मैंने राम रतन धन पायो
सूत्र:
मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
करि करिपा अपनायो।
जनम—जनम की पूंजी पाई, जग में
समय खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन दिन
बधत सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर
तरि आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरखि—हरखि
जस गायो।।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै,
लोग बसैं सब कूड़ो।
गहना—गांठी राणा हम सब
त्यागा,
त्यागो कर रो चूड़ौ।
काजल—टीकी हम सब त्यागा, त्याग्यो
छै बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, वर पायो
छै पूरो।।
मेरा मन रामहि राम रटै रे।
राम नाम जप लीजै प्रानी, कोटिक पाप
कटै रे।
जनम—जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत
फटै रे।
कनक कटोरे इम्रत भरियौ, पीवत कौन
नटै रे।
एक प्रसिद्ध डेनिश
लोककथा है; डेनमार्क के बड़े विचारक और दार्शनिक सोरेन कीर्कगार्ड को बहुत प्यारी थी।
कथा का सार—संक्षिप्त ऐसा है:
एक महासम्राट—और प्रेम में पड़ गया एक साधारण
युवती के। अति साधारण स्त्री और बड़ा सम्राट! अड़चन कुछ भी न थी। सम्राट आज्ञा दे—स्त्री
भी प्रसन्न होगी,
उसका परिवार भी आह्लादित होगा; यह तो उनका
सौभाग्य होगा। आज्ञा भर की बात थी कि स्त्री उसकी हो जाएगी। लेकिन सम्राट विचार
में पड़ा। विचार यह कि मेरे कहते ही ये युवती मेरी तो हो जाएगी, लेकिन मेरे और इसके बीच फासला इतना है कि यह कभी भूल न पाएगी कि मैं
साधारण हूं और मेरा प्यारा महासम्राट है! यह दूरी मिटेगी कैसे? मैं कहूंगा तो विवाह कर लेगी। अनुगृहीत होगी, आनंदित
होगी, अहोभाव से भरेगी, जीवन भर
धन्यवाद करेगी; लेकिन प्रेम कैसे पैदा होगा? अनुग्रह का भाव ही तो प्रेम नहीं। धन्यवाद ही तो प्रेम नहीं! दूरी इतनी
होगी कि प्रेम होगा कैसे? सेतु कैसे बनेगा? संबंध कैसे जुड़ेगा?
बहुत विचार में सम्राट पड़ा। कुछ भी करना तो
होगा। राह तो खोजनी होगी। उसने जो राह खोजी, सोचने जैसी है। अंततः उसने निर्णय
किया कि मैं सम्राट होना त्याग दूं; मैं सम्राट न रह जाऊं;
मैं साधारण आदमी हो जाऊं। फिर कुछ फासला न रहेगा। फिर अनुग्रह की
बात न होगी; फिर प्रेम की बात होगी।
लेकिन एक जोखिम थी और जोखिम बड़ी थी। जोखिम
यह थी कि सारा देश तो मुझे पागल कहेगा ही। शायद ही कोई समझे इस बात को। वे सभी
कहेंगे: स्त्री चाहिए थी,
आज्ञा की जरूरत थी; एक क्या, हजार स्त्रियां तैयार थीं। इसके लिए राज्य छोड़ने की क्या जरूरत थी?
लोग मूढ़ समझेंगे, पागल समझेंगे। लेकिन यह भी
कोई बड़े खतरे की बात न थी। बड़ा खतरा यह था कि हो सकता है वह स्त्री भी यही समझे कि
यह आदमी पागल है। और भी खतरा यह था, जोखिम यह थी कि हो सकता
है वह स्त्री सम्राज्ञी होने का अवसर चूक गई, इस क्रोध में
मुझसे विवाह करने को भी इनकार कर दे। ऐसी जोखिम थी।
फिर भी सम्राट ने जोखिम उठाई। उसने कहा कि
प्रेम के लिए सब जोखिम उठानी जरूरी है। यह जोखिम भी उठानी जरूरी है कि राज्य भी
जाए, प्रतिष्ठा भी जाए; और यह भी हो सकता है कि वह स्त्री
भी जाए। यह सारी जोखिम उठानी जरूरी है, लेकिन प्रेम के लिए
रास्ता बनाना आवश्यक है।
प्रेम के मार्ग पर भी खोना ज्यादा नहीं है।
प्रेम के मार्ग पर सब खोया जा सकता है, क्योंकि प्रेम ऐसा अपूर्व धन है।
और यह तो कहानी एक सम्राट की एक साधारण
स्त्री के प्रेम की है। जब कोई परमात्मा के प्रेम में पड़ता है, तब तो बात
बिलकुल उलटी हो जाती है। खोने को तो हमारे पास कुछ नहीं होता और पाने को सब कुछ
होता है। सम्राट के पास खोने को सब कुछ था और पाना कुछ पक्का नहीं था। परमात्मा के
साथ तो बात उलटी है। हमारे पास खोने को है क्या? ना—कुछ! और
जोखिम तो कोई भी नहीं है। सब कुछ मिलने का द्वार खुलता है। फिर भी लोग कदम नहीं
उठा पाते हैं। फिर भी लोग इस यात्रा पर नहीं निकल पाते हैं। क्योंकि जो भी हमारे
पास है—क्षुद्र ही सही, क्षणभंगुर ही सही—हमने उसमें ही सब
कुछ मान लिया है। वह हमारी मान्यता है। पद है, प्रतिष्ठा है,
धन है, परिवार है, सुरक्षा
है, सुविधा है—उसको हमने सोच रखा है बहुत कुछ है। सोची हुई
बात है, मानी हुई बात है; है कुछ भी
नहीं। एक सपना है, जो हमने देखा है। सत्य से उसका कोई तालमेल
नहीं है।
और मौत सब छीन ही लेगी। कितना ही पकड़े रहो, एक दिन
छोड़ ही देना होगा; लुट ही जाएगा यह सब। फिर भी परमात्मा के
मार्ग पर हम, जहां सब मिलने को हो और कुछ भी खास छोड़ने को
नहीं, वहां भी साहस नहीं कर पाते। हमारा बुद्धि—दौर्बल्य
अपूर्व है!
मीरा ने सब छोड़ा तो सब पाया। सब छोड़ने वाले
ही सब पाते हैं। रत्ती भर भी बचाया तो उतनी ही अड़चन हो जाएगी।
रवींद्रनाथ की एक छोटी सी कविता है। एक
भिखारी सुबह अपने घर से निकला भीख मांगने। पूर्णिमा का दिन था। कोई धर्मोत्सव था
और उसे बड़ी आशा थी: आज बहुत मिलेगा। जैसा भिखारी करते हैं, अपने घर
से जब चलने लगा तो झोली में उसने थोड़े से चावल के दाने डाल लिए थे। जब भिखारी
मांगने जाता है तो अपनी थाली में थोड़े से पैसे खुद ही डाल लेता है। उससे देने वाले
को सुविधा होती है। नहीं तो देने वाले को ऐसा लगता है कि इसको किसी ने तो दिया
नहीं तो मैं ही पहला नासमझ इसके चक्कर में पड़ रहा हूं। कोई और लोग दे चुके हैं,
थाली में पैसे पड़े हैं, तो फिर इनकार करने में
कठिनाई होती है, क्योंकि कुछ और लोग दया कर चुके; इतना कठोर तो मैं नहीं हूं कि एकदम इनकार ही कर दूं। तो सभी भिखारी इतनी
होशियारी रखते हैं। वह उनके धंधे का नियम है; कुछ न कुछ लेकर
चलते हैं घर से; अपना ही लेकर चलते हैं।
तो झोली में उसने थोड़े से चावल के दाने डाल
लिए हैं। झोली बिलकुल खाली हो तो कोई डालने को भी राजी नहीं होता; थोड़ी भरी
हो तो कोई डालने को भी राजी होता है। आदमी भिखारी को थोड़े ही देते हैं—अपनी
प्रतिष्ठा के लिए देते हैं; अपने अहंकार के लिए देते हैं।
जैसे ही भिखारी राह पर आया है, वह तो
चकित हो गया। उसने देखा कि सम्राट का रथ आ रहा है। सम्राट के द्वार से ही लौटा
दिया जाता था, महल के भीतर, महल में तो
प्रवेश का मौका ही नहीं था। सम्राट के सामने झोली फैलाने का तो सौभाग्य कभी नहीं
मिला था। सोचा: आज धन्यभाग! आज तो भर जाऊंगा। अब शायद भीख मांगने की जरूरत भी न
होगी। सम्राट चला आ रहा है; द्वार पर जाने की जरूरत नहीं है;
मेरे ही द्वार पर जैसे आ गया है।
धूल उड़ाता हुआ रथ उसके पास ही आकर खड़ा हो
गया। सम्राट रथ से नीचे उतरा, तब तो भिखारी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। समझ भी न
पाया कि अब क्या करूं! भूल ही गया कि झोली फैलाऊं। एक क्षण को ठिठक गया। और इसके
पहले कि कुछ करता; सम्राट ने अपनी झोली उसके सामने फैला दी।
और सम्राट ने कहा: क्षमा करना, ज्योतिषियों ने कहा है कि आज
मैं सुबह—सुबह निकलूं रथ पर और जो पहला आदमी मिल जाए, उससे
भीख मांगूं, तो इस राज्य पर आने वाला एक संकट टल सकता है,
नहीं तो यह राज्य महासंकट में पड़ेगा। तुम ही पहले आदमी हो। मैं
जानता हूं कि तुम भिखारी हो; तुम्हारी झोली सब कह रही है।
तुमने सदा मांगा है, दिया कभी भी नहीं—यह भी मुझे पता है।
देना तुम्हें बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन आज यह करना ही होगा।
क्योंकि यह प्रश्न पूरे साम्राज्य का है। इनकार मत कर देना; कुछ
भी दे देना, जो भी देना हो दे देना। एक चावल का दाना दोगे तो
भी चलेगा।
भिखारी अपनी झोली में हाथ डालता है। कभी
उसने दिया तो था ही नहीं। देने की तो कोई आदत ही न थी। देने का संस्कार ही न था।
मांगा! मांगा! मांगा! जन्मों—जन्मों का भिखारी था। मुट्ठी बांधता है और खोल लेता
है। बांधता है और खोल लेता है। हिम्मत नहीं पड़ती। सम्राट कहता है कि अवसर चूका
जाता है। यही तो मुहूर्त है; तुम इनकार तो न कर दोगे? देखो
इनकार मत कर देना।
तब उसने बहुत हिम्मत करके एक चावल का दाना
निकाला और सम्राट की झोली में डाल दिया। सम्राट चढ़ा रथ पर, स्वर्ण—रथ
धूल उड़ाता हुआ चला गया। भिखारी धूल में दबा खड़ा रहा और सोचने लगा: यह भी खूब रही!
सम्राट से कभी तो मिलना हुआ, मांगने का सौभाग्य था, वह भी गया। उसकी तो छोड़ो कि कुछ मिला नहीं, अपने पास
का भी एक दाना गया।
उस दिन उसे दिन में बहुत दान मिला, लेकिन वह
एक दाना खटकता रहा—दिन भर!
खयाल करना मनुष्य का मन ऐसा है: जो मिलता है
उसकी हम चिंता नहीं लेते;
जो नहीं मिला, या जो खो गया, उसकी फिकर में लगे रहते हैं। एक पैसा तुम्हारा गिर जाए तो दिन भर याद आती
रहती है।
जैसे तुम्हारा कभी एक दांत टूट जाता है तो
जीभ वहीं—वहीं जाती है। ऐसे सदा से था, तब कभी न गई थी; आज टूट गया तो वहीं—वहीं जाती है। जो हैं उन पर नहीं जाती; जो नहीं है उस पर जाती है। ऐसा मनुष्य का मन है।
वह दिन भर मांगा भी, मिला भी
बहुत; ऐसा कभी न मिला था—लेकिन इसमें उसे कुछ रस न था;
उसे बार—बार वही सुबह की घटना याद आती। अपने हाथ से एक दाना देना
पड़ा! एक तो अवसर मिला था कि मांग लेता, वह भी गया; उलटा अपने पास से भी कुछ गया!
