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रविवार, 24 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--15)

पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—पंद्रहवां)  
हेरी! मैं तो दरद दिवानी
सूत्र:

हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे, की जिन लाई होइ।
जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
गगन मंडल पे सेज पिया की, किस विधि मिलना होइ।
दरद की मारी बन बन डोलूं, बैद मिल्या नहिं कोइ।
मीरा के प्रभु पीर मिटेगी, जब बैद सांवलिया होइ।

बंसीवारा आज्यो म्हारो देस, थांरी सांवरी सूरत बाला भेस।
आऊं—आऊं कर गया सांवरा, कर गया कौल अनेक।
गिणता—गिणता घस गई जी, म्हारी आंगलिया की रेख।
मैं बैरागण आदि की जी, थारि म्हारि कदको सनेस।
बिन पाणी बिन सावण सांवरा, हो गई धोए सफेद।
जोगण होकर जंगल हेरूं, तेरो नाम न पायो भेस।
तेरी सूरत के कारण मैं तो, धारया छे भगवा भेस।
मोरमुकुट पीतांबर सोहे, घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मिल्यां मिटेगा क्लेस।
बाला मैं बैरागण हूंगी।
जिन भेषां म्हारो साहब रीझै, सो ही भेष धरूंगी।
शील संतोष धरूं घट भीतर, समता पकड़ रहूंगी।
जाको नाम निरंजन कहिए, ताको ध्यान धरूंगी।
गुरु के ज्ञान रंग तन कपड़ा, मन मुद्रा पैरूंगी।
प्रेम प्रीत सूं हरिगुण गाऊं चरणन लिपट रहूंगी।
या तन की मैं करूं कींगरी, रसना नाम कहूंगी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, साधा संग रहूंगी।

हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे, की जिन लाई होइ।
जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।
हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
रमात्मा को पाना, उसकी अभीप्सा करनी, उसकी आकांक्षा में जलना, इस जगत में बड़े से बड़ा दर्द है—और मीठे से मीठा भी! गहन पीड़ा है, पर बड़ी सौभाग्यपूर्ण।
संसार के लिए भी लोग रोते हैं, तब आंसुओं में सिर्फ जहर होता है। परमात्मा के लिए भी लोग रोते हैं, तब आंसुओं में अमृत बहता है। आंसू तो दोनों हालत में होते हैं, पर उनका गुण—धर्म बदल जाता है। धन के लिए भी आदमी दौड़ता है। धन को पाने के लिए भी हजार पीड़ाएं भोगनी पड़ती हैं। लेकिन बस पीड़ा ही हाथ लगती है; धन कभी हाथ नहीं लगता। धन लग जाए तो भी हाथ नहीं लगता, पीड़ा ही हाथ लगती है। कोरी पीड़ा है। खाली पीड़ा है। पीड़ा ही पीड़ा है।
परमात्मा को पाने में भी पीड़ा झेलनी पड़ती है, लेकिन हर पीड़ा के पीछे परमात्मा छिपा है। उसके नाम पर झेली गई प्रत्येक पीड़ा मंजिल को करीब लाती है। उसके नाम पर झेली गई प्रत्येक पीड़ा अमृत की वर्षा हो जाती है। एक तरफ से देखने में भक्त रोता है, लेकिन उसके आंसुओं को गलत मत समझ लेना। भक्त के आंसू सांसारिक के आंसू नहीं हैं। सांसारिक की तो मुस्कुराहट भी भक्त के आंसुओं का मुकाबला नहीं कर सकती। सांसारिक की मुस्कुराहट भी कहां गहरी जाती है; ऊपर—ऊपर होती है, ओंठों पर होती है; लिपीपुती होती है; झूठी होती है। सांसारिक की खुशी भी भक्त की पीड़ा को नहीं छू पाती। भक्त की पीड़ा सारे संसार की खुशियों से श्रेष्ठ है। यह दर्द बड़ा अनूठा है!
मीरा कहती है: हेरी! मैं तो दरद दिवानी...
यह दरद दीवाना करने वाला है, मस्ती से भरने वाला है। इस दर्द में बड़ी शराब है। इसे जिसने पी लिया, उसे इस संसार में फिर कुछ और पीने जैसा नहीं लगता। परमात्मा के विरह की पीड़ा जिसने पी ली, अब सिवाय परमात्मा के और कुछ इसके ऊपर पीने को बच नहीं रह जाता। परमात्मा के लिए झेली गई पीड़ा बस परमात्मा से एक कदम नीचे है। फिर उसके ऊपर परमात्मा को ही पाने का सुख है; और कोई सुख नहीं। इसलिए भक्त को कुछ भी देकर तृप्त नहीं किया जा सकता। सब छोटा पड़ता है। सब ओछा पड़ता है।
तुम्हारा संसार जो भी दे सकता है, वह खिलौनों से ज्यादा नहीं है। और भक्त को जीवंत परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो गई; अब खिलौनों में नहीं उलझाया जा सकता। और दर्द पागल करने वाला है; क्योंकि जैसे—जैसे दर्द बढ़ता है वैसे—वैसे परमात्मा की उपस्थिति भी बढ़ती है। इधर हृदय में दर्द की बढ़ती गहराई परमात्मा के करीब आ जाने का लक्षण है। जब भक्त का हृदय लपटों से जलता है तो उसे पक्का भरोसा आ जाता है कि परमात्मा दूर नहीं—बहुत करीब है; यहीं कहीं है, पास—पड़ोस में है, मुझे घेरे खड़ा है।
दर्द से ही भक्त जानता है परमात्मा कितनी दूर है। दर्द कम, तो परमात्मा बहुत दूर; दर्द ज्यादा, तो बहुत पास। और दर्द की आत्यंतिक स्थिति भी आती है, जब भक्त सिर्फ पीड़ा ही पीड़ा रह जाता है, उस सौ डिग्री पर, जहां भक्त सिर्फ पीड़ा ही पीड़ा रह जाता है, उसी सौ डिग्री पर परमात्मा से मिलन है।
तो दर्द से ऐसा मत समझना कि मीरा रो रही है। रोती भी है और हंस भी रही है।
हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
इसलिए कहती है कि मेरे दर्द को कोई पहचानता नहीं। लोग आते होंगे, समझाते होंगे: मत रोओ। खेल—खिलौने सुझाते होंगे। इस संसार के बड़े प्रलोभन हैं; उन प्रलोभनों को दिखाते होंगे। तो मीरा कहती है: मेरे दर्द को कोई समझता नहीं है।
नानक प्रभु के स्मरण को करते—करते बीमार पड़ गए। वह बीमारी शारीरिक नहीं थी। वैद्य बुलाए गए। तो वैद्य नानक की नाड़ी हाथ में लेकर जांच कर रहा है। और नानक हंसते हैं और वे कहते हैं: यह ऐसी बीमारी नहीं जो नब्ज को पकड़ने से पहचानी जा सके। और यह ऐसी भी बीमारी नहीं कि तुम्हारी दवा कुछ काम आ सके। यह परम बीमारी है। यह परमात्मा के मिलने से ही पूरी हो सकेगी। तुम व्यर्थ कष्ट न करो। तुम्हारे पास वैसी औषधि नहीं है, जिस औषधि से यह बीमारी मिट जाए।
स्वभावतः, मीरा को रोते देख कर प्रियजन परिवार के लोग शुभेच्छु समझाते होंगे, बुझाते होंगे, कि मीरा पागल न हो। अनेक—अनेक सांत्वना देते होंगे। इसलिए मीरा कहती है: मेरो दरद न जाणे कोइ। लोग गलत समझ रहे हैं, मीरा कहती है। लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं। ये आंसू नहीं हैं। ये सिर्फ आंसू नहीं हैं। ये आंसू आनंद के आंसू हैं। मैं सौभाग्यशाली हूं, इसलिए रो रही हूं। परमात्मा करीब आ रहा है, इसलिए रो रही हूं। यह जो तीर मेरे प्राणों में चुभ रहा है, यह उसकी मौजूदगी का तीर है। मुझसे मेरा दर्द मत छीनो। मुझे सांत्वना मत दो। मैं सांत्वना की तलाश नहीं कर रही हूं। यह पीड़ा मेरी किसी औषधि की तलाश नहीं है। मैं तो परम औषधि से ही तृप्त हो सकूंगी। ये आंसू तो उससे मिलन हो जाए, तभी विदा होंगे। इन आंसुओं से उसकी प्रार्थना कर रही हूं। इन आंसुओं से उसकी मनुहार कर रही हूं। इन आंसुओं से उस रूठे को मना रही हूं। तुम मेरे दर्द को नहीं समझ पाते हो।
...मेरो दरद न जाणे कोइ।
मीरा कहती है: और ठीक भी है। तुम नहीं समझ पाते, मैं समझती हूं कि क्यों नहीं समझ पाते।
घायल की गति घायल जाणे...
