अध्याय - 42
नये मकान का बनना
जीवन में कहीं भी कोई ठहराव नहीं है, हमें लगता जरूर है, वहां पहुंच कर सब ठीक हो जायेगा, परंतु सत्य ऐसा नहीं है। जीवन एक गतिशील-एक परिक्रमा है, एक अविरलता, एक बहाव समेटे चलता रहता है वह सब अपने में। यही है जीवन का सार तत्व। शायद जीवन का ही नहीं सम्पूर्ण जगत एक घूरी पर गति कर रहा है। जब हमारे जीवन में खुशी बह रही होती है तो हमें न जाने क्यों लगता है कि यहीं जीवन ठहर जाये। या यूं कह लो हमारी अंतस की चाहता है कि अब जीवन में एक आनंद एक खुशी का थिरता का ठहराव आ जाये। संसार का विस्तार फैलाव सदा हो रहा है। जीवन में जब दुःख दर्द हो तो हम ठहरना नहीं चाहते तब तो हम बदलाव चाहते है। परंतु खुशी के उन पलों को चाहते है वह रूक जाये परंतु हमारा मन दो तरह से कार्य कर रहा है, एक और ठहरा और एक तरफ बदलाव। जीवन की यही बेचैनी है। आप उस जीवन चक्र में फंसे है जहां ठहराव नहीं है। परंतु हम नहीं जानते की उस सब में हमें कैसे जीना है। उस सुख को या दुख को पकड़ कर नहीं, ये तो जीवन के दो किनारे है। वह तो एक तरलता समेटे हुए आया है और एक बहाव की तरह चले जाएंगे। हम तो केवल उसमें जी सकते है। और इस जीवन को जीने कि कला का नाम ही ध्यान है।
नया मकान खरीदने पर
अचानक पापा-मम्मी पर काम का बोझ तो बढ़ गया था। परंतु मैं देख रहा था की इस सबके
बाद भी काम की गति बहुत तेज हो गई थी। किस तेजी से उस मकान को तोड़ा गया। उसको एक
खास ऊंचाई तक ही तोड़ा गया,
क्योंकि वह बहुत पुराना मकान था, जो की इंटों
का न होकर पत्थरों और गारा से बना था। सो इन पत्थरों को दूर भेजना भी काफी कठिन
था। इसके अलावा मैं देख रहा था वहां इतने बड़े-बड़े पत्थर लगे हुए थे जिन्हें उन
आदमियों ने उठाए भी कैसे होंगे। क्या पहले का आदमी अधिक ताकतवर रहा होगा। नहीं तो
इतनी उंचाई पर इतने बड़े-बड़े पत्थरों को कैसे चढ़ाया जा सकता है। खैर पापा जी और
राम रतन ने इन पत्थरों से मकान की बुनियाद के साथ-साथ अंदर का भरत भी भर कर तैयार
कर दिया था। एक तो इससे मकान भी कुछ उंचा ही उठ जायेगा। और मजबूती भी थोड़ी अधिक
आयेगी। शहर में हम देखते है की बाहर की गलियां हर साल कुछ न कुछ इंच हर साल दो साल
में उंची उठती ही जाती है।
दुकान को ही लो, करीब
पापा जी ने उसका चबूतरा चार फीट किया था। अब करीब दो ही फीट रह गया है। इस तरह से
पाए या खंभे खड़े किए गये और उनके एक टाई से बाँध दिया गया। फिर उन स्तम्भ या
पिल्लरों के बीच में इंटों से दीवार उठी। पहली मंजिल कुछ अधिक ही उंची उठाई गई थी।
वो करीब 18 फीट ऊंची रही होगी। उस में एक ध्यान का बहुत बड़ा हाल बनाया जा रहा था।
ऊपर की मंजिल में दोनों भैया के रहने के लिए एक-एक सेट बनाया जाना था। मैं से सब सुनता रहता और समझने की कोशिश
करता था जब पापा जी राम रतन को समझा रहे होते थे।
दादा जी आज कल राम रतन से बहुत खुश रहते थे। पहले जितने उनसे गुस्सा थे अब
उनसे बहुत खुश थे। क्योंकि अब उनकी एक अलग शान थी। जब दुकानों पर काम चल रहा था तो
रोज राम रत्न से लड़ते थे। लेकिन अब तो किस गर्व से अपने मित्रों को भी ला कर पूरे
