प्रश्न—सार:
1—आप
कहते हैं—संन्यासी
को संसार
छोड़ना आवश्यक
नहीं। क्यों?
2—आप
अपने
संन्यासियों
को संसार से
अलग नहीं होने
की सलाह देते
हैं। फिर आपके
प्रवचनों में
संन्यासियों
और संसारियों
के बीच
लक्ष्मण—रेखा
क्यों बनती है?
3—मैं
पूना के लिए
यह निश्चय
करके चला था
कि अब की बार
संन्यास लेकर
लौटूंगा।
किंतु यहां
आपके
सान्निध्य
में होकर
संन्यास का
भाव ही विलीन
हो गया।
4—वर्ष
भर से सक्रिय
ध्यान करता
हूं। पांच—छह
बार ध्यान की
क्षणिक
अनुभूतियां
भी हुईं। एक
बार तो आंखें
आप ही आप ऊपर
चढ़ गईं और
आज्ञाचक्र
एकदम से प्रकाशित
हो गया। किंतु
हर ध्यान के
बाद यह भाव
बना रहा: आखिर
इससे क्या हुआ? अनुग्रह का
भाव तो उठता
नहीं। भगवान,
बताएं कि
मैं क्या करूं?
5—समाधि
क्या है?
6—मैं
परमात्मा को
खोजता फिर रहा
हूं और परमात्मा
मिलता नहीं।
प्रभु, कितनी
यात्रा और
करनी होगी? संन्यास भी
लिया है, परमात्मा
तो नहीं मिला;
उलटा लोग
मुझे पागल
समझने लगे।
पहला
प्रश्न: आप
कहते हैं—संन्यासी
को संसार
छोड़ना आवश्यक
नहीं। क्यों?
क्योंकि
संसार
परमात्मा का
है। संसार को
छोड़ना प्रकारांतर
से परमात्मा
को ही छोड़ना
है। संसार का
अपमान उसके
स्रष्टा, उसके
मालिक का
अपमान है।
संसार
को छोड़ने की
बात का एक ही
अर्थ होता है
कि तुम
परमात्मा से
भी ज्यादा
समझदार हो रहे
हो। उसने अभी
तक संसार नहीं
छोड़ा। उसने
छोड़ दिया होता
संसार तो
संसार खो गया
होता। वही तो
डालता है
श्वास प्राणों
में। वही तो
हरा है
वृक्षों में।
वही तो गीत गाता
पक्षियों
में। संसार
उसने छोड़ा
नहीं है।
और ऐसा
भी मत सोचना
कि संसार को
बना कर परमात्मा
दूर हो गया
है। उसके बिना
संसार जी ही न
सकेगा।
परमात्मा
प्रतिपल
संसार बना रहा
है। किसी
इतिहास की घड़ी
में संसार
बनाया और फिर
हट गया—ऐसा
नहीं है। इस
क्षण भी सृजन
जारी है। नये
बीजों में
अंकुर आ रहे
हैं। नये
बच्चे पैदा हो
रहे हैं। नये
तारे निर्मित
हो रहे हैं।
प्रतिपल सृजन
चल रहा है।
संसार
को छोड़ोगे, परमात्मा का
अपमान करोगे।
इसलिए
कहता हूं:
संसार को मत
छोड़ना, क्योंकि
संसार में
परमात्मा
छिपा है। और
परमात्मा को
खोजेंगे कहां?
संसार के
अतिरिक्त और
कोई जगह कहां
है? भागोगे
कहां? जहां
जाओगे वहां
संसार है।
बाजार में
संसार है, हिमालय
में संसार
नहीं? मनुष्यों
में संसार है,
वृक्षों
में संसार
नहीं? अगर
मनुष्यों में
संसार है, तो
वृक्षों में
भी संसार है।
सभी पर उसी एक
मालिक के
हस्ताक्षर
हैं। जाओगे
कहां? चांदत्तारों
पर जाओगे!
जहां जाओगे, तुम, वहीं
संसार होगा।
संसार में ही
जा सकते हो।
और अगर
ऐसी कोई जगह
भी होती—कल्पना
करके मान लें, तर्क के लिए
मान लें, ऐसी
कोई जगह भी है—जहां
संसार नहीं, वहां भी तुम
पहुंच जाओगे,
तो संसार
पहुंच जाएगा,
क्योंकि
तुम संसार हो।
तुम संसार के
सारे सूत्र
अपने हृदय में
लिए हो। तुम
जहां जाओगे
वहां संसार बस
जाएगा। तुम
जहां जाओगे
वहां प्रेम होगा,
वहां घृणा
होगी, वहां
क्रोध होगा, वैमनस्य
होगा, मित्रता
होगी, शत्रुता
होगी, कभी
खिन्न मन, कभी
प्रसन्न मन।
संसार वहां बस
जाएगा। तुम किसी
वृक्ष के नीचे
बैठे रहोगे दो—चार
वर्ष तक ध्यान
करते हुए और
फिर कोई दूसरा
संन्यासी आकर
वृक्ष के नीचे
बैठ जाएगा, तुम कहोगे:
कहीं और खोजो!
यह वृक्ष मेरा
है! मैं चार
वर्ष से यहां
बैठा हुआ हूं।
रास्ता नापो!
कहीं और जाओ।
यह गुफा मेरी
है!
और
जहां मेरा आया
वहां संसार
आया। और तुम
वृक्ष के नीचे
बड़े शांत बैठे
हो और एक कौवा
बीट कर जाए...।
अब कौवों को
कोई फिकर तो
होती नहीं कि
तुम संन्यासी
हो, कि
संसारी हो, कि त्यागी
हो, कि
व्रती हो, कि
मुनि हो, यति
हो। कौवा बीट कर
जाएगा, मन
क्रोध की आग
से भर जाएगा।
तुम वैसे ही
क्रुद्ध हो
जाओगे जैसे
किसी ने गाली
दी। और सिंह दहाड़
मारेगा, तो
तुम्हारी
छाती कंपेगी—वैसे
ही भय से, जैसे
कभी किसी
दुश्मन ने
छाती पर छुरी
रख दी होती, तब कंपी
होती। जाओगे
कहां? अपने
से कहां
भागोगे?
परमात्मा
बाहर भी मौजूद
है—तुम में भी
मौजूद है।
यदि
तुम मुझसे
पूछो तो मैं
कहना चाहूंगा
कि परमात्मा
और संसार दो
हैं, यह भाषा
ही गलत है।
संसार
परमात्मा है।
जब तुम दो मान
लेते हो तो
अड़चन में पड़
जाते हो। फिर
छोड़ने—पकड़ने
का उपद्रव
शुरू होता है।
जब दो मान
लिया तो
द्वंद्व शुरू
होता है: क्या
पकडूं क्या
छोडूं? विकल्प
खड़े हो गए:
संसार पकडूं
कि सत्य पकडूं?
एक छोड़ना
पड़ेगा, क्योंकि
तुमने अपने
हाथ से
द्वंद्व खड़ा
कर लिया।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं: एक
ही है। यहां
दो हैं ही
नहीं। दो
तुम्हारे मन
की कल्पना है।
और जब भी तुम
दो बना लोगे, तभी द्वंद्व
में पड़ोगे, तभी कलह में
पड़ोगे, तभी
कष्ट में, तभी
नरक में उतर
जाओगे।
एक में
होना ही
स्वर्ग में
होना है। दो
में हो जाना
ही नरक में हो
जाना है।
संसार
और परमात्मा
को दो तरह से
मत सोचो। सृष्टि
और स्रष्टा को
दो में मत
बांटो।
स्रष्टा और
सृष्टि एक ही घटना
के दो नाम
हैं।
परमात्मा
ने संसार
बनाया, ऐसा
मत कहो।
परमात्मा
संसार बना, ऐसा कहो।
बनाएगा भी
कहां से? लाएगा
कहां से? अपने
में से ही
निकालेगा।
इसलिए
पुराने
शास्त्र कहते
हैं: जैसे
मकड़ी जाला
बुनती है, अपने ही
भीतर से
निकालती है, ऐसे
परमात्मा ने
यह संसार रचा।
अपने ही भीतर
से निकाला। यह
उसका अंतरतम है
जो बाहर फैला
है।
तुम्हें
भागने की
जरूरत नहीं—जागने
की जरूरत है।
स्थान नहीं
बदलना है—स्थिति
बदलनी है।
कहां रहो, यह सवाल
नहीं है—कैसे
रहो, यह
सवाल है।
अंधा
आदमी अंधेरे
में हो तो
अंधेरा है और
रोशनी में खड़ा
हो जाए तो
अंधेरा है।
रोशनी में भी
खड़े होकर अंधे
आदमी को
अंधेरा होगा।
असली सवाल
अंधा आदमी अंधेरे
में बैठे कि
रोशनी में
बैठे, यह
नहीं है। असली
सवाल यह है कि
अंधा आदमी कैसे
आंख खोले, कैसे
उसकी आंख
सुधरे, कैसे
उसकी आंख का
उपचार हो?
दृष्टि
का उपचार
संन्यास है। देखने
की कला आनी
चाहिए। दर्शन
आना चाहिए।
गहरे देखने की
क्षमता आनी
चाहिए। तो जब
तुम पत्थर में
गहरे देखोगे
तो परमात्मा
मिलेगा। ऊपर—ऊपर
संसार है, भीतर—भीतर
परमात्मा है।
इसलिए
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
छोड़ कर जाओ।
छोड़ने की बात
ही कायरता की, कमजोरी की, नपुंसकता की
है। भगोड़ेपन
की बात में
कुछ बहुत सार
नहीं है।
जूझो! भागोगे
कहां? जूझने
से मिलेगा
कुछ। चुनौती
को स्वीकार
करो।
मैं
तुमसे
रणछोड़दासजी
बनने को नहीं
कहता। यह जीवन
का युद्ध है, इसको छोड़ कर
कहां जाओगे? वही तो
अर्जुन कर रहा
था गीता में—जीवन
के युद्ध से
भाग रहा था।
कृष्ण ने
खींचा उसे।
जाओगे
कहां?
जो
दिया है
परमात्मा ने, उसको कैसे
ढंग से जीएं—सारी
बात इसकी है।
अक्सर
ऐसा होता है:
नाच नहीं आता
तो तुम आंगन को
टेढ़ा कहते हो।
नाच सीखो! जो
नाचना जानता
है, टेढ़े
आंगन में भी
नाच सकता है।
और जो नाचना
नहीं जानता, चौकोर आंगन
भी होगा तो
क्या करेगा?
मगर
लोग सस्ती बात
पकड़ लेते हैं।
पत्नी छोड़ दो, बच्चे छोड़
दो—यह सस्ती
बात है। तुम
सोचते हो:
पत्नी के कारण
मोह है, या
कि मोह के
कारण पत्नी है?
जरा विचार
करना, ध्यान
करना। पत्नी
पहले या मोह
पहले? मोह
न होता तो तुम
पत्नी को ले
ही कैसे आए
होते? तुमने
पत्नी बनाई
क्यों होती? मोह पत्नी
के पहले था और
अब तुम बेचारी
पत्नी पर थोप
रहे हो कि
पत्नी के कारण
मोह है।
मोह के
कारण पत्नी
है। तुम पत्नी
छोड़ कर भाग जाओगे, मोह कहीं और
टिकेगा, कोई
निमित्त खोज
लेगा।
पुरानी
कथा है। एक
खोजी ने
विष्णु को
खोजते—खोजते
एक दिन पा
लिया। चरण पकड़
लिए। बड़ा
आह्लादित था, आनंदित था।
जो चाहिए था, मिल गया था।
खूब—खूब
धन्यवाद दिए
विष्णु को और
कहा कि बस एक
बात और: मुझसे
कुछ थोड़ा सा
काम करा लें, कुछ सेवा
करा लें। आपने
इतना दिया, जीवन दिया, जीवन का परम
उत्सव दिया और
अब यह परम
जीवन भी दिया।
मुझसे कुछ
थोड़ी सेवा करा
लें! मुझे ऐसा
न लगे कि मैं
आपके लिए कुछ
भी न कर पाया, आपने इतना
किया! मुझे
थोड़ा सा
सौभाग्य दे
दें! जानता
हूं, आपको
किसी की जरूरत
नहीं, किसी
बात की जरूरत
नहीं। लेकिन
मेरा मन रह
जाएगा कि मैं
भी प्रभु के
लिए कुछ कर
सका!
विष्णु
ने कहा: कर
सकोगे? करना
बहुत कठिन
होगा।
मगर
भक्त जिद्द अड़
गया। तो कहा:
ठीक है, मुझे
प्यास लगी है।
क्षीरसागर
में तैरते हैं
विष्णु, वहां
कैसी प्यास!
पर इस भक्त के
लिए कहा कि चल
ठीक, मुझे
प्यास लगी है।
तू जाकर एक
प्याली भर
पानी ले आ।
भक्त
भागा। तुम
कहोगे क्षीरसागर
था, वहीं से
भर लेता।
लेकिन जो पास
है, वह तो
किसी को दिखाई
नहीं पड़ता।
पास तो दिखाई ही
नहीं पड़ता।
पास के लिए तो
हम बिलकुल
अंधे हैं।
हमें दूर की
चीजें दिखाई
पड़ती हैं।
जितनी दूर हों,
उतनी साफ
दिखाई पड़ती
हैं।
चांदत्तारे
दिखाई पड़ते
हैं। निकट
पड़ोस नहीं दिखाई
पड़ता। उसे भी
नहीं दिखाई
पड़ा होगा। तुम
जैसा ही आदमी
रहा होगा।
भागा। उसने
कहा: अभी लाता
हूं।
चला।
उतरा संसार
में। एक द्वार
पर जाकर दस्तक
दी। एक सुंदर
युवती ने
द्वार खोला।
उस भक्त ने
कहा कि देवी, मुझे एक
प्याली भर
शीतल जल मिल
जाए।
उस
युवती ने कहा:
आप आए हैं, ब्राह्मण
देवता! भीतर
विराजें! मेरे
घर को धन्य
करें! ऐसे
बाहर—बाहर से
न चले जाएं।
फिर मेरे पिता
भी बाहर गए हैं।
मैं घर में
अकेली हूं। वे
आएंगे तो बहुत
नाराज होंगे
कि ब्राह्मण
देवता आए और
तूने बाहर से
भेज दिया!
नहीं—नहीं, आप भीतर आएं!
एक
क्षण को तो
ब्राह्मण
देवता डरे!
युवती है, सुंदर है, अति सुंदर, ऐसी सुंदर
स्त्री नहीं
देखी। विष्णु
भी एक क्षण को
फीके मालूम
पड़ने लगे।
विष्णु के
फीके हो जाने
में देर कितनी
लगती है! ऐसा
दूर का सपना मालूम
होने लगे। तो
भक्त डरा, घबड़ाया।
घबड़ाया
इसीलिए कि
विष्णु एक
क्षण को भूलने
ही लगे। आवाज
दूर से दूर
होने लगी।
उसने
कहा कि नहीं—नहीं।
माथे पर पसीना
आ गया। लेकिन
युवती तो मानी
न। उसने हाथ
ही पकड़ लिया
ब्राह्मण
देवता का—कि
आप आएं भीतर, ऐसे न जाने
दूंगी। उसके
हाथ का पकड़ना—ब्राह्मण
देवता के
विष्णु
बिलकुल विलीन
हो गए। वह
भीतर ले गई। उसने
कहा: जल तो आप
ले जाएंगे, लेकिन पहले
स्वयं तो
जलपान कर लें।
तो नाश्ता करवाया,
पानी
पिलाया।
एकांत!
