सूत्र:
सखी, मेरी नींद
नसानी हो।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी, रैन
विहानी हो।
सब
सखियन मिलि
सीख दई, मन
एक न मानी हो।
बिन
देख्या कल
नांहि पड़त, जिय ऐसी
ठानी हो।
अंगि—अंगि
व्याकुल भई, मुख पिय—पिय
बानी हो।
अंतर
वेदन विरह की, वह पीड़ न
जानी हो।
ज्यूं
चातक घन कूं
रटै, मछरी
जिमि पानी हो।
मीरा
व्याकुल
विरहिणी, सुध—बुध
बिसरानी हो।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
अम्बुआ
की डाली कोयल
इक बोलै, मेरो मरण
अरू जग केरी
हांसी।
विरह
की मारी मैं
बन—बन डोलूं, प्राण तजूं
करवत ल्यूं कासी।
प्यारे
दरसन दीजो आए, तुम बिन
रह्यो न जाए।
जल
बिन कमल चंद
बिन रजनी, ऐसे तुम
देख्या बिन
सजनी।
व्याकुल
व्याकुल
फिरूं रैण दिन, बिरह कलेजो
खाए।
दिवस
न भूख नींद
नहिं रैणा, मुखसूं कथत
न आवै वैणा।
कहा
कहूं कछु कहत
न आवै, मिल
कर तपत बुझाए।
क्यूं
तरसाओ
अंतरजामी, आए मिलो
किरपा कर
स्वामी।
मीरा
दासी जनम—जनम
की, पड़ी
तुम्हारे
पांए।
तू
ऐसे सरखुशो
सरमस्त मयकदे
में आ
कि
मुस्कुरा के
तुझे हर नजर
सलाम करे।
फिर
ऐसी पी कि हो
सदनाज तुझ पे
साकी वो
वो
फख्र मय को—तेरा
एहतराम जाम
करे।
खुशी
से झूम उठे
मयकदा जो पीरे
मुगां।
नजर
मिला के तेरा
साथ फिर कलाम
करे।
हयात
रक्स करे नगमे
रूह से उठें।
जो
रक्से
बादाकशी
मयफरोश आम
करे।
पिला
के डाले जो
रिंदों पे एक
निगाहे गलत।
तमाम
इशरतो ऐशे
जहां हराम
करे।
एक ढंग
है मधुशाला
में आने का—और
एक ढंग है परम
मधुशाला में
आने का भी।
मीरा से पाठ
सीखना प्रभु
की मधुशाला
में आने का।
मीरा से राह
सीखना उस परम
रस को पीने
की।
उस रस
को पीना सबसे
बड़ी कला है।
और कला हृदय
की है, मस्तिष्क
की नहीं।
इसलिए तर्क से
उसे न समझ पाओगे।
उसे समझने का
रास्ता प्रेम
है, पीड़ा
है। विरह की
पीड़ा जितना
जला दे कलेजे
को, विरह
जितना
भस्मीभूत कर
दे तुम्हें, उसी मात्रा
में, ठीक
उसी मात्रा
में, प्रभु
की वर्षा
होगी।
मीरा
के इन पदों
में वे सारी
बातें बिखरी
पड़ी हैं—सूत्रबद्ध
नहीं हैं, क्योंकि
भक्त
सूत्रबद्ध
नहीं हो सकता।
लेकिन जिनको
खोज है, जिनको
प्यास है, वे
टटोल लेंगे
सीढ़ियों को।
वे रास्ता बना
लेंगे।
रास्ता है।
ज्ञानी का
रास्ता तो
सीधा तर्कबद्ध,
गणित की
लकीर की तरह
होता है। भक्त
का रास्ता घुमावदार
होता है, पगडंडी
की तरह होता
है। भक्त के
रास्ते पर सूत्रबद्धता
नहीं होती—रसबद्धता
होती है।
इसलिए
जिन्होंने
ज्ञान के
शास्त्र पढ़े
हैं, अक्सर
भक्तों को
पढ़ते समय चूक
जाते हैं।
क्योंकि वहां
वैसा गणित
नहीं है, वहां
वैसी
सुस्पष्टता
नहीं है।
भक्ति
तो रहस्य है; धुंधलका
छाया है वहां।
प्रेम की
बदलियों में जैसे
कोई भटक गया
हो!
ज्ञान
तो भरी दोपहरी
है। और भक्त? भक्त तो
संध्याकाल
है। इसलिए तो
हम प्रार्थना
को संध्या
कहते हैं।
संध्या का
अर्थ होता है:
न दिन, न
रात; दोनों
जहां मिलते
हैं; जहां
मिलन होता है—दिन
का, रात
का। जहां
अंधेरा और
रोशनी एक—दूसरे
के साथ खेल
खेलते हैं, छिया—छी
खेलते हैं।
जहां हृदय और
मस्तिष्क की
सीमा है। जहां
शरीर और आत्मा
का मिलन होता
है। जहां
परमात्मा और
अस्तित्व साथ—साथ
नृत्य करते
हैं।
भक्त
की भाषा रहस्य
की भाषा है।
उसकी भाषा बिलकुल
अलग है। इसलिए
जो लोग ज्ञान
के शास्त्रों से
परिचित हैं, जिन्होंने
पतंजलि का
योगसूत्र पढ़ा,
उन्हें मीरा
के साथ अड़चन
होगी। वे
सोचेंगे: ये
सिर्फ भक्ति
के गीत हैं।
तो तुम चूक
गए। ये गीत ही
नहीं हैं—इन
गीतों में
पूरा भक्ति का
शास्त्र छिपा
है। लेकिन
भक्ति का
शास्त्र अपने
ढंग से प्रकट
होता है। जैसे
शराबी चलता है—लड़खड़ाता,
ऐसा ही भक्त
भी चलता है—लड़खड़ाता।
उसके लड़खड़ानेपन
को देख कर अगर
तुम दूर हट गए,
तो परम
रहस्य से
वंचित हो
जाओगे।
तुम्हें टटोल
कर खोजना
पड़ेगा।
तो
मीरा के इन
वचनों में
टटोलना। सब है, लेकिन साफ—सुथरा
नहीं। रेखाओं
में बंटा हुआ
नहीं। वर्गों
में विभाजित
नहीं। सब
मिश्रित है।
सब एक—दूसरे
में घुला—मिला
पड़ा है। इसलिए
थोड़ी अड़चन भी
होती है। और
कभी किसी ने
भी मीरा के
वचनों को इस
तरह समझने की
कोशिश नहीं की
है, जैसा
मैं चाहता हूं
कि तुम समझो।
लोग समझते हैं:
गीत हैं; गाने
के लिए हैं, जीने के लिए
नहीं। लोग
सोचते हैं:
ठीक है, गुनगुना
लो, कभी
मौज में, मस्ती
में; लेकिन
इससे जीवन—शैली
थोड़े ही
निर्मित
होगी।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
जीवन—शैली
इनमें छिपी
पड़ी है। हां, थोड़ा श्रम
करना होगा।
थोड़े पर्दे
उठाने पड़ेंगे।
घूंघट में है
राज। घूंघट
देख कर ही मत
लौट जाना।
घूंघट के भीतर
अपूर्व रहस्य
छिपा हुआ है।
लेकिन जो
घूंघट उठाएगा,
उसको ही
रहस्य
मिलेगा। तो
पहली तो बात
खयाल रखो
तू ऐसे
सरखुशो
सरमस्त मयकदे
में आ!
भक्ति
को समझना हो
तो मस्ती शर्त
है।
तू ऐसे
सरखुशो
सरमस्त मयकदे
में आ!
डूबे
हुए आओ।
रसविभोर आओ।
नाचते हुए आओ।
गीत तुम्हें
घेरे रहे, तो ही तुम
मीरा से संबंध
जोड़ पाओगे।
सोचते हुए मत
आओ। सोचे कि
मीरा से दूर
छिटक जाओगे।
मस्ती में
संबंध बनेगा।
डगमगाते हुए
आओ।
तू ऐसे
सरखुशो
सरमस्त मयकदे
में आ!
यह
मयकदा है। यह
मीरा का जो
मंदिर है, मधुशाला है।
यह पंडित का
मंदिर नहीं है—यह
मस्तों का
मंदिर है।
कि
मुस्कुरा के
तुझे हर नजर
सलाम करे।
नाचते
हुए आओ।
अहोभाव से भरे
हुए आओ।
प्रफुल्लता
से आओ। प्रसाद
से आओ। तो
मीरा से संबंध
जुड़ने में जरा
भी देर न
लगेगी। इधर
तुम्हारा
हृदय नाचता
हुआ, तो उधर तो
मीरा नाच ही
रही है। और
तुम भी नाचो, तो ही मीरा
से मिल सकोगे।
नाचते क्षण
में ही मिल
सकोगे। तुम
बुद्धिमान
बने खड़े रहे, तो तुम्हारे
बीच और मीरा
के बीच जमीन—आसमान
का अंतर होगा।
उस अंतर को
पाटना संभव नहीं
है।
हयात
रक्स करे नगमे
रूह से उठें
तुम्हारे
चारों तरफ
अस्तित्व
नाचता हुआ हो
और तुम्हारे
प्राणों से
गीत उठते हों।
ऐसी कला हो तो
मीरा को समझ
सकोगे।
बातें
सरल हैं मीरा
की। कठिन तो
होंगी ही
कैसे! भक्त
कठिन बात बोलता
ही नहीं। भक्त
तो सरलतम
बोलता है।
लेकिन तुम
नाचो, पिघलो,
सरल हो जाओ,
तो ही सरल
को समझ पाओगे।
तुम कठिन रहे,
कठोर रहे, तुम तर्कजाल
में घिरे रहे,
तुम बुद्धि
में अकड़े रहे,
तुम ज्ञानी
की अकड़ से भरे
रहे—तो भक्त से
संबंध न
जुड़ेगा। भक्त
जैसे होओ, तो
ही संबंध
जुड़ेगा। नहीं
तो तुम्हें
लगेगा कि भजन
हैं; ठीक
है, सुंदर
हैं; संगीत
में बांधे जा
सकते हैं।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
इतना ही कहा, तो तुमने
मीरा को न
समझा। मीरा
कोई गायिका
नहीं है, न
कोई नर्तकी
है। मीरा ठीक
वैसी है, जैसे
बुद्ध हैं, जैसे महावीर
हैं, जैसे
क्राइस्ट
हैं। पर
महावीर और
बुद्ध के वचन
ठीक—ठीक
सीढ़ियों में
विभक्त हैं।
मीरा के वचन
ऐसे विभक्त
नहीं हैं—नहीं
हो सकते हैं।
इसलिए मीरा के
साथ अन्याय हुआ
है। लोगों ने
इतना ही समझा
कि ठीक है, अच्छे
गीत गाए हैं, भावभरे गीत
हैं। लेकिन इन
भावनाओं में
जीवन का पूरा
शास्त्र है, जीवन की
शैली है; जीवन
को बदलने की
कला और कीमिया
है। ऐसा लोगों
ने नहीं सोचा
है। वही मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
उसी ढंग से
तुम सोचो।
सखी, मेरी नींद
नसानी हो।
बुद्ध
कहते हैं:
आदमी सोया हुआ
है, मूर्च्छित
है। महावीर
कहते हैं:
आदमी प्रमाद
में है। उसे जगाना
है। उससे
भिन्न बात
नहीं है यह।
यह कहने की
शैली और है, लेकिन बात
वही मीरा कह
रही है। मीरा
कह रही है: सखी,
मेरी नींद
नसानी हो।
मेरी नींद टूट
गई है। मेरा
प्रमाद टूट
गया। मेरी
मूर्च्छा टूट
गई।
...हालांकि
मूर्च्छा का
टूटने का ढंग
मीरा का अलग
है। महावीर की
टूटी है—अथक
ध्यान से! और
मीरा की टूटी
है—अहर्निश
प्रेम से। मगर
नींद तो टूटी
है। महावीर ने
संकल्प से
तोड़ी है, श्रम
से तोड़ी है; इसलिए
महावीर की
संस्कृति
श्रमण
संस्कृति कहलाती
है। अथक श्रम
किया है। अपने
संकल्प को जगाया
है, जूझे
हैं। योद्धा
हैं। इसलिए
"वर्धमान' से
"महावीर' उनका
नाम हो गया।
वह मार्ग
योद्धा का है।
जैसे कोई
दूसरे से लड़ता
है, ऐसे
महावीर अपनी
नींद से लड़े
हैं। छिन्न—भिन्न
कर डाला है
नींद को।
मीरा
ने भी नींद को
तोड़ दिया है।
लेकिन लड़ी जरा
भी नहीं।
संकल्प का कोई
उपयोग नहीं
किया है।
समर्पण का
उपयोग किया
है। नींद टूट
गई—प्रभु की
याद में, प्यारे
की याद में।
याद इतनी सघन
हो गई, तीर
की तरह चुभ गई
हृदय में—नींद
आए तो आए कैसे!
और मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
मीरा का मार्ग
महावीर के
मार्ग से
ज्यादा
रसपूर्ण है।
श्रम की कोई
जरूरत नहीं है, जहां बिना
श्रम के हो
जाता हो।
संकल्प की कोई
जरूरत नहीं है,
जहां
समर्पण से हो
जाता हो। जहां
हार कर जीत मिलती
हो, वहां
लड़ने की जरूरत
क्या है? जहां
याद करने
मात्र से सदा—सदा
की नींद टूट
जाती हो, वहां
और किसी तरह
के उपाय, विधि—विधान
की कोई जरूरत
नहीं। मीरा के
पास कोई और
विधि—विधान
नहीं है।
आवश्यक भी
नहीं है।
जिसके
पास प्रेम है, उसके लिए
कोई विधि
आवश्यक नहीं
है। प्रेम काफी
है—काफी से
ज्यादा है।
सारी विधियां
जो करती हैं, वह अकेला
प्रेम कर देता
है। विधियों
की विधि है
प्रेम।
सखी, मेरी नींद नसानी
हो।
मीरा
कहती है: मेरी
नींद टूट गई।
नींद आती ही नहीं।
इससे तुम इतना
ही मत समझ
लेना कि रात
मीरा बिस्तर
पर बैठी रहती
है, सोती
नहीं।
नींद
क्या है? तुम
जब आंखें खोले
हुए होते हो, राह पर चलते,
दुकान पर
बैठे, तब
भी तुम जागे
हो? नहीं, कोई ज्ञानी
इस बात से राजी
नहीं कि तुम
जागे हो। तुम
सोए हो। तब भी
तुम सोए हो।
बिस्तर पर तो
तुम सोते ही
हो, दुकान
में भी तुम
सोते हो।
मंदिर में भी
तुम सोते हो।
आंख खोलने से
कुछ नींद के
टूटने का संबंध
नहीं है। जब
तक भीतर का
अंतरतम न खुल
जाए, तब तक
नींद नहीं
टूटती। आंख
खुलने से क्या
नींद टूटेगी!
नींद बड़ी सघन
है; आंख
खुली रहती हैं
और तुम सोए
रहते हो। राह
पर चलते वक्त
तुम जागे हुए
थोड़े ही चल
रहे हो। हजार
विचार चल रहे
हैं, हजार
सपने और
वासनाएं भीतर
चल रही हैं और
तुम उन्हीं
में तल्लीन
हो। बाहर भी
चलते जा रहे
हो और भीतर भी
न मालूम कितने
विचारों की
पर्तें
तुम्हें छाए
हुए हैं, कितने
बादलों में
तुम ढंके हो!
तुम्हारा
सूरज बादलों
के बाहर नहीं
है। तुम्हारे
अंतसचेतन में
कोई रोशनी
नहीं हो रही
है। सब तरफ
अंधेरा है।
किसी तरह चल
लेते हो
अभ्यास—वश। इस
चलने को तुम
जागना मत समझ
लेना।
जागने
का अर्थ होता
है: जब तुम चल
रहे हो तो
सिर्फ चल रहे
हो—और
तुम्हारे
भीतर एक भी
विचार नहीं
है। कोई बादल
नहीं
तुम्हारे
चित्त के आकाश
पर। तुम्हारे
भीतर की
ज्योति बिना
धूम्र के, कोई धुआं
नहीं आस—पास, धूम्ररहित
ज्योति है। तो
तुम जागे हुए
हो।
पतंजलि
ने चार
अवस्थाएं कही
हैं: सुषुप्ति, स्वप्न, जाग्रत
और तुरीय।
तुरीय ही असली
जाग्रत अवस्था
है। जिसको हम
जाग्रत कहते
हैं, उसे
तथाकथित
जाग्रत कहा है
पतंजलि ने—नाममात्र
को जाग्रत, कहने मात्र
को जाग्रत।
वस्तुतः
जाग्रत नहीं।
सिर्फ बुद्ध
जागे हुए हैं।
जब बुद्ध चलते
हैं तो सिर्फ
चलते हैं। जब
बुद्ध भोजन
करते हैं तो
सिर्फ भोजन
करते हैं। जब
बुद्ध सुनते
हैं तो सिर्फ
सुनते हैं; जब बोलते
हैं तो सिर्फ
बोलते हैं।
बुद्ध की मौजूदगी
सदा वर्तमान
क्षण में होती
है। इसको बुद्ध
ने जागरण कहा
है।
बुद्ध
ने तो जागरण
के ऊपर पूरा
शास्त्र
निर्मित
किया।
विपस्सना का
ध्यान और सारी
अनापानसतीयोग
की
प्रक्रियाएं
जागने के लिए
हैं।
मीरा
भी जब कहती है:
सखी, मेरी
नींद नसानी
हो। तो वह उसी
नींद की बात
नहीं कर रही, जो रात तुम
बिस्तर पर
सोते हो, तब
आती है। उतने
की ही बात करे
तो साधारण
स्त्री है; फिर कुछ
विशिष्ट नहीं
हुआ है। विश्वविद्यालयों
में मीरा के
पद पढ़ाए जाते
हैं और यही
समझाया जाता
है कि वह उसी
नींद की बात
कर रही है।
रात सो नहीं
सकती, क्योंकि
उसे प्यारे की
याद आ रही है।
इतना ही नहीं,
विश्वविद्यालयों
में
मनोवैज्ञानिक
हैं जो कहते
हैं कि यह तो
किसी तरह की
कामक्षुधा है,
यह दमित वासना
है। यह मनुष्य
के प्रति जो
प्रेम होना चाहिए,
जैसे
साधारण
आदमियों का
होता है, इसी
को मीरा ने
कृष्ण के ऊपर
आरोपित कर
लिया है। यह
तो कामवासना
का ही रूप है।
ये जो कृष्ण हैं,
ये मीरा के
कल्पना के
प्रेमी हैं; लेकिन यह है
तो वासना ही।
ऐसा
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं। और
जो
मनोवैज्ञानिक
से राजी न हों,
वे भी इससे
दूर नहीं जाते,
कि मीरा रात
सो नहीं पाती।
जैसे प्रेमी
नहीं सो पाते,
करवट लेते
हैं, ऐसे
मीरा भी करवट
लेती है। इतना
ही समझा तो मीरा
के साथ तुमने
अन्याय किया।
मीरा
कहती है: नींद
टूट गई मेरी।
नष्ट हो गई। नसानी!
अब लाख उपाय
करूं तो भी सो
नहीं सकती।
कृष्ण ने गीता
में कहा है: या
निशा सर्व
भूतायां
तस्यां जागर्ति
संयमी। जो
सबके लिए
रात्रि है, सब भूतों के
लिए रात्रि है,
वहां भी जो
योगी है, वह
जागता है।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
कृष्ण कभी
सोते नहीं, कि जब सब सो
जाते हैं, तब
वे अपने कमरे
के कोने में
खड़े जागते
रहते हैं।
सोते हैं।
शरीर सोता है,
लेकिन
कृष्ण जागते
रहते हैं।
शरीर थक गया, विश्राम में
चला जाता है; लेकिन भीतर
एक चेतना सजग
रहती है।
तुम
जागे—जागे भी
सोए रहते हो; योगी सोया—सोया
भी जागा रहता
है। यही भोगी
और योगी का भेद
है। भोगी जागा
लगे तो भी
समझना कि सोया
है; योगी
सोया लगे तो
भी जानना कि
जागा है। भोगी
ऊपर की आंखें
खोलता है, भीतर
सोया रहता है;
योगी बाहर
की आंखें बंद
कर लेता है, भीतर जागा
रहता है।
मीरा
भी उसी योग की
परम दशा में
है; लेकिन
उसका मार्ग
भिन्न है—पतंजलि
से, कृष्ण
से, महावीर
से, बुद्ध
से। तुम यह
जान कर हैरान
होओगे कि वह
कृष्ण की आशिक
है, कृष्ण
के पीछे
दीवानी है; लेकिन उसका
मार्ग कृष्ण
के मार्ग से
भिन्न है।
गीता के कृष्ण
से उसे कुछ
लेना—देना
नहीं है। गीता
से उसे कुछ
लेना—देना
नहीं है। उसका
मार्ग कृष्ण
से बिलकुल भिन्न
है। वह प्रेम
से जागी है।
उसने विरह की
जो क्षमता है
मनुष्य के
भीतर, उसका
सहारा लेकर
जागरण साध
लिया है।
ऐसा
समझो: तुम्हें
किसी से प्रेम
हो जाए तो रात
नींद नहीं
आती। करवट
लेते हो, याद
आती है:
प्रियजन पास
होता, मित्र
पास होता!
मीरा ने इसी
सामान्य
क्षमता का परम
उपयोग कर लिया
है। जब साधारण
प्रेम में रात
नींद खो जाती
है तो मीरा ने
उस असाधारण
प्रेम को पैदा
कर लिया है कि
सारी नींद खो
जाए—रात की ही
नहीं, दिन
की भी; सोने
की ही नहीं, जागने की
भी। नींद ही
नसा जाए। नींद
ही नष्ट हो
जाए।
जिस
मात्रा में
प्रेम सघन
होता है, उसी
मात्रा में
नींद कम होती
जाती है। जब
प्रेम का दीया
पूरा—पूरा
जलता है तो
नींद का
अंधेरा पूरी
तरह समाप्त हो
जाता है।
सखी, मेरी नींद
नसानी हो।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी, रैन
विहानी हो।
सारी
रात...! रात से
अर्थ रात का
ही नहीं है।
रात से अर्थ
है: जीवन की वह
दशा, जो हमने
सोए—सोए बिताई
है। तुम्हारे
लिए अभी भी
रात है। संसार
रात्रि है, जहां लोग
सोए हैं और
सपने देख रहे
हैं। हजार—हजार
तरह के सपने—धन
के, पद के, प्रतिष्ठा
के। लोगों को
पता नहीं कि
लोग क्या कर
रहे हैं, क्यों
कर रहे हैं, किसलिए कर
रहे हैं। किए
जा रहे हैं।
एक मूर्च्छा
है। अंधेरे
में दौड़े चले
जा रहे हैं, क्योंकि और
लोग भी दौड़
रहे हैं। सब
दौड़ रहे हैं।
धक्काधुक्की
में तुम भी
दौड़े जा रहे
हो। तुमने कभी
रुक कर सोचा
भी नहीं कि
कहां जा रहे
हो, क्यों
जा रहे हो, किसलिए
जा रहे हो।
एक जगह
लोग फुटबाल
खेल रहे थे और एक
आदमी भागा हुआ
आया और भीड़
में उसने
चिल्ला कर कहा
कि क्या कर
रहे हो
रामकिशन, तुम्हारे
घर में आग लगी
है! और जो आदमी
फुटबाल हाथ
में लिए था, उसने वहीं
पटकी और भागा,
एकदम भागा।
पसीना—पसीना।
रास्ते पर आकर
हांफता हुआ
खड़ा हो गया और
बोला—किसी और
से नहीं, और
तो वहां कोई
था नहीं, अपने
आप से बोला—कि
अरे, मैं
क्यों भाग रहा
हूं? मेरा
नाम तो
रामकिशन है ही
नहीं। घर में
आग लगी है, इस
बात ने ऐसी
चोट की कि वह
यही भूल गया
कि मेरा नाम
रामकिशन है या
नहीं।
तुम
अपनी जिंदगी
में ऐसे बहुत
मौके पाओगे।
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
ऐसी ही बातों
से भरी है।
तुम क्यों
भागे जा रहे
हो? क्यों धन
के पीछे भाग
रहे हो?—और
लोग भाग रहे
हैं। क्यों पद
के पीछे भाग
रहे हो?—और
लोग भाग रहे
हैं। सभी ऐसा
करते हैं, इसलिए
तुम भी ऐसा कर
रहे हो। तुमने
अपने जीवन को
कोई दिशा जाग
कर नहीं दी
है।
होशपूर्वक
तुमने निर्णय
नहीं लिया है:
क्या करना है?
