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मंगलवार, 19 नवंबर 2019

34-यारि-(ओशो)

34-यारि-भारत के संत

विरहिनी मंदिर दियना बार-ओशो

एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने-आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाए हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं।

प्रकृति का वसंत तो जड़ है, आता है, जाता है; लेकिन आत्मा के वसंत तो बुलाए जाते हैं तो आते हैं। हमने बुलाना ही बंद कर दिया। हमने प्रभु को पुकारना ही बंद कर दिया। पुकारते नहीं प्रभु को, आता नहीं प्रभु, तो फिर हम कहते हैं--प्रभु है कहां? प्रमाण क्या है उसका?

बिना बुलाए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। बिना उसके आए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। और जब आता है तो बाढ़ की तरह आता है। एक प्रमाण नहीं अनंत प्रमाण लेकर आता है। स्वतः प्रमाण होकर आता है। जिस व्यक्ति ने भी कभी उसे पुकारा है, पुकार खाली नहीं गयी है।
यारी की पुकार भी खाली नहीं गयी। यारी भी भर उठे--बड़ी सुगंध से! और लुटी सुगंध! उनके गीतों में बंटी सुगंध! और जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में परमात्मा का आगमन होता है तो गीतों की झड़ी लग जाती है; उस व्यक्ति की श्वास-श्वास गीत बन जाता है। उसका उठना-बैठना संगीत हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ जाते हैं वहां तीर्थ बन जाते हैं।
ऐसे ही एक अदभुत व्यक्ति के साथ आज हम यात्रा शुरू करते हैं। यारी का जन्म हुआ दिल्ली में। नाम था: यार मुहम्मद। फिर मुहम्मद तो जल्दी ही खो गया; क्योंकि जिसे परमात्मा को पुकारना हो, वह हिंदू नहीं रह सकता, वह मुसलमान भी नहीं रह सकता, वह ईसाई भी नहीं रह सकता। परमात्मा को पुकारने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। और पहली शर्त है--विशेषण छोड़ देने पड़ते हैं, आग्रह छोड़ देने पड़ते हैं, मंदिर और मस्जिद छोड़ देने पड़ते हैं। तभी तो खुद मंदिर बनोगे, खुद मस्जिद बनोगे। जब तक बाहर के मंदिर और मस्जिद को पकड़े रहोगे, याद ही न आएगी कि अपने भीतर भी एक मंदिर था। और उस मंदिर में न कभी दीप जले, और उस मंदिर में न कभी धूप जली। उस मंदिर में कभी नाद न हुआ। अपने भीतर भी एक मस्जिद थी, जिसमें कभी अजान न उठी, जिसमें कभी नमाजें न पढ़ी गईं, जहां अंधेरा था तो अंधेरा ही रहा।
बाहर के मंदिर-मस्जिदों में जो भटका है, वह भीतर के असली मंदिर और मस्जिद से वंचित रह जायेगा। जिसने नजर बाहर रखी, वह कभी परमात्मा को नहीं पा सकेगा। और धन को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं, और ध्यान को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं। धन के खोजने वालों को क्षमा किया जा सकता है, ध्यान के खोजनेवालों को क्षमा नहीं किया जा सकता। धन तो बाहर है, ध्यान तो बाहर नहीं है। पद खोजते हो, प्रतिष्ठा खोजते हो; बाहर ही खोजनी पड़ेगी। परमात्मा खोजना है। तो भीतर खोजना पड़ेगा। और भीतर कोई हिंदू है, कि भीतर कोई मुसलमान है, कि भीतर कोई ईसाई है, कि कोई जैन है, कि कोई बौद्ध है, कि कोई सिक्ख है, कि पारसी है? भीतर तो तुम निर्मल हो, निराकार हो। भीतर तो तुम विशेषण-रहित हो--न तुम ब्राह्मण, न तुम शूद्र, न तुम स्त्री, न तुम पुरुष, न तुम गोरे, न तुम काले। भीतर तो तुम बच्चे भी नहीं, जवान भी नहीं, बूढ़े भी नहीं। भीतर तो तुम शाश्वत हो, समयातीत हो कालातीत हो। और भीतर का ही स्वाद मिले तो परमात्मा का स्वाद मिले।