ऐसी पीड़ा तुमने जानी नहीं। यह तुम्हारा अनुभव नहीं है। तो तुम कैसे समझ पाओगे? तुम मुझे नहीं समझ पाते हो, लेकिन मैं तुम्हारी नासमझी को समझ पाती हूं।
स्वभावतः, हम उतना ही समझ पाते हैं जितना हमारा अनुभव है। अनुभव से ज्यादा हमारी समझ न होती है, न हो सकती है। तुम गीता पढ़ो, कुरान पढ़ो, बाइबिल पढ़ो तुम उतना ही समझ पाओगे जितना तुम समझ सकते हो। तुम सागर के पास भी चले जाओ तो उतना ही ला पाओगे जितना बड़ा तुम्हारा पात्र है। सागर कितना ही बड़ा हो, तुम्हारे पास पात्र ही बहुत छोटा है, तो उतना ही भर कर ले आओगे। तुम वही खोज लोगे जिसका तुम्हें अतीत में अनुभव हुआ है। तुम उसी को फिर—फिर सम्हालने लगोगे जिसकी तुम्हें स्मृति है। लेकिन जिसकी स्मृति नहीं, अनुभव नहीं, वह तुम्हारे पास भी पड़ा हो, तो भी तुम चूक जाओगे।
इसी तरह तो हम परमात्मा से चूक रहे हैं। परमात्मा दूर नहीं है। दूर कैसे हो सकता है? तुम्हारी श्वास—श्वास में वही है। तुम्हारी धड़कन—धड़कन में वही है। वही धड़कता है। और कौन धड़केगा! क्योंकि वही जीवन है। वही जीवन का आधार है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा है। बाहर भी और भीतर भी! फिर भी तुम पूछते हो: परमात्मा कहां है? तुम्हारा पूछना सिर्फ इतना ही बताता है कि तुम्हें कुछ भी बोध नहीं है। तुम्हें कुछ भी अनुभव नहीं हुआ है जीवन का। जीवन का अनुभव होता, तुम न पूछते कि परमात्मा कहां है। उसी अनुभव में परमात्मा भी पहचान में आ जाता है।
न तुमने प्रेम जाना, न तुमने जीवन जाना। तुमने कुछ जाना ही नहीं है। तुम्हारे भीतर कोई होश नहीं है। तुम्हारे अनुभव की संपदा बड़ी दरिद्र है। संपदा कहने जैसी नहीं।
तुमने जाना क्या है? कुछ धन कमाया होगा। कुछ पद कमाया होगा। कुछ प्रतिष्ठा बनाई होगी। यही जाना है। इन जानकारियों से परमात्मा को जानने का कोई भी संबंध नहीं है।
यह तो ऐसे ही है जैसे लुहार के हाथ में सोना दे दो। जिसने लोहा ही लोहा जाना हो, वह सोने को नहीं पहचान सकेगा। जैसे छोटे बच्चे के हाथ में हीरा दे दो, वह अपने कंकड़—पत्थरों की ढेरी में उसे भी रख देगा।
हम उसे ही पहचान सकते हैं, जिससे हमारी थोड़ी—थोड़ी पहचान हो गई है। फिर पहचान बढ़ती जाती है। इसलिए इस जगत में सदगुरु समझ में नहीं पड़ते, समझ में नहीं आते। उनको समझने का प्राथमिक आधार भी हमारे भीतर नहीं है। बाराखड़ी भी हमें मालूम नहीं है। अ ब स का भी हमें पता नहीं है। हम सुन लेते हैं।
समझो। जब मैं परमात्मा शब्द का उपयोग करता हूं तो तुम्हारे कान में आवाज तो पड़ती है निश्चित और शब्द भी सुनाई पड़ता है। और शब्द से तुम परिचित भी हो। भाषा में शब्द का क्या अर्थ है, वह भी तुम्हें मालूम है। लेकिन जीवंत कोई अनुभव तुम्हारे पास नहीं। तो परमात्मा शब्द गूंजता है और खाली का खाली निकल जाता है। तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं होती। तुम्हारे भीतर कोई तार नहीं छिड़ता। कोई मस्ती नहीं छा जाती। तुम डोलने नहीं लगते। लेकिन कोई कहे धन, तो तुम्हें समझ में आता है।
एक रास्ते पर दो व्यक्ति चले जा रहे थे। भीड़ थी, बाजार था, बड़ा शोरगुल था जैसा बाजार में होता है। दुकानें चल रही थीं, ग्राहकी हो रही थी, ग्राहक मोलत्तोल कर रहे थे। मेला भरा था। और तभी दूर पहाड़ पर बने हुए मंदिर की घंटियां बजने लगीं। एक उनमें से ठिठक कर खड़ा हो गया सिर झुका कर। दूसरे ने पूछा: क्या कर रहे हो? उसने कहा: तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, मंदिर की घंटियां बज रही हैं? कितनी प्यारी घंटियां! उस दूसरे आदमी ने कहा: हद्द हो गई! इस बाजार के शोरगुल में कहां मंदिर की घंटियां तुम्हें सुनाई पड़ीं, कैसे तुम्हें सुनाई पड़ीं? यहां तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है। मुझे तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है। तुमने सुना मंदिर की घंटियां बजती हुईं इस भरे बाजार में, यह असंभव मालूम होता है।
उस पहले व्यक्ति ने अपने खीसे से एक रुपया निकाला और जोर से रास्ते पर गिरा दिया। उसकी खननखन की आवाज...और कोई बीस आदमी एकदम दौड़ पड़े और उन्होंने कहा: किसी का रुपया गिर गया!
उस पहले आदमी ने कहा: देखा! इस भरे बाजार में, इस भीड़ में रुपये की आवाज बीस आदमियों को एकदम सुनाई पड़ गई! मंदिर की घंटियां सुनाई नहीं पड़ रही हैं।
तुम्हें वही सुनाई पड़ता है जो तुम्हें समझ में आता है। ये जो लोग इकट्ठे हुए हैं, रुपये की आवाज के अतिरिक्त इनके जीवन में दूसरा कोई संगीत नहीं है। तो भरी बाजार, आवाज, शोरगुल; लेकिन एक छोटे से रुपये के गिरने की आवाज इन्हें तत्क्षण सुनाई पड़ गई।
तुमने देखा, रात मां सोती है बच्चे को लेकर। तूफान उठे, आंधी आए, बादल गरजें, बिजली चमके, सोई रहती है, नींद नहीं टूटती। बच्चा कुनमुनाए और उसकी नींद टूट जाती है। बच्चा जरा कुनमुनाए और वह थपकी देने लगती है या लोरी गाने लगती है या बच्चे को हृदय से लगा लेती है। आकाश में चमकती हुई बिजलियां, बादलों की गड़गड़ाहट नहीं उसे उठा पाई, लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट ने उठा दिया। क्या हुआ? मां के पास बच्चे की कुनमुनाहट को समझने का हृदय है; वह उसका अनुभव है। वह उसके लिए तत्पर है। वह उसके लिए आतुर है।
तुम्हें वही समझ में आता है जिसके लिए तुम तत्पर हो, आतुर हो, जिसकी तुम्हारे भीतर अभीप्सा है। तुम पक्का मानो, तुम्हें रास्ते पर अगर परमात्मा मिल जाए, तो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें वही दिखाई पड़ सकता है, जिसे तुम खोजने चले हो। हम जो खोजते हैं, वही हमें मिलता है। जो हम खोजते ही नहीं, वह मिल भी जाए, तो मिल कर भी नहीं मिलता है।
तुम सभी एक ही दुनिया में रह रहे हो। लेकिन यह कहना ठीक नहीं है कि तुम एक ही दुनिया में रह रहे हो। सभी अपनी—अपनी दुनिया में रह रहे हैं, क्योंकि सभी के अनुभव अलग हैं। इसी संसार में, इसी बाजार में मीरा भी गुजरती है, लेकिन उसे कृष्ण की बांसुरी सुनाई पड़ती रहती है। वह बांसुरी बंद ही नहीं होती। तुम भी गुजरते हो। तुमसे मीरा कहे कि मुझे कृष्ण की बांसुरी सुनाई पड़ती है, तुम हंसोगे। कहोगे: पागल हो गई है, मस्तिष्क खराब हो गया है। यहां कहां कृष्ण, कहां की बांसुरी! कैसी बातें कर रही है!
मीरा की बात तुम्हें बेबूझ मालूम पड़ेगी। मीरा की बात बेबूझ लगी होगी लोगों को, इसलिए कहा: मेरो दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे...
जिसके हृदय में तीर लगा हो वही समझेगा। जिसने चोट खाई हो वही पहचानेगा। जिसे थोड़ा सा अनुभव हुआ हो, वह और बड़े अनुभव को समझने के लिए तैयार हो जाता है।
...की जिन लाई होइ।
या तो कोई घायल हो गया हो, या जिसने अपने ही हाथ से घाव पैदा कर लिया हो। या तो कोई आकस्मिक रूप से घायल हो गया हो, या फिर किसी ने संकल्पपूर्वक अपने भीतर घाव कर लिया हो। वही जान पाएगा।
परमात्मा की प्यास, परमात्मा की प्रार्थना—एक घाव है। इसलिए तो थोड़े से लोग हिम्मत कर पाते हैं। इस पीड़ा को झेलने की तैयारी किसकी है? तुम तो अगर कभी परमात्मा का नाम भी लेते हो तो इसलिए कि हे प्रभु, इस संसार की पीड़ा से छुटकारा दिलाओ। तुमने कभी प्रार्थना की? कि हे प्रभु, उस संसार की पीड़ा मेरे भीतर पैदा करो! तुमने कभी प्रार्थना की है? कि मेरे हृदय को छेद दो, कि मैं तड़पूं कि जैसे मछली तड़फती है पानी के बाहर! ऐसा कुछ करो कि तुम्हारे लिए तड़पूं जैसे मछली तड़फती है पानी के बाहर।
नहीं, तुमने ऐसी प्रार्थना नहीं की है। की होती तो सुन ली गई होती। तुमने प्रार्थना भी अगर की है तो धन के लिए की है—कि दुकान ठीक नहीं चलती, हे प्रभु, ठीक से चलाओ; कि नौकरी नहीं लगती, नौकरी लगाओ; कि पत्नी बीमार है, इलाज करो; कुछ चमत्कार करो। तुमने प्रार्थना भी की है तो संसार के लिए की है। और संसार के लिए की गई प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचती—नहीं पहुंच सकती है!
इसलिए तुम्हारी प्रार्थनाएं व्यर्थ चली जाती हैं। उन पर पता ही गलत होता है। पता संसार का होता है और भेजते परमात्मा को हो। वे नहीं पहुंचतीं। परमात्मा से तो प्रार्थना यही की जा सकती है कि संसार...देखा बहुत! ये पीड़ाएं बहुत देख लीं। इन पीड़ाओं से न कोई निखार आया, न जीवन में कोई क्रांति हुई, न कोई ज्योति पैदा हुई। अब तेरी पीड़ा को जानने का मन है। अब तेरी प्यास पकड़े। अब तू सब तरफ से घेर ले! झकझोर डाल! उखाड़ दे जड़ों को! मिटा दे मुझे! ऐसा घाव कर कि फिर कभी न भरे! और ऐसी पीड़ा दे कि जब तक तुझे न पा लूं तब तक चुके नहीं! ऐसी तुमने प्रार्थना की? ऐसी प्रार्थना तो पागलपन की लगेगी कि संसार का दुख ही तो झेलना कुछ कम है, अब और परमात्मा का दुख झेलें! तो फिर तुम मीरा को न समझ पाओगे।
या तो तुम घायल हो गए हो, या तुमने घावों के लिए खुद आरजू—मिन्नत की है और तुमने अपने घाव निमंत्रित किए हैं और तुम अपने हृदय के घावों को ऐसे सम्हाल रहे हो जैसे फूल हों—तो तुम समझ पाओगे। तो तुम समझ पाओगे कि यह किस तरह की दीवानगी है; यह किस तरह का पागलपन है; यह मीरा को क्या हुआ है? और जो मीरा को हुआ है वह तुम्हें समझ में आ जाए, तो तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी घटना घटी।
इस जगत में जब तक परमात्मा न घटे तब तक कुछ भी नहीं घटा। तब तक सब घटता रहे और फिर भी याद रखना, कुछ भी नहीं घटा। तुम रेत के घर बनाते रहे और गिराते रहे। तुम कागज की नावें तैराते रहे और डुबाते रहे। तुम मन ही मन में मनसूबे बांधते रहे। वे मनसूबे कभी पूरे नहीं होते। स्वप्नवत हैं। पानी पर खींची गई लकीरों जैसे हैं; खिंच भी नहीं पाती लकीरें और मिट जाती हैं।
हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे, की जिन लाइ होइ।
जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।
जौहरी पहचानता है हीरे को। हीरे की परख चाहिए; नहीं तो कई बार कोहिनूर भी पड़ा हो तुम्हारे रास्ते में, तो तुम कंकड़—पत्थर समझोगे। कोई आंख चाहिए जो पहचान लेती हो; जो भीतर पत्थर के झांक लेती हो; भीतर छिपी हुई आभा को पकड़ लेती हो। तो या तो तुम जौहरी हो, तो समझ पाओगे; और या तुम स्वयं हीरे हो, तो पहचान पाओगे। या तो जौहरी या जौहर, दो में से कुछ होना चाहिए। हीरा भी हीरे को पहचान लेगा।
बुद्ध महावीर को पहचान लेंगे। महावीर कृष्ण को पहचान लेंगे। और जिसने महावीर को पहचाना है, वह भी कृष्ण को पहचान लेगा। इसको मैं कसौटी मानता हूं। अगर तुमने महावीर को पहचाना और कृष्ण को नहीं पहचान पाते, तो तुम्हारी महावीर की पहचान झूठी है; तुमने महावीर को नहीं पहचाना।
इसे ऐसा समझो: क्या तुम यह कहोगे कि मैं एक हीरा तो पहचानता हूं, मगर और कोई हीरा नहीं पहचान में आता? तो यह पहचान कच्ची है। तुमने मान लिया है हीरे को हीरा, पहचाना नहीं है। अगर तुम एक हीरा पहचान गए, तो सारे संसार के हीरे पहचान गए। अब क्या अड़चन रही?
