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सोमवार, 18 नवंबर 2019

33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)

33-सरहपा-तिलोमा-भारत के संत

सहज-योग-ओशो

वसंत आया हुआ है। द्वार पर दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो।
जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है। चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं।
सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा। मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो। तुम उनके समसामयिक बन सकते हो। सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है।
सिद्धों में और तुममें समय का फासला हो, स्वभाव का फासला नहीं है। स्वभाव से तो तुम अभी भी सिद्ध हो। सोये हो सही, जैसे बीज में सोया पड़ा है अंकुर; समय पाकर फूटेगा, पल्लव निकलेंगे। जैसे मां के गर्भ में बच्चा है, समय पाकर जन्मेगा। समय का ही फासला है। तुममें, सिद्धों और बुद्धों में, स्वभाव का जरा भी फासला नहीं
है। तुम ठीक वैसे ही हो जैसे बुद्ध, जैसे महावीर, जैसे मुहम्मद, जैसे कृष्ण, जैसे सरहपा। यह तो पहला सूत्र है जो स्मरण रखना, क्योंकि सरहपा इसीकी तुम्हें याद दिलायेंगे। और इस सूत्र की जिसे ठीक से प्रतीति हो जाये, इस सूत्र की अनुभूति हो जाये, इस सूत्र को जो हृदय में समा ले, सम्हाल ले, उसका नब्बे प्रतिशत काम पूरा हो गया।
सिद्ध होना नहीं है--सिद्ध तुम हो, ऐसा जानना है। सिर्फ जानना है, सिर्फ जागना है। वसंत आया ही हुआ है, द्वार पर दस्तकें दे रहा है। तुम पलक खोलो और सारा जगत अपरिसीम सौंदर्य से भरा हुआ है। तुम पलक खोलो, और उत्सव से तुम्हारा मिलन हो जाये! विषाद कटे, यह रात का अंधेरा कटे। यह रात का अंधेरा, बस तुम्हारी बंद आंख के कारण है।
सरहपा जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म से ही ब्राह्मण न रहे, अनुभव से भी ब्राह्मण हो गये। जन्म से तो बहुत लोग ब्राह्मण होते हैं, मगर जन्म के ब्राह्मणत्व का कोई भी मूल्य नहीं है, दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। ठीक से समझो तो जन्म से सभी शूद्र होते हैं। जन्म से कोई ब्राह्मण कैसे होगा? नाममात्र की बात है। ब्राह्मण तो अनुभव की बात है, बोध की बात है। ब्रह्म को जो जाने, सो ब्राह्मण। ब्रह्म को जो पहचाने, सो ब्राह्मण। तो जन्म से तो सभी शूद्र हैं। जो जाग जाये वही ब्राह्मण; जो सोया है वह शूद्र--ऐसी परिभाषा करना। जो जागा है वह ब्राह्मण।
सरहपा जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म से ही ब्राह्मण न रहे, अनुभव से भी ब्राह्मण हो गये। बड़े पंडित थे और यह विरल घटना है, कि पंडित और सिद्ध हो जाये। यह काम अति कठिन है। अज्ञानी सिद्ध हो जाये, यह उतना कठिन नहीं है; लेकिन पंडित सिद्ध हो जाये, यह बहुत कठिन है। कारण? अज्ञानी को इतना तो भाव होता ही है कि मैं अज्ञानी हूं, मुझे पता नहीं; इसलिए अकड़ नहीं होती, अहंकार नहीं होता। अज्ञान में एक निर्दोषता होती है। छोटे बच्चे का अज्ञान, दूर जंगल में बसे आदिवासी का अज्ञान--उसमें तुम्हें एक निर्दोष भाव मिलेगा; दंभ न मिलेगा जानने का। और दंभ जानने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकार भटकाता है, बहुत भटकाता है।