उस युवती का
सौंदर्य! उस
युवती का भाग—भाग
कर ब्राह्मण
देवता की सेवा
करना! विष्णु
धीरे—धीरे
स्मृति से उतर
गए। कभी—कभी
बीच—बीच में
याद आ जाती कि
बेचारे प्यासे
होंगे, फिर
सोचता कि ठीक
है, भगवान
को क्या
प्यास! वह तो
मेरे लिए ही
उन्होंने कह
दिया है, अन्यथा
उनको क्या
प्यास! वे तो
परम तृप्ति
में हैं! तो
ऐसी कोई जल्दी
तो है नहीं।
और दो क्षण रुक
लूं।
और
युवती ने जब
निमंत्रण
दिया कि जब आप
ही आ गए हैं, मेरे पिता
भी थोड़ी देर
में आते ही
होंगे, उनसे
भी मिल कर
जाएं, तो
वह सहज ही
राजी हो गया।
और युवती सेवा
करती रही। और
युवती का
सौंदर्य और
रूप मन को
मोहता रहा।
सांझ हो गई, पिता तो
लौटे नहीं।
युवती ने कहा:
आप भोजन तो कर
ही लें। अब
सांझ को कहां
भोजन करेंगे।
भोजन
बना, भोजन
किया। रात हो
गई। युवती ने
कहा: इस रात
में अब कहां
जाएंगे!
सोच तो
ब्राह्मण
देवता भी यही
रहे थे कि रात
अब कहां
जाएंगे! सुबह—सुबह
भोर होते, ब्रह्ममुहूर्त
में निकल
जाना। राजी हो
गए। फिर तो
वर्षों बीत
गए। फिर वह
वहां से निकले
नहीं। फिर एक
पर एक काम आते
गए। ब्राह्मण
देवता करें भी
तो क्या करें!
सुबह युवती
कहने लगी कि
पिता तो आए
नहीं हैं, गाय
का दूध लगाना
है, मुझसे
लगता नहीं, आप लगा दें।
तो गाय का दूध
लगाया। फिर
बैल बीमार था।
तो युवती ने
कहा कि
ब्राह्मण
देवता, इसकी
भी कुछ सेवा
करें, मैं
कहां औषधि
लेने जाऊं! और
फिर ये सब भी
परमात्मा के
ही हैं। बात
भी जंची।
ब्राह्मण
देवता रुके सो
रुके। फिर
उनके बेटे हुए, बेटियां
हुईं, बड़ा
फैलाव हो गया।
कोई पचास—साठ
साल बीत गए।
बेटों के बेटे
हो गए। तब
गांव में बाढ़
आई। भयंकर बाढ़
आई! ब्राह्मण
देवता बूढ़े हो
गए हैं। लेकर
अपने बच्चों
को, नाती—पोतों
को किसी तरह
बाढ़ से निकलने
की कोशिश कर रहे
हैं। सारा
गांव डूबा जा
रहा है। भयंकर
बाढ़ है! ऐसी
कभी न देखी न
सुनी। जैसे
बाढ़ में से जा
रहे हैं बचा
कर, पत्नी
बह गई। पत्नी
को बचाने दौड़े
तो जिस बच्चे
का हाथ पकड़ा
था, उसका
हाथ छूट गया।
उस किनारे
पहुंचते—पहुंचते
सारा परिवार
विलीन हो गया
बाढ़ में।
उस
किनारे एक
पत्थर की
चट्टान पर
ब्राह्मण देवता
खड़े हैं और
बाढ़ की एक बड़ी
उत्तुंग लहर
आती है।
उत्तुंग लहर
पर आते हैं
विष्णु बैठे
हुए और कहते
हैं: मैं
प्यासा ही हूं, तुम अभी तक
पानी नहीं लाए?
मैंने
तुमसे पहले ही
कहा था, तुम
न कर सकोगे।
क्योंकि तुम
संसार छोड़ कर
भागे थे। जो
छोड़ कर भागता
है, उसका
आकर्षण शेष
रहता है।
यह कथा
बड़ी प्यारी
है।...क्योंकि
तुम संसार छोड़
कर भागे थे।
संसार से जाग
कर ऊपर नहीं
उठे थे। संसार
की तरफ आंख
बंद करके भागे
थे। तो छोटे से
काम के लिए भी
संसार में
जाओगे तो उलझ
जाओगे। लेने
गए थे जल और
सारा संसार बस
गया। गए थे
हरि भजन को, ओटन लगे
कपास! फिर जब
कोई कपास ओटता
है तो ओटता ही
चला जाता है।
कपास का ओटना
ऐसा है, कभी
पूरा नहीं
होता।
मैं
तुमसे भागने
को नहीं कहता।
मैं तुमसे जागने
को कहता हूं।
भागना सस्ता
काम है। बच्चों
को छोड़ कर भाग
जाने में कोई
बड़ी शूरवीरता
की जरूरत नहीं
है—सिर्फ थोड़ी
सी
अनुत्तरदायित्व
की भावना चाहिए, बस।
उत्तरदायित्व
का बोध न हो, बस इतना
काफी है
बच्चों—पत्नी
को छोड़ कर भाग
जाने में।
थोड़ी
अकर्मण्यता
हो, बुद्धिहीनता
हो, जड़ता
हो—बस इतना
काफी है। कोई
बहुत बड़ी
बुद्धिमानी
नहीं चाहिए
बच्चे छोड़ कर भाग
जाने में।
सिर्फ थोड़ा सा
कठोर हृदय
चाहिए, थोड़ा
पाषाण हृदय
चाहिए।
बच्चे
छोड़ कर भाग
जाओगे, लेकिन
यह पाषाण हृदय
परमात्मा को
पा सकेगा? यह
पाषाण हृदय तो
परमात्मा को
पाने में
बिलकुल
असमर्थ हो
जाएगा।
क्योंकि
परमात्मा को
पाने के लिए
संवेदनशीलता
चाहिए, हार्दिकता
चाहिए। और यह
तो तुम उलटा
ही कर चुके।
इसलिए नहीं
कहता कि संसार
से भाग जाओ।
कहता हूं: यह
अवसर है
परमात्मा का
दिया हुआ।
इसके पीछे राज
है। तुम्हें
जगाने के लिए
यह एक व्यवस्था
है। यह
पाठशाला है।
यहां से भागने
से तुम ज्ञानी
न हो जाओगे।
इस पाठशाला
में उत्तीर्ण होओगे
तो ज्ञानी
होओगे।
कोई
विद्यार्थी
भाग जाता है
विश्वविद्यालय
से, इससे कुछ
ज्ञानी नहीं
हो जाएगा।
विश्वविद्यालय
में जूझना
पड़ेगा, उत्तीर्ण
होना होगा, संघर्ष करना
होगा।
विश्वविद्यालय
के पार होना
है; भागने
से क्या होगा?
यह
संसार
विद्यापीठ
है। इसकी
परीक्षाओं से
उतरो। इसकी हर
परीक्षा
बहुमूल्य है।
और जिस—जिस
परीक्षा से
उतर जाओगे, उतने—उतने
परमात्मा के
करीब आ जाओगे।
और
आखिरी
परीक्षा है:
पदार्थ में
परमात्मा को देखने
की क्षमता; रूप में
अरूप को
पहचानने की
क्षमता; क्षुद्र
में विराट का
दर्शन। वह
आखिरी
परीक्षा है।
वह जिस दिन हो
जाएगी, उस
दिन ही पाओगे।
इसलिए
मेरे
संन्यासी को
मैं भागने को
नहीं कहता।
मेरे
संन्यासी को
मैं जागने को
कहता हूं। जागना
श्रमपूर्ण
है। जागने की
प्रक्रिया कठिन
प्रक्रिया है—पहाड़
पर चढ़ने जैसी।
भागने की प्रक्रिया
सरल है—घाट
उतरने जैसी
है।
यहीं
है, जिसे तुम
खोज रहे हो।
तुम्हारी
पत्नी में भी
वही छिपा है, तुम्हारे
बच्चों में भी
वही छिपा है।
तुम्हारे
पड़ोसियों में
भी वही
विराजमान है।
तुम में भी
वही बैठा है।
उसके
अतिरिक्त
दूसरा नहीं है,
दूजा नहीं
है।
मैं
बनाऊं घर इसी
मझधार में
अगम
जल की सोनमछरी
मन बसी।
मैं
बनाऊं घर इसी
मझधार में!
किनारे
मत तलाशो। इसी
मझधार में जो
घर बना ले, वही कुशल
है।
मैं
बनाऊं घर इसी
मझधार में
अगम
जल की सोनमछरी
मन बसी।
गढ़ा
उसको किसी
चतुर सुनार ने
नये
सांचे में ढली
वह कामिनी
रंग
ऐसा भर दिया
करतार ने
दिपे
सोना अंग जैसे
दामिनी।
प्राण
की हर पोर में
उसकी चुभन।
ज्यों
अंगूठी
अंगुली में हो
कसी।
जब
हटे जल का
रुपहला आवरण
दिख
जाए वह सलोनी
एक क्षण।
दृष्टि
की आराधना
साकार हो।
ज्योति—पुलकित
हो उठे
वातावरण।
दिशाएं
हैं मौन उसके
ध्यान में
चेतना
के लोक की वह
उर्वशी।
बनिज
नौकाएं
लुटाएं लाख धन
गीत
मांझी के करें
अनगिन गुहार।
व्यर्थ
हैं ये सभी
आकर्षण मुझे।
मैं
न जाऊं छोड़ कर
यह अगम धार।
प्रीत
की बंसी इसी
जल में लगे—
मूढ़
जग चाहे उड़ाए
जो हंसी।
मैं
बनाऊं घर इसी
मझधार में
अगम
जल की सोनमछरी
मन बसी।
कला
भागने में
नहीं; कला
यहीं खोज लेने
में है। कला
इसी क्षण जीवन
की गहराइयों
में, अगम
गहराइयों में
उतर जाने में
है।
लेकिन
तुम्हारे
प्रश्न का
अर्थ मैं
समझता हूं।
सदियों से
संन्यास का
वही रूप रहा—भगोड़े
का। उस रूप के
कारण अनंत—अनंत
लोग संन्यास
की अपूर्व
संपदा से
वंचित रह गए।
जो भागे, उनमें
से बहुत कम ने
पाया।
जिन्होंने
पाया, वे
संसार में भी
पा लेते।
उन्होंने
भागने से पाया,
इस भ्रांति
में पड़ना मत।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं:
महावीर अगर न
गए होते जंगल, तो भी पा
लिया होता। और
मैं ऐसे ही
नहीं कह रहा हूं।
उसके पीछे
गहरे प्रमाण
हैं। महावीर
युवा थे, तब
उन्होंने
अपनी मां को
कहा कि मैं सब
छोड़ कर जंगल
चला जाना
चाहता हूं।
मां ने कहा:
मेरे रहते यह
बात दुबारा
उठाना मत। जब
तक मैं जिंदा
हूं, मैं न
सह सकूंगी। और
तुम गए भाग कर,
तो अगर मैं
मर गई, तो
उसकी हत्या, हिंसा
तुम्हीं को
लगेगी।
महावीर
ने बात न
उठाई। बात ही
न उठाई! फिर
मां भी चल
बसी। पिता को
पूछा। पिता ने
कहा: मेरे रहते
यह न हो
सकेगा। अगर
मुझे कुछ हुआ
जिम्मेवारी
तुम्हारी
होगी।
फिर
पिता भी चल
बसे। महावीर
चुप रहे। फिर
पिता को दफना
कर लौट रहे
हैं। रास्ते
में अपने बड़े भाई
से कहा कि अब
मुझे आज्ञा हो
जाए। मां के
लिए रुका, पिता के लिए
रुका। दोनों
चले गए। लेकिन
बड़े भाई की
आज्ञा तो लेनी
ही होगी। अब
मुझे आज्ञा हो
जाए।
बड़े
भाई तो एकदम
आगबबूला हो
गए। उन्होंने
कहा: मां चली
गई, पिता चले
गए। मुझ पर
ऐसा पहाड़ टूटा
और तू भी छोड़
कर चला जाना
चाहता है! यह
नहीं होगा। यह
बात ही मत
उठाना।
अब यह
जरा कठिन
मामला था कि
बड़ा भाई, कब
जाएगा दुनिया
से! आखिर माता—पिता
की आशा रखी जा
सकती थी; आज
नहीं कल
जाएंगे, वृद्ध
थे। ये बड़े
भाई तो शायद
ज्यादा भी जी
जाएं। और अगर
जाएं भी तो
महावीर भी
वृद्ध हो चुके
होंगे तब तक, तब तक जंगल
जाने की
क्षमता भी न
रह जाएगी। लेकिन
महावीर चुप हो
गए। घर में ही
ऐसे रहने लगे
जैसे न हों।
उपस्थित शरीर
से, प्राणों
से अनुपस्थित
हो गए। किसी
को पता ही न
चले कि हैं या
नहीं हैं। दो
वर्ष तक यह
अवस्था रही।
घर के लोग भूल—भूल
जाएं, क्योंकि
किसी के बीच
में न आएं, किसी
के आड़े न आएं।
महावीर की
वाणी ही न
सुनी गई दो
साल तक।
चुप्पी साधे
रहें। जैसे
होना न होना
बराबर हो गया।
आखिर घर के
लोग इकट्ठे
हुए। बड़े भाई
ने भी कहा कि
अब रोकना उचित
नहीं। और रोकने
से सार भी
क्या है! जिसे
जाना था, वह
तो जा ही
चुका। अब तो
ऊपर की खोल
पड़ी है। घर
में हम कब तक
रोके रखेंगे?
इसका कोई
मतलब भी नहीं।
हम क्यों पाप
के भागीदार
हों? हम
क्यों
स्वतंत्रता
में बाधा आएं?
घर के
लोगों को ही
चिंता हुई।
उन्होंने
सबने इकट्ठे
होकर महावीर
से प्रार्थना
की कि आप तो चले
ही गए, अब हम
रोक न सकेंगे।
आपकी जैसी
मर्जी।
उस दिन
महावीर छोड़ कर
चले गए। मैं
तुमसे कहता हूं:
अगर भाई ने यह
न कहा होता तो
महावीर कभी छोड़
कर न गए होते।
फिर भी महावीर
ज्ञान से
वंचित रह जाने
वाले नहीं थे।
प्रक्रिया
शुरू हो गई थी।
घर में ही वन
हो गया था।
बुद्ध
जब बारह वर्ष
के बाद वापस लौटे
हैं—बुद्धत्व
को प्राप्त
करके—रवींद्रनाथ
ने एक कविता
लिखी है, यशोधरा
से पुछवाया
है। बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रश्न
पुछवाया है!