सो जल्दी ही यार मुहम्मद का मुहम्मद कहां खो गया पता नहीं! अब तो लोग अनुमान लगता हैं कि यार मुहम्मद नाम रहा होगा। यह अनुमान है, ऐतिहासिक कोई प्रमाण नहीं। ऐसा ही होता है। ये तो बाहर के रंग हैं। यह तो एक उसकी वर्षा का झोंका आया कि ये रंग बह जाएंगे।
शिष्य थे वीरू फकीर के। वीरू मुसलमान नहीं हैं। वीरू तो जन्में थे हिंदू घर में। लेकिन जब कोई ज्योति जलती है तो सब तरह के दीवाने चले आते हैं, भांति-भांति के परवाने चले आते हैं! उस मदमस्ती में कौन देखता है--कौन हिंदू, कौन मुसलमान वीरू खुद एक मुसलमान फकीर स्त्री के शिष्य थे--बावरी साहिबा के।
संतों का जगत कुछ और ही है। वहां बाहर के भेदों का कोई मूल्य नहीं है। यह स्त्री बावरी साहिबा भी बड़ी अदभुत स्त्री थी। स्त्रियां तो थोड़ी ही हुई हैं जो अंगुलियों पर गिनी जा सकें, उनमें बावरी भी एक है। उसका तो नाम भी पता नहीं। ऐसी पागल हुई प्रभु के प्रेम में कि बस इतनी ही याद रह गयी कि बावरी थी, कि दीवानी थी, कि पागल थी। बावरी थी मुसलमान--संस्कारगत, जन्मगत। शिष्य थे वीरू--जन्मगत, संस्कारगत हिंदू। प्रशिष्य थे यारी साहब, फिर मुसलमान। ऐसे यारी में दो धाराओं का मिलन हुआ। ऐसे यारी में संगम हुआ। और यारी के वचनों में जगह-जगह उस संगम की झलक मिलेगी। पहले मुहम्मद गया, फिर यार थे, यार से यारी हो गए। वह बात भी समझ लेनी चाहिए। या का अर्थ होता है--मित्र; यारी का अर्थ होता है--मैत्री, मित्रता। जब अहंकार खो जाए तो मित्र मैत्रेयी हो जाता है, मित्र मित्रता हो जाता है। जब अहंकार खो जाए तो फूल खो जाता है, सुवास रह जाती है। फिर तुम पकड़ नहीं सकते इस सुवास को, मुट्ठी में बांध नहीं सकते इस सुवास को। न उसका कोई रूप है न रंग है। ऐसी ही मैत्री है।
बुद्ध ने तो कहा है कि बुद्ध पुरुष कल्याण मित्र होते हैं। यारी एक कल्याण मित्र हैं।
मगर एक और अनूठी बात की यारी से यार शब्द भी खो गया। मित्र में भी थोड़ी-सी सीमा है। मित्रता असीम है। मित्र में केंद्र है, कहीं छिपा मैं है। मित्रता में मैं तो गया, बिलकुल गया! प्रेम अपनी परिशुद्धि में प्रकट होता है। मित्रता और मैत्री में भी थोड़ा फर्क है। मित्रता होती है दो व्यक्तियों के बीच; एक संबंध है मित्रता। मैत्री संबंध नहीं समाधि की अवस्था है। मैत्री दूसरा न भी हो तो भी चलती है। तो भी बहती है। मित्रता के लिए दूसरा जरूरी है, मैं और तू का नाता जरूरी है। मित्रता में द्वैत शेष रहता है। मैत्री  में द्वैत भी अशेष हो सकता है।
मैत्री का अर्थ है: वृक्ष हो तो, चट्टान हो तो, आकाश में बादल हो तो, कोई भी न हो तो, तो भी सुवास उड़ती रहती है; तू से नहीं बंधी है। जब मैं ही न रहा तो तू कैसे रहेगा? मैं और तू तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इधर गया मैं उधर गया तू। तब एक सहज प्रेम का प्रवाह रह जाता है--निरुद्देश्य, किसी पते पर निवेदित नहीं। प्रेम की पाती तो लिखी जाती है, लेकिन किसी पते पर नहीं। और जब तुम बिना किसी पते के प्रेम की पाती लिखते हो तो परमात्मा तक पहुंचती है।
मैत्री मित्रता की पराकाष्ठा है। छूट गए सीमाओं के बंधन, गिर गईं जंजीरें मैत्री ने पंख फैला दिए, उड़ गई आकाश में!...प्रेम का चरम रूप है, इसलिए नाम प्यारा है! यार मुहम्मद से रह गए यार; फिर यार भी खो गया, बची यारी। और इसलिए मैं कहता हूं:
