्थहीन है। मृत्यु
में ही शरण लेते मालूम पड़ते हैं।
दबी हुई है, जहां—सोज
आग सीने में
मैं राख हूं, पै शरारों
की बात करता हूं
भंवर में है मेरा सफीना
हैं बादबां मौजें
तलातमों में किनारों की
बात करता हूं।
श्रद्धा का अर्थ है: जब तूफान उठे हों और
नाव डोलती हो,
अब डूबी तब डूबी होती हो, तब भी श्रद्धा
किनारों की बात करती है। तब भी श्रद्धा किनारों को मानती है। तब भी श्रद्धा
किनारों को जानती है। डूबते हुए भी सागर में, श्रद्धा में
किनारे ही होते हैं। तुम श्रद्धालु को डुबा नहीं सकते, क्योंकि
वह डूबते में भी किनारा पा लेगा।
भंवर है मेरा सफीना...
नाव उलझ गई भंवर में, नाव बन गई
भंवर खुद।
...हैं बादबां मौजें
और सागर की लहरें, कि बड़ी
दुश्मन! मिटाने को तत्पर।
तलातमों में किनारों की बात करता हूं।
और तूफान उठा है जोर से, बाढ़ आई है
भयंकर—कहीं कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता; कहीं कोई आशा कि
किरण नहीं है, अंधेरा भयंकर और पूर्ण है, अमावस है—लेकिन फिर भी श्रद्धा किनारों की बात करती है। अंधेरी से अंधेरी
रात में भी श्रद्धा चमकते तारे खोज लेती है। अमावस की रात भी श्रद्धा में पूर्णिमा
ही रहती है।
सबू ओ जाम गुलो नसतरन महो
अंजुम
गरीब दिल के सहारों की बात
करता हूं
हुई थी जिनसे मोहब्बत की
इब्तदाए हसीं
मैं उन लतीफ इशारों की बात
करता हूं।
श्रद्धा उसको खोजती है जिसका इशारा परमात्मा
की तरफ हो; जीवन में वही खोजती है जिसका इशारा परमात्मा की तरफ हो। तर्क वही खोजता है,
जिसका इशारा परमात्मा के विपरीत है।
तर्क है परमात्मा के विपरीत यात्रा। श्रद्धा
है परमात्मा की तरफ यात्रा। तर्क है परमात्मा से विमुख होना। श्रद्धा है परमात्मा
के सन्मुख होना।
तर्क का अर्थ होता है: जो प्रमाणित होगा, हमारी
बुद्धि से प्रमाणित होगा, वही हम स्वीकार करेंगे। परमात्मा
हमारी बुद्धि से बड़ा है; हमारी बुद्धि से गहरा है; हमारी बुद्धि से पहले है। इसलिए परमात्मा को बुद्धि प्रमाणित नहीं कर
सकती। तो फिर बुद्धि कहती है: परमात्मा नहीं है। जो प्रमाणित न हो सके, बुद्धि कहती है, वह नहीं है।
बुद्धि प्रमाणित क्या कर पाती है? क्षुद्र
चीजें प्रमाणित कर पाती है। कंकड़—पत्थर प्रमाणित हो जाते हैं; परमात्मा प्रमाणित नहीं होता। रुपये—पैसे प्रमाणित हो जाते हैं; प्रेम प्रमाणित नहीं होता। पद—प्रतिष्ठा प्रमाणित हो जाती है; काव्य, सौंदर्य, संगीत
प्रमाणित नहीं होता।
श्रद्धा, जो प्रमाणित नहीं होता, उसकी तरफ यात्रा है। और ऐसा बहुत कुछ है जीवन में जो प्रमाणित नहीं होता।
और यह शुभ है कि प्रमाणित नहीं होता; नहीं तो जीवन बिलकुल
व्यर्थ हो जाता। अगर सब कुछ प्रमाणित होने वाला होता तो बुद्धि से ऊपर फिर कुछ भी
नहीं हो सकता था। फिर बुद्धि को कहां शरण देते? कहीं तो कोई
चरण चाहिए जहां तुम जाकर कह सको: बुद्धं शरणं गच्छामि, कि अब
मैं तुम्हारी शरण आता! कहीं तो कुछ चाहिए, जिसे तुम पुकार
सको।
श्रद्धा का अर्थ है: मेरे भीतर प्यास है, यही
प्रमाण है कि जल होता होगा। और क्या प्रमाण चाहिए? जल का कोई
पता नहीं है अभी। कहीं दिखाई नहीं पड़ता। दूर—दूर तक कोई खबर नहीं मिलती। लेकिन एक
बात पक्की है कि मेरे भीतर प्यास है। मेरे भीतर प्यास है तो जल भी होगा; नहीं तो प्यास ही कैसे हो सकती थी? मेरे भीतर भूख है
तो भोजन भी होगा, नहीं तो भूख ही कैसे हो सकती थी? और मेरे भीतर यह परमात्मा को देखने की अभीप्सा है तो परमात्मा भी होगा;
अन्यथा यह अभीप्सा कैसे हो सकती थी?
श्रद्धा ऐसी प्रतीति है। अपने भीतर खोजती है
श्रद्धा और जिस चीज की आकांक्षा पाती है उसको मानती है कि होगा; अब खोजने
की बात है।
तुमने देखा, छोटा बच्चा पैदा होता है।
इस बच्चे को कुछ भी पता नहीं है कि श्वास कैसे ली जाए। इसने कभी श्वास ली नहीं है
अब तक! नौ महीने मां के पेट में मां की ही श्वास से काम चलाता था। पहले दो—चार
क्षण, जब बच्चा पैदा होता है तो बड़ी चिंता के होते हैं—उनके
लिए जो चारों तरफ इकट्ठे हैं—पिता है, मां है, डाक्टर है—बड़े चिंतित रहते हैं कि दो—चार क्षण में सब तय हो जाएगा: बच्चा
श्वास लेगा कि नहीं लेगा? चिल्लाएगा कि नहीं? रोएगा कि नहीं? अगर बच्चा रो देता है तो सारे लोग
प्रसन्न हो जाते हैं। बच्चा अगर नहीं रोता तो घबड़ा जाते हैं। क्योंकि रोने के
द्वारा ही वह श्वास लेना शुरू कर देता है। रोने का और क्या कारण है? रोने के द्वारा वह गले को साफ कर लेता है। उसके फेफड़े एक झटके से खुल जाते
हैं। वह जोर की जो आवाज निकलती है उसमें उसके बंद फेफड़े, जिन्होंने
कभी काम नहीं किया, अचानक काम करने लगते हैं। मगर इसने कभी
श्वास ली नहीं थी, कैसे सीखा? किसने
सिखाया? जीने की आकांक्षा थी जरूर भीतर, नहीं तो श्वास लेना संभव नहीं होता।
और बच्चे को भूख लगती है। और वह मां का स्तन
खोजने लगता है। भूख है तो स्तन भी होगा। और बच्चे ने इसके पहले कभी दूध नहीं पीया
और वह मां का स्तन अपने मुंह में ले लेता है और चूसने लगता है। यह चमत्कार है, क्योंकि
इसकी कोई शिक्षण व्यवस्था नहीं है। और शिक्षण व्यवस्था होती तो बड़ी मुश्किल हो
जाती; दो—चार—पांच साल लग जाते, किंडर
गार्डन स्कूल में भेजते, सीखता, तब तक
मर ही जाता। कुछ अनसीखा लेकर आया है—एक भरोसा है कि मां होगी। हालांकि इतना स्पष्ट
भी नहीं है बच्चे के मन में शब्दों की तरह कि मां होगी; मगर
एक श्रद्धा है कि होगी; कि ये ओंठ तड़फते हैं, कि यह कंठ प्यासा है, कि ये प्राण भूखे हैं—तो कहीं
कोई जलधार होगी, कहीं कोई दूध होगा, कहीं
कोई पोषण होगा।
बस श्रद्धा यही है कि तुम्हारे भीतर अगर
परमात्मा की आकांक्षा है तो परमात्मा होना ही चाहिए; नहीं तो आकांक्षा कैसे
होती!
बच्चा प्रमाण नहीं मांगता कि मुझे स्तन का
पहले प्रमाण दो;
कि दूध का प्रमाण दो; कि दूध पौष्टिक है,
इसका प्रमाण दो—बस दूध पीने लगता है और दूध पौष्टिक है। और प्रमाण
मिल जाते हैं अपने आप।
तर्क कहता है: पहले प्रमाण, फिर
अनुभव। श्रद्धा कहती है: पहले अनुभव, फिर प्रमाण।
हुई थी जिनसे मोहब्बत की
इब्तदाए हसीं
मैं उन लतीफ इशारों की बात
करता हूं
किसी के जलवा—ए—रुख का
खयाल आते ही
मैं महरो मैं की सितारों की बात करता हूं।
तेरे खयाल से बाबस्तगी का उजरे हसीं
सगुफ्ता ताजा बहारों की बात करता हूं
दुआ करो कि मुझे ताबे दीद मिल जाए
मैं बेवशर हूं, नज्जारों
की बात करता हूं।
दुआ करो कि मुझे ताबे दीद मिल जाए—कि मुझे
उसका दर्शन हो जाए। ऐसी मेरे लिए प्रार्थना करो कि मुझे उसका दर्शन हो जाए।
मैं बेवशर हूं, नज्जारों
की बात करता हूं।
मैं अंधा हूं और नजारों की बात कर रहा हूं।
श्रद्धा का अर्थ है: अंधेपन में भी प्रकाश का भरोसा। उसी भरोसे के सहारे अंधापन
कटता है, आंख मिलती हैं।
श्रद्धा इस जगत में सबसे मूल्यवान तत्व है।
जिसके पास श्रद्धा है,
वह धनी है; और जिसके पास श्रद्धा नहीं है,
उससे महा निर्धन दूसरा नहीं है। जिसके पास श्रद्धा नहीं, उसके पास वसंत की संभावना नहीं। इसलिए जगाओ श्रद्धा को।
और मजा यह है कि श्रद्धा सभी लेकर पैदा होते
हैं। तर्क यहां सीखते हैं;
श्रद्धा परमात्मा से लेकर आते हैं। श्रद्धा को सिखाना नहीं पड़ता;
तर्क सिखाना पड़ता है।
तर्क का शास्त्र है; श्रद्धा
का कोई शास्त्र नहीं है। और तर्क के लिए विश्वविद्यालय हैं; श्रद्धा
के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं। श्रद्धा सिखानी नहीं होती; श्रद्धा
तुम लेकर ही आए हो। लेकिन तुम भूल गए हो, कैसे उसका उपयोग
करें! तुम तर्क इतना सीख गए हो कि उसी के कारण बाधा पड़ रही है।
तर्क को जरा अनसीखा करो। जरा तर्क को हाथ से
जाने दो। कभी—कभी तर्क को एक तरफ हटा कर रख दो। कभी—कभी खोल दो द्वार, आने दो
सूरज को और ताजी हवाओं को। देखो चांदत्तारों को। कभी—कभी पृथ्वी को भूल जाओ। यही
जो क्षुद्र तुम्हें चारों तरफ घेरे है—दुकान है, बाजार है,
व्यवसाय—थोड़ी देर को इसे भूल जाओ। यही प्रार्थना है। यही ध्यान है।
थोड़ी देर को झरोखा खोलो। थोड़ी देर को बंद कमरे की मुर्दा हवा के बाहर आओ; या कम से कम बाहर की हवा को भीतर आने दो। थोड़ी देर तर्क को उठा कर रख दो।
थोड़ी देर के लिए भोले हो जाओ। इस भोलेपन में ही तुम्हारे जीवन की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण अनुभूतियां उतरनी शुरू होंगी। यहीं से आता प्रेम। यहीं से आता सौंदर्य।
यहीं से आता सत्य। और यहीं से एक दिन तुम पाओगे कि परमात्मा का भी आगमन होता है।
तुम्हारे श्रद्धा के द्वार से ही परमात्मा प्रवेश करता है।
दूसरा प्रश्न: जाने क्या पिलाया
तूने,
बड़ा मजा आया
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी
पायल नहीं, घुंघरू
नहीं,
छम—छम कैसे होने लगी!
ढूंढो मुझे, मैं खोने
लगी
हुआ क्या मुझे, उई तौबा!
मैं न जानी
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी
जाने क्या पिलाया, मुझे बड़ा
मजा आया!
परमात्मा पिलाया जा
रहा है। उससे कम कुछ मैं ढालता ही नहीं। यह जो शराब है, परमात्मा
की शराब है। तुमने अगर हिम्मत की थोड़ी पीने की, तो फिर चसका
लगेगा, फिर स्वाद लगेगा, फिर तलफ
पकड़ेगी।
मजे पर ही मत रुक जाना। मजा तो सिर्फ शुरुआत
है, भनक है। और—और मजे हैं आगे। और—और मौजें हैं आगे। और महोत्सव तुम्हारी
प्रतीक्षा करते हैं। यह नृत्य ऐसा है: शुरू तो होता है, समाप्त
नहीं होता। इस यात्रा का प्रारंभ है, अंत नहीं है।
ठीक तुम्हें हुआ।
—जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा आया!
