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बुधवार, 20 जुलाई 2016

पद घुंघरू बांध--(प्रवचन--12)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—बारहवां)  
मनुष्य: अनखिला परमात्मा

प्रश्न—सार:

1—आपने कहा कि संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।
आखिर संसार कहां खत्म होता है और कहां परमात्मा शुरू होता है? इस रहस्य, पहेली पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
2—आपने कहा—गदगद हो जाओ, तल्लीन हो जाओ, रसविभोर हो जाओ और जीवन को उत्सव ही उत्सव बना लो। लेकिन यह सब हो कैसे? मैं बड़ा निष्क्रिय सा अनुभव करता हूं। और अपने आप होश में कभी हुआ नहीं। बड़ी उलझन में हूं। कृपया समझाएं।
3—मनुष्य के जीवन में इतना द्वंद्व क्यों है?
4—सहस्रार की ऊंचाई पर खड़ी मीरा कहती है—"मेरो मन बड़ो हरामी'—तो हम मूलाधार की नीचाई पर खड़े लोगों के मन के लिए क्या कहा जाएगा?
5—मनुष्य की पात्रता कितनी है?


पहला प्रश्न: आपने कहा कि संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।
आखिर संसार कहां खत्म होता है, परमात्मा कहां शुरू होता है? इस रहस्य, पहेली पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