यह जीवन
इतना
बहुमूल्य है,
और इसे तुम
कौड़ियों में
लुटा रहे हो।
और तुमने एक
बार भी रुक कर
नहीं सोचा है,
क्षण भर बैठ
कर नहीं सोचा
है कि इस
बहुमूल्य जीवन
का कोई
सदुपयोग हो
जाए। यह ऐसे
ही न चला जाए
कूड़े—कर्कट
में। कुछ
निश्चित ही इससे
उपलब्धि हो, निष्कर्ष
निकले।
निश्चित
ही, धन मिलने
से निष्कर्ष
नहीं
निकलेगा।
क्योंकि धन
यहीं पड़ा रह
जाएगा और तुम
चले जाओगे। और
पद पाने से भी
निष्कर्ष
नहीं
निकलेगा।
क्योंकि मौत न
पद वालों की
फिकर करती है,
न पद—हीनों
की। मौत सब
छीन लेगी। जो—जो
मौत छीन लेगी,
अगर उसी को
कमाने में तुम
लगे हो तो तुम
सोए हुए आदमी
हो; तुम
जागे हुए नहीं,
तुम
मूर्च्छित
हो।
जागा
हुआ कौन? जो
मौत को देख कर
जाग गया है; जो यह जान कर
सजग हो गया है
कि मौत तो आती
है, आती ही
है, आ ही
रही है, आ
ही जाएगी—आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, देर—अबेर मौत
द्वार पर
दस्तक देगी।
इसके पहले कि
मौत आए, मुझे
कुछ ऐसा कमा
लेना है जिसे
मौत न छीन
पाए। तो
तुम्हारे
जीवन में दिशा
है, जागरण
है, थोड़ा
ध्यान है, थोड़ा
होश है।
सखी, मेरी नींद
नसानी हो।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी, रैन
विहानी हो।
सारी
रात बीत गई, बिहान हो
गया, सुबह
हो गई, प्यारे
को याद करते—करते
रात टूट गई और
सुबह हो गई।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी...
उस
प्यारे की
प्रतीक्षा
करते—करते...प्रतीक्षा
में कोई सोए
तो कैसे सोए!
प्यारा आता हो
तो कोई सोए तो
कैसे सोए!
प्यारा कब आ जाएगा, पता नहीं।
जीसस
ने बहुत बार
कहा है अपने
शिष्यों को:
प्यारा कब आ
जाएगा, कुछ
पता नहीं। वह
मालिक कब
द्वार पर
दस्तक देगा, कुछ पता
नहीं। इसलिए
जागे रहना। यह
सोच कर मत सो
जाना कि अभी
तो आया नहीं; अब जब आएगा
तब देखेंगे; अभी तो सो
लें, अभी
तो विश्राम कर
लें; कौन
अभी आया जाता
है! ऐसा सोच कर
सो मत जाना।
कहीं ऐसा न हो
कि तुम सोए
होओ और प्यारा
आए और चूक हो जाए।
और ऐसा
ही हो रहा है।
ऐसा ही
दुर्भाग्य घट
रहा है।
प्यारा आता है, मगर तुम
मिलते ही नहीं;
तुम सोए
होते हो।
तुम्हें सोया
देख लौट जाता
है।
और जब
मैं ऐसा कह
रहा हूं तो ये
कोई काव्य की
घोषणाएं नहीं
हैं। ये तथ्य की
सीधी—सीधी
सूचनाएं हैं।
प्रतिपल
परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता
है। जैसे सागर
प्रतिपल अपनी
लहरों से
टक्कर देता है
तट पर, ऐसे
ही परमात्मा
प्रतिपल
तुम्हारे
द्वार पर दस्तक
देता है। कभी
सूरज की किरण
में, कभी
हवा के झोंके
में, कभी
चांद के साथ, कभी पक्षियों
के गीत में, कभी बच्चों
की
मुस्कुराहट
में, न
मालूम कितने—कितने
रूपों में, अनंत हैं
उसके रूप—लेकिन
हर रूप
तुम्हारे
द्वार पर आकर
टकराता है!
मगर तुम गहन
निद्रा में
सोए हो।
तुम्हारी सुबह
अभी हुई नहीं।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी...
मीरा
कहती है:
मैंने कुछ और
नहीं किया।
मैं तो सिर्फ
प्यारे की राह
देख रही हूं
कि आता होगा, जरूर आएगा।
उसके वचन का
मुझे भरोसा
है। उसका भरोसा
है, इसलिए
सोऊं कैसे!
इसलिए जागी
हूं। रात सुबह
होने लगी।
...रैन
विहानी हो।
बिहान
होने लगा, प्रभात होने
लगा। अंधेरा
प्रकाश में
परिवर्तित
होने लगा। निद्रा
जागरण में
ढलने लगी।
जिस
दिन निद्रा
जागरण में
ढलती है, उसी
दिन मृत्यु
अमृत में ढल
जाती है। जिस
दिन अंधेरा
रोशनी बनने
लगता है, उसी
दिन देह आत्मा
में
रूपांतरित
होने लगती है।
उसी दिन
क्षुद्र खोने
लगता है और
विराट का अवतरण
होने लगता है।
उसी क्षण तुम
पात्र बनते
हो। जो वैसा
पात्र न बन
जाए, अभागा
है।
पिय
को पंथ निहारत
सिगरी, रैन
विहानी हो।
सब
सखियन मिलि
सीख दई, मन
एक न मानी हो।
और तो
सबने कहा, समझाया—बुझाया
कि सो जाओ, कौन
आता है, कब
आता है, कभी
आया कोई? किस
प्यारे की राह
देखते हो?
सब
सखियन मिलि
सीख दई...
इस
संसार में
तुम्हें जो भी
सीख देने वाले
लोग मिलेंगे, वे यही तो कह
रहे हैं कि
कहां की बातों
में पड़े हो? मंदिर जा
रहे हो? होश
है? मंदिर
में क्या रखा
है? यह
कुरान में सिर
मार रहे हो, कुछ समझ
नहीं? ये
गई—बीती
बातें! ये सड़े—गले
शास्त्र! यह
गीता, यह
वेद, यह
मीरा, यह
कबीर, यह
नानक किनकी
बातों में
उलझे हो? दीवानों
की बातों में
पड़े हो? कुछ
होशियारी का
काम करो! चार
दिन की जिंदगी
है, भोग लो;
फिर अंधेरी
रात है। निचोड़
लो। जितना भोग
बन सके, निचोड़
लो। जितना धन
मिल सके, जितनी
शक्ति मिल सके,
पद मिल सके—मुट्ठी
बांध लो, फिर
अंधेरी रात
है। फिर कब्र
में पड़े
रहोगे। किसकी राह
देख रहे हो?
तुम्हें
याद होगा, अगर तुम भजन
करो तो संकोच
होता है, क्योंकि
वे सखियां—चारों
तरफ मौजूद हैं,
जो कहेंगी:
पागल हो गए हो,
भजन कर रहे
हो! इस तरह
करोगे तो लोग
अजायबघर में
रख देंगे। होश
में आओ। होश
में आने का
उनका मतलब
होता है, उन
जैसे बेहोश हो
जाओ।
धन के
लिए दौड़ो तो
कोई संकोच
नहीं होता। धन
के लिए जीओ और
मरो, तो
स्वीकृत हो।
लेकिन अगर कभी
प्रार्थना
करो, कभी
ध्यान करो, कभी पूजा
करो तो संकोच
लगता है: किसी
को पता न चल
जाए!
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं: ध्यान
कैसे करें? मोहल्ले
वाले लोग, वे
कहते हैं: अरे,
तुम भी पागल
हो गए! और
मोहल्ले की तो
छोड़ें, पत्नी
चिंतित हो
जाती है।
बच्चे पूछते
हैं कि पापा, तुम्हें
क्या हो गया? आप तो ऐसे
कभी न थे। तो
बहुत संकोच
होता है।
यह
दुनिया धन के
लिए जी रही
है। यहां अगर
कोई ध्यान के
लिए जीएगा तो
बड़ा अकेला पड़
जाता है, बड़ा
अजनबी हो जाता
है। यहां
पागलपन करो, सांसारिक, तो सबका साथ
है तुम्हें।
यहां
परमात्मा को
खोजो, एकदम
अकेले हो गए।
भरे बाजार में
तुम अकेले हो
गए। लोग
हंसेंगे, तिरस्कार
भी करेंगे, अपमान भी
करेंगे, विरोध
भी करेंगे।
तो
मीरा कहती है:
सब
सखियन मिलि
सीख दई...
समझाती
हैं सखियां कि
कहीं कृष्ण
हैं? कौन आएगा?
कोई कभी
नहीं आता।
शांति से सो
जाओ। प्रेम ही
करना हो तो
यहीं किन्हीं
व्यक्तियों
को प्रेम कर
लो। ये परलोक
की बातें सब
कल्पना के जाल
हैं।
रवींद्रनाथ
की कविता है:
एक महामंदिर, उसके बड़े
पुजारी ने
स्वप्न देखा
कि परमात्मा स्वप्न
में खड़े होकर
उससे कह रहे
हैं—ज्योतिर्मय—कि
कल मैं आता
हूं।
तुम्हारी
पूजाएं, तुम्हारी
प्रार्थनाएं
स्वीकार हो गई
हैं। कल मैं
आता हूं।
उस
अपूर्व दृश्य
को देख कर, उस
ज्योतिपिंड
को देख कर और
उस वाणी को
सुन कर मुख्य
पुजारी की
नींद टूट गई।
यद्यपि पुजारी
था, बड़ा
पुजारी था, उस मंदिर
में सौ पुजारी
थे, वह बड़ा
मंदिर था, पुजारी
होकर भी उसे
ऐसा लगा कि
औरों को कहूं
कि न कहूं? लोग
हंसेंगे।
एक बात
तुम जान कर
हैरान होओगे
कि औरों का
चाहे धर्म पर
थोड़ा—बहुत
भरोसा हो, पुजारियों
का बिलकुल
भरोसा नहीं
है। जार्ज
गुरजिएफ तो
कहा करता था:
अगर धर्म से
छुटकारा पाना
हो तो कुछ दिन
किसी पुजारी
के साथ रह लो।
तो सब धोखा—धड़ी
जाहिर हो
जाएगी।
पुजारी का तो
बिलकुल भरोसा
नहीं। पुजारी
तो धंधा कर
रहा है। भगवान
उसकी दुकान
है। वह तो
धंधे में है।
उसे क्या लेना—देना!
और वह
भलीभांति
जानता है कि
इस मूर्ति में
कुछ भी नहीं, क्योंकि कई
बार उसने देखा
कि मूर्ति पर
चूहा चढ़ गया, उसी से तो
अपनी रक्षा
नहीं कर पाते,
और किससे
रक्षा करोगे!
मूर्ति लुढ़क
जाती है कभी
हवा के झोंके
में, तो
अपने आप उठ कर
नहीं बैठ
पाती। अब और
दूसरों का
क्या सहारा
करोगे? सब
बकवास है कि
अंधों को
आंखें दीं और
लंगड़ों को
पहाड़ चढ़ा दिया;
खुद ही तो
चढ़ो!
पुजारी
देखता है कि
मूर्ति में
कुछ नहीं है।
लेकिन पुजारी
का एक व्यवसाय
है। बड़ा
पुजारी था।
फिर भी डरा कि
और पुजारियों
को कहूंगा तो
वे हंसेंगे; कम से कम नये
पुजारी तो
बहुत हंसेंगे;
युवा
पुजारी तो
बहुत हंसेंगे
कि अब बूढ़ा हो
गया, सनक
गया मालूम
होता है।
सठिया गए! कभी
आया भगवान?
तो
चुपचाप सो
रहा। लेकिन
फिर सपना आया।
फिर वही
ज्योतिर्मय
पिंड! फिर वही
घोषणा—कि देख
भरोसा कर, कल आता हूं!
फिर नींद टूट
गई। फिर अपने
को समझा—बुझा
लिया कि अभी
आधी रात किसको
उठाऊं, सुबह
देखेंगे। और
सुबह तक समझ
फिर आ जाएगी
वापस, तो
किसी से कहने
की जरूरत
नहीं। कौन आता
है!
फिर
तीसरी बार
सपना आया, तो फिर
मुश्किल हो
गया। फिर तो
उसे घबड़ाहट भी
लगी कि कहीं
ऐसा न हो आ ही
जाए! तो उसने
सब पुजारियों
को जगा दिया।
लोग हंसने
लगे।
उन्होंने कहा कि
आप भी किस
बातों में पड़
गए, सपने
कहीं सच होते
हैं? सपने
सपने हैं, कौन
कब आता है! इस
मंदिर को
हजारों साल हो
गए बने, कभी
परमात्मा आया
है? कभी
उसने किसी की
प्रार्थना
सुनी है? सब
प्रार्थनाएं
कोरे आकाश में
खो जाती हैं; न कोई सुनने
वाला है, न
कोई उत्तर
देने वाला है।
हमसे ज्यादा
और कौन जानेगा?
