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बुधवार, 20 नवंबर 2019

36-गूलाल-(ओशो)

36-गूलाल-भारत के संत

झरत दसहुं दिस मोती-ओशो

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!
परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती।
ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।


जैसे तुम्हारे शरीर में खून दौड़ रहा है, पता ही नहीं चलता! तीन सौ वर्ष पहले तक चिकित्सकों को यह पता ही नहीं था कि खून शरीर में परिभ्रमण करता है। यही ख्याल था कि भरा हुआ है; जैसे कि गगरी में पानी भरा हो। यह तो तीन सौ वर्षो में पता चला कि खून गतिमान है।
हजारों वर्ष तक यह धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है। जो लोग घोषणा करते हैं कि वेदों में सारा विज्ञान है, उनको ख्याल रखना चाहिएः वेदों में पृथ्वी को कहा है..‘अचला’, जो चलती नहीं, हिलती नहीं, डुलती नहीं। क्या खाक विज्ञान रहा होगा! अभी पृथ्वी के अचला होने की धारणा है। अभी यह भी पता नहीं चला है कि पृथ्वी चलती है, प्रतिपल चलती है। दोहरी गति है उसकी। अपनी कील पर घूमती है..पहली गति; और दूसरा..सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करती है। मगर हम पृथ्वी पर हैं, इसलिए पृथ्वी की गति का पता कैसे चले? हम उसके अंग हैं। हम भी उसके साथ घूम रहे हैं। और भी शेष सब उसके साथ घूम रहा है। तो पता नहीं चलेगा।
जैसे समझो यहां बैठे-बैठे अचानक कोई चमत्कार हो जाए और हम सब छह इंच के हो जाएं, और हमारे साथ वृक्ष भी उसी अनुपात में छोटे हो जाएं, मकान भी उसी अनुपात में छोटा हो जाए, तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हम छोटे हो गए हैं। क्योंकि पुराना अनुपात कायम रहेगा। तुम्हारे सिर से छप्पर की दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। तुम्हारा बेटा तुमसे उतना ही छोटा रहेगा जितना पहले था। वृक्ष तुमसे उतने ही ऊंचे रहेंगे जितने पहले थे। अगर सारी चीजें एक साथ छोटी हो जाएं, समान अनुपात में, तो किसी को कभी कानों-कान पता नहीं चलेगा। तुम जिस फुट और इंच से नापते हो, वह भी छोटा जो जाएगा न! वह भी बताएगा कि तुम छः फीट के ही हो, जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हो।
इसलिए चारों तरफ मोती बरस रहे हैं, मगर हमें पता नहीं चल रहा। मोती ही मोती बरस रहे हैं! गुलाल ठीक कहते हैं: ‘झरत दसहुं दिस मोती!’ दसों दिशाओं से झर रहे हैं। अनंत झर रहे हैं। प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है और अमृत बरस रहा है। भर लो अपने घट! मगर तुम्हें पता ही नहीं कि अमृत बरस रहा है। तुम तो कंकड़-पत्थर बीन रहे हो। तुम्हें मोतियों का पता कैसे चले, तुम्हारी आंखें तो कंकड़ों-पत्थर पर अटकी हैं। कंकड़ों-पत्थरों से तुम थोड़े छूटो; आंखों को थोड़ा संवारो, निखारो, कानों को थोड़ा शांत करो; मन को थोड़ा निर्विचार करो; तो शायद वह संगीत सुनाई पड़े जो परमात्मा का संगीत है। जिसे संतों ने अनाहत नाद कहा है। तो शायद तुम्हें वह प्रकाश दिखाई पड़े जो अंधेरे में भी छिपा है, जो अंधेरे में भी मौजूद है, क्योंकि अंधेरा भी उसका ही एक रूप है। तो तुम्हें देह में भी उसकी प्रतीति होने लगे जो अदेही है लेकिन देह में ठहरा हुआ है। तब तुम्हें चारों ओर उसकी आभा का मंडल अनुभव हो। तभी तुम इन सूत्रों को समझ पाओगे। तभी