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मंगलवार, 5 नवंबर 2019

21-ऋषि नारद-(ओशो)

ऋषि नारद-भारत के संत

भक्ति सूत्र--ओशो

जीवन है ऊर्जा -- ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं: न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है -- अनंत संभावनाओं का।
तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है।

मनुष्य कामना है परमात्मा होने की। उससे पहले पड़ाव बहुत हैं, मंजिल नहीं है। रात्रि-विश्राम हो सकता है। राह में बहुत जगहें मिल जाएंगी, लेकिन कहीं घर मत बना लेना। घर तो परमात्मा ही हो सकता है।
परमात्मा का अर्थ है: तुम जो हो सकते हो, उसकी पूर्णता।


परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; कहीं आकाश में बैठा कोई रूप नहीं है; कोई नाम नहीं है। परमात्मा है तुम्हारी आत्यंतिक संभावना -- आखिरी संभावना, जिसके आगे फिर कोई जाना नहीं है; जहां पहुंचकर तृप्ति हो जाती है, परितोष हो जाता है।
प्रत्येक मनुष्य तब तक पीड़ित रहेगा। तब तक तुम चाहे कितना ही धन कमा लो, कितना ही वैभव जुटा लो, कहीं कोई पीड़ा का कीड़ा तुम्हें भीतर काटता ही रहेगा; कोई बेचैनी सालती ही रहेगी; कोई कांटा चुभता ही रहेगा। लाख करो भुलाने के उपाय -- बहुत तरह की शराबें हैं विस्मरण के लिए लेकिन भुला न पाओगे। और अच्छा है कि भुला न पाओगे; क्योंकि काश, तुम भुलाने में सफल हो जाओ तो फिर बीज बीज ही रह जाएगा, फूल न बनेगा -- और जब तक फूल न बने और जब तक मुक्त आकाश को गंध फूल की न मिल जाए, तब तक अगर तुम भूल गये तो आत्मघात होगा, तब तक अगर तुमने अपने को भुलाने में सफलता पा ली तो उससे बड़ी और कोई विफलता नहीं हो सकती।
अभागे हैं वे जिन्होंने समझ लिया कि सफल हो गये। धन्यभागी हैं वे, जो जानते हैं कि कुछ भी करो, असफलता हाथ लगती है। क्योंकि ये ही वे लोग हैं जो किसी-न-किसी दिन, कभी-न-कभी परमात्मा तक पहुंच जाएंगे।
जहां सफलता मिली वहीं घर बन जाता है। जहां असफलता मिली वहीं से पैर आगे चलने को तत्पर हो जाते हैं।
परमात्मा तक पहुंचे बिना कोई तृप्ति संभव नहीं है।
कहा मैंने, जीवन ऊर्जा है।
ऊर्जा के तीन रूप हैं। एक तो बीजरूप है: कुछ भी प्रगट नहीं है। फिर वृक्षरूप है: सब कुछ प्रगट हो गया है, लेकिन प्राण अप्रकट हैं। फिर फूलरूप है: फिर प्राण भी प्रगट हुआ; फिर वह अनूठी अपूर्व गंध भी आ गयी, पंखुड़ियां खिल गयीं और खुले आकाश के साथ मिलन हो गया, अनंत के साथ एकता हो गयी!
साधारणतः: बीज का अर्थ है: कामना। वृक्ष का अर्थ है: प्रेम। फूल का अर्थ है: भक्ति। जब तक तुम बीज में हो, तब तक कामवासना में रहोगे। जब तुम वृक्ष बनोगे तब तुम्हारे जीवन में प्रेम का अवतरण होगा। और जब तुम फूल बनोगे, तब भक्ति।
भक्ति परम शिखर है। वह आखिरी बात है।
इसे हम थोड़ा समझ लें, तभी इन अनूठे सूत्रों में प्रवेश हो सकेगा।
तुम शरीर हो; तुम उसके पार भी कुछ हो, जिसका तुम्हें पता नहीं।
शरीर तो बहुत स्थूल है। उसका पता चल जाता है। उसके लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। शरीर तो वजन रखता है। उसका बोध हो जाता है। उसके लिए किसी ध्यान की जरूरत नहीं है।
