तंत्र की विधि- दर्पण में देखना-प्रवचन-छठवांं
(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)
Traslated from- The Transmission of the Lamp, Chapter #3, Chapter title: True balance, 27 May 1986 pm in Punta Del Este, Uruguayप्यारे ओशो,
जब मैं ग्यारह या बारह वर्ष की रही होंगी, मेरे साथ एक विचित्र घटना घटी। स्कूल में एक बार खेल-कूद का पीरियड चल रहा था, मैं यह देखने के लिए कि मैं ठीक-ठाक लग रही हूं या नहीं, बाथरूम में गई। शीशे के सामने मैं खुद को देखने लगी तो अचानक, मैंने पाया कि मैं अपने शरीर और शीशे में अपने प्रतिबिंब दोनों से अलग बीच में खड़ी हूं और देख रही हूं कि मेरा शरीर अपने प्रतिबिंब को शीशे में देख रहा है।
अपने को तीन-तीन रूपों में देखकर मैं हैरान रह गई, और मुझे लगा कि शायद यह कोई तरकीब होगी जिसे मैं सीख सकती हूं। तो उस घटना के बाद, मैंने इस तरकीब को अपनी सहेलियों को दिखाना चाहा, और खुद भी करके देखना चाहा, लेकिन मुझे इसमें सफलता नहीं मिली।
उस समय मुझे ऐसा तो नहीं लगा कि मैं साक्षित्व का कोई प्रयोग कर रही थी। मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे प्राण मेरे शरीर से निकलकर बाहर खड़े हो गए हैं। क्या उस समय जो मुझे हुआ, उसे समझने में अब कोई अर्थ है?
ऐसा कई बच्चों के साथ होता है, लेकिन क्योंकि आसपास का वातावरण होश के प्रति, जागरण के प्रति सहयोगपूर्ण नहीं है, इसलिए वे अनुभव माता-पिता के द्वारा, स्कूल के द्वारा, मित्रों के द्वारा, शिक्षकों के द्वारा समर्थन नहीं पाते। और यदि तुम कहो कि तुम्हें ऐसा हुआ है, तो लोग तुम पर हंसते हैं- और तुम्हें फिर खुद भी लगता है कि शायद तुम्हारे साथ कुछ गलत हुआ, शायद यह कुछ ठीक नहीं था।
उदाहरण के लिए, हर सभ्यता में लगभग सभी बच्चे गोल-गोल घूमना पसंद करते हैं। और हर मां-बाप अपने बच्चों को गोल घूमने से मना करते हैं और कहते हैं, मत घूमो, गिर जाओगे। ये सही है, इस बात की संभावना है कि शायद बच्चा गिर जाए। लेकिन नीचे गिरने से भी कोई बहुत ज्यादा नुकसान हो जाने वाला नहीं है।
लेकिन बच्चे गोल घूमना क्यों पसंद करते हैं? जब शरीर घूम रहा होता है, तो छोटे बच्चे उसे घूमता हुआ देख सकते हैं। वे शरीर के साथ तादात्म्य में नहीं रह जाते, क्योंकि ये उनके लिए बिल्कुल ही अलग अनुभव होता है।
हर चीज के साथ उनका तादात्म्य होता है- चलें तो उसके साथ तादात्म्य बन जाता है, खाएं तो उसके साथ तादात्म्य बन जाता है, वे कुछ भी करें, आमतौर से उसके साथ उनका तादात्म्य बन जाता है। यह तेजी से गोल-गोल घूमना इस प्रकार का अनुभव है कि जितनी तेज शरीर घूमेगा उतने ही उसके साथ तादात्म्य में रह जाने की संभावना कम हो जाती है।
घूमते-घूमते अचानक ऐसा बिंदु आता है कि शरीर तो घूमता चला जाता है, लेकिन उनके प्राण उसके साथ नहीं घूम रहे होते। एक बिंदु पर आकर के उनके प्राण रुक जाते हैं और शरीर को घूमता हुआ देखना शुरू कर देते हैं। कई बार तो वे शरीर से बाहर भी निकल सकते हैं। यदि घूमता हुआ बच्चा एक जगह पर न रुके और घूमता ही चला जाए- बस गोल-गोल घूमता ही चला जाए- तब अचानक वह शरीर से बाहर निकल सकता है और शरीर को घूमता हुआ देख सकता है।
