पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—नौवां)
राम नाम रस पीजै
मनुआं
सूत्र:
कोई कहियौ रे
प्रभु आवन की, आवन की, मनभावन की।
आप न आवै लिख
नहिं भेजै, बांण पड़ी ललचावन की।
ए दोइ नैन कह्यौ
नहिं मानै, नदिया बहै जैसे सावन की।
कहा करूं कछु बस
नहिं मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की।
मीरा कहै प्रभु
कब रे मिलोगे, चेरी भइ हूं तेरे दामन की।
राम नाम रस पीजै
मनुआं, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग
बैठि नित, हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद
मोह लोभ कूं, चित्त से बहाय दीजै।
दरस बिन दूखन
लागे नैन।
जब के तुम बिछुड़े
प्रभु मोरे, कबहु न पायो चैन।
सबद सुनत मेरी
छतिया कांपै, मीठे—मीठे बैन।
विरह कथा कांसू
कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
कल न पड़त तल हरि
मग जोवत, भई छमासी रैन।
मीरा के प्रभु
कब रे मिलोगे, दुख—मेटन, सुख—दैन।
लाख
हुशियार बना कर खालिक
इक मखमूर बना देता है
इख्तयाराते जहां सौंप के सब कुछ
कितना मजबूर बना देता है
दौलते दर्दे दो आलम दे कर
दिले रंजूर बना देता है
फिर इनायत ये कि दर्दे दिल को
एक नासूर बना देता है
बालो पर करके सपुर्दे शोला
हमांतन नूर बना देता है
बेबसर आंख को तेरा जलवा
मतलाये नूर बना देता है।
लाख लोग बनाता है परमात्मा, तो बड़ी उसकी कृपा है कि एक उसमें मस्त भी बना देता है। लाख होशियार बनाता
है तो एक मस्त बना देता है। उन लाख होशियारों से जीवन रेगिस्तान जैसा बन जाता है।
उस एक मस्त के कारण थोड़ा मरूद्यान रहता है, थोड़ी हरियाली
रहती है।
मीरा उन थोड़े से मस्तों में से एक है, जो लाख के पीछे एक ही होता है। मीरा एक मरूद्यान है। उसके पास आओगे तो
शीतल हो जाओगे। उसमें डूबोगे तो मोती पाओगे। वहां बड़ी हरियाली है, बड़ी बहार है।
मीरा एक वसंत है—ऐसा जहां पतझड़ आना
बंद ही हो गया। वहां अब गीत ही लगते हैं। और अगर आंसू भी पाओ तो आनंद के ही पाओगे।
और उसे मांगते भी देखोगे तो सिवाय परमात्मा के और कुछ नहीं।
मस्त ही मांग सकते हैं परमात्मा को।
होशियार तो और कुछ—कुछ मांगते हैं—धन मांगते हैं, पद मांगते हैं,
प्रतिष्ठा मांगते हैं। होशियार तो कचरा मांगते हैं। होशियारी कचरा
है। यहां धन्यभागी हैं वे थोड़े से लोग जो होशियार नहीं—जो सरलचित्त हैं; जो भोले—भाले हैं। इस जीवन में जो भी विराट है, वह
उन्हीं के आंगन में बरसता है जो भोले—भाले हैं।
होशियारी से सावधान रहना। होशियारी ने
ही तुम्हें डुबाया है। होशियारी ने ही तुम्हारे पैरों में जंजीरें डाल दी हैं।
होशियारी ने ही तुम्हारे गले में फांसी लगा रखी है। और मजा यह है कि तुम सोचते हो
कि होशियारी से ही इस सबसे बच जाएंगे। तुम सोचते हो: रास्ता निकाल लेंगे अपनी ही
बुद्धिमानी से; अपनी ही समझदारी से कुछ उपाय कर लेंगे।
तुम्हारी समझदारी ही तुम्हारा कारागृह
है। इसी से तुम उपाय कैसे करोगे? जब भी कोई इस कारागृह से सरका है
तो मस्ती के द्वार से सरका है। उस मस्ती को कहो "समाधि', कहो भाव! उस समाधि को कहो "हाल'। उस समाधि को
जो तुम्हें नाम देना हो। लेकिन जो भी इस कारागृह से खिसका है, वह मस्ती से खिसका है।
मस्ती का मतलब ठीक से समझ लेना, तो मीरा का मतलब समझ में आ जाएगा। मस्ती का मतलब होता है: मेरे किए कुछ भी
न होगा। समझदारी का अर्थ होता है: मैं सब कर लूंगा। मुझे किसी के सहारे की कोई
जरूरत नहीं है। मैं पर्याप्त हूं। अगर आज तक नहीं कर पाया हूं तो सिर्फ इसलिए कि
मैंने अपनी पूरी बुद्धिमानी नियोजित नहीं की है। जो आज तक नहीं हुआ, कल करूंगा। आज तक अगर हारा हूं, कोई फिकर नहीं। इन
सारी हारों से मेरी समझदारी और निखर गई है। कल जीतूंगा।
समझदारी कहती है कि अंततः मैं सफल
होने ही वाला हूं। समझदारी एक तरह का अहंकार है, कि मुझे किसी सहारे
की जरूरत नहीं है; मुझे किसी परमात्मा की जरूरत नहीं;
मुझे किसी सदगुरु की जरूरत नहीं है।
इसी अहंकार से आदमी उलझा है। और यह
जाल रोज बढ़ता चला जाता है। जीसस ने कहा है: जो छोटे बच्चे की भांति होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
छोटे बच्चे की भांति! छोटे बच्चे के
पास क्या है, जिसकी इतनी प्रशंसा कर रहे हैं जीसस? छोटे बच्चे के पास समझदारी नहीं है। क्या है, यह
कहना ठीक नहीं है। छोटे बच्चे के पास कुछ है जो नहीं है और जो तुम्हारे पास जरूरत
से ज्यादा है। समझदारी तुम्हारे पास जरूरत से ज्यादा है; छोटे
बच्चे के पास कोई समझदारी नहीं है। उसकी आंखें, शास्त्र,
सिद्धांत से शून्य हैं और इसीलिए आश्चर्य से लबालब है। और जहां
आश्चर्य है वहां परमात्मा का दर्शन है।
जितने तुम समझदार होते जाते हो उतना
ही आश्चर्य मरता चला जाता है। फिर तुम्हें कोई चीज आश्चर्यचकित करती ही नहीं। फिर
कोई भी वस्तु रहस्यपूर्ण नहीं मालूम होती। फिर तुम यह कोयल की आवाज सुनते हो तो भी
तुम्हें सुनाई नहीं पड़ती। फिर तुम वृक्षों में खिले फूल देखते हो; मगर वे सामान्य हो गए। तुम जानते ही हो कि यह गुलाब का फूल है; कि यह चमेली; कि यह चंपा। क्या खाक जानते हो?
अंग्रेजी के महाकवि टेनिसन ने कहा है:
अगर मैं एक फूल को पूरा समझ लूं, पूरा—पूरा, तो इस अस्तित्व में फिर कुछ भी समझने को शेष नहीं रह जाता है।
एक फूल में सब समाया हुआ है—सब
चांदत्तारे; अतीत, वर्तमान, भविष्य। एक फूल में सारा सौंदर्य छिपा है—सारा सत्य। एक फूल में सारा
अस्तित्व झलक रहा है। एक छोटे से फूल को भी अगर पूरा समझने जाओगे तो तुम्हें पूरा
अस्तित्व ही समझना पड़ेगा, तभी समझ पाओगे। और पूरे अस्तित्व
को कौन कब समझ पाया है! पूरे अस्तित्व को न कोई कभी समझ पाया है और न कोई कभी
समझेगा।
यह पूरा अस्तित्व ऐसा नहीं जैसे अखबार
में छपी हुई क्रासवर्ड पहेली होती है, कि घड़ी आधा घड़ी में
हल कर ली और फिर फेंक दी। अस्तित्व ऐसी पहेली है, जो सदा
पहेली है और सदा पहेली रहेगी। पहेली होना अस्तित्व का स्वभाव है। यह कोई आकस्मिक
घटना नहीं है अस्तित्व का पहेली होना। अस्तित्व पहेली है। इसका कोई हल नहीं है। और
बुद्धिमान आदमी हल खोजने की कोशिश करता है। बुद्धिमान आदमी हल बनाने की कोशिश करता
है। वह गणित, तर्क का जाल फैलाता है और सोचता है इस जाल में
रहस्य की मछली फंस जाएगी। रहस्य की मछली फंस ही नहीं सकती। रहस्य की मछली केवल
आश्चर्य से भरे हृदय में फंसती है। आश्चर्य ही उसके लिए जाल है।
छोटे बच्चे की आंखों में आश्चर्य है।
और छोटे बच्चे की आंखों में आशा है। वह आशा तुम्हारी खो गई है। जैसे—जैसे तुम्हारी
उम्र बड़ी होती जाती है, वैसे—वैसे निराशा ठहरती जाती है। धीरे—धीरे निराशा की
धूल जम जाती है।
निराशा क्यों आ जाती है जीवन में? निराशा के आने का वही कारण है, वही अहंकार कि मैं सब
सुलझा लूंगा। और बार—बार तुम पाते हो कि सुलझता तो है नहीं और अहंकार छूटता भी
नहीं। यह भी नहीं कह सकते कि मुझसे नहीं सुलझेगा; हे प्रभु,
तू सुलझा दे! यह तुम्हारे अहंकार के विपरीत है। यह तुम कैसे कहो! यह
तो कमजोर लोग कहते होंगे! तुम तो बड़े शक्तिशाली हो, तुम यह
कैसे कहो! तुम कैसे हथियार डाल दो। तुम तो प्रभु पर आक्रमण करने निकले हो। तुम तो
उसे भी जीतने की आकांक्षा रखते हो।
तुम कोशिश करते हो; हर कोशिश पराजय में परिणित हो जाती है। तुम दौड़ते हो; हर दौड़ गङ्ढे में ले जाती है। तो धीरे—धीरे निराशा इकट्ठी होने लगती है।
कितने दूर तक आशा को बचाए रखोगे?
गलत दिशा में जो चला है, वह आज नहीं कल निराश हो ही जाएगा। आशा तो ठीक दिशा में ही बनी रह सकती है।
न मिले सत्य आज, लेकिन मिलता हुआ मालूम भी पड़ता रहे तो भी
आशा बनी रहती है। दूर हो सूरज, कोई फिकर नहीं; पर आंखों में दिखाई तो पड़ता रहे! मगर अगर तुम पीठ सूरज की तरफ करके चले हो,
तब तो आंखों में भी दिखाई नहीं पड़ता। दूर का तो सवाल ही नहीं। दूर—पास
का प्रश्न ही नहीं। और तुम चलते ही जाते हो अंधेरे की तरफ।
जीसस जब कहते हैं, "छोटे बच्चे की भांति जो है वह धन्यभागी है'—क्यों?
क्योंकि अभी उसकी आशा कायम है। अभी उसने निराश होने का उपाय ही नहीं
किया। अभी अहंकार की मान कर चला ही नहीं, इसलिए हारा नहीं।
इस सूत्र को खूब खयाल में ले लेना। जो
जीतने चला है वह हारेगा। जो जीतने चला है वह निश्चित हारेगा। और जब हारेगा तो
निराशा पकड़ेगी; उदास हो जाएगा। छाती पर पत्थर पड़ जाएंगे। हिम्मत खो
जाएगी। साहस खो जाएगा। जीवन में आस्था खो जाएगी। जीवन दुश्मन मालूम होने लगेगा,
तो फिर आस्था कैसे होगी? मित्र तो नहीं मालूम
होगा जीवन।
तुम जो भी करते हो, जीवन उसे मिटा डालता है। तुम जो भी बनाते हो, जीवन
उसे नष्ट कर देता है। तुम जिस तरफ जाते हो, वहीं हार देता है
जीवन। तो जीवन मित्र कैसे हो सकता है? और जब जीवन मित्र नहीं
है, तो क्रोध पैदा होता है; विध्वंस
पैदा होता है; हिंसा पैदा होती है—कि हम बना तो नहीं सकते,
तो चलो मिटा दें! कुछ नहीं कर सकते तो मिटा दें।
आदमी अपनी असहाय अवस्था को स्वीकार न
करके, मिटाने में लग जाता है कि कम से कम मिटा तो सकते हैं।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि दुनिया
में जो बड़े से बड़े हत्यारे हुए हैं, वे बड़े से बड़े
महात्मा हो सकते थे। उनमें और महात्माओं में इतना ही फर्क है कि महात्मा सृजन की
दिशा में चले गए; अपराधी, भयंकर पापी,
विध्वंस की दिशा में चले गए। विध्वंस की दिशा में गए ही इसलिए,
कि बना तो नहीं सकते, तो कम से कम तोड़ तो सकते
हैं। कुछ तो कर लें! एक आदमी को बनाना तो मुश्किल है; मुश्किल
क्या, असंभव है; लेकिन हम हजार आदमी
मार तो सकते हैं। चलो यही ठीक, लेकिन कुछ अपना कर्तृत्व तो
दिखा दें!
चंगीजखान और तैमूरलंग और अडोल्फ हिटलर
वही दिखा रहे हैं। वह इस बात की घोषणा है कि मेरा अहंकार बना तो नहीं पाता, लेकिन मिटा तो सकता हूं। चलो यही ठीक। यही करके रहूंगा। लेकिन अहंकार नहीं
छोड़ सकता।
जो यहां जीतने चला है वह हारेगा। जीत
की आकांक्षा में हार छिपी है। जीत की आकांक्षा बीज है हार के वृक्ष का। जो जीतने
नहीं चला है, वही जीतता है। जो हारने चला है वही जीतता है। वही
मस्त का मार्ग है। वह कहता है: प्रभु, मुझे हराओ! वह कहता
है: मुझे डुबाओ! वह कहता है: मुझे मिटाओ!
यह मस्त ही कह सकता है। बुद्धिमान
कैसे कहेगा! बुद्धिमान तो यह बात ही पागलपन की समझेगा कि मिटाओ! मुझे डुबाओ! यह
बात कैसी हो रही है!
