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शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-01)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र--पहला 

अतिथि, आतिथेय, श्वेत गुलदाउदी... यही वे क्षण हैं, श्वेत गुलाबों जैसे, उस समय कोई न बोले:
न तो अतिथि,
न ही आतिथेय...
केवल मौन।
लेकिन मौन अपने ही ढंग से बोलता है, आनंद का, शांति का, सौंदर्य का और आशीषों का अपना ही गीत गाता है; अन्यथा न तो कभी कोई ‘ताओ तेह किंग’ घटित होती और न ही कोई ‘सरमन ऑन दि माउंट।’ इन्हें मैं वास्तविक काव्य मानता हूं जब कि इन्हें किसी काव्यात्मक ढंग से संकलित नहीं किया गया है। ये अजनबी हैं। इन्हें बाहर रखा गया है। एक तरह से यह सच भी है: इनका किसी रीति, किसी नियम, किसी मापदंड से कुछ लेना-देना नहीं है; ये उन सबके पार हैं, इसलिए इन्हें एक किनारे कर दिया गया है।

फ्योदोर दोस्तोवस्की की ‘ब्रदर्स कर्माजोव’ के कुछ अंश शुद्ध काव्य हैं, और ऐसे ही कुछ अंश पागल आदमी फ्रेड्रिक नीत्शे की पुस्तक ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ में भी हैं। यदि फ्रेड्रिक नीत्शे ने ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ के अतिरिक्त और कुछ न भी लिखा होता तो भी वह मनुष्यता की गहरी और अर्थपूर्ण सेवा कर गया होता--इससे अधिक की किसी मनुष्य से आशा नहीं की जा सकती--क्योंकि जरथुस्त्र को लगभग भुला ही दिया गया था। यह नीत्शे ही था जो उसे वापस लाया, जिसने उसे फिर से जन्म दिया, पुनरुज्जीवित कर दिया। ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ भविष्य की बाइबिल होने जा रही है।
ऐसा कहा जाता है कि जरथुस्त्र जब पैदा हुआ तो वह हंसा। एक नवजात शिशु की हंसते हुए कल्पना करना कठिन है। मुस्कुराना ठीक है, लेकिन हंसना? आश्चर्य होता है कि किस बात पर? क्योंकि हंसने के लिए कोई संदर्भ तो चाहिए। शिशु जरथुस्त्र किस बात पर हंस रहा था?--ब्रह्मांडीय मजाक पर, उस मजाक पर जो यह पूरा अस्तित्व है।
हां, अपने नोट्‌स में लिखो ‘ब्रह्मांडीय मजाक’ और उसे रेखांकित कर लो। ठीक। मैं तुम्हें रेखांकित करते हुए सुन भी सकता हूं। सुंदर। देखते हो, मेरी श्रवणशक्ति कितनी अच्छी है? जब मैं चाहूं तो किसी चित्र के रेखांकित होने की आवाज को, एक पत्ते के गिरने की आवाज को भी सुन सकता हूं। जब मैं चाहूं तो अंधकार में, गहन अंधकार में भी देख सकता हूं। लेकिन जब मैं नहीं सुनना चाहता, तो मैं न सुनने का अभिनय करता हूं, बस इसलिए कि तुम्हें अच्छा लगे कि सब ठीक-ठाक चल रहा है।
जरथुस्त्र पैदा हुआ हंसता हुआ! और वह तो केवल शुरुआत थी। वह अपने जीवन भर हंसा। उसका पूरा जीवन ही एक हास्य था। फिर भी लोग उसे भूल गए हैं। अंग्रेजों ने तो उसका नाम भी बदल दिया है, वे उसे ‘जोरोस्टर’ कहते हैं। कैसा भयानक! ‘जरथुस्त्र’ में गुलाब की पांखुरी जैसी एक सौम्यता है, और ‘जोरोस्टर’ ऐसे लगता है जैसे कोई बड़ी यांत्रिक दुर्घटना। जरथुस्त्र जरूर अपना नाम जोरोस्टर में बदले जाने पर हंस रहा होगा। लेकिन फ्रेड्रिक नीत्शे से पहले उसे भुला दिया गया था। ऐसा होना ही था।
मुसलमानों ने जरथुस्त्र के सभी अनुयायियों को जबरदस्ती मुसलमान बना दिया। केवल थोड़े से, बहुत थोड़े से भाग निकले और भारत आ गए--भारत के अलावा और जा भी कहां सकते थे? भारत वह स्थान था जहां हर व्यक्ति बिना पासपोर्ट, बिना वी़जा के प्रवेश कर सकता था, बिना किसी झंझट के। जरथुस्त्र के केवल थोड़े से अनुयायी मुस्लिम हत्यारों से बच गए। भारत में भी ज्यादा नहीं हैं, केवल एक लाख। अब भला एक लाख लोगों के धर्म की परवाह कौन करता है? और जो सभी के सभी भारत में नहीं केवल एक नगर मुंबई के आस-पास बसे हैं। वे खुद भी जरथुस्त्र को भूल चुके हैं। उन्होंने हिंदुओं के साथ समझौता कर लिया है जिनके साथ उन्हें रहना है। वे बचे कुएं से और गिरे खाई में--एक गहरी खाई! एक ओर कुआं, दूसरी ओर खाई। और इनके मध्य में है मार्ग--बुद्ध इसे मध्यम-मार्ग कहते हैं--ठीक मध्य में, जैसे रस्सी पर चलने वाला नट।
