दिनांक 23 मार्च, 1979;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना
सारसूत्र:
नाम बिन भाव करम
नहिं छूटै।।
साध संग औ राम
भजन बिन, काल निरंतन लूटै।।
मल सेती जो मल
को धोवै, सो माल कैसे छूटै।।
प्रेम का साबुन
नाम का पानी, दोय मिल तांता टूटै।।
भेद अभेद भरम का
भांडा, चौड़े पड़-पड़ फूटै।।
गुरमुख सब्द गहै
उर अंतर, सकल भरम से छूटै।।
राम का ध्यान
तूं धर रे प्रानी, अमृत का मेंह बूटै।।
जन दरियाव अरप
दे आपा, जरा मरन तब टूटै।।
राम नाम नहिं
हिरदे घरा। जैसा पसुवा तैसा नरा।।
पसुवा नर उद्यम
कर खावै। पसुवा तो जंगल चर आवै।।
पसुवा आवै वसुवा
जाय। पसुवा चरै व पसुवा खाय।।
रामध्यान ध्याया
नहिं माई। जनम गया पसुवा की नाई।।
रामनाम से नाहीं
प्रीत। यह सब ही पसुवों की रीत।।
जीवत सुख दुख
में दिन भरै। मुवा पछे चौरासी परै।।
जन दरिया जिन
राम न ध्याया। पसुवा ही ज्यों जनम गंवाया।।
अमी झरत, बिगसत कंवल।
अमृत
झरता है, निश्चित झरता है। कमल भी खिलते हैं, निश्चित खिलते हैं। पर भूमिका निर्मित करनी जरूरी है।
घास-पात भी उगता है। उसी भूमि में, जहां गुलाब के फूल खिलते हैं। दोनों में एक अर्थ में कुछ भेद नहीं। दोनों
एक ही भूमि से रस लेते हैं और दोनों में कितना भेद है फिर भी! एक घास-पात ही रह
जाता है, एक गुलाब का फूल पृथ्वी का काव्य बन जाता है। अगर
गुलाब के फूलों को देखकर परमात्मा का प्रमाण तुम्हें नहीं मिला तो कहीं और न मिल
सकेगा। अगर गुलाब का फूल देखकर तुम अचम्भित न हुए, चमत्कृत न
हुए, अवाक न हुए, ठिठक न गए, मन एक क्षण को निर्विचार न हो गया--तो साव मंदिर-मस्जिद व्यर्थ हैं।
मगर एक ही भूमि से घास-पात पैदा होता
है, उसी भूमि से गुलाब पैदा होते हैं, दोनों में रस एक
बहता है; लेकिन रूपांतरण बड़ा भिन्न है। दोनों के बीज होते
हैं, दोनों को सूरज चाहिए, दोनों को
पानी चाहिए, दोरों को भूमि चाहिए। दोनों की जरूरतें बराबर
हैं। फिर भेद कहां पड़ जाता है? भेद माली में है। घास-पात को
उखाड़ फेंकता है; गुलाबों को सम्हाल लेता है, जमा लेता है।
संसार तो यही है; इसी में कोई बुद्ध हो जाता है और इसी में कोई व्यर्थ जी लेता है। भेद
तुम्हारा है। माली जगाओ, माली सोया पड़ा है और तुम्हारी बगिया
में घास-पात उग रहा है। जहां फूल होने थे, जहां सुगंध होनी
था, वहां केवल सड़ांघ है जीवन की। जो ऊर्जा आकाश की तरफ
यात्रा करती वह अंधी खड्डों में, खोहों में भटक रही है। जो
ऊर्जा अमृत बनती वही जहर हो गयी है। जो सिंहासन बनती वही सूली हो गयी है।
कैसे यह माली जागे? कौन सी पुकार इस माली को उठा देगी? उस पुकार का नाम
ही राम-नाम है; कहो उसे प्रार्थना, कहो
उसे ध्यान!
बीहड़
विश्व-विजन-पथ में चल
चरण शिथिल हो
गया हमारे!
कैसे गाऊं गीत
तुम्हारे?
घनीभूत पीड़ा का
कलरव
दूर न मुझ से पल
का कलरव
दूर न मुझ से पल
भर रहता,
अधरों में नित
प्यास जगा कर
आंसू घन-सा बरसा
करता,
धूमिल संध्यान
विरह घोल कर
मौन पिलाती आंसू
खारे!
कैसे गाऊं गीत
तुम्हारे?
स्वप्न सृजन भी
कभी न होता
चाहे चंदा
मुसकाता हो,
सुधि का दीप न
जल पाता है
चाहे शुलभ मचल
गाता हो, आशाओं का मौन निमंत्रण
पहुंच न पाता
सुधि के द्वार!
कैसे गाऊं गीत
तुम्हारे?
झूठे विश्वासों
के बल पर
मरु को पार कौन
करता है,
जीवन-राह बिना
पहचाने
आगे चरण कौन
धरता है,
थके पाल के पंख
संजोकर
पहुंचा कोई नहीं
किनारे!
कैसे गाऊं गीत
तुम्हारे?
एक ही प्रश्न महत्वपूर्ण है, पूछ लेने जैसा है, रोएं-रोएं में कंपित कर लेने जैसा
है--कैसे तुम्हारे गीत गाऊं? कैसे तुम्हें पुकारूं? कैसे तुम मेरे मन-मंदिर में विराजमान हो जाओ? कैसे
तुम्हारा जागरण, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी
चेतना मेरा भी जागरण बने, मेरी भी ऊर्जा बने, मेरी भी चेतना बने? मेरे भीतर सोया मालिक, मेरे भीतर सोया माली कैसे जगे, कि मेरी बगिया में भी
फूल हों, चंपा के हो, चमेली के हों,
गुलाब के हों और अंततः कमल के फूल खिलें! यह मेरा जीवन कीचड़ ही न रह
जाए। यह कीचड़ कमल में रूपांतरित होनी चाहिए। और यह कमल में रूपांतरित हो सकती है।
कीमिया कठिन भी नहीं है। जरा सी जीवन मग समझ की बात है। बेसमझे सब व्यर्थ होता हो
जाता है। और जरा सी समझ, बस जरा सी समझ--और मिट्टी सोना हो
जाती है। अमी झरत, बिससत कंवल! एक थोड़ी सी क्रांति, एक थोड़ी सी चिनगारी।
नाम बिन भाव करम
नहिं छूटै।।
उस चिनगारी का इशारा कर रहे हैं दरिया
कि जब तक तुम्हारा कर्ता का भाव न छूट जाए तब तक तुम परमात्मा को स्मरण न कर सकोगे; या परमात्मा का स्मरण कर लो तो कर्ता का भाव छूट जाए। कर्ता के भाव में ही
हमारा अहंकार है। कर्ता का भाव ही हमारे अहंकार का शरण स्थल है--यह करूं वह करूं,
यह कर लिया वह कर लिया, यह करना है वह करना
है। कृत्य के पीछे ही कृत्य के धुएं में छिपा है तुम्हारा दुश्मन। और अगर इस
अहंकार के कारण ही तुमने मंदिर में पूजा की और मस्जिद में नमाज पढ़ी और गिरजे में
घुटने टेके, सब व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि
वह अहंकार इन प्रार्थनाओं से भी पुष्ट होगा। क्योंकि ये प्रार्थनाएं भी उसी मूल
भित्ति को सम्हाल देंगी, नयी-नयी ईंटें चुन देंगी--मैं कर
रहा हूं!
प्रार्थना की नहीं जाती, प्रार्थना होती है--वैसे ही जैसे प्रेम होता है। प्रेम कोई करता है,
कर सकता है? कोई तुम्हें आज्ञा दे कि करो
प्रेम, जैसे सैनिकों को आज्ञा दी जाती है बाएं घूम दाएं,
घूम, ऐसे आज्ञा दे दी जाए करो प्रेम।
दाएं-बाएं घूमना हो जाएगा, देह की क्रियाएं हैं; अगर प्रेम? प्रेम तो कोई क्रिया ही नहीं है, कृत्य ही नहीं है। प्रेम तो भेंट है विराट की ओर से। प्रेम तो अनंत की ओर
से भेंट है। उन्हें मिलती है जो अपने हृदय के द्वार को खोलकर प्रतीक्षा करते हैं।
प्रेम तो वर्षा है। अभी झरत! यह तो
ऊपर से गिरता है आकाश से इसलिए इशारा है। एक कि अमृत तो आकाश से झरता है और कंवल
जमीन पर खिलाता है। आकाश से परमात्मा उतरता है और भक्त पृथ्वी पर खिलता है। भक्त
के हाथ में नहीं है कि अमृत कैसे झरे, लेकिन भक्त अपने
पात्र को तो फैलाकर बैठ सकता है! भक्त बाधाएं तो दूर कर सकता है! पात्र ढक्कन से
ढका रहे, अमृत बरसता है, तो भी पात्र
खाली रह जाएगा। पात्र उल्टा रखा हो, तो भी पात्र खाली रह
जाएगा। पात्र फूटा हो तो भरता-भरता लगेगा और भर नहीं पाएगा। कि पात्र गंदा हो,
जहर से भरा हो, कि अमृत उसमें पड़े भी तो जहर
में खो जाए। पात्र को शुद्ध होना चाहिए, जहर से खाली।
और ज्ञान पांडित्य--जहर है। जितना तुम
जानते हो उतने ही बड़े तुम अज्ञानी हो। क्योंकि जानने से भी तुम्हारा अहंकार प्रबल
हो रहा है कि मैं जानता हूं! जितने शास्त्र तुम्हारे पात्र में हों उतना ही जहर
है। पात्र खाली करो। पात्र बेशर्त खाली करी। क्योंकि उस खाली शून्यता में ही
निर्दोषता होती है, पवित्रता होती है।
और तुम्हारे पात्र में बहुत छेद हैं, क्योंकि बहुत वासनाएं हैं। पूरब ले जाती एक वासना, दक्षिण
ले जाती, उत्तर ले जाती। छेद ही छेद हैं, जिनमें से तुम्हारी जीवन धारा बहती जाती है, क्षीण
होती जाती है। एक ही वासना को बचने दो ताकि पात्र का एक ही मुंह रह जाए। सारी
वासनाओं को, सारे छिद्रों को एक ही मुंह में समाहित कर दो।
एक परमात्मा को पाने की अभीप्सा बचने दो। एक सत्य को पाने की गहन आकांक्षा,
एक त्वरा, एक तीव्रता! भभक उठो मशाल की तरह।
एक आकाश को छू लेने की आकांक्षा! तो सारे छिद्र बंद हो जाएं।
और पात्र को उल्टा मत रखो। छिद्र भी
बंद हों, पात्र शुद्ध भी हो और उल्टा रखा हो...और लोग पात्र को
उल्टा रखे हैं। संसार के तरफ तो उनकी आंखें हैं और परमात्मा की तरफ पीठ हैं;
यह तो पात्र का उल्टा होना है। संसार सन्मुख और परमात्मा के
विमुख।...परमात्मा के सन्मुख होओ, संसार की तरफ पीठ करो। और
मैं नहीं कह रहा हूं कि संसार छोड़ दो या भाग जाओ, लेकिन पीठे
करके काम करते रहे। मगर पीठ रहे। आंखें अटकाए न संसार पर। संसार ही सब कुछ न हो।
दुकान भी करो, बाजार भी जाओ, काम भी
जाओ, काम भी करो। परमात्मा ने जो दिया है, जहां तुम्हें छोड़ा है, उन सारे कर्तव्यों को निभाओ;
मगर एक बात ध्यान रहे--आंख उस शाश्वत पर अटकी रहे! चाहे चलो जमीन पर
मगर याद आकाश की बनी रहे। फिर कोई चिंता नहीं है। फिर तुम्हारा पात्र प्रभु की तरफ
उन्मुख है। फिर देर नहीं लगेगी, अमृत झरेगा।
और अमृत झरे तो क्षणभर नहीं लगता के
खिलने में। जैसे सुबह उगा सूरज और खिला कमल! इधर उगा सूरज उधर पंखुड़ियां खुलीं।
इधर वर्षा अमृत उधर तुम्हारे भीतर का कमल खिला। तुम्हारे भीतर के कमल के खिलने का
नाम ही प्रार्थना है। प्रार्थना में ही तुम फूल बनते हो। प्रार्थना के बिना जीवन
शूल ही शूल है।
नाम बिन भाव करम
नहिं छूटै।।
ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। या
तो प्रभु का स्मरण करो...। कैसे प्रभु का स्मरण करो? जाएं मंदिर में?
बजाएं मंदिर की घंटियां? पूजा के थाल सजाएं?
बहुत लोग कर रहे हैं, ईश्वर-स्मरण नहीं आ रहा
है। क्या करें? शास्त्र कंठस्थ करें? तोते
बन जाएं? बहुत लोग बन गए हैं। ईश्वर-स्मरण नहीं आ रहा है।
पंडितों से ईश्वर की जितनी दूरी है
उतनी पापियों से भी नहीं पापी भी अपने किसी गहन पीड़ा के क्षण में परमात्मा को याद
करता है। पंडित कभी नहीं करता है। परमात्मा के संबंध में बकवास करता है। परमात्मा
के संबंध में दूसरों को समझा देता होगा, कि शास्त्र लिखता
होगा बड़े-बड़े, लेकिन परमात्मा की याद नहीं करता। पापी तो कभी
रोता भी है। जार-जार रोता भी है! ग्लानि से भी भरता है। पीड़ा भी उठती है। किन्हीं
क्षणों में आकाश की तरफ आंख उठाकर कहता भी है कि कैसे मुझे छुटकारा हो, कब मुझे बचाओगे?
और इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: पापी की
प्रार्थनाएं भी पहुंच जाएं, पंडितों की प्रार्थनाएं नहीं पहुंचतीं, क्योंकि पंडितों की प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं ही नहीं होतीं। हां, पंडित की प्रार्थना शुद्ध होती है--भाषा, व्याकरण,
छंद, मात्रा, सब तरह से।
और पापी की प्रार्थना तो ऐसी होती है जैसे छोटे बच्चे का तुतलाना, न भाषा है न अभिव्यक्त करने की क्षमता है। पंडित की प्रार्थना बड़ी मुखर
होती है, पापी की प्रार्थना मौन होती है।
तुम पंडित बनना। उस तरह से कोई
परमात्मा को कभी याद नहीं किया है। और तुम औपचारिक मत बनना। सीख मत लेना कि
प्रार्थना कैसे की जाए। यह कोई कवायद नहीं है, कोई योगाभ्यास है,
कि सिर के बल खड़े हो गए, कि सर्वांगासन लगा
लिया, कि मयूरासन लगा लिया। ये कोई शरीर के अभ्यास नहीं हैं।
प्रार्थना तो बड़ा संवेदनशील हृदय अनुभव कर पाता है।
तो संवेदना जहां बढ़े उन-उन क्षणों को
साधो। संवेदना जहां बढ़े उन-उन क्षणों में डूबो। आकाश तारों से भरा है और तुम मंदिर
में बैठे हो? और उसका सारा मंदिर अपनी सारी शोभा से आकाश को सजाए
है, उसका मंडप सजा है तारों से--और तुम आदमी की बनायी हुई
दीवालों को देख रहे हो? लेट जाओ पृथ्वी पर, पृथ्वी भी उसकी है। देखो आकाश के तारों को, लीन हो
जाओ। द्रष्टा और दृश्य कुछ क्षण को एक हो जाएं। न वहां कोई तारे हों, न यहां कोई देखने वाला हो। करीब आओ, निकट आओ,
और निकट, और निकट--इतने समीप कि तारे तुम में
डूब जाएं, तुम तारों में डूब जाओ। या कि सुबह उगते सूरज को
देखकर या किसी पक्षी को सांझ आकाश में उड़ते देखकर, या किसी
झरने की कल-कल आवाज या सागर में उठती हुई तरंगों का नाद, या
किसी मोर का नृत्य या किसी कोयल की कुहू-कुहू! ऐसे तो तुम किसी दिन शायद प्रार्थना
को उपलब्ध हो जाओ, अगर तुम इन संवेदनाओं के स्रोतों को उपयोग
करो तो।
प्रार्थना कवि-हृदय में उठती है। कवि
बनो! प्रार्थना चाहती है एक कलात्मक जीवन-दृष्टि; एक सौंदर्य का बोध।
सौंदर्य को परखो तो तुम्हारी आंख किसी दिन परमात्मा को भी परख लेगी, क्योंकि सौंदर्य में परमात्मा की झलक है, सुनो संगीत
को और डुबो। मंदिर-मस्जिदों में कुछ भी नहीं मिलेगा। इतना विराट अस्तित्व तुम्हें
चारों तरफ से घेरे खड़ा है! वृक्ष इतने हरे हैं और इनकी हरियाली में नहीं डुबकी
मारते! और फूल इतने सुवासित हैं और तुम इनके पास नाचते भी नहीं कभी! यह अस्तित्व
इतना प्यारा है! तुम इस दृश्य अस्तित्व को प्रेम नहीं कर पाते, तुम अदृश्य परमात्मा को कैसे प्रेम कर पाओगे?--जो
इतना निकट है, इतना समीप है, उससे तुम
ऐसे खड़े हो दूर-दूर; तो जो दृश्य ही नहीं है उससे तो
तुम्हारा कोई नाता कभी न बनेगा।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: अगर
तुम दृश्य से नाता बना लो तो इसी मैं अदृश्य छिपा है। इन्हीं फूलों में कहीं
परमात्मा झांकता हुआ मिलेगा। इन्हीं तारों में किसी दिन तुम उसकी रोशनी की झलक पा
लोगे। इसी उड़ते हुए पक्षी के पंखों में कभी तुम्हें परमात्मा की विराट योजना का
अनुभव हो जाएगा। यह सारा अस्तित्व इतने अपूर्व आयोजन में आबद्ध है। यह कोई
दुर्घटना नहीं है। यह कोई संयोग भी नहीं है। यहां बड़ा संगीत है! अहर्निश संगीत का
नाद उठ रहा है। उस नाद को सुनो। उस नाद को पहचानो।
और खयाल रखना, दृश्य से ही शुरू करो। अदृश्य से तो कोई शुरू कर नहीं सकता। जो अदृश्य से
शुरू करेगा, झूठ होगा उसका उसका प्रारंभ। क्योंकि अदृश्यम पर
तुम भरोसा ही कर सकते हो, विश्वास कर सकते हो; जाना तो नहीं है। जो दिखाई पड़ रहा है, क्यों न हम
उसी पर चरण रखें, और उसकी सीढ़ियां बनाएं? और मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हें परमात्मा की याद आने
लगेगी। असंभव है कि न याद आए।
संवेदनशील बनो। हृदय को थोड़ा तरल
बनाओ। कठोरता छोड़ो। पत्थर की तरह अकड़े मत खड़े रहो। सदियों-सदियों से तुम्हारे
साधु-संन्यासियों ने पत्थर होने को तपश्चर्या समझा है! सब चीजों से अछते खड़े रहना
है, दूर खड़े रहना है, अपने को किसी चीज में डुबाना नहीं
है--इसको साधना समझा है! यह साधना नहीं है, क्योंकि यह
तुम्हें परमात्मा के निकट न लाएगी।
तो के तो रास्ता यह संवेदनशील बनो, ताकि धीरे-धीरे जो स्थूल आंखों से नहीं दिखाई पड़ता, वह
संवेदनशील सूक्ष्म आंखों से दिखाई पड़े; जो हाथों से नहीं छुआ
जाता है, वह हृदय से छू लिया जाए। या दूसरा उपाय है कि यह जो
कर्ता का भाव है, यह छोड़ दो। यह मैं कर्ता हूं, यह भाव छोड़ दो। कुछ लोग दुकान करते हैं, कुछ लोग
त्याग करते हैं; भाव वही का वही है। कुछ लोग धन इकट्ठा करते
हैं, कुछ लोग धन का त्याग करते हैं; भाव
वही का वही है। कोई ऐसे अकड़ा है कोई वैसे अकड़ा है। कोई दाएं कोई बाएं। इससे कुछ
फर्क नहीं पड़ता। अकड़ नहीं मिटती। रस्सी जल भी जाती है तो भी एंठ नहीं जाती।
वही तुम्हारे तथाकथित महात्माओं के
साथ हो जाता है; रस्सी जल भी गयी अगर एंठ नहीं जाती। पहले धन कमाते थे,
अब पुण्य कमा रहे हैं; अगर खाता-बही जारी है!
हिसाब लगाकर रखा हुआ है। कर्ता नहीं जाता, और कर्ता न जाए तो
उस महाकर्ता का आगमन कैसे हो? जब तुम खुद ही कर्ता बन बैठे
हो, उसके लिए जगह ही तुम्हारे भीतर नहीं है। ये दोनों एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं। अगर एक हो जाए तो दूसरा अपने से हो जाता है। अगर तुम बहुत
गहन रूप से संवेदनशील हो जाओ तो कर्ता का भाव अपने-आप मर जाता है, क्योंकि यह झूठ है। भाव। संवेदनशील के समक्ष यह असत्य टिक नहीं सकता,
बह जाएगा। संवेदना की आएगी बाढ़ और ले जाएगी सारा कूड़ा-कर्कट। उसी
कूड़ा-कर्कट में तुम्हारा यह कर्ता का भाव भी बह जाएगा। तुम्हें छोड़ना भी न पड़ेगा,
बह जाएगा। एक दिन तुम अचानक पाओगे, तुम नहीं
हो। और जिस दिन तुम पाया मैं नहीं हूं उसी दिन पाया कि परमात्मा है।
या फिर कर्ता का भाव छोड़ दो, तो कर्ता का भाव छूटते ही तुम संवेदनशील हो जाओगे। यह कर्ता का भाव ही
तुम्हें पत्थर बनाए हुए हैं। इस कर्ता के भाव की पर्त ही तुम्हारे चारों तरफ लोहे
की दीवाल की तरह खड़ी हो गयी है। गलो, पिघलो, बहो!
नाम बिन भाव करम
नहिं छूटै।।
प्रभु-स्मरण अपने लगे तो कर्ता का भाव
छूट जाता है; या कर्ता का भाव छूट जाए तो प्रभु-स्मरण आने लगता है।
ज्ञानी नहीं पाता, तपस्वी नहीं पाता। या तो ध्यानी पाता है
या प्रेम पाता है। और ध्यानी वह वह है जो पहले कर्ता का भाव छोड़ता है और तब
परमात्मा को पाता है। और प्रेमी वह है जो पहले संवेदनशील होता है, प्रीति से भरता है, परमात्मा को स्मरण करता है और
उसी स्मरण में कर्ता का भाव छूट जाता है। बस दो ही विकल्प है तो सिर्फ दो ही
विकल्प हैं। ज्यादा चुनाव करने का उपाय भी नहीं है, तुम्हें
जो रुच जाए। अगर तुम्हारे पास काव्यपूर्ण हृदय हो, एक
चित्रकार की मनोदशा हो, एक संगीतज्ञ का झुकाव हो, तो भक्त बन जाओ। और अगर तुम्हारे पास ये कोई झुकाव न हों, गणित की दृष्टि हो, गद्य की तुम्हारी जीवन-शैली हो,
भाव नहीं बुद्धि और विचार पर तुम्हारा आग्रह हो--तो ध्यानी बन जाओ।
ध्यान में बुद्धि मिट जाती है, भाव में हृदय डूब जाता है। कहीं से टूटो, कहीं से
द्वार खोलो। तुम्हारे भीतर दो द्वार हैं। एक द्वार है जो ध्यान से खुलता है,
वह बुद्धि के द्वार से खुलता है। और एक द्वार है जो प्रेम से खुलता
है, वह हृदय से खुलता है। मगर दोनों द्वार एक ही मंदिर में
ले आते हैं।
और जल्दी करो, कहीं इस जिंदगी के ख्वाब में, कहीं क्षुद्र सपनों
में ही सारी ऊर्जा, सारा समय व्यतीत न हो जाए।
जिंदगी यह कह के दी, रोज-अजल, उसने मुझे--
यह हकीकत गम की
ले, और राहतों के ख्वाब देख।।
सृष्टि के प्रारंभ ने यह जिंदगी हमसे
साफ-साफ कह कर दी है...
जिंदगी यह कह के दी, रोजे-अजल, उसने मुझे--
यह हकीकत गम की ले...