दिल में नये अरमान बसाने का दिन आया
गुंचे की तरह दिल को खिलाने का दिन आया
फूलों की तरह हंसने-हंसाने का दिन आया
बादल की तरह झूम के छाने का दिन आया
मुस्कान की बरखा में नहाने का दिन आया
गिरने देना यारी के वचनों को जैसे वर्षा की बूंदाबांदी हो। घिरने देना उनके मेघ को तुम्हारे ऊपर! नहा लेना! यही वस्तुतः गंगा का स्नान है। संतों की वाणी बरस जाए तुम पर तो देह ही नहीं शुद्ध हो जाती, प्राणों के प्राणों तक भी शुद्धि पहुंच जाती है। तन ही नहीं नहा लेता, मन ही नहीं नहा लेता--तन और मन के पीछे छिपा हुआ साक्षी भी, सारी धूल झाड़ कर उठ बैठता है। नींद टूट जाती है। और तुम्हारे भीतर जो कली न मालूम कितने दिन से बे-खिली पड़ी थी, खिल उठती है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो अर्थ है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो प्रयोजन है कि तुम्हें भी याद आ जाए कि तुम भी खिलने को आए थे यहां और बिना खिले मत लौट जाना। तुम्हें भी याद आ जाए कि खिलना तुम्हारी भी क्षमता है, तुम्हारा भी स्वभाव है।
ऐसे करना यारी का सत्संग!
सूत्र: बिरहिनी मंदिर दियना बार।
हम सब विरह में हैं, हमें पता हो या न पता हो। बीमार तो बीमार है, बीमार को पता हो या न पता हो। बीमारी महीनों चलती है और जब तक कोई चिकित्सक न मिल जाए, ठीक-ठीक निदान भी नहीं हो पाता कि बीमारी क्या है। नहीं मिला था चिकित्सक तो भी बीमारी तो चलती थी।
रूस में एक बड़े वैज्ञानिक किरिलियान ने एक नए किस्म की फोटोग्राफी का आविष्कार किया है, जिसमें बीमारी के आने के छह महीने पहले बीमारी का पता चल जाता बीमार होने के छह महीने पहले अभी बीमार को भी छह महीने बाद पता चलेगा और बीमार को भी पता चलते-चलते जब महीने-दो महीने बीत जाएंगे, तब यह चिकित्सक के पास जाएगा। लेकिन किरिलियान फोटो से छह महीने पहले पता चल जाता है कि किस तरह की बीमारी, किस भांति की बीमारी पकड़ने वाली है। कहीं बीमारी ने पकड़ ही लिया है किसी गहरे तल पर। उस गहरे तल से आते-आते तुम्हारे चेतन तक, अचेतन से चेतन की यात्रा करते-करते समय लगेगा। फिर कुछ दिन तो तुम टालोगे। कुछ दिन तो तुम मन समझा लोगे कि यों ही होगा, कि सर्दी-जुखाम है, कि सर दर्द है, कि थकान है, कि काम ज्यादा है, कि कल रात ठीक से सो नहीं पाए। टालते रहोगे कुछ बहाने खोज कर।
और कुछ बीमारियां तो ऐसी हैं कि आदमी जिंदगीभर टाल सकता है। और कुछ बीमारियां तो इतनी सूक्ष्म हैं कि टालने की जरूरत ही नहीं पड़ती, पता ही नहीं चलता है। उतनी सूक्ष्म बुद्धि ही कम लोगों के पास है। उतनी प्रकीर्ण संवेदनशीलता ही बहुत कम लोगों के पास है। फिर शरीर की बीमारियों की बात हुई यह तो; मन की बीमारियां और भी गहरी हैं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि चार में से तीन लोग मानसिक रूप से बीमार हैं। चार में से तीन तो बड़ी संख्या हो गयी! और मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि चौथा स्वस्थ है, यह भी हम गारंटी से नहीं रह सकते। तीन तो निश्चित बीमार हैं, चौथा संदिग्ध है। यह तो खूब बात हुई! इसका तो अर्थ हुआ कि सारी मनुष्यता बीमार है! और यह तो मन की बीमारी की बात है; फिर उसके गहरे आत्मा की बीमारी है। जब मन में चार में से तीन बीमार हैं और चौथा संदिग्ध है, तो आत्मा के संबंध में तो निश्चित मानो कि चारों बीमार हैं और चारों की बीमारी सुनिश्चित है। उस बीमारी का नाम विरह है।
