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गुरुवार, 14 नवंबर 2019

30-संत चरण दास-(ओशो)

30-संत चरण दास-भारत के संत-ओशो

नहीं सांझ नहीं भोर-ओशो

चरणदास उन्नीस वर्ष के थे, तब यह तड़प उठी। बड़ी नई उम्र में तड़प उठी।
मेरे पास लोग आते है, वे पूछते हैः क्यों आप युवकों को भी संन्यास दे देते हैं? संन्यास तो वृद्धों के लिए है। शास्त्र तो कहते हैंः पचहत्तर साल के बाद। तो शास्त्र बेईमानों ने लिखे होंगे, जो संन्यास के खिलाफ हैं। तो शास्त्र उन्होंने लिखें होंगे, जो संसार के पक्ष में हैं। क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो पचहत्तर साल के बाद तुम बचोगे ही नहीं। संन्यास कभी होगा ही नहीं; मौत ही होगी। और इस दुनिया में जहां जवान को मौत आ जाती हो, वहां संन्यास को पचहत्तर साल तक कैसे टाला जा सकता है?

इस दुनिया में जहां बच्चे भी मर जाते हों, इस दुनिया में जहां जन्म के बाद बस, एक ही बात निश्चित हैमृत्यु, वहां संन्यास को एक क्षण भी कैसे टाला जा सकता है? इस दुनिया में जो मौत से घिरी है जिस दिन तुम्हें मौत दिख जाएगी, जिस दिन इससे पहचान हो जाएगी, जिस दिन तुम देख लोगेः सब राख ही राख है, उसी दिन संन्यास घटेगा। फिर क्षणभर भी रुकना संभव नहीं। फिर स्थगित नहीं किया जा सकता।


उन्नीस वर्ष की उम्र में चरणदास चले गए जंगलों में रोते, चीखते, पुकारते। सब कुछ दांव पर लगा दिया। और एक अपूर्व घटना घटती है। जब तुम परमात्मा को खोजने निकलते हो, तब गुरु मिलता है। निकलते तुम परमात्मा को खोजने, मिलता गुरु है। क्योंकि परमात्मा का सीधा साक्षात नहीं हो सकता। तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच भूमिका का बड़ा अंतर है। गुरु कहां तुम, कहां परमात्मा? कहां तुम बाहर-बाहर, कहां परमात्मा भीतर-भीतर इन दोनों के बीच कोई सेतु नहीं, कोई संबंध नहीं।
जो भी परमात्मा को खोजने गया है, उसे गुरु मिला है। वह परमात्मा तुम्हारे प्रति सदय हुआ, तुम्हारे भाग्य खुले इसकी खबर है, इसकी सूचना है।
मांगो परमात्मा कोमिलतागुरू है। और गुरु मिल जाए, तो समझो कि तुम्हारी प्रार्थना सुनी गई; पहुंची। अब तुम अकेले नहीं हो। सेतु फैला; दोनों किनारे जुड़े।
तुम इस किनारे हो, परमात्मा उस किनारे है; गुरु सेतु हैजो दोनों किनारों को जोड़ देता है। गुरु कुछ तुम जैसा, कुछ परमात्मा जैसा। एक हाथ तुम्हारे हाथ में, एक हाथ परमात्मा के हाथ में। अब इस सहारे तुम जा सकोगे। अब यह जो झूलता सा पुल है, यह जो लक्षण झूला है इससे तुम जा सकोगे।
दूसरा किनारा तो शायद अभी दिखाई भी नहीं पड़ता, दूसरा किनारा बहुत दूर है और दूसरे किनारे को देखनेवालीआंखे भी अभी तुम्हारी जन्मी नहीं। तुम्हारी आंखे बहुत धुंघली हैं इस संसार की धुल से।
यह जो राख ही राख है, यह राख सब तरफ उड़ रही है; इसने तुम्हारी आंखों को भी धूमिल किया है और तुम्हारा दर्पण भी राख से दब गया है। और जन्मों-जन्मों से राख पड़ रही है। तुम भूल ही गए कि तुम्हारे भीतर कहीं दर्पण भी है। ऐसी अवस्था में तुम पुकारोगे परमात्मा को, मिलेगा गुरु। यह थोड़ा समझना।
