भक्ति:
एक विराट
प्यास
सूत्र:
म्हारो
जनम—मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
तुम
देख्यां बिन
कल न पड़त है, जानत मेरी
छाती।
ऊंची
चढ़—चढ़ पंथ
निहारूं, रोवै अखियां
राती।
यो
संसार सकल जग
झूंठो, झूंठा
कुल रा
न्याती।
दोउ
कर जोड़यां अरज
करत हूं सुण
लीजो मेरी
बाती।
यो
मन मेरो बड़ो
हरामी, ज्यूं
मदमातो हाथी।
सतगुरु
हस्त धरयो सिर
ऊपर, अंकुस
दे समझाती।
पल—पल
तेरा रूप
निहारूं, हरि चरणां
चित राती।
मोहे
लागी लगन गुरु
चरनन की।
चरण
बिना कछुवै
नहिं भावै, जग माया सब
सपनन की।
भवसागर
सब सूखि गयो
है, फिकर
नहीं मोहे
तरनन की।
होरी
खेलत हैं
गिरधारी।
मुरली
चंग बजत डफ
न्यारो, संग
जुवति
व्रजनारी।
चंदन
केसर छिड़कत
मोहन, अपने
हाथ बिहारी।
भरि—भरि
मूठि गुलाल
लाल चहुं देत
सवन पै डारी।
छैल—छबीले
नवल कान्ह, संग स्यामा
प्राण
प्यारी।
गावत
चार धमार राग
तंह दै दै कल
करतारी।
फागु
जु खेलत रसिक
सांवरो, बाढ़यो
ब्रज रस भारी।
मीरा
के प्रभु
गिरधर नागर, मोहन लाल
बिहारी।
हां, छलकती हुई
शराब आए
जोश
में फिर मेरा
शबाब आए
फिर
थिरकते हुए
उठें नगमे
हाथ
में इश्क का रुबाब
आए
हर
तरफ से निगाहे
शौक को आज
इक
शगुफ्ता हसीं
जवाब आए
भक्ति
है नाचता हुआ
धर्म। और धर्म
नाचता हुआ न
हो तो धर्म ही
नहीं। इसलिए
भक्ति ही
मौलिक धर्म है—आधारभूत।
धर्म
जीता है—भक्ति
की धड़कन से।
जिस दिन भक्ति
खो जाती है उस
दिन धर्म खो
जाता है। धर्म
के और सारे
रूप गौण हैं।
धर्म के और
सारे ढंग
भक्ति के
सहारे ही जीते
हैं।
भक्त
है तो भगवान
है। भक्त नहीं
तो भगवान नहीं।
भक्त के हटते
ही धर्म केवल
सैद्धांतिक
चर्चा मात्र
रह जाती है; फिर उसमें
हृदय नहीं
धड़कता; फिर
उसमें रसधार
नहीं बहती; फिर नाच
नहीं उठता।
और यह
सारा
अस्तित्व
भक्त का
सहयोगी है, क्योंकि यह
सारा
अस्तित्व
उत्सव है।
यहां परमात्मा
को जानना हो
तो उत्सव से
जानने के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं। आंसू भी
गिरें तो आनंद
में गिरें।
पीड़ा भी हो, तो उसके
प्यार की पीड़ा
हो!
देखते
हैं चारों तरफ
प्रकृति को!
उत्सव ही उत्सव
है। नाद ही
नाद है। सब
तरह के साज बज
रहे हैं।
पक्षियों में, पहाड़ों में,
वृक्षों
में, सागरों
में—सब तरफ
बहुत—बहुत
ढंगों और
रूपों में
परमात्मा
होली खेल रहा
है। कितने रंग
फेंकता है तुम
पर! कितनी गुलाल
फेंकता है तुम
पर! और अगर तुम
नहीं देख पाते,
तो सिवाय तुम्हारे
और कोई
जिम्मेवार
नहीं।
लोग
परमात्मा को
खोजने निकलते
हैं; उन्हें
उत्सव खोजने
निकलना
चाहिए। उत्सव
जिस दिन समझ
में आ जाएगा, उसी दिन
परमात्मा भी
समझ में आ
जाएगा।
परमात्मा को
सीधे—सीधे पकड़
लेने का कोई
उपाय भी नहीं
है। रस में ही
पकड़ो उसे—रस
में डूब कर, विमुग्ध
होकर। नाच में
पकड़ो उसे। पकड़
लिया नाच में
तो पकड़ लिया; नहीं पकड़
पाए नाच में, तो फिर कहीं
न पकड़ पाओगे।
शास्त्रों
में नहीं है।
सिद्धांतों
में नहीं है।
ज्ञानियों की
व्यर्थ की
चर्चाओं में
नहीं है। जहां
भक्त उठते हैं,
बैठते हैं;
जहां
भक्तों के
आंसू गिरते
हैं; जहां
भक्त रस में
डूब कर उसके
गुणगीत गाते
हैं; जहां
उसकी प्रशंसा
के स्वर उठते
हैं; जहां
कोई भक्त अपनी
खंजड़ी बजा कर
नाच उठता है—वहां
खोजो।
मंदिरों में
भी नहीं
मिलेगा। जिसने
अपने मन के
मंदिर में
विराजमान
किया है, वहां
मिलेगा।
भगवान
को खोजना हो
तो भक्त को
खोजो। भक्त
मिल गया तो
भगवान के
मिलने में
ज्यादा देर न
रही।
हां, छलकती हुई
शराब आए
परमात्मा
शराब है। भक्त
ही इतनी
हिम्मत कर सकता
है कहने की।
जोश
में फिर मेरा
शबाब आए
और
भगवान तो सदा
युवा है।
शाश्वत यौवन
है वहां।
इसलिए तो हमने
कृष्ण की, वार्धक्य की
कोई प्रतिमा
नहीं बनाई—न
राम की, न
बुद्ध की।
अस्तित्व कभी
बूढ़ा होता ही
नहीं। अस्तित्व
सदा युवा है, सदा ताजा है,
सदा कुंआरा
है; कभी
विकृत होता ही
नहीं।
अस्तित्व सदा
स्वस्थ है।
ऐसा नहीं कि
बुद्ध बूढ़े
नहीं हुए। ऐसा
नहीं कि कृष्ण
बूढ़े नहीं
हुए। लेकिन
हमने कोई प्रतिमा
नहीं बनाई। जो
बूढ़ी हो गई
स्थिति उनमें,
वह केवल
आवरण है। देह
जराजीर्ण हो
गई; जैसे
कि वस्त्र
जराजीर्ण हो
जाते हैं।
लेकिन जो भीतर
चिरंतन छिपा
है, वह सदा
युवा है; वह
कभी बूढ़ा नहीं
होता।
क्योंकि जो
बूढ़ा होगा वह
मरेगा भी। देह
बूढ़ी होती है,
मरती भी है।
देह के भीतर
जो चिरंतन है—न
बूढ़ा होता, न मरता; उस
पर कोई उपाधि
नहीं है।
जोश
में फिर मेरा
शबाब आए
फिर
थिरकते हुए
उठें नगमे
हाथ
में इश्क का
रुबाब आए
और जब
तक हाथ में
इश्क का रुबाब
न आ जाए, इश्क
का सितार न आ
जाए और जब तक
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम का गीत
न बजने लगे, तब तक जाओ
लाख काशी और
काबा, भटको
कैलाश और
गिरनार, पूजो
पत्थर—पहाड़, मंदिरों में
पटको सिर; लेकिन
जब तक हाथ में
प्रेम की वीणा
न होगी, तब
तक तुम
परमात्मा को न
पहचान पाओगे।
न तो उससे कोई
संबंध तर्क से
बनता है, न
उससे कोई
संबंध त्याग
से बनता है।
तार्किक
उलझा रह जाता
है—अपनी
बुद्धि में।
और त्यागी
उलझा रह जाता
है—अपनी देह
में। खयाल
रखना, जैसे
भोगी उलझा
रहता है देह
में, वैसा
ही त्यागी भी
उलझा रहता है
देह में; उनमें
भेद नहीं है।
हां, एक—दूसरे
की तरफ पीठ
किए खड़े हों, लेकिन दोनों
में जरा भी
भेद नहीं है।
भोगी निरंतर इसी
फिकर में लगा
रहता है: कैसे
इत्र—फुलेल; कैसे शरीर
को सजाए, संवारे,
शृंगार करे;
कैसे सुंदर
वस्त्र, कैसे
सुंदर आभूषण...!
त्यागी भी
शरीर में उलझा
है: कैसे शरीर
को सताए, कैसे
शरीर को गलाए,
कैसे
कांटों पर
बैठे और
कांटों पर सोए,
कैसे धूप
में खड़ा रहे, कैसे उपवास
करे, कैसे
सिर के बल खड़ा
हो शीर्षासन
करे। मगर दोनों
देह में उलझे
हैं।
तार्किक
उलझ जाता है—बुद्धि
में। त्यागी
उलझ जाता है—देह
में। दोनों
चूक जाते हैं।
क्योंकि
परमात्मा
हृदय में है, न तो बुद्धि
में है और न
देह में है।
बुद्धि तो क्षुद्र
है। क्षुद्र
पर कारगर भी
है। व्यर्थ का
हिसाब लगाना
हो तो बुद्धि
का उपयोग करना
पड़ेगा। देह भी
उपयोगी है।
बाहर जाना हो
तो देह की
सहायता लेनी
होगी। लेकिन परमात्मा
भीतर है।
परमात्मा
क्षुद्र नहीं
कि बुद्धि
उसका हिसाब
लगा ले; सीमित
नहीं कि
बुद्धि के जाल
में आ जाए।
परमात्मा
इतना छोटा
नहीं है कि
तुम उसकी
परिभाषा कर
सको विचार से।
तुम्हारी
सब परिभाषाएं
टूट जाती हैं, तब परमात्मा
मिलता है।
तुम्हारे सब
तर्क निराश हो
जाते हैं, तब
परमात्मा
मिलता है।
तुम्हारा सिर
गिर जाता है, तब परमात्मा
मिलता है।
और
परमात्मा
बाहर भी नहीं
है कि शरीर के
रथ पर बैठ कर
यात्रा करनी
हो। परमात्मा
भीतर है। परमात्मा
तुम्हारा
होना है। जब
तुम भीतर हृदय
में गदगद होते
हो, तब तुम
उसके निकट
होते हो। जब
तुम भीतर
रसविभोर होते
हो, तब तुम
उसके निकट
होते हो। जब
तुम तल्लीन
होते हो, तब
तुम उसके निकट
होते हो।
फिर
थिरकते हुए
उठें नगमे।
जब
तुम्हारे
प्राणों में
गीत उठते हैं—अहोभाव
के, कृतज्ञता
के! जब
तुम्हारे हाथ
में वीणा होती
है—प्रेम की!
जब प्रेम की
वीणा पर तुम
तार छेड़ते हो।
हाथ
में इश्क का
रुबाब आए
हर
तरफ से निगाहे
शौक को आज
इक
शगुफ्ता हसीं
जवाब आए
और जब
तुम्हारे
भीतर ऐसी
अपूर्व घटना
घटती है कि
वीणा बजे
प्रेम की और
नगमे उठें
आनंद के, तो
सब तरफ से
परमात्मा
तुम्हारी तरफ
दौड़ता है।
भक्त
को परमात्मा
के पास जाना
नहीं पड़ता; परमात्मा ही
भक्त के पास
आता है। भक्त
को सिर्फ
पुकारना पड़ता
है। और हम
जाना चाहें तो
जा भी कैसे
सकेंगे? हमारे
पैर बहुत छोटे
हैं, यात्रा
बड़ी है। फिर, हमें उसका
पता—ठिकाना भी
तो मालूम
नहीं। जाएं भी
तो जाएं कहां?