ठीक, क्योंकि जो मैं पिला रहा हूं,
उसके पहचानने की तुम्हारे पास अभी कोई व्यवस्था नहीं है कि वह क्या
है। नया है बहुत। तुम्हारे अतीत में कोई अनुभव नहीं है उसका। जब पहली दफा कोई
स्वाद लगता है तो समझ में नहीं आता किस बात का स्वाद है। बहुत बार तो हम इसलिए उस
स्वाद को अपने में समा नहीं पाते, क्योंकि वह हमारे अतीत से
तालमेल नहीं खाता, इतना नया होता है कि हमारे भीतर कहीं भी
उसकी जड़ें नहीं जम पातीं। तो बहुत बार स्वाद आता है और चूक जाता है।
मेरे देखे प्रत्येक व्यक्ति को कई बार जीवन
में परमात्मा की झलक मिलती है। तुम कहोगे कि नहीं, हमें तो नहीं मिली। फिर भी
मैं कहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को मिलती है। कई बार मिलती है। तुम्हारी यह
धारणा कि तुम्हारे प्रयास से ही झलक मिलती है, बिलकुल गलत
है। कई बार अनायास मिलती है, आकस्मिक मिलती है।
कभी—कभी परमात्मा प्रसाद—स्वरूप आता है।
क्योंकि तुम्हीं थोड़े ही उसे खोज रहे हो; वह भी तुम्हें खोज रहा है। कभी—कभी
वह सफल हो जाता है तुम्हें खोजने में। कभी—कभी तुम सफल नहीं हो पाते हो—उससे भागने
में। कभी—कभी वह पकड़ ही लेता है। कभी—कभी अनजाने किसी क्षण में तुम्हें आविष्ट कर
लेता है, तुम्हें घेर लेता है। तुम्हारे बावजूद कभी—कभी
तुम्हें उसका स्वाद आ जाता है। लेकिन उस स्वाद का तुम्हारे भीतर कोई स्मरण नहीं
बनता, क्योंकि तुम्हारे भीतर जो तर्कजाल फैला है, शब्दजाल है, सिद्धांत, शास्त्र
हैं—उसमें कहीं भी उसकी कोई व्यवस्था नहीं जुट पाती, उसके
साथ कोई तालमेल नहीं बैठ पाता, कोई प्रसंग नहीं जुड़ पाता। वह
अलग रह जाता है—टुकड़े की तरह।
तुम्हारी सारी मन की चिंतना में ऐसी कोई बात
नहीं है जिससे इस नये तथ्य का संदर्भ बैठ जाए। तो धीरे—धीरे विस्मृत हो जाता है।
या...या तो तुम जब होता है तब ही भरोसा नहीं करते उस पर। तब ही तुम कहते हो कि वह
कल्पना कर ली होगी;
कोई ऐसे ही खयाल आ गया कि आज मन प्रसन्न था, इसलिए
ऐसा लग गया। तुम कुछ बहाने खोज लेते हो। या तुम कुछ व्याख्याएं कर लेते हो।
तुमने सुबह सूरज को उगते देखा किसी दिन—और
अचानक कुछ हुआ! सूरज के उगते—उगते तुम्हारे भीतर कुछ उग गया। उधर बाहर रोशनी फैली, इधर भीतर
भी रोशनी फैल गई। तुम सोच लेते हो मन में कि यह सुबह के सूरज के सौंदर्य की छाया
बनी। तुमने समझा लिया अपने को। तुमने एक व्याख्या कर ली। आया था परमात्मा, तुमने सूरज का सौंदर्य समझ कर समझा—बुझा लिया, बात
खत्म हो गई। किसी दिन आकाश में चांद को देख कर, किसी दिन
किसी सुंदर चेहरे को देख कर, किसी बच्चे की मुस्कुराहट में,
कभी किसी की आंख से झलकते आंसू में—तुम ठिठक गए हो; एक क्षण को सब रुक गया है; तुम्हारे विचार ठहर गए
हैं और एक क्षण को एक झरोखा आया, एक हवा आई, जो तुम्हें ताजा कर गई; लेकिन तुमने उसकी व्याख्या
कर ली। व्याख्या क्षुद्र के साथ कर ली। तुमने कहा: चांद बहुत सुंदर था। बात खत्म
हो गई।
लेकिन जिस दिन तुम जागोगे उस दिन तुम पाओगे
कि अरे! जिसे जाग कर मैंने पाया, इसका स्वाद बहुत बार जीवन में भी आया था,
मगर मेरे पास न तो प्रतीक थे, न संकेत थे,
न भाषा थी कि मैं इसे समझ पाता।
जिन्हें भी परमात्मा का अनुभव हुआ है उन
सबको यह भी अनुभव हुआ है कि अनुभव के पहले भी बहुत बार परमात्मा ने कभी—कभी झलक दी
थी।
रामकृष्ण को ऐसा हुआ। छोटे थे। कोई सात साल
या आठ साल की उम्र थी। परमात्मा का तो कोई अनुभव नहीं था। खेत से लौट रहे थे। बीच
में एक तालाब पड़ता था। तालाब के किनारे से निकलते वक्त उनके पैरों की आहट सुन कर, बगुले
बैठे होंगे तालाब के किनारे, वे एकदम से उड़े। कोई दस—पंद्रह
बगुलों की सफेद कतार और पीछे एक काला बादल। उस काले बादल में से तीर की तरह उड़ गए
सफेद बगुले एक क्षण में, जैसे बिजली कौंध गई। रामकृष्ण वहीं
ठिठक गए, कुछ हुआ, बेहोश होकर गिर गए।
आस—पास के किसान उन्हें घर उठा कर लाए। किसी को समझ में न आया कि हुआ क्या!
रामकृष्ण को भी समझ में नहीं आया। होश में आ गए, बात भूल गई।
सबने यही कहा कि कुछ हो गया होगा। भूखा था—किसी ने कहा—दिन भर का भूखा था, काम करता रहा खेत में, छोटा बच्चा है अभी, थक गया होगा, मूर्च्छा आ गई। जो कुछ ज्यादा होशियार
थे, उन्होंने कहा कि, रामकृष्ण से पूछा
होगा। रामकृष्ण ने कहा कि बगुलों की एक सफेद पंक्ति उड़ती हुई और पृष्ठभूमि में
काला बादल, जैसे बिजली कौंध गई, कुछ
हुआ मेरे भीतर! मुझे पता नहीं क्या हुआ। मगर अपूर्व आनंद हुआ! उस आनंद में मैं गिर
पड़ा। लोगों ने कहा होगा कि बच्चा है, अभी इसे क्या पता आनंद
का! कहां यहां आनंद!
और बगुलों की पंक्ति में क्या आनंद हो सकता
है? उन्होंने भी बहुत बार बगुले उड़ते देखे। माना कि काले बादल की पृष्ठभूमि थी
और सुंदर लगे होंगे सफेद बगुले उड़ते हुए, बड़े प्रखर लगे
होंगे, जैसे काले बादल में बिजली कौंधी हो, ऐसा हुआ होगा—मगर फिर भी ऐसा क्या कि आदमी मूर्च्छित हो जाए!...छोटा बच्चा
है।
और रामकृष्ण को तो कोई परमात्मा का अनुभव
नहीं था, इसलिए यह तो कैसे कहें कि परमात्मा का अनुभव हुआ। इसका तो कोई उपाय नहीं
था। बात आई—गई, भूल गई। ऐसा रामकृष्ण को होता रहा कभी—कभी।
अर्थ तो पीछे खुला, जब पूरा परमात्मा मिला। अर्थ तो तब खुला।
तब रामकृष्ण ने लौट कर देखा कि अरे! यह जो आज बरस रहा है आकाश से, इसी की बूंदें पड़ी थीं। वे बूंदें इसी की थीं। अब अनुभव हुआ। अब स्वाद आया,
तो पुरानी स्मृतियां भी ताजी हो गईं; तब सब
सूत्रबद्ध हो गया। तब रामकृष्ण ने कहा कि उस दिन जो सफेद बगुलों को उड़ते देखा था
काले बादल के बीच, वह तू ही उड़ा था। वे बगुले नहीं थे,
वह काला बादल नहीं था—तू ही उड़ा था। और मैं जो ठिठक गया था, वह समाधि थी। मगर मैं अपरिचित, अनजान, मैं नासमझ, मैं मूढ़—तुझे पहचान न पाया। तूने एक झलक
दी थी, लेकिन मैं चूक गया।
तुम भी जिस दिन जागोगे और जानोगे, उस दिन
हैरान होओगे कि बहुत बार ऐसा हुआ था। परमात्मा को पाने के पहले बहुत बार पा—पा कर
खोना भी पड़ता है। पाते—पाते पाना होता है। होते—होते बात होती है। बहुत बार चोट
पड़ती है, तब कहीं जाकर कुआं खुदता है भीतर का।
जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा
आया!
चलो, इतना भी एहसास हुआ कि मजा आया,
तो काफी है। इसको मजा ही मत समझ लेना। जो पिलाया है, वह मजे से आगे ले जा सकता है। मजा समझा, तो मनोरंजन
होकर रह जाएगा। मजा समझा, तो ठीक, दिलचस्प
बात थी, कुछ अच्छा लगा था, फिर कभी
सुनने का भाव होगा तो आ जाओगे। मगर वहीं रुक गए तो ऐसा हुआ, जैसे
मैंने तुम्हें हीरा दिया था और तुमने समझा कि चलो रख लो, सुंदर
लगता है, रंगीन है, घर बच्चे खेलेंगे।
एक गरीब आदमी को हीरा मिल गया, बड़ा हीरा—राह
के किनारे पड़ा हुआ। उसको अपने गधे से प्रेम था; और तो उसके
पास कुछ था भी नहीं। उसने कहा: बड़ा बढ़िया पत्थर है। गधे के गले में बांध दिया कि
चलो गधे का आभूषण हो जाएगा। और गधा भी जितना प्रसन्न हो सकता था उतना प्रसन्न हुआ।
न गधे का मालिक समझा कि हीरा है; और गधा तो कैसे समझे जब गधे
का मालिक ही नहीं समझा! गधे ने भी खुशी में लातें फटकारी होंगे, जोर से ची—पों ची—पों की होगी। दोनों चल पड़े। एक जौहरी ने देखा राह पर।
जौहरी तो भरोसा न कर सका। हीरे बहुत देखे थे जिंदगी में, इतना
बड़ा नहीं देखा था। और गधे के गले में बंधा है! और ये सज्जन बगल में लट्ठ लिए उसकी
चले जा रहे हैं। उसने रोका। उसने कहा कि भाई, यह पत्थर...।
वह समझ गया कि यह आदमी को पता नहीं कि यह क्या है। तो उसने हीरा तो कहा ही नहीं।
उसने कहा: इस पत्थर के क्या दाम लोगे? अब जो उसे पत्थर समझ
रहा हो, वह दाम भी क्या मांगे! उसने बड़ी हिम्मत करके कहा कि
एक रुपया। वह भी बड़े सोच—समझ कर कहा उसने—कि एक रुपया देगा कौन, कोई पागल है। सोचा कि चार आने भी मिल जाएं तो बहुत। मगर उसने होशियारी की,
जैसा कि अधिक होशियार लोग करते रहते हैं। उसने सोचा कि रुपया मांगो,
तब कहीं चार आने मिलेंगे। मगर उसे हैरानी भी हुई कि यह आदमी मूढ़
मालूम होता है; शहर का है मगर बुद्धू, जैसे
कि शहर के लोग अक्सर होते हैं। गांव के लोग ऐसा ही सोचते हैं। इसके दाम का सवाल ही
क्या है; ऐसे ही मांग लेता तो मैं दे देता। मगर अब जब दाम
मांगे ही हैं, इसने पूछे ही हैं तो उसने कहा: अच्छा एक रुपया
लेंगे।
लेकिन जौहरी भी सोचा कि यह है तो बुद्धू, उसको कुछ
पता तो है नहीं; एक रुपया मांगता है। लाखों की कीमत का हीरा
है। तो एक रुपया मांगता है; इसको पक्का तो है ही नहीं कि यह
हीरा है; इसको पत्थर है यही पता है; पत्थर
के क्या एक रुपये देने। उसने कहा: चार आने लेगा? उस आदमी ने
सोचा कि चार आने, नहीं चार आने से तो ठीक है कि गधे के गले
में ही बंधा रहे या फिर बच्चे घर में खेलेंगे। चार आने में नहीं दूंगा—उसने कहा।
उसने सोचा: कम से कम आठ आने तो करे यह।
मगर जौहरी भी कंजूस था। उसने सोचा कि देगा
चार आने में ही। चार आने में भी...पुराने जमाने की कहानी होगी, चार आने
बहुत थे—महीने भर का खर्च चल जाए। तो उसने कहा कि जरा दो कदम चलो, समझ में आएगी इसको बात कि चार आने भी कौन देगा पत्थर के।
वह ऐसा दो कदम आगे चला गया, तभी एक
दूसरा जौहरी आ गया। उसने पूछा: कितने दाम? उस आदमी ने एक
रुपया कहा। उसने कहा: आठ आने में देते हो? उसने कहा कि ठीक
है, अब ठीक आदमी मिल गया। आठ आने में बेच दिया।
तब तक पहला जौहरी वापस आया—फिर मोलत्तोल
करने को। हीरा तो बिक चुका था। उसने पूछा इस गधे के मालिक को कि कितने में बेचा
नासमझ! उसने कहा,
आठ आने में। तो वह कहने लगा: तेरे जैसा मूढ़ हमने नहीं देखा। यह हीरा
लाखों का है और तूने आठ आने में बेचा!