बिरहिनी मंदिर दियना बार! मंदिर से अर्थ है--तुम्हारी देह से। क्योंकि इसी मंदिर में तो परमात्मा विराजमान है। कहां भागे जाते हो? किसे खोजने निकले हो? अनंत से तो खोज रहे हो, मिला नहीं। जरूर कोई बुनियादी चूक हो रही है। जो भीतर हो, उसे बाहर खोजोगे तो कैसे पाओगे? मंदिर हो तुम!
और तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित तुम्हारी देह की निंदा में संलग्न हैं। सदियों से उनका एक ही काम है कि तुम्हारी देह की निंदा करें, कि तुम्हें देह का शत्रु बनाएं कि तुम्हें बताएं कि देह के कारण ही तुम परमात्मा से टूटे हो। झूठी यह बात है, सरासर झूठी यह बात है, सौ प्रतिशत झूठी यह बात है।
तुम्हारी देह परमात्मा के विपरीत नहीं है। तुम्हारी देह को तो परमात्मा ने अपना आवास बनाया है। तुम्हारी देह मंदिर है, पूजा का स्थल है, काबा है, काशी है! तुम्हारी देह को दबाना मत, सताना मत। तुम्हारी देह को तोड़ने में मत लग जाना। हालांकि यही तुम्हें सिखाया गया है, यही जहर तुम्हें पिलाया गया है। दूध के साथ, घुटी के साथ, तुम्हें यह जहर पिलाया गया है कि देह पाप है।
और जिसको यह समझ में आ गई बात, जिसके भीतर यह बात बहुत गहराई में बैठ गई, यह नासमझी कि देह पाप है, वह परमात्मा से कभी भी न मिल सकेगा। क्योंकि देह से डरा-डरा बाहर-बाहर रहेगा और देह के भीतर तो प्रवेश कैसे करेगा? पाप में कहीं प्रवेश किया जाता है!
देह उसकी भेंट है, पाप नहीं। देह पुण्य है, पाप नहीं। देह पवित्र है, अपवित्र नहीं। देह का सम्मान करो। देह का सत्कार करो। और तभी तो तुम प्रवेश कर पाओगे। देह से मैत्री बनाओ, यारी साधो! और धीरे-धीरे देह में भीतर सरको।
योग तैयार करता है तुम्हारी देह को, ताकि तुम भीतर सरक सको; तुम्हारी देह के द्वार खोलता है। और ध्यान, तुम्हें देह के भीतर बैठने की कला सिखाता है। और जिसने देह के द्वार खोल लिए योग से और जिसने ध्यान से भीतर बैठने की कला सीख ली, पा लिया उसने परमात्मा को! सदा परमात्मा ऐसे ही पाया गया है।
...मंदिर दियना बार! आत्म-ज्योति भीतर जलानी है। यह दीया तुम्हारी देह में जलना है। जलाना है, कहना शायद ठीक नहीं--जल ही रहा है, पहचानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है।
रंग है जिसमें मगर बुए वफा कुछ भी नहीं
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मुहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
यह तुम्हारी देह, यह तुम्हारा दिल धड़कता है जो भीतर, इसी के अंतरतम में परमात्मा विराजमान है। तुम झूठे फूलों में भटके हो, जब कि सच्चा फूल तुम्हारे भीतर खिलने को राजी है। तुम्हारी झील में नील-कमल खिलने को राजी है; तुम मांगते फिरते हो प्लास्टिक के फूलों को! बाजारों में खरीद रहे हो कागज के फूलों को!
रंग है जिसमें मगर बुए वफा कुछ भी नहीं
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मुहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
उतरो देह की सीढ़ियों से, पाओगे हृदय को। वह तुम्हारा अंतरगृह है। फिर उतरो हृदय की सीढ़ियों से और तुम पाओगे उस अमृत के स्रोत को--जिसके बिना जीवन उदास है, जिसके बिना जीवन संताप है, जिसके बिना जीवन विषाद है!
बिरहिनी मंदिर दियना बार!
ओशो 

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