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बुधवार, 6 नवंबर 2019

जीवन के विभिन्न आयाम-(प्रवचन-10)

जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया-(प्रवचन-दसवां)

Misc. English discourses
जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया
अध्याय-10
प्रेमः
यह प्रेम कोई बंधन नहीं निर्मित कर सकता। और यह प्रेम ही हृदय को सम्पूर्ण आकाश के प्रति, सारी हवाओं के प्रति खोल देना है।
ईर्ष्या बहुत जटिल है। उसमें कई उपादान सम्मिलित हैं। कायरता उनमें से एक है; अहंकारी ढंग दूसरा है; एकाधिकारत्व की आकांक्षा- प्रेम की अनुभूति नहीं बल्कि पकड़ की; प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति; हीन होने का एक गहरे में बैठा भय।

बहुत सारी बातें ईर्ष्या में सम्मिलित हैं।
खतरे मोल लेना असली मनुष्य के मूल आधारों में से एक होना चाहिये।
जिस पल तुम देखो कि चीजें स्थिर होने लगीं, उन्हें बिखरा दो।


प्रेम की जडे़ं
हमने कभी प्रेम की जड़ों की फिक्र नहीं की, और हमने फूलों के संबंध में ही बातें की हैं। हम लोगों को अहिंसक होने के लिए, करुणावान होने के लिए, प्रेमपूर्ण होने के लिए कहते हैं- इतने ज्यादा कि तुम अपने शत्रु को प्रेम कर सको, इतने ज्यादा कि तुम अपने पड़ोसियों को भी प्रेम कर सको।
हम फूलों के बारे में बातें करते हैं, लेकिन जड़ों में किसी का रस नहीं है।
सवाल यह है कि हम प्रेमपूर्ण प्राणी क्यों नहीं हैं? यह इस व्यक्ति को, उस व्यक्ति को, मित्र को, शत्रु को प्रेम करने का सवाल नहीं है; सवाल यह है कि तुम प्रेमपूर्ण हो या नहीं?
क्या तुम अपने ही शरीर को प्रेम करते हो? क्या तुमने अपने ही शरीर को कभी प्रेमपूर्ण दुलार से छूने की फिक्र की है? क्या तुम स्वयं को प्रेम करते हो?
तुम गलत हो, और तुम्हें स्वयं को ठीक करना है! तुम पापी हो, और तुम्हें पुण्यात्मा होना है! तुम स्वयं को प्रेम कैसे कर सकते हो?- तुम स्वयं को स्वीकार तक नहीं कर सकते। और ये जड़ें हैं।
प्लास्टिक के फूल स्थार्यी होते हैं- प्लास्टिक (नकली)-प्रेम स्थार्यी होगा। असली फूल स्थायी नहीं है; वह क्षण-क्षण बदल रहा है। आज वह है, हवाओं में और धूप में, और वर्षा में नाचता हुआ। कल वह तुम्हें खोजे न मिलेगा। वह उतने ही रहस्यमय ढंग से विदा हो गया है जितने रहस्यमय ढंग से प्रगट हुआ था।
असली प्रेम असली फूल जैसा है।

प्रेम है स्वतंत्रता
वास्तविकता यह है कि हम अकेले हैं, हम अजनबी हैं- और दुनिया कहीं ज्यादा सुंदर होगी यदि हम इसे स्वीकार करें, इस मूलभूत सत्य को कि हम अजनबी हैं।
और एक अजनबी के साथ प्रेम में पड़ने में बुराई क्या है? इस बात की जरूरत क्या है कि किसी अजनबी के प्रेम में पड़ने से पहले अजनबीपन खत्म होना चाहिये?
यह जीवन के सौंदयों में से एक है कि हम सब के सब अजनबी हैं और इस असलियत को बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह सुंदर है कि अजनबी तुम्हें प्रेम कर रहे हों, अजनबी तुम्हारे मित्र हों, सारी दुनिया अजनबियों से भरी हो। तब पूरी दुनिया एक रहस्य बन जाती है- और रहस्य वह है।
यह एक जाना-माना तथ्य है। तुम किसी पुरुष के प्रेम में पड़़ती हो; तुम वास्तविक व्यक्ति के प्रेम में नहीं पड़ती हो, तुम अपनी कल्पनाओं के पुरुष के प्रेम में पड़ती हो। जब तुम साथ-साथ नहीं हो, और तुम उस व्यक्ति को अपनी बाल्कनी से देखती हो, या उसे समुद्र तट पर कुछ मिनटों के लिये मिलती हो, या सिनेमागृह में एक दूसरे का हाथ थामे हुए हो, तो तुम्हें लगने लगता है, ‘हम एक-दूसरे के लिये ही बने हैं।’
लेकिन कोई एक-दूसरे के लिये नहीं बना है। अचेतन रूप से, तुम उस व्यक्ति पर और-और अधिक कल्पनाओं को प्रक्षेपित करती चली जाती हो। तुम उस व्यक्ति के आसपास एक प्रकार का आभामंडल खड़ा कर लेती हो, वह तुम्हारे आसपास एक आभामंडल खड़ा कर लेता है। प्रतीत होता है, क्योंकि तुम उसे सुंदर बना रही हो, तुम सपना खड़ा कर रही हो और यथार्थ को टाल रही हो। तुम दोनों ही हर संभव ढंग से कोशिश करते हो कि दूसरे की कल्पनाओं को बाधा न पहुंचे।
तो स्त्री वैसा व्यवहार कर रही है, जैसा पुरुष चाहता है कि वह करे; पुरुष वैसा व्यवहार कर रहा है, जैसा स्त्री चाहती है कि वह करे। लेकिन ऐसा तुम कुछ मिनटों के लिये या कुछ घंटों के लिये ही कर सकते हो। एक बार तुम विवाह कर लो और तुम्हें चौबीस घंटे साथ-साथ रहना पड़े, तो जो तुम नहीं हो वह होने का नाटक करना भारी बोझ बन जाता है।
केवल पुरुष की या स्त्री की कल्पना पूरा करने के लिये कब तक तुम अभिनय कर सकते हो? देर-अबेर यह बोझ बन जाता है और तुम बदला लेना शुरू करते हो। तुम उन सारी कल्पनाओं को तोड़ने लगती हो जो पुरुष ने तुम्हारे चारों और निर्मित कर ली थीं क्योंकि तुम उनमें कैद नहीं होना चाहती; तुम स्वतंत्र होना चाहती हो और जैसी हो वैसी होना चाहती हो।
और यही स्थिति पुरुष की हैः वह स्वतंत्र होना चाहता है और केवल स्वयं जैसा होना चाहता है और यही सारे प्रमियों सारे संबंधों के बीच की सतत कलह है।
प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम उसकी स्वतंत्रता देता है जो दूसरे को करने जैसा लगता है। जो भी उसे करने जैसा लगता है- यदि वह उसे आनंदित करता है, तो यह उसका चुनाव है।
यदि तुम उस व्यक्ति को प्रेम करते हो, तुम उसकी निजता में हस्तक्षेप नहीं करोगे। तुम उस व्यक्ति को अबाधित रहने दोगे। तुम उसके आंतरिक अस्तित्त्व में अतिक्रमण नहीं करोगे।

बेशर्त प्रेम
प्रेम की यह मूलभूत जरूरत है कि, ‘मैं दूसरे व्यक्ति को जैसा वह है वैसा ही स्वीकार करता हूं।’ और प्रेम कभी भी व्यक्ति को अपने ख्यालों के अनुरूप ढालने की कोशिश नहीं करता। तुम व्यक्ति को नाप-तौल का बनाने के लिये काटते-छांटते नहीं- जो कि सारी दुनियां में सब और किया जा रहा है... ।
यदि तुम प्रेम करते हो, तो कोई शर्त नहीं लगायी जानी हैं।
यदि तुम प्रेम नहीं करते हो, तो तुम शर्त लगाने वाले होते कौन हो?
दोनों ढंग से बात स्पष्ट है। यदि तुम प्रेम करते हो तो शर्तों का कोई सवाल ही नहीं है। तुम उसे जैसा वह है वैसा ही प्रेम करते हो। यदि तुम प्रेम नहीं करते हो, तब भी कोई समस्या नहीं। वह तुम्हारा कोई नहीं; शर्त रखने का कोई प्रश्न ही नहीं। वह जो कुछ भी करना चाहता है, कर सकता है।
यदि ईर्ष्या खतम हो जाये और फिर भी प्रेम बचे, तभी तुम्हारे जीवन में कुछ अर्थपूर्ण है जो बचाने योग्य है।
जीयो और प्रेम करो, और पूर्णता से, पूरी त्वरा से प्रेम करो लेकिन कभी भी स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं।
स्वतंत्रता आत्यांतिक मूल्य रहना चाहिए।
हमें लगातार सिखाया गया है कि प्रेम एक संबंध है, तो वही धारणा हमारी आदत बन गई है। लेकिन यह सच नहीं है। वह निम्नतम प्रकार का है- बड़ा प्रदूषित।
प्रेम तो हमारे होने का ढंग है।

प्रेम और आसक्ति
इस धारणा को छोड़ दो कि आसक्ति और प्रेम एक बात है। वे एक-दूसरे के शत्रु हैं। यह आसक्ति है जो समस्त प्रेम को नष्ट करती है।
यदि तुम आसक्ति को बढ़ावा दो, पोषण दो, तो प्रेम नष्ट हो जायेगा; यदि तुम प्रेम को बढ़ावा दो, पोषण दो तो आसक्ति अपने-आप गिर जायेगी।
प्रेम और आसक्ति एक नहीं हैं; वे दो अलग-अलग सत्ताएं हैं, और एक-दूसरे की विरोधी।

प्रेम मांगो मत- दो
प्रेम देना सुंदर और वास्तविक अनुभव है, क्योंकि तब तुम एक सम्राट हो। प्रेम पाना एक बहुत छोटा अनुभव है, और वह भिखारी का अनुभव है।
भिखारी मत बनो। कम से कम जहां तक प्रेम का सवाल है, सम्राट बनो, क्योंकि प्रेम तुम्हारे भीतर का कभी न चुकने वाला गुण है; तुम जितना चाहो, देते जा सकते हो। चिंता मत करो कि वह खतम हो जायेगा, कि एक दिन अचानक तुम पाओगे, ‘हे ईश्वर! अब मेरे पास देने के लिये जरा भी प्रेम न बचा।’
प्रेम मात्रा (क्वांटिटी) नहीं है, वह गुण (क्वालिटी) है, और गुण भी ऐसी कोटि का जो देने से बढ़ता है, और यदि तुम पकड़कर रखो तो मर जाता है। यदि तुम देने में कंजूस रहे, तो वह मर जाता है। तो सचमुच खुले हाथों लुटाओ! इसकी चिंता मत करो कि किसे। वह सही अर्थों में कंजूस मन का ख्याल है- कि ‘मैं अपना प्रेम निश्चित गुणों वाले निश्चित व्यक्तियों को ही दूंगा।’
तुम समझते नहीं कि तुम्हारे पास इतना अधिक है- तुम वर्षा के बादल हो। वर्षा के बादलों को चिंता नहीं होती कि वे कहां बरस रहे हैं- चट्टानों पर, बगीचों में, सागरों में- उससे फर्क नहीं पड़ता। वह भारहीन होना चाहता है, और भारहीन होना बड़ी राहत है।
तो पहला रहस्य हैः कि प्रेम मांगो मत। प्रतीक्षा मत करो, यह सोचते हुये कि जब कोई मांगेगा तभी उसे दूंगा- दो!