किसी शास्त्र
में नहीं है।
रवींद्रनाथ
ने पुछवाया है
ढाई हजार साल
के बाद। लेकिन
फिर भी मैं
कहता हूं कि
यह प्रश्न
यशोधरा ने
जरूर पूछा होगा।
दो हजार साल
में किसी ने
किसी शास्त्र
में उल्लेख
नहीं किया, मैं उसकी
फिकर नहीं
करता।
रवींद्रनाथ
ने पूछा है, मैं कहता
हूं यह
शास्त्रीय हो
गया। यह
प्रामाणिक
है। और प्रश्न
ऐसा है कि
पूछा ही होगा
यशोधरा ने। जब
वापस लौटे
बारह वर्ष के
बाद घर, तो
यशोधरा ने जो पहला
प्रश्न पूछा,
वह यही—कि
मेरे प्रभु, एक ही
प्रश्न मेरे
मन में है, और
वह यह कि जो
जंगल जाकर
मिला; वह
यहां नहीं मिल
सकता था? बुद्ध
जो कभी किसी
प्रश्न के
उत्तर में चुप
नहीं रहे, चुप
खड़े रह गए, उन्होंने
कोई उत्तर
नहीं दिया।
उत्तर देने को
था भी नहीं।
जिसने
जाना है, वह
यह भी जान
लेगा कि यह
जानना कहीं भी
हो सकता था।
इस पर किसी
परिस्थिति का
कोई बंधन नहीं
था। तो वे जो
हजारों—लाखों
लोग जंगल गए
उनमें से दो—चार
ने जाना, और
जिन दो—चार ने
जाना, मेरा
यह दावा है कि
वे न भी जंगल
गए होते तो
जान लेते।
जंगल से उस
जानने का कोई
संबंध नहीं
है। और जो
बाकी मूढ़ों की
तरह जंगल चले
गए, न
उन्होंने
वहां जाना, न वे यहां
जान सकते थे।
जो
यहां नहीं जान
सकता, वह
कहीं नहीं जान
सकता। और जो
कहीं भी जान
लेता है, वह
यहां भी जान
सकता है।
जानने की बात
है। क्या फर्क
पड़ेगा कि तुम
पहाड़ पर गुफा
में बैठे हो, कि अपने घर
में बैठे हो?
मैं
जानता हूं
तुम्हारे
प्रश्न की
आधारशिला क्या
है। तुम कहते
हो: पहाड़ पर
बैठेंगे तो
अशांति नहीं
होगी। यहां घर
में बैठे हैं, बच्चा रोने
लगा। पत्नी
कहती है: बैठे—बैठे
क्या कर रहे
हो, कुछ
काम—धाम में
लगो! ऐसे बैठे—बैठे
क्या होगा? बाधा पड़ती
है।
इसीलिए
तुम सोचते हो
कि वहां
जाएंगे तो
बाधा न पड़ेगी।
तुम गलती में
हो। गुफा में
बैठोगे, भूख
लगेगी, पेट
कहेगा: क्या
कर रहे बैठे—बैठे?
अब उठो! अब
गांव की तरफ
चलो, कुछ
भीख मांग लाओ।
पत्नी
को तो छोड़ कर
चले जाओगे, पेट को कैसे
छोड़ोगे? महावीर
को भी तो लौट
आना पड़ता गांव
में भिक्षा
मांगने। सर्दी
लगेगी, शरीर
कंपेगा, शरीर
कहेगा कि चलो
अब कहीं से
कंबल जुटाओ।
इसको कैसे
रोकोगे? वर्षा
आएगी और पानी
गिरेगा और सिर
छप्पर मांगेगा,
तो कहीं सिर
झुकाना पड़ेगा,
छिपाना
पड़ेगा। कभी
बीमार हो
जाओगे, तो
दवा—दारू की
भी जरूरत
पड़ेगी। यह सब
जारी रहेगा।
इसके ढंग बदल
जाएंगे, मगर
बाधाएं जारी
रहेंगी।
मेरी
प्रक्रिया
दूसरी है।
मेरी
प्रक्रिया यह
है कि बाधाओं
को बाधा मत
मानो। बाधाओं
को बाधा मानने
में ही भूल हो
जाती है।
तुम
बैठे हो शांति
से और बच्चे
आकर घर में
ऊधम करने लगे, तो तुम्हें
बाधा पड़ती है,
क्योंकि
तुम सोचते हो:
कोई ऊधम न
करे। तुम शांत
बैठे हो। तुम
सोचते हो कि
बड़ा भारी काम
कर रहे हो
शांत बैठ कर।
बड़ा पवित्र
काम कर रहे हो!
धार्मिक
कृत्य कर रहे
हो! और बच्चे, ये नासमझ
मूढ़ बच्चे, ये शोरगुल
मचा रहे हैं।
इनको पता नहीं
कि मैं ध्यान कर
रहा हूं।
तुम्हारी
धारणा में
भ्रांति है।
चूंकि तुम मानते
हो कि तुम
ध्यान कर रहे
हो, कुछ
विशिष्ट काम
कर रहे हो, सबको
शांति रखनी
चाहिए, इसी
से अड़चन हो
रही है। संसार
अपने ढंग से
चल रहा है।
बच्चे ऊधम कर
रहे हैं, करने
दो। तुम
स्वीकार कर लो
इसे भी। विरोध
मत करो। और तब
तुम चकित हो
जाओगे:
स्वीकार करने
में ही बच्चों
का ऊधम भी
जारी है, तुम्हारी
शांति भी जारी
है। कहीं कोई
व्यवधान नहीं
पड़ता।
व्यवधान पड़ता
है—तुम्हारी
धारणा से: कोई
ऊधम न करे, कोई
शोरगुल न
मचाए।
यह
विराट संसार, तुम्हारे
ध्यान करने से
सब चुप हो जाए!
तो एक ध्यानी
मार डाले
सबको।
नहीं; तुम ध्यान
करो।
तुम्हारी
ध्यान की
प्रक्रिया
में कहीं भूल
है। तुम
एकाग्रता को
ध्यान समझते
हो, इसलिए
अड़चन हो जाती
है। ध्यान का
अर्थ है: स्वीकार
भाव, एकाग्रता
नहीं। जो हो
रहा है, स्वीकार
है। सब
स्वीकार है।
तथाता—ध्यान
का अर्थ है, जैसा है ऐसा
ही स्वीकार
है। मैं इससे
राजी हूं।
जरा
करके देखो। जब
तुम इस तथाता
में बैठोगे, एक बच्चा
शोरगुल मचाने
लगा, शोरगुल
सुनाई पड़ेगा,
लेकिन
विघ्न बिलकुल
नहीं पड़ेगा।
शोरगुल गूंजेगा,
लेकिन
विघ्न बिलकुल
नहीं पड़ेगा।
विघ्न तो पड़ता
ही तब है, जब
तुम इसके विरोध
में खड़े हो
जाते हो। तुम
कहते हो यह
नहीं होना
चाहिए और हो
रहा है, तब
उपद्रव शुरू
होता है।
तुम्हारे इस
भाव से कि
नहीं होना
चाहिए।
बच्चों के
शोरगुल से
नहीं।
जंगल
में बैठोगे, लड़ैये हू—हुवा
करने लगेंगे,
फिर क्या
करोगे? बच्चे
तो शायद
तुम्हारी मान
भी लें कि चलो,
पिताजी हैं,
ध्यान करते
हैं, कभी—कभी
क्षमा कर दो, इनको कर
लेने दो ध्यान,
एक आधा घंटा
और कहीं खेल
आओ; लेकिन
जंगल के लड़ैये
जब हू—हुवा
करेंगे तो
तुम्हारी
बिलकुल न
सुनेंगे। उनको
बिलकुल मतलब
नहीं कि आप
कौन हो और
क्या कर रहे
हो। वहां क्या
करोगे? जोर
की हवा चलने
लगेगी।
वृक्षों में
शोरगुल हो
जाएगा। वहां
क्या करोगे? आकाश में
बादल गरजेंगे,
बिजली
चमकेगी। वह
तुम्हारी तो न
सुनेगी। वहां
क्या करोगे?
तुम्हारी
दृष्टि अगर
गलत है और
तुम्हारे भाव अगर
गलत हैं, तो
तुम जहां
रहोगे वहीं
उत्पात हो
जाएगा। उत्पात
को मिटाने का
उपाय तथाता का
भाव है।
और मैं
संन्यासी को
चाहता हूं, तथाता में
पक जाए। और
संसार से
अच्छी जगह और
कहीं नहीं हो
सकती, क्योंकि
यहां बड़ी
चुनौतियां
हैं। यहां जरा
तथाता चूकी कि
उपद्रव हुआ।
तो हर उपद्रव
तुम्हें
बताता रहेगा—कब
तुम चूके, कब
भूल हो गई, कब
पैर छिटका।
मेरो
मन बड़ो हरामी!
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
कब मन ने धोखा
दिया। संसार
में सुविधा से
पता चल जाएगा।
संसार में
हजार
परीक्षाएं
हैं। तुम धोखा
नहीं खा सकते
यहां।
हां, कभी—कभी
जंगल में बैठ
कर धोखा हो
जाता है। पहाड़
की गुफा में
बैठे—बैठे
वर्षों तक
तुम्हें यह लग
सकता है कि
मेरा अहंकार
समाप्त हो गया,
क्योंकि
वहां कोई
अहंकार को
चुनौती नहीं
है। न किसी ने
गाली दी
वर्षों में, न किसी ने
पत्थर मारा, तो तुम्हें
पता कैसे
चलेगा? पता
न चलने का नाम
अहंकार का मिट
जाना तो नहीं है।
उतर कर आओगे
बाजार में और
क्षण भर में
पता चल जाएगा।
मैंने
सुना है, एक
पहाड़ पर तीस
वर्ष तक एक
संन्यासी
रहा। उसे यह
खयाल हो गया
कि अहंकार
समाप्त हो
गया। फिर कुंभ
का मेला भरा
और उसने सोचा
कि अब तो जा
सकता हूं, अब
तो अहंकार भी
नहीं रहा। और
कभी—कभी गांव
से लोग आ जाते
थे पहाड़ पर चढ़
कर; वे
कहते थे:
महात्माजी, कुंभ का
मेला भर रहा
है, दर्शन
दें! तो वह सोच
कर चला आया कि
अब दर्शन देने
का समय आ गया।
जब वह
कुंभ के मेले
में आया, तो
कुंभ का मेला
तो कुंभ का
मेला है! भीड़—भड़क्का
भारी था। धूम—धक्का।
एक आदमी का
पैर उसके पैर
पर पड़ गया। एक क्षण
में वे तीस
साल मिट गए।
एकदम पकड़ ली गर्दन
उस आदमी की और
कहा: जानता
नहीं, कौन
हूं? तब
उसे याद आया
कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! तीस साल
से किसी की
गर्दन नहीं
पकड़ी थी। किसी
ने मौका ही
नहीं दिया था।
अवसर ही नहीं
मिला था। गर्दन
ही नहीं थी। न
किसी का पैर
पैर पर पड़ा
था। एक क्षण
में होश आया।
हाथ ढीला हो
गया। उस आदमी
से क्षमा
मांगी। और
कहा: तू मेरा
गुरु है। तीस
साल हिमालय
मुझे जो नहीं
बता पाया वह
तूने एक क्षण
में बता दिया।
संसार
में साधक को
बाधा है, अगर
दृष्टि गलत हो;
अन्यथा
संसार में
सीढ़ियां लगी
हैं परमात्मा तक
जाने की।
संसार साधक हो
जाता है, बाधक
नहीं। जरा समझ
की जरूरत है।
और
चूंकि भगोड़े
संन्यास के
कारण करोड़ों
लोग वंचित रह
गए संन्यास की
अपूर्व
अवस्था से, मैं नहीं
चाहता कि
भगोड़ा
संन्यास जारी
रहे दुनिया
में। संन्यास
ऐसा हो कि जो
जहां है वहीं संन्यस्त
हो सके।
संन्यास
अंतर्भाव की
दशा हो, भीतर
की क्रांति हो।
और संसार में
ही घटे तो ही
मूल्यवान है।
दूसरा
प्रश्न भी
इससे ही
संबंधित है।
पूछा
है: आप अपने
संन्यासियों
को संसार से
अलग नहीं होने
की सलाह देते
हैं। फिर आपके
प्रवचनों में
संन्यासियों
और संसारियों
के बीच लक्ष्मण—रेखा
क्यों बनती है?
क्योंकि
लक्ष्मण—रेखा
है। बनती नहीं
है। कोई बनाता
नहीं है। रेखा
है। संन्यासी
मात्र संसारी
ही नहीं है, उसमें कुछ
और भी हुआ है; हो रहा है; कम से कम
होने की
आकांक्षा है।
जब मैं कहता
हूं संन्यासी
संसार में रहे,
तो मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि संसारी
और संन्यासी
एक ही हो गए।
भेद तो रहेगा।
भेद
क्या रहेगा?
संसारी
वह है जो
संसार में है—और
संसार का है।
संन्यासी वह
है जो संसार
में है—और
संसार का नहीं
है। भीतर—भीतर
बाहर है। बाहर—बाहर
भीतर है। बैठा
बाजार में है, हृदय का
पक्षी आकाश
में उड़ रहा
है। बैठा है
भीड़—भाड़ में
और फिर भी
अकेला है।
संन्यास
का अर्थ है:
जिसने अपने
प्रत्येक
क्षण को ध्यान
के लिए
समर्पित किया
है। कुछ भी कर
रहा है, दुकान
चला रहा है, गहरा खोद
रहा है, रोटी
बना रहा है, बुहारी लगा
रहा है; लेकिन
भीतर सजगता को
साध रहा है, अलिप्तता को
साध रहा है।
भीतर प्रभु का
स्मरण चल रहा
है। बाहर
संसार का काम
चल रहा है।
देह संसार में
है, क्योंकि
संसार की है; और आत्मा
परमात्मा में
है, क्योंकि
परमात्मा की
है। ऐसा जो
सरगम है, बाहर
और भीतर के
बीच ऐसा जो
तालमेल है—ऐसा
अपूर्व
तालमेल—वही
संन्यास है!
संसार के होकर
भी, संसार
में होकर भी
संसार से बाहर
होने की जो
कला है, वही
संन्यास है।
तो
संसारी और
संन्यासी में
भेद तो है ही।
और स्वभावतः
जिन्होंने
यहां संन्यास
लिया है, उन्होंने
हिम्मत जाहिर
की है।
जिन्होंने नहीं
लिया है, वे
अभी हिम्मत
नहीं जुटा पाए
हैं।
जिन्होंने संन्यास
लिया है, निश्चित
ही वे मेरी
बात को समझने
में ज्यादा
कारगर होंगे।
उन्होंने हृदय
को खोला है।
उन्होंने
मेरे साथ चलने
में जग—हंसाई
मोल ली है।
जिन्होंने
इतनी हिम्मत
नहीं की है, वे सिर्फ
श्रोता हैं, साधक नहीं
हैं।
जो
सुनने आया है, उसकी एक दशा
है। जो अपने
जीवन को बदलने
में लग गया है,
उसकी दूसरी दशा
है।
मेरे
पास लोग लिख
कर भेजते हैं
कि मैं
संन्यासी
नहीं हूं, लेकिन पहले
पंक्ति में
मैं क्यों
नहीं बैठ सकता
हूं?