किस दिशा
में खोजें—पूरब
कि पश्चिम? किस भाषा
में उससे
बोलें? उसकी
कौन सी भाषा
है? किस
विधि—विधान से
उसे मनाएं? नहीं, भक्त
को कुछ भी पता
नहीं है। भक्त
को उसका पता—ठिकाना
पता नहीं; उसका
दिशा—द्वार
पता नहीं। वह
कौन सी भाषा
समझेगा, इसका
पता नहीं।
भक्त को अपनी
प्यास का पता
है। भक्त अपनी
प्यास को
ढालता है—गीतों
में। भक्त
अपनी प्यास को
ही उभाड़ता है।
भक्त की प्यास
ही सघन होती
जाती है। भक्त
एक विराट
प्यास बन जाता
है—एक उत्तप्त
अग्नि। और उस
प्यास में ही
परमात्मा दौड़ा
हुआ आता है।
तुमने
देखा, गर्मी
के बाद वर्षा
होती है।
ग्रीष्म के
बाद आकाश में
बादल घिरते
हैं, मेघ
घिरते हैं।
ग्रीष्म के
बाद ही क्यों
घिरते हैं? क्योंकि
ग्रीष्म के
कारण, घने
ताप के कारण, जलते हुए
सूरज के कारण,
वायु विरल
हो जाती है, जगह—जगह
वायु विरल हो
जाती है, गङ्ढे
बन जाते हैं
वायु में। जब
वायु में गङ्ढे
बन जाते हैं
तो मेघ भागे
चले आते उन
गङ्ढों को
भरने।
क्योंकि इस
जगत में
अस्तित्व
गङ्ढों को
बरदाश्त नहीं
करता। इसलिए
तो पहाड़ खाली
रह जाते हैं
और झीलें भर
जाती हैं।
ग्रीष्म के
बाद घिर आते
हैं बादल, क्योंकि
खाली गङ्ढे
शून्य पैदा हो
जाते हैं वायु
में। और जहां—जहां
शून्य है वहां—वहां
आकर्षण है।
शून्य में बड़ा
प्रबल आकर्षण है।
शून्य खींच
लेता है। बादल
भागे चले आते
हैं।
ऐसी ही
घटना अंतरतम
में भी घटती
है। प्यास जब प्रज्वलित
हो जाती है, प्राण जब
उसकी
आकांक्षा—अभीप्सा
से आतुर हो
उठते हैं, विरह
की अग्नि जब
जलती है, तो
तुम्हारे
भीतर एक शून्य
पैदा हो जाता
है।
जिस
शून्य को
ज्ञानी ध्यान
से पैदा करता
है और बड़े
श्रम से पैदा
करता है और
मुश्किल से
सफल हो पाता
है, उस शून्य
को भक्त प्रेम
से पैदा कर
लेता है और
सुगमता से
पैदा कर लेता
है और सदा सफल
हो जाता है!
रोकर पैदा कर
लेता है। विरह
में जल कर
पैदा कर लेता
है। यहां भक्त
एक शून्य बना
कि वहां
परमात्मा के
मेघ उसकी तरफ
चलने शुरू हो
जाते हैं।
तुम
नहीं
परमात्मा को
पहुंच पाओगे, परमात्मा ही
तुम तक सदा
पहुंचता है।
यही उचित भी
है।
छोटा
बच्चा तो रोता
है; मां भागी
आती है। वह
छोटा बच्चा जो
झूले पर पड़ा
है—असहाय—वह
चेष्टा भी करे
तो भी मां को
खोजने कहां
जाएगा? चलने
की भी तो
सामर्थ्य
नहीं। अपने
पैरों पर खड़ा
भी तो नहीं हो
सकता। लेकिन
रो सकता है।
भक्त
की सारी कला
उसके आंसुओं
में है। भक्त
की सारी साधना—पद्धति
उसके विरह में
है।
मीरा
के इन पदों
में प्रवेश के
पहले इस बात
को खूब खयाल
में ले लो, क्योंकि ये
सारे पद मीरा
के प्रेम के
पद हैं। मीरा
प्रेम का
रुबाब लेकर
बजाती है। बड़ा
रस है इनमें।
आंसू भी बहुत
हैं। प्रेम भी
बहुत हैं।
आनंद भी बहुत
है। सबका अदभुत
समन्वय है।
क्योंकि भक्त
आनंद से भी
रोता है, क्योंकि
जितना मिला वह
भी क्या कम है!
भक्त विरह में
भी रोता है, क्योंकि जो
मिला उससे और
मिलने की
प्यास जग गई
है। भक्त
धन्यवाद में
भी रोता है, क्योंकि
जितना मिला है
वह भी मेरी
पात्रता से
ज्यादा है। और
भक्त अभीप्सा
में भी रोता
है कि जब इतना
दिया है तो अब
और मत तरसाओ, और भी दो।
तो इन
आंसुओं में
तुम आनंद के
आंसू भी पाओगे, विरह के
आंसू भी पाओगे,
अनुग्रह के
आंसू भी पाओगे,
अभीप्सा के
आंसू भी
पाओगे। इन
आंसुओं में
बड़े स्वाद हैं।
और मीरा से
सुंदर आंसू
तुम और कहां
पा सकोगे। ये
भजन ही नहीं
हैं, ये
गीत ही नहीं
हैं—इनमें
मीरा ने अपना
हृदय ढाला है।
अगर तुम सावधानी
से प्रवेश
करोगे इन
शब्दों में, तो तुम मीरा
को जीवित
पाओगे। और
जहां मीरा को जीवित
पा लिया, वहां
से कृष्ण बहुत
दूर नहीं हैं।
जहां भक्त है
वहां भगवान
है। भक्त को
समझ लिया तो
भगवान के
संबंध में
श्रद्धा
उत्पन्न होती
है। भगवान तो
दिखाई पड़ता
नहीं—अदृश्य
है। भक्त
दृश्य है।
कृष्ण
को जानना हो, मीरा को
सेतु बनाओ। और
मीरा से
अपूर्व सेतु
तुम कहीं पा न
सकोगे।
क्योंकि भक्त
तो पुरुष भी हुए
हैं, लेकिन
पुरुष अंततः
पुरुष है।
उसके प्रेम
में भी थोड़ी
परुषता होती
है। रोता भी
है तो झिझक कर
रोता है—शरमाता—शरमाता।
नाचता भी है
तो संकोच से।
पुकारता भी है
परमात्मा को
तो चारों तरफ
देख लेता है, कोई सुनता
तो न होगा। यह
स्वाभाविक
है। स्त्री—हृदय
जब पुकारता है
तो निःसंकोच
पुकारता है।
पुकार स्वाभाविक
है वहां।
स्त्री—हृदय
जब रोता है तो
उसे संकोच
नहीं होता।
आंसू सहज हैं,
स्वस्फूर्त
हैं।
ये भजन
मीरा ने बैठ
कर नहीं लिखे
हैं, जैसे कवि
लिखते हैं। ये
नाचते—नाचते
पैदा हुए हैं।
इनमें अभी भी
उसके घूंघर की
झंकार है। ये
अभी भी ताजा
हैं। ये कभी
बासे नहीं
पड़ेंगे।
जो बैठ—बैठ
कर कविताएं
लिखता है, उसकी
कविताएं तो
जन्मने के
पहले ही मर गई
होती हैं।
जन्म ही नहीं
पाती हैं, या
मरी हुई ही
जन्मती हैं।
ये गीत कविता
की तरह नहीं
लिखे गए हैं।
यही इनका गौरव
है, गरिमा
है। यही इनकी
महिमा है। ये
पैदा हुए हैं।
नाचते—नाचते
किसी धुन में,
नाचते—नाचते
अनायास...।
इनके लिए कोई
प्रयोजन नहीं
था, कोई
चेष्टा नहीं
थी। मीरा कोई
कवि नहीं है।
मीरा भक्त है।
कविता तो ऐसे
ही आ गई है, जैसे
तुम राह पर
चलो और
तुम्हारे पैर
के निशान धूल
पर बन जाएं।
बनाने नहीं चाहे
थे, बनाने
निकले नहीं थे,
सोचा भी
नहीं था—राह
से गुजरे थे, धूल पर
निशान बन गए।
आकस्मिक हुआ।
धूप में चले
थे; पीछे—पीछे
छाया चली।
छाया चलाने को
न चले थे।
छाया पीछे चले,
इसकी कोई
योजना भी न थी,
न कोई विचार
किया था। ऐसे
ही ये गीत
पैदा हुए हैं।
मीरा तो नाचने
लगी। मीरा तो
नाचती चली। ये
पग—चिह्न बन
गए। इन पग—चिह्नों
में अगर तुम
गौर से उतरो, प्रेम से
उतरो, सहानुभूति
से उतरो, तो
तुम्हें मीरा
के ही पैर
नहीं, मीरा
के पैरों के
भीतर जो नाच
रहा था, उसकी
भी भनक
मिलेगी।
इन
शब्दों में
मीरा के ही
शब्द नहीं; मीरा के हृदय
में जो
विराजमान हो
गया था उसका
स्वर भी लिपटा
है। ये मीरा
ने अकेले गाए,
ऐसा मानो ही
मत। अकेले
मीरा ये गा ही
नहीं सकती।
ऐसे अपूर्व
गीत अकेले गाए
ही नहीं जाते।
ये परमात्मा
ने मीरा के
साथ—साथ गाए
हैं। मीरा तो
जैसे बांसुरी
थी, गाए
परमात्मा ने
ही हैं। मीरा
तो जैसे केवल
माध्यम थी, ये बहे तो
उसी से हैं।
इस भाव को
लेकर हम इन
अपूर्व
शब्दों में
उतरें।
म्हारो
जनम मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
तीन
शब्द खयाल में
लो: जन्म, जीवन,
मृत्यु—मरण।
तुमने जीवन के
तो बहुत साथी
खोज लिए हैं।
मगर जीवन के
साथी तो जीवन
के साथ ही खो
जाएंगे। जन्म
और मृत्यु के
बीच में जीवन
है। जो तुमने
जीवन में खोजा
है, वह
जीवन के साथ
ही खो जाएगा।
पति है, पत्नी
है, मित्र
हैं, पिता
हैं, मां
हैं, पुत्र
हैं, भाई
हैं, बंधु
हैं—वे सब
जीवन के साथी
हैं। जन्म के
पहले उनसे कोई
संबंध न था, जिनसे जन्म
के पहले कोई
संबंध न था
उनसे मृत्यु
के बाद भी कोई
संबंध कैसे रह
जाएगा? जिससे
जन्म के पहले
संबंध था, उसे
खोज लो; उससे
मृत्यु के बाद
भी संबंध
रहेगा।
और एक
मजे की बात, कि जिससे
जन्म के पहले
संबंध नहीं था
और मृत्यु के
बाद भी संबंध
जिससे टूट
जाएगा, उससे
जीवन में भी
क्या संबंध हो
पाएगा? कल्पना
ही मालूम
होगी। सपना ही
मालूम होगा। न
जो पहले साथ
है, न जो
पीछे साथ होगा,
उससे बीच
में कैसे साथ
हो जाएगा? अचानक?
अनायास? अकारण?
जो कभी पहले
साथी नहीं था,
जो कभी फिर
साथी नहीं
होगा; उससे
मिलना ऐसे ही
है जैसे
रास्ते पर
चलते दो राहगीर
मिल गए—न
जानते थे पहले,
घड़ी भर बाद
फिर रास्ते
अलग हो जाएंगे,
अलविदा हो
जाएंगे, और
फिर कभी न
जानेंगे।
जैसे ट्रेन की
यात्रा में
किसी से पहचान
हो गई, क्योंकि
पास ही बैठना
हो गया था, ट्रेन
में चढ़ते वक्त
याद भी न थी कि
किससे मिलना
होने वाला है;
ट्रेन से
उतरते ही याद
भी भूल जाएगी।
जो आकस्मिक
हुआ था, वह
पानी के बबूले
की तरह खो
जाएगा।
जिससे
जन्म के पहले
भी साथ था, उससे मृत्यु
के बाद भी साथ
रहेगा और
जिससे जन्म और
मृत्यु की
दोनों घड़ियों
में साथ रहने
वाला है, उससे
ही असली साथ
हमारा जीवन
में भी हो
सकता है। धन्यभागी
हैं वे जो
जीवन में भी
उसी का साथ
खोज लेते हैं।
जिसका साथ
जन्म के पहले
भी था और मृत्यु
के बाद भी
होगा। वह
शाश्वत साथी
है। उस शाश्वत
साथी को ही
भगवान कहा है।
वही है मित्र।
शेष सब
प्रवंचनाएं
हैं। शेष सब
मन के भुलावे
हैं। शेष सब
धोखे हैं। ठीक
है, थोड़ी
देर को राहत
मिल जाएगी।
थोड़ी देर को
मन उलझा रहेगा;
जैसे बच्चे
खेल—खिलौनों
में उलझ जाते
हैं। या ऐसे
कि जैसे कोई
कागज की नाव
बहाता है:
कहने को ही
नाव होती है; न तो उसमें
बैठा जा सकता
है, न
उसमें पार हुआ
जा सकता है।
दूसरे की तो
बात छोड़ो, नाव
खुद भी पार न
जा पाएगी—कागज
की है। अब
डूबी तब डूबी।
डूबने को ही
है। डूबने को
ही बनी है।
इस जगत
की सारी
मैत्रियां
कागज की नावें
हैं, कि ताश के
बनाए गए घर
हैं; हवा
का जरा सा
झोंका आता है
और गिर जाते
हैं।
तुमने
देखा, तुम्हारी
मित्रता, जरा
सा हवा का
झोंका और खो
जाती है। जो
मित्र थे, वे
क्षण में
शत्रु हो जाते
हैं। जो अपने
थे, क्षण
में पराए हो
जाते हैं।
यहां कौन अपना
है, कौन
पराया है? यहां
सब मन के
भुलावे हैं।
हां, सांत्वना
मिल जाती है; मन व्यस्त
हो जाता है, उलझा रहता
है। और एक
भ्रांति बनी
रहती है कि अपने
हैं यहां; मैं
अकेला नहीं हूं।
ध्यान
रखो, जब तक
परमात्मा न
मिले, तब
तक तुम अकेले
हो—अकेले हो
और अकेले ही
हो! कितना ही
झुठलाओ, कितना
ही समझाओ, कितना
ही भुलाओ—मगर
हर झूठ के
पीछे सत्य खड़ा
है, कि तुम
अकेले हो। दिन
दो दिन के लिए
सपने से आंखें
भर जा सकती
हैं, लेकिन
इससे कुछ
अंतिम परिणाम
हाथ में नहीं
आएगा।
मीरा
ने वे साथी
छोड़ दिए जो
जन्म के बाद
बने थे, वे
साथी छोड़ दिए
जो मृत्यु के
साथ छूट
जाएंगे। मीरा
कहती है:
जिनसे मृत्यु
में साथ छूट
जाएगा, जब
असली में साथ
की जरूरत
होगी...। यहां
तो ठीक है, बिना
संग—साथ के भी
चल सकता है।
कोई संगी—साथी
न भी हो तो
बाजार की भीड़
में भी चलते
रहे, तो भी
चलता है।
रेस्तरां में
जाकर बैठ गए, होटल में
बैठ गए, सिनेमा
घर में बैठ
गए। भीड़ तो
सदा मौजूद है।
न भी हो संगी—साथी,
तो भी तुम
अपने अकेलेपन
को कहीं न
कहीं भुला ले
सकते हो।
मृत्यु में तो
तुम बिलकुल
अकेले हो
जाओगे; न
सिनेमा होगा,
न क्लब होगा,
न बाजार
होगा, कोई
भी न होगा, बिलकुल
अकेले हो
जाओगे। एकांत
होगा। उस एकांत
में जो साथ न
पड़ेंगे, उनके
साथ का मूल्य
भी क्या है?
