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मंगलवार, 26 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-04)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-चौथा
ओ. के.। नोट्‌स लिखने के लिए तैयार हो जाओ।
देवगीत जैसे लोग अगर न होते तो संसार से बहुत कुछ खो जाता। यदि प्लेटो ने नोट्‌स न लिखे होते तो सुकरात के बारे में हम कुछ भी नहीं जान पाते, न बुद्ध के बारे में, न ही बोधिधर्म के बारे में। जीसस के बारे में भी उनके शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से पता चलता है। कहा जाता है कि महावीर एक शब्द कभी नहीं बोले। मैं यह जानता हूं कि ऐसा क्यों कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि वे एक शब्द भी नहीं बोले, लेकिन संसार से सीधे उनका संवाद कभी नहीं रहा। शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से ही जानकारी प्राप्त हुई।
ऐसा एक भी उदाहरण ज्ञात नहीं है जहां किसी संबुद्ध ने स्वयं कुछ लिखा हो। जैसा कि तुम जानते ही हो, संबुद्ध व्यक्ति होना मेरे लिए अंतिम घटना नहीं है। उससे भी पार एक ज्ञानातीत अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति न तो संबुद्ध होता है और न ही असंबुद्ध।
अब, चैतन्य की उस अवस्था में केवल आंतरिक लयबद्धता के माध्यम से ही--जान कर ही मैं संवादशब्द का उपयोग नहीं कर रहा हूं, बल्कि लयबद्धता--विलीन हो जाने के एक ढंग से, शिष्य बस सदगुरु का हाथ बन कर लिखता है।
तो अपने नोट्‌स के लिए तैयार हो जाओ, क्योंकि पिछली बार, हालांकि अनजाने में ही मैं गीत गोविंदके कवि-गायक के नाम का उल्लेख करने जा रहा था। उल्लेख न करने का हिसाब मैंने किसी तरह बिठा लिया था। मैंने ऐसा दिखाया जैसे कि मैं भूल गया हूं, लेकिन यह मुझ पर बड़ा बोझ बन गया है। सारे दिन मैं जयदेव के बारे में सोचता रहा। गीत गोविंदके कवि-गायक का नाम यही है।
उनके नाम के उल्लेख को मैं क्यों टाल रहा था? उन्हीं के भले के लिए। वे संबोधि के करीब भी नहीं थे। दि बुक ऑफ मीरदादके रचनाकार मिखाइल नैयमी के नाम का मैंने उल्लेख किया; मैंने खलील जिब्रान का उल्लेख किया, और अन्य कई लोगों का: नीत्शे, दोस्तोवस्की, वाल्ट व्हिटमैन। ये लोग संबुद्ध नहीं हैं, लेकिन बहुत निकट हैं, एकदम किनारे पर; एक धक्का और ये लोग भीतर, मंदिर के भीतर होंगे। ये एकदम द्वार पर खड़े हैं, द्वार खटखटाने की इनमें हिम्मत नहीं है... और द्वार पर ताला भी नहीं लगा हुआ है। ये धक्का दें और द्वार खुल जाएगा। वह खुला ही हुआ है, उसे बस एक धक्के की जरूरत है, जैसे उन्हें एक धक्के की जरूरत है। इसलिए मैं इनका नाम उल्लेख करता हूं।
लेकिन जयदेव मंदिर के करीब भी नहीं हैं। यह चमत्कार है कि गीत गोविंदउन पर अवतरित कैसे हुई। लेकिन परमात्मा के रहस्यों को कोई नहीं जानता--और याद रखना कोई परमात्मा नहीं है, यह केवल एक अभिव्यक्ति है। अस्तित्व के रहस्यों को कोई नहीं जानता, उसकी परिपूर्णता को। कभी यह बंजर भूमि पर बरस जाता है और कभी उपजाऊ भूमि पर भी नहीं बरसता। बस यह ऐसा ही है, इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता।
जयदेव बंजर भूमि हैं। यह अत्यधिक सुंदर कविता गीत गोविंद’--‘परमात्मा का गानउन पर अवतरित हुई। बिना यह जाने कि वे क्या कर रहे हैं उन्होंने इसे गाया होगा, रचा होगा। वे मुझे मंदिर के पास भी नहीं दिखते। इसीलिए मैं उनके नाम का उल्लेख करने के लिए तैयार नहीं था। यह उन्हें और अहंकारी बना सकता है। इसीलिए मैंने कहा, ‘‘उन्हीं के भले के लिए,’’ लेकिन मुझे लगा कि उन बेचारे की कोई गलती नहीं--वे जैसे हैं, वैसे हैं--पर उन्होंने एक सुंदर शिशु को जन्म दिया है, और अगर मैंने शिशु का उल्लेख किया है तो फिर पिता के नाम का भी उल्लेख होने दो; वरना लोग सोचेंगे कि शिशु लावारिस है। पिता चाहे लावारिस हो, पर शिशु ऐसा नहीं है।
मुझे बड़ी राहत अनुभव हो रही है, क्योंकि मुझे जयदेव से हमेशा के लिए छुटकारा मिल गया है। लेकिन मेरे द्वार पर एक कतार लगी हुई है। तुम्हें पता नहीं है मैं किस झंझट में हूं। पहले मैंने उनके बारे में नहीं सोचा था, क्योंकि मैं कोई विचारक नहीं हूं और छलांग लगाने से पहले मैं कभी विचार नहीं करता। मैं छलांग लगा लेता हूं और फिर विचार करता हूं। यह तो ऐसे ही मैंने दस सुंदर पुस्तकों का उल्लेख कर दिया था। मैंने सोचा भी नहीं था कि अन्य बहुत से लोग आकर मुझे तंग करने लगेंगे। इसलिए दस और।