वास्तविक खोजी परमात्मा को खोजने जाता है और गुरु के चरण मिलते हैं। अगर गुरु के चरण मिल जायें, तो समझ लेनाः तुम्हारी अरजी स्वीकार हो गई; तुम्हारी खबर पहुंच गई। उस किनारे से जुड़ा हुआ कोई मिल गया।
चरणदास के गुरु थे एक अपूर्व संन्यासी सुकदेवदास। बड़ी मीठी कथा है। चरणदास को जब सुकदेवदास मिले...। तो चरणदास ने कहीं भी नहीं कहा है अपने वचनों में, कि यह कोई और थे। उन्होंने तो यही कहा है कि व्यास के बेटे सुकदेवमुनि थे।
इस पर बड़ी अड़चन है, क्योंकि चरणदास और व्यास के बीच हजारों साल का फासला है। पंडित इससे राजी नहीं हैं; शास्त्रज्ञ इससे राजी नहीं हैं खोज-बीन करने वाले, राख के ढेर में ही तलाश करने वाले इससे राजी नहीं हैं।
वियोगी हरि ने यह लिखा हैः खोज के आधार पर यह पाया जाता है कि अपने गुरु को व्यास-पुत्र सुकदेव मुनि कहना तो केवल श्रध्दा-भावना की बात है। असल में उनके गुरु सुकदेवदास नाम के एक महात्मा थे, जो मुजफ्फरनगर के पास सूकरताल गांव में रहते थे।
वियोगी हरि का यह कहना कि अपने गुरु को व्यास-पुत्र सुकदेवमुनि कहना तो केवल श्रद्धा-भावना की बात है...। केवल श्रद्धा-भावना की! जैसे श्रद्धा-भावना का कोई मूल्य नहीं है। जैसे तुम्हारे मुरदा तथ्य श्रद्धा-भावना से ज्यादा मूल्यवान हैं। जैसे सूकरताल गांव और मुजफ्फरनगर बड़ी मूल्यवान बातें हैं।
खोज के आधार पर...। पंडित इसी तरह की खोज में लगे रहते हैं। पंडित सार को तो पकड़ ही नहीं पाता, असार की खोज करता है।
श्रद्धा-भावना को केवल कहना! केवल श्रद्धा-भावना की बात है--अच्छे शब्दों में कहना है कि यह सब तो बातचीत है; यह सचाई नहीं है। संतों को समझने का यह रास्ता नहीं, यह ढंग नहीं।
संत इतिहास के हिस्से कम, इतिहास के किनारे-किनारे जो शाश्वत की धारा है, उसके हिस्से ज्यादा हैं।
अगर चरणदास ने कहा है कि मेरे गुरु व्यास-पुत्र सुकदेव थे, तो इस केवल श्रध्दा-भावना की बात कह कर मत टाल देना। सच तो यह है कि जब भी तुम्हें गुरु मिलेगा, तभी परम गुरु मिलेगा। गुरु मिला कि परम गुरु ही मिलता है। न मिले, तो बात अलग। गुरु जब मिलता है, तो वह परम गुरु की प्रतिमा है व्यास-पुत्र सुकदेव तो सिर्फ प्रतिभा हैं परम गुरु की।
जब भी किसी ने गुरु को पाया, तो उसने अपने गुरु में सारे गुरुओं को पा लिया। एक गुरु में जैसे सारे गुरुओं का सिलसिला,शृंखला उपलब्ध हो गई।
यह केवल श्रद्धा-भावना की बात नहीं है। यह जीवन को देखने का एक और ही ढंग है। श्रद्धा तो इसमें है, लेकिन श्रध्दा, कल्पना की पर्यायवाची नहीं है। भावना तो इसमें है, लेकिन भावना का मतलब बे-पर की बातें नहीं होता। यह जीवन को देखने का और ढंग है।
जैसे कोई गुलाब के फूल को देखे और गुलाब के फूल के सौंदर्य से अभिभूत हो जाए और नाच उठे। और तुम वैज्ञानिक बुद्धि के व्यक्ति उसके पास जा कर कहो कि यह क्या कर रहे हो? कहां है सौंदर्य? हां, फूल है सच, और फूल में पदार्थ भी हैसच; और ले चलते हैं इसे विज्ञान की प्रयोगशाला में और जांच-परख कर लेंगे; खंड खंड फूल को तोड़ कर देख लेंगे। और तुम भी पाओगेः और सब पाया जाता है, सौंदर्य नहीं पाया जाता। सौंदर्य तो केवल श्रद्धा-भावना की बात है।
