संत भीखा दास—गुरू प्रताप साध की संगत-(ओशो)
भीख जब छोटा बच्चा था। लोग हंसते थे कि तू समझता क्या। शायद साधुओं के विचित्र रंग-ढंग को देखकर चला जाता है। शायद उनके गैरिक वस्त्र,दाढ़ियां उनके बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी उनके चिमटे, उनकी मृदंग, उनकी खंजड़ी,यह सब देखकर तू जाता होगा भीखा। लेकिन किसको पता था कि भीखा यह सब देख कर नहीं जाता। उसका सरल ह्रदय उसका अभी कोराकागज जैसा ह्रदय पीने लगा है, आत्मसात करने लगा है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं की मस्ती है उसे छूने लगी है। उसे दीवाना करने लगी है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं के पास है, उससे वह आन्दोलित होने लगा है। वह जो साधुओं की मस्ती है उसे छूने लगी है, उसे दीवाना करने लगी है। वह भी पियक्कड़ होने लगा है।
बारह वर्ष की उम्र में भीखा ने घर छोड़ दिया। बारह वर्ष की उम्र लोग तो सत्तर अस्सी साल के भी हो जाते है तब भी ऐसे पकड़कर बैठे रहते है जैसे यह घर सदा रहने का है। जैसे यह घन सदा रहने को है। यह पद सदा रहने को है। तुम्हें भरोसा नहीं तो दिल्ली में जाकर देख लो। कोई साठ का है, कोई पैंसठ का, कोई सत्तर का, कोई पचहत्तर का, कोई अस्सी का, कोई चौरासी का। लेकिन पकड़ जाती नहीं—पद की, प्रतिष्ठा की, अहंकार की।
बारह वर्ष की उम्र में भीखा ने सब छोड़-छाड़ दिया। बड़ी बुद्धिमता चाहिए, बुद्धिमत्ता—निर्दोषता के अर्थों में। बुद्धिमत्ता--विचार के अर्थ में नहीं, निर्विचार के अर्थ में, बुद्धिमत्ता बोध के अर्थ में, ज्ञान के अर्थ में नहीं। बड़ी प्रखर क्षमता रही होगी। प्रतिभा रही होगी। मेधा रही होगी। नहीं तो बाहर वर्ष में कौन देख पाता है।
बहुत प्रतिभा चाहिए, लोग तो जीवन के अनुभव से भी नहीं जागते। जो दूसरों के जीवनको देख कर जाग जाए उसके लिए बड़ी प्रतिभाचाहिए। वैसी ही प्रतिभा भीखा में रही होगा। बारह वर्ष की उम्र में छोड़ छाड़ दिया घर।
भीखा उलझन में पडा ही नहीं। चारों तरफ देखा होगा। इतने उलझे लोग, इतने दुःखी लोग, इतने पीड़ित लोग—इतना काफी था। देख लेना। दूसरों को देखकर ही समझ गया कि यहां कुछ सार नहीं है।
सद्गुरू की खोज शुरू हुई। स्वभावत: और कहा जाता सद्गुरू को खोजने—काशी गया। थोड़ा इस चित्र को अपनी आंखों में उभरने दो: बारहें वर्ष का भोला भाला बच्चा, काशी में तलाश कर रहा है, सद्गुरू की। अगर ज्यादा उम्र का होता तो शायद किसी जाल में पड़ जाता। किसी पंडित की बकवास में पड़ जाता। लेकिन एकदम भोला भाला था। यह बड़े रहस्य की बात है। लोग कहते है कि भोले भाले आदमी को धोखा देना आसान है। अनुभव कुछ और कहता है। अगर भोला-भाला आदमी सच में भोला-भाला है, तो धोखा देना असंभव है। बुद्धूओं को भोले-भाले कहते हो, यह बात और है। उनको धोखा देना आसान है। मगर उनको बुद्धू कहो भोले भाले मत कहो।
लेकिन अकसर लोक मानस में यह बात हो गयी है कि बुद्धू और भोला-भाला एक ही जैसे होते है। भोले-भोलों को बुद्धू कहते है और बुद्धूओं को भोला भाला कहते है। ये बातें ठीक नहीं है। ये दोनों बड़ी अलग-अलग बात है। भोला-भाला कहते है। ये बातें ठीक नहीं है। भोला-भाला आदमी तो दर्पण की भांति स्वच्छ होता है। उसे तुम धोखा दे ही नहीं सकते। असंभव है। चालाक आदमी को धोखा दिया जा सकता है। अगर तुम ज्यादा चालाकहो। बेईमान हो। लेकिन भोले-भाले आदमी को धोखा नहीं दिया जा सकता है। तुम्हारी तस्वीर जो तुम्हें भी नहीं दिखाई देती। उसको दिखाई पड़ जाती है। उस के सामने प्रगट हो जाती है। जैसे एक्स–रे के सामने तुम्हारे भीतर तक सब रोग प्रगट हो गये हों। भोले भाले आदमी के पास एक्स-रे वाली आंखे होती है। और दर्पण का चित होता है।