तुम्हारे भी प्राण कह सकेंगे: ‘झरत दसहुं दिस मोती‘! और तब कितना आह्लाद, कितना हर्षोन्माद! तब आनंद में रोता है भक्त। तब आनंद में हंसता है, नाचता है। तब आनंद का कोई पारावार नहीं है। और उस पारावार से मुक्त जो आनंद है, उसी का नाम परमात्मा है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। पुनः-पुनः स्मरण रखना! परमात्मा केवल आनंद की अनुभूति का नाम है। अमृत का साक्षात्कार है। चैतन्य की प्रतीति है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा केवल शक्ति है, ऊर्जा है। और ऊर्जा का ही तो सारा खेल है। कहीं वही शक्ति हरी होकर वृक्ष हो गई है, लाल होकर फूल हो गई है, कहीं वही शक्ति सूरज बनी है, कहीं वही शक्ति तारे; वही शक्ति तुम्हारे भीतर सुन रही है अभी, वही शक्ति मेरे भीतर बोल रही है अभी। नहीं उससे कुछ भिन्न है! हम सब उसमें एक हैं, अभिन्न हैं।
गुलाल के संबंध में बहुत ज्यादा पता नहीं है। जरूरत भी नहीं है। वचन ही काफी हैं। वे ही प्रमाण हैं। कहां जन्में, किस घर में बड़े हुए..लेना-देना क्या है? सब घर घर ही हैं। किस गर्भ से पैदा हुए, किस परिवार में पैदा हुए, मां-पिता का क्या नाम था..क्या करोगे जानकर भी? जाना भी तो क्या अर्थ है? नाम-पते इस दुनिया में चलते हैं। झूठी दुनिया में झूठे नाम-पते चलते हैं। उस दुनिया में तो कोई न नाम है, न कुछ पता है; न कोई जाति है; न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है।
इसीलिए संतों के संबंध में व्यर्थ की बातों को हमने संग्रहीत नहीं किया है। इसीलिए संतों के संबंध में हमारी जानकारी न के बराबर है। और यह बड़ी सूचक बात है। सिकंदर के संबंध में बहुत कुछ पता है, और चंगीज खान के संबंध में भी, और नादिरशाह, और एडोल्फ हिटलर, और माओत्से-तुंग, इन सबके संबंध में बहुत कुछ पता है, बहुत कुछ पता रहेगा। इन्हीं से इतिहास बनता है।
गुलाल का नाम तो तुम इतिहास में खोजने जाओगे तो मिलेगा ही नहीं। किसी पाद-टिप्पणी में भी नहीं मिलेगा। जैसे हुए, न हुए! और उसका कारण है। जब अहंकार न रह जाए, तो हुए न हुए बराबर ही है। गुलाल कभी हुए ही नहीं, ऐसा समझो। अगर गुलाल कुछ थे भी तो बस बांस की पोंगरी थे। परमात्मा ने उसमें से कुछ गीत गाए, वे गीत हमारे पास हैं। बस वे गीत काफी हैं। उन गीतों से खबर मिलती है कि बांसुरी भी रही होगी। अब बांसुरी किस बांस से बनी थी, किस रंग का बांस था, किसी ढंग का था, कहां बांस पैदा हुआ था..इस तरह की निष्प्रयोजन बातों में जाने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसी बातों में जाने वाले लोग भी हैं। वे विश्वविद्यालयों में शोध-कार्य करते रहते हैं। वे इन्हीं व्यर्थ की बातों में लगे रहते हैं..कौन कहां जन्मा, किस तिथि में जन्मा, किस घर में जन्मा? वे व्यर्थ की बातों में इतना उपद्रव मचाए रखते हैं और इतना विवाद चलाते हैं व्यर्थ की बातों का कि जिसका हिसाब नहीं। विश्वविद्यालयों में थप्पियां लगती जाती हैं उनके शोध-कार्यो की। उनके शोध-कार्य को कोई दूसरा पढ़ता भी नहीं, दूसरे शोध-कार्य करने वाले ही पढ़ते हैं, बस। और वे विवाद में व्यस्त हैं। और उन्हें किसी को पता नहीं और किसी को प्रयोजन नहीं कि बांसुरी से जो गीत बहे, उन गीतों को हम समझें, बांसुरी का क्या लेना-देना? बांसुरी कहां आती है? बांसुरी की खूबी यही है कि वह खाली है, रिक्त है, शून्य है। गीत को रोकती नहीं, बस यही उसकी खूबी है। गीत को बह जाने देती है, यही उसका गौरव है।