बुद्ध ने कहा है: सागर का पानी जिसने एक बार पी लिया, वह सब सागरों के पानी को पहचान गया। वह जो खारा स्वाद है, उसे आ गया। तुमने हिंद महासागर का पानी पीया, कि प्रशांत महासागर का, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने सागर को चख लिया, कहीं से चखा, किसी घाट से चखा—तुम्हें सब सागर पहचान में आ गए।
इसलिए तो मैं कहता हूं कि लोग झूठे हैं। कोई कहता है: मैं महावीर को पहचानता हूं कि महावीर तीर्थंकर हैं, परम ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं। लेकिन यही आदमी कृष्ण को नहीं पहचानता। यह कहता है: कृष्ण में क्या रखा है? यही आदमी बुद्ध को नहीं पहचानता। कहता है: अच्छे हैं, लेकिन वह बात नहीं। यही आदमी मोहम्मद को तो बिलकुल नहीं पहचानता। तो इसकी महावीर की पहचान गलत है। यह महावीर को मानता है, पहचानता नहीं है। और मानना पहचान नहीं है। यह जैन घर में पैदा हुआ होगा, तो मानता है। हिंदू घर में जो पैदा हुआ है, वह कृष्ण को मानता है।
मानने को पहचानना मत समझ लेना। मान्यता उधार है; दूसरे से मिलती है। पहचानना अपने भीतर जगता है। पहचान अपनी है। अपनी समझ, अपनी दृष्टि, अपनी आंख पैदा होती है, तब पहचान।
और मैं तुमसे यह कह दूं कि तुमने एक ज्ञानी को पहचान लिया, तो सब ज्ञानियों को पहचान लिया; उसी पहचान में सब पहचान पूरी हो गई। इसलिए जो सच में हिंदू है, वह हिंदू नहीं रह जाएगा। और जो सच में मुसलमान है, वह मुसलमान नहीं रह जाएगा। जो सच में हिंदू है या सच में मुसलमान है या सच में जैन है, वह सिर्फ धार्मिक रह जाएगा। और सारे जगत के धर्मगुरु उसके अपने हो जाएंगे। और सारे धर्मशास्त्र उसके अपने हो जाएंगे। ऐसे लोग तो कभी दिखाई पड़ते हैं, मुश्किल से दिखाई पड़ते हैं। धार्मिक लोग ही कम हैं दुनिया में।
ये जिनको तुम धार्मिक समझे हो, ये सिर्फ अधार्मिक हैं जिनको धार्मिक शिक्षा मिल गई है। ऊपर—ऊपर से रंग—रोगन कर दिया गया है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई बौद्ध। सब झूठ है। इनकी पहचान सच्ची नहीं है।
घायल की गति घायल जाणे...
जौहरि की गति जौहरि जाणे, कि जिन जौहर होइ।
या तो फिर तुम हीरे होओ। दोनों में फर्क है। महावीर को पहचान सकते हो—अगर तुम सरल—चित्त हो, शांत—चित्त हो, समतावान हो—तो महावीर को पहचान लोगे, कृष्ण को पहचान लोगे, बुद्ध को पहचान लोगे। या फिर तुम स्वयं बुद्ध होओ, तब पहचान पाओगे।
मान्यता से तो पहचान होती नहीं। वह झूठ है, पाखंड है। जानने से पहचान होती है। लेकिन जानने से भी पहचान दूर—दूर की होती है जैसे हिमालय को देखा दूर से। सैकड़ों मील दूर से हिमालय के शिखर दिखाई पड़ते हैं। उत्तुंग शिखर! शाश्वत बर्फ से लदे! सुबह सूरज की किरणों में दूर से दिखाई पड़ते हैं—चमकते हुए सोने की तरह! मगर यह पहचान अभी दूर से है; अभी आश्वस्त नहीं हो सकते। अभी तुम शिखर पर नहीं पहुंचे हो। अभी तुम शिखर नहीं हो गए हो। इसलिए तुम्हारी पहचान का नाम होगा: श्रद्धा।
अब इसको समझ लेना। जिसको तुम अभी तक पहचान मानते रहे हो, वह मान्यता है। उसका नाम है विश्वास। मैं जिसको पहचान कह रहा हूं, जिसको मीरा पहचान कहती है, उसका नाम है: श्रद्धा। दूर से देखा है शिखर। श्रद्धा उमगी है। प्राण आंदोलित हुए हैं। ठगे रह गए हो सौंदर्य को देख कर। लेकिन अभी शिखर पर नहीं पहुंचे हो। जिस दिन शिखर पर पहुंच जाओगे या जिस दिन शिखर ही हो जाओगे, उस दिन ज्ञान।
विश्वास, श्रद्धा, ज्ञान। जौहरी में श्रद्धा होती है। लेकिन उससे भी ऊपर एक अवस्था है—ज्ञान की, अनुभव की, साक्षात्कार की। तुम भी महावीर हो जाओ। तुम भी बुद्ध हो जाओ। तुम भी मीरा हो जाओ। तब जो जानना होगा, उस जानने में कोई संदेह की रेखा न रह जाएगी। उस जानने में धुंधलापन न बचेगा। उस जानने में जरा भी धुआं न होगा। वह प्रतीति होगी। उस प्रतीति को सारी दुनिया भी विरोध में चली जाए तो भी कोई तोड़ न सकेगा। कितना ही कोई खंडन करे और कितने ही कोई तर्क जुटाए, तुम्हारी प्रतीति पर कोई आंच न आएगी।
विश्वासी झूठी श्रद्धा में जीता है; इसलिए कहीं पहुंच नहीं पाता। जहां का तहां रहता है। जैसा का तैसा रहता है। श्रद्धालु यात्रा पर चल पड़ता है। श्रद्धा की यात्रा ही एक दिन ज्ञान की मंजिल पर पहुंचा देती है। ज्ञानी पहुंच गया, श्रद्धालु चल पड़ा। विश्वासी सिर्फ सोच रहा है कि चलेंगे, कि चल रहे हैं, कि पहुंच रहे हैं। न तो चल रहा है, न पहुंच रहा है। विश्वासी निद्रा में पड़ा है।
विश्वासी मत रहो। या तो जौहरी बनो या जौहर बनो। दो से कम पर राजी मत होना। अगर जौहर बनो तो बड़ी बात। अगर अभी एकदम से जौहर बनने की संभावना न हो तो कम से कम जौहरी तो बनो! तो ही तुम समझ पाओगे कि मीरा क्या कह रही है।
जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
लोग समझाते हैं: मीरा विश्राम कर, कि मीरा सांत्वना रख। कि परमात्मा मिलेगा; यहां थोड़े ही मिलता है, मरने के बाद मिलता है। अच्छे काम करो, सत्कर्म करो—मिलेगा परमात्मा मृत्यु के बाद। स्वर्ग में मिलेगा। ऐसी बहुत सी बातें लोग मीरा को समझा रहे हैं।
और मीरा कहती है:
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
इधर सूली पर हम बैठे हैं और तुम कहते हो सो जाओ। सूली पर सेज लगी हो तो कोई कैसे सोए! कल सुबह तुम्हारी मौत आने वाली हो, कल सुबह तुम्हें फांसी लगने वाली हो, तुम आज रात सोओगे? कैसे सोओगे? कोई उपाय नहीं सोने का।
मीरा कहती है:
सूली ऊपर सेज हमारी...
यह संसार तो सूली है। इसमें सोना कैसे हो सकता है!
इस बात को समझो। यह संसार सूली है, क्योंकि इस संसार में सिवाय मौत के और कुछ नहीं घटता। जन्म के बाद बस एक ही बात निश्चित है: मौत। जन्म के बाद मृत्यु के अतिरिक्त यहां कुछ भी नहीं घटता। बाकी तो सब व्यर्थ की बातचीत है, जिसे तुम घटना कहते हो—कि राष्ट्रपति हो गए, कि खूब धन कमा लिया, कि खूब प्रसिद्धि हो गई। इस सबका कोई भी मूल्य नहीं है। तुम मरे कि सब भूल जाएगा। सब धन खो जाएगा, सब पद खो जाएगा। चार दिन के बाद तुम्हें कोई याद करने वाला भी न बचेगा। कुछ वर्षों के बाद, तुम हुए थे या नहीं हुए थे, इसमें भी कुछ भेद करना मुश्किल हो जाएगा। कुछ सदियों के बाद तुम न हुए होते तो, हुए तो—जरा भी अंतर न बचेगा।
जरा खयाल करो! तुमसे पहले अरबों—अरबों लोग इस पृथ्वी पर हो चुके हैं। तुम्हारे जैसे ही सपने देखने वाले लोग। तुम्हारे जैसा ही धन इकट्ठा करने वाले लोग। तुम्हारे जैसे ही पद—लोलुप, पदाकांक्षी, धन—लोलुप, धनाकांक्षी! वे सब अब कहां हैं? उनका नाम भी तो पता नहीं। वे कहां खो गए? हो सकता है, जिस धूल पर तुम चल कर आए हो उस धूल में पड़े हों। तुम जिस जगह बैठे हो, हो सकता है, वहीं उनकी लाश गड़ी हो, वहीं उनकी हड्डियां गल गई हों। कभी वे भी अकड़ कर चलते थे जैसा अकड़ कर तुम चलते हो। कभी किसी का जरा सा धक्का लग गया था तो नाराज हो गए थे, तलवारें खिंच गई थीं। आज धूल में पड़े हैं और कोई भी उनको पैरों से रौंदे चला जा रहा है। न नाराज हो सकते हैं, न तलवारें खींच सकते हैं।
च्वांगत्सु एक मरघट से निकलता था। सांझ का वक्त था, अंधेरा हो रहा था और उसका एक खोपड़ी से पैर लग गया, तो वह वहीं बैठ गया। उसके शिष्य भी साथ थे। वे भी चौंक कर खड़े हो गए कि वह क्या कर रहा है। उसने उस खोपड़ी को सिर से लगाया और बहुत क्षमा मांगी, कि क्षमा करिए, माफ करिए, नाराज मत होइए। थोड़ी देर तो शिष्य बरदाश्त करते रहे। फिर उन्होंने कहा: आप पागल हो गए हैं या क्या बात है? इस खोपड़ी से क्षमा मांगते हैं?
च्वांगत्सु ने कहा: जरा सोचो, अगर यह आदमी जिंदा होता तो आज अपनी मुसीबत हो गई होती। और यह कोई छोटा—मोटा आदमी नहीं, मैं तुमसे कह दूं, क्योंकि यह बड़े लोगों का मरघट है। यहां सिर्फ राजा—महाराजा इस मरघट में दफनाए जाते हैं। आज अपनी गरदन कट गई होती। वह तो संयोग की बात कहो कि यह मर चुका है। मगर क्षमा मांग लेना उचित है। बड़े लोग, इनका क्या भरोसा, कहीं नाराज हो जाए, भूत—प्रेत हो, नाराज हो जाए, कुछ उपद्रव खड़ा करे!