उदास लौटा। सांझ जब आया पत्नी तो बहुत
आनंदित हुई: इतनी झोली उसकी कभी न भरी थी; लबालब भरी थी। पत्नी तो बहुत
आनंदित हुई, आह्लादित हुई। उसने कहा: धन्यभागी हैं हम,
आज तो हमें खूब मिला! उसने कहा: छोड़ तुझे क्या पता कि आज कितना हमने
गंवाया है! एक तो सब कुछ मांग लेता सम्राट से, वह गया। उसने
सारी कथा कही। और पास का एक दाना भी गया।
उदास मन उसने झोली उंडेली और दोनों चकित खड़े
रह गए। उन चावल के दानों में एक दाना सोने का हो गया था। तब वह छाती पीट कर रोने
लगा। दिन भर तो रोया था उस दाने के लिए; अब छाती पीट कर रोने लगा कि यह तो
बड़ी भूल हो गई: अगर मैंने सारे ही दाने सम्राट की झोली में डाल दिए होते, तो सारे ही दाने सोने के हो गए होते।
यह कविता प्रीतिपूर्ण है और बड़ी सूचक। जितना
हम देते हैं,
उतना ही सोना हो जाता है। जितना हम रोक लेते हैं, उतना ही मिट्टी हो जाता है। जो जितना रोकेगा उतना मिट्टी में जाएगा। जो
जितना देगा उतना स्वर्णमय होता जाएगा। जो सब दे देता है, उसका
सभी स्वर्णमय हो जाता है।
मीरा ने सब दे दिया। दिया तो राम रतन धन
पाया। कुछ भी नहीं बचाया! कुछ भी नहीं बचाया! यह दोष कोई भी नहीं दे सकेगा मीरा को
कि कुछ भी बचाया। सब दे दिया।
सब देते ही क्रांति घटित होती है। उसके पहले
क्रांति घटित ही नहीं होती। जरा सा भी बचाया तो उतना तुम्हारा परमात्मा पर संदेह
है।
बचाने का मतलब क्या होता है? बचाने का
मतलब होता है: क्या भरोसा, कल देगा कि नहीं देगा! बचाने का
मतलब होता है: होशियारी से काम लो, पता नहीं परमात्मा है भी
या नहीं!
मोहम्मद कहते थे: वही साज—संवार रखता है!
वही फिकर लेता है! हम क्यों फिकर करें? तो दिन भर में जो भी मिलता था,
सांझ बांट देते थे। रात बिलकुल भिखारी होकर सो जाते थे। दूसरे दिन
सुबह फिर कोई न कोई द्वार आ जाता। जब मरने के करीब आए, और
चिकित्सकों ने कह दिया कि अब बचेंगे नहीं। तो उनकी पत्नी ने सोचा कि आज की रात
खतरनाक है; कभी आधी रात दवा—दारू की जरूरत पड़ सकती है। वैद्य
को बुलाना पड़े...!
तो उसने पांच दीनार, पांच
चांदी के रुपये छिपा कर रख लिए। और सब बांट दिया। यह कोई साधारण रात न थी। हम उस
स्त्री को क्षमा भी कर सकेंगे। यह कठिन रात थी। और आधी रात अगर दवा की जरूरत पड़ी
और पैसे की जरूरत पड़ी तो कहां से लाऊंगी! यह तो उसे भी पता था कि दूसरे दिन सुबह
कोई न कोई ले आता है; इतने भक्त हैं मोहम्मद के—लेकिन आधी
रात किसको खोजूंगी! तो पांच रुपये बचा कर रख लिए थे। लेकिन मोहम्मद करवट बदलने
लगे। बड़े बेचैन होने लगे। अंततः आधी रात उन्होंने पूछा कि मैं एक बात पूछना चाहता
हूं: कुछ तूने आज बचाया तो नहीं है? मेरी सांस अटकी सी लगती
है। मेरे और परमात्मा के बीच आज कुछ बाधा मालूम होती है। ऐसी बाधा कभी नहीं थी।
पत्नी तो बहुत घबड़ा गई। सच कहना ही पड़ा।
उसने कहा: मैंने पांच रुपये बचा लिए हैं, मुझे क्षमा करना।
मोहम्मद ने कहा: तू पागल है, जीवन भर
मेरे साथ रह कर यह न समझ पाई! हम रोज बांटते रहे, कमी कभी
हुई? और जो भर दुपहरी देता है, वह आधी
रात क्यों नहीं दे सकता! उसके लिए क्या कठिनाई है? तू बाहर
जाकर देख, तुझे पता चलेगा। एक भिखारी द्वार पर खड़ा है।
आधी रात! भिखारी!
वह बाहर गई और एक भिखारी द्वार पर खड़ा था।
उसने कहा: मैं रास्ता भटक गया हूं। एक गांव जा रहा था, मुझे राह
नहीं मिली। मुझे रास्ते में लूट भी लिया गया है। मुझे अगर पांच रुपये मिल जाएं तो
मैं दूसरे गांव तक पहुंच जाऊं।
मोहम्मद ने कहा: देखा! वे पांच रुपये इसको दे
दे, जो तूने बचाए हैं।
वे पांच रुपये दे दिए गए। मोहम्मद ने चादर
ओढ़ ली और सांस छोड़ दी। परमात्मा और उनके बीच कोई बाधा न रही। वह जरा सा संदेह
पत्नी के मन में,
वह भी बाधा बन गया।
जब तुम बचाते हो तो उसका अर्थ होता है:
संदेह। तुम कहते हो: अपने पर ही भरोसा किया जा सकता है; परमात्मा
पर क्या भरोसा?
भक्त का अर्थ होता है: उसका सारा भरोसा
परमात्मा पर है। उसकी श्रद्धा पूर्ण है। उसमें रत्ती भर शक—शुबहा नहीं है।
भक्त का अर्थ होता है: उसे अपने अहंकार पर
श्रद्धा नहीं है;
अब परमात्मा के अस्तित्व पर श्रद्धा है। जिनको परमात्मा पर श्रद्धा
नहीं होती है, उनको अपने अहंकार पर श्रद्धा होती है।
क्षुद्र से अहंकार पर कितना तुम्हारा भरोसा
है! पानी के बबूले पर कितना तुम्हारा भरोसा है! और जिससे विराट चल रहा है और विराट
पैदा हुआ है,
और जिसमें विराट लीन हो जाएगा—उसको मानने में तुम कितने प्रश्न
उठाते हो! कितने तर्क खड़े करते हो! और इस अहंकार को मानने में तुमने एक भी तर्क
नहीं उठाया। तुमने कभी पूछा ही नहीं कि यह "मैं', यह
अहंकार है भी? क्योंकि जिन्होंने पूछा उन्होंने पाया कि नहीं
है। जिन्होंने खोजा उन्होंने पाया कि नहीं है।
लेकिन परमात्मा को मानने में तुम हजार
प्रश्न खड़े करते हो। क्यों?
क्योंकि तुम वस्तुतः परमात्मा को मानना नहीं चाहते। तुम अपने को
मानना चाहते हो।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। अपने को
ही पकड़े हुए लोग—यही दुखी लोग हैं। और जिन्होंने परमात्मा के चरण पकड़ लिए—यही सुखी
लोग हैं।
मैंने राम रतन धन पायो।
मीरा कहती है: मैंने परम धन पा लिया; परम संपदा
पा ली। जिसको पा लेने के बाद फिर कुछ और पाने को नहीं बचता—ऐसा राम रतन पा लिया।
पाया कैसे? सब खोया तब पाया। कुछ भी
नहीं बचाया अपने भीतर। शून्य हुई तो पूर्ण उतरा। मिटी तो परमात्मा का आगमन हुआ।
प्रेम की आग में जलोगे, मिट जाओगे,
राख हो जाओगे—तभी उसका आगमन होता है। तुम्हारी राख में ही तुम्हारे
भीतर उसका अंकुरण होता है। तुम जब तक हो तब तक बाधा है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि हम क्या करें? कौनसी
बाधाएं हैं, जिन्हें हम अलग करें, ताकि
परमात्मा मिल जाए?
मैं उनसे कहता हूं: तुम्हारे अतिरिक्त कोई
और बाधा नहीं है। तुम हट जाओ बीच से। तुम अपने और परमात्मा के बीच मत खड़े होओ। तुम
अपने को विदा दे दो। तुम अपने को नमस्कार कर लो सदा के लिए। और तुम पाओगे: कोई भी
बाधा नहीं है।
मैंने राम रतन धन पायो।
धन तो वही है, जो कभी खोए न। जिसको हम धन
कहते हैं, वह धन का धोखा है। वह केवल मान्यता है। धन तो वही
है जो कभी न खोए। धन तो वही है, जिसे मौत भी न छीन सके।
ज्ञानियों ने संपत्ति की परिभाषा यही की है:
जिसे मौत न छीन सके। जिसे मौत छीन ले, वह वस्तुतः विपत्ति है। तुमने उसको
संपत्ति समझा है; वह तुम्हारी मान्यता है। मान्यता टूटेगी और
तुम बड़े विषाद में गिरोगे।
संपत्ति, संपदा उसी तरह के शब्द हैं—जैसे
सम्यकत्व, समाधि, संबोधि। वह जो
"सम' प्रत्यय लगा है, बड़ा
बहुमूल्य है। वही समाधि में है, वही संबोधि में है, वही सम्यकत्व में है, वही संबुद्धत्व में है।
"सम'—जो सदा एक सा रहे; जिसमें
कभी लहर न उठे, कोई कंपन न हो; जो
शाश्वत हो; जिसे कोई चीज तरंगित न कर सके; जिस पर बाहर का कोई प्रभाव न हो। तूफान आएं और जाएं—और तुम्हारे भीतर
"समता' बनी रहे।
"समता' भी
उसी धारा का एक शब्द है। तुम्हारे भीतर समता बनी रहे—दुख आए, सुख आए; सफलता, विफलता।
तुम्हारे भीतर जो जीवन—ज्योति है, वह कंपे भी नहीं; तूफान, आंधियां, हवाएं,
अंधड़—तुम्हारी ज्योति वैसी ही जलती रहे—अकंप! समाधि! संबोधि!
और वैसी ही दशा का नाम है: संपदा, संपत्ति।
संपत्ति तुम्हारे भीतर है और तुम उसे बाहर
खोज रहे हो। इसलिए विपत्ति में उलझे हो। जो भीतर है उसे बाहर खोजोगे तो दुख पाओगे
ही, क्योंकि उसे तो कभी पा ही न सकोगे जिसे खोज रहे हो। कुछ का कुछ मिलता
रहेगा। खोजोगे कुछ, पाओगे कुछ। दौड़ोगे किसी और चीज को पाने
को, हाथ में आएगी कोई और चीज। और हर बार विषाद आएगा। और हर
बार फिर...लेकिन समझ नहीं आती कि बाहर तो जन्मों—जन्मों से दौड़ कर देख लिया,
धन मिला नहीं; अब थोड़ा भीतर भी तलाश कर लें।
यह भीतर का जगत भी अनखोजा क्यों रह जाए?
और जिसने भी भीतर झांक कर देखा, वह हंसे
बिना नहीं रहा है। हंसे बिना नहीं रहा, क्योंकि बड़ा अजीब
मामला है: जिसे हम खोज रहे हैं वह हमारे भीतर मौजूद ही था। हम नाहक परेशान हो रहे
थे। हम व्यर्थ ही दौड़—धाप कर रहे थे।
राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सदगुरु,
करि करिपा अपनायो।
मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक! यह ऐसा कुछ है भीतर, यह राम
रतन कि इसका कोई मूल्य भी हम चुकाएं—इसकी संभावना नहीं है। क्योंकि हमारे पास है
ही क्या देने को? कूड़ा—कर्कट लिए बैठे हैं। अमोलक है। मूल्य
इसका चुकाया नहीं जा सकता। यह मूल्य में आंका नहीं जा सकता, कूता
नहीं जा सकता; किसी तराजू पर तौला नहीं जा सकता; कोई कसौटी पर कसा नहीं जा सकता। यह परम मूल्य है; बाकी
सब मूल्य छोटे पड़ जाते हैं। अब राम रतन की कितनी कीमत आंकोगे? करोड़ कि दस करोड़ कि अरब कि दस अरब, कि शंख कि महा
शंख? कोई भी आंकड़ा काम नहीं पड़ेगा। सब आंकड़े छोटे पड़ जाएंगे।
यह राम रतन आत्यंतिक मूल्य है; इसलिए
हमारे कोई मूल्य इसके काम नहीं आ सकते। फिर भी हम राम रतन नहीं खोजते। हम बड़े डरे
हैं कि कहीं राम रतन के खोजने में हमारे पास जो संपदा हम सोचते हैं, है, खोना न पड़े, कहीं खो न
जाए!
