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शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

31-वाजिद शाह-(ओशो)

31-वाजिद शाह-भारत के संत

कहे वाजिद पूकार-ओशो

वाजिद--यह नाम मुझे सदा से प्यारा रहा है--एक सीधे-सादे आदमी का नाम, गैर-पढ़े-लिखे आदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसा कि मुश्किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही ऐसा प्रेम हो सकता है; सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्मता होती है, सिद्धांत होता है, तर्क-विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम तो सरल-चित्त हृदय में ही खिलने वाला फूल है।
वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था, छूटा ही था, कि कुछ घटा--कुछ अपूर्व घटा। भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी, और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी--वह जो सुंदर हिरणी में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा--वह
जो बिजली जैसी कौंध गई जीवन की! अवाक रह गए। यह जीवन नष्ट करने को तो नहीं, इसी जीवन में तो परमात्मा छिपा है। यही जीवन तो परमात्मा का दूसरा नाम है, यह जीवन परमात्मा की अभिव्यक्ति है। तोड़ दिए तीर-कमान; चले थे मारने, घर नहीं लौटे--खोजने निकल पड़े परमात्मा को। जीवन की जो थोड़ी-सी झलक मिली थी, यह झलक अब झलक ही न रह जाए--यह पूर्ण साक्षात्कार कैसे बने, इसकी तलाश शुरू हुई।
बड़ी आकस्मिक घटना है! ऐसा और बार भी हुआ है, अशोक को भी ऐसा ही हुआ था। कलिंग में लाखों लोगों को काटकर जिस युद्ध में उसने विजय पाई थी, लाशों से पटे हुए युद्ध-क्षेत्र को देखकर उसके जीवन में क्रांति हो गई थी। मृत्यु का ऐसा वीभत्स नृत्य देखकर उसे अपनी मृत्यु की याद आ गई थी। यहां सभी को मर जाना है, यहां मृत्यु आने ही वाली है। और अशोक जगत से उदासीन हो गया था। रहा फिर भी महल में, रहा सम्राट, लेकिन फकीर हो गया। उस दिन से उसकी जीवन की यात्रा और हो गई। युद्ध विदा हो गए, हिंसा विदा हो गई; प्रेम का सूत्रपात हुआ। उसी प्रेम ने उसे बुद्ध के चरणों में झुकाया। वाजिद अशोक से भी ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति रहे होंगे। लाखों व्यक्तियों को काटने के बाद होश आया, तो संवेदनशीलता बहुत गहरी न रही होगी। वाजिद को होश आया, काटने के पहले। हिरणी को मारा भी नहीं था, अभी तीर छूटने को ही था--चढ़ गया था कमान पर, प्रत्यंचा खिंच गई थी, वहीं हाथ ढीले हो गए।
जीवन नष्ट करने जैसा तो नहीं; जीवन पूज्य है, क्योंकि जीवन में ही तो सारा रहस्य छिपा है। मंदिर-मस्जिदों में जो पूजा चलती है, वह जीवन की पूजा तो नहीं है। जीवन की पूजा होगी, तो तुम वृक्षों को पूजोगे, नदियों को पूजोगे, सागरों को पूजोगे, मनुष्यों को पूजोगे, जीवन को पूजोगे, जीवन की अनंत-अनंत अभिव्यक्तियों को पूजोगे। और यही अभिव्यक्तियां उसके चेहरे हैं। ये परमात्मा के भिन्न-भिन्न रंग-ढंग हैं, अलग-अलग झरोखों से वह प्रगट हुआ है।
अशोक को हत्या के बाद, भयंकर हत्या के बाद, रक्तपात के बाद मृत्यु का बोध हुआ था। मृत्यु के बोध से वह थरथरा गया था, घबड़ा गया था। उसी से उसकी सत्य की खोज शुरू हुई। वाजिद ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति मालूम होते हैं। अभी मारा भी नहीं था, लेकिन हिरणी की वह छलांग, जैसे अचानक एक पर्दा हट गया, जैसे आंख से कोई धुंध हट गई; वह छलांग तीर की तरह हृदय में चुभ गई! वह सौंदर्य, हिरणी का वह जीवंत रूप! और परमात्मा की पहली झलक मिली।