यह दुख तुझे देता हूं और राहतों के
ख्वाब देख और सपने देता हूं बड़े सुंदर। उन सपनों से राहत मिलती रहेगी। दुख तू
भोगता रहेगा, सपने राहत देते रहेंगे। सपने मल्हम-पट्टी करते रहेंगे,
दुख घाव बनाते रहेंगे और ऐसे ही हम बिता रहे हैं।
जिंदगी दुख है और सपनों की आशा है। कल
कुछ होगा, कल जरूर कुछ होगा! कल न कभी कुछ हुआ है न होगा। जो आज
हो रहा है, वह कल भी होगा। अगर बदलना हो तो आज बदलो, अन्यथा कल भी बिन बदला रह जाएगा। कुछ करना हो तो अभी करो, इस क्षण करो। क्योंकि इसी क्षण से आनेवाले क्षण की शुरुआत है, जन्म है। इसी क्षण के गर्भ में आने वाला क्षण छिपा है।
साध संग औ राम
भजन बिन, काल निरंतर लूटै।।
जीवन के इन सपनों में ही खोए रहे तो
मौत तुम्हें लुटती ही रहेगी, लुटती ही रहेगी। तुम इकट्ठा
करोगे और मौत लुटेंगी। कितनी बार तो इकट्ठा किया और कितनी बार मौत ने लूटा। कब
चेतोगे? साध संग औ राम भजन बिन...। साध संग का अर्थ है,
जहां राज को याद करने वाले लोग इकट्ठे हुए हों; जहां उसकी याद चल रही हो; जहां अदृश्य को छूने का
अभियान चल रहा हो।
साध-संग का अर्थ है, जिन्होंने कुछ-कुछ घूंट पीए हों; जिन्हें थोड़ी मस्ती
आ गयी हो और आंखों पर लाली छा गयी हो; जिन्हें जीवन जितना
तुम जानते हो उससे ज्यादा दिखाई देने लगता हो; जिनकी आंख
थोड़ी पैनी हो गयी हो; जिनकी प्रतिभा में थोड़ी धार आ गयी हो;
जो थोड़े से जागने लगे हों; करवट लेने लगे हों;
सुबह जिनकी करीब हो, नींद टूटने को हो या टूट
गयी हो।
ऐसे लोगों की संगति में बैठो, क्योंकि जागों के पास बैठोगे तो ज्यादा देर सो न पाओगे। सोयों के पास बैठे
तो बहुत संभावना है कि तुम भी सो जाओगे। सब चीजें संक्रामक होती हैं।
तुमने कभी खयाल किया, तुम्हारे पास बैठा हुआ आदमी उबासी लेने लगे और तुम्हें याद नहीं आता कब
तुमने भी उबासी लेनी शुरू कर दी! तुम्हारे पास बैठा आदमी झपकी लेने लगे और
तुम्हारी आंखों में तंद्रा उतरने लगती है। मनुष्य इतना टूटा नहीं है एक-दूसरे से
जुड़ा है। हमारे भाव एक-दूसरे को आंदोलित करते हैं। चार लोग प्रसन्न बैठे हों,
तुम उदास आए थे, लेकिन उनकी हंसी, उनका आनंद और तुम्हारी उदासी गयी; तुम भी हंस उठे।
और चार लोग उदास बैठे थे, तुम हंसते चले आते थे, बड़े प्रसन्न थे और उनकी उदासी के घेरे में आए, उनकी
उदासी के ऊर्जा-क्षेत्र में आए, कि तुम भी उदास हो गए। हम
अलग-थलग नहीं हैं, हम जुड़े-जुड़े हैं। हम छोटे-छोटे द्वीप
नहीं है, हम महाद्वीप हैं। हम एक-दूसरे को आंदोलित करते हैं।
हम एक-दूसरे में प्रवेश किए हुए हैं।
इसलिए साध-संग का मूल्य है। जहां जागे
लोग बैठे हों वहां बैठकर सोना मुश्किल हो जाएगा। जहां परमात्मा की याद चल रही हो
वहां तुम भी धीरे-धीरे टटोलने लगोगे। और जहां इतनी मस्ती परमात्मा की याद के कारण, तुम्हारे भीतर अभीप्सा न उठेगी कि कब होगा वह सौभाग्य का दिन कि ऐसी मस्ती
मेरी भी हो! दरिया को देखकर तुम्हारा दिल डांवाडोल नहीं होगा? कबीर के पास बैठकर तुम्हारे भीतर का कबीरा जागने नहीं लगेगा? मीरा की झनकार सुनकर तुम सोए ही रहोगे? तुम पत्थर
नहीं हो। कहते हैं पत्थर की हुई अहिल्या भी राम के चरण के स्पर्श से पुनरुज्जीवित
हो उठी। साध-संग! पत्थर भी प्राणवान हो जाए, तुम प्राणवान न
हो सकोगे? तुम अहिल्या से भी ज्यादा पत्थर हो गए हो?
नहीं; इतना पत्थर न कोई कभी
हुआ है और न कभी हो सकता है। हमारा मौलिक रूप कभी भी नष्ट नहीं होता। कितने ही सो
जाओ, पर्त दर पर्त कितने ही दब जाओ, कितने
ही खो जाओ, मगर हीरा तुम्हारा है। और पर्त दर पर्त कितना ही
खोया हो, तोड़ा जा सकता है।
साध-संग का अर्थ है, जहां हथौड़ी चल रही है; जहां पर्ते तोड़ी जा रही है;
जहां बीज फूटे रहे हैं, अंकुरित हो रहे हैं;
जहां नया-नया आविर्भाव हो रहा है: जहां तुम देखते हो अभी जो पास में
सोया था वह जाग गया; अभी जो रोता था हंसने लगा; अभी जो उदास था नाचने लगा। तुम्हारे पैरा में ताल बजने लगेगा। तुम्हारे
हाथ भी थपकी देने लगेंगे।
प्रीतिकर संगीत को सुनकर तुम्हारे पैर
थिरकते हैं या नहीं? प्रीतिकर संगीत को सुनकर तुम ताली बजाने लगते हो या
नहीं? प्रीतिकर संगीत को सुनकर तुम डोलने लगते हो या नहीं?
बस साध-संग उस परमात्मा का संगीत है। जहां गाया जा रहा हो...वसे
अवसरों को चूकना मत, क्योंकि वही एक संभावना है। पृथ्वी
परमात्मा से बहुत खाली हो गयी है। अब तो कहीं जहां सत्संग चल रहा हो, जीवंत सत्संग चल रहा हो, उन अवसरों को चूकना मत।
लेकिन होता यह है कि लोग मुर्दा तीर्थों पर इकट्ठे होते हैं। कभी वहां सत्संग था,
यह बात सच है, नहीं तो तीर्थ ही न बनता। जब
मोहम्मद जिंदा थे तो काबा तीर्थ था; अब नहीं है, अब सिर्फ पत्थर है। जब बुद्ध जीवित थे तो गया तीर्थ था; अब नहीं है, अब तो सिर्फ याददाश्त है। समय के पत्थर
पर छोड़े गए अतीत के चिह्न मात्र हैं। बुद्ध तो जा चुके, पैरों
के चिह्न हैं। पैरों के चिह्नों की तुम कितनी ही पूजा करो, तुम
बुद्ध न हो जाओगे।
यह तो बुद्धों के पास ही क्रांति घटती
है। लेकिन मनुष्य का दुर्भाग्य ऐसा है कि जब तक उसे खबर मिलती है, जब तक उसे खबर मिलती है, तब तक बुद्ध विदा हो जाते
हैं। जब तक वह अपने को राजी कर पाता है तब तक बुद्ध विदा हो जाते हैं। जब तक वह
आता है, आता है, आता है, टालता है, टालता है, फिर कभी
आता है--तब तक तीर्थ तो रह जाता है, लेकिन तीर्थंकर जा चुका
होता है। फिर पत्थर पूजे जाते हैं। फिर सदियों तक पत्थर पूजे जाते हैं।
साध-संग! पत्थर की मूर्तियों से साथ
करने से कुछ भी न होगा।
और ध्यान रखना परमात्मा महा करुणावान
है। ऐसा कभी भी नहीं होता पृथ्वी पर कि दो-चार दीए न जलते हों। ऐसा कभी नहीं होता
कि कहीं न कहीं तीर्थ न जन्मता हो। ऐसा कभी नहीं होता कि कहीं न कहीं अमृत न झरता
हो और कमल न खिलते हों। जरा तलाशो! जरा पुरानी धारणाओं को छोड़कर तलाशो। मिल जाएगा
तुम्हें तीर्थ।
और नहीं तो मौत तुम्हें लुटेंगी। तो
साधुओं के साथ अपने को लुटा दो, नहीं तो मौत तुम्हें लुटेंगी। और
साधुओं के साथ लुटने में तो एक मजा है, क्योंकि जो लुटता वह
कूड़ा-कर्कट है और जो मिलता है वह हीरे-जवाहरात हैं। और मौत के हाथ लूटने में बड़ी
पीड़ा है। क्योंकि जिसको हीर-जवाहरात समझा था, था तो नहीं,
मौत उस कचरे को ले जाती है और हमें तड़फाती छोड़ जाती है। इतना तड़फाता
छोड़ जाती है और हीरों की ऐसी आसक्ति और ऐसी आकांक्षा छोड़ जाती है--कचरा ही था,
अगर हम तो हीरा समझकर पकड़े थे--कि हम मरते वक्त उसी कचरे की फिर
आकांक्षा को लेकर मरते हैं और उसी आकांक्षा में से हमारा नया जन्म होता है। फिर
दौड़ शुरू हो जाती है। तुमने एक बात खयाल की, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि रात्रि जब तुम सोते हो, तो तुम्हारा जो आखिरी,
बिलकुल आखिरी खयाल होता है, वही सुबह उठते
वक्त तुम्हारा पहला खयाल होगा। नहीं सोचा हो तो प्रयोग करके देखना। इसमें तो किसी
मनोवैज्ञानिक से पूछने जाने की जरूरत नहीं है। रात बिलकुल आखिरी-आखिरी जब नींद आने
ही लगी, आने ही लगी, आ ही गयी--तब
तुम्हारा जो आखिरी खयाल हो, जरा उसको खयाल में रख लेना। और
सुबह नींद टूटी-टूटी, बस टूट ही रही है, होश आया कि नींद टूट गयी--तत्क्षण देखना, तुम चकित
होकर हैरान हो जाओगे: जो आखिरी खयाल था रात वही पहला खयाल होता है सुबह। यही
जिंदगी का भी राज है। मरते वक्त जो आखिरी खयाल होता है, वह
गर्भ में जाते वक्त पहला खयाल हो जाता है। क्योंकि मौत भी एक लंबी नींद है। अगर
तुम धन की वासना में मरे तो बस पैदा होते से ही धन की वासना तुम्हें फिर पकड़ लेगी।
इसलिए तो बच्चो-बच्चों में इतना भेद
है। कोई छोटा बच्चा ही संगीत में ऐसा कुशल हो जाता है कि भरोसा नहीं आता।
बीथोवन के संबंध में कहा जाता है कि
जब वह सात साल का था तो उसने अपने देश के बड़े-बड़े संगीत महारथियों को पानी पिला
दिया। सात ही साल का था! तो हम कहते हैं प्रतिभाएं हैं ऐसे लोगों को। लेकिन सात
साल के बच्चे में यह प्रतिभा आकस्मिक नहीं है, क्योंकि न बाप
संगीतज्ञ थे, न मां संगीतज्ञ थी, न घर
का वातावरण संगीत का था। सच तो यह है बाप भी खिलाफ था, मां
भी खिलाफ थी, परिवार भी खिलाफ था--कि यह क्या दिन-रात मचा
रखा है। पढ़ना-खिलाफ थी, परिवार भी खिलाफ था--कि यह क्या
दिन-रात मचा रखा है। पढ़ना लिखना है कि नहीं? होमवर्क करना है
कि नहीं? और बीथोवन है कि लगा है अपनी धुन में! सात वर्ष की
उम्र में ऐसी अनूठी प्रतिभा!
वैज्ञानिकों के पास और सुलझाने समझाने
का उपाय भी नहीं है। लेकिन हमारे पास उपाय है। यह मरते क्षण संगीत को ही पकड़कर मरा
होगा। शायद मरते वक्त भी इसके हाथ में वाद्य रहा होगा। शायद मर जाने के बाद ही
इसके हाथ से वाद्य छीना गया हो।
कोई बच्चे जन्म से ही गणितज्ञ हो जाते
हैं। कोई बच्चे जन्म से ही चोर हो जाते हैं--जिनके घर में सब कुछ है, जिन्हें चोरी की कोई जरूरत नहीं है; लेकिन चोरी बिना
उनसे नहीं रहा जाता।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था।
मेरे एक मित्र प्रोफेसर, बहुत प्रसन्न परिवार के थे, लेकिन
एक ही लड़का और एक ही परेशानी--चोरी! सब है। जो चाहिए उसे देने को राजी हैं। लड़के
के लिए कार ले कर दी है, लड़के को कमरा अलग दिया हुआ है। लड़के
की सारी सुविधाएं पुरी की हैं। और चुराए क्या वह छोटी-मोटी चीजें! किसी का बटन ही
चुरा ले। अगर तुम्हारा कोट टंगा है, बटन ही तोड़ ले। किसी के
घर भोजन करने जाए, चम्मच ही खीसे में सरका ले। बिलकुल फिजूल,
जिनका कोई आर्थिक मूल्य नहीं है। समझा-समझा कर परेशान हो गए। वह
माने ही नहीं।
मुझे उन्होंने कहा कि क्या करना?...ऐसे लोगों से मेरी दोस्ती बड़े जल्दी बन जाती है। उनके लड़के को मैंने कुछ
कहा नहीं, लेकिन उससे मैत्री बनायी। वह किसी से कहना तो
चाहता ही था, क्योंकि उसके लिए यह चोरी नहीं थी। दुनिया इसे
चोरी समझती हो, वह इस में रस लेता था। वह कहता था, आज फलाने को धोखा दिया, आज उसको रास्ते पर लगा दिया।
जब मुझसे उसकी दोस्ती हो गयी तो वह मुझे आ आकर मुझे सुनाने लगा कि बड़े बुद्धिमान
बने हैं, आज वाइस चांसलर के घर भोजन करने गया था, मार दी चम्मच! बैठे रहे बुढ़ऊ सामने, समझ न पाए। नजर
रखे हुए थे, क्योंकि सबको पता है। मगर आखिर मैं भी अपने काम
में कुशल हूं।
मैं कहा: कभी तू अपनी चीजें तो दिखा, तूने कहां सब छिपा रखी हैं! उसने कहा: मैंने एक अलमारी में सब बंद कर रखी
हैं, आप आएं। और मय इतिहास के!