ओशोबा हाऊस में घुमाते है उसकी एक-एक चीज को दिखाते थे।
जैसा दादा जी ने
कहा था ठीक उसी तरह का बड़ा गेट बनाया गया। सामने उंची छत जो करीब 20 फीट पर थी। केवल आगे दो मोटे-मोटे पाए पर खड़ी थी वह
बीस फीट की छत देखने में भी डर लगता था। उस छत के इस तरह गोल घुमाव के कारण कितना
सुंदर लग रहा था बहार से देखना। जब मैं बाहर से जाकर देखता था तो कैसा अजीब सा
लगता था क्या यही हमारा घर है। सब कुछ तो बदल गया था जो कुछ पुराना था। कितना
सुंदर लगेगा जब इस पर टाईल लगाई जायेगी। करीब तीन महीने में उधर का ढांचा बन कर
ऊपर पहुंच गया। मकान इस तरह से बन रहा था की दोनों मकान अलग भी रहे और एक दूसरे से
मिल भी जाये। इस तरह से इसकी सीढ़ीयां भी अलग से बनाई गई थी। परंतु पहली मंजिल और
ऊपर की छत से उन सीढ़ीयों को मिला दिया गया था। चाहे आप इस सीढ़ी का इस्तेमाल करो
या फिर उस का आपकी मर्जी है। इसका रास्ता भी अलग से कर दिया था। ताकि चाहो तो आप
इस रास्ते का उपयोग कर सकते हो। एक छत से दूसरी छत पर आसानी से इधर उधर आ जा सकते
थे। दोनों भाइयों को एक-एक सेट बनने के बाद ऊपर की छत पर एक कमरा-एक बाथरूम बनाया
गया। सामने खुले आँगन में दीवार के साथ-साथ चारों क्यारियां बना दी गई थी। जिनमें
पेड़ पौधे लगाये जा रहे थे। आप छत पर बैठो लेटो आस पास कोई देख भी नहीं सकेगा।
दूसरा हवा पानी भी साफ रहेगी।
दिल्ली में आजकल
आबादी का बोझ बड़ जाने से प्रदूषण अधिक होता जा रहा था। इस गांव में मैं जब आया था
कितने कम घर ऊंचे बने थे। अब तो आप एक छत से दूसरी छत पर जा भी नहीं सकते थे। पहले
जंगल में जाने के लिए मैं इन्हीं छतो का सहारा लेता था। और अपनी छत से कितनी ही छतों
से होता हुआ। बहार भाग जाता था। अब तो अपने घर से केवल बाहर झांक भर सकता हूं जाने
के तो सपने ही भूल जाओ। पहले घर की छतो पर मोर आकर नाचा करते थे। लोग पानी व दाना
बर्तनों डाल कर छतों पर रख देते थे। परंतु अब कई साल से वो आने बंद हो गए थे।
मकानों की ऊंचाई की वजह से। इतना ऊँचा उड़ना मोर के बस की बात नहीं रही। अब वह दूर
जंगल में ही मिलते है। मैं जब भी पापाजी के साथ जंगल में जाता हूं तो उनके लिए
कितनी ही बार वह खोले के लिए कुछ न कुछ ले ही जाते है।
ऐसा नहीं की हम ही
उनके खाने के लिए ले जाते है। और लोग जितने भी आते है। उनके हाथ में कुछ ना कुछ तो
जरूर ही होता था। चाहे रात की बची रोटी हो। भारत में अन्न को भगवान माना गया है।
इस लिए इसे मेहनत से उगाया जाता है। इसी सब तो मनुष्य का दूसरे प्राणियों काजी वन
है। तब इसे बरबाद करना पाप समझा जाता है। चाहे वह किसी प्राणी के मुख में जाये।
अचानक मेरे जीवन
में कुछ परिवर्तन होना शुरू जो हुआ था। जो मेरे मन में एक भय समाने लगा था अचानक
से, उसका कारण शायद ये मेरी उम्र का पड़ाव उतार की तरफ था। या जीवन में घटी
किसी घटना के कारण मैं ऐसा महसूस कर रहा था। परंतु मैं इस रहस्य को समझ नहीं पा
रहा था। जब भी घर में कोई बीमार होता तो उसकी विकृत उर्जा की तरंगों से बहुत भय