कहते
हैं: मित्र तो
वही जो
दुर्दिन में
काम आए। और
दुर्दिन
मृत्यु से बड़ा
और क्या होगा? मगर उस दिन
कोई काम नहीं
आता। न
तुम्हारी
पत्नी
तुम्हारे साथ
जाएगी, न
तुम्हारा पति
तुम्हारे साथ
जाएगा। सब
तुम्हें विदा
दे देंगे। तुम
जब चिता पर
चढ़ोगे तो अकेले,
कि कब्र में
उतरोगे तो
अकेले। उस
अनंत अंधकार में—जिसका
नाम मृत्यु है—कोई
तुम्हारे साथ
न जाएगा, कोई
हाथ न बढ़ाएगा,
कोई न
कहेगा: मैं
आता हूं, रुको!
मीरा
ने वे सब साथ
छोड़ दिए जो
जन्म के बाद
बने थे। वे
सांयोगिक
हैं। नदी—नाव
संयोग, उनका
कोई मूल्य
नहीं। वे सब
साथ छोड़ दिए
जो मृत्यु के
साथ छूट
जाएंगे।
जिन्हें
मृत्यु ही छीन
लेगी, उन्हें
स्वयं ही छोड़
देना उचित है।
मृत्यु और जन्म
के आर—पार, जिसका
शाश्वत साथ है,
उसकी खोज, उसका नाम ही
कृष्ण। उसका
नाम ही, तुम
जो देना चाहो—राम,
कि बुद्ध।
म्हारो
जनम मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
मीरा
कहती है: अब
मैं पहचान गई
कि कौन मेरा
साथी है, कौन
असल मेरा साथी
है। झूठों से
जाग गई। धोखों
से सचेत हो गई,
सावधान हो
गई।
म्हारो
जनम—मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
यह
दूसरी पंक्ति:
थानें नहिं
बिसरूं दिन—राती!
समझना। शब्द
उपयोग किया
है: बिसरूं—विस्मरण।
मैं तुझे भूल
नहीं पाती।
आमतौर से लोग
पूछते हैं:
भगवान को
स्मरण कैसे
करें? और
मीरा कहती है
कि विस्मरण
कैसे करूं।
यहीं से फर्क
शुरू होता है—असली
भक्त में और
तथाकथित भक्त
में। तथाकथित भक्त
पूछता है:
भगवान का कैसे
स्मरण करें? क्योंकि भूल—भूल
जाता है।
संसार का
स्मरण नहीं
करना पड़ता; उसका स्मरण
शाश्वत बना
रहता है। धन
की याद बनी
रहती है, दुकान
की याद बनी
रहती है, बाजार
की याद बनी
रहती है। और
सबकी याद बनी
रहती है।
भगवान के लिए
पूछता है:
भगवान का
स्मरण कैसे
करें?
जब कोई
पूछता है कि
भगवान का
स्मरण कैसे
करें, तो
उसका अर्थ साफ
है कि भगवान
का स्मरण अभी
हो नहीं रहा
है, करना
पड़ रहा है।
किए हुए का
कोई मूल्य
नहीं है। जो
कोई पूछता है
कि भगवान का
स्मरण कैसे
करें, वह
यही पूछता है
कि संसार का
स्मरण तो होता
है, स्वाभाविक
हो रहा है; अब
भगवान के
स्मरण को
खींचत्तान कर
करना होगा।
इसलिए तो लोग
मंदिर जाते
हैं, मस्जिद
जाते हैं, पूजा—पाठ
करते हैं; नियम
बना लेते हैं
कि रोज सुबह
घंटे भर, कि
रोज रात घंटे
भर स्मरण
करेंगे। और जब
स्मरण करने
बैठते हैं तब
भी स्मरण
बंधता नहीं
छूट—छूट जाता
है। तब भी याद
संसार की आ—आ
जाती है। माला
फेरते रहते
हैं और भूल
जाते हैं कि
माला फेरना कब
बंद हो गया और
कब उन्होंने
रुपये गिनने
शुरू कर दिए।
राम—राम जपते—जपते
भूल जाते हैं।
जप तो जारी
रहता है—तोतों
के रटंत की
तरह; ओंठ
बुदबुदाते
रहते हैं और
भीतर हजार
बातें और चलने
लगती हैं: कल
अदालत में
मुकदमा है, कि परसों
कुछ और काम है,
कि बेटे का
विवाह है, कि
पत्नी बीमार
है। राम—राम
ऊपर चलता रहता
और सब तरह की
वासनाएं भीतर
हिंडोले लेती
रहती हैं। यह
साधारण स्थिति
है। मीरा बड़ी
उलटी बात कह
रही है।
मीरा
कहती है:
थानें नहिं
बिसरूं दिन—राती!
कि मैं चाहूं
तो भी तुझे
भूल नहीं
पाती। दिन आते, रात आती, विस्मरण
नहीं होता।
इसलिए
सवाल यह नहीं
है कि ईश्वर
का स्मरण कैसे
हो? सवाल यह
है कि ऐसी
चैतन्य की दशा
कैसे बने, जहां
उसका विस्मरण
न हो? इस
भेद को खूब
खयाल में ले
लेना। राम—राम
जपने से कुछ न
होगा। राम—राम
जपना सिर्फ
अपने को धोखा
देना है। जप
उठे, जैसे
श्वास चलती है;
जैसे रक्त
बहता है
धमनियों में;
जैसे हृदय
धड़कता है—ऐसा
जप चले। जिसको
नानक ने "अजपा
जाप' कहा, ऐसा जप चले।
तुम्हें जप
करना न पड़े—होता
ही रहे; अहर्निश
हो। तुम उठो
और बैठो, तुम
बाजार जाओ और
दुकान जाओ, तुम काम करो
और विश्राम
करो—और जप
चलता ही रहे।
जप की
अंतरधारा बन
जाए।
यह कब
होगा? यह
कैसे होगा? यह परमात्मा
को स्मरण करने
से नहीं होगा—यह
संसार को ठीक
से देख लेने
से होगा।
लोग
गलत प्रश्नों
से शुरू करते
हैं, इसलिए
कहीं नहीं
पहुंच पाते।
एक बार गलत
प्रश्न पूछ
लिया तो तुम
बड़ी झंझट में
पड़ोगे। क्योंकि
जो भी उत्तर
मिलेंगे वे
गलत होंगे।
तुमने किसी से
पूछा:
परमात्मा का
स्मरण कैसे
करें? तुमने
गलत प्रश्न
पूछ लिया। वह
बता देगा कि
ठीक है, यह
कापी ले लो, इस पर बैठ कर
लिखते रहो राम—राम,
राम—राम, ऐसे अभ्यास
हो जाएगा।
अभ्यास? राम का अगर
अभ्यास कर
लिया और
अभ्यास से अगर
राम—राम हुआ
तो प्राणों का
उसमें कोई
संबंध ही न रहेगा।
अभ्यास तो
यंत्रवत हो
जाता है।
अभ्यास का तो
कोई मूल्य ही
नहीं है। प्रेम
का कहीं
अभ्यास होता
है? अभ्यास
का तो मतलब ही
यह है कि
जबरदस्ती थोप
लिया। भीतर से
तो नहीं उठता
था; बाहर
से पकड़ कर
किसी तरह
चारों तरफ
आयोजन कर लिया।
अभ्यास
तुम्हें
सरकसी बना
देगा। सरकस
में अभ्यास
करवा देते हैं
जंगली जानवर
को भी। कोड़े
के डर से, भोजन
के प्रलोभन से—दंड
और भय, प्रलोभन
और लोभ, इनके
बीच में
अभ्यास करा
देते हैं।
सिंह भी अभ्यास
कर लेता है—स्टूलों
पर बैठने लगता
है; ढोल
बजाने लगता है;
आग के गोलों
में से कूदने
लगता है...कोड़ा
और प्रलोभन!
नहीं किया तो पिटेगा;
किया तो
सुस्वादु
भोजन मिलेगा।
तुम जब
परमात्मा का
अभ्यास करते
हो तो नरक और स्वर्ग
के कारण, वह
अभ्यास सरकसी
है। उसका दो
कौड़ी मूल्य
है। भक्त
परमात्मा का
अभ्यास नहीं
करता।
ठीक
प्रश्न यह
नहीं है कि
मैं परमात्मा
को कैसे याद
करूं; ठीक
प्रश्न यह है
कि संसार की
मुझे इतनी याद
आती है—क्यों?
यह संसार की
याद इतनी गहरी
मुझमें क्यों
है? कहां
है इसका बीज? कहां हैं
इसकी जड़ों का
विस्तार? कैसे
इन जड़ों को
काट डालूं? कैसे संसार
का स्मरण छूट
जाए? यह
असली सवाल है।
और अगर संसार
का स्मरण छूट
जाए तो अचानक
तुम पाओगे, तुम्हारे
भीतर से उठी
सुवास, भर
गए प्राण, उठा
नाद, डोलने
लगा रोआं—रोआं!
तब तुम समझोगे
मीरा की बात:
थानें नहिं बिसरूं
दिन—राती!
मीरा
कहती है: मैं
तुम्हें भूल
ही नहीं पाती।
क्या कर दिया
है? कैसा
जादू! उठती
हूं, बैठती
हूं, काम
भी करती, स्नान
भी करती, भोजन
भी कर लेती
हूं; मगर
तुम्हारी याद
है कि अहर्निश
सतत बही चली जाती
है।
म्हारो
जनम—मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
इसलिए
परमात्मा को
स्मरण नहीं
करना है—एक
ऐसी चेतना की
दशा जगानी है, जहां
परमात्मा का
विस्मरण न हो।
दोनों में बड़ा
फर्क है। और
दोनों ऊपर से
एक जैसे लगते
हैं, इसलिए
खतरा भी बहुत
है।
प्लास्टिक
का फूल देखा!