और सरहपा बड़े पंडित थे, नालंदा के आचार्य थे। नालंदा में तो प्रवेश भी होना बहुत कठिन बात थी। नालंदा में विद्यार्थी जो प्रवेश होते थे, उनको महीनों द्वार पर पड़े रहना पड़ता था। प्रवेश-परीक्षा ही जब तक पूरी न होती तब तक द्वार के भीतर प्रवेश नहीं मिलता था। नालंदा अदभुत विश्वविद्यालय था! दस हजार विद्यार्थी थे वहां और हजारों आचार्य थे और एक-एक आचार्य अनूठा था। जो नालंदा का आचार्य हो जाता, उसके पांडित्य की तो पताका फहर जाती थी सारे देश में।
सरहपा नालंदा के आचार्य थे; बड़ी उनकी कीर्ति थी, बड़ा उनका पांडित्य था! एक दिन सारे पांडित्य को लात मार दी। धन को छोड़ना आसान है, पद को छोड़ना आसान है, पांडित्य को छोड़ना बहुत कठिन है। क्योंकि धन तो बाहर है; चोर चुरा लेते हैं, सरकारें बदल जायें, सिक्के न पुराने चलें, बैंक का दीवाला निकल जाये...। धन का क्या भरोसा है! धन तो बाहर की मान्यता पर निर्भर है। लेकिन ज्ञान तो भीतर है, न चोर चुरा सकते, न डाकू लूट सकते। तो ज्ञान पर पकड़ ज्यादा गहरी होती है। ज्ञान अपना मालूम होता है। इसे कोई छीन नहीं सकता। यह दूसरों पर निर्भर नहीं है। यह धन ज्यादा सुरक्षित मालूम होता है। फिर ज्ञान के साथ हमारा तादात्म्य हो जाता है, धन के साथ हमारा तादात्म्य कभी नहीं होता। तुम्हारे पास हजारों सिक्कों का ढेर लगा हो, तो भी तुम ऐसा नहीं कहते कि मैं यह सिक्कों का ढेर हूं। तुम जानते हो ये सिक्के मेरे पास हैं, कल मेरे पास नहीं थे, कल हो सकता है मेरे पास फिर न हों। तुम ज्यादा से ज्यादा सिक्कों की मालकियत कर सकते हो। वह मालकियत भी बड़ी संदिग्ध है। हजार-हजार परिस्थितियों पर निर्भर है।
लेकिन ज्ञान के साथ तादात्म्य हो जाता है। तुम जो जानते हो, वही हो जाते हो। वेद को जानने वाला अनुभव करने लगता है कि जैसे मैं वेद हो गया। कुरान जिसे कंठस्थ है उसे अनुभव होने लगता है कि जैसे मैं कुरान हो गया। ज्ञान मन के इतने गहरे में है कि आत्मा उसके साथ अभिभूत हो जाती है; इतना निकट है कि तादात्म्य हो जाता है। इसलिए दुनिया में लोग और सब आसानी से छोड़ देते हैं...।
मेरे एक परिचित, सब छोड़कर जंगल चले गये। जंगल से मैं गुजरता था, किसी यात्रा पर था, तो मैंने, जो मित्र मुझे अपनी गाड़ी से ले जा रहे थे, उनसे कहा कि एक पांच-सात मील का चक्कर होगा, लेकिन मेरे एक पुराने परिचित हैं, वे सब छोड़-छाड़ चुके हैं--धन, पद-प्रतिष्ठा, वे इस जंगल में हैं, उनसे मिलते चलें। उन्हें मिलने मैं गया। उन्होंने सब छोड़ दिया था, लेकिन सब छोड़कर भी वे जैन थे सो जैन ही थे!
मैंने उनसे पूछा: तुम सब छोड़ आये--समाज छोड़ दिया, घर छोड़ दिया, पत्नी-बच्चे छोड़ दिये, धन छोड़ दिया--लेकिन जिस समाज ने तुम्हें यह जैन होने की भ्रांति दी थी, उस समाज को तो छोड़ आये, मगर भ्रांति को तुम लिये बैठे हो! अभी भी तुम जैन हो!
उनको एकदम से समझ में न आया कि यह कैसे छोड़ा जा सकता है!