इस तरह की चीजें रोकी नहीं जानी चाहिए उनमें बच्चों की मदद की जानी चाहिए, उनको पोषित किया जाना चाहिए, और बच्चे से पूछना चाहिए, तुम्हें क्या अनुभव हो रहा है? और उसे बताया भी जाना चाहिए, जो अनुभव तुम्हें हो रहा है वह जीवन का बड़ा मूल्यवान अनुभव है, तो इसे भूलना मत। यदि तुम गिर भी जाओ, तो उसमें कोई नुकसान नहीं है; कोई बहुत ज्यादा तुम्हारी हानि होने वाली नहीं है। लेकिन जो तुम्हें मिलेगा वह अमूल्य होगा। लेकिन बच्चों को रोका जाता है कि यह मत करो, वह मत करो।
बचपन में अपने अनुभवों की बात मैं तुमसे कहूं... । मेरे गांव में एक नदी बहती थी- जब उसमें बाढ़ आई रहती, तो उसे तैरकर कोई भी पार नहीं करता था। वह पहाड़ी नदी थी। साधारणतः वह बहुत छोटी होती थी। लेकिन बरसात के समय में जब उसमें बाढ़ आ जाती, तो उसका पाट कम से कम एक मील चौड़ा हो जाता। पानी का बहाव भी बहुत तेज हो जाता था; तुम उसमें खड़े नहीं रह सकते थे। और पानी गहरा भी था, तो उसमें खड़े होने का कोई उपाय भी न था।
मुझे उस नदी से प्रेम था। मैं बरसात के मौसम का इंतजार किया करता। उस समय उस नदी में उतरना एक अलग ही अनुभव था, क्योंकि उसमें तैरते-तैरते एक ऐसा क्षण आता जब मैं अनुभव कर सकता था कि मैं मर रहा हूं, क्योंकि मैं इतना थक जाता और दूसरा किनारा कहीं नजर न आता, और ऊंची उठती लहरों के साथ-साथ बहाव इतना तेज होता... और वापस जाने का भी कोई उपाय न था, क्योंकि दूसरा किनारा भी इतनी ही दूर पीछे छूट गया होता। मैं ठीक मझधार में होता; और दोनों किनारे एक ही जितनी दूरी पर होते।
मैं इतना थक जाता और पानी मुझे इतने तेज प्रवाह के साथ खींचता कि एक समय ऐसा आता जब मैं देख सकता था, अब मेरे और जीने की संभावना नहीं है। और वह क्षण होता जब अचानक मैं अपने आप को पानी से ऊपर देख पाता और मेरा शरीर पानी में ही होता। जब ऐसा पहली बार हुआ, तो मेरे लिए बड़ा भयावह अनुभव था। मुझे लगा कि शायद मैं मर गया हूं। मैंने सुन रखा था कि जब व्यक्ति मरता है, तो उसकी आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती हैः तो मैं शरीर से बाहर निकल गया हूं और मैं मर चुका हूं। लेकिन मैं देख सकता था कि शरीर अभी भी दूसरे किनारे की ओर जाने का प्रयास कर रहा है, तो मैं शरीर के पीछे-पीछे चलता।
वह पहला अवसर था जब मुझे अपने प्राणों और शरीर के बीच के संबंध का पता चला। प्राण तुम्हारे शरीर से नाभि से ठीक दो इंच नीचे जुड़े हुए हैं- एक रजत रज्जु के द्वारा। वह डोरी पदार्थ की नहीं है, लेकिन वह चांदी की तरह चमकती है। और जब भी मैं दूसरे किनारे पर पहुंच जाता, जिस क्षण मैं दूसरे किनारे पर पहुंचता, मेरे प्राण मेरे शरीर में वापस प्रवेश कर जाते। पहली बार तो यह अनुभव भयावह था; लेकिन बाद में तो बड़े आनंद का कारण बन गया।
जब मैंने अपने माता-पिता को कहा, तो वे बोले, ‘किसी दिन तुम उस नदी में डूबकर मर जाओगे। ये इसी बात की ओर संकेत लगता है। उस नदी में जब बाढ़ आई हो, तो वहां कभी मत जाना।’
लेकिन मैंने कहा, ‘मुझे इतना मजा आ रहा है- इतनी स्वतंत्रता वहां है, गुरुत्वाकर्षण वहां नहीं बचता, और अपने ही शरीर को अपने से अलग देखना कितना सुखदायी अनुभव है।’