पहली: हेराक्लाइटस की फ्रैग्मेंट्‌स। यह आदमी मुझे प्रिय है। हाशिये पर नोट के रूप में एक बात और बता दूं, कि मैं सभी को प्रेम करता हूं, लेकिन मैं सभी को पसंद नहीं करता। कुछ को मैं पसंद करता हूं और कुछ को नहीं, लेकिन प्रेम सभी को करता हूं। इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं जयदेव से भी उतना ही प्रेम करता हूं जितना हेराक्लाइटस से, लेकिन हेराक्लाइटस को मैं पसंद भी करता हूं।
बहुत ही कम लोग हैं जिन्हें मैं उसी श्रेणी में रखता हूं जिसमें हेराक्लाइटस है। वस्तुतः ऐसा कहना भी सही नहीं है; कोई उन जैसा नहीं है। अब मैं वह कह रहा हूं जो हमेशा से कहना चाहता था। उन जैसा कोई नहीं, मैं दोहराता हूं, कोई ऐसा नहीं है जिसे उसी श्रेणी में रखा जा सके जिसमें हेराक्लाइट्‌स है। वे बहुत ऊपर हैं--विद्रोही और संबुद्ध, वे जो भी कह रहे हैं उसके परिणामों से भयभीत न होने वाले।
फ्रैग्मेंटसमें वे कहते हैं--फिर वही किसी देवगीत, किसी शिष्य के नोट्‌स... हेराक्लाइटस ने लिखा नहीं है। कुछ तो बात होगी, कोई तो कारण होगा कि ये लोग क्यों नहीं लिखते हैं, लेकिन इसके बारे में बाद में बात करेंगे। फ्रैग्मेंटसमें हेराक्लाइटस कहते हैं: ‘‘एक ही नदी में तुम दुबारा नहीं उतर सकते।’’ और फिर वे कहते हैं: ‘‘नहीं, एक ही नदी में तुम एक बार भी नहीं उतर सकते...’’ यह अत्यधिक सुंदर है, और सत्य भी।
सब-कुछ बदल रहा है, और इतनी तेजी से बदल रहा है कि उसी नदी में दुबारा उतरने का उपाय नहीं है। तुम उसी नदी में एक बार भी नहीं उतर सकते। नदी निरंतर प्रवाहित हो रही है; प्रवाह, प्रवाह, सागर की ओर प्रवाह, असीम की ओर प्रवाह, अज्ञात में विलीन होने के लिए जा रही है।
आज की संध्या मेरी सूची में प्रथम है: हेराक्लाइटस।