वह गधे का मालिक खूब हंसने लगा। उसने कहा:
सुन भाई गधे। यह हमको मूरख कहता है। हम तो उसको पत्थर समझते थे तो हमने आठ आने में
बेचा तो कुछ गलती न की,
लेकिन तू तो जौहरी है, तू चार आने में मांग
रहा था, आठ आने भी देने को राजी न हुआ। तू महागधा है। हम तो
ठीक। हमें तो पता ही नहीं था कि हीरा है। इसलिए हमने तो समझा कि काफी समझदारी की
आठ आने में बेच दिया; हमने चार आने में नहीं बेचा, यही क्या कम है। मगर तेरी तो सोच, तुझे तो पता था कि
लाखों का है, तूने एक रुपया जल्दी से निकाल कर न दे दिया!
जो मैंने तुम्हें दिया है, हीरा है।
अगर तुमने उसका मनोरंजन ही समझा तो तुमने अपने गधे के गले में लटका दिया; फिर कहीं न कहीं तुम आठ आने में बेच दोगे। उसका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।
मजे से थोड़ा आगे चलो। मजे से थोड़े ऊपर उठो।
मजे का सहारा लो। मजे की तरंग को पकड़ो। उसी तरंग पर यात्रा करनी है। उसी तरंग पर
सवारी करनी है। मगर वहीं रुक नहीं जाना है। यह जो लहर तुम्हारे भीतर उठी है...
जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा
आया!
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी!
शुभ हुआ। झूमो! लेकिन झूमना गंतव्य नहीं है।
झूमना पहला आघात है। खूब झूमो। कंजूसी मत करना। नहीं तो हीरे से चूक जाओगे। झूमने
में कृपणता मत करना। सोच—सोच कर मत झूमना। झूमने में भी क्या सोच—सोच कर झूमना!
लेकिन लोग ऐसे ही हैं। लोग प्रसन्न भी होते
हैं तो सोच—सोच कर होते हैं कि कितना होना, कितना नहीं होना। लोग आनंदित भी
होते हैं तो बड़ी कंजूसी करते हैं कि इतने तक जाएं कि इससे आगे जाएं!
मैं देख कर चकित होता रहता हूं कि लोगों की
कंजूसी की आदत ऐसी जड़ हो गई है कि अपने को प्रसन्न होने की आज्ञा भी बड़ी मुश्किल
से देते हैं। खुशी की लहर भी आए तो बड़ी मुश्किल से उसे स्वीकार करते हैं। दुख के
ऐसे आदी हो गए हैं कि सोचते हैं: दुख ही सत्य है; सुख तो हो कैसे सकता है!
श्रद्धा ही नहीं रही तो
सुख कैसे होगा?
कमल ने पूछा है यह प्रश्न!
कमल, ठीक हुआ।
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी!
झूमो, परिपूर्णता से झूमो। ऐसे झूमो कि
तुम्हें ऐसा खयाल भी न रह जाए कि झूमने वाला कोई पीछे खड़ा देख रहा है। इतना विभाजन
भी न बचे। झूमना ही रह जाए—झूमने वाला न बचे। नृत्य रह जाए—नर्तक न बचे। गायक रह
जाए तो अड़चन हो गई। नर्तक बच गया तो अड़चन हो गई। तो दो हो गए: गायक और गीत। गीत ही
बचे; गायक बिलकुल गीत में डूब जाए, समाहित
हो जाए। ऐसे झूमो कि झूमने वाला न बचे।
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी!
ऐसी मस्तानी, ऐसी दीवानी दशा को अपने
भीतर आने का अवसर दो—आ रही है। द्वार खड़ी दस्तक दे रही है। मगर तुम हो कि भीतर
विचार कर रहे हो कि आने देना कि नहीं आने देना। महा—अतिथि भी द्वार पर आएगा तो भी
तुम सोचते हो कि आने देना कि नहीं आने देना।
और तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। जब भी
आया दुख आया। जब भी किसी ने दस्तक दी, दुख ही ने दी। आज अगर सुख भी दस्तक
देता है तो तुम चिंतित होते हो कि आया फिर कोई दुख; आई फिर
कोई अड़चन; फिर झंझट कोई आई।
आने दो इस मस्ती को। आज्ञा दो अपने को।
मेरे पास लोग आ—आ कर पूछते हैं कि बड़ा आनंद
आ रहा है, मगर कहीं यह कल्पना तो नहीं है। दुख में कभी नहीं पूछते। मुझसे आज तक नहीं
पूछा एक आदमी ने। हजारों लोगों के दुख—सुख मैंने सुने; मगर
एक आदमी ने मुझसे आज तक नहीं कहा कि बड़ा दुख हो रहा है; कहीं
यह कल्पना तो नहीं है? नहीं, दुख तो
बिलकुल यथार्थ है। उसको तो लोग मानते हैं। उस पर तो बड़ी श्रद्धा है। लेकिन जब सुख
होता है तो मुझसे आकर पूछते हैं कि बड़ा सुख आ रहा है; कहीं
ऐसा तो नहीं कि हम किसी कल्पना जाल में पड़ गए हैं! कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने हमें
सम्मोहित कर लिया।
सुख पर इतनी अश्रद्धा है! इसीलिए तो नहीं
मिलता। जिस पर श्रद्धा है वही पाओगे। दुख पर श्रद्धा है तो दुख पाओगे।
लोग कारण जानना चाहते हैं कि क्यों सुख मिल
रहा है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दुख मिले तो कारण खोजना, क्योंकि
दुख का कारण होता है। सुख का कारण नहीं होता; सुख स्वभाव है।
सुख तुम्हारे भीतर की अंतर्दशा है; तुम्हारी अंतरात्मा है।
इसलिए तो हमने परमात्मा की परिभाषा सच्चिदानंद की है। अंततः वह आनंद है! सत्य है,
फिर चित्त है, फिर आनंद है; अंततः आनंद है। अंततोगत्वा परमात्मा आनंद—रूप है। तुम्हारे भीतर बैठा है
आनंद। इसका कोई कारण नहीं होता। और जब तुम्हें कारण समझ में आते हैं, तब भी खयाल रखना कि वह समझ की ही भ्रांति है।
जैसे तुम ध्यान कर रहे हो और आनंद आया; तुम सोचते
हो: ध्यान के कारण आनंद आया। गलत! ध्यान के कारण सिर्फ तुमने दुख की तुम्हारी जो
पकड़ थी वह छोड़ी। ध्यान के कारण आनंद नहीं आता। ध्यान के कारण दुख की पकड़ छूटती है।
दुख की पकड़ छूटी कि भीतर तो आनंद का झरना था, बहने लगा;
दुख की चट्टान हट गई, झरना बह पड़ा। चट्टान
हटाने से झरना पैदा नहीं होता, स्मरण रखना। झरना हो तो ही
बहेगा। चट्टान के हटाने से क्या होता है! तुम हटाते रहो चट्टानें, अगर पीछे झरना नहीं तो कुछ नहीं बहेगा। चट्टान का हटना झरने का जन्म नहीं
है। वह झरने के जन्म का स्रोत नहीं है। चट्टान का हटना केवल बाधा का हटना है। झरना
था, चट्टान रोके थी; हटी चट्टान,
झरना बह पड़ा। ऐसा ही ध्यान में होता है।
ध्यान से आनंद नहीं होता। ध्यान से केवल दुख
की चट्टान को तुम जो पकड़े थे जोर से, वह छूट गई हाथ से; उसके छूटते ही भीतर जो आनंद भरा था, वह बह पड़ा;
वह चला बह कर।
अब तुम पूछते हो: इसका कारण क्या है?
कारण होता ही नहीं आनंद का। कारण सिर्फ दुख
के होते हैं।
तुमने कभी डाक्टर से जाकर पूछा कि मैं
स्वस्थ हूं, इसका कारण क्या है? जाकर पूछो तो डाक्टर भी सिर पीट
लेगा तुम्हें देख कर कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। स्वस्थ हो, इसका कोई कारण होता ही नहीं। स्वस्थ होना सहज है, स्वाभाविक
है। स्वस्थ होना ही चाहिए। स्वस्थ होने के लिए कोई चिंता लेने की जरूरत नहीं कि
क्यों स्वस्थ हूं। नहीं तो तुम बीमारी के चक्कर में पड़ने की कोशिश कर रहे हो।
हां, दुख होता है तो तुम पूछते हो कि
क्या कारण है। निदान, डायग्नोसिस हो सकती है, क्योंकि दुख का कारण होता है। पीड़ा का कारण होता है। बीमारी का कारण होता
है। कारण होता है, उसके लिए औषधि भी होती है।
ध्यान से आनंद पैदा नहीं होता; ध्यान
सिर्फ दुख को हटाने की औषधि है। दुख की उपाधि लगी, दुख की
व्याधि लगी; ध्यान की औषधि से हट जाती है। और भीतर का जो
आनंद है, वह सहज स्फुरित होने लगता है। अकारण।
मगर जब कुछ अकारण घटता है तो तुम्हें बेचैनी
होती है। तुम्हें लगता है,
यह कहां से आ रहा है। कहीं मैं कल्पना तो नहीं कर रहा हूं, क्योंकि अब और तो कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कहीं भी! न तो कोई लाटरी मिल
गई है, न कोई गड़ा हुआ धन मिल गया है; न
कोई खजाना मिल गया है। कुछ भी नहीं हुआ। न कोई प्रधानमंत्री बन गए हो तुम, न कोई राष्ट्रपति बन गए हो—कुछ भी नहीं हुआ है। बाहर कुछ भी नहीं हुआ है।
कोई कारण नहीं। सब बाहर वैसा का वैसा है, जैसा था। अचानक यह
क्या हो रहा है! अकारण! अकारण, तो जरूर कल्पना से आता होगा!
यह तर्क खड़ा होता है कि तो फिर मैं कल्पना कर रहा हूं; या हो
सकता है किसी ने मुझे सम्मोहित कर लिया; या मैं किसी की
बातों में पड़ गया हूं।
तुम चिंतित हुए। चिंतित हुए तो तुम संकुचित
हुए। संकुचित हुए तो फिर दुख की चट्टान पकड़ लोगे। यह आनंद फिर खो जाएगा।
आनंद पर भी श्रद्धा नहीं है लोगों की! आनंद
को भी नहीं होने देते।
तो तुमसे मैं कहता हूं: कमल, अच्छा
हुआ! आगे बढ़ो, जाओ इसमें!
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी
पायल नहीं, घुंघरू
नहीं
छम—छम कैसे होने लगी!
ठीक ऐसा ही होता है। न घुंघरू है, न पायल है—छम—छम
होती है। कारण कोई भी नहीं है। आनंद अकारण है। इसीलिए तो उस नाद को हमने अनाहतनाद
कहा है।
तबला बजाया तुमने, यह आहतनाद
है। हाथ से चोट मारी तबले पर, तब तबला बजा। तबले पर चोट से
टंकार हुई। वीणा बजाई तुमने, तो भी हाथ से तार खींचे,
तारों को जगाया, चोट की—यह आहतनाद है। मैं
तुमसे बोल रहा हूं, यह कंठ का उपयोग हो रहा है, तो आहतनाद है। एक ऐसा नाद भी है: न तबला वहां, न
वीणा वहां, न कंठ वहां। सब खो गया। एक महाशून्य में नाद हो
रहा है।
ठीक कहा:
पायल नहीं, घुंघरू
नहीं
छम—छम कैसे होने लगी!
पायल भी छोड़ो, घुंघरू भी छोड़ो—तो ही छम—छम
होगी। यह जो मीरा कहती है: पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे। इनसे तुम बाहर के
घुंघरुओं की बात मत समझ लेना। बाहर भी उसने बांधे थे, मगर वे
प्रतीक थे। भीतर बिना घुंघरुओं के छम—छम होने लगी थी।
भीतर जो घट रहा था, उसी को
बाहर प्रकट करने के लिए बाहर भी पैरों पर घुंघरू बांधे थे।
मैं जो तुमसे बोल रहा हूं, यह आहत है;
लेकिन अनाहत हो रहा है, इसलिए तुमसे बोल रहा
हूं। कुछ भीतर हो रहा है, वह तुमसे कहना चाहता हूं। जो भीतर
हो रहा है, वह अनाहतनाद है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह आहत
के जरिए उसी की खबर पहुंचा रहा हूं। वही मीरा ने किया—पग घुंघरू बांध...!
जब भीतर बिना घुंघरू के छम—छम होने लगी और
मीरा को सुनाई पड़ने लगी... मगर और किसी को तो सुनाई नहीं पड़ेगी। मीरा बैठी रहेगी, वह छम—छम
उसी को सुनाई पड़ेगी, वह किसी और को सुनाई नहीं पड़ेगी। या और
कोई मीरा जैसा बैठा होगा तो उसको सुनाई पड़ेगी। इसलिए तो मीरा कहती है: भगत देख
राजी हुई, जगत देख रोई!...जब कोई मिल जाएगा प्यारा तो
समझेगा। फिर बाहर के घुंघरू न बांधने पड़ेंगे।
लेकिन जो लोग इस जगत में हैं वे तो केवल
बाहर को ही देख सकते हैं;
कानों से ही सुन सकते हैं; हाथ से ही छू सकते
हैं। मीरा ने उनके लिए घुंघरू भी बांधे हैं, ताकि भीतर का
नाद बाहर तक पहुंचाया जा सके।
इसलिए मैंने मीरा को तीर्थंकर कहा है। किसी
ने प्रश्न पूछा है कि मीरा को आपने तीर्थंकर कैसे कहा, क्योंकि
मीरा ने कोई शिष्य नहीं बनाए और मीरा ने कोई संप्रदाय भी नहीं चलाया; आपने मीरा को तीर्थंकर कैसे कहा?