फिर मैं युनिवर्सिटी चला गया और वहां भी इसी तरह का अनुभव एक बार हुआ। उसके विषय में मैंने बात भी की है। युनिवर्सिटी के केम्पस के ठीक पीछे एक पहाड़ी थी, जहां तीन पेड़ थे। मुझे उन पेड़ों से प्रेम था, क्योंकि होस्टल में तो शांत बैठ पाना लगभग असंभव ही था। तो मैं उस पहाड़ी पर जाकर उन तीनों पेड़ों में से एक पेड़ पर बैठ जाता था। बीच का पेड़ बैठने के लिए बहुत आरामदेह था- उसकी शाखाएं इस तरह फैली हुई थीं कि उन पर आराम से बैठा जा सकता था। और मैं उस पेड़ पर चढ़कर घंटों मौन बैठा रहता।
एक दिन, मुझे पता नहीं कि क्या हुआ- जब मैंने अपनी आंखें खोलीं तो मैंने पाया कि मेरा शरीर जमीन पर पड़ा हुआ है। ये वही अनुभव था जो पहले नदी में कई बार हो चुका था, इसलिए मुझे कोई भय नहीं लगा। लेकिन नदी में ऐसा होता था कि जब मैं दूसरे किनारे पहुंचता तो प्राण अपने आप शरीर में वापस प्रवेश कर जाते थे। मुझे पता नहीं था कि शरीर में वापस कैसे प्रवेश करना है; ये घटना स्वयं अपने आप ही घटी थी, तो यहां मुझे पता ही नहीं लगा कि मैं शरीर में वापस कैसे प्रवेश करूं। मुझे इस बारे में कोई ख्याल ही नहीं था। मैं देख पा रहा था उस डोरी को, जिसने मुझे शरीर से जोड़ रखा था, लेकिन शरीर में कैसे प्रवेश करना है? कहां से प्रवेश करना? इसकी कोई तरकीब तो मैंने किसी से सीखी नहीं थी। मैं चुपचाप इंतजार करता रहा, और कुछ मैं कर भी नहीं सकता था।
एक स्त्री जो होटल में दूध बेचने आया करती थी वह वहां से गुजरी, और उसने देखा कि मेरा शरीर जमीन पर पड़ा हुआ है। वह हैरान हुई। यह देखने के लिए कि मैं जिंदा हूं या मरा चुका हूं, उसने मेरे सिर पर हाथ लगाया। और जिस क्षण उसने मेरे सिर पर हाथ लगाया, मैं अपने शरीर में एक प्रबल शक्ति के साथ प्रवेश कर गया।
मुझे पता नहीं लगा कि उस समय शरीर कैसे प्रवेश कर गया। लेकिन एक बात निश्चित हो गई; यदि कोई पुरुष अपने शरीर से बाहर निकला हो, तो किसी स्त्री का स्पर्श उसे शरीर में वापस लाने के लिए पर्याप्त होता है। और ठीक इससे उलटा भी सत्य है; यदि किसी स्त्री के प्राण उसके शरीर से बाहर निकले हों, तो किसी पुरुष के स्पर्श द्वारा वह अपने शरीर में वापस लौट आएगी। और यह स्पर्श माथे पर तीसरे नेत्र के ऊपर होना चाहिए।
उस स्त्री ने संयोग से ही मेरे सिर को छूकर देखा कि मैं जिंदा हूं या मर चुका हूं। उसे तो कोई ख्याल ही नहीं था कि मैं स्वयं पेड़ पर बैठा देख रहा हूं कि वह क्या कर रही है। जब मैंने अपनी आंखें खोलीं तो वह चौंक गई।
वह बोली, ‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’
मैंने कहा, ‘मैं भी तुमसे यही पूछने वाला था कि तुम यहां मेरे माथे पर हाथ क्यों लगा रही हो?’
वह बोली, ‘मैं सोच रही थी शायद कि तुम्हारे साथ कोई दुर्घटना हो गई है। तुम बिल्कुल मरे हुए ही दिख रहे थे।’
मैंने कहा, ‘मैं करीब-करीब मर ही चुका था, और मैं तुम्हारा अनुगृहीत हूं कि तुमने मेरी मदद की। तुम्हारे स्पर्श के कारण ही मैं शरीर में वापस आ पाया हूं।’
वह बोली, ‘तुम्हारा मतलब तुम पेड़ पर बैठे हुए थे?’