और वह तो उस खोपड़ी को अपने घर ले आया और उसको सदा अपने पास रखने लगा। लोग जब भी आते तो चौंक कर पूछते कि यह खोपड़ी किसलिए? तो वह कहता: यह खोपड़ी इस बात की याद दिलाने के लिए कि एक दिन अपनी खोपड़ी भी इसी तरह पड़ी होगी कहीं मरघट में, लोगों की लातें लगेंगी, कोई क्षमा भी नहीं मांगेगा। जिस दिन से इस खोपड़ी को ले आया हूं, उस दिन से अब कोई मुझे मार भी जाता है, तो मैं इसकी तरफ देखता हूं और मुस्कुराता हूं। मैं कहता हूं: देखो, ये अभी से ही लोग मारने लगे। अभी हम मरे भी नहीं और लोग मारने लगे। मगर यह तो होना ही है, आज नहीं कल होना है। सत्तर साल की जिंदगी है और उसके बाद अनंतकाल तक यह खोपड़ी कहां पड़ी रहेगी!
तुमसे पहले बहुत लोग हुए हैं। कहां हैं अब? तुमसे कम अकड़ वाले न थे वे। तुम्हारी जैसी ही अकड़ थी। तुम्हारी अकड़ भी ऐसे ही खो जाएगी।
यह संसार सूली है। यहां हर आदमी अपनी फांसी की प्रतीक्षा कर रहा है। यहां हम क्यू में खड़े हैं; फांसी लगती जाती है, क्यू आगे बढ़ता जाता है। जो—जो आदमी मरता है, वह तुम्हारी मृत्यु को करीब ले आता है, क्योंकि तुम करीब पहुंचने लगे। क्यू आगे सरकने लगा। जल्दी ही तुम्हारा भी नाम पुकारा जाएगा।
यहां मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ घटता ही नहीं। यहां रोज मौत घटती है। यहां मौत ही एक वास्तविक घटना है। बाकी सब घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि मौत सारी घटनाओं को पोंछ जाती है। आखिर में मौत की ही लकीर बचती है, बाकी सब मिट जाता है।
मीरा कहती है: यहां सोना भी चाहूं, कैसे सो जाऊं? यहां सूली पर सेज कैसे लगे?
तो एक तो इस अर्थ को समझना कि संसार सूली है; दूसरे, इस अर्थ में भी मीरा कहती है कि "डार गयो मनमोहन फांसी।' और जब से यह परमात्मा की धुन सवार हुई है, दोहरी फांसी हो गई है। यहां तो मौत थी ही, यहां तो जीवन कष्टपूर्ण था ही, यहां तो हजार दुख थे ही; अब एक और बड़े दुख का जन्म हुआ है। अब एक और एक नई फांसी लग गई है कि जब तक परमात्मा से मिलन न हो जाए तब तक चैन नहीं हो सकता; तब तक शांति नहीं हो सकती।
यहां भक्त और ज्ञानी के मार्ग का भेद समझना। इन सूत्रों में दोत्तीन जगह भेद खयाल में आएगा।
ज्ञानी कहता है: तुम शांत हो जाओ, तो सत्य मिल जाएगा।
भक्त कहता है: सत्य मिले, तो ही मैं शांत हो सकूंगा, नहीं तो शांत कैसे हो जाऊं?
ज्ञानी कहता है: अंधेरे को हटा दो, तो रोशनी हो जाएगी।
भक्त कहता है: रोशनी हो, तो ही अंधेरा हटेगा, अन्यथा अंधेरा हटेगा कैसे?
ज्ञानी कहता है: तुम सरल हो जाओ। तुम सब तरह की चिंताओं से मुक्त हो जाओ। तुम शांति को उपलब्ध हो जाओ।
भक्त कहता है: कैसे? अभी तो अशांति रहेगी ही, जब तक कि परमप्रिय से मिलन न हो जाए। उससे मिलने के पहले शांति हो कैसे सकती है? शांति तो छाया की तरह होगी। वह मिला कि शांति हो जाएगी।
भक्त के मार्ग पर विरह, परमात्मा की प्यास की पीड़ा सहयोगी है। भक्त तो दुखी रहेगा, रोता रहेगा, पुकारता रहेगा, शांत नहीं हो सकता। शांत हो जाने में तो खतरा है। शांत होने में तो पुकार खो जाएगी। शांत होने में तो खोज ही बंद हो जाएगी।
तो एक तो संसार की सूली लगी है और दूसरे, मीरा कहती है: जब से उस प्यारे की आंख में झलक पड़ गई, जब से उस प्यारे की छवि आंख में उतर गई, एक दूसरी फांसी भी लग गई है।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
तो एक तो संसार के दुख पर्याप्त हैं जगाने को। मगर फिर भी किसी तरह सो लेते—सांसारिक सो ही जाता है—लेकिन एक और एक नया दुख पकड़ गया। एक नया तीर प्राणों में चुभ गया है। और यह ऐसा तीर है कि इसका कोई इलाज नहीं, कोई औषधि इसको शांत नहीं कर सकती। परम प्यारा आए तो ही कुछ हो सकता है। इसलिए सोना कहां, चैन कहां, सांत्वना कहां?
गगन मंडल पे सेज पिया की, किस विधि मिलना होइ।
यहां तो चिंता ही सोने की नहीं है। चिंता एक ही है कि उस प्यारे से मिलना कैसे हो? और अड़चन बड़ी है: हम जमीन पर हैं, और गगन—मंडल पे सेज पिया की। हम क्षुद्र में बंधे हैं और वह विराट में है। हम सीमा में हैं वह है असीम। हम पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण के भीतर और वह सारे गगन के विस्तार में। हम बड़े क्षुद्र। कैसे उससे मिलन होगा? यह हमारी छोटी सी बूंद उस सागर को कैसे मिलेगी, कैसे खोजेगी?
गगन मंडल पे सेज पिया की...
गगन—मंडल शब्द का प्रयोग कबीर ने, दादू ने, मीरा ने एक बहुत विशेष अर्थों में किया है। इसको तो गगन कहते ही हैं, जो आकाश हमें दिखाई पड़ता है। लेकिन भक्त कहते हैं: तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही आकाश है, इतना ही बड़ा। उसे गगन मंडल कहते हैं। जितना बड़ा आकाश भीतर है, उतना ही बड़ा आकाश बाहर है। दोनों समतुल हैं। तुमने भीतर झांका नहीं, नहीं तो इतना बड़ा विस्तार वहां भी है। सहस्रार में जब कोई पहुंचता है तो गगन—मंडल में पहुंचता है। जब अपने सातवें चक्र में कोई थिर हो जाता है, तो भीतर के आकाश में थिर हो जाता है।
तो मीरा कहती है: उस सातवें चक्र पर, सहस्रार पर, उस प्राण प्यारे का वास है।
तुमने देखा न, विष्णु कमल पर विराजमान! बुद्ध भी कमल पर विराजमान। कृष्ण भी कमल पर विराजमान। हमने सारे अवतारों की धारणा कमल पर की है। क्योंकि हमारे भीतर वह जो सातवां चक्र है, वह कमल जैसा है; इसलिए उसको सहस्रार कहा है। सहस्रदल कमल! उसकी हजार पंखुड़ियां हैं। और जब भीतर का हमारा अंतिम चक्र खुलता है तो हजार पंखुड़ियों वाला कमल खुलता है। उसी में परमात्मा विराजमान है।
मीरा कहती है: हम कीचड़ में घसिट रहे हैं। और प्रभु विराजमान है गगन में। बड़ी दूरी है। किस विधि मिलना होइ? तड़फते हैं प्राण। हम इस पार, तुम उस पार। नाव का कुछ पता नहीं। कैसे हम उस पार आएं? कैसे तुम इस पार आओ? कैसे मिलना हो? और जब तक मिलना न हो तब तक कैसी सांत्वना, कैसी शांति, कैसा विश्राम?
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।
गगन मंडल पे सेज पिया की, किस विधि मिलना होइ।
दरद की मारी बन बन डोलूं, बैद मिल्या नहिं कोइ।
वैद्य मिल भी नहीं सकता। यह बीमारी ऐसी नहीं कि जिसकी चिकित्सा हो जाए। यह तो परम वैद्य मिलेगा, तो ही बीमारी जाएगी।
दरद की मारी बन बन डोलूं...
मीरा कहती है: घूमती हूं—इस कोने से उस कोने, इस नगर से उस नगर, इस वन से उस वन। पुकारती फिरती हूं। सब तरफ आवाज देती हूं। सब द्वार खटखटाती हूं—इस मंदिर के, उस मंदिर के—लेकिन कहीं कोई वैद्य नहीं मिलता। कहीं कोई नहीं मिलता जो इस बाण को खींच ले, घाव को भर दे। नहीं कोई वैद्य मिल सकता। और अच्छा ही है कि वैद्य नहीं मिल सकता। उस वैद्य का उपाय ही नहीं किया है परमात्मा ने। जिसको भक्ति का घाव लगा, वह फिर भरने वाला नहीं है; वह बढ़ता ही चला जाता है।
भक्त एक दिन पूरा का पूरा घाव हो जाता है, पूरा प्यास हो जाता है। उस दिन मिलन है। उसके पहले मिलन नहीं। यह कीमत चुकानी पड़ती है।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जब बैद सांवलिया होइ।
यह पीड़ा तो तभी मिटेगी जब सांवलिया खुद वैद्य होकर आएगा, खुद प्रियतम वैद्य होगा। खुद परमात्मा ही जब हाथ रखेगा इस घाव पर, तभी यह भरेगा। किसी और हाथ से भर नहीं सकता। किसी और हाथ से भरे जाने की इच्छा भी नहीं है, संभावना भी नहीं है।
सिसकता हुआ मन अभी चुप हुआ है
जरा ठहरो, अभी मत रुलाओ
लगी चोट जब से तभी से रुदन है
बहुत ही कसक है बहुत ही जलन है
न आंसू थमे हैं नहीं दर्द कम है
भरेगा नहीं कि यह ऐसा जखम है
गए चोट करके पुनः लौट आए
कि कितने निठुर हो तुम्हें क्या बताएं
अभी घाव गीला है पीड़ा बहुत है
इसे फिर न छू लो न फिर से दुखाओ।
लेकिन परमात्मा दुखाए चला जाता है। तब तक दुखाए चला जाएगा, जब तक घाव पूरा न हो जाए। घाव पकना चाहिए। पके घाव में ही भराव हो सकता है।
लगी चोट जब से तभी से रुदन है
बहुत ही कसक है बहुत ही जलन है
न आंसू थमे हैं नहीं दर्द कम है
भरेगा नहीं कि यह ऐसा जखम है
गए चोट करके पुनः लौट आए!
