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बुधवार, 13 नवंबर 2019

29-मीरा बाई-(ओशो)

29-मीरा बाई-भारत के संत

पद धूंधरू बांध मीरा नाची रे-ओशो

आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।
और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।
हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे!
कुछ और से राजी मत हो जाना। क्षुद्र से राजी हो गया, वह विराट को पाने में असमर्थ हो जाता है। नदी-नालों का पानी पीने से जो तृप्त हो गया, वह मानसरोवरों तक नहीं पहुंच पाता है; जरूरत ही नहीं रह जाती।
मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके सहारे पर उस पार जा सकते हो।

मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम रेखाबद्ध तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहां नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है। जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।
प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो सोच-विचार खोने को तैयार हों; जो सिर गंवाने को उत्सुक हों। उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में, विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।
तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक नहीं। शास्त्र कम है, संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है, भक्त सत्य की खोज नहीं करता, भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है: सत्य सुंदर है। भक्त कहता है: सौंदर्य सत्य है।

वैज्ञानिक कहते हैं: मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में विभाजित है। बाईं तरफ जो मस्तिष्क है वह सोच-विचार करता है; गणित, तर्क, नियम, वहां सब शृंखलाबद्ध है। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है वहां सोच-विचार नहीं है; वहां भाव है, वहां अनुभूति है। वहां संगीत की चोट पड़ती है। वहां तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहां लयबद्धता पहुंचती है। वहां नृत्य पहुंच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुंचते।
स्त्री दाएं तरफ के मस्तिष्क से जीती है; पुरुष बाएं तरफ के मस्तिष्क से जीता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच बात भी मुश्किल होती है; कोई मेल नहीं बैठता दिखता है। पुरुष कुछ कहता है, स्त्री कुछ कहती है। पुरुष और ढंग से सोचता है, स्त्री और ढंग से सोचती है। उनके सोचने की प्रक्रियाएं अलग हैं। स्त्री विधिवत नहीं सोचती; सीधी छलांग लगाती है, निष्कर्षों पर पहुंच जाती है। पुरुष निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, विधियों से गुजरता है। क्रमबद्ध--एक-एक कदम।
प्रेम में काई विधि नहीं होती, विधान नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह। हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है।
पुरुषों ने भी भक्ति के गीत गाए हैं लेकिन मीरा का कोई मुकाबला नहीं है; क्योंकि मीरा के लिए, स्त्री होने के कारण जो बिलकुल सहज है, वह पुरुष के लिए थोड़ा आरोपित सा मालूम पड़ता है। पुरुष भक्त हुए; जिन्होंने अपने को परमात्मा की प्रेयसी माना, पत्नी माना, मगर बात कुछ अड़चन भरी हो जाती है। संप्रदाय है ऐसे भक्तों का, बंगाल में अब भी जीवित--जो पुरुष हैं लेकिन अपने को मानते हैं कृष्ण की पत्नी। रात स्त्री जैसा शृंगार करके, कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगा कर सो जाते हैं। मगर बात में कुछ बेहूदापन लगता है। बात कुछ जमती नहीं। ऐसा ही बेहूदापन लगता है जैसे कि तुम, जहां जो नहीं होना चाहिए, उसे जबरदस्ती बिठाने की कोशिश करो, तो लगे।
पुरुष पुरुष है; उसके लिए स्त्री होना ढोंग ही होगा। भीतर तो वह जानेगा ही कि मैं पुरुष हूं। ऊपर से तुम स्त्री के वस्त्र भी पहन लो और कृष्ण की मूर्ति को हृदय से भी लगा लो--तब भी तुम भीतर के पुरुष को इतनी आसानी से खो न सकोगे। यह सुगम नहीं होगा।
स्त्रियां भी हुई हैं जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से यात्रा की है, मगर वहां भी बात कुछ बेहूदी हो गई। जैसे ये पुरुष बेहूदे लगते हैं और थोड़ा सा विचार पैदा होता है कि ये क्या कर रहे हैं! ये पागल तो नहीं हैं!--ऐसे ही "लल्ला' कश्मीर में हुई, वह महावीर जैसे विचार में पड़ गई होगी; उसने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई। लल्ला में भी थोड़ा सा कुछ अशोभन मालूम होता है। स्त्री अपने को छिपाती है। वह उसके लिए सहज है। वह उसकी गरिमा है। वह अपने को ऐसा उघाड़ती नहीं। ऐसा उघाड़ती है तो वेश्या हो जाती है।
मीरा को तर्क और बुद्धि से मत सुनना। मीरा का कुछ तर्क और बुद्धि से लेना-देना नहीं है। मीरा को भाव से सुनना, भक्ति से सुनना, श्रद्धा की आंख से देखना। हटा दो तर्क इत्यादि को, किनारे सरका कर रख दो। थोड़ी देर के लिए मीरा के साथ पागल हो जाओ। यह मस्तों की दुनिया है। यह प्रेमियों की दुनिया है। तो ही तुम समझ पाओगे, अन्यथा चूक जाओगे।
बहुत बार मौके आए जब मैं मीरा पर बोलता; लेकिन टालता गया। क्योंकि मीरा पर कुछ बोलना कठिन है। महावीर पर बोलना बहुत आसान है। बुद्ध पर बोलना बहुत आसान है। पतंजलि पर बोलना बहुत आसान है। मीरा पर बोलना बहुत कठिन है। क्योंकि यह बात बोलने की है ही नहीं; यह बात तो होने की है। यह भाव की है। मीरा गुनगुनाई जा सकती है, मीरा पर बोलो क्या? मीरा गाई जा सकती है, मीरा पर बोलो क्या? मीरा नाची जा सकती है, मीरा पर बोलो क्या?