जैन होना क्या है? ज्ञान की एक खास राशि। हिंदू होना क्या है? ज्ञान की एक दूसरी राशि। ईसाई होना क्या है? ज्ञान की तीसरी राशि। जिसने बाइबिल से अपना ज्ञान चुना है वह ईसाई है और जिसने गीता से अपना ज्ञान चुना है वह हिंदू है। सब छोड़कर आदमी चला जाता है। तुम देखते हो, संन्यासी हैं, सब छोड़ देते हैं मगर फिर भी हिंदू हैं सो हिंदू हैं, ज्ञान नहीं छूटता। और जब तक ज्ञान न छूटे, तब तक जानना कुछ भी नहीं छूटा। समाज मत छोड़ो, चलेगा। घर-द्वार मत छोड़ो, चलेगा। मगर ज्ञान छोड़ दो; क्योंकि ज्ञान के कारण तुम्हें भ्रांति हो रही है कि मुझे मालूम है, जबकि तुम्हें मालूम नहीं है। मालूम तुम्हें तभी हो सकता है जब तुम पहले यह अंगीकार कर लो कि मुझे मालूम नहीं है। ज्ञान की यात्रा ही अज्ञान के बोध से शुरू होती है।
अदभुत व्यक्ति रहे होंगे सरहपा! एक दिन पांडित्य को लात मार दी। अज्ञानी हो गये। सब छोड़-छाड़ दिया। शास्त्र, जानकारी, उपाधियां--सब छोड़ दिया। एक फक्कड़ फकीर हो गये। अज्ञानी की तरह घूमने लगे। मुझे कुछ मालूम नहीं है, ऐसी घोषणा करने लगे। और जो आदमी ऐसी घोषणा करे कि मुझे कुछ मालूम नहीं है, मालूम होने के करीब उसके दिन आ गये, समय आ गया; क्योंकि अहंकार गिर गया, अब रुकावट कहां रही! अहंकार की दीवाल ही तोड़े थी।
खयाल करना, जानने के लिए छोटे बच्चे जैसा सरल हो जाना जरूरी है। जानने के लिए फिर आंखों में वही आश्चर्य चाहिए जो छोटे बच्चों की आंखों में होता है--और वही निर्मलता, वही निर्दोष भाव! वही छोटी-से-छोटी चीज को देखकर अवाक हो जाना! वृक्ष से आता हुआ धूप का एक टुकड़ा--और बच्चा आश्चर्य-विमुग्ध हो जाता है। जैसे सोने की ढेरी मिल गयी हो!...कि हवाओं का गुजरना वृक्षों से और वृक्षों का नाच, वृक्षों से टकरा कर होता हुआ नाद--और छोटा बच्चा नाच उठता है, मग्न हो जाता है! फूल खिल जायें, कि तितलियां उड़ने लगें, कि कोयल पुकार ले--और छोटे बच्चे का सारा प्राण रस-विमुग्ध हो जाता है।
लेकिन तुम गुजर जाते हो ऐसे, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा। वृक्षों से छनती हुई धूप, उस धूप में छाया हुआ रहस्य तुम्हें आंदोलित नहीं करता। न नाचते हुए वृक्ष तुम्हें प्रभावित करते हैं, न आकाश के तारे तुम्हें छूते हैं। तुम अस्पर्शित गुजर जाते हो। तुमने चारों तरफ ज्ञान की इतनी राशियां इकट्ठी कर ली हैं, इतनी पतर् इकट्ठी कर ली हैं कि तुम्हारी जानकारी के कारण तुम्हारा आश्चर्य का भाव मर गया है। और आश्चर्य के भाव से ही कोई परमात्मा को अनुभव कर सकता है। आश्चर्यविमुग्ध जो है वही प्रार्थना में रत है। आश्चर्य प्रार्थना की शुरुआत है। और तुम्हारा ज्ञान आश्चर्य को मार डालता है, आश्चर्य की गर्दन घोंट देता है।
सरहपा को यह अनुभव हुआ होगा कि यह जो मैंने शास्त्रों से सीख लिया है, मेरा नहीं है, उधार है, बासा है। इसका कोई मूल्य नहीं है। मैंने तो जाना नहीं, किसी और ने जाना है। किसी और के जानने से क्या होगा? किसी और ने रोशनी देखी, इससे मैंने तो रोशनी नहीं देख ली। और किसी और ने भोजन किया तो मुझे पोषण न मिला। और कोई और चला तो मेरी मंजिल तो आयी नहीं। मैं चलूं तो मेरी मंजिल आये। मैं देखूं तो मुझे दर्शन हो। और मैं जल पिऊं तो मेरी प्यास बुझे। एक दिन यह बात समझ में आ गयी होगी।
