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बुधवार, 20 नवंबर 2019

35-दुल्हन-(ओशो)

35-दुल्हन-भारत के संत

प्रेम रस रंग औढ चदरियां-ओशो

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है--बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं।
सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है।
वीणा पड़ी रहेगी और छंद पैदा न होंगे। हृदय तो रहेगा, श्वास भी चलेगी, लेकिन प्रेम की रसधार न बहेगी। वृक्ष भी होंगे लेकिन फूल न खिलेंगे; जीवन में फल न आएंगे। परमात्मा से जुड़े बिना कोई परितृप्ति नहीं है। परमात्मा से जुड़े बिना लंबी-लंबी यात्रा है, बड़ी लंबी अथक यात्रा है; लेकिन मरुस्थल और मरुस्थल! मरूद्यानों का कोई पता नहीं चलता।


आज हम एक अपूर्व संत दूलनदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकलते हैं। दूलनदास अब केवल बांस के टुकड़े नहीं हैं, बांसुरी हो गए हैं। कृष्ण के स्वर उनके प्राणों को तरंगित कर रहे हैं। अब वे केवल सागर नहीं हैं। मंथन हो चुका, अमृत प्रकट हुआ है। कहां खारा सागर और कहां मंथन से प्रकट हुआ अमृत! दोनों में जोड़ भी नहीं बैठता। गणित और तर्क काम नहीं आते। अब उनकी वीणा मुर्दा नहीं है, आत्मवान हो उठी है।
कोकिल जितना घायल होता
उतनी मधुर कुहुक देता है
जितना धुंधवाता है चंदन
उतनी अधिक महक देता है
मैं तो केवल तन ही तन था मुझमें जागे मन के पहले
जैसे सिर्फ बांस का टुकड़ा है बंसी-वादन के पहले
दूलनदास का वादन शुरू हो गया है। बांसुरी सप्राण हो उठी है। दूलनदास के हृदय में परमात्मा नाच रहा है। अगर उनकी दो-चार बूंदें भी तुम्हारे हृदय पर पड़ गईं तो तुम कुछ के कुछ हो जाओगे; फिर तुम वही न रहोगे जो थे। तुम्हारी दृष्टि बदलेगी और जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि बदल जाती है। तुम्हारे भीतर भी मोती पैदा हो सकते हैं। दूलनदास के स्वाति नक्षत्र में बरसती बूंदों को अपने हृदय तक पहुंचने दो। खोलो अपने हृदय की सीप को। सुनो ही मत, पियो। क्योंकि ये बातें नहीं हैं जो सुनकर पूरी हो जाएं; ये जीवन को रूपांतरित करने के सूत्र हैं। ये क्रांति के सूत्र हैं। यह पारस का स्पर्श है; लोहा सोना हो सकता है।
मैं था बहुत अपरिचित निज से तुमसे परिचय-क्षण के पहले
जैसे सीप न जन्मे मोती स्वाति-नखत जल-कण के पहले
छोड़ना मत यह अवसर। मुश्किल से आता है स्वाति का नक्षत्र। मुश्किल से बरसती है अमृत की बूंद। कहीं ऐसा न हो कि सीप तुम्हारी बंद ही रह जाए। बूंद गिरे भी और तुम्हारे हृदय तक न पहुंचे। वर्षा हो भी और तुम प्यासे रह जाओ।
मेरे गीत शोर थे केवल तुमसे लगी लगन के पहले
जैसे पत्थर-भर होती है हर प्रतिमा पूजन के पहले
दूलनदास के साथ थोड़े दिन तक की यह यात्रा तुम्हारे जीवन में अविस्मरणीय हो सकती है। उनकी रोशनी में तुम अगर चल लो तो तुम्हें अपनी रोशनी की याद आ सकती है।
यही तो सदगुरु का सत्संग है। तुम्हारे पास अपना दीया नहीं है लेकिन किसी का दीया जला है। रात अंधेरी है, अमावस है। जिसका दीया जला है उसके साथ तुम चार कदम चल लो तो तुम्हारा पथ भी प्रकाशित होता है। और न केवल यही कि तुम्हारा पथ प्रकाशित होता है, तुम्हें यह भी दिखाई पड़ता है कि यही संभावना मेरी भी है, ऐसा ही दीया मैं भी हूं। तुम्हें यह भी दिखाई पड़ता है कि जैसा आज मैं अंधेरा हूं, कल सदगुरु भी अंधेरा था। आज सदगुरु प्रकाशित हुआ है, कल मैं भी प्रकाशित हो सकता हूं। जो मेरा वर्तमान है वही तो कल सदगुरु का अतीत था। जो आज उसका वर्तमान है, कल मेरा भविष्य हो सकता है।