और गुलाल ने प्यारे गीत गाए! साफ है कि पढ़े-लिखे आदमी नहीं थे; शब्द ही कहते हैं। बेपढ़े-लिखे थे। और अक्सर ऐसा हुआ है, परमात्मा बेपढे-लिखों से ज्यादा आसानी से बोल सका है। क्योंकि पढ़े-लिखे बहुत अड़चन डालते हैं। पढ़े-लिखे अपने को पूरा-पूरा नहीं दे पाते। पढ़े-लिखे तो वह बोले तो उसमें भी बीच में सुधार कर देंगे। कहेंगे: ऐसा नहीं, ऐसा बोलो। यह वेद के अनुकूल है। यह उपनिषद के प्रतिकूल हो गया। यह कुरान से मेल खाता है, यह मेल नहीं खाता है। यह मैं नहीं बोलूंगा। मैं तो वही बोलूंगा जो कुरान में लिखा है। मैं मुसलमान हूं।
पढ़े-लिखे के आग्रह होते हैं, पक्षपात होते हैं, धारणाएं होती हैं। पढ़े-लिखे का अर्थ यह होता है कि बांसुरी खाली नहीं है, उसमें शास्त्र भरे हुए हैं। और शास्त्रों को पार करके आना बड़ा मुश्किल है! लोहे की दीवालें भी इतनी बड़ी दीवालें नहीं, जितनी शास्त्रों की दीवालें बड़ी दीवालें हैं। ऐसे तो कागजी हैं, मगर यह मन कागजी दीवालों में बहुत उलझ जाता है। यह मन कागजी दीवालों को बहुत मानता है।
गुलाल गैर पढ़े-लिखे आदमी हैं। उनके शब्दों से ही साफ हो जाएगा। इसके पहले कि हम उनके शब्दों में उतरें, उनके सीधे-सादे शब्दों में डुबकी मारें, उनके सीधे-सादे शब्दों का स्वाद लें, एक घटना जो अभूतपूर्व है, जो मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में कभी नहीं घटी..गुलाल और गुलाल के गुरु के बीच घटी..उस घटना को पहले समझ लेना जरूरी है, क्योंकि उस घटना के बाद ही ये सारे सूत्र सरल हो सकेंगे। और घटना अभूतपूर्व है। न पहले कोई वैसा उल्लेख है, न बाद में वैसा कोई उल्लेख है। फिर दुबारा कभी घटेगी, इसकी आशा भी नहीं। और बड़ी अलौकिक है!
गुलाल शिष्य थे बुल्लाशाह के। यह तो कोई बात खास नहीं; बुल्लाशाह के बहुत शिष्य थे। और हजारों सद्गुरु हुए हैं और उनके लाखों शिष्य हुए हैं, इसमें कुछ अभूतपूर्व नहीं। अभूतपूर्व ऐसा है कि गुलाल एक छोटे-मोटे जमींदार थे और उनका एक चरवाहा था..बुलाकीराम। लेकिन बुलाकीराम बड़ा मस्त आदमी था, उसकी चाल ही कुछ और थी! उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्ती थी। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को..चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी, उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करने, जो भी काम हो, रात थका-मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी। उसके बाबत खबरें आती थीं..गुलाल के पास, मालिक के पास..कि यह चरवाहा कुछ ज्यादा काम करता नहीं, क्योंकि हमने इसे खेत में नाचते देखा, काम यह क्या खाक करेगा! तुम भेजते हो गाएं चराने, गाएं एक तरफ चरती रहती हैं, यह झाड़ पर बैठ कर बांसुरी बजाता है। हां, बांसुरी गजब की बजाता है, यह सच है, मगर बांसुरी बजाने से और गाय चराने से क्या लेना-देना है? तुम तो भेजते हो कि खेत पर यह काम करे और हमने इसे खेत में काम करते तो कभी नहीं देखा, झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठे जरूर देखा है। यह भी सच है कि जब यह झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठता है तो इसके पास से गुजर जाने में ंभी सुख की लहर छू जाती है; मगर उससे खेत पर काम करने का क्या संबंध है!