बुद्धिमान तो परमात्मा का भी सहारा
मांगता है, तो मैं कैसे जीतूं, इसी में
सहारा मांगता है। मैं कैसे और शक्तिशाली हो जाऊं! बुद्धिमान कहता है: मेरी शक्ति
बढ़ाओ। मस्त कहता है: मेरी शक्ति बिलकुल ले लो। मुझमें कुछ छोड़ो ही मत। मुझे खाली
कर दो। क्योंकि खाली होकर ही मैं तुम्हारा हो पाऊंगा। मेरे में थोड़ी भी शक्ति रही
तो मैं गलत ही करूंगा। मुझसे गलत ही होगा। मैं गलत हूं। मेरा होना ही गलत है। तुम
मुझे पोंछ डालो।
लाख हुशियार बना
कर खालिक
एक मखमूर बना
देता है।
मखमूर—मस्त, दीवाने, पागल—बहुत थोड़े हैं। लेकिन उन्हीं थोड़ों के
कारण जिंदगी में थोड़ी रौनक है, अर्थ है, गरिमा है। जरा तुम सोचो कि मीरा न हो, कबीर न हो,
कबीर की जगह एक और कुबेर हो जाए—तो जिंदगी में जो थोड़ा—बहुत अर्थ है,
कहीं—कहीं किरण फूटती मालूम पड़ती है, वह भी न
फूटे। इस अंधेरी रात में जो कोई तारा जगमगाता है, वह भी न
जगमगाए। इन कांटों में जो कभी—कभी एक फूल खिल जाता है, वह भी
न खिले।
ये थोड़े से जो पागल हैं—जीसस ने कहा
है—इन्हीं के कारण जीवन में नमक है, स्वाद है। दीज आर दि
सॉल्ट ऑफ दि अर्थ। यह वचन प्यारा है: "ये पृथ्वी के नमक हैं', इन्हीं के कारण जिंदगी बेरौनक नहीं हो पाती; बेस्वाद
नहीं हो पाती। ये थोड़े से लोगों पर ही आशा है। मगर इन थोड़े से लोगों का सूत्र बड़ा
सरल है। काश, तुम बुद्धिमानी को जरा एक किनारे रख कर समझो तो
सूत्र बड़ा सरल है। इनका सूत्र इतना ही है कि हम बहुत छोटे हैं; अस्तित्व विराट है। हम विराट के खिलाफ लड़ कर कैसे जीत सकेंगे? यह तो ऐसे ही है जैसे एक बूंद सागर से लड़ने लगे; कि
एक किरण सूरज से लड़ने लगे; कि एक पत्ता वृक्ष से लड़ने लगे।
यह बुद्धिमानी तो पागलपन है। यह बुद्धिमानी बुद्धिमानी नहीं है।
यह तो ऐसे ही है जैसे एक छोटी सी लहर
और नदी से लड़ने लगे। कैसे जीतेगी? जीत का तो कोई उपाय ही नहीं रहा।
पहला कदम ही गलत दिशा में पड़ रहा है।
लहर जीत सकती है नदी के साथ। तुम भी
जीत सकते हो परमात्मा के साथ। मगर परमात्मा के साथ होने के लिए तुम्हें पहले
बिलकुल मिट जाना होता है; तभी तुम उसके साथ हो सकते हो। तुम्हारी थोड़ी भी अकड़
भीतर बनी रहती है, उतनी ही तुम्हारी दूरी बनी रहती है;
उतना ही फासला बना रहता है।
परमात्मा दूर नहीं है; तुम परमात्मा से दूर हो। परमात्मा बिलकुल पास है, मगर
तुम अपनी लड़ाई के कारण दूर हो। तुम अपनी अकड़ से मरे जा रहे हो। और आदमी इन्हीं अकड़
के कारण न मालूम कितने विधि—विधान खोज लेता है—धर्म के नाम पर भी! उपवास करेगा,
व्रत करेगा, धूप में खड़ा होगा, शरीर को कोड़े मारेगा, कांटों पर लेटेगा—और न मालूम
कितनी तरह की मूढ़ताएं करेगा! ये मूढ़ताएं हैं और ये रुग्ण स्थितियां हैं। इनको तुम
पूजा देते रहे हो। मगर ये चित्त से विक्षिप्त लोग हैं। ये स्वस्थ लोग नहीं हैं। यह
फिर भी वही लड़ाई जारी है। अब नये ढंग से लड़ाई जारी है। पहले ये रुपया कमा कर लड़
रहे थे; अब ये पुण्य कमा कर लड़ रहे हैं। मगर ये परमात्मा को
हराने को तैयार हैं। ये कहते हैं कि ठीक है, तप से होगा तो
तप से, मगर जीत कर रहेंगे। गला देंगे अपने को, शरीर को काट डालेंगे, लेकिन जीत कर रहेंगे! सब कुछ
दांव पर लगाने को तैयार हैं, लेकिन एक "मैं' को दांव पर लगाने को तैयार नहीं है। वह "मैं' पहले
धन के कारण भरता था, अब तप के कारण भरता है। पहले भी ये
सिंहासन पर विराजमान थे, वह सिंहासन सोने का था; अब इन्होंने पुण्य का एक सिंहासन बना लिया है—व्रत, त्यागत्तपश्चर्या
का सिंहासन बना लिया। लेकिन सिंहासन पर ये अब भी बैठे हुए हैं।
भक्त कहता है: उतरो सिंहासन से। यह
सिंहासन उसका है। अंशी का है; अंश का नहीं। सागर का है;
बूंद का नहीं। विराट का है; क्षुद्र का नहीं।
उतरो सिंहासन से। जगह खाली करो। और तुम्हारे जगह खाली करते ही वह तुम्हें भर देता
है। इतना ही सरल है मामला।
इसलिए जीसस कहते हैं: छोटे बच्चे की
भांति!
मखमूर बनो, मस्त बनो!
छोटे बच्चे में मस्ती देखी! और अकारण
होती है मस्ती, तभी मस्ती। तुम जब चुनाव में जीत जाते हो, तब तुम बैंड—बाजे में बड़ी मस्ती प्रकट करते हो; वह
मस्ती नहीं है, क्योंकि उसमें कारण है। जिसमें कारण है,
वह मस्ती नहीं। तुम्हें धन मिल गया, लाटरी खुल
गई तुम्हारे नाम, तुम बड़े मस्त हो, पार्टी
दी है, घर में संगीत बह रहा है, लोग
नाच रहे हैं—मगर यह मस्ती नहीं है; इसमें पीछे कारण है।
लाटरी न मिलती तो? तो तुम मस्त नहीं हो सकते थे। चुनाव न
जीतते तो? तो तुम मस्त नहीं हो सकते थे। यह मस्ती बाहर है;
इसका आधार है। यह मस्ती तुम्हारे भीतर से आविर्भूत नहीं।
मखमूर उसे कहते हैं, जिसकी मस्ती उसके भीतर से आती है—जो शराब तो पीता है, लेकिन भीतर की पीता है, बाहर की नहीं; जिसकी मस्ती अकारण है।
छोटे बच्चों की मस्ती अकारण होती है।
छोटे बच्चे की मस्ती उसके भीतर से होती है। वह अपनी मस्ती के कारण दौड़ता है। तुम
मस्ती पाने के लिए दौड़ते हो। छोटा बच्चा उछल—कूद रहा है; इसलिए नहीं कि कुछ उसको लाटरी मिल गई है, कि चुनाव
जीत गया है, कि प्रधानमंत्री हो गया है—कुछ भी नहीं। उछल—कूद
कर रहा है, क्योंकि मस्ती है भीतर। इस मस्ती को तो छलकाना
पड़ेगा। यह मस्ती नाच रही है।
तुम्हें हैरानी भी होती है कि कारण
क्या है? क्यों इतने खुश हो? कारण की कोई
जरूरत नहीं है। खुशी स्वाभाविक है। जैसे बच्चे की खुशी स्वाभाविक है।
खयाल करना: बच्चा दुखी होता है, जब कारण हो; और खुश होता है—अकारण। एक बच्चा अपने
झूले में पड़ा मस्त हो रहा है; अपना अंगूठा ही चूस रहा है। अब
यह भी कोई चूसने की चीज है! मगर मस्त है; आनंदित हो रहा है,
गदगद है। फिर रोने लगा। रोने लगा तो भूख है कारण। जब मस्त था तो कोई
कारण न था। बच्चा दुखी होता है कारण से; सुखी होता है बिना
कारण के।
तुम्हारी हालत ठीक उलटी है। सुख के
लिए कारण खोजते हो; दुखी अकारण। इधर मैं रोज लोग देखता हूं; रोज एक के बाद एक कतार में मुझसे मिलते रहते हैं। बड़े दुखी हैं! कारण कुछ
दिखाई नहीं पड़ता। उनसे भी जरा खोज—बीन करके पूछो तो वे भी कहते हैं: हमें भी पता
नहीं चलता कि कारण क्या है! मगर दुख है, यह बात पक्की है।
जिंदगी में कुछ नहीं मालूम होता है; सब थोथा है। यह तो जीवन
का बिलकुल गणित उलटा कर लेना हुआ। यह तो तुम शीर्षासन करने लगे।
इस प्रक्रिया को बदलना होता है। इसलिए
अगर तुम अकारण हंसोगे तो लोग चौंकेंगे, कि पागल तो नहीं हो
गए, किस कारण हंस रहे हो! इसलिए अगर कोई अकारण हंसे तो उसे
लोग पागल कहते हैं।
यहां आश्रम में हमारी अंतःवासी है:
"सत्या'। वह हंस रही है तीन महीने से—अकारण! तीन महीने तक कोई
हंस भी नहीं सकता। कारण तो होता ही नहीं; इतनी देर चलता ही
नहीं। लाटरी मिली, खतम! चुनाव जीते, गया।
दस—पंद्रह दिन बाद मुसीबतें शुरू। जिन्होंने वोट दिया था, वे
ही खड़े हैं छाती पर, कि अब आश्वासन का क्या हुआ? जो वचन दिए थे, वे पूरे करो! बाहर से आया कारण थोड़ी
देर चल सकता है। लेकिन "सत्या' तीन महीने से हंस रही
है। पहले तो खुद भी डरी कि यह क्या हो रहा है। क्योंकि रात बिस्तर पर पड़े—पड़े नींद
खुल गई और हंसी आ जाए!
उसके पति भी यहां हैं। वे भी मेरे पास
भागे आए कि मामला क्या है? यह पागल तो नहीं हो रही? क्योंकि
पड़े—पड़े बिस्तर पर कोई कारण ही नहीं, कोई बात ही नहीं और ऐसा
हंसती है खिलखिला कर! और फिर रुकती नहीं और अगर इससे पूछो, क्यों
हंस रही है, तो और हंसती है। इससे पूछना भी खतरनाक है। और
इसका जो कुछ भी हो, मैं पागल हो जाऊंगा अगर यह इस तरह चलता
ही रहा तो। क्योंकि सुबह बैठी है, हंसने लगती है; दोपहर बैठी है, हंसने लगती है—कोई कारण नहीं दिखाई
पड़ता।
उससे मैंने पूछा कि तुझे क्या हुआ? उसने कहा: कुछ कह नहीं सकती, क्या हुआ। बस एक
गुदगुदी आती है, भीतर से आती है, एकदम
भीतर जैसे कोई गुदगुदाने लगता है; फिर रोकना मुश्किल हो जाता
है। फिर हंसती हूं और दूसरों को परेशान देखती हूं तो और हंसी आती है कि यह भी खूब
रहा! फिर अपनी हंसी पर हंसती हूं कि यह मैं क्या पागल हुई जा रही हूं! फिर इसका
कोई अंत ही नहीं है! नींद कम हो गई है; मगर कोई थकान नहीं
है।
और हंसी नहीं थी जिंदगी भर से। कारण
होता था, तब भी नहीं हंसी थी। हंसना उसकी आदत में शुमार नहीं
था, इसलिए पति और भी हैरान है कि यह तो इस तरह की थी ही नहीं
कभी। गंभीर, सदा गंभीर! मेरे पास भी जब आती थी, इन तीन महीनों के पहले तो सदा रोती। कुछ न कुछ शिकायत, कुछ न कुछ गलत दुनिया में हो रहा है। कहीं उसे शांति नहीं, कहीं चैन नहीं। इधर तीन महीनों में हालत बिलकुल बदल गई है। मैं उससे कहता
था: "सत्या' रुक, थोड़ी प्रतीक्षा
कर! थोड़ी और प्रतीक्षा कर।
अब कहती है: किसी तरह मेरा यह हंसना
रोको।
ऐसा "हेमा' को भी हुआ था। अब यह रोके रहती है अपनी हंसी, मगर जब
आती है तो फिर रोकना उसे मुश्किल हो जाता है। यह तीन दिन तक सतत हंसती रही थी—बिना
सोए, बिना खाए—पीए। लोग तो पागल ही कहेंगे। और ऐसी हंसी का
गुणधर्म ही अलग होता है। उसकी ताजगी अलग होती है। वह कहीं बड़े दूर से आती है,
जैसे परमात्मा तुम्हारे भीतर हंसा। वह तुम्हारी नहीं होती; तुमसे आती जरूर है, तुम्हारी नहीं होती।
मस्ती का अर्थ होता है: आनंद स्वभाव
है; दुख स्वभाव नहीं है। आनंद सतत होना ही चाहिए; दुख
कभी—कभी हो जाए, चलेगा। भोजन में चटनी की तरह चल सकता है।
मगर तुमने चटनी का भोजन बना लिया है। तुम उसी का भोजन कर रहे हो। तो स्वभावतः
तुम्हारे जीवन में बड़ी कुरूपता हो गई है। अंधेरा हो गया है। अमावस हो गई है।
लाख हुशियार बना
कर खालिक
एक मखमूर बना
देता है।
एक मस्त पैदा होता है आदमी—लाखों में
कभी; विरला होता है। मीरा उन विरले लोगों में से एक है। ये
सारे गीत उसकी मस्ती के गीत हैं। यह भीतर की गुदगुदी है—जिसे वह सम्हाल नहीं पा
रही; जो बाहर बही जा रही है। मीरा को तुम रोते भी पाओ तो
अपने आंसुओं जैसे आंसू मत समझना; वे आंसू परम आनंद के हैं।
वे आंसू परम आह्लाद के हैं। मीरा को तो तुम परमात्मा की शिकायत करते भी पाओ तो भूल
कर भी ऐसा मत समझना कि वह शिकायत कर रही है। वे तो प्रेम के शिकवे हैं, शिकायत नहीं है। वह तो प्रेम की मान—मनौवल है, रूठना
इत्यादि है। वह जो परमात्मा से प्रार्थना करती है कि और आओ, और
आओ, और आओ—वह तो सिर्फ इस बात की खबर है कि प्रेम कभी तृप्त
नहीं होता।
प्रेम तृप्त हो ही नहीं सकता। जितनी
तृप्ति मिलती है प्रेम को, उतना ही प्रेम विराट होता जाता है। जितना मिलता है
उतना और मिलने की संभावना साफ होती जाती है। जितना मिल जाता है, इससे और भी ज्यादा मिल सकता है, इसका भरोसा बढ़ता है।
फिर परमात्मा से कोई तब तक तृप्त नहीं होता जब तक कि उसी में लीन न हो जाए। तो
विरह है। लेकिन विरह का यह मत समझना मतलब कि मीरा को परमात्मा मिले नहीं। विरह का
इतना ही मतलब है कि मिले हैं और मिलने से ही उपद्रव शुरू हुआ है। मिले हैं और विरह
जगा है।
तो दुनिया में दो तरह के विरही हैं।
एक तो वे जिन्हें परमात्मा नहीं मिला है; उनका विरह बहुत गहरा
नहीं होता है। क्योंकि जो मिला ही नहीं उसका विरह भी कैसे करोगे? रो भी लोगे कभी—कभी तो तुम खुद ही पाओगे कि रोना कुछ उधार है। जिसको कभी
देखा नहीं, उससे प्रेम कैसा? जिससे कभी
मुलाकात नहीं हुई, उसकी याद कैसी, उसका
स्मरण कैसा? जिसने कभी तुम्हारे हाथ में हाथ नहीं लिया,
उसके स्पर्श का तुम्हें अनुभव ही नहीं है; तो
उसके आलिंगन की आकांक्षा में सचाई कितनी हो सकती है?