इसलिए तुम से कहता हूं: आओ, इस गौरीशंकर पर चढ़ें--प्रेम के गौरीशंकर पर! इस ऊंचाई पर पंख फैलाएं! केवल वे ही उड़ पाने में समर्थ होंगे जो तर्क का बोझ एक तरफ हटा कर रख देंगे।
मीरा के पास तुम्हें देने को बहुत है। मीरा एक मेघ है, जो बरस जाए तो तुम तृप्त हो जाओ।
मीरा के जो वचन हम सुनेंगे, चर्चा करेंगे, गुनगुनाएंगे, डूबेंगे--इन वचनों में ऊपर से कोई तारतम्य नहीं है। ये तो भक्त की अनुभूतियां हैं। लेकिन भीतर बड़ा तारतम्य है। ऊपर-ऊपर कुछ न दिखाई पड़ेगा कि इनमें क्या संबंध है। मीरा ने कोई रामचरितमानस नहीं लिखा है कि शुरू किया बालकांड से और चले। ये तो भाव की अराजक अभिव्यक्तियां हैं। जब उठा भाव, गाया। जैसा उठा वैसा गाया। फिर यह लोगों के सामने भी गाई गई बातें नहीं हैं। ये तो उस परम प्यारे के सामने गाए गए गीत हैं। इन गीतों में सुधार भी नहीं किया गया है। कवि लिखता तो खूब सुधार-संशोधन करता है। ये तो कच्चे, कोरे, वैसे के वैसे जैसे खदान से हीरे निकलते हैं--तराशे नहीं गए--बेतराशे, अनगढ़!
मीरा को फिकर नहीं है आदमियों की कि इनमें, गीतों में भूल-चूक लगेगी, काव्य के नियम पूरे होंगे कि नहीं, मात्राएं ठीक बैठती हैं कि नहीं; इस सबका कोई हिसाब नहीं है।
तुम जब अपने प्रेमी के सामने गीत गाते हो तो यह सब थोड़े ही फिकर रखते हो! प्रेमी तुम्हारा परीक्षक थोड़े ही है! प्रेमी के सामने जब तुम गीत गाते हो, तो तुम यह थोड़े ही सोचते हो कि गीत भाषा की दृष्टि से, व्याकरण की दृष्टि से, मात्रा-छंद की दृष्टि से--पूरा है या नहीं! इतना ही देखते हो कि मेरा हृदय इस गीत में उंडल रहा है या नहीं! जब शराब से भरी हुई प्याली हो तो प्याली का आकार कौन देखता है--किस आकार की है!
तो तुम पीओगे तो समझोगे। और तारतम्य भी मिलेगा। लेकिन तारतम्य ऐसा रहेगा, ऊपर-ऊपर से दिखाई नहीं पड़ेगा! जैसे एक गुलाब की झाड़ी पर बहुत से गुलाब के फूल खिले हैं, ऊपर से तो कोई जुड़े दिखाई नहीं पड़ते। कोई छोटा है, कोई बड़ा है। और अगर माली कुशल रहा हो तो कोई सफेद है, और कोई लाल है, और कोई पीला है। सब अलग-अलग ढंग के खिले हैं। लेकिन सब एक ही जड़ से जुड़े हैं। वही जड़ तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो तुम मीरा के साथ हो लोगे।
इसके पहले कि हम मीरा के शब्दों में उतरें, मीरा के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात: मीरा का कृष्ण से प्रेम मीरा की तरह शुरू नहीं हुआ! प्रेम का इतना अपूर्व भाव इस तरह शुरू हो भी नहीं सकता। यह कहानी पुरानी है। यह मीरा कृष्ण की पुरानी गोपियों में से एक है। मीरा ने खुद भी इसकी घोषणा की है, लेकिन पंडित तो मानते नहीं। क्योंकि इसके लिए इतिहास का कोई प्रमाण नहीं है। मीरा ने खुद भी कहा है कि कृष्ण के समय में मैं उनकी एक गोपी थी, ललिता मेरा नाम था। मगर पंडित तो इसको टाल जाते हैं; यह बात को ही कह देते हैं कि किंवदंती है, कथा-कहानी है। मैं ऐसा न कर सकूंगा। मैं पंडित नहीं हूं। और हजार पंडित कहते हों तो उनकी मैं दो कौड़ी की मानता हूं। मीरा खुद कहती है, उसे मैं स्वीकार करता हूं। सच-झूठ का मुझे हिसाब भी नहीं लगाना है। बात के इतिहास होने न होने से कोई प्रयोजन भी नहीं है। मीरा का वक्तव्य, मैं राजी हूं। मीरा जब खुद कहती है तो बात खतम हो गई। फिर किसी और को इसमें और प्रश्न उठाने का प्रश्न नहीं उठना चाहिए। और जो इस तरह के प्रश्न उठाते हैं वे मीरा को समझ भी न पाएंगे।