ऊपर से देखने से बात ठीक लगती है। तीर्थंकर
उसे कहते हैं जो घाट बनाए;
जो एक संप्रदाय का जन्मदाता हो; एक राह बनाए,
जिस राह से और जाने वाले परमात्मा तक पहुंच सकें।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि मीरा ने बुद्ध की
तरह तो राह नहीं बनाई,
महावीर की तरह भी राह नहीं बनाई। लेकिन मीरा ने भी राह बनाई—अपनी
तरह। शास्त्र नहीं रचे, मगर पैर में घुंघरू बांधे। शब्द नहीं
बोली, मगर गीत गुनगुनाए। किसी को ऐसा औपचारिक ढंग से शिष्य
नहीं बनाया, लेकिन न मालूम कितने लोगों के गलों में जाम ढाला
और न मालूम कितने लोगों को जाने—अनजाने भीतर की छम—छम की खबर पहुंचा दी! यह दीक्षा
इतनी औपचारिक नहीं थी; आंतरिक थी।
मीरा तीर्थंकर है। उसने भी घाट बनाया। उसके
घाट से भी बहुत लोग उतरे और उसका घाट बड़ा प्यारा है। छोटा सही, लेकिन
उसका घाट बड़ा प्यारा है! वहां सदा संगीत की वर्षा हो रही है। वहां अनहद का तूरा बज
रहा है।
पायल नहीं, घुंघरू
नहीं,
छम—छम कैसे होने लगी!
ढूंढो मुझे, मैं खोने
लगी
हुआ क्या मुझे, उई तौबा!
मैं न जानी
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी
जाने क्या पिलाया, मुझे बड़ा
मजा आया!
अब आगे बढ़ो। एक—एक कदम मिटो। खोने में ही
पाना है। डर लगता है कि कहीं खो तो न जाएंगे!
झूम उठी रे मैं मस्तानी
दीवानी
ढूंढो मुझे, मैं खोने
लगी।
खोने का डर भी आता है—सौभाग्य से आता है। जब
आए तो स्वीकार कर लेना,
अंगीकार कर लेना। और खो जाना, वाष्पीभूत हो
जाना।
तुम न बचो, इसी में तुम्हारी धन्यता
है। क्योंकि तुम जब नहीं हो, तभी परमात्मा है। तुम जब तक हो
तब तक परमात्मा नहीं है।
क्या जाने क्या से कर दिया
है तूने क्या मुझे
ऐ दोस्त अब तो कुछ भी नहीं
सूझता मुझे
क्यों मैं नहीं रहा हूं
जमाने के काम का
अब पूछने लगा है जहां, क्या हुआ
मुझे
हालत बदल गई है, नहीं मैं
रहा वो मैं
हालांकि देखने को नहीं कुछ
हुआ मुझे
हर दिल का दर्द सौंप दिया
मुझ गरीब को
अच्छा सिला ये इश्क का
मेरा दिया मुझे
पर्दे हटे नजर से मिटे
इम्तयाज सब
कोई नहीं है गैर नजर आ रहा
मुझे
रौशन तमाम जिंदगी के
रास्ते हुए
सब कुछ मिला, मिला जो
तेरा नक्शे पा मुझे।
तेरे पैर का चिह्न मिल गया तो मुझे सब कुछ मिल
गया। अपने को गंवा दो,
तो ही उसके पैर का चिह्न मिलेगा।
क्या जाने क्या से कर दिया
है तूने क्या मुझे
ऐ दोस्त अब तो कुछ भी नहीं
सूझता मुझे
सूझ जाएगी, बूझ जाएगी—तुम
खोओगे।
इसलिए मैंने कहा कि श्रद्धा एक प्रकार का
पागलपन है। पागल होने की तैयारी हो तो ही मेरे साथ आ सकते हो। समझदार चूकेगा। पागल
ही पी सकता है इस घाट से। और सदा ही पागलों ने पीया है। पीने के लिए भी छाती
चाहिए।
हालत बदल गई है, नहीं मैं
रहा वो मैं
हालांकि देखने को नहीं कुछ
हुआ मुझे
क्यों मैं नहीं रहा हूं
जमाने के काम का
अब पूछने लगा है जहां, क्या हुआ मुझे।
अड़चनें आएंगी। जैसे—जैसे नाचोगे, झूमोगे,
मस्त होओगे—वैसे—वैसे पाओगे कि बहुत से काम जो कल तक करने संभव थे
अब संभव नहीं रहे; वैसे—वैसे पाओगे कि कल तक जो जीवन का
ढर्रा और ढांचा था उसमें अपने आप चुपचाप कुछ रूपांतरण होने लगा है। और तुम्हारे आस—पास
जो लोग हैं उनको अड़चन शुरू होगी, क्योंकि उनकी अपेक्षाएं
टूटनी शुरू हो जाएंगी।
दुनिया बहुत अजीब है। अगर कोई आदमी तुम्हें
गाली दे और तुम मुस्कुरा कर चले जाओ, तो तुम उसको बेचैन कर देते हो कि
मामला क्या है? मैंने गाली दी, इस आदमी
ने जवाब नहीं दिया, यह हंसा क्यों! वह रात भर सो न सकेगा।
तुम गाली का जवाब गाली से दे देते, वह भी निश्चिंत हो जाता,
तुम भी निश्चिंत हो जाते—बात आई—गई हो जाती है, मामला रफा—दफा हो गया। गणित में आ गई बात। किसी ने तुम्हें गाली दी,
तुम मुस्कुराए और अपने रास्ते चल दिए। वह आदमी तुम्हें कभी क्षमा
नहीं कर सकेगा; ध्यान रखना। गाली देते तो क्षमा कर ही देता।
यहां गाली दी जा रही है, ली जा रही है—यह तो धंधा ही है
यहां। मगर यह क्या हुआ, तुमने सब व्यवस्था तोड़ दी! तुमने कुछ
ऐसा किया जो अपेक्षित नहीं था।
एक महिला ने मुझे आकर कहा कि मैं आपसे कैसे
कहूं कि आपके ध्यान से शांति मिल रही है, लेकिन बड़ी अशांति भी हो रही है!
मैंने पूछा कि मैं समझा नहीं, तू क्या चाहती है कहना। उसने
कहा कि मामला यह है कि मैं तो शांत हो रही हूं, लेकिन घर में
बड़ी अशांति हो रही है। और उसने कहा कि मैंने तो कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि
मेरी शांति से इतनी अशांति होगी। मैं तो सोचती थी: मैं शांत हो जाऊंगी तो घर भर को
प्रसन्नता होगी। मेरे पति भी मुझसे कुछ उखड़े—उखड़े हो गए हैं, जब से मैं शांत हो गई। मैं आपके पास आई ही इसलिए थी कि घर में कलह होती थी,
पति से भी कलह होती थी; सोचा कि ध्यान करूंगी,
थोड़ी ध्यान से शांति मिलेगी। मैं तो शांत हो गई, कलह भी खो गई; मगर कलह में ज्यादा शांति थी घर में,
अब ज्यादा अशांति है। क्योंकि पति कहते हैं: तुझे हुआ क्या? तू पहले जैसी क्यों नहीं रही? पति कहते हैं: अब तेरे
पास आता हूं तो ऐसा लगता है तू कोई दूसरी ही स्त्री है; मेरी
स्त्री तो बची ही नहीं। इससे बेचैनी हो रही है अब कि मैं नाराज भी होता हूं तो
चुपचाप सुन लेती है, तो मैं दिन भर फिर बेचैन रहता हूं। तेरे
भीतर जो वासना थी उद्दाम, वह कहां खो गई?
पुरुष के अहंकार को रस मिलता है कि स्त्री
उसके पीछे दीवानी है,
अब वह दीवानी नहीं है, तो अड़चन हो रही है:
पुरुष का सारा अहंकार टूटा जा रहा है। अब तो हालत यह आ गई है, उसने मुझे कहा कि पति बाधा डालते हैं, घर में सबको
कह रखा है कि इसको ध्यान करने ही मत देना। तो मुझे ध्यान नहीं करने दिया जा रहा है,
यहां नहीं आने दिया जा रहा है। बच्चे भी बाधा डालते हैं। बच्चों को
भी समझा दिया है कि जब भी यह ध्यान करने बैठे कभी, जल्दी से
जाकर खटखटा देना दरवाजा; हिलाना—डुलाना; कहना, बाहर आओ। बच्चे भी प्रसन्न नहीं हैं। वे कहते
हैं: मां, तुझे क्या हो गया? तू पहले
जैसी नहीं रही।
एक बात समझने जैसी है। तुमने किसी से विवाह
किया है। तुमने कुछ बच्चे जन्म दिए हैं। तुम्हारे पिता हैं, मां हैं,
परिवार है, दुकान है, बाजार
है, हजार संबंध हैं। तुम चालीस साल तक जीए हो एक ढंग से;
उन सबने तुम्हें पहचान लिया है। एक तरह से तुम्हारे बाबत उनको
जानकारी है। वे जानते हैं। तुम्हारे संबंध में भविष्यवाणी कर सकते हैं कि अगर वे
ऐसा करेंगे तो तुम वैसा करोगे। तुम्हारी चालें पहचानी हो गईं। तुम उनकी चालें
पहचानते, वे तुम्हारी चालें पहचानते; खेल
साफ—साफ हो गया है। अचानक तुम बदल गए। तुम ध्यान करने लगे कि नाचने लगे कि गाने
लगे कि मस्त होने लगे—अब गड़बड़ हुई। अब फिर चालीस साल में जितने लोगों ने तुमसे
संबंध बनाए थे, उनको फिर से अ ब स से शुरू करना पड़ेगा,
क्योंकि तुम नये आदमी हो; फिर से व्यवस्था
जुटानी पड़ेगी। यह झंझट कौन ले!
तो तुम यह मत सोचना कि तुम बिगड़ जाओ तो ही
लोग नाराज होते हैं;
तुम सुधर जाओ, तो भी नाराज होते हैं। क्योंकि
बिगड़ो या सुधरो, दोनों हालत में उनको फिर से व्यवस्था जमानी
पड़ती है। तुम्हारे बाबत फिर से चित्र उतारने पड़ते हैं, फिर
अलबम बनाना पड़ता है। फिर से सोचना पड़ता है—शुरुआत से। यह अड़चन कौन उठाए।
तो यह होगा। तुम बदलोगे, तुम्हारे
भीतर बड़ी शांति होने लगेगी; तुम्हारे बाहर अशांतियां होने
लगेंगी। मगर उन अशांतियों को झेल जाना है, क्योंकि बाहर की
अशांति का कोई मूल्य नहीं है मूल्य तो भीतर की शांति का है। और आज नहीं कल,
लोग फिर राजी हो जाएंगे। उन्हें राजी होना ही पड़ता है। तुम अपने
मार्ग चले जाना। तुम चुपचाप अपनी धुन में मस्त रहना।
पहले लोग नाराज होते हैं; फिर लोग
उपेक्षा करते हैं; फिर लोग पूजा करने लगते हैं। ये लोगों की
तीन व्यवस्थाएं हैं। पहले नाराज होते हैं कि यह सब गड़बड़ कर डाला; फिर जब तुम चलते ही जाते हो अपनी धुन में तो लोग उपेक्षा करने लगते हैं कि
अब ठीक है, अब करना क्या, अब कब तक सिर
मारो! अब जो करना है, करने दो। जब भी तुम चलते जाते हो,
उनकी उपेक्षा की भी तुम फिकर नहीं करते, तो
धीरे—धीरे उनको खबर आनी शुरू होती है कि इस आदमी को हो क्या गया! यह आदमी बदल गया।
इस आदमी के जीवन में कुछ नई ज्योति उतरी। धीरे—धीरे वे तुम्हें पहचानेंगे। और तब
पूजा शुरू होती है। मगर यह लंबी यात्रा है। और बड़ी कठिनाइयों से रास्ता गुजरता है।
मगर कितनी ही कठिनाइयां हों, यह परमधन पाने जैसा है; यह राम रतन धन पाने जैसा है।
तीसरा प्रश्न: प्रवचन में
आपका प्यार बरस रहा है, लेकिन उससे भी कहीं अधिक मार पड़ रही है। अब मार
की तिलमिलाहट सहन नहीं होती।
पूछा है उमानाथ
शर्मा ने।
प्यार अगर साथ में मार न लाए, प्यार में
अगर मार न हो, तो प्यार जहर हो जाता है। फिर वह नींद की दवा
हो जाता है: वह ट्रेंक्वेलाइजर हो जाता है। फिर तुम्हें सांत्वना देता है, थपकारी देता है। फिर प्यार एक लोरी बन जाता है। जिसको सुन—सुन कर तुम सो
जाते हो, लेकिन जगाना है तुम्हें, सुलाना
नहीं।
कबीर ने ठीक कहा है कि जैसे कुम्हार घड़े को
बनाता है तो दो काम करता है। एक हाथ से भीतर सहारा देता है घड़े को और बाहर के हाथ
से पिटाई करता है। सहारा—पिटाई, दोनों साथ—साथ, तो घड़ा
बनता है।
तो मैं अगर तुम्हें सच में ही प्रेम करता
हूं, तो मुझे पिटाई भी करनी ही होगी और परिणाम आने शुरू हो गए हैं। उमानाथ के
मन में संन्यास का अंकुर रोज बढ़ता जा रहा है। मैं समझता हूं दोत्तीन दिन के
भीतर...इससे ज्यादा देर नहीं चलेगा।
प्यार और मार साथ—साथ। एक हाथ से सहारा, एक हाथ से
पिटाई, ताकि तुम सो भी न जाओ। जगाना है अंततः। और जिसने मेरे
प्रेम को समझा, वह उस मार के लिए भी मुझे धन्यवाद देगा,
क्योंकि वह मार इसीलिए है क्योंकि प्रेम है। अन्यथा क्या पड़ी?