दूसरी: पाइथागोरस की दि गोल्डन वर्सेस।वह उन व्यक्तियों में से एक है जिसे सबसे अधिक गलत समझा गया। स्वभावतः, अगर तुम ज्ञानी हो, तो यह निश्चित है कि तुमको गलत ही समझा जाएगा। ज्ञानी होना बड़ा खतरनाक है, क्योंकि फिर तुम गलत समझे जाओगे। पाइथागोरस को उसके अपने शिष्यों ने भी नहीं समझा, उन्होंने भी नहीं समझा जिन्होंने दि गोल्डन वर्सेसको लिखा। उन्होंने इसे यंत्रवत लिख दिया... क्योंकि पाइथागोरस की ऊंचाई तक उनका कोई भी शिष्य नहीं उठ पाया था, उनका एक भी शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ। और ग्रीकवासियों ने उनकी पूरी उपेक्षा की। अपने श्रेष्ठतम व्यक्तियों की उन्होंने उपेक्षा की: हेराक्लाइट्‌स, सुकरात, पाइथागोरस, प्लोटिनस। सुकरात की भी वे उपेक्षा करना चाहते थे, लेकिन सुकरात बहुत प्रतिभाशाली थे। इसीलिए उन्हें सुकरात को जहर देना पड़ा, क्योंकि वे लोग उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे।
लेकिन पाइथागोरस की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई है, और उसके पास वह कुंजी थी जो गौतम बुद्ध, जीसस, या किसी दूसरे संबुद्ध व्यक्ति के पास होती है। एक बात और: न तो जीसस ने, न बुद्ध ने, और न ही लाओत्सु ने कुंजी पाने के लिए उतना प्रयास किया जितना पाइथागोरस ने किया। उन्होंने सबसे अधिक श्रम किया। पाइथागोरस सर्वाधिक प्रामाणिक खोजी थे। उन्होंने अपना सब-कुछ दांव पर लगा दिया था। उन दिनों जो भी ज्ञात था उन सभी की उन्होंने संसार भर में यात्रा की; हर प्रकार के सदगुरुओं के साथ साधना की, हर प्रकार के रहस्य-विद्यालयों में प्रवेश लिया और उनकी शर्तों को पूरा किया। वे अपने आप में एक कोटि हैं।

तीसरी: एक ऐसा व्यक्ति जिसे बहुत कम लोग जानते हैं, उसके अपने देशवासी भी उससे अपरिचित हैं। उसका नाम है सरहा, और पुस्तक का नाम है दि सांग ऑफ सरहा’--‘सरहा के गीत’--यह उसका तिब्बती शीर्षक है। कोई नहीं जानता कि इस पुस्तक को किसने लिखा। एक बात निश्चित है कि सरहा ने तो कभी नहीं लिखा, उन्होंने बस इसे गाया है। पर इस गीत में ऐसी सुरभि है कि यह आदमी जानता है, कि इसे संबोधि प्राप्त हो चुकी है। यह गीत किसी कवि की रचना नहीं है, बल्कि एक रहस्यदर्शी का आत्मानुभव है। इसमें बस कुछ ही पंक्तियां हैं, लेकिन उनका सौंदर्य और वैभव ऐसा है कि सितारों तक की चमक फीकी पड़ जाए।
दि सांग ऑफ सरहा का अनुवाद अभी तक नहीं हुआ है। मैंने इसे तिब्बत के एक लामा से सुना। मैं इसे बार-बार सुनना चाहता था, लेकिन उस लामा से इतनी बदबू आ रही थी कि मुझे कहना पड़ा ‘‘धन्यवाद...’’ लामाओं से बदबू आती है, क्योंकि वे कभी स्नान नहीं करते हैं। उस लामा की बदबू--और हर गंध से मुझे एलर्जी है--और बदबू इतनी तेज थी कि पूरा गीत सुन पाना मेरे लिए संभव नहीं था! मुझे डर था कि कहीं अस्थमा का दौरा न पड़ जाए।
सरहा के बारे में मैं बहुत कुछ बोल चुका हूं; वे तंत्र-विद्यालय के मूल-स्रोत हैं।

चौथी: दि सांग ऑफ तिलोपा, और उनके गीत के कुछ नोट्‌स जो उनके शिष्यों ने लिख कर रखे हैं। मैं सोचता हूं, अगर ये शिष्य न होते तो हम कितना कुछ चूक जाते। उनके सदगुरु ने जो कुछ भी कहा ये लोग बिना सोचे कि यह सही है या गलत बस लिखते जा रहे थे, जो बोला जा रहा था उसे बस यथासंभव ठीक रूप में लिखने का प्रयास कर रहे थे। और यह एक मुश्किल कार्य है। सदगुरु तो दीवाना होता है; वह कुछ भी बोल सकता है, वह कुछ भी गा सकता है, या वह मौन भी रह सकता है। हो सकता है कि वह अपने हाथ से कुछ इशारे करे, और उन इशारों को समझना होता है। लगातार तीस साल तक मेहर बाबा यही करते रहे। वे मौन रहे, बस हाथों से इशारे करते रहे।