मीरा ने कहा है: मैं ललिता थी। कृष्ण के साथ नाची, वृंदावन में कृष्ण के साथ गाई। यह प्रेम पुराना है--मीरा यही कह रही है--यह प्रेम नया नहीं है। और इसकी शुरुआत जिस ढंग से हुई, वह शुरुआत भी करती है साफ कि पंडित गलत होंगे, मीरा सही है। और पंडित कितने ही सही लगें, फिर भी सही नहीं होते, क्योंकि उनके सोचने का ढंग ही बुनियाद से गलत होता है। वे प्रमाण मांगते हैं। अब प्रमाण क्या? किसी अदालत की सील-मोहर लगी हुई कोई फाइल मौजूद करे मीरा, कि कृष्ण के समय में थी? कहां से प्रमाणपत्र लाए? गवाह जुटाए? अंतर्भाव पर्याप्त है। और उसका अंतर्भाव प्रमाण है।
मीरा छोटी थी, चार-पांच साल की रही होगी, तब एक साधु मीरा के घर मेहमान हुआ, और जब सुबह साधु ने उठ कर अपनी मूर्ति--कृष्ण की मूर्ति छुपाए था अपनी गुदड़ी में--निकाल कर जब उसकी पूजा की तो मीरा एकदम पागल हो गई। देजावुह हुआ। पूर्वभव का स्मरण आ गया। वह मूर्ति कुछ ऐसी थी कि चित्र पर चित्र खुलने लगे। वह मूर्ति जो थी--शुरुआत हो गई फिर से कहानी की; निमित्त बन गई। उससे चोट पड़ गई। कृष्ण की मूरत फिर याद आ गई। फिर वह सांवला चेहरा, वे बड़ी आंखें, वे मोरमुकुट में बंधे, वे बांसुरी बजाते कृष्ण! मीरा लौट गई हजारों साल पीछे अपनी स्मृति में। रोने लगी। साधु से मांगने लगी मूर्ति। लेकिन साधु को भी बड़ा लगाव था अपनी मूर्ति से; उसने मूर्ति देने से इनकार कर दिया। वह चला भी गया। मीरा ने खाना-पीना बंद दिया।
पंडितों के लिए यह प्रमाण नहीं होता कि इससे कुछ प्रमाण है देजावुह का। लेकिन मेरे लिए प्रमाण है। चार-पांच साल की बच्ची! हां, बच्चे कभी-कभी खिलौनों के लिए भी तरस जाते हैं, लेकिन घड़ी-दो घड़ी में भूल जाते हैं। दिन भर बीत गया, न उसने खाना खाया, न पानी पीया। उसकी आंखों से आंसू बहते रहे। वह रोती ही रही। उसके घर के लोग भी हैरान हुए कि अब क्या करें? साधु तो गया भी, कहां उसे खोजें? और वह देगा, इसकी भी संभावना कम है।
और वह कृष्ण की मूरत जरूर ही बड़ी प्यारी थी, घर के लोगों को भी लगी थी। उन्होंने भी बहुत मूर्तियां देखी थीं, मगर उस मूर्ति में कुछ था जीवंत, कुछ था जागता हुआ, उस मूर्ति की तरंग ही और थी। जरूर किसी ने गढ़ी होगी प्रेम से; व्यवसाय के लिए नहीं। किसी ने गढ़ी होगी भाव से। किसी ने अपनी सारी प्रार्थना, अपनी सारी पूजा उसमें ढाल दी होगी। या किसी ने, जिसने कृष्ण को कभी देखा होगा, उसने गढ़ी होगी। मगर बात कुछ ऐसी थी, मूर्ति कुछ ऐसी थी कि मीरा भूल ही गई, इस जगत को भूल ही गई। वह तो उस मूर्ति को लेकर रहेगी, नहीं तो मर जाएगी। यह विरह की शुरुआत हुई चार-पांच साल की उम्र में!
