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रविवार, 3 नवंबर 2019

18-दरिया दास—(ओशो)

दरिया दास—भारत के संत

अमी झरत विगसत कंवल--ओशो 

मनुष्य-चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है--गणित का, विज्ञान का, गद्य का। दूसरा आयाम है--प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम है--अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क  तो असमर्थ है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं पाती उसे, हृदय भी पहुंचते-पहुंचते रह जाता है!
जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय को उठाने की असफल चेष्टा करे।
इसलिए संतों ने गीतों में अभिव्यक्ति की है। नहीं कि वे कवि थे, बल्कि इसलिए कि कविता करीब मालूम पड़ती है। शायद जो गद्य में न कहा जा सके, पद्य में उसकी झलक आ जाए। जो व्याकरण में न बंधता हो, शायद संगीत में थोड़ा-सा आभास दे जाए।

इसे स्मरण रखना। संतों को कवि ही समझ लिया तो भूल हो जाएगी। संतों ने काव्य में कुछ कहा है, जो काव्य के भी अतीत है--जिसे कहा ही नहीं जा सकता। निश्चित ही गद्य की बजाए पद्य को संतों ने चुना, क्योंकि गद्य और भी दूर पड़ जाता है, गणित और भी दूर पड़ जाता है। काव्य चुना, क्योंकि काव्य मध्य में है। एक तरफ व्याख्या-विज्ञान का लोक है, दूसरी तरफ अव्याख्य-धर्म का जगत है;  और काव्य दोनों के मध्य की कड़ी है। शायद इस मध्य की कड़ी से किसी के हृदय की वीणा बज उठे, इसलिए संतों ने गीत गाए। गीत गाने को नहीं आए; तुम्हारे भीतर सोए गीत को जगाने को गाए। उनकी भाषा पर मत जाना, उनके भाव पर जाना। भाषा तो उनकी अटपटी होगी।
जरूरी भी नहीं कि संत सभी पढ़े-लिये थे, बहुत तो उनमें गैर पढ़े-लिखे थे। लेकिन पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई संबंध भी नहीं है; गैर-पढ़े-लिखे होने से कोई बाधा भी नहीं है। परमात्मा दोनों को समान रूप से उपलब्ध है। सच तो यह है, पढ़े-लिखे के शायद थोड़ी बाधा हो, उसका पढ़ा-लिखा ही अवरोध बन जाए; गैर-पढ़ा-लिखा थोड़ा ज्यादा भोला, थोड़ा ज्यादा निर्दोष। उसके निर्दोष चित्त में, उसके भोले हृदय में सरलता से प्रतिबिंब बन सकता है। कम होगा विकृत प्रतिबिंब, क्योंकि विकृत करने वाला तर्क मौजूद न होगा। झलक ज्यादा अनुकूल होगी सत्य के, क्योंकि विचारों का जाल न होगा जो झलक को अस्तव्यस्त करे। सीधा-सीधा सत्य झलकेगा क्योंकि दर्पण पर कोई शिक्षा की धूल नहीं होगी।
तो भाषा की चिंता मत करना, व्याकरण का हिसाब मत बिठाना। छंद भी उनके। ठीक हैं या नहीं, इस विवेचना में भी न पड़ना। क्योंकि यह तो चूकना हो जाएगा। यह तो व्यर्थ में उलझना हो जाएगा। यह तो गए फूल को देखने और फूल के रंग और फूल के रसायन और फूल किस जाति का है और किस देश से आया है, इस सारे इतिहास में उलझ गए; और भूल ही गए कि फूल तो उसके सौंदर्य में है।
गुलाब कहां से आया, क्या फर्क पड़ता है? ऐतिहासिक चित्त इसी चिंता में पड़ जाता है कि गुलाब कहां से आया! आया तो बाहर से है; उसका नाम ही कह रहा है। नाम संस्कृत का नहीं है, हिंदी का नहीं है। गुल का अर्थ होता है: फूल; आब का अर्थ होता है: शान। फूल की शान! आया तो ईरान से है, बहुत लंबी यात्रा की है। लेकिन यह भी पता हो कि ईरान से आया है गुलाब, तो गुलाब के सौंदर्य का थोड़े ही इससे कुछ अनुभव होगा! गुलाब शब्द की व्याख्या भी हो गई तो भी गुलाब से तो वंचित ही रह जाओगे। गुलाब की पंखुड़ियां तोड़ लीं, पंखुड़ियां गिन लीं, वजन नाप लिया, तोड़-फोड़ करके सारे रसायन खोज लिए--किन-किन से मिलकर बना है, कितनी मिट्टी, कितना पानी, कितना सूरज--तो भी तो गुलाब के सौंदर्य से वंचित रह जाओगे। ये गुलाब को जानने के ढंग नहीं हैं।
गुलाब की पहचान तो उन आंखों में होती है, जो गुलाब के इतिहास में नहीं उलझती, गुलाब की भाषा में नहीं उलझतीं, गुलाब के विज्ञान में नहीं उलझतीं--जो सीधे-सीधे, नाचते हुए गुलाब के साथ नाच सकता है; जो सूरज में उठे गुलाब के साथ उसके सौंदर्य को पी सकता है; जो भूल ही सकता है अपने को गुलाब में, डुबा सकता है अपने को गुलाब में और गुलाब को अपने में डूब जाने दे सकता है--वही जानेगा।