लगने लगा था। लगता था की मैं इस उर्जा में कुछ देर और रहा तो टूट कर बिखर जाऊंगा।
न जाने कैसे मेरे इस व्यवहार को सारा परिवार जान गया था। हिमांशु भैया जब बीमार
हुए तो वह अकेले अपने कमरे में रहते थे। और मुझे बार-बार बुलाते, मेरी मिन्नत करते, परंतु मैं पूंछ को हिला कर तुरंत
उनसे दूर भाग जाता था। केवल दादा जी ही उसके साथ घंटों बेटे रहते थे। परंतु एक बात
बड़ी विचित्र थी कि जब दीदी जी बीमार होती तो मैं उसके पास घंटों बैठा रहता था।
उसके साथ रहने में मुझे कोई भय नहीं लगता था। ये क्या कारण हो सकता था। ये सब बाते
एक रहस्य अपने में समेटे थी जो मेरी तो समझ के परे थी। वरूण भैया जब एक बार बहुत
बीमार हुए तब भी मेरे को ऐसा ही महसूस हो रहा था। क्या उर्जा-उर्जा में भेद होता
है। सभी परिवार के अलग-अलग कमरे थे नीचे जो पुराने वाले मकान में दुकडियां साल और
कोठा था उसमें मैं और दीदी ही रहते थे। दीदी पलंग पर सोती और मेरा बिस्तरा उससे
थोड़ा दूर साल में लगा दिया जाता है। मेरी समझ में ये भी नहीं आता था कि साथ-साथ
एक ही मकान में दो कमरे अलग-अलग होने पर दोनों को अलग नाम से क्यों पुकारा जाता
था। एक को कोठा और दूसरे को साल...तब एक
दिन मैंने पापा जी को बात करते हुए सुना की साल...यानी शाल की लड़की की कडियों से
बनी छत वाले दुकडियां कमरे को साल बोलते है, वह थोड़ा बड़ा
हो जाता था। क्योंकि उसके बीच एक लोहे या लकड़ी का बहुत बाड़ा सा गाटर या शहतीर
लगा दिया जाता था। जिसके दोनों और कडियों लगाने के कारण कमरा दोगुना हो जाता था।
और कोठा यानी गहरा अंदर वहां पर बहुत अंधेरा होता था। उसमें एक दरवाजा एक खड़की या
दो दरवाजे। वहां दिन में भी हाथ को हाथ नहीं सूझता था। और वहां पर गहन शांति होती
थी। वहां पर आप कुछ देर रुके तो आपके कानों में एक अजीब सी शाऊं.. शाऊं... आवाजें
आनी शुरू हो जाती थी।
नीचे वाली जगह बहुत
ही शांत और एकांत भरी थी,
परंतु मेरी आंखें न जाने किस तरह की बनी थी की मैं तो अंधेरे में
जाकर चीजों को ढूंढ लाता था...जैसे की जंगल जाते हुए, पापा
जी के जूते, डंडा....मांगते तो यह मेरे लिए गर्व का विषय था।
क्योंकि तब मुझे अपनी कला को दर्शाने का मोका मिलता जाता था। मैं किस तेजी से अंदर
जाता और पापा जी के वहीं पुराने जूते जिन्हें वह जंगल में पहन कर जाते थे मुंह में
पकड़ कर पापा जी के सामने खड़ा हो जाता था। तब इस कार्य के लिए सब तालियां बजा कर
मुझे शाबासी देते थे। और मैं किस गर्व से अपनी पूछ को हिला-हिला कर उस अभिनंदन को
स्वीकार करता था।
वैसे ऐसा कहना नहीं
चाहिए इस घर में बच्चे कम बीमार होते थे। मैंने तो अपने जीवन में एक बार दीदी और
एक-एक बार वरूण-हिमांशु भैया को ही देखा है, इस बार ने जाने क्या हुआ की
वरूण भैया बहुत बीमार हो गये। अचानक एक दिन वह स्कूल से आने के बाद लेट गये और पेट
पकड़ कर दर्द से कराहने लगे थे। मैं उसके पास गया, उसे जानने की कोशिश की कि क्या
बात है, परंतु मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। एक दूसरी बात
और थी की वरूण भैया बड़े तो हो रहे परंतु पतले बहुत थे। यानि की लंबे हो रह थे