...क्योंकि
तुम संन्यासी
नहीं हो। पहले
पंक्ति में
बैठने का हक
भी कमाओ। पहली
पंक्ति में
बैठने का अर्थ
है: मेरे करीब
होना। वह तो
केवल प्रतीक
है। उस हक को
कमाओ। और तुम
जान कर हैरान
होओगे कि अगर
कभी ऐसा हो
जाता है कि
गैर—संन्यासी
मेरे सामने
बैठे होते हैं,
तो मुझे
बोलना कठिन हो
जाता है।
क्योंकि उन्हें
फिर मुझे उनके
तल की बात
कहनी पड़ती है,
जो उनकी समझ
में आए। जब
मैं गैरिक
संन्यासी को
अपने आस—पास
देखता हूं, तो मैं वह कह
सकता हूं जो
मैं कहना
चाहता हूं। उसकी
पात्रता है।
उसने अपने
पात्र को खोला
है। वह झेलने
को राजी है।
वह आतुर है।
वह प्यासा है।
और
तुम्हें
इसमें भी अड़चन
होती है कि
लक्ष्मण—रेखा
क्यों!
लक्ष्मण—रेखा
मिटानी हो, संन्यासी हो
जाओ। तो रेखा
के भीतर आ
जाओगे; नहीं
तो रेखा के
बाहर रहोगे।
और जल्दी करो,
क्योंकि
धीरे—धीरे
लाखों
संन्यासी
होंगे। फिर
अगर तुम देर करके
आए, तो भी
पीछे ही
रहोगे। अभी
मौका है। अभी
आगे आ जाना
सुगम है।
मेरे
पास होने को
तुम्हें
कमाना पड़ेगा।
इसलिए मैंने
जाना बंद कर
दिया। अब मैं
आम जनता में
बोलने नहीं जा
रहा हूं, क्योंकि
आम जनता में
बोलने का मतलब
होता है: आम
जनता जो समझ
सके वह बोलो।
जरा तुम ऊंचाई
की बात कहो कि
आम जनता
जम्हाई लेने
लगती है। उनको
मैं रेखा के
बाहर रखता
हूं। क्योंकि
जो आदमी यहां
बैठ कर जम्हाई
लेने लगे, उसको
आना ही नहीं
था। यहां कोई
मनोरंजन नहीं
हो रहा है।
यहां कोई नाटक
नहीं है। यहां
तो जो समझने
आया है, जागने
आया है, उसके
लिए ही अवसर
है।
इसलिए
इससे दुख मत
लेना कि
तुम्हें
पंक्ति में
पीछे खड़े होना
होता है।
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
पंक्ति में
तुम आगे हो
सकते हो, लेकिन
आगे होने की
तत्परता
दिखाओ।
और
तीसरा प्रश्न:
भी इससे
संबंधित है:
मैं पूना के
लिए यह निश्चय
करके चला था
कि अब कि बार
संन्यास लेकर
लौटूंगा।
किंतु यहां
आपके
सान्निध्य
में होकर संन्यास
का भाव ही
विलीन हो गया
है।
बड़े
गजब के आदमी
हो! खुद को भी
धोखा दे रहे
हो, मुझको भी
धोखा देना
चाहते हो!
पहली
बात, तो जब घर
से तुम दृढ़
निश्चय करके
चले थे तभी बात
कमजोर हो गई।
दृढ़ निश्चय
कमजोर आदमी ही
करता है। नहीं
तो निश्चय की
बात क्या होती,
समझ की बात
होती है।
संन्यास समझ
में आ गया, अब
इसमें निश्चय
क्या करना है?
सांप
रास्ते पर आ
जाता है तो
तुम निश्चय
करते हो कि हट
जाएं रास्ते
से? दृढ़
निश्चय करते
हो कि रास्ते
से हट जाएं? छलांग लगा
कर कूद जाते
हो। बाद में
सोचते हो कि
सांप था, छलांग
लग गई।
घर में
आग लगती है तो
तुम दृढ़
निश्चय करते
हो कि निकल
जाएं बाहर? तुम निकल
जाते हो।
दृढ़
निश्चय करके
चले थे, उसका
मतलब कमजोर
हो। जब भी कोई
कहता है दृढ़
निश्चय, तब
पक्का समझ
लेना कि वह
आदमी कमजोर है;
नहीं तो दृढ़
निश्चय किसके
खिलाफ कर रहा
है?
कहते
हो: इस बार...।
मतलब—इसके
पहले भी आ
चुके हो। पहले
भी आए होओगे, लेकिन पहले
कमजोर निश्चय
रहे होंगे।
ऐसा सोच—सोच
कर आए होओगे
कि देखें, हो
जाए तो ठीक
है। इस बार
दृढ़ निश्चय
करके चले थे।
दृढ़ निश्चय
बहुत काम नहीं
आया।
यहां
संन्यास की
बात चल रही है
और तुम्हारा
भाव विलीन हो
गया! तुम
विलीन हो जाते
तो कुछ बात थी।
संन्यास का
भाव विलीन हो
गया!
मन
चालाक है। मन
मेरो बड़ो
हरामी! जरा मन
की चालाकी
देखो! अब मन ने
एक नई तरकीब
निकाली। उसने
कहा कि हम तो
समझ ही लिए
बात कि भीतर
की है, अब
बाहर से क्या
संन्यास लेना?
यह वही मन
है, जिसके
खिलाफ तुम दृढ़
निश्चय करके
चले थे। यह मन
ने तुम्हारा
दृढ़ निश्चय दो
कौड़ी का कर
दिया और इसने
तुम्हें नई
तरकीब बता दी
कि अब तो कोई
जरूरत ही नहीं
है। यह तो
भीतर की बात
है।
मैं भी
कहता हूं:
भीतर की बात
है। लेकिन
भीतर तो तुम
तभी पहुंचोगे
जब बाहर से
शुरू हो जाए; नहीं तो यह
उपाय है बचने
का। जब
तुम्हें भूख लगती
है तो भूख तो
भीतर होती है,
भोजन बाहर
से करना पड़ता
है। तब तुम यह नहीं
कहते कि भूख
तो भीतर है, बाहर के
भोजन से क्या
लेना—देना? भीतर ही
भीतर भोजन
करें। दो—चार
दिन भीतर ही
भीतर भोजन करो,
पता चलेगा!
भूख
जरूर भीतर है
और भोजन बाहर
से आता है।
क्योंकि बाहर
और भीतर भी दो
कहां हैं? जुड़े हैं।
बाहर भीतर हो
रहा है
प्रतिक्षण; और भीतर
बाहर हो रहा
है
प्रतिक्षण।
दोनों एक साथ
जुड़े हैं; एक
ही तरंग बाहर—भीतर
हो रही है।
यह
श्वास भीतर गई
और यह श्वास
बाहर गई। यह
वही श्वास है
जो भीतर जाती
है, वही जो
बाहर जाती है।
यही तुम्हें
जीवित किए है।
बाहर और भीतर
के बीच लेन—देन
चल रहा है।
तुम
कहते हो: "मैं
पूना के लिए
यह निश्चय
करके चला था
कि अब की बार
संन्यास लेकर
लौटूंगा।'
कहां
गया तुम्हारा
दृढ़ निश्चय? खूब! दृढ़
निश्चय का
मतलब क्या
होता है? मगर
मैं जानता हूं
कि दृढ़ निश्चय
में ही कमजोरी
छिपी है।
जब कोई
तुमसे बहुत
कहे कि मैं
तुम्हें बहुत
प्रेम करता
हूं, बहुत
प्रेम करता
हूं। और बार—बार
दोहराए, तो
जरा सावधान हो
जाना।
क्योंकि
प्रेम काफी है;
बहुत प्रेम
का क्या मतलब
होता है? निश्चय
पर्याप्त है।
निश्चय में अब
और क्या जोड़ा
जा सकता है? दृढ़ निश्चय
का तो मतलब
हुआ कि निश्चय
भी निश्चय
नहीं था; अब
दृढ़ता जोड़नी
पड़ी। निश्चय
ही नपुंसक था।
उसको दृढ़ता से
कैसे तुम
भरोगे?
समझ से
निश्चय आने
दो। नहीं तो
तुम फिर—फिर
नई—नई तरकीबें
निकाल कर धोखा
खा जाओगे।
यहां
मुझसे लोग
संन्यास ले
जाते हैं। घर
जाकर सोचते
हैं कि क्या
फर्क पड़ता है
गैरिक वस्त्र पहनो
कि सफेद पहनो, यह तो सब एक
ही है! यहां से
माला ले जाते
हैं और जैसे
ही वे आश्रम
के दरवाजे के
बाहर हुए कि
माला को जल्दी
अपनी कमीज के
भीतर कर लेते
हैं। वे कहते
हैं: यह तो
भीतर की बात
है! माला को
बाहर क्यों
रखो?
जरा
सोचना कि क्या
कर रहे हो!
डरते हो कि
लोग देख लेंगे
माला
तुम्हारे गले
में, तो लोग समझेंगे
कि तुम भी
पागल हुए? तो
तुम भी
सम्मोहित हो
गए? तो तुम
भी उलझ गए? तुम
जैसा समझदार
आदमी, और
उलझ गया? नासमझों
को उलझने दो।
तुम तो बड़े
बुद्धिमान थे!
तुम तो बड़े
कुशल थे! तुम
कैसे उलझ गए?
लोकलाज
से डरते हो, इसलिए तो
चूक रहे हो।
जिंदगी में
कुछ न पाओगे।
यह लोकलाज ही
इकट्ठी कर
लेना। यह लोग
क्या कहते हैं,
इसी की
चिंता करते
रहना। कभी यह
भी सोचोगे कि परमात्मा
क्या कहता है?
यह लोगों के
सर्टिफिकेट
इकट्ठे करते
हुए जिंदगी
गंवानी है?
मगर मन
बड़ा होशियार
है। मन कहेगा—क्या
फर्क पड़ता है, रंग तो सभी
उसी के हैं!
लेकिन
मैं जानता हूं
कि फर्क पड़ता
है।
पुलिसवाला
अपनी वर्दी
में खड़ा हो तो
तुम उससे डरते
हो और पुलिसवाला
सफेद वर्दी
में खड़ा हो, तुम एक झापड़
लगा दो उसे।
डाक्टर
जब अपना बैग
और
स्टेथस्कोप
गले में लटका
कर आता है, तब तुम
जल्दी
प्रसन्न हो
जाते हो। यही
डाक्टर ऐसे ही
चला आए, बिना
बैग और बिना
स्टेथस्कोप
के, और ऐसे
ही कपड़े पहने
चला आए—रद्दी—खद्दी,
या लंगोटी
ही लगाए चला
आए—तो तुम उठ
कर बैठ जाओगे।
तुम कहोगे: इस
आदमी को बाहर
करो। तुम इसका
भरोसा न
करोगे।
ऐसा
हुआ, मेरे
गांव में एक
डाक्टर आए। वे
जरा ऊंचाई से बड़े
छोटे थे। बहुत
ठिगने थे।
पत्नी भी उनकी
बड़ी थी।
उन्होंने
दुकान खोली।
उनका
कंपाउंडर भी
उनसे मजबूत और
शानदार लगता
था। मेरे
परिचित थे।
चार—छह दिन
बाद मैं
उन्हें मिला
तो वे मुझसे
बोले कि
तुम्हारा
गांव बड़ा अजीब
है। लोग मुझसे
आकर कहते हैं:
कंपाउंडर
साहब, डाक्टर
साहब कहां है?
वह जो
कंपाउंडर था,
उसको लोग
डाक्टर समझें,
स्वभावतः।
वह लगता था
डाक्टर जैसा।
अब जब डाक्टर
से ही पूछोगे
कि कंपाउंडर
साहब, डाक्टर
साहब कहां है?
तो डाक्टर
भी बेचारा
कैसे कहे कि
मैं ही डाक्टर
हूं! उन्हें
भी बड़ी अड़चन
होती थी।
मैंने
कहा: तुम ऐसा
करो, और एक
छोटा लड़का खोजो।
तुमसे भी गया—बीता,
उसको
कंपाउंडर
बनाओ। यह
कंपाउंडर
नहीं चलेगा।
नहीं तो
तुम्हारी
दुकान चलने
वाली नहीं है।
तुम
कहते हो: "कपड़े
से क्या होगा?' लेकिन कपड़े
से बहुत कुछ
हो रहा है।
आदमी जीता तो
बाहर से है।
बाहर का ही
सारा परिणाम
होता है।
क्योंकि तुम
अभी बाहर हो, अभी भीतर
तुम गए ही
नहीं हो। भीतर
की बात ही अभी
फिजूल है।
भीतर जाना है,
और बाहर की
सीढ़ियां
बनानी हैं। ये
गैरिक वस्त्र
भी फर्क
लाएंगे।
एक
शराबी ने मुझे
आकर कहा।
संन्यास ले
लिया। उसने
कहा कि मैं
शराबी हूं, आपके सिवा
मुझे कोई
स्वीकार भी
नहीं करेगा।
मैंने
कहा: तुम फिकर
छोड़ो। तुम
संन्यासी हो
जाओ, फिर
देखेंगे।
उसने
कहा: लेकिन
मैं शराबी हूं, मैं कहे दे
रहा हूं। और
शराब मुझसे
छूटने वाली भी
नहीं।
मैंने
कहा: तुमसे
कहता कौन कि
तुम छोड़ो! मैं
तो शराबियों
की ही तलाश
में हूं।
वह
कहने लगा: आप
भी खूब कह रहे
हैं!
वह खुद
ही डरने लगा।
उसने कहा कि
आप समझे नहीं
शायद मेरा
मतलब। मैं
असली शराब
पीता हूं।
मैंने
कहा: मैं भी
असली शराब की
ही बात कर रहा
हूं।
वह सिर
हिलाने लगा।
वह कहने लगा:
आप समझ नहीं पा
रहे। गैरिक
वस्त्रों में
दिक्कत होगी।
मैंने
कहा: कोई
दिक्कत न
होगी। मैं तुम्हें
मना नहीं
करता।
पंद्रह—बीस
दिन बाद वह
आया। बोला:
दिक्कत आपने
करवा दी। कल
मैं खड़ा था
शराबखाने के
बाहर, दो—चार
शराबियों से
गपशप कर रहा
था, एक
आदमी मेरे
पांव में आकर
गिर पड़ा।
बोला: स्वामीजी!
मैं भागा वहां
से। मैंने कहा
कि यह शराबघर
में स्वामीजी
होकर और खड़े
होना ठीक
नहीं। एक दिन
जाकर खड़ा था
सिनेमाघर में,
टिकट के लिए
भीड़ लगी थी
लाइन में और
एक आदमी बोला:
स्वामीजी, आप
यहां? मैं
वहां से भागा।
ये कपड़े
दिक्कत दे रहे
हैं।
"अब
तुम घर से
निश्चय करके
चले थे कि अब
की बार संन्यास
लेकर लौटूंगा,
किंतु यहां
आपके सान्निध्य
में होकर
संन्यास का
भाव विलीन हो
गया।'
तुम
मुझको भी पाप
लगवाओगे! नरक
मुझे भी साथ
ले चलोगे!
जिम्मेवारी
मेरी लगती है, जैसे मैंने
तुम्हारा
संन्यास का
भाव छिनवा दिया।
तो दूसरे जो
संन्यासी हो
रहे हैं, वे
शायद यहां आए
नहीं। तुम
अकेले आए हो।
अपनी
बेईमानियां पहचानो।
अपनी
होशियारियां
पहचानो। अपनी
चालाकियां
पहचानो।
दूसरों को
धोखा देते—देते
आदमी खुद को
भी धोखा देने
में कुशल हो
जाता है।
वर्ष
भर से सक्रिय
ध्यान करता
हूं। पांच—छह
बार ध्यान की
क्षणिक
अनुभूतियां
भी हुईं। एक
बार तो आंखें
आप ही आप ऊपर
चढ़ गईं और
आज्ञाचक्र
एकदम से
प्रकाशित हो
गया। किंतु हर
ध्यान के बाद
यह भाव बना
रहा: आखिर
इससे क्या हुआ? अनुग्रह का
भाव तो उठता
नहीं। भगवान,
बताएं कि
मैं क्या करूं?