तो भक्तों के साथ याद रखना, उनके विरह का मतलब तुम सदा ऐसा मत समझ लेना कि उन्हें परमात्मा नहीं मिला,
इसलिए रो रहे हैं। तुम्हें मैं यह सचेत कर देना चाहता हूं। वे रो ही
इसलिए रहे हैं कि मिला है। मिला है और मुश्किल हो गई। मिला क्या कि मुश्किल हो गई।
स्वाद ले लिया है। ऐसा स्वाद ले लिया कि उस स्वाद के कारण संसार के सारे स्वाद तो
एकदम फीके हो गए। यह अड़चन हो गई। पहले जिन चीजों में रस था, वह
रस गया।
यहां एक फर्क समझना। जिसको तुम त्यागी
कहते हो, वह पहले संसार में रस छोड़ता है। वह सोचता है: संसार
में रस छूटे तो परमात्मा में रस लगे। छूट—छूट कर भी नहीं छूटता। लड़ता—झगड़ता है।
भागता है। इधर—उधर दौड़ता है। आंखें बंद करता है। व्यायाम, प्राणायाम
करता है। सब तरह के उपाय करता है। संसार से दूर—दूर निकल जाता है हिमालय में—कि न
रहेगा संसार, न रस आएगा। मगर कुछ नहीं होता, इससे फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जो रस का अनुभव किया
है वह पीछा करेगा। सच तो यह है कि हिमालय पर ज्यादा पीछा करेगा, बजाय बस्ती में रहने के। बस्ती में तो उपाय भी हैं; हिमालय
पर उपाय भी नहीं रह जाएंगे—सिर्फ भागती अंधी वासना रह जाएगी। झंझावात होगा भीतर एक
वासना का। याद आएगी उन स्वादों की जो लिए थे। स्त्रियां साधारण थीं, जिनको तुम छोड़ आए हो; हिमालय की गुफा में बैठे—बैठे
वे सब अप्सराएं हो जाएंगी। तुम्हारी भूखी वासना उनको रंग देगी, रूप देगी, उनको साज—सजाएगी, संवारेगी।
भागने से नहीं कुछ होता। लेकिन वह
साधारण गणित है आदमी का कि जिस परिस्थिति में वासना जगती है, वहां से भाग जाओ। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
यह बांसुरी कुछ ऐसी है कि बिना बांस
के बज सकती है। यह बांसुरी तुम्हारे भीतर है; इसका बांस से कुछ
लेना—देना नहीं है। क्योंकि वासना तुम्हारे भीतर है, बाहर तो
परिस्थितियां केवल उकसाने का काम करती हैं। तुम भाग गए तो इससे कुछ अंतर नहीं
पड़ेगा; भीतर जो है वह भीतर है, वह
तुम्हारे साथ चला जाएगा।
भक्त की प्रक्रिया दूसरी है। भक्त
पहले परमात्मा में रस को लगा लेता है, फिर अपने आप संसार
में विरस हो जाता है। भक्ति की प्रक्रिया विधायक है। त्यागी की प्रक्रिया
नकारात्मक है। अगर चुनना हो तो भक्त की चुनना। उसका साफ—सुथरा मार्ग है। वह यह
कहता है: पहले परमात्मा में थोड़ा रस लगाएं।
तो पहले तो भक्त रोता है; उस रोने में बहुत वजन नहीं होता, बहुत बल नहीं होता।
उस रोने में सिर्फ जीवन की पीड़ा होती है। उन आंसुओं में, इस
जीवन में कुछ सार नहीं मालूम पड़ता, इसका विषाद होता है।
लेकिन धीरे—धीरे जैसे—जैसे भक्त में विषाद बढ़ता जाता है, विरह
बढ़ता जाता है—एक घड़ी आती है क्रांति की।
जैसे पानी को हम गरम करते हैं, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है—ऐसे ही विषाद को गरम करते—करते, गरम होते—होते एक डिग्री है, एक खास जगह है, हर एक में अलग—अलग होती है। आदमी पानी जैसा नहीं है कि सब आदमी सौ डिग्री
पर भक्त हो जाएं। हर आदमी में अलग—अलग होती है, क्योंकि हर
आदमी अलग—अलग यात्रा करके आया है। जन्मों—जन्मों के अलग—अलग संस्कार हैं। एक—एक
आदमी अपने आप में एक दुनिया है; उस जैसा दूसरा कोई आदमी नहीं
है। तो कब होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन अगर कोई विषाद में
पड़ता ही रहे, पड़ता ही रहे, तो एक दिन
होती जरूर है। और सबमें अलग—अलग समयों में होती है; अलग अलग
घड़ियों में होती है। इसलिए भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती। लेकिन होती निश्चित है।
रोते—रोते एक दिन तुम पाते हो कि रोने का गुणधर्म बदल गया। अब तक रो रहे थे विषाद
से; एक दिन अचानक पाते हो कि अब विषाद नहीं है—हर्ष के,
आनंद के, सुख के आंसू आने शुरू हो गए हैं। वह
क्रांति का क्षण है। तुम अचानक पाते हो सारा गुणधर्म बदल गया। अब भीतर तुम इसलिए
नहीं रो रहे हो कि परमात्मा नहीं मिला है—इसलिए रो रहे हो कि अब उसकी झलक मिली है।
अब झलक और मिले। अब झलक बार—बार मिले। अब झलक रोज—रोज मिले। अब झलक हर पल मिले। अब
एक पल को भी आंख से ओझल न हो।
यह उसी आनंद की अवस्था में गाए गए भजन
हैं।
कोई कहियौ रे
प्रभु आवन की...
मीरा कहती है: कोई मुझे खबर कर देना
अगर प्रभु आए, क्योंकि मैं तो ऐसे रोने में लगी हूं कि मुझे पता ही
नहीं चलेगा। वे द्वार पर आकर खड़े हो जाएं और मैं अपना रोना ही करती रहूं; ये मेरे आंसू बहते ही रहें! मेरी आंखें आंसुओं से भरी हैं; कोई मुझे खबर कर देना। वे द्वार पर दस्तक दें तो ऐसा न हो कि मैं स्वागत
को तैयार भी न होऊं।
कोई कहियौ रे
प्रभु आवन की...
और कोई खबर मुझे दे देना: कब आने को
हैं, कब तक आएंगे, ताकि मैं तैयारी
कर लूं।
यह बात ऐसी नहीं है कि मीरा ने प्रभु
न जाने हों। जाना है। उनका आगमन देखा है। उनकी बांसुरी सुनी है। उनकी पगध्वनि का
इसे स्मरण है। मगर यह कह रही है कि मैं इतनी विह्वल हो रही हूं उनके वियोग में, मैं ऐसी रो रही हूं, मैं ऐसी लोट रही हूं जमीन पर;
मेरी आंखें आंसुओं से भरी हैं; मुझे कुछ और
दिखाई नहीं पड़ता; मेरा चित्त उन्हीं पुराने स्मरणों से भरा
है; उनकी तस्वीर मेरे भीतर है—कहीं ऐसा न हो कि वे सामने खड़े
हो जाएं और मैं तस्वीर से ही उलझी रहूं!
स्वामी रामतीर्थ कहते थे: एक प्रेमी
दूर देश चला गया। वह अपनी प्रेयसी को पत्र लिखता कि अब आता हूं, अब आता हूं...लेकिन उलझन बढ़ती गई, काम बढ़ता गया।
प्रेयसी थक गई। अंततः वह एक दिन यात्रा की उसने; उस दूर के
गांव पहुंच गई। जब वह पहुंची उसके द्वार पर तो सांझ का दीया जल चुका था। वह दीया
जलाए, टेबल पर झुका कुछ लिख रहा था, तो
वह द्वार पर ही बैठ गई—उसके काम में बाधा न दे, उसका लिखना
पूरा हो जाए! और वह पत्र लिख रहा था, इसी प्रेयसी को।
प्रेयसी द्वार पर बैठी है, प्रेमी पत्र लिख रहा है—इसी
प्रेयसी को! इस खयाल में कि वह दूर कहीं, जहां छोड़ आया है।
प्रेमी की आंख से आंसू टपक रहे हैं। और जिसके लिए वह रो रहा है, वह द्वार पर बैठा है। जिसके लिए रो रहा है, उसे
आलिंगन करने में क्षण भर की भी देरी की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन उसे रोते देख कर
प्रेयसी और परेशान हो गई कि वह इतना दुखी है, बीच में बाधा
डालनी ठीक नहीं, उसे निपट ही लेने दो अपने दुख से। उसे जो
लिखना है, लिख लेने दो।
और वह प्रेयसी को पत्र लिखता था, लंबे—लंबे, जैसे प्रेमी लिखते हैं। कुछ लिखने को
होता भी नहीं, तो भी लिखते चले जाते हैं। वह पत्र का अंत ही
नहीं आता; मजबूरी में करना पड़ता है। क्योंकि लिफाफे में एक
सीमा होती है। लिखते ही जाते हैं। लिखते ही जाते हैं। लिखने को कुछ भी नहीं होता;
और ऐसे बहुत कुछ होता है। वह लिखता ही जा रहा है—पन्ने पर पन्ने!
आधी रात तक वह लिखता रहा। उसने एक बार आंख उठा कर न देखी, कि
कौन द्वार पर बैठा है। और जब उसका पत्र पूरा हुआ और उसने आंख उठा कर देखी तो उसे
भरोसा नहीं आया। भरोसा आए भी कैसे! सैकड़ों मील दूर छोड़ आया है। और यह ग्रामीण
युवती इस बड़े महानगर में आ जाएगी उसे खोजती हुई—यह तो सवाल ही नहीं उठ सकता। वह
घबड़ा गया। वह समझा कि कुछ भूल—चूक हो रही है, कोई भ्रांति हो
रही है। शायद मैं इतनी देर तक पत्र लिखता रहा, इसी—इसी की
याद करता रहा, इसी का चेहरा देखता रहा—तो शायद मेरे मन में
प्रतिमा समा गई। शायद मैं आत्मसम्मोहित हो गया हूं।
तो उसने चौंक कर देखा। उसे भरोसा नहीं
आया। उसने स्वागत नहीं किया। उसने यह नहीं कहा कि तू कब आई। वह थोड़ा सा घबड़ाया
दिखाई पड़ा, कि यह हो क्या रहा है! उसकी प्रेयसी ने पूछा: तुम
इतने घबड़ाए क्यों हो? तब तो वह बोला: अरे! तो तू बोलती भी
है! उसने कहा कि मैं यहां हूं और यहां घंटों से बैठी हूं! तब उसे होश आया। तब दौड़
कर गले लगा। तब रोने लगा बहुत और कहने लगा: यह भी हद्द हो गई! मैं तुझे ही पत्र
लिख रहा था और जीवित तू यहां मौजूद थी! साकार तू यहां मौजूद थी और मैं कल्पनाओं
में उलझा था।
मीरा यही कह रही है। मीरा कह रही है:
कोई कहियौ रे प्रभु आवन की!—कि मैं ऐसी ही उलझी न रह जाऊं। मैं ऐसे ही मन ही मन न
अपनी कल्पनाओं के जाल बुनती रहूं। मैं अपने सपनों में ऐसे ही न डूबी रहूं। अब मुझे
अपना होश नहीं है; कोई मुझे कह देना कि प्रभु आ गए, फिर आ गए! कोई मुझे जगा देना। अब मेरी हालत शराबी की है। कोई मुझे घर तक
पहुंचा देना। कोई मुझे सम्हाल लेना। और प्रभु द्वार पर खड़े हों तो कोई मुझे हिला
देना और कह देना कि वे आ गए हैं, तू अब मत रो! किसके लिए
रोती है?