बात सच है। तथ्य के जगत् में यही सच हैः सौंदर्य तो श्रद्धा-भावना की बात है। लेकिन सौंदर्य के बिना फूल का अर्थ ही खो जाता है। तब उसमें कुछ रासायानिकद्रव्य मिलेंगेः जल मिलेगा, मिट्टी मिलेगी, रंग मिलेंगे--सब मिल जाएगा, लेकिन जो मिलने योग्य था, वह तो खो ही गया।
यह ऐसे है, जैसे कोई जीवित बच्चे को काट ले खंड-खंड और खोजने चले कि क्या था इसके भीतर, जो इसे चलाता था, जो इसे जिलाए था? कौन था जो श्वास लेता था? हड्डी-मांस-मज्जा मिलेगी; सब कुछ मिलेगा, लेकिन जो चलाता था, वह नहीं मिलेगा। इसे पाने का यह ढंग नहीं। वह अदृश्य तुम्हारी दृश्य की अतिशय पकड़ में खो जाएगा।
चरणदास जब कहते हैं कि मेरे गुरु व्यास-पुत्र सुकदेव थे, तो स्वभावतः पंडित हैरान होता है, क्योंकि इन दोनों के बीच समय का बड़ा फासला है, हजारों साल का फासला है। सुकदेव मिल कहां जायेंगेचरणदास को? मुजफ्फरपुर के पास सूकरताल गांव के निकट के जंगल में मिल कहां जायेंगेसुकदेवदास?
तो पंडित तथ्य को खोजता है। लेकिन जब चरणदास को गुरु मिले होंगे, तो चरणदास के लिए गुरु का जो औपचारिक रुप है, वह व्यर्थ हो गया। देह अलग होगी; रुप-रंग अलग होगा; लेकिन वह जो अंतर्निहित तत्व है, वह एक है।
सभी गुरूओं में एक ही परम गुरू होता है। इसलिए भारत की यह बात कई लोगों को समझ में नहीं आती। यहां कई किताबे हैं, जो सभी व्यासदेव ने रचीं! दो किताबों के बीच हजारों साल का फासला हो सकता है; दोनों व्यासदेव ने रंची। एक ही आदमी रचता इतनी किताबें?
तो वैज्ञानिक बुद्धि कहती है कि नहीं; या तो बहुत व्यासदेव नाम के आदमी हुआ और या फिर लोगों ने व्यासदेव के नाम से किताबें रच दीं। यह वस्तुतहव्यासदेव की रची नहीं हो सकतीं। लेकिन उन्हें पता नहीं हैं।
जो भी सत्य को उपलब्ध होता है, उसी को हम व्यासदेव कहते हैं। इसलिए तो जो भी कोई सत्य की प्रतिष्ठा से बोलता है, उसकी पीठ को व्यास-पीठ कहते हैं। वहां बैठते ही, उस पीठ पर बैठते ही, उस प्रतिष्ठा पर बैठते ही उसका जो नाम-धाम थाखो गया; उसका जो औपचारिक पता-ठिकाना था--खो गया। समय की धारा में उसके जो चिन्ह थे, वे खो गए। वह शाश्वत से जुड़ गया। शाश्वत गुरु का नाम है व्यासदेव।
चरणदास को उन अपने गुरु की आंखों में शाश्वत गुरु के दर्शन हुए--इतनी ही बात है।
यह श्रद्धा-भावना की बात नहीं है; यह सत्य ही है; लेकिन यह सत्य किसी दुसरे तल का है। यह सत्य वस्तुओं के तल का नहीं है; यह सत्य अनुभूतियों के तल का है।
चरणदास को गुरु मिले, उसके पहले चरणदास का नाम रणजीतसिंह था। गुरु ने नाम बदल दिया। दीक्षा दे दी। संन्यास में प्रवेश दिलवा दिया।
नाम की बदलाहट बड़ी महत्वपूर्ण है। रणजीतसिंहआक्रमक, हिंसात्मक, महत्वाकांक्षा से भरा हुआ नाम था। नाम दियाचरणदास। एकदम उलटा कर दिया! कहां रणजीतसिंह और कहां चरणदास! सारी जीवन-दिशा बदल दी!