मन की भी थोड़ी झलक तुम्हें मिल जाती है, क्योंकि मन स्थूल और सूक्ष्म के मध्य में है--शरीर से भी जुड़ा है, आत्मा से भी। शरीर की तरफ से थोड़ी सी खबरें मन की  मिल जाती हैं, क्योंकि एक धागा शरीर के तट से जुड़ा है। लेकिन आत्मा की तुम्हें कोई खबर नहीं मिलती। आत्मा कोरा शब्द मालूम होता है। आत्मा शब्द सुनने से ही तुम्हारे भीतर कोई घूंघर नहीं बजते। आत्मा शब्द सुनने से ही बेचैनी-सी होती है। शब्द बेबूझ है। भाषाकोश का अर्थ तो पता है; जीवन के कोश का कुछ अर्थ पता नहीं।
शरीर के साथ जुड़ी है कामवासना। कामवासना स्थूल है। शरीर शरीर को मांगता है: कामवासना का अर्थ। शरीर अपने से विपरीत शरीर को मांगता है; क्योंकि एक किनारा अधूरा है, दूसरे किनारे की चाह पैदा होती है। पुरुष स्त्री को मांगता है, स्त्री पुरुष को मांगती है, ताकि जीवन की सरिता बीच में बह सके, दो किनारे जुड़ जाएं। पुरुष अकेला है। स्त्री अकेली है।
शरीर के तल पर शरीर की मांग है, शरीर से मिलन की आकांक्षा है। क्षण-भर का मिलन हो भी जाता है। क्षण-भर को शरीर शरीर में डूब जाते हैं और खो भी जाते हैं--लेकिन बस क्षण-भर को! उससे पीड़ा मिटती नहीं, गहन हो जाती है। उस मिलन के बाद बड़ा गहरा विषाद हो जाता है, क्योंकि मिलन के बाद गहरा विछोह होता है। मिलता कुछ भी नहीं; ऐसा लगता है, उलटा खो गया।
 शरीर का मिलन क्षण-भर को ही हो सकता है। स्थूल एक-दूसरे में विलीन नहीं हो सकते। स्थूल की सीमा है। स्थूल अपनी सीमा को छोड़ नहीं सकता, अन्यथा स्थूल न रह जाएगा।
बर्फ के दो टुकड़ों को तुम मिलाने की कोशिश करो, मुश्किल होगी। लेकिन वे ही पिघल जाएं जल हो कर, बिलकुल मिल जाते हैं। फिर कोई अड़चन नहीं होती। सीमा खो गयी, मिलन सुलभ हो गया।
शरीर बर्फ की तरह है--जमा हुआ, ठोस। ऊर्जा वही है; पिघल जाए तो मन बनता है। मन जल की तरह है। सीमा तो है, लेकिन तरल सीमा है, ठोस नहीं। तुम मन को कैसा भी ढालो, ढल जाता है। शरीर को कैसा भी ढालो तो न ढलेगा। मन को कैसा भी ढालो, ढल जाएगा।
हिंदू के घर में बच्चा पैदा हो, मुसलमान के घर में रख दो, मुसलमान हो जाएगा। शरीर नहीं होगा, मन हो जाएगा। शरीर तो बाप की ही झलक देगा, मां की झलक देगा। शरीर की खबर तो वहीं जुड़ी रहेगी जहां से शरीर आया है, लेकिन मन मुसलमान का हो जाएगा। बच्चे को याद भी न रहेगी कि वह कभी हिंदू था। हिंदू होने के पहले ही, मन इसके पहले कि ढलता, मुसलमान हो गया। मुसलमान बाद में चाहे तो हिंदू हो जाए,ईसाई हो जाए; आस्तिक नास्तिक हो जाए, नास्तिक आस्तिक हो जाए--मन में कुछ अड़चन नहीं है।
मन तरल है। मन प्रतिपल बदलता रहता है। उसकी तरलता अनूठी है।
 कामवासना है शरीर जैसी और शरीर की
 प्रेम है मन जैसा और मन का।
 प्रेम की मांग शरीर की मांग से ऊपर है। प्रेम कहता है: दूसरे का मन मिल जाए! प्रेम करने वाला वेश्या के द्वार पर न जाएगा। यह बात ही बेहूदी मालूम पड़ेगी। यह बात ही संभव नहीं है। यह सोच भी बेहूदा मालूम पड़ेगा। लेकिन कामवासना से भरा व्यक्ति वेश्या के घर चला जाएगा; शरीर की ही मांग है।
शरीर खरीदा जा सकता है; मन खरीदा नहीं जा सकता।
शरीर जड़ है। मन थोड़ा-थोड़ा चेतन है; इसलिए इतना नीचे नहीं उतरा जा सकता कि खरीद और बेच की जा सके।
मन प्रेम मांगता है: कोई, जो अपना सर्वस्व देने को तैयार हो, बिना किसी शर्त के। मन अपने को किसी को दे देना चाहता है, बेशर्त लुटा देना चाहता है। मन की मांग प्रेम की  है।
 जब दो मन मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम प्रेम है। जब दो शरीर मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम काम है।