और परमात्मा चोट पर चोट किए जाता है। हर घड़ी चोट किए जाता है।
तुम्हें भक्त की दशा का पता नहीं। फूल खिलता है और उसको चोट लगती है। चांद निकलता है और उसे चोट लगती है। पक्षी आकाश में उड़ता है और उसे चोट लगती है। कोयल कुहूकुहू करती है और उसे चोट लगती है। और पपीहा पुकारता है पी—कहां और उसे चोट लगती है। मंदिर की घंटियां बजीं और उसे चोट लगती है। मस्जिद में नमाज पढ़ी और उसे चोट लगती है। उसे चोट लगती ही चली जाती है। उसे सब तरफ से चोट लगती है। नाजुक हो जाता है भक्त।
कि कितने निठुर हो तुम्हें क्या बताएं
गए चोट करके पुनः लौट आए
अभी घाव गीला है पीड़ा बहुत है
इसे फिर न छू लो न फिर से दुखाओ
बहुत नींद तेरी झुकी पर न पलकें
गई भाल पर छा परेशान अलकें
कि बेचैन करवट शिकन हर चिढ़ाती
कि घायल की पीड़ा रही है बढ़ाती
कि पल भर हुआ है अभी पीर चुप है
सपन देखता प्राण का कीर चुप है
कि आंखें रुआंसी अभी ही लगी हैं
सपन यह न टूटे अभी मत जगाओ।
लेकिन भक्त को भगवान जगाए ही चला जाता है। सपना भी नहीं देखने देता। हर सपने को तोड़ देता है।
किसी तरह सपने की चादर ओढ़ कर तुम सो जाना चाहते हो और वह आ जाता है। वह पीछा छोड़ता ही नहीं और उचित है कि वह पीछा नहीं छोड़ता। तो ही तुम पकोगे। तो ही फल गिरेगा।
शलभ की लगन है जला दीप आया
मचल ज्वाल चूमी अधर को जलाया
कि बलिदान पर भी मिटी है न दूरी
अभी अर्चना है हृदय की अधूरी
गड़ी फांस मन में कि सोने न देगी
अभी पंख झुलसे सभी तन न झुलसा
निठुर दीप तुम यह अभी मत बुझाओ
सिसकता हुआ मन अभी चुप हुआ है।
जरा ठहरो, अभी मत रुलाओ।
लेकिन परमात्मा फिर नहीं ठहरता। एक बार तुमने उसे पुकारा कि आता ही चला जाता है। शायद इसीलिए तो लोग डरते हैं और पुकारते भी नहीं। शायद इसीलिए तो लोग बचते हैं, किनारा काट जाते हैं। जहां चोट लगती है वहां नहीं जाते। लोग मलहम—पट्टी खोजते हैं, चोट नहीं खोजते। और जो चोट नहीं खोजता, वह परमात्मा को नहीं खोज रहा है। तुम मलहम—पट्टी खोजते हो। तुम जाते हो पंडित—पुरोहित को सुनने; क्योंकि वह मलहम—पट्टी करता है। वह तुम्हें सस्ते नुस्खे बताता है। वह कहता है: घबड़ाओ मत, धर्मशाला बनवा दो, सब ठीक हो जाएगा; कि एक मंदिर बना दो। मंदिर ऐसे ही बहुत हैं। कि सब ठीक हो जाएगा; कि गरीबों को भोजन करा दो, कि एक अस्पताल खोल दो, सब ठीक हो जाएगा। वह तुम्हें सस्ते नुस्खे बताता है। वह तुम्हें कुछ करने को बताता है। वह तुम्हें होने का नया ढंग नहीं बताता। वह यह नहीं कहता कि घाव बन जाओ, तब सब ठीक होगा।
इसीलिए तो लोग महावीर के पास कम जाते हैं, बुद्ध के पास कम जाते हैं, मीरा के पास कम जाते हैं। दो कौड़ी के पंडित—पुरोहितों के पास ज्यादा जाते हैं। वहां सुविधा है। वे तुम्हें किसी झंझट में नहीं डालते। वहां क्रांति नहीं सुलगती। वहां तुम जाते हो, वे तुम्हें थपकारते हैं, वे लोरी सुनाते हैं। तुम लोरी सुन कर झपकी खाने लगते हो। तुम बड़े प्रसन्न हो जाते हो। तुम घर लौट आते हो कि सब ठीक हो गया। वे तुम्हारे घाव भर देते हैं।
सदगुरु वही है, जो तुम्हारे घाव को इस तरह गहन कर दे कि फिर परमात्मा के अतिरिक्त उसे कोई न भर सके। इसलिए सदगुरु के पास तो साहसी, दुस्साहसियों का काम है। वहां तो हिम्मतवर, पागलों का काम है। वहां तो वे ही जाते हैं जो जीवन को दांव पर लगाना जानते हैं—लगाना चाहते हैं—लगाने की हिम्मत रखते हैं। वहां जुआरियों का काम है। तुम दुकानदार हो। तुम पुरोहित के पास जाते हो।
जीवन की गलियों में
हम तो चुपचाप रहे।
मिलन बहुत प्यारा है
विरह बहुत खारा है
जीवन की प्याली में
दोनों ही साथ रहे
जीवन की गलियों में
हम तो चुपचाप रहे।
आंसू में थिरकन है
आहों में कंपन है
जीवन की लहरों पर
आशा की नाव बहे
जीवन की गलियों में
हम तो चुपचाप रहे।
लिखना मजबूरी है
खुद से भी दूरी है
अब तक तो गीतों ने
मन के ही दर्द कहे
जीवन की गलियों में
हम तो चुपचाप रहे।
भक्त कहना भी नहीं चाहता और कभी कह उठता है, तो सिर्फ भीतर की आह के कारण। दर्द ही बोलता है। इसलिए। ये गीत मीरा ने गाए, ऐसा मत समझना, अन्यथा भूल हो जाएगी। वह जो मीरा का घाव है हरा, उसने गाए हैं। अन्यथा मीरा चुप रहती। कहने को क्या था? कहना किससे था? जिससे कहना था, उससे शब्दों में कहने की कोई जरूरत नहीं। और जिनकी समझ में शब्द आते हैं, उनसे कहने का कोई सार नहीं, क्योंकि वे समझ न सकेंगे। घायल की गति घायल जाणे।
फिर भी मीरा रो रही है। ये कहे गए हैं शब्द। ये अनायास प्रकट हुए हैं। ये गहन पीड़ा से निकले हैं। इनको मीरा रोक नहीं सकी। जैसे घाव से खून बह गया है, ऐसे ये शब्द बहे हैं।
मिलन बहुत प्यारा है! विरह बहुत खारा है! और जिसने विरह के खारेपन को न सहा, उसे मिलन की मिठास भी नहीं मिलेगी। मिलन तो सभी चाहते हैं। विरह कोई भी नहीं झेलना चाहता। इसलिए मिलन नहीं हो पाता। विरह झेलना होगा। विरह की कसौटी से गुजरना होगा। वह परीक्षा देनी ही पड़ेगी। और परीक्षा कठिन है, बहुत कठिन है! क्योंकि तोड़ती ही चली जाती है। तोड़ती ही चली जाती है। जलाती ही चली जाती है। रोज—रोज पीड़ा सघन होती चली जाती है।
जैसे—जैसे परमात्मा के करीब आते हो, पीड़ा बढ़ती है, पीड़ा मिटती है जरूर, जब मिलन हो जाता है। तब बड़ा स्वाद है, बड़ी मिठास है, बड़ा माधुर्य है, बड़ी मदिरा है! लेकिन उसके पहले बड़ा खारापन है। सागर के सागर पी लेने पड़ते हैं, तब कहीं स्वाति की एक बूंद हाथ लगती है।
बंसीवारा आज्यो म्हारो देस...
वह जो भीतर का लोक है, उसको मीरा कहती है मेरे देश में आओ कभी! मेरे भीतर आओ कभी! मेरे भीतर के शून्य में आओ, बजाओ अपनी बांसुरी। भरो मुझे! मैं रिक्त हूं, मैं खाली हूं। तुम्हारे स्वर ही मुझे भर सकते हैं। और किसी सस्ती चीज से भरने की मेरी आकांक्षा भी नहीं है।
बंसीवारा आज्यो म्हारो देस, थांरी सांवरी सूरत बाला भेस।
कृष्ण की सूरत हमने सांवरी रंगी है। बहुत सोच कर रंगी है। सांवरेपन में एक गहराई है जो गोरेपन में नहीं होती। गोरेपन में एक तरह का छिछलापन होता है। जैसे नदी जहां उथली होती है, वहां सफेद होती है और जहां गहरी होती है वहां नीली हो जाती है—ऐसा ही सौंदर्य जहां बहुत गहरा हो जाता है, वहां नीला हो जाता है। कृष्ण में अप्रतिम सौंदर्य को स्थापित करने के लिए हमने उनकी सूरत सांवली बनाई है। उनको नाम श्याम दिया है, घनश्याम दिया है। यह सिर्फ अपूर्व सौंदर्य की अवधारणा है।
...थांरी सांवरी सूरत बाला भेस।
लेकिन वह जो चेहरा दिया है कृष्ण को, वह बालक जैसा दिया है। गहरा सौंदर्य है, लेकिन बच्चे जैसी सरलता और निर्दोष भाव हैं। सभी संत अंततः बच्चों जैसे हो जाते हैं। हो जाएं, तभी संत हैं। वर्तुल पूरा हो गया।
बच्चे से चले थे, फिर बच्चे हो गए। बच्चे तो सभी भोले होते हैं। इसमें कुछ गौरव नहीं, इसमें कुछ गरिमा नहीं। यह स्वाभाविक है। अभी संसार नहीं जाना, अभी संसार की धूल नहीं पड़ी, दर्पण ताजात्ताजा है। लेकिन संसार को जानने के बाद जो बच्चे जैसा रह जाए, तो फिर गौरव है, तो फिर गरिमा है। संसार की भीड़ से गुजरे और अछूते। संसार की काजल—कोठरी से गुजरे और काजल जरा भी न लगा। कुंवारे के कुंवारे वापस। कबीर ने कहा है: ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।
तो जो परम अवस्था है, जो परम सौंदर्य है, वह सिर्फ देह का ही सौंदर्य नहीं है। अगर देह का ही होता तो सांवली सूरत से बात पूरी हो गई थी। वह आत्मा का सौंदर्य भी है। इसलिए बाला भेस! छोटे बच्चे जैसा भाव—निर्दोष, निष्कपट, निर्मल, दर्पण—जिस पर जरा भी धूल नहीं।
बंसीवारा आज्यो म्हारो देस, थांरी सांवरी सूरत बाला भेस।
आऊं—आऊं कर गया सांवरा, कर गया कौल अनेक।
भक्त और उसके भगवान के बीच बहुत वायदे चलते हैं, वायदा—खिलाफी भी चलती है।
मीरा कहती है:
आऊं—आऊं कर गया सांवरा...
और कितनी बार तुम वायदा कर गए! और कितनी बार कहा कि आता हूं, आता हूं! भगवान कह ही रहा है प्रतिक्षण। जब तुम सुनोगे प्यास से भरे, घाव से भरे, तो तुम पाओगे: हर क्षण कहता है आता हूं, आता हूं। उसका यह कहना तुम्हारे घाव को और गहरा करता चला जाता है। हर तरफ से संकेत और इशारे आते हैं कि अब आया तब आया, कि अब आता ही है, यह देखो पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी! यह देखो कौन बांसुरी बजा उठा! यह देखो, जो आ रहा है यह तो वही है—मोरमुकुटधारी! यह तो वही है—पीतांबर वेश वाला!