क्षुद्र बातों पर लोग अटके हुए हैं। बड़ी
क्षुद्र बातें हैं! विचार करोगे तो हंसी आएगी। किसी का मोह मकान से है, किसी का मोह
दुकान से है; किसी का पति से, किसी का
पत्नी से; किसी का बेटे से, किसी का
मां से है। सब छिन जाने हैं। यह मकान तुम्हारा कितनी देर तक रहेगा? यह सराय है; आज नहीं कल खाली करनी होगी। तुम नहीं थे
तब भी यह मकान था; तुम नहीं होओगे तब भी यह मकान होगा। कोई
और इसके वासी थे; फिर कोई और इसके वासी हो जाएंगे। तुम दो
दिन के मेहमान हो। बस रैनबसेरा है। मगर मोह पकड़ लेता है। हम दावेदार हो जाते हैं।
जो आदमी दावा करता है इस संसार में कि यह
मेरा है—वही आदमी अज्ञानी है। इस संसार में हमारा कोई दावा सच नहीं है। अगर दावा
ही हो सकता है तो एक ही दावा है कि राम मेरा है; कि राम रतन मेरा है। उस
दावे को छोड़ कर हम सब दावे करते हैं। क्यों? क्योंकि और सब
दावों में हम बच सकते हैं; यह जो राम रतन का दावा है,
इसमें हम खो जाते हैं।
मेरा अपना निरीक्षण ऐसा है कि अगर अहंकार
बचता हो तो लोग दुखी रहने को भी तैयार हैं। और अगर सुख भी मिलता हो अहंकार खोने पर, तो तैयार
नहीं हैं।
कुछ दिन पहले एक मित्र ने आकर कहा कि बड़ा
आनंद आता है,
जब यहां आ जाता हूं। नाच लेता हूं, तो जैसे
जनम—जनम की नाचने की आकांक्षा तृप्त हो जाती है। मगर घर जाकर नहीं नाच पाता। घर तो
मैं पता ही नहीं चलने देता किसी को कि पूना में जाकर मैं नाचता हूं। क्योंकि गांव
में लोगों को पता चल जाए तो लोग समझेंगे पागल है।
तो मैंने उनसे पूछा कि लोगों का यह समझना कि
तुम पागल नहीं हो,
यह ज्यादा मूल्यवान है कि ध्यान के नृत्य में जो आनंद मिलता है वह
ज्यादा मूल्यवान है?
उन्होंने कहा: इसमें क्या मामला है कहने का!
मूल्यवान तो वही है जो ध्यान के नृत्य में मिलता है।
तो फिर मैंने कहा: मूल्यवान को छोड़ना और
मूल्यहीन को पकड़ना,
इसमें कौन सी बुद्धिमानी है? और लोग अगर पागल
समझेंगे तो हर्ज क्या है? अहंकार को हर्ज है।
उन्होंने कहा कि यह तो बहुत मुश्किल बात है।
मैं सरकारी अधिकारी हूं;
प्रतिष्ठा है; लोग सम्मान करते हैं। सब
प्रतिष्ठा उखड़ जाएगी! आप भी कैसी बात कह रहे हैं!
प्रतिष्ठा का मतलब क्या होता है? एक अहंकार
है। गांव के लोग मानते हैं कि बड़े बुद्धिमान हो; यही लोग
मानने लगेंगे कि यह आदमी काम से गया! इस आदमी की बुद्धि गई! अब यह हुआ निर्बुद्धि!
अहंकार ही खोएगा न! दूसरे क्या मानते हैं, यही तो
हमारा अहंकार है। तुम अक्सर अपने जानने के विपरीत भी लोगों के मानने को पकड़े रहते
हो! मैंने कहा: तुम्हें न मिलता होता आनंद ध्यान में, न
मिलता होता आनंद नृत्य में, तब एक बात थी। तुम कहते हो मिलता
है और भागा आ जाता हूं, दोत्तीन महीने के बाद आना ही पड़ता है;
नहीं आता हूं तो बड़ी कमी लगने लगती है; दस—पांच
दिन रह कर डूब लेता हूं तो तीन—चार महीने तक ताजगी बनी रहती है। मगर गांव में जाकर
मैं पता भी नहीं बताता।
सच तो यह है, उन्होंने कहा, आपसे क्या छिपाना, कि मैं यह अभी तक किसी को बताया
नहीं कि पूना जाता हूं।
पूना की ऐसी बदनामी!
छुपा—छुपा आता हूं, छुपा—छुपा
चला जाता हूं। पूना में भी सरकारी आफिसर हैं—वे कहते हैं—मुझे जानते हैं, उनको भी पता नहीं चलने देता कि मैं यहां आया।
ऐसे क्षुद्र से कारण होते हैं। और क्षुद्र
के लिए विराट खोता चला जाता है।
मीरा ने राम रतन पाया, क्योंकि
मीरा ने बड़ी हिम्मत की। राज—घर से थी, स्त्री थी, प्रतिष्ठित थी। नाचने लगी गांव—गांव। खो दी सब लोकलाज, मान—मर्यादा। मस्त हो उठी। और जब मस्त हुई तो फिर जरा संकोच न लिया;
फिर क्षुद्र में न पड़ी। विराट से जो गठबंधन बांधा तो पूरा बांधा।
ऐसी मिटी कि कुछ बचाया नहीं। तब राम रतन पाया।
तुम भी पा सकते हो। मिटने की तैयारी दिखानी
पड़ेगी। उतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
तुमने कहानी समझी न! सम्राट को प्रेम करना
पड़ा एक साधारण स्त्री से तो साधारण हो जाना पड़ा; सारा राज्य छोड़ देना पड़ा।
और तुम तो परमात्मा से प्रेम करने चले हो, फिर भी कुछ छोड़ने
की इच्छा नहीं है। सम्राट ने एक साधारण स्त्री से प्रेम किया तो साधारण स्त्री
जैसा होना पड़ा; क्योंकि प्रेम तभी संभव है। तुम अगर परमात्मा
से प्रेम करने चले हो, तो परमात्मा जैसा होना पड़ेगा, तो ही प्रेम संभव है।
परमात्मा जैसा होने का अर्थ यह होता है कि न
कोई चिंता, न कोई फिकर; न कल आने वाला, न
कल जो बीत गया। परमात्मा तो अभी और यहां है; न उसका कोई अतीत
है, न उसका कोई भविष्य है। परमात्मा शांत, चैतन्य की, आनंद की एक दशा है—सच्चिदानंद है।
तुम्हें भी इस क्षण में सब भूल जाना पड़ेगा। और एक बार तुम्हारे हाथ में सूत्र आ
जाए सब भूल जाने का, तो तुम्हारे हाथ में कुंजी है; तुम जब चाहो तब उसका द्वार खोल लो। तुम जब चाहो तब, जहां
चाहो वहां उसके मंदिर में प्रविष्ट हो जाओ।
यह राम रतन तुम्हारा ही है। तुम जब तक अटके
हो क्षुद्र बातों में,
अटके रहो। तुम जिस दिन तय करोगे, उस दिन कोई
रोक नहीं सकता। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें किसी ने नहीं रोका है। और तुम्हारे
अतिरिक्त तुम्हें कोई रोक भी नहीं सकता। अगर बाधा हो तो तुम हो।
लेकिन लोग अक्सर ऐसा समझते हैं कि क्या करें, दूसरे लोग
रोक रहे हैं। बात झूठी है। मीरा को नहीं रोक सके तो तुम्हें क्या रोकेंगे। किसी को
कभी नहीं रोक सके तो तुम्हें क्यों रोकेंगे! लेकिन ये बहाने हैं। तुम बहाने खोज
लेते हो। और बहाने ऐसे खोज लेते हो कि बड़े सुंदर मालूम होते हैं। मगर फिर वस्तु
अमोलक कभी भी न पा सकोगे।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु...
भक्ति कि मार्ग में सदगुरु और परमात्मा में
कोई भेद नहीं है,
सतगुरु और परमप्रिय में कोई भेद नहीं है। सतगुरु उसी प्यारे का
प्रतीक है। जैसे सूरज की एक किरण आती है तुम्हारे अंधेरे घर में, सूरज तो पूरा आना भी चाहे तो नहीं आ सकता। और आ भी जाए अचानक तो मुश्किल
खड़ी हो जाएगी। तुम झेल न पाओगे। तुम्हारी आंखें अंधी हो जाएंगी। सूरज तुम्हें जला
कर भस्म कर देगा। सूरज को तुम न झेल सकोगे। सूरज की तरफ तो टकटकी लगा कर भी देखना
मुश्किल है; आंख अंधी हो जाएगी। और सूरज बहुत दूर है। आठ
मिनट लगते हैं सूरज से रोशनी के आने में जमीन तक। आठ मिनट हमें छोटा समय मालूम
पड़ता है; किरण के लिए छोटा नहीं है, क्योंकि
किरण की गति बड़ी तीव्र है। एक लाख छयासी हजार मील प्रति सेकेंड। तो आठ मिनट में
किरण बड़ी यात्रा करती है। प्रति सेकेंड एक लाख छयासी हजार मील। तो साठ का गुणा
करना इसमें, फिर आठ का गुणा करना उसमें। बड़ी लंबी संख्या
बनेगी। उतने मील दूर है सूरज। फिर भी सूरज की तरफ आंख करो तो जलने लगेगी। घबड़ा
जाओगे। अंधेरा छाने लगेगा।
तुम्हारे घर में सूरज आ जाए तो तुम बचोगे
कहां! जल कर खाक हो जाओगे। किरण आती है। मगर किरण काफी है। किरण को पकड़ लिया, किरण को
आत्मसात कर लिया, तो तुम्हारी क्षमता बढ़ती जाएगी। फिर किरण
के सहारे ही किसी दिन सूरज में भी पहुंच जाओगे।
सतगुरु यानी किरण। वह परमात्मा की खबर है।
परमात्मा तो चुप है;
सतगुरु बोलता है। वह परमात्मा की तरफ से बोलता है। वह परमात्मा का
प्रतिनिधि है। इसलिए मुसलमानों ने ठीक शब्द चुना है—पैगंबर। उसका मतलब होता है:
पैगाम लाने वाला, संदेशवाहक। वह अवतार से भी प्यारा शब्द है।
वह तीर्थंकर से भी प्यारा शब्द है। संदेशवाहक! खबर ला रहा है।
सतगुरु को पकड़ना होगा। वहां से यात्रा शुरू
होती है, सतगुरु को पचाते—पचाते एक दिन तुम पाओगे: कब गुरु ब्रह्मा हो गया, पता नहीं चला। गुरुर्ब्रह्मा! कब हो जाता है गुरु ब्रह्मा, पता नहीं चलता भक्त को। एक दिन अचानक पाता है कि जिसको मनुष्य की तरह देखा
था, उसमें परमात्मा अवतरित हुआ। जिसको मनुष्य की तरह हाथ में
हाथ जिसके दिया था, वह अब मनुष्य नहीं है। प्रेम धीरे—धीरे
प्रवेश करता है और उसके अति मानवीय रूप को देखना शुरू कर देता है।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
करि करिपा अपनायो।
और मीरा कहती है कि मेरी तो कोई पात्रता न
थी, फिर भी तुमने अपना लिया; अपना बना लिया। मुझ अपात्र
को भी!
भक्त की यह भाव—दशा सदा बनी रहती है कि मैं
अपात्र हूं। यह उसकी अनिवार्य लक्षणा है। ज्ञानी को तो कभी—कभी भ्रम पैदा होते हैं
कि मैं पात्र हूं;
त्यागी को भ्रम पैदा होते हैं कि मैं पात्र हूं; तपस्वी को भ्रम पैदा होते हैं कि मैं पात्र हूं—मैंने इतना किया, इतना किया! वह खाते—बही रखता है; हिसाब बना कर तैयार
रखता है कि दावादार; कभी अगर मौका मिला अदालत में तो दावा
करेगा। लेकिन भक्त को यह बात सदा बनी रहती है कि मैं अपात्र हूं। जितना मिलता है
भक्त को, उतना ही भक्त को यह लगने लगता है कि मैं अपात्र
हूं। मगर जितना तुम्हें यह पता चलता है कि मैं अपात्र हूं, उतने
ही तुम पात्र हो जाते। क्योंकि अपात्र होने का अर्थ है: अहंकार जा रहा। अहंकार
गया। पात्रता का दावा तो अहंकार का दावा है।
तुझको मालूम भी है कितने
जनम बीत गए,
वादाए तलाखिये अय्याम को
पीते—पीते,
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई,
आज पीने का सलीका मैं
सिखाता हूं तुझे,
मै तो मै पुर्दे तहे जाम
खुशी से पी जा,
डाल दे फिर मेरी आंखों में
तू अपनी आंखें,
इनमें पा जाएगा तू राजे
शिकस्ते शीशा,
प्यास बुझ जाएगी सब तेरी
हमेशा के लिए,
जुग के जुग बीत गए, तुझको
नहीं इसकी खबर,
आम दो रफ्त का है सिलसिला
कब से जारी,
आज चलने का तरीका मैं
बताता हूं तुझे,
दे मेरे हाथ में हाथ और
इसी राह पर चल,
भूल जा रंजो सफर, छोड़ दे सब
फिक्रे मयाल,
खौफे गुमगश्तगी—ओ—दरिए
मंजिल का खयाल,
इश्क का पहला कदम ही है
नबीदे मंजिल।
गुरु करता क्या है? एक संदेश!