संसार का अर्थ है: आकांक्षा, तृष्णा, वासना, कुछ होने की चाह। संसार का अर्थ, ये बाहर फैले हुए चांदत्तारे, वृक्ष, पहाड़—पर्वत, लोग—यह नहीं है। संसार का अर्थ है भीतर फैली हुई वासनाओं का जाल।
संसार का अर्थ है: मैं जैसा हूं, वैसे से ही तृप्ति नहीं; कुछ और होऊं, तब तृप्ति होगी। जितना धन है, उससे ज्यादा हो। जितना सौंदर्य है, उससे ज्यादा हो। जितनी प्रतिष्ठा है, उससे ज्यादा हो। जो भी मेरे पास है, वह कम है। ऐसा जो कांटा गड़ रहा है, वही संसार है। और ज्यादा हो जाए, तो मैं सुखी हो सकूंगा।
जो मैं हूं, उससे अन्यथा होने की आकांक्षा संसार है। जिस दिन यह आकांक्षा गिर जाती है; जिस दिन तुम जैसे हो वैसे ही परम तृप्त; जहां हो वहीं आनंद रसविमुग्ध; जैसे हो वैसे ही गदगद—उसी क्षण संसार मिट गया। और संसार का मिटना और परमात्मा का होना दो चीजें नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि पहले संसार मिटा, फिर बैठे राह देख रहे हैं कि अब परमात्मा कब होगा। संसार का मिटना और परमात्मा का होना एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। चाहे कहो रात मिट गई, चाहे कहो सुबह हो गई, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। ऐसा नहीं है कि रात मिट गई, फिर लालटेन लेकर खोज रहे हैं कि सुबह कहां है। रात मिट गई तो सुबह हो गई। संसार गया कि परमात्मा हो गया। सच तो यह है यह कहना कि परमात्मा हो गया, ठीक नहीं। परमात्मा तो था ही; संसार के कारण दिखाई नहीं पड़ता था। तुम कहीं और भागे हुए थे, इसलिए जो निकट था वह चूकता जाता था। तुम्हारा मन कहीं दूर चांदत्तारों में भटकता था, इसलिए जो पास था वह दिखाई नहीं पड़ता था।
पश्चिम के एक बड़े विचारक माइकल अदम ने अपने संस्मरण लिखे हैं। समझने योग्य संस्मरण हैं। लिखा है कि सब तरह से सुख को खोजने की कोशिश की; जैसा सभी करते हैं—धन में, पद में, यश में। कहीं सुख पाया नहीं। सुख को जितना खोजा उतना दुख बढ़ता गया। जितनी आकांक्षा की कि शांति मिले, उस आकांक्षा के कारण ही अशांति और सघन होती चली गई। अतीत में सुख खोजा; बीत गया जो, उसमें सुख खोजा और नहीं पाया; और भविष्य में सुख खोजा, कि अभी जो नहीं हुआ, कल जो होगा—वह कल कभी नहीं आया। जो कल आ गए, अतीत हो गए, उनमें सुख की कोई भनक नहीं मिली; और जो आए नहीं—आते ही नहीं—उनमें तो सुख कैसे मिलेगा! दौड़—दौड़ थक गया। सब दिशाएं छान डालीं। सब तारे टटोल लिए। सब कोने खोज लिए। फिर सोचा: सब जगह खोज चुका—अतीत में, भविष्य में, यहां—वहां; अब जहां हूं वहीं खोजूं; जो हूं उसी में खोजूं; इसी क्षण में खोजूं, वर्तमान में खोजूं—शायद वहां हो। और वर्तमान में खोजा और वहां सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं था।
तुम चकित होओगे। संस्मरण पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि यह आदमी यह कहने जा रहा है कि वर्तमान में खोजा और पाया। नहीं; लेकिन वह कहता है: वर्तमान में खोजा और वहां सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं। वहां पीड़ा ही पीड़ा का अंबार है, राशि लगी है। तो फिर एक बात तय हो गई कि सुख है ही नहीं। जब कहीं मिलता नहीं, तो नहीं ही होगा। तो जो नहीं है, उसे क्या खोजना! तो फिर खोज छोड़ दी। फिर दुख के साथ रहना ही भाग्य है, तो दुख को स्वीकार कर लिया। दुख ही जीवन है, इस समीकरण को और इनकार करने का कोई उपाय न रहा। जैसा है वैसा है। वृक्ष हरे हैं। रात अंधेरी है। दिन उजाला है। आदमी दुखी है। दुख को स्वीकार कर लिया। सुख होता ही नहीं। सुख केवल सपना है, मृग—मरीचिका है।
है दुख। गड़ता दुख है। तो हम सुख के सपने बना कर अपने को भुलाए रखते हैं, भरमाए रखते हैं। सुख मात्र आशा है। जब सुख होता ही नहीं तो खोजना क्या! तो व्यर्थ खोज क्या करनी!
तो अदम ने कहा: दुख से राजी हो गया। दुख को भोगने लगा। दुख से कुछ भेद न रखा। दुख से कुछ दुश्मनी भी न रखी। यही मित्र है, यही संगी—साथी है, यही मैं हूं। और तब अचानक पाया कि सुख की एक तरंग उठ रही है। दुख की स्वीकृति में सुख की तरंग उठने लगी—जो कभी न उठी थी! तब अचानक पाया कि सुख था, लेकिन खोजने के कारण चूकता जाता था।
तुम सुख को खोजने के कारण चूक रहे हो।
संसार का अर्थ है: सुख को खोजने वाला मन।
परमात्मा का अर्थ है: सुख नहीं है; जो है, उसकी स्वीकृति। जैसा है, वैसी ही स्वीकृति। उसी क्षण सुख की तरंग आने लगती है। फिर तुम्हें सुख को खोजने जाना नहीं पड़ता—किसी अनजाने द्वार से सुख तुम्हें खोजता आ जाता है।
इस बात को खूब ध्यानपूर्वक समझना। इसमें ध्यान का सारा राज छिपा है। इससे अन्यथा ध्यान और कुछ भी नहीं है।
 जरा सोचो! जो है, जैसा है—उससे अन्यथा नहीं होगा। नहीं हो सकता है! नहीं कभी हुआ है। उपाय ही नहीं है! फिर करने को कुछ भी न बचा। फिर जहां थे, वहीं थिर रह गए। फिर दौड़ गई, तृष्णा गई। और जहां दौड़ गई, तृष्णा गई, क्या वहां सुख तुम पर बरस न जाएगा? फिर कमी क्या रही? कुछ भी तो कमी न रही। जब तुम पूरे के पूरे स्वीकार कर लिए जीवन को जैसा है, उसी स्वीकृति में तो स्वर उठ आता है सुख का।
सुख तो चारों तरफ है, लेकिन तुम खोज रहे हो। कभी—कभी देखा, आदमी अपनी नाक पर चश्मा रखे होता है और उसी चश्मे से अपने खोए गए चश्मे को खोजता है! भागता है, खोजता है, यहां—वहां। जल्दबाजी में हो तो और मुश्किल हो जाती है। किताबें पलटता है, बिस्तर खोलता है। और चश्मा नाक पर चढ़ा है। कभी—कभी कान में तुम खोंस लेते अपनी कलम और फिर खोजने लगते। फिर तुम जब तक खोजते रहोगे तब तक पा न सकोगे। खोज ही बाधा हो जाएगी।
संसार का अर्थ है: खोज। परमात्मा का अर्थ है: खोज गई; अब खोजना नहीं। परमात्मा को भी नहीं खोजना है। अगर परमात्मा को भी खोजना है तो संसार कायम है; नाम बदल गया। अगर तुम कहो कि ठीक है, धन न खोजेंगे, पद न खोजेंगे, प्रतिष्ठा न खोजेंगे, परमात्मा तो खोजें! खोजे कि चूके। खोजे कि गंवाया। खोजे तो...किसी ने कभी खोज कर नहीं पाया। संसारी खोज रहा है। त्यागी खोज रहा है। दोनों चूक रहे हैं। संसारी धन खोज रहा है, त्यागी धर्म खोज रहा है। दोनों चूक रहे हैं, क्योंकि दोनों खोज रहे हैं। पाता कौन है? पाता वह है, जो खोजता नहीं। लेकिन न खोजने की दशा पा लेना कठिन है; क्योंकि हमारे पास बुद्धि का इतना निखार भी नहीं है—मंदबुद्धि हैं। बुद्धि को साफ भी नहीं करते; कूड़ा—कर्कट अलग भी नहीं करते; घास—पात उखाड़ कर भी नहीं फेंकते।
अक्सर ऐसा हो जाता है: एक खोज बंद हुई, दूसरी शुरू कर देते हैं। बंद नहीं हुई, उसके पहले ही शुरू कर देते हैं। भोग से चूके नहीं कि त्याग ने जकड़ा। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: भोग से बचना और त्याग से बचना। भोग से चूके, त्याग में पड़ जाते हो। कुएं से बचे, खाई में गिर गए।
मध्य में है मार्ग। खोज से बचना। धन तो खोजना ही मत; धर्म भी मत खोजना। खोज जाने दो, क्योंकि खोज तनाव पैदा करती है। खोज का मतलब ही यह होता है कि मैं यहां हूं और जिससे मुझे शांति मिलेगी, जिससे मुझे सुख मिलेगा, वह वहां है दूर! या तो दिल्ली में है या स्वर्ग में है—लेकिन दूर। मैं यहां, सुख वहां—दोनों के बीच लंबा फासला। इसी को जोड़ने—जोड़ने में जीवन गंवा दिया जाता है।
संसार जाने का अर्थ पूछते हो, संसार कहां समाप्त होता है?
जिस दिन तुम जहां हो, वहीं सब है। संतुष्टि संसार की मृत्यु है। संतोष। लेकिन फिर खयाल रखना, क्योंकि ये प्यारे शब्द खराब हो गए हैं। ये इतनी जबानों पर चले हैं कि नष्ट—भ्रष्ट हो गए हैं। इनके अर्थ विकृत हो गए हैं। आमतौर से "संतोष' शब्द सुनते ही ऐसा खयाल आता है कि ठीक है, जो है उसी में संतोष कर लो। अपने बस में भी नहीं है कि बहुत धन कमा लो, तो अब जितना है, इसी में संतोष कर लो। ऐसा मन मारने का नाम संतोष हो गया है।
संतोष क्रांति है—मन मारने का नाम नहीं है। संतोष का मतलब यह नहीं है कि अब क्या करें? बड़ा मकान बनता तो है नहीं, चलो छोटे में ही रहेंगे। मगर भीतर—भीतर कीड़ा काट रहा है, भीतर—भीतर घुन लग रहा है। भीतर—भीतर आत्मा सड़ रही है। मन तो पीड़ा से भरा है कि होता बड़ा मकान! काश, कुछ कर लेते! कि लाटरी ही मिल जाती! कि राह चलते किसी का बटुवा पड़ा मिल जाता! अपने में सामर्थ्य तो नहीं है, इसलिए मन को मार लिया है।
लेकिन सपना इतनी आसानी से नहीं मरता। सपना तो कायम रहेगा। सपना तो कहता है कि चमत्कार भी हो सकते हैं—किसी साधु महाराज की कृपा हो जाए, कि कोई ताबीज मिल जाए, कि चलो अब ऐसे तो कुछ नहीं होता, राम—राम जपने से शायद हो जाए!
मैंने सुना है, एक प्रार्थना—सभा के बाद एक औरत अपनी सहेली से बात करने लगी। अचानक उसे याद आया कि वह अपना बटुवा मंदिर के अंदर ही भूल आई है। वह दौड़ कर अंदर पहुंची, पर बटुवा गायब था। महिला बड़ी हैरान हुई—भक्तों में और बटुवा गायब हो जाए! उसने पुजारी को कहा। पुजारी ने कहा: घबड़ाओ मत, मैंने बटुवा उठा कर रख लिया है, क्योंकि कुछ भक्त इतने भोले होते हैं कि इसे देख कर वे यह समझते हैं कि ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली है।
आते ही किसलिए हैं लोग मंदिर में? बटुवों के लिए ही प्रार्थनाएं की जा रही हैं। जो बटुवे अपनी मेहनत से नहीं मिले, अब शायद परमात्मा के कंधे पर सवार होकर मिल जाएं।
फिर, संतोष...तथाकथित संतोष ऐसा ही है जैसा ईसप की कहानी में है। एक लोमड़ी छलांग लगाती है। अंगूर के गुच्छे—रस भरे हैं, हवा में झूलते हैं! सुबह का सूरज निकला है। और लोमड़ी के मुंह से लार टपकती है। उछलती है, कूदती है, मगर गुच्छे बड़े ऊपर हैं; पहुंच नहीं पाती। और तभी एक खरगोश छिपा देख रहा है—पास की ही झाड़ी में बैठा। लोमड़ी को जाते देख कर—उदास, थका—मांदा—वह कहता है: चाची, क्या बात? अंगूर मिले नहीं? और लोमड़ी अकड़ कर सीना फुला कर कहती है: मिले नहीं, किसने तुझे कहा नासमझ? खट्टे हैं। अभी खाने योग्य नहीं।
यह भी संतोष है। जो अंगूर न मिलें, उन्हें हम खट्टे होने की घोषणा कर देते हैं। तुम भी कहते हो: पद में क्या रखा है! मगर जरा भीतर टटोलना! अंगूर खट्टे हैं, ऐसा तो नहीं? तुम भी कहते हो: धन में क्या रखा है! सब ठीकरे हैं! मगर यह बात तुम्हारे भीतर अनुभव से आ रही है? या कि अपने को झुठला रहे हो? या कि अपने को समझा रहे हो? कि मलहम—पट्टी कर रहे हो अपने घाव पर?
धन नहीं मिला है, इसके घाव पड़ गए हैं। किसी तरह मलहम करके घावों को भुलाते हो। ऐसा तुम्हारा संतोष है।
इसलिए मैं तो शब्दों का उपयोग करने में भी डरता हूं, क्योंकि तुम्हारे कुछ अर्थ और होते हैं। इधर मैंने कहा कि संतोष, और तुमने समझा कि अरे ठीक है, संतोषी सदा सुखी! हम तो पहले से संतोषी हैं।