रात उस साधु ने सपना देखा। दूर दूसरे गांव में जाकर सोया था। रात सपना आया: कृष्ण खड़े हैं। उन्होंने कहा कि मूर्ति जिसकी है उसको लौटा दे। तूने रख ली, बहुत दिन तक; यह अमानत थी; मगर यह तेरी नहीं है। अब तू नाहक मत ढो। तू वापस जा, मूर्ति उस लड़की को दे दे; जिसकी है उसको दे दे। उसकी थी, तेरी अमानत पूरी हो गई। तेरा काम पूरा हो गया। यहां तक तुझे पहुंचाना था, वहां तक पहुंचा दिया; अब खतम हो गई।
मूर्ति उसकी है जिसके हृदय में मूर्ति के लिए प्रेम है। और किसकी मूर्ति? साधु तो घबड़ा गया। कृष्ण तो कभी उसे दिखाई भी न पड़े थे। वर्षों से प्रार्थना-पूजा कर रहा था, वर्षों से इसी मूर्ति को लिए चलता था, फूल चढ़ाता था, घंटी बजाता था, कृष्ण कभी दिखाई न पड़े थे। वह तो बहुत घबड़ा गया। वह तो आधी रात भागा हुआ आया। आधी रात आकर जगाया और कहा: मुझे क्षमा करो, मुझसे भूल हो गई। इस छोटी सी लड़की के पैर पड़े, इसे मूर्ति देकर वापस हो गया।
यह जो चार-पांच साल की उम्र में घटना घटी, इससे फिर से दृश्य खुले; फिर प्रेम उमगा; फिर यात्रा शुरू हुई। यह मीरा के इस जीवन में कृष्ण के साथ पुनर्गठबंधन की शुरुआत है। मगर यह नाता पुराना था। नहीं तो बड़ा कठिन है। कृष्ण को देखा न हो, कृष्ण को जाना न हो, कृष्ण की सुगंध न ली हो, कृष्ण का हाथ पकड़ कर नाचे न होओ--तो लाख उपाय करो, तुम कृष्ण को कभी जीवंत अनुभव न कर सकोगे। इसलिए जीता सदगुरु ही सहयोगी होता है।
तुम भी कृष्ण की मूर्ति रख कर बैठ सकते हो, मगर तुम्हारे भीतर भाव का उद्रेक नहीं होगा। भाव के उद्रेक के लिए तुम्हारी अंतर-कथा में कोई संबंध चाहिए कृष्ण से; तुम्हारी अंतर-कथा में कोई समानांतर दशा चाहिए।
मीरा का भजन तुम भी गा सकते हो; लेकिन जब तक कृष्ण से तुम्हारा कुछ अंतर-नाता न हो, तब तक भजन ही रह जाएगा, जुड़ न पाओगे। हृदय--हृदय न मिलेगा, सेतु न बनेगा।
वह चार-पांच वर्ष की उम्र में घटी छोटी सी घटना--सांयोगिक घटना--और क्रांति हो गई। मीरा मस्त रहने लगी, जैसे एक शराब मिल गई। दो वर्ष बाद पड़ोस में किसी का विवाह हुआ, और यह सात-आठ साल की लड़की ने पूछा अपनी मां को: सबका विवाह होता है, मेरा कब होगा? और मेरा वर कौन है?
और मां ने तो ऐसे ही मजाक में कहा, क्योंकि वह उस वक्त भी कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाए खड़ी थी--कि तेरा वर कौन है?--यह गिरधर गोपाल! यह गिरधरलाल! यही तेरे वर हैं! और क्या चाहिए? यह तो मजाक में ही कहा था! मां को क्या पता था कि कभी-कभी मजाक में कही गई बात भी क्रांति हो जा सकती है। और क्रांति हो गई।
और कभी-कभी कितनी ही गंभीरता से तुमसे कहा जाए, कुछ भी नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे भीतर कुछ छूता ही नहीं। हो तो छुए। बीज को पत्थर पर फेंक दोगे तो अंकुरित नहीं होता; ठीक भूमि मिल जाए तो अंकुरित हो जाता है। वह ठीक भूमि थी। मां को भी पता नहीं था; सोचती थी कि बच्चे का खिलवाड़ है; कृष्ण एक खिलौना हैं। मिल गए हैं इसको। सुंदर मूर्ति है, माना। तो नाचती-गुनगुनाती रहती है--ठीक है--अपने उलझी रहती है; कुछ हर्जा भी नहीं है। मजाक में ही कहा था कि तेरे तो और कौन पति! ये गिरिधर गोपाल हैं! ये नंदलाल हैं! मगर उसका मन उसी दिन भर गया। यह बात हो गई। कभी-कभी संयोग महारंभ बन जाते हैं--महाप्रस्थान के पथ पर। उसने तो मान ही लिया। वह छोटा सा भोला-भाला मन! उसने मान लिया कि यही उसके पति हैं। फिर क्षण भर को भी यह बात डगमगाई नहीं। फिर क्षण भर को भी यह बात भूली नहीं।