कोई कहियौ रे प्रभु आवन की, आवन की, मनभावन की।
उन्होंने मेरे मन को भा लिया है।
उन्होंने मेरे मन को जीत लिया है। उन्होंने मुझे मिटा दिया है। उन्होंने मुझे अपना
निवास बना लिया है। लेकिन फिर भी कभी होते हैं, कभी नहीं होते हैं;
कभी उन्हें पाती हूं, कभी खो देती हूं। यह
खोने पाने का खेल चल रहा है।
प्रेमी चाहता है: सतत, चौबीस घंटे, जिससे प्रेम हो उसके पास रहे; जिससे प्रेम हो वह उसके पास रहे। एक क्षण को भी प्रेमी व्यवधान नहीं
चाहता। प्रेम की आकांक्षा समग्रीभूत रूप से एक हो जाने की है: तादात्म्य हो जाने
की है।
भक्त भगवान में लीन हो जाना चाहता है
और भगवान को अपने में लीन कर लेना चाहता है। दुई नहीं चाहता—यह द्वैत न बचे।
आप न आवै लिख नहिं भेजै, बांण पड़ी ललचावन की।
मीरा कहती है: यह भी बड़ा मजा है! आप
आते भी नहीं, खुद तो आता नहीं! इतना भी नहीं होता कि पाती ही लिख
भेजे। पत्र भी नहीं भेजते। और तुम्हें खूब आदत पड़ गई है मुझे ललचाने की। तुम मुझे
दूर खड़े—खड़े ललचाते हो। तुम मुझे पुकारते हो दूर चांदत्तारों से। और मैं जितनी
तुम्हारे पुकार से भर जाती हूं, मुझे लगता है तुम प्रसन्न हो
रहे हो। इधर मैं तड़पी जाती हूं, उधर तुम आनंदित हो रहे हो।
चोट पर चोट खाए
जाते हैं
और हम मुस्कुराए
जाते हैं
दाग दिल के जलाए
जाते हैं
तीरगी यूं मिटाए
जाते हैं
दर्द पर दर्द गम
पे गम देकर
राजे उल्फत
सिखाए जाते हैं
बख्श कर बेबसी ओ
मजबूरी
इख्तयार आजमाए
जाते हैं
खार फैला के
बागे हस्ती में
गुंचाओ गुल
खिलाए जाते हैं
बिजलियां गिर
रही हैं हम पे इधर
वो उधर
मुस्कुराए जाते हैं
दर्द पर दर्द गम
पे गम देकर
राजे उल्फत
सिखाए जाते हैं।
यह कैसा प्रेम का राज तुम सिखाते हो?—दर्द पर दर्द देकर, गम पर गम देकर!
मगर यही रास्ता है। प्रेम पीड़ा में से
उमगता है; पीड़ा में ही निखरता है, उज्ज्वल
होता है। पीड़ा में ही कटता है, जो—जो गलत है। पीड़ा की अग्नि
से गुजरे बिना प्रेम का सोना शुद्ध नहीं होता, शुद्ध कुंदन
नहीं बनता।
दर्द पर दर्द गम
पर गम देकर
राजे उल्फत
सिखाए जाते हैं
बख्श कर बेबसी ओ
मजबूरी
इख्तयार आजमाए
जाते हैं।
और एक तरफ तो दे दी है असहाय अवस्था—बेबसी
और मजबूरी—और फिर दूसरी तरफ हमारी परीक्षा लिए जाते हैं। इधर बना दिया असहाय—और
परीक्षा के बड़े मापदंड हैं, जिससे गुजरना असंभव मालूम होता है।
खार फैला के
बागे हस्ती में
और सारे बगीचे
में कांटे लगा दिए हैं।
गुंचाओ गुल
खिलाए जाते हैं
और इन कांटों में ही फूल को खिलने की
चुनौती है। इन्हीं कांटों में फूल को खिलना है। इन्हीं पीड़ाओं में प्रेमी को जगना
है।
ध्यान रखना धन से मिला सुख भी दुख से
बदतर है। प्रेम से मिला दुख भी धन के मिले सुख से बेहतर है। अंतिम निर्णय में
प्रेम के लिए जिसने पीड़ा झेली है वही सौभाग्यशाली है, क्योंकि जितनी पीड़ा झेलेगा उतना प्रेम का पात्र बनता जाएगा। जितनी पीड़ा
झेलेगा उतना ही शुद्ध होता जाएगा, निखरता जाएगा। पीड़ा को
जितने अहोभाव से झेलेगा, उतने ही परमात्मा के करीब होने
लगेगा।
सुख में आदमी भटक जाते हैं। तथाकथित
सुख में आदमी उलझ जाते हैं। क्षुद्र वासनाएं और क्षुद्र वासनाओं से मिले सुख आदमी
को छिछला बनाते हैं।
तुमने कभी कोई धनी और गहरा आदमी देखा? जिसके पास सब होता है, अक्सर भीतर खाली होता है;
भीतर कुछ भी नहीं होता। असल में बाहर सब इसलिए इकट्ठा करता है कि
भीतर का खालीपन किसी को दिखाई न पड़े।
जब तुम अमीर के पास जाते हो, तो अमीर को नहीं देखते; उसका मकान देखते, उसकी दुकान देखते, उसकी बाजार में प्रतिष्ठा देखते,
उसका नाम—धाम देखते, अमीर को छोड़ देते हो।
गरीब को तो गरीब को ही देखना पड़ेगा; उनके पास और तो कुछ
दिखाने को है नहीं; वही खड़ा है, नग्न,
उसी को देखना पड़ेगा।
अक्सर यह तो जाता है कि जो लोग साधारण
सुखों में जीते हैं, छिछले हो जाते हैं। रोटरी क्लब और लायंस—क्लब में
तुम्हें उस तरह के लोग मिलेंगे। छिछले! टाई इत्यादि वगैरह बिलकुल ठीक से लगा कर आए
हैं, कोट—कमीज सब बिलकुल ठीक है—मगर सब ऊपर—ऊपर; भीतर कुछ भी नहीं है। आत्मा जैसी चीज बहुत मुश्किल है। उसे खोजनी हो तो
कहीं और खोजना पड़ती है—महात्माओं में खोजनी पड़ती है; साधु—संगत
में खोजनी पड़ती है। उसे खोजनी हो तो वहां खोजनी पड़ती है। जिसने व्यर्थ की चीजों
में समय नष्ट नहीं किया है। क्योंकि आखिर समय तो सीमित है। सुविधा सीमित है। शक्ति
सीमित है। चाहो जाग जाओ, चाहे धन इकट्ठा कर लो—ऊर्जा तो वही
है। चाहे अंतर की संपदा पा लो और चाहे बाहर की संपदा पा लो—समय तो वही है। जब कोई
बाहर का धन इकट्ठा कर रहा है, तब कोई भीतर का धन इकट्ठा कर
रहा है। भीतर का धन ही असली धन है, क्योंकि मौत उसे छीनती
नहीं। बाहर का धन तो छिन जाएगा। थोड़ी देर को चमक आएगी। लोगों की आंखों को तुम
चौंधिया दोगे। थोड़ी देर को लोगों को तुम अपने प्रतिर् ईष्या से भर दोगे। लेकिन
ज्यादा देर नहीं; जल्दी ही तुम मिट्टी में पड़े होओगे और धूल
तुम्हारे मुंह में होगी। और तो तुम्हारे भीतर कुछ था भी नहीं।
मौत के समय क्या ले जा सकोगे? जिसे तुम सोचते हो बड़ा, तुम्हारी कमाई है—उसमें से
क्या ले जा सकोगे?
मैंने सुना है, एक धनी आदमी के संबंध में कि किसी फकीर ने उससे कहा कि देख, इसी धन में मत उलझा रह, मरते वक्त क्या ले जा सकेगा?
उसने कहा: छोड़ो फिकर दूसरे न ले गए हों लेकिन मैं ले जाऊंगा। फकीर
बहुत हैरान हुआ; ऐसा किसी ने कभी कहा नहीं था। उसने कहा: तू
कैसे ले जाएगा? उसने कहा: तुम देखो तो। संयोग की बात,
वह आदमी दो साल बाद मरा, तो फकीर उसके द्वार
पर पहुंच गया कि देखें वह कैसे ले जाता है! उसने इंतजाम कर रखा था, अपने नौकरों को कह रखा था कि नाव पर मुझे बिठा कर—जब मैं मर जाऊं—सारी
संपत्ति मेरी नाव पर रख देना। वही उसकी वसीयत थी। वकील और अदालत के लोग सामने
मौजूद रहेंगे, सब नाव पर रख देना—मेरी लाश भी—और बीच नदी में
जाकर नाव डुबा देना।
मगर तो भी क्या तुम ले जाओगे? वह जो डूब गई नाव, न तो उसमें तुम हो अब। ले जाने
वाला कहां है? वह तो उड़ चुका पहले। अब तुम भी वहां नहीं हो
और तुम्हारी संपत्ति वहीं गंगा में पड़ी रह जाएगी। उसे तुम ले कैसे जाओगे? ले जाने का कोई उपाय ही नहीं है। एक छोटी सी सुई भी तो न ले जा सकोगे। बड़ी
बातें तो छोड़ दो; कुछ भी न ले जा सकोगे। जो तुम्हारा शुद्धतम
भीतर हुआ है, वही तुम्हारे साथ जाएगा।
तो या तो बाहर की संपदा में उलझे रहो
और भीतर को गंवा दो; बाहर से अमीर हो जाओ, भीतर से
दरिद्र हो जाओ—या भीतर की संपदा कमा लो; भीतर से अमीर हो
जाओ। भीतर से जो अमीर है, वही अमीर है।
सौभाग्यशाली हैं वे जिनको प्रेम की
पीड़ा पकड़ती है, क्योंकि वे धीरे—धीरे भीतर से अमीर हो जाते हैं।
प्रेम खूब काटता है; जैसे मूर्तिकार पत्थर को काटता है,
छैनी लेकर, हथौड़ा लेकर लगा रहता है पत्थर पर।
निश्चित ही पत्थर रोता होगा और पत्थर सोचता होगा: जो पत्थर नहीं मूर्ति बनाए जा
रहे हैं, बड़े धन्यभागी हैं। मगर यह ऊपर की बात है। जिस दिन
मूर्ति बन जाएगी, उस दिन पता चलेगा कि जो पत्थर मूर्ति बन
गया उसमें कुछ घटा।
ऐसा हुआ कि पश्चिम का एक बड़ा
मूर्तिकार माइकलएंजलो एक दिन संगमरमर, पत्थर बेचने वाले की
दुकान पर गया। कोई पत्थर खरीदना चाहता था—कोई मूर्ति गढ़ने के लिए। कोई पत्थर उसे
जंचा नहीं। एक पत्थर सड़क के उस तरफ, दुकान की दूसरी तरफ पड़ा
था किनारे पर रास्ते के; वह कई दिन से पड़ा था। माइकलएंजलो ने
कहा: यह पत्थर किसका है? उस दुकानदार ने कहा: यह मेरा ही है;
लेकिन यह इतना अनगढ़ है कि इसे कोई लेता भी नहीं। वर्षों हम इसको रखे
रहे, जगह ही घेरे था; हमने इसे फेंक
दिया। इसमें तुम्हारी उत्सुकता है, इसे तुम मुफ्त में ले जा
सकते हो। हम चाहते हैं जगह खाली हो।
माइकलएंजलो वह पत्थर ले गया। उसने उस
पर तीन साल मेहनत की। उसमें उसने मरियम और जीसस को उभारा। कुछ दिन पहले तुमने
अखबारों में खबर पढ़ी होगी कि एक पागल आदमी ने वैटिकन के चर्च में जाकर जीसस की एक
मूर्ति तोड़ दी थी। वह वही मूर्ति थी। वह दुनिया की सर्वाधिक सुंदर मूर्ति थी।
मरियम—जीसस की मां—बैठी है; उसकी आंख से आंसू टपक रहे हैं, क्योंकि
बेटे को सूली लग गई है। और जीसस सूली से उतारे गए हैं। वह लाश लिए बैठी है। वह
अपूर्व मूर्ति थी।
जब तीन साल बाद उस संगमरमर के
दुकानदार ने वह मूर्ति देखी तो उसे विश्वास भी नहीं आया कि यह, उस पत्थर से यह मूर्ति निकल ही नहीं सकती, तुम मुझे
धोखा दे रहे हो! उस पत्थर में यह मूर्ति हो ही नहीं सकती। और तुम्हें कैसे दिखाई
पड़ा? वह अनगढ़ बेकार सा पत्थर जिसे कोई खरीदने को राजी नहीं
था, न मालूम कितने मूर्तिकार इनकार कर चुके थे, तुम्हें उसमें कैसे कुछ दिखाई पड़ा?
माइकलएंजलो ने कहा: इसमें मेरा कुछ भी
हाथ नहीं। जब मैं वहां से निकलता था तो मरियम ने मुझे, जीसस ने मुझे पुकारा, कि देखो हम यहां छिपे पड़े हैं,
हमें मुक्त करो।
यह बात बड़ी प्यारी है कि माइकलएंजलो
कहता है कि मूर्ति मैंने बनाई नहीं; वह तो मूर्ति में जो
छिपा था, उसने मुझे पुकारा कि मुझे मुक्त करो! तो मैंने कुछ
किया नहीं है; व्यर्थ जो पत्थर इसके चारों तरफ जुड़े थे,
उन्हें छांट कर अलग कर दिया है, बस। मूर्ति तो
थी ही; प्रकट हो गई है।
प्रेम ऐसे ही निखारता है, जैसे मूर्तिकार छैनी लेकर पत्थर को काटता है। पीड़ा बहुत होती है। लेकिन
पीड़ा धन्यभाग है। क्योंकि धीरे—धीरे तुम्हारी मूर्ति निर्मित होती है।
भक्त भगवान की पीड़ा में जितना जलता है
उतना ही भगवान के करीब होने लगता है। एक दिन वह घड़ी आती है कि भक्त तो विलीन हो
जाता है, भगवान ही शेष रह जाता है। भक्त तो अनगढ़ पत्थर था;
जब मूर्ति उघड़ आती है तो भगवान ही रह जाता है।
तुम सभी ऐसे पत्थर हो जिनके पीछे
भगवान छिपा है। जब मैं तुम्हें संन्यास देता हूं तो उसी आशा से संन्यास देता हूं
जिस आशा से माइकलएंजलो उस पत्थर को उठा कर ले गया था। तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह
मुझे पुकारता है—उसी की आशा से कि शायद कुछ संभावना है। चोट करनी होगी निश्चित।
खार फैला के
बागे हस्ती में
गुंचाओ गुल
खिलाए जाते हैं
बिजलियां गिर
रही हैं हम पे इधर
वो उधर
मुस्कुराए जाते हैं।
और पीड़ा बहुत होती है भक्त को कि हम
यहां मुश्किल में पड़े हैं, और तुम वहां खड़े मुस्कुरा रहे हो—आकाशों में, बादलों पर सवार, चांदत्तारों में बैठे! तुम वहां
मुस्कुरा रहे हो; यहां हम पीड़ा से जले जा रहे हैं!