उसकी अलमारी देखने जैसी थी। छोटी-छोटी
चीजें--बटन, चम्मच, माचिस, सिगरेट की डिब्बी, खाली डिब्बी! सबके नीचे उसने लिख
रखा था--प्रोफेसर का लड़का था--कि इस फलां-फलां प्रोफेसर को फलां-फलां दिन धोखा
दिया! इस-इस तारीख को इस-इस समय उनकी जेब से यह डिब्बी मार दी! उसने उनको सजा कर
रखा था। उसने बड़े गौरव से मुझे दिखाया।
मरा होगा चोर। चोरी के भाव में ही
दबा-दबा मरा होगा। वह भाव साथ चला आया है। देह तो छूट जाते है, चित्त साथ चला आता है। अब सब है, इसलिए चोरी का कोई
कारण नहीं है, तो चोरी के लिए नया कारण खोज रहा था, उस में रस ले रहा उसको भी अहंकार की पूर्ति बना रहा है कि देखो किसको धोखा
दिया!
मैंने सुना है एक पादरी ने--एक दयावान
पादरी ने--रात की सर्दी में एक आदमी को जेलखाने से निकलते देखा। वह अपनी कार से
निकल ही रहा था। कोई जेलखाने से कैदी छोड़ा गया था। उसे बड़ी दया आ गयी। उसने गाड़ी
रोकी और उसको कहा कि तुम्हें कहां जाना है? अब इतनी रात, तुम कहां रास्ता खोजोगे? कितने दिन जेल में रहे?
उसने कहा: मैं कोई बारह साल जेल में
था।
किसीलिए जल गये?
चोरी के कारण जेल गया।
बिठाया उसने अपने पास। कहा: तुम्हारे
घर छोड़ देता हूं। कहां तुम्हारा घर है, तुम्हें ले चलता हूं।
जब घर चोर को उतारने लगा वह--और चोर से उसने कहा कि अगर कभी कोई जरूरत पड़े तो मेरे
पास निस्संकोच चले आना, पास ही मेरा चर्च है। चोर को भी दया
आयी। उसने खीसे से एक मनी बैग निकाला और कहा कि यह आपका मनी बैग। रास्ते में मार
दिया उसने! उसी पादरी का, जो उसके घर छोड़ने जा रहा है! मगर
बारह वर्ष का अभ्यासी। उसने कहा कि धन्यवाद-स्वरूप आपका यह मनी-बैग आपको वापस देता
हूं। तब पादरी को खयाल आया, इसकी जेब खाली है। पादरी ने कहा:
बारह वर्ष जेल में रहे, फिर भी चोरी नहीं छूटी। उसने कहा:
छोड़ने की बात कर रहे हो, वहां महागुरु-घंटालों के साथ रहा,
और सीख कर लौटा हूं। वहां मुझसे भी पहुंचे-पहुंचे लोग थे। मैं तो
कुछ भी नहीं था, एक सिक्खड़ समझो। उन्होंने मुझे और कलाएं
सिखा दी हैं। अब देखना है कि कोई मुझे कैसे पकड़ाता है!
मनुष्य का चित्त अदभुत है, दंड से भी कुछ अंतर नहीं पड़ते। मैं नहीं सोचता कि नर्कों को जो लोग लौटते
होंगे, अगर कहीं कोई नर्क है और दंड पाकर लौटते होंगे,
तो कुछ सुधर कर लौटते होंगे। किसी पुराण में ऐसा उल्लेख तो नहीं है,
कि नर्क से कोई लौटा और सुधर कर लौटा। नरक से लौटता होगा तो और महा
शैतान होकर लौटता होगा क्योंकि नर्क में तो एक से एक सदगुरु, एक से एक पहुंचे हुए पुरुष उपलब्ध होते होंगे--जो उसकी भूल-चूक बता देते
होंगे कि कहां-कहां तू भूल-चूक कर रहा था, क्यों पकड़ा गया!
अब दुबारा नहीं पकड़ाएगा।
पादरी को तो छोड़ दो, नर्क में चोर को अगर परमात्मा भी मिल जाए तो वह जेब काट ले। इस सिफत से
काटे कि उसको भी पता न चले। सिफत का भी मजा हो जाता है। कुशलता का भी मजा हो जाता
है। खयाल रखना, इस जिंदगी में तुम जो भी पकड़े रहते हो,
जरा गौर कर लो एक बार, उस में सार्थक कुछ है?
मामरए फना की
कोताहियां तो देखो।
इक मौत का भी
दिन है दो दिन की जिंदगी में।।
और जरा यह भी तो गौर करो, असार संसार की संकीर्णता तो देखो! मामूरएफना की कोताहियां तो देखो! इस
असार संसार की कंजूसी पर भी तो खयाल करो। इक मौत का भी दिन है दो दिन की जिंदगी
में! यह दो दिन की तो जिंदगी है कल, उस मग एक मौत का दिन भी
तय है। और बाकी एक दिन तुम व्यर्थ में गंवा दोगे। राम-भजन कब होगा? साध-संगत कब होगी?
अंधकारमय दुर्गम
पथ है,
अंत कहा है?
मैं क्या जानूं!
मैं जीवन की
ज्योति जलाये,
आशाओं के दीप
लिए।
चलता ही जाता
हूं प्रतिदिन,
सांसों में
उल्लास लिए।
सदा पराजय
प्रगति बनी है,
जीत कहां है?
मैं क्या जानूं!
अनजाना हर
मार्ग-प्रदर्शक
इंगित करता
मुझको मौन।
नहीं जानता मैं
किसका हूं,
नहीं जानता मेरा
कौन?
स्नेह किया है
मैंने केवल,
रीत कहां है?
मैं क्या जानूं!
गहन साधना अर्चन
पूजन,
धूप दीप नैवेद्य
नहीं।
निश्छल उर ही
मेरा वंदन,
मन-वाणी में भेद
नहीं।
कर्म साधना मेरा
जीवन,
कीर्ति कहां है?
मैं क्या जानूं!
दूर लक्ष्य की
किरण देखकर,
बढ़ते मेरे
व्याकुल पांव।
दूरी से मैं रहा
अपरिचित,
तम में डूबा था
हर गांव।
मैंने तो चलना
सीखा है,
नीति कहां है?
मैं क्या जानूं!
शूलों ने
सिखलायी गरिमा,
कर सुमनों पर
शाश्वत छांह।
फूलों ने बतलायी
महिमा,
पाकर शूलों की
हर राह।
छलना ही सौगात
मनोहर,
प्रीति कहां है?
मैं क्या जानूं!
एक अंधेरा है!
अंधकारमय दुर्गम
पथ है,
अंत कहां है?
मैं क्या जानूं!
टटोलते हम चल रहे हैं। अंधेरे में जो
भी मिल जाता है, बटोरते हम चल रहे हैं। न पता है कि क्या हम बटोर रहे,
न पता है कि क्यों हम बटोर रहे हैं, न पता है
कहां हम जा रहे, न पता है क्यों हम जा रहे हैं, न पता है कि मैं क्यों हूं। न हमारी प्रीति के लक्ष्य का कोई हमें बोध है,
न हमारी प्रति के अर्थ का हमें कोई बोध है। कुछ हो रहा है। की लहरों
पर जैसे लकड़ी का टुकड़ा तिर रहा हो, ऐसे हम तिर रहे हैं। न
कोई दिशा है न कोई गंतव्य है। ऐसी स्थिति में तुमने जो भी पकड़ रखा है, इस अंधेपन में और अंधेरे में तुमने जो भी संग्रह कर रखा है--
मौत लूट लेगी।
साध संग औ राम
भजन बिन, काल निरंतर लूटै।।
मल सेती जो मल
को धोवै, सो मल कैसे छूटै।।
और लोग मल से ही मल को धोने में लगे
हैं। बीमारी से ही बीमारी को सुधारने में लगे हैं। तुम सोचते हो कि धन कम है, इसलिए परेशान हो रहे हो; थोड़ा और ज्यादा हो जाए तो
ठीक जो जाएगा। जिनके पास थोड़ा और ज्यादा है उनसे भी तो पूछ लो! वे सोच रहे हैं:
थोड़ा और ज्यादा हो जाए तो ठीक हो जाएगा। और भी हैं जिनके पास थोड़ा और ज्यादा है,
उनसे तो पूछ लो! लोग ऐसे ही सोचते हैं: और थोड़ा ज्यादा हो जाए। इतने
से न हुआ, और ज्यादा से कैसे हो जाएगा? लाख जिसके पास हैं वह बेचैन है--उतना ही बेचैन है जितना करोड़ जिसके पास
हैं। जिसके पास लाख हैं वह करोड़ चाहता हैं, जिसके पास करोड़
है वह अरब चाहता है। बेचैनी का अनुपात एक जैसा है। तुम मल से मल को धोने में लगे
हो।
मल सेती जो मल
को धावै, सो मल कैसे छूटै।।
प्रेम का साबुन
नाम का पानी, दोय मिल तांता टूटै।।
दो चीजें जमा लो तो यह तांता टूट जाए, यह चौरासी का तांता टूट जाए। यह भटकाव मिटे।
प्रेम का साबुन नाम का पानी! दरिया तो
सीधे-सादे आदमी हैं, तो गांव के प्रतीकों में बोल रहे हैं। मगर प्रतीक
प्यारे हैं और सार्थक हैं, उदबोधक हैं। प्रेम का साबुन,
नाम का पानी! सबसे महत्वपूर्ण बात खयाल में रखनी यह है कि जब तुम
साबुन से कपड़ा धोते हो तो सिर्फ साबुन से कपड़ा धोने से कुछ नहीं होगा; फिर साबुन को भी पानी से धोना पड़ेगा। इसलिए अकेला प्रेम काफी नहीं है।
प्रेम को परमात्मा से जोड़कर प्रार्थना बनाना पड़ेगा। नहीं तो साबुन तो खूब रगड़ ली
कपड़े पर, फिर पानी से धोया नहीं, तो
साबुन ही गंदी हो जाएगी।
और ऐसा ही हुआ है। मैं तो प्रेम के
निरंतर गुणगान गाता हूं। मेरी बात को गलत मत समझ लेना। प्रेम महत्वपूर्ण है। साबुन
बड़ा जरूरी है। अकेले पानी से ही धोते रहोगे, तो भी कुछ नहीं होने
वाला है। साबुन जरूरी है, तो ही कटेगा मैल। लेकिन जब साबुन
मैल काट दे तो मैल को भी धो डालना है आर साबुन को भी धो डालना है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। जिनको
तुम संसारी कहते हो वे प्रेम का साबुन तो खूब रगड़ रहे हैं, रगड़े ही जा रहे हैं, कपड़े का तो पता ही नहीं रहा है,
साबुन की पर्तों पर पर्तें जम गई हैं। और तुम संन्यासी समझते रहे हो
अब तक, पुराने ढब के संन्यासी, साबुन
को तो छूते ही नहीं, साबुन की तो दुकान देखकर ही एकदम भागते
हैं। साबुन नहीं, वे पानी से ही रगड़ रहे हैं। अकेले पानी से
जन्मों-जन्मों की जमी हुई कीचड़ और जन्मों-जन्मों का जमा हुआ मैल कटने वाला नहीं
है।
इसलिए दुनिया में धर्म पैदा नहीं हो
पाया। आधे-आधे लोग हैं। कुछ लोग साबुन रगड़ रहे हैं; उन से साबुन ही साबुन
की बास आती है, अगर कोई स्वच्छता नहीं मालूम होती। और एक तरफ
लोग पानी से ही धो रहे हैं; साबुन की तो बास नहीं आती,
अगर अकेले पानी से धोने से जमा हुआ, जन्मों-जन्मों
का जमा हुआ मैल कटता नहीं है।
मेरा संन्यासी दोनों का उपयोग करे, यह मेरी आकांक्षा है। प्रेम के साबुन से धोओ जीवन को, लेकिन राम के जल को भूल मत जाना। और जिस दिन प्रेम का साबुन और राम-नाम का
जल दोनों का तुम उपयोग कर लेते हो, उस दिन प्रार्थना फलती
है। जब प्रेम राम से जड़ जाता है तो प्रार्थना बन जाता है। और प्रार्थना पवित्र करती
है।
भेद अभेद भरम का
भांडा, चौड़े पड़-पड़ फूटै।।
और फिर तुम्हारे ये सिद्धांत
इत्यादि--भेद और अभेद, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत,
न मालूम कितने सिद्धांत! इन सबका भांडा फूट जाता है। फिर तो कोई
सिद्धांत की चर्चा करने की जरूरत नहीं रह जाती है। यह तो अनुभवहीन सैद्धांतिक
अनुमानों में पड़े रहते हैं। सब सिद्धांत अनुमान हैं, अनुभव
नहीं। और का कोई सिद्धांत में ढाला नहीं जा सकता है।
खुशी के सैकड़ों
खाके बनाए अहले-दुनिया ने।
अगर जब
खद्दो-खाल उभरे वही तसवीरे गम आई।।
आदमी ने बड़ी तस्वीरें बनाई हैं, सैकड़ों खाके और नक्शे बनाए हैं--आनंद कैसा होना चाहिए, परमात्मा कैसा है, आत्मा कैसी है, मोक्ष कैसा है। मगर जब भी तुम जरा कुरेद कर देखोगे तो तुम पाओगे वहां कुछ
भी नहीं है।
खुशी के सैकड़ों
खाके बनाए अहले-दुनिया ने।
अगर जब खद्दो
खाल उभरे वही तसवीरे गम आई।।
हर चीज के पीछे तुम आदमी के दुख को
छिपा हुआ पाओगे, जरा कुरेदो। चमड़ी के बराबर भी मोटाई नहीं है तुम्हारे
सिद्धांतों की; जरा कुरेदो और खून झलक आएगा, दुख का बहने लगेगा। आदमी दुखी है और दुख को बचाने के लिए न मालूम
कैसे-कैसे सिद्धांतों का आवरण लेता है। लोग दुख के कारण परमात्मा को मानते हैं,
नर्क को मानते हैं, स्वर्ग को मानते हैं,
पाप-पुण्य को मानते हैं, जन्म पुन जन्म को
मानते हैं। दुख के कारण। सुख में सब भूल जाते हैं।
तुम जरा सोचो, तुम्हारी जिंदगी में कोई दुख न हो तो परमात्मा को याद करोगे? मौत भी छीन ली जाए तुमसे, तुम परमात्मा को याद करोगे?