तुम्हारे भीतर जगाता एक तरन्नुम, एक गीत! छेड़ता तुम्हारी
हृदय—वीणा को। जहां कभी स्वर न उठे थे, वहां स्वर उठता। जहां
तुम अपने भीतर कभी न गए थे वहां तुम्हें ले चलता। तुम्हें तुमसे परिचित कराता—तुम्हारी
संभावनाओं से परिचित करता। तुम्हारे भीतर जो बीज की तरह पड़ा है, तुम्हें याद दिलाता, कि इसके वृक्ष बन सकते हैं,
इसमें फूल खिल सकते हैं। तुम्हारे भीतर जो केवल संभावना है, उसे वास्तविक बनाने का मार्ग बताता।
तुझको मालूम भी है कितने
जनम बीत गए!
गुरु जब मिलता है तो
तुम्हें झकझोरता है और कहता है:
तुझको मालूम भी है कितने
जनम बीत गए!
वादाए तलाखिये अय्याम को
पीते—पीते!
इन क्षुद्र—क्षुद्र सी चीजों में उलझे—उलझे, गटरों का
पानी पीते—पीते, इन व्यर्थ और क्षणभंगुर में भटकते—भटकते—कितने
जनम बीत गए!
तुझको मालूम भी है कितने
जनम बीत गए!
कितनी लंबी यात्रा रही है! तुम कितनी बार आए, कितनी बार
गए हो! ऐसे ही इस बार भी जाना है!
गुरु झकझोरता। वह कहता: अब तो चौंको! अब तो
जागो! बहुत देर वैसे ही हो चुकी है!
तुझको मालूम भी है कितने
जनम बीत गए!
वादाए तलाखिये अय्याम को
पीते—पीते।
ये क्षुद्र सी शराबें ही पीते रहोगे? ये गंदी
मधुशालाओं में ही भटकते रहोगे!
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई।
और प्यास तुम्हारी कभी बुझी नहीं, बड़े अंधे
हो! बड़ा चमत्कार है, दौड़ते जाते हो, दौड़ते
जाते हो—कितने घाट, कितने कुओं का पानी पीया! और...
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई।
आज पीने का सलीका मैं
सिखाता हूं तुझे।
किसी गुरु के साथ राजी हो जाओगे...। गुरु का
अर्थ है: जो तुम्हारे जैसा है और फिर भी तुम जैसा नहीं; जो ठीक
तुम जैसा है और फिर भी तुम जैसा नहीं; जिसमें कुछ थोड़ा सा
तुमसे ज्यादा है, तुमसे आगे का है; जिसका
एक पैर जमीन पर है और एक पैर आकाश में है; जो बाहर से
तुम्हारे जैसा है और भीतर से बिलकुल तुम्हारे जैसा नहीं है; बाहर
से जो तुम्हारे जैसा है और भीतर से वैसा है जैसा तुम कभी हो सकते हो; जो तुम्हारी संभावना को अपने भीतर सत्य बना लिया है।
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई।
जरा प्यास तो देखो! जरा अपने कंठ में जलती
आग तो देखो! कितने घाट,
कितने कुएं, कितनी वासनाएं, कितनी तृष्णाएं—और प्यास जरा भी बुझी नहीं है। प्यास वैसी की वैसी है। सच
तो यह है कि प्यास बढ़ती चली जाती है; जितना पीते हो उतनी
बढ़ती चली जाती है। तो तुम जो पीते हो, यह जल है? यह जल नहीं हो सकता। यह तो ऐसे है जैसे कोई आग में घी को डालता जाता है,
सोचता है आग को बुझा रहा हूं, और आग और भभकती
है।
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई।
आज पीने का सलीका मैं
सिखाता हूं तुझे।
तो सदगुरु कहता है: आज मैं तुझे तरीका
सिखाता हूं पीने का—कैसे तेरी प्यास बुझेगी!
जीसस एक गांव पर रुके, एक कुएं
पर रुके और उन्होंने एक स्त्री जो पानी भर रही थी, उससे कहा
कि मुझे पानी पिला दे; मैं थका—मांदा हूं। उस स्त्री ने देखा,
उनके वस्त्र देखे—उसने कहा: क्षमा करें मैं अति नीच कुल की हूं।
मेरा छुआ पानी गांव में कोई पीता नहीं। आप अजनबी हैं: अच्छे कुल के मालूम होते हैं,
शायद आपको पता न हो। इसलिए मैं निवेदन कर दूं कि मेरा छुआ पानी कोई
पीता नहीं।
जीसस ने कहा: तू फिकर छोड़। तू मुझे अपना
पानी पिला, ताकि मैं तुझे अपना पानी पिला सकूं।
वह स्त्री तो कुछ समझी नहीं। उसने कहा: आप
फिर पानी की बात कर रहे हैं? जीसस ने कहा: एक पानी मेरे पास है; अगर तू पी ले तो प्यास सदा के लिए बुझ जाए। तेरे पास पानी है जो मेरी देह
की प्यास बुझा दे; और मेरे पास पानी है जो तेरी आत्मा की
प्यास बुझा दे। यह सौदा महंगा नहीं है, कर ले।
और कहते हैं: वह स्त्री मस्त हो गई जीसस की
आंखों में झांक कर। वह स्त्री इतनी मस्त हो गई, उसने जीसस से कहा: तुम रुको,
चले मत जाना। मैं जरा गांव के लोगों को भी खबर कर दूं, कुछ थोड़ा वे भी पी लें। उसने गांव के लोगों से जाकर कहा कि एक आदमी कुएं
पर आया है, ऐसा आदमी मैंने कभी देखा नहीं। मैंने बहुत वचन
सुने हैं, मगर ऐसा वचन कभी किसी ने बोला नहीं। उसने एक क्षण
में मुझे कुछ झलक दे दी। उसकी आंखों में झांक कर मुझे उस पर भरोसा आ गया है।
सतगुरु का अर्थ होता है: किसी की आंख में
झांक कर तुम्हें भरोसा आ जाए; किसी की आंख में झांको और अपना घर मिल जाए;
किसी की आंख में झांको और तुम्हारे भीतर कुछ कहने लगे कि हां,
बस, आ गया मुकाम, अब
यहां सब छोड़ दें।
तिश्नगी फिर भी तेरी कम
नहीं होने पाई,
आज पीने का सलीका मैं
सिखाता हूं तुझे,
मै तो मै पुर्दे तहे जाम
खुशी से पी जा,
डाल दे फिर मेरी आंखों में
तू अपनी आंखें,
इन में पा जाए गा तू राजे
शिकस्ते शीशा,
प्यास बुझ जाएगी सब तेरी
हमेशा के लिए,
जुग के जुग बीत गए, तुझको
नहीं इसकी खबर,
आम दो रफ्त का है सिलसिला
कब से जारी,
आज चलने का तरीका मैं
बताता हूं तुझे,
दे मेरे हाथ में हाथ और
इसी राह पर चल।
तुम भी चले हो, अपनी तरफ
से बहुत चले; लेकिन तुम्हारी सब चाल बाहर की तरफ ले जाती है।
तुम्हारे हर कदम बाहर की तरफ पड़ते हैं। तुम्हें भीतर की तरफ चलने की बात ही भूल गई
है, विस्मृत हो गई है। तुमने सुध खो दी। तुम सुन भी लेते हो
जब कोई कहता है कि भीतर जाओ, मगर इससे कुछ अर्थ प्रकट नहीं
होता। तुम सुन भी लेते हो कि भीतर जाओ; मगर कैसे जाओ,
कहां जाओ, यह कहां है भीतर! आंख भी बंद करके
बैठते हो, तो भी अपने को बाहर में पाते हो। कान भी रूंध लेते
हो, तो भी अपने को बाहर पाते हो। गुफा में चले जाते हो जंगल
की, तो भी अपने को बाजार में पाते हो। क्योंकि मन तो वहीं,
मन तो वहीं भागा रहता है जहां सदा से भाग रहा है। आंख बंद कर ली तो
भी वही मित्र, वही प्रियजन, वही शत्रु,
उन्हीं की तस्वीरें, वे ही इरादे; वे ही वासनाएं; वे ही आकांक्षाएं—सब खड़ी हो जाती
हैं।
आज चलने का तरीका मैं
बताता हूं तुझे,
दे मेरे हाथ में हाथ और
इसी राह पर चल।
यह हाथ में हाथ देना जरूरी है। यह आंख में
आंख देना जरूरी है।
गुरु से दोस्ती खतरनाक सौदा है, जोखिम है।
क्योंकि वह तुम्हें अनजान रास्तों पर ले जाएगा, जिन पर तुम
कभी नहीं गए। जोखिम तो है ही।
इसलिए मैंने कल श्रद्धा की परिभाषा में
तुमसे कहा—जिसमें पागल होने का साहस है। जो कहता है, समझदार रह कर बहुत दिन देख
लिया, अब थोड़ा समझदारी को छोड़ कर भी देखें। समझदारी से चल कर
बहुत दिन देख लिया; अब जरा समझदारी से मुक्त होकर भी चलें।
इन आंखों पर बहुत दिन भरोसा कर लिया; अब किन्हीं और आंखों से
देखें। बुद्धि की बहुत दिन मानी; अब जरा हृदय की भी सुनें।
और बुद्धि कहती है: हृदय अंधा है। बुद्धि
कहती है: प्रेम अंधा है। बुद्धि कहती है: श्रद्धा अंधी है। बुद्धि कहती है: इसमें
उलझना मत। यह तुम्हें गङ्ढे में ले जाएगी।
और मजा यह है कि बुद्धि तुम्हें सदा गङ्ढे
में ले गई। तुम्हारे सारे जीवन का अनुभव यही है, सदा गङ्ढे में ले गई। फिर
भी बुद्धि का जाल बड़ा अदभुत है; तर्क बड़ा होशियार है। हर बार
गङ्ढे में गिरा कर वह कहती है: इस बार चलो भूल हो गई; अगली
बार सब ठीक हो जाएगा। वह आगे देखते हो फिर मरूद्यान! फिर मृग—मरीचिका! ऐसे बुद्धि
तुम्हें चलाए जाती है।
बुद्धि से जो थक गया है, वही
सदगुरु का हाथ पकड़ सकता है। जो अपने से थक गया है वही सदगुरु का हाथ पकड़ सकता है।
जो अभी अपने से नहीं थका है, वह कैसे सदगुरु का हाथ पकड़ेगा।
उसे तो अभी खयाल है कि मैं कर लूंगा; मैं खुद ही कर लूंगा।
मुझसे, कभी—कभी लोग आ जाते हैं, वे पूछते हैं कि क्या हम खुद ही नहीं पा सकते? मैं
कहता हूं: यह भी पूछने के लिए तुम मेरे पास आए हो! यह भी तुम खुद न सोच सके! और
क्या तुम खुद सोच सकोगे? खुद पा सकते हो तो मजे से पा लो।
लेकिन इसमें यह जो खुद है, यह अहंकार
ही तो अड़चन है। आदमी झुकना भी नहीं चाहता। गुरु का हाथ पकड़ना हो तो थोड़ा झुकना
पड़े। गुरु की आंख में झांकना हो तो थोड़ा झुकना पड़े। बिना झुके तो कोई उपाय नहीं।
आज चलने का तरीका मैं
बताता हूं तुझे
दे मेरे हाथ में हाथ और
इसी राह पर चल,
भूल जा रंजो सफर, छोड़ दे सब
फिक्रे मयाल।
एक बार सदगुरु का साथ बना तो फिर तुम छोड़
सकते हो सारी फिकर यात्रा की—कि क्या होगा, क्या नहीं होगा!
भूल जा रंजो सफर, छोड़ दे सब
फिक्रे मयाल।
और परिणाम की चिंता भी छोड़ी जा सकती है।
खौफे गुमगश्तगी...
और राह भटक तो न जाएगी, यह विचार
भी त्यागा जा सकता है।
...ओ—दरिए मंजिल का खयाल।
और मंजिल पर कब पहुंचेंगे, नहीं
पहुंचेंगे—यह बात भी छोड़ी जा सकती है।
एक बार किसी सदगुरु से प्रेम लग जाए तो कौन
फिकर करता मंजिल की;
कौन फिकर करता है कल की! आज इतना तृप्तिदायी और अभी इतना आनंदपूर्ण,
यह क्षण इतना भरा—पूरा कि कौन चिंता करता है कल की!