फूल जैसा लगता
है। कभी—कभी
तो फूल से भी
ज्यादा सुंदर
लगता है। और
प्लास्टिक के
फूल की कई
खूबियां हैं, जो असली फूल
में नहीं हैं।
एक, कि
प्लास्टिक का
फूल शाश्वत
है। असली फूल
तो सुबह खिला,
सांझ मुरझा
जाता है। असली
फूल अभी था, अभी गया, क्षण
भर नाचा हवाओं
में, क्षण
भर बातचीत की
चांदत्तारों
से, फिर
धूल में खो
गया, फिर
सो गया—अतल
गहरी निद्रा
में। अभी था, तो पक्षियों
के साथ नाचा, हवाओं से
जूझा, बड़ी
शान से जीया।
अभी नहीं है, तो
पंखुड़ियां
धूल में खो
गईं, कोई
निशान भी न रह
गया, कोई
चिह्न भी पीछे
न छूट गया।
चार दिन बाद, फूल था भी
कभी या नहीं
था, कुछ तय
करना संभव न
रहेगा।
प्लास्टिक का
फूल अपनी जगह
बैठा रहेगा, बैठा रहेगा,
तुम मर
जाओगे, तुम्हारा
लगाया हुआ
प्लास्टिक का
फूल न मरेगा।
प्लास्टिक के
फूल में बड़ा
खतरा है; धोखा
है, शाश्वत
का धोखा है।
है झूठा, लेकिन
बड़ा मजबूत है।
और ऐसी
ही हालत असली
परमात्मा के
स्मरण की और नकली
परमात्मा के
स्मरण की है।
नकली स्मरण प्लास्टिक
जैसा है—अभ्यास!
बैठे हैं
घंटों, अभ्यास
कर रहे हैं, राम—राम—राम
दोहराए जा रहे
हैं, दोहराए
जा रहे हैं।
दोहराते—दोहराते
अभ्यास सघन हो
जाएगा, प्लास्टिक
का फूल पैदा
हो जाएगा।
लेकिन इसका कोई
मूल्य नहीं है,
क्योंकि
इसमें कोई
जड़ें नहीं
हैं। इसका कोई
मूल्य नहीं, क्योंकि
इससे
तुम्हारे
हृदय का कोई
संबंध नहीं।
इसका कोई भी
मूल्य नहीं।
दूसरों को भला
धोखा हो जाए
राम—राम की
चदरिया देख कर
कि भक्त जी आ
रहे हैं; मगर
मुंह में राम,
बगल में
छुरी रहेगी।
अपने को कैसे
धोखा दोगे? तुम तो
जानोगे ही कि
प्लास्टिक का
फूल है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज अपनी
खिड़की में आकर
खड़ा होता और
खिड़की पर उसने
एक गमला लटका
रखा था फूलों
से भरा हुआ।
उसमें पानी
डालता। पड़ोसी
देखते थे—एक
बार देखा, दो
बार देखा, तीन
बार देखा; पानी
तो डालता था, लेकिन
फव्वारा
खाली। आखिर
पड़ोसी से न
रहा गया।
जिज्ञासा
जगी। उसने कहा
कि नसरुद्दीन,
पानी तो रोज
डालते हो, लेकिन
पानी गिरता
हुआ दिखाई
नहीं पड़ता।
नसरुद्दीन ने
कहा: ये फूल ही
कौन सच हैं!
प्लास्टिक के
फूल हैं। इनको
असली पानी की
जरूरत भी
नहीं।
तो फिर
क्यों रोज
व्यर्थ झूठा
पानी डालते हो?
वह
पड़ोसियों के
लिए। नहीं तो
लोगों को शक
हो जाएगा कि
पानी तो पड़ता
ही नहीं गमले
में कभी और फूल
हैं कि खिले
ही हुए हैं।
वह जो
तुम राम—राम
जपते हो, वह
पड़ोसियों के
लिए जपते हो—वह
अपने लिए नहीं
है। और तुम
कितना ही
पड़ोसियों को
धोखा दे लो, अपने को
कैसे धोखा दे
पाओगे? और
अपने को ही न
दे पाए, तो
अपने भीतर
निहित अंतरतम
में छिपे
परमात्मा को
कैसे धोखा दे
पाओगे? तुम
तो जानोगे ही
न कि फूल
प्लास्टिक के
हैं, कि
राम—राम
अभ्यास है, कि सामाजिक
प्रतिष्ठा
पाने का उपाय
है, कि
स्वर्ग जाने
की विधि है, कि नरक से
बचने का आयोजन
है? लेकिन
नरक से बचना
जो चाहता है, उसका
परमात्मा से
प्रेम लगा?
अगर
परमात्मा नरक
में हो तो
प्रेमी नरक
जाना चाहेगा।
वह कहेगा:
परमात्मा
जहां हो, वहीं
रहेंगे, नरक
में रहेंगे, लेकिन
रहेंगे उसी के
पास। जिसको
नरक से भय है, वह अगर
परमात्मा नरक
जा रहा होगा, तो वह कहेगा:
आप अकेले जाइए;
हम स्वर्ग
की तरफ जा रहे
हैं। मुझे नरक
से कुछ लेना—देना
नहीं।
भगवान
को जिसने चुना
है, यह
अभ्यास से
नहीं हो सकता।
तो करें क्या?
फिर तो बड़ी
उलझन हो गई।
क्योंकि
अभ्यास सुगम मालूम
पड़ता है। कर
सकते हैं घड़ी—आधा
घड़ी रोज निकाल
कर स्मरण कर
सकते हैं।
इतना गरीब तो
कोई भी नहीं
कि आधा घड़ी न
निकाल ले। बिस्तर
पर पड़े—पड़े ही
राम—राम जप
सकते हैं; आधा
घड़ी कम सो
लेंगे। एक
थैली रख कर
उसमें माला
सम्हाल कर बस
में बैठे—बैठे
भी चला सकते
हैं, ट्रेन
में बैठे—बैठे
भी माला चला
सकते हैं।
लेकिन
अभ्यास से कभी
कोई परमात्मा
तक पहुंचा ही
नहीं। फिर
कैसे पहुंचें? फिर जरा
घबड़ाहट होती
है। फिर तो
द्वार बंद मालूम
होते हैं।
नहीं; द्वार बंद
नहीं हैं। तुम
गलत प्रश्न न
पूछो। ठीक
प्रश्न यह है
कि संसार की
इतनी याद
क्यों आती है?
धन की इतनी
याद क्यों आती
है? पद की
इतनी याद
क्यों आती है?
आदमी मरने—मरने
को भी हो जाता
है, तो भी
धन की ही
सोचता रहता
है।
मैंने
सुना है, एक
धनपति मर रहा
था। आखिरी घड़ी,
उसने अपनी
पत्नी से कहा:
मेरा बड़ा बेटा
कहां है?
पत्नी
ने कहा: आप
चिंता न करें, लेटे रहें।
बड़ा बेटा आपके
बगल में ही
बैठा है।
आंखें
धुंधली हो गई
हैं। अस्सी—पचासी
साल का बूढ़ा
है; दिखाई भी
नहीं पड़ता; सुनाई भी
मुश्किल से
पड़ता है; उठ
भी नहीं सकता।
चिकित्सकों
ने कहा, यह
आखिरी रात है।
उसने
पूछा: और छोटा
बेटा?
उसने
कहा: वह भी
बैठा हुआ है
तुम्हारे पैर
के पास, तुम
चिंता न करो।
तुम आराम करो।
और
मंझला बेटा?
और
पत्नी ने कहा:
वह इस तरफ
बैठा हुआ है।
हम सब यहीं
हैं। सारा
परिवार यहां
मौजूद है। तुम
चिंता न करो।
वह तो
हाथ टेक कर उठ
बैठा। उसने
कहा: फिर
दुकान कौन देख
रहा है? सब
यहीं बैठे
हैं। अरे
नालायको, अभी
तो मैं जिंदा
हूं। मेरे मर
जाने पर
बैठना। जो
करना हो, करना।
अभी कुछ तो
मेरा खयाल
रखो। अभी मैं
जिंदा हूं।
अभी मैं मर
नहीं गया हूं।
यही
आदमी फिर
दूसरे दिन
मरने की हालत
में आ गया; सुबह—सुबह
आखिरी सांसें
ले रहा है।
जैसा बाप वैसे
बेटे। बेटे विचार
करने लगे कि
कैसा इंतजाम
करना, अब
ये तो मरे, इनको
मरघट तक कैसे
ले जाना? बड़े
बेटे ने कहा
कि शान से ले
जाएंगे; सारे
गांव की कारें
इकट्ठी कर
लेंगे; जितनी
टैक्सी हैं, सब बुला
लेंगे।
मझले
बेटे ने कहा:
इतना खर्चा? इससे फायदा?
अब जो मर
गया सो मर ही
गया। चाहे
रोल्स रॉयस लाओ,
चाहे
केडिलक लाओ, क्या फायदा?
अपने घर की
एंबेसेडर
अच्छी है; उसी
में रख कर ले
चलेंगे।
तीसरे
बेटे ने कहा:
एंबेसेडर की
क्या जरूरत है
इसमें? म्युनिसिपल
का ठेला...!
बाप यह
सब सुन रहा
है। बाप उठ कर
बैठ गया। बाप
उठ कर बैठ
गया। उसने
कहा: मेरे
जूते लाओ, मैं पैदल
चला चलता हूं।
आखिर ठेले
वाले को भी पैसा
देना ही
पड़ेगा। अभी
मैं जिंदा
हूं।
आदमी
क्यों धन का
इतना स्मरण
रखता है? क्यों
पद का मरते दम
तक पीछा करता
है?
मोरारजी
भाई देसाई को
पूछो। बयासी
साल...मगर एक ही
बात प्राणों
में अटकी रही:
पद! पद! पद! कैसे
भी मिले। जीते—जी
मिले तो ठीक, मर कर मिले
तो ठीक—मगर पद
मिले!
आदमी
क्यों धन, पद, संसार
के लिए इतना
स्मरण करता
रहता है?
ईश्वर
को स्मरण करने
के पहले इस
स्मरण को समझना
जरूरी है।
इसकी समझ
जितनी गहरी
होती जाएगी उतना
ही यह शिथिल
होता जाएगा।
अगर आंख से
ठीक से देख
लिया कि मैं
धन की क्यों
आकांक्षा कर
रहा हूं; अगर
यह बात समझ
में आ गई कि धन
की चाह में
सुरक्षा की
चाह है; धन
की चाह में यह
खयाल है कि
अगर धन मिल
गया तो सब मिल
जाएगा...।
लेकिन धन से
क्या मिलता है?
किसको क्या
मिला है? अगर
तुम्हें यह
दिखाई पड़ गया
कि धन से कभी
किसी को कुछ
नहीं मिला और
धन से कभी
किसी को कुछ
नहीं मिल सकता
है, यह
झूठी यात्रा
है—तो धन का
स्मरण धीरे—धीरे
अपने आप
अवरुद्ध हो
जाएगा। पद से
क्या मिलेगा?
पद वाला
वैसे ही मर
जाता है जैसे
पदहीन मर जाता
है। और पद
वाले कब्रों
में पड़े हैं, जैसे पदहीन
कब्रों में
पड़े हैं।
मृत्यु सबको एक
सा पोंछ देती
है; फिकर
नहीं करती कि
कौन प्रसिद्ध
थे, कौन
अप्रसिद्ध थे;
कौन
शक्तिशाली थे,
कौन
शक्तिहीन थे।
ठीक से
अपने पद और धन
की आकांक्षा
को समझो, उसी
समझ में
तुम्हें यह
बोध आएगा कि न
धन से कुछ
मिलता है, न
पद से कुछ
मिलता है—और
मौत रोज आ रही
है। अगर
तुम्हें
दिखाई पड़ जाए
कि धन से कुछ
नहीं मिलता, तो धन की याद
अपने आप
विसर्जित हो
जाएगी। और पद
की दौड़ व्यर्थ
है—तो पद का जो
धुआं
तुम्हारे मन
में सदा घूमता
रहता है, वह
तिरोहित हो
जाएगा।
जहां
संसार की
आकांक्षाएं
समर्पित हो
गईं, शांत हो
गईं, शून्य
हो गईं—वहां
उठती है याद
परमात्मा की।
तुम्हारे किए नहीं
उठती। तुम तो
एकदम अवाक
अवस्था में हो
जाते हो, क्योंकि
तुम्हारी सब
पुरानी चाहें
गिर गईं। अब
तुम्हें कुछ
समझ में नहीं
आता। एक अचाह
की घड़ी आ जाती
है। लेकिन उस
अचाह में ही
तुम्हारे
भीतर पहली बार
एक नई सुवास
प्रकट होती है;
एक नया सरगम
बजता है। उस
सरगम का नाम
ही परमात्मा
की याद है।
म्हारो
जनम—मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
तुम
देख्यां बिन
कल न पड़त है, जानत मेरी
छाती।
मीरा
कहती है: मेरा
हृदय जानता है
कि तुम्हें बिना
देखे मुझे
क्षण भर भी कल
नहीं पड़ती।
जरा मौका
मिलता है कि
आंख बंद करके
तुम्हें देख
लेती हूं।
जहां मौका
मिलता है वहीं
आंख बंद करके
तुम्हें देख
लेती हूं।
संसार
को देखना हो
तो आंख खोल कर
देखना पड़ता है
और परमात्मा
को देखना हो
तो आंख बंद
करके देखना
पड़ता है। ये
आंखें संसार
को देखने के
काम आती हैं।
ये आंखें बंद
हो जाती हैं
तो भीतर की आंख
खुलती है।
बाहर
की तरफ जाती
हुई तुम्हारी
दर्शन की जो
क्षमता है, जब बाहर
नहीं जाती तो
यही दर्शन की
क्षमता भीतर
की तरफ लौटती
है। यही तरंग,
यही
पात्रता
देखने की, भीतर
बरसने लगती
है। और वहां
विराजमान है
वह जो सदा का
साथी है। वहां
विराजमान है
तुम्हारा अंतरतम,
अंतर्यामी!