लेकिन परमात्मा मुस्कुराता है, जब कोई प्रेम से जलता है। क्योंकि परमात्मा को भविष्य पता है; तुम्हें भविष्य पता नहीं है। जब कोई बीज टूटता है तो बीज को कैसे पता हो
कि वृक्ष पैदा होगा और हजारों फूल लगेंगे और पक्षी इस पर बसेरा करेंगे और घोंसले
बनाएंगे और यात्री मेरी छाया में विश्राम करेंगे। बीज जब टूटता है तो बीज को कैसे
पता हो! यह तो माली जो बैठा है किनारे और मुस्कुरा रहा है उसको पता है कि टूटो,
जल्दी टूटो!
यह तो गुरु को पता होता है कि शिष्य
जब टूट रहा है, नष्ट हो रहा है तो अपूर्व घट रहा है। शिष्य तो तड़फता
है, परेशान होता है। वह तो सोचता है यह किस झंझट में पड़ गए।
पहले ही भले—चंगे थे। सब ठीक तो था, जैसा था ठीक था। न कोई
बड़ी आकांक्षा थी, न कोई बड़ी पीड़ा थी। बड़ी आकांक्षा के साथ
बड़ी पीड़ा आती है। और परमात्मा सबसे बड़ी आकांक्षा है। इसलिए परमात्मा के साथ सबसे
बड़ी पीड़ा आती है। जो उस पीड़ा को झेलने को तैयार हैं वे ही केवल चल पाते हैं।
कोई कहियौ रे
प्रभु आवन की, आवन की, मनभावन की।
आप न आवै लिख
नहिं भेजै, बांण पड़ी ललचावन की।
ऐसा लगता है भक्त को, कि इतने खड़े हो पास, आ क्यों नहीं जाते? यह दूरी क्यों? यह दूरी बचाते क्यों हो? यह दूरी मिटा क्यों नहीं देते? मेरे तो बस में नहीं
है; तुम्हारे तो बस में है! मैं न आ सकूं तुम तक, तुम तो मुझ तक आ सकते हो! और खड़े वहां मुस्कुरा भी रहे हो, जैसे कोई घाव पर नमक छिड़के!
आप न आवै लिख
नहिं भेजै...
सांत्वना हो जाती—कुछ खबर ही भेज देते; कुछ इतना ही कह देते कि आऊंगा, कल आऊंगा, परसों आऊंगा, कुछ आश्वासन दे देते! आश्वासन भी कुछ
नहीं कि कब आओगे? आओगे भी कि नहीं आओगे, इसका भी कुछ पक्का नहीं। ऐसे दूर खड़े मुस्कुराते ही रहोगे?
लेकिन यह प्रक्रिया है। जब तक तुम
पूरे तैयार न हो जाओ, परमात्मा झलकें देता रहेगा, ताकि
तुम भूल भी न जाओ। और परमात्मा पास आएगा भी नहीं, क्योंकि जब
तक तुम तैयार नहीं हो तब तक कैसे पास आ जाए! झलक देना तो जारी रखेगा, ताकि तुम भाग ही न जाओ, भूल ही न जाओ। बुलाता भी
रहेगा, पुकारता भी रहेगा। उसका हाथ का इशारा तुम्हें अपनी
तरफ खींचता भी रहेगा। चुंबक की तरह तुम उसकी तरफ खिंचते भी रहोगे—और साथ ही मिलन
भी एकदम से नहीं हो जाएगा।
इस मिलन और विरह के बीच भक्त डोलता
है। मीरा ने इन दोनों के बीच बड़ी डुबकियां ली हैं।
ए दोई नैन कह्यौ
नहिं मानै...
मीरा कहती है कि मैं अपनी आंखों को भी
समझाती हूं कि छोड़ो, जाने दो; आंख बंद कर लो,
भूल ही जाओ इस बात को! सब अच्छा था, राजमहल था,
पद—प्रतिष्ठा थी—वह सब भी गई। जिसके लिए घर छोड़ा, वह एकदम हाथ में हाथ नहीं दे देता है। जिसके लिए परिवार छोड़ा, वह अभी भी दूर है। सब छोड़ दिया जो छोड़ा जा सकता था, कुछ
भी बचाया नहीं; फिर भी यह दूरी क्यों है? अब यह दूरी अखरती है।
हां, मीरा ने अगर सब न
छोड़ा होता तो शायद उसको एक बीच में मन में खयाल भी रहता कि मैंने अभी कुछ बचा रखा
है, इसलिए दूरी है। सब छोड़ दिया, फिर
भी दूरी है?
ए दोई नैन कह्यौ
नहिं मानै...
मीरा कहती है: अपनी आंखों को समझाती
हूं कि छोड़ो, यह किस असंभव वासना में पड़ गई मैं! यह कैसी असंभव
मांग मैंने खड़ी कर ली अपने जीवन में। यह ईश्वर को खोजने की झंझट मैंने ली क्यों?
प्रेम में पड़ना था तो बहुत थे और, प्रेम में
पड़ जाती किसी के भी; यह कृष्ण के प्रेम में क्यों पड़ी?
जो मिल सकते थे सहज, उनके प्रेम में पड़ती! जो
मिलना बहुत कठिन मालूम होता है, उसके प्रेम में पड़ी। समझाती
हूं अपने को। आंखें मानती नहीं। आंखें तो झपकती ही नहीं। आंख तो टकटकी लगाए रहती
हैं।
ए दोई नैन कह्यौ
नहिं मानै...
समझाती हूं कि रोने से क्या होगा? वह कठोर है। रोने से क्या होगा? उसका हृदय पत्थर
जैसा है। नहीं तो कभी का आ जाता! रोने से क्या होगा? लेकिन
यह है कि रोए चली जाती और वहां तुम हो कि खड़े मुस्कुराते हो।
ए दोई नैन कह्यौ नहिं मानै, नदिया बहै जैसे सावन की।
और ये आंसू हैं कि बहे चले जाते हैं।
इन पर मेरा कोई बस नहीं रहा। अब मेरे हाथ की बात नहीं है। अब मैं अवश हूं। अब मुझ
पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है।
यह अहंकार जब नियंत्रण छोड़ता है तो यह
घड़ी आती है। एक समय तक जब तक अहंकार रहता है, हम नियंत्रित होते
हैं, हमारे भीतर एक सुव्यवस्था होती है। अहंकार ने एक इंतजाम
कर रखा है, एक शैली बना रखी है। अहंकार के जाते ही अराजकता
फूट पड़ती है। पुरानी व्यवस्था गई और नई व्यवस्था तो अब आएगी जब परमात्मा उतर आए।
अहंकार के छूटते—छूटते, टूटते—टूटते भक्त बिखरने लगता है,
खंड—खंड होने लगता है। सम्हालने का कोई तत्व नहीं रह जाता। अहंकार
का पुराना केंद्र टूट गया; वह पुरानी कील उखड़ गई और नई कील
परमात्मा की अभी तक मिली नहीं। वह जो बीच का अंतराल है, वह
सर्वाधिक पीड़ा का है। वहीं आस्था की कसौटी है। वहीं श्रद्धा की परख है। अगर
श्रद्धा होगी तो ही टिक पाएगा कोई; नहीं तो लौट जाएगा। वहीं
कसौटी है कि तुम्हारे भीतर आस्था थी।
कहा करूं कछु बस
नहिं मेरो, पांख नहीं उड़ जावन की।
मीरा कहती है: पंख होते, तो मैं उड़ आती। तुमने पंख भी नहीं दिए। आकाश में थे तो मुझे पंख देते। दूर
थे तो मुझे शक्ति देते। मुझे पंख नहीं दिए, फिर यह आकांक्षा
क्यों दी आकाश को छूने की? चांदत्तारों को हाथ में लेने की
यह अभीप्सा क्यों दी?
यह भक्त का परमात्मा से विवाद है।
बहुत विवाद हैं भक्त के। भक्त ही हकदार है विवाद करने का; दूसरे को तो कोई हक भी नहीं है।
कहा करूं कछु बस
नहिं मेरो...
मैं गई, मेरा बस गया।
...पांख नहिं उड़ जावन
की।
और पंख मेरे पास नहीं हैं कि उड़ आऊं।
तुम क्यों वहां खड़े हो, तुम्हारे पास तो पंख है! तुम तो आ सकते हो! मैं असहाय,
तुम तो असहाय नहीं। मैं निर्बल, तुम तो निर्बल
नहीं। मैं पापी, तुम तो महाकरुणावान हो। मेरी हजार भूल—चूकें
हैं; मगर तुम क्षमा तो कर सकते हो! तुम तो आ सकते हो!
मीरा कहै प्रभु
कब रे मिलोगे, चेरी भइ हूं तेरे दामन की।
तेरे पल्ले को पकड़ा है। तू तो अभी पकड़
में नहीं आया, लेकिन तेरा पल्ला पकड़ में आ गया! यह बात बड़ी प्यारी
है। तेरी तो दास हूं ही, उसकी तो बात छोड़। तेरे दामन की भी
दासी हूं।
...चेरी भइ हूं तेरे
दामन की।
यह तेरा जो छोटा सा पल्ला, मेरे हाथ में, मेरी मुट्ठी में आ गया—इसकी भी गुलाम
हो गई। ऐसे यह भी सौभाग्य है कि तेरा पल्ला मेरे हाथ पड़ गया है।
पल्ला निश्चित हाथ पड़ जाता है भक्त
के। परमात्मा के मिलने में समय लगता है; लेकिन पल्ला मिल गया
तो परमात्मा भी मिलता है। पल्ला ही मिल गया तो अब देर—अबेर हो सकती है; लेकिन अब असंभावना नहीं है।
क्या अर्थ होता है परमात्मा के पल्ले
के मिलने का? वह जो कभी—कभी झलक मिल जाती है, कभी—कभी किसी शांत क्षण में एकदम सारा जगत रूपांतरित हो जाता है; अभिभूत हो जाता है प्रभु से। वृक्ष नहीं दिखाई पड़ते—वही दिखाई पड़ता है।
तारे नहीं दिखाई पड़ते—वही दिखाई पड़ता है। लोग नहीं दिखाई पड़ते—वही दिखाई पड़ता है।
ऐसे चमत्कारिक क्षण भक्त के जीवन में आने लगते हैं, जब वह
अपनी आंखें मल कर देखता है कि क्या हो रहा है! लोग खो गए—ईश्वर है! वृक्ष खो गए—ईश्वर
है! वही हरा है वृक्षों में। वही जलधारा में बह रहा है। वही आकाश में बादल बन कर
उड़ रहा है। ऐसी छोटी—छोटी खिड़कियां खुलती हैं और एक क्षण में सब रूपांतरित हो जाता
है। हम दूसरे जगत में प्रवेश कर जाते हैं। हम एक दूसरे यथार्थ में प्रवेश कर जाते
हैं। ऐसा होता है, यही पल्ला है। लेकिन फिर—फिर गिर जाते हैं
वापस अपनी दुनिया में।
ऐसे ही जैसे कोई छलांग लगाए और एक
क्षण को आकाश में उड़ जाए, फिर जमीन पर गिर पड़े। इस जमीन में हमारे पैर जमानों
से गड़े हैं। इस पृथ्वी से हमारा नाता बहुत पुराना है—जन्मों—जन्मों का है।
परमात्मा से नाता हमारा बहुत नया है। वह संबंध नया है। यह पृथ्वी की कशिश पुरानी
है। यह हमें खींच—खींच लेती है वापस।
अक्सर तुमने देखा होगा, तुम्हारे जीवन में भी ऐसे मौके आते हैं; चाहे इतने
स्पष्ट न आते हों जैसे मीरा के जीवन में आए। इतने स्पष्ट नहीं ही आएंगे, क्योंकि तुम इतने मस्त नहीं हो। लेकिन कभी ऐसे मौके जरूर आते हैं। इतना
अभागा कोई भी नहीं है पृथ्वी पर, जिसके जीवन में कभी—कभी
क्षण भर को किरण नहीं कौंध जाती। किस स्थिति में कौंधेगी, यह
कहना मुश्किल है। लेकिन ऐसा आदमी मैंने नहीं देखा जिसके जीवन में कभी कोई किरण न
कौंधती हो। भला स्वयं वह भरोसा न करे, क्योंकि उस किरण की
कोई संगति नहीं होती उसके भीतर। उसे खुद ही शक होता है कि मैंने कोई कल्पना कर ली
होगी, कि मैंने कोई सपना देखा होगा; कि
यह हो कैसे सकता है! या उसकी धारणाएं ऐसी हो सकती हैं, जिनके
यह प्रतिकूल पड़ता हो। उसकी धारणाएं ऐसी हो सकती हैं, जिसमें
परमात्मा की कोई जगह न हो, तो परमात्मा शब्द नहीं आएगा। या
उसकी धारणाएं ऐसी हो सकती हैं कि इस तरह की बातें तो केवल कल्पना—जाल हैं। तो घटना
घटेगी, वह समझा लेगा अपने को कि कल्पना का जाल है।
अमरीका में एक विश्वविद्यालय में
उन्होंने बड़ी शोध—बीन की है इस बात पर कि कितने लोगों को कभी—कभी धार्मिक अनुभव
होता है। तो बड़ी हैरानी की बात है, हम पांच आदमी में एक
आदमी को कम से कम। बड़ी संख्या है पांच आदमी में एक आदमी। बीस प्रतिशत आदमियों को
कभी—कभी झलक मिलती है। जब मैं उनका सर्वे पढ़ रहा था तो मुझे कुछ बातें खयाल में
थीं। यह जिन लोगों ने कहा कि हां, हमें कुछ अनुभव होता है,
इनमें वे भी लोग हैं जिन्हें ईश्वर पर आस्था है। वे बहुत से लोग,
जिन्होंने कहा हमें अनुभव नहीं होता, बहुत संभव
है उन्हें भी अनुभव हुआ हो, लेकिन नहीं; वे ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते। इनमें वे भी लोग सम्मिलित हैं। और
अमरीका जैसे मुल्क में, जहां चीजें बिलकुल ही तकनीकी और
वैज्ञानिक और तर्क से भर गई हैं; जहां लोगों ने अपने हृदय को
बिलकुल ही समाप्त कर दिया है; जहां हृदय धड़कता ही नहीं;
जहां लोग हृदय से बच कर निकल गए हैं, सिर्फ
खोपड़ी में जी रहे हैं—अगर वहां बीस प्रतिशत लोग कहते हैं कि उन्हें ईश्वर की कभी—कभी
झलक मिली है, तो आदिवासियों में कितनों को मिलती होगी?