इश्क का पहला कदम ही है
नबीदे मंजिल।
और प्रेम का पहला कदम ही मंजिल का शुभ संकेत
है। मीरा ने वह प्रेम का कदम उठाया।
मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
करि करिपा अपनायो।
और ध्यान रखना, गुरु का
अपनाना तुम्हारी किसी गुणवत्ता पर निर्भर नहीं है—कि तुम बहुत बुद्धिमान हो,
कि बहुत सुशिक्षित हो, कि बहुत सुसंस्कृत हो—इस
सबसे कोई संबंध नहीं है। एक ही है वहां पात्रता—बड़ी उलटी सी बात कि तुम्हें अपनी
अपात्रता का बोध है, बस। फिर कृपा बरसनी शुरू हो जाती है। और
जैसे ही तुमने जाना कि मैं अपात्र हूं, मेरे किए कुछ नहीं
होता, मेरे किए कभी कुछ नहीं हुआ—चीजें होना शुरू हो जाती
हैं।
नूर का अपने खुद अमीन है
तू
जानता हूं बहुत हसीन है तू
है ये लेकिन कसूर क्या
मेरा
जो नहीं मुझको ताबे नजारा।
भक्त कहता है कि मुझे मालूम है तेरे सौंदर्य
का। परमात्मा परम प्रिय है,
परम सुंदर है—यह मुझे मालूम है।
नूर का अपने खुद अमीन है
तू।
बस तेरे सौंदर्य की तू ही
एक उपमा है।
जानता हूं बहुत हसीन है तू
है ये लेकिन कसूर क्या
मेरा।
लेकिन मैं क्या करूं? अगर मेरे
पास तुझे देखने की आंख नहीं है, तो क्या यह मेरा कसूर है?
ज्ञानी दावा करता है कि मेरे पास तुझे देखने
वाली आंख है,
तू छिपा कहां है? मैंने सब किया; अगर तू है तो प्रकट क्यों नहीं होता?
भक्त कहता है कि मुझे मालूम है तेरे सौंदर्य
का और मुझे यह भी पता है कि तू सब तरफ मौजूद है; सिर्फ अगर कोई कमी है तो
मेरे पास आंख नहीं।
जो नहीं है मुझको ताबे नजारा।
मेरी क्षमता तुझे देखने की नहीं है। इसमें
मेरा कसूर भी क्या है?
मैं ऐसा हूं—अपात्र। अब तू ही कुछ कृपा करे तो हो।
शौके दीदार तेजतर कर दे,
शोला सामां मेरी नजर कर
दे।
भक्त कहता है: अब तेरे से प्रार्थना करता
हूं: शौके दीदार तेजतर कर दे।
मेरे देखने की क्षमता को तेज कर, मेरे
देखने की चाहत को तेज कर। तू ही कर, मेरे किए कुछ होता नहीं।
मेरे हाथ बड़े छोटे हैं।
शोला सामां मेरी नजर कर दे
फिर तू आ बेनकाब होकर आ।
पहले मेरी आंख ठीक कर कि मैं देख सकूं। पहले
मेरी आंख को मजबूत कर कि मैं सह सकूं।
फिर तू आ बेनकाब होकर आ
नूरे सद आफताब होकर आ,
जोशे हुस्नो शबाब होकर आ,
शोरिशो इजतराब होकर आ।
फिर तू अगर नजर को जला देने वाला होकर भी आए
तो आ, मगर पहले नजर तो दे दे। फिर तू अगर सूरज होकर भी आए तो आ, मगर पहले देखने की क्षमता तो दे दे। फिर तू उघड़ कर भी आ, नग्न होकर भी आ, तो आ; मगर
पहले देखने की क्षमता दे दे।
है ये लेकिन कसूर क्या
मेरा
जो नहीं मुझको ताबे नजारा,
मेरी रग—रग में मस्तियां
बन कर,
मेरे दिल में शराब होकर आ
एक नजर से खराब हो जाऊं,
तू खुद ऐसे खराब होकर आ
मुझमें अपना जवाब पैदा कर
फिर तू मेरा जवाब होकर आ।
लेकिन भक्त कहता है: तू ही कुछ कर। इस भेद
को खयाल में ले लेना। ज्ञानी कुछ करता है; भक्त कहता है: मेरे किए क्या होगा,
तू कर! और मजा यह है कि ज्ञानी कर—कर के भी शायद ही कर पाता है और
भक्त बिना किए पा जाता है।
मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
करि करिपा अपनायो।
जनम—जनम की पूंजी पाई, जग में
समय खोवायो।
तब पता चलता है, उस अमोलक
संपत्ति के मिलने पर पता चलता है कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उसका क्या अर्थ है? जो मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने
जनम—जनम व्यर्थ ही समय गंवाया, अभी तुम्हें साफ नहीं होगा;
कैसे हो साफ? मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूं।
मुझे भी साफ नहीं था। मीरा को भी जब तक वस्तु अमोलक न मिली होगी, तब तक उसे भी साफ नहीं था। तुलना ही नहीं होती। जिसने कंकड़—पत्थर ही देखे
हैं, वह उन्हीं में चुनता रहता है: सुंदर कंकड़—पत्थर खोज
लें। जिसे हीरों का पता ही नहीं है, वह कैसे समझेगा कि मैं
जिंदगी भर कंकड़—पत्थर बीनता रहा।
मैंने सुना है, एक जौहरी
मरा। उसके मरने पर उसकी पत्नी बहुत दुखी थी। उसने अपने बेटे से कहा कि अब हमारे
पास एक ही संपदा है। तेरे पिता ने मुझे कुछ हीरे—जवाहरात दिए थे; वे मैंने सम्हाल कर रख दिए तिजोरी में। उनको बेच दे, ताकि हमारे पास पर्याप्त साधन हो जाएंगे जीने के लिए। तू जब तक बड़ा होगा
तब तक हमारे पास सुविधा रहेगी। और उन्हें बेचना है, इसलिए
तेरे पिता के एक मित्र हैं, वे भी जौहरी हैं, तू उनके पास जा। यह पोटली ले जा।
वह बेटा गया। उसने अपने पिता के मित्र के
सामने पोटली खोली। पिता के मित्र ने कहा: पोटली तू बंद कर और अपनी तिजोरी में जाकर
रख आ। कल मैं तेरे घर आऊंगा।
वह कल आया। उसने अपने मित्र की पत्नी से, विधवा से
कहा कि अभी हीरों का बाजार ठीक नहीं चल रहा है, अभी बेचना
उचित नहीं होगा, थोड़े समय बाद बेचेंगे। लेकिन एक काम तू कर,
तेरे बेटे को अब मेरी दुकान पर भेजना शुरू कर दे, ताकि यह भी काम—धाम सीखे।...क्योंकि संपत्ति कितने दिन काम आएगी? अंततः कला काम आती है। और वे जब तक बचे रहें, ठीक
है। तब तक तेरे खर्च की व्यवस्था मैं कर दूंगा। लेकिन यह बेटा आने लगे दुकान पर,
यह काम सीखने लगे।
तो बेटे ने दूसरे दिन से दुकान पर जाना शुरू
कर दिया। साल बीत गया,
तब एक दिन वह जौहरी उसके बेटे को लेकर घर आया। उसने कहा कि अब तू
तिजोरी खोल और तेरे वे हीरे—जवाहरात निकाल कर ला।
बेटे ने तिजोरी खोली, गठरी खोली,
हंसने लगा। बाहर गया, जाकर पूरी की पूरी गठरी
कचरेघर में फेंक आया। उसकी मां तो चिल्लाने लगी कि तू पागल तो नहीं हो गया है,
यह तू क्या कर रहा है? उसने कहा कि ये सब कंकड़—पत्थर
हैं। उसकी मां ने अपने पति के मित्र को पूछा कि तुमने साल भर पहले क्यों न कहा?
उसने कहा: मैं पहले कहता तो शायद तुझे संदेह होता। मैं चाहता था
तेरा बेटा खुद परख सीख ले। अब यह हीरे—जवाहरात जानता है। अब इसके पास पहचान है। अब
यह समझ सकता है कि कंकड़—पत्थर क्या हैं? मुझे पक्का पता है,
मेरे मित्र ने तुझे ये कंकड़—पत्थर सिर्फ सांत्वना के लिए दे दिए थे,
ताकि तुझे भरोसा रहे। तूने गांठ बांध कर रख ली थी, तू मस्त थी, बाकी इतना पैसा उनके पास था नहीं;
इतने हीरे—जवाहरात उनके पास हो भी नहीं सकते थे। मगर तेरे बेटे को
परख मिल जाए, तब तक मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता था क्योंकि
मेरी बात तू समझ भी न पाती।
ध्यान रखना, हम तभी समझ पाते हैं,
जब हमारे अनुभव में दोनों चीजें आ जाएं। संसार तुम्हारे अनुभव में
है, परमात्मा तुम्हारे अनुभव में नहीं। इसलिए कैसे तुम परखो!
कैसे तुम तौलो!
जनम—जनम की पूंजी पाई, जग में
समय खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लैवे, दिन—दिन
बधत सवायो।
अब मीरा कहती है कि अपूर्व संपत्ति मिली, जो दिन—दिन
बढ़ती जाती है। एक बार परमात्मा से संबंध जुड़ गया, तो अनुभव
बढ़ता ही चला जाता है। दिन—दिन बधत सवायो। फिर रुकता नहीं। वह यात्रा अनंत की है।
शुरू होती है, समाप्त नहीं होती। और न तो उसे कोई चोर ले जा
सकते हैं और न तुम उसे खर्च कर सकते हो। वह संपदा ऐसी है कि मृत्यु भी नहीं छीन
सकती। कोई उसे नहीं छीन सकता। इसलिए उसको संपदा कहा है। इसलिए उसको राम रतन कहा
है।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर
तरि आयो।
मीरा कहती है: सत्य की नाव बनाई; सतगुरु
खेवटिया था, मांझी था—सारे संसार से तैरा दिया; भवसागर के पार उतार दिया।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरखि—हरखि
जस गायो।
मीरा कहती है: अब तो मेरे पास कुछ और नहीं
है सिवाय इसके कि उन्मत्त होऊं, हरषूं।
...हरखि—हरखि जस गायो।
अब तो तेरे यश के गीत गाऊं, इसके
सिवाय और मेरे पास कुछ भी नहीं है। तूने इतना दिया है कि बस धन्यवाद ही धन्यवाद
जन्मों—जन्मों तक देती रहूं तो भी धन्यवाद चुकेगा नहीं। हरखि—हरखि जस गायो!
अमन दुनिया में है नसीब
किसे,
कौन है जो यहां निराश नहीं,
कौन रंजो अलम से है आजाद,
किसको ऐशो तरब की आस नहीं,
दिल में है खाहिशात के
तूफां,
बस यही एक आध आस नहीं,
अपना दुखड़ा किसे सुनाने
जाएं,
क्या कोई है जो यां उदास
नहीं,
तेरे कदमों में है निशाते
जां,
कोई दुख दर्द—रंजो यास
नहीं।
इस दुनिया में तो सब दुखी हैं। इस दुनिया
में तो सब उदास हैं। इस दुनिया में हर्ष तो दिखाई ही नहीं पड़ता। इस दुनिया में
आंखें चमकती दिखाई ही नहीं पड़तीं। इस दुनिया में कोई हृदय नाचता हुआ मिलता ही
नहीं। इस दुनिया में कभी सौभाग्य से कोई कह पाता है: पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे!
तुम कह सको, इसकी संभावना है। तुम भी
ऐसा कह सको, इसकी संभावना है। तुम भी हरखि—हरखि जस गाओ,
इसकी संभावना है। लेकिन एक काम करना पड़े—बस एक काम: अपने को पोंछ
डालो। अपने को हटा कर रख दो। मरना पड़े। मृत्यु के पहले मरना पड़े। मृत्यु तो शरीर
को छीनेगी; तुम्हें और गहरी मौत चाहिए—वह मौत है कि तुम अपने
अहंकार को मिटा दो। तुम्हें अहंकार की दृष्टि से आत्मघात करना पड़े तो ही राम रतन
मिलता है। उतनी कीमत पर मिलता है; उससे कम कीमत पर नहीं
मिलता। हालांकि जब मिल जाता है, तब पता लगता है: वस्तु अमोलक
दी मेरे सतगुरु!
तब तुम पाते हो: जो खोया वह तो कुछ भी नहीं
था, छाया मात्र थी; जो खोया वह तो माया मात्र थी—और जो
मिला वह स्वयं परमात्मा है।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
मीरा कहती है: राणा, तेरा देश
मुझे भाता नहीं; हालांकि तेरा देश बड़ा सुंदर है, रंग—बिरंगा है। तेरे देश में सब कुछ है, फिर भी मुझे
भाता नहीं, क्योंकि एक कमी है।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
तेरा यह सुंदर रंग—बिरंगा देश मुझे राणा
भाता नहीं है। क्यों?