भीखा घूमता रहा काशी में और खाली हाथ लौटना पडा उसे। काशी और काबा, गिरनार और शिखर जी,सब खाली पड़े है। हां, कभी सदियों पूर्व कोई दीये वहां जले थे। उन दीयों के कारण तीर्थ बन गये थे। लेकिन दीये तो कब के बुझ गये। बुझ ही नहीं गये, दीयों का तो नाम-निशान न रहा। लेकिन दीयों के आसपास पंडितों की भीड़ इकट्ठी हो गई। और वह शोर गूल मचाये रखते है। और वह लोगों को डरवाते रहते है। और प्रलोभित करते रहते है। और लोग चलते जाते है। लोग आते जाते है। लोग सोचकर की काशी पहुंच गये तो सब ठीक हो जायेगा। काशी करवट काशी में जाकर मर गये सब ठीक हो जायेगा। हालाकि अब हालत बदल रही है। अब लोग दिल्ली करवट लेते है। दिल्ली में मर गये तो स्वर्ग पक्का है। राज घाट पर जगह मिल गयी तो स्वर्ग पक्का है। जिंदगी भर करों पाप और अंत में करवट ले लेना। मरते वक्त लोग इकट्ठे हो जाते है।
कहते है काशी में तीन तरह के लोगों की भीड़ है—भांड,राँड और सांड। सांड शंकर जी के प्रभाव से मस्त हो कर घूम रहे है। राँडइकट्ठी हो गयी है, क्योंकि आखिरी करवट लेने के लिए। और कोई अच्छी जगह नहीं है। और भांड़ है। दिखाई पड़ गया होगा। ये तीनों पहचान में आ गये होंगे भीखा को, कि कुछ रांड़े है, कुछ साँड़े है, कुछ भाँडे है। कुछ काशी में नहीं है। लौट पड़े खाली हाथ, बहुत उदास। आँखें गीली थी। अब कहां जाएं? सोचा था काशी में मिलन हो जाएगा। अब काशी में नहीं मिला सद्गुरू तो कहां मिलेगा। लेकिन जिसकी खोज है उसे मिलना ही है। खोज गुरु को खोज ही लेगी।
पुरानी मिस्त्री कहावत है कि जब शिष्य तैयार हो जाता है। तो गुरु स्वयं प्रगट हो जाता है। रास्ते में किसी ने एक पद कहा। किसी अनजाने आदमी ने। ऐसे ही राहगीर ने, चलते साथ हो लिया। एक पद कहा, जिसके अंत में ‘’गुलाल’’ की छाप पड़ती थी। गुलाल का पद था। नाम का ही जादू छा गया। उस पद में तो कुछ ज्यादा नहीं था। लेकिन गुलाल......कोई तार मिल गया। कोई तालमेल बैठ गया।
बड़ा अद्भुत है यह जगत। कहां तार मिल जाएंगे कहा तालमेल बैठ जाएगा। कोई जानता नहीं। किसी रहस्यपूर्ण ढंग से गुरु से मिलन हो जाएगा। कोई जानता नहीं। उसकी कोई विधि-व्यवस्था नहीं है। कोई प्रक्रिया नहीं है। अब यह अजनबी आदमी कह दिया पद आकस्मिक। और उसमें गुलाल का नाम आता था। सिर्फ इतना ही उल्लेख किया गया है कि गुलाल की छाप आती थी। पीछे, जैसे कबीर में आती है। कहे कबीरा, ऐसे कुछ छाप पड़ती होगी। ‘’कहै गुलाल’’ । गुलाल शब्द ने जैसे कोई सोई हुई स्मृतियाँ जगा दी।
अगर मुझसे पूछो तो मैं यही कहूंगा कि यह नाता जन्मों-जन्मों का रहा होगा। अन्यथा सोयी स्मृतियां जागती कैसे। और अक्सर ऐसा होता है कि गुरूओं और शिष्यों का नाता जन्मों–जन्मों का होता है। ये नाते एकाध जन्म में नहीं बनते है। एकाध जन्म बहुत छोटा सा समय है—क्षणभंगुर। ये कोई मौसमी फूल नहीं है। ये तो चिनार के आकाश को छूते दरख़्त है, इनको सदियों लगती है। पति पत्नी का संबंध क्षण में हो जाता है। जगत की मित्रताएं क्षण में बन जाती है। मिट जाती है। जितनी जल्दी बनती है। उतनी जल्दी मिट जाती है। लेकिन सद्गुरू का संबंध सदियों में निर्मित होता है। धीरे-धीरे निर्मित होता है। आहिस्ता-आहिस्ता निर्मित होता है।
जरूर भीखा किन्हीं पिछले जन्मों में गुलाल से जुड़ा होगा। एक ही पथ के पथिक रहे होंगे। एक ही मधुशाला में दोनों ने पी होगी। एक ही प्याले से दोनों ने पी होगी। इसीलिए तो आज अचानक जरा सी चोट.....। ‘’गुलाल’’ शब्द से क्या होता है। तुमने भी हजार बार सुना होगा। मैं कितनी दफे दोहता हूं...गुलाल,गुलाल, गुलाल.....। तुम्हें ज्यादा से ज्यादा याद आ जाती होगी। फागुन के गुलाल की। लेकिन भीखा के भीतर कोई तार छिड़ गया। कोई संगीत बज गया। कोई द्वार खुल गया। पूछा: गुलाल कहां मिलेंगे? उस आदमी ने कहा : मुझेकुछ पता नहीं है। यह पद तो मैंने किसी से सुना है। उसके भीतर कुछ नहीं बजा था। बस पूछने लगे भीखा कि गुलाल कहां, गुलाल कहां मिलेगा?