बहुत शिकायतें आने लगीं। और गुलाल मालिक थे। मालिक का दंभ और अहंकार। तो कभी उन्होंने बुलाकीराम को गौर से तो देखा नहीं। फुर्सत भी न थी; और भी नौकर होंगे, और भी चाकर होंगे। और नौकर-चाकरों को कोई गौर से देखता है! नौकर-चाकरों को कोई आदमी भी मानता है! तुम अपने कमरे में बैठे हो, अखबार पढ़ रहे हो, नौकर आकर गुजर जाता है, तुम ध्यान भी देते हो? नौकर से तुमने कभी नमस्कार भी की है? नौकर की गिनती तुम आदमी में थोड़े ही करते हो। नौकर से तुमने कहा है आओ बैठो, कि दो क्षण बात करें? यह तो तुम्हारे अहंकार के बिल्कुल विपरीत होगा।
खबरें आती थीं, मगर गुलाल ने कभी ध्यान दिया नहीं था। उस दिन खबर आई सुबह ही सुबह कि तुमने भेजा है नौकर को कि खेत में बुआई शुरू करे, समय बीता जाता है बुआई का, मगर बैल हल को लिए एक तरफ खड़े हैं और बुलाकीराम झाड़ के नीचे आंख बंद किए डोल रहा है।
एक सीमा होती है! मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा: मैं आज जाता हूं और देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थी। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे..कोई हांकने वाला ही नहीं था..और बुलाकीराम वृक्ष के नीचे आंख बंद किए डोल रहे थे। मालिक को क्रोध आया। देखा..यह हरामखोर, काहिल, आलसी...! लोग ठीक कहते हैं। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी। बुलाकीराम लात खाकर गिर पड़ा। आंखें खोलीं। प्रेम के और आनंद के अश्रु बह रहे थे। बोला अपने मालिक से: मेरे मालिक! किन शब्दों में धन्यवाद दूं? कैसे आभार करूं? क्योंकि जब आपने लात मारी तब मैं ध्यान कर रहा था। जरा-सी बाधा रह गई थी मेरे ध्यान में। आपकी लात ने वह बाधा मिटा दी। जरा-सी बाधा, जिससे मैं नहीं छूट पा रहा था। जब भी ध्यान में मैं मस्त हो जाता हूं तो यही बाधा मुझे घेर लेती है, यही मेरी आखिरी अड़चन थी। गजब कर दिया मालिक आपने भी! मेरी बाधा यह है कि जब भी मैं मस्त हो जाता हूं ध्यान में, तो गरीब आदमी हूं, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता हूं, लेकिन है ही नहीं भोजन जो करवाऊं, तो बस ध्यान में जब मस्त होता हूं तो मानसी-भंडारा करता हूं। मन ही मन मैं सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आ जाओ, सब आ जाओ, दूर-दूर देश से आ जाओ! और पंक्तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थीं और क्या-क्या भोजन बनाए थे, मालिक! परोस रहा था और मस्त हो रहा था! इतने साधु-संत आए थे! एक से एक महिमा वाले! और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हांडी छूट गई; हांडी फूट गई, दही बिखर गया। मगर गजब कर दिया मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसी कला आती है! हांडी क्या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए..कल्पना ही थी सब, कल्पना का ही जाल था..और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।
आंख से आंसू बह रहे हैं आनंद के और प्रेम के, शरीर रोमांचित है हर्षोन्माद से..एक प्रकाश झर रहा है। बुलाकीराम की यह दशा पहली बार गुलाल ने देखी। बुलाकीराम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी उड़ा ले गया। आंख से जैसे एक पर्दा उठ गया। पहली दफा देखा कि यह कोई चरवाहा नहीं; मैं कहां-कहां, किन-किन दरवाजों पर सद्गुरुओं को खोजता फिरा और सद्गुरु मेरे घर मौजूद था! मेरी गायों को चरा रहा था, मेरे खेतों को सम्हाल रहा था! गिर पड़े पैरों में। बुलाकीराम, बुलाकीराम न रहे..बुल्लाशाह हो गए। पहली दफा गुलाल ने उन्हें संबोधित किया: ‘बुल्ला साहिब! ‘ ‘मेरे मालिक, मेरे प्रभु!’ साहब का अर्थः प्रभु। कहां थे नौकर, कहां हो गए शाह! शाहों के शाह!