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै...
तेरे देश में साधु नहीं
हैं, राणा।
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै,
लोग बसैं सब कूड़ो।
और आदमी क्या हैं—कूड़ा—कर्कट हैं। देश बड़ा
प्यारा है। फूल खिलते हैं वृक्षों पर—सुंदर। पक्षी गीत गाते हैं, सूरज
निकलता है। सुबह होती है, सांझ होती है, रात आकाश तारों से भर जाता है। तेरा देश बड़ा प्यारा है, राणा! मगर एक कमी है: साधु नहीं हैं। और साधु न हों तो क्या तेरे देश में
रखा है। क्योंकि साधु ही द्वार है परमात्मा का। सदगुरु नहीं तेरे देश में, राणा! बस कूड़ा—कर्कट लोग हैं।
भगत देख राजी हुई, जगत देख
रोई। इस जगत की ही बात कह रही है; वह राणा को खबर भेज रही
है: नहिं भावे थांरो देसलड़ो रंगरूड?ो। यह रंगीन देश तेरा,
मगर बड़ा बेरौनक है; इसमें साधु नहीं हैं। सब
है, मगर ऊपर—ऊपर; आत्मवान नहीं कोई।
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै,
लोग बसैं सब कूड़ो।
गहना गांठी राणा हम सब
त्यागा,
त्यागो कर रो चूड़ौ।
मीरा कहती है: हमने सब छोड़ दिया—गहना गांठी, जो भी थे
आभूषण इत्यादि, हाथ की चूड़ियां भी छोड़ दीं।
काजल—टीकी हम सब त्यागा...
वे सब भी छोड़ दिए—शृंगार, साधन।
...त्याग्यो छै बांधन जूड़ो।
बाल तक बांधने छोड़ दिए।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, वर पायो
छै पूरो।।
और मैंने पूरा प्यारा पा लिया। कबीर का वचन
याद है न: कहै कबीर मैं पूरा पाया! मीरा का वचन और भी प्यारा है: वर पायो छै पूरो!
कबीर ने तो सत्य की बात कही; लेकिन भक्त के लिए सत्य प्रियतम होकर आता है।
भक्त सत्य को तो सूखा—सूखा देखता है, जब तक सत्य में प्रीतम
न दिखाई पड़ने लगे। ज्ञानी के लिए सत्य काफी है। भक्त कहता है: सत्य अकेला तो
मरुस्थल जैसा है; उसमें प्रेम की हरियाली चाहिए।
तो कबीर का वचन ज्ञानी का वचन है: कहै कबीर
मैं पूरा पाया,
सब घट साहब दीठा।
मीरा कहती है: वर पायो छै पूरो! मैंने अपना
प्यारा पा लिया,
अपना प्रियतम पा लिया।
सत्य जब प्रीतम बनता है, तो वसंत आ
जाता है। तब हजार—हजार फूल खिलते हैं प्राणों में। अगर बन सके तो भक्त की दशा
खोजना; न बन सके तो फिर ज्ञानी की। बन सके तो भक्त। क्योंकि
भक्ति का सौंदर्य अपूर्व है। रसधार है वहां। वहां परमात्मा रस—रूप है। रसो वै सः!
जब रस—रूप परमात्मा मिलता हो, तो फिर नीरस शब्दों में क्या
पड़ना! जब परमात्मा से प्यार हो सकता हो, प्रेम हो सकता हो,
जब परमात्मा का आलिंगन हो सकता हो; जब हृदय से
मिलन हो सकता हो—तो फिर बुद्धि के ही व्यायाम क्यों करते रहना! हां, जो इतने सौभाग्यशाली न हों, उनके लिए नंबर दो की
विधि है। अगर प्रार्थना बन सके तो अपूर्व; न बन सके तो फिर
ध्यान।
ध्यान रूखा—सूखा मार्ग है; प्रार्थना,
बड़ी रसपूर्ण।
तेरे ही हुक्म से इक—इक
सांस मेरी रवां
तेरे इशारे से पैदा नजर
में नक्शो निशां
तेरे ही दम से जबां पर
जहूरे लफ्जों बयां
तेरी निगाहे करम ही से
रक्शे शोलाए जां
तेरा गुलाम नहीं हूं तो और
क्या हूं मैं
तेरी ही बात से बनती है
बात बात मेरी
तेरा ही नाम तो है सारी
कायनात मेरी
तेरा ही जिक्रे मुकर्रर तो
है हयात मेरी
तेरी ही यादे मसलसल का रूप
जात मेरी
तेरा गुलाम नहीं हूं तो और
क्या हूं मैं
तेरे ही कदमों में रौनक
फरोज हर दो जहां
यहीं अदब से झुकाए हैं सर
मकानो जमां
यहीं से होता है सबको
हसूले अमनो अमां
मैं छोड़ कर तेरे कदमों को
जाऊं भी तो कहां
तेरा गुलाम नहीं हूं तो और
क्या हूं मैं
यकीनो जोरे अकीदत यहीं से
मिलता है
जनूने इश्को मोहब्बत यहीं
से मिलता है
शऊरे राजे हकीकत यहीं से
मिलता है
सरूरे कैफे मुसर्रत यहीं
से मिलता है
तेरा गुलाम नहीं हूं तो और
क्या हूं मैं।
भक्त कहता है: मैं तेरा गुलाम, मैं तेरा
दास। भक्त कहता है: बस तेरी हवा में जी लूं, तेरी सुगंध में
जी लूं, तो पर्याप्त है। यही मेरा मोक्ष, यही मेरी परम दशा। तेरे चरण हाथ से न छूटें। तेरी याद हृदय से न बिसरे। और
इसलिए भक्त को फिर और कुछ प्यारा नहीं लगता।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
फिर यह दुनिया बहुत रंगीन है, माना;
लेकिन उस प्यारे के मुकाबले क्या? इस दुनिया
के रंग बड़े फीके पड़ जाते हैं।
सूफी फकीर हसन राबिया के घर ठहरा था, और सुबह
हुई और पक्षी जगे और सूरज निकला, और आकाश में तैरती हुई
बदलियां, और सुबह की मादक गंध। वह बाहर आकर खड़ा था—सूरज की
किरणों में नाचता। उसने आवाज दी: राबिया, तू भी बाहर आ,
परमात्मा ने बड़ी सुंदर सुबह बनाई है। तू भीतर क्या कर रही है?
राबिया हंसी खिल—खिला कर और उसने कहा कि, हसन,
मैं तुझसे कहूंगी, तू ही भीतर आ। बाहर सुंदर
सुबह है, मुझे पता है, क्योंकि वह
सुंदर ही बनाता है; लेकिन मैं बनाने वाले को भीतर देख रही
हूं, तू तो बनाई गई चीज को बाहर देख रहा है। जगत सुंदर है,
लेकिन जगत को बनाने वाला अति सुंदर है। हसन, मेरी
सुन, तू भीतर आ।
राबिया ने उस छोटी सी घटना को बड़ी अर्थपूर्ण
दिशा दे दी। यही सदगुरुओं की कला है। तुम कहो कुछ, वह कुछ का कुछ बना लेते
हैं। हसन ने तो ऐसे ही कहा था कि सुंदर सुबह है। उसने तो सोचा भी नहीं था कि
राबिया ऐसा उत्तर देगी। मगर यह उत्तर हसन के जीवन में क्रांति का कारण बन गया;
चोट खा गया। बात तो ठीक थी।
जब जगत इतना सुंदर है तो जगत को बनाने वाला
कितना सुंदर न होगा!
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
तेरा जगत प्यारा है, राणा!
सुंदर है, मनमोहक है; मगर नहीं भाता।
एक कमी है। जैसे सुंदर लाश पड़ी हो, ऐसा है; इसमें प्राण की कमी है।
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै...
यह मीरा ने भजन कहा है। जब मीरा चली गई
द्वारिका और रणछोड़ के मंदिर में रहने लगी। और बार—बार राणा ने खबर भेजी कि तू वापस
लौट आ। क्योंकि राणा की निंदा होने लगी। लोगों ने कहा, तुम्हीं
ने उस बेचारी को सता—सता कर भगा दिया। राणा ने ब्राह्मण भेजे, पंडित—पुरोहित भेजे कि समझा लाओ। मीरा को लौटा लाओ।
तब मीरा ने ये वचन कहे—
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
थांरा देसां में राणा साध
नहीं छै...
न तो साधु हैं तेरे देश में; न साधु की
प्रतिष्ठा है, न साधु का सम्मान है। साधु का अपमान है,
अनादर है।
...लोग बसैं सब कूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, वर पायो
छै पूरो।
अब मुझे मेरा प्यारा प्रीतम मिल गया, पूरा—पूरा
मिल गया। अब तेरे देश में लौटना संभव नहीं है।
यह प्रतीक इस अर्थ में भी समझा जा सकता है
कि राणा के देश से मतलब सिर्फ बाहर के देश से नहीं है, राणा के
देश से मतलब राणा की मनःस्थिति से है। वह जो अंतर्देश है, जहां
आदमी रहता है—वासनाएं, इच्छाएं,र्
ईष्याएं, महत्वाकांक्षाएं, अहंकार,
घृणा, हिंसा—वह देश, अंतर्देश।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
थांरा देसां में राणा साध
नहीं...
वहां भीतर जब तक साधु का जन्म न हो, तब तक
अंधेरी रात ही रहती है, और भीतर साधु का जन्म हुआ कि फिर ये
अंधेरे की वस्तुएं, इच्छाएं, कामनाएं,
वासनाएं, आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं,
ये सब विदा हो जाती हैं। जैसे सूरज के निकलने पर अंधेरा विदा हो
जाता है।
मीरा मस्त थी—हरखि—हरखि जस
गायो।
अब कहां जाना था? अब कृष्ण
को छोड़ कर कहीं नहीं जाना था। जब बहुत ही बहुत आग्रह किया, तो
मीरा ने कहा कि ठीक है, अब इतना आग्रह है तो मैं पूछ लूं
अपने प्यारे को, वे कहें तो चली आऊं, उनकी
जो आज्ञा, वह सिर आंखों पर। वह भीतर गई और फिर कभी नहीं
लौटी।
कहानी तो यही है कि वह भीतर गई और कृष्ण की
मूर्ति में समा गई। अंततः भक्त भगवान हो जाता है। अंततः भक्त को भगवान हो जाना ही
है। उससे कम में उपाय नहीं। उससे कम में तृप्ति नहीं है।
जमाने की हर एक शै अब नई
मालूम होती है।
निशात अंगेज हरसू जिंदगी
मालूम होती है
तेरे जलवे का परतौ जर्रे—जर्रे
में नुमाया है
मेरी आंखों में तेरी रोशनी
मालूम होती है
तेरा जलवा मेरी आंखों में
कुछ ऐसा समाया है
कि हरेक शक्ले—हंसी सूरत
तेरी मालूम होती है
यहां तक हो गई तेरे जलवों
से शनासाई
कि तारीकी भी अब तो रौशनी
मालूम होती है
मेरा हर दर्द अपना आप
दरमां होता जाता है
चमक में आंसुओं की इक हंसी
मालूम होती है
मिटाया था तेरी खातिर
निशाने अक्शे हस्ती तक
तेरी हस्ती मगर हस्ती मेरी
मालूम होती है
कभी कभी खुदी का नाम तक
बाकी नहीं रहता
कभी लेकिन खुदी ही बेखुदी
मालूम होती है
चिराहे रह बनेंगे एक दिन
नक्शे कदम मेरे
अभी रफ्तार मेरी गुमरही
मालूम होती है।
मीरा की रफ्तार भी लोगों को गुमरही मालूम
हुई थी। जिन्होंने भी पाया है परमात्मा को, उनकी राह सभी को गुमराह मालूम होती
है। स्वाभाविक। यहां करोड़ों—करोड़ों लोग धन के पीछे दौड़ रहे हैं। जब कोई एकाध
व्यक्ति परम धन के पीछे दौड़ता है तो निश्चित उसकी राह गुमराह मालूम होती है,
क्योंकि वह करोड़ों के विपरीत चलने लगता है। करोड़ों की संख्या बड़ी
है। उनका बहुमत है। उनका बाहुल्य है। उनकी भीड़ है। राजपथ पर तो वही लोग हैं। जब भी
कोई भगवान का भक्त होता है उसको पगडंडी पकड़नी पड़ती है; उसे
रास्ते से उतर जाना पड़ता है। लोग कहते हैं: कहां चले, गुमराह
हुए!