बहुत बार झलक मिलती है। पैरों की ध्वनि सुनाई पड़ती है। बहुत बार उसकी आवाज आती है। बहुत बार सपनों में उतरता है। बहुत बार पास ही उसकी सुगंध छू जाती है। नासापुट भर जाते हैं उसकी सुगंध से। बहुत बार इतने करीब होता है कि भक्त को लगता है हाथ बढ़ाऊं तो पकड़ लूं, और फिर—फिर दूरी हो जाती है।
यह जरूरी है। इसी तरह भक्त पीड़ा में पकता है। पीड़ा निखरती है, गहन होती है, गहरी होती है। अगर परमात्मा कोई वचन भी न दे, अगर भगवान कोई वायदे भी न करे, तो भक्त थक जाएगा, निराश हो जाएगा। तो बीच—बीच में आशा की किरण आती रहती है। भक्त को निराश नहीं होने देता है। आशा की किरण भक्त को तल्लीन रखती है। मगर मिलन तो तभी होगा जब भक्त पक जाएगा, उसके पहले मिलन नहीं हो सकता।
आऊं—आऊं कर गया सांवरा, कर गया कौल अनेक।
जब भी आशा—लहरों के हाथों नैया सौंपी
तूफानों से मिल तट ने सपने नीलाम किए
जानी—अनजानी भूलों का कर्ज चुकाने में।
सौंधी माटी जैसी सुघर उमरिया बीत चली
संबंधों के चौराहे पर किरण अकेली है
सुबह—सुबह पनघट पर नवल गगरिया रीत चली
किसने चाहा नहीं अमा के द्वार दिवाली हो
किंतु तिमिर की गलियों में दीपक बदनाम हुए
अश्रु—धरा पर गीतों के बिरवों को प्राण मिले
अनबोली अभिशप्त विवशता डाल—डाल फूली
ढलते वैरागी दिन जैसी प्रीत बावरी है
मेरी ही परछाई मुझको अनायास भूली
ठिठक गए विश्वासों के पग सर्पीले पथ पर
अनब्याही अल्हड़ निष्ठा कब तक निष्काम जिए
तन की अंजुरी में मन पारे जैसा बिखर गया
चपला की चितवन सुरधनु को बांध नहीं पाई
तरुछाया को मीत मान कर जीना मुश्किल है 
बिना प्यार की छांव जिंदगी कभी न मुस्काई।
बिना उस परम प्यारे की प्रीति की वर्षा के तृप्ति नहीं, नृत्य नहीं, गीत नहीं, गायन नहीं। कब तक भक्त अपने को समझाए आशाओं में? तो कभी—कभी उसकी आशाएं बड़ी बलवती हो जाती हैं। लगता है: अब आया, अब आया। यह द्वार पर दस्तक पड़ी। भक्त सजग हो जाता है। उमंग से भर जाता है। प्यास गहन हो जाती है। द्वार खोलता है और नहीं पाता है। सन्नाटा है। कोई न गुजरा है, न कोई गुजर रहा है। घाव और गहरा हो जाता है। यह घाव को गहरे करने की प्रक्रिया है।
आऊं—आऊं कर गया सांवरा, कर गया कौल अनेक।
गिणता गिणता घस गई जी, म्हारी आंगलियां की रेख।
ये तुझसे किसने कहा गम से दिल तबाह नहीं
ये और बात कि मेरे लबों पे आह नहीं
वो एक मैं कि सरापा सवाल हूं कब से
वो एक तू कि तुझे फुरसते निगाह नहीं
ये तुझसे किसने कहा कि गम से दिल तबाह नहीं?
कभी—कभी भक्त नाराज भी हो जाता है कि बहुत हो गई बात।
ये तुझसे किसने कहा कि गम से दिल तबाह नहीं? इधर मैं मरा जा रहा हूं, तड़पा जा रहा हूं।
ये तुझसे किसने कहा कि गम से दिल तबाह नहीं?
यहां मैं तबाह हुआ जा रहा हूं, यहां सब पतझड़ है।
ये और बात कि मेरे लबों पे आह नहीं
शिकायत नहीं करता हूं, यह और बात; लेकिन तबाह हूं, यह पक्का है।
वो एक मैं कि सरापा सवाल हूं कब से
एक मैं हूं कि प्रश्न ही प्रश्न पूछे जा रहा हूं। एक मैं हूं कि प्रार्थना ही प्रार्थना किए जा रहा हूं। एक मैं हूं कि प्यास ही प्यास दोहराए जा रहा हूं।
वो एक मैं कि सरापा सवाल हूं कब से
वो एक तू कि तुझे फुरसते निगाह नहीं।
और एक तू है कि तू मेरी तरफ देखता भी नहीं। तेरी नजर ही इस तरफ नहीं होती।
गिणता—गिणता घस गई जी, म्हारी आंगलिया की रेख।
मैं बैरागण आदि की जी, थारि म्हारि कदको सनेस।
मीरा कहती है कि जरा याद तो करो! भूल गए क्या? मैं बैरागण आदि की जी! मैं शुरू से ही वैरागण हूं। यह कोई आज का प्रेम नहीं। यह कुछ नया प्रेम नहीं। यह प्रीत बड़ी पुरानी है। यह सनातन प्रीति है। मैं पहले से ही तुम्हीं को खोज रही हूं।
और जिस दिन तुम परमात्मा की प्यास से भरोगे, उस दिन तुम्हें भी यह पता चलेगा कि तुम भी सदा से उसी को खोज रहे हो। कभी—कभी गलत जगहों में खोजा था, यह और बात, मगर खोजा उसी को था। कभी किसी स्त्री में खोजा था, लेकिन खोजा उसी सांवले को था। वहीं अनंत सौंदर्य चाहा था स्त्री में, इसलिए तो तृप्ति नहीं हुई। स्त्री के पास सौंदर्य था, लेकिन अनंत सौंदर्य नहीं था। इसलिए कोई स्त्री किसी को कभी तृप्त नहीं कर पाई। स्त्री का कोई कसूर नहीं है। तुम्हारी आकांक्षा विराट की है। और तुम विराट की मांग करते हो। स्त्री सब चेष्टा करती है—रंगती है, रोगन लगाती है, चेहरा बनाती है, कपड़े पहनती है, आभूषण! सब तरफ से कोशिश करती है कि किसी तरह तुम्हारी मांग पूरी हो जाए। मगर तुम्हारी मांग क्षुद्र से पूरी होने वाली नहीं है।
कभी किसी पुरुष में खोजा। सभी स्त्रियां पुरुषों में परमात्मा को खोज रही हैं। इसलिए तो स्त्री को बड़ी पीड़ा होती है, जब पति में खोट देखती है। जरा सी खोट उसे खा जाती है। जरा सा दोष देखती है तो अड़चन में पड़ जाती है। क्योंकि वह चाहती है कि उसका पति निर्दोष हो। वह कृष्ण को खोज रही है। उसे पता नहीं है। मगर अब इस बेचारे साधारण पति का क्या कसूर? इसमें खोट है। यह सीमा है इसकी। और तुम असीम की मांग कर रहे हो। उस निर्दोष सौंदर्य की खोज चल रही है। मगर यह सौंदर्य तो निर्दोष नहीं है। यह सौंदर्य तो बड़ा कपट से भरा है। यह तो सौंदर्य मन का ही है—मन से ज्यादा गहरा नहीं हो सकता।
जिस दिन परमात्मा को तुम खोजने चलोगे, उस दिन तुम्हें पहली दफा खयाल आएगा कि अरे, मैं सदा—सदा से इसी को खोजता था। अलग—अलग जगह खोजा, अलग—अलग दिशाओं में खोजा—मगर खोजा इसी को था! इसीलिए तो धन कितना ही मिल जाए, तृप्ति नहीं होती। क्योंकि तुम परम धन खोज रहे हो। करोड़ हो तो दस करोड़ चाहिए। दस करोड़ है तो दस अरब चाहिए। बढ़ती ही जाती है मांग। संख्या गिनते—गिनते तुम्हारी अंगुलियों की रेखाएं भी तो सब मिट गईं—रुपया गिनते—गिनते! मगर तुम चाहते क्या हो, गौर से देखो। कभी मन में तुमने सोचा, क्या चाहते हो?
मैंने सुना है, एक गुरुकुल में एक युवक उत्तीर्ण हुआ। गुरु उससे बहुत प्रसन्न था। गुरु ने कहा: तू मांग ले, तुझे क्या चाहिए? मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं।
उस युवक ने कहा: मुझे कुछ और मांगना नहीं। जब घर से आया था तो मेरे पिता बड़े कर्जदार थे, गरीब थे। मैं तो यहां वर्षों आश्रम में रहा, पता नहीं उनकी कैसी हालत है, चुका पाए कर्ज, नहीं चुका पाए। चुका भी दिया होगा तो भी गरीब ही होंगे, भूखे होंगे, बस एक ही आकांक्षा है कि जाकर किसी तरह उनकी सेवा कर सकूं।
तो उसके गुरु ने कहा: तू एक काम कर। इस देश का जो सम्राट है, तू वहां चला जा। वह रोज सुबह एक व्यक्ति को वरदान देता है, जो भी मांगो। तो जल्दी से जाकर खड़े हो जाना। चार बजे रात ही पहुंच जाना, ताकि तू पहला मिलने वाला व्यक्ति हो।
तो वह खड़ा हो गया चार बजे से। पांच बजे सम्राट अपने बगीचे में घूमने निकला, तो उस युवक को खड़े देखा। पूछा, क्या चाहते हो? जब सम्राट ने यह पूछा क्या चाहते हो...गुरु ने कहा था; जो मांगेगा, वह सम्राट दे देगा। तो तुम सोच सकते हो: उसकी हालत बहुत मुश्किल हो गई। सोचा था कि पांच सौ रुपये मांग लूं। उस पुराने जमाने की बात। पांच सौ रुपये तो जिंदगी भर के लिए बहुत हो जाते हैं। मगर जब सम्राट ने कहा—मांग ले जो तुझे मांगना! तो उसने सोचा मैं पागल हूं, अगर पांच सौ मांगूं। पांच हजार क्यों न मांगूं? पांच लाख क्यों न मांगूं? पांच करोड़ क्यों न मांगूं?
बात बढ़ती चली गई। सम्राट ने कहा: मालूम होता है तू तय करके नहीं आया। तू विचार कर ले। मैं जब तक बगीचे का चक्कर लगा लूं।
जब तक सम्राट ने बगीचे का चक्कर लगाया तब तक तो वह युवक बिलकुल पागल हालत में आ गया। संख्या बढ़ती ही चली जाती। जब देने को ही राजी है कोई, तो फिर कम क्यों मांगना! जितनी उसे संख्या आती थी, वहां पहुंच गया, आखिरी संख्या पर पहुंच गया। तब सिर पीट लिया उसने कि गुरु सदा कहते थे गणित पर ध्यान दे, मैंने ज्यादा ध्यान न दिया। आज काम आ जाता। यह संख्या इससे ज्यादा मुझे आती नहीं। अब अटक गया।
तब तक सम्राट आया। उसने पूछा: तू बड़ा बेचैन, परेशान मालूम होता है। बात क्या है? तू मांग ही ले, तुझे जो मांगना है।
तो उसने कहा कि संकोच लगता है। सम्राट ने कहा: संकोच का सवाल ही नहीं। तू बोल।
तो उसने कहा: ऐसा करें, मैंने बहुत सोचा, बहुत संख्या सोची, लेकिन गणित मेरा ठीक नहीं है और संख्या पर जाकर मैं अटक गया हूं। और अगर उतना मैं मांगूं तो जिंदगी भर पछताऊंगा कि और क्यों न मांग लिया। तो आप ऐसा करें कि आप जिस दरवाजे से मैं आया हूं बाहर निकल जाएं और जो आपके पास है, सब मुझे दे दें। तो मुझे जिंदगी में दुख नहीं होगा कि जो था सभी मिल गया, अब संख्या का कोई सवाल ही नहीं था। जितना है, सब दे दें।
युवक तो सोचता था सम्राट घबड़ा जाएगा यह सुन कर। लेकिन सम्राट ने तो आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा: हे प्रभु, तो तूने भेज दिया वह आदमी, जिसकी मुझे तलाश थी! तब तो युवक थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा: बात क्या है? आप क्या कह रहे हैं?