यह बहुत बिरली घटना है। पंडित को यह बात समझ में नहीं आती। आए तो भी पंडित समझना नहीं चााहता। क्योंकि इसका मतलब हुआ कि वह इतने दिन तक, वषर्ो तक जो पांडित्य इकट्ठा किया था, उसे छोड़ना होगा। तो वे सारे वर्ष व्यर्थ गये! तो वे सारी चेष्टाएं, वह रात देर-देर तक जाग कर शास्त्रों के साथ सिर फोड़ना, शब्दों का संग्रह, और उन शब्दों और शास्त्रों के कारण मिली प्रतिष्ठा, अहंकार पर चढ़ी हुई पुष्पमालायें, वे सब व्यर्थ गईं! तो इतने दिन मूढ़ता में बीते! इतनी हिम्मत कम होती है।
सरहपा बड़े हिम्मत के आदमी रहे होंगे। उनके शब्दों से भी मालूम पड़ता है कि बड़े जानदार व्यक्ति थे। सदियां बीत गयीं, लेकिन उनके शब्दों में ऐसी अंगार है अभी भी, कि अभी भी तुम्हें तिलमिला देंगे। पांडित्य छोड़ा, नालंदा छोड़ा--और उस समय का एक बहुत फक्कड़ों का संप्रदाय था, वज्रयान, उसमें सम्मिलित हो गये। यह जमात ऐसी ही थी जैसी मेरी जमात है। इसमें जिनको तुम समादृत कहो, प्रतिष्ठित कहो, ऐसे लोग सम्मिलित नहीं होते थे। इसमें तो तुम उन्हीं को देख पा सकते थे, जिनको बगावती कहो, क्रांतिकारी कहो--जो लात मार दें सारी प्रतिष्ठा पर, समाज के सम्मान पर।
वज्रयान बड़े हिम्मतवर लोगों का समूह था। वज्रयान की मूल धारणा है कि जो है उसे ऐसे जाना जा सकता है, जैसे बिजली की कौंध होती है। एक क्षण में सब दिखाई पड़ जाता है। सत्य को जानने के लिए कोई क्रमिक आरोहण की जरूरत नहीं है, क्योंकि सत्य दूर नहीं है कि उस तक पहुंचने में समय लगे। सत्य तो यहीं मौजूद है; बिजली कौंध जाए, जैसे बिजली कौंध जाए, ऐसा अभी मिल सकता है, इसी क्षण मिल सकता है। साहस चाहिए। त्वरा चाहिए। तो जैसे कोई तलवार से एक ही झटके में गर्दन काट दे, ऐसे एक ही झटके में सिद्धावस्था प्राप्त हो सकती है। यही मैं भी तुमसे कह रहा हूं: क्रमिक उपलब्धि की बात कि धीरे-धीरे मिलेगा, कि जनम-जनम श्रम करेंगे तब मिलेगा, भ्रांत है। इसलिए भ्रांत है कि मौलिक रूप से मन यही चाहता है कि कल पर टाला जा सके। और क्रमिक विकास की धारणा में कल पर टालने की सुविधा है। कल मिलेगा, परसों मिलेगा, अगले जन्म में मिलेगा; आज तो नहीं मिलने वाला है। इसलिए आज तो तुम जो कर रहे हो करो, जैसे हो रहो, कल की फिक्र करो।
वज्रयान कहता है: अभी मिल सकता है, यहीं, इसी क्षण! या तो इसी क्षण या कभी नहीं। या तो अभी या कभी नहीं। और जब भी मिलेगा तब अभी ही मिलेगा। क्योंकि अभी के अतिरिक्त और कोई समय नहीं है। आज के अतिरिक्त कोई दिन नहीं। कल कभी आया है? जिस कल पर तुम टाले चले जाते हो, वह तुम्हारे टालने का उपाय है, और कुछ भी नहीं। तुम्हारी बेईमानी का एक ढंग है समय। समय तुम्हारी ईजाद है। फूल अभी खिल रहे हैं, वृक्ष अभी बढ़ रहे हैं, पक्षी अभी गीत गा रहे हैं, सूरज अभी निकला है--और तुम...तुम कल खिलोगे! और तुम कल गीत गाओगे! तुम कल उगोगे! कल कभी आता है? फूलों ने नहीं टाला कल पर, वृक्षों ने नहीं टाला कल पर, पक्षियों ने नहीं टाला कल पर, आदमी ने कल पर टाला है।