क्या मेरी गिनती गलत चल रही है, देवगीत?
‘‘नहीं, ओशो।’’
बहुत अच्छा... कभी-कभी ठीक होना बहुत अच्छा लगता है। संख्याओं के साथ में वास्तव में अच्छा हूं। यह अजीब संयोग की बात है कि मैंने ठीक समय पर पूछा। संख्याओं के मामले में मैं हमेशा गड़बड़ कर जाता हूं। मैं गिनती नहीं कर सकता, इसका सीधा सा कारण यह है कि मेरे सम्मुख वह है जिसे गिना नहीं जा सकता, जो असीमित है। जो सत्य मेरे सम्मुख है वह न तो शब्दों में है न ही संख्याओं में। सत्य सबका अतिक्रमण कर जाता है, और यह इतना अदभुत है कि व्यक्ति भ्रमित हो ही जाता है। सब-कुछ उलटा-सीधा हो जाता है, अजीब सा। जब तुमने कहा कि मेरी गिनती ठीक है, तो यह मेरे लिए बड़ी प्रशंसा की बात है। लेकिन कृपया अब बताओ, कौन सा नंबर चल रहा था?
‘‘नंबर पांच, ओशो।’’
धन्यवाद।

पांचवीं: जिसके नाम का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह संबुद्ध की भांति नहीं पहचाना गया है, क्योंकि उसे पहचानने के लिए कोई था ही नहीं। केवल संबुद्ध व्यक्ति ही दूसरे संबुद्ध को पहचान सकता है। इस व्यक्ति का नाम है, डी.टी. सुजुकी। ध्यान और झेन को आधुनिक जगत के सम्मुख रखने का जो प्रयास सुजुकी ने किया वह किसी और ने नहीं किया। सुजुकी ने पूरी जिंदगी झेन के अंतर्तम तत्व से पश्चिम को परिचित कराने का प्रयास किया।
संस्कृत शब्द ध्यानका जापानी उच्चारण ही झेनहै। बुद्ध ने संस्कृत का उपयोग कभी नहीं किया; उन्हें इससे घृणा थी, इसका सीधा सा कारण यह था कि यह पुरोहितों की भाषा बन चुकी थी, और पुरोहित सदैव शैतान की सेवा में रहता है। बुद्ध ने बहुत सरल भाषा का उपयोग किया, जिसे उनके लोग नेपाल की घाटी में उपयोग करते थे। उनकी भाषा का नाम है: पाली। पाली में ध्यान को झानकहते हैं। सीधे-सादे, बेपढ़े-लिखे, आम लोग किसी भाषा की बारीकियों को नहीं समझ सकते। वे उसे अपने अनुरूप ढाल लेते हैं। नदी में लुढ़कते हुए पत्थर की भांति ये शब्द गोल हो जाते हैं। इसीलिए आम लोगों द्वारा उपयोग किए गए हरेक शब्द में एक सुंदर गोलाई आ जाती है, एक विशेष सादगी। सामान्य लोगों के लिए ध्यान उच्चारित करना मुश्किल होता है; वे झान उच्चारित करते हैं। और जब झान शब्द चीन पहुंचा, तो चानहो गया, और जब यह जापान पहुंचा, तो झेन बन गया। तुम देखते हो, हर जगह यही होता है, लोग हमेशा शब्दों को सीधा-सादा बना लेते हैं।
डी. टी. सुजुकी की झेन एंड जैपनीज कल्चर--‘झेन और जापानी संस्कृतिमेरी पांचवी पुस्तक है। इस व्यक्ति ने मानवता की इतनी सेवा की है कि उससे अधिक सेवा और कोई कर नहीं सकता। उसने अत्यधिक कार्य किया है। सारा संसार उसका ऋणी है और रहेगा। सुजुकी का नाम घर-घर में होना ही चाहिए। ऐसा है नहीं... लेकिन मैं कह रहा हूं कि ऐसा होना ही चाहिए। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो सजग हैं, और जो लोग सजग हैं उनका यह उत्तरदायित्व है कि यह सजगता दूर-दूर तक फैल जाए।