मगर तुम्हारे संतोष को ठीक से समझ लेना। संतोष बड़ी क्रांति है; इतना सस्ता नहीं, जैसा तुम समझते हो। संतोष केवल उन्हें मिलता है, जिनके पास दृष्टि है, जीवन को समझने की कला है। संतोष ऐसी मुर्दा चीज नहीं है, जैसा तुमने उसे बना दिया है। संतोष जीवंत अग्नि है। उससे जो गुजरा, वह परमात्मा में ही उतर जाता है।
संतोष का फिर मैं क्या अर्थ करता हूं? अर्थ करता हूं: ऐसा नहीं कि मैं कमजोर हूं, इसलिए नहीं पहुंच सका, तो अब समझा लेता हूं अपने को। आखिर अहंकार को भी तो बचाना है! अब रोने से क्या फायदा! अब कहने से भी क्या सार कि दौड़ा तो बहुत था, पहुंच नहीं पाया। उछला तो बहुत था, अंगूर के गुच्छे दूर थे। इससे अब क्या सार है कहने से! वैसे ही तो पिट गई है प्रतिष्ठा, अब और क्या पिटवाना! तो अब ऐसे ही कह देते हैं कि दौड़ा ही कहां। दौड़ने में मुझे रस ही न था; वह तो मोहल्ले के लोगों ने कहा तो चुनाव में खड़ा हो गया। तो लोग नहीं माने। मेरी तो कोई इच्छा थी ही नहीं चुनाव में खड़े होने की। तो मैं तो खड़ा ही नहीं हुआ; हारने का सवाल ही क्या है! मोहल्ले वालों ने खड़ा कर दिया। अगर मैं हारा तो वे ही हारे।
लेकिन, यह संतोष नहीं है। संतोष का अर्थ होता है: जीवन को सब तरफ से देखा, सब तरफ से परखा, सब तरफ से स्वाद लिया—और कड़वा पाया। स्वाद लिया और कड़वा पाया। अंगूर के गुच्छे दूर थे; स्वाद लेने का मौका न मिला इसलिए खट्टा कहा, तो काम नहीं होगा।
संतोष जीवन का सार—निचोड़ है; जीवन की सबसे बड़ी संपदा है। लेकिन उन्हीं को मिलता है संतोष, जो जीवन को चखते हैं; जीवन को चखने की कठिनाई से गुजरते हैं। तिक्त है स्वाद। मन—प्राण कड़वे हो जाते हैं। सब तरफ से दौड़ कर देख लिया कि भविष्य की आकांक्षा व्यर्थ है; न कभी आता है कल, न कभी आएगा—इस बोध से दौड़ गई, तृष्णा गई। इस बोध से अब जहां हूं, जैसा हूं, उसी में मगन—भाव हुआ। इस मगन—भाव का नाम संतोष है। संतोष बड़ी अदभुत बात है। जहां संतोष आया संसार गया। संसार गया संतोष आया। कहने का ही भेद है। और जहां कोई दौड़ न रही, वहां तुम परमात्मा को बिना देखे कैसे रहोगे? क्योंकि दौड़ से ही आंखें अंधी हैं।
यूनान में पुरानी कथा है कि एक ज्योतिषी रात आकाश के तारों का अध्ययन करता हुआ चल रहा था, एक कुएं में गिर पड़ा। चिल्लाया, घबड़ाया। पास कोई किसान बूढ़ी औरत ने दौड़ कर रात में इंतजाम किया, लालटेन लाई, रस्सी लाई, उसे निकाला। वह बड़ा प्रसिद्ध ज्योतिषी था। उसकी फीस भी बहुत बड़ी थी। सम्राटों का ज्योतिषी था। साधारण आदमी तो उसके पास पहुंच नहीं सकते थे। उसने कहा: बूढ़ी मां, तुझे पता है मैं कौन हूं? तेरा सौभाग्य है कि तूने यूनान के सबसे बड़े ज्योतिषी को सहायता देकर कुएं से बाहर निकाला है। मेरी फीस इतनी है कि सिर्फ सम्राट चुका सकते हैं। मगर तेरा हाथ और तेरा भविष्य मैं बिना फीस के देख दूंगा। तू सुबह आ जाना।
वह बूढ़ी हंसने लगी। उसने कहा: बेटा, तुझे अपने सामने का कुआं नहीं दिखाई पड़ता, तू मेरा भविष्य कैसे देखेगा? तुझे अपना ही...भविष्य तो छोड़, वर्तमान भी दिखाई नहीं पड़ता। तू पहले रास्ते पर चलना सीख। तू चांदत्तारों पर चलता है!
जिसकी आंखें चांदत्तारों पर लगी हैं, अक्सर हो जाता है कुएं में गिरना। तुम सब भी ऐसे कुएं में ही गिरे हो। आंखें चांदत्तारों पर लगी हैं, यहां देखो तो कैसे देखो! पास देखे तो कौन देखे! तुम्हारे सारे प्राण तो वहां अटके हैं।
और बचपन से ही यह दौड़ शुरू हो जाती है। तुम्हारे चारों तरफ जो लोग हैं, वे सब पागल हैं। वही पागलपन छोटे बच्चों के प्राणों में भी हम डाल देते हैं। छोटा बच्चा सोचता है: बस परीक्षा पास हो जाऊंगा, तो बड़ा सुख होगा। परीक्षा अभी साल भर दूर है, अभी तो दुख उठा रहा है; आशा है कि परीक्षा पास होगा तो सुखी होगा। फिर पहली कक्षा पास हो जाता है; एकाध —दो दिन फूला—फूला सा रहता है, फिर पिचक जाता है। फिर सोचता है: इस साल तो वह बात नहीं घटी, शायद अगले साल घटे; शायद प्राइमरी स्कूल से निकल आऊं, तब सुख हो।
और चारों तरफ लोग हैं कहने वाले। वे कहते हैं: फिकर मत करो, एक दफा पास हो गए, स्कूल से निकल आए तो सुख ही सुख है। फिर कालेज से निकल आए तो सुख ही सुख है। फिर विश्वविद्यालय से निकल आए तो सुख ही सुख है। फिर शादी हो गई तो सुख ही सुख है। फिर बच्चे हो गए तो सुख ही सुख है।
सुख कभी होता नहीं। बस लोग आगे सरकाए जाते हैं। वे कहते हैं: जरा और चले चलो।
सुख ऐसा ही है...जैसा बुद्ध एक बार यात्रा करते थे। राह भटक गए। जंगल था। एक लकड़हारे से पूछा कि गांव कितनी दूर है? उसने कहा: बस पहुंचे जाते, दो मील समझो। दो मील गुजर गए, गांव का कोई पता नहीं। फिर एक घसियारिन से पूछा कि मां, कितनी दूर होगा गांव? उसने कहा: यही कोई दो मील। दो मील फिर निकल गए, लेकिन गांव का कोई पता नहीं। एक लकड़हारे से पूछा कि भाई गांव कितनी दूर होगा? उसने कहा: यही कोई दो मील।
आनंद से न रहा गया। बुद्ध का शिष्य था। उसने कहा कि भगवान, इन लोगों को कुछ होश है? पहला आदमी भी बोला दो मील, दूसरा भी बोला दो मील, यह तीसरा भी बोल रहा है। छह मील तो हम चल ही चुके।
बुद्ध ने कहा: तू यही गनीमत समझ, कि फासला बढ़ नहीं रहा है; दो मील का दो मील ही है। तीन भी हो सकता था, चार भी हो सकता था, छह भी हो सकता था। फिर सोच। ये भले लोग हैं।
ऐसी ही जिंदगी है। इतनी ही गनीमत है कि तुम्हारा और तुम्हारे सुख का फासला उतना ही रहता है जितना पहले दिन था। अंतिम दिन भी उतना ही रहता है—दो मील। बढ़ता नहीं, यही काफी गनीमत है। मगर सुख कभी मिलता नहीं। फिर आदमी जब बिलकुल थक जाता है तो सोचता है: मृत्यु के बाद स्वर्ग में मिलेगा, परलोक में मिलेगा। अगले जनम में मिलेगा; इस जनम में शुभ कर्म कर लिए, अब अगले जनम में सुख मिलेगा।
तुम मूढ़ता छोड़ोगे या नहीं छोड़ोगे? तुम अपनी मूढ़ता को फैलाए ही चले जाते हो। जीवन बीत जाता है, तो तुम मौत के पार रख लेते हो सुख को। मगर सदा आगे! अब यहां जगह भी नहीं है रखने की; आदमी मर रहा है, खाट पर पड़ा है, अब यहां कह भी नहीं सकता कि कल सुख मिलेगा, क्योंकि कल तो यहां होने वाला नहीं। आज का सूरज आखिरी सूरज है, कल सुबह नहीं उगेगा। तो वह कहता है: अगले जनम में मिलेगा। मगर मिलेगा जरूर! लेकर रहूंगा! इधर चूक गए, कोई हर्जा नहीं; कब तक चूकेंगे? कभी तो मिलेगा! इस तरह आदमी अपने सुख को आगे रखता जाता है।
सुख को आगे रखने की प्रक्रिया का नाम—संसार। संसार यह नहीं है जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है फैला हुआ। लोग कहते हैं कि हमने संसार छोड़ दिया।
एक वृद्ध संन्यासी कुछ दिन पहले आए थे। वे बोले कि मैंने बीस साल पहले संसार छोड़ दिया। मैंने उनसे पूछा: आनंदित हैं? उन्होंने कहा: खाक आनंदित! तो मैंने कहा: संसार छूट गया और आनंदित नहीं हैं? फिर कब आनंद होगा? तो संसार छूटा नहीं होगा।
उन्होंने कहा: आप कह क्या रहे हैं? पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, घर—दुकान, सब छोड़ दिया।
यह तो संसार है ही नहीं। इसको पकड़ने से सुख नहीं मिला था, इसको छोड़ने से भी सुख नहीं मिल सकता। पहले सोचते थे पकड़ने से मिलेगा; फिर सोचा कि छोड़ने से मिलेगा—लेकिन सुख सदा आगे रहा। कुछ करने से मिलेगा! बाद में मिलेगा! स्थगित होता रहा। अब ये बीस साल से राह देख रहे हैं कि पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, दुकान छोड़ दी, अभी तक सुख नहीं मिला, अब धीरे—धीरे भीतर नाराज भी हो रहे होंगे परमात्मा पर, कि यह तो हद हो गई, यह तो धोखा हो गया। जो था, वह भी गया। हाथ कुछ आया नहीं। अब धीरे—धीरे नाराज हो रहे होंगे।
इसलिए अगर तुम संन्यासियों को नाराज देखो तो आश्चर्य मत करना। उनकी नाराजगी का कारण है। अगर तुम संन्यासियों को क्रोधी पाओ, तो आश्चर्य मत करना। दुर्वासा होना उनकी नियति है। वे क्रोधित न हों तो क्या करें? संसार, जिसको सोचते थे, वह भी गया; और कुछ बदलाहट नहीं हुई। हाथ, धन इत्यादि से खाली हो गए—और धन से भरे नहीं।
नहीं; न तो पत्नी में संसार है, न पति में संसार है, न धन में, न दुकान में, न बाजार में। संसार है तुम्हारी इस आशा में कि कल सुख मिलेगा। यह संसार का मनोविज्ञान है। यह उसका तत्व—शास्त्र है। सुख कल मिलेगा, यह भ्रांति जिस दिन छूट गई, फिर तुम्हें सुख मिलने से कोई रोक नहीं सकता। सुख तो है ही। चांदत्तारों से नजर वापस लौट आई। आस—पास देखने लगे। जरा इस घड़ी, इसी क्षण टटोलो: सुख नहीं है? यह वृक्षों में सन्नाटा, ये पक्षियों की आवाजें, ये सूरज की तुम पर उतरती किरणें! सुख और क्या है? सुख और क्या होगा? यह शांति, यह मौन, इतने शांत लोगों की मौजूदगी, यह शांति से भरा हुआ सरोवर—क्या सुख नहीं है? और सुख क्या होता है? यह मौन, यह सन्नाटा, यह सन्नाटे का संगीत, यह श्वासों का सरगम, यह हृदय की धड़कन—सब ठहरा है। जैसे ही तुम इस क्षण में जागे, सब ठहरा है। तरंग भी नहीं होती। लहर भी नहीं उठती। और क्या है? इससे ज्यादा की मांग ही गलत है। और जिसने ज्यादा मांगा वह संसार में गिर गया। और जिसने इसको भोगा, वह परमात्मा में उतरने लगा।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: जिसके पास है, उसे और दिया जाएगा। और जिसके पास नहीं है, उससे वह भी ले लिया जाएगा जो उसके पास है।
बड़ा बेबूझ वचन है! अन्याय मालूम पड़ता है कि जिसको है, उसको और दिया जाएगा। और जिसके पास नहीं है, उससे और ले लिया जाएगा। यह तो हद्द हो गई! गरीब को और गरीब बना दोगे, अमीर को और अमीर बना दोगे! मगर यह वचन बड़ा अदभुत है, बड़ा बहुमूल्य है!
इस क्षण का सुख भोगो। इस भोगने में ही तुम पाओगे—और सुख बरसने लगा।
सुख सुख को खींचता है। दुख दुख को खींचता है। एक दुख तुम बनाओ, दस दुख और चले आते हैं। दुख अकेला नहीं आता। सुख भी अकेला नहीं आता। एक कांटा तुम बुलाओ, दस उसके पीछे चले आते हैं। एक सुख तुम उतरने दो, और तुम पाओगे—पंक्तिबद्ध सुख चले आ रहे हैं! सब द्वार—दरवाजों से चले आ रहे हैं। सब दिशाओं से उतरने लगे।
वर्तमान में होना संसार के बाहर हो जाना है। भविष्य में होना संसार में होना है।
तुमने पूछा: "आपने कहा कि संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।'
एक ही बात है। संसार से विमुख हुए यानी तृष्णा गई; यानी संतोष आया। अब और क्या देरी रही? संतोष में ही तो झलक आ जाती है परमात्मा की, सत्य की। शांति में ही तो उसके स्वर उतरने लगते हैं। उतर ही रहे थे।