तुम
देख्यां बिन
कल न पड़त है, जानत मेरी
छाती।
ऊंची
चढ़—चढ़ पंथ
निहारूं, रोवै
अंखियां
राती।
और
मीरा कहती है:
मेरी आंखें
देखते हैं, रो—रो कर लाल
हो गई हैं!
ऊंची चढ़—चढ़
पंथ निहारूं!
और जितना ऊंचा
बन सकता है
उतनी चढ़ कर
तुम्हारी राह
देखती हूं।
क्योंकि हो सकता
है, नीचे
से देखूं, तुम
दिखाई न पड़ो।
ऐसा
समझो कि तुम
खड़े हो एक राह
पर; देखते हो
कौन आ रहा है
राह पर। कितनी
दूर तक देखोगे!
ज्यादा दूर
दिखाई नहीं
पड़ता। फिर एक
वृक्ष पर चढ़
जाओ तो रास्ता
दूर तक दिखाई
पड़ता है। फिर
अगर हवाई जहाज
में बैठ जाओ
तो बड़ी दूर तक
रास्ता दिखाई
पड़ता है। जैसे—जैसे
तुम ऊंचे जाते
हो, उतने
दूर तक राह
दिखाई पड़ती
है।
यह
ऊंचे जाने का
अर्थ तुम्हें
अगर समझना हो
तो इसके लिए
ठीक—ठीक
व्यवस्था योग
में है। जिनको
योगियों ने सात
चक्र कहे हैं, वे सीढ़ी हैं
तुम्हारे
भीतर ऊंचे
चढ़ने की। अगर तुमने
मूलाधार से
देखा तो
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
मूलाधार से तो
सिर्फ
कामवासना
दिखाई पड़ती
है। अगर तुम
पुरुष हो तो
स्त्री दिखाई
पड़ेगी; अगर
स्त्री हो तो
पुरुष दिखाई
पड़ेगा। अगर
मूलाधार से
देखा तो
परमात्मा का
स्त्री—पुरुष
रूप दिखाई
पड़ेगा; इससे
ज्यादा नहीं
दिखाई पड़ेगा।
वह सबसे नीची सीढ़ी
है। वहां
परमात्मा इसी
ढंग से दिखाई
पड़ता है। अगर
थोड़े ऊपर बढ़े
स्वाधिष्ठान
से देखा, तो
स्त्री की देह
ही दिखाई नहीं
पड़ेगी, पुरुष
की देह ही
नहीं दिखाई
पड़ेगी; स्त्री
का मन भी
दिखाई पड़ेगा।
थोड़ा सूक्ष्म
हुई दृष्टि।
मूलाधार
से जो देखता
है, उसे
सिर्फ देह
दिखाई पड़ती
है।
स्त्रियां
यानी सुंदर
देह। जो
स्वाधिष्ठान
से देखता है, उसे
स्त्रियों का
मन भी दिखाई
पड़ता है; वे
सिर्फ देह
मात्र नहीं
हैं। और जो
थोड़ा और ऊपर
चढ़ा मणिपुर से
देखा, उसे
स्त्री की
आत्मा भी
दिखाई पड़ेगी।
ये तीन
नीचे के चक्र
हैं। चौथा
चक्र है:
अनाहत, हृदय—जिसको
मीरा छाती कह
रही है। जो
हृदय से
देखेगा, वह
कामवासना से
मुक्त हो गया।
उसके जगत में,
उसके जीवन—चैतन्य
में प्रेम का
आविर्भाव
हुआ। अब उसकी
आंखों पर
प्रेम की छाया
होगी। अब भी
वही लोग दिखाई
पड़ेंगे लेकिन
अब न उनमें
देह दिखाई
पड़ती, न मन
दिखाई पड़ता, न आत्मा
दिखाई पड़ती; अब उनमें
परमात्मा की
झलक मिलनी शुरू
होती है। झलक—कभी
दिखती, कभी
खो जाती। जैसे
रात में बिजली
कौंध जाए, फिर
अंधेरा हो
जाता है; एक
क्षण भर को
रोशनी, फिर
अंधेरा, ऐसी
झलकें होंगी।
फिर
पांचवां चक्र
है: विशुद्ध।
झलकें ठहरने लगती
हैं। देर—देर
तक ठहरती हैं।
प्रकाश होता
है तो रुकता
है; एकदम चला
नहीं जाता।
प्रकाश के
क्षण बढ़ने
लगते हैं; अंधेरे
के क्षण कम
होने लगते
हैं।
फिर
छठवां चक्र
है: आज्ञा। अब
प्रकाश
बिलकुल थिर
होने लगता है; लेकिन अभी
भी कभी—कभी
अंधेरा उतर
आता है। कभी—कभी।
जैसे पहले कभी—कभी
रोशनी उतरती
थी, अब कभी—कभी
अंधेरा उतरता
है। दिनों
गुजर जाते हैं,
मन रसलीन
रहता है; भाव
में डूबा रहता
है। लेकिन
एकाध दिन चूक
हो जाती है, पैर फिसल
जाता है। उसको
मीरा ने कहा
है: यो मन मेरो
बड़ो हरामी!
मंदिर चढ़ते—चढ़ते
पैर फिसल जाता
है। मगर यह अब
कभी—कभी होता
है। साधारणतः
सजगता बनी
रहती है।
फिर
सातवां चक्र
है: सहस्रार।
वह आखिरी सीढ़ी
है। उस पर से
खड़े होकर जो देखता
है, उसे
परमात्मा के
सिवाय कुछ भी
नहीं दिखाई
पड़ता।
मूलाधार
से जो देखता
है, उसे
संसार दिखाई
पड़ता है, परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता। और
सहस्रार से जो
देखता है, उसे
परमात्मा
दिखाई पड़ता है,
संसार
दिखाई नहीं
पड़ता।
इसलिए
तो ज्ञानी और
अज्ञानियों
के बीच बात
नहीं हो पाती; बड़ी मुश्किल
बात।
अज्ञानी
कहता है:
संसार है; परमात्मा
कहां? ज्ञानी
कहता है:
परमात्मा है;
संसार कहां?
उनकी भाषा
बड़ी विपरीत हो
जाती है।
अज्ञानी कहता
है: संसार
सत्य है; परमात्मा
भ्रांति है, कल्पना है, सपना है, कविता
है। ज्ञानी
कहता है:
परमात्मा
सत्य है; संसार
माया है। कैसे
हो मेल? इनकी
सीढ़ियां अलग—अलग
हैं। इनके
देखने के ढंग
अलग—अलग हैं।
संसारी देख
रहा है
निम्नतम तल से,
जैसे कोई
जमीन पर
घिसटता हो और
देखता हो और
उसे सिर्फ आस—पास
पड़ा हुआ कूड़ा—कचरा
दिखाई पड़ता हो;
और फिर कोई
आकाश में उड़ता
हो पंख फैला
कर, चांदत्तारों
से गुफ्तगू
करता हो और
वहां से देखता
हो पृथ्वी को—उसे
कोई कूड़ा—कर्कट
न दिखाई पड़े।
हरी—भरी
पृथ्वी! बहू
की तरह सजी
पृथ्वी! वहां
से गङ्ढे भी
नहीं दिखाई
पड़ते; डबरे
भी नहीं दिखाई
पड़ते। वहां से
सब सुंदर दिखाई
पड़ता है।
सत्यम् शिवम्
सुंदरम् है
वहां से सब।
हम पर
निर्भर है, हम कहां से
देखते हैं, कैसे देखते
हैं, कौन
सी जगह से
देखते हैं।
ऊंची
चढ़—चढ़ पंथ
निहारूं...
मीरा
कहती है: ऊपर
चढ़—चढ़ कर
देखती हूं।
मूलाधार से
सरकी, स्वाधिष्ठान
से सरकी, मणिपुर
से सरकी, अनाहत
पर खड़े होकर
तुम्हें देखा,
विशुद्ध
में तुम्हें
देखा, आज्ञा
से तुम्हें
देखा, सहस्रार
पर चढ़ आती हूं
कभी—कभी वहां
जहां सहस्रदल
कमल खिलता है—वहां
विराजमान
होकर तुम्हें
देखती हूं।
ऊंचे चढ़—चढ़ कर
देखती हूं, ताकि
तुम्हें
भरपूर देख लूं;
ताकि
तुम्हें ऐसा
देख लूं जैसे तुम
हो। ऐसा न
देखती रहूं
जैसा मैं
देखना चाहती
हूं। वैसा देख
लूं, जैसे
तुम हो।
तुम्हारा रूप
प्रकट हो जाए।
मेरी
कल्पनाएं सब
भस्मीभूत हो
जाएं।
तुम्हारा सत्य
आविर्भूत हो
जाए।
ऊंची
चढ़—चढ़ पंथ
निहारूं, रोवै अखियां
राती।
यो
संसार सकल जग
झूंठो, झूठा
कुल रा
न्याती।
और
मीरा कहती है:
अब दिखाई पड़
रहा है कि यह
सब संसार झूठा
है। नाते, रिश्ते, संबंध
सब झूठे हैं।
दोउ
कर जोड़यां अरज
करत हूं, सुण लीजो
मेरी बाती।
दोनों
हाथ जोड़ कर
प्रार्थना कर
रही हूं, मेरी अरजी
सुन लेना।
दोनों
हाथ जोड़ने की
बात तुम्हें
समझ लेना जरूरी
है। दुनिया
में कहीं भी, किसी देश
में दोनों हाथ
जोड़ कर
नमस्कार करने
की प्रथा नहीं
है। यह
आकस्मिक नहीं
है। इसके पीछे
एक बड़ी भारी
परंपरा है; एक बड़ा बोध
है। ये दो हाथ
मनुष्य के
भीतर जो द्वंद्व
है, उसके
प्रतीक हैं।
और दोनों हाथ
जोड़ कर जब तक निर्द्वंद्व
अवस्था न हो
जाए, जब तक
अद्वैत की
अवस्था न हो, तब तक अरजी
उस तक
पहुंचेगी
नहीं।
द्वंद्व से उठे
सब स्वर संसार
में खो जाते
हैं। द्वैत से
उठी सब
चिट्ठियां
यहीं संसार
में एक—दूसरे
के पास पहुंच
जाती हैं।
तुम्हारी
चिट्ठी
परमात्मा तक
तभी पहुंचेगी,
जब अद्वैत
से उठे; जब
तुम्हारे दोनों
हाथ जुड़ जाएं;
जब बायां और
दायां एक हो
जाए; जब
बुद्धि और
हृदय एक हो
जाएं; जब
शरीर और आत्मा
एक हो जाएं; जब तुम्हारे
भीतर जन्म और
मृत्यु एक हो
जाएं; जब
तुम्हारे
भीतर सुख और
दुख एक हो
जाएं, यश—अपयश
एक हो जाएं, सफलता—असफलता
एक हो जाएं; जब तुम्हारे
सब विरोध संयुक्त
हो जाएं, तुम्हारे
भीतर एक का
स्वर उठे।
जिस
क्षण
तुम्हारे
भीतर
निर्द्वंद्व
भाव—दशा होती
है, उसी क्षण
तुम्हारी
पाती
परमात्मा तक
पहुंच जाती है;
उसके पहले
नहीं।
दोऊ
कर जोड़यां अरज
करत हूं...