प्रेमः एक लयपूर्ण संवाद
प्रेम को समझने के लिये पहले तुम्हें प्रेमपूर्ण होना चाहिए, केवल तभी तुम प्रेम को समझ सकते हो। लाखों लोग पीड़ित हैंः वे प्रेम किया जाना चाहते हैं लेकिन वे र्प्रेम करना नहीं जानते। और प्रेम एकालाप के रूप में नहीं रह सकता; यह संवाद है, बड़ा ही लयपूर्ण संवाद।
लोग तुम्हें जो देते हैं, वह तुम्हें तृप्त नहीं करता, तुम जो लोगों को देते हो वह तुम्हें तृप्त करता है। भिखारी होकर तुम संतुष्ट नहीं हो सकते सम्राट होकर तुम संतुष्ट होगे और प्रेम, जब तुम देते हो, तुम्हें सम्राट बनाता है।
तुम इतना अधिक दे सकते हो, अक्षय रूप से, कि जितना ज्यादा तुम देते हो उतना ही शुद्ध, उतना ही झंकृत, उतना ही सुगंधित तुम्हारा प्रेम होता जाता है।
जिस पल तुम समझते हो कि प्रेम क्या है- तुम अनुभव करते हो कि प्रेम क्या है- तुम प्रेम हो जाते हो। तब तुममें प्रेम पाने की जरूरत नहीं रह जाती, और तुममें यह जरूरत भी नहीं रह जाती कि तुम्हें प्रेमपूर्ण होना चाहिए, प्रेमपूर्ण होना तुम्हारा सहज, स्फूर्त अस्तित्त्व होगा, तुम्हारीश्वास-प्रश्वास।
तुम और कुछ कर ही नहीं सकते, तुम केवल प्रेमपूर्ण होगे।
अब यदि बदले में तुम तक प्रेम नहीं लौटता, तुम चोट नहीं महसूस करोगे, इस सरल से कारण से कि केवल वही व्यक्ति प्रेम कर सकता है जो स्वयं प्रेम हो गया हो। तुम केवल वही दे सकते हो जो तुम्हारे पास है।
लोगों से मांग करना कि वे तुम्हें प्रेम करें- लोग जिनके जीवन में प्रेम है ही नहीं, जो अपने अस्तित्त्व के उन स्रोतों तक पहुंचे ही नहीं है जहां प्रेम का मंदिर है...  कैसे वे तुम्हें प्रेम कर सकते हैं? वे दिखावा कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि वे प्रेम करते हैं। वे इस ख्याल में भी हो सकते हैं कि वे प्रेम करते हैं। लेकिन देर-अबेर यह प्रगट होने वाला है कि यह केवल दिखावा है, कि यह केवल अभिनय है, कि यह केवल पाखंड है।
हो सकता है कि तुम्हें धोखा देने का इरादा भी न हो, लेकिन व्यक्ति कर ही क्या सकता है? तुम प्रेम मांगते हो और वह व्यक्ति भी र्प्रेम चाहता है। दोनों इसे समझते हैं- कि उनसे अपेक्षा है प्रेम अपेक्षा करने की, तो ही उन्हें प्रेम मिलेगा- तो दोनों ही प्रेम करने की हर कोशिश करते हैं। यह भावभंगिमा है- लेकिन कोरी भावभंगिमा। दोनों को इस बात का पता चल जाने वाला है और दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ शिकायत करने वाले हैं, कि यह ठीक नहीं है।
शुरू से ही दो भिखमंगे एक-दूसरे से भीख मांग रहे थे, और दोनों के पास केवल खाली भिक्षापात्र हैं।
अहंकार सबसे बड़ा बंधन है, एकमात्र नर्क जो मुझे पता है।
जिन लोगों ने प्रेम का स्रोत स्वयं के भीतर पा लिया है, उनको यह जरूरत नहीं रह जाती कि कोई उन्हें प्रेम करे- और उन्हें प्रेम किया जाएगा।
वे प्रेम किसी और कारण से नहीं करते बल्कि सिर्फ इसलिये कि उनके पास वह बहुत ज्यादा है- जैसे जल से भरा बादल बरसना चाहता है, जैसे फूल अपनी सुगंध लुटाना चाहता है, बिना कुछ मिलने की आकांक्षा के। प्रेम का पुरस्कार प्रेम करने में है, प्रेम पाने में नहीं।
और ये जीवन के रहस्य हैं कि यदि व्यक्ति प्रेम करने में ही प्रेम का पुरस्कार अनुभव करने लगे, तो बहुत लोग उसे प्रेम करेंगे, क्योंकि उसके संपर्क में आने से ही उन्हें धीरे-धीरे अपने स्वयं के भीतर के स्रोत का पता चलने लगता है। अब वे कम से कम एक व्यक्ति को जानते हैं जो प्रेम बरसाता है, और जिसका प्रेम किसी जरूरत से नहीं निकल रहा है। और जितना ज्यादा वह प्रेम बांटता और बरसाता है, उतना ही प्रेम बढ़ता है।

प्रेम और घृणा
जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी स्थायी हो नहीं सकता। किसी भी चीज को स्थायी बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं है। केवल मृत चीजें स्थायी हो सकती हैं। कोई भी चीज जितनी ज्यादा जीवंत है, उतनी ही ज्यादा क्षणभंगुर होगी।
आज प्रेम है कल की किसे खबरः रह भी सकता है, नहीं भी रह सकता। उसका नियंत्रण करना तुम्हारे हाथ में नहीं है। वह एक घटना है तुम कुछ भी कर नहीं सकते; तुम उसे पैदा नहीं कर सकते यदि वह न हो। या तो वह होता है अथवा वह नहीं होता है- तुम बस असहाय हो। पत्थर स्थायी हो सकते हैं, फूल नहीं हो सकते। और प्रेम पत्थर नहीं है। वह एक फूल है, और अनूठी गुणवत्ता वाला।
हृदय द्वंद्व का अतिक्रमण है। हृदय चीजों को स्पष्टता से देखता है और प्रेम उसका स्वाभाविक गुण है- ऐसी चीज नहीं जिसमें प्रशिक्षण लेना हो और इस प्रेम में घृणा उसके प्रतिपक्ष के रूप में उपस्थित नहीं रहती।
तुम प्रेम-घृणा रूपी द्वंद्व के पार जाने में समर्थ हो।
अभी वे तुम्हारे जीवन में साथ-साथ चलते हैं। तुम उसी व्यक्ति से प्रेम करते हो जिससे तुम घृणा करते हो। तो सुबह घृणा है, शाम को प्रेम है- और यह बड़ी चकराने वाली बात है। तुम जान ही नहीं पाते कि तुम इस व्यक्ति से प्रेम करते हो या घृणा करते हो, क्योंकि अलग-अलग समयों पर तुम दोनों ही करते हो।
लेकिन यही मन के काम करने का ढंग है; वह विरोधाभासों के जरिए काम करता है। विकास भी विपरीत के माध्यम से काम करता है; लेकिन वे विपरीतताएं अस्तित्त्व के लिए विरोधाभास नहीं हैं, वे परिपूरक हैं।
घृणा भी एक तरह का प्रेम है- शीर्षासन करता हुआ।
जो प्रेम मन से आता है वह हमेशा प्रेमघृणा होता है। ये दो शब्द नहीं हैं, यह एक शब्द हैः ‘प्रेमघृणा”- उनके बीच संयोजक चिन्ह भी नहीं है। और प्रेम, जो तुम्हारे हृदय से आता है, वह सभी द्वंद्वों के पार है... ।
हर व्यक्ति उसी प्रेम की खोज में है जो प्रेम और घृणा के पार जाता है- लेकिन मन के द्वारा, खोज रहे हैं, इसीलिये दुखी हैं। प्रत्येक प्रेमी असफलता महसूस करता है, धोखा हुआ, विश्वासघात हुआ महसूस करता है लेकिन इसमें किसी का दोष नहीं है। असलियत यह है कि तुम गलत उपकरण का उपयोग कर रहे हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति आंखों का उपयोग संगीत सुनने के लिये कर रहा हो, और फिर विक्षिप्तता प्रगट करता है कि कहीं कोई संगीत नहीं है लेकिन आंखों का काम सुनना और कानों का काम देखना नहीं है। मन अति व्यापारी किस्म का, हिसाबी-किताबी यंत्र है; उसका प्रेम से कोई लेना-देना नहीं।
प्रेम एक अराजकता होगी। वह मनका सब कुछ अस्त-व्यस्त कर देगा। हृदय का व्यापार से कोई लेना-देना नहीं- वह सदा ही छुट्टी पर है। वह प्रेम कर सकता है और ऐसा प्रेम कर सकता है जो घृणा में कभी नहीं बदलता; उस के पास घृणा के जहर नहीं हैं।
हर व्यक्ति इसी की खोज कर रहा है, लेकिन बस गलत उपकरण से; इसीलिये जगत में असफलता है। और धीरे-धीरे लोग, यह देखकर कि प्रेम केवल दुख लाता है, बंद हो गये हैं ‘प्रेम बकवास है।’ वे प्रेम के विरोध में बड़ी दीवारें खड़ी कर लेते हैं। लेकिन वे जीवन के समस्त आनंदों को चूकेंगे, वे जो भी जीवन में मूल्यवान है उस सबको चूकेंगे।

व्यक्तित्व
तुम एक भीड़ हो, बड़ी भीड़। तुम्हें जरा नजदीक से, जरा गहराई से देखना पड़ेगा और तुम स्वयं के भीतर बहुत से लोगों को पाओगे। और वे सारे लोग समय-समय पर नाटक करते हैं तुम होने का। जब तुम क्रोधित होते हो, एक तरह का व्यक्तित्व तुम पर हावी हो जाता है और नाटक करता है कि यह तुम हो। जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो, तब एक दूसरा व्यक्तित्व तुम पर हावी होता है और नाटक करता है कि यह तुम हो।
यह बात न केवल तुम्हें विभ्रम में डालने वाली है बल्कि जो भी तुम्हारे संपर्क में आता है उन सबको विभ्रम में डालने वाली है, क्योंकि वे कुछ तय नहीं कर पाते। वे स्वयं ही एक भीड़ हैं।
और हर संबंध में केवल दो व्यक्ति ही विवाहित नहीं हो रहे हैं, बल्कि दो भीड़़ें विवाहित हो रही हैं। अब लगातार घमासान युद्ध होने जा रहा है, क्योंकि मुश्किल से ही ऐसे क्षण आयेंगे- बस भूल चूक से- जब तुम्हारा प्रेमपूर्ण व्यक्ति और दूसरे का प्रेमपूर्ण व्यक्ति प्रभाव में रहेंगे। अन्यथा तो तुम चूकते ही जाते हो। तुम प्रेमपूर्ण हो, लेकिन दूसरा दुःखी, क्रोधित और चिन्तित है। और जब वह प्रेमपूर्ण दशा में है, तब तुम प्रेमपूर्ण नहीं हो। और इन व्यक्तित्वों को अपनी ओर से लाने का कोई उपाय नहीं है; वे अपनी ही मर्जी से चलते हैं।

द्रष्टा
तुम्हारे भीतर एक चक्राकार गति है, और यदि तुम केवल देखते रहो- इन व्यक्तित्वों के साथ छेड़-छाड़ मत करो क्योंकि उससे तो ज्यादा गड़बड़ पैदा होगी, ज्यादा विभ्रम पैदा होंगे। सिर्फ देखो, क्योंकि इन व्यक्तित्वों को देखते हुए तुम्हें बोध होनेवाला है कि एक देखनेवाला भी है, जो कि कोई व्यक्तित्व नहीं है, जिसके समक्ष ये सारे व्यक्तित्व आते और जाते हैं।
और यह कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं है, क्योंकि एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को नहीं देख सकता। यह बड़ी ही सारभूत और रोचक बात है- कि एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को देख नहीं सकता, क्योंकि इन व्यक्तित्वों में कोई आत्मा नहीं होती।
ये तुम्हारे वस्त्रों जैसे हैं। तुम अपने वस्त्र बदलते जा सकते हो, लेकिन तुम्हारे वस्त्र यह नहीं जान सकते कि वे बदल दिये गये हैं, कि अब एक दूसरे वस्त्र का उपयोग किया जा रहा है। तुम वस्त्र नहीं हो, इसलिये तुम उन्हें बदल सकते हो। तुम व्यक्तित्व नहीं हो- इसलिए तुम इन असंख्य व्यक्तित्वों के प्रति सजग हो सकते हो।
लेकिन इससे एक बात और बहुत साफ हो जाती है कि कुछ है जो तुम्हारे आसपास चलने वाले व्यक्तित्वों के इस सारे खेल को देखता रहता है।
और यही तुम हो।
तो इन व्यक्तित्वों को देखो, लेकिन याद रहे कि तुम्हारा देखना ही, तुम्हारी वास्तविकता है। यदि तुम इन व्यक्तित्वों को देखते रह सको- तो ये व्यक्तित्व विदा होने लगेंगे; वे जीवित नहीं रह सकते। जीवित रहने के लिये उनको तादात्म्य की जरूरत है। यदि तुम क्रोध में हो तो उसकी जरूरत है कि तुम देखना भूलो और क्रोध के साथ तादात्म्य में होओ अन्यथा क्रोध का कोई जीवन नहीं है; वह पहले से ही मृत है, मर रहा है, विलीन हो रहा है।
तो अपने द्रष्टा में ज्यादा से ज्यादा एकाग्र रहो, और ये सारे व्यक्तित्व खो जायेंगे। और जब कोई व्यक्तित्व नहीं बचता, तब तुम्हारी वास्तविकता- मालिक- घर आ गया है।
तब तुम ईमानदारी से, प्रामाणिकता से व्यवहार करते हो। तब जो कुछ भी तुम करते हो, समग्रता से, पूर्णता से करते हो- कभी पछताते नहीं हो। तुम हमेशा आनंदित भावदशा में होते हो।
हमारी बहुत-सी समस्याएँ- शायद अधिकांश समस्याएँ- इसलिये हैं क्योंकि हमने उन्हें आमने-सामने करके नहीं देखा है, उनका सामना नहीं किया है। और उनकी ओर न देखना उन्हें ऊर्जा दे रहा है। उनसे भयभीत रहना उन्हें ऊर्जा दे रहा है, हमेशा उनसे बचने की कोशिश उन्हें ऊर्जा दे रही है- क्योंकि तुम उन्हें स्वीकार कर रहे हो। तुम्हारा स्वीकार ही उनका अस्तित्त्व है। तुम्हारे स्वीकार के अतिरिक्त उनका कोई अस्तित्त्व नहीं है।
ऊर्जा का स्रोत तुम्हारे पास है। जो कुछ भी तुम्हारे जीवन में घटता है उसको तुम्हारी ऊर्जा की जरूरत होती है। यदि तुम ऊर्जा के स्रोत को काट दो और- दूसरे शब्दों में उसे ही मैं तादात्म्य कहता हूं- यदि तुम किसी भी चीज से तादात्म्य न जोड़ो, तो वह तत्क्षण मृत हो जाती है, उसके पास अपनी कोई ऊर्जा नहीं है
और अ-तादात्म्य द्रष्टा होने का ही दूसरा पहलू है।
आदतें आसान है, होश कठिन है- लेकिन केवल शुरु में ही।