ऐसा ही समझो कि तुम्हारे घर में आग लगी है। तुम रो रहे हो, चिल्ला रहे हो। और पास में कोई बांसुरी बजा रहा है। तुम्हें बांसुरी सुनाई पड़ेगी? जिसके घर में आग लगी है, उसे बांसुरी सुनाई पड़ेगी? जिसका घर धूं—धूं करके जल रहा है, उसे बांसुरी सुनाई पड़ेगी? लेकिन तभी कोई आया और उसने कहा कि क्यों परेशान होते हो? तुम्हारे बेटे ने तो घर का इंश्योरेंस कर रखा था। बस ये दो शब्द शास्त्र बन गए, आप्त—वचन हो गए। ये दो शब्द...आंसू उड़ गए। घर अब भी जल रहा है, लेकिन अब चिंता न रही और अचानक तुम पाओगे कि बांसुरी के स्वर सुनाई पड़ने लगे। बांसुरी पहले भी बज रही थी, मगर तुम उद्विग्न थे। तुम छाती पीट रहे थे। जिंदगी भर की कमाई मिट्टी में मिल गई। अब क्या होगा! अब कैसे होगा! अब कहां जाऊंगा! तुम्हारे भीतर इतना हाहाकार था! यह आग जो जलती थी, बाहर ही नहीं जलती थी; तुम्हारे भीतर भी जल रही थी, धू—धू करके जल रही थी। कहां बांसुरी! लेकिन किसी ने कहा कि क्यों घबड़ा रहे हो, बेटे ने इंश्योरेंस कर रखा है। कल ही तो किस्त भरी है, पैसे सब मिल जाएंगे। तो शायद जलने का दुख तो दूर हुआ, अब मन में योजना उठने लगेगी कि नया मकान बना लेंगे, पुराने से बेहतर बना लेंगे। इसके द्वार—दरवाजे भी सड़ गए थे, अच्छा ही हुआ कि जल गया। चलो, परमात्मा की कृपा है।
एक शांति आई। अब भीतर कोई आपाधापी नहीं है, चिंताओं का शोरगुल नहीं है। बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ने लगी। बांसुरी पहले भी बज रही थी। बांसुरी बजती ही रही है। अनहत बाजत बांसुरी! कृष्ण की बांसुरी बज ही रही है। वह कभी रुकी नहीं। वह रुकती ही नहीं। वह रुक सकती नहीं। वह शाश्वत है। लेकिन तुम्हारे कान कैसे उसे पकड़ें? तुम्हारे भीतर इतना शोरगुल है! तुम्हारे भीतर बाजार है। बाहर बाजार है, उससे चिंता मत लो। बाहर कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर बाजार है। तुम्हारे भीतर हजार वासनाओं का तुमुल नाद है। तुम्हारे भीतर महाभारत छिड़ा है: यहां जाऊं, वहां जाऊं; यह करूं, वह करूं? इसमें धन लगाऊं, उसमें धन लगाऊं? जिस दिन तुम्हारे भीतर यह तुमुल नाद शांत हो जाएगा, परमात्मा कभी भी कहीं गया नहीं—घेरे तुम्हें खड़ा है। बाहर—भीतर वही है; उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूं: जहां संसार खत्म हुआ वहीं परमात्मा शुरू हो जाता है। बाहर से भीतर की तरफ आ गए तो संसार से परमात्मा की तरफ आ गए। भविष्य से वर्तमान की तरफ आ गए तो संसार से परमात्मा की तरफ आ गए। तृष्णा से, वीतत्तृष्णा में आ गए। असंतोष से संतोष में आ गए।
समझो। करने का बहुत कुछ नहीं है। समझ लेने की बात है। समझ आ जाए तो करना अपने आप इसके पीछे उतर आता है। जब भी अवसर मिले, तभी संतुष्ट होकर बैठ जाओ। संतुष्ट होकर यानी स्वयं में समाहित होकर। समाधान में! न कहीं जाना, न कहीं आना। न कुछ पाने को, न कुछ खोने को। बस वहीं ध्यान, वहीं बज उठेगी बांसुरी।
और जितनी तुम बांसुरी सुनने लगोगे, उतनी ही साफ होने लगेगी; उतने ही स्वर स्पष्ट होने लगेंगे। सुनते—सुनते एक दिन तुम पाओगे कि यह बांसुरी बाहर नहीं बज रही है—यह बांसुरी तुम ही हो। तत्त्वमसि! यह तुम ही हो। परमात्मा तुम्हारे ही प्राणों में नाद उठा रहा है।
समझ की बात है। नासमझी में कुछ कर लोगे तो कुछ भी न होगा। नासमझी में तुम धन छोड़ दो, मकान छोड़ दो, पत्नी छोड़ दो, हिमालय भाग जाओ—करोगे क्या हिमालय में बैठ कर? तुम्हारा मन वहां भी वासनाओं में ही रचा—पचा रहेगा। बैठ कर हिमालय की गुफा में तुम सोचोगे कि अहा, सब छोड़ आया! अब स्वर्ग आने ही वाला है! अब थोड़े ही दिन की बात और है। आते ही होंगे रामजी, पुष्पक विमान पर ले जाएंगे! अप्सराएं तैयार ही हो रही होंगी। स्वर्ग में बंदनवार बांधे जा रहे होंगे कि महात्मा आ रहे हैं!
यही बैठे—बैठे सोचोगे कि कौन सी अप्सरा चुननी है—उर्वशी ठीक रहेगी कि कोई और ठीक रहेगी? और फिर बैठे—बैठे थोड़ी देर में नाराजगी भी आएगी कि रामजी अभी तक नहीं आए; पुष्पक विमान का कुछ पता भी नहीं चल रहा है। कम से कम हनुमानजी को तो भेज ही देते! कोई संदेशवाहक तो आ जाता। इधर हम बैठे—बैठे परेशान हो रहे हैं। और सब छोड़ कर आ गए हैं। घर—द्वार छोड़ा; धन, पत्नी, बच्चे छोड़े—अब और क्या चाहिए!
ऐसे गुस्सा बढ़ेगा। क्रोध भभकेगा। शिकायत उठेगी, प्रार्थना नहीं।
जहां वासना है, वहां शिकायत है। जहां वासना है, वहां प्रार्थना हो भी तो झूठी है।
मैंने सुना है, दिल्ली की घटना है। कुछ लोगों का एक दल मोरारजी भाई—जिंदाबाद, जिंदाबाद चिल्ला रहा था। बड़े जोरों से, बड़ी ताकत से! फिर अचानक मोरारजी भाई—मुर्दाबाद चिल्लाने लगा। वही दल! और उतनी ही ताकत से! इस आकस्मिक परिवर्तन को देख कर पत्रकारों ने उधर रुख किया और पूछा कि भाई, माजरा क्या है? अभी जिंदाबाद, अभी मुर्दाबाद!
उन लोगों ने कहा कि हमें जिंदाबाद चिल्लाने के लिए सिर्फ आधे घंटे के पैसे दिए गए थे; और अब इकतीस मिनट हो गए हैं।
तुम्हारी प्रार्थनाएं, तुम्हारी स्तुतियां, तुम्हारी पूजा—अगर उनके पीछे कुछ वासना है, कुछ मिलने का लोभ है—ज्यादा देर टिकने वाली नहीं। तीस मिनट पूरे हो जाएंगे, फिर? फिर तुम टूट पड़ोगे। क्योंकि जहां वासना है, वहां क्रोध है। क्योंकि जहां काम है, वहां क्रोध है। क्रोध काम की छाया है।
प्रार्थना और वासना का फर्क यही है। प्रार्थना का अर्थ होता है: जो दिया है, इतना है कि धन्यवाद मेरा ले। वासना का अर्थ होता है: जो दिया है, यह कुछ भी नहीं है। मेरी योग्यता के योग्य ही नहीं है। कहां मैं पात्र आदमी, और क्या मुझे दिया है! अन्याय हो रहा है। सुध ले मेरी! बहुत हो चुका। सुनते थे कि तेरे द्वार पर देर है, अंधेर नहीं। देर भी हो गई, अब अंधेर भी हुआ जा रहा है।
जहां वासना है, जहां मांग है—वहां क्रोध खड़ा ही है, तत्पर है। क्योंकि वासना का मतलब यह है कि मुझे कुछ मिले; जब तक मिलता रहे तब तक ठीक।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था, एक यहूदी कहानी। दो यहूदी मित्र, दोनों ने धंधा शुरू किया। एक तो गरीब ही था बीस साल के बाद। दूसरा बहुत अमीर हो गया था। कभी—कभी अमीर मित्र गरीब के द्वार पर आकर रुकता था। एक सांझ आकर रुका। रविवार है। उसने अपनी केडिलक गाड़ी आकर रोकी मित्र के द्वार पर। अंदर आया। उसके कपड़े शानदार। इत्र की खुशबू। मित्र की दुकान तो हालत खस्ता। आधी दुकान तो खाली सी पड़ी। अलमारियों में भी कुछ नहीं, धूल जमी।
धनी मित्र ने कहा कि भई, बात क्या है? हम दोनों ने एक सा ही काम शुरू किया था और एक सी पूंजी से काम शुरू किया था। मेरी हालत देख—धन है कि बढ़ता चला जाता है। तू गरीब क्यों हुआ चला जाता है?
उस गरीब मित्र ने कहा कि जो कुछ मैं कर सकता हूं, करता हूं। आप ही बताओ राज क्या है? तुम्हारी सफलता का राज क्या है?
तो धनी मित्र ने कहा कि मेरी सफलता का राज यह है कि जिस दिन मैंने धंधा शुरू किया, मैंने परमात्मा की याद से शुरू किया। मैंने उसको साझीदार बना लिया है। मैं अकेला नहीं हूं; उसको साझीदार बना लिया है। और दस रुपये महीने चर्च को भी देता हूं। और हर साल एक दिन उपवास भी करता हूं। इसी से सब ठीक चल रहा है। परमात्मा की कृपा है। उसको साझीदार बना लिया; अब उसकी ही इज्जत का सवाल है। मेरी हार, उसकी हार; मेरी जीत, उसकी जीत।
गरीब चुप रहा। सोचने जरूर लगा कि यह कैसा मामला हुआ। यद्यपि उसने जब दुकान शुरू की थी तो परमात्मा को याद करके शुरू की थी, लेकिन परमात्मा को साझीदार नहीं बनाया था। क्योंकि बात ही बेहूदी है। हम तो पड़े ही हैं कीचड़ में, उसे भी कीचड़ में खींचें! प्रार्थना यह की थी कि मुझे कीचड़ से निकालना; मगर सोचा कि यह कुछ समझ में नहीं आया। और जितना भी कमाता था, उसमें से आधा पैसा तो गरीबों को जाता, अस्पताल को देता, चर्च को देता, मंदिरों को देता, जहां जरूरत होती वहां देता। इसलिए गरीब भी रह गया था। हर महीने उपवास भी करता। हर रोज जाकर पूजागृह में पूजा भी करता। सोचने लगा कि यह खूब हुआ कि एक आदमी कहता है कि एक दिन उपवास करता है साल में और दस रुपये महीने दान भी करता है—और लाखों कमा रहा है! और कहता है मैंने परमात्मा को भागीदार बना लिया है।
वह हंसा, मुस्कुराया। कहा कि जैसी तेरी मर्जी, जरूर इसमें ही मेरा हित होगा, नहीं तो तू मुझे गरीब रखता? इसमें ही मेरा हित होगा। धन्यवाद।
उस रात भी हृदयपूर्वक उसने प्रार्थना की। दूसरे दिन, हैरानी की बात, संयोग की बात, अमीर का मकान जल गया, उसमें आग लग गई, दुकान जल गई। सब राख हो गया। तो इस गरीब ने उसे पत्र लिखा कि मेरी कोई सामर्थ्य तो नहीं है कि तुम्हें साथ दूं, लेकिन जो भी मेरे पास है, उसमें से आधा तुम ले लो। फिर काम शुरू कर दो। और भगवान तुम्हारे साथ है, तो जल्दी ही सब फिर ठीक हो जाएगा।
अमीर ने उत्तर में सिर्फ इतना ही लिखा: कोई भगवान नहीं। सब धोखा है। मैंने इतना भरोसा किया और वक्त पर दगा दे गया। कोई भगवान नहीं। ईश्वर इत्यादि सब बकवास है।
यह अंतरतम बात है। वह जो साझीदार इत्यादि बनाया था, वह सब ऊपर—ऊपर था। सफलता मिल रही थी तो ठीक था; असफलता आई तो कठिन हो गया।
कामी भी परमात्मा को याद करता है, लेकिन उसकी याद झूठी है, वह याद कर ही नहीं सकता। उसके पास ओंठ नहीं, जिनसे प्रार्थना हो सके। उसके पास प्राण नहीं, जिनसे प्रार्थना हो सके। प्राण तो उसी के पास होते हैं, ओंठ तो उसी के पास होते हैं, जिसने एक सत्य जीवन का समझ लिया कि काम, कामना कहीं नहीं ले जाती, सिर्फ भटकाती है—अरण्य में भटकाती है। अरण्यरोदन है कामना।
जिसको ऐसी प्रतीति हो गई, प्रगाढ़ प्रतीति हो गई...और खयाल रखना, मेरे कहने से तुम्हें प्रतीति नहीं हो जाएगी, न बुद्ध के कहने से प्रतीति होगी। तुम्हारा ही जीवन—अनुभव तुम्हें प्रतीति करवाएगा। अपने ही जीवन के अनुभव में तलाशो। तुम परमात्मा को खोजने शास्त्र में जाते हो, वहीं भूल हो जाती है। परमात्मा यहीं सब तरफ पड़ा है। अपने जीवन में ही खोजो। अपने ही जीवन के अनुभव में उलटो, पलटो। अपने ही जीवन का विश्लेषण करो। तुम्हारे जीवन भर की कथा अगर एक बात कहती है तो यही, कि दौड़ने से कहां पहुंचे, कि दौड़ने से क्या मिला! अब जरा बैठ कर देखो! उस बैठने का नाम: ध्यान। उस बैठने का नाम: संतोष। उस बैठने का नाम: प्रार्थना। अब जरा बैठ कर देखो! अब जरा चुप होओ, सन्नाटे में उतरो।
जिस क्षण भी तुम्हारे भीतर कोई भाग—दौड़ न होगी, कोई ताना—बाना न बुना जा रहा होगा वासना का—एक क्षण को ही सही, ऐसा हो जाए—उसी क्षण तुम पाओगे: हवा के झोंके की तरह परमात्मा तुममें प्रवेश कर गया। कर गया ताजा। उड़ा गया सब धूल। कर गया कंचन अपने स्पर्श से।