मेरा
बताया करोगे? जैसा विष्णु
ने कहा था कि
ले आओ एक
कटोरा जल, वैसे
ही कहीं खो मत
जाना
ब्राह्मण
देवता!
पहली तो
बात है कि वह
जो दृढ़ निश्चय
करके आए थे, उसको चूको
मत! डूबो
संन्यास में!
उस डुबकी से अहोभाव
भी आना शुरू
होगा।
और ये
जो छोटे—छोटे
अनुभव हो रहे
हैं—आज्ञाचक्र
प्रकाशित हो
गया—इनमें उलझ
जाने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन धन्यवाद
तो करने की
जरूरत है ही।
क्योंकि धन्यवाद
से आगे और
अनुभव होंगे।
दो
भूलें हो सकती
हैं ऐसी
घड़ियों में।
शुभ हो रहा है
कि ध्यान करते—करते
क्षण भर को
सारा अंतरतम
ज्योतिर्मय
हो जाता है।
एक खतरा तो यह
है कि तुम समझ
लो कि पहुंच
गए। तो चूक हो
गई। यह कुछ
पहुंचना नहीं
हो गया। ये
झलकें हैं।
लेकिन इन झलकों
से पहुंच सकते
हो, इसकी खबर
मिलती है। ये
मील के पत्थर
हैं, जिन
पर तीर लगा है
कि और एक मील
आगे बढ़ गए तुम,
यात्रा और
एक मील कम
बची। पहुंच
नहीं गए। मैं यह
नहीं कहता कि
मील के पत्थर
को छाती से
लगा कर बैठ
जाना। तो कहीं
नहीं
पहुंचोगे। ये
मील के पत्थर
हैं। इसलिए यह
ठीक है कि
इससे क्या हुआ?
लेकिन अगर
हर मील के
पत्थर पर तुम
यह कहोगे कि एक
मील चला, इससे
क्या हुआ? तो
आगे चलने की
हिम्मत कम हो
जाएगी, रस
कम हो जाएगा।
अगर इससे नहीं
हुआ, तो एक
मील चल कर फिर
क्या होगा? तो फिर तुम
पहुंचोगे
कैसे?
तो एक
तो भूल होती
है कि सब हो
गया। छोटा सा
कुछ हुआ, किसी
को जरा सी रीढ़
में खुजली आ
गई तो वह समझे
कि कुंडलिनी
जाग्रत हो गई,
कि सब हो
गया। पहुंच
गए। और एक
दूसरे आप हैं
कि कुछ होता
है थोड़ा सा, तो धन्यवाद
करने का भाव
नहीं उठता।
यही
क्या कम है? इस अंधेरे
से भरी जिंदगी
में अगर क्षण
भर को भीतर
रोशनी हो जाती
है, कोई कम
चमत्कार है? क्योंकि
वहां न तो
बिजली का कोई
कनेक्शन है, न वहां कोई
ईंधन है, न
वहां कोई तेल
है। बिन बाती
बिन तेल! यह
रोशनी चमत्कार
है। जहां सदा
से अंधकार रहा
है, वहां
अचानक ज्योति
उठ आती है—यह
चमत्कार है।
प्रभु की तुम
पर अनुकंपा हो
रही है।
धन्यवाद करो!
धन्यवाद से और
अनुकंपा
बढ़ेगी।
इस बात
को सदा खयाल
में रखो:
जितना
तुम्हारा धन्यवाद
गहरा होगा, उतनी ही
तुम्हारी
उपलब्धि बढ़ती
चली जाएगी। क्योंकि
जो छोटी
भेंटें आती
हैं, अगर
उनको इनकार कर
दिया तो बड़ी
भेंटें फिर
नहीं आएंगी।
क्योंकि तुम
पात्र ही
सिद्ध न हुए।
तुम समझे ही
नहीं। ये छोटी
भेंटें हैं।
परमात्मा ने
तुम्हारी तरफ
डोरे फेंकने
शुरू किए हैं।
आनंदित होओ!
नाच उठो! मगन
हो जाओ कि मुझ
अपात्र को
इतना भी हुआ, यही क्या कम
है! होना तो यह
भी नहीं चाहिए
था। मगर फिर
भी यह हुआ, तो
उसकी अनुकंपा से
हुआ होगा, मेरी
पात्रता से
नहीं।
झुको!
उसके चरणों
में सिर रख
दो। और तब तुम
पाओगे कि कुछ
और होने लगा।
धीरे—धीरे
पहले सूक्ष्म
एंद्रिक
अनुभव होते
हैं। अतींद्रिय
अनुभव होने के
पूर्व। तीन
तरह के अनुभव
हैं जगत में—स्थूल
एंद्रिक
अनुभव...।
तुमने एक
सुंदर फूल को
खिला देखा।
उसकी सुवास
तुम्हारे
नासापुटों
में भर गई।
क्षण भर को
सुख मालूम
हुआ। तुमने चांद
को आकाश में
देखा। शीतल
चांदनी
तुम्हें नहा
गई। तुम
चांदनी में
नहा कर
प्रफुल्लित
हो उठे, ताजे
हो उठे, ठगे
रह गए। चांद
का सौंदर्य
तुम्हें घेर
लिया, स्पर्श
किया। एक तरह का
सुख मिला। ये
एंद्रिक सुख
हैं।
फिर
दूसरे सुख
होते हैं:
सूक्ष्म
एंद्रिक। यह जो
तुम्हें हुआ
है, आज्ञाचक्र
में रोशनी हो
गई—यह सूक्ष्म
एंद्रिक
अनुभव है।
इनका बाहर से
कोई संबंध
नहीं है। इनका
भीतर से भी
अभी कोई संबंध
नहीं है। ये
दोनों के मध्य
के अनुभव हैं।
लेकिन सूचक
हैं कि भीतर
चलने लगे। चलो
स्थूल इंद्रियों
का अनुभव बंद
हुआ, सूक्ष्म
इंद्रियों के
अनुभव शुरू
हुए!
जैसे
पांच
इंद्रियां
स्थूल अनुभव
लाती हैं, वैसे ही
पांच तरह के
सूक्ष्म
अनुभव होते
हैं। कभी तुम
अचानक पाओगे
कि अकारण भीतर
एकदम सुवास हो
गई, जैसे
हजारों फूल
खिल गए हों!
तुम भरोसा ही
न कर पाओगे।
चौंक कर
देखोगे: कहीं
कोई बाहर गंध
नहीं है। और
भीतर एकदम गंध
ही गंध है! ऐसी
गंध जैसी
तुमने कभी नहीं
जानी!
तुम्हारे
भीतर का
कस्तूरी का
नाफा जैसे टूट
गया! कभी भीतर
संगीत उठेगा,
नाद उठेगा।
अपूर्व संगीत
तुम्हें भर
लेगा! लयबद्ध
हो जाओगे! और
बाहर कुछ भी
नहीं है। बाहर
का संगीत सब
फीका हो जाएगा,
जब भीतर का
नाद उठेगा।
बाहर की रोशनी
अंधेरे जैसी
मालूम पड़ेगी,
जब भीतर की
रोशनी का
अनुभव होने
लगेगा। मगर अभी
यह मध्य की
है। यह अभी
भीतर की लगेगी,
क्योंकि और
भीतर का तो
तुम्हें पता
नहीं है। यह
देहली पर खड़े
हो गए तुम—न
बाहर न भीतर।
देहली पर खड़े
हो गए। मगर
देहली पर खड़े
हो गए, यह
सूचक है: अब घर
में जा सकते
हो।
जब
पांचों
इंद्रियों के
अनुभव, सूक्ष्म
अनुभव, तुम्हारे
जीवन में
प्रकट हो
जाएंगे, एक
दिन अचानक
पाओगे कि
स्वाद आ रहा
है—ऐसा स्वाद
जैसा तुमने
कभी नहीं
जाना! उस दिन
रसना का नया अर्थ
प्रकट होगा।
जब ये अनुभव
गहन हो जाएंगे,
तब एक दिन
तुम
अतींद्रिय
अनुभव में
उतरोगे। स्थूल
इंद्रिय से
सूक्ष्म
इंद्रिय, सूक्ष्म
इंद्रिय से
अतींद्रिय।
जब अतींद्रिय
अनुभव होगा, तभी
तुम्हारे
हृदय में
होगा: हां, अब
हुआ! तब परम
तृप्ति हो
जाती है।
मगर
उसको पाने के
लिए यह जो
सूक्ष्म
इंद्रिय के
अनुभव हो रहे
हैं, इनका
स्वागत करो, इनका
अभिनंदन करो।
इनको बढ़ने दो।
ऐसा मत कहो कि
क्या हुआ? इतने
दरिद्र मत
बनो। कम से कम
धन्यवाद देने
की संपदा तो
रखो! कम से कम
धन्यवाद दे
सको, इतने अमीर
तो रहो।
दुनिया
में सबसे
दरिद्र आदमी
वही है जो
धन्यवाद भी
नहीं दे सकता।
पूछते
हो: "अब मैं
क्या करूं?'
संन्यास
से शुरू करो।
और मैं तुमसे
कहना चाहूंगा
कि दृढ़ निश्चय
वाला संन्यास
नहीं चाहिए। क्योंकि
दृढ़ निश्चय
वाला संन्यास
कभी भी ढीला
हो सकता है।
घर पहुंचने के
पहले ही ढीला
हो जाएगा।
रास्ते में
ट्रेन में
जाओगे न, चौबीस
घंटे ट्रेन
में लग
जाएंगे। वह
दृढ़ निश्चय
उसी में ढीला
हो जाएगा। दृढ़
निश्चय का
भरोसा मत करो।
संन्यास
लेना हो—समझ
से लो, निश्चय
से नहीं।
निश्चय अलग
बात है।
निश्चय का
मतलब: संकल्प।
और समझ का अर्थ
है: समर्पण।
जिद्द से मत
लो।
कई बार
आदमी जिद्द से
काम करता है।
हो सकता है तुम्हारी
पत्नी
संन्यास के
खिलाफ हो। अब
तुम पत्नी को
बताना चाहते
हो कि देख, कौन मालिक
है! कौन मुझे
चला सकता है? मैं संन्यास
लेकर दिखा
दूंगा। कि हो
सकता है तुम्हारे
पड़ोसी कहते
हों कि अरे
छोड़ो जी, तुम
क्या संन्यास
लोगे! देख
लिया, तुमसे
नहीं होगा यह।
और तुम्हें
उनको दिखाना है,
तो तुम दृढ़
निश्चय करके
संन्यास ले
बैठे। यह गलत
संन्यास
होगा।
किसी
को दिखाने के
लिए संन्यास
लेना गलत है; कोई देख
लेगा, इस
डर से न लेना
गलत है। दूसरे
का ध्यान करना
गलत है।
हो
सकता है, पत्नी
जिद्दी है और
कहती है कि
मैं तुम्हें
मजा चखा दूंगी
अगर संन्यास
लेकर आए।
क्योंकि अक्सर
ऐसा होता है:
जब घर से लोग
आते हैं, पत्नी
उनकी कह देती
है कि और सब
करना, संन्यास
लेकर भर मत
आना।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन मस्जिद
में बैठा है।
धर्मगुरु बोल
रहा है। बोलते
बीच में उसने
कहा कि जो लोग
स्वर्ग जाना
चाहते हैं, हाथ ऊपर
उठाएं। सबने
उठा दिए, मुल्ला
ऐसे ही नीचे
हाथ किए बैठा
रहा। धर्मगुरु
को जरा हैरानी
हुई। उसने
कहा: अब जो लोग
नरक जाना
चाहते हैं, वे हाथ
उठाएं।
क्योंकि एक ही
बचा था—मुल्ला।
उसने नरक जाने
के लिए भी हाथ
नहीं उठाया।
धर्मगुरु ने
पूछा: क्या
इरादा है? तुम्हें
कहीं नहीं
जाना है?
तो
उसने कहा:
कहीं जा ही
नहीं सकते।
धर्मगुरु ने
कहा: मतलब? उसने कहा कि
क्या अब टांग
तुड़वानी है
मेरी? धर्मगुरु
ने कहा: टांग
तुड़वाने का
सवाल ही कहां!
तुम्हें
स्वर्ग जाना
है कि नरक
जाना है?
उसने
कहा: पत्नी, जब घर से
चलने लगा, तो
बोली—मस्जिद
से सीधे घर
आना, नहीं
तो टांग तोड़
दूंगी। अब तुम
झंझटें बता रहे
हो—स्वर्ग जाओ,
नरक जाओ...।
कहीं नहीं
जाना है! अपनी
टांग नहीं तुड़वानी।
पत्नियां
आती हैं। उनके
पति उन्हें
समझा देते हैं
कि और सब करना, संन्यास
लेकर भर मत आ
जाना।
तो हो
सकता है, अहंकार
को चोट लगती
है कि दिखला
दूं इस पत्नी को,
कि ले, आ
गया संन्यास
लेकर, अब
क्या करती है?
एक दफा तो
दिखला दूं
जिंदगी में कि
मालिक कौन है,
मैं हूं कि
तू है! किस पति
को नहीं उठती
यह आकांक्षा
कि एक दफा
दिखला दूं!
मुल्ला
की पत्नी
मुल्ला के
पीछे दौड़ रही
है, बुहारी
लेकर मारने।
मुल्ला एकदम
घबड़ा कर बिस्तर
के नीचे घुस
गया। पलंग के
नीचे चला गया।
पत्नी है
मोटी। वह जा
नहीं सकती
पलंग के नीचे,
इसलिए वही
एक उपाय है।
पलंग के नीचे
चला जाता है
तो निश्चिंत
हो जाता है।
फिर उसका कोई
बाल बांका
नहीं बिगाड़
सकता। पत्नी
चारों तरफ
घूमने लगी।
कहने लगी:
निकलो बाहर!
इतने
में ही द्वार
पर पड़ोसियों
ने दस्तक दी।
तो पत्नी ने
धीरे से कहा
कि देखो, पड़ोसी
आ गए, निकल
जाओ बाहर। अब
मैं तुम्हें
नहीं मारूंगी।
उसने
कहा: आज नहीं
निकलूंगा और
आज पड़ोसियों
को भी दिखला
दूं कि इस घर
में किसकी
चलती है!
बिस्तर
के नीचे बैठे
हैं, लेकिन
पड़ोसियों को
दिखला दूंगा
कि किसकी चलती
है! देखें कौन
मुझे निकालता
है बिस्तर के
नीचे से! मेरा
घर है! जहां
बैठना है वहां
बैठूंगा! जिसको
जो करना हो कर
लो। आज तय ही
हो जाए कि कौन
मालिक है!