कहते हैं बहुत फकीर हुए हैं, लेकिन बुल्लाशाह का कोई मुकाबला नहीं। और यह घटना बड़ी अनूठी है। अनूठी इसलिए है कि युगपत घटी। सदगुरु और शिष्य का जन्म एक साथ हुआ। सदगुरु का जन्म भी उसी वक्त हुआ, उसी सुबह; क्योंकि वह जो आखिरी अड़चन थी, वह मिटी। इसलिए भी अद्भभुत है कि वह आखिरी अड़चन शिष्य के द्वारा मिटी। हालांकि गुलाल ने कुछ जान कर नहीं मिटाई थी, आकस्मिक था, मगर निमित्त तो बने! शिष्य ने सदगुरु की आखिरी अड़चन मिटाई। इधर गुरु का जन्म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्य के जीवन में क्रांति हो गई। बुल्लाशाह को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी न, जीवन भर पश्चात्ताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
बुल्लाशाह कहते: मेरे पैर दुखते नहीं, क्यों दबाते हो? वे कहते: वह जो लात मारी थी...! तीस-चालीस साल बुल्लाशाह जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को साथ नहीं छोड़ा। आखिरी क्षण में भी बुल्लाशाह के मरते वक्त गुलाल पैर दबा रहे थे। बुल्लाशाह ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल! पर गुलाल ने कहा कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी!
गुरु को लात मारी! बुल्लाशाह लाख समझाते कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं, तू नाहक पश्चात्ताप मत कर। लेकिन गुलान कहते: वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्चात्ताप जारी रहेगा।
लेकिन एक साथ ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी थी कि सद्गुरु हुआ और शिष्य जन्मा..एक साथ, युगपत! एक क्षण में यह घटना घटी। यह आग दोनों तरफ एक साथ लगी और दोनों को जोड़ गई।
इस घटना से तुम्हें समझ में आएगा झेन फकीरों का व्यवहार। यह तो अचानक हुआ! गुलाल ने जानकर लात मारी नहीं थी कि ध्यान में सहयोग देना है। लेकिन झेन फकीर जानकर यह करते हैं। शिष्य ध्यान में बैठा है और हो सकता है झेन गुरु उसके सिर पर चोट मार दे। कभी-कभी बड़े अद्भभुत परिणाम हो जाते हैं। क्योंकि कभी-कभी जरा सा झटका और तुम अपने कल्पना-जाल से छिटक जाते हो..एक क्षण को छिटक जाते हो, जरा सी दूरी पैदा हो जाती है तुम्हारे मन में और तुम में..बस उतनी ही दूरी और कपाट खुल जाते हैं! झरोखा खुल जाता है। फिर बंद नहीं होता। एक दफा खुल गया, फिर बंद नहीं होता। लेकिन हर किसी को मारने से यह नहीं हो जाएगा। यह तो उन्हीं के काम आ सकता है, जो बिल्कुल किनारे पर खड़े हों। बुलाकीराम बिल्कुल किनारे पर था, सरहद पर खड़ा था। जरा-सा धक्का और सरहद पार कर गया।
तो सद्गुरु तभी शिष्य को मारेगा, जब देखेगा सरहद पर खड़ा है; सरहद पर अटका है, सीमा नहीं छोड़ पा रहा है। पुरानी आदत, पुराना परिचय सीमा से बाहर नहीं जाने दे रहा है।