क्या प्रयोजन है?
तुम्हें अगर कभी मैं चोट करता हूं तो इसी
आशा में कि चोट तुम्हारी मूर्च्छा को तोड़ेगी। तुम्हारी सुस्त पड़ गई झील में एक
कंकड़ गिरेगा,
लहरें उठेंगी। तुममें फिर जीवन की शुरुआत होगी।
और बड़ी संभावना है उमानाथ की। मेरे
संन्यासियों में वे अग्रिम पंक्ति में शीघ्र ही आ जाएंगे। उनके भीतर मैंने लपट
देखी है, इसलिए उन पर चोट भी कर रहा हूं। चोट उन्हीं पर नहीं करता, जिनके भीतर मैं देखता हूं कुछ भी नहीं, भूसा भरा है—अब
उनको चोट भी क्या करनी! वे तो नाममात्र के आदमी हैं।
जैसे खेत में खड़ा कर देता है न किसान, एक झूठा
आदमी बना कर, हंडी लटका देता है एक डंडे पर और कुर्ता पहना
देता है, बस ऐसे लोग हैं बहुत तो। थोथे! उनमें कुछ है ही
नहीं, चोट भी क्या करो! वीणा हो तो तार छेड़ने पड़ते हैं;
वीणा ही न हो तो क्या तार छेड़ो।
उमानाथ के हृदय में वीणा मुझे दिखाई पड़ी है।
उन्हें अपनी संभावनाओं का अभी कुछ भी पता नहीं है। मुझे पता है, इसलिए चोट
कर रहा हूं। और चोट करता ही जाऊंगा। लेकिन प्रेम भी साथ करता रहता हूं ताकि भाग न
जाओ; नहीं तो भागने का भी डर रहता है कि भाग गए, ज्यादा चोट कर दो तो भी गड़बड़। तराजू को तौल कर चलना पड़ता है। एकाध चांटा
मारा; फिर देखा कि अब भागने की तैयारी कर रहे उमानाथ,
तो फिर थोड़ी दो बातें प्रेम की कहीं। फिर जब राजी हो गए फिर एक
चांटा मारा। ऐसा ही चलेगा। यह कहानी ऐसे ही चलने वाली है। मगर ऐसे ही तुम विकसित
हो सकते हो, अन्यथा कोई उपाय भी नहीं है।
तुम्हारी प्रार्थना यही
हो:
जला के राख कर अब मेरे सब
खयालों को
खयाल तेरा ही बस एक मेरे
सर में रहे
कशिश यह हुस्ने बुतां
जिससे मांग लाया है
वही जमाले हकीकी मेरी नजर
में रहे
तेरा ही जोर रहे मेरे
दस्तो बाजू में
तेरी ही कुव्वते परवाज
बालो पर में रहे
मुझे दिखा दे तू शहराए
इश्क ऐ दोस्त!
कि सुबह ओ शाम मेरा हर कदम
सफर में रहे।
बस यही तुम्हारी प्रार्थना हो—जला के राख कर
अब मेरे सब खयालों को!
तो चोट मुझे करनी पड़ती है, क्योंकि
बहुत कुछ है जो मुझे जलाना है। और बहुत कुछ जले तो ही तुम्हारे भीतर जो सत्व पड़ा
है वह प्रकट हो। कचरा हटे तो हीरा खोजा जा सके। राख झड़े तो अंगारा प्रकट हो।
जला के राख कर अब मेरे सब
खयालों को।
और तुम्हारे विचारों को जलाना होगा, तो ही
तुम्हारे प्रेम की लपट उठेगी। तुम्हारे विचार धुएं की तरह हैं—तुम्हारे हृदय के आस—पास।
उन्हीं के कारण तुम्हारा हृदय रोशन नहीं हो पा रहा है, रोशनी
नहीं बन पा रहा है। ये सब विचार हट जाएं तो निर्धूम ज्योति तुम्हारे भीतर जगे। वही
परमात्मा है।
जला के राख कर अब सब मेरे
खयालों को
खयाल तेरा ही बस एक मेरे
सर में रहे
कशिश यह हुस्ने बुतां
जिससे मांग लाया है
वही जमाले हकीकी मेरी नजर
में रहे।
ये सब लोग जिससे सौंदर्य मांग लाए हैं, ये फूल
जिससे सौंदर्य मांग लाए हैं, ये चांदत्तारे जिससे सौंदर्य
मांग लाए हैं—उसकी ही कशिश...वही जमाले हकीकी मेरी नजर में रहे। वही स्रोत सारे
सौंदर्य का, सारे सत्य का—याद में रह जाए; बाकी सब धीरे—धीरे भूल जाएं।
जो खुद ही मांग लाए हैं, उनसे क्या
मांगते हो? तुम जब किसी स्त्री के सामने भिक्षा का पात्र
फैलाते हो; कहते हो—तेरा सौंदर्य! भर दे मुझे तेरे सौंदर्य
से!—तो तुम उससे मांग रहे हो, जो खुद ही मांग कर लाई है। जब
कोई स्त्री तुमसे मांगती है कि भर दो मेरे पात्र को तुम्हारे प्रेम से—तो वह उससे
मांग रही है, जो खुद ही मांग कर लाया है।
ऐसा हुआ, शेख फरीद को उनके गांव के लोगों ने
कहा कि अकबर तुम्हें इतना मानता है, जाओ उसके पास गांव में
एक मदरसा खोल दे! हम गरीब आदमी हैं, शहर जा नहीं सकते। हमारे
बच्चे पढ़ें तो पढ़ें कहां?
फरीद तो कभी गया नहीं था अकबर के पास; लेकिन
गांव के लोगों ने जब यह कहा तो उसने कहा मैं जरूर जाऊंगा। हमेशा तो ऐसा होता था कि
अकबर ही उसके पास आता था। उस दिन फरीद गया। जब पहुंचा राजमहल तो द्वारपालों ने कहा
कि सम्राट इस समय नमाज पढ़ रहे हैं। तो उसने कहा: मैं देखना चाहूंगा, वे कैसे नमाज पढ़ते हैं। चलो अच्छे मौके पर आ गया। और मैं यह भी सुनना
चाहूंगा कि वे नमाज में मांगते क्या हैं। क्योंकि मैं भी आज कुछ मांगने आया हूं।
तो उन्हें ले जाया गया। अकबर के पीछे जाकर
मस्जिद में वे खड़े हो गए। अकबर ने नमाज पूरी की; फिर दोनों हाथ फैलाए आकाश
की तरफ। कहा: हे परमात्मा, मेरे धन को और बढ़ा! मेरी दौलत को
बड़ा कर! मेरे साम्राज्य को फैला!
फरीद ने यह सुना, सिर झुका
कर वे मस्जिद से वापस लौटने लगे। अकबर उठा। उसने फरीद को जाते देखा—सीढ़ियां उतरते।
वह भागा। कहा कि आप आए और कैसे चले? मेरा सौभाग्य, मेरे सिर आंखों पर! आप कभी तो आए! चले कैसे?
फरीद ने कहा कि नहीं, अब नहीं।
मैं तुझसे कुछ मांगने आया था, लेकिन मैंने देखा कि तू खुद ही
किसी से मांग रहा है। तो फिर सोचा, हम भी उसी से मांग लेंगे।
अभी तू खुद ही मांग रहा है, तो तेरे धन में कुछ कमी करवाना
ठीक नहीं। मदरसा खोलेगा तो कुछ पैसा लग ही जाएगा; थोड़ी कमी
हो जाएगी। कुछ बहुत बड़ी कमी नहीं होगी, मगर तेरे जैसे दीन
आदमी को तो बहुत नुकसान हो जाएगा। तू अभी भी हाथ फैला कर धन मांग रहा है, दौलत मांग रहा है, राज्य मांग रहा है। मरने के दिन
करीब आ रहे हैं; तू अभी भी व्यर्थ मांग रहा है! फिर मैंने
सोचा कि तू जिससे मांग रहा है, जब तू खुद ही भिखारी है तो
भिखारी से क्या मांगना! हम भी उसी से मांग लेंगे।
कशिश यह हुस्ने बुतां
जिससे मांग लाया है
वही जमाले हकीकी मेरी नजर
में रहे
जला के राख कर अब मेरे सब
खयालों को
खयाल तेरा ही बस एक मेरे
सर में रहे
तेरा ही जोर रहे मेरे
दस्तो बाजू में
तेरी ही कुव्वते परवाज
बालो पर में रहे।
मेरे पंखों, मेरे परों में तुझ तक उड़ने
की आकांक्षा—तू ही भरेगा तो टिकेगी! यह आकाश बड़ा है और मेरे पंख छोटे हैं। मेरी
सामर्थ्य बड़ी छोटी है; तू विराट है, तेरा
कोई अंत नहीं है।
तेरा ही जोर रहे मेरे दस्तो बाजू में
तो मेरी बाहों में अगर तेरी ही शक्ति हुई तो
ही पहुंच पाऊंगा तुझ तक। मेरे पैर में अगर तू ही चला तो ही पहुंच पाऊंगा तुझ तक।
मेरी प्रार्थना में अगर तू ही बहा तो ही पहुंच पाऊंगा तुझ तक।
तेरी ही कुव्वते परवाज
बालो पर में रहे
तो मुझमें उड़ने की जो शक्ति है, वह तेरी
ही हो तो ही तुझ तक पहुंच पाऊंगा।
ऐसी प्रार्थना करो अब।
मुझे दिखा दे तू शहराए
इश्क ऐ दोस्त
तू मुझे प्रेम का रास्ता दिखा दे। मैं तो
अंधा हूं। प्रेम तो मैंने जाना नहीं। प्रेम के नाम से और जो जाना, सब ठीकरे
थे। प्रेम के नाम से जो भी जाना, वह प्रेम नहीं था, प्रेम का नाममात्र था वहां; प्रेम से कुछ उलटा ही था
वहां।
मुझे दिखा दे तू शहराए
इश्क ऐ दोस्त
कि सुबह ओ शाम मेरा हर कदम
सफर में रहे।
...कि सुबह हो कि शाम कि दिन हो कि
रात, मेरा हर कदम सफर में रहे। यही संन्यास का अर्थ है।
संन्यास का अर्थ है: यात्री; परिव्राजक।
संन्यास का अर्थ है: जो चल पड़ा।
महावीर का एक प्यारा वचन है कि जो चल पड़ा, समझो कि
पहुंच ही गया। समझो कि पहुंच ही गया। क्योंकि चलने वाला अंततः पहुंच ही जाता है।
देर, अबेर! आज नहीं कल, चलने वाला
अंततः पहुंच ही जाता है।
चलो!
संन्यास का कुछ और अर्थ नहीं है। संन्यास
कोई औपचारिकता नहीं है—एक अंतर्भाव है। एक भाव है कि अब मैं चलने के लिए तैयार
हूं। अब खोजूंगा;
चाहे इस खोजने में खो ही क्यों न जाऊं। अब सब गंवाने की तैयारी है।
और उमानाथ के मन में अंकुर है—उठ रहा है।
इसलिए प्यार भी कर रहा हूं,
चोट भी दे रहा हूं। प्रार्थना करो कि यह मैं प्यार भी करता रहूं और
चोट भी देता रहूं।
पांचवां प्रश्न: स्मृति और
स्वप्न से मैं आपके पास कभी—कभी पहुंच जाती हूं। लेकिन इस जन्म के पति की मेहरबानी
से मैं अभी तक आप तक नहीं पहुंच पाई। आप की प्रेम—दीवानी होने के लिए मैं क्या
करूं?