हम कितनी तो
प्रार्थनाएं
करते हैं, लेकिन
एक प्रार्थना
तो कभी सुनी
नहीं जाती।
लेकिन
बूढ़े पुजारी
ने कहा: कुछ भी
हो, तुम्हारी
बात मेरी भी
समझ में आती
है। मैं भी यही
मानता हूं कि
कोई आने—जाने
वाला है नहीं;
लेकिन तीन
बार सपना आया
है, कहीं
ऐसा न हो कि वह
आ ही जाए और हम
तैयार न हों। तो
हर्ज क्या है,
हम तैयारी
तो कर ही लें, आया तो ठीक; नहीं आया तो
कोई हर्जा
नहीं होगा।
यह बात
जंची। मंदिर
धोया गया, सजाया गया, भोजन बनाया
गया। और लोग
हंस रहे हैं, भोजन भी बना
रहे हैं वे कि
मेहमान आने
वाला है और
हंस भी रहे
हैं। वे कह
रहे हैं: कौन
कब आता है! और
जानते हैं कि
यह भोग अपने
को ही लगने
वाला है, कोई
और आने वाला
नहीं।
फिर
सांझ भी आ गई
और आने वाला
नहीं आया। फिर
हंसी खूब उठने
लगी। फिर खूब
मजाक चलने
लगा। फिर
उन्होंने
सबने मिल कर
बड़े पुजारी को
कहा कि अब
बहुत हो गया, दिन भर हो गई
प्रतीक्षा
करते—करते। अब
हम भी भूखे
हैं, थक भी
गए हैं, अब
हम भोजन करें
और विश्राम
करें। अब सूरज
भी ढल गया।
आना होता तो आ
गया होता। अब
कोई रात में
तो आएगा नहीं।
फिर
उन्होंने
भोजन किया। दिन
भर के थके—मांदे
थे, सो गए। और
रात, आधी
रात उसका रथ
आया।
यह
कविता बड़ी
प्यारी है!
इसे समझना।
आधी रात उसका
रथ आया। उसके
रथों की आवाज, उसके रथ के
चाकों की
गड़गड़ाहट—और
किसी पुजारी
ने नींद में
सुनी आवाज। वह
नींद में
कुनमुनाया।
उसने कहा:
भाइयो, मुझे
लगता है, वह
आया। रथ की
गड़गड़ाहट
सुनाई पड़ती
है। एक दूसरा
पुजारी
चिल्लाया कि
बंद करो यह
बकवास! दिन भर थका
मारा और अब भी
सोते भी नहीं
शांति से। यह
कोई रथ नहीं
है। कहां का
रथ? रथ
होते हैं अब? यह बादलों
की गड़गड़ाहट
है। तुम
चुपचाप सो
जाओ।
फिर
सन्नाटा हो
गया। वह उतरा।
रथ मंदिर के
द्वार पर आकर
रुका। वह
सीढ़ियां चढ़ा।
उसके चढ़ने की
आवाज, वह
मधुर रव, जो
परमात्मा के
चरणों में ही
होता है, फिर
सुनाई पड़ा।
फिर किसी ने
कहा कि भाई
मुझे लगता है
कि कोई
सीढ़ियों पर चढ़
रहा है और एक
अजीब संगीत
सीढ़ियों पर
गूंज रहा है।
फिर कोई चिल्लाया
कि यह तो हद्द
हो गई, दिखता
है आज सोना
संभव नहीं है!
कुछ भी नहीं
है। हवा
वृक्षों से
गुजरती होगी।
फिर
उसने द्वार पर
दस्तक दी। और
फिर किसी ने कहा:
भाई, मानो या न
मानो, मगर
कोई द्वार पर
दस्तक दे रहा
है। अब तो बड़ा
पुजारी भी
चिल्लाया कि
बंद करो बकवास
और चुपचाप सो
जाओ! न कोई कभी
आया है और न
कोई कभी आएगा।
ये सिर्फ हवा के
थपेड़े हैं।
फिर वे
सो गए। वे
सुबह उठे। और
जब उन्होंने
द्वार खोला, तो सब ठगे रह
गए—अवाक। रथ
के पहियों का
निशान मंदिर
के द्वार तक
बना था। रथ
आया। रथ वापस
लौटा। चिह्न
थे। कोई
सीढ़ियों पर
चढ़ा, उसके
पदचिह्न थे।
तब वे बहुत
रोने लगे।
लेकिन अब तो
कुछ भी रोने
से न हो सकता
था। अवसर जा
चुका था।
जीवन
ऐसा ही है।
परमात्मा तो
रोज आता है, प्रतिपल आता
है। घोषणा करे
न करे, आता
तो है ही। मगर
हम सोए हैं और
हम अपने को
समझा लेते
हैं। पक्षी
बोलते हैं तो
हम कहते हैं: पक्षियों
की आवाज है।
उसकी आवाज
हमें सुनाई
नहीं पड़ती।
वृक्षों से
हवा गुजरती है
तो हम कहते
हैं: वृक्षों
से हवा गुजरी।
वही गुजरता
है। सब चिह्न
उसी के हैं।
सब हस्ताक्षर
उसी के हैं।
लेकिन ये तो
उसी को दिखाई
पड़ते हैं जो
परिपूर्ण रूप
से जागा हो।
जागने
के दो उपाय
हैं। या तो
महान संकल्प
करो कि निद्रा
टूट जाए; या
ऐसा गहन प्रेम
करो कि उसकी
प्रतीक्षा
में पलकें झप
न पाएं।
सब
सखियन मिलि
सीख दई, मन
एक न मानी हो।
मीरा
कहती है: सब
सखियां
समझाती हैं।
सारा संसार
समझा रहा है।
घर के लोग
समझा रहे थे।
प्रियजन समझा
रहे थे।
परिवार के लोग
थे—कि मीरा
पागल न हो। यह
सब पागलपन है।
कहां का कृष्ण, कैसा कृष्ण!
यह तू किसकी
मूर्ति लिए
फिरती है? यह
किसका तू
गुणगान गा रही
है? यह
सिर्फ तेरी
कल्पना का जाल
है।
लेकिन
मीरा कहती है:
मैं न मान
सकी। मैं न
राजी हो सकी।
सौभाग्यशाली
थी।
जिस
दिन तुम
सांसारिक
लोगों की बातों
से राजी हो
जाते हो, तुम्हारे
दुर्भाग्य का
क्षण है। जिस
क्षण तुम सोए
हुए लोगों की
बातों से राजी
नहीं होते, अहोभाग्य
है। किसी जागे
हुए आदमी के
साथ पागल हो
जाने में भी
अहोभाग्य है;
और सोए हुए
लोगों के साथ
बड़े समझदार
बने रहने में
भी दुर्भाग्य
है।
सब
सखियन मिलि
सीख दई, मन
एक न मानी हो।
बिन
देख्या कल
नांहि पड़त, जिय ऐसी
ठानी हो।
प्रेम
ने ऐसी गहन
गांठ बांध ली
कि बिना देखे
अब कल नहीं
पड़ती, अब
चैन नहीं है।
नींद कहां!
नींद कैसी!
विश्राम कहां!
जब तक
प्रभु मिलन न
हो जाए, तब
तक कोई
विश्राम
नहीं। जैसे
नदी भागी चली
जाती है, जब
तक सागर से न
मिल जाए...ऐसा
प्रेमी रोता
ही रहता है, पुकारता ही
रहता है।
अहर्निश उसके
भीतर से एक ही
पुकार उठती
रहती है: कब
मिलोगे? कब
दिखाई पड़ोगे?
कब स्पर्श
होगा? कब
दरस—परस होगा?
बिन
देख्या कल
नांहि पड़त, जिय ऐसी
ठानी हो।
अंगि—अंगि
व्याकुल भई, मुख पिय—पिय
बानी हो।
और
मीरा कहती है:
यह कुछ ऐसा
नहीं है कि
हृदय में ही
बाण चुभा हो।
अंग—अंग...रोएं—रोएं
में, शरीर के
एक—एक हिस्से
में पीड़ा सघन
हो गई है। मन
ने ही नहीं
पुकारा है, तन ने भी
पुकारा है। एक
स्वर से
पुकारा है।
अंगि—अंगि
व्याकुल भई, मुख पिय—पिय
बानी हो।
और
मुंह है कि
जैसे पपीहा
पुकारता रहता
है—पी—कहां, पी—कहां, पी—कहां!
चुप रहूं तो
भी पुकार चल
रही है, बोलूं
तो भी पुकार
ही चल रही है।
बोलूं या न बोलूं,
पुकार चल
रही है। और
अंग—अंग छिद
गया है।
अंतर
वेदन विरह की, वह पीड़ न
जानी हो
मीरा
कहती है: ऐसी
पीड़ा तो कभी
जानी नहीं
थी...जन्मों—जन्मों
में ऐसी पीड़ा
कभी जानी न
थी।
अंतर
वेदन विरह की...
और तरह
की बहुत
पीड़ाएं जानी
थीं—कभी सिर
में दर्द हुआ
था, कभी पैर
में दर्द हुआ
था, कभी
पैर में कांटा
चुभा था—मगर
अंग—अंग कांटे
ही कांटे चुभ
गए। अंग—अंग
आग ही आग लग गई
है। ऐसी विरह—अग्नि
तो कभी जानी न
थी। और यह
पीड़ा बड़ी
अनूठी भी है।
पीड़ा भी है और
मीठी भी। ऐसी
पीड़ा कभी जानी
न थी। विरह की
पीड़ा में दंश
भी है और रस भी;
पुकार भी है
और धन्यवाद
भी। शिकायत भी
है और प्रार्थना
भी। भक्त लड़ता
भी है भगवान
से, झगड़ता
भी है। और सब
झगड़ों के बाद
उसके चरणों
में सिर झुका
कर बैठ जाता
है।
अंगि—अंगि
व्याकुल भई, मुख पिय—पिय
बानी हो।
अंतर
वेदन विरह की...
यह
संस्कृत का
शब्द वेदना
बड़ा अपूर्व
है। दुनिया की
किसी भाषा में
ऐसा कोई शब्द
नहीं। इसके दो
अर्थ होते
हैं: ज्ञान और
दुख। यह उसी
मूल धातु से
बना है, जिससे
वेद। वेद का
अर्थ होता है:
ज्ञान, परम
ज्ञान। यह
अनूठा शब्द
है। क्योंकि
ज्ञान और दुख
का क्या संबंध?
कोई तालमेल
नहीं मिलता।
वेदना, दुख
और वेद—ज्ञान!
और एक से ही
दोनों का जन्म
हुआ। इसमें बड़ा
रहस्य छिपा
हुआ है। एक
ऐसा भी दुख है,
जिसमें वेद
का जन्म होता
है। एक ऐसी भी
वेदना है, जिसमें
वेद जन्मता
है। एक ऐसी भी
पीड़ा है, जिसमें
से परमात्मा
प्रकट होता
है। इसलिए एक ही
शब्द के दो
अर्थ—दुख और
ज्ञान। एक तरफ
दुख है, महादुख
है।
अंगि—अंगि
व्याकुल भई...
अंतर
वेदन विरह की...