हम सबने लक्ष्मण-रेखाएं खींच रखी हैं अपने आस-पास; हम उनके बाहर नहीं जाते हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है..ये सब लक्ष्मण-रेखाएं हैं। कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई शूद्र है..ये सब लक्ष्मण-रेखाएं हैं। ये सारी लक्ष्मण-रेखाएं तोड़ देनी होंगी। इन सबके बाहर जाना होगा। और सबसे बड़ी लक्ष्मण-रेखा है भीतर तुम्हारे; वह विचारों का जाल है, जो तुम्हें हमेशा घेरे रहता है। विचारों की वह जो प्रक्रिया सतत् चलती रहती है, उससे छूटना जरूरी है।
भारत के संतों में झेन फकीरों का अदभुत व्यवहार समझाने वाली और कोई घटना नहीं है, सिवाय गुलाल और बुल्लाशाह के बीच जो घटना घटी, उसके। और यह तो आकस्मिक घटी। लेकिन झेन सदगुरु देखता रहता है शिष्य को, जांचता रहता है शिष्य को..कब क्या जरूरत हो? कब चोट की जरूरत है, तो चोट करेगा। और चोट कभी-कभी काम कर जाती है। अगर ठीक समय पर पड़े, तो अचूक काम कर जाती है।
यह तो आकस्मिक संयोग था। बुल्लाशाह उस मस्ती में था, बस किनारे पर रहा होगा, पड़ी लात, फूट गई मटकी, खो गया मानसी-भंडारा, साधु-संत नदारद हो गए..वे थे नहीं कहीं वैसे भी; कल्पना ही थी, मन की ही कल्पना थी..और एक क्षण को अ-मनी दशा हो गई। बस उस अ-मनी दशा में ही परमात्मा का साक्षात्कार है।
जब तक मन है तब तक परमात्मा नहीं; जब मन नहीं है तब परमात्मा ही है, और कुछ नहीं..सिर्प परमात्मा ही है!
राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना।।
गुलाल कहते हैं कि मैंने तो एक ही पूंजी देखी दुनिया में..और वह राम। एक ही धन देखा दुनिया में और वह राम क्यों? क्योंकि धनियों को निर्धन देखा। सच तो यह है कि धनी से ज्यादा निर्धनता का बोध किसी को भी नहीं होता। गरीब को गरीबी इतनी नहीं सालती, इतनी नहीं अखरती, जितनी अमीर को अखरती है। गरीब के पास तुलना का उपाय नहीं होता। उसने अमीरी जानी नहीं; बाहर की भी अमीरी नहीं जानी तो बाहर का तो कोई मापदंड उसके पास नहीं है, भीतर की भी नहीं जानी। गरीबी ही जीवन है। वह गरीबी से अयस्त हो गया है। उसके पास गरीबी के विपरीत कोई अनुभव नहीं है, जिसकी पृष्ठभूमि में वह समझ पाए कि मैं कितना गरीब हूं। अमीर के पास बाहर धन इकट्ठा होता जाता है; जैसे-जैसे बाहर धन के ढेर लगते हैं, वैसे-वैसे भीतर गरीबी के ग167े साफ दिखाई पड़ने लगते हैं। जहां पहाड़ खड़े होते हैं, वहां खाइयां हो जाती हैं। बाहर पहाड़ खड़े होने लगते हैं धन के और भीतर निर्धनता की खाई साफ होने लगती है। जितना बाहर धन हो उतना ही भीतर अखरता है निर्धन होना। और बाहर का धन भीतर तो ले जाया नहीं जा सकता। उसे भीतर ले जाने का कोई उपाय नहीं है। कोई मार्ग ही नहीं है! जो बाहर है वह बाहर और जो भीतर है वह भीतर। तुम हीरे-जवाहरातों को भीतर न ले जा सकोगे। भीतर तो केवल चैतन्य के हीरे-जवाहरात जा सकते हैं। झरत दसहुं दिस मोती! जब तुम्हें भीतर मोतियों की वर्षा होने लगे, तभी तुम भीतर से धनी हो सकोगे; नहीं तो बहुत अखरेगी भीतर की अवस्था।
इसलिए एक बहुत अनूठी घटना घटती है: जितना ही कोई व्यक्ति समृद्ध होता चला जाता है, उतनी ही उसके भीतर इस बात की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है कि बाहर तो धन है, अब भीतर धन कैसे हो?