किसलिए याद करोगे? क्यों याद करोगे? अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जल्दी ऐसी घड़ी आ जाएगी कि आदमी के शरीर को मरने
की जरूरत न रहेगी। क्योंकि आदमी के शरीर के अलग-अलग हिस्से प्लास्टिक के बनाए जा
सकते हैं। और जब एक हिस्सा खराब हो जाए, तुम्हारा फेफड़ा खराब
हो गया, उसको निकाल कर प्लास्टिक का बिठा दिया। चले गए गैरिज
में, बढ़ा दिए गए मशीनों पर, लगा दिया
प्लास्टिक का। अब प्लास्टिक का फेफड़ा कभी खराब नहीं होगा। धीरे-धीरे यह हालत हो
जाएगी कि सभी प्लास्टिक का हो जाएगा, क्योंकि प्लास्टिक की
एक खूबी है कि खराब नहीं होता । और फिर बदला जा सकता है आसानी से। और रास्ता है।
अगर तुम्हारी जिंदगी ऐसी प्लास्टिक की
जिंदगी हो गयी, चाहे तुम हजारों साल रहो और तुम्हारी जिंदगी में कोई
दुख भी नहीं होगा। अगर हृदय तक प्लास्टिक का होगा तो पीड़ा कहां, दुख कहां? तुम एक सुंदर मशीन हो जाओगे। फिर परमात्मा
की याद कोई करेगा? फिर कोई पूजा करेगा? फिर कोई जरूरत न रह जाएगी। लेकिन वह दिन कोई सौभाग्य का दिन न होगा। अभी
आदमी पशु है, तब आदमी पशु से भी नीचे गिर जाएगा--मशीन हो
जाएगा। उठना है पशु से ऊपर।
विज्ञान मनुष्य को पशु से नीचे गिराए
दे रहा है। धर्म की अभीप्सा है मनुष्य को पशु के ऊपर उठाने की आगे के सूत्र इसी की
बात कर रहे हैं।
भेद अभेद भरम का
भांड़ा, चौड़े पड़-पड़ फूटै।
खुले मैदान में सब भदे-अभेद गिर
जाएंगे, न कोई हिंदू रहेगा न कोई मुसलमान रहेगा। जरा प्रेम का
साबुन घिसो और जरा राम के जल से उसे धोओ।
नींद भर हम सो न
पाए जिंदगी भर में।
इस फिकर में, दाग न लग जाए चादर में।
इस कदर कमरा
सजाया है उसूलों से।
पांव फैलाना मना
अब हो गया घर में।
हाथ अपना कलम
अपनी, किस्मतें अपनी।
लिख लिया जैसा
बन हमने मुकद्दर में।
खुद सजायी हैं
अदब की महफिलें हमने।
जोश की बातें
जहां होतीं दबे स्वर में
खोलकर कुछ कह न
पाने का नतीजा है।
आग, पानी से निकलती है समंदर में।
इस कदर कमरा
सजाया है उसूलों से।
पांव फैलाना मना
अब हो गया घर में।
नींद भर हम सो न
पाए जिंदगी भर में।
इस फिकर में, दाग न लग जाए चादर में।
लोग सिद्धांतों को सम्हाल रहे हैं, जिंदगी को नहीं! कोई जैन है, कोई हिंदू है, कोई बौद्ध है, कोई मुसलमान है। लोग सिद्धांतों को
सम्हाल रहे हैं, जैसे आदमी सिद्धांतों को जीने के लिए पैदा
हुआ है।
नहीं-नहीं; ठीक बात उल्टी है: सब सिद्धांत तुम्हारे काम के लिए हैं, तुम किसी सिद्धांत के लिए नहीं हो। सब शास्त्र साधन हैं, तुम साध्य हो।
चंडीदास का--एक अदभुत फकीर का और कवि
का--यह वचन प्रीतिकर है। साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं!
मनुष्य का सत्य सब से ऊपर है, उसके ऊपर कोई सत्य, कोई शास्त्र, कोई सिद्धांत नहीं। सब तुम्हारे लिए है,
यह याद रहे। कभी भूल कर भी यह मत सोचना कि तुम किसी और चीज के लिए
हो। जिस दिन तुमने ऐसा सोचा उसी दिन तुम गुलाम हुए, उसी दिन
तुम्हारी आत्मा पतित हुई।
गुरमुख सब्द गहै
उर अंतर, सकल भरम से छूटै।।
इस सारे जाल से छूटना हो तो जहां कोई
ज्योतिर्मय पुरुष हो, उसके शब्द को मौन से अपने हृदय में पी लेना।
गुरमुख सब्द गहै उर अंतर...! बुद्धि
से मत सुनना। बुद्धि से सुनना तो सुनने का धोखा है। हृदय से सुनना। बुद्धि को तो
सरका कर रख देना एक तरफ। बुद्धि से ही हल होता होता तो तुमने हल कभी का कर लिया
होता। नहीं होता बुद्धि से हल, अब तो इसे सरका कर रख दो। अब तो
हृदय से सुन लो! अब तो प्रीति भरी आंखों से सुन लो! अब तो प्रार्थना भरे भाव से
सुन लो!
गुरमुख सब्द गहै
उर अंतर, सकल भरम से छूटै।।
साध-संगत बैठ जाए, मतवालों से मिलना हो जाए, कोई जो जाग गया है,
उसके हाथ में तुम्हारा हाथ पड़ जाए, तो इससे
बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं है। हाथों को छुड़ाकर भागना मत।
राम का ध्यान तू
धर प्रानी, अमृत का मेंह बूटै।।
बरसेगा अमृत, जरूर बरसेगा! राम का ध्यान तू घर रे प्रानी, अमृत का
मेंह बूटै! खूब बरसेगा, घनघोर बरसेगा। मगर राम का ध्यान! राम
का ध्यान उन्हीं से मिल सकता है, जिन्हें राम का ध्यान हुआ
हो। वही तो हम दे सकते हैं जो हमारे पास हो। मैं तुम्हें वही दे सकता हूं जो मेरे
पास है; वह तो नहीं जो मेरे पास नहीं है। जिसके भीतर राम
प्रकट हुआ हो, उससे ही तुम्हारे भीतर सोए हुए राम को पुलक
जागने की आ सकती है।
जन दरियाव अरप
दे आपा, जरा मरन तब टूटै।।
और अगर मिल जाए कोई गुरु तो बस एक काम
तुम्हें करना है, अपने आप को सौंप देना, समर्पित
कर देना, अर्पित कर देना।
जन दरियाव अरप
दे आपा, जरा मरन तब टूटै।।
उसी क्षण में, जिस क्षण तुम किसी सदगुरु को अपना सारा आपा सौंप दोगे, अपना अहंकार सौंप दोगे, जन्म-मरण छूट गया! फिर न दुबारा
पैदा होना है, फिर न दुबारा मरना है। फिर तुम शाश्वत के
मालिक हुए। फिर शाश्वत का साम्राज्य तुम्हारा है।
जब नयनों में
बदली छायी,
गीतों में सावन
घिर आया।
शूलों से बिंध
गए फूल के,
आंचल की कसकन जब
हारी।
मौन व्यथाओं की
झंझा में,
उपवन की जड़ता भी
भारी।
दबी आग जब सुलग
उठी फिर,
उपवन को पतझर मन
भाया।
विरह वेदना छलक
पड़ी तो,
अधरों को छू लय
तरुणाई
नयन मरुस्थल से
सूखे पर,
भरे सिंधु को
लाज न आयी।
घाव किसी ने मसल
दिए जब,
सोया उत्पीड़न
बौराया।
छलने लगीं
महाछलना सी,
घूंघट पट की
मृदु मुस्कानें।
खिली सुधाकर
स्मित लेकिन,
केवल दो पल को
बहलाने।
मूक हुई जब मन
की वंशी,
तभी कोकिला ने
दोहराया।
बहक उठीं उर तरल
तरंगें,
उमस भरी आयी
अंगड़ाई।
शुष्क कल्पना
मचल उठी जब,
उलझन की आंधी
बौराई।
अपनी ही सांसों
ने छल से,
अपना कहकर फिर
ठुकराया।
छूट गए हाथों के
बंधन,
मेंहदी सूखी
नहीं सुखाए। चाहें तो लूट गयीं अजाने,
मांग रही सिंदूर
सजाए।
दूर बजी भी
शहनाई,
दर्पण ने फिर
पास बुलाया।
मूक हुई जब मन
की वंशी,
तभी कोकिला ने
दोहराया।
कोकिल तो गा रही है, अगर तुम्हारे मन का शोरगुल इतना है कि सुनाई नहीं पड़ता। तुम जरा चुप हो
जाओ, शांत हो जाओ, मौन हो जाओ और कोकिल
की आवाज तुम्हें भर दे। सदगुरु तो बोलते रहे हैं, बोलते
रहेंगे, मगर तुम चुप हो जाओ जरा, तुम
चुप हो कर सुन लो जरा!
दूर बजी जब भी
शहनाई,
दर्पण ने फिर
पास बुलाया।
शहनाई तो बजती रही है। ऐसा कभी नहीं
हुआ कि पृथ्वी पर कहीं न कहीं कोई दीया न जला हो, कोई कमल न खिला हो।
इसलिए जिनके मन में सच में ही खोज है वे पा ही लेते हैं। वे अनंत-अनंत यात्रा करके
पा लेते हैं, वे दूर-दूर देशों से यात्रा करके पा लेते हैं।
खोज है तो सरोवर मिलकर रहेगा, क्योंकि इस जगत का एक आत्यंतिक
नियम है कि प्यास के पहले ही जल बना दिया जाता है।
तुम देखते हो, अभी-अभी चारों तरफ बगीचे में चिड़ियों ने घोंसले बनाने शुरू कर दिए। दिन
करीब आ रहे हैं। अभी चिड़ियों को कुछ पता नहीं; लेकिन दिन
करीब आ रहे हैं, जब अंडे होंगे, जब
बच्चे होंगे। घोंसले बनने शुरू हो गए हैं! अभी बच्चों का आगमन नहीं हुआ है। अभी चिड़ियों
को कुछ पता भी नहीं कि क्या होने वाला है। अगर घोंसले बनने शुरू हो गए।
ऐसा ही है जगत का आत्यंतिक नियम।
तुम्हारे भीतर प्यास है, उसके पहले जल निर्मित है। बस तुम अपनी प्यास को जगा
लो। सरोवर कहीं पास ही पा लोगे। अगर गहन प्यास होगी तो सरोवर खुद तुम्हें खोजता
हुआ चला आएगा। अगर प्रगाढ़ होगी प्यास तो जलधार तुम्हें खोज लेगी।
राम नाम नहिं
हिरदे धरा। जैसा पसूवा तैसा नरा।।
दरिया कहते हैं: अगर राम नाम हृदय में
नहीं है तो पशु में और मनुष्य में फिर कोई भेद नहीं है। बहुत भेद किए गए हैं, बहुत सी परिभाषाएं की गई हैं। अरस्तु ने परिभाषा की है कि मनुष्य
बुद्धिमान प्राणी है। भेद है बुद्ध का। वह परिभाषा अब गलत हो गया, क्योंकि वैज्ञानिकों ने बहुत खोज की है और पाया कि पशुओं में भी बुद्धि
है। पशुओं की तो बात छोड़ दो, पौधों में भी बुद्धि है। और अगर
कोई अंतर है तो मात्रा का है, गुण का नहीं है। और मात्रा का
अंतर कोई अंतर होता है कि किसी में पाव भर है और किसी में डेढ़ पाव है! मात्रा का
अंतर कोई अंतर नहीं होता।
और अभी तो बड़े संदेह पैदा कर दिए हैं
एक वैज्ञानिक ने। जान लिली ने डोल्फिन नाम की मछलियों पर वर्षों तक काम किया है और
उसका कहना है कि डोल्फिन के पास मनुष्य से ज्यादा बड़ा मस्तिष्क है। कई अर्थों में
बात सही है। मनुष्य के पास सबसे ज्यादा बड़ा मस्तिष्क है। पशुओं में हाथी बहुत बड़ा
है, लेकिन उसके पास भी मस्तिष्क इतना बड़ा नहीं है, देह
ही बड़ी है। अगर डोल्फिन के पास मनुष्य से ज्यादा बड़ा मस्तिष्क है। जान लिली की
खोजें यह कहती हैं कि इस बात की संभावना है कि कुछ बातें डोल्फिन को पता है जो
हमको नहीं हैं--जो हमको पता हो ही नहीं सकतीं, क्योंकि उसके
पास बहुत बड़ा मस्तिष्क है।
अभी तो यह परिकल्पना है, अगर मस्तिष्क का बड़ा होना तो प्रामाणिक है। और अगर बड़े मस्तिष्क से कुछ तय
होता है तो हो सकता है डोल्फिन को कुछ बातें पता हों जो हमें पता नहीं हैं।
डोल्फिन अकेली मछली है जो हंसती है। और डोल्फिन अकेली मछली है जिसको भाषा सिखायी
जा सकती है; जिससे संकेतों में बातचीत की जा सकती है।
फिर यह तो एक छोटी सी पृथ्वी है। ऐसी
वैज्ञानिक कहते हैं कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। पता नहीं कैसा-कैसा
विकास हुआ होगा! कितनी भिन्न-भिन्न बुद्धि की अभिव्यक्तियां हुई होंगी।
नहीं; अरस्तु का मापदंड
पुराना पड़ गया, काम नहीं आता अब। पशुओं में भी बुद्धि है,
कम होगी। वृक्षों में भी बुद्धि है। और कौन तय करे कि कम है?