वर्तमान क्षण
हृदय को अतीत का कुछ पता नहीं, भविष्य का कुछ पता नहीं; उसे केवल वर्तमान का पता है। हृदय को समय की कोई धारणा नहीं है।
बिना भविष्य के जीना सबसे बड़ा साहस है। केवल कायर भविष्य में जीते हैं। मनुष्य का अतीत बड़ा ही कायरतापूर्ण रहा है। वह वर्तमान में नहीं, भविष्य में जीता रहा हैः ‘जो भी होना है, सब कल होना है।’ और उसी आशा में लोग जीये और मर गये। जिसकी वे प्रतीक्षा कर रहे थे, वह कभी उपस्थित ही न हुआ। वह सिर्फ गोडोट की प्रतीक्षा सिद्ध हुई।
वर्तमान अनजीया और अनखोजा ही रहा- और वही एकमात्र वास्तविकता है जिसका अस्तित्त्व है।
इस बात को समझो कि अतीत और भविष्य का कोई अस्तित्त्व नहीं है। सब जो तुम्हारे हाथ में है, वह केवल एक छोटा-सा क्षण हैः यही क्षण। तुम्हें दूसरा क्षण भी नहीं मिलता। तुम्हारे हाथ में, केवल एक क्षण होता है; और वह इतना छोटा और इतनी तेजी से भागता हुआ है कि यदि तुम अतीत और भविष्य के बारे में सोच रहे हो, तो तुम उससे चूक जाओगे। और वही क्षण एकमात्र जीवन है और वही क्षण एकमात्र वास्तविकता है।

राजनीति
राजनीति एक रोग है, और उसका ठीक उसी प्रकार उपचार किया जाना चाहिये। और यह केंसर से भी ज्यादा खतरनाक है; यदि शल्यचिकित्सा की जरूरत हो तो वह भी करनी चाहिये। लेकिन राजनीति मूलरूप से गंदी है। वह होगी ही, क्योंकि एक पद के पीछे हजारों लोग भूखे हैं, लालायित हैं। तो स्वभावतः वे लड़ेंगे, वे हत्या करेंगे; वे कुछ भी कर डालेंगे।
हमारे मन का पूरा संस्कार इतना गलत है इस अर्थ में कि हम महत्त्वाकांक्षी होने के लिए संस्कारित किये गये हैं- और वही वह जगह है जहां राजनीति है। वह केवल राजनीति के सामान्य जगत में ही नहीं है, उसने तुम्हारे सामान्य जीवन को भी विषाक्त किया हुआ है।
छोटा बच्चा भी मां को देखकर, पिता को देखकर मुस्कुराने लगता है, एक नकली मुस्कान। उसमें कोई गहराई नहीं होती, लेकिन वह जानता है कि जब भी वह मुस्कुराता है, उसे उसका पुरस्कार मिलता है। उसने राजनीतिज्ञ होने का पहला नियम सीख लिया है। वह अभी भी पालने में है, और तुमने उसे राजनीति सिखा दी है। और फिर हर कहीं मनुष्य के संबंधों में राजनीति है।
पुरुष ने स्त्री को पंगु कर दिया है। यह राजनीति है। स्त्रियां आधी आबादी हैं मानवजाति की और पुरुष को कोई अधिकार नहीं है उसे इस बुरी तरह पंगु बनाने का; लेकिन सदियों से वह स्त्री को पंगु बनाता रहा है।
उसने स्त्री को शिक्षित नहीं होने दिया है, उसने उसे पवित्र धर्मग्रंथ सुनने तक की अनुमति नहीं दी है। बहुत धर्मों में तो स्त्री को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति भी नहीं है; अथवा, यदि उसने अनुमति दी भी है, तो उसके लिए अलग जगह रहती है। परमात्मा के सामने भी वह पुरुष के साथ समान होकर नहीं खड़ी हो सकती।
पुरुष ने स्त्री की स्वतंत्रता को हर ढंग से काट देने की कोशिश की है। यह राजनीति है; यह प्रेम नहीं है। तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो, लेकिन तुम उसे स्वतंत्रता नहीं देते। यह किस तरह का प्रेम है, जो स्वतंत्रता देने में भी भयभीत है? तुम उसे तोते की तरह पिंजड़े में डाल देते हो। तुम कह सकते हो कि तुम तोते को प्रेम करते हो, लेकिन तुम समझते नहींः तुम उस तोते की हत्या कर रहे हो।
तुमने तोते से उसका पूरा आकाश छीन लिया है और उसे पिंजरा दे दिया है। पिंजरा सोने का बना हो सकता है, लेकिन सोने का पिंजरा भी कुछ नहीं है तोतों की आकाश की स्वतंत्रता के सामने। इस पेड़ से, उस पेड़ पर उड़ते हुये, अपने गीत गाते हुए- वह नहीं जो तुमने उन्हें विवश किया हुआ है गाने के लिए बल्कि अपनी सहजता और ईमानदारी से निकले गीतों को गाते हुए।
प्रत्येक देश में, प्रत्येक सभ्यता में आधी मनुष्यता पारिवारिक राजनीति द्वारा नष्ट कर दी गयी है, लेकिन है वह राजनीति ही। जहां कहीं भी दूसरे व्यक्ति के ऊपर अधिकार जमाने की इच्छा है, वह राजनीति है।
अधिकार जमाने की कोशिश हमेशा राजनीति है, छोटे बच्चों तक पर। मां-बाप सोचते हैं कि वे प्रेम करते हैं, लेकिन यह केवल उनके मन का भ्रम है, चाहते तो वे यही हैं कि बच्चे आज्ञाकारी हों। और आज्ञाकारिता का अर्थ क्या है? उसका अर्थ है सारी शक्ति मां-बाप के हाथों में।
यदि आज्ञाकारिता इतना महान गुण है, तो मां-बाप ही क्यों न बच्चों के प्रति आज्ञाकारी हों! यदि यह इतनी धार्मिक बात है, तो मां-बाप को बच्चों के प्रति आज्ञाकारी होना चाहिए।
शक्ति और सत्ता का धर्म से कोई संबंध नहीं है। शक्ति और सत्ता का धर्म से इतना ही संबंध है कि राजनीति को सुंदर शब्दों की आड़ में छिपाना।
जहां-जहां राजनीति ने प्रवेश किया हुआ है, उन सब जगहों पर मनुष्य को उघाड़ दिये जाने की जरूरत है और राजनीति सब जगह प्रवेश कर गई है। सारे संबंधों में। उसने पूरे जीवन को दूषित कर दिया है और लगातार दूषित करती जा रही है।
महत्त्वाकांक्षा जो पैदा की जाती है वह यह कि तुम्हें दुनियां में कुछ होना है, कि तुम्हें सिद्ध करना है, कि तुम कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हो, तुम विशिष्ट हो। लेकिन किसलिए? यह कौन-सा अभिप्राय हल करता है? यह एक ही अभिप्राय हल करता हैः तुम शक्तिशाली बन जाते हो, दूसरे सब तुम्हारे दास बन जाते हैं।
तुमने अलग-अलग तरीकों से पूरी मानवता को पंगु कर दिया है- और यह पंगु करना बड़ी राजनीति चाल है।

निजता
लोगों को स्वतंत्रता प्रिय है- लेकिन उत्तरदायीत्व कोई नहीं चाहता और वे साथ-साथ आती हैं, वे अविभाजनीय हैं।
तुम्हें मान्यता की फिक्र क्यों हो? मान्यता की फिक्र तभी अर्थपूर्ण है जब तुम अपने कार्य को प्रेम न करते होओ; तब यह अर्थपूर्ण है, तब वह उसका स्थान भरता प्रतीत होता है।
तुम अपने काम से घृणा करते हो, तुम्हें वह अच्छा नहीं लगता, लेकिन तुम उसे कर रहे हो, क्योंकि उससे मान्यता मिलेगी; तुम्हारी प्रशंसा होगी, तुम्हारा स्वीकार होगा।
मान्यता के बारे में सोचने की जगह अपने काम के विषय में पुनर्विचार करो। क्या तुम उसे प्रेम करते हो? तब बात खतम हो गई। यदि तुम उसे प्रेम नहीं करते, तो उसे बदलो।
माता-पिता, शिक्षक सब हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि तुम्हें मान्यता मिलनी चाहिए, तुम्हारा स्वीकार होना चाहिए। लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए यह बड़ी चालाक नीति है।
एक आधारभूत बात सीखो। वही करो जो तुम्हें करना है, जो करना तुम्हें प्रिय है, और मान्यता की मांग मत करो। वह भिखमंगापन है। मान्यता की मांग ही कोई क्यों करे? दूसरों की स्वीकृति के लिए कोई लालायित ही क्यों हो?
अपने भीतर ही गहरे झांको! शायद तुम जो कर रहे हो, वह तुम्हें पसंद नहीं है। शायद तुम भयभीत हो कि तुम गलत राह पर हो। स्वीकृति से तुम्हें लगेगा कि तुम ठीक हो। मान्यता से तुम्हें लगेगा कि तुम सही मंजिल की तरफ जा रहे हो।
सवाल तुम्हारी अपनी ही आंतरिक भावदशाओं का है; उसका बाहर की दुनियां से कुछ लेना-देना नहीं है। दूसरों पर निर्भर ही क्यों करो? और ये सारी बातें दूसरों पर निर्भर करती हैं; तुम अपने से ही निर्भर हो रहो।
जब तुम इस परतंत्रता से बचते हो तभी तुम निजतापूर्ण बनते हो- और निजता को पाना, अपने पैरों पर पूर्ण स्वतंत्रता में खड़ा होना, अपने स्रोतों से पीना ही वे बातें हैं जो सचमुच व्यक्ति को केंद्रित करती हैं, जड़ें प्रदान करती हैं। और वही उसकी परम खिलावट का प्रारंभ है।

सरलता
यदि बुद्धिमत्ता सरल, निर्दोष बनी रहे, तो वह दुनिया में संभवतः सुंदरतम बात है। लेकिन यदि बुद्धिमत्ता सरलता के विरोध में हो, तो वह चालाकी के सिवा और कुछ नहीं; तब वह बुद्धिमत्ता नहीं है।
जिस क्षण सरलता विदा हो जाती है, बुद्धिमत्ता की आत्मा चली जाती है, तब वह केवल लाश है। उसे केवल पांडित्य कहना बेहतर है। वह तुम्हें बड़ा बौद्धिक बना सकती है, लेकिन वह तुम्हारे जीवन को रूपांतरित नहीं करेगी और वह तुम्हें अस्तित्त्व के रहस्यों के प्रति खोलेगी भी नहीं।
ये रहस्य केवल बुद्धिमान बालक के लिए ही खुलते हैं। और वास्तविक बुद्धिमान व्यक्ति अपनी अंतिम सांस तक अपने बचपन को जिंदा रखता है। वह उसे कभी खोता नहीं- उस विमोहक-विमुग्ध भाव को जो बच्चा महसूस करता है पक्षियों को देखते हुए, फूलों को देखते हुए, आकाश को देखते हुए...  बुद्धिमत्ता को भी ऐसे ही होना है, बच्चे के समान।

सत्य
यह अजीब बात है कि सत्य लोकतांत्रिक नहीं है। सत्य क्या है यह मतों द्वारा नहीं तय किया जाना है; अन्यथा हम कभी किसी सत्य तक आ ही न सकें। लोग तो उसी के लिए मत देंगे जो सुविधाजनक है- और झूठ बड़े सुविधाजनक होते हैं क्योंकि उनके बारे में तुम्हें कुछ करना नहीं है, तुम्हें केवल विश्वास भर करना है उनमें।
सत्य के लिये तो महान श्रम, खोज और खतरों से गुजरना होता है, और उसके लिये तुम्हें अकेले उस रास्ते पर चलना होता है जिस पर पहले कोई नहीं चला है।
सत्य हमेशा शुद्ध, नग्न और अकेला है। सत्य में बड़ा सौंदर्य है, क्योंकि सत्य ही जीवन का, प्रकृति का, अस्तित्त्व का सार तत्व है।
मनुष्य को छोड़कर कोई और झूठ नहीं बोलता। गुलाब की झाड़ी झूठ नहीं बोल सकती। उसे गुलाब ही पैदा करने हैं; वह गेंदे नहीं पैदा कर सकती- वह छल नहीं कर सकती। जो वह है उससे अन्यथा होना उसके लिये संभव नहीं है। मनुष्य को छोड़कर सारा अस्तित्त्व सत्य में जीता है।
सत्य पूरे अस्तित्त्व का धर्म है- मनुष्य को छोड़कर। और जिस पल कोई मनुष्य भी अस्तित्त्व का हिस्सा होने का निर्णय लेता है, सत्य उसका धर्म हो जाता है।
और यह सबसे बड़ी क्रांति है जो किसी को घट सकती है। यह महिमावान क्षण है।
सत्य को वस्तु की तरह मत सोचो- वह वस्तु नहीं है। वह वहां नहीं है- वह यहां है।
जब तक तुम अपने प्राणों के सत्य को नहीं जानते, तुम जीवन के महामांगलिक रूप को नहीं महसूस कर पाओगे। अस्तित्त्व के होने मात्र से तुम आनंदातिरेक से नहीं छलक पाओगे।
यदि तुम सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम स्वयं को इस विराट सुव्यवस्था से; अस्तित्त्व से नहीं जोड़ पाओगे- जो कि तुम्हारा घर है। उसने तुम्हें जन्म दिया है, और उसे तुमसे विशाल आशायें हैं कि तुम चेतना के उच्चतम शिखर तक उठोगे, क्योंकि तुम्हारे माध्यम से अस्तित्त्व चैतन्य हो सकता है। दूसरा कोई उपाय नहीं है।