 फिर मन के भी पार तुम्हारा अस्तित्व है--आत्मा का। आत्मा ऐसे है जैसे पानी भाप बनकर आकाश में उड़ गया। पानी ही है, लेकिन अब तरल सीमा भी न रही। अब कोई सीमा न रही; आकाश में फैलना हो गया! अदृश्य हो जाती है भाप; थोड़ी दूर तक दिखायी पड़ती है, फिर खो जाती है!
आत्मा अदृश्य है--भाप जैसी!
आत्मा की तलाश किसकी है!
 शरीर मांगता है शरीर को। मन मांगता है मन को। आत्मा मांगती है आत्मा को।
 शरीर और शरीर के मिलन से जो रस पैदा होता है--क्षणभंगुर-उसका नाम: काम। मन और मन के मिलन से जो रस पैदा होता है- थोड़ा ज्यादा स्थायी, जीवन भर चल सकता है। आकांक्षा तो मन की होती है कि जीवन के पार भी चलेगा। प्रेमी कहते हैं, " मौत हमारे प्रेम को न तोड़ पाएगी।' अगर प्रेम जाना है, तो प्रेमी कहता है, "कुछ हमें छुड़ा न पाएगा। शरीर मिट जाएगा तो भी हमारा प्रेम नष्ट न होगा।
 यह  कामना ही है, लेकिन मन थोड़ा ज्यादा दूरगामी है। शरीर से उसकी सीमा थोड़ी बड़ी है।
फिर आत्मा है; शाश्वत की मांग है उसकी। उससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। क्षणभंगुर को भी क्या चाहना! अंधेरी रात में क्षण-भर को बिजली चमकती है, फिर अंधेरा और अंधेरा हो जाता है। दुख ही बेहतर है। दुख की दुनिया में क्षण-भर को सुख का फूल खिलता है, दुख और दूभर हो जाता है, फिर झेलना और मुश्किल हो जाता है।
आत्मा मन के प्रेम को भी नहीं मांगती, क्योंकि मन तरल है: आज किसी से प्रेम  किया, कल किसी और के प्रेम में पड़ सकता है। मन का कोई बहुत भरोसा नहीं है। जब प्रेम में होता है तो ऐसा ही कहता है, "अब तेरे सिवाय किसी को कभी प्रेम न कर सकूंगा। अब तेरे सिवाय मेरे लिए कोई और नहीं।' मगर ये मन की ही बातें हैं। मन का भरोसा कितना! आज कहता है; कल बदल जाए! अभी कहता है; अभी बदल जाए!
 मन पानी की तरह तरल है।
 आत्मा की मांग है शाश्वत की, चिरंतन की, सनातन की। आत्मा की मांग है आत्मा की आत्मा और आत्मा के मिलन पर जो रस पैदा होता है, उसका नाम भक्ति है।
 शरीर की सीमा है ठोस। मन की सीमा है तरल। आत्मा की कोई सीमा नहीं।
काम क्षणभंगुर है। प्रेम थोड़ा दूर तक जाता है, थोड़ा स्थायी हो सकता है। भक्ति शाश्वत है।
काम में शरीर और शरीर का मिलन होता है--स्थूल का स्थूल से; मन में--सूक्ष्म का सूक्ष्म से; आत्मा में--निराकार का निराकार से। भक्ति निराकार का निराकार से मिलने का शास्त्र है।
 ऐसा समझो कि तुम अपने घर में बैठे हो द्वार खिड़कियां बंद करके, रोशनी नहीं आती सूरज की भीतर, हवा के झोंके नहीं आते, फूलों की गंध नहीं आती, पक्षियों के कलरव की आवाज नहीं आती--तुम अपने में बंद बैठे हो:ऐसा शरीर है, द्वार-दरवाजे सब बंद!
फिर तुमने द्वार-दरवाजे खोले, खिड़कियां खोलीं, हवा के नये झोंकों ने प्रवेश किया, सूरज की किरणें आयीं, पक्षियों के गीत गूंजने लगे, आकाश की झलक मिली: ऐसा मन है! थोड़ा खुलता है। लेकिन बैठे तुम घर में ही हो।
फिर भक्ति है कि तुम घर के बाहर निकल आये, खुले आकाश में खड़े हो गये: अब सूरज आता नहीं, बरसता है; अब हवा कहीं से आती नहीं, तुम्हारे चारों तरफ आंदोलित होती है; अब तुम पक्षियों के कलरव में एक हो गये!