क्योंकि अभी हम वृक्षों की पूरी बुद्धि को जानते भी नहीं हैं,
हमारे पास उपाय भी नहीं हैं। अभी नयी-नयी खोजें दो चार वर्षों के
भीतर हुई हैं, जिनने पहली दफे महावीर जैसे व्यक्ति की वाणी
को वैज्ञानिक आधार दे दिए।
तुम बैठे हो, कोई आदमी छुरा लेकर तुम्हारे पास आता है, छुरा छिपाए
हुए है। ऐसे जय राम जी करता है, मुख में राम बगल में छुरी!
तुम्हें पता भी नहीं चलता कि यह आदमी मारने आया है। लेकिन तुम जानकर हैरान हो
जाओगे कि वृक्ष को पता चल जाता है। वृक्ष को तुम धोखा नहीं दे सकते--मुख में राम,
बगल में छुरी! वृक्ष को धोखा नहीं दे सकते। वृक्षों पर जो प्रयोग
हुए हैं, वे बड़े हैरानी के हैं। अगर कोई आदमी वृक्ष काटने की
इच्छा लेकर जंगल में आता है तो सारे वृक्षों को खबर हो जाती है। इच्छा से! उसने
चाहे अपनी कुल्हाड़ी छिपा रखी हो, सिर्फ भाव और विचार उसके
तरंगित हो जाते हैं और वृक्ष पकड़ लेते हैं।
इतना ही नहीं, और एक हैरानी का वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया है कि वृक्षों की तो बात छोड़
दो, जब तुम जंगल में शिकार करने जाते हो, वृक्षों को काटते ही नहीं, कोई सिंह को मारता है,
कोई हिरने को मारता है--तब भी वृक्ष उदास और दुखी हो जाते हैं,
पीड़ित हो जाते हैं। तो कौन कहे आदमी के पास ज्यादा बुद्धि है! कैसे
कहे? आदमी तो मार रहा है, पक्षु-पक्षी
काट रहा है। भोजन के लिए इंतजाम बना रहा है। और वृक्ष रो रहे हैं और वृक्ष कंप रहे
हैं और पीड़ित हो रहे हैं। किसके पास ज्यादा बुद्धि है?
और वृक्ष तुम्हारे भाव की तरंग को पकड़
लेते हैं। तुम खुद नहीं पकड़ पाते मनुष्यों की भावत्तरंगों को। कोई भी तुम्हें धोखा
दे जाता है। अगर भावत्तरंगें पकड़ सको तो धोखा कैसे देगा?
फ्रायड ने कहीं कहा है: अगर दुनिया के
लोग चौबीस घंटे के लिए एक बात तय कर लें कि चौबीस घंटे में झूठ बोलेंगे ही नहीं तो
उसका कुल परिणाम इतना होगा कि दुनिया में सब दोस्तियां टूट जाएंगी। सब तलाक हो
जाएंगे। और यह बात सच है, चौबीस घंटे अगर तुम झूठ बोलो ही नहीं, बिलकुल सच-सच ही बोलो जैसा तुम्हारे हृदय में है...कि पत्नी को कह दो कि
माता जी, तुम्हें देखकर मुझे भय लगता है, कि अब मुझे बख्शो, कि अब मुझे छुट्टी दो! कि बेटा
बाप से कह दे कि अब नाहक क्यों जीए जा रहे हो, किस काम के हो?
पत्नी पति से कह दे कि यह सब बकवास है कि पति परमेश्वर है, तुम जैसा बेहूदा और फूहड़ आदमी देखा ही नहीं! लंपट हो तुम, परमात्मा नहीं! उचच्के हो!...अगर हर व्यक्ति हरेक से वही कह दे जो उसके
भाव में है, तो यह बात सच मालूम पड़ती है कि शायद ही कोई
दोस्ती टिके।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मुझसे कह रहा
था। मैंने कहा: बहुत दिन से तुम्हारे दोस्त फरीद दिखाई नहीं पड़ते! उसने कहा: नौ
साल हो गए। बोलचाल बंद है।
हुआ क्या?
कहा कि नौ साल पहले हमने एक दिन तय
किया कि हम इतने गहरे दोस्त हैं, अब एक-दूसरे के साथ ईमानदारी
बरतेंगे, सच-सच कहेंगे। बस उसी दिन से बोल-चाल बंद हुआ है सो
नौ साल हो गए, हम शक्ल नहीं देखते एक-दूसरे की। उसने भी सच
बोल दिया, मैंने भी सच बोल दिया।
यहां सारा जगत झूठ पर चल रहा है। झूठ
पर दोस्ती है। झूठ पर विवाह है। झूठ पर प्रेम है। झूठ पर सारे संबंध हैं। सब झूठ
का फैलाव है। काश, मनुष्य में इतनी प्रतिभा हो कि दूसरे के भाव पढ़ ले,
फिर क्या होगा? तो तुम जब कह रहे हो मेहमान से
कि आइए, विराजिए, पलक पांवड़े बिछाता
हूं! और भीतर कह रहे हो कमबख्त, तुम्हें आज का दिन सूझा आने
के लिए! अगर वह भाव पढ़ ले...! वृक्ष पढ़ लेते हैं। कौन ज्यादा बुद्धिमान है?
नहीं; अरस्तु की परिभाषा तो
गयी। अब उसका कोई मूल्य नहीं है। अब तो दरिया की परिभाषा ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम
पड़ती है। और संतों ने सदा यही परिभाषा की है कि पशु में और मनुष्य में एक ही फर्क
है: राम-नाम का स्मरण। भक्ति कहो, ध्यान कहो। कोई पशु ध्यान
नहीं करता और कोई पशु भक्ति नहीं करता। बस इतना ही फर्क है। मनुष्य भक्ति करता है,
ध्यान करता है। मनुष्य अपना अतिक्रमण करने की अभीप्सा रखता है। ऊपर
जाना होता है। दृश्य के पार अदृश्य को छूना चाहता है। सारे रहस्यों के अवगुंठन
खोलना चाहता है, घूंघट उठाना चाहता है प्रकृति के मुंह पर
से--ताकि देख ले कि भीतर कौन छिपा है! कौन है असली मालिक! उस मालिक से दोस्ती
बांधना चाहता है।
राम नाम नहिं
हिरदे धरा। जैसा पसुवा तैसा तैसा नरा।।
पसुवा नर उद्यम
कर खावै। पसुवा तो जंगल चर आवै।।
तो आदमी और जंगली पशु में जंगल जाने
वाले पशु में, जंगल में चर कर लौट आने वाले पशु में भेद क्या है?
पसुवा नर उद्यम कर खावै! इतना ही फर्क कर सकते हो बहुत कि आदमी ऐसा
पशु है जो उद्यम करके खाता है, और पशु ऐसे पशु हैं जो जंगल
से चर कर आ जाते हैं। यह को बड़ी गुणवत्ता नहीं हुई आदमी की। यह तो ऐसे ही लगा कि
इससे तो पशु ही बेहतर हैं। तुमको मेहनत करके खानी पड़ती है, वे
बिना मेहनत खा लेते हैं। तुम्हें खुद ही चिंता उठानी पड़ती है, वे निश्चित हैं। यह तो कोई बड़ी महत्ता न हुई, कोई
उपलब्धि न हुई।
पसुवा आवै पसुवा जाय। पशु पैदा होते
हैं, पशु मर जाते हैं। ऐसे ही तुम पैदा होते हो तुम मर
जाते हो। तुम्हारे जन्मने और मरने के बीच में ऐसे घटता है जिसको तुम कह सको कि जो
पशु को जीवन में नहीं घटा और मेरे जीवन में घटा? हां,
कोई बुद्ध कह सकता है कि मैं ऐसे ही आया और ऐसे ही नहीं गया। आया
कुछ था, जाता कुछ हूं। जो आया था वह जाता नहीं हूं। जो जाता
है वह आया नहीं था।
ऐसा तो कोई बुद्धपुरुष कह सकता है कि
मैं जागकर जा रहा हूं: सोया आया था, मुर्दा आया था,
जीवंत होकर जा रहा हूं। नया जीवन, शाश्वत जीवन
लेकर जा रहा हूं! अमी झरत, बिगसत कंवल! झर गया अमृत, मेरा कमल खिल गया है। आया था तो कमल का भी पता नहीं था, कीचड़ ही कीचड़ था। जाता हूं तो कमल जाता हूं। आया तो अमृत की कौन कहे,
जहर ही जहर से लबालब था। अब अमृत का झरना होकर जाता हूं।
कह सकोगे तुम ऐसा जाते वक्त कि जैसे
आए थे, वैसे ही जा रहे हो या जैसे आए थे उससे कुछ नये होकर
जा रहे हो? इतना ही फर्क है। नहीं तो पशु भी आए, पशु भी गए।
पसुवा चरै व पसुवा खाय। पशु भी खाता
है, पशु भी पचाता है। पशु भी जवान होता है, बूढ़ा होता है
प्रेम भी करता, विवाह भी करता है, बच्चे
भी पैदा करता है। तुम भी सब वही करते हो। लड़ता भी, झगड़ता भी,र् ईष्या भी करता, वैमनस्य भी करता, दोस्ती-दुश्मनी सब करता; फर्क क्या है?
दरिया ठीक कहते हैं: फर्क एक है। पशु
राम का स्मरण नहीं करता। उसके हृदय में कभी आकाश की अभीप्सा पैदा नहीं होती। वह
पृथ्वी पर ही सरकता रहता है। तारों को छूने की आकांक्षा नहीं जगती। उसके भीतर
अतिक्रमण की अभीप्सा नहीं है।
राम ध्यान ध्याया नहिं माई। जिसने
अपने भीतर राम का ध्यान नहीं जगाया, जनम गया पसुवा की
नाई! वह समझ ले कि वह कुत्ते की मौत जिया, कुत्ते की मौत
मरा। उसकी जिंदगी भी मौत है, इसलिए मैं कह रहा हूं: कुत्ते
की मौत जिया और कुत्ते की मौत मरा।
कहा मैंने कितना
है गुल का सबात?
कली ने यह सुनकर
तबस्सुम किया।।
देर रहने की जा
नहीं यह चमन।
बूए-गुल हो
सफीरे-बुलबुल हो।।
कहा मैंने कितना है गुल का सबात? मैंने पूछा कि फूल कितनी देर टिकेगा। इसका स्थायित्व कितना है? कहा मैंने कितना है गुल का सबात? इसका जीवन कितना है?