वह सम्राट बोला: अब तू सोच—विचार में मत पड़ जाना। तू भीतर जा, सम्हाल! मैं थक गया हूं बहुत। और मैं वर्षों से प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, किसी को भेज दो, जो सब मांग ले। आज सुन ली उसने!
उस युवक ने कहा: मुझे एक दफा और सोचने का मौका दें। आप एक चक्कर और बगीचे का लगा आएं।
सम्राट ने कहा कि नहीं, मुश्किल से तू आया है। वर्षों हो गए मुझे दान देते; मगर छोटे—छोटे दान लोग मांगते, उससे क्या बनता—बिगड़ता है! तू हिम्मतवर आदमी है। सोचने की अब क्या जरूरत है? फिर सोचना मजे से। महल में जा, वहीं सोचना। जैसे हम सोचते रहे जिंदगी भर, तू भी सोचना। जल्दी क्या है? तू अभी जवान है।
उस युवक ने कहा कि नहीं, एक मौका तो मुझे देना ही पड़ेगा। सम्राट चक्कर लगा कर आया और जो उसने सोचा था वही हुआ, युवक भाग गया था। द्वारपाल को कह गया था: मेरी तरफ से क्षमा मांग लेना। क्योंकि जब सम्राट इतने सब होने से तृप्त नहीं हुआ, तो अब इस झंझट में मैं क्यों पडूं। इसकी जिंदगी खराब हुई, मेरी भी खराब करूं।
धन कितना ही हो, तुम निर्धन बने ही रहते हो। तो धन में परम धन की तलाश चल रही है। परमात्मा की तलाश चल रही है। आदमी सभी दिशाओं में उसी को खोज रहा है।
इसलिए मीरा ठीक कहती है: मैं बैरागण आदि की जी...
यह कोई नई प्रीति नहीं—पुरानी प्रीति है। मैं सदा से तुम्हीं को खोज रही हूं, सदा से तुम्हीं को पुकार रही हूं।
...थारि म्हारि कद को सनेस।
जरा सोचो तो कि कब का अपना पुराना प्रेम है। कब का! कितना पुराना!
बिन पाणी बिन सावण सांवरा, हो गई धोए सफेद।
इतने दिनों से पुकार रही हूं, इतनी सदियों से, इतने जन्मों से तुम्हारे लिए रो रही हूं कि आंसुओं ने ही धो—धो कर मुझे सफेद कर दिया।
बिन पाणी बिन सावण सांवरा...
न तो पानी की जरूरत पड़ी और न आकाश में मेघ घिरे, न उनकी वर्षा की जरूरत पड़ी। आंसुओं के ही कारण धुल—धुल कर सफेद हो गई हूं। जरा मेरी तरफ देखो!
...हो गई धोए सफेद।
जोगण होकर जंगल हेरूं, तेरो नाम न पायो भेस।
और भटकती हूं जंगल—जंगल, तुझे कुछ दया नहीं आती? तुझे मेरी तरफ कुछ करुणा नहीं आती?
...तेरो नाम न पायो भेस।
न तो तेरे नाम का पता चलता है, न तेरे रूप का पता चलता है। जगह—जगह ठोकर खाती हूं, पुकारती फिरती हूं। तू मिलता नहीं। हां, तेरी झलक दूर—दूर दिखाई पड़ती है। कभी उस तारे के पास, कभी उस चांद के पास। जब तक मैं वहां पहुंचती हूं, तू वहां से अंतर्ध्यान हो गया होता है।
तेरी सूरत के कारण मैं तो, धारया छे भगवा भेस।
और ये जो गैरिक वस्त्र मैंने पहन लिए हैं, ये मैंने किसी स्वर्ग या किसी मोक्ष को पाने के लिए नहीं।
यह भक्त का भेद समझ लेना। ज्ञानी चाहता है मोक्ष। ज्ञानी चाहता है स्वर्ग। ज्ञानी चाहता है सच्चिदानंद की परम अवस्था। भक्त कहता है: मुझे यह कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ तू मिल जाए, तेरे चरण मिल जाएं।
तेरी सूरत के कारण मैं तो...
वह तेरी सांवली सूरत मन भा गई। वह तेरा बालक जैसा निर्दोष भाव मन भा गया।
बंसीवारा आज्यो म्हारो देस, थांरी सांवली सूरत बाला भेस।
तेरी सूरत के कारण मैं तो, धारया छे भगवा भेस।
ये जो मैंने गैरिक वस्त्र पहने हैं, ये किसी मोक्ष की तलाश में नहीं—तुझसे मिलने के लिए।
भक्त भगवान से मिलना चाहता है। उसकी और कोई आकांक्षा नहीं। इसलिए भक्त एक अर्थ में परम वासना—मुक्त होता है। मोक्ष की आकांक्षा भी अपने ही लिए की गई आकांक्षा है: मुझे मोक्ष मिले! भक्त अपने लिए कुछ भी नहीं मांगता। वह कहता है: तुम्हारे पास तुम्हारी छाया में बैठने मिल जाए! तुम मिल जाओ! इतना पर्याप्त है।
मोरमुकुट पीतांबर सोहे, घूंघरवाला केस।
बस मेरे मन में तो एक ही बात गूंज रही है—मीरा कहती है: तुम्हारे वे घूंघरवाले बाल! वह तुम्हारा पीतांबर वेश! वह तुम्हारी सांवली सूरत! वह तुम्हारा निर्दोष चेहरा! वे तुम्हारी निर्दोष आंखें! बस इतना पर्याप्त है। ये गैरिक वस्त्र मैंने इसीलिए पहने हैं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, मिल्या मिटेगा क्लेस।
महावीर ने कहा है: क्लेश मिट जाएं तो सत्य की उपलब्धि हो। मीरा कहती है: तुम मिल जाओ तो क्लेश मिटें, दुख मिटें, चिंताएं मिटें।
दो तरह के गैरिक संन्यासी हैं दुनिया में। मेरे पास दोनों तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैं, जिन्होंने गैरिक वस्त्र इसलिए पहने हैं कि संसार के प्रति उनके मन में विराग पैदा हो गया है। और एक वे लोग हैं जिन्होंने गैरिक वस्त्र इसलिए पहने हैं कि उनके मन में परमात्मा के प्रति राग पैदा हो गया। दोनों की फलश्रुति एक ही है अंततः। लेकिन दोनों के ढंग बड़े अलग होंगे। संसार के प्रति जो विरागी है, वह भी गैरिक वस्त्र पहनता है; लेकिन तुम उसे उदास पाओगे। तुम उसे गंभीर पाओगे। तुम उसे शांत पाओगे, किंतु गंभीर। और जिसे परमात्मा का राग पैदा हो गया है, तुम उसे नाचता हुआ पाओगे। तुम उसे गुनगुनाता हुआ पाओगे।
मीरा कहती है: ये गैरिक वस्त्र संसार के किसी दुख से घबड़ा कर नहीं पहने हैं मैंने। तुम्हारे आनंद की झलक मिलने लगी है, इसलिए पहने हैं। ये मेरे गैरिक वस्त्र तुम्हारे प्रति राग के प्रमाण हैं—संसार के प्रति विराग के नहीं। यद्यपि जिसका परमात्मा के प्रति राग हो गया, उसका संसार के प्रति अपने आप विराग हो जाता है। मगर वह गौण बात है। वह उसका लक्ष्य नहीं है।
बाला मैं बैरागण हूंगी।
प्यारा वचन है! कृष्ण को कहती है: बाला। मतलब होता है: लाला।
लाला मैं बैरागण हूंगी।
लेकिन यह मेरा वैराग्य तुम्हारे राग से ज्योतिर्मय है। यह मेरा वैराग्य संसार के विपरीत नहीं—तुम्हारी अभीप्सा से भरा है।
जिन भेषां म्हारो साहब रीझै, सो ही भेष धरूंगी।
जिन भेषां म्हारो साहब रीझै...
वह परम प्यारा जिस बात से रीझे, वही भेष धरूंगी। अगर ये गैरिक वस्त्र तुम्हें प्रिय हैं तो ठीक, गैरिक वस्त्र। तुम्हें जो प्रिय है, वैसी ही हो जाऊंगी। तुम्हारे योग्य बनना है, पात्रता अर्जित करनी है, अधिकार पाना है।
जिन भेषां म्हारो साहब रीझै, सो ही भेष धरूंगी।
तुम जो कहोगे, वही करूंगी।
शील संतोष धरूं घट भीतर, समता पकड़ रहूंगी।
तुम अगर कहो कि शील चाहिए, तो शील। तुम कहो संतोष, तो संतोष। और तुम कहो समता, तो समता।
भेद समझना। ज्ञानी इन सारी प्रक्रियाओं को साधता है—शर्तबंदी की तरह। क्योंकि समता के बिना कैसे सत्य मिलेगा, और शील के बिना कैसे सत्य मिलेगा, और संतोष के बिना कैसे सत्य मिलेगा? सत्य पाना है उसे, इसलिए वह शील भी साधता, संतोष भी साधता, समता भी साधता। लेकिन साधना में पीछे बराबर देखता रहता है कि अभी तक मिला नहीं सत्य। मैंने इतना शील साधा, इतना त्याग किया, इतना व्रत किया, अभी तक मिला नहीं। उसकी साधना व्यावसायिक मालूम होती है—साधन की तरह; लेकिन नजर कहीं और लगी है।
मीरा की साधना में भेद होगा। भक्त की साधना में भेद है। भक्त कहता है: सुना कि तुझे शील रुचता है, तो शील साधते हैं। सुना कि तुझे समता प्यारी लगती है, तो समता साधते हैं। जैसे कोई स्त्री, उसके पति को प्यारा लगता है, वैसा आभूषण पहन लेती है, वैसे कपड़े पहन लेती है, जैसा पति को प्यारा लगता है, जैसा उसके प्यारे को प्यारा लगता है।
जिन भेषां म्हारो साहब रीझै...