असल में बचपन में अगर कोई भाव बैठ जाए तो बड़ा दूरगामी होता है। यह बात बैठ गई। उस दिन से उसने अपना सारा प्रेम, कृष्ण पर उंडेल दिया। जितना तुम प्रेम उंडेलोगे, उतने ही कृष्ण जीवित होते चले गए। पहले अकेली बात करती थी, फिर कृष्ण भी बात करने लगे। पहले अकेली डोलती थी, फिर कृष्ण भी डोलने लगे। यह नाता भक्त का और मूर्ति का न रहा; भक्त और भगवान का हो गया।
और इसके बाद कुछ घटनाएं घटीं, जो खयाल में ले लेनी चाहिए--जो महत्वपूर्ण हैं।
मीरा पर जिन लोगों ने किताबें लिखी हैं, वे सब लिखते हैं: दुर्भाग्य से मीरा की मां मर गई, जब वह बहुत छोटी थी। फिर उसके बाबा ने उसे पाला। फिर बाबा मर गए। फिर सत्रह-अठारह साल की उम्र में उसका विवाह किया गया। फिर उसके पति मर गए। फिर ससुर ने उसकी सम्हाल की। और फिर ससुर भी मर गए। फिर पिता उसकी देखभाल किए, फिर पिता भी मर गए। ऐसी पांच मृत्युएं हुईं। जब मीरा कोई बत्तीसत्तैंतीस साल की थी, तब तक उसके जीवन में जो भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, सभी मर गए। जिनको भी उसने चाहा था और प्रेम किया था, वे सब मर गए।
जो लोग मीरा पर किताबें लिखते हैं--वे सब लिखते हैं: दुर्भाग्य से। मैं ऐसा नहीं कह सकता। यह सौभाग्य से ही हुआ। वे लिखते हैं दुर्भाग्य से, क्योंकि मृत्यु को सभी लोग दुर्भाग्य मानते हैं। लेकिन यही तो मीरा के जन्म का कारण बना। जितना भी प्रेम कहीं था, वह सब सिकुड़ता गया। सारा प्रेम गोपाल पर उमड़ता गया। मां से लगाव था, मां चल बसी। उतना प्रेम जो मां से उलझा था, वह भी गोपाल के चरणों में रख दिया। फिर बाबा ने पाला, फिर बाबा चल बसे; उनसे प्रेम था, वह भी गोपाल के चरणों में रख दिया। ऐसे संसार छोटा होता गया, सिकुड़ता गया और परमात्मा बड़ा होता गया। तो मैं नहीं कह सकता दुर्भाग्य से; मैं तो कहूंगा सौभाग्य से; क्योंकि मृत्यु का मेरे लिए कोई ऐसा भाव नहीं है, मृत्यु के प्रति कि वह कोई आवश्यक रूप से अभिशाप है। सब तुम पर निर्भर है। मीरा ने उसका ठीक उपयोग कर लिया। जहां-जहां से प्रेम उखड़ता गया, एक-एक प्रेम-पात्र जाने लगा, वह अपने उस प्रेम को परमात्मा में चढ़ाने लगी।
अंतिम सूत्र था--पिता का रहना। पिता भी चल बसे। पति भी चल बसे, पिता भी चल बसे। पांच मृत्युएं हो गईं सतत। जगत से सारा संबंध टूट गया। उसने ठीक उपयोग कर लिया। जगत से टूटते हुए संबंधों को उसने जगत के प्रति वैराग्य बना लिया। और जगत से जो प्रेम मुक्त हो गया, उसको परमात्मा के चरणों में चढ़ा दिया। वह कृष्ण के राग में डूब गई।
और इन मृत्युओं ने एक और सौभाग्य का काम किया, कि इन्होंने एक बात दिखा दी कि इस जगत में सब क्षणभंगुर है; अगर प्यारा खोजना हो तो शाश्वत में खोजो। यहां कुछ अपना नहीं है। यहां भरमो मत, अपने को भरमाओ मत! यहां सब छूट जाने वाला है। यहां मृत्यु ही मृत्यु फैली है। यहां मरघट है। यहां बसने के इरादे मत करो। यहां कोई कभी बसा नहीं।
अपनी आंख से देखा सबको जाते उसने। बत्तीसत्तैंतीस साल की उम्र कोई बड़ी उम्र नहीं। जवान थी। जवानी में इतनी मौत घटीं कि मौत का कांटा उसे ठीक-ठीक साफ-साफ दिखाई पड़ गया कि जीवन क्षणभंगुर है। और तब उसका मन यहां से विरक्त हो गया। जो यहां से विरक्त है, वही परमात्मा में अनुरक्त हो सकता है।
तुम दोनों राग एक साथ नहीं पाल सकते हो। तुम दो नावों पर एक साथ सवार नहीं हो सकते हो।