परिपक्वता
परिपक्व व्यक्ति के गुण बड़े अजीब हैं। पहली तो बात कि वह व्यक्ति नहीं है, वह मैं के रूप में बचा ही नहीं।
उसके पास एक उपस्थिति होती है, लेकिन वह व्यक्ति नहीं है।
दूसरी बातः वह बच्चों की भांति होता है- सरल और निर्दोष। इसीलिये मैंने कहा कि परिपक्व व्यक्ति के गुण बड़े अजीब हैं, क्योंकि परिपक्वता से ऐसा बोध होता है, जैसे कि वह काफी अनुभवी है, बड़ा-बूढ़ा है।
शारीरिक रूप से वह बूढ़ा हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक रूप से एक भोला बच्चा है। उसकी परिपक्वता केवल जीवन से प्राप्त अनुभव ही नहीं है- तब वह बच्चा नहीं होगा, तब वह एक उपस्थिति नहीं होगा। वह एक अनुभवी व्यक्ति होगा- जानकार लेकिन परिपक्व नहीं।
परिपक्वता का जीवन के अनुभवों से कोई संबंध नहीं। इसका संबंध तुम्हारी आंतरिक यात्रा से, तुम्हारे अंतर के अनुभवों से है।
जितना व्यक्ति स्वयं में गहरा जाता है, उतना ही ज्यादा परिपक्व वह होता है। जब वह अपने अस्तित्त्व के केंद्र तक ही पहुंच जाता है, तब वह पूर्णतः परिपक्व है। लेकिन तब व्यक्ति खो जाता है, केवल एक उपस्थिति बचती है; मैं खो जाता है, मौन बचता है। ज्ञान खो जाता है, भोलापन बचता है।
मेरे लिये, परिपक्वता आत्म-साक्षात्कार का ही दूसरा नाम है। तुमने अपनी संभावनाओं को पूरा कर दिया है। वह एक वास्तविकता बन गयी है। बीज अपनी लंबी यात्रा तय करके खिल गया है।
परिपक्वता में एक सुगंध है। वह व्यक्ति को एक महान सौंदर्य प्रदान करती है। वह बुद्धिमत्ता देती है, सबसे तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता। वह व्यक्ति को केवल प्रेम बना देती है। उसका कृत्य प्रेम है, उसका अ-कृत्य प्रेम है। उसका जीवन प्रेम है, उसकी मृत्यु प्रेम है।
वह बस प्रेम का एक फूल है।

आधुनिक संगीत
आधुनिक संगीत ने अपनी गरिमा खो दी है क्योंकि वह अपने मूल अभिप्राय को भूल गया है। वह अपने स्रोत को भूल गया है। वह यह जानता ही नहीं है कि उसका ध्यान से कोई संबंध है। और यही दूसरी कलाओं के सबंध में भी सच है। वे सब की सब अ-ध्यानी बन गई हैं, और वे सब की सब लोगों को पागलपन में ले जा रही हैं।
कलाकार स्वयं के लिये खतरा पैदा कर रहा है और वह अपने श्रोताओं के लिये भी खतरा पैदा कर रहा है। वह एक चित्रकार हो सकता है, लेकिन उसकी चित्रकला भी विक्षिप्त है; वह ध्यानपूर्ण दशा से नहीं निकली है।

मन की समस्या
मन का सारा काम ही विभाजित करते जाने का है। हृदय का काम उस जोड़ने वाली कड़ी को देखने का है जिसके बारे में मन पूरी तरह अंधा है।
सामान्य श्रेणी का मन पागल नहीं हो सकता। शांति और मौन की बात किसी को आकर्षक नहीं लगती। यह तुम्हारी व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह मानव मन की ही समस्या है, क्योंकि शांत और स्थिर होने और मौन होने का अर्थ हैः अ-मन की दशा में होना।
मन शांत नहीं हो सकता। उसे सतत विचार, सतत चिंता चाहिये। मन बाइसाइकिल के समान काम करता हैः यदि तुम पैडल मारते जाओ, वह चलती जाती है। जैसे ही तुम पैडल मारना बंद करो, तुम गिरने वाले हो। मन दो चक्के का वाहन है, बाइसिकल के जैसा; और तुम्हारे विचारों का चलना सतत पैडल मारने जैसा है।
यदि कभी तुम थोड़े-बहुत मौन भी हो, तुम तुरंत चिंता करने लगते हो, ‘मैं मौन क्यों हूं?’ चिंता पैदा करने के लिये, विचार पैदा करने के लिये कोई भी चीज काम दे जाएगी, क्योंकि मन केवल एक ही तरह से टिक सकता है- भागते हुये, सदा ही किसी बात के पीछे अथवा किसी बात से भागते हुये, लेकिन सदा भागते हुए। भागने में ही मन है।
जिस पल तुम रुक जाते हो, मन विदा हो जाता है।
समय सदा अनिश्चित है। यही मन की कठिनाई हैः मन निश्चितता चाहता है- और समय सदा अनिश्चित है।
तो जब कभी संयोग से मन को निश्चितता का थोड़ा भी अवकाश मिलता है, वह स्थिरता महसूस करता है; एक तरह का काल्पनिक स्थायित्व उसे घेर लेता है। वह अस्तित्त्व और जीवन के वास्तविक स्वभाव को भूलने सा लगता है। वह एक प्रकार के स्वप्नलोक में जीना शुरू कर देता है, जो वास्तविकता जैसा लगने लगता है।
मन को यह सब बड़ा अच्छा लगता है। क्योंकि मन बदलाहट से सदा डरता है। उसके डरने का कारण बड़ा सरल है, किसे पता बदलाहट क्या सामने लाये?- अच्छा या बुरा। एक बात तय है कि बदलाहट तुम्हारी कल्पनाओं, अपेक्षाओं, सपनों की दुनिया को अव्यवस्थित कर देगी।
मन समुद्र के किनारे खेलते हुए उस बच्चे के समान है, जो रेत के महल बना रहा है। एक पल के लिये लगता है कि महल तैयार हो गया है- लेकिन वह खिसकती हुई रेत से बना है। किसी भी पल हवा का एक छोटा-सा झोंका और वह नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। लेकिन हम स्वयं उस स्वप्न महल में रहना शुरू कर देते हैं। हम महसूस करने लगते हैं कि हमें कुछ ऐसा मिल गया है जो हमारे साथ सदा रहने वाला है।
लेकिन समय मन को सतत बाधा पहुंचाए जाता है। यह कठोर लगता है, लेकिन यह सचमुच अस्तित्व की करुणा है कि वह हमेशा तुम्हारे साथ लगा रहता है। वह तुम्हें आभासों में से वास्तविकताएं नहीं बनने देता। वह मुखौटों को तुम्हारा मौलिक वास्तविक चेहरा समझ लेने का तुम्हें मौका नहीं देता।

विवाह
हम हर तरह से उपाय करते हैं अपने अजनबी होने के एहसास को भूलना चाहते हैं इसलिए हमने सभी तरह के क्रिया-कांड निर्मित किये हैं। एक पुरुष किसी स्त्री से विवाह करता है; और विवाह क्या है? बस एक क्रिया-कांड। लेकिन क्यों? क्योंकि वे अपने अजनबीपन को भुलाकर किसी तरह एक सेतु निर्मित करना चाहते हैं।
वह सेतु कभी निर्मित नहीं होता; वे केवल कल्पना करते हैं कि अब उनमें से एक पति है, एक पत्नी है, लेकिन रहते वे अजनबी ही हैं। अपने पूरे जीवन वे साथ-साथ रहेंगे, लेकिन वे अजनबी के अलावा अन्य कुछ नहीं होंगे, क्योंकि कोई व्यक्ति किसी दूसरे के अकेलेपन में प्रवेश नहीं कर सकता।
तुम केवल उसी दशा में अजनबी नहीं रहोगे यदि तुम मेरे अकेलेपन में प्रवेश कर सको, या मैं तुम्हारे अकेलेपन में प्रवेश कर सकूं...  जोकि संभव नहीं है, अस्तित्त्वगत रूप से संभव नहीं है। हम उतने निकट आ सकते हैं जितना संभव हो;
लेकिन जितने निकटतर हम होते जाते हैं उतना ही ज्यादा हमें अपने अजनबीपन का बोध बढ़ता जाएगा, क्योंकि उतना ही ज्यादा ठीक से हम देख पाएंगे दूसरा मुझसे अज्ञात है, और शायद अज्ञेय।

भयः मानसिक कवच

सभी के पास एक प्रकार का कवच है।
उसके कारण हैं। पहली बात, बच्चा इतना असहाय जन्म लेता है दुनिया में जिसके बारे में वह कुछ नहीं जानता। स्वभावतः वह उस अज्ञात से भयभीत है जो उसके सामने हैं।
वह अभी भी परिपूर्ण सुरक्षा और बचाव के उन नौ महीनों को नहीं भूला है, जहां कोई समस्या न थी, कोई जिम्मेदारी न थी, कल की कोई चिंता न थी। हमारे लिये ये नौ महीने हैं, लेकिन बच्चे के लिए यह शाश्वत समय है। वह कैलेन्डर के बारे में कुछ नहीं जानता। उसे घंटे, मिनट, दिनों और महीनों के बारे में कोई खबर नहीं। उसने बिना किसी जिम्मेदारी के सुरक्षा और निश्चिंतता के एक शाश्वत समय को जीया है।
और फिर अचानक वह इस अनजान जगत में फेंक दिया गया है, जहां वह हर बात में दूसरों पर आश्रित है। स्वाभाविक है कि वह भयभीत महसूस करेगा। हर व्यक्ति उससे बड़ा और शक्तिशाली है, और वह दूसरों की मदद के बिना जी नहीं सकता। वह जानता है कि वह आश्रित है; उसने अपनी स्वाधीनता, स्वतंत्रता खो दी है।
एक बिंदु पर कवच जरूरी हो सकता है; शायद जरूरी है। लेकिन जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, यदि तुम केवल उम्र में ही नहीं बढ़ रहे हो, बल्कि समझ में भी बढ़ रहे हो- परिपक्वता में बढ़ रहे हो- तब तुम्हें दिखायी पड़ने लगेगा कि क्या तुम अपने साथ लिए हुए हो।
गौर से देखो और तुम भय को इस सबके पीछे पाओगे। कोई भी चीज जो भय से जुड़ी हुई है, समझदार और परिपक्व व्यक्ति उस सबसे अपना नाता तोड़ लेता है। ऐसे ही परिपक्वता पैदा होती है। अपने सारे कृत्यों को देखो, अपने सारे विश्वासों को देखो और खोजो कि क्या वे सत्य में, अनुभव में आधारित हैं अथवा भय में आधारित हैं। और कोई चीज जो भय में आधारित है, उसे तत्क्षण बिना दूसरी बार उसके बारे में सोचे, छोड़ देना है। वह तुम्हारा कवच है।
तुम्हारा मानसिक कवच तुमसे छीना नहीं जा सकता- तुम उसके लिये लड़ोगे। उसे छोड़ने के लिये केवल तुम ही कुछ कर सकते हो; और वह यह कि उसके हर हिस्से पर नजर डालना। यदि वह भय में आधारित है तो उसे छोड़ दो। यदि वह तर्क में, अनुभव में- समझ में आधारित है, तो वह छोड़ने की चीज नहीं है बल्कि अपने प्राणों का हिस्सा बना लेने की चीज है।
लेकिन तुम्हें अपने कवच में एक भी चीज ऐसी नहीं मिलेगी जो अनुभव पर आधारित हो। वे केवल भय ही भय हैं, आदि से अंत तक। और हम भयभीत ही जीते जाते हैं; वही कारण है कि हम अपने सारे अन्य अनुभवों में जहर घोलते जाते हैं। हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, लेकिन भय के कारण। वह नष्ट करता है, जहर घोलता है। हम सत्य को खोजते हैं, लेकिन यदि यह भय के कारण है तो वह तुम्हें मिलने वाला नहीं है।
जो कुछ भी तुम करो, एक बात याद रखोः भय से तुम्हारा विकास नहीं होने वाला, तुम केवल सिकुड़ोगे और मरोगे। भय मृत्यु की सेवा में रत है।
निर्भय व्यक्ति के पास वह सब कुछ होता है, जो जीवन तुम्हें उपहार के रूप में देना चाहता है। अब कोई बाधा न रहीः तुम पर उपहार बरसा दिये जाएंगे, और जो कुछ भी तुम कर रहे होओगे, तुममें एक बल होगा, एक शक्ति, एक सुनिश्चितता, एक गहन साधिकार भाव।

तादात्म्य
तुम्हें जो समझना है वह है तादात्म्य की प्रक्रिया कि किस प्रकार कोई उस चीज से तादात्म्य जोड़ लेता है जो वह है ही नहीं। अभी तुम मन से तादात्म्य किये हुए हो। तुम सोचते हो तुम मन हो। वहीं से भय पैदा होता है। यदि तुम मन से तादात्म्य किये हुए हो तो स्वभावतः यदि मन रुकता है, तो तुम समाप्त, तुम बचते ही नहीं। और मन के पार का तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
असलियत यह है कि तुम मन नहीं हो, तुम मन के पार कुछ हो; इसलिये मन का रुकना नितांत आवश्यक है ताकि पहली बार तुम जान सको कि तुम मन नहीं हो- क्योंकि तुम फिर भी हो।
मन तो गया, लेकिन तुम अभी भी हो; और पहले से ज्यादा आनंदित, ज्यादा महिमापूर्ण, ज्यादा तेजस्वी, ज्यादा चैतन्य, ज्यादा आत्मवान।

