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रविवार, 3 नवंबर 2019

तंत्र की कल्पना की विधि-(प्रवचन-07) 

तंत्र की कल्पना की विधि--प्रवचन-सातवां 

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

The Transmission of the Lamp, Chapter #6,

(Chapter title: Pure consciousness has never gone mad, 29 May 1986 am in Punta Del Este, Uruguay)

प्यारे ओशो,
बारह से पंद्रह वर्ष की उम्र के बीच, रात के समय बिस्तर पर लेटे हुए मुझे कुछ विचित्र अनुभव हुआ करते थे, जो मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मैं बिस्तर पर लेटकर ऐसी कल्पना किया करता था कि जैसे मेरा बिस्तर गायब हो गया, फिर मेरा कमरा, फिर घर, फिर शहर, सभी लोग, पूरा देश, पूरा संसार...  जगत में जो कुछ है सब गायब हो गया। बिल्कुल अंधेरा और सन्नाटा बचता; मैं अपने को आकाश में तैरता हुआ पाता।

जब अंतिम चीज तक मिट गई होती तो मेरे चारों और जैसे एक चक्रवात सा बन जाता। मैं उसके अंदर प्रवेश कर जाता; यह अनुभव ऐसा था जैसे काम का अनुभव हो। इससे मेरे पेट में एक मीठी गुदगुदी सी होती, जो कुछ सेकेंड या कभी-कभी एक या दो मिनट के लिए भी चलती।

इस बारे में मैंने अपने माता-पिता से या कभी किसी और से बात नहीं की, क्योंकि मुझे डर था कि वे मुझे कहीं पागल न समझें।

ओशो, यह अनुभव क्या था?