वह मुझसे बुरी तरह डर गई। वह मेरे लिए भी दूध लाया करती थी। उसने मेरे रुम में आना ही छोड़ दिया। वह कहने लगी, ‘मुझे उस व्यक्ति के सामने ही नहीं पड़ना। वह तो खतरनाक है। वह क्या कर रहा था? मुझे नहीं पता, लेकिन वह कुछ खतरनाक कर रहा था।’
मुझे किसी तरह उसे खोजकर उसे बताना पड़ा, तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है। मैं कुछ भी नहीं कर रहा था। मैं तो बस ध्यान कर रहा था कि मेरा शरीर नीचे गिर पड़ा। तुमने मेरी मदद की, और मैं अनुगृहीत हूं। और फिर तुम्हारे जैसा अच्छा दूध भी यहां लाने वाला कोई नहीं, तो तुम दूध लाना बंद मत करना। और यदि तुमने दूध लाना बंद कर दिया, तो जब भी तुम उस पेड़ के पास से गुजरोगी मैं वहां बैठना शुरू कर दूंगा- याद रखना! और जब भी तुम गुजरोगी मेरा शरीर जमीन पर पड़ा होगा, और मैं पेड़ पर बैठकर नजारा देखूंगा।
वह बोली, ‘दुबारा ऐसा मत करना। मैं तुम्हें दूध दूंगी- बिल्कुल शुद्ध दूध, बिना पानी मिलाए- लेकिन तुम ऐसा दुबारा मत करना, कम से कम जब मैं वहां से गुजर रही हूं, तब तो बिल्कुल ही ऐसा मत करना।’
तो मैंने कहा, ‘याद रख, यदि तुमने दूध देना बंद कर दिया, तो जब भी तुम वहां से गुजरोगी मैं वहीं बैठा तुम्हें मिलूंगा। मैं तुम्हारे गांव में भी आ सकता हूं; तुम्हारे घर के सामने ही बैठकर भी मैं ऐसा कर सकता हूं।’
वह बोली, ‘मैं गरीब स्त्री हूं। मेरे लिए कोई तकलीफ पैदा मत करो।’
तुम्हारे साथ स्कूल में जो हुआ वह संयोग मात्र था। यदि तुम उस अनुभव को पकड़ने के लिए उसके पीछे लगी होती, तुमने कुछ किया होता तो वह अनुभव दोबारा भी आ सकता था।
वास्तव में, दर्पण में देखना तो तंत्र द्वारा सुझाया गया एक उपाय है- लेकिन उस विधि में बहुत देर तक दर्पण में देखना होता है, ताकि तुम अपने प्रतिबिंब के साथ एक तादात्म्य बना लो, तुम उसके साथ इतने तादात्म्य हो जाओ कि जैसे ही तुम एक कदम पीछे हटो, तो तुम्हारा शरीर उस पुरानी अवस्था में ही खड़ा रह जाए। और स्त्रियों के लिए यह विधि और भी सरल है, क्योंकि उनसे अधिक और कोई भी दर्पण के सामने इतना समय नहीं बिताता।
तंत्र के पुराने शास्त्रों में इस विधि का सुझाव दिया गया है। तुम दर्पण के सामने बैठकर या खड़े होकर लगातार उसमें देखते रहो, देखते रहो। इतनी देर तक उसमें देखो कि तुम अपने प्रतिबिंब के साथ पूरी तरह एक हो जाओ। फिर तुम एक कदम पीछे हटाओ। तुम्हारा शरीर नहीं हटेगा, लेकिन तुम्हारे प्राण पीछे हट जाएंगे। फिर तुम तीन शरीरों को देख पाओगे।
वैसे अगर, तुम हर रोज एक घंटा दर्पण के सामने बैठ जाओ और अपनी आंखों में झांकते रहो, तो कुछ दिनों में, कुछ हफ्तों में- यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है- एक दिन अचानक तुम देखोगे कि दर्पण खाली हो गया; तुम उसके सामने खड़े होओगे, लेकिन दर्पण खाली हो गया। वह भी एक बड़ा अनुभव है। जब यह अनुभव तुम्हें होगा, तुम पाओगे कि एक अपार मौन और एक शांति जो तुमने पहले कभी नहीं जानी वह अचानक तुम पर उतर आई। तुम्हें लगेगा कि जैसे तुम हर प्रतिबिंब के पार चले गए। और प्रतिबिंबों के पार जाकर वास्तविकता पर लौट आए।