तो जब मैंने तुमसे कहा, "आओ, प्रेम की झील में नौका-विहार को चलें'--तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं: अब तुम अपनी संसार की नाव से उतरो, अब परमात्मा को नाव बनाओ। "आओ, प्रेम के गौरीशंकर पर चढ़ें'--तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं: अपनी अंधेरी घाटियों से लगाव छोड़ो; वहां मृत्यु के सिवाय और कोई भी नहीं है।
जिन्हें तुमने घर समझा है, वह मरघट है। जिन्हें तुमने अपना समझा है, साथ हो गया है दो क्षण का राह पर--सब अजनबी हैं। आज नहीं कल सब छुट जाएंगे। तुम अकेले आए हो और अकेले जाओगे। और तुम अकेले हो। इस जगत में सिर्फ एक ही संबंध बन सकता है--और वह संबंध परमात्मा से है; शेष सारे संबंध बनते हैं और मिट जाते हैं। सुख तो कुछ ज्यादा नहीं लाते, दुख बहुत लाते हैं। सुख की तो केवल आशा रहती है; मिलता कभी नहीं है। अनुभव तो दुख ही दुख का होता है।
ये जो पांच मृत्युएं थीं, ये पांच सीढ़ियां बन गईं। और एक-एक मृत्यु मीरा को संसार से विमुख करती गई और कृष्ण के सन्मुख करती गई। इधर पीठ हो गई संसार की तरफ--कृष्ण की तरफ मुंह हो गया। धीरे-धीरे, पहले तो मीरा घर में ही नाचती थी--अपने कृष्ण की प्रतिमा पर; फिर बाढ़ की तरह उठने लगा प्रेम, फिर घर उसे नहीं समा सका। फिर गांव के मंदिरों में, साधु-सत्संगों में, वहां भी नाचने लगी। फिर प्रेम इतना बाढ़ की तरह आना शुरू हुआ कि उसे होश-हवास न रहा। वह मगन हो गई, वह तल्लीन हो गई, वह कृष्णमय हो गई। स्वभावतः राजघराने की महिला थी, प्रतिष्ठित परिवार से थी। परिवार को अड़चन आई। परिवार को अड़चन सदा आ जाती है। समाज में हजार तरह की बातें चलने लगीं, क्योंकि यह लोकलाज के बाहर थी बात।
तुम सोच सकते हो, राजस्थान पांच सौ साल पहले--जहां घूंघट के बाहर स्त्रियां नहीं आती थीं; जिनका चेहरा कभी लोग नहीं देखते थे। फिर राजघराने की तो और कठिन थी बात। और वह रास्तों पर नाचने लगी। साधारणजनों के बीच नाचने लगी। यद्यपि वह नाच परमात्मा के लिए था, फिर भी घर के लोगों को तो "नाच' नाच था; उनको तो कुछ फर्क नहीं था। फिर उसके निकटतम जो लोग थे वे जा चुके थे: उसका देवर गद्दी पर था। जहां-जहां मीरा उल्लेख करेगी कि राणा ने जहर भेजा, कि राणा ने सांप की पिटारी भेजी, कि राणा ने सेज पर कांटे बिछवा दिए--उस राणा से याद रखना, उसके देवर की तरफ इशारा है। उसके पति तो चल बसे थे।
उसके देवर थे विक्रमाजीत सिंह। वह क्रोधी किस्म का युवक था। दुष्ट प्रकृति का युवक था। और उसकी यह बरदाश्त के बाहर था। और उसे मीरा की प्रतिष्ठा भी बरदाश्त के बाहर थी। मीरा इतनी प्रतिष्ठित हो रही थी, दूर-दूर से लोग आने लगे थे। साधारणजन तो आते थे ही उसके दर्शन को; संत, साधु, ख्याति-उपलब्ध लोग दूर-दूर से मीरा की खबर सुन कर आने लगे थे। वह सुगंध उड़ने लगी थी। वह सुगंध कस्तूरी की तरह थी। जिनको भी नासापुटों में थोड़ा अनुभव था कस्तूरी की गंध का, वे चल पड़े थे।
यह बड़ी हैरानी की बात है। देश के कोने-कोने से लोग आ रहे थे, लेकिन परिवार के अंधे लोग न देख पाए। असल में इन लोगों का आना उन्हें और अड़चन का कारण हो गया, मीरा की प्रतिष्ठा उनके अहंकार को चोट करने लगी। जो राणा गद्दी पर था, वह सोचता था कि मुझसे भी ऊपर कोई मेरे परिवार में हो, यह बरदाश्त के बाहर है। फिर हजार बहाने मिल गए। और बहाने सब तर्कयुक्त थे--उनमें कभी भूल नहीं खोजी सकती--कि यह साधारणजनों में मिलने लगी है; घूंघट उघाड़ दिया है; रास्ते पर नाचती है; नाच में कभी वस्त्रों का भी ध्यान नहीं रह जाता। यह अशोभन है। यह राजघर की महिला को शुभ नहीं है।