अपरिग्रह
जब तुम अपने आनंद में किसी को सहभागी बनाते हो, तब तुम किसी के लिये कैद नहीं निर्मित करतेः तुम सिर्फ देते हो। तुम धन्यवाद या आभार भी नहीं चाहते, क्योंकि तुम दे रहे हो- कुछ पाने के लिये नहीं, धन्यवाद पाने के लिए भी नहीं। तुम दे रहे हो क्योंकि तुम इतने भरे हो, तुम्हें देना ही है।
तो यदि कोई धन्यवादपूर्ण है, तो तुम उस व्यक्ति के प्रति धन्यवादपूर्ण हो जिसने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया, जिसने तुम्हारे उपहार को स्वीकार किया। उसने तुम्हारा बोझ हलका किया, उसने तुम्हें अपने पर बरसने का अवसर दिया।
और जितना ज्यादा तुम बांटते हो, जितना ज्यादा तुम देते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हारे पास बढ़ता है। तो यह तुम्हें कंजूस नहीं बनाता, यह तुममें भय नहीं पैदा करता कि ‘हो सकता है मेरे पास न रह जाये।’ सच तो यह है कि जितना ज्यादा तुम इसे देते हो उतना ही ज्यादा ताजा स्वच्छ जल उन झरनों से भीतर एकत्र होने लगता है जिनके बारे में तुम्हें पहले खबर ही न थी।
यदि पूरा अस्तित्त्व एक है, और यदि अस्तित्त्व वृक्षों की, पशुओं की, पहाड़ों की, महासागरों की- घास के छोटे से छोटे तिनके से लकर बड़े से बड़े महासूर्यों तक- की फिकर करता जाता है, तो यह तुम्हारी भी फिकर करेगा।
तो परिग्रही क्यों बनो? परिग्रह केवल एक ही बात दर्शाता है- कि तुम अस्तित्त्व पर भरोसा नहीं कर सकते। तुम्हें अपने लिये अलग से सुरक्षा की, भलाई की व्यवस्था करनी पड़ती है; तुम अस्तित्त्व पर भरोसा नहीं कर सकते।
अपरिग्रह मूलरूप से अस्तित्त्व पर भरोसा है।
परिग्रह की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि सर्व पहले से ही तुम्हारा है।

केवल अपने हृदय की सुनो
और जीवन के आधारभूत नियम को हमेशा याद रखोः यदि तुम किसी की पूजा करते हो, तो एक न एक दिन तुम बदला लेने वाले हो।
तुम्हें सजग रहना है किसी द्वारा संचालित न किये जाने के लिये, चाहे उनके इरादे कितने ही नेक हों।
तुम्हें अपने आपको इतने सारे भला चाहने वालों से, भला करने वालों से बचना है, जो तुम्हें लगातार ऐसे होने की, वैसे होने की सलाह दे रहे हैं। उनको सुनो और उन्हें धन्यवाद दो। उनका आशय कोई नुकसान पहुंचाना नहीं है- लेकिन पहुंचता नुकसान ही है।
केवल अपने हृदय की सुनो।
वही तुम्हारा एकमात्र शिक्षक है।
हर बार जब किसी को कुछ सत्य का पता चलता है, तो हृदय में नृत्य फूट पड़ता है। हृदय की एकमात्र गवाह है। सत्य का।
और वह शब्दों से गवाही नहीं दे सकता। हृदय अपने ही ढंग से गवाही दे सकता है; प्रेम द्वारा, नृत्य द्वारा, संगीत से- शब्दरहित। वह बोलता है, लेकिन वह भाषा और तर्क में नहीं बोलता।

स्वयं का स्वीकार
लोगों ने तुम्हारे बारे में मत बनाये हैं, और तुमने बिना किसी छानबीन के उनकी धारणाओं को स्वीकार कर लिया है। तुम सब तरह के लोगों द्वारा तुम्हारे बारे में बनाये गये मतों से पीड़ित हो, और तुम इन मतों को दूसरे व्यक्तियों पर फेंक रहे हो। यह खेल सारी सीमाओं को पार कर गया है, और पूरी मनुष्यता इससे पीड़ित है।
यदि तुम इसके बाहर आना चाहो, तो पहली बात हैः अपने बारे में राय मत बनाओ। अपनी अपूर्णता को, अपनी असफलताओं को, अपनी गल्तियों को, अपनी कमजोरियों को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करो। उससे विपरीत का दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं है। बस स्वयं हो जाओ, कि ‘ऐसा मैं हूं- भयग्रस्त। मैं अंधेरी रात में नहीं जा सकता। मैं घने जंगल में नहीं जा सकता।’ इसमें बुरा क्या है? यह तो बस मानवीय है।
एक बार तुम स्वयं को स्वीकार कर लो, तो तुम दूसरों को भी स्वीकार कर सकोगे, क्योंकि तब तुम्हारे पास एक स्पष्ट अंतर्दृष्टि होगी कि वे भी उन्हीं बीमरियों से ग्रसित हैं। और तुम्हारा उन्हें स्वीकार करना उन्हें स्वयं को स्वीकार करने में मदद करेगा।
हम पूरी प्रक्रिया को उलटा कर सकते हैंः तुम स्वयं को स्वीकार करते हो, वह तुम्हें दूसरों को स्वीकार करने में सक्षम बनाता है। और क्योंकि कोई उन्हें स्वीकार करता है, उन्हें स्वीकार करने का सौंदर्य पहली बार पता चलता है- कितना शांतिदायी अनुभव है यह- और वे दूसरों को स्वीकार करना शुरू कर देते हैं।
यदि पूरी मानवता इस बिंदु पर पहुंच जाये, जहां प्रत्येक व्यक्ति जैसा वह है वैसा ही स्वीकारा जाता है, तो करीब-करीब नब्बे प्रतिशत दुख तो खुद ही विदा हो जायेंगे- उनका कोई आधार नहीं है- और तुम्हारे हृदय अपने आप खुल जायेंगे, तुम्हारा प्रेम बहने लगेगा।

संस्कार, एक रंगीन चश्मा
तुम दुनिया को वैसी ही नहीं देखते जैसी वह है। तुम उसे वैसी देखते हो जैसी तुम्हारा मन तुम्हें विवश करता है उसे देखने के लिये। पूरी दुनिया में यही हो रहा है।
भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न तरह से संस्कारित हैं; और मन संस्कारों के अलावा अन्य कुछ भी नहीं है। वे चीजों को अपने-अपने संस्कारों के अनुसार देखते हैं- वह संस्कार एक प्रकार का रंगीन चश्मा है।
हम भेद खड़े करते हैं; हम किसी को श्रेष्ठ बनाते हैं; किसी को हीन पुरुष ज्यादा शक्तिशाली है, स्त्रियां कम शक्तिशाली हैं; कोई ज्यादा बुद्धिमान है, कोई कम। जातियां दावा करती रही हैं कि वे ईश्वर के चुने हुये लोग हैं। हर धर्म दावा कर रहा है कि उनका ग्रंथ स्वयं ईश्वर द्वारा लिखा गया है। ये सब बातें, पर्त-दर पर्त, तुम्हारे मन को निर्मित करती हैं।
जब तक तुम पूरे मन को ही उठाकर किनारे न रख दो और दुनिया को सीधे ही, अपने चैतन्य से तुरंत, उसी क्षण न देखने लगो, तुम किसी सत्य को कभी देख न पाओगे।
इस दुनिया में सबसे बड़ा साहस है मन को हटाकर किनारे रख देना। सबसे ज्यादा साहसी व्यक्ति वही है जो दुनिया को मन की आड़ के बिना वह जैसी है वैसी ही देख सकता है। यह आत्यंतिक रूप से भिन्न है, नितांत सुंदर है। न कोई है जो श्रेष्ठ है, न कोई है जो हीन है- भेद है ही नहीं।

बुद्धिमत्ता
सामान्यतः हम सोचते हैं कि बौद्धिक लोग बुद्धिमान होते हैं। वह सच नहीं है। बौद्धिक लोग केवल मुर्दा शब्दों पर जीते हैं। बुद्धिमत्ता ऐसा नहीं कर सकती। बुद्धिमत्ता शब्दों को छोड़ देती है- वही तो लाश है- और उनकी जीवंत तरंग को ले लेती है।
बुद्धिमान व्यक्ति का मार्ग हृदय का मार्ग है, क्योंकि हृदय को शब्दों में रस नहीं है, उसकी उत्सुकता उस रस में है जो शब्दों के पात्रों में आता है। वह पात्रों को इकट्ठा नहीं करता, वह तो बस रस को पी लेता है और पात्रों को फेंक देता है।

धार्मिक व्यक्ति
मेरे लिए, धार्मिक व्यक्ति वह नहीं है जो प्रकृति के ऊपर है, बल्कि वह है जो पूरी तरह प्राकृतिक है, पूर्णरूप से प्राकृतिक है, जिसने प्रकृति की उसके सभी आयामों में खोज कर ली है, जिसने कुछ भी अनखोजा नहीं छोड़ा है।

स्वाभाविक मृत्यु
नैसर्गिक मृत्यु को उपलब्ध होने के लिये व्यक्ति को नैसर्गिक जीवन जीना पड़ता है।
नैसर्गिक मृत्यु चरमोत्कर्ष है। नैसर्गिक रूप से जिए गये जीवन का, बिना किसी अंतर्बाधा के, बिना किसी अवसाद-निराशा के- वैसे ही जैसे पशु जीते हैं, पक्षी जीते हैं, वृक्ष जीते हैं, बिना बंटे हुए- एक समर्पण का जीवन, प्रकृति को तुम्हारे भीतर से बहने देते हुए तुम्हारी और से बिना कोई बाधा डाले, जैसे कि तुम हो ही नहीं और जीवन अपने आप से बह रहा है।
तुम जीवन को नहीं जीते, बल्कि जीवन तुम्हें जीता है; तुम गौण हो। तब इसका चरमोत्कर्ष होगी सहज- स्वाभाविक मृत्यु।
मृत्यु तुम्हारे समूचे जीवन के आत्यंतिक चरमोत्कर्ष को, परम उंचाई को प्रतिबिंबित करेगी। वह उस सबका संघनित रूप होगी जो तुमने जीया है।
तो दुनिया में केवल बहुत थोड़े से लोग सहजता से भरे हैं, क्योंकि बहुत थोड़े से लोग सहजता से जीये हैं।
हम मृत्यु से भयभीत हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि हम मर जाने वाले हैं, और मरना हम चाहते नहीं। हम अपनी आंखें बंद रखना चाहते हैं। हम एक ऐसी भावदशा में जीना चाहते हैं, जैसे कि, हर व्यक्ति मर जाने वाला है, लेकिन मैं नहीं। यही हर व्यक्ति का सामान्य मनोविज्ञान हैः ‘मैं नहीं मरने वाला।’
मृत्यु की बात उठाना ही बहिष्कृत है। लोग डर जाते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपनी मौत याद आ जाती है। वे छोटी-मोटी बातों में इतने उलझे हैं, और मृत्यु आ रही है; वे चाहते हैं कि छोटी-मोटी बातें उन्हें व्यस्त रखें। यह एक पर्दे का काम करता हैः वे नहीं मरने वाले, कम से कम अभी तो नहीं, बाद में ‘जब मृत्यु आयेगी तब देखा जायेगा।’
जीवन को उसकी पूर्णता में स्वीकार करने में तुमने मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया; वह केवल एक विश्राम है। पूरे दिनभर तुम काम करते रहे हो, और रात में तुम आराम करना चाहोगे या नहीं? रोज नींद तुम्हें ताजगी से भर देती है, नवजीवन दे देती है, तुम्हें फिर से ज्यादा बेहतर ढंग से, ज्यादा निपुणता से कार्य करने लायक बना देती है। सारी थकान मिट जाती है, तुम फिर युवा हो जाते हो।
मृत्यु यही काम थोड़े और गहरे तल पर करती है। वह शरीर को बदल देती है, क्योंकि अब शरीर को केवल साधारण नींद द्वारा नवजीवन नहीं दिया जा सकता; वह बहुत पुराना हो चुका है। उसे अब ज्यादा प्रबल बदलाहट की जरूरत है, उसे नये शरीर की जरूरत है। तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को नये आकार की जरूरत है। मृत्यु बस एक नींद है ताकि तुम आसानी से नये आकार में जा सको। तुम अपनी मृत्यु को जैसा चाहते हो, पहले अपने जीवन को भी वैसा ही होने दो- क्योंकि मृत्यु जीवन से अलग नहीं है।
मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, केवल एक बदलाहट है।
जीवन चलता जाता है, चलता रहा है, चलता रहेगा। लेकिन रूप नष्ट हो जाते हैं, बूढ़े एक आनंद न रहकर, बोझ बन जाते हैं, तब बेहतर है कि जीवन को नया, ताजा रूप मिले।
मृत्यु वरदान है, वह अभिशाप नहीं है।