पूछा है "वीणा' ने।
प्रश्न लिखा होगा, तब तक वह संन्यासी न थी; कल संध्या उसका संन्यास भी हो गया है। उसे कुछ प्रेम—दीवानी बनने के लिए
करना नहीं है—वह प्रेम—दीवानी है। संन्यास उसने मांगा भी नहीं था; मैंने दिया है। संन्यास का सोच कर वह आई भी नहीं थी। प्रेम—दीवानी होने के
लिए उसे कुछ करना नहीं है—जो हो रहा है, उसे ही और प्रगाढ़ता
से होने देना है।
मेरे पास भौतिक रूप से आ सको या न आ सको, यह बात
बड़ी महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे पास मन के तल पर रह सको तो सब हो जाएगा।
"वीणा' नौ
साल बाद आई है। कह रही है: "स्मृति और स्वप्न में मैं आपके पास कभी—कभी पहुंच
जाती हूं।'
तो ऐसा मत सोचना कि तू ही यह यात्रा करती है; मैं भी
करता हूं। इन नौ सालों में जितनी बार तूने याद किया, उससे
दुगुनी बार मैंने याद किया होगा। और मैं देख रहा था कि किसी दिन आएगी। जिस दिन
आएगी, उसी दिन तेरा संन्यास करना है। नौ साल बाद आए कि नब्बे
साल बाद आए, कि नौ जन्म बाद आए, लेकिन
जिस दिन आएगी उस दिन उसी दिन तेरा संन्यास करना है। वह तय था। तो कल तू तो अनजाने
आई थी, तुझे कुछ पता नहीं था। तुझे पता नहीं था, इस बुरी तरह फंस जाएगी।
और पति से तू इस भांति मत सोच, क्योंकि
तुझे सौभाग्य से ऐसा पति मिला है जो मेरा प्रेम—दीवाना है। पति तेरे डरते होंगे
थोड़े—बहुत कि कहीं ज्यादा न चली जाए। पति ही हैं आखिर! उनकी व्यवस्था है, बच्चे हैं, परिवार है; मगर तू
सौभाग्यशाली है कि तेरे पति को मुझसे उतना ही प्रेम है जितना तुझे है; थोड़ा ज्यादा ही भला हो, कम नहीं है।
इसलिए कल जब तुझे संन्यासी बना लिया है तो
मेरे लिए तेरे पति भी आधे संन्यासी हो ही गए; अब तेरे द्वारा उनको भी संन्यासी
बना लेंगे, ज्यादा देर न लगेगी। उनका तुझसे अतिशय प्रेम है,
यह बात सच है। शायद उसी प्रेम के कारण कभी—कभी वे तुझे रोक भी देते
हों। शायद उसी प्रेम के कारण कभी—कभी भयभीत भी हो जाते हों। मगर बहुत कम
सौभाग्यशाली जोड़ों में से तू एक है—जिनके दोनों के संन्यास की बड़ी संभावना है;
जो दोनों आगे एक साथ बढ़ सकेंगे।
और जो जोड़ा साथ—साथ बढ़ सके, उसकी
यात्रा बड़ी सुगम होती है। कभी पति संन्यस्त हो जाता है और पत्नी नहीं हो पाती,
तो अड़चन होती है। पत्नी हो जाती है, पति नहीं
हो पाता, तो अड़चन होती है। क्योंकि फिर अनजाने—जाने एक—दूसरे
में विरोध, एक—दूसरे में बाधाएं डालनी शुरू हो जाती हैं। और
जिनके साथ चौबीस घंटे रहना है, अगर उनसे बाधाएं पड़ने लगें तो
हानि होती है।
मेरे पास जो जोड़ा साथ—साथ आ जाता है, उसकी गति
बड़ी सहज हो जाती है। जैसे तुमने जीवन में एक—दूसरे को साथ दिया है, ऐसे ही संन्यास में भी साथ दो। जैसे तुमने जीवन में एक—दूसरे को सहयोग
दिया, सहारा दिया—ऐसे ही ध्यान में भी सहारा—सहयोग दो। जैसे
प्रेम में सहारा दिया, ऐसे ही ध्यान में। और तब तुम हैरान
होओगे कि जिस दिन तुम्हारा ध्यान दोनों का बढ़ने लगेगा साथ—साथ, तभी तुम पाओगे कि प्रेम ने और जितनी भेंटें दी थीं, वे
तो दो कौड़ी की हो गईं, यही भेंट एक काम आने वाली है। तुमने
हीरे—जवाहरात दिए थे, मोतियों की मालाएं दी थीं, गहने दिए थे—उनका कोई मूल्य नहीं था। पत्नी ने अपनी देह दी थी, अपना सारा प्रेम दिया था; उसका भी कोई मूल्य नहीं
था। असली मूल्य तो उस दिन होगा, जिस दिन तुम ध्यान की भेंट
एक—दूसरे को दे पाओगे। उस दिन तुमने राम रतन दिया—जो सदा—सदा साथ रहता है।
स्मृति और स्वप्न से मैं आपके पास कभी—कभी
पहुंच जाती हूं,
लेकिन इस जन्म के पति की मेहरबानी से मैं अभी तक आप तक नहीं पहुंच
पाई।
उन्हीं की मेहरबानी से तू पहुंच पाई है। पति
के साथ जरा भी ऐसा भाव नहीं रखना कि उनकी मेहरबानी से नहीं पहुंच पाई। उन्हीं की
मेहरबानी से पहुंच पाई है। और उनकी मेहरबानी से और आगे जाएगी। यात्रा बड़ी है। और
अभी तो बस प्रारंभ हुआ।
"आपकी प्रेम दीवानी होने के लिए
मैं क्या करूं?'
तू है। अब इतनी ही फिकर लेनी जरूरी है कि यह
तेरा प्रेम तेरे हृदय में ही संकुचित न रह जाए; यह फैले। इसे बांट!
जिनका मुझसे प्रेम है, उनको मेरे
प्रति प्रेम प्रकट करने का एक ही उपाय है कि उसे बांटो, उसे
दो। संन्यास की भनक औरों को भी सुनाई पड़े। ध्यान का परिणाम औरों को भी दिखाई पड़े।
उलीचो! जितना तुम्हें मिले दूसरों को बांटो और दो।
मेरे हर संन्यासी का घर मेरा आश्रम बन जाना
चाहिए। वहां से सुगंध उठनी चाहिए। वहां से दूर—दूर तक सुवास पहुंचनी चाहिए। इतना
मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि करोड़ों लोग प्यासे हैं। लाखों संन्यासियों की
जरूरत है; क्योंकि मैं तो कहीं जाता नहीं। तुम्हें भेज रहा हूं। तुम जहां जाओ,
मेरी खबर ले जाओ। तुम इस ढंग से जीओ; तुम इस
आनंद और मस्ती से जीओ; तुम इस पागलपन से जीओ और श्रद्धा से
जीओ कि दूसरे भी तुम्हारे पास आकर मस्त होने लगे। उनके जीवन में भी नृत्य की
शुरुआत हो जाए।
तो "वीणा' को कहूंगा
नाच मेरे लिए; गा मेरे लिए; लोगों को
खबर पहुंचा। जो घुंघरू तेरे भीतर बजने शुरू हुए हैं, वह अपने
पैरों में बांध। और तू चिंता मत कर कि कैसे तू प्रेम—दीवानी बनेगी। अभी कल तूने
सुना नहीं, मीरा अपने वचन में कहती है: पूरब जनम को कौल!
तेरे लिए मेरा पुराना वचन है—पिछले जनम का।
तुझे पता न हो,
लेकिन इधर मैं नौ वर्ष से प्रतीक्षा करता था कि तू जब आ जाए...।
तेरी पहचान नई नहीं है। सुना मीरा का वचन: मेरी उनकी प्रीति पुरानी!
आनंद से रो! आनंद से गा!
सुना मीरा को: अंसुवन जल
सींच—सींच,
प्रेम—बेलि बोई।
शारीरिक रूप से यहां आ सको या न आ सको, यह बात
बहुत मूल्यवान नहीं है। और शारीरिक रूप से भी आ सकोगे, क्योंकि
मेरे लिए कोई शरीर का विरोध नहीं है। मगर असली बात है: जहां हो, वहां मेरे आनंद के प्रतीक बन जाओ!
इश्क का खेल आम है लेकिन
इश्के सादक जहां में आम
नहीं।
लोग प्रेम का खेल ही खेल रहे हैं; असली
प्रेम तो कभी—कभी होता है।
इश्क का खेल आम है लेकिन
इश्के सादक जहां में आम
नहीं।
असली प्रेम का अर्थ ही यह होता है कि न अब
देह की कोई बाधा है,
न अब समय की कोई बाधा है।
कृष्ण हुए हजारों साल पहले और मीरा ने फिर
भी प्रेम कर लिया—और राधा को फीका कर गई! राधा का नाम छाया की तरह रह गया। मीरा
राधा को फीका कर गई। हजारों साल के फासले पर प्रेम कर सकी। समय का भी कोई फासला
नहीं है, स्थान का भी कोई फासला नहीं है।
इश्क का खेल आम है लेकिन
इश्के सादक जहां में आम
नहीं
हर तरफ मय ही मय छलकती है
मस्त यकसर करे जो, जाम नहीं।
यहां हर तरफ ऐसे तो शराब ढाली जा रही है, हर तरफ
लोग खुशी की कोशिश कर रहे हैं, खुशी के जाम ढाल रहे हैं;
लेकिन शराब असली वही है जो एक दफे बेहोश कर दे तो सदा के लिए बेहोश
कर दे।
हर तरफ मय ही मय छलकती है
मस्त यकसर करे जो, जाम नहीं।
जो सदा के लिए, हमेशा के
लिए बेहोश कर दे..."वीणा' तेरे सामने वही जाम लिए बैठा
हूं कि पीएगी तो सदा के लिए बेहोश हो जाएगी। हिम्मत कर।
हुस्न की हो रही है रुसवाई
इश्क को अपना एहतराम नहीं
आओ आदाबे इश्क फिर सीखें
सच्ची उलफत हवस का नाम
नहीं।
यही मैं सिखा रहा हूं—यह पाठशाला इश्क का
आदाब सिखाने की पाठशाला है। यहां प्रेम का पाठ सिखा रहा हूं। यहां परमात्मा से भी
ज्यादा मूल्यवान प्रेम है,
क्योंकि प्रेम से परमात्मा मिलता है; प्रेम के
बिना परमात्मा नहीं मिलता।
आओ आदाबे इश्क फिर सीखें
सच्ची उलफत हवस का नाम
नहीं
इश्क में अपना खोना है सब
कुछ
साजो सामां से कोई काम
नहीं।
अपना सब कुछ खोना है। साज—सामान से नहीं
चलेगा। धन दे दो,
मकान दे दो—इससे नहीं चलेगा।
इश्क में अपना खोना है सब
कुछ
साजो सामां से कोई काम
नहीं
फिर मिटाना है अपना नामो—निशां
गैर—ए—महबूब कोई नाम नहीं
इससे आगे है इक मकाम ऐसा
जिसका कोई निशानो नाम नहीं
मस्तियां वां बरसती रहती
हैं
खुम के खुम एक आध जाम
नहीं।
"वीणा' उस
तरफ ले चलना चाहता हूं तुम सबको, जहां प्यालियों में शराब
नहीं पी जाती; जहां सुराहियों की सुराहियां एक साथ उंडेली जा
रही हैं।
मस्तियां वां बरसती रहती हैं
खुम के खुम एक आध जाम नहीं।
मटके के मटके! ऐसा नहीं कि छोटे—छोटे कुल्हड? लिए बैठे
हैं। कुल्हड़ों का वहां काम नहीं है। उस मधुशाला के लिए निमंत्रण है मेरा संन्यास।
"वीणा' चुपचाप
संन्यास के लिए राजी हो गई, चल पड़ी। उसके पति की मुझे
प्रतीक्षा है। "चितरंजन' यहां मौजूद हैं; ज्यादा देर नहीं लगेगी। उनकी आंखों में मैंने सदा मेरे लिए अपूर्व प्रेम
पाया है।
आखिरी प्रश्न: यह कैसा
विद्यापीठ है आपका,
जहां सिखाया जाता है कि दो और दो चार होते हैं; और चार नहीं भी होते हैं; पांच भी हो सकते हैं!
यह विद्यापीठ कम, अविद्यापीठ
ज्यादा है। क्योंकि यहां सिखाया नहीं जाता, सीखे हुए को
भुलाया जाता है। सीख तो तुम वैसे ही काफी गए हो; वही तो
तुम्हारी अड़चन है; वही तो तुम्हारी जंजीर है; वही तुम्हारा कारागृह है; वही तुम्हारा बोझ। यहां
बोझ हलका किया जाता है।
विश्वविद्यालयों का काम है: तुम्हारी
जानकारी बढ़ाए जाएं। इसलिए मैं इसे अविद्यापीठ कह रहा हूं। यहां सारा काम यह है कि
कैसे तुम्हारी जानकारी छिन जाए—आग लगा दें तुम्हारी जानकारी को! तुम्हें खाली छोड़
दें—ज्ञान से शून्य,
मुक्त! ज्ञान के उपद्रव से शांत!
जहां ज्ञान, तथाकथित जानकारियां समाप्त
हो जाती हैं, जहां तुम पंडित नहीं रह जाते—वहीं ढाई आखर
प्रेम का! वहीं प्रेम जगता है। जब तक पंडित हो, तब तक प्रेम
नहीं। पंडित प्रेम का दुश्मन है। पंडित तो हत्यारा है, क्योंकि
पंडित का अर्थ है: बुद्धि। और प्रेम का अर्थ है: हृदय। बुद्धि और हृदय दो विपरीत
छोर हैं। जो बुद्धि के छोर पर जीता है, उसका हृदय धीरे—धीरे
धड़कना ही बंद हो जाता है। धुकधुकी चलती रहती है, सांस का काम
चलता रहता है; मगर हृदय की असली धड़कन, प्रेम
की लहर विदा हो जाती; प्रेम का कंप विदा हो जाता है। उसे
रोमांच नहीं होता। वह गणित और तर्क में खो जाता है। वह हिसाब—किताब में ही बैठा
रहता है। उसकी दुनिया में दो और दो चार होते हैं सदा। हृदय की अनूठी दुनिया है।
कहा मैंने: श्रद्धा पागल है। प्रेम पागल है।
प्रेम और श्रद्धा एक ही अनुभव के दो नाम
हैं। प्रेम श्रद्धा है और श्रद्धा प्रेम है। मगर प्रेम तर्क नहीं मानता और प्रेम
गणित नहीं मानता। प्रेम का अपना ही गणित है और प्रेम का अपना ही तर्क है—बड़ा
बेबूझ! बुद्धि के लिए तो पहेली है।
इसलिए प्रेम की दुनिया में कभी—कभी दो और दो
चार भी होते हैं;
कभी दो और दो पांच भी होते हैं; कभी दो और दो
तीन भी होते हैं और कभी दो और दो मिल कर शून्य भी हो जाता है।
प्रेम में बंधी—बंधाई लकीरें नहीं हैं।
प्रेम लकीर का फकीर नहीं है। प्रेम परम स्वतंत्रता है। और प्रेम में प्रतिपल जो
घटता है, उसकी कोई भविष्यवाणी पहले से नहीं की जा सकती कि क्या होगा। प्रेम एक जादू
है।
यहां प्रेम सिखाया जा रहा है। और प्रेम को
सिखाया कैसे जा सकता है?