परंतु सूखे कमजोर, सब उसका मजाक बनाते थे की दूध की दुकान का
इसके नाम से रख दिया और इसकी शक्ल देखेगा तो कोई दूध क्या खरीदेगा। परंतु ये तो एक
मजाक था। और समस्या थी की वह इस तरह से पेट पकड़ कर क्यों लेटे हुए थे। जैसे में
आज-कल जंगल से आने के बाद मैं मरा साथ थक कर पड़ जाता था। न कुछ खाता न पीता था,
बहुत गहरे से थक जाता था। इसी सब से पापा-मम्मी को डर सता रहा था की
जरूर इन्हें कोई अंदरूनी बीमारी हो गई है।
एक दिन अचानक तब
दर्द अधिक हुआ तो उन्हें एक अस्पताल में ले कर गए...परंतु वहां जाने के बाद क्या
हुआ कि फिर कई दिनों बाद ही भैया घर पर आये ही नहीं आये। मैं इंतजार करता रहता। सब
लोग जाते परंतु मुझे कोई कुछ नहीं बतला रहा था। मेरे मन में न जाने क्यों तनाव बढ़
रहा था। क्योंकि पापा जी भी उस दिन के बाद कम ही घर पर आते थे। अब मैं अपने मन की
बात किससे कहूं मेरी बात और हालात को कोई और समझता ही नहीं था केवल पापा जी मेरी
भाव दशा को समझ जाते थे। जब एक दिन पापा जी आने के बाद नहाने गये तो में वही बैठ
गया। जब पापा जी नहा कर बहार निकले और मेरा चेहरा देखा तो समझ गए की यह जरूर वरूण
का इंतजार कर रहा है। तब वह मेरे सर पर हाथ रख कर कहने लगे की वरण ठीक है कल या
परसों आ जायेगा। तू क्यों घबराता है। तेरा पापा है न उसके साथ। और पापा जी की वो
तरंग मेरी पकड़ में आ गई। और में आनंद से झूम उठा।
जब वरूण भैया घर
आये तो उनका सहारा दे कर चल रहे थे। अपने पेट को एक हाथ से पकड़े हुए थे। वह पहले
से ही बहुत कमजोर थे अब तो और भी कमजोर हो गए। उनके पेट पर बहुत सी पट्टियां बंधी
हुई थी। जैसे किसी ने उनका पूरा पेट कटा
दिया हो। मैं सोच रहा था की उस समय भैया जी को कितना दर्द हुआ होगा। और वह बहुत ही
कमजोरी के कारण उनका चेहरा एक दम से पीला हो गया था। मानो उनके तन में कुछ खून ही
नहीं बचा। ऐसा क्यों हुआ ये सब मेरी समझ के बहार की बात थी। तब उन्हें नीचे की साल
में लिटा दिया गया था। क्योंकि सीढ़ी चढ़ने से पेट पर अधिक जोर पड़ता होगा। वह
नीचे विश्राम करते थे तो मैं ज्यादा देर उसके पास नहीं ठहर पाता था। मेरे अंदर का
परिवर्तन कुछ समझ के परे की बात थी। क्या किसी भय या मौत के भयभीत करण रहा होगा।
अचानक मेरे पेट में कभी अचानक दर्द उठ जाता जैसे की बचपन में होता था। तब मैं
एकांत में लेट जाता। उस दर्द के कारण कुछ खाना भी नहीं खाता था नहीं तो दर्द दो
गुणा हो जाता था। मन को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। पापा जी आज कल बहुत काम में
लगे रहते थे ऊपर से भैया की बीमारी। धीरे-धीरे सब बदल रहा था, मैं
चाह कर भी अपनी बीमारी को बतला नहीं पा रहा था। समय पार कर भैया जी भी ठीक होकर
स्कूल जाने लगे और मैं भी धीरे-धीरे अपनी बीमारी को लगभग भूल गया था।
परंतु अब मैं कुछ
सचेत सा रहने लगा,
कोशिश करता था, की कम ही खाना खाऊ, एक दो बार मैंने दीदी को अपने पेट के दर्द के बारे में रात को रो-रो कर
बतलाया था। तब दीदी उठ कर मेरे पास आई की पोनी क्यों रो रहा है। परंतु मैं उसके
