ऋषि शांडिल्य-भारत के संत
( अथातो भक्ति जिज्ञासा)--ओशो
इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है--रसो वै सः--उस रस को जगा लेने की कीमियां है भक्ति।शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं। अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।
शांडिल्य के सूत्र दर्शनशास्त्र के सूत्र नहीं हैं, प्रेमशास्त्र के सूत्र हैं। इसलिए पहले सूत्र में ही शांडिल्य ने अपनी यात्रा का सारा संकेत दे दिया--मैं किस तरफ जा रहा हूं।
इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे--और मौत दस्तक देगी ही--तुम भक्ति की जिज्ञासा करो। मौत आए, उसके पहले भक्ति आ जाए, ऐसे जीवन का नियोजन करो। इसी को मैं संन्यास कहता हूं। जीवन का ऐसा नियोजन कि मौत के पहले भक्ति आ जाए, तो तुम कुशलता से जिए, तो तुम होशियार थे, तो तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता थी।
वख्त की शईए-मुसलसल कारगर होती गयी
जिंदगी लहजा-ब-लहजा मुख्तसर होती गयी
सांस के पर्दों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी
सुन रहे हो? ये सांस की वीणा बजती ही रहेगी और मौत करीब आती जा रही है। "सांस के पर्दों में बजता ही रहा साजे-हयात' यह जिंदगी का गीत सांस के बाजे पर बजता ही रहेगा। इसी में मत भटके रहना।
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी
जरा गौर से सुनो, मौत के कदम रोज-रोज करीब आते जा रहे हैं। मौत फासला कम कर रही है। जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उसी दिन से मौत फासला कम करने में लग गयी है: तुम रोज मर रहे हो। सांसों में बहुत भटके मत रहना। इनका बहुत भरोसा नहीं। अभी आ रही है सांस, अभी न आएगी तो कुछ भी न कर सकोगे। अवश पड़े रह जाओगे। तब बहुत पछताओगे। आह तेरे मैकदे से बेपिये जाता हूं मैं। रोओगे फिर, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी। कहते हैं सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। लेकिन सांझ भी आ जाए तो! अगर मौत आ गयी तो सांझ भी आयी और गयी। फिर लौटने का उपाय न रहा, समय न रहा।
मौत का अर्थ क्या होता है? इतना ही कि जितना समय तुम्हें दिया था, चुक गया। मौत का अर्थ होता है, जितना अवसर तुम्हें दिया था, तुमने गंवा दिया। मौत का अर्थ होता है, अब और समय नहीं बचा। अब करने का कोई उपाय नहीं। एक आह भी न भर सकोगे। एक प्रार्थना भी न कर सकोगे। राम का नाम भी न ले सकोगे। सांस ही न लौटी तो राम का नाम अब कैसे ले सकोगे? एक नाम रहने की भी, लेने की भी सुविधा नहीं बचती।
और मौत रोज करीब आ रही है। और तुम जिंदगी की सांसों में उलझे पड़े रहते हो। अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करो!
इसके पहले कि हम आज के सूत्रों में उतरें, कुछ पिछले सूत्रों का थोड़ा-सा स्वाद ले लेना जरूरी है।
पूर्व-सूत्र:
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखायी पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नहीं। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छाया है। इसलिए सूरज को देखने को दो ढंग हैं यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है--सीधा देखो। दूसरा ढंग कमजोरों के लिए है, कायरों के लिए है। जो लोग शास्त्र में सत्य को खोजते हैं, वे कायर हैं। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जाएगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है, झलक ही है, लेकिन लोगों ने शास्त्र सिर पर रख लिये हैं। कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबिल। लोग शास्त्रों की पूजा में लगे हैं। यह दर्पण की पूजा चल रही है; सूरज को तो भूल ही गये। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिये हैं पूजा के कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल जमा दी है, सिद्धांतों का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो, सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं--भक्ति की जिज्ञासा करें हम। शांडिल्य के पहले भक्त हो चुके थे, बहुत हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे, शास्त्र निर्मित हो चुके थे--शांडिल्य ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्र में चलें और सत्य को खोजें, चलो अब शास्त्र में चलें और भगवान की छबि को तलाशें। नहीं, शांडिल्य ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहां मिलेगा। शब्दों में नहीं, परायों के शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा।
अनुभूति पर यह जारे ठीक-ठीक पकड़ लेना।
परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखायी पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखायी नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं। न तो बढ़ते, न घटते; न उनमें नये पत्ते लगते, न नयीशाखेंउमगतीं, न पक्षी बसेरा लेते। शास्त्रों में तो थोथे शब्द हैं। वहां फूल कहां खिलते हैं? वहां सुगंध कहां उठती है? शास्त्र तो कागज पर खींची गयी लकीरें हैं। मगर खूब धोखा आदमी ने खाया है? उन्हीं लकीरों की पूजा करता रहता है। या तो यह धोखा है, या यह चालबाजी है।
चालबाजी यह है कि इस तरह भगवान से बचता रहता है। कहता है, देखो तो तुम्हारे शास्त्रों को पूजते हैं। कभी-कभी भगवान को और-और झलकों में भी पकड़ने की कोशिश करता है। पुराने दिनों में राजाओं को, महाराजाओं को भगवान मान लिया जाता था। पद को परमपद समझ लिया जाता था। जो लोग राजाओं की पूजा करते रहे; पद की प्रतिष्ठा करते रहे। बात अब भी समाप्त नहीं हो गयी है। राजा तो अब नहीं के बराबर रहे, न के बराबर रहे...कहते हैं अंत में दुनिया में केवल पांच ही राजा रह जाएंगे; एक इंग्लैंड का राजा और चार ताश के पत्तों के राजा; बाकी सब चले जाएंगे। इंग्लैंड का राजा भी ताश का पत्ता ही है, इसलिए बचेगा। और कोई बच सकता नहीं। लेकिन राजनीति का अब भी बल है। अब भी राजपद का बल है। राजा न रहे हों, लेकिन राजनेता है। तुम उसीकी पूजा में लग जाते हो। देखते हो, राजनेता के आसपास लोग कैसी पूंछ हिलाते हैं? किस तरह गजरे पहनाते हैं? किस तरह फूल बरसाते हैं?