कली ने यह सुनकर तबस्सुम किया। कली यह सुनी और हंसी और मुस्कुरायी।
देर रहने की जा नहीं यह चमन। और कली ने कहा: यहां कोई देर टिकता नहीं। देर रहने की
जा नहीं यह चमन। यह बगीचा कोई स्थान नहीं कि जहां ठहर जाओ। यह सराय है, निबास नहीं। बूए-गुल हो, सफीरे-बुलबुल हो। फिर चाहे
फूल होओ तुम और चाहे बुलबुल का गीत होओ, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
यहां सब क्षणभंगुर है। अगर क्षणभंगुर में ही जिए तो पशु की तरह जिए। अगर शाश्वत की
तलाश शुरू हुए तो तुम्हारे भीतर मनुष्यत्व का जन्म हुआ।
इसलिए सच्चे मनुष्य को हमने द्विज कहा
है, दुबारा जन्मा। जीसस ने निकोडेमस से कहा था: जब तक तेरा फिर से जन्म न हो
जाए, इसी जन्म में, तब तक तू मेरे
प्रभु के राज्य में प्रवेश न पा सकेगा। हम तो ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। सभी
द्विज ब्राह्मण होते हैं, लेकिन सभी ब्राह्मण द्विज नहीं
होते। यह खयाल रखना। सभी द्विज ब्राह्मण होते हैं। मोहम्मद ब्राह्मण हैं क्योंकि
द्विज हैं। और क्राइस्ट ब्राह्मण हैं क्योंकि द्विज हैं। और महावीर ब्राह्मण द्विज
हैं। और बुद्ध ब्राह्मण हैं क्योंकि द्विज हैं। लेकिन सभी ब्राह्मण द्विज नहीं है।
वे तो नाममात्र के ब्राह्मण हैं ब्राह्मण घर में जन्म होने से कोई ब्राह्मण नहीं
होता। जब तक ब्रह्म में जन्म न हो जाए तब तक कोई ब्राह्मण नहीं होता।
राम ध्यान
ध्याया नहिं माई। जनम गया पसुवा की नाई।।
रामनाम से नाहीं
प्रीत। यह सब ही पशुओं की रात।।
और जागो! कब तक पशुओं की तरह जिए चले
जाओगे--खा लिया, पी लिया, सो गए, उठ आए, फिर खा लिया, फिर पी
लिया, फिर सो गए, फिर उठ आए! यह कोल्हू
के बैल की तरह कब तक चलते रहोगे? कोल्हू के बैल भी कभी-कभी
सोचते होंगे।
मैंने सुना है एक दार्शनिक तेली की
दुकान पर तेल खरीदने गया। चौंका! दार्शनिक था। हर चीज से विचार उठ आते हैं
दार्शनिक को। दार्शनिक वह जो हर चीज से प्रश्न उठा ले। प्रश्न में से प्रश्न उठा
ले। उतर भी हों तो उस में से भी दस प्रश्न निकल आएं। तेली तो तेल तोल रहा था, दार्शनिक ने कहा: ठहर भाई, एक पहले प्रश्न का उत्तर
दे। तू तो तेल तोल रहा है, तू तो पीठ किए बैठा है और कोल्हू
बैल चला रहा है। बैल को कोई हांक भी नहीं रहा है और बैल कोल्हू खुद ही चला रहा है,
गजब का धार्मिक बैल तूने खोज लिया है! ऐसे श्रद्धालु बैल आजकल मिलते
कहां हैं! हड़ताल करें, घिराव करें, मुर्दाबाद
के नारे लगाएं! यह कोल्हू का बैल तुझे मिल कहां गया इस जमाने में? और भारत में! न कोई हांक रहा, न कोई चला रहा और
कोल्हू का बैल चला जा रहा है!
मुस्कुराया तेली। उसने कहा: तुमने
मुझे क्या समझा है? अरे यह बैल की खूबी नहीं, यह खूबी
मेरी है। देखते नहीं, उसका आंखों पर पट्टियां बांध दी हैं।
जैसे तांगे के घोड़े की आंख पर पट्टियां बाद देते हैं, किसलिए
बांध देते हैं। ताकि उसको चारों तरफ दिखाई न पड़े। नहीं तो पास में ही लगी हरी झाड़ी
और दिल हो जाए चरने का, चला छोड़कर रास्ता! कि पास में ही खड़ी
है उसकी प्रेयसी कोई घोड़ी, मारे छलांग, फेंके यात्रियों को और पहुंच जाए! तो उसको देखने नहीं देते इधर-उधर,
दोनों तरफ आंख पर पट्टी बांध दी, उसको बस
सामने ही दिखाई पड़ता है। उतना ही दिखाई पड़ता है जितना उसको चलाने वाला उसको दिखाना
चाहता है।
ऐसे ही उसने कोल्हू के बैल पर भी
पट्टियां बांध दीं। उसने कहा: देखते नहीं, पट्टियां बांध दी हैं,
उसको दिखाई नहीं पड़ता। उसको पता नहीं चलता कि कोई पीछे चलाने वाला
है या नहीं। दार्शनिक भी ऐसे राजी तो न हो जाए। उसने कहा: यह मैं समझ गया, लेकिन कभी-कभी कोल्हू का बैल रुककर देख तो सकता है कि कोई चला रहा है कि
नहीं? कभी जरा रुककर देख लो, जांच कर
ले कि पीछे कोई है भी फटकारने वाला, कोड़ा मारने वाला?
तेली और भी मुस्कुराया, और भी लंबी मुस्कान। उसने कहा: तुम समझे नहीं। तुमने क्या मुझे बिलकुल
बुद्धू समझा है? अगर ऐसा होता तो हम बैल होते और बैल तेली
होता। तुमने हमें समझा क्या है? कोई धंधा ऐसे ही कर रहे हैं!
देखते नहीं बैल के गले में घंटी बांध दी है। घंटी बजती रहती है जब तक बैल चलता है।
जैसे ही रुके बच्चू कि मैं उचका। और दिया एक फटकारा और हांका। उसको पता ही नहीं चल
पाता कि मैं नहीं था। घंटी सुनता रहता हूं। जब तक बजती रहती है तब तक मैं भी
निश्चित। जैसे ही घंटी रुकी, इधर घंटी रुकी नहीं कि मैंने
आवाज दी नहीं, कि मैंने हांका नहीं। तो भेद नहीं पड़ता उसे,
कभी पता नहीं चलता।
मगर दार्शनिक भी दार्शनिक, बस उसने कहा कहा एक प्रश्न और: बैल कभी यह भी तो कर सकता है, खड़ा हो जाए और सिर को हिलाहिलाकर घंटी बजाए? अब थोड़ा
तेली चिंतित हुआ। उसने कहा: जरा धीरे महाराज, कहीं बैल न सुन
ले! और आगे से तेल और कहें ले लिया करना। दो पैसे का तो तेल ले रहे हो और जिंदगी
मेरी खरा किए दे रहे हो। ऐसी बातें खतरनाक हैं। नक्सलवादी मालूम होते हो या क्या
बात है? कम्यूनिस्ट हो? बैलों को
भड़काते हो! शर्म नहीं आती कि मेरा ही तेल पीते हो और मुझे ही से दगा कर रहे हो?
बैल भी कभी-कभी सोच सकते हैं। तेली
ठीक कह रहा है। अगर ऐसे तुम कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो पढ़ते रहो बैल के सामने, तो बैल को भी आखिर सोच आ सकता है कि बात तो जंचती है। लेकिन आदमी सोचता ही
हनीं, विचारता ही नहीं, जिए चला
जाता--है बस कोल्हू के बैल की तरह। और न किसी ने तुम्हारी आंख पर पट्टियां बांधी
हैं, सिवाय कि तुमने स्वयं बांध ली हैं। और न तुम्हारे गले
में किसी ने घंटी बांधी है, सिवाय इसके तुमने खुद लटका ली
है। क्योंकि और लोग भी लटकाए हैं; घंटी बजती है, अच्छी लगती है। और और लोग भी आंखों पर पट्टियां बांधें हैं तो तुमने भी
बांध ली हैं, क्योंकि बिना पट्टियां बांध ठीक नहीं। पट्टियां
सुरक्षा है। अजीब-अजीब बातें लोगों में
चलती हैं।
कल मैं एक इतिहास की किताब पढ़ रहा था।
आज से सौ साल पहले, जब पहली दफा बाथ-टब बना अमरीका में तो अमरीका के एक
राज्य ने कानून पाबंदी लगा दी। कि कोई बाथ-टब अपने घर में नहीं रख सकता, क्योंकि इस में नहाने से हजारों तरह की बीमारियां पैदा होंगी, लोग मर जाएंगे, ठंड से सिकुड़ जाएंगे। यह शैतान की
ईजाद है! और जो लोग बाथ-टब घर में लगाएंगे उनको सजाएं हो जाएंगी।
बाथ-टब जैसी निर्दोष चीज, मगर नई नहीं थी तो शैतान की थी। पुराने को पकड़ने का मन होता है। और तुम
देखते हो, आज हम हंस सकते हैं। जिन पार्लियामेंट के सदस्यों
ने बैठकर यह निर्णय किया होगा, बड़ी गंभीरता से किया होगा।
बाथ-टब पर कानूनी रोक कि कोई नहा नहीं सकता बाथ-टब में। उस राज्य में कुछ बिगड़े
दिल लोग रहे, वे चोरी से बाथ-टब लाते थे स्मगल करके और घरों
में छिपाकर रखते थे। उनमें से कई पकड़े भी गए और उनकी सजाएं भी हुई। क्योंकि तुमने
एक जघन्य अपराध किया। अगर बाथ-टब बनाना ही था तो भगवान ने क्यों नहीं बनाया?
बात भी ठीक है! सब चीजों का उल्लेख है बाइबिल में कि क्या-क्या
बनाया, बाथ टब का कहीं उल्लेख नहीं है। यह शैतान की तरकीब
है। इससे गठिया लगेगा। इस से तुम बीमार पड़ोगे। इस से तुम मर जाओगे। इससे हृदय की धकधकी
बंद हो जाएगी, हार्ट-अटैक होगा। न मालूम कितनी बातें!
डाक्टरों ने भी सहायता दी, कानूनविदों ने भी सहायता दी। अजीब
लोग हैं! हर नयी चीज का विरोध करते हैं, पुराने को पकड़ते
हैं।
तुम भी देखते हो सब लोग आंखों पर
पट्टियां बांधे, तुम भी जल्दी से बांध लेते हो पट्टियां कि कहीं आंखें
खराब न हो जाएं। जब इतने लोग बांधे हैं तो ठीक ही बांधे होंगे। हां; लेबिल अलग-अलग हैं। किसी ने हिंदुओं को पट्टियां बांधी हैं, किसी ने मुसलमानों की, किसी ने ईसाइयों की; मगर पट्टी तो होनी ही चाहिए। मंदिर जाओ कि मस्जिद कि गुरुद्वार, मगर कहीं न कहीं जाना चाहिए। कुरान पढ़ो कि बाइबिल कि गीता, मगर कोई न कोई तोते की तरह रटना चाहिए।
पट्टियां तुमने बांध ली हैं। इस
जिम्मेवारी को समझो, क्योंकि इस जिम्मेवारी में ही तुम्हारी स्वतंत्रता
छिपी है। अगर यह तुम्हें समझ में आ जाए कि पट्टियां मैंने बांधी हैं, किसी और तेली ने नहीं, तो तुम आज इन पट्टियों को
गिरा दे सकते हो। और यह घंटी तुमने बांधी है, इस घंटी को तुम
आज काट दे सकते हो।
मेरे देखे प्रतिभाशाली व्यक्ति एक
क्षण में समाज की सारी झंझटों और जालों से मुक्त हो सकता है। यही प्रतिभा का लक्षण
भी है। देर न लगे, दिखाई पड़ जाए बात और तत्क्षण टूट जाए--जो भी गलत है,
जो भी असार है। रान नाम से नाहीं प्रीत। यह सब ही पसुवों की रात।।
पशुओं की तरह जी रहे हो। मनुष्य का
तुम्हारे भीतर आविर्भाव नहीं हुआ। अभी मनन ही पैदा नहीं हुआ तो मनुष्य कैसे पैदा
हो?
जीवत सुख दुख
में दिन भरै। मुवा पदे चौरासी परै।।
और तुम्हारा जीवन क्या है? किसी तरह सुख-दुख में दिन को भरते रहो। हजारों लोगों के जीवन में झांकने
के बाद मेरा भी यह निष्कर्ष है कि लोग कुछ एक ही काम में लगे हैं--किसी तरह व्यस्त
रहो, आकुपाइड रहो! एक काम छूटे तो दूसरा पकड़ो, दूसरा छूटे तो तीसरा पकड़ो! दफ्तर से आए तो चले क्रिकेट देखने। रविवार को
छुट्टी हो गयी तो चले गोल्फ खेलने। कुछ न हो, चलो मछलियां ही
मार आओ। मगर कुछ न कुछ करो।
रविवार के दिन पत्नियां चिंतित रहती
हैं, क्योंकि पति घर आएगा तो कुछ न कुछ करेगा। छह दिन
बच्चे भी स्कूल रहते हैं तो पत्नियां थोड़ी निश्चिंत रहती हैं; पति भी दफ्तर में रहता है तो निश्चिंत रहती हैं। सातवें दिन उपद्रव आता
है। सारे बच्चे भी घर में, सब तरह के उपद्रव और पति भी घर
में, वह भी खाली नहीं बैठ सकता। ठीक-ठीक चलती घड़ी को खोलकर
बैठ जाएगा कि इसको ठीक कर रहे हैं, कि ठीक-ठीक चलती कार को
ही बानिट उघाड़ कर बैठ जाएगा कि इसकी सफाई कर रहे हैं! और कुछ न कुछ गड़बड़ किए बिना
नहीं मानेगा। उसकी भी तकलीफ है। व्यस्त न रहो तो एकदम से याद आती है कि जिंदगी
बेकार जा रही है। तो टेलीविजन के सामने बैठे रहो कि रेडियो खोल लो, कि अखबार पढ़ते रहो। वही अखबार, जिसको सुबह से तुम
तीन बार पढ़ चुके, फिर-फिर पढ़ो, शायद
कोई चीज चूक गयी हो!
किसी भी कारण से, किसी भी निमित्त से व्यस्तता चाहिए। दो लोग शांत नहीं बैठ सकते, बातचीत में लग जाएंगे। ट्रेन में आते से ही आदमी पूछेगा: कहिए, आप कहां जा रहे हैं? अपनी बताने लगेगा कि मैं कहां
जा रहा हूं। लोग सफर में अजनबी यात्रियों से ऐसी बातें कह देते हैं, जो उन्होंने कभी अपने मित्रों से भी नहीं कहीं। क्या करें खाली बैठे-बैठे,
कुछ तो कहना ही होगा!