भय
भय के आधार पर जीने वाला व्यक्ति भीतर हमेशा कंपता रहता है। वह सतत पागल होने के करीब रहता है, क्योंकि जीवन बड़ा है, और यदि तुम सतत डरे-डरे हो- तो फिर सब तरह के भय हैं।
तुम एक लंबी सूची बना सकते हो और तुम्हें आश्चर्य होगा कि इतने सारे भय हैं, और फिर भी तुम जीवित हो! चारों और कितने संक्रमण हैं, बीमारियां, खतरे, आंतकवादी, अपहरणकर्त्ता- और इतना छोटा-सा जीवन। और अंत में मृत्यु है, जिसे तुम टाल नहीं सकते। तुम्हारा पूरा जीवन अंधकारमय हो जायेगा।
भय को छोड़ो। भय तुम्हारे द्वारा बचपन में अचेतन रूप से पकड़ी गयी चीज है। अब चेतन रूप से उसे छोड़ो और परिपक्व बनो। और तब जीवन एक प्रकाश हो सकता है जो तुम्हारे विकसित होने के साथ-साथ गहराता जाता है।

जिम्मेदारी
जिम्मेदारी खेल नहीं है। यह जीने का सर्वाधिक सच्चा ढंग है- और खतरनाक भी।
मेरे लिए, आज्ञाकारी न होना बड़ी क्रांति है। इसका अर्थ यह नहीं कि हर स्थिति में एकदम नहीं कहना है। इसका इतना ही अर्थ है कि तय करना कि इसे करना है या नहीं, इसे करना कल्याणकारी होगा या नहीं। यह है जिम्मेदारी स्वयं पर लेना।

असली ज्ञान
बुद्धि है सोच-विचार करना- और चेतना की खोज निर्विचार की स्थिति में होती है, इतने निपट मौन में कि एक विचार भी बाधा देने नहीं आता। उस मौन में तुम अपनी अंतरात्मा को ही खोज लेते हो- वह आकाश जैसी विराट है। और उसे जानना ही वास्तव में कुछ अर्थपूर्ण जानना है; अन्यथा तुम्हारा सारा ज्ञान कचरा है।
तुम्हारा ज्ञान काम का हो सकता है, उपयोगी, लेकिन वह तुम्हें तुम्हारे अंतस के रूपांतरण में मदद करनेवाला नहीं। वह तुम्हें परितृप्ति तक, संतुष्टि तक, बुद्धत्व तक नहीं ला सकता, उस बिंदु तक जहां तुम कह सको, ‘मैं घर आ गया।’
कहीं कोई घर नहीं है, जब तक उसे हम अपने भीतर ही न खोज लें।

चुनाव रहित बनो
सर्वाधिक मूलभूत बात याद रखने की यह है कि जब तुम अच्छा महसूस कर रहे हो, आनंद की मनोदशा में हो, तो यह सोचने लगो कि यह तुम्हारी स्थायी दशा रहने वाली है।
उस क्षण को आनंद से जीओ, जितनी प्रफुल्लता से हो सके उतनी प्रफुल्लता से, यह भलीभांति जानते हुए कि यह आया है और यह जायेगा- ठीक जैसे हवा का एक झोंका अपनी सारी सुगंधों और ताजगियों के साथ तुम्हारे घर में आता है और दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाता है।
यदि तुम अपने उन आनंदोल्लास के क्षणों को स्थायी बनाये रखने की भाषा में सोचने लगो, तो तुमने उन्हें नष्ट करना शुरू ही कर दिया। जब वे आते हैं, अनुगृहीत होओ; जब वे जाते हैं, अस्तित्त्व के प्रति धन्यवादपूर्ण होओ। खुले रहो। ऐसा बहुत बार होगा। निर्णयात्मक बनो, चुनावकर्त्ता मत बनो, चुनाव रहित बने रहो।
हां, ऐसे क्षण होंगे जब तुम दुखी होगे। तो क्या? ऐसे लोग हैं जो दुखी हैं और जिन्होंने आनंद का एक क्षण भी नहीं जाना है। तुम सौभाग्यशाली हो।
अपने दुख में भी याद रखो कि वह स्थायी नहीं रहने वाला; वह भी बीत जायेगा। तो उससे भी बहुत ज्यादा परेशान मत होओ। निश्चिंत रहो। दिन और रात की भांति सुख के क्षण होते हैं और दुख के क्षण होते हैं। उन्हें प्रकृति के द्वैत के अंग के रूप में स्वीकार करो, चीजों के होने का ढंग ऐसा है इस रूप में स्वीकार करो।
और तुम केवल द्रष्टा हो; न तो तुम सुख बन जाते हो, न तुम दुख बन जाते हो। सुख आता है और जाता है, दुख आता है और जाता है। एक चीज हमेशा बनी रहती है, हमेशा-हमेशा- और वह है द्रष्टा, वह जो साक्षी है।

ध्यान
ध्यान का संबंध तुम्हारे अंतरतम के सारभूत केंद्र से है, जिसे पुरुष या स्त्री में विभाजित नहीं किया जा सकता।
चेतना सिर्फ चेतना है।
दर्पण दर्पण है- न वह पुरुष है, न वह स्त्री है- वह सिर्फ प्रतिबिंबित करता है। चेतना ठीक दर्पण के समान है, जो सिर्फ प्रतिबिंबित करती है।
तुम्हारे दर्पण को प्रतिबिंबित करने देना, ध्यान है- मन की क्रियाओं को प्रतिबिंबित करने देना, शरीर की क्रियाओं को प्रतिबिंबित करने देना। इससे फर्क नहीं पड़ता कि शरीर पुरुष का है या स्त्री का; इससे फर्क नहीं पड़ता कि मन किस तरह से काम कर रहा है- भावात्मक ढंग से या तर्कपूर्ण ढंग से। जो भी स्थिति है, चेतना को सिर्फ उसके प्रति सजग रहना है।
यह सजगता, यह होश ध्यान है।
धीरे-धीरे द्रष्टा में ज्यादा से ज्यादा स्थिर होते जाओ। दिन आयेंगे, रातें आयेंगी, जीवन आयेंगे, मृत्यु आयेगी, सफलता आयेगी, असफलता आयेगी। लेकिन यदि तुम द्रष्टा में स्थिर हो- क्योंकि वही एकमात्र वास्तविकता है तुम में, शेष सब गुजरती हुई घटनायें हैं।
एक क्षण के लिये जो मैं कह रहा हूं, उसे महसूस करने की कोशिश करो; सिर्फ द्रष्टा हो जाओ। किसी क्षण को पकड़ो मत क्योंकि वह सुंदर है, और किसी क्षण को दूर मत धकेलो क्योंकि वह दुखद है। ऐसा करना बंद करो। वैसा तुम जन्मों से करते आये हो, और अभी तक तुम सफल नहीं हुये हो, और ऐसे तुम कभी भी सफल नहीं होओगे।
पार जाने का एक मात्र उपाय है पार बने रहना; वह जगह खोज लेना जहां से तुम इन सारी बदलती हुई घटनाओं को बिना तादात्म्य स्थापित किये हुए देख सको।
अनुभव आता है और जाता है- उस पर भरोसा मत करना, जब तक कि तुम अनुभव करने वाले को ही न जान लो। कौन प्रसन्नता अनुभव कर रहा है? कौन दर्द अनुभव कर रहा है? कौन अच्छा अनुभव कर रहा है? कौन दुखी अनुभव कर रहा है? कौन है यह चेतना?
इस चक्रवात के अंतरतम केंद्र तक पहुंचने के लिये हर प्रयास किये जाने चाहिए। तुम्हारा पूरा जीवन बदलाहट का, बदलते दृश्यों का, बदलते रंगों का एक चक्रवात है; लेकिन चक्रवात के ठीक भीतर तुम्हारा शांत केंद्र है। वह तुम हो। ध्यान की सरलतम विधि बस साक्षीभाव का एक ढंग है। ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं, लेकिन साक्षीभाव इन सारी एक सौ बारह विधियों का सार तत्त्व है। तो जहां तक मेरा संबंध है, साक्षीभाव ही एकमात्र विधि है। वे एक सौ बारह विधियां साक्षीभाव के ही विभिन्न प्रयोग हैं।
ध्यान का सार तत्त्व, उसकी आत्मा है साक्षी होना सीखना।
तुम एक वृक्ष को देख रहे हो; तुम हो, वृक्ष है, लेकिन क्या तुम एक और बात को नहीं खोज सकते?- कि तुम वृक्ष को देख रहे हो, कि तुम्हारे भीतर एक साक्षी है जो तुम्हें वृक्ष को देखते हुए देख रहा है।
जगत केवल विषय और कर्त्ता में ही विभाजित नहीं है। इन दोनों के पार भी कुछ है- और वह पार ही ध्यान है।
ध्यान की सरलतम विधि बस साक्षीभाव का एक ढंग है। ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं, लेकिन साक्षीभाव इन सारी एक सौ बारह विधियों का सार तत्त्व है। तो जहां तक मेरा संबंध है, साक्षीभाव ही एकमात्र विधि है। वे एक सौ बारह विधियां साक्षीभाव के ही विभिन्न प्रयोग हैं।

तादात्म्यः मानसिक बीमारी
एक बार तुमने किसी धारणा से तादात्म्य बनाया कि तुम बीमार हो।
समस्त तादात्म्य मानसिक बीमारी है। दरअसल मन तुम्हारी बीमारी है।
मन को एक किनारे रख देना और सिर्फ मौन होकर वास्तविकता को देखना- बिना किसी विचार के, बिना किसी पूर्वधारणा के वास्तविकता से परिचित होने का स्वस्थ ढंग है। और तुम वास्तविकता को सर्वथा भिन्न पाओगे।
वास्तविकता को पा लेना तुम्हें बहुत-सी मूढ़ताओं से, बहुत से अंधविश्वासों से मुक्त करेगा। यह तुम्हारे हृदय को सब प्रकार के कचरे से साफ करेगा जो पीढ़ियों दर पीढ़ियों ने तुम में डाला है। बीमारियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलती जाती हैं; पूरा अतीत उसकी सारी मूढ़ धारणाओं सहित तुम्हें वसीयत में मिलता है। अन्यथा, कहीं कोई भेद नहीं है, कहीं कोई तुलना नहीं है।
और एक बार तुम तुलना करने की और भेदभाव की आदत से मुक्त हो जाओ, तो तुम हलके हो जाते हो, तुम्हारा पूरा अस्तित्त्व हलका हो जाता है। तुम सारा भारीपन खो देते हो। तुम इतने हलके हो जाते हो कि तुम अपने पंखों को खोल सकते हो और उड़ सकते हो।

द्रष्टाः एकमात्र वास्तविकता
सब चीजें आती-जाती हैं, लेकिन तुम रहते हो- तुम वास्तविकता हो। हर चीज केवल सपना है- सुंदर सपने हैं, दुःस्वप्न हैं। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि सपना सुंदर है या वह एक दुःस्वप्न है, महत्त्वपूर्ण सपना देखने वाला है।
वह द्रष्टा ही एकमात्र वास्तविकता है। द्रष्टा परम शाश्वत है।
उसकी थोड़ी-सी झलक और तुम्हारी सारी समस्याएँ विदा होने लगेंगी क्योंकि एक पूर्णतया नया परिप्रेक्ष्य, एक नयी दृष्टि एक जीवन का नया ढंग, चीजों को और लोगों को देखने का एक नया ढंग, स्थितियों का सामना करने का एक नया ढंग पैदा होने लगता है।
और द्रष्टा सदा मौजूद है, चौबीसों घंटेः जो कुछ भी तुम कर रहे हो या नहीं कर रहे हो, वह मौजूद है। वह सदियों से मौजूद है, शाश्वत काल से मौजूद है, प्रतीक्षारत कि तुम उसपर ध्यान दो। शायद क्योंकि वह सदा-सदा से मौजूद रहा है, यही कारण है कि तुम उसे भूल गये हो। प्रगट सदा भूला रहता है- इसे याद रखना।
जब तुम्हें अच्छा लग रहा हो, मस्ती छा रही हो, इसे याद करो।
जब तुम दुख में हो, विषाद में, इसे याद करो।
सभी हवाओं में, सभी मनोदशाओं में इसे याद किये चले जाओ। जल्दी ही तुम उसमें केंद्रित बने रहने में समर्थ होने लगोगे, उसे याद करने की जरूरत न पड़ेगी। और वह व्यक्ति के जीवन में महानतम दिन है।

जाग्रत व्यक्ति
मैं तुमसे कहता हूं कि जगत में न कहीं बुरा है, न कहीं बुरी शक्तियां हैं। केवल जागरण से भरे हुए लोग हैं और गहरी नींद में सोये हुए लोग हैं- और नींद में कोई शक्ति नहीं होती।
सारी ऊर्जा जाग्रत लोगों के पास होती है। और एक जाग्रत व्यक्ति सारी दुनिया को जगा सकता है। एक जला हुआ दीया बिना अपना प्रकाश खोये लाखों दीयों को जला सकता है। दुख तुम्हारे अहंकार को पोषण देता है- यही कारण है कि तुम दुनिया में इतने ज्यादा दुखी लोग देखते हो। मूल केंद्रीय बिंदु अहंकार है।