सौंदर्य परमात्मा का निकटतम द्वार है। जो सत्य को खोजने निकलते हैं, वे लंबी यात्रा पर निकले हैं। उनकी यात्रा ऐसी है, जैसे कोई अपने हाथ को सिर के पीछे से घुमाकर कान पकड़े। जो सौंदर्य को खोजते हैं, उन्हें सीधा-सीधा मिल जाता है; क्योंकि सौंदर्य अभी मौजूद है--इन हरे वृक्षों में, पक्षियों की चहचहाहट में, इस कोयल की आवाज में--सौंदर्य अभी मौजूद है! सत्य को तो खोजना पड़े। और सत्य तो कुछ बौद्धिक बात मालूम होती है, हार्दिक नहीं। सत्य का अर्थ होता है--गणित बिठाना होगा, तर्क करना होगा; और सौंदर्य तो ऐसा ही बरसा पड़ रहा है! न तर्क बिठाना है, न गणित करना है--सौंदर्य चारों तरफ उपस्थित है। धर्म को सत्य से अत्यधिक जोर देने का परिणाम यह हुआ कि धर्म दार्शनिक होकर रह गया, विचार होकर रह गया। धर्म सौंदर्य ज्यादा है। मैं भी तुमसे चाहता हूं कि तुम सौंदर्य को परखना शुरू करो। सौंदर्य को, संगीत को, काव्य को--परमात्मा के निकटतम द्वार जानो।
हिरणी का छलांग लगाना...हिरणी को छलांग लगाते देखा? उसकी छलांग में एक सौंदर्य होता है, एक अपूर्व सौंदर्य होता है! अत्यंत जीवंतता होती है! उस छलांग में त्वरा होती है, तीव्रता होती है--बिजली जैसे कौंध जाए, जीवन की बिजली जैसे कौंध जाए! हाथ तीर-कमान से छूट गए वाजिद के, यह सौंदर्य नष्ट करने जैसा तो नहीं! यह सौंदर्य विनष्ट करने जैसा तो नहीं! यह सौंदर्य ही तो पूजा का आराध्य है! झुक गए वहीं; फिर घर नहीं लौटे। जीवन में क्रांति हो गई!
यद्यपि बिजली के माध्यम से एक बात तय हो जाती है कि रास्ता है। अंधेरी रात है, तुम जंगल में खो गए हो। बिजली कौंधी, तुम्हें दिख जाता है कि रास्ता है। यद्यपि फिर भयंकर अंधकार छा जाता है और रास्ता खो जाता है; मगर भरोसा आ जाता है, श्रद्धा आ जाती है कि रास्ता है; अगर सम्हलकर चला, तो पहुंच जाऊंगा। रास्ता देख लिया, अपनी आंखों से देख लिया। हालांकि क्षण-भर को दिखा था, सपने की तरह दिखा था; अब फिर खो गया है और भयंकर अंधेरी रात है चारों तरफ। लेकिन अब तुम वही नहीं हो; बिजली कौंधने के पहले एक तुम थे, अब बिजली कौंधने के बाद दूसरे तुम हो। बिजली कौंधने के पहले संदेह ही संदेह था--पता नहीं रास्ता है भी या नहीं? अब संदेह नहीं है, अब श्रद्धा है। और यही क्रांति है। जिस घड़ी संदेह श्रद्धा बन जाता है, उसी क्षण क्रांति हो जाती है।
वह जो हरिण की छलांग थी, वह बिजली की कौंध थी! अब तक जैसे आदमी सोया ही रहा था, जैसे अब तक कुछ होश ही न था, जैसे नींद में चलते थे, नींद में उठते थे, नींद में बैठते थे। मगर आज कुछ हुआ! किस घड़ी परमात्मा तुम्हें पकड़ लेगा, नहीं कहा जा सकता। इसलिए हर घड़ी तैयार रहो। परमात्मा के लिए न समय है, न असमय है। परमात्मा कब तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे देगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जागे रहो, प्रतीक्षा करो; छोटी-छोटी घटनाओं में कभी-कभी परमात्मा उतर आता है। अब यह छोटी ही घटना थी। लाखों लोग शिकार करते रहे हैं, लाखों लोग अब भी शिकार कर रहे हैं; हरिण छलांग भरते हैं, लेकिन हाथ तो गिरते नहीं! तीर तो टूटते नहीं! सदगुरु की तलाश तो शुरू होती नहीं!