ऐसे ही भक्त कहता है कि जिस भेष में तुम रीझोगे मुझ पर, जिस भेष में तुम पाओगे मैं तुम्हारे योग्य हुआ, जिस भेष में तुम मुझसे मिलना चाहोगे, इशारा भर कर दो—साधने में देर नहीं लगेगी।
भक्त साधता भी है, लेकिन परम आनंद से साधता है। उसकी साधना में वही भाव होता है जो तुमने कभी स्त्री को अपने प्रिय के लिए सजते हुए देखा हो—दर्पण के सामने, अपने प्रिय के लिए सज रही है! प्यारा आता है बहुत दिन के बाद, तो वह सज रही है! परम आनंद भाव से। गंभीरता नहीं पाओगे वहां। कपड़े पहन रही, कि बिंदी लगा रही, कि बाल संवार रही। तुम गंभीरता नहीं पाओगे। गंभीरता यहां कैसी? प्यारे से मिलने को जा रही है। बड़ी आनंदित है, आह्लादित है। याद कर रही है कि प्यारे को क्या—क्या ठीक लगता है—काली बिंदी ठीक लगती है कि लाल बिंदी ठीक लगती है? प्रिय के योग्य बनना है।
ऐसे ही भक्त जीता है। भक्त का चरित्र उसका शृंगार है। ज्ञानी का चरित्र शृंगार नहीं है। इसलिए ज्ञानी को तुम उदास देखोगे। वह काम करता है—समता भी साधता है, शील भी साधता है, ध्यान भी करता है—लेकिन तुम उसको उदास देखोगे। उसके चेहरे पर तुम्हें प्रफुल्लता नहीं दिखाई पड़ेगी, क्योंकि प्रेम की वहां कोई संभावना नहीं। और प्रेम के बिना कोई प्रफुल्लता नहीं है।
शील संतोष धरूं घट भीतर, समता पकड़ रहूंगी।
जाको नाम निरंजन कहिए, ताको ध्यान धरूंगी।
तुम अगर कहते हो कि ध्यान रखो तो ध्यान धरूंगी। तुम अगर कहते हो निरंजन को याद करो, तो निरंजन को याद करूंगी।
गुरु के ज्ञान रंग तन कपड़ा, मन मुद्रा पैरूंगी।
अगर तुम कहते हो कि गुरु के चरण पकड़ो, तो—
गुरु के ज्ञान रंग तन कपड़ा...
तो गुरु जो ज्ञान देगा, उसी में तन को रंग लूंगी, कपड़े को रंग लूंगी। तुम जो कहो, राजी हूं; जिधर भेजो, राजी हूं। तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा है।
...मन मुद्रा पैरूंगी।
मुद्रा पारिभाषिक शब्द है। मुद्रा का अर्थ होता है: एक ऐसी चित्त की शून्य—दशा जहां कोई विचार नहीं रह जाता। उस शून्य दशा में ही परमात्मा की पूर्णता उतरती है। उसको महामुद्रा कहते हैं। ध्यान की परम दशा को महामुद्रा कहते हैं, जहां अहंकार बिलकुल शून्य हो जाता है; सिर्फ एक शून्य वर्तुल रह जाता है। इसलिए अंगूठी को भी मुद्रा कहते हैं, क्योंकि वह भी शून्य वर्तुल है।
प्रेम में अंगूठी दी जाती है—बहुत देशों में! जिससे तुम्हारा प्रेम होता है, प्रेम के प्रतीक की तरह तुम अंगूठी देते हो। वह मुद्रा है। वह प्रतीक मात्र है। अब परमात्मा को सोने की अंगूठी तो नहीं दी जा सकती, लेकिन चित्त की शून्य दशा दी जा सकती है। चित्त शून्य हो जाए—जैसे मुद्रा, जैसे अंगूठी एक वर्तुल होती है और बीच में शून्य होता है। ऐसे तुम्हारा व्यक्तित्व एक वर्तुल रह जाए और बीच में शून्य हो। उसी शून्य में परमात्मा का प्रवेश होता है। उसी मुद्रा के द्वारा तुम उसे बुला सकते हो। वही मुद्रा तुम्हारे और परमात्मा के बीच प्रणय का प्रतीक है।
तो मीरा कहती है:
गुरु के ज्ञान रंग तन कपड़ा, मन मुद्रा पैरूंगी।
प्रेम प्रीत सूं हरिगुण गाऊं, चरणन लिपट रहूंगी।
एक बार तुम मिल भर जाओ, फिर छोड़ूंगी नहीं; चरणों में लिपट जाऊंगी, जैसे बेल लिपट जाती है वृक्ष पर।
प्रेम प्रीत सूं हरिगुण गाऊं, चरणन लिपट रहूंगी।
या तन की मैं करूं कींगरी...
मिल भर जाओ एक बार। बड़ी—बड़ी आशाएं हैं भक्त की, कि मिल जाओ तो ऐसा करूं, ऐसा करूं। जैसे तुम्हारे मन में उठती है। कभी प्यारा आता है तो तुम सोचते हो: ऐसा करूं, वैसा करूं; घर को ऐसा सजाऊं; भोजन ऐसा बनाऊं। भक्त भी बड़ी आशाएं रखता है कि प्रभु मिलेगा तो क्या करेगा?
मीरा कहती है:
या तन की मैं करूं कींगरी...
इस तन की तो सारंगी बना लूंगी। इस तन की मैं करूं कींगरी, रसना नाम कहूंगी।
जीभ को हमने रसना कहा है—दो कारणों से। दूसरा कारण शायद तुम्हें पता न हो। एक कारण तुम्हें पता है कि भोजन का रस जीभ से मिलता है, इसलिए रसना। यह असली कारण नहीं। असली कारण दूसरा है, क्योंकि जीभ से ही परमात्मा का स्मरण होता है और उसका स्वाद मिलता है, इसलिए रसना। भोजन का भी स्वाद जीभ से मिलता है और परमात्मा का भी स्वाद जीभ से मिलता है। तो रसना।
मीरा कहती है:
या तन की मैं करूं कींगरी, रसना नाम कहूंगी।
शरीर को तो बना लूंगी सारंगी और फिर गाऊंगी गीत तेरे आनंद के, तेरे गुण गाऊंगी।
प्रेम प्रीत सूं हरिगुण गाऊं, चरणन लिपट रहूंगी।
या तन की मैं करूं कींगरी, रसना नाम कहूंगी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, साधा संग रहूंगी।
और फिर तुमसे मिलन हो जाए, तुम्हारे चरणों में मेरा गीत अर्पित हो जाए, जो संगीत मैं लिए फिर रही हूं जन्मों—जन्मों से वह प्रकट हो जाए—तो फिर क्या बचता है? फिर एक ही बात बचती है कि इसी गीत को गुनगुनाऊंगी, लोगों तक पहुंचाऊंगी।
...साधा संग रहूंगी।
जिनकी भी आकांक्षा तुम्हें पाने की है, जो भी साधु होने को तत्पर हैं या साधु हो गए हैं, जो तुम्हें खोजने निकल पड़े हैं। बजाऊंगी सारंगी। एक बार तुम मिल जाओ, एक बार तुम्हारे चरणों में मेरा गीत और मेरा संगीत अर्पित हो जाए, तो फिर जाऊंगी दूर—दूर। साधा संग रहूंगी! फिर जगाऊंगी सोयों को। फिर पुकारूंगी। एक बार मुझे भर दो अपने अमृत से, तो उसे लुटाऊंगी।
...साधा संग रहूंगी।
जहां—जहां सत्संग होता होगा, वहां—वहां नाचूंगी। जहां लोग प्रभु—प्रेम में इकट्ठे होते होंगे, वहां मस्त होकर गुनगुनाऊंगी। एक बार तुम्हें चख लूं, एक बार मेरी इस जीभ पर तुम्हारा स्वाद उतर आए, तो फिर इस जीभ में बड़ा बल होगा; तो फिर जिसको पुकारूंगी उसके जीवन में भी रस की धार बह जाएगी। फिर कुछ और बचता नहीं। फिर एक ही काम बचता है कि तुम्हारे गुण गाऊं, सोयों को जगाऊं।
और मीरा ने वही किया। जब उसके प्राण प्यारे उसे मिल गए, तो उसने वही किया। जगाती फिरी, सच उसने जैसा कहा, वैसा ही किया।
या तन की मैं करूं कींगरी...
किस दूसरे व्यक्ति ने अपने तन की ऐसी सारंगी बनाई, जैसी मीरा ने बनाई? किसी और ने नहीं। मनुष्य—जाति के इतिहास में अप्रतिम है मीरा। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो चुप रहे, मौन रहे, शांत रहे। महावीर को ज्ञान हुआ तो निर्विकार, निर्दोष, मौन में रहे। महामुनि थे। बारह वर्ष तक चुप रहे। फिर बोले भी तो संक्षिप्त।
कौन नाचा मीरा जैसा? किसने तन की कींगरी बनाई?
मीरा अनूठी है उस अर्थों में! सत्य का संस्पर्श—इतने संगीत को किसी और ने कभी पैदा नहीं किया। मीरा में बाढ़ आ गई। बह चली। जो पास आया, उसको डुबाया। जिसको छुआ उसको मस्ती से भर दिया। जो मीरा की हवा में आ गया, वह नशे में भर गया। जो उसने कहा, किया भी।
या तन की मैं करूं कींगरी, रसना नाम कहूंगी,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, साधा संग रहूंगी।
एक बार तुम मिल जाओ तो मैं तुम्हें बांटने निकल जाऊं; तो गांव—गांव पुकारूं कि मीरा के तो गिरधर नागर; तो जहां—जहां साधु हों, जहां—जहां तुम्हारे प्यासे हों, वहां—वहां जाऊंगी। जिनकी अंजुरी तुम्हें पुकारती होगी, जिनकी प्रार्थना तुम्हें पुकारती होगी—उनमें तुम्हें उंडेल दूंगी।
और मीरा ने ऐसा किया। अब भी उसके वचनों में जैसा रस है, वैसा किसी और के वचनों में नहीं। अब भी मीरा का नाम ही हृदय में रस घोल जाता है।
उसके पद सीधे—साधे हैं। वह कोई कवयित्री नहीं है। प्रेम में गाए हैं। योजना नहीं की है। बैठ—बैठ कर मात्रा, छंद नहीं बिठाए हैं। बैठ गए हैं! अपने से हो गया है। सहजस्फूर्त हैं ये वचन। फिर बहुतों ने मीरा जैसे पद लिखे हैं, हजारों पद लिखे हैं, मीरा का नाम भी जोड़ दिया उनमें। अब तो तय करना लोगों को मुश्किल होता है कि कौन से पद मीरा के हैं, कौन से दूसरों ने लिख दिए हैं। लेकिन पहचाने जा सकते हैं वे पद। क्योंकि दूसरों ने लिखे हैं, उनमें कविता है, उनमें व्यवस्था है। उन्हें पकड़ा जा सकता है। उनमें भाषा का सौंदर्य है, लेकिन भाव दरिद्र है। देह सुंदर है, आत्मा अनुपस्थित है। मगर जिसको आत्मा की पहचान हो, वही भेद कर पाएगा। घायल की गति घायल जाने। जौहरी की गति जौहरी जाने। नहीं तो मुश्किल है।
मीरा से बड़े कवि हुए हैं, मगर मीरा सा बड़ा भक्त कहां? यह कविता बड़ी और है। अपौरुषेय है। जैसे वेद अपौरुषेय हैं। जैसे वेद उतरे हैं ऋषियों में, जैसे कुरान उतरी है मोहम्मद में—ऐसे ये वचन उतरे हैं मीरा में। और जितने प्यार से उसने गाया है, जितने प्यार से उसने गुंजाया है, अपने स्वाद को जिस रस से उसने बांटा है—किसी ने कभी भी नहीं बांटा है।
डुबकी लेना हो तो मीरा में लो! ऐसा प्यारा घाट और कहीं नहीं है।

आज इतना ही।


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