और
सारा अंतर
वेदना से जल
रहा है, विरह
की अग्नि में
जल रहा है। एक
तरफ वेदना और
जैसे—जैसे
अग्नि प्रगाढ़
होती है, वैसे—वैसे
दूसरी तरफ वेद
का जन्म होता
है। पीड़ा से आदमी
निखरता है, स्वच्छ होता
है। पीड़ा से
ऐसी ही घटना
घटती है, जैसे
आग से जब सोना
गुजरता है तब।
कुंदन बन जाता
है सोना। सब
कचरा जल जाता
है। आग से
गुजर कर जैसे
सोना शुद्ध
होता है, ऐसे
ही विरह की
अग्नि से, वेदना
से गुजर कर
वेद का जन्म
होता है, बोध
का जन्म होता
है, बुद्धत्व
का जन्म होता
है।
अंतर
वेदन विरह की, वह पीड़ न
जानी हो।
यह
पीड़ा बड़ी
अनजानी है, बड़ी नई है।
यह दुख भी दे
रही है और सुख
भी दे रही है।
यह इसका
अपूर्व रूप
है। यह बड़ी
रहस्यपूर्ण
है।
तुम यह
मत सोचना कि
भक्त अपनी
पीड़ा छोड़ने को
राजी हो
जाएगा। तुम यह
मत सोचना कि
तुम कहो, कि
चलो लो, एस्प्रो
ले लो; कि
एनासिन है, काम करेगी, इसके चार
गुण हैं। भक्त
कोई दवा लेने
को राजी नहीं
होगा। पीड़ा
बीमारी नहीं
है भक्त की—भक्त
का सौभाग्य है;
उसका परम
स्वास्थ्य
है। वह
धन्यभागी है।
परमात्मा
की विरह अग्नि
किस्मत वालों
को ही मिलती
है। उससे भक्त
छूटना नहीं
चाहेगा। पीड़ा है
जरूर लेकिन
ऐसी नहीं कि
छोड़ी जाए; ऐसी कि
सम्हाल कर रखी
जाए। संपदा
है। तो वेदना
भी है और वेद
भी। पीड़ा भी
है और मधुर
भी। बड़ी मीठी
पीड़ा है। यह अनूठी
बात है विरह
की।
संसार
में हमने दुख
जाना। संसार
में हमने सुख भी
जाना। लेकिन
संसार का सुख
थोथा है, उथला
है। और संसार
का दुख भी
थोथा है और
उथला है।
संसार में कोई
चीज गहरी होती
ही नहीं। परमात्मा
के साथ दुख मिलता
है तो भी गहरा
मिलता है; और
सुख मिलता है
तो भी गहरा
मिलता है।
गहरे दुख का
बड़ा आनंद है; क्योंकि
गहरा दुख
तुम्हें गहरा
कर जाता है, तुम्हें
गहराई में
उतार जाता है।
जितना गहरा दुख
जाता है, उतने
ही गहरे तुम
अपने अंतर्तम
में चले जाते
हो। तो दुख
कुएं की तरह
हो जाता है और
तुम अपने गहरे
कुएं में
उतरने लगते हो,
तो अपने से
पहचान होने
लगती है।
हालांकि कुएं में
उतरते डर भी
लगता है, अंधेरा
काटता है।
अनजान, अपरिचित,
कभी गए नहीं—ऐसी
जगह! संग—साथ
छूटने लगता है,
अकेले रह
जाते हो।
अब यह
मीरा अपने
विरह में
बिलकुल अकेली
रह गई। एक तो
कोई इसके विरह
को समझ नहीं
सकता। लोग इसे
पागल समझने
लगे। लोग कहने
लगे मीरा दीवानी
हो गई। कोई
इसके दुख को
समझ नहीं सकता, क्योंकि
जिसने यह दुख
जाना हो वही
समझे। तो कभी
कोई साधु मिल
जाता है, कभी
साध—संगत हो
जाती है, तो
मीरा प्रसन्न
हो जाती है।
साधु
देख राजी भई...
कभी
कोई मिल जाता
है, जो इस दुख
को पहचानता है,
जो इस पीड़ा
से गुजरा है
और इस पीड़ा के
अहोभाग्य का
जिसे अनुभव है—तो,
तो ठीक हो
जाता है।
लेकिन, अन्यथा,
जो लोग
मिलते हैं वे
सभी कहते हैं:
अपने को सम्हालो।
यह क्या
पागलपन है? वापस लौटो।
सब भला—चंगा था,
खराब कर
लिया। यह किस
व्यर्थ की
झंझट में उलझ गई?
क्यों दुख
उठा रही हो? कोई नहीं
आता। न कोई है
आने को। आकाश
खाली है। न
कोई परमात्मा
है, न कोई
प्रार्थना का
अर्थ है।
क्षणभंगुर ही
सब कुछ है, शाश्वत
होता नहीं।
क्षणभंगुर
में जीने वाले
लोग शाश्वत की
भाषा भी नहीं
समझ पाते। यह
पीड़ा बड़ी
अदभुत है, मीरा कहती
है। यह जगा गई
है मुझे, निखार
गई, स्वच्छ
कर गई, शुद्ध
कर गई।
ज्यूं
चातक घन कूं
रटै...
और
जैसा चातक
प्रतीक्षा
करता—स्वाति
की बूंद की, और लगा रहता
है आकाश की
तरफ आंखें
लगाए। जगत में
जल की कोई कमी
नहीं है। चातक,
हो सकता है,
नदीत्तट पर
हो। जगत में
जल की कोई कमी
नहीं है, लेकिन
जिसे स्वाति
की बूंद का
स्मरण आ गया, जिसे स्वाति
बूंद का स्वाद
लग गया, जिसे
स्वाति की
बूंद की सनक
सवार हो गई—इस
जगत के पानी
का फिर कोई
अर्थ नहीं है।
इस पानी से तो
प्यास बढ़ती है,
घटती नहीं।
ऐसा पानी
चाहिए कि
प्यास सदा के
लिए तृप्त हो
जाए।
"स्वाति'
प्रतीक है।
स्वाति एक
नक्षत्र है; एक विशेष
नक्षत्र की
दशा है। ऐसे
ही मनुष्य के
भीतर भी
स्वाति—नक्षत्र
की दशा बनती
है। दो तरह से
बनती है—या तो
ध्यान, या
प्रेम।
स्वाति—नक्षत्र
का अर्थ होता
है: तुम्हारे
भीतर सब परम
शांति को
उपलब्ध हो गया,
कोई
द्वंद्व न रहा,
कोई कलह न
रही; संगीत,
लयबद्धता
पैदा हुई। फिर
ध्यान से हो
या प्रेम से, कैसे हो—इससे
कोई सवाल
नहीं।
तुम्हारे
भीतर समरसता आ
गई, सामंजस्य
आ गया, सम्यकत्व
आ गया, समतुलता
आ गई।
तुम्हारे
भीतर कोई
द्वंद्व, कोई
दुई, कोई
कलह न रही। सब
तरफ सन्नाटा
और शांति हो
गई। अहोभाव आ
गया। वही है
स्वाति—नक्षत्र
भीतर। उसी घड़ी
वह मेघ तुम पर
बरसता है।
बुद्ध ने तो
उसको नाम ही
दिया है: धर्म—मेघ—समाधि!
उस घड़ी में
धर्म का मेघ
बरसता है। और
जो वर्षा होती
है, वह सदा
के लिए तृप्त
कर जाती है।
फिर कोई प्यास
नहीं बचती।
संसार
का अर्थ है:
कितना ही पीओ, प्यास बची
ही रहती है।
बची ही नहीं
रहती, बढ़ती
भी जाती है।
कुछ ऐसी है
संसार की
स्थिति कि
जैसे आग लगी
हो और तुम घी
फेंक—फेंक कर
आग को बुझा
रहे हो। आग और
बढ़ती चली जाती
है। और तुम
देखते भी नहीं
कि आग बढ़ती
चली जाती है।
अंधापन अदभुत
है! बच्चे
ज्यादा शांत
दिखाई पड़ते
हैं, बूढ़े
ज्यादा
अशांत। आग
बढ़ती चली गई
है। और जीवन
हो गया इनका
बुझाते, तो
जरूर बुझाने
में कहीं भूल
हो गई है।
नहीं तो बच्चे
अशांत होने
चाहिए, बूढ़े
शांत होने
चाहिए। बच्चे
कपटी होने
चाहिए, बूढ़े
निर्दोष होने
चाहिए। बच्चे
बेईमान होने
चाहिए, बूढ़े
ईमानदार होने
चाहिए। बच्चे
नास्तिक हों,
यह समझ में
आता है; बूढ़े
तो नास्तिक
नहीं होने
चाहिए।
लेकिन
अनुभव आदमी के
जीवन में से
सब छीन ले जाता
है—देने की
बजाय। कैसा
अनुभव है यह? अनुभवी आदमी
चालाक हो जाता
है, पाखंडी
हो जाता है, बेईमान हो
जाता है।
इसलिए तो
दुनिया में
बेईमानी बढ़ती
चली गई है।
क्योंकि जैसे—जैसे
दुनिया का
अनुभव बढ़ता
चला गया, मनुष्यता
प्रौढ़ होती
चली गई, उतना
आदमी चालाक
होता चला गया।
छोटे बच्चे भोले
मालूम होते
हैं। यह बात
उलटी है।
अगर
जीवन का अनुभव
सच में ही
अनुभव है, तो बात
भिन्न होनी
चाहिए, बिलकुल
भिन्न होनी
चाहिए। जैसे—जैसे
आदमी के जीवन
में अनुभव बढ़े,
वैसे—वैसे
तृप्ति बढ़नी
चाहिए। अनुभव
का और क्या अर्थ?
अनुभव की और
कसौटी क्या? वैसे—वैसे
सरलता बढ़नी
चाहिए।
निर्दोषता
में और नये
चार चांद लगने
चाहिए।
साधुता बढ़नी
चाहिए।
संतत्व बढ़ना
चाहिए। मरते—मरते
तक आदमी परम
शांत अवस्था
को, समाधि
को उपलब्ध हो
जाना चाहिए।
तो जीवन के अर्थ...तो
जीवन का अनुभव
सार्थक।
लेकिन
यहां तो उलटी
बात है। यहां
आग जितनी बुझाओ
उतनी लपटें
बढ़ती चली जाती
हैं। तो जरूर
तुम बुझाने
में जो चीज
फेंक रहे हो, वह ईंधन है।
आग बुझा रहे
हो, घी के
पीपे उड़ेल रहे
हो। सोचते हो
इस तरह आग बुझ
जाएगी। देखते
नहीं, आग
रोज बढ़ती चली
जाती है!
संसार
में प्यास
किसी की बुझती
ही नहीं। और
जिसकी प्यास
बुझ जाए, उसने
ही जीया, उसने
ही जाना।
प्यास बुझती
परमात्मा से
है।
ज्यूं
चातक घन कूं
रटै, मछरी
जिमि पानी हो।
और
जैसे किसी ने
मछली को पानी
से निकाल कर
रेत पर फेंक
दिया हो और
तड़फती हो।
मीरा कहती है:
ऐसी मैं तड़फती
हूं।
अंतर
वेदन विरह की, वह पीड़ न
जानी हो।
...मछरी
जिमि पानी हो।
—जैसे
पानी के लिए
मछली तड़पे, ऐसी मैं
तुम्हारे लिए
तड़फती हूं।
और जब
तक कोई ऐसा न
तड़पे, जब तक
तुम कुनकुने—कुनकुने
तड़फते हो, तब
तक तुम नहीं
पा सकोगे।
परमात्मा को
पाने के लिए
सब दांव पर
लगाना पड़ता
है।
निन्यानबे
डिग्री से भी
काम नहीं
चलेगा। सौ
डिग्री से कम
में काम नहीं
चलता।
तुम्हें पूरा
का पूरा विरह
की अग्नि में
समर्पित हो
जाना पड़ेगा।
मीरा हुई तो
उसने पाया।
अगर
तुम्हारी
प्रार्थना
पूरी नहीं
होती तो यही
समझना कि
तुमने
प्रार्थना की
नहीं। अभी तुम्हें
प्रार्थना
करना नहीं
आया। अभी
तुम्हें
मयकदे में
कैसे आएं, इसका रिवाज
पता नहीं। अभी
मधुशाला में
बैठने का ढंग
तुम्हें
मालूम नहीं।
तू ऐसे
सरखुशो
सरमस्त मयकदे
में आ
कि
मुस्कुरा के
तुझे हर नजर
सलाम करे।
हयात
रक्स करे नगमे
रूह से उठें
जो
रक्शे
बादाकशी मय
फरोश आम करे।
मदिरा—पान
की रस्म सीखनी
पड़ती है, रिवाज
सीखना पड़ता
है।
प्रार्थना
तुमने बहुत बार
की है; कभी
पूरी नहीं
हुई। तो उससे
तुमने यह
नतीजा लिया है
कि परमात्मा
नहीं है। नतीजा
यह लेना था कि
अभी प्रार्थी
पैदा नहीं हुआ।
लेकिन तुम
नतीजा लेते
हो: परमात्मा
नहीं है।
नतीजा लेना था
कि अभी मैंने
प्रार्थना
नहीं सीखी।
प्रार्थना
परिपूर्ण
विरह का नाम
है। रोआं—रोआं
जलता हो, रोआं—रोआं
कांटे से चुभा
हो।
...मछरी
जिम पानी हो।
जब तक
तुम ऐसी पीड़ा
न जानोगे तब
तक प्रार्थना से
परिचय न हो
पाएगा।
तुमने
प्रार्थनाएं
सीख ली हैं—तोतों
की भांति
दोहरा लेते
हो। कुछ प्राण
भी तो लगाओ!
कुछ अपने को
डालो भी तो!
शब्द भी उधार, भाव भी
उधार। कुछ
अपना भी तो
संयुक्त करो!
मीरा
व्याकुल
विरहिणी, सुध—बुध
बिसरानी हो।
मीरा
कहती है: विरह
ही विरह बचा
है।
मीरा
व्याकुल
विरहिणी...