हृदय शुद्ध अस्तित्त्व है
मन यह या वह की भाषा में काम करता हैः या तो यह ठीक हो सकता है, या इसका विपरीत ठीक हो सकता है। जहां तक मन का, मन के तर्क का, मन की बुद्धि का संबंध है, दोनों साथ-साथ सही नहीं हो सकते।
यदि मन यह या वह है, तो हृदय दोनों-ओर है।
हृदय के पास तर्क नहीं है, लेकिन एक संवेदनशीलता, एक अंर्तज्ञान। वह देख सकता है कि न केवल दोनों साथ-साथ हो सकते हैं, सच तो यह है कि वे दो नहीं हैं। वह बस एक ही घटना है दो अलग-अलग पहलुओं से देखी गयी।
और यदि मन और हृदय के बीच एक को चुनने का प्रश्न खड़ा हो, तो हृदय सदा सही है, क्योंकि मन समाज का निर्मित किया हुआ है। उसे प्रशिक्षित किया गया है। वह तुम्हें समाज द्वारा मिला है, अतित्त्व द्वारा नहीं।
हृदय अप्रदूषित है।
हृदय शुद्ध अस्तित्त्व है; इसीलिये उसके पास संवेदनशीलता है।
हृदय की आंख से देखो और सारे विरोधाभास बर्फ की तरह पिघलने लगते हैं।

तुम अस्तित्त्व हो।
मैं तुमसे कहता हूंः अस्तित्त्व के साथ एक होने के लिए तुम्हें विदा होना होता है और अस्तित्त्व को रहने देना होता है। तुम्हें बस अनुपस्थित होना पड़ता है, ताकि अस्तित्त्व अपनी पूर्णता में प्रकट हो सके। लेकिन जिस व्यक्ति को मैं कह रहा हूं विदा होना है वह तुम्हारी वास्तविकता नहीं है, वह केवल तुम्हारा व्यक्तित्व है; वह केवल तुम्हारा ख्याल है। वास्तविकता में तो तुम अस्तित्त्व के साथ एक ही हो। तुम्हारे होने का और कोई ढंग हो ही नहीं सकता- तुम अस्तित्त्व हो।
लेकिन व्यक्तित्व एक प्रवंचना निर्मित करता है और तुम्हें लगता है कि तुम अलग हो। तुम अपने आपको अलग मान सकते हो- अस्तित्त्व तुम्हें पूरी स्वतंत्रता देता है, इतनी कि उसके खिलाफ होने की भी। तुम अपने आपको अलग सत्ता मान सकते हो, एक अहंकार। और वही है बाधा जो तुम्हें इस विराट में पिघलने से रोके हुए है। जो तुम्हें हर पल घेरे हुए है।
सूर्यास्त को देखते हुए, एक क्षण के लिये तुम अपना अलगाव भूल जाते होः तुम सूर्यस्त हो जाते हो। यही वह पल है, जब तुम उसका सौंदर्य महसूस करते हो। लेकिन जैसे ही तुम कहते हो कि सुंदर सूर्यस्त है, तुम अब उसे महसूस नहीं कर रहे हो; तुम अपनी अलग, बंद अहंकारमयी सत्ता में लौट आये हो। अब मन बोल रहा है।
और यह रहस्यों में से एक है कि मन बोल सकता है और जानता कुछ नहीं; और हृदय जानता सब कुछ है लेकिन बोल नहीं सकता। शायद बहुत ज्यादा जानना, बोलना कठिन कर देता है। मन इतना कम जानता है, उसके लिए बोलना संभव है। उसके लिये भाषा पर्याप्त है, लेकिन हृदय के लिये भाषा पर्याप्त नहीं है।
लेकिन कभी-कभी किसी क्षण के प्रभाव में- कोई तारों भरी रात, कोई सूर्योदय, कोई सुंदर फूल- क्षण भर के लिये तुम भूल जाते हो कि तुम अलग हो। और यह भूलना तक महत आनंद और सौंदर्य को प्रगट करता है।

मित्रता
मित्रता शुद्धतम प्रेम है। यह प्रेम का सबसे ऊंचा रूप है- जहां किसी चीज की मांग नहीं, कोई शर्त नहीं, जहां व्यक्ति बस देने का आनंद लेता है। व्यक्ति को मिलता बहुत है, लेकिन वह गौण है, और वह अपने आप घटता है।

परिवारः एक मानसिक घर
बेघरबार हो जाना स्वतंत्र हो जाना है, यह स्वतंत्रता है। इसका अर्थ है बाहरी किसी चीज से कोई आसक्ति नहीं, कोई ग्रस्तता नहीं; कि तुम्हें बाहरी किसी चीज से उत्साह पाने की कोई जरूरत नहीं बल्कि तुम्हारा उत्साह तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे उत्साह का स्रोत तुम्हारे पास है; तुम्हें और ज्यादा की जरूरत नहीं। तो जहां कहीं भी तुम बेघरबार हो, अजीब रूप से तुम घर में हो।
जो लोग घर की तलाश कर रहे हैं वे हमेशा निराशा में पड़ते हैं, और अंततः वे यह कहने वाले हैंः ‘हमारे साथ धोखा हुआ है, जीवन ने हमारे साथ धोखा किया है। किसी तरह इसने हमें घर खोजने की वासना पकड़ा दी है- और घर कहीं है नहीं, घर कहीं होता ही नहीं।’
हम हर संभव उपाय से घर बनाने की कोशिश करते हैंः कोई पति खोज लेता है, कोई पत्नी खोज लेता है, कोई बच्चे ले आता है दुनिया में...
व्यक्ति परिवार बनाने की कोशिश करता है- वह एक मानसिक घर है।
व्यक्ति केवल मकान ही नहीं बनाता, बल्कि उसे करीब-करीब एक जीवंत सत्ता, बना देने की कोशिश करता है।
व्यक्ति अपने सपनों के अनुरूप घर बनाने की कोशिश करता है, कि यह ऊष्मा की परिपूर्णता करने वाला है कि इस ठंडक में...
और यह विराट है, अस्तित्त्व का ठंडापन। समूचा अस्तित्त्व इतना ठंडा है, इतना तटस्थ है कि तुम अपने लिये एक छोटी-सी सुरक्षा तैयार करना चाहते हो, जहां तुम्हें लगे कि तुम्हारा ख्याल रखा जा रहा है कि कोई चीज तुम्हारी सुरक्षा कर रही है, कि यह कुछ ऐसा है जो तुम्हारा है, कि तुम मालिक हो, कि तुम बेघरबार बंजारे नहीं हो।
लेकिन वास्तविकता यह है कि इस तरह की धारणा तुम्हारे लिये दुख खड़ा करने वाली है, क्योंकि एक दिन तुम पाओगे कि पति जिसके साथ तुम रहे, पत्नी जिसके साथ तुम रहे- दोनों अजनबी ही हो। पचास साल साथ में रहने के बाद भी अजनबीपन विदा नहीं हो गया है; उलटे वह और गहरा हो गया है। तुम कम अजनबी थे उस प्रथम दिन जब तुम मिले थे।
जैसे-जैसे समय बीतता गया है और तुम साथ-साथ रहे हो, तुम और-और अजनबी होते गये हो, क्योंकि तुम एक-दूसरे को और-और जानने लगे हो- और अब तुम्हें तनिक भी समझ में नहीं आता कि दूसरा व्यक्ति कौन है? जितना ज्यादा तुमने जाना है, उतना कम तुम जानते हो। ऐसा लगता है कि जितना ज्यादा तुम व्यक्ति से परिचित हुए हो, उतने ही ज्यादा तुम इस बात के प्रति सजग हुए हो कि उसके बारे में तुम्हारा अज्ञान अपार है; इसे नष्ट करने का उपाय नहीं है।
तुम्हारे बच्चे- तुमने सोचा था कि वे तुम्हारे बच्चे हैं, और एक दिन तुम्हें पता चलता है कि वे तुम्हारे बच्चे नहीं है। तुम केवल एक मार्ग थे- जिससे होकर वे आये हैं। उनका अपना जीवन है- वे पूरी तरह अजनबी हैं। वे तुम्हारे नहीं है। वे अपना जीवन और अपने ढंग खोजेंगे।

कौन है तुम्हारे साथ?
कोई किसी के साथ नहीं है।
तुम सदा भीड़ में हो, लेकिन अकेले। अकेले अथवा भीड़ में, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता; घर में अथवा बंजारे- उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
अकेलापन अहंकार के लिये कभी भी आनंद नहीं है। अहंकार को तभी आनंद आता है, जब वह किसी पर अपना अधिकार जमाये, जब वह कह सके, ‘मैं तुमसे ऊपर हूं, श्रेष्ठ हूं।’
अहंकार अकेलेपन का कभी भी आनंद नहीं ले सकता; अकेलेपन में अहंकार पालने का क्या अर्थ है।

बिना सिद्धांतों कें जीओ
लोग सोचते हैं कि अपने सिद्धांतों में अटल रहना उन्हें एक प्रकार की दृढ़ता देता है। वे गलत हैं। यह बस उनकी सारी शक्ति को चूस लेता है। इस पृथ्वी पर वे सब कमजोर लोग हैं।
वे उस छोटे बच्चे की भांति हैं जो बडा़ तो हो गया है लेकिन अभी भी उन्हीं पाजामों का उपयोग किये जा रहा है जो बचपन में उसके लिए बनाए गये थे। अब वे उन पाजामों में बड़े अजीब दिख रहे हैं, वे तकलीफ भी महसूस कर रहे हैं। वे लगातार अपने पाजामों को ऊपर की और पकड़े हुए हैं क्योंकि वे बार-बार खिसके जा रहे हैं और लोग हंस रहे हैं।
नहीं, जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, तुम्हारे पाजामें भी बड़े होते जाने चाहिये। लेकिन, क्योंकि पाजामे बढ़ते नहीं, तुम्हें उन्हें बदलना होगा।
तो मुझे इसमें कोई समस्या नहीं दिखती। लेकिन मैं देख सकता हूं कि किसी एक व्यक्ति की हालत नहीं है, लाखों लोग इसी तरह जी रहे हैं। वे बड़े कठिन अनुशासन खड़े कर लेते हैं और फिर मुसीबत में पड़ते हैं। कोई दूसरा उन पर यह मुसीबत नहीं डाल रहा है- ये उनके अपने ही सिद्धांत। यदि वे उन्हें छोड़ते हैं, उन्हें बड़ा बुरा लगता है; यदि वे उन पर चलते हैं, वे दुखी होते हैं।
मैं तुम्हें स्पष्टतः बिना सिद्धांतों का जीवन सिखाता हूं, बुद्धिमत्ता का जीवन जो तुम्हारे आसपास की हर बदलाहट के साथ बदलता है, ताकि तुम्हारे पास कोई ऐसे सिद्धांत न हों जो बदलाहट में कठिनाई खड़ी करता है। पूरी तरह से सिद्धांतों से रहित हो जाओ और सिर्फ जीवन का अनुसरण करो, और तुम्हारे जीवन में कोई दुख न होगा।
हमें अतीत से नाता तोड़ लेना चाहिए- वह पूरी तरह से रुग्ण था। मनुष्य ने बड़ा ही रुग्ण जीवन जीया है। क्योंकि उसने एक बड़ा रुग्ण दर्शन निर्मित कर लिया था, और बड़ी गंभीरता से उसने उसका पालन किया।
हमें उस रुग्णता से नाता तोड़ लेना चाहिये- चाहे वह कितनी ही सन्मानीत हो, चाहे वह कितनी ही प्राचीन हो- और मनुष्य की समग्रता की पुर्नखोज करनी चाहिए।
और यह केवल तभी किया जा सकता है जब हम हलके-फुलकेपन को समादर के साथ जोड़ देंगे; जब हंसी-खेल, हल्का-फुल्कापन ही गहरा समादर हो; जब समादर तुम्हें मौत में, त्याग में न ले जाता हो, बल्कि हर्षोल्लास मनाने में नृत्य करने में, उत्सवपूर्ण होने में ले जाता हो।
योद्धा की भांति जीयो; इस पार या उस पार, लेकिन समझौते कभी नहीं।