लेकिन जो कहानियां हैं वे खयाल में लेना। जहर भेजा और मीरा उसे कृष्ण का नाम लेकर पी गई। और कहते हैं, जहर अमृत हो गया! हो ही जाना चाहिए। होना ही पड़ेगा। इतने प्रेम से, इतने स्वागत से अगर कोई जहर भी पी ले तो अमृत हो ही जाएगा। और अगर तुम क्रोध से, हिंसा से, घृणा से, वैमनस्य से अमृत भी पीओ तो जहर हो जाएगा।
खयाल रखना, ऐसा इतिहास में हुआ या नहीं, मुझे प्रयोजन नहीं है। मैं तो इसके भीतर की मनोवैज्ञानिक घटना को तुमसे कह देना चाहता हूं क्योंकि उसी का मूल्य है। अगर तुम्हारा पात्र भीतर से बिलकुल शुद्ध है, निर्मल है, निर्दोष है, तो जहर भी तुम्हारे पात्र में जाकर निर्मल और निर्दोष हो जाएगा। और अगर तुम्हारा पात्र गंदा है, कीड़े-मकोड़ों से भरा है और हजारों साल और हजारों जिंदगी की गंदगी इकट्ठी है--तो अमृत भी डालोगे तो जहर हो जाएगा। सब कुछ तुम्हारी पात्रता पर निर्भर है। अंततः निर्णायक यह बात नहीं है कि जहर है या अमृत, अंततः निर्णायक बात यही है कि तुम्हारे भीतर स्थिति कैसी है। तुम्हारे भीतर जो है, वही अंततः निर्णायक होता है।
मीरा ने देखा ही नहीं कि जहर है। सोचा ही नहीं कि जहर है। राणा ने भेजा है, तो जो मिलता है, प्रभु ही भेजने वाला है। राणा के पीछे भी वही भेजने वाला है। उसके अतिरिक्त तो कोई भी नहीं है। तो अमृत ही होगा। वह अमृत मान कर पी गई।
मीरा का रहना गांव में मुश्किल हो गया, तो उसने राजस्थान छोड़ दिया। वह वृंदावन चली गई। अपने प्यारे की बस्ती में चलें--उसने सोचा। कृष्ण के गांव चली गई। लेकिन वहां भी झंझटें शुरू हो गईं। क्योंकि कृष्ण तो अब वहां नहीं थे। कृष्ण के गांव पर पंडितों का कब्जा था--ब्राह्मण, पंडित-पुरोहित।
बड़ी प्यारी घटना है। जब मीरा वृंदावन के सबसे प्रतिष्ठित मंदिर में पहुंची तो उसे दरवाजे पर रोकने की कोशिश की गई, क्योंकि उस मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था, क्योंकि उस मंदिर का जो महंत था, वह स्त्रियां नहीं देखता था; वह कहता था: ब्रह्मचारी को स्त्री नहीं देखनी चाहिए। तो वह स्त्रियां नहीं देखता था। मीरा स्त्री थी। तो रोकने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन जो लोग रोकने द्वार पर खड़े थे, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। जब मीरा नाचती हुई आई, अपने हाथ में अपना एकतारा लिए बजाती हुई आई, और जब उसके पीछे भक्तों का हुजूम आया और शराब छलकती चारों तरफ और सब मदमस्त--उस मस्ती में वे जो द्वारपाल खड़े थे, वे भी ठिठक कर खड़े हो गए। वे भूल ही गए कि रोकना है। तब तक तो मीरा भीतर प्रविष्ट हो गई। हवा की लहर थी एक--भीतर प्रविष्ट हो गई, पहुंच गई बीच मंदिर में। पुजारी तो घबड़ा गया। पुजारी पूजा कर रहा था कृष्ण की। उसके हाथ से थाल गिर गया। उसने वर्षों से स्त्री नहीं देखी थी। इस मंदिर में स्त्री का निषेध था। यह स्त्री यहां भीतर कैसे आ गई?
अब तुम थोड़ा सोचना। द्वार पर खड़े द्वारपाल भी डूब गए भाव में, पुजारी न डूब सका! नहीं, पुजारी इस जगत में सबसे ज्यादा अंधे लोग हैं। और पंडितों से ज्यादा जड़बुद्धि खोजने कठिन हैं। द्वार पर खड़े द्वारपाल भी डूब गए इस रस में। यह जो मदमाती, यह जो अलमस्त मीरा आई, यह जो लहर आई--इसमें वे भी भूल गए--क्षण भर को भूल ही गए कि हमारा काम क्या है। याद आई होगी, तब तक तो मीरा भीतर जा चुकी थी। वह तो बिजली की कौंध थी। तब तक तो एकतारा उसका भीतर बज रहा था, भीड़ भीतर चली गई थी। जब तक उन्हें होश आया तब तक तो बात चूक गई थी। लेकिन पंडित नहीं डूबा। कृष्ण के सामने मीरा आकर नाच रही है, लेकिन पंडित नहीं डूबा।
उसने कहा: "ऐ औरत! तुझे समझ है कि इस मंदिर में स्त्री का निषेध है?'