चिरागे रह बनेंगे एक दिन
नक्शे कदम मेरे
अभी रफ्तार मेरी गुमरही
मालूम होती है।
लेकिन यही हिम्मतवर लोग जो कभी—कभी राजपथ को
छोड़ कर पगडंडियां पकड़ लेते हैं, अपनी राह खुद बनाते हैं, यही
लोग, यही थोड़े से लोग, सारी दुनिया को
गौरव देते हैं। एक दिन इनके ही कदम, इनके कदमों के निशान,
परमात्मा के मंदिर की राह बन जाते हैं। बहुत लोग उन पर चलते हैं।
मीरा ने हिम्मत की गुमराह
कहे जाने की।
याद रखना, अगर तुम्हें भी राह पकड़नी
हो तो पहले गुमराह समझे जाने की हिम्मत रखनी ही होगी। वह जोखिम उठाना ही होगा।
वैसा सदा हुआ; उससे अन्यथा नहीं हो सकता। लोग तुम्हें तभी तक
ठीक समझते हैं, जब तक तुम उन्हीं जैसे हो। जैसे ही तुमने जरा
फर्क किया कि उन्होंने तुम्हें गलत समझा। लोग चाहते हैं कि तुम उनकी प्रतिलिपि
रहो। लोग चाहते हैं कि तुम नियम में आबद्ध रहो। लोग चाहते हैं, तुम लकीर के फकीर रहो। लकीर जरा भी छोड़ी कि लोग बेचैन हो जाते हैं,
उद्विग्न हो जाते हैं। लेकिन जिसे रस लग जाता है वह लोगों की फिकर
छोड़ देता है।
मेरो मन रामहि राम रटै रे।
मीरा कहती है: मुझे अब कुछ सुनाई नहीं पड़ता
कि लोग क्या कह रहे हैं,
दुनिया में क्या हो रहा है। बाजार का शोरगुल अब मुझ तक नहीं
पहुंचता। लोगों के चित्त का धुआं अब मुझ तक नहीं आता।
मेरो मन रामहि राम रटै रे।
यहां तो भीतर राम ही राम की धुन उठी है। यह
धुन अनवरत है। यह सतत हो रही है।
पहले तो तुम्हें शुरुआत करनी होती है, तो भूल—भूल
जाते हो। कभी रट लेते हो, फिर भूल जाते हो; फिर याद आ जाती है, फिर रट लेते, फिर भूल जाते। वह पहला कदम है। फिर दूसरा कदम यह है: कम भूलेगा, ज्यादा याद रहेगा। कभी—कभी भूलेगा। अभी कभी—कभी याद आएगा शुरू करोगे तो,
ज्यादा भूलेगा। लंबे समय होंगे भूल जाने के, विस्मरण
के। सुरति कभी—कभी आएगी। फिर धीरे—धीरे स्थिति बदलेगी, सुरति
ज्यादा रहेगी, विस्मरण कभी—कभी होगा। और फिर तीसरी दशा आती
है कि सुरति थिर हो जाती है। जैसे श्वास चलती है ऐसी सुरति चलती है। जागो तो,
सोओ तो; उठो तो, बैठो तो;
काम करो तो—भीतर अहर्निश एक नाद चलता रहता; गूंज
बनी रहती; शराब ढलती रहती; राम से मिलन
होता रहता है। बैठे रहो बाजार में दुकान पर, कुछ फर्क नहीं
पड़ता; भीतर राम से मिलन होता रहता है।
मेरो मन रामहि राम रटै रे।
राम नाम जप लीजै प्रानी, कोटिक पाप
कटै रे।
मीरा कहती है: करोड़ों पाप कट जाएंगे, एक राम की
स्मृति कर लो, उससे ही।
यह बात थोड़ी समझने जैसी है। इसका गलत अर्थ
भी लोग ले लेते हैं। लोगों ने गलत अर्थ ही लिया है।
लोग सोचते हैं: जब करोड़ों पाप राम के नाम
लेने से कट जाएंगे तो फिर क्या करना? एक दिन राम का नाम ले लेंगे और कट
जाएंगे करोड़ों पाप; फिर बार—बार क्या लेना? एक बार ही से कट जाना है तो एक बार ले लेंगे आखिर में। या अगर ऐसा ही है
तो रोज जाकर एक दफा ले लेंगे मंदिर में, दिन भर के कट गए।
ऐसे ही लोग गंगा चले जाते हैं—सोचते हैं: गंगा
में नहा लेने से कट जाएंगे पाप।
रामकृष्ण से किसी ने पूछा; वह गंगा
की यात्रा को जा रहा था। रामकृष्ण से पूछा कि यह गंगा जा रहा हूं परमहंसदेव—इसी
आशा में कि जनम—जनम के पाप कट जाएंगे, आप क्या कहते हैं?
रामकृष्ण बड़े सरलचित्त आदमी थे। क्रांति उनके वचनों में नहीं थी;
उनके वचन बड़े शांत थे। मगर फिर भी सत्य तो कहना ही होगा, अगर कबीर के पास गया होता यह आदमी तो कबीर ने उठा लिया होता सोटा, इसका सिर खोल दिया होता—कि क्या पागलपन की बात कर रहा है तू! पहले तो यह
मूढ़ता है कि गंगा के पानी में नहाने से और तेरे पाप कट जाएंगे; दूसरे अगर गंगा के पानी में नहाने से कटते हों पाप, तब
तो भूल कर मत जाना! क्योंकि पाप तू करे और गंगा से कटवाए, यह
अन्याय है। और अगर गंगा के कारण पाप कट गए, किए तूने और काटे
गंगा ने, तो गौरव क्या है?
इसलिए कबीर मरते वक्त काशी छोड़ कर मगहर चले
गए। क्योंकि कहावत है कि मगहर में जो मरता है, मर कर गधा होता है। तो कबीर जब
मरने लगे, लोग तो काशी जाते हैं मरते वक्त—काशी—करवट—जब मरने
के दिन करीब आने लगते हैं तो लोग काशी जाते हैं। इसलिए काशी में तुम पाओगे इस तरह
के मरे—मराए मुर्दा लोग; वे प्रतीक्षा कर रहे हैं मरने की।
काशी में बैठे हैं, क्योंकि काशी में जो मरता है वह मोक्ष
जाता है।
जब कबीर के मरने का वक्त आया, कबीर ने
अपने शिष्यों से कहा कि बांधो बिस्तर, चलो मगहर। उन्होंने
कहा: आपका होश ठीक है? आप कह क्या रहे हैं?
कबीर ने कहा कि काशी में तो मरूंगा ही नहीं; क्योंकि
अगर काशी में मरा और मोक्ष गया, तो फिर राम का निहोरा! यहां
नहीं मरूंगा; मगहर में मर कर मोक्ष जाऊंगा। तो ही कुछ बात
हुई। काशी में तो कई मुर्दे, कहते हैं, मर—मर कर जा रहे हैं मोक्ष। यहां से मैं नहीं जाने वाला, यह घाट बहुत गंदा हो गया। यहां से जो गए हैं उनको देखता हूं तो मेरी जाने
की इच्छा भी मोक्ष की नहीं होती—कि इन्हीं से मिलना वहां हो जाएगा; इन्हीं से काशी में सिर खपाया! किसी तरह मरने की सुविधा बन रही है अब,
तो फिर यही काशी के प्राणियों से मिलना हो जाएगा। नहीं, इस तरफ से जाना ही नहीं। ये जहां जाते हैं, वहां
जाना ही नहीं। मैं तो मगहर में मरूंगा।
और मगहर में ही मरे।
तो कबीर से अगर पूछा होता किसी ने तो वे तो
डंडा उठा लेते। कबीर तो काशी में भी रह कर गंगा नहाने नहीं गए। क्या जाना गंगा
नहाने! ऊपर की गंगा में नहा रहे थे; जमीन की गंगाओं से क्या होगा?
स्वर्ग की गंगा में नहा रहे थे। मगर वे क्रांतिकारी दृष्टि के आदमी
थे। रामकृष्ण बड़े शांत आदमी थे, मगर शांत भी झूठ थोड़े ही
बोलेगा! शांत अपने ढंग से बोलेगा, यह बात जरूर सच है। क्रांत
अपने ढंग से बोलेगा, शांत अपने ढंग से बोलेगा; मगर बात तो सच ही बोलनी होगी। रामकृष्ण ने कहा: जाते हो तो भले जाओ,
एक डुबकी मेरे लिए भी लगा लेना। लेकिन तुमसे एक बात बता दूं,
एक बात की सावधानी रखना। डुबकी लगाओ तो फिर निकलना मत!
उसने कहा कि अब मारे गए! मर ही जाएंगे, अगर डुबकी
लगाई, निकले नहीं!
रामकृष्ण ने कहा: निकले तो फिर क्या फायदा? क्योंकि
मैंने यह सुना है कि काशी में जब तुम नहाओगे गंगा में, तो
पाप गंगा ले लेगी जब तुम डुबकी मारोगे! मगर वे पाप भी इतने होशियार हो गए हैं कि
वहां झाड़ जो लगे हैं किनारे पर उन पर चढ़—चढ़ कर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं: बेटे,
अब निकलो! कभी तो निकलोगे! बेटा जी निकले, वे
दमक कर फिर सवार हो जाते हैं। तुम जाओ भले, एक मेरे लिए भी
लगा लेना; मगर डूबो तो निकलना मत!
सत्य तो बोलना ही होगा, चाहे
रामकृष्ण बोलें, चाहे कबीर बोलें। बोलने का ढंग अलग हो सकता
है लेकिन सत्य को छिपाया तो नहीं जा सकता। सत्य तो बोलना ही होगा। रामकृष्ण ने
अपने ढंग से बात कह दी: अब तुम समझ लो।
न तो गंगा के नहाने से कोई पाप धुल सकते हैं, और न राम
का एकाध दफा नाम लेने से धुल सकते हैं। लेकिन राम अगर तुम्हारी सुरति बन जाए तो
जरूर। बहने लगे राम की धारा तुम्हारे भीतर। चेष्टा से भी मुक्त हो जाए वह धारा;
तुम्हें चेष्टा भी न करनी पड़े। अनायास, बिना
प्रयास, सतत; जैसे हृदय धड़क रहा है,
ऐसा राम धड़के। उसकी याद बनी ही रहे, तो
निश्चित।
कोटिक पाप कटै रे, राम नाम
जप लीजै प्रानी।
जनम—जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत
फटै रे।
वह जो बहुत दिन के खाते—बही में तुम्हारा
लिखा हुआ है सब,
वह एक दफे नाम लिया तो सब मिट जाता है। मगर नाम लेने का मतलब ठीक—ठीक
समझ लेना; यह हो भाव से। यह हो अंतरतम से। यह हो प्राणपण से।
यह हो रोएं—रोएं से। यह ऐसा न हो कि ऊपर—ऊपर बैठे हैं, हजार
बातें भीतर चल रही हैं और राम—राम भी कह लिया!
देखते हैं, कुछ लोग बैठे रहते हैं,
दुकान पर राम—राम जप रहे हैं; और कुत्ता आ गया
उसको भी भगा दिया; वह लड़का तिजोड़ी में से पैसा तो नहीं निकाल
रहा, उस पर भी आंख लगाए हुए हैं; पत्नी
भीतर किसी से बात कर रही है, वह भी सुन रहे हैं; भिखारी आ गया, उसको हाथ बता रहे हैं कि आगे बढ़! यह
सब चल रहा है; राम—राम भी जप रहे हैं। इतनी कुशलता से जपोगे
तो कुछ भी न होगा। इतनी होशियारी से नहीं। उसकी मस्ती होनी चाहिए। उसकी मस्ती में
डूबे तो डूबे। राम—नाम ऐसा होना चाहिए जैसे भीतर शराब ढलती रहे।
जनम—जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत
फटै रे।
कनक कटोरे इम्रत भरियौ, पीवत कौन
नटै रे।
मीरा कहती है: मैं चकित हूं कि परमात्मा
सोने के प्याले में अमृत भरे लिए बैठा है। मैं चकित हूं। होना तो यह चाहिए कि कोई
भी इसे इनकार न करे। कौन इसको नटे! लेकिन लोग नट रहे हैं। लोग अपनी—अपनी नालियों
की तरफ सरक रहे हैं। वे कहते हैं: हम तो अपनी नाली में पीएंगे। लोग गोबर के कीड़े
हैं; उन्हें अपने गोबर में मजा आ रहा है। वे कहते हैं: छोड़ो सब, कहां जा रहे?