उड़ते हुए पक्षी को देखकर, जो पक्षी कभी न उड़ा हो उसके भी पंख फड़फड़ा उठते हैं। वृक्ष को खिलते हुए देखकर जो वृक्ष कभी न खिला हो उसके प्राणों में भी सुगबुगाहट शुरू हो जाती है। झरने को बहते देखकर सागर की तरफ जो सरोवर सदा अपने में बंद रहा हो उसके भीतर भी एक व्याकुलता उठती है, एक विरह-वेदना उठती है, एक पुकार उठती है कि चलूं, बढ़ूं, कि मैं भी खोजूं। खोजूं उसे जिसे पाकर समग्र हो जाऊं। खोजूं उसे जिसे पाकर विराट हो जाऊं।
ये थोड़े-से कदम जो दूलनदास के साथ लेने हैं, बहुत संभल-संभल कर लेना। ये पूजन के क्षण हैं। और अगर जिन्होंने जाना है उनके पास बैठकर भी जानना न घटे, जिन्होंने पाया है उनके पास बैठकर भी पाने की प्रबल पुकार न उठे, प्यास न जगे--तो बड़े अभागे हो। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं है। सत्य की तरफ जाने का सत्संग के अतिरिक्त और कोई द्वार ही नहीं है।
सदगुरु संस्पर्श है अज्ञात का। सदगुरु साक्षात है अज्ञात का। दृश्य है अदृश्य के लिए। परिचित है अपरिचित का। दूर-दूर की ध्वनि है लेकिन तुम्हारे कानों के पास, तुम्हारे हृदय के पास गूंजती हुई। लेकिन तुम्हारे विरोध में कोई मुत्ति संभव नहीं है, तुम्हारा सहयोग चाहिए।
दूलनदास तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले सकते हैं, लेकिन तुम ही दोगे तो; स्वेच्छा से दोगे तो! सत्य थोपे नहीं जाते, आरोपित नहीं किए जाते, आमंत्रित किए जाते हैं। सत्य का स्वागत करना होता है बंदनवार बांधकर, दीए जलाकर, आरती सजाकर। आरती सजाकर सुनना इन वचनों को। ये बड़े प्रीति-रस पगे हैं। बंदनवार बांधकर, हृदय के द्वार खोलकर, पूजा का थाल सजाकर इन अमृत-वचनों को अतिथि की भांति अपने अंतर्गृह में ले जाना। ये बीज बनेंगे, इनसे बड़े वृक्ष होंगे, इनसे तुम्हारी पृथ्वी और आकाश के बीच सेतु बनेगा।
कहते हैं दूलन--
जग में जै दिन है जिंदगानी
ज्यादा देर की जिंदगी नहीं है जग में, थोड़े-से दिन की है; बहुत थोड़े दिन की है। अंगुलियों पर गिने जाएं इतनी छोटी है जिंदगी। और अगर यह छोटी-सी जिंदगी भी कैसे व्यर्थ के कामों में व्यतीत हो जाती है!
अगर आदमी साठ साल जिंदा रहे तो बीस साल तो सोने में ही बीत जाते हैं। बचे बीस साल, रोटी-रोजी कमाने में--दुकान से घर, घर से दुकान। बचे बीस साल! अद्भुत आदमी है! इसलिए दूलनदास कहते हैं, "दुनिया है हैरानी'। कोई ताश खेल रहा है, कोई फिल्म देख रहा है, कोई होटल में बैठकर गपशप मार रहा है। और पूछो कि क्या कर रहे हो तो लोग कहते हैं, समय काट रहे हैं। इतनी छोटी जिंदगी, समय इतना बहुमूल्य कि जो क्षण एक बार गया, गया; फिर लौटता नहीं, उसे भी काट रहे हो?
जब तुम कहते हो समय काट रहे हैं, तो तुम क्या सोचते हो, जानते हो? तुम यह कहते हो, जिंदगी काट रहे हैं। जब तुम कहते हो समय काट रहे हैं तब तुमने याद किया? तुमने परमात्मा की शिकायत की। तुमने यह कहा कि क्या जिंदगी दे दी मुझे! यह क्या व्यर्थ का समय दे दिया, काटे नहीं कटता! जब तुम कहते हो, समय काट रहा हूं, तब तुम धन्यवाद नहीं दे रहे परमात्मा को, शिकायत कर रहे हो। इतना अपूर्व जीवन मिले, धन्यवाद तो दूर, हमारे हृदय शिकायतों से भरे हैं। जहां एक-एक क्षण अमृत की वर्षा हो सकती है और जहां एक-एक क्षण अनाहत के नाद में बीत सकता है--वहां समय काट रहे हो!

