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रविवार, 3 नवंबर 2019

19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो

दरियाशाह (बिहार वाले)-भारत के संत

दरिया कहै शब्द निरबाना-(ओशो)

निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है--उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।
और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। उन्होंने निर्णय ही कर लिया था न सुनने का, न देखने का। लेकिन जिन्होंने हृदय से गहा, जिन्होंने प्रेम की झौली फैलायी और बुद्धपुरुषों के वचनों को झेला, उन तक वह भी पहुंच गया जो नहीं पहुंचाया जा सकता।
उन तक उसकी भी खबर हो गयी जिसकी खबर की ही नहीं जा सकती है। उसी अर्थ में दरिया कहते हैं--दरिया कहै शब्द निरबाना। कि मैं कह रहा हूं, निर्वाण से भरे हुए शब्द, निर्वाण से ओतप्रोत शब्द, निर्वाण में पगे शब्द। जो सुन सकेंगे, जो सुनने को सच में राजी हैं, जो विवाद करने में उत्सुक नहीं, संवाद में जिनका रस जगा है, जो मात्र कुतूहल से नहीं सुन रहे हैं वरन जिनके भीतर मुमुक्षा की अग्नि जन्मी है, सुन पाएंगे। शब्दों के पास-पास बंधा हुआ उन तक निकलने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है--उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।
और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। उन्होंने निर्णय ही कर लिया था न सुनने का, न देखने का। लेकिन जिन्होंने हृदय से गहा, जिन्होंने प्रेम की झौली फैलायी और बुद्धपुरुषों के वचनों को झेला, उन तक वह भी पहुंच गया जो नहीं पहुंचाया जा सकता। उन तक उसकी भी खबर हो गयी जिसकी खबर की ही नहीं जा सकती है। उसी अर्थ में दरिया कहते हैं--दरिया कहै शब्द निरबाना। कि मैं कह रहा हूं, निर्वाण से भरे हुए शब्द, निर्वाण से ओतप्रोत शब्द, निर्वाण में पगे शब्द। जो सुन सकेंगे, जो सुनने को सच में राजी हैं, जो विवाद करने में उत्सुक नहीं, संवाद में जिनका रस जगा है, जो मात्र कुतूहल से नहीं सुन रहे हैं वरन जिनके भीतर मुमुक्षा की अग्नि जन्मी है, सुन पाएंगे। शब्दों के पास-पास बंधा हुआ उन तक निःशब्द भी पहुंचेगा। क्योंकि जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो मस्तिष्क से नहीं बोलता। जब दरिया जैसा व्यक्ति बोलता है तो अपने अंतर्तम की गहराइयों से बोलता है। वह आवाज सिर में गूंजते हुए विचारों की आवाज नहीं है वरन हृदय के अंतर्गृह में सतत बह रही अनुभव की प्रतिध्वनि है।
दरिया जैसे व्यक्ति के शब्द दरिया के भीतर जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं।
वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों को आलिंगन न भी करे, लेकिन हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कही कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखी ही, अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे ही शब्द जब किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भनी है। गंध अनाक्रामक है। गंध बड़ी सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। जो हृदय को बिलकुल खोलकर सुनेंगे, शायद उनके नासापुटों को भर दे; शायद उनके प्राण में उमंग बनकर नाचे; शायद उनके भीतर की वीणा के तार छू जाएं; शायद उनके भीतर अनाहत का जागरण होने लगे; शायद उनकी आंखें खुलें, उन्मेष हो, उन्हें भी पता चले कि रात ही नहीं है, दिन है, और उन्हें भी पता चले कि अंधियारा सच नहीं है, सच तो आलोक है। और हम अंधियार में जीते थे, क्योंकि हमने आंखें बंद कर रखी थीं। और शोरगुल सिर्फ मस्तिष्क में है। जरा नीचे मस्तिष्क से उतरे कि संगीत ही संगीत है। ओंकार का नाद अहर्निश बज रहा है।