अब तो
सुध—बुध भी खो
गई। अब तो सब
भस्मीभूत हो
गया विरह में।
अब तो होश—हवास
भी नहीं रहा।
होश—हवास
रह जाए तो
भक्ति नहीं।
इसलिए तो कहता
हूं: भक्त का
रास्ता पियक्कड़
का रास्ता है।
होश—हवास रह
जाए, होश—हवास
से चलते रहे, तो कभी न
पहुंचोगे।
तुम अपनी
होशियारी
बचाए हुए चल
रहे हो।
होशियारी
दांव पर लगानी
होगी। और तब
दुख ही स्वर्ग
का द्वार बन
जाता है। पीड़ा
ही परमात्मा
को तुम्हारे
पास खींच लाती
है।
जो
राहते जां है
वो अलम मुझको
मिला है
जो ऐने
मुसर्रत है वो
गम मुझको मिला
है।
जिस गम
से जहांगीर
मोहब्बत हुई
है पैदा
है
हासिले कौनेन
जो गम मुझको
मिला है।
जिस
साज के तारों
से हुई राग की
तखलीक
सद
शुक्र कि वो
साजे अलम
मुझको मिला
है।
सर
चश्माए
इल्ताको
इनायातो
नवाजिश
जो
जाने करम है
वो सितम मुझको
मिला है।
जिस
कुफ्र से ईमान
की होती है
इबारत
जो
अस्ले यकीं है
वो भरम मुझको
मिला है।
पलते
हैं जबीं में
मेरे अब
सैकड़ों सूरज
जब से
तेरा ये नक्शे
कदम मुझको
मिला है।
एक ऐसा
दुख है, एक
ऐसी पीड़ा है, जो स्वर्ग
से ज्यादा
मूल्यवान है,
क्योंकि
उसी पीड़ा से
परमात्मा से
मिलन होता है।
जो
राहते जां है
वो अलम मुझको
मिला है
जो ऐने
मुसर्रत है वो
गम मुझको मिला
है।
एक ऐसा
गम भी है, जो
स्रोत है सारी
खुशियों का।
एक ऐसी पीड़ा
निश्चित है, जिससे जीवन
में सूरज का
जन्म होता है।
मीरा को ऐसी
पीड़ा मिली है।
ऐसी पीड़ा तुम्हें
भी मिल सकती
है। क्योंकि
ऐसी पीड़ा सभी का
स्वरूप—सिद्ध
अधिकार है।
मगर तुम डरे—डरे,
तुम उस पीड़ा
को जगाते
नहीं। तुम
उकसाते नहीं। तुम
अगर मंदिर भी
जाते हो तो
ऐसे ही
औपचारिक। मत
जाना। उपचार
से कहीं मत
जाना। क्या
सार? क्यों
समय गंवाते हो?
तुम जाते भी
हो तो अपने को
बचाते हुए
जाते हो। जो
अपने को डुबाने
को राजी है, वही पाता
है।
ज्यूं
चातक घन कूं
रटै, मछरी
जिम पानी हो।
मीरा
व्याकुल
विरहिणी, सुध—बुध
बिसरानी हो।
है दिल
को क्यों करार
मुझे कुछ पता
नहीं
आंखें
हैं अश्कबार
मुझे कुछ पता
नहीं
रौशन
हुए हैं महर
सिफ्त दागहाए
दिल
है कौन
शोलाबार मुझे
कुछ पता नहीं
धड़कन
इक एक दिल की
है आवाजे पाए
दोस्त
क्या
है यही करार? मुझे कुछ
पता नहीं।
एहसासे
कुरबे दोस्त
है एहसास
बेखुदी
क्या
है विसाले यार? मुझे कुछ
पता नहीं
साकी
की चश्मे मस्त
है और मेरी
तश्नगी
हैं और
मय गुसार? मुझे कुछ
पता नहीं
नकहत
है ताजगी है
मुसर्रत है
दमबदम
होगी
यही बहार, मुझे कुछ
पता नहीं
क्या
कर गई है एक
नजर में
निगाहे मस्त
है कोई
होशियार? मुझे
कुछ पता नहीं।
एक ऐसी
घड़ी आती है, जब कुछ भी
पता नहीं रह
जाता। पता
होने के पहले ऐसे
घड़ी जरूर आती
है जब कुछ पता
नहीं रह जाता।
इसके पहले कि
परमात्मा का
पता चले, तुम
लापता हो जाते
हो। इसके पहले
कि परमात्मा का
पता चले, तुम्हें
जितने पते थे
दुनिया के, वे सब भूल
जाते। संसार
का ज्ञान न
चूके, न
भूले, तो
परमात्मा का
ज्ञान कभी
पैदा नहीं
होता। इन दोनों
को तुम साथ—साथ
न सम्हाल पाओगे।
अगर परमात्मा
को अपने जाल
में फांस लेना
हो, तो
संसार पर जाल
छोड़ देना
होगा।
है दिल
को क्यों करार? मुझे कुछ
पता नहीं।
भक्त
को यह भी पता
नहीं चलता कि
कभी दिल में
अपूर्व शांति
हो जाती है।
उसे कुछ पता
नहीं चलता कि
क्या, माजरा
क्या, मामला
क्या, यह
शांति कहां से?
यह क्यों? और कभी दिल
मस्ती से भर
जाता है और
नगमे उठने लगते
हैं और गीत
फूटने लगते
हैं। और उसे
कुछ पता नहीं
चलता कि मामला
क्या है। और
कभी आंखें आंसुओं
से भर जाती
हैं। और कभी
रुदन ही रुदन
रह जाता है।
और उसे कुछ
पता नहीं चलता
कि यह क्या है!
भक्त भगवान के
हाथ में अपने
को छोड़ देता
है। पता रखने
की जरूरत भी
नहीं रह जाती।
है दिल
को क्यों करार? मुझे कुछ
पता नहीं
आंखें
हैं अश्कबार, मुझे कुछ
पता नहीं।
कब
आंखें रोती
हैं? जब वह
रुलाता है, तब रोती
हैं। और कब
ओंठ हंसने
लगते हैं? जब
वह
मुस्कुराता
है, तब
हंसने लगते हैं।
और कभी ऐसा भी
हो जाता है
आंखें रोती
हैं और ओंठ
मुस्कुराते
हैं। और दोनों
साथ—साथ भी
चलता है।
इसलिए पागल
होने की
हिम्मत चाहिए
भक्त को।
रौशन
हुए हैं महर
सिफ्त दागहाए
दिल
वह जो
विरह ने घाव
बना दिए थे
हृदय में, वे रोशन हो
गए हैं। एक—एक
घाव एक—एक
सूरज बन गया
है।
रौशन
हुए हैं महर
सिफ्त दागहाए
दिल
है कौन
शोलाबार? मुझे
कुछ पता नहीं।
यह
रोशनी कहां से
आ रही है? यह
कौन मेरे
घावों को रोशन
सूरज बना दिया
है? यह कौन
जादू कर रहा
है? मुझे
कुछ पता नहीं
है।
धड़कन
इक एक दिल की
है आवाजे पाए
दोस्त।
और अब
तो दिल की एक—एक
धड़कन में उसके
पैरों की आवाज
सुनाई पड़ रही
है—उस परम
प्यारे की, उस दोस्त की,
उस मित्र
की!
धड़कन
इक एक दिल की
है आवाजे पाए
दोस्त
क्या
है यही करार? मुझे कुछ
पता नहीं।
क्या
यही परम शांति
है? क्या यही
है आनंद? अब
यह भी पता
नहीं कि आनंद
क्या है।
एहसासे
कुरबे दोस्त
है एहसास
बेखुदी
दोस्त
करीब आ रहा है
और इधर होश
खोया जा रहा
है। जिसको
खोजने निकले
थे, वह करीब आ
रहा है; और
जो खोजने
निकला था, वह
खोया जा रहा
है।
एहसासे
कुरबे दोस्त
है एहसास
बेखुदी
मंजिल
करीब आई जा
रही है; और
यात्री मिटा
जा रहा है।
क्या
है विसाले यार? मुझे कुछ
पता नहीं।
क्या
यही है मित्र
का मिलन? क्या
यही है वह परम
संभोग की घड़ी,
जहां
परमात्मा
बचता है, भगवान
बचता है और
भक्त खो जाता
है, या
भक्त बचता है
और भगवान खो
जाता है? मगर
अब कुछ पता
नहीं। अब कोई
हिसाब काम
नहीं आता। अब
पुराने माप—दंड
काम नहीं आते।
अब पुराने
शब्द सार्थक
नहीं रहे।
साकी
की चश्मे मस्त
है और मेरी
तश्नगी।
और ये
परमात्मा की
आंखें, ये
उस प्यारे की
आंखें और यह
आंखों में
झलकती हुई
शराब! और यह
मेरी प्यास...।
साकी
की चश्मे मस्त
है और मेरी
तश्नगी
हैं और
मय गुसार? मुझे कुछ
पता नहीं।
मेरे
अलावा कोई और
भी पियक्कड़ है
दुनिया में, मुझे कुछ
पता नहीं। यह
मेरी प्यास है
और ये तेरी
आंखें हैं।
जब
भक्त भगवान के
सामने खड़ा
होता है तो
अकेला ही होता
है। सारा जगत
खो जाता है।
भक्त को जब भगवान
मिलता है तो
अकेले को ही
मिलता है; उसे बांटना
नहीं पड़ता।
हैं और
मय गुसार?...
कोई और
भी पियक्कड़ है
दुनिया में, मुझे कुछ
पता नहीं है।
यह मेरी प्यास
है और ये तेरी
आंखें हैं। और
अब मैं
पीऊंगा। मेरी
प्यास और तेरी
आंखें! मेरी
प्यास और तेरी
मदिरा! बस दो
काफी हैं। कोई
और भी पीने
वाले हैं, अब
इसका मुझे न
होश है, न
हिसाब है।
नकहत
है ताजगी है
मुसर्रत है
दमबदम
होगी
यही बहार मुझे
कुछ पता नहीं।
सब तरफ
फूल पर फूल
खिले जाते
हैं। ताजगी
बरसती है।
आनंद—उत्सव
मनाया जा रहा
है।
नकहत
है ताजगी है
मुसर्रत है
दमबदम
और सब
तरफ खुशियां
फूट रही हैं, उत्सव की
घड़ी आ गई है!
होगी
यही बहार...
भक्त
कहता है: होना
चाहिए, यही
होगी बहार। हो
न हो, यही
है बहार।
होगी
यही बहार, मुझे कुछ
पता नहीं।
अब यह
भी पता नहीं
कि बहार क्या
होती है, पतझड़
क्या होती है!
सुख क्या, दुख
क्या!
जिसने
परमात्मा की
पीड़ा जानी, उसके सब
हिसाब टूट
जाते हैं।
परमात्मा जब
आता है तो बाढ़
की तरह आता
है। परमात्मा
कोई सरकारी
नहर नहीं है? जब आता है तब
बाढ़ की तरह
आता है। सब
सीमाएं तोड़ कर
आता है। सब
व्यवस्थाएं
तोड़ देता है।
जब आता है तो
बड़ा अराजक
होकर आता है।
डुबा देता है।
क्या
कर गई है एक
नजर में
निगाहे मस्त
है कोई
होशियार? मुझे
कुछ पता नहीं।
जब
भक्त उस नजर
को देख लेता
है एक बार, तो उसे यह
पहली दफे समझ
में आता है कि
इस जगत में
कोई भी
होशियार नहीं
है। ये जो बड़े—बड़े
होशियार
दिखाई पड़ते
हैं चारों तरफ,
ये बड़े से
बड़े मूढ़ मालूम
होते हैं।
होशियारी मूढ़ता
मालूम होती है,
क्योंकि अब
पागलपन में
होशियारी
मालूम होती है।
होश नासमझी
मालूम होती है,
क्योंकि अब
बेहोशी में रस
के द्वार खुल
जाते हैं—अनंत
द्वार खुल
जाते हैं!
मीरा
व्याकुल
विरहिणी, सुध—बुध
बिसरानी हो।
सुध—बुध
बिसर जाने का
ऐसा अर्थ है।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
बड़ा
प्यारा वचन
है!
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
—वह
जो प्यारा है,
वह गले में
फांसी लगा गया
है।
प्रेम
मृत्यु है। जो
मर सकता है
प्रेम में, वही पा सकता
है। प्रेम का
अर्थ ही होता
है: मैं अपने
को मिटाने को
तैयार। तू रहे,
मैं न रहूं।
संसार का अर्थ
है: मैं रहूं, चाहे तू मिट
जाए। लेकिन
मैं रहूं।
तुम
जरा सोचना कभी
बैठ कर किसी
शांत क्षण
में। अगर यह
सवाल उठे कि
परमात्मा
सामने खड़ा है
और तुम हो और
दो में से एक ही
बच सकते हैं, तुम किसको
बचाना चाहोगे?