पड़ोसियों को
भी पता चल
जाए।
तो कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि तुम
किसी को
दिखलाने के लिए
संन्यास लेना
चाहते हो—संसार
को, कि पत्नी
को, कि
बच्चों को, कि मित्रों
को, कि बाप
को। तो गलत
संन्यास
होगा।
संन्यास
आना चाहिए
प्रभु—प्रेम
से, किसी और
कारण से नहीं।
तुम्हारा अगर
प्रभु में
लगाव है, अगर
तुम खोजने चले
हो, तो।
निश्चय से
नहीं।
क्योंकि
निश्चय तो
अहंकार का अंग
है। निश्चय तो
अहंकारी बना
देगा तुम्हें।
और अहंकारी तो
कैसे
संन्यासी
बनेगा! निर—अहंकारी
ही संन्यासी
बनता है।
तो
सोचना, विचारना,
समझना।
संन्यास के
सार पर ध्यान
करना। और अगर
स्फुरणा उठती
हो तो फिर न मन
की सुनना, न
संसार की
सुनना। लेकिन
स्फुरणा से
लेना संन्यास।
किसी जिद्द, किसी हठ से
नहीं। हठी मूढ़
होता है।
संन्यासी
संसार में है
और संसार का
नहीं है।
शादाबिए
जमाले बुतां
मेरे दिल में
है
बेताबिए
जनूं जदगां
मेरे दिल में
है
दरियाए
इम्बसात रवां
मेरे दिल में
है
तूफाने
सोजो आहो
फुगां मेरे
दिल में है
नाचे
कोई तो नाचता
हूं मैं भी
उसके साथ।
कूहे
निशाते हर दो
जहां मेरे दिल
में है
तड़पे
कोई तो मैं भी
तड़फता हूं
उसके साथ
जिन्नो
बशर का दर्दे
निहां मेरे
दिल में है
होता
हुआ भी सबका
किसी का नहीं
हूं मैं
इक
बंद सोज बर्के
तपां मेरे दिल
में है
हैं
वुसअतों से
वुसअतें
मुझमें—यही
नहीं
इक
वुसअते मकानो
जमां मेरे दिल
में है
लब
पै मेरे सकूते
मुसलसल है
मोअजन
इक
शोरे मावराए
बयां मेरे दिल
में है
जो
परदाए नमूद
में छिप कर है
जौफिशां
इक
रंग इसका अयां
मेरे दिल में
है
एहले
नजर को जिसने
गजल खां किया
वो खुद
सरशारो
मस्त नगमा
कुनां मेरे
दिल में है।
वह
गीतों का गीत
तुम्हारे
हृदय में छिपा
है। वह गीतों
का परम गीत
तुम्हारे
हृदय में छिपा
है। जिससे
सारे जगत के
गीत पैदा हुए
हैं, वह गीत का
स्रोत
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
जिससे सारी
खुशियां उतरी
हैं और जिससे
सारे आनंद पैदा
हुए हैं, वह
मालिक
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
उसे खोज लेने
की तरकीब एक
ही है:
होता
हुआ भी सबका
किसी का नहीं
हूं मैं
इक
बंद सोज बर्के
तपां मेरे दिल
में है।
सबके
रहो और फिर भी
किसी के नहीं।
पति—और पति
नहीं। पत्नी—और
पत्नी नहीं।
मित्र—और
मित्र नहीं।
शत्रु—और
शत्रु नहीं।
नाटक है बड़ा।
उसे कुशलता से
पूरा करो।
संन्यासी
का अर्थ है:
कुशल
अभिनेता।
संसार अभिनय
है, नाटक का
बड़ा मंच है।
सब पूरा करो।
तुम्हें जो पात्र
दिया गया है
पूरा करने को,
तुम्हें जो
कथा का अंश
दिया गया है
पूरा करने को—उसे
पूरा करो। उसे
पूरे अहोभाव
से निपटा देना
है। और फिर भी
उसके साथ एक
नहीं हो जाना
है, तादात्म्य
नहीं कर लेना
है।
नाचे
कोई तो नाचता
हूं मैं भी
उसके साथ
कूहे
निशाते हर दो
जहां मेरे दिल
में है
तड़पे
कोई तो मैं भी
तड़फता हूं
उसके साथ
जिन्नो
बशर का दर्दे
निहां मेरे
दिल में है
होता
हुआ भी सबका
किसी का नहीं
हूं मैं
इक
बंद सोज बर्के
तपां मेरे दिल
में है।
संन्यास
है ऐसी कला कि
चलो पानी में
तो भी पैर पानी
को न छुएं। जल
में कमलवत हो
जाने की कला का
नाम संन्यास
है।
चौथा
प्रश्न: समाधि
क्या है?
कहने
से समझ न
आएगी। जौहरि
की गति जौहरि
जाने। समाधि
तो अनुभव की
बात है। घायल
की गति घायल जाने।
कही जा
सके, ऐसी बात
नहीं समाधि।
कुछ इशारे
जरूर किए जा
सकते हैं।
जैसे कोई
अंगुली से
चांद को बताए।
अंगुली चांद
नहीं है, खयाल
रखना। अंगुली
से चांद का
क्या लेना—देना?
चांद चांद
है, अंगुली
अंगुली है।
अंगुली में मत
उलझ जाना, नहीं
तो चांद से
चूक जाओगे।
चांद देखना हो
तो अंगुली को
तो विस्मरण ही
कर देना।
अंगुली की तरफ
देखना ही मत।
अंगुली से
इशारा ले लेना,
उस इशारे पर
यात्रा कर
जाना। उस
यात्रा पर
तुम्हारी
दृष्टि दौड़
जाए, तो
चांद दिखाई पड़
जाएगा।
तो जो
भी समाधि के
संबंध में कहा
गया, चांद को
दिखाई गई
अंगुली है।
"समाधि'
शब्द बना है—"समाधान'
से। शब्द का
अर्थ है: जहां
सब समाधान हो
गया; जहां
कोई समस्या न
रही; जहां
कोई प्रश्न न
बचा; जहां
कोई खोज बाकी
न रही; न
कोई तृष्णा, न कोई
आकांक्षा, न
कोई दौड़; जहां
कोई भविष्य न
बचा। जहां समय
ही न रहा, उस
अवस्था का नाम
समाधि है।
जहां सब थिर
हो गया, निष्कंप
हो गया!
जैसे
दीये की
ज्योति जलती
हो, ऐसे घर
में, जहां
हवा का झोंका
न आ सके, निष्कंप
जलती हो, जरा
भी कंपती न हो—ऐसी
जब तुम्हारी
चेतना की
ज्योति जलती
है, निष्कंप,
जहां विचार
के झोंके नहीं
आते, जहां
विचार की
तरंगें नहीं
आतीं, उस
दशा का नाम
समाधि है।
समाधि
परम रस है।
समाधि में हो
जाना
संगीतपूर्ण
हो जाना है।
समाधि
का अर्थ है:
द्वंद्व न रहा, द्वैत न रहा,
तनाव न रहा,
चिंता न
रही।
समाधि
का अर्थ है:
जान लिया, पहचान लिया,
अनुभव कर
लिया—उसका, जो शाश्वत
है; उसका, जो अमृत है।
मगर
जानोगे तो ही
जानोगे।
इसलिए बजाय
समाधि के
संबंध में
समझने के, ध्यान के
संबंध में
समझना चाहिए,
क्योंकि
ध्यान
प्रक्रिया है
जो समाधि पर
ले जाती है।
ध्यान औषधि है,
जो बीमारी
को काट देती
है। और जब
बीमारी कट जाती
है, तो जो
शेष रह जाता
है वही
स्वास्थ्य
है।
स्वास्थ्य
की कोई
परिभाषा नहीं
है। इतने शास्त्र
लिखे गए हैं
स्वास्थ्य पर; स्वास्थ्य
की कोई
परिभाषा नहीं
है। हमारा शब्द
बड़ा प्यारा
है। अंग्रेजी का
शब्द "हेल्थ' भी बड़ा
महत्वपूर्ण
है।
"स्वास्थ्य' लेकिन उससे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। स्वास्थ्य
का अर्थ होता
है: स्वयं में
स्थित हो
जाना। वह
समाधि की ही
बात हो गई।
जिसके भीतर
कुछ तनाव है, वह स्वयं
में स्थित
नहीं हो पाता।
तुमने
खयाल किया? पैर में
कांटा गड़ा हो,
तो सारा
ध्यान वहीं—वहीं
जाता है, कांटे
की तरफ जाता
है। तुम अपने
में ठहर नहीं पाते।
सिर में दर्द
हो तो ध्यान
सिर की तरफ जाता
है। जब कहीं
कोई पीड़ा न हो
तो ध्यान कहीं
नहीं जाता, अपने में
ठहर जाता है।
तो पक्षी अपने
नीड़ में बैठ
जाता है।
स्वास्थ्य
का अर्थ हुआ: जब
ध्यान को जाने
की कहीं कोई
जरूरत न हो।
ध्यान जाता ही
दुख के कारण
है, पीड़ा के
कारण है। जब
कहीं कोई पीड़ा
नहीं है, तो
ध्यान अब कहां
जाए? अब इस
पक्षी को जाने
के लिए कोई
उपाय न रहा।
यह अपने पंखों
में दुबक कर
भीतर बैठ जाता
है, शांत
हो जाता है।
स्वास्थ्य है
ऐसी स्थिति।
समाधि
स्वास्थ्य की
ही अंतिम
अवस्था है।
शरीर के संबंध
में ऐसी
स्थिति आ जाए
तो स्वास्थ्य।
आत्मा के
संबंध में ऐसी
स्थिति आ जाए
तो समाधि।
अंग्रेजी
का शब्द
"हेल्थ' भी
सुंदर है। वह
आता है "होल' से, पूर्ण
से। जो पूर्ण
हो गया, वह
स्वस्थ हो
गया। जब तक अपूर्णता
है, तब तक
अस्वास्थ्य
है। जब कोई
पूर्णता को
उपलब्ध हो
जाता है तो
स्वस्थ हो
जाता है। जब
शरीर पूर्ण
होता है तो
स्वस्थ। और जब
आत्मा भी
पूर्ण होती है
तो समाधि।
इन
वचनों पर
ध्यान करो:
न
हैं चांद—सूरज
न कोई सितारे
कहीं
रोशनी का
निशां तक नहीं
है
खलाए
फजा की है बस
बेकरानी
जहां
नक्शे मौहूम
आलम का साया
है
अम्बवाजे
हस्ती के दामन
में रक्सां
खला
मन की है मौज
दर मौज पैदा
खुदी
की जबरदस्त रौ
चल रही है
इसी
रौ में दुनिया
बहे जा रही है
कभी
डूबती है कभी
तैरती है
ये
सारा हजूमें
नक्शे खयाली
है
मौहूम सायों
का रक्से
तमाशा
हुआ
वतने तखलीक
में फिर से
गायब
रहा
सिर्फ एहसास
बाकी खुदी का
रही
मोअजन सिर्फ
इक रौ अना की
वो
देखो अना की
भी रौ रुक गई
है
खला
से खला अब गले
मिल रही है
बयां
ऐसी हालत का
मुमकिन नहीं
है
ये
आलम तो अदराक
से मावरा है
ये
दिल जिस दिल
पै गुजरे वही
जानता है
इन्हें
समझो।
न
हैं चांद—सूरज
न कोई सितारे
समाधि
ऐसी दशा है, जहां कुछ भी
शेष नहीं रह
जाता—जहां कोई
विषय शेष नहीं
रह जाता; जहां
देखने को कुछ
शेष नहीं रह
जाता। दृष्टि
शुद्ध हो जाती
है। दर्शन
दर्पण की
भांति होता है।
और कोई
प्रतिफलन
नहीं होता।
न
हैं चांद—सूरज
न कोई सितारे
उस परम
शांति में
चांदत्तारे
भी नहीं हैं, सूरज भी
नहीं हैं।
रोशनी भी नहीं
है, तो
अंधेरे की तो
बात ही क्या!
इसे समझना।
कहीं
रोशनी का
निशां तक नहीं
है।
तुम
कहोगे: यह तो
बड़ी अजीब बात
हुई! हम तो
सोचते थे, जब समाधि
होगी तो रोशनी
ही रोशनी हो
जाएगी। लेकिन
रोशनी तो वहीं
हो सकती है
जहां अंधेरा
हो। जहां
अंधेरा ही
नहीं है, वहां
रोशनी भी नहीं
हो सकती।
रोशनी और
अंधेरा तो एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं, वे साथ ही
साथ हैं।
समाधि
ऐसी दशा है, जहां अंधेरे
की तो क्या
कहो, रोशनी
भी खो जाती
है। अंधेरा तो
खो ही जाता है,
रोशनी भी खो
जाती है। मौत
की तो क्या
कहो, जीवन
भी खो जाता
है। दुख की तो
क्या कहो, सुख
भी खो जाता
है। क्योंकि
ये सब साथ
जुड़े हैं—दुख—सुख,
अंधेरा—रोशनी,
जीवन—मृत्यु।
ये सब जुड़े
हैं। ये अलग—अलग
नहीं हैं।
इनमें से एक
बचेगा तो
दूसरा किनारे
पर खड़ा रहेगा।
अगर रोशनी
होगी तो
अंधेरा उसकी
सीमा बनाएगा।
अगर सुख होगा
तो दुख किनारे
पर मौजूद है, प्रतीक्षा
कर रहा है कि
कब मुझे अवसर
मिले। वह
तैयार है
तुम्हारी
छाती पर सवार
हो जाने को।
द्वंद्व
ही खो जाता है, तब समाधि
है।
न
हैं चांद—सूरज
न कोई सितारे
कहीं
रोशनी का
निशां तक नहीं
है।
खलाए
फजा की है बस
बेकरानी
एक
शून्य है—असीम
शून्य!
खलाए
फजा की है बस
बेकरानी
एक
रिक्तता है।
सब शून्य हो
गया है। असीम
शून्य है, जिसकी कोई
सीमा नहीं है।
जहां
नक्शे मौहूम
आलक का साया
है
अम्बवाजे
हस्ती के दामन
में रक्सां
और
जहां माया की
सब तरंगें सो
गई हैं—अस्तित्व
में सो गई
हैं।
साधारणतः
इससे उलटी दशा
है। वही
तुम्हारी दशा
है। उसे पहले
समझो, तो
समाधि समझ में
आए।
खला
मन की है मौज
दर मौज पैदा
मन में
तरंगें उठ रही
हैं। यह
साधारण
अवस्था है।
तरंगों पर
तरंगें!