छठवीं: मैं एक फ्रांसीसी का परिचय देने जा रहा हूं। तुम्हें आश्चर्य होगा। भीतर ही भीतर तुम अपने से पूछ रहे होगे, ‘‘एक फ्रांसीसी? और ओशो उसका नाम पाइथागोरस, हेराक्लाइट्‌स, सुजुकी के साथ सूचीबद्ध करवा रहे हैं? क्या वे वास्तव में पगला गए हैं?’’
हां, पिछले पच्चीस वर्षों से, या कुछ और अधिक वर्षों से मैं कभी भी सामान्य नहीं रहा। उसके पहले मैं भी सामान्य था, लेकिन भगवान का धन्यवाद--लेकिन फिर याद रखना कि यह बस एक अभिव्यक्ति मात्र है, क्योंकि भगवान नहीं है, केवल भगवत्ता है। मैं इसे बताना नहीं भूलता, क्योंकि बहुत संभावना है कि मेरे ही लोग, मेरे ही शिष्य भगवान की पूजा करने लगें--या मुझे ही भगवान की तरह पूजने लगें। कहीं कोई भगवान नहीं है, कभी था भी नहीं।
नीत्शे गलत है जब वह कहता है कि ‘‘ईश्वर मर गया!’’--इसलिए नहीं कि ईश्वर मरा नहीं है, बल्कि इसलिए कि जो कभी जीवित ही नहीं था, वह मर कैसे सकता है? मरने के पहले व्यक्ति को यह शर्त पूरी करनी होती है कि जीवित हो। यहीं पर सात्र भी गलत है; वह नीत्शे से राजी है। मैं कहता हूं ‘‘भगवान का धन्यवाद!’’--मैंने इस शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि और कोई दूसरा शब्द नहीं है जो इसके स्थान पर उपयोग किया जा सके। लेकिन यह बस एक शब्द है, अर्थहीन। ‘‘भगवान का धन्यवाद’’ इसका इतना ही अर्थ है कि सब ठीक है, सुंदर है।
मुझें इतनी खुशी अनुभव हो रही है कि, देवगीत, जरा फिर से बताना कि छठवीं पुस्तक कौन सी थी जिसके बारे में मैं बात कर रहा था।
‘‘एक फ्रांसीसी, ओशो।’’
ठीक है। अभी मैंने उसका नाम नहीं बताया है। यह पुस्तक है ह्यूबर्ट बेनोइट की लेट-गो।इस पुस्तक को प्रत्येक ध्यानी के पास होना चाहिए। किसी ने भी इतनी वैज्ञानिकता और काव्यात्मकता से नहीं लिखा है। यह एक विरोधाभास है, लेकिन वह इसमें कामयाब रहा है। ह्यूबर्ट बेनोइट की लेट-गोसबसे अच्छी पुस्तक है, जो आधुनिक पश्चिमी जगत से निकली है। जहां तक पश्चिम का संबंध है, यह इस शताब्दी की सबसे अच्छी पुस्तक है। मैं पूरब को नहीं गिन रहा हूं।

सातवीं: रामकृष्ण की पैरेबल्स’--‘रामकृष्ण की बोधकथाएं। तुम्हें पता है मैं संतों को बहुत अधिक पसंद नहीं करता हूं। उसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उन्हें थोड़ा-थोड़ा पसंद करता हूं--मैं उन्हें बिलकुल ही पसंद नहीं करता हूं। असल में, सच पूछो तो मैं उनसे घृणा करता हूं। संत बकवासी होते हैं, धूर्त होते हैं, और उनके भीतर कचरा भरा होता है। लेकिन रामकृष्ण उनमें से नहीं हैं--फिर से, भगवान का धन्यवाद! कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनमें संतत्व है और वे संत नहीं हैं।
रामकृष्ण की बोधकथाएंबहुत सरल हैं। बोधकथाएं सरल ही होती हैं। जीसस की बोधकथाओं को याद करो?--बस वैसी ही। यदि कोई बोधकथा जटिल हो तो वह किसी काम की नहीं रह जाती। बोधकथा की आवश्यकता ही इसलिए होती है कि उसे हर उम्र के बच्चे समझ सकें। हां, मेरा मतलब सभी उम्र के बच्चों से है। कुछ ऐसे बच्चे हैं जो दस वर्ष के हैं, और कुछ ऐसे बच्चे हैं जो अस्सी वर्ष के हैं, और इसी तरह से... लेकिन वे सभी बच्चे हैं जो सागर-तट पर खेल रहे हैं, सीपियां बटोर रहे हैं। रामकृष्ण की बोधकथाएं मेरी सातवीं पुस्तक है।