वाजिद सच में ही संवेदनशील व्यक्ति रहे होंगे--सरल, सीधे। पठान होते भी सरल और सीधे हैं। जो दिख गया था, अब उसकी तलाश शुरू हुई।
तलाश तभी शुरू हो सकती है, जब थोड़ी-सी प्रतीति हो जाए। जो लोग बिना प्रतीति के खोजते हैं, वे व्यर्थ ही खोजते हैं। किसको खोजोगे? क्या खोजोगे? थोड़ी-सी प्रतीति हो जाए; कहीं से हो--प्रेम में हो, सौंदर्य में हो, संगीत में हो--कैसे भी हो, थोड़ी-सी प्रतीति हो जाए कि मुझ पर सब समाप्त नहीं है, मुझ से बड़ा भी है, मुझ से विराट भी है! कहीं भी हो, कैसे भी हो, इतना पता चल जाए कि मैं जैसा हूं, यह बहुत छोटा रूप है--बूंद जैसा। अभी सागर प्रतीक्षा कर रहा है! मैं जहां हूं, वहां अंधकार है; और पास ही कहीं रोशनी का स्रोत भी है। गुरु की तलाश तभी शुरू होती है।
जीवन की यह जो झलक मिली थी, यह ले चली गुरु की तलाश में। न मालूम कितने गुरुओं के पास वाजिद गए, उठे-बैठे, मगर वह झलक न मिली जो हिरणी की छलांग में मिली थी! वह झलक, लेकिन एक दिन मिली और भरपूर मिली--मूसलाधार वर्षा हो गई। दादू दयाल को देखते ही, वे आंखें दादू दयाल की, फिर वही जीवन की झलक--और प्रगाढ़तर, और ऐसी कि आरपार हो जाए!
फिर दादू के चरणों में रुक गए सो रुक गए, फिर चरण नहीं छोड़े। फिर दादू में जो सौंदर्य मिल गया, वह सौंदर्य देह का नहीं था, वह सौंदर्य पृथ्वी का भी नहीं था। सदगुरु में जो सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह पारलौकिक है। दादू दयाल के पास और भी बहुत लोग आए और गए, लेकिन जो वाजिद को दिखाई पड़ा, औरों को दिखाई नहीं पड़ा। देखने की क्षमता चाहिए, पात्रता चाहिए। भीगने की तैयारी चाहिए। डूबने का साहस चाहिए। समर्पित होने की जोखिम जो उठाता है, वही सदगुरु से जुड़ पाता है। जैसे एक दिन तीर-कमान तोड़कर फेंक दिए थे, वैसे आज अपने अहंकार को भी तोड़कर फेंक दिया। झुक गए चरणों में तो फिर नहीं उठे। दादू के प्यारे शिष्यों में एक हो गए।
दादू ने हजारों लोगों के जीवन की ज्योति जलाई। दादू उन थोड़े-से संतों में से एक हैं, जिनके पास अनेक लोग ज्ञान को उपलब्ध होते हैं। स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हो जाना एक बात है; वह भी बड़ी दूभर, बड़ी कठिन! जान लेना बड़ा दूभर, बड़ा कठिन, लेकिन जना देना और भी कठिन, और भी दूभर। खुद पी लेना परमात्मा के घट से, एक बात है, लेकिन दूसरों को भी पिला देना, बड़ी दूसरी बात है। तो दुनिया में करोड़ों में कभी कोई एकाध परमात्मा को पाने वाला होता है, और करोड़ों परमात्मा को पाने वालों में कभी कोई एकाध दूसरों को भी पिलाने वाला होता है। दादू उन थोड़े-से लोगों में एक थे। हजारों लोगों ने उनके पास पीया, उनके घाट से पीया। उनके एक सौ बावन निर्वाण को उपलब्ध शिष्यों में वाजिद भी एक हैं। उनके पास बहुत दीए जले, वाजिद का भी जला।