सिवाय आदमी के और कोई भविष्य में नहीं जी रहा है। सिर्फ इसीलिए आदमी भर परेशान है, और कोई परेशान नहीं है। वृक्ष अशांत नहीं हैं। तुम वृक्षों को मनोवैज्ञानिकों के पास जाते नहीं देखते हो। और न पशु-पक्षी अशांत हैं।
तुमने कभी किसी पशु-पक्षी के चेहरे पर तनाव की, बेचैनी की रेखायें देखीं? कभी कोई पशु-पक्षी जंगल में स्वाभाविक अवस्था में तुमने पागल होते सुना? हां कभी-कभी सर्कस के जानवर पागल हो जाते हैं, अजायबघर के जानवर पागल हो जाते हैं--वह आदमियों के कारण। उनका जुम्मा आदमियों पर है। अब कोई जानवर सर्कस में रहने को थोड़े ही बना है, कि अजायबघर में रहने को बना है।
ऐसा समझो कि पशुओं की दुनिया हो और उसमें अजायबघर हों जिनमें आदमी बंद हों, उनकी क्या हालत होगी? और पशु देखने आयें...हाथी चले आयें, घोड़े चले आयें, गधे चले आयें देखने आदमी को अजायबघर में, और आदमी घूम रहा है कटघरे में। जैसे आदमी पागल हो जाए, ऐसे तुम्हारे अजायबघरों में तुम्हारे जानवर कभी-कभी पागल हो जाते हैं। तुम्हारे कारण। लेकिन प्रकृति में पागलपन घटता ही नहीं। प्रकृति पागलपन को जानती नहीं। क्यों? अशांति ही नहीं है तो विक्षिप्तता कैसे होगी? अशांति नहीं है, क्योंकि समय ही नहीं है, तो अशांत कोई कैसे होगा?
इसे थोड़ा समझ लेना, तो ये सूत्र समझ में आने आसान हो जायेंगे।
अशांत होने के लिए समय चाहिए। अशांत होने के लिए अतीत का भाव चाहिए, भविष्य का भाव चाहिए। अतीत की याददाश्त चाहिए अशांत होने के लिए। वह जो दस साल पहले किसी ने गाली दी थी, वह अभी भी चुभनी चाहिए। गाली भी गई, देने वाले भी गये, समय भी गया, मगर तुम भीतर चुभाए बैठे हो। तुम उसे पकड़े बैठे हो। तुम उसे ढो रहे हो। वषर्ो पहले की याददाश्तें तुम्हारे चित्त पर बोझिल होनी चाहिए तो तुम अशांत हो सकते हो। और भविष्य की कल्पना होनी चाहिए कि कल ऐसा करेंगे, परसों ऐसा करेंगे। योजनायें, कल्पनायें भविष्य की और स्मृतियां अतीत की--इन दोनों के बीच में ही पिसकर तुम पागल होओगे। इन दो चक्की के पाट के बीच जो फंस जाता है वह बच नहीं पाता।
वज्रयान कहता है: वर्तमान में जीयो। इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। और जिस दिन तुम इस क्षण में जीयोगे, सहज हो जाओगे। वज्रयान सहज योग है।
वज्रयान क्यों नाम पड़ा: वज्र की भांति चोट करता है, और एक ही चोट में फैसला कर देता है।
सरहपा पालवंशीय राजा धर्मपाल के समकालिक थे। धर्मपाल का समय ईस्वी. ७६८-८०९ माना जाता है। पूर्वी प्रदेश के किसी राज्ञी नगरी के निवासी थे। इस नगरी का अब कोई पता नहीं चलता। कभी महानगरी रही होगी, अब तो खंडहर भी नहीं मिलते। ऐसी ही हमारी नगरियां भी खो जाएंगी। ऐसे ही जहां बस्तियां हैं, मरघट बन जाते हैं; जहां मरघट हैं वहां बस्तियां बन जाती हैं।