दूसरा प्रश्न: आपने कहा—गदगद हो जाओ, रसविभोर हो जाओ, तल्लीन हो जाओ और जीवन को उत्सव ही उत्सव बना लो।
लेकिन यह सब हो कैसे? मुझे तो यह मालूम ही नहीं कि रस क्या है, उत्सव क्या है, तल्लीनता क्या है, गदगद होना क्या है। बड़ा निष्क्रिय सा महसूस करता हूं। कुछ करने का भाव नहीं उठता। और अपने आप होश में कभी हुआ नहीं। बड़ी उलझन में हूं। समझाएं, कृपा करें!

नीरस हो, निष्क्रिय हो, रस से कोई अनुभव नहीं हुआ—तो तुम्हारी बात मैं समझता हूं कि कैसे गदगद हो जाओगे! तो तुमसे मैंने यह कहा भी नहीं। यह उनसे कहा है, जो गदगद हो सकते हैं। तुमसे तो मैं यह कहूंगा: भरपूर नीरस हो जाओ। जो हो, वही हो जाओ। मरुस्थल हो, तो मरुस्थल ही हो जाओ। पूरी तरह हो जाओ! उससे अन्यथा होने की चेष्टा में ही भूल हो जाएगी।
अब तुम कहते हो: "मैं नीरस हूं।' और मुझे सुना, कि रस से भर जाओ, डूब जाओ, ब्रज बन जाओ, उतर आए प्रभु का रस तुममें! अब तुम्हारे भीतर वासना उठेगी। तुम कहोगे: मैं नीरस हूं, होना है रसपूर्ण। इधर मैं जानता नहीं कि क्या है आनंद—और होना है आनंदपूर्ण। अब तुम यह शब्द से अटकोगे। यह शब्द तुम्हारा भविष्य बन जाएगा। वासना पैदा होगी। और जो वासना से भरा, वह कभी गदगद नहीं हो पाएगा। तो तुम अड़चन में मत पड़ जाना। ऐसी अड़चन बहुत होती है।
अब यहां बहुत तरह के लोग हैं। मैं बहुत तरह के लोगों से बात कर रहा हूं। इतना समझ लेना कि गदगद हो जाओ, यह मैंने तुमसे नहीं कहा। तुमसे तो कह भी कैसे सकता हूं! और तुम अगर अपनी इस नीरसता में किसी तरह जबरदस्ती हिलने—डोलने लगे, तो वह झूठी होगी। यह मरुस्थल, जो तुमने अपने भीतर बना रखा है, अगर सोचने लगे कि फूल खिलाने हैं, गुलाब के फूल खिलाने हैं—कैसे खिलाएगा? हां, आंख बंद करके कल्पना कर सकते हो गुलाब के फूलों की। वे कभी खिलेंगे नहीं। रहेगा तो मरुस्थल ही।
तो तुम इस झूठ में मत पड़ जाना। यह वचन तुम्हारे लिए नहीं कहा गया है। यह उनके लिए कहा गया है, जिनके भीतर इस बात की संभावना आ गई है कि गदगद हो सकते हैं।
यहां सारे लोग एक ही जगह नहीं हैं—अलग—अलग स्थानों पर हैं; अलग—अलग सीढ़ी के सोपानों पर हैं। कोई मूलाधार पर खड़ा है। कोई अनाहत तक पहुंच गया है। किसी ने विशुद्धि को छू लिया है। कोई आज्ञा के करीब आ रहा है। और किसी का सहस्रार खुलने के निकट है। यहां बहुत तरह के लोग हैं।
तुम जहां हो वहीं से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। अब तुम बैठे मूलाधार में और सहस्रार की कल्पना करोगे, तो सब झूठ हो जाएगा।
फिर इसमें दुखी होने का भी कोई कारण नहीं है, क्योंकि जो जहां है वहीं से ही यात्रा शुरू हो सकती है। इसमें चिंतित भी मत हो जाना कि अरे, दूसरे मुझसे आगे हैं, और मैं पीछे हूं! दूसरों से तुलना में भी मत पड़ना। नहीं तो और दुखी हो जाओगे। सदा अपनी स्थिति को समझो। और अपनी स्थिति के विपरीत स्थिति को पाने की आकांक्षा मत करो। अपनी स्थिति से राजी हो जाओ।
तुमसे मैं कहना चाहता हूं: तुम अपनी नीरसता से राजी हो जाओ। तुम इससे बाहर निकलने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम इसमें आसन जमा कर बैठ जाओ। तुम कहो: मैं नीरस हूं, मैं नीरस हूं। तो मेरे भीतर फूल नहीं खिलेंगे, नहीं खिलेंगे। तो मेरे भीतर मरुस्थल होगा; मरूद्यान नहीं होगा, नहीं होगा।
मरुस्थल का भी अपना सौंदर्य है। मरुस्थल देखा है! मरुस्थल का भी अपना सौंदर्य है। मरुस्थल का भी अपना सन्नाटा है। मरुस्थल की भी फैली दूर—दूर तक अनंत सीमाएं हैं—अपूर्व सौंदर्य को अपने में छिपाए हैं। मरुस्थल होने में कुछ बुराई नहीं।
परमात्मा ने तुम्हारे भीतर अगर स्वयं को मरुस्थल होना चाहा है, बनाना चाहा है, तुम उसे स्वीकार कर लो। तुम्हें मेरी बात कठोर लगेगी, क्योंकि तुम चाहते हो जल्दी से गदगद हो जाओ। तुम चाहते हो कोई कुंजी दे दो, कोई सूत्र हाथ पकड़ा दो कि मैं भी रसपूर्ण हो जाऊं। लेकिन हो तुम विरस। तुम्हारी विरसता से रस की आकांक्षा पैदा होती है। आकांक्षा से द्वंद्व पैदा होता है। द्वंद्व से तुम और विरस हो जाओगे। तो मैं तुम्हें कुंजी ही दे रहा हूं। हालांकि तुम्हें कुंजी बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी। मैं तुमसे कह रहा हूं: तुम विरस हो, तो तुम विरस में डूब जाओ। तुम यही हो जाओ। तुम कहो: परमात्मा ने मुझे मरुस्थल बनाया तो मैं अहोभागी कि मुझे मरुस्थल की तरह चुना है। तुम इसी में राजी हो जाओ। तुम भूलो गीत—गान। तुम भूलो गदगद होना। तुम छोड़ो ये सब बातें। तुम बिलकुल शुष्क हो रहो। तुम जरा भी चेष्टा मत करो, नहीं तो पाखंड होगा। ऊपर—ऊपर मुस्कुराओगे और भीतर—भीतर मरुस्थल होगा। ऊपर से फूल चिपका लोगे, भीतर कांटे होंगे। तुम ऊपर से चिपकाना ही भूल जाओ। तुम तो जो भीतर हो, वही बाहर भी हो जाओ। और तुमसे मैं कहता हूं: तब क्रांति घटेगी। अगर तुम अपने मरुस्थल होने से संतुष्ट हो जाओ, तो अचानक तुम पाओगे: मरुस्थल कहां खो गया, पता न चलेगा। अचानक तुम आंख खोलोगे, पाओगे कि हजार—हजार फूल खिले हैं। मरुस्थल तो खो गया, मरूद्यान हो गया!
संतोष मरूद्यान है। असंतोष मरुस्थल है। और तुम जब तक अपने मरुस्थल से असंतुष्ट रहोगे, मरुस्थल पैदा होता रहेगा। क्योंकि हर असंतोष नये मरुस्थल बनाता है।
तुम्हें मेरी बात समझ में आई? बात उलटी है, लेकिन खयाल में आ जाए, तो कीमिया छिपी है उसमें। तुम जैसे हो, उससे अन्यथा होने की चेष्टा न करो। आंख में आंसू नहीं आते, क्या जरूरत है? सूखी हैं आंखें, सूखी भली। सूखी आंखों का भी मजा है। आंसू—भरी आंखों का भी मजा है। और परमात्मा को सब तरह की आंखें चाहिए, क्योंकि परमात्मा वैविध्य में प्रकट होता है।
तुम जैसे हो, बस वैसे ही संतुष्ट हो जाओ। और एक दिन तुम अचानक पाओगे कि सब बदल गया, सब रूपांतरित हो गया—जादू की तरह रूपांतरित हो गया!
आपने कहा: "गदगद हो जाओ, रसविभोर हो जाओ, तल्लीन हो जाओ और जीवन को उत्सव ही उत्सव बना लो।'
ये सब शब्द तुम्हारे लिए झूठे हैं। तुम्हारे लिए कहे भी नहीं गए हैं।
"लेकिन यह सब हो कैसे?'
कृपा करके इसको करने की कोशिश भी मत करना, नहीं तो यह कभी नहीं होगा। ये कुछ बातें ऐसी हैं जो करने से होती नहीं।
यह मामला कुछ ऐसा है, जैसे रात नींद न आती हो और तुम पूछो कि कैसे सो जाऊं? आप कहते हैं, मस्ती से सो जाओ, सोओ आनंद में, खींच लो चादर, सपने देखो प्यारे! आप तो कहते हैं, मगर नींद ही नहीं आ रही। सपने कहां से देखूं? चादर भी खींच लेता हूं तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। भीतर जगा पड़ा हूं। आप कहते हैं: भीतर की सुषुप्ति में डुबकी मारो। मुझे सिर्फ मच्छरों का संगीत सुनाई पड़ता है। और घबड़ाहट लगती है। और सब सो रहे हैं। और मैं अकेला जागा हूं। और देखता हूं, आज की रात भी ऐसे ही बीत जाएगी।
तुम्हें विधियां देने वाले लोग भी हैं। कोई कहेगा: ऐसा करो, भेड़ें गिनो। गिनते जाओ—एक से लेकर सौ तक। फिर उलटी गिनो—फिर सौ से उलटो एक तक; फिर एक से सौ तक। ऐसा चढ़ो सीढ़ी नीचे—ऊपर। कोई कहेगा: राम—राम, राम—राम जपो। कोई कहेगा: माला हाथ में ले लो, माला फेरो। कोई और तरकीबें बताएगा। लेकिन ये तरकीबें काम नहीं करेंगी। क्यों नहीं काम करेंगी, क्योंकि इनका मौलिक विरोध है निद्रा से। निद्रा आती तब है, जब तुम कुछ भी नहीं करते। न करने की अवस्था में निद्रा उतरती है। तुमने कुछ भी किया कि नींद में बाधा पड़ गई। अब तुम राम—राम ही जप रहे, अब ये राम ही बाधा बनेंगे। अब नींद आए भी तो कैसे, ये रामजी तो बीच में खड़े हैं! नींद बड़ी संकोची है! बड़ी परोक्ष है। नींद आएगी नहीं। तुम राम—राम जपोगे, जितनी त्वरा से जपोगे, उतने ही जाग जाओगे। उतना ही तुम पाओगे: नींद और खो गई। कुछ—कुछ झपकी आती थी, वह भी गई। भेड़ें गिनोगे, तो गिनती करने में खयाल रखना पड़ेगा कि सत्तानबे के बाद अट्ठानबे आता है, अट्ठानबे के बाद निन्यानबे आता है। उतना ही खयाल निद्रा में बाधा बन जाएगा, कि अब पीछे लौटना है, अब आगे जाना है।
मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ने कहा कि नींद नहीं आती तो तुम भेड़ें क्यों नहीं गिनते? तो उसने कहा: अच्छा गिनेंगे। दूसरे सुबह तो वह लकड़ी लेकर उस आदमी के घर पहुंच गया। दरवाजे पर लकड़ी मारी। कहा: कहां है वह आदमी? रात भर मर गए गिनते—गिनते। तीन करोड़ तक पहुंच गए। और फिर घबड़ाहट आई कि इतनी भेड़ें, अब इनका करना क्या! अब इनको रखो तो रखो कहां! फिर सोचा कि अभी तो रात बाकी है, तो चलो इनका ऊन ही उतार लो। तो ऊन उतार डाला। अब? अब ऊन को कहां रखो? तो सोचा चलो कपड़े बनवा दो। अब कपड़े बन गए, बेचो कहां? वह आदमी कहां है?
और इस तरह के सुझाव—मुल्ला ने कहा—किसी और को मत देना। रात खराब हो गई। वैसे तो चार—छह घंटे में नींद आ जाती थी।
तुम जब गिनती करोगे, तो स्वभावतः गिनती तो क्रिया है, मन सक्रिय होगा। सक्रियता में उलझे रहोगे।
कोई विधि काम नहीं आती, जब नींद न आती हो। लेकिन फिर भी एक विधि है जिसको विधि कहना ठीक नहीं है। वह विधि है: कुछ मत करो, पड़े रह जाओ। स्वीकार कर लो कि नींद नहीं आती तो नहीं आती। आज परमात्मा की इच्छा सोने की नहीं है मेरे भीतर, तो जागा रहे। तेरी मर्जी! पड़े रहो। नींद की सोचो ही मत। नींद से लड़ने का उपाय भी मत बनाओ। और तुम अचानक पाओगे: कब नींद आ गई, पता भी न चला! क्योंकि इस निष्क्रिय दशा में ही नींद आती है।
और ऐसा ही जीवन का गणित है। तुम नीरस हो, नीरस रहो। राजी हो जाओ। सभी रस से भर जाएंगे तो वैविध्य खो जाएगा। जीवन बड़ा ऊब से भर जाएगा। एकरसता हो जाएगी।
इसलिए तो परमात्मा दो आदमी एक जैसे नहीं बनाता। माना कि गुलाब का सौंदर्य है, कैक्टस में भी सौंदर्य है। कांटों ही कांटों का सौंदर्य है। तुम नाहक की बिगूचन सिर मत लो।
मेरी सलाह तुमसे यही है: तुम नीरस हो, अब तुम यह रस की बात ही मत सुनो। तुम नीरस को ही अपना रस बना लो। नीरसता को ही अपना रस बना लो। चलो यही ठीक! मरुस्थल राजी हैं, ऐसे तुम भी राजी हो जाओ। उसी राजीपन में संतोष की वर्षा होगी। उसी वर्षा में मरुस्थल में पौधे उगेंगे, फूल खिलेंगे, हरियाली फैल जाएगी!