तंत्र में ऐसी एक विधि है जिसमें व्यक्ति को ठीक वही करना होता है जैसा तुमने अभी अपने बचपन के अनुभव के बारे में बताया। बच्चों के लिए आसान है, लेकिन प्रौढ़ लोगों के लिए भी यह असंभव नहीं है। यह कल्पना के अभ्यास पर आधारित एक विधि है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उससे जो अनुभव तुम्हें होगा वह वास्तविक नहीं होगा।
पहले, मैं तुम्हें तंत्र की विधि के बारे में बताऊं। यह हर उम्र के लोगों के लिए है। इसे अंधेरे में करना होता है, क्योंकि अंधेरे में तुम चीजों को देख नहीं सकते, तो यह कल्पना करना कि चीजें गायब हो रही हैं। आसान हो जाता है।
लेटना सबसे अच्छा और आसन है इस विधि के लिए। क्योंकि मनुष्य मनुष्य बन पाया, थोड़ी बहुत चेतना को उपलब्ध कर सका- अपने दो पैरों पर खड़ा होकर। अब रक्त का प्रवाह उसके सिर में कम से कम होता है। लेटे समय, रक्त बहुत अधिक मात्रा में और बहुत अधिक गति के साथ सिर की ओर प्रवाहित होता है। ऐसा गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है। जब तुम खड़े होते हो तो रक्त को गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जाना पड़ता है; उसका प्रवाह धीमा पड़ जाता है, मात्रा कम हो जाती है।
यही कारण है कि किसी और पशु के पास चेतन मन नहीं है। चलते समय, गाय या घोड़ा या भैंस वे सब सीधे खड़े नहीं होते। उनके सिर को रक्त की उतनी ही मात्रा मिलती है जितनी शरीर के किसी और अंग को। तो उनके मस्तिष्क में वे सूक्ष्म और छोटे-छोटे कोष नहीं बन पाते जिनके कारण मनुष्य सोच पाने में समर्थ होता है।
लेकिन यह संभावना है- और जहां तक मेरा संबंध है मैं इसे एक निश्चित तथ्य मानता हूं- कि पशु कल्पना करते हैं। उनके पास चेतन मन नहीं है, लेकिन उनके पास अचेतन मन तो है।
किसी कुत्ते की ओर देखो तो तुम समझ सकते हो। एक कुत्ता पास ही बैठा सो रहा है; तुम गौर से उसकी ओर देखोः कभी-कभी बीच में वह काल्पनिक मक्खी पर झपट्टा मारेगा, मक्खी जो वहां है ही नहीं। वह क्या कर रहा है? उसने मक्खी की कल्पना की। मक्खी वहां नहीं थी, लेकिन उसने मक्खी की कल्पना की। और स्वभावतः जैसे पुरुष स्त्रियों के बारे में सोचते रहते हैं, ऐसे कुत्ते मक्खियों के बारे में सोचते रहते हैं।
किसी ने कभी पशुओं के अचेतन में खोजबीन करने की कोशिश नहीं की। अभी तो हम मनुष्य को भी पूरा समझ नहीं सके हैं, तो पशुओं के अचेतन में उतरने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अभी तो पंक्ति में उनका नंबर बहुत पीछे है, वे खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं।
लेकिन मेरा मानना है कि पशु भले ही सोच न सकते हों, लेकिन वे सपने लेते हैं- क्योंकि सपने लेने के लिए किसी को सीधे खड़े होने की जरूरत नहीं होती।
सपना लेने के लिए तुम्हें लेटना पड़ता है, ताकि तुम्हारा चेतन मन क्रियाशील न रह सके। उसके लिए तो बहुत थोड़े से रक्त प्रवाह की जरूरत होती है; जब रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है तो चेतन मन सो जाता है। और यदि बहुत ही अधिक मात्रा में रक्त का प्रवाह होने लगे तो उसकी मृत्यु हो जाती है। लेकिन अचेतन मन काम किए चला जाता है। और उसकी भाषा शाब्दिक नहीं है; उसकी भाषा चित्रमयी है।
तो एक छोटा बच्चा अपने बिस्तर पर लेटकर बहुत आसानी से यह कल्पना कर सकता है कि दीवारें मिट रही हैं, कमरा गायब हो रहा है, बिस्तर गायब हो रहा है, बाहर के सब पेड़ गायब हो रहे हैं। सब कुछ गायब हो रहा है, और पूरा संसार मिट रहा है...  केवल वह अकेला रह गया है और उसके चारों ओर सुंदर सन्नाटा और घना अंधेरा है।
लेकिन यह विधि तंत्र के शास्त्रों में सुझाई गई है। और कोई भी इसे कर सकता है- और यह तुम्हारे ध्यान में सहयोगी भी होगा।