और जब वाजिद का दीया जला, तो उसके भीतर से काव्य फूटा। सीधा-सादा आदमी, उसकी कविता भी सीधी-सादी है, ग्राम्य है। पर गांव की सोंधी सुगंध भी है उसमें! जैसे नई-नई वर्षा हो और भूमि से सोंधी सुगंध उठे, ठीक ऐसी सोंधी सुगंध है वाजिद के काव्य में! मात्रा-छंद का हिसाब नहीं है बहुत; जरूरत भी नहीं है। जब सौंदर्य कम होता है, तो आभूषणों की जरूरत होती है; जब सौंदर्य परिपूर्ण होता है, तो न आभूषणों की जरूरत होती है, न साज-शृंगार की। जब सौंदर्य परिपूर्ण होता है, तो आभूषण सौंदर्य में बाधा बन जाते हैं, खटकते हैं। तब तो सादापन ही अति सुंदर होता है, तब तो सादेपन में ही लावण्य होता है, प्रसाद होता है। तो जो मात्रा, छंद, व्याकरण, भाषा को बिठाने में लगे रहते हैं, उनके इतने आयोजन का कारण ही यही होता है कि भाव पर्याप्त नहीं है, भाषा से उसकी पूर्ति करनी है। जब भाव ही पर्याप्त होता है, तो भाषा से पूर्ति नहीं करनी होती। जब भाव बहता है बाढ़ की तरह, तो किसी भी तरह की भाषा काम दे देती है। भाषा पर मत जाना, भाव पर जाना। काव्य फूटा उनसे! जब दीया भीतर जलता है, तो रोशनी--उसकी किरणें बाहर फैलनी शुरू हो जाती हैं। वही संतों का काव्य है।
इस घटना के तरफ संकेत देने वाला राघोदास का एक कवित्त वाजिद के संबंध में बहुत प्रसिद्ध है--
छाड़िकै पठान-कुल रामनाम कीन्हों पाठ,
भजन प्रताप सूं वाजिद बाजी जीत्यो है।
हिरणी हनन उर डर भयो भयकारी,
सीलभाव उपज्यो दुसीलभाव बीत्यो है।
तोरे हैं कवांणतीर चाणक दियो शरीर,
दादूजी दयाल गुरु अंतर उदीत्यो है।
राघो रति रात दिन देह दिल मालिक सूं,
खालिक सूं खेल्यो जैसे खेलण की रीत्यो है।
वाजिद की जिंदगी में क्रांति ही हुई! प्रभु का स्मरण आया, जीवन की झलक को देखकर। जीवन याद दिला गया महाजीवन की। छोटा-सा सौंदर्य का कण, प्यास भर गया और सौंदर्य की। जरा-सी बूंद, सन्नाटा, उस घड़ी में हरिण की छलांग, हाथ का रुक जाना, हृदय का ठहर जाना, विचार का बंद हो जाना--थोड़ा-सा स्वाद लगा समाधि का! फिर गुरु की तलाश में निकले। हिंदू से कुछ लेना-देना नहीं था।