मीरा ने सुना। मीरा ने कहा: "मैं तो सोचती थी, कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष है नहीं। तो तुम भी पुरुष हो? मैं तो कृष्ण को ही बस पुरुष मानती हूं, और तो सारा जगत उनकी गोपी है; उनके ही साथ रास चल रहा है। तो तुम भी पुरुष हो? मैंने सोचा नहीं था कि दो पुरुष हैं। तो तुम प्रतियोगी हो?'
वह तो घबड़ा गया। पंडित तो समझा नहीं कि अब क्या उत्तर दें! पंडितों के पास बंधे हुए प्रश्नों के उत्तर होते हैं। लेकिन यह प्रश्न तो कभी इस तरह उठा ही नहीं था। किसी ने पूछा ही नहीं था, यह तो कभी किसी ने मीरा के पहले कहा ही नहीं था कि दूसरा भी कोई पुरुष है, यह तो हमने सुना ही नहीं। तुम भी बड़ी अजीब बात कर रहे हो! तुमको यह वहम कहां से हो गया? एक कृष्ण ही पुरुष हैं, बाकी तो सब उसकी प्रेयसियां हैं।
लेकिन अड़चनें शुरू हो गईं। इस घटना के बाद मीरा को वृंदावन में नहीं टिकने दिया गया। संतों के साथ हमने सदा दर्ुव्यवहार किया है। मर जाने पर हम पूजते हैं; जीवित हम दर्ुव्यवहार करते हैं। मीरा को वृंदावन भी छोड़ देना पड़ा। फिर वह द्वारिका चली गई।
वर्षों के बाद राजस्थान की राजनीति बदली, राजा बदला, राणा सांगा का सबसे छोटा बेटा राजा उदयसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वह राणा सांगा का बेटा था और राणा प्रताप का पिता। उदयसिंह को बड़ा भाव था मीरा के प्रति। उसने अनेक संदेशवाहक भेजे कि मीरा को वापस लिवा लाओ। यह हमारा अपमान है। यह राजस्थान का अपमान है कि मीरा गांव-गांव भटके, यहां-वहां जाए। यह लांछन हम पर सदा रहेगा। उसे लिवा लाओ। वह वापस लौट आए। हम भूल-चूकों के लिए क्षमा चाहते हैं। जो अतीत में हुआ, हुआ।
गए लोग, पंडितों को भेजा, पुरोहितों को भेजा, समझाने-बुझाने; लेकिन मीरा सदा समझा कर कह देती कि अब कहां आना-जाना! अब इस प्राण-प्यारे के मंदिर को छोड़ कर कहां जाएं!
वह रणछोड़दासजी के मंदिर में द्वारिका में मस्त थी।
फिर तो उदयसिंह ने बहुत कोशिश की, एक सौ आदमियों का जत्था भेजा, और कहा कि किसी भी तरह ले आना, न आए तो धरना दे देना; कहना कि हम उपवास करेंगे। वही मंदिर पर बैठ जाना।
और उन्होंने धरना दे दिया। उन्होंने कहा कि चलना ही होगा, नहीं तो हम यहीं मर जाएंगे।
तो मीरा ने कहा: फिर ऐसा है, चलना ही होगा तो मैं जाकर अपने प्यारे को पूछ लूं। उनकी बिना आज्ञा के तो न जा सकूंगी। तो रणछोड़दासजी को पूछ लूं!
वह भीतर गई। और कथा बड़ी प्यारी है और बड़ी अदभुत और बड़ी बहुमूल्य! वह भीतर गई और कहते हैं, फिर बाहर नहीं लौटी! कृष्ण की मूर्ति में समा गई!
यह भी ऐतिहासिक तो नहीं हो सकती बात। लेकिन होनी चाहिए, क्योंकि अगर मीरा कृष्ण की मूर्ति में न समा सके तो फिर कौन समाएगा! और कृष्ण को अपने में इतना समाया, कृष्ण इतना भी न करेंगे कि उसे अपने में समा लें! तब तो फिर भक्ति का सारा गणित ही टूट जाएगा। फिर तो भक्त का भरोसा ही टूट जाएगा। मीरा ने कृष्ण को इतना अपने में समाया, अब कुछ कृष्ण का भी दायित्व है! वह आखिरी घड़ी आ गई, महासमाधि की! मीरा ने कहा होगा: या तो अपने में समा लो मुझे, या मेरे साथ चल पड़ो, क्योंकि अब ये लोग भूखे बैठे हैं, अब मुझे जाना ही पडेगा।
वह आखिरी घड़ी आ गई, जब भक्त भगवान हो जाता है। यही प्रतीक है उस कथा में कि मीरा फिर नहीं पाई गई। मीरा कृष्ण की मूर्ति में समा गई। अंततः भक्त भगवान में समा ही जाता है।
ओशो

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