हड़प्पा की खुदाई में सात पर्तें मिलीं, कि हड़प्पा सात बार बसा और सात बार उजड़ा। एक-एक नगर के नीचे न-मालूम कितने नगर दबे पड़े होंगे। तुम जहां बैठे हो, वैज्ञानिक हिसाब लगाकर कहते हैं कि एक-एक आदमी के नीचे कम-से-कम दस-दस आदमियों की लाश गड़ी है। इतने आदमी इस जमीन पर हो चुके हैं। और मर चुके हैं कि सारी जमीन मरघट हो गयी है। अब तुम मरघट जाने से मत डरा करो। तुम जहां हो मरघट पर ही हो। मरघट के अलावा अब कोई जगह बची नहीं है। सब तरफ कब्रें ही कब्रें हैं। और एक-एक जगह न मालूम कितनी बार भवन बने, मंदिर उठे! और कितनी बार भवन गिरे, मंदिर गिरे! धूल में मिल गये। मगर आदमी बड़ा अदभुत है! वह इसी तरह के विचारों में पड़ा रहता है।
मैं मांडवगढ़ एक मित्र के साथ था। मांडवगढ़ कभी सात लाख लोगों की आबादी का नगर था। प्रमाण भी हैं कि सात लाख लोग रहे होंगे। खंडहर बताते हैं। इतने खंडहर हैं कि किसी जमाने की बड़ी महानगरी रही होगी। मांडवगढ़ उसका नाम था तब। इतनी बड़ी मस्जिदें हैं कि जिनमें दस-दस हजार लोग एक साथ नमाज पढ़ सकें। अब तो खंडहर ही हैं। इतनी-इतनी बड़ी धर्मशालायें हैं कि जिनमें दस-दस हजार लोग एक साथ ठहर सकें। इतनी बड़ी-बड़ी घुड़सालें हैं जिनमें हजारों घोड़े एक साथ रुक सकें, हजारों ऊंट एक साथ रुक सकें। किसी जमाने में जब ऊंटों से ही सारी यात्रा होती थी, मांडवगढ़ बड़ी प्रसिद्ध नगरी थी।
अब मांडवगढ़ नहीं बचा। अब उसका नाम है: मांडू। अब वहां केवल तीन सौ पांच आदमी रहते हैं। कुल आबादी! जिस होटल में मैं ठहरा था, बस वही एक होटल यात्रियों के लिए है। जिन मित्र के साथ ठहरा था, वह मित्र विचार कर रहे थे। इंदौर में उन्हें एक भवन बनाना है, कैसे बनाना है। वह सब ले आये थे नक्शे, मुझे दिखा रहे थे कि मैं चुन दूं, कि किस तरह का। स्थिति मुझे बड़ी विडंबना की मालूम पड़ी। मैंने उनसे कहा: जरा बाहर चलो। उन्होंने कहा: बाहर क्या होगा? मैंने कहा: जरा देखो, यह मांडू जो कभी मांडवगढ़ था, यहां बड़े महल थे। सब गिर गये! सब मिट्टी में पड़े हैं। और तुम इतनी उत्सुकता से महल बनाने के लिए आतुर हो! चौबीस घंटे तुम्हें एक ही धुन सवार है कि ऐसा महल बने कि इंदौर में कोई दूसरा महल न हो। सब गिर जायेंगे। लोगों का पता नहीं चलता, लोगों की बनाई हुई चीजों का पता नहीं चलता। मगर इन पर ही हम सब कुछ लगा देते हैं। और जो वास्तविक धन है उसकी तलाश ही नहीं हो पाती।
"राज्ञी' नगरी की बड़ी खोज की गयी है, लेकिन कहीं पता भी नहीं चलता कि यह नगरी कभी थी भी। निशान भी नहीं मिलते, सबूत भी नहीं रह गये हैं। ऐसे ही सब खो जाता है। नहीं जागोगे, नहीं सम्हलोगे तो ऐसा ही कुछ व्यर्थ करते रहोगे, जिसके मिट्टी में निशान भी नहीं छूटेंगे।
जागो! जागरण की यही बेला है। सरहपा जैसे जागे वैसे ही तुम भी जागो।
सरहपा का स्वर क्रांति का स्वर है। समस्त जानने वालों का स्वर क्रांति का ही स्वर रहा है। जहां क्रांति न हो, समझना ज्ञान नहीं है। ज्ञान अग्नि की भांति है--प्रज्वलित अग्नि की भांति! और जो ज्ञान से गुजरेगा वह अग्नि में जलकर कुंदन हो जाता है। और बिना जले कोई भी कुंदन नहीं होता। बिना आग से गुजरे, बिना अग्नि-परीक्षा दिए कोई भी शुद्ध नहीं होता है।