नीत्शे द्वारा जरथुस्त्र को वापस लाना आधुनिक दुनिया के लिए उसकी एक महान सेवा थी। और उसकी सबसे बड़ी गलती थी: एडोल्फ हिटलर। उसने दोनों ही कार्य किए। निश्चय रूप से वह एडोल्फ हिटलर के लिए जिम्मेवार नहीं है। नीत्शे के ‘सुपरमैन, अतिमानव’ के खयाल को गलत ढंग से समझना हिटलर की अपनी गलतफहमी थी। नीत्शे कर भी क्या सकता था? यदि कोई मुझे गलत समझ ले तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं? गलत समझ लेना हमेशा से तुम्हारी स्वतंत्रता है। एडोल्फ हिटलर में एक औसत दर्जे का बचकानापन था, एक मंदबुद्धि बालक जैसा, सच में ही कुरूप। जरा उसका चेहरा याद करो--वे छोटी-छोटी मूंछें, घूरती हुई डरावनी आंखें, जैसे डराने की कोशिश कर रही हों, और तनावग्रस्त मस्तक। वह इतना तनावग्रस्त था कि जीवन भर वह किसी से मित्रता न कर सका। मित्रता के लिए थोड़ा विश्रामपूर्ण होना आवश्यक है।
हिटलर प्रेम नहीं कर सका, हालांकि उसने अपने तानाशाही ढंग से प्रयास किया था। दुर्भाग्य से जैसा कि सभी पति करते हैं, उसने स्त्रियों पर नियंत्रण करने का, आदेश देने का, अपनी मर्जी थोपने और अपने ढंग से चलाने का प्रयास किया--लेकिन प्रेम करने में वह असमर्थ था। प्रेम के लिए बुद्धिमत्ता जरूरी है। वह अपनी गर्लफ्रेंड को भी रात अकेले में अपने कमरे में रहने नहीं देता था। कितना भय! उसे भय था कि रात में सोते समय... क्या पता गर्लफ्रेंड शत्रु हो, वह शत्रु की एजेंट हो सकती है। सारे जीवन वह अकेला ही सोया।
एडोल्फ हिटलर जैसा आदमी प्रेम कैसे कर सकता था? उसमें कोई सहानुभूति न थी, कोई भावना न थी, कोई हृदय न था, कोई स्त्रैण-भाव उसमें था ही नहीं। उसने अपने भीतर की स्त्री को मार डाला था, तो भला बाहर की स्त्री से वह प्रेम कैसे कर सकता था? बाहर की स्त्री को प्रेम करने के लिए तुम्हें भीतर की स्त्री को पोषित करना पड़ेगा, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर है वही तुम्हारे कार्यों में प्रकट हो जाता है।
मैंने सुना है, हिटलर ने एक क्षुद्र कारण से अपनी एक प्रेमिका को गोली मार दी थी: उसने उसे मार डाला क्योंकि उसने उससे कह रखा था कि वह अपनी मां से मिलने नहीं जाएगी, लेकिन जब वह बाहर गया हुआ था, वह मिलने चली गई, हालांकि हिटलर के लौटने से पहले ही वह वापस आ गई थी। पहरेदारों ने उसे बताया कि वह बाहर गई थी। प्रेम को समाप्त करने के लिए इतना पर्याप्त था--और प्रेम को ही नहीं, प्रेमिका को भी! ‘अगर तुम मेरी आज्ञा का उल्लंघन करती हो, तो तुम मेरी शत्रु हो,’ यह कह कर उसने प्रेमिका को गोली मार दी।
यही उसका तर्क था: जो तुम्हारी आज्ञा माने वह मित्र; जो न माने वह शत्रु। जो तुम्हारे पक्ष में है वह तुम्हारा है, और जो तुम्हारे पक्ष में नहीं है वह तुम्हारा विरोधी है। यह जरूरी नहीं है--हो सकता है कोई निष्पक्ष हो, न तुम्हारे पक्ष में न विपक्ष में। हो सकता है कोई मित्र न बनना चाहे, लेकिन इसका यह अर्थ निकालना जरूरी नहीं है कि वह शत्रु ही हो।
‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ पुस्तक मुझे प्रिय है। मुझे बहुत कम पुस्तकें प्रिय हैं; उन्हें मैं अपनी अंगुलियों पर गिन सकता हूं...