पास बैठने मात्र से सब दर्द भूल गया की दीदी नाहक परेशान होगी। तब अगले दिन दीदी
ने पापा को बतलाया। और उस दिन के बाद मुझे सुबह-एक चिकना पदार्थ एक बड़े से
इंजेक्शन में भर कर पिलाया जाता था। मन को कुछ अकबका तो लगता परंतु दो तीन दिन में
ही मेरे पेट को आराम हो गया। बाद में पता चला की मुझे नारियल का तेल पिलाया जा रहा
है। इस बीच कच्चा नारियल जब भी घर आता मैं जरूर खाता था। और इसके साथ मुझे आज कल
जो उबले भुट्टे बहुत पसंद आते थे। एक-एक दाने को निकाल कर दोनों हाथों से पकड़ कर
खूब मस्त हो कर खाता था।
दीपावली तक काम
करने के बाद राम रतन घर चले गये मैं समझ गया की अब मोज ही मोज है। पापा मम्मी को
आराम होगा। और हम कभी-कभी घूमने भी चले जायेंगे। क्योंकि अब कम से कम दो तीन महीने
से कम राम रतन जी तो आ ही नहीं सकते। मौसम सुहावना हो चला था। बच्चों की भी
छुट्टियां हो गई थी। इस बीच सब मिल कर हम ध्यान करने लगे थे। पिरामिड तो पूरा बन
कर तैयार था। अब तो फर्श की घिसाई भी हो गई थी। ए. सी. भी लग गया था। कितना मजा
आता था उसके नीचे लेटने से कितने गजब की चीज मनुष्य ने बनाई कितनी ही गर्मी हो आप
को सर्दी का आनंद मिलना शुरू जायेगा। बीच फर्श पर मैं मस्त लेट कर ध्यान करता।
ध्यान खत्म होने पर भी मेरा बहार जाने को मन नहीं करता था। क्योंकि बाहर तो गर्मी
थी। परंतु मजबूरी थी। ये मेरे लिए एक नया ही अनुभव था। आदमी तो भगवान हो गया। मौसम
को भी अपनी जरूरत के अनुसार बदल लेता है। पहले तो जो टेबल फेन होता था मैं उसके
सामने लेट जाता था। तब बहुत मजा आता था। परंतु ए. सी. के क्या कहने। इसके अलावा अब
पिरामिड की शांति भी बहुत गहरी होती जा रही थी। कभी-कभी तो जब में बहुत गहरे चला
जाता तो लगता की अब में बारह नहीं आ सकूंगा। और कितनी ही देर इसी तरह से मृत तुल्य
पड़ा रहता कई बार तो पापा जी ही मुझे प्रेम से छूते तब मैं शरीर में आता। कई बार
में सोचता की अगर पापा जी न हो तो क्या मैं खड़ा हो सकूंगा।
जीवन भी कैसी-कैसी
तरह की उर्जा का खेल है,
एक ही उर्जा, भिन्न-भिन्न प्राणियों में अपने
भिन्न-भिन्न प्रकार दिखती है। वहीं उर्जा मुझे क्रोध देती है, वही प्रेम, वहीं भय, इस सब के
पीछे कारण क्या होता है, क्या हमारे मन और भावों का ही ये
सारा खेल है, उर्जा को हस्तांतरित करने में। कुछ भी शुभ और
कुछ भी अशुभ नहीं है, ये मात्र मन और उर्जा को बहाव है। क्या
इस उर्जा में संकल्प भी अपनी भूमिका नहीं निभाता। वह एक नया मार्ग नहीं देता उर्जा
के आयाम में गति के लिए। हमारी जीवन उर्जा बहुआयामी है। उसे आप चाहे जिस और गति दे
सकते हो। लगभग तो हमारे कर्म ही उसे मार्ग की लकीर बन जाते है। उसे जहां अधिक
सुविधा मिलती है जाने में वह वहीं गति करने लग जाती है।
खान पान जीवन को
विभिन्न जरूरी और महत्वपूर्ण है, अब हमें तो मात्र सूंध कर ही पता चल
जाता है की क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। परंतु ये कार्य बचपन में मेरे लिए दूभर
क्यों थी। शायद उस समय मन जवान था ताकत वर था। इसी तरह से आज मैं देखता हूं मनुष्य