उस ओंकार के नाद में लिपटे हुए शब्द जब आते हैं--बस कोई श्रावक चाहिए, कोई जो पी ले! जो विचारों को हटाकर एक तरफ रख दे, जो अपने सिर को उतारकर एक तरफ हटा दे और जो सिर्फ प्यास की तरह अपनी झोली को फैला दे, तो जरूर दरिया ठीक कहते हैं--दरिया कहै शब्द निरबाना। मगर ये निर्वाण के शब्द केवल शिष्यों को सुनायी पड़ते हैं, प्रेमियों को सुनायी पड़ते हैं, भक्तों को सुनायी पड़ते हैं। इन शब्दों का पांडित्य से कोई संबंध नहीं है। और तुम भाषा समझते हो इसलिए तुम, इन्हें समझ लोगे, ऐसी भ्रांति में न पड़ना। ये शब्द शून्य से आते हैं। अगर तुम्हें भी इस शून्य की थोड़ी-थोड़ी झलकें आने लगी हो तो ही तुम इन अपूर्व, अद्वितीय वचनों का रस पी सकोगे।
और शून्य की झलके बड़ी स्वाभाविक झलकें है। बस यही कि तुमने उन पर ध्यान नहीं दिया। आती हैं तुम्हें भी, तुम्हारा भी द्वार कभी खुल जाता है, तुम्हारे भी झरोखे कभी खुल जाते हैं, कभी चांदत्तारे तुममें भी झांक जाते हैं, कभी हवाएं तुम्हारे हृदय को भी आकर कंपित कर जाती है, कभी सूरज की किरणें तुम्हारे भीतर भी प्रवेश करती है, मर तुम ऐसे बेहोश, तुम ऐसे अनुपस्थित, कि तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। परमात्मा घटता रहता है तुम्हारे चारों तरफ, अनंत-अनंत रूपों से, और तुम अपने में बंद, तुम अपनी आंखों को बंद किए, अपने हृदय के कपाटो को बंद किए परमात्मा के सागर में जीते हुए भी उससे परिचित रह जाते हो।
थोड़े मौके शून्य के अपने भीतर उतरने दो, और तब समझ सकोगे दरिया के शब्दों को। कभी सुबह उठकर चुपचाप नीले आकाश को देखो, टकटकी बांधकर, होश से भरकर, और तुम चकित होओगे--कभी-कभी ऐसा क्षण आएगा--कभी-कभी आएगा--ऐसा क्षण आएगा जब बाहर भी नीला आकाश और भीतर भी नीला आकाश, एक क्षण को तुम आकाश के साथ आबद्ध हो जाओगे, आलिंगनबद्ध हो जाओगे। एक क्षण को आकाश तुम्हें अपनी बांहों मग ले लेगा और तुम कहीं खो गए...किसी दूर के लोक में खो गए आयाम में खो गए...उस क्षण जो तुम्हें स्वाद मिलेगा, वही शून्य का स्वाद है। अभी बूंद का है, फिर कभी सागर का भी हो सकता है। अभी थोड़ा सा है--आया और गया; हवा के झोंके में गंध आई और उड़ गयी, तुम पकड़ भी न पाओगे--मगर अगर यह स्मरण आना शुरू हो जाए। कि ऐसी गंधें हैं और ऐसी किरणें हैं, तो फिर अपने द्वार तुम कभी-कभी खोलने लगोगे। रात आकाश तारों से भरी हो, लेट जाओ पृथ्वी पर, मिट जाओ पृथ्वी पर, भूल जाओ कि मैं हूं, मिलन जाने दो शरीर को मिट्टी में, भूल जाओ कि मैं हूं--इधर शरीर मिट्टी में मिला कि उधर आत्मा आकाश में मिली। यह बातें एक ही साथ घटती हैं।
तुम दोनों के जोड़ हो। पृथ्वी के और आकाश के। दृश्य के और अदृश्य के। मर्त्य के और अमर्त्य के। मिट्टी मिट्टी में मिल जाने दो थोड़ी देर। ऐसे तो मिलेगी ही आज नहीं कल। आज नहीं कल देह तो गिरेगी, मिट्टी में समाहित हो जाएगी। एक दिन मिट्टी से ही उठी थी, एक दिन मिट्टी में ही वापिस लौट जाएंगी। हर वस्तु आपने मूलस्रोत पर लौट जाती है।
कभी-कभी स्वेच्छा से इसे मिट्टी में पड़ जाने दो। भूल ही जाओ कि तुम्हारी देह भी है। और भूल ही जाओ कि तुम भी हो। उस भूने में ही पहली बार स्मृति आती है। उस की जो तुम हो। उस विस्मरण में ही आत्मस्मरण जगता है। उसी क्षण तुम आकाश हो जाओगे। सारे तारे तुम्हारे भीतर हो जाएंगे। तुम तारों को अपने भीतर घूमते देखोगे। वह शून्य की घड़ी ध्यान की घड़ी है। ऐसे तुम अगर थोड़ी चेष्टा करो तो अपनी साधारण जिंदगी में भी साधारण मौके बना सकते हो। और इन मौकों के लिए किसी मंदिर और मस्जिद और किसी गुरुद्वार में जाना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि अगर तुम गुरुद्वारे, मंदिर और मस्जिदों में ही उलझे रहे, तो यह परमात्मा का गुरुद्वारा--यह आकाश तारों से भरा हुआ, यह सूरज रोशनी बरसाता हुआ, यह वृक्ष उसके रस से आकंठ भरे हुए, यह सरिताएं उसकी गूंज लिए हुए सागर की तरफ भागती हुई, इन सब से तुम वंचित रह जाओगे।