भक्ति-सूत्र पूरा शस्त्र है भक्ति का। एक-एक सूत्र को अति ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना, और अति प्रेमपूर्वक भी, क्योंकि यह प्रेम का ही शास्त्र है। इसे तुम तर्क से न समझ पाओगे। स्वाद ही समझ पाएगा।
"अथातो भक्ति व्याख्यास्यामः।'
अब भक्ति की व्याख्या!
क्यों, "अब' "अथातो...!
हो चुकी बात काम की बहुत। हो चुकी चर्चा प्रेम की बहुत। अथातो भक्ति...अब भक्ति की बात हो। जी लिए बहुत। देख लिए शरीर के भी खेल। देख लिए मन के भी जाल। गुजर चुके उन सब पड़ावों से। अब भक्ति की थोड़ी बात हो।
"अब'! अचानक शुरू होता है शास्त्र!
सिर्फ भारत में ऐसे शास्त्र हैं जो "अथातो' ये शुरू होते हैं; दुनिया की किसी भाषा में ऐसे शास्त्र नहीं हैं। क्योंकि यह तो बड़ा अधूरा मालूम पड़ता है।
कहीं "अब' से कोई शास्त्र शुरू होता है! यह तो ऐसा लगता है जैसे इसके पहले कोई बात चल रही थी; कोई कथा आगे चल रही थी जो छूट गयी है; कोई बीच का अध्याय है,प्रारंभ का नहीं।
पश्चिम के व्याख्याकार जब पहली दफा ब्रह्मसूत्र से परिचित हुए--वह भी ऐसे ही शुरू होता है: "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा,' अब ब्रह्म की जिज्ञासा--तो उन्होंने कहा कि इसके पहले कोई किताब थी जो खो गयी है। निश्चित ही, क्योंकि यह तो मध्य से शुरुआत हो रही है।
नहीं, कोई किताब खो नहीं गयी है, यह शुरुआत ही है। यह जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। शास्त्र शुरू ही हो रहा है।, मगर जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। यह उनके लिए नहीं है जो अभी शरीर की वासना में पड़े हों। वे इसे न समझ पाएंगे अभी देर है। अभी फल पकेगा। अभी उनके गिरने का समय नहीं आया। यह उनके लिए नहीं है जो अभी प्रेम की कविता में डूबे हैं और उसको ही जिन्होंने आखिरी समझा है। उन दो को छोड़ने के लिए "अथातो'।
तो, शुरू में ही शास्त्र कह देता है कि कौन है अधिकारी। यह अधिकारी की व्याख्या है "अथातो'। यह कहता है कि अगर चुक गये हो कामवासना से, भर गया हो मन--तो, अन्यथा अभी थोड़ी देर और भटको, क्योंकि भटके बिना कोई अनुभव नहीं है। अगर अभी प्रेम में रस आता हो तो क्षमा करो; अभी इस मंदिर में प्रवेश न हो सकेगा। अभी तुम किसी और ही प्रतिमा के पुजारी हो; अभी परमात्मा की प्यास नहीं जगी। अभी तुम या तो बीज हो या वृक्ष हो, अभी फूल होने का समय नहीं आया।
 यह, जीवन की पाठशाला में जिनका आखिरी अध्याय करीब आ गया, इसका यह मतलब नहीं है कि यह बूढ़ों के लिए है। जैसे पश्चिम के लोगों ने गलत समझा। उन्होंने समझा कि यह तो बूढ़ों के लिए है।
नहीं, प्रौढ़ के लिए है, बूढ़ों के लिए नहीं है। प्रौढ़ कोई कभी भी हो सकता है। एक छोटा बच्चा प्रौढ़ हो सकता है। प्रगाढ़ बुद्धिमत्ता चाहिए! और नहीं तो बूढ़े भी बचकाने रह जाते हैं। कोई बूढ़े होने से थोड़े ही पक जाता है। धूप में पक जाने से बाल कोई वृद्ध नहीं हो जाता। बूढ़े के मन में भी वही कामनाएं चलती रहती हैं, वही वासनाएं चलती रहती हैं। तो उसके लिए भी नहीं हैं यह शास्त्र।
फिर कभी-कभी कोई जवान भी भर-जवानी में जाग जाता है, अभी जब कि सोने के दिन थे तब जाग जाता है। कभी कोई छोटा बच्चा भी अचानक बीज से छलांग लेता है और फूल हो जाता है। कोई शंकराचार्य छोटी उम्र में, बड़ी छोटी उम्र में...। उम्र का कोई सवाल नहीं है, बोध का सवाल है।

भक्ति सूत्र-ऋषि नारद
प्रवचन-पहला

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