दूर जंगल में बसे लोगों को कितनों को मिलती होगी? बड़ी संख्या होगी!
मेरे हिसाब से पचास प्रतिशत लोगों को
सहज ही मिलती है। यही अनुपात है हर चीज में। जैसे आधे स्त्री होते हैं दुनिया में
आधे पुरुष होते हैं—ऐसे पचास लोग झलक वाले और पचास लोग गैर झलक वाले होते हैं। यह
अनुपात है। ये दोनों एक—दूसरे को सम्हाले रहते हैं। जिसको परमात्मा की झलक मिलती
है, वह दुनिया को एकदम उजाड़ नहीं देता; क्योंकि वे जो
पचास प्रतिशत लोग हैं, वे दुनिया को बसाए रखते हैं। नहीं तो
बाजार कैसे चले, दुकान कैसे चले!
मैंने सुना है, एक कोयले का दुकानदार था। दो पार्टनर थे। एक गया एक दिन साधु—संग में और
बड़ा प्रभावित हो गया और उसने दीक्षा ले ली। वह वापस आया तो उसने अपने साझीदार को
कहा, कि अदभुत आनंद आ रहा है, अब तू भी
दीक्षा ले ले। मगर वह साझीदार सुने, कुछ बोले न। दिन बीते,
दो दिन बीते। निश्चित ही जब किसी को आनंद अनुभव होता है तो अपने
निकट को बांटना चाहता है। तुम भी मेरे पास आते हो तो कभी चाहते हो तुम्हारी पत्नी
आ जाए, पति आ जाए, बेटा आए। वह बड़ा ही
कोशिश करता था कि चल तू भई, एक दफा सुन भी तो! कुछ अदभुत
होता है।
मगर उसने कहा कि देख, अब ज्यादा मेरे पीछे मत पड़। अगर मैं भी धार्मिक हो गया तो कोयला
कौन...तौलेगा कौन कोयला! और दांडी कौन मारेगा? यह भी तो सोच!
देख रहा हूं जब से तू यह साधु—सत्संग में पड़ा है, दांडी नहीं
मार रहा है। यह दुकान चलानी है कि नहीं?
तो यह दुनिया है, यहां दुकान है। यहां आधा—आधा है हर चीज में। यहां अगर आधे लोग हृदयपूर्ण
जीते हैं, तो आधे लोग मस्तिष्क से पूर्ण जीते हैं। ये संतुलन
बनाए रखते हैं। नहीं तो संतुलन उखड़ जाए।
मेरे देखे पचास प्रतिशत लोगों को सहज
ही अनुभव होते हैं; हालांकि वे अपने अनुभवों को संगृहीत नहीं करते हैं और
भय के कारण किसी को कहते भी नहीं, कि लोग कहेंगे पागल हो गए
हो!
कल "सुमित्रा' का प्रश्न था। "सुमित्रा' काठमांडू से आई है।
उसने पूछा है कि मैं इतनी प्रसन्न कभी भी नहीं थी अपने जीवन में; ये सात दिन मेरे जीवन में अपार आनंद के दिन थे। मैं कभी हंसी नहीं जीवन
में; ये सात दिन मैं हंसती रही हूं, प्रसन्न
रही हूं, गदगद रही हूं। अब मैं डरती हूं कि लौट कर जाऊंगी तो
कहीं यह खो तो नहीं जाएगा!
यह खोने का डर क्यों पैदा होता है? यह डर इसलिए पैदा होता है कि वे लोग जो "सुमित्रा' को एक ढंग से जानते रहे हैं—यहां तो ठीक है, यहां तो
मस्तों की एक जमात है। यहां तुम न हंसो, न रोओ, तो लोग सोचते हैं कुछ गड़बड़ है! बात क्या है? लेकिन
वहां काठमांडू वापस जाएगी तो वहां दूसरे तरह के लोग हैं। उनसे तो यह यह भी नहीं कह
सकेगी कि सात दिन मैं आनंदित रही। वे कहेंगे: तुम्हारा दिमाग ठीक है? आनंद! होता रहा होगा पहले कभी सतयुग में, अब नहीं
होता! इस कलियुग में कहां आनंद! किसी जैन से कहेगी कि आनंद, वह
कहेगा: पागल हो गई हो! पहले होता था; अब पंचमकाल चल रहा है,
अब कहां आनंद! अंधेरी रात चल रही है, अब कहां
आनंद!
कहेगी कि कुछ झलकें मिलीं, कोई मानेगा नहीं। जब कोई नहीं मानेगा तो कह भी न सकेगी। कह भी न सकेगी और
प्रकट भी न कर सकेगी। दबा लेगी। थोड़े दिन में बात जो घटी थी वह स्मृति रह जाएगी।
फिर थोड़े दिन में स्मृति धूमिल हो जाएगी। साल दो साल के बाद सोचने लगेगी; ऐसी हुआ था? सच हुआ था या मैंने कल्पना कर ली थी?
क्योंकि अगर सच था तो टिकता। टिका क्यों नहीं? मन का ही भाव रहा होगा। शायद सम्मोहित हो गई थी वहां। इतने लोग प्रसन्न थे,
आनंदित थे, नाच रहे थे—उसी रौ में मैं भी बह
गई थी। नहीं तो जो तुम्हारे भीतर यहां हो रहा है, वह कहीं भी
होगा। काठमांडू में कोई अड़चन नहीं है। कहीं कोई अड़चन नहीं है। पर अड़चन इस बात से
आती है कि हम अपनी बात को प्रकट तक नहीं कर पाते हैं।
तुमने कभी सोचा कि तुम्हें ईश्वर का
अनुभव हो जाए, तुम अपनी पत्नी से जाकर कह सकोगे कि मुझे ईश्वर का
अनुभव हुआ? वह फौरन फोन करेगी पुलिस में, कि मेरे पति को कुछ गड़बड़ हो गई, पुलिस भेजो! या खबर
करेगी डाक्टर को, कि जल्दी आओ। या अपने रिश्तेदारों को
बुलाएगी, कि इनको बांधो, कि इनको कुछ
हो गया, इनको ट्रेंक्वेलाइजर वगैरह दिलवाओ, या इलेक्ट्रिक शॉक, इनको कुछ हो गया!
ऐसा हुआ, मेरे एक मित्र यहां से संन्यास लेकर काशी गए। कुछ दिन बाद उनकी खबर आई कि
मैं अस्पताल में पड़ा हूं। रही खूब मजाक! मैं आनंदित हूं, इसलिए
अस्पताल में पड़ा हूं। घर के लोगों ने जबरदस्ती अस्पताल में भर्ती करवा दिया है कि
तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं। मैं उनसे कहता हूं मुझे अनुभव हो रहा है; वे कहते हैं तुम चुप रहो, तुम बोलो ही मत, तुम शांति रखो। मैं उनसे कहता हूं कि मैं शांति के ही कारण तो आनंदित हो
रहा हूं। वे मुझे नाचने भी नहीं देते, गाने भी नहीं देते।
डाक्टर है, वह कहता है कि तुम ये गैरिक वस्त्र छोड़ो, इसी से झंझट में पड़े।
उन मित्र ने लिखा है कि मुझे लगता है
कि ये सब पागल हैं, मगर इन सबको लगता है कि मैं पागल हूं। मैं जिंदगी में
कभी इतना आनंदित नहीं था, तब मुझे किसी ने अस्पताल में भर्ती
नहीं किया। मेरे बच्चे रोते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि आप ठीक हो जाओ। और मुझे
हंसी आती है कि मैं इतना ठीक कभी था ही नहीं, जितना ठीक अब
हूं। दफ्तर के लोगों ने मुझे छुट्टी दे दी है। वे कहते हैं: तुम दोत्तीन महीने
आराम ही कर लो। क्योंकि जाकर बैठता हूं टेबल पर, प्रसन्न,
तो उनको जंचता नहीं। वही पुराना आदमी वे चाहते हैं कि चला आ रहा है,
घसीटता हुआ अपने को, सिर पर बोझ लिए हुए मरा—मराया,
किसी तरह...। वे वही आदमी देखना चाहते हैं। अब मैं क्या करूं?
मैंने उनको कहा कि तुम यहां आ जाओ। वे
आकर गए, मैंने उनको समझाया कि तुम्हें जो हुआ है, बिलकुल ठीक हुआ है। मगर काशी जैसी खतरनाक जगह में! यह काठमांडू से काशी
ज्यादा खतरनाक है! यहां काठ के उल्लू ज्यादा हैं। काशी! नहीं! तुम काशी में हो तो
सोच—समझ कर चलो। जब एकांत में निकल गए कहीं, हंस लिए। नाच
लिए कहीं एकांत में मंदिर में जाकर। या गंगा में चले गए; वहां
अपनी उछल—कूद कर लिए रेत में जाकर। मगर दफ्तर इत्यादि में अगर तुम नाचते प्रसन्न
जाओगे, इतने उदास लोग यह बरदाश्त न कर सकेंगे! और उनकी भी
अपनी व्यवस्था है। वे सोचते हैं कि यह स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक दुख है। यह
अस्वाभाविक है। कुछ गड़बड़ हो रही है। फिर उनकी भीड़ है। अस्पताल भी उनके हैं,
डाक्टर भी उनके हैं। सब उनका जाल है। तुम वहां बिलकुल अकेले हो,
तुम्हें थोड़ा सोच कर चलना पड़ेगा।
वही मैं "सुमित्रा' से कहता हूं। यह आनंद तो रह सकेगा, इसमें कोई अड़चन
नहीं है। द्वार—दरवाजे बंद करके आनंदित हो लेना। मैं काठमांडू में उतना ही उपलब्ध
रहूंगा जितना यहां हूं; जरा भी फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन इसको
अभी एकदम से प्रकट मत करने लगना। जब देख लो, आदमी को पहचान
लो कि हां अपने ही जैसा है, तब प्रकट करना; नहीं तो मत प्रकट करना। जब देख लो, आदमी को पहचान लो
कि हां अपने ही जैसा है, तब प्रकट करना; नहीं तो मत प्रकट करना। पहले जरा जांच—परख कर लेना कि है, पियक्कड़ है, तो ठीक है, तो
इससे पीने की बातें करना; निकाल लाना अपनी सब शराब इत्यादि
और प्याले फैला देना और दफ्तरख्वान बिछा देना, और होने देना
आनंद! मगर पहले गौर से देख लेना, यह आदमी किस तरह का है?