मेरी सूची में प्रथम होगी: ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा।’

दूसरी: ‘ब्रदर्स कर्माजोव।’

तीसरी: ‘दि बुक ऑफ मीरदाद।’

चौथी: ‘जोनाथन लिविंगस्टन सीगल।’

पांचवीं पुस्तक है: लाओत्सु की ‘ताओ तेह किंग।’

छठवीं: ‘दि पैरेबल्स ऑफ च्वांग्त्सु।’ वे बहुत प्यारे व्यक्ति थे, और यह बहुत प्यारी पुस्तक है।

सातवीं है: ‘दि सरमन ऑन दि माउंट’--ध्यान रहे, केवल सरमन ऑन दि माउंट, पूरी बाइबिल नहीं। सरमन ऑन दि माउंट को छोड़ कर पूरी बाइबिल बस कचरा है।

आठवीं... मेरी गिनती ठीक है न? ठीक है। तुम मान सकते हो कि अभी मैं अपनी दीवानगी में हूं। आठवीं है: ‘भगवद्गीता’--‘कृष्ण के दिव्य गीत।’ बीच में ही बता दूं ‘क्राइस्ट’ ‘कृष्ण’ का गलत उच्चारण है, जैसे ‘जरथुस्त्र’ का ‘जोरोस्टर।’ कृष्ण का अर्थ है चैतन्य की परम अवस्था और कृष्ण के गीत, भगवद्गीता अस्तित्व के परम शिखर को  छू लेती है।

नौवीं: ‘गीतांजलि।’ इसका अर्थ है ‘गीतों का नैवेद्य।’ यह रवींद्रनाथ टैगोर की कृति है, जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

और दसवीं है दि सांग्स ऑफ मिलारेपा: ‘दि वन थाउजेंड सांग्स ऑफ मिलारेपा’--‘मिलारेपा के सहस्र गीत’--तिब्बती में इसे यही कहा जाता है।

कोई नहीं बोला:
न ही आतिथेय,
न ही अतिथि,
और न ही श्वेत गुलदाउदी।

आह!...कितना सुंदर...श्वेत गुलदाउदी। आह, कितना सुंदर! शब्द कितने छोटे पड़ जाते हैं। जो मुझे मिल रहा है उसे मैं कह नहीं सकता।

श्वेत गुलदाउदी--
कोई नहीं बोला:
न ही आतिथेय,
न ही अतिथि,
और न ही श्वेत गुलदाउदी।

ठीक। इसी सौंदर्य की वजह से,मेरे कान शोरगुल भी सुन नहीं सकते, मेरी आंखें आंसुओं से गीली हो रही हैं।
आंसू ही वे शब्द हैं जिनसे अज्ञात अभिव्यक्त होता है--मौन की भाषा।

आज इतना ही



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