जग में जै दिन है जिंदगानी
थोड़े से दिन की तो जिंदगी है! चार दिन की तो जिंदगी है! ऐसे तो बह जाती है जैसे पानी की लहर। फिर भी होश नहीं आता। मौत रोज-रोज द्वार पर दस्तक देती है, उसकी दस्तक रोज-रोज तीव्र होती जाती है; फिर भी होश नहीं आता।
ऐसे मनुष्य के मन के सम्मोहन हैं। और तुम्हारा अहंकार खड़िया की खींची हुई लकीर है। खड़िया की लकीर तो कुछ होती है, तुम्हारा अहंकार उतना भी नहीं है। अहंकार सिर्फ एक मानी हुई भ्रांति है जो बचपन से हमें समझायी गई है कि तुम हो; तुम अलग हो; कि तुम भिन्न हो; कि तुम्हें कुछ दुनिया में करके दिखाना है; कि तुम्हें नाम छोड़ जाना है; कि इतिहास में तुम्हें अपने चिह्न छोड़ जाने हैं, ऐसे ही मत मर जाना, कि तुम कुलीन घर में पैदा हुए हो, अपने बाप-दादों का नाम रोशन करना है। हजार-हजार ढंग से हमने हर बच्चे को यह सिखाया है कि तू भिन्न है और तुझे अपनी भिन्नता का हस्ताक्षर इस पृथ्वी पर सदा के लिए छोड़ जाना है। यह लक्ष्मणरेखा गहरी हो गई है। इस लक्ष्मणरेखा को मिटाने के लिए कुछ उपाय खोजने जरूरी हैं।
गुरु के चरणों में सिर रखना बहुत उपायों में एक उपाय है और बहुत कारगर उपाय है। क्योंकि मंदिर की मूर्ति के सामने भी तुम सिर रख सकते हो लेकिन कारगर नहीं होगा। क्योंकि मंदिर पत्थर की मूर्ति है, उसके सामने झुकने में तुम्हारे अहंकार को चोट नहीं लगती। जब तुम अपने ही जैसे मांस-मज्जा के बने हुए मनुष्य के सामने झुकते हो तब चोट लगती है। पत्थर के सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं है। आकाश में बैठे परमात्मा के सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं है। कृष्ण, राम, बुद्ध, अतीत में हुए सत्पुरुषों के सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन तुम्हारे सामने जो मौजूद हो, तुम्हारे जैसा हो, भूख लगती हो, प्यास लगती हो, सर्दी-धूप लगती हो, बीमार होता हो, बूढ़ा होता हो, ठीक तुम जैसा हो, उसके सामने झुकने में बड़ी अड़चन होती है। अहंकार कहता है इसके सामने क्यों झुकूं? यह तो मेरे जैसा ही है। मुझमें-इसमें भेद क्या है? अहंकार बचाव करता है। इसलिए जीवित सदगुरु के सामने जो झुक गया उसका अहंकार तत्क्षण गिर जाता है। मगर यह मत सोचना कि सिर्फ झुकने से गिर जाता है। झुकना औपचारिक भी हो सकता है--जैसा इस देश में है।
इस देश में झुकना औपचारिक हो गया है। लोग झुक जाते हैं, झुकने का कोई खयाल ही नहीं आता। झुकते रहे हैं। जो आया उसके सामने झुकते रहे हैं। झुकना एक शिष्टाचार हो गया है। जैसे पश्चिम में लोग हाथ मिलाते हैं, ऐसे यहां लोग पैर पड़ लेते हैं। जैसे नमस्कार करते हैं ऐसा पैर पड़ लेते हैं। नमस्कार भी औपचारिक हो गई है; होनी तो नहीं थी, जिन्होंने खोजी थी, बड़े विचार से खोजी थी।
ओशो

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