यह बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि माता-पिता को मनुष्य की पूरी संपदा का पता ही नहीं। अलग-अलग दिशाओं से मनुष्य चेतना को विकसित करने के लिए कार्य करता रहा है। यदि वह सब माता-पिता को उपलब्ध हो जाए, तो शायद वह इस तरह के अनुभवों के होने पर ऐसा नहीं समझेंगे कि बच्चा पागल हो गया है; वे आनंदित होंगे, वे तुम्हारी मदद करेंगे, वे तुम्हें पुरस्कृत करेंगे। वे तुम्हारी मदद करेंगे कि तुम ऐसे अनुभवों में और गहरे जा सको।
संयोग से तुम्हारे हाथ एक सही द्वार लग गया है। और बच्चा तो बड़ी सुगमता से शुरू से ही ध्यान का स्वाद ले सकता है, और वह रोज-रोज उसे विकसित किए चला जा सकता है। जब तक वह युवा होगा तब तक उसका ध्यान में प्रौढ़ हो चुका होगा। फिर बिस्तर पर लेटने की जरूरत नहीं है। फिर वह चाहे बैठे या खड़ा हो, और वह उसी शांति में प्रवेश कर सकता है- खुली आंखों से भी। सवाल बस इतना है कि तुम इस अनुभव में इतने गहरे उतरते चले जाओ, इतने गहरे उतरते चले जाओ कि वह तुम्हारे लिए सहज हो जाए।
लेकिन सभी समाज उन सभी अनुभवों को निंदित करते रहे हैं जो कि तुम्हारे प्राणों को विकसित होने में सहयोगी हो सकें। वे चाहते ही नहीं कि तुम्हारे प्राण विकसित हों। यदि तुमने किसी को बताया होता, तो वह कहते कि तुम पागल हो गए होः बंद करो यह सब; नहीं तो तुम पागल हो जाओगे। और वास्तव में तो उस अनुभव को रोकना तुम्हें पागल बनाने का उपाय है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि हर पिता को, हर मां को एक खास प्रशिक्षण से गुजरना चाहिए जिसमें उसे सिखाया जाए कि पिता कैसे होना है? मां कैसे होना है? जहां उन्हें यह सिखाया जाए कि बच्चे में बड़ी संभावनाएं छिपी हैं, और वह ऐसी कई चीजें कर सकता है जो तुम भी नहीं कर सकते, और यही समय है। यदि तुम बच्चे को रोकोगे तो बाद में ये सब चीजें उसके लिए भी उतनी ही मुश्किल हो जाने वाली हैं।
तुम्हारा अनुभव अच्छा था, बहुत अच्छा था। और यदि अब तुम उसे फिर से करने कोशिश करते हो तो शायद तुम बिना किसी कठिनाई के दोबारा से उस अवस्था में प्रवेश कर सको। मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं वे इसी तरह के अनुभवों में उतरने के लिए इकट्ठे हुए हैं; ये सब अनुभव, ये सब विधियां तुम्हारे प्राणों को स्पर्श कर लेने के अलग-अलग उपाय हैं।
यह विधि कल्पना की विधि है। दीवारें गायब नहीं होतीं, और न ही पेड़ या कुछ और गायब होते हैं। यह केवल एक विधि है। लेकिन यदि तुम उनके गायब होने की कल्पना कर सको, तो स्वभावतः तुम ही बच रहते हो, जो कुछ भी करने पर नहीं मिट सकता। तुम्हारे मिटने की कल्पना की कोई विधि संभव नहीं है; साक्षी हर कल्पना के पार है, मन के पार है। जो बच रहता है, वह केवल एक साक्षी है, एक देखने वाला- और वह तुम्हारी शुद्ध चेतना है।
तो इसकी परवाह मत करना कि जो विधि तुमने अपनाई वह मात्र कल्पना भर थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि तुम इसमें उत्सुक ही नहीं थे कि दीवारें मिट जाएं; वह एक उपाय था कि किसी तरह ऐसी परिस्थिति पैदा हो जिसमें तुम हर चीज से मुक्त हो जाओ- चाहे वह चीज वहां है या नहीं- और तुम अपने प्राणों की सुंदर नीरवता को प्राप्त कर लो। ऐसा एक क्षण भी शाश्वत के समान है।
और यह विधि तंत्र की विधि है, जो सदियों से प्रयोग की जाती रही है। निश्चिंत रहो, इससे तुम पागल नहीं हो सकते। वास्तव में इस विधि के द्वारा तुम पागल होने के सब उपाय ही समाप्त कर देते हो; अब केवल शुद्ध चेतना ही बची है। और शुद्ध चेतना कभी पागल नहीं होती।
तो तुम्हारे बचपन में जो हुआ वह बहुत शुभ था। यह अच्छा होता कि यदि तुमने सतत इस विधि को जारी रखा होता, लेकिन इसे तुम फिर से शुरू कर सकते हो- क्योंकि कुछ भी जो एक बार हुआ हो, तुममें एक निशान तो छोड़ ही जाता है; वहां से तुम फिर शुरू कर सकते हो। थोड़ी तकलीफ हो सकती है, शायद उतना सरल अब न हो, लेकिन वह अनुभव लौट आएगा- एक दिन में, दो दिन में, वह अनुभव लौट आएगा।

ओशो 

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