तुम्हारी किताबें-चाहे वे कितनी ही कीमती हों; चाहे कुरान हो, चाहे बाइबिल हो और चाहे हों और चाहे गुरुग्रंथ हो--न तो तितलियां आएंगी उन पर, न मधुक्खियां बैठेगी, न भौंरे गुंजार करेंगे। तुम भी जरा सोचो, भौंरे कहां गुंजार कर रहे हैं, तितलियां कहां उड़ी जा रही हैं? उन्हीं का पीछा करो, उन्हीं के साथ हो लो, उन्हीं जैसे हो लो, तो तुम्हें शून्य का अनुभव हो, तो तुम्हें पहली बार ध्यान की थोड़ी सी समझ आए। और वह समझ हो तो फिर बुद्धपुरुषों के वचन सार्थक हैं। दरिया कहै शब्द निरबाना। फिर दरिया के कहे शब्द निर्वाण को खोल देंगे, उघाड़ देंगे, बेपर्दा कर देंगे, घूंघट उठा देंगे। फिर नानक के शब्द परमात्मा से मिला देंगे। फिर मोहम्मद की वाणी अपूर्व है। अगर तुम्हारे भीतर शून्य हो; तो उसी शून्य में वह वाणी जाकर गुंजन पैदा कर सकती है, गुन-गुन पैदा कर सकती है। तुम्हारे भीतर शून्य ही न हो, तुम्हारा पात्र ही कूड़ा-कर्कट से भरा हो, तो कुछ नहीं हो सकता है। तुम्हारे पात्र में शून्यता होनी चाहिए।
और शून्यता सीखनी हो तो प्रकृति के पास जाओ;  जाओ पहाड़ों के पास बैठो वृक्षों के पास। अदभुत थे वे लोग जिन्होंने वृक्षों की पूजा की, प्यारे थे वे लोग जिन्होंने सूरज-चांदत्तारों को नमस्कार किया और इनको देवता कहा, ज्ञानी थे वे लोग जिन्होंने अग्नि की पूजा की, दिए जलाए और दिए की ज्योति पर अपने ध्यान को जमाया। अग्नि उसकी है, चांदत्तारे उसके हैं, वृक्ष उसके हैं, नदी-नद, सागर-सरोवर उसके हैं। बेहतर थे वे लोग, समझदार थे वे लोग, उन्होंने प्रकृति के साथ संबंध जोड़ने की कोशिश की थी। और प्रकृति से जिसका संबंध जुड़ता है, परमात्मा बहुत दूर नहीं है--बस प्रकृति के ही घूंघट में तो छिपा है। प्रकृति उसकी ही ओढ़नी है। जरा प्रकृति को तुम समझने लगो तो परमात्मा से ज्यादा देर दूर न रह सकोगे। और जो परमात्मा से दूर है, वह है ही क्या? एक अंधेरी रात। एक दुखस्वप्न।
सारी रात हवा गरजी है बादल बरसे सारी रात
सिसक रह था जब सन्नाटा तारे तरसे सारी रात
फूट-फूट कर फैल-फैल कर वन-पथ रोए सारी रात
बिजली की तड़पन में मेरे प्राण न सोए सारी रात
डोले भूधर, वृक्ष सशंकित भय से कांपे सारी रात
उमड़ असंख्य सजल स्रोतों ने जन-पथ नापे सारी रात
लड़ती रही असंख्य पहाड़ी कज्जल काली सारी रात
पीती रही हृदय जन-जन का भय की प्याली सारी रात
थी डरावनी सृष्टि रही, आशंकित जगती सारी रात
नीड़ों में भय-विकल खगों की आंख न लगती सारी रात
धंसे रहे पंखों में उनके शावक विह्वल सारी रात
खोहों में थे खड़े कंटवित, वनपशु प्रतिपल सारी रात
झंझा से झुंझला-झुंझला अंधियारा बोला सारी रात
नभ से भू पर उतरा तम का उड़नखटोला सारी रात।
तुम्हारी जिंदगी है क्या? एक लंबी-लंबी रात, जिसकी सुबह आती ही नहीं! एक ऐसी रात जिसकी प्रभात पता नहीं कहां खो गयी! और एक ऐसी रात जिसमें न चांद है, न सितारे हैं! और एक ऐसी रात, चांद-सितारों की तो बात दूर, जुगनुओं की भी रोशनी नहीं! और एक ऐसी रात जिसमें न कोई दिया है, न कोई शमा है। बस तुम हो--लड़ाते, गिरते-उठते, दीवालों से सिर फोड़ते। और इसी को तुम जीसस समझे हो? जीवन तो उनका है जिनकी आंख खुली। क्योंकि जिनकी आंख खुली, उनकी सुबह हुई। जीवन तो उनका जिनकी अपने से पहचान हुई। अपने से पहचान हुई तो सबसे पहचान हुई। जीवन तो उनका है जिन्हें चारों तरफ परमात्मा का नृत्य दिखाई पड़ना शुरू हुआ। बस वे ही जीते हैं! शेष सारे लोग तो मरते हैं।
हाथ थे मिटे यूं ही, रोजे-अजल से ऐ अजल
रूए-जमी पै हैं तो क्या, जेरे-जमी हुए तो क्या?
क्या फर्क पड़ता है कि तुम जमीन के ऊपर हो कि जमीन के भीतर हो। मिटे ही हुए हो।

दरिया कहे शब्द निर्वाणा-ओशो
प्रवचन-पहला


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