एक ही काम किया जा सकता है: ज्ञान छीन लिया जाए। चट्टान हट जाए,
झरना बह उठे। वही काम यहां चल रहा है। यह अविद्यापीठ है। यह एंटी—युनिवर्सिटी
है।
इस काम को फैलाना है, क्योंकि
दुनिया ज्ञान से बहुत बोझिल है। मनुष्य को ज्ञान से मुक्त करवाना है।
पश्चिम के एक विचारक डी.एच.लारेंस ने कहा
था: अगर सौ साल के लिए सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाएं तो आदमी फिर से आदमी हो
जाए। बात कीमत की है।
लेकिन मैं इस बात के लिए राजी नहीं हूं कि
विश्वविद्यालय बंद हो जाएं। मेरी प्रस्तावना दूसरी है। मेरी प्रस्तावना है; जितने
विश्वविद्यालय हों, उतने एंटी—युनिवर्सिटीज, उतने ही अविद्यापीठ भी हों। विश्वविद्यालय बंद हो जाएं तो कुछ बहुत नहीं
हो जाएगा। आदमी इससे बेहतर आदमी होगा फिर भी—आदिम हो जाएगा, जैसे
जंगलों के वासी हैं। फिर थाप पड़ेगी। फिर घूंघर बंधेंगे। फिर लोग नाचेंगे
चांदत्तारों के नीचे। फिर लोग प्रेम करेंगे।
मगर इससे भी ऊंची एक जगह है और वह है: विश्वविद्यालय
से गुजरना और फिर विश्वविद्यालय ने जो भी दिया है उसे छोड़ देना। वह उससे भी ऊंची
जगह है। फिर प्रेम की थाप पड़ती है। फिर घूंघर बंधते हैं। लेकिन यह ऊंची जगह है
पहली से।
इसको ऐसा समझो तो समझ में आ जाएगा। बुद्ध ने
राजमहल छोड़ा,
राज—पाट छोड़ा, धन—दौलत छोड़ी, पद—प्रतिष्ठा छोड़ी, भिखारी हो गए। एक तो भिखारी
बुद्ध हैं और एक भिखारी पूना की सड़कों पर तुम किसी को भी पकड़ ले सकते हो—भिखारी
को। ये दोनों भिखारी हैं ऊपर से देखने में। लेकिन बुद्ध के भिखारीपन में एक
समृद्धि है। जान कर छोड़ा। अनुभव से छोड़ा। दूसरा भिखारी सिर्फ दरिद्र है। बुद्ध की
दरिद्रता में भी एक समृद्धि है और दूसरे की दरिद्रता में कुछ भी नहीं है; सिर्फ दरिद्रता है। दोनों ऊपर से एक से दिखाई पड़ते हैं। दोनों के कपड़े फटे
हैं। दोनों भिक्षापात्र लिए हैं। मगर दोनों के भीतर बड़ा अंतर है। और तुम अगर दोनों
की आंखों में झांकोगे तो पता चल जाएगा अंतर। बुद्ध में तुम्हें सम्राट दिखाई पड़ेगा;
और भिखारी में सिर्फ भिखारी।
इसलिए हमारे पास दो शब्द हैं: भिक्षु और
भिखारी। वह हमने फर्क करने के लिए बनाए हैं। दुनिया की किसी भाषा में दो शब्द नहीं
हैं: भिक्षु और भिखारी। भिक्षु या भिखारी—एक ही शब्द काफी होता है, क्योंकि
दुनिया ने दूसरा अनुभव ही नहीं जाना है। बुद्ध जैसे भिखारी सिर्फ भारत ने जाने;
भारत के बाहर किसी ने नहीं जाने। तो हमें एक नया शब्द खोजना पड़ा:
भिक्षु। भिक्षु में बड़ा सम्मान है; भिखारी में बड़ा अपमान है।
भिखारी का इतना ही मतलब है: इस आदमी के पास
धन कभी था नहीं;
इसने धन कभी जाना नहीं। भिक्षु का अर्थ है: धन था, धन जाना और जाना कि व्यर्थ है और उसे छोड़ा। यह बड़ी ऊंची बात है। इसमें बड़ा
भेद है। इसमें बड़ी गरिमा है।
ऐसा ही मेरा खयाल है। डी.एच.लारेंस से मैं
थोड़े दूर तक राजी,
लेकिन मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाएं।
विश्वविद्यालय मजे से रहें; लेकिन उनका मुकाबला भी पैदा हो।
बुद्धि के विश्वविद्यालय मजे से रहें; उनकी जरूरत है—दुकानदारी
में, काम—काज में, विज्ञान में—उनकी
आवश्यकता है। गणित एकदम व्यर्थ नहीं है। लेकिन इनके मुकाबले हृदय के मंदिर भी हों,
प्रेम के मंदिर भी हों—जहां सिर्फ ढाई अक्षर प्रेम के पढ़ाए जाते हों;
जहां कुछ और न पढ़ाया जाता हो, जहां पढ़ाया—लिखाया
गया छीना जाता हो, झपटा जाता हो।
जब कोई आदमी सब जान कर जानता है कि जानना
व्यर्थ है—तो वह सिर्फ आदिम नहीं हो जाता; वह सिर्फ आदिवासी नहीं हो जाता।
सुकरात को तुम आदिवासी नहीं कहोगे। और आदिवासियों ने कोई सुकरात पैदा नहीं किया है,
यह भी खयाल रखना। सुकरात के पैदा होने के लिए एथेंस चाहिए; एथेंस की शिक्षा चाहिए; एथेंस के शिक्षक चाहिए। और
एक दिन सुकरात कहता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
सुकरात ने कहा कि जब मैं युवा था, तो मैं
सोचता था मैं बहुत कुछ जानता हूं; फिर जब मैं बूढ़ा हुआ,
प्रौढ़ हुआ तो मैंने जाना कि मैं बहुत कम जानता हूं, बहुत कुछ कहां! इतना जानने को पड़ा है! मेरे हाथ में क्या है—कुछ भी नहीं,
कुछ कंकड़—पत्थर बीन लिए हैं! और इतना विराट अपरिचित है अभी! जरा सी
रोशनी है मेरे हाथ में—चार कदम उसकी ज्योति पड़ती है—और सब तरफ गहन अंधकार है! नहीं,
मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता; थोड़ा जानता हूं।
और सुकरात ने कहा कि जब मैं बिलकुल मरने के
करीब आ गया, तब मुझे पता चला कि वह भी मेरा वहम था कि मैं थोड़ा जानता हूं। मैं कुछ भी
नहीं जानता हूं। मैं अज्ञानी हूं।
जिस दिन सुकरात ने यह कहा, मैं
अज्ञानी हूं, उसी दिन डेल्फी के मंदिर के देवता ने घोषणा की
कि सुकरात इस देश का सबसे बड़ा ज्ञानी है। जो लोग डेल्फी का मंदिर देखने गए थे,
उन्होंने भागे आकर सुकरात को खबर दी कि डेल्फी के देवता ने घोषणा की
है कि सुकरात इस समय पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञानी है। आप क्या कहते हैं?
सुकरात ने कहा: जरा देर हो गई। जब मैं जवान
था तब कहा होता तो मैं बहुत खुश होता। जब मैं बूढ़ा होने के करीब हो रहा था, तब भी कहा
होता, तो भी कुछ प्रसन्नता होती। मगर अब देर हो गई, क्योंकि अब तो मैं जान चुका कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
जो यात्री डेल्फी के मंदिर से आए थे, वे तो बड़ी
बेचैनी में पड़े कि अब क्या करें। डेल्फी का देवता कहता है कि सुकरात सबसे बड़ा
ज्ञानी है और सुकरात खुद कहता है कि मैं सबसे बड़ा अज्ञानी हूं; मुझसे बड़ा अज्ञानी नहीं। अब हम करें क्या? अब हम
मानें किसकी? अगर डेल्फी के देवता की मानें कि सबसे बड़ा
ज्ञानी है तो फिर इस ज्ञानी की भी माननी चाहिए, सबसे बड़ा
ज्ञानी है। तब तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। कि अगर इस सबसे बड़े ज्ञानी की मानें तो
देवता गलत हो जाता है।
वे वापस गए। उन्होंने डेल्फी के देवता को
निवेदन किया कि आप कहते हैं सबसे बड़ा ज्ञानी है सुकरात और हमने सुकरात से पूछा
सुकरात उलटी बात कहता है। अब हम किसकी मानें? सुकरात कहता है: मुझसे बड़ा अज्ञानी
नहीं।
डेल्फी के देवता ने कहा: इसलिए तो हमने
घोषणा की है कि वह सबसे बड़ा ज्ञानी है।
ज्ञान की चरम स्थिति है: ज्ञान से मुक्ति।
ज्ञान की आखिरी पराकाष्ठा है: ज्ञान के बोझ को विदा कर देना। फिर निर्मल हो गए।
फिर स्वच्छ हुए। फिर विमल हुए। फिर कोरे हुए।
आदिवासी भी कोरा है, लेकिन
उसने अभी लिखावट नहीं जानी।
एक छोटा बच्चा, ऐसा समझो,
छोटा बच्चा, अभी इसने कोई पाप नहीं किए;
लेकिन तुम इसे संत नहीं कह सकते, क्योंकि इसने
पाप किए ही नहीं, पाप का रस ही नहीं जाना, पाप का त्याग भी नहीं किया, पाप की व्यर्थता नहीं
पहचानी। यह तो सिर्फ भोला है; इसको संत नहीं कह सकते। और
चूंकि यह भोला है, इसलिए अभी पूरी संभावना है कि यह पाप
करेगा, क्योंकि बिना पाप को किए कोई कब पाप से मुक्त हुआ है!
यह जाएगा बाजार में। यह उतरेगा दुनिया में। यह सब चोरी, बेईमानियां,
सब करेगा। यह अभी भोला है, यह बात सच है। मगर
यह भोलापन टिकने वाला नहीं है, क्योंकि यह भोलापन कमाया नहीं
गया है। यह तो प्राकृतिक भोलापन है, नैसर्गिक भोलापन है। यह
तो नष्ट होने वाला है। यह कुंवारापन, यह ताजगी जो बच्चे में
दिखाई पड़ती है, यह टिकने वाली नहीं। तुम भी जानते हो,
सारी दुनिया जानती है कि यह आज नहीं कल दुनिया में जाएगा, जाना ही पड़ेगा। हर बच्चे को जाना पड़ेगा।
और अगर तुम बच्चे को घर में ही रोक लो चार
दीवारियां बड़ी करके,
तो तुम उसके हत्यारे हो। क्योंकि वह बच्चा भोला ही नहीं रहेगा,
पोला भी हो जाएगा। उसके जीवन में कुछ वजन ही नहीं होगा। उसके जीवन
में वजन तो चुनौतियों से आने वाला है। भटकेगा तो वजन आएगा। जो भटक—भटक कर घर लौटता
है, वही घर लौटता है। घर में ही जो बैठा रहा, भटका ही नहीं—उसका घर में बैठने का कोई अर्थ नहीं है। उसके भीतर का चित्त
तो भटकता ही रहेगा। वह सोचता ही रहेगा: कैसे निकल भागूं!