लेकिन लोगों को धर्म के साथ क्रांति के जोड़ने की बात ठीक नहीं लगती। धर्म के साथ तो लोग शांति को जोड़ते हैं, क्रांति को नहीं जोड़ते। धर्म के साथ तो लोग सांत्वना को जोड़ते हैं, सत्य को नहीं जोड़ते। धर्म के साथ संप्रदाय को जोड़ते हैं, साधना को नहीं जोड़ते। धर्म संप्रदाय नहीं है, साधना है। धर्म सांत्वना नहीं है, सत्य है। धर्म शांति नहीं है, क्रांति है। यद्यपि क्रांति से अपूर्व शांति मिलती है, लेकिन वह गौण है। वह लक्ष्य नहीं है।
और कोई भी व्यक्ति जो दकियानूसी है, धार्मिक नहीं होता, न हो सकता है। जो परंपराग्रस्त है, धार्मिक नहीं होता। धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। क्रांति की कहीं कोई परंपरा होती है?
धर्म लीक पर नहीं चलता--अपनी पगडंडी खोजता है, अपना मार्ग बनाता है। लीक पर तो भेड़ें चलती हैं, भीड़ में तो भेड़ें चलती हैं। भेड़चाल कभी किसी व्यक्ति को आत्मवान नहीं बनाती। निजता की घोषणा चाहिए, रूढ़ियों से मुक्ति चाहिए। अंधविश्वासों से बाहर आने का साहस चाहिए। और ध्यान रखना, अंधविश्वासों में बड़ी सुरक्षा है! झंझट नहीं है। रूढ़ि को मानने में बड़ी सुविधा है, क्योंकि और सभी भी उसी को मानते हैं। सांत्वना मिलती है। जब सभी लोग किसी बात को मानते हैं तो खोजने की झंझट नहीं रह जाती। मुफ्त हमने भी मान लिया। जिस भीड़ में संयोग से पड़ गये, हिंदुओं की तो हिंदू और मुसलमानों की तो मुसलमान...जिस भीड़ में संयोग से पड़ गये वही हो गये। और संयोग की ही बात है कि तुम किस भीड? में पड़ गये हो।
लेकिन सत्य इतना सस्ता नहीं है। सत्य तो केवल उनको मिलता है जो खोजते हैं। और खोजने वाला कभी भी भेड़चाल से नहीं चल सकता। खोजने वाले को तो अकेले चलना होगा। एकला चलो रे! उसे तो अभियान पर निकलना होगा। उसे तो बहुत-सी मान्यताओं के विपरीत जाना होगा। उसे तो बहुत-सी अंधी धारणाओं का खंडन करना होगा।
और तुम सरहपा के वचनों में इसी तरह का अदभुत खंडन पाओगे। लेकिन खंडन लक्ष्य नहीं है। खंडन का इरादा इतना ही है, ताकि गलत का खंडन हो जाये और सही शेष रह जाये। क्रांतिवादी नकारात्मक होता है। उसके स्वर में चोट होती है तलवार की। वह तोड़ने को आतुर होता है। वह तब तक तोड़ता ही जाता है जब तक ऐसी कोई चीज न आ जाए जो तोड़ी ही नहीं जा सकती। नेति-नेति उसकी व्यवस्था होती है। वह कहता है: यह भी नहीं, यह भी नहीं। तुम ऐसा स्वर पाओगे सरहपा में कि वह कहेंगे: यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं! घबड़ा मत जाना। उनके निषेध से बेचैन मत हो जाना।
नकार तो केवल विधायक को खोजने की विधि है। विधायक तो तभी मिलता है जब हम सब निषेध कर चुके और अब निषेध करने को न बचा, तब जो शेष रह जाता है उस शेष को जानना मुक्ति है, निर्वाण है।
आरजी हदबंदियां हैं, देस क्या परदेश क्या?
मैं हूं इन्सां वुसअते-कोनैन है मेरा वतन।
ओशो

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