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बुधवार, 13 नवंबर 2019

27-संत रैैदास-(ओशो)

27-संत रैदास-भारत के संत-ओशो

मन ही पूजा मन ही धूप-रैदास

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?
मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं!

और जो अपने से अजनबी है, वह सबसे अजनबी हो जाता है। अपने को जिसने पहचान लिया, उसकी सबसे पहचान हो जाती है। उसके लिए अजनबी भी अजनबी नहीं रह जाते, क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है भीतर एक ही तरंग, एक ही चैतन्य, एक ही ज्योति! दीये होंगे अलग, दीयों के ढंग
होंगे अलग, आकृति-रंग होंगे अलग; मगर ज्योति तो एक है! लेकिन जिसने अपनी ही ज्योति नहीं देखी, वह किसके भीतर ज्योति को देखेगा! उसे तो चलती-फिरती लाशें दिखाई पड़ती हैं। वह खुद भी मुर्दा है और दूसरे भी उसे मुर्दा ही मालूम होते हैं। वह मुर्दों की बस्ती में जीता है।
एक दुर्घटना घटी है और उस दुर्घटना के प्रति सचेत हो जाना जरूरी है, अन्यथा अपनी खोज न हो सकेगी। और जिसने स्वयं को न जाना उसने कुछ भी न जाना। वह जीया भी और जीया भी नहीं। वह जीया नहीं, बस मरा ही। उसके जन्म और मृत्यु के बीच में कुछ भी न घटा। अगर जन्म और मृत्यु के बीच में परमात्मा न घटे तो जानना कि कुछ भी न घटा, खाली आए, खाली गए। शायद कुछ गंवा कर गए, कमा कर नहीं।
एक दुर्घटना हुई है और वह दुर्घटना है मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी हो गई है। सदियों में धीरे- धीरे यह हुआ, शनैः-शनै:, क्रमशः-क्रमश:। मनुष्य की आखें बस बाहर थिर हो गई हैं, भीतर मुड़ना भूल गई हैं। तो कभी अगर धन से ऊब भी जाता है- और ऊबेगा ही कभी, कभी पद से भी आदमी ऊब जाता है- ऊबना ही पड़ेगा, सब थोथा है! कब तक भरमाओगे अपने को? भ्रम हैं तो टूटेंगे। छाया को कब तक सत्य मानोगे? माया का मोह कब तक धोखा देगा? सपनों में कब तक अटके रहोगे? एक न एक दिन पता चलता है सब व्यर्थ है।
लेकिन तब भी एक मुसीबत खड़ी हो जाती है। वे जो आखें बाहर ठहर गई हैं, वे आखें अब भी बाहर खोजती हैं। धन नहीं खोजती, भगवान खोजती हैं- मगर बाहर ही। पद नहीं खोजती, मोक्ष खोजती हैं- लेकिन बाहर ही। विषय बदल जाता है, लेकिन तुम्हारी जीवन-दिशा नहीं बदलती।
और परमात्मा भीतर है; वह अंतर्यात्रा है। जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोड़े हुए है उसकी भक्ति भी धोखा है।
मन ही पूजा मन ही धूप।
चलना है भीतर! मन है मंदिर! उसी मन के अंतरगृह में छिपा हुआ बैठा है मालिक।
आदमी ने अपनी तरफ पीठ कर ली, यही उसका दुर्भाग्य है। रैदास याद दिलाते हैं : मुड़ो, अपनी ओर मुड़ो। मन ही पूजा मन ही धूप! छोड़ो मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे। वे सब तो आदमी के बनाए हुए हैं। खोजो अपने भीतर के चैतन्य में, क्योंकि वही परमात्मा से आया है। वही एक किरण है प्रकाश की, जो उस परम सूर्य तक ले जा सकती है, क्योंकि वह उस परम सूर्य से आती है। वही है सेतु।
 ओशो

2 टिप्‍पणियां:

  1. बुद्ध कहते है जो स्वयं पर विजय पाना ही सबसे बड़ा विजय है तो स्वयं पर कैसे विजय पा सकते है इसके बारेमे ओशो के विचार पोस्ट कीजिये

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