यह उन लोगों में से तो नहीं है जिनको भगवान बनाता हुशियार? अगर उनमें से है, इससे बात ही मत करना। नहीं तो यह
तुम्हें झंझट में डालेगा, क्योंकि ये लाख हैं और तुम एक हो।
अपनी मस्ती को अपने भीतर रखना। एकांत में प्रकट हो जाने देना। वृक्षों से बात कर
लेना। चांदत्तारों से बोल लेना। पहाड़—पत्थरों से कह देना। उनके पास भी हृदय है और
आदमियों से ज्यादा बेहतर है; अब भी धड़कता है।
चश्मे
साकी की तरजमानी से
जिंदगी
भर गई मआनी से।
एक
बार झलक मिल जाए तो जिंदगी में बड़ा आनंद भर जाता है।
चश्मे
साकी की तरजमानी से
उस
प्यारे की जरा सी झलक मिल जाए।
जिंदगी
भर गई मआनी से।
जहल
में बस रहा है जोमे शऊर
अलअमां
ऐसी नुक्तःदानी से।
जब भक्त को पता चलता है कि मेरे बिना
किसी ज्ञान के और परमात्मा मुझमें झलक दे दिया है, तब वह हैरान होता है
कि लोग फिर क्यों ज्ञान में उलझे हैं, क्यों शास्त्रों से
सिर फोड़ रहे हैं।
जहल में बस रहा
है जोमे शऊर।
और जिन लोगों को भी ज्ञान का घमंड है, उन्हें पता नहीं है कि अज्ञानी को मिलता है परमात्मा। सरल को मिलता है,
सीधे—सादे लोगों को मिलता है; ज्ञान—शून्य को
मिलता है। क्योंकि ज्ञान भी अहंकार का आभूषण है।
अलअमां ऐसी
नुक्तःदानी से।
हे प्रभु! ऐसे ज्ञान से मुझे बचाना, जिसके कारण अटकाव पड़ जाते हैं। मस्तों को मिलता है परमात्मा।
सब फसूने जमाल
कायम है।
इश्क की अपनी
पासबानी से
यह सारा जगत एक धुरी पर घूम रहा है।
वह धुरी है—इश्क की; प्रेम की; ज्ञान की नहीं।
चांद तारों ने नूर पाया है
एक तबस्सम की जोफसानी से।
एक ही चमक है—प्रेम की चमक, जिससे चांदत्तारों में नूर है; वृक्षों में फूल है;
आदमियों की आंखों में अर्थ है, पैरों में
नृत्य है, कंठों में गीत हैं।
जल्वाये दोस्त? रंगे हुस्ने यकीं
हिज्र पैदा है
बदगुमानी से।
सिर्फ अहंकार के अतिरिक्त और कहीं नरक
नहीं है। और जहां अहंकार गया वहां परम सौंदर्य की वर्षा हो जाती है, स्वर्ग की वर्षा हो जाती है।
हमने पाई
मुसर्रते अब दी
अपने ही सोजे
जावेदानी से
और अनंत आनंद तुम्हारे भीतर पड़ा है और
तुम उसे कहां खोज रहे हो? परमात्मा तुम्हारे भीतर खड़ा तुम्हें पुकार रहा है।
तुम्हारी और परमात्मा की दूरी ऐसी नहीं है कि तुम भीतर हो और परमात्मा वहां दूर
खड़ा है। दूरी ऐसी है कि तुम वहां दूर खड़े हो और परमात्मा तुम्हारे भीतर खड़ा
तुम्हें पुकार रहा है। क्योंकि जिस दिन तुम परमात्मा के पास आओगे, उसी दिन तुम पाओगे कि तुम अपने पास आ गए। जिस दिन तुम परमात्मा को पाओगे
उस दिन पाओगे तुमने अपने को पहली दफा पाया है।
हासिले जिंदगी
हैं वो आंसू
जो गिरे फर्ते
शादमानी से।
और जिंदगी का सारा अर्थ उन आंसुओं में
है, जो आनंद से टपकते हैं। वही काव्य है जीवन का।
हासिले जिंदगी
हैं वो आंसू
जो गिरे फर्ते
शादमानी से
पाई मर्गे खुदी
से सच्ची खुशी
नगमे उठे हैं
नोहाखानी से।
सच्ची खुशी मिली एक चीज से—पाई मर्गे
खुदी से सच्ची खुशी—जब खुदी मर गई; जब अहंकार का नाश हुआ;
जब मैं न रहा।
पाई मर्गे खुदी
से सच्ची खुशी
नगमे उठे हैं
नोहाखानी से।
और वह जो अहंकार का विसर्जन हो गया, आंसू बहे, रोना उठा—वही एक दिन गीतों में ढल जाता
है।
ये आंसू ही हैं—भजन बन गए जो मीरा के।
यह उसके आंसुओं से बहता हुआ आनंद ही है, जो भजनों में ढल गया।
मुझको कहना हो
राज की गर बात
काम लेता हूं
बेजबानी से।
राज की जो बात है वह तो चुप—चुप कही
जाती है। और उस चुप—चुप बात को शब्दों में कहने का जो करीब से करीब उपाय हो सकता
है, वह काव्य है। काव्य कम से कम बोलता है और ज्यादा से ज्यादा कहता है। गद्य
और पद्य का वही भेद है। पद्य बहुत संक्षिप्त में बोलता है—सार। और पद्य में मौन
बहुत ही करीब है; पीछे ही खड़ा है। छाया की तरह खड़ा है।
इन भजनों को तो पढ़ना ही; इन भजनों के, पंक्तियों के बीच—बीच में जो खाली जगह
है, उसको मत छोड़ जाना। शब्दों को तो समझना; दो शब्दों के बीच में जो खाली अंतराल है, वहीं मंदिर
का द्वार है।
...नदिया बहै जैसे सावन
की।
कहा करूं कछु बस
नहीं मेरो, पांख नहीं उड़ जावन की।
मीरा कहै प्रभु
कब रे मिलोगे, चेरी भइ हूं तेरे दामन की।
तेरा पल्ला तो हाथ में आ गया, अब तुम मुझे कब मिलोगे? झलक तो मिलने लगी, आलिंगन कब होगा? झलक तो मिलने लगी, हम एक—दूसरे में लीन कब हो जाएंगे। यह फासला भी अब नहीं सहा जाता।
राम नाम रस पीजै
मनुआं, राम नाम रस पीजै।
रस तो एक ही है, अमृत तो एक ही है, पीने योग्य शराब तो एक ही है—वह
"राम' है।
कल किसी ने पूछा था कि मीरा कृष्ण में
रमी है; राम का इतना स्मरण नहीं करती।
जिसमें रम जाओ—वही राम। राम का और
क्या अर्थ होता है? जिसमें रम गए—वही राम। कृष्ण मीरा के राम हैं। हर एक
को अपना—अपना राम खोजना पड़ता है। उधार राम मत लेना। उधार राम काम नहीं पड़ते। अपना
राम खोजना पड़ता है। अपना प्यारा खोजना पड़ता है। अपने ढंग से खोजना पड़ता है। अपनी
ही आंख से खोजना पड़ता है। निश्चित ही तुम्हारा प्यारा तुम्हारा प्यारा होगा।
मीरा को कृष्ण जंचे, रुचे। और अच्छा हुआ कि मीरा ने कृष्ण चुने। राम चुनती तो तुलसीदास जैसी रह
जाती—कोरी की कोरी! और दकियानूसी हो जाती।...राम बड़े चरित्रवान हैं, पर रसधार नहीं हैं। चरित्र रूखा—सूखा है। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, मगर बहुत रेगिस्तान जैसे हैं। कृष्ण का बगीचा बड़ा प्यारा है। कृष्ण को
चुना तो ये गीत पैदा हुए। कृष्ण को चुना तो यह मस्ती पैदा हुई।
मगर फिर भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
तुम राम को मत चुनना, अपनी—अपनी मौज है। किसी—किसी को रेगिस्तान खूब जंचता
है, तो रेगिस्तान में भी परमात्मा है। वह भी परमात्मा के ही
होने का ढंग है। कोई वृक्षों में है, ऐसा थोड़े ही; रेगिस्तान में भी है।
मगर मेरे हिसाब से मीरा ने अच्छा किया
जो कृष्ण चुने; नहीं तो ये प्यारे गीत से हम वंचित रह जाते। ये गीत
पैदा नहीं हो सकते थे।
तुलसीदास में काव्य तो है—आत्मा नहीं
है। और परंपरागत है; दकियानूसी है; ओछा है। क्रांति
नहीं है। न तो कबीर की क्रांति है और न मीरा का भाव है—दोनों नहीं है। इसलिए
तुलसीदास लोगों को खूब रचे—पचे। तुलसीदास की रामचरितमानस घर—घर में बैठ गई। इसलिए
बैठ गई कि दकियानूसी लोगों से तालमेल पड़ा। बात जंची लोगों को भी। लोगों की यही
धारणा थी। तुलसीदास तो लोगों के मुख हो गए। जो आम आदमी मानता है, वही तुलसीदास ने अच्छे ढंग से कह दिया। इसमें कुछ नया नहीं है। जो
तुलसीदास ने कहा है, उसमें कुछ मौलिक नहीं है।
मुझसे कई बार लोग पूछते हैं कि आप
तुलसीदास पर क्यों नहीं बोलते हैं? कभी नहीं बोलूंगा!
तुलसीदास से अपनी कोई दोस्ती! नहीं! तुलसीदास में मुझे पहुंचे हुए व्यक्ति की
प्रतीति नहीं होती—पंडित की, पुरोहित की; समाज की धारणाओं से बंधे हुए आदमी की। मौज नहीं है, बहार
नहीं है। न क्रांति की लपट है, न प्रेम की झपट है—कुछ भी
नहीं है।
कबीर पर बोलता हूं—वहां क्रांति की
लपट है। उनसे मेरे हृदय के तार जुड़ते हैं। मीरा पर बोल रहा हूं। वहां प्रेम की चमक
है। और यह व्यक्तियों का अपना अनुभव है।
तुलसीदास पंडित की तरह लिख रहे हैं; सिद्ध नहीं हैं, बुद्ध नहीं हैं। बुद्ध और सिद्ध के
दो ही ढंग होते हैं। या तो वहां से प्रेम का झरना बहेगा या क्रांति की आग बहेगी।
बस दो ही ढंग होते हैं। परंपरागत, लकीर के फकीर, दकियानूस, समाज की मान्यताओं के समर्थक, पोषक! यह ठीक है; इनका अपना काम है, ये करते रहते हैं। बाकी इनसे किसी के लिए परमात्मा का द्वार नहीं खुलता।
कबीर विराजमान हो जाएं लोगों के हृदय
में तो ज्यादा लाभ हो; मीरा पहुंच जाए तो ज्यादा लाभ हो।
राम नाम रस पीजै
मनुआं...
तो फिर राम का नाम मीरा उपयोग तो करती
है कभी—कभी। "राम' शब्द का खयाल रखना कि बहुत तरह से उपयोग किया गया है।
दशरथ के बेटे राम से मीरा का प्रयोजन नहीं है। राम से तो अर्थ है, जिसमें रम गया मन। तो ईसाई के लिए जीसस राम हैं और जैन के लिए महावीर राम
हैं, और बौद्ध के लिए बुद्ध राम हैं। जब मीरा राम की बात कर
रही है, तब भी वह कृष्ण की ही बात कर रही है—जिसमें मन रम
गया। वह राम की बात नहीं कर रही; दशरथ के बेटे से उसको कुछ
लेना—देना नहीं है।
राम नाम रस पीजै
मनुआं...
राम तो प्रतीक है परमात्मा का। राम
प्यारा नाम है। इसे तुम ऐतिहासिक राम से बांध कर छोटा मत कर देना; यह बड़ा नाम है। इसका अर्थ: अल्लाह, भगवान, ईश्वर। और इसका वही अर्थ: जिसमें तुम्हारा प्रेम है, वही तुम्हारे लिए राम।
राम नाम रस पीजै
मनुआं, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग
बैठि नित, हरि चरचा सुण लीजै।
मीरा कहती है: एक ही काम कर लो तो सब
हो जाए: तज कुसंग।
कौन है कुसंग? कुसंग वही है, जहां संसार की बात चल रही हो; और जहां संसार में उत्तेजना पैदा करने के उपाय चल रहे हों। कुसंग का यह
अर्थ वही है। कुसंग का अर्थ यह नहीं है कि जहां हत्यारे बैठे हों। कुसंग का अर्थ
यह है कि लोग बैठे हैं और लोग बातें कर रहे हैं कि धन और कैसे कमाया जाए; कि लोग बातें कर रहे हैं कि इस बार चुनाव में तो हार गए, अगली बार कैसे जीता जाए; कि इस बार तो दिल्ली जरा
दूर पड़ गई, अगली बार कैसे उसको पास बनाया जाए; कि इस बार तो दिल्ली पहुंच गए, अब अगली बार भी कैसे
वापस पहुंचा जाए—इस तरह की जहां बात चल रही है।
कुसंग का मतलब यह होता है: जहां संसार
की, क्षुद्र की बात चल रही है—धन, पद—प्रतिष्ठा कैसे पाई
जाए। कुसंग का अर्थ होता है: जहां लोग क्षुद्र को ही पूछते हैं। तुमने देखा,
गए रोटरी—क्लब, लोग पूछते हैं: अरे, यह कोट कब बनाया, कहां बनाया, किस
दर्जी से बनवाया? यह भी कोई बात है? यह
कुछ पूछने की बात है?...कि यह साड़ी कहां से खरीदी? तो लोग यही कर रहे हैं। कपड़े—लत्ते पहन कर पहुंच गए हैं, गहने—जवाहरात पहन कर पहुंच गए हैं। और ये सब क्लब इत्यादि इसी काम के लिए
हैं, जहां सब अपनी—अपनी प्रदर्शनी कर दें, तो एक—दूसरे को सब देख लें कि किसके पास क्या है, किसके
पास क्या नहीं है। और फिर दौड़ में लग जाएं लौट कर घर, कि
फलां एयरकंडीशंड कार ले आया, अब मारे गए!
मैं एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन के साथ
उसकी कार में उसके घर तक गया। गर्मी के दिन, भयंकर धूप! मैंने
उससे दो—चार बार कहा भी कि सांस घुटी जाती है, कांच क्यों
नहीं उतारते? उसने कहा: रहने भी दीजिए! क्या मेरी बदनामी
करवानी है मोहल्ले में कि मेरे पास एयरकंडीशंड कार नहीं है? मर
जाएं भला! झेल लेंगे तकलीफ, मगर मोहल्ले वालों को यह खयाल
पैदा नहीं होने देंगे कि कार एयरकंडीशंड नहीं है।
अब कांच कैसे खोलें! हवा आ सकती है, उसको भी नहीं ला सकते हैं!
कुसंग का अर्थ है: जहां क्षुद्र की
बात चल रही है; जहां लोग उतनी ही बात करते हैं जितनी सुबह अखबार में
पढ़ लेते हैं। वह कुसंग है। जहां लोग बात करते हैं: कौन सी फिल्म चल रही है,
किस सिनेमा में चल रही है, कौन सी अच्छी है,
कौन सी बुरी है—वह कुसंग है।
सत्संग का क्या अर्थ है?—हरि चरचा सुण लीजै—जहां परमात्मा की याद होती है। जहां लोग बैठ कर उसके
गुण गाते हैं। जहां उसका गीत सुनते हैं। जहां थोड़ी देर को अपने हृदय को उसके प्रति
खोलते हैं।
जमा सब हुस्ने
कायनात करो
इश्के जल्वा तलब
की बात करो।
कुछ उसकी बात हो! कुछ उस प्यारे की
बात हो! कुछ उसके जल्वे की बात हो! कुछ उसके सौंदर्य की बात हो!
जमा सब हुस्ने
कायनात करो
और उसका सौंदर्य ऐसा है कि तुम अगर
सारे विश्व का सौंदर्य भी इकट्ठा कर लो, तो उससे छोटा है।
इश्के जल्वा तलब
की बात करो
शाहिदे नौ से
इश्के ताजा करो।
उस नये प्रीतम
की बात करो।
इस दुनिया में तुमने बहुत प्यारे जाने, बहुत प्रीतम जाने—सब कचरा साबित हुए। तो कहती है न मीरा कि तेरे देश में
साध नहीं हैं! लोग बसैं सब कूड़ो। तेरी दुनिया में राणा बस कचरा ही, कूड़ा लोग रहते हैं और वहां साधु नहीं हैं! इसलिए मेरा मन वहां नहीं लगता।
मेरा मन तेरे देश में नहीं लगता। सुंदर है देश तेरा, लेकिन
आत्मा नहीं है। वहां साधु नहीं है।
शाहिदे नौ से
इश्क का ताजा करो
अज सरे नौ
तकल्लुफात करो।
फिर नये सिरे से परमात्मा से प्रेम
जुड़े जहां! नये प्यारे की बात हो! नये प्रेम के अंकुर उगें! नई फसल काटने की
तैयारी हो!