तुम्हारे साथ जो हुआ, अच्छा ही हुआ। ऐसे अनुभव कई बच्चों को होते हैं। मुझे कई लोगों ने बताया है कि उन्हें इस प्रकार के अनुभव हुए, लेकिन कोई इन अनुभवों के पीछे जाने की कोशिश नहीं करता। तो कभी कभार ऐसे अनुभव होते हैं, और फिर व्यक्ति उनके बारे में भूल जाता है, या वह सोचने लगता है कि उसने केवल उनकी कल्पना ही की थी, शायद यह कोई सपना था या कोई कल्पना थी। लेकिन वास्तव में यह अनुभव यथार्थ होते हैं। तुम सच में ही अपने शरीर से बाहर चली गई थीं, और जो तुमने देखा वह शरीर के बाहर आकर जागरण का एक अनुभव था।
उसी प्रकार का जागरण तुम्हें अपने शरीर के भीतर भी साधना होगा। इन दोनों में गुण का कोई भेद नहीं है। और शरीर के बाहर जाने के इस अनुभव को समझ पाने का सरलतम उपाय है कि तुम बिस्तर पर पीठ के बल लेट जाओ। शरीर को बिल्कुल शिथिल छोड़ दो, और जब तुम्हें लगे कि तुम पूरी तरह से विश्राम में आ गए, तो अनुभव करना शुरू करो कि तुम्हारे शरीर से तुम बाहर निकल गए हो, छत की ओर तैरते हुए बढ़ रहे हो। कुछ दिनों में तुम अपने शरीर के ऊपर उठ आने में सक्षम हो जाओगे। लेकिन यह बात पूरी तरह से निश्चित कर लो कि इस अवस्था में कोई तुम्हें परेशान न करे। क्योंकि यदि बीच में आकर कोई तुम्हें हिलाए-डुलाए, या तुमसे बात करने लगे, तो हो सकता है कि वह जो महीन धागा तुम्हें तुम्हारे शरीर से जोड़े हुए है वह टूट जाए, और तुम्हारी मृत्यु हो जाए।
इस प्रयोग को करते समय मोमबत्ती की हलकी-हलकी रोशनी हो, और किसी अगरबत्ती का प्रयोग भी करो। लेकिन जो भी कुछ तुम करते हो- जो अगरबत्ती जलाते हो, जिस तरह की मोमबत्ती जलाते हो- फिर हमेशा उसी तरह की चीजों का उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि वे तुम्हारे प्रयोग के साथ जुड़ जाएं।
दो या तीन अनुभवों के बाद तुम जैसे ही वह अगरबत्ती जलाओगे और उस तरह की मोमबत्तियां जलाकर शांत लेटोगे, एकदम से तुम शरीर से बाहर निकल पाओगे। लेकिन इस बात का पूरी तरह से ख्याल रखना पड़ेगा कि इस बीच तुम्हें कोई भी किसी भी तरह की बाधा न दे, कोई भी उस समय उस कमरे में अचानक प्रवेश न कर सके, कोई भी उस कमरे के दरवाजे को खटखटाए नहीं। वह घातक हो सकता है। यदि वह धागा टूट जाए तो उसे वापस जोड़ने का कोई उपाय नहीं है।
जब तुम अपने को यह सुझाव दो कि अब मैं अपने शरीर से बाहर निकलूंगा, अब मैं अपने शरीर से बाहर निकलूंगा, तो उस समय तुम यह सुझाव भी अपने आप को दो कि ठीक तीस मिनट बाद खुद ही मैं अपने शरीर में वापस लौट आऊंगा।
इस बात को कभी भी मत भूलना- क्योंकि शरीर में वापस प्रवेश करना कठिन है। और यदि कभी ऐसा होता है... तो यदि पुरुष ऐसा ध्यान कर रहा है, तो स्त्री को उसके आज्ञा चक्र पर हलके से छूना चाहिए और यदि कोई स्त्री ध्यान कर रही है तो किसी पुरुष को उसके आज्ञा चक्र को हलके से छूना चाहिए। इसलिए यह भी अच्छा होगा कि तुम पहले से अपने दरवाजे पर किसी को बिठा दो, एक तो वह किसी को भीतर आने नहीं देगा, और यदि आधे घंटे के बाद तुम कमरे से बाहर नहीं निकले हो, तो वह आकर तुम्हारे आज्ञा चक्र को छू भी सकेगा। और इस प्रकार आज्ञा चक्र पर छूने भर से ही एकदम तुम अपने शरीर में वापस लौट आते हो।
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