परमात्मा
को बचाना
चाहोगे या
अपने को? एक
नाव में सवार
हो—परमात्मा
और तुम, दोनों
बैठे। और ऐसी
घड़ी आ जाती है
कि नाव डूबने
के करीब है।
एक बच सकता
है। तो तुम
अपने को
बचाओगे या परमात्मा
को? झूठे
उत्तर मत देना,
क्योंकि
किसी और को तो
उत्तर देना ही
नहीं है; अपने
भीतर ही सोचना
है। तुम अगर
अपने को बचाओगे
तो तुम्हारे
जीवन में
भक्ति की
शुरुआत हुई ही
नहीं। और सौ
में से
निन्यानबे
लोग अपने को बचाएंगे।
वे कहेंगे:
देख लेंगे
परमात्मा को
फिर। और
तरकीबें
निकाल लेंगे,
कहेंगे कि
हम तो
मरणधर्मा हैं,
परमात्मा
तो शाश्वत है।
अरे, परमात्मा
कहीं मरता है?
परमात्मा
मर ही नहीं
सकता। और हम
मर सकते हैं।
तो अपने को
बचा लो, परमात्मा
तो बचा ही हुआ
है। बहुत
संभावना तो यह
है कि तुम
जयरामजी करके
परमात्मा को
धक्का दोगे कि
फिर मिलेंगे।
लेकिन
प्रेम...प्रेम
मिटने की
तैयारी है।
प्रेम सदा
मिटने को
तत्पर है।
मीरा
ठीक कहती है:
डारि गयो
मनमोहन
फांसी।
और
भक्ति तो
फांसी है। एक
ही बचेगा। एक
ही बच सकता
है। दो का
उपाय नहीं।
कबीर कहते हैं
न: प्रेम गली
अति सांकरी, तामे दो न
समाएं। दो
नहीं समा
सकते। या तो
भक्त या
भगवान।
तुम्हारी
इच्छा होती है
कि हम भी रहें,
तुम भी रहो—सह—अस्तित्व,
को—एग्झिस्टेंस!
भई, क्यों
झंझट—झगड़ा
करना? चाहो
तो दुकान बांट
लें आधी—आधी, या घर बांट
लें या बीच
में एक पर्दा
डाल लें—तुम
भी मजे से रहो,
हम भी मजे
से रहें।
लेकिन अगर
तुमने कहा कि
तुम भी रहो और
हम भी रहें, तो तुम ही
रहोगे, परमात्मा
नहीं रह सकता।
क्योंकि
परमात्मा इतना
विराट है कि
तुम पूरी जगह
खाली करो तो
ही रह सकता
है। ये दोनों
साथ नहीं हो
सकते। एक म्यान
में दो तलवार
शायद बन भी
जाएं, लेकिन
एक जीवन में
भक्त और भगवान
साथ—साथ नहीं
बनते।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
पर बड़े
प्रेम से कहा
मीरा ने। कोई
शिकायत नहीं
है। बड़े
आह्लाद से कहा
कि अच्छा किया
कि फांसी डाल
गए। अच्छा
किया कि मुझे
मारने का उपाय
कर गए। अच्छा
किया कि मुझे
चुना।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
अम्बुआ
की डाली कोयल
इक बोलै, मेरो
मरण अरू जग
केरी हांसी।
जैसे
आम की डाली पर
कोयल बोलती है
कुहू—कुहू!
लगी रहती है
रटन में!
प्यारे को
बुलाती रहती है।
ऐसी ही—मीरा
कहती है—मेरी
दशा है। मैं
तुम्हें बुला
रही, बुला
रही...बुला—बुला
कर मरी जा
रही। मेरी तो
फांसी लगी है।
...मेरो
मरण अरू जग
केरी हांसी।
और लोग
हंस रहे हैं।
खूब फांसी दे
गए!
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
क्या
स्पर्श कर
दिया, क्या
जादू कर दिया
कि तुम्हारे
बिना कल नहीं
पड़ती! और
तुम्हारे लिए
पुकारती हूं
तो सारा जगत
हंसता है। लोग
कहते हैं:
पागल है।
तुम्हें
भी मीरा मिल
जाए तो तुम भी
पागल कहोगे।
तुम भी इतना
सदभाव न दिखा
सकोगे कि मीरा
को पागल कहने
से रुको।
तुम्हें भी
मीरा मिल जाए
तो तुम पागल
कहोगे। मीरा
को तो पागल
कहने से वही बचेगा
जिसमें खुद भी
कुछ पागलपन लग
गया हो, कुछ
रंग लग गया
हो। वही
समझेगा। वह
समझेगा कि
क्या है दशा
यह! यह बेसुध
दशा, अपूर्व
आनंद की दशा
है।
अम्बुआ
की डाली कोयल
इक बोलै, मेरो मरण
अरू जग केरी
हांसी।
विरह
की मारी मैं
बन—बन डोलूं, प्राण तजूं
करवत ल्यूं
कासी।
मीरा
कहती है कि
विरह की मारी
मैं यहां से
वहां खोजती
फिरती हूं—इस
जंगल से उस
जंगल, इस
पहाड़ से उस
पहाड़, इस
गांव से उस
गांव, इस
गली से उस गली—तुझे
तलाशती फिरती
हूं। तेरी झलक
तो मिल गई है।
तेरी पहचान भी
हाथ में आ गई
है। जब से
तेरा स्वाद
लगा है, इस
संसार में सब
बेस्वाद हो
गया। अगर तेरे
लिए मरना भी
पड़े तो इस
संसार में
जीने से बेहतर
है।
मगर
फांसी तो लगा
दी है और
प्राण अभी तक
शेष हैं। गला
तो कस दिया है, थोड़ा और कस
दो—यह
प्रार्थना है
इसमें। थोड़ा
और कसो, और
कसो, ताकि
मैं बिलकुल
मिट जाऊं।
विरह
की मारी मैं
बन—बन डोलूं, प्राण तजूं
करवत ल्यूं
कासी।
मैं
तैयार हूं।
आरे से काट
डालो या काशी
जाकर अगर करवट
लेनी हो तो
मैं काशी जाकर
मर जाऊं। तुम
जहां कहो वहां
मरने को तैयार
हूं; लेकिन अब
फांसी पूरी
कसो। अब यह
ढीला—ढीला
फंदा, कुछ
लगा कुछ न
लगा...।
भक्त
की बड़ी बेचैन
दशा हो जाती
है। रहता है
संसार में और
रहता
परमात्मा में, साथ ही साथ।
एक पैर पृथ्वी
पर और एक आकाश
में। एक यहां
और एक अज्ञात में।
दो लोकों में
साथ—साथ चलने
लगता है।
फांसी है, बड़ी
फांसी है।
तुम एक
अर्थ से
निश्चिंत हो।
संसार ही
तुम्हारा
एकमात्र
स्थान है।
झंझटें हैं, अड़चनें हैं;
लेकिन सब
संसार की ही
हैं। तुम कम
से कम एक नाव में
हो। डूबने
वाली नाव है।
कागज की नाव
है। मगर जब तक
नहीं डूबी तब
तक तो तुम
निश्चिंत
अपनी दुकान पर
बैठे हो; तब
तक तो सब ठीक
चल रहा है।
भक्त
की बड़ी अड़चन
है। एक पैर इस
नाव में और एक
पैर उस नाव
में। उसी नाव
में पूरा होना
चाहता है।
लेकिन वह नाव
छूट—छूट जाती
है; पकड़ में
आते—आते छूट
जाती है। कभी—कभी
झलक मिलती है,
फिर झलक खो
जाती है। कभी
किसी प्रगाढ़
चैतन्य के
क्षण में
परमात्मा
करीब मालूम
होता है, फिर
फिसल जाता है।
यह मन बड़ो
हरामी! फिर
अंधेरा छा
जाता है। फिर
जो पास दिखाई
पड़ता था तारा,
बहुत दूर हो
जाता है।
भक्त
भीतर कुछ, बाहर कुछ हो
जाता है। बाहर
से रहता है
तुम्हारे साथ,
भीतर से
रहता है
परमात्मा के
साथ। बाहर
बैठता है
तुम्हारे साथ,
भीतर बैठता
है परमात्मा
के साथ। बाहर
बोलता तुमसे,
भीतर बोलता
परमात्मा से।
भक्त के जीवन
में बड़ी अड़चन
हो जाती है।
उस अड़चन के
लिए "फांसी' से ज्यादा
बेहतर शब्द
दूसरा नहीं हो
सकता। डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
मोअज्जन
कुलजमे
पाकीजगी है
दिल में मेरे
मैं
बजाहिर तो
गुनाहगार नजर
आता हूं।
भीतर
तो सागर है
पवित्रता का
और बाहर से
गुनाहगार नजर
आता हूं।
मोअज्जन
कुलजमे
पाकीजगी है
दिल में मेरे
मैं
बजाहिर तो
गुनाहगार नजर
आता हूं
नकहतो
रंगे
गुलिस्ता हैं
रगो में मेरी
एक
सूखा हुआ गो
खार नजर आता
हूं।
भीतर
तो गुलिस्तां
हैं, भीतर तो
फूल ही फूल
खिले हैं—और
बाहर एक सूखा
हुआ कांटा नजर
आता हूं।
एक
सरमस्तिए
जावेद मुझे है
हासिल
देखने
को तो मैं
हुशियार नजर
आता हूं।
और
भीतर मस्ती है, शराब बह रही
है, और
बाहर होशियार
दिखाई पड़ता
हूं।
जिंदगी
में मेरी
कोनैन की
वुसअत शामिल
बंदे
हस्ती में
गिरफ्तार नजर
आता हूं।
और
भीतर तो विराट
आकाश हैं
मेरे! आकाश
जैसी बुलंदगी।
और आकाश जैसी
विशालता।
असीम आकाश है।
और बाहर...बंदे
हस्ती में
गिरफ्तार नजर
आता हूं। और
बाहर इस छोटी
सी देह में
बंद हूं। डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
रौनक
अफरोज इक
सुबहे
दरक्शां
मुझमें
गरचे
महबूस शबे तार
नजर आता हूं।
भीतर
तो प्रभात हो
गया है और
बाहर अंधेरी
रात है।
मुझसे
बाबस्ता है सब
कुवते तखलीके
हयात
लागरो
बेकसो लाचार
नजर आता हूं।
और भीतर
तो परम शक्ति
का स्रोत मिल
गया है और
बाहर कमजोर...
लागरो
बेकसो लाचार
नजर आता हूं।
मेरी
हस्ती में है
तनवीरे जहां
पोशीदा
पाबगिल
सायाए दीवार
नजर आता हूं।
और
भीतर तो
प्रकाश की
अनहद वर्षा हो
रही है और बाहर
मैं एक अंधकार
हूं।
इंबसात
और मुसर्रत का
हूं मैं सर चश्मा
गमे
हस्ती का लिए
बार नजर आता
हूं।
और
भीतर तो हर्ष
ही हर्ष है।
इंबसात
और मुसर्रत का
हूं मैं सर
चश्मा।
और
वहां तो झरना
बह रहा है
आनंद का, सच्चिदानंद
का।
गमे
हस्ती का लिए
बार नजर आता
हूं।
और
बाहर बड़ा उदास, दुखी, पीड़ा
से भरा हुआ
दिखाई पड़ता
हूं। विरह की
अग्नि जल रही
है बाहर और
भीतर मिलन हो
रहा है।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
मिट
चुका है मेरा
एहसासे अना
लेकिन मैं
मए
पिंदार से
सरशार नजर आता
हूं।
भीतर
तो अहंकार
बिलकुल
समाप्त हो गया
है और बाहर
लोग समझते हैं
कि यह आदमी
अहंकारी है।
मीरा को भी
लोगों ने
अहंकारी समझा, क्योंकि यह
कहती है कि
मेरा कृष्ण से
मिलन हो गया
है। कृष्ण को
लोगों ने
अहंकारी समझा,
क्योंकि
कृष्ण कहते
हैं: सर्व
धर्मान
परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज। सब छोड़—छाड़
अर्जुन, मेरी
शरण आ!
क्राइस्ट को
लोगों ने
अहंकारी समझा,
क्योंकि
क्राइस्ट ने
कहा कि मैं
हूं मार्ग, मैं हूं
सत्य! मैं और
परमात्मा दो
नहीं, एक
हैं। और मंसूर
को लोगों ने
अहंकारी समझा,
क्योंकि
उसने कहा:
अनलहक, अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं स्वयं
परमात्मा हूं!