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अच्छे मां—बाप
के बेटे बुरे हो जाते हैं। उनका कारण कुल इतना ही है कि अच्छे मां—बाप होते हैं।
जरूरत से ज्यादा अच्छा करने की कोशिश में लगे होते हैं। उनका भी कसूर नहीं है।
उन्होंने जिंदगी में देखा,
सब व्यर्थ है; अब अपने बच्चे को बचा लें,
सोचते हैं। मगर न उनके मां—बाप उनको बचा पाए थे, न वे अपने बच्चों को बचा पाएंगे।
अनुभव से ही कोई सीखेगा। अनुभव से जो वंचित
रह गया, वह दरिद्र रह जाता है।
तो अच्छे मां—बाप अक्सर बच्चों के घातक हो
जाते हैं, रोक लेंगे; सब तरह के बंधन डाल देंगे: ऐसा मत करो,
वैसा मत करो; यहां मत जाओ, वहां मत जाओ। इन सारे बंधनों का परिणाम यह होगा कि बच्चा गोबरगणेश रह
जाएगा—मिट्टी का लोंदा; उसमें कोई शक्ल भी पैदा नहीं होगी।
और अगर उसमें जरा भी बल है और आत्मा है, तो वह बगावत करेगा।
वह भागेगा बाप से। वह भागेगा घर से। वह चोरी से रास्ते निकालेगा। क्योंकि हर बेटे
को अपने मां—बाप को "नहीं' कहना ही पड़ता है। अगर वे
"नहीं' न कहें तो उनमें आत्मा पैदा नहीं होती; वे नपुंसक रह जाते हैं। अगर थोड़ा भी बल है, ऊर्जा है,
तो वह कोई उपाय खोजेगा कि कैसे...। मां—बाप कहते हैं: सिगरेट मत पीओ;
वह पीकर बताएगा। उसे बताना ही पड़ेगा पीकर। यह उसकी मजबूरी हो गई अब।
नहीं बताएगा तो उसमें प्राण नहीं है। वह कोई न कोई उपाय खोजेगा। वह हर तरह से मां—बाप
की जो बंधन की प्रक्रिया है, उसको तोड़ कर मुक्त होने की
चेष्टा करेगा। और तब जो मां—बाप चाहते हैं, उससे विपरीत हो
जाएगा।
महात्मा गांधी ने अपने बड़े बेटे हरिदास के
लिए बड़ी कोशिश की। वह कोशिश बड़ी नासमझी से भरी है। वह महात्मा गांधी के संबंध में
कोई बहुत ऊंचा खयाल पैदा नहीं करवाती। वह कोशिश बिलकुल अमनोवैज्ञानिक है। महात्मा
गांधी चाहते हैं कि बेटा शराब न पीए, सिगरेट न पीए, मांस न खाए, होटल में न खाए, शाकाहारी
हो! महात्मा गांधी चाहते हैं: बेटा स्कूल में भी पढ़ने न जाए, क्योंकि वहां और गलत लोगों के साथ हो जाएगा। वे चाहते हैं शादी भी न करे;
ब्रह्मचारी रहे। अब ये सब बातें बेबूझ हैं। और यह जबरदस्ती है। यह
बेटे के अपने अनुभव से नहीं निकल रही हैं। और बेटे ने इसका ठीक बदला लिया। उसने
शराब भी पी। वह वेश्यागामी हुआ, जुआरी बन गया। वह, जो—जो गांधी कहते थे, उससे विपरीत किया। मांसाहारी
बन गया। शायद गांधी ने शाकाहार नहीं थोपा होता तो मांसाहारी न बनता। फिर आखिरी,
गांधी को चोट पहुंचाने के लिए उसने हिंदू धर्म भी त्याग कर दिया;
उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया। कुछ हर्जा नहीं इस्लाम स्वीकार करने
में—लेकिन गांधी को चोट देने के लिए! क्योंकि गांधी कहते थे: अल्लाह ईश्वर तेरे
नाम; सब एक ही हैं। लेकिन जब हरिदास गांधी अब्दुल्ला गांधी
हो गया तो गांधी को चोट लगी। और जब हरिदास को खबर मिली कि बाप दुखी हुए तो वह बड़ा
प्रसन्न हुआ; तो उसने कहा: अरे, फिर
"अल्लाह—ईश्वर तेरे नाम' उसका क्या हुआ? जब हिंदू—मुसलमान एक ही हैं तो हरिदास गांधी कि अब्दुल्ला गांधी, क्या फर्क पड़ता है? हालांकि हरिदास और अब्दुल्ला का
एक ही मतलब होता है। अब्द—अल्लाह: अल्लाह का दास; हरिदास।
कुछ फर्क नहीं है दोनों में।
मगर वह गांधी की जबरदस्ती! अच्छे बाप की
जबरदस्ती! थोपा गया महात्मापन!—हरिदास को विकृत कर दिया। उसका जुम्मा गांधी पर है।
अगर कहीं कोई आखिर अदालत है तो हरिदास नहीं पकड़ा जाएगा, मोहनदास
कर्मचंद गांधी पकड़े जाएंगे; क्योंकि हरिदास ने कुछ किया
नहीं।
छोटा बच्चा अभी भोला है; संत नहीं
है। संत की उससे आशा भी मत करो। संत तो कोई तभी हो पाता है जब बहुत पापों का स्वाद
ले और पाए कि सब पाप कड़वे हैं और जहरीले हैं। अपने अनुभव से पाए तो ही पाया। और पा
कर दूर एक दिन लौटे। एक दिन दूर निकल जाए, रास्ते से वंचित
हो जाए, भटक जाए, अमार्ग पर हो जाए—और
फिर एक दिन वापस अपनी ही स्वेच्छा, अपनी ही समझ, अपनी ही प्रज्ञा से घर आए।
जीसस की कहानी बड़ी प्रसिद्ध है।
एक बाप के दो बेटे, दोनों ने
बाप से झगड़ा किया, आधा—आधा धन बांट लिया। छोटा बेटा तो छोड़
कर चला गया अपना धन लेकर; बड़ा बेटा बाप के पास ही रहा। छोटे
बेटे ने तो जाकर जुआ खेला, शराब पी, मांसाहार
किया, वेश्यागमन किया—सब धन बर्बाद कर दिया; भिखारी हो गया। भोजन के लिए भी भीख मांगने लगा। बड़ा बेटा बाप के पास रहा,
बाप की सेवा भी की, खेती—बाड़ी भी सम्हाली,
बगीचों की देखभाल भी की, मेहनत भी की, धन को बढ़ाया भी।
वर्षों बाद बाप को खबर लगी कि बेटा भिखमंगा
हो गया है—छोटा बेटा। उसने खबर भेजी कि वह आ जाए घर। छोटा बेटा घर लौटा, तो बाप ने
एक भोजन दिया, पूरे नगर को भोज दिया। और बड़े भोजन तैयार
करवाए। बड़ा बेटा खेत पर था। किसी ने उसे खबर दी, कि भाई सुनो,
यह भी मजा! तुम जिंदगी भर बाप के पास रहे—सेवा की, धन को दुगुना—चौगुना किया। वह छोटा नालायक, वह गया,
भाग गया सब लेकर धन, सब बर्बाद कर दिया,
सब तरह की गंदगियों में गिरा, सब तरह की
नालियों में कीड़ा बना—अब भिखमंगा होकर लौट रहा है और बाप भोज का आयोजन कर रहा है!
तुम्हारे लिए कभी भोज का आयोजन नहीं किया! सबसे मोटी भेड़ें काटी जा रही हैं और
सबसे पुरानी शराब निकाली जा रही है। और तुम्हारे लिए तो कभी नहीं किया।
बड़े बेटे को भी बहुत दुख हुआ कि यह बात तो
सच है। उसको भी चोट लगी। वह घर आया। घर देखा तो वंदनवार लगे हैं; दीये लगाए
गए हैं, बाजे बज रहे हैं। वह तो बहुत उदास हो गया। उसने अपने
बाप से जाकर कहा कि यह क्या हो रहा है। मेरे स्वागत में तो कभी कुछ नहीं हुआ। मैं
तुम्हारे पास रहा। यह कैसा इनाम! यह कैसा पुरस्कार!
बाप ने कहा: तू समझा नहीं। तू तो मेरे पास
ही था। लेकिन जो दूर गया था और भटक गया था और घर लौटता है, उसका
स्वागत करना जरूरी है।
जीसस यह कहानी इस अर्थ में कहते हैं कि जो
भटक जाते हैं,
परमात्मा उन्हीं का स्वागत करता है, क्योंकि
वे जीवन का पाठ लेकर लौटते हैं।
बच्चा तो भटकेगा। बच्चे का कोई मूल्य नहीं
है। वह जो जंगल में जो आदिवासी है, वह कभी न कभी बंबई का वासी और
न्यूयार्क का वासी बनेगा; वह बच नहीं सकता ज्यादा दिन। वह चल
ही रहा है उसी तरफ, जा ही रहा है उसी तरफ। लेकिन जो व्यक्ति
जीवन की सारी स्थिति को समझ कर, सारे ज्ञान को देख कर एक दिन
इस सबको छोड़ देता है इसके बाहर हट जाता है—वही संतत्व को उपलब्ध होता है। वही
सिद्ध है।
तो मैं विश्वविद्यालयों के बंद कर देने के
पक्ष में नहीं हूं;
लेकिन चाहता हूं: उनके मुकाबले विकल्प होना चाहिए, जहां ज्ञान से थके हुए लोग प्रेम की शरण आ सकें।
जबीने शौक को सजदों की
आरजू है अभी
अभी ये सिलसिला—ए—इजजो नाज
रहने दे
अभी नजर में फसूने जमाल
बाकी है
अभी चमन में बहारे मजाज
रहने दे
अभी कशिश रुखो गैसू की मिट
नहीं पाई
अभी हजूमे तमाशा—ए—नाज
रहने दे
अभी पसंद है जामो सबू की
हर बंदिश
रसूमे मयकदा है चश्मे नाज
रहने दे
अभी बसी है मेरे दिल में
आरजू—ए—निशात
रगों में मेरे अभी सोजो
साज रहने दे
खलिश में दर्दे मोहब्बत की
लुत्फ बाकी है
इलाजे दर्द अभी चारासाज
रहने दे
अभी सदा—ए—अनलहक नहीं उठी
दिल से
मैं और तू का अभी इम्तियाज
रहने दे
कमाले फन है यही पर अभी
मेरी खातिर
शिकस्ते आइना आइनासाज रहने
दे।
इन पंक्तियों पर ध्यान
करना—
जबीने शौक को सजदों की
आरजू है अभी
अभी ये सिलसिलाए इजजो नाज
रहने दो।
अभी प्रार्थना की इच्छा है। अभी पूजा की
आकांक्षा है। अभी किसी देहली पर झुकना चाहता हूं। तो अभी छीनो मत।
अभी नजर में फसूने जमाल
बाकी है
अभी चमन में बहारे मजाज
रहने दे।
और अभी आंखें सौंदर्य को देखने के लिए
प्यासी हैं, तो अभी वसंत को रहने दो। अभी वसंत को विदा मत करो।
अभी कशिश रुखो गैसू की मिट
नहीं पाई
अभी सुंदर चेहरे और सुंदर
केश आकर्षक हैं।
अभी हजूमे तमाशा—ए—नाज
रहने दे
अभी यह तमाशा थोड़े दिन और
रहने दो।
अभी पसंद है जामो सबू की
हर बंदिश
रसूमे मयकदा है चश्मे नाज
रहने दे।
अभी पीने—पिलाने में रस है, अभी यह
मधुशाला खुली रहने दो।
अभी बसी है मेरे दिल में आरजू—ए—निशात
रगों में मेरे अभी साजो साज रहने दे।
अभी मेरे भीतर बजने दो संगीत।
अभी बसी है मेरे दिल में आरजू—ए—निशात
अभी आकांक्षा है। अभी मेरा संगीत छीन मत लो।
खलिश में दर्दे मोहब्बत की लुत्फ बाकी है
और अभी मैंने प्रेम किया नहीं, अभी
मोहब्बत नहीं की।
खलिश में दर्दे मोहब्बत की लुत्फ बाकी है।
इलाजे दर्द अभी चारासाज रहने दे।
तो अभी मेरे इस प्रेम की पीड़ा को हे
चिकित्सक दूर न कर! अभी यह पीड़ा रहने दे।
अभी सदा—ए—अनलहक नहीं उठी दिल से
और अभी अनलहक का नाद, अहं
ब्रह्मास्मि का उदघोष—जैसा मंसूर को हुआ, जैसे उपनिषद के
ऋषियों को हुआ, जैसा बुद्ध—महावीर को हुआ—वैसा अभी मेरे भीतर
नहीं उठ रहा है।
अभी सदा—ए—अनलहक नहीं उठी दिल से
मैं और तू का अभी इम्तियाज रहने दे।
अभी इतनी दूरी रहने दो कि मैं मैं रहूं, तू तू रहे—और
हमारे बीच प्रेम का सेतु बन सके।
कमाले फन है यही पर अभी
मेरी खातिर
शिकस्ते आइना आइनासाज रहने
दे।
मैं जानता हूं कि यही फन है, यही कमाल
है कि टूटे हुए आईने को कोई इस तरह जोड़ दे कि पता भी न चले कि कभी टूटा था...।
कमाले फन है यही पर अभी मेरी
खातिर
शिकस्ते आइना आइनासाज रहने
दे।
अभी ये टुकड़े आईने के रहने दो, मेरी
खातिर अभी इन्हें जोड़ो मत।
आदमी जहां है वहीं से सीख कर उठ सकता है।
अनलहक आकाश से नहीं उतरती। जब मैं और तू की व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है—अनुभव से—तभी
उठती है। कोई जबरदस्ती अनलहक नहीं कह सकता कि मैं ब्रह्म हूं, कि मैं
ईश्वर हूं। कहोगे तो व्यर्थ होगा, झूठा होगा। तुम्हारी जबान
लड़खड़ा जाएगी। कहोगे तो तुम्हारा हृदय साथ नहीं देगा, तुम्हारे
वचन में बल नहीं होगा। कहोगे तो तुम्हारी आंखें गवाही नहीं देंगी। कहोगे तो साथ ही
साथ तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व कहेगा कि गलत है।
नहीं, प्रतीक्षा करनी होगी। जो सहज घटता
है, उसकी प्रतीक्षा।
आदमी को अगर ज्ञान की अभी आकांक्षा है तो
उसे जाना ही होगा शास्त्रों में। अगर कभी ज्ञान पर भरोसा है तो उसे शब्दों में
उलझना ही होगा;
सिद्धांतों में पड़ना ही होगा। पड़—पड़ कर ही मुक्त होगा। अगर पंडित
होने की थोड़ी सी भी रसवत्ता है भीतर, तो जाना ही होगा। जाओ,
पंडित बनो। पंडित बन कर ही पाओगे: हाथ कुछ भी नहीं लगा।
तो मैं इस स्थान को कहता हूं: अविद्यापीठ; एंटी—युनिवर्सिटी।
यहां हम कुछ सिखाते नहीं; जो सीख—सीख कर थक गए हैं और जो अब
अनसीख में उतरना चाहते हैं, वहीं ले चलते हैं।
रमण से किसी ने पूछा कि मैं सीखने आया हूं
आपके पास, मुझे कुछ शिक्षा दें! रमण ने कहा: फिर तुम गलत जगह आ गए, तुम कहीं और जाओ; क्योंकि हम यहां सिखाते नहीं,
भुलाते हैं। जिस दिन भूलने की तैयारी हो, आ
जाना।
मेरा निमंत्रण भी उन्हीं को है जो भूलने के
लिए तैयार हैं।
आज इतना ही।
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