खेल के अब जहान
के गुजरो,
आओ कुछ तलफ
तजरुबात करो।
अब जिंदगी का खेल बहुत देख लिया, अब कुछ और अनुभव में उतरो—कुछ और गहरे अनुभव में। कड़वे भी होंगे वे अनुभव
शुरू में, फिर बहुत मीठे हो जाते हैं।
संसार और परमात्मा की परिभाषा में एक
खयाल रखना: संसार के अनुभव शुरू में मीठे, फिर कड़वे हो जाते
हैं। परमात्मा के अनुभव शुरू में कड़वे, फिर मीठे हो जाते
हैं।
ये हकीकत तो रोज
मिटती है
इसको नजरे
तवाहुम्मात करो।
यह क्या बकवास लगा रखी है अखबारों की? यह क्या बातें कर रखी हैं, धन—पैसे की, पद—प्रतिष्ठा की?
यह हकीकत तो रोज
मिटती है
इसको नजरे
तवाहुम्मात करो।
छोड़ो इसे! इसको
आंख से ओझल होने दो।
जिंदगी कर रही
है मानी तलब
इश्क को मकसदे
हयात करो।
और जिंदगी खड़ी पूछ रही है कि तुम्हारी
जिंदगी का अर्थ क्या है?—यही कि कितना धन तिजोड़ी में है?
जिंदगी कर रही
है मानी तलब
परमात्मा पूछेगा: तुम्हारी जिंदगी का
अर्थ क्या है? अर्थ कहां है? तुम्हारा गीत
कहां है? जिसे तुम्हें गाने भेजा था वह गा सके कि नहीं?
मगर फुर्सत कहां मिली! तुम कहोगे:
अखबार पढ़ते रहे। पहले लोग भगवतगीता पढ़ते थे, सुबह, अब अखबार पढ़ते हैं। भगवतगीता पढ़ना सुंदर था; शायद
कभी किसी क्षण में कोई बात चोट कर जाती। पहले लोग कुरान पढ़ते थे, अब अखबार पढ़ते हैं। कुरान पढ़ना सुंदर था। वह तरन्नुम भी सुंदर है। वह छंद
भी प्यारा है। वह चोट कुछ जगा सकती है। तुम्हारे सोई वीणा के तार कंप सकते हैं।
जिंदगी कर रही
है मानी तलब
इश्क को मकसदे
हयात करो।
और जिंदगी में एक ही अर्थ हो सकता है—एक
ही अर्थ की संभावना है कि तुम्हारा प्रेम जगे। और प्रेम उतना ही होता है जितना बड़ा
प्यारा हो। प्यार ही करना हो तो बड़े से करना, विराट से करना।
क्षुद्र से प्रेम किया, क्षुद्र हो जाओगे। तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी परिभाषा बनता है। तुमने जिससे प्रेम किया, अंततः
तुम वही हो जाओगे। तुमने देखा, मीरा अंततः कृष्ण की मूर्ति
में समा गई। अक्सर लोग रुपये में, नोट में समा जाते हैं।
खतम! सौ के नोट में समा गए, समाप्त हो गए! अक्सर लोग वही हो
जाते हैं जो खोजते हैं, वहीं समा जाते हैं।
तुम मीरा पर भरोसा नहीं करते। मगर मैं
मानता हूं कि यह बात तो सभी के संबंध में सच है। लोग वहीं समा जाते हैं जो उनका
प्रेम है। कोई कामवासना में समा जाता है। कोई धन—वासना में समा जाता है। कोई
अहंकार में समा जाता है। लोग वहीं समा जाते हैं, तुम्हारा प्रेम ही
अंततः तुम्हारा घर बन जाता है।
जिंदगी कर रही
है मानी तलब
इश्क को मकसदे
हयात करो।
देखो तुम खुद हो
मतलाए अनवार
रोजे रोशन
अंधेरी रात करो।
तुम्हारे भीतर बड़ी रोशनी पड़ी है, उसे जगाओ। जहां यह बात होती हो, वह सत्संग। जहां यह
याद तुम्हें बार—बार दिलाई जाती हो कि तुम्हारे भीतर रोशनी पड़ी है, इसे जगाओ; तुम दीये हो, क्यों
बुझे पड़े हो? तुम्हारी क्षमता है सूरज बनने की, कम से कम दीया तो बनो! तुम्हारे भीतर बड़ी सुगंध पड़ी है, तुम कहां खोज रहे हो? कस्तूरी कुंडल बसै! और तुम
कहां—कहां भटक रहे हो और तुम्हारी नाभि में कस्तूरी पड़ी है, वहीं
से गंध आ रही है। जहां यह बात होती हो—जहां यह बात ही न होती हो जहां यह घटना धीरे—धीरे
घटने लगे—वही सत्संग है। वही है हरि—चर्चा।
काम क्रोध मद
मोह लोभ कूं, चित्त से बहाय दीजै।
मीरा के प्रभु
गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजै।
जहां प्रभु के रंग में रंगे जाते हो, वहां सत्संग है। वहां जाओ। उस रस में डूबो। उसी रस में डूबोगे तो उबरोगे।
संसार में डूबे तो खो जाओगे।
दरस बिन दूखन
लागे नैन।
और मीरा कहती है: अब तो आंखें भी
दुखने लगीं। पलक नहीं झपती, देखती ही रहती हूं टकटकी लगाए द्वार पर कि कब आओ,
कब आओ, कब आओ—पता नहीं कब आ जाओ—दिन कि रात,
सुबह कि सांझ...।
दरस बिन दूखन
लागे नैन।
जब के तुम
बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहु न पायो चैन।
वे जो झलकें मिल
गई हैं, बड़ी मुश्किल कर रही हैं।
जब के तुम
बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहु न पायो चैन।
जब से तुम्हें देखा, जब से तुम्हें थोड़ा छुआ, तुम्हारा स्वाद लिया,
तुम्हारा अरस—परस हुआ—कबहुं न पायो चैन—फिर चैन नहीं मिला है। फिर
रो ही रही हूं, फिर पुकार ही रही हूं।
सबद सुने मेरी
छतिया कांपै, मीठे—मीठे बैन।
वे जो तुम्हारे प्यारे शब्द सुने थे, उनकी ध्वनि भी मुझे कंपा जाती है, मेरी छाती कंपती
है।
विरह कथा कांसू
कहूं सजनी...
और मीरा कहती है: किससे कहूं यह अपनी
प्राणों की पीड़ा! कोई समझेगा नहीं। इसको समझने वाला वही हो सकता है, जो इसमें जल रहा हो।
विरह कथा कांसू
कहूं सजनी...
हे मेरी सखी! मैं किससे कहूं जाकर यह
अपने प्राणों की तकलीफ, यह पीड़ा, यह जलती आग, यह प्यास—कोई इसे समझेगा नहीं!
...बह गई करवत ऐन।
वह परमात्मा का जो संस्पर्श क्या हुआ, जैसे आरी से कोई हृदय को काट गया, ऐसी मेरी हालत हो
गई है। मैं टुकड़े—टुकड़े हो गई हूं।
कल न पड़त तल हरि
मग जोवत...
बस रास्ता देखती हूं। जरा भी कल नहीं
पड़ता। बस रास्ता ही जोहती रहती हूं। आंखें द्वार पर ही टिकी हैं।
...भइ छमासी रैन।
और दुख के ये क्षण, विरह के ये क्षण बड़े लंबे हो गए हैं! एक—एक रात छह—छह महीने लंबी मालूम
पड़ती है।
दुनिया की हकीकत
से हरगिज इंकार नहीं मुझको लेकिन
हर दम के बिगड़ने—बनने
से तसकीन नहीं आराम नहीं
अब दीदाओ दिल
मुलताशी हैं इस हाजरो नाजरहस्ती के
जिसका न कोई
आगाज कहीं और कोई कहीं अंजाम नहीं
जो दूर हो तो एक—एक
घड़ी सदियों के बराबर होती है,
जो पास हो तो
कुछ अपने लिए ये सुबह नहीं ये शाम नहीं।
प्रेमी पास हो, साधारण जगत में भी प्रेमी पास हो, तो समय मिट जाता
है। ज्यादा देर नहीं मिटता यह समय, क्योंकि साधारण प्रेमी
कैसे समय मिटा देगा! लेकिन परमात्मा का अनुभव शुरू हो जाए तो समय के बाहर उतरना
शुरू हो जाता है। जितनी देर को परमात्मा में होता है भक्त, उतनी
देर समय में नहीं होता, संसार में नहीं होता। और फिर जितनी
देर परमात्मा में नहीं होता, उतनी देर ऐसे तड़फता है जैसे
मछली सागर के बाहर किनारे पर पटक दी गई हो—जलती धूप में आग जैसी रेत पर तड़फती हो।
और पीड़ा के क्षण लंबे हो जाते हैं।
कल न पड़त तल हरि
मग जोवत, भइ छमासी रैन।
मीरा के प्रभु
कब रे मिलोगे, दुख मेटन, सुख दैन।
मीरा कहती है: बस एक ही पुकार, एक ही पुकार श्वास—श्वास में, धड़कन—धड़कन में है,
एक ही आकांक्षा कि कब मिलोगे! अब कब मिलना होगा! अब फिर मिलना कब
होगा! भक्त की यही प्रार्थना है और यह प्रार्थना एक दिन पूरी होती है। पुकारता ही
जाता है भक्त। एक ऐसी घड़ी आती है कि पुकार ही रह जाती है, भक्त
नहीं रह जाता। प्यासा ही रह जाती है, प्यासा नहीं बचता। और
जिस दिन प्यास ही बची, प्यासा नहीं बचा, उसी क्षण पूर्णता हो जाती है। उसी क्षण क्रांति घट जाती है। उसी क्षण
पर्दा गिर जाता संसार पर और पर्दा उठ जाता परमात्मा पर।
कोई कहियौ रे
प्रभु आवन की...
मीरा कहती है: मुझे तो कुछ होश हवास
नहीं है। मैं तो रोने में पड़ी हूं, अगर वे आ जाएं,
उन पर पर्दा उठ जाए तो कोई मुझे खबर कर देना।
दुनियां ही बदल जाती है मेरी जब उनकी
इनायत होती है
मिट जाते हैं दिल के गम सारे राहत ही
राहत होती है
आते हैं नजर सब अपने ही यां कोई गैर
नहीं होता
सब दिल की कदूरत मिटती है उल्फत ही
उल्फत होती है
कुछ ऐसा अपनी आंखों में बस जाता है
नूरे हुस्न—ए—अजल
हर वक्त निगाहों में रक्सां एक मोहनी
सूरत होती है
दुख है तो यही मस्ती अपनी कायम नहीं
होने पाई है
एहसासे दुई जब होता है बेहद ही कुल्फत
होती है।
जिस दिन से परमात्मा की पहली झलक
मिलती है, उस दिन से असली तकलीफ शुरू होती है, असली कांटा चुभता है।
दुख है तो यही मस्ती अपनी कायम नहीं
होने पाई है।
मस्ती आती—जाती है, कायम नहीं हो पाई है।
एहसासे दुई जब होता है बेहद ही कुल्फत
होती है
और जब भी यह खयाल आता है कि हम अभी भी
परमात्मा से दूर हैं, जब कि उसमें हो सकते हैं, क्योंकि
एक दफा होकर जान लिया—तो बड़ा दुख होता है, बड़ी बेचैनी होती
है।
कुछ ऐसा अपनी आंखों में बस जाता है
नूरे हुस्न—ए—अजल
एक बार देख लिया उस अपार सौंदर्य को
तो वह ऐसा आंखों में बस जाता है!
हर वक्त निगाहों में रक्सां इक मोहनी
सूरत होती है।
फिर एक मोहनी सूरत आंखों में नाचती ही
रहती है।
और कृष्ण से प्यारी सूरत कहां खोजोगे!
मीरा ने ठीक प्यारा खोजा; प्यारे की ठीक प्रतिमा खोजी। और मीरा मगन होते—होते
एक दिन उसी मूर्ति में खो गई।
भक्ति में तुम्हें रस आता हो तो जैसे
मीरा ने दामन पकड़ लिया कृष्ण का, तुम मीरा का दामन पकड़ लो। जो
मीरा को हुआ वह तुम्हें भी हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना, भक्ति
तुम्हारे लिए सहज हो—तो ही। असहज को मत चुन लेना। दो ही मार्ग हैं—ध्यान और प्रेम।
प्रेम सहज हो तो मीरा का रास्ता चुन लेना और ध्यान सहज हो तो बुद्ध का रास्ता चुन
लेना। बस दुनिया में दो ही धर्म हैं, क्योंकि दो ही तरह के
लोग हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यही है—निर्णय—कि तुम्हारे लिए किसमें रस है। और
किसी कारण को ध्यान मत देना, सिर्फ अपने रस को ध्यान देना।
मेरे पास कुछ दिन पहले किसी सज्जन ने
आकर कहा, कि मुझे रस तो नाचने में, भजन
में आता है, लेकिन वह मेरी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है। तो
सीखना मैं ध्यान चाहता हूं।
अब यह अड़चन में पड़ जाएगा आदमी। यह ऐसी
कोशिश कर रहा है जिससे यह भटकेगा, परेशान होगा, पहुंचेगा नहीं। और कोई कारण से मत सोचना; बस एक ही
बात पर्याप्त है सोचने के लिए—जो तुम्हारे हृदय में रम जाए; जो
तुम्हें जंचे; जिससे तुम्हारे हृदय का फूल खिले; जिसकी बात सुनते ही तुम्हारे भीतर एक कंपकंपी दौड़ जाती हो, रोमांच हो जाता हो—बस वही तुम्हारे लिए है। फिर सब चिंता छोड़ कर उस पर चल
पड़ना। यहां खोने को कुछ भी नहीं है—पाने को परमात्मा है। इसलिए क्या खो जाएगा,
इसकी बहुत फिकर मत करो। ध्यान रखो उस पर जो मिलने को है—वह अमोलक
निधि! वह राम रतन धन!
आज इतना ही।
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