मिट
चुका है मेरा
एहसासे अना
लेकिन मैं
मए
पिंदार से
सरशार नजर आता
हूं।
हर
तआल्लुक से है
आजाद तबीयत मेरी
दामे
दुनिया में
गिरफ्तार नजर
आता हूं।
मस्तो
सरशार हूं हर
वक्त खयाले हक
में
काफिरो
आसीओ मयखार
नजर आता हूं।
भीतर
परम मदिरा
पीकर बैठा हूं, बाहर लोग
समझते हैं
शराबी है।
डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
विरह
की मारी मैं
बन—बन डोलूं, प्राण तजूं
करवत ल्यूं
कासी।
मीरा
के प्रभु हरि
अविनासी, तुम मेरे
ठाकुर मैं
तेरी दासी।
समझ
लेना, इसमें
शिकायत नहीं
है। मीरा
धन्यवाद कर
रही है: डारि
गयो मनमोहन
फांसी।
सौभाग्य जता
रही है कि ठीक
किया।
तुम्हारे लिए
कष्ट भी
सौभाग्य है।
और संसार में
सुख भी
दुर्भाग्य
है।
मीरा
के प्रभु हरि
अविनासी, तुम मेरे
ठाकुर मैं
तेरी दासी।
तुम जो
चाहो वैसा
करो।
तुम्हारी
मर्जी पूरी हो।
मैं तुम्हारी
दासी हूं, तुम मेरे
मालिक हो।
मेरी मर्जी
पूरी न हो, तुम्हारी
मर्जी पूरी
हो। फांसी
देनी है, फांसी
सही। जिलाओ तो
जिलाओ, मारो
तो मारो। मगर
मैं तुम्हारी
दासी हूं। मैं
तुम्हारी
छाया हूं।
प्यारे
दरसन दीजो आए, तुम बिन
रह्यो न जाए।
जल
बिन कमल चंद
बिन रजनी, ऐसे तुम
देख्या बिन
सजनी।
मीरा
कहती है:
तुम्हें देखे
बिना रहना
असंभव है।
प्यारे
दरसन दीजो आए, तुम बिन
रह्यो न जाए।
परमात्मा
के बिना लोग
कैसे रह लेते
हैं? एक बार जब
तुम्हें
परमात्मा की
छोटी सी भी
किरण मिल जाएगी,
तब तुम भी
बड़े हैरान
होओगे कि इतने—इतने
जन्मों तक
परमात्मा के
बिना कैसे रह
लिए! तब
तुम्हें
हैरानी होगी,
भरोसा न
आएगा, विश्वास
न आएगा कि
इतने—इतने
जन्मों तक
परमात्मा के
बिना भी रह
लिए।
अभी तो
खयाल भी नहीं
आ सकता। अभी
तो दूसरा कोई
अनुभव नहीं
है। अभी तो
जहर ही जाना
है, तो जहर को
ही पीते रहे
हो। अमृत को
जानोगे, तब
खयाल आएगा कि
आश्चर्य, इतने
दिन तक जहर
पीते रहे, जहर
में ही स्वाद
मानते रहे!
अमृत के अनुभव
से तुलना पैदा
होती है।
प्यारे
दरसन दीजो आए, तुम बिन
रह्यो न जाए।
जल
बिन कमल...
मीरा
कहती है: मेरी
हालत ऐसे है, जैसे कमल जल
के बिना।
कुम्हलाती
जाती हूं। तुम्हारे
बिना सिर्फ
कुम्हलाना
है। तुम्हारे होने
में ही खिलावट
है। तुम मेरे
प्राण! तुम मेरी
ज्योति! तुम
मेरी श्वास!
जल
बिन कमल चंद
बिन रजनी...
तुम्हारे
बिना ऐसी हूं, जैसे चांद
के बिना रात—अमावस
की रात।
...ऐसे
तुम देख्या
बिन सजनी।
व्याकुल—व्याकुल
फिरूं रैण दिन, विरह कलेजो
खाए।
दिवस
न भूख नींद
नहिं रैणा, मुखसूं कथत
न आवै वैणा।
और
मीरा कहती है:
शब्द ही नहीं
बनते, लड़खड़ा
जाते हैं। बोल
भी नहीं सकती
ठीक से। बोलना
चाहती हूं तुमसे
और तुम्हारा
पता नहीं।
जिनसे बोलना
पड़ता है, उनसे
बोलने की अब
कोई मर्जी
नहीं। साथ
तुम्हारे
होना चाहती
हूं और तुम न
मालूम कहां खो
गए हो! और
जिनके साथ
रहना पड़ता है,
उनके साथ
रहने का कोई
रस नहीं।
दिवस न
भूख नींद नहिं
रैणा, मुखसूं
कथत न आवै
वैणा।
कहा
कहूं कछु कहत
न आवै, मिल
कर तपत बुझाए।
इतना
ही कह देती
हूं कि यह आग
बहुत जल रही
है। अब बरसो
और इसे बुझाओ।
क्यूं
तरसाओ
अंतरजामी, आए मिलो
किरपा कर
स्वामी।
मीरा
दासी जनम—जनम
की, पड़ी
तुम्हारे
पांए।
मीरा
कहती है:
क्यों तरसाओ
अंतरजामी...
तुम
क्यों तरसा
रहे हो? क्या
कारण होगा? इतने तरसाने
की जरूरत क्या
है? इतना
तड़फाने की
जरूरत क्या है?
...आए
मिलो किरपा कर
स्वामी।
और
ध्यान रखना:
भक्ति के
मार्ग में
कृपा सूत्र है, बहुमूल्य
सूत्र है।
भक्त सिर्फ कह
सकता है कि कृपा
करो। ज्ञानी
कहता है: मेरे
ये शुभ कर्म हैं,
इनका
प्रत्युत्तर
चाहिए।
ज्ञानी
दावेदार होता
है। ज्ञानी कहता
है: त्याग
किया, तप
किया, ध्यान
किया, इतने—इतने
जन्मों तक
तपश्चर्या, साधना की, इसका उत्तर
चाहिए।
ज्ञानी
दावेदार है।
भक्त का कोई
दावा नहीं।
भक्त कहता है:
तुम पर और दावा!
तुम मेरे
ठाकुर, मैं
तेरी दासी।
तुम पर और मेरा
दावा! इतना ही
भक्त कह सकता
है कि कृपा
करो! तुम्हारी
कृपा से
मुक्ति होगी।
मेरे कृत्य से
नहीं, तुम्हारी
कृपा से। मेरे
कुछ करने से न
होगा।
तो
भक्त कहता है:
ज्यादा से
ज्यादा जो मैं
कर सकता हूं, वह है—रो
सकता हूं।
आंसू हैं मेरे
पास; और तो
मेरे पास कुछ
है भी नहीं।
ये तुम्हारे
चरणों में चढ़ा
सकता हूं। मेरे
पास कुछ भी
नहीं है। जो
मेरे पास है, वह तुम्हारे
चरणों में रख
सकता हूं।
मेरे आंसू हैं,
मेरी
प्रार्थनाएं
हैं, मेरी
प्यास है, मेरी
पुकार है।
क्यूं
तरसाओ
अंतरजामी...
तो
भक्त कहता है:
मैं इतना ही
कह सकता हूं
कि क्यों और
सताया जाऊं, क्यों और
पीड़ा, क्यों
और विरह, कितने
दिन और...?
...आए
मिलो किरपा कर
स्वामी।
मीरा
दासी जनम—जनम
की, पड़ी
तुम्हारे
पांए।
अदभुत
बात है! मीरा
कहती है:
कितने जन्मों
से तुम्हारे
पैरों में पड़ी
हूं! एक नजर इस
तरफ भी हो जाए!
एक दृष्टि इस
तरफ भी हो जाए!
इस भेद
को समझ लेना।
भक्त दावेदार
नहीं है। दावा
और परमात्मा
से! भक्त को
बात ही
बेहूदगी की मालूम
पड़ती है। हां, प्रार्थना
हो सकती है, पुकार हो
सकती है। भक्त
लड़—झगड़ भी
सकता है, लेकिन
दावा नहीं कर
सकता। भक्त और
भगवान के बीच
कानून का
संबंध नहीं है,
अदालत का
संबंध नहीं है,
लेन—देन का
संबंध नहीं
है। भक्त के
पास देने को
कुछ है ही
नहीं। भक्त
कहता है: मैं
तो खाली पात्र
हूं, भिक्षापात्र
हूं। तुम भर
दो इसे। मेरा
भरोसा मुझ पर
नहीं है—तुम्हारी
कृपा पर है; तुम्हारी
करुणा पर है।
और यह
सूत्र अनूठा
है। अगर एक
बार तुम्हें
यह सूत्र ठीक
से हृदय में
बैठ जाए और
तुम इतना ही
कर पाओ कि
उसके चरणों
में झुकते रहो
और पुकारते
रहो, जल्दी ही
रात कट जाएगी।
जल्दी ही सुबह
होगी। और जब
सुबह होगी, रात कटेगी, तो अहंकार
पैदा न होगा।
ज्ञानी
आखिर—आखिर तक
चूकता है, क्योंकि
ज्ञान से
अहंकार मजबूत होता
है। इतना
जानता हूं, इतना तप, इतना
व्रत, इतनी
साधना की है—तो
कृत्य अहंकार
को मजबूत करता
है।
ज्ञानी
का सबसे बड़ा
खतरा है:
अहंकार। भक्त
का सबसे बड़ा
खतरा है:
आलस्य।
ज्ञानी की
अस्मिता बढ़ती
चली जाती है।
जितना करता है
उतनी अस्मिता बढ़
जाती है; उतना
ढेर लगा लिया
उसने कृत्यों
का। अब वह
कहता है: अब तो
समाधि होनी ही
चाहिए। अब और
क्या कमी रह
गई, बोलो!
भक्त
कहता है कि
मेरी कोई
सामर्थ्य
नहीं, असहाय
हूं। अगर तुम
मिलोगे तो
मेरे किसी
प्रयास से
नहीं, तुम्हारे
प्रसाद से।
अगर मिलोगे तो
इसलिए कि तुम
महाकरुणावान
हो; इसलिए
कि करुणा
तुमसे बह रही
है।
तो
भक्त की सारी
कला इतनी है
कि वह करुणा
को पुकारने
में समर्थ हो
जाए; वह करुणा
को उकसाने में
समर्थ हो जाए।
जैसे छोटा
बच्चा झूले
में पड़ा है, उठ भी नहीं
सकता, चल
भी नहीं सकता,
बोल भी नहीं
सकता, कुछ
कह भी नहीं
सकता—रो तो
सकता है! उसके रोने
से ही मां
दौड़ी चली आती
है। उसे भरोसा
सिर्फ एक बात
का है कि अगर
मैं रोऊं, अगर
मेरा रोना सच
में वास्तविक
हो, अगर
मेरे रोने में
मेरा हृदय हो—तो
कितनी ही दूर
हो मां, कहीं
भी हो, वह
भागी चली
आएगी। उसकी
करुणा पर
भरोसा है। उसके
प्रेम पर
भरोसा है।
भक्त
की प्रक्रिया
परमात्मा की
अनुकंपा पर
निर्भर है। और
परमात्मा
अनुकंपा के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। अनुकंपा, और अनुकंपा
का ही नाम
परमात्मा है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है—इस
अस्तित्व की
सारी अनुकंपा
का इकट्ठा नाम
परमात्मा है।
और यह
अस्तित्व
करुणावान है, क्योंकि हम
इससे पैदा हुए
हैं। हम इसके
हैं, यह
हमारा है। यह
अस्तित्व
करुणावान है,
क्योंकि
अस्तित्व
हमारा स्रोत
है। स्रोत हमारे
प्रति उदास
नहीं हो सकता।
जिस
जमीन से ये
वृक्ष पैदा
हुए हैं, वह
जमीन इनके
प्रति उदास
नहीं हो सकती,
उपेक्षापूर्ण
नहीं हो सकती।
उस जमीन से रसधार
आती ही रहेगी;
रस आकर
वृक्ष में फूल
बनता ही
रहेगा। इस बात
का अगर
तुम्हें
स्मरण आ जाए
कि जिससे हम
पैदा हुए हैं,
यह मूल
ऊर्जा—स्रोत
हमारे प्रति
उपेक्षा से
भरा हुआ नहीं
हो सकता, तो
पुकारने की
बात है। बस
पुकारने की
बात है! जिसने
ठीक से पुकारा,
जिसने
हृदयपूर्वक
पुकारा—उस पर
उस परमात्मा
की अनुकंपा
निश्चित बरस
जाती है।
मीरा
से पुकारना
सीखो।
आज
इतना ही।
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