संतों के वचन गुलाब के फूल हैं। विज्ञान, गणित, तर्क और भाषा की कसौटी पर उन्हें मत कसना, नहीं तो अन्याय होगा। वे तो  हैं, अर्चनाएं हैं, प्रार्थनाएं हैं। वे तो आकाश की तरह उठी हुई आंखें हैं। वे तो पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं--चांदत्तारों को छू लेने के लिए। उस अभीप्सा को पहचानना। वह अभीप्सा समझ में आने लगे तो संतों का हृदय तुम्हारे सामने खुलेगा।
और संतों के हृदय में द्वार है परमात्मा का। तुम्हारे सब मंदिर-मस्जिद, तुम्हारे गुरुद्वारे, तुम्हारे गिरजे, परमात्मा के द्वार नहीं हैं। लेकिन संतों के हृदय में निश्चित, द्वार है। जीसस के हृदय को समझो तो द्वार मिल जाएगा; चर्च में नहीं। मुहम्मद के प्राणों को पहचान लो तो द्वार मिल जाएगा; मस्जिद में नहीं।
ऐसे ही एक अदभुत संत दरिया के वचनों में हम आज उतरते हैं। फूलों की तरह लेना। सम्हाल कर! नाजुक बात है। ख्याल रखना, फूलों को, सोना जिस पत्थर पर कसते हैं, उस पर नहीं कसा जाता है। फूलों को सोने की कसने की कसौटी पर कस-कस कर मत देखना, नहीं तो सभी फूल गलत हो जाएंगे।
एक बाउल फकीर से एक बड़े शास्त्रज्ञ पंडित ने पूछा कि प्रेम, प्रेम...निरंतर प्रेम का जप किए जाते हो, यह प्रेम है क्या? मैं भी तो समझूं! इस प्रेम का किस शास्त्र में उल्लेख है, किन वेदों का समर्थन है?
वह बाउल फकीर हंसने लगा। उसका इकतारा बजने लगा। खड़े होकर वह नाचने लगा। पंडित ने कहा: नाचने से क्या होगा? और इकतारा बजाने से क्या होगा? व्याख्या होनी चाहिए प्रेम की। और शास्त्रों का समर्थन होना चाहिए। कहते हो प्रेम परमात्मा का द्वार है, मगर कहां लिखा है? और नाचो मत, बोलो! इकतारा बंद करो बैठो! तुम मुझे धोखे में न डाल सकोगे। औरों को धोखे में डाल देते हो इकतारा बजा कर, नाच कर। औरों को लुभा लेते हो, मुझको न लुभा सकोगे।
उस बाउल फकीर ने फिर भी एक गीत गाया। उस बाउल फकीर ने कहा: गीतों के सिवाय हमारे पास कुछ और है नहीं। यही गीत हमारे वेद, यही गीत हमारे उपनिषद, यही गीत हमारे कुरान। क्षमा करें! नाचूंगा, इकतारा बजाऊंगा, गीत गाऊंगा--यही हमारी व्याख्या है। अगर समझ में आ जाए तो आ जाए; न समझ में आए, दुर्भाग्य तुम्हारा। पर हमसे और कोई व्याख्या न पूछो। और कोई उसकी व्याख्या है ही नहीं।
और जो गीत उसने गाया, बड़ा प्यारा था। गीत का अर्थ था: एक बार एक सुनार एक माली के पास आया और कहा कि तेरे फूलों की बड़ी प्रशंसा सुनी है, तो मैं आज कसने आया हूं कि फूल सच्चे हैं, असली हैं या नकली हैं? मैं अपने सोने के कसने के पत्थर को ले आया हूं।
और वह सुनार उस गरीब माली के गुलाबों को पत्थर पर कस-कसकर फेंकने लगा कि सब झूठे हैं, कोई सच्चे नहीं हैं।
उस बाउल फकीर ने कहा: जो उस गरीब माली के प्राणों पर गुजरी, वही तुम्हें देखकर मेरे प्राणों पर गुजर रही है। तुम प्रेम की व्याख्या पूछते हो! और मैं प्रेम नाच रहा हूं। अंधे हो तुम! तुम प्रेम के लिए शास्त्रीय समर्थन पूछते हो--और मैं प्रेम को संगीत दे रहा हूं! बहरे हो तुम!
मगर अधिक लोग अंधे हैं, अधिक लोग बहरे हैं।
दरिया के साथ अन्याय मत करना, यह मेरी पहली प्रार्थना। ये सीधे-सादे शब्द हैं, पर बड़े गहरे हैं। जितने सीधे-सादे हैं उतने गहरे हैं।
नहीं पूरी पड़ीं सारी दिशाएं एक अंजलि को
अधूरी रह गयी मेरी विधा एकांत पूजन की
बंधी ओंकार की अविराम शैलाकार बांहों में
नहीं पूरी हुई कोई कड़ी मेरे समर्पण की
समूचा सूर्य भी आजन्म पूजादीप की मेरे
न बन पाया अकंपित वर्तिका का शुभ्र नीराजन
जपी, अपराह्न-रंजित, स्तब्ध मेरी आया-गायत्री।
जीवन भर भी तुम्हारी गायत्री हो जाए तो भी उस अनिर्वचनीय की व्याख्या नहीं होती! और सूरज भी तुम्हारी आरती का दीया बन जाए तो भी पूजा पूरी नहीं होती!
अमित झरत वगसत कवंल दरिया दास --प्रवचन-पहला

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