किसी बात को गुप्त बड़ा कठिन होता है।
किसी से कह दो कि जरा इस बात को गुप्त रखना बड़ा कठिन होता है। किसी से कह दो कि
जरा इस बात को गुप्त रखना, फिर तुम पक्का समझो कि पूरा गांव जान लेगा। बस कह भर
दो किसी से कि इसको गुप्त रखना। किसी भी बात का प्रचार करवाना हो तो सब से सरल बात
यह है कि कान में कह देना: भैया, जरा इसको गुप्त रखना,
खतरनाक है। फिर उसको चैन ही नहीं। वह तुम से कहेगा: अच्छा अब चले!
कहां जो रहे हो?
और भी काम हैं। अब काम कुछ नहीं है, अब आदमी खोजना है जिनको यह बताना है कि भैया जरा गुप्त रखना। यह बात बड़ी
कठिन है। यह बड़ी खतरनाक बात है। तुमसे तो कह दी, अपने वाले
हो, मगर तुम किसी और से मत कहना। और यही वह दूसरों से कहेगा!
तुम सांझ तक तुम पाओगे कि बात पूरे गांव में पहुंच गयी। हर आदमी जानता है और हर
आदमी मानता है कि वही गुप्त रखने की कोशिश कर रहा है।
क्यों आदमी किसी बात को गुप्त नहीं रख
पाता? कोई भी चीज व्यस्तता के लिए चाहिए। तुम भी वही अखबार
पढ़ते हो, पड़ोसी भी वही अखबार पढ़ता है। तुम भी उससे वे ही
बातें कहते हो, वह भी तुमसे वही बातें कहता है। तुम भी उनको
सुन चुके बहुत बार, वह भी तुम को सुन चुका बहुत बार। फिर
क्या जारी है? फिर क्यों बातचीत में लगे हो?
मैंने सुना है, चीन में एक बार प्रतियोगिता हुई कि जो सबसे बड़ा झूठ बोलेगा, उसे सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जाएगा। बड़े-बड़े झूठ बोलने वाले इकट्ठे हुए! और
जिसको पुरस्कार मिला वह चौंकाने वाली बात है। बड़े-बड़े झूठ बोले गए। एक आदमी ने
कहा: मैंने इतनी बड़ी मछली देखी कि उसको पूंछ देखो तो सिर न दिखाई पड़े और सिर देखो
तो पूंछ न दिखाई पड़े! किसी ने कहा कि मैंने एक मछली मार...। मछलीमार अक्सर बकवासी
हो जाते हैं, क्योंकि और तो कुछ रहता नहीं, मछली मारते हैं!...जब मैंने मछली काटी तो उसमें मुझे एक लाल टेन मिली,
जो मछली निगल गयी होगी। मगर औरों ने कहा: यह कोई खास बात नहीं। उसने
कहा: पहले पूरी बात सुन लो। लालटेन नेपोलियन की थी, उस पर
दस्तखत थे
लोगों ने कहा: यह भी कोई बात नहीं।
उसने कहा: पहले पूरी बात तो सुन लो। लालटेन अभी जल रही थी।
इसको भी प्रथम पुरस्कार न मिला। प्रथम
पुरस्कार मिला एक आदमी को, उसने कहा: मैं एक बगीचे में गया, दो औरतें एक बेंच पर बैठी थीं और चुप बैठी रही घंटे भर। एक शब्द न बालो
गया, न सुना गया।
उसको प्रथम पुरस्कार मिला। यह हो सकता
है कि नेपोलियन की लालटेन अभी भी किसी मछली के पेट में जल रही हो; मगर दो स्त्रियों के पेट में बातें जलती रहें, असंभव
है। दो स्त्रियां और चुपचाप बैठी रहें!
एक सभा में एक उपदेशक व्याख्यान दे
रहा था। नारी-समाज की सभी थी और जो होना था हो रहा था। उपदेशक बोल रहा था और
नारियां भी बोल रही थीं। चर्चा चल रही थी गहन। उपदेशक बड़ा परेशान हो रहा था। करना
क्या? आखिर उसने जोर से चिल्लाकर कहा कि सुनो, एक बात बड़ी गहरी, स्त्रियों के काम की! सुंदर
स्त्रियां कम बोलने वाली होती हैं।
एकदम सन्नाटा हो गया। अब कौन बोले!
लोग व्यस्तता खोज रहे हैं, तरहत्तरह की व्यस्तता खोज रहे हैं। जीवंत सुख दुख में दिन भरै! बस किसी
तरह दिन भर लेना है, जिंदगी भर लेना है। लोग काट रहे हैं
जिंदगी। बड़ा मजा है! एक तरफ चाहते हैं कि लंबी उम्र। बुजुर्गों से प्रार्थना करते
हैं आशीर्वाद दो, लंबी उम्र मिले। और उनसे खुद पूछो: करोगे
क्या लंबी उम्र का? ताश खेल रहे हैं, क्या
कर रहे हो? समय काट रहे हैं। समय काट रहे हैं मतलब उम्र काट
रहे हैं। सिनेमा जा रहे हैं, किसलिए जा रहे हैं?
समय काटना है।
मैं एक सज्जन को जानता हूं जो एक ही
फिल्म को...छोटा गांव है, तीन चार दिन फिल्म चलती है वहां, दो शो होते हैं फिल्म के...एक ही फिल्म के दोनों शो देखते हैं, चारों दिन देखते हैं। मैंने उनसे पूछा: तुम भी गजब के आदमी हो! उसने कहा:
और करें क्या? समय कटता नहीं। बैठे-बैठे क्या करें? ऐसे समय कट जाता है।
जिंदगी चाहिए लंबी और करोगे क्या? समय काटोगे! बड़ी आकांक्षाओ वासनाओं, कामनाओं से
इसीलिए लोग भरे हुए हैं, बड़ी महत्वाकांक्षा से लोग भरे हुए
हैं। और मिलता क्या है सुख के नाम पर? धोखे, वंचनाएं।
मुख्तसर अपनी
हदीसे-जीस्त ये हैं इश्म में
पहले थोड़ा सा
हंसे, फिर उम्र भर रोया किए
बस जरा सी मुस्कुराहट और फिर पीछे
रोना। यह तुम्हारी जिंदगी का प्रेम है। इस जिंदगी के प्रेम में तुम्हें बस इतना
मिलता है: मुख्तसर अपनी अपनी हदीसे-जीस्त ये हैं इश्म में! जीवन की यह कुल गाथा:
पहले थोड़ा सा हंसे, फिर उम्र भर रोया किए! मगर लोग रोना पसंद करेंगे खाली
बैठने की बजाए, यह खयाल रखना। कुछ भी पसंद करेंगे नाकुछ की
बजाए, यह खयाल रखना। दुख आ जाए, यह
पसंद करेंगे बजाए इसके कि कुछ न आए। दुश्मन मिल जाए, यह पसंद
करेंगे बजाए इसके कि कोई न मिले, सन्नाटा रहे। बस भरना है
किसी तरह। क्यों?
क्यों इतनी विक्षिप्तता है भरने की? क्योंकि डर लगता है कि कहीं भीतर का शून्य प्रकट न हो जाए! कहीं जीवन का
असली प्रश्न खड़ा न हो जाए कि मैं कौन हूं, कहां से हूं,
किसलिए हूं, क्या कर रहा हूं? कहीं यह असली प्रश्न आमने-सामने न आ जा! क्योंकि इस प्रश्न के उठ जाने के
बाद जीवन में क्रांति अनिवार्य हो जाती है, अपरिहार्य हो
जाती है। इस प्रश्न के बाद धर्म की शुरुआत है। और इस तरह जिंदगी काट-काट कर लोग
जाते कहां हैं? बस चौरासी के चक्कर में भटकाते रहते हैं। इस
जिंदगी से दूसरी जिंदगी, दूसरी जिंदगी से तीसरी जिंदगी। घबड़ा
भी जाते हैं जिंदगी से। मरना भी चाहते हैं।
बहुत लोग आत्महत्यायें करते हैं!
लाखों लोग आत्महत्यायें करते हैं। करोड़ों लोग प्रयास करते हैं। प्रयास करने वाले
भी बड़े मजेदार प्रयास करते हैं। शायद मन में पक्का नहीं होता कि करना कि नहीं
करना। जैसा कि मन की आदम है, किसी चीज में पक्का नहीं होता।
तो करते भी हैं और बचाव भी रखते हैं। लोग नींद नहीं गोलियां खा लेते हैं मगर हमेशा
इतनी खाते हैं जितने में बच जाएं। हां, शोरगुल मच जाता है
मोहल्ले में, घर वाले लोग परेशान हो जाते हैं, डाक्टर आ जाता है। मगर इतनी खाते हैं जितने में बच जाएं। दस आदमी
आत्महत्या के प्रयास करते हैं, उनमें एक ही मरता है, तो नौ जरूर इंतजाम करके प्रयास करते हैं। तो करते ही काहे को हो? लेकिन यही मनुष्य का मन है--डांवाडोल, अनिश्चित,
करना कि नहीं करना। एक पैर इधर एक पैर उधर। जिंदगी से ऊब जाते हैं
तो मरने को राजी हैं, अगर जागने को राजी नहीं हैं।
जिंदगी
दरियाये-बेहासिल है और किश्ती खराब,
मैं तो घबराकर
दुआ करता हूं तूफां के लिए।
तूफानों की बाढ़ में फंसी है नाव।
जिंदगी क्या है--एक तूफान है, एक आंधी है, अंधड़ है! जिंदगी दरियाये-बेहासिल है और किश्ती खराब। और नाव है बड़ी
जराजीर्ण। मैं तो घबरा कर दुआ करता हूं तूफां के लिए। और मैं तो प्रार्थना करता
हूं कि अब तूफान आ ही जाए।
अगर ये प्रार्थनाएं ही हैं।
मैंने सुनी है एक सूफी कहानी। एक
लकड़हारा। सत्तर साल की उम्र का ढोता है अपनी लकड़ियों को। ले आ रहा है शहर की तरफ।
कई बार उसने प्रार्थना की: हे परमात्मा! अब उठा ही ले। किसीलिए यह दुख दिलवा रहा
है? बुढ़ापा, बीमारी, कमर झुक गयी,
अब भी लकड़ियां काटो, अब भी बेचो। किसीलिए?
किसके लिए? कभी बीमार हो जाता हूं तो भूखा
मरता हूं। जैसे ही बीमारी थोड़ी ठीक हुई, फिर चला लकड़ी काटने।
लकड़ी काटने की भी सामर्थ्य नहीं रही। बहुत बार प्रार्थना की कि परमात्मा अब उठा ले,
अब कोई सार नहीं। अगर प्रार्थना कभी सुनी नहीं गयी।
बड़ी कृपा है परमात्मा की कि तुम्हारी
सब प्रार्थनाएं सुनी नहीं जाती, नहीं तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़
जाओ। उस दिन संयोग की बात, मौत करीब से गुजरती थी और लकड़हारे
ने कहा: हे मौत! अब और कब तक? जवान उठ गए मेरे सामने। मेरे
देखते-देखते मेरे पीछे आए हुए लोग उठ गए, और मुझे कब उठाएगी?
क्या मुझे सदा-सदा यह बोझ लेना पड़ेगा?
मौत को भी कहते हैं दया आ गयी। मौत
आकार सामने खड़ी हो गयी। उसने कहा: मैं मौजूद हूं। बोलो क्या इरादा है?
बूढ़े ने दुख में और पीड़ा में अपनी
लकड़ी का गट्ठर नीचे डाल दिया था। मौत को देखा, होश आया। कहा कि और
कुछ नहीं, जरा यह गट्ठर मैंने नीचे गिरा दिया है, इसे उठाकर मेरे सिर पर रख दे। यहां कोई और दिखाई पड़ता नहीं, तो मैंने तुझे पुकारा। और अब ऐसी प्रार्थना कभी न करूंगा।
लोग कहते हैं कि मर ही जाएं तो अच्छा, मरना कोई चाहता नहीं! यह भी भर लेने का बहाना है अपने को। जो सच में ही
मरना चाहता है उसके लिए तो मरने का एक ही उपाय है--वह ध्यान है। क्योंकि ध्यान में
जो मरा फिर वह पैदा नहीं होता।
मरौ हे जोगी
मरौ!
एक ऐसा भी मरना है कि उसके बाद फिर
कोई जन्म नहीं।
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा!
तिस मरणी मरो
जिस मरणी मरि गोरख दीठा।
उस तरह मरो जिस तरह से गोरख ने मर कर
और देखा। जिन्होंने भी देखा है, मर कर देखा है। जो मरे हैं
उन्होंने देखा है, उन्हीं को दर्शन हुआ है। अहंकार को मरने
दो, चित्त को मरने दो। मैं भाव को मरने दो। शून्य में लीन हो
जाओ। और उसी शून्य में बजेगा नाद राम के नाम का, उठेगा
ओंकार!
जन दरिया जिन
राम न ध्याया। पसुवा ही ज्यों जनम गंवाया।।
मत गंवाओ जीवन को! मत गंवाओ जनम को!
उपयोग कर लो। और क्या है उपयोग? मरौ हो जोगी मरौ! उपयोग एक ही है
कि जीते जी तुम्हारे भीतर जो अहंकार है वह मर जाए, तो दृष्टि
खुल जाए, आंख खुल जाए, द्वार मिल जाए।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
आज इतना ही।
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