रणजीतसिंह में हैः आक्रमण, विजय की आकांक्षा, हिसंक महत्वाकांक्षा! इसी हिंसक महत्वाकांक्षा के कारण तो सिंह; रणजीतयुद्ध को जीतने चला हुआ व्यक्ति; विजय की यात्रा। एकदम बदल दिया। प्रत्याहार किया। महावीर जिसको कहते हैंप्रतिक्रमण किया। जो बाहर जाती थी उर्जा, भीतर लौटा दी! कहां जाएगा बाहर? जीत बाहर नहीं है। जीत भीतर है।
और भीतर की जीत का अपूर्व नियम है कि जो हारने को राजी हो, वही जीतता। जो जीतने चला, वह हार जाता है। यहां जो संकल्प करेगा वह मिटेगा। और यहां जो समर्पण करता है, सभी कुछ उसे उपलब्ध हो जाता है।
चरणदास यानी समर्पण। रणजीतसिंह यानी संकल्प। रणजीतसिंह यानी दूसरों पर विजय की घोषणा करनी है। और चरणदास यानी अब किसी पर विजय की घोषणा नहीं करनी है। झुक गए, प्रभु के चरण में झुक गए। और जो झुका है, उसने पाया है कि सभी चरण उसके हैं, तो सभी चरणों में झुक गए।
संन्यास के क्षण में नाम का रूपांतरण सिर्फ नाम का रूपांतरण नहीं है। गुरु इंगित देता है, इशारा देता है, आगे की यात्रा की सारी कथा कह देता है। इस छोटे से फर्क से सारा फर्क हो गया। इसमें सारा शास्त्र आ गया, सारी साधना, सारा जीवन अनुशासन, सारी जीवन की शैली बदल दी।
चरणदास के पहले मैं उनकी दो शिष्याओं पर बोला--सहजो और दया पर। तुम थोड़े चैकोगे। शिष्यों पर पहले बोला, फिर गुरु पर बोलता हूं। लेकिन चैंकने की बात नहीं है।
कहते हैंः वृक्ष फल से जाना जाता है। सहजी और दया दो फल लग चरणदास पर। उनका रस तुमने पिया--चखा। उनके रस के बाद ही अब तुम इस वृक्ष-मूल में उतर सकोगे। उस पहचान के बाद ही चरणदास में जाना आसान होगा।
सहजो ने अपने गुरु के संबंध में यह गीत गाया हैः
सखी री आज धन धरती धन देसा।
धन देहरा मेवातमंझारे हरि आए जन भेसा
कि आज का दिन धन्य है, कि आज धरती धन्य है, कि आज देश धन्य है।
सखी री आज धन धरती धन देसा।
धन देहरा मेवातमंझारे हरि आए जन भेसा
मेवात के दोहरा नाम के छोटे से गांव में हरि आए जन भेसा--चरणदास में हरि का अवतरण हुआ है।
धन भादों धन तीज सुधी है, धन मंगलकारी।
धन धूसर कुल बालक जनमई, फुल्लित भए नर नारी
धन-धन माई कुंजी रानी, धन मुरलीधर ताता।
अगले दत्तव अब फल पाए, जिनके सुत भयो ज्ञाता
कहा कि जिनके घर में एक जानने वाला पैदा हो गया है, उस घर में पहले जितने पैदा हुए थे, वे भी सब धन्य हो गए।
एक फल भी अमृत का लग गया, तो उस फल के पीछे का पूरा सिलसिला धन्य हो गया। पूर्णाहुति आ गई; परम शिखर आ गया।
अगले दत्तव अब फल पाए। सदियों-सदियों से यह कुल चेष्टा में रत रहा होगा। कितनों ने आकाक्षाएं बांधी होंगी। कितनों ने पाना चाहा होगा। कितने असफल बिना पाए विदा हो गए होंगे। लेकिन यह सब ने जो बीज बोए थे, प्रभु को पाने की आकांक्षा के, वे इस चरणदास से पूरे हुए। जिनके सुत भयो ज्ञाता...जिनको घर एक जानने वाला बेटा जनम गया।
सखी री आज धन धरती धन देसा।
धन देहरा मेवातमंझारे हरि आए जन भेसा