भी अपने मन के कारण परेशान सा दिखलाई देता है। उसे क्या खाना चाहिए क्या नहीं उसको
इस बात का जरा भी होश नहीं रह गया है। वह केवल और केवल जीभ और मन से जीवित है।
क्यों मेरे एक बार गलत खाने से मैं इतना बीमार हो गया था तो मनुष्य क्यों नहीं
बीमार होता है। या शायद मैं देख नहीं पाता सारी की सारी बीमारी आपके भोजन पर
निर्भर करती है। परंतु मनुष्य ने अपनी बुद्धि विकास के साथ इस विभेद को ही खत्म कर
दिया था। कितने ही प्राणी है जो शाकाहारी है, उनका भोजन
घास-फूस था, उन्हें इस के लिए किसी प्राणी की हत्या या बद्ध
नहीं करना होता था। लेकिन कुछ प्राणी है जो केवल मांसाहारी ही है। वह शाकाहारी खा
कर जीवित ही नहीं रह सकते । कुछ बीच में है जो दोनों में कभी भी किसी में भी गति
कर सकते है। मनुष्य के साथ हम भी उसी श्रेणी में आते है। अब सालों से मैंने
मांसाहार नहीं खाया तो मेरा मन ही नहीं करता। क्या कारण हो सकता है। रहन सहन से
खान पान में कितना बदलाव आ जाता है। जैसे मनुष्य है, कितने
लोग मांसाहार करते है, लेकिन कुछ तो छूते ही नहीं।
मैं आप को इतना ही
कहना चाहता हूं ये भोजन की भूख की हमें ये खाकर अधिक ताकत मिलेगी, इस
बात का बहुत भ्रम बना हुआ है। प्रत्येक प्राणियों में क्योंकि जैसे-जैसे शरीर
बूढ़ा होता जाता है, साथ-साथ कमजोर होता जाता है। हम उसे
अधिक जीवित करने के लिए बेचैन हो उठते है। परंतु यह प्रकृति तौर पर ऐसा नहीं है,
ये एक विरोधाभास है। मैं अपने से ही देख रहा हूं, उम्र के इस पड़ाव पर मैं बहुत होश के साथ भोजन करता हूं। या मैं पापा जी
दादा जी को भी देखता हूं तो वह बहुत कम भोजन करते है। दादा जी को तो मैंने केवल एक
समय ही भोजन करते हुए देखा है। इसलिए देखने में अब भी बहुत स्वास्थ है। और पापा जी
तो इतनी मेहनत करते है फिर भी कितना कम भोजन करते है। करीब पाँच साल से पापा जी
रात को केवल दूध पी कर ही सो जाते है। वह तो काई कमजोर नहीं महसूस करते है। अधिक
खाना खाने से कोई ताकतवर नहीं होता। असल में अधिक खाना खाने से हमारे शरीर को अधिक
कष्ट उठाना पड़ता है उसे हजम करने के लिए भी तो उर्जा चाहिए। ये एक दुष्चक्र हुआ।
शरीर बूढ़ा होने के
साथ-साथ उसकी जरूरत भी कम हो जाती है, क्योंकि उसने अब कुछ नया
विकास तो करना नहीं है। इसलिए उसे कम ही भोजन चाहिए जिससे वह जल्दी से हजम कर सके।
मशीन को भी कम ताकत लगानी पड़े। ये मेरे लिए बहुत अच्छा था वरना तो शायद अब तक मैं
अधिक बीमार होता या मर ही चूका होता। एक तो ध्यान दूसरा शुद्ध भोजन आपके शरीर को
स्वस्थ कर देता है।
मनुष्य और पशुओं
में एक भेद और है ज्यादा तक पशु या पक्षी एक इंद्रिय ही होते है। किसी की नाक, किसी
की आंख, किसी का कान....परंतु मनुष्य बहु इंद्री होने के बाद
भी किसी इंद्र में पारंगत नहीं दिखता। अब हम नाक की इंद्री पर अधिक विश्वास करते
है। वही हमारी मार्ग दर्शक या जीवन रक्षक है। हम खाने से लेकर चलने तक, या फिर पहचाने के लिए ही, सब कार्यों के लिए एक नाक
की तरंग पर ही जीवित है। और कहीं भी जाये बस इसका विकास ही हमारा धेय होता है।