सोने के कटोरों से लोगों की पहचान नहीं है।
अमृत से लोगों का कोई संबंध नहीं है। जहर ही पीते रहे हैं, जहर का ही
स्वाद आता है। जहर पीते—पीते जहरीले होते गए हैं। और अब जहर की ही पहचान है;
और कोई पहचान भी नहीं है।
मैंने सुना, एक स्त्री मछलियां बेचने
शहर आई। जब मछलियां बेच कर जाती थी तो उसे शहर में अपनी पुरानी एक सहेली मिल गई।
वह थी मालिन। उसने कहा: आज मेरे घर रुक जाओ, आज रात मेरे घर
रुक जाओ। जन्मों के बाद जैसे मिलना हुआ। कितने वर्ष बीत गए! रात खूब बातें करेंगे,
बचपन की याद करेंगे।
तो वह रुक गई। स्वभावतः मालिन ने उसकी खाट
ऐसी जगह लगाई जहां बाहर खिले मोतिए के फूलों का भंडार था, और जहां
से मोतिए के फूलों की गंध प्रतिपल आ रही थी। उसने ऐसी जगह खाट लगाई। मालिन थी;
अच्छी से अच्छी बगीचे में जगह चुनी। मगर वह औरत न सो सके। वह करवट
बदले। आखिर मालिन ने पूछा कि बात क्या है, तू सो नहीं पा रही;
बार—बार करवट बदल रही।
उसने कहा: मैं सो न पाऊंगी। ये फूल मेरी जान
लिए ले रहे हैं। तू तो मेरी टोकरी ले आ, जिसमें मैं मछलियां लाई थी बेचने।
और वह टोकरी में जो कपड़ा लगा रखा है उसमें थोड़ा पानी छिड़क दे, और उसको मैं अपने पास रख लूं तो मुझे नींद आए। मछलियों की गंध के बिना
मुझे नींद आएगी ही नहीं।
मछलियों की टोकरी वापस लाई गई। उस पर पानी
छिड़क कर उसके पास रख दिया गया। जब मछलियों की गंध ने उसको चारों तरफ से घेर लिया, और मोतिए
की गंध कट गई बाहर, दूर रह गई पड़ी, दीवाल
खड़ी हो गई मछली की गंध की—तब वह निश्चिंत सो गई, जल्दी ही
घुर्राटे लेने लगी।
ऐसा आदमी है। जिसकी हमें आदत हो...मछलियों
की आदत पड़ जाए तो वही सुगंध है। मछली खाने वाले को पता ही नहीं चलता कि मछली में
दुर्गंध है; वह तो नहीं खाने वाले को पता चलता है। मांस खाने वाले को पता ही नहीं चलता
कि वह क्या कर रहा है।
मेरे एक बंगाली डाक्टर थे; सामने ही
मेरे रहते थे। कभी मुझे उनसे जरूरत होती तो वे दवा—दारू देते थे। एक बार मैंने
उनसे पूछा कि दवा तो ठीक है, आप कुछ पथ्य नहीं सुझाते?
उन्होंने कहा: पथ्य! वे बहुत हंसने लगे, कि आप
तो जो खाते हैं, वह पथ्य है ही। वह तो मरीजों को खाना ही
चाहिए। अब आपको और क्या सुझाएं। घास—पात खाने वाले आदमी को पथ्य क्या?
घास—पात!
उन्होंने कहा: बस शाक—सब्जी—यह घास—पात। अरे
मछली खाओ, अंडे खाओ, मांस खाओ, तो कुछ
पथ्य! कभी बीमार होओ तो छोड़ सकते हो। शाकाहार में यही तो एक खराबी है कि बीमार भी
हो जाओ तो कुछ छोड़ने को नहीं है।
उनकी बात भी मुझे जंची कि बात तो ठीक ही कह
रहे हैं। उनकी मछली से मैं परेशान था और वे बता रहे हैं कि वही असली भोजन है। जब
मुझे कुछ बीमारी पकड़ती तो बीमारी से मैं कम डरता था; मैं कहता: अब डाक्टर दत्ता
आएंगे, अब फंसे! क्योंकि उनके मुंह से बास आती, कपड़ों से बास आती, मछली! शुद्ध बंगाली सज्जन! मगर वे
उसको भोजन मानते हैं। उनके घर भोजन पकता तो मुझे घर से नदारद हो जाना पड़ता।
क्योंकि वे सारे मोहल्ले को मछली से भर देते। मगर वह भोजन था।
आदमी जो करता है, उससे आदी
हो जाता है। मेरा भोजन उनके लिए घास—पात। वे भी ठीक कह रहे हैं।
हमारी दृष्टियां हमारे अनुभव से निर्धारित
होती हैं।
हम संसार में इस बुरी तरह पक गए हैं—इस तरह
लिप्त हो गए हैं कि हमें मीरा की बात समझ में ही नहीं आएगी।
मीरा कहती है:
कनक कटोरे इम्रत भरियौ, पीवत कौन
नटै रे।
कहती है कि ऐसा कौन है जो नट जाए; मगर देखती
हूं कि करोड़ों लोग नट रहे हैं! परमात्मा प्याला लिए खड़ा है; परमात्मा
मधुबाला बन कर खड़ा है। वह कहता है: पीओ, मगर हम कहते हैं कि
नहीं, क्षमा करें। हम तो किसी और घाट जा रहे हैं, किसी और कुएं जा रहे हैं; पहले वहां पीएंगे।
मीरा कहै प्रभु हरि अविनासी, तन मन
ताहि पटै रे।
मीरा कहती है कि मैं तुम्हें यह कह दूं कि
मुझे जब से यह अविनाशी मिला है, जब से शाश्वत मिला है, तब
से मेरा तन—मन, आत्मा सब एक हो गए हैं। वे द्वंद्व भीतर के
गए; मैं निर्द्वंद्व हो गई हूं। वे जो भीतर खंड—खंड थे मेरे,
वे सब समाप्त हो गए हैं; मैं अखंड हो गई हूं।
अखंड से जुड़ो तो अखंड हो जाओगे।
साधारणतः आदमी संसार में जीता है तो खंड—खंड
रहता है क्योंकि कितने खंडों से तुम जुड़े हो। एक हाथ पश्चिम जा रहा है, एक हाथ
पूरब जा रहा है। एक पैर दक्षिण जा रहा है, एक पैर उत्तर जा
रहा है। तुम कट गए। एक इच्छा कहती है: धन कमा लो, एक इच्छा
कहती है: पद बना लो; एक इच्छा कहती है कि ज्ञान अर्जित कर लो;
एक इच्छा कहती है कि यहीं संसार की चिंता में पड़े, थोड़ा स्वर्ग में भी इंतजाम कर लो, तो कभी कुछ दान—पुण्य
भी कर लो। ऐसी हजार इच्छाएं हैं—और तुम हजार हो गए हजार इच्छाओं के कारण। और इन
सबमें कलह है। ये इच्छाएं एक दिशा में भी नहीं जा रही हैं, क्योंकि
अगर धन कमाना है तो पद न कमा पाओगे। अगर पद कमाना है तो धन गंवाना पड़ेगा। चुनाव लड़ना
हो तो धन गंवाना ही पड़ेगा। और धन कमाना हो तो फिर चुनाव लड़ने से जरा बचना पड़ेगा।
अगर स्वर्ग में कुछ पद—प्रतिष्ठा पानी हो, वहां कुछ सोने के
महल और चांदी के रास्तों पर चलना हो, तो फिर आदमी को यहां
भूखा मरना पड़े, उपवास करना पड़े—इत्यादि। तपश्चर्या करनी पड़े।
चुकाना पड़ेगा फिर।
आकांक्षाएं विपरीत हैं। शरीर कहता है: भोजन
करो। मन की आकांक्षा लोभ से भरी है; वह कहता है कि यहां क्या करना भोजन,
स्वर्ग में ही कर लेंगे इकट्ठा। अभी कुछ दिन की बात है, गुजार लो; वहां शराब के चश्मे बह रहे हैं। मन कहता
है: यह सुंदर स्त्री जा रही है, क्यों छोड़े दे रहे हो?
एक मन कहता है: इस स्त्री में उलझे तो फिर अप्सराएं नहीं मिलेंगी,
खयाल रखना, फिर पछताओगे। अरे, यह तो दिन की बात है; एक दफा पहुंच गए स्वर्ग,
तो अप्सराएं मिलेंगी। फिर भोगना सुख ही सुख अनंतकाल तक।
ऐसा मन अनेक—अनेक खंडों में बंटा है। इन
खंडों के कारण तुम भी खंडित हो गए हो; तुम्हारी एकता टूट गई है।
सारे शास्त्रों का शास्त्र एक ही है कि तुम
एक हो जाओ। लेकिन तुम एक कैसे होओगे?—जब एक ही आकांक्षा रह जाए। उस एक
आकांक्षा को ही हम राम कहते हैं। उस एक आकांक्षा का अर्थ ही यह है कि राम के सिवा
कुछ भी नहीं पाना है। बाकी सब पाना उसी पर चढ़ा देना है; बस
एक परमात्मा को पा लेना है।
जब एक ही आकांक्षा रह जाएगी तो तुम एक हो ही
जाओगे। और कोई उपाय नहीं है। तुम्हारे भीतर योग सधने का और कोई उपाय नहीं है।
जितनी आकांक्षाएं,
उतने टुकड़े। यह तो तुम्हारी समझ में आ जाएगी बात कि जितनी
आकांक्षाएं, उतने टुकड़े हो जाते हैं। हर आकांक्षा एक टुकड़ा
लेकर भागने लगती है। जब एक ही आकांक्षा रह जाएगी तो तुम अखंड हुए। वही है अर्थ:
मेरो मन रामहि राम रटै रे। एक ही आकांक्षा बची है। बस एक ही को पाने की धुन सवार
हुई है। सब धुनें खो गईं। सभी धुनें उसी में लीन हो गईं। जैसे सब छोटे—छोटे नदी—नाले
आकर गंगा में सम्मिलित हो गए हैं, और गंगा चली सागर की तरफ—ऐसे
ही सब छोटी—छोटी इच्छाएं एक विराट इच्छा बन गई प्रभु को पाने की और सारी
आकांक्षाएं उसी में सम्मिलित हो गई हैं। एक ही लक्ष्य बचा।
फिर ज्यादा देर तुम रुक न सकोगे। बहोगे अपने
आप, सागर तक पहुंच जाओगे। छोटे—छोटे नाले सागर तक नहीं पहुंच सकते: रास्ते में
खो जाएंगे, मरुस्थलों में उड़ जाएंगे। लेकिन सब इच्छाएं मिल
जाएं और एक अभीप्सा बन जाए...। अभीप्सा शब्द का यही अर्थ है। अभीप्सा का अर्थ होता
है: सारी इच्छाएं एक इच्छा में निमज्जित हो गईं। छोटी—छोटी लपटें सब एक विराट लपट
में खो गईं। तुम एक मशाल बन गए।
मेरो मन रामहि राम रटै रे।
राम नाम जप लीजै प्रानी, कोटिक पाप
कटै रे।
जनम जनम के खत जु पुराने, नामहि लेत
फटै रे।
कनक कटोरे इम्रत भरियौ, पीवत कौन
नटै रे।
मीरा कहै प्रभु हरि
अविनाशी,
तन मन ताहि पटै रे।।
अब इस अविनाशी से लगन लग गई; अब तन और
मन के बीच जो फासला था वह पट गया। अब कोई फासले नहीं रहे। अब कोई भेद नहीं रहे। अब
कोई खंड नहीं रहे। मैं अखंड हो गई हूं।
मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
करि करिपा अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में
समय खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन दिन
बधत सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर
तरि आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
हरखि—हरखि जस गायो।।
नहिं भावे थांरो देसलड़ो
रंगरूड़ो।
थारां देसां में राणा साध
नहीं छै,
लोग बसैं सब कूड़ो।
गहना—गांठी राणा हम सब
त्यागा,
त्यागो कर रो चूड़ौ।
काजल—टीकी हम सब त्यागा, त्यागो छै
बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, वर पायो
छै पूरो।।
इस पूरे वर को पाने में लगो। यह तुम्हारा भी
अधिकार है—उतना ही जितना मीरा का; उतना ही जितना मेरा; उतना
ही जितना किसी का। और जब तक इसे न पा लो तब तक मत समझना कि तुम मनुष्य हो। जब तक
इसे न पा लो तब तक मत रुकना। जब तक इसे न पा लो, तब तक दांव
पर लगाते चले जाना, खोजते चले जाना। और कुछ भी खोना पड़े तो
खो देना। क्योंकि जो मिल रहा है, जो मिलने वाला है, वह अमोलक है।
वस्तु अमोलक दी मेरे
सतगुरु,
मैंने राम रतन धन पायो।
आज इतना ही।
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