तीसरा प्रश्न: मनुष्य के जीवन में इतना द्वंद्व क्यों है?

द्वंद्व है क्योंकि मनुष्य मध्य है—यात्रा है, सेतु है। मनुष्य अभी जैसा होना चाहिए, जो होना चाहिए, वैसा नहीं है—विडंबना में है। एक तरफ पशुओं का जगत है और एक तरफ परमात्मा का; और बीच में अटका हुआ मनुष्य है—न यहां का, न वहां का। अगर वासनाओं की सुने, तो पशुओं में खींच ले जाती हैं वासनाएं। अगर विवेक की सुने तो परमात्मा की तरफ उठाता है विवेक।
और दोनों मनुष्य के भीतर हैं—विवेक और वासना। वासना पीछे की तरफ खींचती है; विवेक आगे की तरफ खींचता है। खिंचा हुआ मनुष्य द्वंद्व से भर जाता है। सूझ नहीं पड़ता: पीछे जाऊं, आगे जाऊं? आगे जाता है तो जो हिस्सा पीछे जाना चाहता है, वह अड़चन डालता है। पीछे जाता है तो जो हिस्सा आगे जाना चाहता है, वह अड़चन डालता है।
शराब पीने जाओ तो तुम्हारे भीतर कोई हिस्सा है जो प्रसन्न होता है। तुम्हारी मूर्च्छा, तुम्हारा प्रमाद प्रसन्न होता है। लेकिन तुम्हारा विवेक, तुम्हारी चेतना दुखी होती है। ध्यान करने जाओ तो चेतना प्रसन्न होती है, विवेक प्रसन्न होता है, लेकिन वासना दुखी होती है। वासना कहती है: क्या समय खराब कर रहे हो? कुछ और नहीं सूझता? क्या बैठे मंदिर में? यहां रखा क्या है? अरे उठो, इतनी देर में कुछ कमा ही लेते! बाजार चलो, दुकान खोलो! दूसरों ने दुकान खोल ली और तुम यहां मंदिर में बैठे! ऐसे बुद्धूपन से कुछ लाभ न होगा, वासना कहती है।
तुम जब मंदिर में बैठते हो, तब तुमने वासना की आवाज सुनी? वासना निरंतर कहती है: जल्दी करो, निपटा लो। चलो कोई बात नहीं। आ गए जल्दी कर लो। मंत्र इतने धीरे—धीरे क्यों जप रहे हो?
तुमने देखा नहीं, जब जल्दी होती है तुम जल्दी मंत्र जप लेते हो! जब सुविधा होती है, तुम आराम से जपते रहते हो। तुम हिसाब जमा लेते हो। कभी—कभी यूं सिर पटका और भागे। सिर लग भी नहीं पाता और तुम भाग गए। मंदिर में जब भी बैठते हो, तब वासना बड़े तूफान उठाती है, सपने जगाती है। कहती है: यह घंटा भर व्यर्थ गया। इतने में तो कुछ कमा लेते। इतने में कुछ गपशप ही कर लेते; कि नई फिल्म लगी है, वही देख आते; मित्रों से मिल लेते; कि आज गांव में कव्वाली हो रही है, कव्वाली सुन लेते; कि वेश्या का नृत्य हो रहा है। यहां बैठे क्या कर रहे हो?
तुमने कहानी सुनी? एक वेश्या मरी और उसी दिन उसके सामने रहने वाला एक बूढ़ा संन्यासी मरा। साथ ही साथ मरे। संयोग की बात। देवता लेने आए तो संन्यासी को नरक ले जाने लगे और वेश्या को स्वर्ग ले जाने लगे। संन्यासी तो बहुत नाराज हुआ, एकदम अपना डंडा पटक कर खड़ा हो गया, उसने कहा: तुम यह कर क्या रहे हो? दंडीधारी संन्यासी रहा होगा। उसने कहा: सिर खोल दूंगा। संन्यासी को नरक ले जा रहे हो, वेश्या को स्वर्ग ले जा रहे हो! मेरी आंखों के सामने अन्याय हो रहा है। जरूर कुछ भूल हो गई है। दफ्तर की गलती है। मेरे नाम आया होगा संदेशा स्वर्ग का और तुम गलती से इसको ले जा रहे हो। फिर पीछे पछताओगे। तुम पूछताछ कर लो।
संन्यासी की अकड़ और डंडा देख कर देवता भी डरे। कहा कि भाई पूछ लेते हैं। पूछ कर आए, लेकिन पता चला कि कोई भूल—चूक नहीं है, ऐसा ही है। तो संन्यासी ने कहा: इसके पहले कि मुझे नरक ले जाया जाए, मैं परमात्मा का सामना कर लेना चाहता हूं। दो—दो बातें हो जाएं। जिंदगी गुजर गई उसी की याद करते—और यह परिणाम! और यह वेश्या नाचती और शराब पीती और भोग में पड़ी रही—और यह परिणाम! अगर यह हो रहा है तो तुम्हारे सब शास्त्र झूठे हैं। और मुझे नाहक धोखे में डाला। और न मालूम कितने और लोग धोखे में पड़े हैं; उनको चेताना जरूरी है। तुम मुझे परमात्मा के सामने ले चलो।
ले जाया गया। परमात्मा ने कहा: कारण है। वेश्या यद्यपि शराब भी पीती थी, पिलाती भी थी, भोगी भी थी, भोग में ही रहती थी; लेकिन जब भी तुम अपने पूजागृह में बैठ कर भगवान के लिए, मेरे लिए घंटियां बजाते थे, धूप—दीप जलाते थे, भजन गाते थे—तो रोती थी। सोचती थी कि कब मेरे जीवन में यह सौभाग्य होगा! कब मैं भी पूजागृह में प्रवेश कर पाऊंगी! यह जीवन तो गया। और न मालूम कितने जीवन गए! और न मालूम कितने जीवन जाएंगे! मैं अभागी! रोती थी, ज़ार—ज़ार रोती थी। तुम्हारे पूजागृह की धूप जब उठ कर; उसकी सुगंध जब इसके घर पहुंच जाती थी, तो यह अपने नासापुटों में भर लेती थी; अपना अहोभाग्य मानती थी कि इतना भी क्या कम सौभाग्य है कि एक परम महात्मा के पास रहने का अवसर मिला है! रोज कम से कम मेरे कान में प्रभु का नाम तो पड़ जाता है! चाहूं न चाहूं, याद करूं न करूं, रोज तुम्हारे मंदिर में बजती हुई घंटी की आवाज सुन कर मगन हो जाती थी।
और एक तुम थे कि तुम यद्यपि घंटियां बजाते थे और धूप—दीप भी जलाते थे, लेकिन तुम्हारे मन में यही लगा रहता था कि वेश्या है तो सुंदर! तुम्हारे मन में इरादे तो यही बने रहते थे कि किसी रात मौका मिल जाए तो घुस जाओ। जा नहीं पाए, क्योंकि हिम्मत नहीं जुटा पाए। तुम्हारी प्रतिष्ठा आड़े आई—गांव भर के लोग तुम्हें संन्यासी और महात्मा मानते थे।
और जब कोई किसी को महात्मा मानता है, तो गांव भर के लोग पहरा भी देते हैं कि यह महात्मा हैं, जरा खयाल रखना। महात्मा पर तो लोग पहरा देते हैं। महात्मा को देखते रहते हैं: क्या कर रहे, क्या नहीं कर रहे?
तो तुम्हारी इतनी हिम्मत न थी कि तुम अपनी प्रतिष्ठा तोड़ कर इसके पास चले जाओ। मगर तुम्हारे मन में वासना जगती थी। और जब इस वेश्या के घर में नाच होता था और शराब ढाली जाती थी तो तुम रोते थे कि मैं अकारथ, मेरा जीवन अकारथ गया। हे प्रभु! मुझे क्यों महात्मा बना दिया? मुझे क्यों फंसा दिया? दुनिया में इतना रस है, इतना आनंद बह रहा है! यहां सामने ही लोग मस्त हो रहे हैं। इधर एक मैं बैठा अपनी माला फेर रहा। मैं अभागा!
इसलिए यह वेश्या स्वर्ग ले आई गई है; क्योंकि रहती तो वासना में थी, लेकिन विवेक इसे पुकारता रहा, प्रार्थना इसे पुकारती रही। थी तो कीचड़ में, लेकिन कीचड़ से कमल की तरह ऊपर उठती रही। एक तुम थे कि तुम बने तो कमल थे, लेकिन पड़े कीचड़ में रहे। और असली सवाल यह नहीं है कि बाहर से तुम क्या थे—असली सवाल यह है कि भीतर से तुम क्या थे? भीतर ही निर्णायक है।
मनुष्य में द्वंद्व है, क्योंकि मनुष्य में दो तत्व हैं—प्रकृति और परमात्मा। क्योंकि मनुष्य में दो जगतों का मेल है—शरीर और आत्मा। अदृश्य और दृश्य का मिलन हो रहा है मनुष्य में। मनुष्य सीमा पर खड़ा है। एक तरफ प्रकृति खींचती है, एक तरफ परमात्मा बुलाता है। मनुष्य के लिए बड़ी चुनौती है। मनुष्य अगर सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा होता, तो कोई द्वंद्व न था।
इसलिए परम अवस्था में, बुद्धत्व की अवस्था में, द्वंद्व मिट जाता है; क्योंकि मनुष्य परमात्मा ही परमात्मा हो जाता है। और निम्नतम अवस्था में भी द्वंद्व मिट जाता है; क्योंकि मनुष्य प्रकृति ही प्रकृति रह जाता है। जहां एक बचता है, वहीं द्वंद्व मिट जाता है।
इसलिए दुनिया के सारे उपदेशक—और दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं सारे उपदेशक—एक चार्वाक, जो कहता है: कोई परमात्मा नहीं, कोई विवेक नहीं, कोई प्रार्थना नहीं। डूबे रहो प्रकृति में। ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत। ऋण लेकर भी घी पीना पड़े तो पीओ, कोई चिंता की बात नहीं, क्योंकि मरने के बाद न कोई बचता है; न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। न मरने के बाद कोई लेना है, न देना है; न कोई ऋण है, न कोई भुगतान है। ऋण लेकर भी पीना पड़े तो घी पीओ—मगर घी पीओ! आदमी सिर्फ शरीर है।
यह भी अद्वैतवाद है—यह निम्नतम अद्वैतवाद है। देह के तल पर अद्वैतवाद। खयाल रखना, यह भी अद्वैतवाद है। यह कहता है: सिर्फ शरीर है, और कुछ भी नहीं। दूसरा है ही नहीं। फिर एक दूसरा आत्मा के तल पर अद्वैतवाद है। शंकर हैं, बुद्ध हैं। वे कहते हैं: सिर्फ आत्मा है, देह तो भ्रांति है। सिर्फ आत्मा की सुनो, आत्मा की गुनो। उसी में रमो।
ये दो उपाय हैं शांत होने के। या तो शरीर के साथ एकरस हो जाओ, तो शांति मिलती है; लेकिन मूर्च्छित शांति होगी, जैसे गहरी नींद में होती है, सपना भी नहीं बचता। गहरी नींद में पड़ गए, तो मौत जैसी हो जाती है; तुम तो बचते ही कहां! सुबह उठ कर कहते हो कि अच्छी नींद आई, लेकिन नींद में तो पता भी नहीं चलता। मूर्च्छा है।
चार्वाक जिस सुख की बात करता है, वह मूर्च्छित सुख है। और फिर एक और सुख है—समाधि का—जब तुम परिपूर्ण जाग्रत हो गए; जब तुम्हारा अंतरतम आलोक से भर गया; जब विवेक जीत गया; वासना विजित हो गई, विवेक विजेता हो गया; जब तुम्हारे भीतर चैतन्य का प्रादुर्भाव हुआ, तुम चैतन्य ही चैतन्य हो गए। तब द्वंद्व खो जाता है।
तो या तो द्वंद्व खोता है नास्तिक का, या आस्तिक का। और तुम्हारी कठिनाई यह है कि न तो तुम आस्तिक हो, न तुम नास्तिक हो; तुम बीच में खड़े हो। घर के न घाट के—धोबी के गधे हो! तुम्हारी तकलीफ यही है। तुम न तो असली नास्तिक हो, न तो तुम में इतनी हिम्मत है कि कह सको कि परमात्मा नहीं है। और जब तुममें इतनी ही हिम्मत नहीं कि तुम कह सको परमात्मा नहीं है, तो उतनी हिम्मत तो तुम में कहां से होगी कि तुम कह सको कि परमात्मा है। वह तो बहुत बड़ी हिम्मत की बात है। तुम तो अभी नास्तिक होने में भी हिम्मत नहीं जुटा पाते, आस्तिक कैसे हो सकोगे! अभी तो निम्नतम अद्वैत भी संभव नहीं है, तो श्रेष्ठतम अद्वैत कैसे संभव होगा! अभी मूलाधार पर भी तुम अद्वैत नहीं साध पाते, तो सहस्रार का अद्वैत तो तुम कैसे साध पाओगे! इसलिए द्वंद्व है। इसलिए तनाव है। इसलिए बड़ी रस्साकसी है। इसलिए आदमी महाभारत है। एक तरफ नीचे का गुरुत्वाकर्षण है और एक तरफ ऊपर की पुकार है।
अब इस द्वंद्व में क्या करोगे? नीचे गिर भी जाओ, कई बार गिर ही जाते हो...वही तो होता है कामवासना में, शराब में, संगीत में, सिनेमा में—थोड़ी देर को भूल गए सब चिंता, विवेक खो गया, थोड़ी देर को मूर्च्छित हो लिए। अच्छा लगता है। लेकिन बड़ी कीमत पर अच्छा लग रहा है। फिर लौटना पड़ेगा। चेतना फिर आएगी। क्योंकि मूर्च्छित तुम ज्यादा देर नहीं रह सकते। एक बार आदमी चैतन्य हो गया तो ज्यादा देर मूर्च्छित नहीं रह सकता, क्योंकि पीछे लौटने का उपाय है ही नहीं। यहां आगे ही जाने का उपाय है। गति सिर्फ आगे की तरफ है, पीछे की तरफ कोई गति नहीं है। तुमने जो जान लिया, जान लिया; अब उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। थोड़ी—बहुत देर को भुला सकते हो शराब पीकर, मगर शराब कितनी देर टिकेगी? नशा उतरेगा, तुम लौटोगे। और तब तुम पाओगे, तुम और भी दुखी हो गए—पहले से भी ज्यादा दुखी हो गए। वह थोड़ी देर का भुलाना महंगा पड़ा। अब जिंदगी और भी बेचैनी से भर गई, और तनाव से भर गई। और पीओ शराब...शराब...तुम और टूटते चले जाओगे।
खयाल रखना, जो बच्चा जवान हो गया, अब बच्चा नहीं हो सकता। अब वह लाख उपाय करे, फिर से अपने खिलौनों को छाती से लगा कर बैठ जाए, तो भी बच्चा नहीं हो सकता। फिर अपनी मां का आंचल पकड़ कर घूमने लगे, तो भी बच्चा नहीं हो सकता। कितना ही अपने को समझाए—बुझाए, कितने ही बीते दिन की याददाश्त करे, फिर भी बच्चा नहीं हो सकता।
जैसे कोई जवान बच्चा नहीं हो सकता, ऐसे मनुष्य अब वापस प्रकृति नहीं हो सकता। वह लौटने का उपाय नहीं रहा है। अब बच्चे को तो जवानी के आगे जाना होगा—और प्रौढ़ होना होगा, और जागरूक।
मनुष्य को भी परमात्मा होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। अगर तुम समझ लो बात, तो जल्दी घट जाएगी क्रांति; अगर न समझो तो देर लगाते रहोगे, स्थगित करते रहोगे। और बार—बार गिरते रहोगे, उठते रहोगे; इसमें समय गंवाओगे, जीवन गंवाओगे, ऊर्जा गंवाओगे।
द्वंद्व है जरूर, और इस द्वंद्व के बाहर उठना है जरूर। उठने के दो उपाय हैं—या तो बिलकुल मूर्च्छित हो जाओ, या बिलकुल जाग्रत हो जाओ। मूर्च्छित होने का उपाय संसार है—तृष्णा में खो जाओ, वासना में खो जाओ। बिलकुल खो जाओ! और या जाग्रत हो जाओ। जाग्रत होने का उपाय संतोष है, तृप्ति है—बोध, ध्यान, प्रार्थना।
इन दो में से कुछ चुनना पड़ेगा। चुनना ही पड़ेगा! चुनना ही पड़ता है! जो नहीं चुनता, वह नाहक धक्के खाता रहता है। वह लकड़ी के टुकड़े की तरह हो जाता है, जो नदी में इस किनारे से उस किनारे धक्का खाता फिरता है; उसकी कोई नियति नहीं रह जाती। उसके जीवन में कोई दिशा नहीं रह जाती। उसके जीवन का अर्थ भी खो जाता है, महिमा भी खो जाती है।
मनुष्य में बड़ी महिमा छिपी है। मनुष्य में परम महिमा छिपी है, क्योंकि परमात्मा मनुष्य में छिपा है।
गरज नहीं मुझे इससे कि सरवरी क्या है
मैं जानता हूं मगर शाने बंदगी क्या है
बुलंदियों को जो अर्शे बरीं की छू न सके
वो मौजे खाके फकीरी व आजिजी क्या है
खुदा है जिसके लिए बेकरार वो सजदा
जबीं में जिसकी न तड़पे वो आदमी क्या है
विसालो हिज्र की जो कैद से न हो आजाद
वो दोस्ती वो मोहब्बत वो आशकी क्या है
खयाले यार में खुद से भी वो रहे आगाह
वो जां सपुर्दगी क्या है वो बेदिली क्या है
जो इरतकाये खुदी से खुदा तक आ न गया
फरिश्ता रह गया बन कर वो आदमी क्या है
न बेखुदी को समोये जो अपने दामन में
जो राजे मर्ग न पा जाए वो खुदी क्या है
रहे जो दायराये हुसनों इश्क में महदूद
जो अपना आप न पाए वो आग ही क्या है,
जो शोरे जीस्त को अपने में जज्ब कर न सके
न जिसमें उठें तराने वो खामशी क्या है
नफस नफस में न जिसके बहारे ताजा हो
जो रंगो बू न बखेरे वो जिंदगी क्या है
जिंदगी बड़े रंग अपने में लिए है, बड़ी सुगंध अपने में लिए है। जिंदगी उतनी ही नहीं है, जितनी तुमने उसे समझा है। जिंदगी बहुत बड़ी है। जिंदगी में पूरा परमात्मा छिपा है।
नफस नफस में न जिसके बहारे ताजा हो
जिसकी श्वास—श्वास में जीवन की ताजी बहार न हो, वसंत न हो...
जो रंगो बू न बखेरे वो जिंदगी क्या है
और जिसकी जिंदगी में फूल न खिलें, सतरंगे इंद्रधनुष न उठें, जिसकी जिंदगी मोर बन कर न नाचे, जिसकी जिंदगी में आह्लाद न हो—वह नाम मात्र को ही जीवित है। जीया न जीया बराबर है।
जिंदगी में बड़ी महिमा छिपी है। और महिमा जब तक प्रकट न हो जाए, तब तक द्वंद्व रहेगा, तब तक बेचैनी रहेगी। यह बेचैनी बड़ी सृजनात्मक है। जैसे बीज बेचैन होता है—टूट पड़ने को, फूट पड़ने को। बीज बेचैन होता है—अंकुरित होने को। अंकुरित हो, वृक्ष बने, बड़ी शाखाएं आकाश में फैलें। चांदत्तारों से बातचीत हो, सूरज और हवाओं के साथ नाच हो, नृत्य हो, पक्षी बसेरा बनाएं, फूल खिलें—तो बीज तृप्त हो! बीज तो बेचैन रहेगा ही। बेचैनी बीज के लिए स्वाभाविक है। ऐसा ही द्वंद्व है आदमी के भीतर। यह तुम्हारे भीतर की बेचैनी है, जो तुमसे कहती है: बहुत कुछ तुममें छिपा पड़ा है। उसे प्रकट होने दो। गीत पड़ा है तुम्हारे प्राणों में, उसे गुनगुनाओ! नाच पड़ा है तुम्हारे पैरों में, उसे प्रकट होने दो! तुम्हारे भीतर बड़ी सुगंध पड़ी है, उसे बिखेरो!
कस्तूरी कुंडल बसै! तुम्हारे कुंडल में कस्तूरी बसी है। और तुम कहां भागे—भागे फिर रहे हो? तुम कहां तलाश रहे हो? तुम किनके सामने हाथ फैला कर भिखारी बन गए हो? तुम सम्राट होने को हो।