सहजो और दया का रस तुमने खूब लिया। वह रस चरणदास की प्रसादी थी। वह रस चरणदास के संपर्क में ही उन्हें लगा। वह रंग, वह ढंग, चरणदास की सोहबत का फल था। सत्संग उन्हें छू गया। और ऐसा दो के साथ ही नहीं हुआ। चरणदास के पास सैकड़ों लोग परम अवस्था को उपलब्ध हुए। चरणदास के चरणों में हजारों लोगों ने प्रभु का स्पर्श पाया, प्रभु का स्वाद पाया।
जंगल में भटकते थे। गुरु का तो कोई ख्याल भी न था। आस तो प्रभु की थी; प्यास तो प्रभु की थी; गुरु का तो ख्याल भी न था; गुरु की तो कोई खोज भी न चल रही थी।
अकसर ऐसा ही होता है। गुरु को खोजने कौन निकलता है? लोग तो प्रभु को ही खोजने निकलते हैं; गुरु मिलता हैयह दूसरी बात है।
खोज गुरु की कोई नहीं करता। गुरु की खोज तुम करोगे भी कैसे? खोज तो आत्यंतिक की है, अंतिम की है। खोज तो परमात्मा की है। लेकिन उसी खोज में धक्के खाते-खाते, रोते-रोते, चीखते-चिल्लाते, प्रार्थना-पूजा करते, ध्यान-प्रेम में रमते एक दिन गुरु से मिलना हो जाता है।
जाना तो उस पार है। अनेक-अनेक तरह से तुम उस पार जाने की चेष्टा करते हो, तब धीरे-धीरे तुम्हें समझ में आता है कि उस पार ऐसे न जा सकोगे; माझी की जरूरत पड़ेगी, नाव की जरूरत पड़ेगी। मगर जिसने बहुत खोज की उस पार जाने की, उसे माझी मिल जाता है।
यह जगत् तुम्हारी हा खोज में सहयोगी है। इस सत्य को तुम हृदय में सम्हाल कर रख लेना।
तुम गलत खोजते हो, तो भी यह जगत सहयोगी है। तुम पाप करने जाते हो, तो भी यह अस्तित्व तुम्हारा साथ देता है। इस अस्तित्व की अनुकंपा तुम पर अपार है और बेशर्त है।
तुम बुरा भी करने जाते हो, तो अस्तित्व रोक नहीं लेता। तुम बुरा भी करने जाते हो, तो ऐसा नहीं होता कि सांस चलनी बंद हो जाय; कि परमात्मा तुम्हारे जीवन को छीन ले; कि पैर न उठें; कि लकवा लग जाए; कि तुम गिर पड़ो।
नहीं, तुम बुरा करने जाते हो, तो भी परमात्मा तुम्हारे भीतर श्वास लेता ही रहता है। तुमसे कहे जाता है भीतर-भीतर; बड़े मंदिम स्वर हैं उसके; फुस-फुसाए जाता है कि रूको, मत करो। लेकिन तुम्हारे जीवन को नहीं छीन लेता; तुम्हारी स्वतंत्रता को नहीं छीन लेता। तुम्हें साथ देता है; बुरे में भी साथ देता है।
तो फिर उसकी तो बात ही क्या कहनी, जब तुम परमात्मा को ही खोजने निकलते हो। तब सब तरफ से तुम्हारे लिए सहयोग मिलता है।
हिरदैं माहीं प्रेम जो, नैनों झलके आय।
सोइछकाहरिरस-पगा, वा पग परसौ धाय।।
तब तुम उन मित्रों को खोज लेना, संगी-साथियों को खोज लेना, जिनके बीच बैठ क र तुम आनंद के आंसू रोओ और वे तुम्हारे धन्यभाग के गीत गाएं, वे तुम्हारा अभिनंदन करें। वे कह सकेंःबधाइयां।
तो मिलन दूसरा कदम; और तीसरा कदम--विसर्जन। पहले प्रभु से दूर-दूर हम; अंधेरी रात, अकेले। फिर प्रभु के साथ चांदनी रात और नृत्य और रास। और फिर एक घड़ी आती है, जब तुम तुम नहीं, प्रभु प्रभु नहीं; बूंद सागर में गिर गई या सागर बुंद में।
ये तीन कदम हैं भक्ति के। चरणदास के साथ इन कदमों को समझने की कोशिश करना।
ओशो 

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