चुकतीं ही
नहीं। कभी मन खाली
नहीं होता।
आती ही चली
जाती हैं। एक
बाढ़ है—अंतहीन
बाढ़ है! एक
क्षण को भी मन
खाली नहीं होता।
असीम रिक्तता
को तो क्या
समझोगे, जब
एक क्षण भी
रिक्तता नहीं
आती! उठते—बैठते
सोते—जागते चल
रहे विचार, चल रहे
विचार।
रास्ता कभी
खाली ही नहीं
होता। ट्रैफिक
चलता ही रहता
है। कभी दुख, कभी सुख।
कभी सफलता, कभी असफलता।
कभी क्रोध, कभी प्रेम।
मगर चलता ही
रहता है। भीड़
चलती ही रहती
है, गुजरती
ही रहती है।
खला
मन की है मौज
दर मौज पैदा
खुदी
की जबरदस्त रौ
चल रही है
और जब
तक यह रास्ता
चलता रहता है, यह भीड़ चलती
रहती है
विचारों की, तब तक
अहंकार बना
रहता है।
अहंकार
तुम्हारे विचारों
के जोड़ का ही
नाम है।
अहंकार
तुम्हारी सारी
बीमारियों का
जोड़ है।
समाधि
में न विचार
होंगे, न
अहंकार होगा।
इतना कहा जा
सकता है कि
समाधि में
क्या नहीं
होगा। क्या
होगा, शायद
नहीं कहा जा
सकता; लेकिन
क्या नहीं
होगा, यह
निश्चित कहा
जा सकता है।
विचार नहीं
होंगे। यह भीड़—भाड़
नहीं होगी, जो तुम्हारे
मन में मची
है। यह कीचड़
जो तुम्हारे
मन में मची है,
नहीं होगी।
और अहंकार
नहीं होगा, क्योंकि इसी
कीचड़ के जोड़
का नाम अहंकार
है। तुम्हारी
सारी
बीमारियां, इन सबका
इकट्ठा नाम
अहंकार है।
खला
मन की है मौज
दर मौज पैदा
खुदी
की जबरदस्त रौ
चल रही है।
और बड़ी
हवा चल रही है
अहंकार की!
अंधड़ चल रहा
है अहंकार का।
इसी
रौ में दुनिया
बहे जा रही है
कभी
डूबती है कभी
तैरती है
ये
सारा हजूमें
नक्शे खयाली!
यह जो
दुनिया में
डूबना—उतरना
चल रहा है, यह सब मन के
ही खयालों का
है। सफलता भी
मन का खयाल है,
असफलता भी
मन का खयाल
है। सब खयाल
की बात है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी एक अजनबी
देश में गया, जहां की वह
भाषा नहीं
समझता है।
उसने एक बड़ी होटल
देखी—ताजमहल
समझो। वहां
लोग आ—जा रहे
हैं। वह भी
भीतर गया।
उसने समझा कि
यह राजा का
महल है। वह
जाकर एक टेबल
पर बैठ गया, एक बैरा आया—शुभ्र
कपड़ों को पहने
हुए। उसने
सोचा कि अदभुत
राजा है, सबका
स्वागत चल रहा
है। मेरे लिए
भी एक विशेष आदमी
भेजा स्वागत
के लिए! उस
बैरे ने झुक
कर नमस्कार
किया। यह बैरा
थाली ले आया।
सुस्वादु भोजन।
वह अजनबी तो
बड़ा प्रसन्न
हुआ। उसने
कहा: हद्द हो गई!
अजनबी हूं, कोई जानता
भी नहीं, कोई
पहचानता भी
नहीं; फिर
राजा हो तो
ऐसा हो!
उसने
खूब दिल भर कर
भोजन किया।
फिर झुक—झुक
कर धन्यवाद
करने लगा बैरा
का। लेकिन
बैरा बिल लिए
खड़ा है। वह
बिल पकड़ाना
चाहता है और
वह धन्यवाद कर
रहा है। उसने
बिल भी ले
लिया। उसने
सोचा कि शायद
राजा ने
चिट्ठी लिख कर
भेजी है कि आप
आए, बड़ी कृपा
की! हमारे
धन्यभाग हैं!
और भी आते रहना!
वह और—और
झुक कर...।
चिट्ठी तो
उसने खीसे में
रख ली कि अपने
देश में जाकर
दिखाने के काम
आएगी। बैरा ने
देखा, यह
आदमी कुछ अजीब
है! वह पैसे
मांग रहा है
और वह झुक—झुक
कर नमस्कार कर
रहा है और
धन्यवाद दे
रहा है। और
कुछ—कुछ कह
रहा है, जो
बैरा की समझ
में नहीं आता,
वह कौन सी
भाषा बोल रहा
है। तो वह उसे
ले गया मैनेजर
के पास। तो उस
आदमी ने सोचा
कि शायद, बैरा,
यह जो अतिथि
का स्वागत करने
वाला राजा का
प्रतिनिधि है,
इतना
प्रसन्न हो
गया है कि
राजा के पास
ले जा रहा है; या कम से कम
वजीर के पास
तो जरूर। जब
मैनेजर के कमरे
में गया, तो
उसने समझा कि
यह वजीर का
कमरा! बड़ा
शानदार था!
मैनेजर ने उसे
बिठाया। उससे
कहा कि भाई
पैसे चुकाओ।
मगर वह तो कुछ
समझे ही नहीं,
क्योंकि
उसको भाषा ही
समझ में नहीं
आती। तो मैनेजर
ने उसे अदालत
में भेजा। अब
वह सोचा कि अब राजा
के पास ले
जाया जा रहा
है। और जब
उसने अदालत
देखी...विशाल
भवन! और जब
उसने
मजिस्ट्रेट
को देखा, उसने
समझा कि यह
महाराजा है।
वह खूब झुक—झुक
कर नमस्कार
करने लगा।
किसी को किसी
की बात समझ
में न आए।
आखिर
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि या
तो यह आदमी
पागल है या
पक्का चालबाज
है। हम कहते
हैं, वह सुनता
ही नहीं है।
वह अपनी ही
लगाए जा रहा है।
इसको दंड दिया
जाए। इसका
मुंह काला कर
दिया जाए और
गले में जूतों
की माला पहना
दी जाए और एक
गधे पर उलटा
मुंह बिठा कर
इसको पूरे
गांव में
घुमाया जाए।
पुराने
जमाने की
कहानी है। जब
उसके गले में
जूतों की माला
पहनाई गई, तो उसने कहा:
अजीब रिवाज
हैं इस देश के
मगर। शायद
यहां फूल न
होते हों या
रिवाज—रिवाज
की बात है।
मगर लोग बड़े
अदभुत मालूम
होते हैं!
और जब
उसका मुंह
काला रंगा गया, तब तो वह बड़ा
ही प्रसन्न
हुआ। उसने
सोचा कि रंग—रोगन
भी कर रहे
हैं। अब देखें
आगे क्या होता
है!
और वह
तो बड़ा
प्रसन्न!
रंगने वाले भी
थोड़े हैरान।
उन्होंने
औरों के भी
रंगे थे; लेकिन
जिसका मुंह
काला रंगो, वह दुखी ही
होता है। और
वह बड़ा ही
आनंदित हो रहा
है। उसकी
आंखों में बड़ी
चमक है। और जब
उसको गधे पर
बिठाया गया, तब तो कहना
ही क्या! उसने
कहा: हद्द हो
गई, सवारी
निकलती है! और
जब जुलूस चला,
क्योंकि
बच्चे साथ हो
लिए, भीड़—भाड?
हो ली, तो
वह बड़ी
प्रसन्नता से
अकड़ कर बैठा
है और चारों
तरफ देखता
जाता है। और
बड़ा खुश हो
रहा है। और
सोच रहा है: एक
ही कमी रह गई।
मैं जब लौट कर
अपने देश
जाऊंगा और
कहूंगा कि ऐसा—ऐसा
स्वागत हुआ तो
कोई मेरी
मानेगा नहीं।
काश, एकाध
और कोई होता
गवाह! मेरे
देश का कोई
निवासी इस समय
मिल जाए तो
बड़ा अच्छा हो!
तभी
उसे दिखाई पड़ा
एक आदमी भीड़
में खड़ा है, जो उसके देश
का है। अरे—उसने
कहा—देखते हो,
कैसा
स्वागत हो रहा
है! और वह आदमी
तो बहुत दिन से
इस देश में है,
इस देश की
भाषा समझने
लगा है। वह
जल्दी से सिर झुका
कर भीड़ में
खिसक गया।
उसने सोचा कि
यह तो मूढ़, गधे
पर इसका जुलूस
निकल रहा है
और यह अकड़ कर
बैठा है! और
अगर लोगों को
पता चल जाए कि
मैं भी इसके
देश का वासी
हूं तो मेरा
भी अपमान
होगा। तो वह
जल्दी से सिर
झुका कर भीड़
में खिसक गया।
इस
आदमी ने क्या
सोचा? इसने
सोचा: हद्द हो
गई! ईष्या की
भी हद्द होती
है। जला जा
रहा है। इसका
स्वागत नहीं
हुआ, इस
तरह जिस तरह
हमारा हो रहा
है। इसकी जलन
तो देखो!
मन का
खेल है।
तुम्हारी
सफलता, तुम्हारी
असफलता—तुम्हारी
व्याख्याएं
हैं।
तुम्हारी
मान्यताएं
हैं।
खला
मन की है मौज
दर मौज
खुदी
की जबरदस्त रौ
चल रही है
इसी
रौ में दुनिया
बहे जा रही है
कभी
डूबती है कभी
तैरती है
ये
सारा हजूमे
नक्शे खयाली
यह
सब काल्पनिक
है, सब सपने
जैसा है।
है
मौहूम सायों
का रक्से
तमाशा
हुआ
वतने तखलीक
में फिर से
गायब
और जब
समाधि आती है
तो यह सारा
तमाशा गायब हो
जाता है।
हुआ
वतने तखलीक
में फिर से
गायब
यह
सारा सपना
शांत हो जाता
है—वहीं खो
जाता है, जहां
से उठा था।
रहा
सिर्फ एहसास
बाकी खुदी का
जब
सारे विचार
चले जाते हैं
और सारी
तरंगें खो
जाती हैं, तब भी थोड़ी
देर को अहंकार
टिका रहता है।
ऐसे ही जैसे
तुम साइकिल
चलाते हो तो
पैडल मारना
पड़ता है, फिर
दो—चार मील
पैडल मारने के
बाद, अगर
तुमने पैडल
चलाना बंद भी
कर दिया, तो
भी साइकिल
थोड़ी दूर चल
जाएगी—पुरानी
गति के आधार
पर। एकदम नहीं
रुक जाएगी; दस—पांच कदम
चल जाएगी। और
अगर उतार हो
तो थोड़ी ज्यादा
भी चल सकती
है। पैडल तो
रुक जाएंगे
पहले, फिर
थोड़ी देर बाद
साइकिल
रुकेगी।
ऐसा ही
अहंकार है।
विचार तो पहले
रुक जाएंगे, लेकिन
सूक्ष्म खुदी,
सूक्ष्म
अहंकार थोड़े
दिन तक तरंगें
मारता रहेगा।
पुरानी आदत के
वश।
हुआ
वतने तखलीक
में फिर से
गायब
रहा
सिर्फ एहसास
बाकी खुदी का
रही
मोअजन सिर्फ
इक रौ अना की
सब
खो गया; सिर्फ
एक तरंग बची—अहंकार
की।
रही
मोअजन सिर्फ
इक रौ अना की
वो
देखो अना की
भी रौ रुक गई
है
और जब
समाधि करीब
आती है, तो
जो घटना घटती
है—वह यह कि
अचानक अहंकार
की लहर भी रुक
जाती है। अचानक
तुम पाते हो
कि तुम हो और
मैं का कोई
भाव नहीं। मैं
गया। होना तो
है, लेकिन
मैं का भाव
नहीं रहा।
अस्तित्व
शुद्ध हो गया।
वो
देखो अना की
भी रौ रुक गई
है
खला
से खला अब गले
मिल रही है
शून्य
से शून्य गले
मिल रहा है।
यह समाधि की परिभाषा
है।
वो
देखो अना की
भी रौ रुक गई
है
खला
से खला अब गले
मिल रही है
बयां
ऐसी हालत का
मुमकिन नहीं
है
अब इस
बात को कहने
का उपाय नहीं
है। दो शून्य
गले मिल रहे
हैं। तुम
शून्य हो गए
और परमात्मा
तो सदा से
शून्य है। और
तुम जब शून्य
हो जाओगे, तभी
परमात्मा के
शून्य से मिल
सकोगे।
क्योंकि उस
जैसे हो जाओ
तो ही उससे
मिल सकोगे। जब
तुम मिट जाओगे
तो उससे मिल
सकोगे। जब तक
तुम हो, तब
तक बाधा है।
जब तक तुम हो, तब तक मिलन
नहीं। जब तुम
बिलकुल न रह
जाओगे, तभी
मिलन होगा; क्योंकि न
होना
परमात्मा के
होने का ढंग
है। इसलिए तो
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता।
अनुपस्थिति
उसकी
उपस्थिति का
ढंग है। जब
तुम भी अनुपस्थित
हो जाओगे, जब
तुम भी
परिपूर्ण
शून्य हो
जाओगे, तभी—तभी
समाधि।
खला
से खला अब गले
मिल रही है
वो
देखो अना की
भी रौ रुक गई
है
बयां
ऐसी हालत का
मुमकिन नहीं
है
ये
आलम तो अदराक
से मावरा है
यह
घटना बुद्धि
के परे है।
ये
आलम तो अदराक
से मावरा है
यह
बुद्धि के
अतीत है।
इसलिए इसे
बुद्धि से कहने
का उपाय नहीं।
बुद्धि तो
बचती नहीं, जब समाधि
घटती है। जब
समाधि घटती है
तो बुद्धि
साक्षी नहीं
होती। होती ही
नहीं। इसलिए
बुद्धि को कोई
अनुभव नहीं
है। समाधि
बुद्धि के पार
है।
ये आलम
तो अदराक से
मावरा है
ये दिल
जिस दिल पै
गुजरे वही
जानता है।
तुम
पूछते हो:
"समाधि क्या
है?'
—ये
दिल जिस दिल
पै गुजरे वही
जानता है।
घायल
की गति घायल
जाने।
जौहरि
की गति जौहरि
जाने।
पर
जौहरी तुम बन
सकते हो। बनने
को पैदा हुए
हो। न बनो तो
तुम्हारा
कसूर है। घायल
होने की तुम्हारी
क्षमता है।
प्रभु तो तीर
लिए खड़ा है। उसने
तो तीर
धनुषबाण पर कब
से चढ़ा रखा
है। तुम जरा
ठहर जाओ, क्योंकि
तुम डांवाडोल
रहो तो वह
कितना ही बड़ा
धनुर्विद हो
तो भी
तुम्हारे
हृदय को बेध न
पाएगा। तुम
जरा ठहर जाओ
तो यह तीर
लगे।
तुम्हारा हृदय
बिंध जाए, तुम
घायल हो जाओ, तो तुम
जानोगे।
समाधि
अनुभव है, अनुभूति है।
लेकिन समाधि
में क्या—क्या
नहीं है, वह
कहा जा सकता है।
द्वंद्व नहीं
है, द्वैत
नहीं है, विचार
नहीं हैं, भाव
नहीं हैं, अहंकार
नहीं है। ये
सब जहां नहीं
हैं, फिर
वहां पूर्ण
अवतरित होता
है। जब तुम
शून्य हो जाते
हो, तो तुम
पात्र बनते
हो। जब तुम
खाली होते हो,
तब
परमात्मा
प्रवेश करता
है।
समाधि—तुम्हारा
परमात्मा में
लीन हो जाना
और परमात्मा
का तुम में
लीन हो जाना।
समाधि अपने
मूलस्रोत को
पा लेना है। गंगा
गंगोत्री
पहुंच जाए, ऐसी है
समाधि। वृक्ष
फिर बीज हो
जाए, ऐसी
है समाधि। तुम
फिर परमात्मा
हो जाओ। जो तुम
थे मूलतः, जो
तुम्हारा
मौलिक स्वभाव
है—फिर से तुम
उसे पा लो। उसे
पा लेना, उस
उपलब्धि का
नाम समाधि है।
समाधि
यानी समाधान।
सब समस्याएं
समाप्त हो गईं।
आखिरी
प्रश्न: मैं
परमात्मा को
खोजता फिर रहा
हूं और
परमात्मा
मिलता नहीं।
प्रभु कितनी
यात्रा और
करनी होगी? संन्यास भी
लिया है, परमात्मा
तो नहीं मिला;
उलटा लोग
मुझे पागल समझने
लगे।
परमात्मा
खोजने से नहीं
मिलता। खोज
में तो फिर भी
अहंकार शेष रह
जाता है।
परमात्मा
खोने से मिलता
है—खोजने से
नहीं। तुम खो
जाओ, तो
मिलेगा। तुम
अगर मजबूती से
खोज रहे हो तो
तुम मजबूत बने
हो।
तुम
कहते हो: मैं
खोज कर
रहूंगा!