चौथा प्रश्न: ऊंचाई से, सहस्रार की ऊंचाई से प्रभु को देखने वाली मीरा भी जब कहती है कि "मेरो मन बड़ो हरामी, ज्यों मदमातो हाथी' तो हम मूलाधार की नीचाई से देखने वाले लोगों के मन के लिए क्या कहा जाएगा?

हीं; तुम अपने मन को हरामी न कह सकोगे, क्योंकि तुमने मन के ऊपर कुछ जाना नहीं है। तुलना ही नहीं कर सकते तुम।
मीरा ही कह सकती है कि मेरो मन बड़ो हरामी! क्योंकि मीरा को तुलना है। मीरा ने वे क्षण भी जाने हैं, जहां मन खो जाता है, जहां बेमन दशा आ जाती है। मीरा ने वह रोशनी भी अनुभव की, वह उत्सव भी अनुभव किया। इसलिए तुलना है। इसलिए जब मन खिसकाता है नीचे, तो मीरा कह सकती है: मेरो मन बड़ो हरामी! कि इतने ऊंचे स्वर्ग पर उठ जाती हूं, फिर भी यह नीचे खींच लेता है!
लेकिन तुम तो स्वर्ग पर उठे नहीं। मन ने तुम्हें कभी नीचे खींचा ही नहीं। तुम तो नीचे हो ही। ऊपर जाओ तब नीचे का पता चलता है। ऊपर जाओ, तब पता चलता है कि कहां जी रहे थे, किस नरक में जी रहे थे! तुम्हें पता नहीं चलेगा। तुम तो सोचते हो: अपना मन—बड़ा गजब का है! अपना मन—बड़ा बुद्धिमान! अपना मन—बड़ा होशियार, बड़ा कुशल, बड़ा कारीगर!
तुम तो अपने मन पर बड़ा भरोसा रखते हो। क्योंकि तुम यह जानते ही नहीं कि मन तुम्हारी जंजीर है। तुमने तो मन को आभूषण समझा है। समझ समझ की बात है। जंजीर को कोई आभूषण भी समझ सकता है। और समझने वाले ऐसे भी हैं जो आभूषण को जंजीर समझते हैं। समझ समझ की बात है।
मैंने सुना है, एक नवजवान विक्रेता ने कंपनी के सबसे पुराने और सफल विक्रेता के पास आकर कहा: मैं इस काम के लायक नहीं हूं। महीना भर काम करने के बाद भी कुछ बिक्री नहीं कर पाया हूं। और जहां भी गया हूं, वहां से बेइज्जती करा कर लौटा हूं।
अजीब बात कर रहे हो—पुराना विक्रेता बोला। मैं बीस साल से सेल्समैन का काम कर रहा हूं। कई बार ऐसा हुआ है कि लोग मेरी बातें सुनने के लिए तैयार नहीं हुए। कई बार उन्होंने बीच में ही टोक कर मुझे चले जाने को भी कहा है। ऐसा भी हुआ है कभी कि जब मैंने बात करने की जिद्द की तो उन्होंने मुझे धक्का देकर बाहर निकाल दिया और मेरी चीजें भी उठा कर फेंक दीं। गाली—गलौज भी हुई है। पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ने कभी मेरी बेइज्जती की हो।'
अब और क्या बेइज्जती होती है! अपनी—अपनी दृष्टि। अपने—अपने देखने का ढंग।
मैंने सुना है, जापान की एक कंपनी ने दो आदमियों को इस सदी के प्रारंभ में अफ्रीका भेजा। वे जूता बनाने वाली कंपनियां थीं। अफ्रीका में बाजार खोजने भेजा। एक आदमी ने तो तीन दिन बाद तार दिया कि यहां बेकार है मेहनत करना, यहां कोई जूता पहनता ही नहीं। और दूसरा आदमी तीन महीने तक वहां रहा और तीन महीने के बाद उसने पत्र लिखा कि यहां दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है, क्योंकि यहां किसी आदमी के पास जूते हैं ही नहीं।
अब ये दोनों बातें ठीक हो सकती हैं। जब कोई आदमी जूता पहनता ही नहीं, तो पहले आदमी ने सोचा: इनके साथ सिर मारना, इनको समझाना कि जूता पहनो। यहां कभी किसी ने जूता पहना ही नहीं। बात खत्म। यहां कहां का बाजार है!
दूसरे ने सोचा कि ये हैं लोग, यहां एक के पास भी जूता नहीं है; पूरा का पूरा बाजार है। हर आदमी अपना ग्राहक बन सकता है।
देखने की बात है: कैसे तुम देखते हो?
मीरा ने ऊंचे शिखर देखे, तो फिसलन का पता चलता है। जो गौरीशंकर पर चढ़ा हो, उसे फिर नीचे कोई भी शिखर न जमेगा। उसको तुम पूना की पहाड़ी पर ले जाओ, खड़ा कर दो और कहो कि यह बड़ी ऊंची पहाड़ी है, तो वह ऐसे ही खड़ा रह जाएगा कि तुम क्या बात कर रहे हो! तुम्हारे लिए ऊंची पहाड़ी हो सकती है। शायद तुम पहली दफे यहां चढ़े हो, तुम शायद बड़े आनंदित अनुभव कर रहे हो कि देखो कितनी ऊंचाई पर चढ़ आए!
मीरा जहां से खड़ी है वहां से इंच भर भी नीचे उतरने में पीड़ा है। और मन खींच लेता है। पुराना बल है मन का। पुराने संस्कार हैं मन के। पुरानी आदतें हैं मन की। इस परम अवस्था से भी नीचे उतार लेता है।
इसलिए मीरा कहती है: "मेरो मन बड़ो हरामी, ज्यों मदमातो हाथी।'
"हम मूलाधार की नीचाई से देखने वाले लोगों के मन के लिए क्या कहा जाएगा?'
कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आपकी बेइज्जती हो ही नहीं सकती। जिस गङ्ढे में आप विराजमान हो, उससे नीचे कोई गङ्ढा नहीं है। तो मन घसीटेगा भी कहां? ले भी जाए तो कहां ले जाए?
सिर्फ सम्राट ही दरिद्र हो सकते हैं; दरिद्र नहीं। सम्राट दरिद्र हो सकता है। जिसने महल जाने हों उसे कभी अगर राह पर चलना पड़े, तो उसे पता चलता है। जो राह पर ही पैदा हुए थे, राह पर ही चलते रहे हैं, वहीं उनका घर है, वहीं उनका निवास है—उन्हें तो पता ही नहीं चल सकता कि राह पर कुछ अड़चन है। और सम्राट अगर कहे कि बड़ी तकलीफ है, तो वे हंसेंगे कि क्या बातें कर रहे हो! अब इतनी न हांको। यहीं तो हम रहते रहे सदा से, और यहां मजा ही मजा है। और तुम्हें यहां तकलीफ हो रही है।
एक आदमी राह पर गिर पड़ा। वह राह थी, सुगंधियों की दुकानें थीं उसके आस—पास। एक आदमी राह पर गिर गया, भीड़ लग गई। एक सुगंधी—विक्रेता, एक गंधी, अपनी तिजोड़ी से सबसे कीमती सुगंध लेकर आया। क्योंकि कहा जाता है कि गहरी सुगंध हो तो आदमी बेहोशी से होश में आ जाता है। उसने फाहा भिगो कर उस आदमी की नाक के पास रखा। वह तो हाथ—पैर तड़फाने लगा आदमी। होश में आने की तो बात दूर रही, वह मछली की तरह तड़फने लगा। भीड़ में एक और आदमी खड़ा था। उसने कहा: भाई, तुम इसको मार डालोगे। मैं उसको जानता हूं। हम दोस्त हैं। आप कृपा करके यह अपना इत्र अलग करो।
उस गंधी ने कहा: बात क्या है? यह इत्र तो बेहोश से बेहोश आदमी को होश में ले आता है। इसकी चोट ऐसी है।
उसने कहा: वह चोट होगी...। तुम इत्र जानते होओगे, मैं इस आदमी को जानता हूं। यह मछलीमार है। यह मछली बेच कर आ रहा है बाजार से।
उस आदमी की टोकरी भी पास में पड़ी थी, जिसमें मछलियां लाया था बेचने। टोकरी में गंदा कपड़ा भी था, जिसमें मछलियां बांधी थीं। उनसे भयंकर बदबू उठ रही थी। वह दूसरा आदमी भागा गया नल के पास। थोड़ा सा पानी उस गंदे कपड़े पर छिड़का और लाकर वह गंदा कपड़ा उस आदमी की नाक पर रख दिया। उसने गहरी सांस ली—परम सांस शांति की! आंखें खोल दीं और वह कहने लगा: भाई, किसने मुझे बचा लिया? कोई दुष्ट मुझे मारे डाल रहा था।
मछलियों की गंध को ही जिसने जाना हो, उसे वही सुगंध है।
तो मीरा कह सकती है कि मेरो मन बड़ो हरामी, तुम न कह पाओगे। थोड़े ऊंचे चढ़ो सीढ़ियों पर, तब यह सौभाग्य तुम्हें मिलेगा कि तुम इस वचन को कह सको; उसके पहले नहीं।

अंतिम प्रश्न: मनुष्य की पात्रता कितनी है?