मीरा
कहती है:
दोनों हाथ जोड़
कर प्रार्थना
कर रही हूं, अब तो पहुंचनी
ही चाहिए।
निर्द्वंद्व
होकर प्रार्थना
कर रही हूं।
तुम्हारे
अकेले की ही
अभीप्सा बची
है, और कोई
अभीप्सा
नहीं।
...सुण
लीजो मेरी
बाती।
अब
तो तुम मेरी
बात सुन लो।
यो
मन मेरो बड़ो
हरामी, ज्युं
मदमातो हाथी।
हालांकि
मीरा कहती है:
मैं जानती हूं, भलीभांति
जानती हूं, कि हाथ जोड़—जोड़
कर बिठाती हूं,
कि हाथ छूट—छूट
जाते हैं। यो
मन मेरो बड़ो
हरामी! किसी
तरह बांधती
हूं एक में और
छूट—छूट जाता
है, खो—खो
जाता है, फिसल—फिसल
जाती हूं।
तुम्हारे
मंदिर की
सीढ़ियों पर से
भी गिर जाती
हूं। वह जो
सहस्रदल कमल
है, उसको
छू पाती हूं कि
फिर बिखर जाता
है। उठती हूं
एक बड़ी लहर की
तरह, मगर
फिर छितर जाती
हूं।
मीरा
ने भक्त के मन
की पूरी दशा
चित्रित की है।
ऐसा ही है।
कभी—कभी क्षण
भर को दो हाथ
जुड़ते हैं, और जब दो हाथ
जुड़ जाते हैं,
तभी आशीष की
वर्षा हो जाती
है। कभी—कभी
तुम्हारे
जीवन में भी
जुड़ जाते हैं;
किसी सुबह,
अकारण
तुम्हें समझ
में भी नहीं
आता क्यों!
शायद रात नींद
अच्छी हुई, शायद शरीर
स्वस्थ है।
सुबह उठे हो, सूरज उगा है,
पक्षी
स्तुतियां कर
रहे हैं
परमात्मा की,
मंदिर की
घंटी बज रही
है—और अचानक
तुम्हारे
दोनों हाथ जुड़
गए! यह चारों
तरफ की स्थिति
सहयोगी बनी।
अचानक
तुम्हारे
दोनों हाथ जुड़
गए। एक क्षण
को तुम्हारे
भीतर
निर्द्वंद्व
भाव उठा। तुम
पकड़ भी नहीं
पाओगे और खो
जाएगा। लेकिन
उस एक क्षण को
तुम्हारे
भीतर अमृत की
धार बह जाएगी।
ऐसा सबके जीवन
में हुआ है।
आकस्मिक हुआ
है, इसलिए
तुम इसके
मालिक नहीं हो
और चूंकि
आकस्मिक होता
है और इतने
जल्दी होता है
और खो जाता है
कि तुम पकड़ भी
नहीं पाते, कि तुम्हें
भरोसा भी नहीं
आता; तुम
सोचते हो: रही
होगी कोई
कल्पना।
कल ही
किसी ने मुझे
पत्र लिखा।
लिखा कि जब
यहां आश्रम
में होती
हूं...(किसी
संन्यासिनी
का पत्र है)...तो
चित्त बड़ा
शांत होता है।
नाचती हूं, तो भी भीतर
सब थिर रहता
है। गाती हूं,
तो भी भीतर
सन्नाटा होता
है। और तब उन
क्षणों में
आपकी यह बात
कि तुम सभी
बुद्ध हो, पूरी—पूरी
समझ में आ
जाती है।
लेकिन गई
बाजार की तरफ
कि सब चूक
जाता है, सब
खो जाता है।
फिर यह बात कि
प्रत्येक
बुद्ध है, बिलकुल
समझ में नहीं
आती। राह से
गुजरती हूं, दुकान पर
चीजें दिखाई
पड़ जाती हैं, खरीदने का
मन हो जाता है:
यह खरीद लूं, वह खरीद
लूं। तब भरोसा
नहीं आता है
कि मैं और कैसी
बुद्ध! राह पर
सुंदर किसी
व्यक्ति को
देखती हूं, मन आकर्षित
हो जाता है।
तब भरोसा नहीं
आता आपकी बात
पर कि मैं और
कैसी बुद्ध!
और ऐसा भी
नहीं है कि
ऐसे क्षण नहीं
आते जब भरोसा
न आता हो; ऐसे
क्षण भी आते
हैं। कभी—कभी
दोनों हाथ जुड़
जाते हैं।
दोनों
हाथ हैं; मुश्किल
से जुड़ते हैं।
लेकिन जोड़ने
की सारी कला
ही ध्यान, प्रार्थना,
पूजा, अर्चना,
या जो भी
नाम दो—दोनों
हाथ जोड़ने की
कला का नाम
है। ऐसी घड़ी
पैदा करनी है
जहां
तुम्हारे
दोनों हाथ
सहजता से जुड़
जाएं। ऐसी भाव—दशा,
ऐसा बोध
जगाना है।
इसलिए
कोई अवसर मत
चूको। सुबह
सूरज उगता हो, झुक जाओ
नमस्कार में।
इसलिए हिंदू
सूर्य नमस्कार
करते रहे।
क्योंकि जब
सूरज उगता है,
सारे जगत
में नया
पदार्पण हो
रहा है प्रकाश
का। इस घड़ी को
चूको मत। कौन
जाने हाथ जुड़
जाएं। इस लहर
पर सवार हो
जाओ। सूरज के
रथ पर सवार हो
जाओ। रात टूटी
है, अंधेरा
टूटा है, तंद्रा
टूटी है; वृक्ष
जागे, पक्षी
जागे, पशु
जागे, लोग
जागे—जागरण की
घड़ी है। कौन
जाने इस जागरण
की घड़ी में, इस प्रवाह
में तुम भी बह
जाओ और क्षण
भर को जागरण
लग जाए, क्षण
भर को जागरण
बन जाए, सध
जाए! मत चूको।
इसलिए
हिंदू सूर्य
नमस्कार करते
हैं। वह नमस्कार
अर्थपूर्ण
है। वह सूरज
को ही नहीं है
नमस्कार। वह
सिर्फ एक घड़ी
का उपयोग कर
लेना है, ताकि
दोनों हाथ जुड़
जाएं। और अगर
कोई भाव से झुका
है, बरसती
हुई सूरज की
रोशनी, कोई
भाव से झुक
गया है, एक
होकर झुक गया
है, तो
सूरज खो जाएगा,
सूरज की जगह
परमात्मा की
रोशनी बरसने
लगेगी।
रात
चांद निकला है, जोड़ लो हाथ, झुक जाओ
पृथ्वी पर।
गुलाब का फूल
खिला है, मत
चूको अवसर।
बैठ जाओ पास, जोड़ लो हाथ, झुक जाओ।
कौन जाने यह
गुलाब की
ताजगी, यह
गुलाब जो
गुलाल फेंक
रहा हो, कृष्ण
ने ही फेंकी
हो! है तो सब
गुलाल उसी की।
अब तुम ऐसे मत
बैठे रहना कि
वह लेकर
पिचकारी आएगा
तब, कुछ
नासमझ ऐसे
बैठे हैं कि
जब वह पिचकारी
लेकर आएगा तब।
और कपड़े भी
उन्होंने
पुराने पहन
रखे हैं कि कहीं
खराब न कर दे।
वह रोज ही आ
रहा है, प्रतिपल
आ रहा है।
उसके सिवा और
कुछ आने को है भी
नहीं। वही आता
है।
इन
वृक्षों में
से झलकती हुई
सूरज की
किरणों को
देखते हो! इन
वृक्षों में
जो किरणों ने
जाल फैलाया है, उसे देखते
हो! इन
वृक्षों के
बीच जो धूप—छाया
का रास हो रहा
है, उसे
देखते हो! यह
उसी का रास
है। इन
वृक्षों में
जो पक्षी कलरव
कर रहे हैं, यह वही है।
अब तुम यह मत
सोचो कि जब वह
बांसुरी बजाएगा,
तब हम
सुनेंगे। यह
उसी की
बांसुरी है।
कभी पक्षियों
से गाता है, कभी बांसों
से भी गाता
है। यह सारा
अस्तित्व
उसका है। यह
सब गुलाल उसकी
है। चंदन की
सुगंध में उसी
की सुगंध है।
वह फेंक रहा
है, लुटा
रहा है। मगर
तुम्हारे
दोनों हाथ
नहीं जुड़े हैं;
सो चूक—चूक
जाते हो।
दोनों हाथ
जोड़ो, अंजुलि
बनाओ। दोनों
हाथ जोड़ो, ताकि
तुम उसे भर
लो।
कोई
अवसर न चूको।
जहां तुम्हें
लगे कि यहां
इशारा है, वहीं झुक
जाओ। मंदिर—मस्जिद
की राह मत
देखो।
अजीब
मूढ़ता छाई है
लोगों पर!
हिंदू चला जा
रहा है अपने
मंदिर की तलाश
में, मुसलमान
चला जा रहा है
अपनी मस्जिद
की तलाश में।
मीलों चलता जा
रहा है।
रास्ते भर
परमात्मा फैला
हुआ है। राह
के किनारे
वृक्षों में
खड़ा है। रास्ते
के किनारे
खेलते बच्चों
में हंस रहा
है। आकाश में
उड़ते
पक्षियों में
उड़ रहा है।
शुभ्र बदलियों
में तैर रहा
है। तुम पर सब
तरफ से रोशनी
फेंक रहा है; गुलाल लुटा
रहा है; चंदन
बांट रहा है।
और तुम मूढ़ की
तरह मंदिर चले
जा रहे हो!
तुम्हें अगर
यहां नहीं
दिखाई पड़ता तो
मंदिर में
कैसे दिखाई
पड़ेगा? इतने
विराट में
नहीं दिखाई
पड़ता उस
क्षुद्र से
मंदिर में
कैसे दिखाई
पड़ेगा? इतने
स्वाभाविक
रूप में नहीं
दिखाई पड़ता, तो वहां तो
आदमी ने
व्यवस्था
बनाई है, वहां
तो आदमी के
बनाए हुए
देवता विराजमान
हैं, उनमें
तुम्हें कैसे
दिखाई पड़ेगा?