गुलाल कोई बहुत ख्याति नाम आदमी न थे। ख्याति नाम व्यक्ति तो काशी में थे। उसके पास जो जाकर देख आया था भीखा, कुछ पाया नहीं था। खोजते खोजें एक छोटे से गांव में, जिसका नाम भी तुमने न सुना होगा। नाम था गांव का ‘’भुरकुड़ा’’ एक छोटा सा गांव,होगा कोई दस-बीस घरों का। नाम ही बता रहा है। भुरकुड़ा। वहां गुलाल मिले। और गुलाल को देखा, कि न भीखा ने ही केवल पहचाना,गुलाल ने भी पहचाना। इस बारह वर्ष के बच्चे को एकदम उठाकर अपने पास बिठा लिया अपनी गद्दी पर। पुराने शिष्यों में तो ईर्ष्या फैल गयी। लोग तो चौकन्ने हो गये कि बात क्या है। किसी को कभी अपने पास गद्दी पर नहीं बिठाया। बड़ी आवभगत की—बारह वर्ष के बच्चे की।
क्योंकि एक और दुनिया है जहां, इस उम्र से कुछ भी नहीं नाप जाता। जहां ह्रदय तोले जाते है; जहां आत्माएं परखी जाती है। इसकी ऐसा सम्मान दिया जैसे कोई सम्राट हो।
भीखा गुलाल के हो गये। गुलाल भीखा का हो गया। फिर भीखा न छोड़ा ही नहीं। भुरकुटा गांव, वहीं पर अंत समय तक रहे, और वहीं गुरु चरणों में मरे। वहीं जीवन भर भुरकुटा और गुलाल के हो कर रह गये। एक पल एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ा गुलाल का साथ। रात दिन वहीं चरण मंदिर बन गये, वही तीर्थ हो गया, भीखा का।
भीखा ने स्वयं इस अनुभूति को अपने शब्दों में बांधा है—
बीत बारह बरस उपजी रामनाम सों प्रीति।
निपट लागी चटपटी मानों चरिउ पन गये बीति।।
और फिर ऐसी आग जली...वह जो राम की प्रीति लगी तो ऐसी आग जली। कि लगा बारह साल में ही चारों पन बीत गये। जैसे में बूढ़ा हो गया। जैसे बीत गयीं चारों अवस्थाएं—चारों आश्रम, एक साथ बारह साल में। निपट लागी चटपटी और ऐसी लगी आग और ऐसी जली अभीप्सा, मानों चरिउ पन गये बीती। मैं अचानक बारह वर्ष में वृद्ध हो गया: देख लिया देखने योग्य। सब आसार था। मौत सामने खड़ी हो गयी। बारह वर्ष की उम्र में। मौत सामने खड़ी हो गयी। जब कि लोग सपने सँजोता है, जो टूटे गे आज नहीं कल। जब कि लोग बड़ी योजनाएं और कल्पनाएं बनाते है। जो कि सब धूल-धूसरित हो जाएंगा।
जागों, और जानने का एक ही उपाय है। गुरु परताप साध की संगति,भीखा के ये बचन सीधे-सादे,सुगम,पर चिनगारी की भांति है। और एक चिनगारी सारे जंगल में आग लगा दे—एक चिनगारी का इतना बल है।
ह्रदय को खोलों,इस चिनगारी को अपने भीतर ले लो। शिष्य वही है जो चिनगारी को फूल की तरह अपने भीतर ले ले। चिनगारी जलाएगी वह सब जो गलत है। वह सब जो व्यर्थ है, वह सब जो कूड़ा करकट हे, चिनगारी जलाएगी, भभकाएगी, वह जो नहीं होना चाहिए। और उस सबको निखारती है जो होना चाहिए। जो इस अग्नि से गुजरता है, एक दिन कुंदन होकर प्रकट होकर होता है, शुद्ध होकर प्रकट होता है।
ओशो
गुरु प्रताप साध की संगत,
प्रवचन—1
thank you guruji
जवाब देंहटाएं