पापा जी जब नहलाने की सोचते भर और में उन तरंगों को पकड़ कर ऊपर भाग जाता था। सब
इस बात से कितना आश्चर्य से भर जाते थे। कि पहले तो हम सोचते थे की हमने बात की और
इसने ध्वनि को पकड़ लिया। परंतु अब तो हम बात भी नहीं करते तब इस पागल ने कैसे पता
लगाया की इसे नहलाया जाना है। और पापा जी समझ गए की यह अब केवल महसूस कर के तरंगों
को पकड़ने लगा है। कि किस आदमी की तरंग अच्छी है वह क्या सोच रहा है अच्छा या
बुरा।
पहले तो सब ये
सोचते लगे थे की पोनी को भाषा ज्ञान हो गया है।
पोनी न हुए पंडित बन गया है। हम जब बात करते है तो वह सून लेता है। ये बात
भी कहीं तक सत्य है। जब सब मिल कर कुछ बाते करते थे तो कुछ बाते मैं सून कर उसकी
ध्वनि को पकड़ लेता था,
आजा, खाना खा ले, जंगल
चल, नीचे आ जा, सोने चलो....आदि-आदि
परंतु शायद इससे भी ज्यादा मैं विचारों को भाव को केवल सूंध कर ही महसूस कर लेता
था। है ना ये चमत्कार बुरे विचार या अच्छे विचार। कितना आसान है ये कार्य कोई और
कर के तो दिखलाओ तब पता चलेगा की पोनी क्या है। जैसे आप सुगंध या दुर्गंध को सुध
कर पहचान जाते हो। पता है आपको सुगंध पृथ्वी से उतुंग चलती है, और दुर्गंध पृथ्वी को छूकर। क्योंकि सुगंध हल्की होती है और दुर्गंध भारी।
इसलिए लोगों से आती उनकी तरंग पकड़ना मेरे लिए तो
एक खेल था और बात जब में करता हूं
तब आपके लिए वह जादू हो गया। ये बात समझ में इतनी आसानी से आने वाली नहीं है। नाहक
आप अपनी मगज खपाई मत करो। कुछ रहस्य में ह्रदय में भी छुपे रहने दो। ताकि आने वाली
पीढ़ी को मैं भी कुछ उपहार स्वरूप दे सकूंगा।
जब कुछ लोग घर पर
बुरे विचारो के या दूषित तरंगों के आ जाते तो मेरी जान पर बन आती थी। कि इसे क्यों
यहां बिठा रखा है। परंतु कई बार नहाने के समय में ऐसा ही घटा, तब
पापा जी समझ गए की पोनी बदमाश हो गया है। पापा जी सोचते की पोनी को नहलाना है और
मैं बिना बोले ही समझ कर ऊपर भाग जाता था। तब पापा जी तो पापा जी ही ठहरे उन्होंने
भी इस सब को तोड़ निकाल लिया। अब वह मेरे पास इस तरह से आते की उनके पास कोई तरंग
ही नहीं होती। तब मैं पकड़ा जाता और नहलाने के लिए दोनों टांगों से पकड़ कर खड़े
कर मुझे पापा जी किस सर्कस से बाथरूम में ले जाते थे। घर पर नहाने में न जाने क्या
अब मुझे डर लगाता था। परंतु जंगल में तो मुझे अगर कोई नहाने के लिए रोक तो भी मैं
नहीं रूकता था।
हालांकि अंदर जब
नहाना शुरू कर देते तो फिर धीरे–धीरे बहुत आनंद आता था। लगता था की नहाता ही रहूं, फिर
उसके बाद मैं शरीर को कंपकंपी कर सारे पानी को झाड़ देता था। और बचे पानी को पापा
जी मुझे तौलिया से सूख देते थे। इसके बाद खाना खाने में भी कितना मजा आता था।
नहाना और खाना एक समान्तर कितना भेद पैदा कर देते है। इसके बाद सच मुझे प्यास बहुत
लगती थी। इस लिए मम्मी जब दूध का कटोरा देती तो मैं ब्रेड से पहले उसे ही पीता था।
जीवन बहुत ही सरलता से और मधुरता से चल रहा था। जिसे देखने में भी एक सुखद सा भाव
आ रहा था।
भू.... भू.....
भू.....
आज इतना ही।

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