तो
तुम्हारी खोज
भी तुम्हारे
मैं को
परिपुष्ट कर
रही है।
तुम
कहते हो: मैं
रुक नहीं सकता, चाहे कुछ भी
हो जाए—पहाड़
लांघूं तो
लांघ जाऊं; सात समुंदर
पार करने हों
तो कर जाऊं; तू
चांदत्तारों
पर हो तो कोई
फिकर नहीं, वहां आ
जाऊंगा—लेकिन
मैं तुझे पाकर
रहूंगा।
यह मैं—भाव
ही तो बाधा
है। अन्यथा, कहीं नहीं
जाना। न तो
पहाड़ लांघने
हैं, न
समुंदर
लांघने, न
चांदत्तारों
पर जाना है।
इस अहंकार को
समझो।
मैं
समझा। तुम
कहते हो, कि
तुम खोज रहे
हो। तो शायद
तुम काशी गए
हो या काबा गए
हो। वेद पढ़े, कुरान पढ़े, बाइबिल पढ़ी।—इसको
तुम खोज कह
रहे हो। उपवास
किए, सिर
के बल खड़े हुए,
आसन लगाए—इसको
तुम खोज कह
रहे हो! माला
जपी, शरीर
को तपाया, गलाया—इसको
तुम खोज कह
रहे हो! लेकिन
ये सब
तुम्हारे अहंकार
को मजबूत कर
देंगे। कुरान
समझ गए, तो
अहंकार और भर
गया कि मैं
कुरान जानता
हूं। वेद पढ़
लिया, वेद
कंठस्थ हो गया,
तो और अकड़ गए
कि वेद जानता
हूं। आसन—व्यायाम
कर लिया, थोड़ी
कसरत सीख ली, तो अहंकार
और मजबूत हो
गया—योगी हो
गए। व्रत—उपवास
कर लिए—त्यागी
हो गए। मौन रख
लिया कुछ दिन,
तो मुनि हो
गए। यह अकड़ तो
बढ़ती चली
जाएगी। और यही
अकड़ रुकावट
है।
कौन
रोक रहा है
तुम्हें
परमात्मा से
मिलने से? सिवाय
तुम्हारे और
कोई भी नहीं।
न तो उपवास करने
की जरूरत है, न व्रत, न
त्याग। समझ
चाहिए। बोध
चाहिए कि
अहंकार बाधा
है। अहंकार को
विसर्जन करना
है। जिस दिन
तुम खोजी भी न
रह जाओगे, जिस
दिन तुम कहोगे—मेरा
क्या वश! मैं
असहाय! मैं
कहां तुझे
खोजूं! तुझे
देखा नहीं
पहले, मिल
भी जाए तो
कैसे
पहचानूंगा? तेरी कुछ
पहचान भी तो
नहीं। तेरा
कुछ नाम—पता
भी तो नहीं!
मैं कैसे
खोजूंगा!—जिस
दिन तुम्हें
यह बात दिखाई
पड़ जाएगी अपनी
असहाय अवस्था
की, उसी
असहाय अवस्था
में सब खोज गई,
खोजी गया।
उस क्षण शांति
आ जाती है, एकदम
शांति आ जाती
है।
समझना
मेरी बात।
शांति लाई
नहीं जाती।
ऐसा बैठ—बैठ
कर पालथी मार—मार
कर शांति नहीं
आती। जिस दिन
तुम समझोगे अपनी
परम असहाय
अवस्था कि
मेरे किए कुछ
भी तो नहीं
हुआ, कभी तो
नहीं हुआ; सदियों—सदियों
से, जन्मों—जन्मों
से कर रहा हूं,
कुछ भी नहीं
हुआ; मेरे
किए कुछ होता
नहीं है—यह
बात जिस दिन
तुम्हें
दिखाई पड़
जाएगी कि मेरे
किए कुछ होता
ही नहीं, होता
ही नहीं, हो
ही नहीं सकता—उस
क्षण क्या
होगा? एक
अपूर्व शांति
सघन हो जाएगी।
सब कृत्य रुक
जाएगा। सब खोज
खो जाएगी।
खोजी भी खो
जाएगा। एक गहन
शांति
तुम्हें घेर
लेगी। उसी
शांति में
परमात्मा
तुम्हें
खोजता आएगा। तुम
परमात्मा को
नहीं खोज सकते,
परमात्मा
ही तुम्हें
खोज सकता है।
तुम
पूछते हो: "मैं
परमात्मा को
खोजता फिर रहा
हूं।'
अब
काफी खोज लिए, अब रुको। अब
फिरो मत। काफी
फिर लिए।
फिरकनी बनने
से नहीं
परमात्मा
मिलेगा। अब
रुको, ठहरो,
शांत हो
जाओ। समझो बात
को। यह
परमात्मा कोई
जद्दोजहद
नहीं है कि
चले जा रहे
हैं भागे, कि
खोज कर
रहेंगे! कहां
जाओगे? बैठो।
समझो, क्या
हो रहा है? समझो
स्थिति को कि
क्यों
परमात्मा से
मिलन नहीं हो
रहा है? कौन
सी बाधा है? कौन सी अड़चन
है? निदान
करो अपने रोग
का। और उसी
निदान में
शांति आएगी।
उसी शांति में
परमात्मा कब
तुम्हारे पास
आ जाएगा, तुम्हें
पता भी न
चलेगा। एक
क्षण पाओगे कि
नहीं था, एक
क्षण पाओगे कि
अचानक उसने
तुम्हें घेर
लिया। एक क्षण
पाओगे कि वही—वही
है, सब तरफ
वही—वही है।
हंसोगे कि मैं
भी खोजता
फिरता था और
तू सब तरफ था!
तू ही तू था!
तुम
पूछते हो:
"प्रभु, कितनी
और यात्रा
करनी होगी?'
तुम्हारी
जितनी मर्जी
हो, कर सकते
हो। यात्रा से
परमात्मा
नहीं मिलेगा।
परमात्मा दूर
होता तो
यात्रा से मिल
जाता। परमात्मा
पास है, यात्रा
करोगे कैसे? यात्रा दूर
के लिए करनी
पड़ती है। पास
ही हो, उसके
लिए कैसे
यात्रा करोगे?
और जो
तुम्हारे
हृदयों के
हृदयों में
विराजमान हो,
उसके लिए
कहां यात्रा
करोगे? कैसी
यात्रा?
"यात्रा'
शब्द ही भूल
जाओ। यात्रा
शब्द गलत है।
कहीं जाना
नहीं है, क्योंकि
परमात्मा
यहां है। जाना
है ही नहीं—आना
है। तुम काफी
दूर वैसे ही
निकल गए, अब
घर लौट आओ।
तो मैं
कहता हूं:
प्यारे, घर
लौट आओ! कहां
जा रहे हो? कहीं
जाना नहीं।
भीतर शांत
होकर बैठ जाओ।
रुको! दौड़ने
से नहीं
मिलेगा—परमात्मा
रुकने से
मिलेगा। यह
रुकने का गणित
समझो।
यात्रा
सदा दूर के
लिए होती है।
चांद पर जाना हो
तो यात्रा
करनी पड़ेगी।
कैलाश जाना हो
तो यात्रा करनी
पड़ेगी। खुद पर
आना हो तो
क्या यात्रा
करनी पड़ेगी? विक्षिप्त
हो जाओगे। खुद
पर आने के लिए
कोई यात्रा
नहीं करनी
होती। सब
यात्राएं जब
छूट जाती हैं,
तब तुम अपने
पर आ जाते हो।
सब यात्राओं
का छूट जाना, स्वयं पर आ
जाना है।
तो
परमात्मा
यात्रा से
नहीं मिलता—यात्राओं
के छूटने से
मिलता है। कर
लिए खूब मेले, खूब
यात्राएं, अब
रुको!
और तुम
कहते हो कि
"संन्यास तो
लिया, परमात्मा
तो मिला नहीं;
लोग उलटे
पागल समझने
लगे।'
स्वाभाविक
है कि लोग
पागल समझें।
क्योंकि लोग
जिस बात को
सार्थक समझते
हैं—धन को, पद को, प्रतिष्ठा
को—उसको तुमने
लात मार दी।
तुम्हें पागल
न समझें तो
क्या समझें? जो उन्हें
मूल्यवान
लगता है, तुम्हें
निर्मूल्य
लगने लगा—तो
पागल न समझें
तो क्या समझें?
वे तो
तुम्हें नहीं
समझ सकते, लेकिन
तुम तो उन्हें
समझ सकते हो—कि
बेचारे ठीक ही
तो कह रहे हैं!
उन पर दोष मत
दो।
तुम
कहते हो: हम
परमात्मा खोज
रहे हैं। वे
कहते हैं: भाई, धन खोजो, पद
खोजो। अगर
कहीं जाना है
तो दिल्ली
जाओ। चुनाव आ
रहे हैं, चुनाव
लड़ लो। लाटरी
की टिकट खरीद
लो। कुछ करो।
यह परमात्मा
से क्या होगा?
कहां की
बातें कर रहे
हो? सपने
देख रहे हो? कवि हो गए, कि दिमाग
खराब हो गया?
दोनों
का मतलब एक ही
होता है—कवि
हो गए कि पागल
हो गए।
मोहम्मद
को जब पहली
दफा कुरान
उतरी तो घर
लौट कर
उन्होंने
अपनी पत्नी से
कहा कि मुझे
लगता है, या
तो मैं पागल
हो गया या कवि
हो गया। कुछ
उतर रहा है मेरी
खोपड़ी में, जो मेरे बस
के बाहर है।
कुछ घोषणाएं
हो रही हैं
मेरे भीतर, जो मेरी
नहीं हैं। मैं
किसी और ही
शक्ति के हाथ
में पड़ गया
हूं। किसी
विराट भंवर
में उलझ गया
हूं। मैं छोटा
तिनका हूं, जो किसी
अंधड़ में पड़
गया हूं।
जो
शब्द
उन्होंने
अपनी पत्नी से
आकर कहे कि
मुझे जल्दी से
रजाई ओढ़ा दे, मुझे बहुत
कंपकंपी लग
रही है; या
तो मैं कवि हो
गया या मैं
पागल हो गया
हूं।
तो लोग
यही तो
समझेंगे। जो
भले आदमी हैं; वे कहेंगे:
आप कवि हो गए
क्या? मतलब
तुम समझ जाना।
जो जरा इतने
सुसंस्कृत नहीं
हैं, वे
सीधी बात सीधे
ही कह देते
हैं। वे
कहेंगे: पागल
हो गए क्या? मगर बात एक
ही है।
तुम तो
समझो। लोग
क्या करेंगे? लोग देखते।
उनके अनुभव को
सही मानते।
तुम उनके
अनुभव के
विपरीत जाते
हो। तुम उनको
कहना कि मैं
तो पागल हो ही
गया और पागल
होकर जो मुझे
मिल रहा है, वह समझदार
होकर कभी न
मिला था। तुम
भी पागल हो
जाओ। तुम उनको
आशीर्वाद
देना कि आप भी
पागल हो जाएं।
कहां
कहां तू
फिरेगा भटकता
आवारा
न
इस जहां से न
उससे मिलेगा
कोई पता
नहीं
है दोनों
जहानों में
कोई तेरे सिवा
तू
अपने आप में
खोकर खुद अपने
आप को पा
खुदी
में देख खुदा
ओम् ओम् तत्
सत् ओम्
तुझे
जहान में
संन्यासी कम
ही समझेंगे
यहां
के लोग हिकारत
से तुझको
देखेंगे
हर
एक बात पै
तेरी हंसी
उड़ाएंगे
तुझे
सताएंगे, पागल तुझे
पुकारेंगे
दुआएं
सबको दिए जा
तू ओम् तत्
सत् ओम्
और
दुआ यही देना
कि प्रभु करे, तुम भी पागल
हो जाओ!
खोजने
की व्यर्थता
समझो। जिसे
तुम खोज रहे
हो, वह
तुममें छिपा
बैठा है।
जिससे
हर दो जहां
मुनव्वर हैं
तेरे
इस हुस्न की
जमा हूं मैं
नाज
है अपनी जिस
अदा पै तुझे
इसका
इक अक्से हश्र
जा हूं मैं
मैं
तेरी आरजू की
हूं तशकील
शौक
तेरा, तेरी
दुआ हूं मैं
तेरा
ही नगमाए
निशात हूं मैं
तेरे
ही दिल की इक
सदा हूं मैं
इन्तहाए
कमाल हुस्न है
तू
इश्क
कामिल की
इन्तहा हूं
मैं
तू
है आजाद हर
तआल्लुक से
हर
तआल्लुक में
मुबतला हूं
मैं
फिर
भी मैं कोई
दूसरा तो नहीं
तेरा
ईमां तेरी रजा
हूं मैं
जिंदगी
मेरी—आरजू
तेरी
जीते
जी—तालिबे फना
हूं मैं।
तुम सब
कुछ हो।
परमात्मा भी
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है।
घर लौट आओ।
जिससे
हर दो जहां
मुनव्वर हैं
तेरे
इस हुस्न की
जमा हूं मैं।
जिससे
यह सारी
दुनिया का
सौंदर्य भरा
है, सारी
दुनिया—यह
दुनिया, वह
दुनिया—दोनों
दुनियाओं का
सौंदर्य, उसकी
जमा मेरी भीतर
है।
नाज
है अपनी जिस अदा
पै तुझे
इसका
इक अक्से हश्र
जा हूं मैं
और
परमात्मा से
कहा जा रहा है
कि तुझे जो
नाज है अपने
ऊपर, मैं भी
उसी नाज की एक
लहर हूं।
मैं
तेरी आरजू की
हूं तशकील
शौक
तेरा तेरी दुआ
हूं मैं
मैं
तेरी अनुकंपा, तेरी करुणा
हूं। तुझसे
भिन्न नहीं।
तेरा
ही नगमाए निशात
हूं मैं
तेरा
ही गीत हूं।
तेरे
ही दिल की इक
सदा हूं मैं
इन्तहाए
कमाले हुस्न
है तू
तू
पूर्ण
सौंदर्य है।
इश्क
कामिल की
इन्तहा हूं
मैं
तो
मैं भी पूर्ण
प्रेम हूं!
प्रेम
तुम बन जाओ।
परमात्मा
सौंदर्य है।
दोनों का मिलन
हो जाएगा।
लेकिन खोज से
नहीं—खो जाने
से।
मिटो!
मिटना ही उसे
पाने का उपाय
है।
आज
इतना ही।
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