एकांत और अहंकार

एकांत में अहंकार बिखर जाता है। दुसरा कोई होता ही नही जिसे तुम संबधित हो सको इसलिये यह जीवित नहीं रह पाता। इसलिये अगर तुम अकेले होने के लिए, निर्विवाद रूप से अकेले होने के लिए तैयार हो, न भागो, न पीछे लौटो, बस इस अकेलेपन के तथ्य को उसके पूरे यथार्थ में उसे स्वीकार कर लो तो यह एक महान अवसर बन जाता है। तब तुम एक बीज की भांति होते हो, जिसमें बहुत बड़ी संभावना छिपी होती है। किंतु स्मरण रखना पौधे के विकसित होने के लिए बीज को स्वयं को नष्ट करना पड़ेगा।
अहंकार बीज है, एक संभावना है। यदि यह बिखरता है तो दिव्यता उत्पन्न होती है। दिव्यता अपने आप में न तो मैं है, न तू है, यह एक है। इस एकांत के द्वारा ही तुम अपनी इस एकात्मीयता पर आते हो।
तुम इस एकात्मकता के लिए झूठे विकल्प गढ़ सकते हो। हिंदू एक हो जाते हैं, ईसाई एक हो जाते हैं, मुसलमान एक हो जाते हैं, भारत एक है, चीन एक है। ये सब एकात्मकता के विकल्प मात्र हैं। सिर्फ पूर्ण एकांत के द्वारा ही एकात्मकता आती है।
कोइ भीड़ स्वयं को एक कह सकती है, किंतु यह एकता सदैव किसी अन्य के विरोध में होती है। जब तक भीड़ तुम्हारे साथ होती है, तुम विश्राम में होते हो। अब तुम जिम्मेवार नहीं होते। तुम अकेले एक मस्जिद में आग नहीं लगा सकोगे, तुम अकेले एक मंदिर नष्ट नहीं कर पाओगे, किंतु भीड़ का अंग होकर तुम यह कर सकते हो, क्योंकि अब तुम स्वयं अकेले जिम्मेवार नहीं हो। अब हर कोइ जिम्मेवार है इसलिये कोई एक विशेष रुप से जिम्मेवार नहीं है। वहां कोई निजी चेतना नहीं होती, मात्र एक सामूहिक चेतना होती है। भीड़ में मनुष्य के तल से तुम नीचे गिर जाते हो और एक पशु बन जाते हो।
भीड़ एकात्मकता के होने का झूठा विकल्प है। कोई भी जो परिस्थिति के प्रति जागरुक है, अपने मनुष्य होने के प्रति जागरुक है और उस कठिन, श्रमसाध्य कृत्य के प्रति जागरुक है जो कि मनुष्य होने के नाते उसे करना है, वह किसी झूठे विकल्प को नहीं चुनता। तुम्हारे धर्म और तुम्हारी राजनैतिक विचार धारणाएं मात्र काल्पनिक कथायें हैं, जो एकात्मकता की झूठी अनुभूति देती हैं। एकात्मकता आती ही तब है, जब तुम अहंकार विहीन हो जाते हो और अहंकार सिर्फ तभी मिट सकता है जब तुम पूर्णतः अकेले हो।
जब तुम पूरी तरह अकेले होते हो तब तुम होते ही नहीं। यह एक क्षण विस्फोट का क्षण है। तुम अनंत में विस्फोटित हो जाते हो। यही और सिर्फ यही विकास है। मैं इसे उत्क्रांति कहता हूं क्योंकि यह अचेतन नहीं है। तुम अहंकार शून्य हो सकते हो या नहीं हो सकते। यह तुम पर निर्भर है।
अकेले होना ही एक मात्र वास्तविक क्रांति है। बहुत साहस की जरूरत पड़ती है। केवल एक बुद्ध अकेले हैं, केवल एक जीसस या महावीर अकेले हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने परिवार छोड़े, संसार छोड़ा। ऐसा दिखता है, पर ऐसा है नहीं। निषेधात्मक रूप से वे कुछ नहीं छोड़ रहे थे। यह कृत्य एक विधायक यज्ञ की भांति था और यह बस एकांत की ओर गतिमान होना था। वे कुछ त्याग नहीं रहे थे, वे पूर्णतः अकेले होने की खोज में थे।
सारी खोज विस्फोट के उस पल के लिए है, जब कोई अकेला होता है। एकांत में आनंद है और केवल तभी संबोधि उपलब्ध होती है।
हम अकेले नहीं हो सकते, दूसरे भी अकेले नहीं हो सकते, इसलिये हम समूह निर्मित करते हैं; परिवार, समाज, राष्ट्र बनाते हैं। सारे राष्ट्र, सारे परिवार, सारे समूह कायरों से बने हैं; उनसे जिनमें अकेले होने के लिए जरुरी साहस नहीं है।
वास्तविक साहस तो केवल अकेले होने का साहस है। इसका मतलब ही यही है कि इस बात का जागरुकतापूर्वक एहसास कि तुम अकेले हो और तुम इसके अलावा कुछ हो भी नहीं सकते। या तो यह अपने आपको धोखा देने का सिलसिला कई जन्मों तक एैसे ही जारी रख सकते हो पर तब तुम एक दुश्चक्र में चलते रहोगे। अगर तुम अपने इस अकेले होने के तथ्य के साथ रह सको, केवल तभी यह चक्र टूटता है और तुम अपने केंद्र पर आ जाते हो। यह केंद्र दिव्यता का, समग्रता का, पवित्रता का केंद्र है।
मैं ऐसे किसी समय की कल्पना ही नहीं कर सकता जब कि प्रत्येक मनुष्य केंन्द्रीत होने के इस अधिकार को जन्म सिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त करने योग्य होगा। यह असंभव है। चेतना वैयक्तिक; निजी होती है। सिर्फ अचेतन ही सामूहिक होता है। मानव जाति चेतना के उस बिंदु पर आ चुकी है, जहां कि वह वैयक्तिक हो जाए। सच तो यह है कि मनुष्यता का अलग अस्तित्व है ही नहीं, सिर्फ एक मनुष्य होता हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपनी निजता; वैयक्तिकता तथा इसके प्रति उसके अपने उत्तरदायित्व का साक्षात करना पड़ेगा।
पहला काम जो हमे करना चाहिए वह यह है कि अकेलेपन के इस आधार भूत तथ्य को स्वीकार करना और इसके साथ रहना सीखना। हमें कोई कपोल-कल्पनायें नहीं गढ़नी हैं। कपोल-कल्पनायें, प्रक्षेपित, गढ़े गये, बनाये गये सत्य हैं, जो तुम्हें वास्तविकता से जानने से रोकते हैं। अपने अकेलेपन के तथ्य के साथ रहो। यदि तुम इस तथ्य के साथ रह सके, यदि तुम्हारे और इस तथ्य के बीच में कोई कपोलकल्पना न रही, तो सत्य तुम पर उद्घाटित हो जाएगा। प्रत्येक तथ्य, यदि उसमें गहनता से झांका जाये, सत्य का उद्घाटन करता है।
इसलिये उत्तरदायित्व के इस तथ्य के साथ, इस तथ्य के साथ कि तुम अकेले हो, बने रहो। यदि तुम इस तथ्य के साथ रह सको, तो विस्फोट घटित हो जाएगा। यह कठीन है, परंतु यही एकमात्र उपाय है। इन्हीं कठिनाईयों के द्वारा, इस तथ्य की स्वीकृति के द्वारा ही तुम विस्फोट के बिंदु पर पहुंचते हो। केवल तभी वहां आनंद है। यदि यह तुम्हें पूर्व-निर्मित दे दिया जाए, तो यह अपना महत्त्व खो देगा क्योंकि तुमने इसे उपलब्ध नहीं किया है। तुम्हारे पास आनंद को अनुभव करने की क्षमता नहीं होती। यह क्षमता सिर्फ स्वयं के अनुशासन के द्वारा ही आती है।
यदि तुम अपने इस उत्तरदायी होने के तथ्य के साथ रह सको, तो अनुशासन स्वतः ही तुम्हारे पास आ जाएगा। अपने प्रति पूर्ण उत्तरदायी होने पर तुम अनुशासित हो जाने के अतिरिक्त कुछ और कर ही नहीं सकते। किंतु यह अनुशासन कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो तुम पर बाहर से थोपी गई हो। यह भीतर से आता है। अपने प्रति अपने पूर्ण उत्तरदायित्व के कारण, तुम्हारे द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम अनुशासित होता है। तुम एक शब्द भी अनुत्तरदायीपूर्ण ढंग से बोल नहीं सकते।।
अगर तुम अपने अकेलेपन के प्रति जागरुक हो, तो तुम दूसरों की व्यथा के प्रति भी जागरुक होओगे। तब तुम कोई भी गैरजिम्मेवार कृत्य नहीं करोगे, क्योंकि तुम न केवल अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी अपने को जिम्मेवार अनुभव करोगे। अगर तुम अपने अकेलेपन के तथ्य के स्विकारते हुए उसके साथ रह सको तो तुम पाओगे कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। तब बेटे को पता है कि पिता अकेला है, पत्नी जानती है कि पति अकेला है, पति जानता है कि पत्नी अकेली है। एक बार तुम यह जान लो तो तुम करुणावान हो ही जाओगे।
तथ्यों का स्विकार करते हुए उनके साथ रहना ही सही अर्थो में एकमात्र योग है, एकमात्र अनुशासन है। एक बार तुम मनुष्य की स्थिति के प्रति पूर्णतः जागरुक हो जाओ तो तुम धार्मिक हो जाते हो। तुम अपने मालिक बन जाते हो। लेकिन इस तरह से आया हुआ आत्म संयम एक तपस्वी का आत्मसंयम नहीं होता। यह जबरदस्ती से थोपा हुआ नहीं होता, यह कुरुप नहीं होता। यह आत्मसंयम सौंदर्य पूर्ण होता है। तब तुम महसूस करोगे कि यही एकमात्र संभवकार्य है, जिसे तुम और तरह से नहीं कर सकते। तब वस्तुओं पर जो तुम्हारी पकड़ है वह छूट जाती है, तुम अपरिग्रही हो जाते हो।
परिग्रह का आकर्षण मनुष्य अकेले नहीं हो पाता इसके कारण उत्पन्न हुआ आकर्षण है। कोई व्यक्ति अकेले नहीं हो पाता; इसलिये वह साथ खोजता है। किंतु दूसरे लोगों का साथ भरोसे योग्य नहीं है इसलिये इसके पर्याय के रुप में वह वस्तुओं का साथ खोजता है। एक पत्नी के साथ रहना कठिन है, एक कार के साथ रहना इतना कठिन नहीं है। इसलिये किसी भी चीज पर कब्जा कर लेने की उसकी जो प्रवृत्ति है वह वस्तुओं पर कब्जा करने की ओर मुड़ जाती है।
तुम व्यक्तियों तक को वस्तुओं में बदलने का प्रयास कर सकते हो। तुम उन्हें इस प्रकार बदलने का प्रयास करते हो कि वे अपनी वैयक्तिकता, अपनी निजता खो दें। पत्नी एक वस्तु हो जाती है, व्यक्ति नहीं; पति एक वस्तु हो जाता है, व्यक्ति नहीं।
यदि तुम अपने अकेलेपन के प्रति जागरुक हो जाओ, तब तुम दूसरो के अकेलेपन के प्रति भी जागरुक हो जाते हो। तब तुम जानते हो कि दूसरे पर मालकियत करने की चेष्टा एक तरह का अनधिकृत कब्जा है। तब तुम कभी त्याग करने के कारण चिजों को नहीं छोड़ोगे, त्याग तो बस तुम्हारे अकेलेपन की नकारात्मक छाया भर हो जाता है। तुम अपरिग्रही हो जाते हो। तब तुम एक प्रेमी हो सकते हो, लेकिन पति या पत्नी नहीं।
इस अपरिग्रह भाव के साथ करुणा और आत्मसंयम का आगमन होता है। तुम पर निर्दोषता आती है। जब तुम जीवन के तथ्यों से इन्कार करते हो, तब तुम निर्दोष नहीं हो सकते; तुम चालाक हो जाते हो। तुम खुद को तथा औरों को धोखा देते हो। किंतु यदि तुम इतना साहस कर पाये कि जीवन के तथ्यों के साथ, जैसे वे हैं, उसी रूप में रह जाओ तो तुम निर्दोष हो जाओगे। यह निर्दोषता तुम्हारे प्रयास या जबरदस्ती से लायी नहीं होती, तुम यही हो जाते हो- निर्दोष।
मेरे लिए, निर्दोष होना ही वह सब कुछ है, जो पाया जाना है। निर्दोष हो रहो और तब दिव्यता ही आनंद पूर्ण होकर तुम्हारी ओर सदा प्रवाहित होती है। यह निर्दोषता ही उस दिव्यता को ग्रहण करने की पात्रता है, दिव्यता का अंश हो पाने की पात्रता है। निर्दोष हो जाओ, और अतिथि वहां आ जाता है। मेजबान हो जाओ। इस निर्दोषता का अभ्यास नहीं किया जा सकता क्योंकि अतिथेय; मेजबान होने का अभ्यास सदा सोच-विचार से होता है। यह हिसाब-किताब से होता है। पर निर्दोषता कभी हिसाब-किताब से नहीं आ सकती, यह असंभव है।
यह निर्दोषता ही असली धार्मिकता है। निर्दोष होना ही सच्चे आत्मबोध का उत्कर्ष बिंदु है। किंतु सच्ची निर्दोषता केवल खुद के जागरुकतापूर्ण विकास के द्वारा ही आती है। यह किसी सामूहिक, अचेतन विकास से संभव नहीं है। एक मनुष्य अकेला है, वह स्वतंत्र है चुनने के लिए- स्वर्ग या नर्क, जीवन अथवा मृत्यु, आत्मबोध का आनंद या हमारे तथाकथित जीवन की पीड़ा।
सार्त्र ने कहीं पर कहा है, ‘मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है।’ तुम स्वर्ग चुन सकते हो या नर्क। स्वतंत्रता का अर्थ है किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता। यदि तुम सिर्फ स्वर्ग ही चुन सको; तो यह चुनाव नहीं है, यह स्वतंत्रता नहीं है। नर्क के चुनाव के बिना स्वर्ग अपने में नर्क हो जाएगा। चुनाव का अर्थ सदा होता है यह या वह। इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम सिर्फ भला ही चुनने के लिए स्वतंत्र हो। तब वहां कोई स्वतंत्रता नहीं होती।
यदि तुम गलत चुनाव करते हो तो स्वतंत्रता अभिशाप बन जाती है; किंतु यदि तुम सही चुनते हो तो यह आशीष बन जाती है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम्हारा चुनाव स्वतंत्रता को अभिशाप में बदलता है या आशीष में। चुनाव करना पूर्णतः तुम्हारा ही उत्तरदायित्व है।
यदि तुम तैयार हो तो तुम्हारी ही भीतरी गहराई में से एक नया आयाम आरंभ हो सकता है; उत्क्रांति का आयाम। विकास अब पूरा हो चुका है और अब एक उत्क्रांति की आवश्यकता है जो तुम्हें, वह जो सबसे पार है, उसके प्रति खोल दे। यह एक निजी उत्क्रांति है, एक अंतस-क्रांति।

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