आठवीं: दि फेबल्स ऑफ ईसप’--‘ईसप की दंतकथाएं। अब ईसप कोई वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है; वह कभी हुआ ही नहीं। बुद्ध ने अपने प्रवचनों में उन सभी बोथकथाओं का उपयोग किया है। जब सिकंदर भारत आया, तो इन बोधकथाओं को पश्चिम ले गया। हां, यह जरूर है कि बहुत सी चीजें बदल गईं, बुद्ध का नाम भी बदल गया। बुद्ध को बोधिसत्व कहा जाता था।
बुद्ध ने बताया है कि संबुद्ध दो प्रकार के होते हैं: एक है अर्हत, जो संबोधि तो प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन किसी और की चिंता नहीं करते; और दूसरे हैं बोधिसत्व, जो संबोधि प्राप्त करते हैं और दूसरे साधकों की सहायता के लिए अत्यधिक प्रयास करते हैं। बोधिसत्वशब्द सिकंदर के साथ जाकर बोधिसतबन गया। जो बाद में जोसेफसहो गया; और फिर जोसेफस से ईसप बन गया। ईसप कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है, लेकिन वे बोधकथाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। आज की यह मेरी आठवीं पुस्तक है।

नौवीं: नागार्जुन की मूल माध्यमिक कारिका। मुझे नागार्जुन बहुत अधिक पसंद नहीं हैं; वे बहुत अधिक दार्शनिक हैं, और मैं दार्शनिकता का विरोधी हूं। लेकिन उनकी मूल माध्यमिक कारिका,’ संक्षेप में उनकी कारिकाएं’... ‘मूल माध्यमिक कारिकाका अर्थ है मध्य-मार्ग का सारतत्व--मूल मध्य-मार्ग। अपनी कारिकाओं में वे उन अधिकतम गहराइयों तक पहुंच गए हैं जो शब्दों द्वारा संभव है। मैं इस पर कभी नहीं बोला। यदि मौलिक तत्व पर बोलना हो, तो सब से अच्छा तरीका है कि बिलकुल न बोला जाए, मौन रहा जाए। लेकिन यह पुस्तक अत्यधिक सुंदर है।

दसवीं: आज की संध्या के लिए मेरी अंतिम पुस्तक अजीब है; आमतौर पर कोई नहीं सोचेगा कि मैं इसे शामिल करूंगा। यह तिब्बती रहस्यदर्शी मारपा का महान कार्य है। उनके अनुयायी भी इसे नहीं पढ़ते हैं; यह पढ़ने के लिए नहीं है, यह एक पहेली है। तुम्हें इस पर ध्यान करना होगा। तुम्हें बस इसकी ओर देखते रहना होगा, और अचानक पुस्तक विलीन हो जाती है--इसके वक्तव्य विलीन हो जाते हैं, और बस चेतना बच रहती है।
मारपा बहुत अजीब आदमी थे। उनके सदगुरु मिलारेपा कहा करते थे, ‘‘मैं भी मारपा के सामने सिर झुकाता हूं।’’ किसी भी सदगुरु ने ऐसा कभी नहीं कहा, क्योंकि मारपा थे ही ऐसे...
मारपा से किसी ने एक बार कहा था, ‘‘क्या तुम्हें मिलारेपा पर भरोसा है? यदि हां, तो कूद जाओ आग में! वे तत्काल कूद गए! मारपा आग में कूद गए हैं यह जान कर सभी दिशाओं से लोग आग बुझाने दौड़ पड़े। जब आग बुझाई गई, तो वे अट्टाहास करते हुए बुद्धासन में बैठे मिले!
उन्होंने मारपा से पूछा: ‘‘आप हंस क्यों रहे हैं?’’
उन्होंने कहा: ‘‘मैं हंस रहा हूं, क्योंकि श्रद्धा ही वह वस्तु है जिसे आग जला नहीं सकती है।’’
यही वह व्यक्ति है जिनके सरल गीतों को मैं दसवीं पुस्तक के रूप में गिनता हूं--दि बुक ऑफ मारपा।
क्या मेरा समय समाप्त हो गया? मैं तुम्हें हांकहते हुए सुन सकता हूं, यद्यपि मैं जानता हूं कि मेरा समय अभी भी नहीं आया। मेरा समय समाप्त कैसे होगा? मैं अपने समय से पहले आ गया हूं, इसीलिए मुझे गलत समझा गया है।
लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम सही हो; मेरा समय पूरा हो गया है। और यह वास्तव में सुंदर है। इसके लिए कोई शब्द नहीं मिलते। यह इतना सुंदर है कि अब इसे समाप्त कर देना बेहतर है।

आज इतना ही। 

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