धन की पूजा में लग जाते हो। जिसके पास धन है, वहां पूजा में लग जाते हो। या तो कुछ लोग शास्त्रों के मुर्दा शब्दों को पूजते रहते हैं, या मंदिरों में रखी हुई पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहते हैं, या पंडित-पुजारी को पूजते रहते हैं, जिन्हें खुद भी परमात्मा की कोई झलक नहीं मिली, जो तुम्हारे नौकर-चाकर हैं, जिन्हें तुमने नियुक्त कर रखा है, जो पूजा के नाम पर केवल आजीविका कमा रहे हैं। या लोग पद में देख लेते हैं परमात्मा को और पद की पूजा में लग जाते हैं, या धन में। मगर ये सब मुर्दा हैं खेल। अगर परमात्मा को देखना हो तो सीधा देखो। परमात्मा सीधा उपलब्ध है, इन पक्षियों के गीत में, इन वृक्षों की हरियाली में, आकाश के चांदत्तारों में, मनुष्यों की आंखों में। और जहां भी तुम प्रेम की कुदाल से खोदोगे वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा का झरना मिलना शुरू हो गया। झलकों में मत भटको।
इसलिए पूर्व-सूत्रों ने कहा कि विभूतियों में मत उलझ जाना। विभूतियां तो झलकें मात्र हैं। प्रतिभा की। कोई आदमी बड़ा गणितज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा संगीतज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा होशियार है और धन इकट्ठा कर लिया है, कोई आदमी बड़ा चालबाज है और राजपद पर पहुंच गया है, ये सब प्रतिभाएं हैं। इनका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। इनके होने से कोई धर्म का संबंध नहीं है।
इसलिए पूर्व-सूत्रों में कहा गया कि प्रतिभा, विभूति, इनमें मत उलझ जाना। इनका प्रभाव पड़ता है। कोई आदमी अच्छा बोलता है, इससे मत उलझ जाना, क्योंकि अच्छे बोलने से सत्य का कोई संबंध नहीं है। हो सकता है अच्छा बोलता हो, लेकिन झूठ ही बोलता हो। और इतने अच्छे ढंग से बोलता हो कि झूठ भी सच जैसा मालूम पड़ता हो। यह भी हो सकता है, कोई आदमी सुंदर गीत गा सकता है--ऐसे सुंदर कि आकाश की उड़ान लें, ऐसे सुंदर कि लगे सत्य के लोक से उतरा है यह आदमी, मगर इससे उलझ मत जाना। यह सिर्फ हो सकता है गीत की कला हो, यह मात्रा बिठाने की कुशलता हो, यह आदमी कवि हो।
बहुत तरह की विभूतियां हैं। विभूतियां श्रम से अर्जित हैं, चाहे इस जन्म की हो चाहे पिछले जन्म की हों। विभूति श्रम से उत्पन्न होती है।
तो शांडिल्य ने पूर्व-सूत्रों में कहा--प्रतिभा को या विभूति को परमात्मा मत समझ लेना।
फिर उन्होंने एक फर्क किया जो बड़ा बहुमूल्य है, जिसे खयाल में ले लोगे तो ही आज के सूत्र समझ में आ सकेंगे। उन्होंने यह कहा फिर--लेकिन कृष्ण प्रतिभावान हैं, इतना ही नहीं; या राम प्रतिभावान हैं, इतना ही नहीं, राम या कृष्ण या बुद्ध या क्राइस्ट या महावीर या जरथुस्त्र, ये प्रतिभाएं ही नहीं हैं, ये अवतार हैं।
क्या फर्क है अवतार और प्रतिभा का?
अथातो भक्ति जिज्ञासा
शांडिल्य प्रवचन-01
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