दादू दयाल कोई हिंदू थोड़े ही हैं। इस ऊंचाई के लोग हिंदू-मुसलमान थोड़े ही होते हैं! हिंदू-मुसलमान होना तो बड़ी नीचाइयों की बातें हैं, बाजार की बातें हैं। यह तो संयोग की बात है कि दादू दयाल हिंदू घर में पैदा हुए थे, बिलकुल संयोग की बात है। खोज में निकले थे वाजिद, बहुतों के पास गए, पांडित्य देखा, ज्ञान की बातें सुनीं, मगर जीवंत जलती हुए रोशनी नहीं देखी। शास्त्र तो सुना, सत्संग न हो सका। आंखों में आंखें डालकर देखीं, मगर वहां भी विचारों की भीड़ ही देखी; शांत सन्नाटा, संगीत, नाद वहां से उतरता न आया। बैठे पास बहुतों के, लेकिन खाली गए, खाली लौटे। दादू दयाल को हिंदू समझकर थोड़े ही गुरु बना लिया था; गुरु थे, इसलिए गुरु बना लिया था।
इस बात को ख्याल रखना, वाजिद कुछ हिंदू नहीं हो गए हैं! हिंदू-मुसलमान की बात ही नहीं है यह। सोया आदमी जाग गया, इसमें हिंदू-मुसलमान की क्या बात है? खोया आदमी रास्ते पर आ गया, इसमें हिंदू-मुसलमान की क्या बात है? हिंदू भी खोए हैं, मुसलमान भी खोए हैं; हिंदू भी सोए हैं, मुसलमान भी सोए हैं। जो जाग गया, वह तो तीसरे ही ढंग का आदमी है; उसको किसी संप्रदाय में तुम न रख सकोगे, वह सांप्रदायिक नहीं होता है।
यहां अड़चन आ जाती है। कोई सिक्ख आकर संन्यास ले लेता है, तो बस उसको सताने लगते हैं लोग, उसके संप्रदाय के लोग सताने लगते हैं कि अब तुम संन्यासी हो गए, अब तुम सिक्ख न रहे! सच बात यह है कि वह पहली दफा सिक्ख हुआ! सिक्ख का अर्थ होता है--शिष्य; शिष्य का ही रूप है सिक्ख। पहली दफा शिष्य हुआ, और तुम कहते हो सिक्ख न रहे! अब तक सिक्ख नहीं था, अब हुआ। अब तक सुनी-सुनी बातें थीं, अब गुरु से मिलना हुआ। और गुरु कुछ बंधा थोड़े ही है--हिंदू में, मुसलमान में, ईसाई, जैन में। नानक सिक्ख थोड़े ही हैं, न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं; जागे पुरुष हैं।
जब किसी जाग्रत पुरुष से संबंध हो जाएगा, तो तुम शिष्य हुए--और तभी तुम हिंदू हुए, और तभी तुम मुसलमान हुए। सदगुरु तुम्हें धर्म से जोड़ देता है, संप्रदायों से तोड़ देता है।
मगर राघोदास सांप्रदायिक वृत्ति के रहे होंगे, खुश हुए होंगे।
छाड़िकै पठान-कुल रामनाम कीन्हों पाठ।
इन्हें बड़ा रस आया होगा कि रामनाम का पाठ किया। देखो, राम से तरे! कुरान पढ़ते रहे, तब न तरे। दोहराते रहे आयतें, तब न तरे--अब तरे! राम हैं असली तारणहार!
तोरे हैं कवांणतीर चाणक दियो शरीर,
दादूजी दयाल गुरु अंतर उदीत्यो है।
और अब भीतर गुरु का उदय हो रहा है। बाहर गुरु मिल जाए, तो भीतर गुरु का उदय शुरू हो जाता है। बाहर का गुरु भीतर के गुरु को सजग करने लगता है। बाहर के गुरु की मौजूदगी भीतर सोए गुरु को जगाने लगती है। गुरु अंतर उदीत्यो है--यह बात ठीक है।
ओशो

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