वहां भी
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
औपचारिकता वश
तुम झुक जाते
हो।
जो फूल
के पास न झुका, जो सूरज के
सामने न झुका,
जो बहती हुई
नदी की धार के
पास न झुका—वह
मंदिर और
मस्जिद में
झुके, बात
झूठी है। उसने
धोखा दे दिया
अपने को और
दूसरों को।
तो
असली सवाल है, जहां भी
दोनों हाथ जुड़
जाएं, जैसे
भी दोनों हाथ
जुड़ जाएं।
खोना ही मत
अवसर। चुनाव
भी मत करना।
चुनाव की वजह
से चूक रहे हो।
जैन है, वह जाता है, जैन मुनि के
सामने हाथ जोड़
कर झुकता है; हिंदू
संन्यासी के
सामने हाथ जोड़
कर नहीं झुकता।
चुनाव है।
जड़ता है।
हिंदू
मुसलमान फकीर
के सामने नहीं
झुकता; मुसलमान
के सामने, और
झुके! और
निश्चित ही
मुसलमान
हिंदू संत के सामने
नहीं झुकता।
ये
चुनाव
तुम्हें छोटा
कर रहे हैं।
चुनाव छोड़ो।
जहां झुकने का
अवसर हो, चूको
ही मत। और तब
तुम पाओगे:
चौबीस घंटे
में बहुत अवसर
आते हैं, जब
दोनों हाथ जुड़
जाते हैं। और
जितने—जितने
हाथ जुड़ने
लगेंगे, उतने—उतने
वे अपूर्व
क्षण
तुम्हारे
जीवन में उतरने
लगेंगे—वे
अमूल्य क्षण,
वे अमृत
क्षण।
दोउ
कर जोड़यां अरज
करत हूं, सुण लीजो
मेरी बाती।
यो
मन मेरो बड़ो
हरामी, ज्यूं
मदमातो हाथी।
सतगुरु
हस्त धरयो सिर
ऊपर, अंकुस
दे समझाती।
पल—पल
तेरा रूप
निहारूं, हरि चरणां
चित राती।
इस देश
में सदियों से
सदगुरु सिर पर
हाथ रखता है।
वह प्रतीक है।
वह प्रतीक है
तुम्हारी ऊर्जा
को सिर पर
खींच लेने का।
तुम्हारी
ऊर्जा पड़ी है
कहीं नीचे के
चक्रों में।
गुरु तुम्हारे
सिर पर हाथ
रखता है—वह
तुम्हारे
सहस्रार पर
हाथ रखता है।
गुरु तुम्हारी
ऊंचाई से, तुम्हारी
ऊंची से ऊंची
सीढ़ी पर हाथ
रखता है। गुरु
की ऊर्जा के
संपर्क में
तुम्हारी
ऊर्जा भी
खींची जा सकती
है। गुरु
चुंबक है। वह
तुम्हारे सिर
पर हाथ रखता
है, ताकि
क्षण भर को ही
सही, तुम्हारे
सहस्रार की
याद तुम्हें आ
जाए। क्षण भर
को ही सही, तुम्हारी
ऊर्जा
ऊर्ध्वगामी
हो जाए।
जब
गुरु शांति से
तुम्हारे सिर
पर हाथ रखे है, तो तुम भूल
जाओगे नीचे के
तल को। मस्ती
छाने लगेगी।
कुछ
गुनगुनाने
लगेगा। कुछ
कंपने लगेगा।
ऊर्जा उठेगी।
एक प्रगाढ़
धारा की तरह
ऊर्जा ऊपर की
तरफ खिंचेगी।
गुरु
हाथ रखता है
सिर पर। शिष्य
चरणों में सिर
रखता है। वे
दोनों एक ही
बात के प्रतीक
हैं। गुरु सिर
पर हाथ रखता
है, ताकि
ऊर्जा को
खींचे। शिष्य
पैर पर सिर
रखता है, ताकि
ऊर्जा को
उंडेले।
लेकिन असली
बात एक ही है
कि ऊर्जा
सहस्रार में आ
जाए। जब शिष्य
सिर झुकाता है
तो वह भी यही
कह रहा है कि
यह है जगह, जहां
मेरी ऊर्जा को
चाहूंगा; यह
है स्थान, जहां
जीना चाहता
हूं; यह
सीढ़ी है, जहां
उठना चाहता
हूं। और गुरु
जब सिर पर हाथ
रखता है तब वह
भी यही कह रहा
है कि यह है
जगह, जो
मूल्यवान है;
यह है मोक्ष,
यहां उठ
जाओ।
सतगुरु
हस्त धरयो सिर
ऊपर, अंकुस
दे समझाती।
जब से
गुरु ने मेरे
सहस्रार पर
हाथ रखा है तब
से बहुत—बहुत
समझाती हूं इस
मन को; फिर
भी हरामी है; फिर भी
धोखेबाज है; फिर भी कभी—कभी
भाग जाता है, जैसे पागल
हाथी। अंकुश
रखती हूं। जब
से गुरु ने
सिर पर हाथ
रखा है तब से
अनुभव में एक
बात आ गई है कि
रस वहां है; तब से एक बात
समझ में आ गई
है कि सौभाग्य
वहां है; तब
से एक अनुभव
हो गया है कि
रोशनी वहां है,
कि
परमात्मा
वहां है।
लेकिन फिर भी
यह मन है धोखेबाज;
फिर—फिर उतर
जाता है।
पुरानी आदतें
हैं। फिर चला
जाता है नीचे
के चक्रों
में। फिर
सोचने लगता है
नीचे के भाव।
फिर सोचने
लगता है नीचे
के सपने। फिर
वासनाओं में
उलझ जाता है।
लेकिन
मीरा कहती है:
तुम मेरा खयाल
रखना। मैं दोनों
हाथ जोड़ कर
प्रार्थना
करती हूं। मैं
तो तुम्हें
भूल ही नहीं
पाती; तुम
भी अगर कभी—कभी
मुझे याद कर
लिए तो यात्रा
पूरी हो
जाएगी।
मोहे
लागी लगन गुरु
चरनन की।
चरन
बिना कछुवै
नहिं भावै, जग माया सब
सपनन की।
एक बार
गुरु के चरण
छू लिए, तो
फिर कुछ और
भाएगा भी
नहीं। और अगर
चरण छूकर भी
कुछ भाता हो
तो इतना ही
समझ लेना कि
चरण अभी छुए
नहीं।
औपचारिकता पूरी
कर ली होगी।
गए, गुरु
के चरण छू आए।
चमड़ी से चमड़ी
छू गई, लेकिन
अंतर—ऊर्जाओं
का मिलन नहीं
हुआ। नहीं तो
यही होगा, जो
मीरा कहती है:
मोह लागी लगन
गुरु चरनन की।
एक बार
वह
ज्योतिर्मय
स्पर्श हो जाए, तो फिर लगन
लग जाती है।
जैसे पपीहा
रटता है: पी कहां!
पी कहां! पी
कहां! जैसे
चातक टेरता
आकाश की तरफ; राह देखता
है; स्वाति
की बूंद की
प्रतीक्षा
करता है—ऐसी
ही दशा भक्त
की हो जाती
है।
चरन
बिना कछुवै
नहिं भावै, जग माया सब
सपनन की।
और
जिसने एक बार
गुरु के चरणों
में सहस्रार
की थोड़ी सी
झलक पा ली, खिलते देख
लिए अपने भीतर
के अंतर—कमल, फिर अब सब
सपना लगेगा।
तुम
लाख कहो संसार
सपना है, तुम्हारा
कहना सिर्फ
कहना है। तुम
लाख दोहराओ कि
संसार माया है,
मगर
तुम्हारा
जीवन कहे चला
जाता है कि
नहीं माया
नहीं है, यही
सत्य है।
तुम्हारे वचन
नहीं, तुम्हारा
अंतस्तल ही
गवाही दे सकता
है।
इस देश
में सभी लोग
संसार को माया
कहते हैं। जो
देखो वही
संसार को माया
बताता है। और
उसी माया में सारे
लोग उलझे हैं
और बुरी तरह
उलझे हैं।
अच्छा है, जब तक
तुम्हें माया
दिखाई न पड़े, कम से कम मत
कहो कि माया
है, ईमानदारी
तो होगी।
परमात्मा
तुम्हें
बिलकुल नहीं
दिखाई पड़ता है
और कहते हो
परमात्मा
सत्य है।
ब्रह्म सत्य,
जगत मिथ्या—कहे
चले जाते हो, मगर ब्रह्म
का कोई अनुभव
नहीं है। और
जो अनुभव है, वह इसी जगत
का है। और
इसके ही अनुभव
को तुम जी रहे
हो। कम से कम
यह झूठ तो
छोड़ो।
इस देश
का सौभाग्य था
कि यहां
महाज्ञानी
हुए। और इस
देश का
दुर्भाग्य है
कि इस देश के
सभी
अज्ञानियों
ने ज्ञानियों
के वचन कंठस्थ
कर लिए। यहां
तोतों की इतनी
जमात हो गई है!
मोहे
लागी लगन गुरु
चरनन की।
चरन
बिना कछुवै
नहिं भावै, जग माया सब
सपनन की।
भवसागर
सब सूखि गयो
है, फिकर
नहीं मोहे
तरनन की।
मीरा
कहती है: मुझे
तरने की भी
चिंता नहीं
है। तरना क्या
है? जिस दिन
से तुम्हें
देखा, भवसागर
सूख गया।
यह बात
अनूठी है। यह
बात बड़ी
प्यारी है।
इसे खूब
सम्हाल कर रख
लेना हृदय
में। यह हीरों
जैसी
मूल्यवान बात
है। क्यों
इतनी
मूल्यवान है? क्योंकि
जिसने उसका
दर्शन पा लिया,
एक क्षण को भी
उसकी झलक पा
ली, उस
क्षण में ही
संसार असत्य
हो गया। अब
इसको भवसागर
क्या कहना; यह तो सूखा
रेगिस्तान हो
गया। अब इसको
तरने की बात
भी क्या है; यह तो कभी था
ही नहीं।
यह ऐसा
ही समझो कि
रात तुमने
सपना देखा कि
समुद्र के
किनारे खड़े हो
और उस तरफ
जाना है और
बड़े रो रहे हो, और बड़े
चिल्ला रहे हो
कि कोई मांझी
मिल जाता, कि
कोई नाविक आ
जाता, कि
कोई जहाज
किनारे लग
जाता। दूसरा
किनारा दिखाई
नहीं पड़ता और
तुम ज़ार—ज़ार
हुए जा रहे हो
और रो रहे हो
और चिल्ला रहे
हो। उसी
चिल्लाने और
रोने में
तुम्हारी
नींद खुल गई।
और तुमने पाया
कि कोई सागर
नहीं है। तुम
हंसने लगे।
तुमने कहा: मैं
व्यर्थ ही
परेशान होता
था। सागर ही
नहीं है, तो
पार होने की
बात क्या, मांझी
का सवाल क्या,
नाव की
जरूरत कहां?
भवसागर
सब सूखि गयो
है, फिकर
नहीं मोहे
तरनन की।
मुझे
तरने की भी
कोई चिंता
नहीं है।
मीरा
के प्रभु
गिरधर नागर, आस वही गुरु
सरनन की।
मीरा
कहती है: बस एक
ही आशा, एक
ही अभीप्सा कि
जिन चरणों में
बैठ कर तुम्हारा
स्वाद मुझे
मिला है, जिन
चरणों में बैठ
कर मेरी नींद
टूटी है, उन
चरणों में
पूरी की पूरी
डूब जाऊं।
जिस
दिल की हर तड़प
थी नई जिंदगी
मुझे
जां
बख्शो जां
नवाज वो अब
दिल नहीं रहा
है
दर्द अब भी
दर्द मगर वो
कसक नहीं
अपना
वो अब जिगर
नहीं वो दिल
नहीं रहा
है
बर्क अब भी
दुश्मने
खिर्मन मगर
मुझे
जाने
न क्यों कोई
गमे हासिल
नहीं रहा।
जब
से हुआ हूं
खाके कफे पाए
दोस्त में
मुझको
खयाले जादाओ
मंजिल नहीं
रहा।
जब से
उस परम प्रिय, उस परम
मित्र के
पैरों की धूल
हो गया हूं, तब से न तो
कहीं जाना है,
न कोई
रास्ता है, न रास्तों
का कोई खयाल
है, न कोई
मंजिल है।
जब
से हुआ हूं, खाके कफे
पाए दोस्त में
जब से
उस प्यारे
दोस्त के
पैरों की धूल
हो गया हूं।
मुझको
खयाले जादाओं
मंजिल नहीं
रहा।
अब तो
न कोई मंजिल
है, न कहीं
जाना है, न
मंजिल तक ले
जाने वाले कोई
रास्ते हैं, न रास्तों
की मुझे कोई
सुध है। सब
बात खतम हो गई।
मीरा
कहती है: बस
इतना ही बना
रहे—आस वही
गुरु सरनन की।
होरी
खेलते हैं
गिरधारी।
मुरली
चंग बजत डफ
न्यारो, संग
जुवति
व्रजनारी।
इस देश
का यह सौभाग्य
है। धर्म तो
दुनिया में और
भी पैदा हुए, लेकिन नाचता
हुआ धर्म
सिर्फ इस देश
में पैदा हुआ।
क्राइस्ट
उदास मालूम
होते हैं।
मोहम्मद के
जीवन में भी
नृत्य नहीं; युद्ध है, नृत्य नहीं
है।
जरथुस्त्र
बड़े ज्ञानी
हैं, लेकिन
बांसुरी
जरथुस्त्र के
पास नहीं। लाओत्सु
परम दशा में
रहे, लेकिन
उस परम दशा से
वीणा की टंकार
नहीं उठी, पैरों
में घुंघरू
नहीं बंधे।
इस देश
का सौभाग्य है
कि कृष्ण हुए।
और इस देश ने
ठीक ही किया
जो कृष्ण को
पूर्ण अवतार
कहा। राम
सुंदर हैं; मर्यादा
पुरुषोत्तम
हैं—लेकिन कुछ
कमी है। नृत्य
नहीं, गान
नहीं, मस्ती
नहीं। राम के
जीवन में
मधुशाला नहीं
है। वहां पीना—पिलाना
नहीं है। वहां
रसधार नहीं
बहती। रूखा—सूखा
है सब। अतिशय
रूखा—सूखा है।
मर्यादा रखनी
हो तो आदमी
रूखा—सूखा हो
ही जाता है।
बुद्ध
अपूर्व हैं, लेकिन मौन
हैं। मौन उनका
गीत नहीं बन
पाया।
महावीर
खूब हैं, अनूठे
हैं, लेकिन
इस जगत से
महावीर का मेल
नहीं पड़ता।
महावीर जिस
वृक्ष के पास
खड़े हैं, उस
वृक्ष से भी
मेल नहीं
बैठता, क्योंकि
वृक्ष कभी
खिलता है हजार—हजार
फूलों में, महावीर कभी
नहीं खिलते।
जिन
चांदत्तारों
के नीचे
महावीर खड़े
होते हैं, उनसे
भी मेल नहीं
है। वे
चांदत्तारे
नाच रहे हैं, सदा से नाच
रहे हैं। रास
चल रहा है।
अनंत रास चल
रहा है।
महावीर का उस
रास से कुछ
संबंध नहीं जुड़ता।
महावीर जहां
खड़े हैं, कहानियां
तो ये हैं कि
कभी पक्षियों
ने भी उनके
बालों में
घोंसले बना
लिए। मगर उन
पक्षियों में
जो गीत फूटते
हैं, वे
महावीर में
कभी नहीं
फूटे। कहानी
तो यह है कि
वृक्षों की
लताएं महावीर
के शरीर पर चढ़
गईं, खिलीं,
फूलों को
उपलब्ध हुईं,
गंध बिखरी;
मगर वैसे
फूल महावीर
में कभी नहीं
खिले।
महावीर
खूब हैं। मगर
हिंदुओं ने
ठीक ही किया, कृष्ण के
अतिरिक्त
किसी को पूर्ण
अवतार नहीं
कहा। कृष्ण की
पूर्णता क्या
है? कृष्ण
की पूर्णता
यही है कि
कृष्ण में
परमात्मा और
जगत मिलता है,
मेल खाता
है। कृष्ण
संगम हैं।
वहां देह और
आत्मा का नाच
है, नृत्य
है। कृष्ण के
साथ जगत का
अपूर्व मेल है—चांदत्तारों,
फूलों, पक्षियों,
वृक्षों, नदियों, पहाड़ों,
मनुष्यों—कृष्ण
जीवन से जरा
भी विपरीत
नहीं हैं; जीवन
के मध्य में
खड़े हैं।
होरी
खेलत हैं
गिरधारी।
कृष्ण
हैं अकेले, जिनमें रस
है और रास है; जिनमें
रहस्य है, सौंदर्य
है, शृंगार
है। जीवन की
बड़ी गरिमा, महिमा कृष्ण
में प्रकट हुई
है। सब रंगों
में, सब
कलाओं में जीवन
कृष्ण में
प्रकट हुआ है।
होरी
खेलते हैं
गिरधारी।
मुरली
चंग बजत डफ
न्यारो, संग
जुवति
व्रजनारी।
चंदन
केसर छिड़कत
मोहन, अपने
हाथ बिहारी।
ऐसा
चंदन और केसर
छिड़कता हुआ
परमात्मा
पृथ्वी पर
कहीं किसी ने
कल्पना भी
नहीं की है।
भरि—भरि
मूठि गुलाल
लाल चहुं देत
सवन पै डारी।
यह
रसमुग्ध दशा, यह समाधि, यह जीवन के
साथ अविरोध!