नुष्य की पात्रता परम है—उतनी ही जितनी परमात्मा की पात्रता। मनुष्य छिपा हुआ परमात्मा है। मनुष्य बीज है परमात्मा का। परमात्मा खिला हुआ परमात्मा है; मनुष्य अनखिला परमात्मा है। कहो बीज, कहो कली। पात्रता बड़ी है आदमी की। इससे कम अपनी पात्रता सोचना ही मत। इससे कम सोचा तो तुमने परमात्मा का अपमान किया। यह तुम नहीं हो—तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है। अपने को हटाओ! अपने को बीच में मत लाओ। तुम ज्यादा से ज्यादा देह हो, घर हो—मंदिर उसका है; विराजा वही है। तुम सिंहासन हो; राजा वही है।
तुम्हारी पात्रता परम है।
और जब मैं यह कहता हूं तो यह मत सोच लेना कि तुम्हारे अहंकार को बढ़ावा दे रहा हूं। अहंकार को बढ़ावा तब मिलता है, जब तुम सोचो: मेरी पात्रता दूसरे से ज्यादा है। तब अहंकार को बढ़ावा मिलता है। लेकिन परमात्मा सभी की पात्रता है। इसमें बड़ा—छोटा कोई नहीं। इसमें जितना तुम्हारा परमात्मा है, उतना ही तुम्हारी पत्नी का भी, उतना ही तुम्हारे बेटे का भी, उतना ही पड़ोसी का भी। परमात्मा सबकी पात्रता है।
इसलिए परमात्म—भाव में कोई अहंकार का उपाय नहीं। अहंकार तुलना से पैदा होता है। परमात्मा सबका स्वभाव है। और जिस दिन तुम्हें समझ आनी शुरू होगी, उस दिन तुम पाओगे वृक्षों का भी स्वभाव वही है। वृक्षों में वही है हरा। जो तुम में थोड़ा है जगा—जगा, वृक्षों में वही है सोया—सोया। चट्टानों में भी वही है। खूब गहरी निद्रा में सोया है—सुषुप्ति में पड़ा है। चांदत्तारों में भी वही है। क्योंकि अस्तित्व और परमात्मा पर्यायवाची हैं। अस्तित्व और परमात्मा दो अलग—अलग बातें नहीं हैं। अस्तित्व मात्र परमात्मामय है।
इसे स्मरण रखो। अपनी इस पात्रता को स्मरण रखो। यह स्मरण भी तुम्हें जगाने में सहयोगी होगा। क्योंकि आदमी जो अपने को मान लेता है, वही हो जाता है। विचार की बड़ी गहन परिणति होती है। तुम जो अपने को मान लेते हो वही हो जाते हो। तुमने अगर अपने को क्षुद्र मान लिया तो क्षुद्र रह जाओगे। तुमने अगर विराट से दोस्ती बनाई तो विराट हो जाओगे। तुम उतने ही हो सकोगे, जितना तुम स्वीकार करोगे, उससे ज्यादा नहीं हो सकोगे।
इसलिए नास्तिक अभागा है, क्योंकि वह अपने को बड़े क्षुद्र के साथ एक कर लेता है। खोल के साथ एक कर लेता है; भीतर का असली तत्व चूक जाता है। नास्तिक अभागा है। आस्तिक हो जाना सौभाग्यशाली है। हालांकि तुम यह मत सोच लेना कि तुम मंदिर जाते हो और मानते हो कि ईश्वर है, इसलिए तुम आस्तिक हो। आस्तिक होना दुर्लभ भी है। जितना सौभाग्य की बात है, उतना ही दुर्लभ भी है। कभी करोड़ आदमियों में एकाध आदमी आस्तिक होता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा जाने वाले की भीड़ को मैं आस्तिक नहीं कह रहा हूं। वे तो नास्तिक से भी गए—बीते हैं। नास्तिक कम से कम ईमानदार है। कहता है: मुझे पता नहीं, तो कैसे स्वीकार करूं! और ये तो बड़े बेईमान हैं। इन्हें पता भी नहीं है। इन्होंने कभी स्वीकार भी नहीं किया है। स्वीकार करने के लिए जो श्रम उठाना चाहिए, वह भी नहीं उठाया है। इनकी स्वीकृति उधार है। इनके बाप मानते थे, बाप के बाप मानते थे—इसलिए ये भी मानते हैं। इनको मुफ्त मिला है परमात्मा।
मुफ्त नहीं मिलता परमात्मा। जीवन के मूल्य से कीमत चुकानी पड़ती है। जो चुकाता है उसको मिलता है। तुम्हारे पिता कहते थे कि परमात्मा है, इसलिए तुमने मान लिया। न उनको पता है। और उनके पिता उनसे कह रहे थे। और उनके पिता उनसे कह गए थे। ऐसा लोग कहते चले गए हैं और लोग मानते चले गए हैं। ऐसी परंपरा से जो स्वीकृति आती है उसका नाम आस्तिकता नहीं है। उस तरह की आस्तिकता झूठी है। और तुम्हें हिंदू बना देती है, मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है, जैन बना देती है; लेकिन धार्मिक नहीं बना पाती। और धार्मिक को क्या लेना—देना है हिंदू से, ईसाई से, मुसलमान से?
धार्मिक हिंदू होगा? कैसे होगा? अगर धार्मिक भी हिंदू होगा, तो फिर धार्मिक धार्मिक नहीं। धर्म पर कोई सीमा नहीं, कोई विशेषण नहीं। धर्म विराट आकाश है, जिस पर कोई बंधन नहीं। उस विराट आकाश को न तो वेद घेरते हैं, न उपनिषद घेरते हैं, न कुरान, न बाइबिल। उस विराट आकाश पर कोई दीवाल नहीं है, कोई सीमा नहीं है।
धार्मिक व्यक्ति तो सिर्फ धार्मिक होता है। लेकिन वैसा धार्मिक व्यक्ति करोड़ में एक होता है। उसी को मैं आस्तिक कहता हूं।
आस्तिक का अर्थ होता है: जिसने अपने अनुभव से कहा कि हां, परमात्मा है; जिसने अपने अनुभव से कहा कि हां, परमात्मा मुझमें है। क्योंकि और कहां अनुभव होगा! अगर मुझ में नहीं है तो अनुभव हो ही नहीं सकता। जिसने अपने स्वाद से कहा कि हां, मैं परमात्मा हूं!
यद्यपि ध्यान रखना, जब कोई कहता है मैं परमात्मा हूं, तो उसका यह अर्थ नहीं होता कि वह यह कहता है कि तुम परमात्मा नहीं हो। जब कोई कहता है मैं परमात्मा हूं—अनुभव से—तो उसकी घोषणा में तुम भी परमात्मा हो गए। उसकी घोषणा सबके लिए की गई घोषणा है। उस एक मनुष्य की घोषणा ने सभी मनुष्यों के भीतर जो सोया है, उसमें तिलमिलाहट उठा दी, उसको जगा दिया।
एक मनुष्य परमात्मा हो सकता है, इसका अर्थ है कि सभी मनुष्य परमात्मा हो सकते हैं। राम ही अवतार नहीं हैं, कृष्ण ही अवतार नहीं हैं—तुम भी अवतार हो। तुम्हें अभी इसकी पहचान नहीं है।
अवतार का अर्थ होता है: परमात्मा से उतरा हुआ, अवतरित। और कहां से उतरोगे? उसके अतिरिक्त और कोई मूलस्रोत नहीं है। सिर्फ पहचान की कमी है; प्रत्यभिज्ञा नहीं हो रही है।
तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। राह के भिखारी बने हो—हो सम्राट। साम्राज्य तुम्हारा है। सारी संपदा तुम्हारी है। लेकिन बने भिखारी हो। भिक्षापात्र के साथ जुड़ गए हो। यह भिक्षापात्र का ही नाम तृष्णा है, वासना है। यह भिक्षापात्र कभी भरेगा नहीं। यह भरता ही नहीं।
तुमने पूछी यह बात: "मनुष्य की पात्रता कितनी है?'
उतनी जितना परमात्मा है, क्योंकि मनुष्य में परमात्मा समा सकता है। उनकी सीमा या असीमा बराबर है, एक जैसी है।
जनूने आगही हूं शोरसे हको सदाकत हूं
मैं इरफाने मोहब्बत हूं, मैं तूफाने मुसर्रत हूं
सदा जो कामयाबों कामरा हो मैं वो लज्जत हूं
न हो जो आशनाये रन्जो कुल्फत मैं वो राहत हूं
वकूरे जल्वा मुझसे इश्क की सरमस्तियां मुझसे।
निशाने वस्ले पैहम हूं इलाजे दर्दे फुर्कत हूं
गुलिस्ताने जहां है मेरे दम से खुल्दे नज्जारा
गुलों की ताजगी हूं मैं हजूमे रंगो नहकत हूं
सितारों की चमक हूं रोशनी हूं चांद—सूरज की
फिजां की वसहतें बेइंतहा गरदूं की रिफअत हूं
मेरे नक्शे कदम से कहकशां का नूर है पैदा
समाए जिसमें हैं कौनेन वो दामाने वुसअत हूं
फना कर दे अदावत को मिटा डाले जो नफरत को
वो बर्के इश्क हूं वो शोलाए सोजे मोहब्बत हूं।
नहीं कुछ इम्तियाजे कुफ्रो ईमां ताअतो इसियां
खुला सबके लिए हो जिसका दामन वो सखावत हूं
जहां की पस्तियों में मौजे रिफअत मुझसे उठती है
गुनाह की वादियों में आबशारे अक्रूओ रहमत हूं।
आदमी क्या नहीं है! इस अंधेरे जगत में रोशनी जिससे उठती है—आदमी वही है। आदमी क्या नहीं है? इस रेगिस्तान में जो फूल खिलते हैं, जहां से खिलते हैं—आदमी वही है। यहां जो भी गीत उठते हैं, यहां जो भी आह्लाद जगता है, यहां जो भी उत्सव मनाया जाता है—कहां से उठता है? आदमी ही उसके मूलस्रोत में है। यहां मंदिर है और मस्जिद है और गुरुद्वारे हैं और पूजा है, प्रार्थना है, आयोजन है—वे सब भी आदमी के ही कारण हैं। आदमी की पात्रता बड़ी है।
यहूदी फकीर, एक यहूदी फकीर ने कहा है—हिलेल उसका नाम था—कि हे प्रभु, मुझे तेरी जरूरत है; लेकिन तुझे भी मेरी जरूरत है। तेरे बिना मैं न हो सकूंगा। कैसे हो सकूंगा! लेकिन मेरे बिना तू कैसे हो सकेगा? न होगा आदमी, न उठेगी कोई प्रार्थना, न बनेगा कोई पूजागृह। न होगा आदमी, न परमात्मा की कोई मूर्ति ढाली जाएगी। न वेद की ऋचाएं जन्मेंगी, न कुरान की आयतें। न होगा आदमी, न कोई इबादत होगी, न कोई नमाज होगी, न कोई उपासना। न होगा आदमी, न कोई साधना होगी, न कोई संगीत होगा।
आदमी की पात्रता अनंत है—उतनी ही जितनी परमात्मा की।
तुम सोए हुए परमात्मा हो। जागो!

आज इतना ही।


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