मैं जरूर कह रहा हूं: कोई गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता! गरीब व्यक्ति तो धार्मिक हो सकता है, क्योंकि व्यक्ति की इतनी बुद्धिमत्ता हो सकती है कि वह गरीब रहते भी धन की व्यर्थता को समझ ले। इतनी प्रगाढ़ उसकी तेजस्विता हो सकती है, इतनी मेधा हो सकती है। नहीं तो कबीर, दादू, नानक, फरीद, बुल्ला..ये कैसे धार्मिक होते? गरीब आदमी तो धार्मिक हो सकता है लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। अमीर व्यक्ति तो अधार्मिक हो सकता है, क्योंकि हो बिल्कुल जड़बुद्धि, लेकिन अमीर समाज बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता, उसे धार्मिक होना ही पड़ेगा। अन्ततोगत्वा उसे खोजना ही पड़ेगा कि असली धन कहां है। नकली धन तो हमारे पास है, पहचान लिया, इससे कुछ सार नहीं पाया।
गुलाल कहते हैं: ‘राम मोर पुंजिया!’...राम मेरी पूंजी हैं। ...‘राम मोर धना‘! श्ठऔर राम मेरा धन हैं। ...‘निसबासर लागल रहु रे मना।’ कहते हैं: अब तो बस एक ही आकांक्षा है कि यह मेरा मन दिन-रात उसी परम धन में लगा रहे।
आठ पहर तहं सुरति निहारी, ...
अब एक क्षण को भी उस झरोखे को बंद नहीं करना चाहता। अब एक क्षण को भी नहीं चाहता कि उससे टूट जाऊं, कि उसकी तरफ पीठ हो जाए। वही आनंद है। वही मेरा उत्सव है। वही मेरा जीवन है। वही मेरा सर्वस्व है।
आठ पहर तहं सुरति निहारी...
मैं तो उसकी तरफ ही देखते रहना चाहता हूं। आठों पहर आंखें टकटकी लगा कर उसी को देखती रहें। उसके सौंदर्य से क्षण भर वंचित नहीं होना चाहता।
...जस बालक पालै महतारी।
सीधे-सादे आदमी हैं। सीधे-सादे उनके प्रतीक हैं। सीधे-सादे उदाहरण हैं। मगर अर्थपूर्ण। ताजगी से भरे। ‘...जस बालक पालै महतारी। ‘ मां बच्चे को पालती है। ऐसे ही साधक को ध्यान पालना पड़ता है..मां की तरह। मां हजार काम करती रहे, ध्यान उसका बच्चे पर लगा रहता है। वह चैके में काम करती हो, बच्चा बाहर आंगन में खेलता हो, लेकिन जरा-सी आवाज और वह भागकर आंगन में आ जाएगी। हजार काम में उलझी हो, लेकिन बच्चे का स्मरण नहीं भूलता। रात आकाश में बादल गरजते रहें, बिजली कड़कती रहे, उसकी नींद नहीं टूटती; लेकिन बच्चा जरा कुनमुनाए और उसकी नींद टूट जाती है। जैसे मां अपने बच्चे की चिंता करती है..प्रतिपल, उठते-बैठते, सोते-जागते, सदा उसे स्मरण बना रहता है..कहीं बच्चा गिर न जाए, कहीं भटक न जाए, कहीं चोट न खा जाए, कहीं कुछ भूल-चूक न हो जाए, वैसे ही व्यक्ति को अपनी सुरति, अपना ध्यान सम्हालना होता है। चैबीस घंटे। जागते तो
आठ पहर तहं सुरति निहारी, जस बालक पालै महतारी।।
धन सुत लछमी रह्यो लोभाय, गर्भमूल सब चल्यो गंवाय।।
बड़ा प्यारा वचन है! गुलाल कहते हैं कि तू धन में उलझा है, बच्चों में उलझा है, लक्ष्मी में उलझा है, लोभ में पड़ा है। ...इस देश को हम धार्मिक देश कहते हैं। लेकिन यह अकेला देश है दुनिया में जहां लक्ष्मी की पूजा होती है। दीवाली इस देश का सबसे बड़ा त्यौहार। और दीवाली का केंद्र क्या है? ..लक्ष्मीपूजन! और लक्ष्मी की पूजा लोग नगद रुपए रखकर करते हैं। रुपयों की पूजा और धार्मिक देश! पुण्य-भूमि! और सब साधु-संत यहीं हुए!
 जागते, सोते-सोते भी!
ओशो

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