भक्त के लिए
कृष्ण के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं है। भक्त
बुद्ध के पास
नहीं जा सकता।
वहां मुरली
नहीं बजती, चंग नहीं
बजता, डफ
नहीं बजता।
वहां ध्यानी
बैठ सकता है
चुप, मगर
प्रेमी क्या
करे? भक्त
क्राइस्ट के
पास भी नहीं
जा सकता। वहां
करुणा है अपार,
बलिदान है
महान, जगत
के लिए अपने
को समर्पित
करने की बड़ी
कुर्बानी है;
मगर उदासी
है, सन्नाटा
है। चंदन—केसर
वहां कोई नहीं
छिड़कता। वहां
चंदन—केसर की
सुगंध नहीं।
और कोई नहीं
है कि गुलाल फेंक
दे। कोई नहीं
है जो तुम्हें
गैरिक रंग में
रंग दे।
खयाल
रखना, गैरिक
रंग, गुलाल
का रंग, बहुत
बातों का
प्रतीक है।
सूरज का। सुबह
का ऊगता सूरज
गैरिक होता है—जीवन
का, रोशनी
का, फूलों
का—सारे फूल
हरियाली में
लाल होते
हैं...रक्त का, लहू का। वही
जीवन की धारा
है। उल्लास का
रंग है लाल।
आनंद का रंग
है लाल।
भरि—भरि
मूठि गुलाल
लाल चहुं देत
सवन पै डारी।
छैल—छबीले
नवल कान्ह, संग...
परमात्मा
की ऐसी छैल—छबीली
प्रतिमा
जिन्होंने
खोजी, जिन्होंने
सोची, जिन्होंने
विचारी, उन्होंने
अपूर्व रूप से
प्रेम किया
होगा, तभी
यह हो पाया।
इस रूप में
परमात्मा का अवतरण
तभी हो सकता
है, जब इस
रूप में
हजारों—लाखों
लोग परमात्मा
को पुकारे
हों। इस रूप
में अवतरण तभी
हो सकता है, जब लाखों इस
रूप में
स्वागत करने
को तैयार रहे
हों।
परमात्मा उसी
रूप में उतरता
है, जिस
रूप में हम
पुकारते हैं।
हमारी पुकार
ही उसे लाती
है।
छैल—छबीले
नवल कान्ह, संग...
नये
हैं कृष्ण—सदा
नये हैं! छैल—छबीले
हैं! बड़े
सुंदर हैं!
सारे जगत का
सौंदर्य
उनमें समाया
हुआ है। सारे
जगत का
सौंदर्य जैसे
संगठित हो आया
है, एक जगह हो
गया है, एक
स्थान पर
एकत्रित हो
गया है! जैसे
सारे फूलों की
गंध और सारे
पक्षियों के
गीत और सारे
तारों की
रोशनी और सारी
नदियों का कलरव,
सारे
वाद्यों का
संगीत, सारी
आंखों की
गरिमा, सारे
चेहरों का रूप
एक जगह
संगृहीत हो
गया है!
छैल—छबीले
नवल कान्ह, संग स्यामा
प्राण
प्यारी।
और
"श्यामा' उनके
आस—पास नाच
रही है। मीरा
राधा के लिए
अक्सर "श्यामा'
शब्द का
उपयोग करती है;
वह बड़ा
प्यारा है।
क्योंकि जो
श्याममय हो गई,
अब उसका अलग
नाम क्या!
इसलिए "राधा' न कह कर मीरा
अक्सर
"श्यामा' कहती
है। श्याम
जैसी ही हो गई
जो। श्याममय
हो गई। श्याम
हो गई।
और
कृष्ण के पास
नाचना हो तो
श्यामा हुए
बिना और कोई
उपाय भी नहीं।
जिसे भी नाचना
हो, उसे
श्यामा होना
ही पड़ेगा।
अब यह
खयाल रखना, भक्त को
पुरुष की
कठोरता छोड़नी
पड़ती है। भक्त
को
स्त्रैण...सौंदर्य,
सरलता
ग्राहकता
ग्रहण करनी
पड़ती है। भक्त
तो स्त्री ही
होता है। वह
पुरुष हो कि
स्त्री, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। भक्ति
स्त्रैण है। क्योंकि
भक्त के लिए
तो सिर्फ एक
ही प्यारा है—वह
कृष्ण है। एक
ही प्रीतम है।
श्याम
के पास श्यामा
होने की
तैयारी हो, तो ही भक्त
गति कर पाता
है। अहंकार
छोड़ना पड़ेगा।
स्त्री को तो
इतना कठिन
नहीं है भक्त
होना, पुरुष
को बहुत कठिन
है। क्योंकि
उसे पुरुष होने
का अहंकार भी
छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए
कभी—कभी ऐसा
हुआ है कि जब
पुरुष कोई
भक्त हुआ है
तो स्त्रियों
से भी बाजी
मार ले गया
है। मीरा का भक्त
होना तो
बिलकुल ठीक, सुगम है; लेकिन
चैतन्य का? चैतन्य का
भक्त होना...!
मीरा को तो
अहंकार छोड़ना
है, चैतन्य
को दो अहंकार
छोड़ने हैं।
अहंकार तो
छोड़ना ही है, फिर पुरुष
होने का भाव
भी छोड़ना है।
वह और भी गहन
अहंकार है।
लेकिन श्यामा
हुए बिना कोई
मार्ग नहीं
है। भक्त बनना
हो तो श्यामा
बनना पड़ेगा।
छैली—छबीले
नवल कान्ह, संग स्यामा
प्राण
प्यारी।
गावत
चार धमार राग
तंह दै दै कल
करतारी।
फागु
जु खेलत रसिक
सांवरो...
वह
प्यारा फाग
खेल रहा है, रोज खेल रहा
है! फागुन में
ही नहीं, रोज
खेल रहा है, दिन—रात खेल
रहा है। आंख
खोलो और देखो।
रोज गुलाल फेंक
रहा है। तुम
अंधे हो। कभी—कभी
तो तुम समझते
हो, गुलाल
नहीं, आंख
में धूल पड़
गई। रोज पुकार
रहा है। रोज
तुम्हें
रंगने को राजी
है, तत्पर
है। मगर तुम
रंगे जाने को
राजी नहीं हो।
इसलिए फागुन
चूका जाता है।
भक्त
के लिए बारह
मास फागुन है।
फाग ही चल रही है।
क्योंकि
परमात्मा
प्रतिपल अपनी
सृष्टि से खेल
रहा है; निरंतर
लेन—देन चल
रहा है।
फागु
जु खेलत रसिक
सांवरो, बाढ़यो
व्रज रस भारी।
परमात्मा
तो खेल ही रहा
है; अगर तुम
भी समझ जाओ इस
खेल को, तो
तुम्हारे
हृदय में बड़े
रस की वर्षा
हो जाए। व्रज
में बहुत रस
की बाढ़ आ जाए।
व्रज
से कुछ अर्थ
किसी भौगोलिक
स्थान से नहीं
है। व्रज है
तुम्हारे
भीतर प्रेम की
पुकार का नाम।
व्रज है
तुम्हारे
भीतर प्रार्थना
का नाम। जब भी
तुम उसे
पुकारोगे
आतुरता से, तुम व्रज हो
गए। तुम्हारे
भीतर अगर उसके
विरह की आग
ऐसे बहने लगे
जैसे व्रज में
यमुना बहती है
तो यमुना के
किनारे तुम उस
रसिक को नाचता
हुआ पाओगे।
हर काल
में, हर समय
में, हर
स्थिति में
परमात्मा
उपलब्ध है। ये
बातें अतीत की
नहीं हैं, न
भविष्य की—ये
बातें शाश्वत
के लिए सत्य
हैं।
फागु
जु खेलत रसिक
सांवरो, बाढ़यो
व्रज रस भारी।
मीरा
के प्रभु
गिरधर नागर, मोहन लाल
बिहारी।
मीरा
कहती है: खूब
रस बह रहा है, खूब रस बढ़
रहा है, खूब
परमात्मा बरस
रहा है! फाग हो
रही है। ऐसी फाग
तुम्हारे
जीवन में भी
हो सकती है।
मीरा पर हम
विचार इसलिए
करेंगे कि
शायद मीरा को
सुनते—सुनते
तुम्हारे
हृदय को भी
पुलक लग जाए।
बगिया
से कोई गुजरता
है, तो चाहे
फूलों को न भी
छुए तो भी
वस्त्रों में थोड़ी
फूलों की गंध
समा जाती है।
माली फूल तोड़ कर
बाजार ले जाता
है, लौट कर
पाता है कि
हाथ फूलों की
सुवास से भर
गए हैं।
मीरा
को सुनते—सुनते
शायद रस की
एकाध—दो बूंद
तुम्हारे
चित्त में भी
पड़ जाएं। और
ध्यान रखना, रस की एक—एक
बूंद एक—एक
सागर है। एक
बूंद डुबाने
को काफी है।
एक बूंद
तुम्हें सदा
को डुबाने के
लिए काफी है।
क्योंकि फिर
अंत नहीं आता।
एक बूंद आई कि
सिलसिला शुरू
हुआ। पहली
बूंद ही कठिन
बात है। फिर
तो सब सरल हो
जाता है।
खोलना
अपने हृदय को।
इन आने वाले
दस दिनों में
नाचना, गाना,
आनंदित
होना, ऊंचे—चढ़—चढ़
कर देखने की
कोशिश करना।
म्हारो
जनम—मरन को
साथी, थानें
नहिं बिसरूं
दिन—राती।
तुम
देख्यां बिन
कल न पड़त है, जानत मेरी
छाती।
ऊंची
चढ़—चढ़ पंथ
निहारूं, रोवै अखियां
राती।
यो
संसार सकल जग
झूंठो, झूंठा
कुल रा
न्याती।
दोउ
कर जोड़यां अरज
करत हूं, सुण लीजो
मेरी बाती।
यो
मन मेरो बड़ो
हरामी, ज्यूं
मदमातो हाथी।
सतगुरु
हस्त धरयो सिर
ऊपर, अंकुस
दे समझाती।
पल—पल
तेरा रूप
निहारूं, हरि चरणां
चित राती।
आज
इतना ही।
आदरणीय स्वामीजी! प्रणाम! आपको हृदय पूर्वक धन्यवाद देता हूँ कि आपने सभी प्रवचन यहाँ दिए हैं| अक्सर आपके ब्लॉग में पढ़ता हूँ! कभी कोई प्रवचन पुस्तक में ना हो या ऑडियो में कुछ छूट गया हो, तो यहाँ पढ़ता हूँ| हृदयपूर्वक नमन और आभार! - निरंजन
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