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सोमवार, 16 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-04)

लुलियांग का जलप्रपात—प्रवचन-चौथा

ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 22 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)

सूत्र:

कनफ्यूशियस लुलियांग के विशाल जलप्रपात को देख रहा था।
वह दो सौ फीट की ऊंचाई से नीचे गिरता है,
और उसके झाग पंद्रह मील दूर तक पहुंचते हैं।.
मछली-घड़ियाल जैसे जीव भी उसके प्रवाह में जीवित नहीं रह पाते।
फिर भी कनफ्यूशियस  ने एक वृद्ध व्यक्ति को

उसके अन्दर जाते हुए देखा।
यह सोचते हुए कि वह वृद्ध व्यक्ति, किसी मुसीबत से पीड़ित होकर ही
अपने जीवन को समाप्त कर देने को इच्छूक है,

कनफ्यूशियस  ने अपने एक शिष्य को आदेश दिया:

कि वह किनारे-किनारे दौड़ते हुए वहां जाकर-
उसे बचाने का प्रयास करे।


तभी उसे वह वृद्ध व्यक्ति, दस कदम आगे
जल से बाहर अपना सिर निकालता दिखाई दिया।
उसके केश जल के साथ ही बहे जा रहे थे,
और वह मस्ती से गीत गाता हुआ किनारे की ओर बढ़ रहा था।
कनफ्यूशियस  अपने शिष्य का पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा,
और उसने वृद्ध व्यक्ति की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा:
श्रीमान! मैं सोच रहा था कि आप एक दिव्यात्मा हैं।
लेकिन अब मैं देख रहा हूं कि आप एक मनुष्य हैं।
कृपया मुझे बताने का कष्ट करें:
इस उफनते और तेजी से बहते जल के साथ सम्बन्ध जोड़ने का
आखिर कौन-सा मार्ग हैं?
नहीं, उस वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया;
न कोई उपाय है, और न कोई मार्ग,
मैं डुबकी लगाकर भंवर के साथ गोल-गोल घूमते हुए उसके बाहर आ
जाता हूं।
मैं केवल अपने को जल के प्रवाह और गति के अनुकूल बना लेता हूं
न कि जल को अनुकूल बनाने का प्रयास करता हूं।
और इस तरह, इस कार्य प्रणाली से ही
मैं उससे सम्बन्ध जोड़ने में समर्थ होता हूं।
तुम्हारे पास एक हजार एक समस्याएं हैं,
और तुम उन्हें हल करने का प्रयास करते हो,
लेकिन एक भी समस्या सुलझती नहीं है।
वह सुलझ भी नहीं सकती, क्योंकि पहली बात तो यह
वहां एक हजार एक समस्याएं न होकर केवल एक ही समस्या है;
और यदि तुम एक हजार एक समस्याओं की ओर देखो
तो तुम उस एक समस्या को भी नहीं देख पाओगे,
जो वास्तव में है।
तुम उन चीजों की ओर देखे चले जाओगे, जो हैं ही नहीं,
और उनके ही कारण तुम उसे देखने से चूक जाते हो, जो वास्तव में है।
इसलिए पहली बात, जो बुनियादी है, उसे समझ लेना है,
केवल वही एक समस्या है। वह लगभग निरंतर बने रहने वाली समस्या हैं।
वह न तो तुम्हारी व्यक्तिगत समस्या है, और न मेरी; अथवा न किसी अन्य
की।
वह मनुष्य मात्र की समस्या है।
उसका जन्म तुम्हारे जन्म के साथ ही होता है, और दुर्भाग्य से
जैसी स्थिति लाखों-करोड़ों मनुष्यों की है, वह समस्या तुम्हारे साथ ही मर
जाएगी।
यदि वह समस्या तुम्हारे मरने से पहले ही मर जाए
तो तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे।

और धर्म का पूरा प्रयास इस समस्या को मिटाने में है
इससे पहले कि वह तुम्हें पूरी तरह मार दे, तुम्हारी सहायता करना है।
इस बारे में एक ऐसे मनुष्य की सम्भावना है, जो बिना समस्याओं के हो,
और ऐसा मनुष्य धार्मिक होता है। उसकी कोई समस्याएं होती ही नहीं,
क्योंकि उसने बुनियादी समस्या हल कर ली है।
उसने समस्याओं की जड़ ही काट दी है।


इसी कारण-तिलोपा कहता है: मन को जड़ से काट दो।
पत्तियों और शाखाओं को काटने मत जाओ, वे लाखों हैं,
और उनको काटकर भी, तुम जड़ काटने में समर्थ न हो सकोगे,
और वृक्ष विकसित होता जाएगा।
यदि तुम पत्तियों की छंटाई करते रहे, तो वृक्ष और भी अधिक घना, मोटा और
विशाल बनेगा।
पत्तियों के बारे में पूरी तरह भूल जाओ। समस्याएं वे नहीं हैं।
समस्या तो कहीं जड़ में है। जड़ को काटी;
और वृक्ष धीमे- धीमे नष्ट हो जाएगा, सूख जाएगा।

इसलिए मन की मूल समस्या आखिर है कहां?
यह न तो तुम्हारी है और न किसी अन्य की है;
यह तो मनुष्य जैसा है, उसकी है।
जिस क्षण तुम जन्म लेते हो, यह तभी अस्तित्व में आती है,
लेकिन तुम्हारे से पूर्व यह घुल कर मिट सकती है।
एक बच्चे का जन्म होता है...
यदि तुम इस समस्या को ठीक से समझना चाहते हो,
तो कदम-कदम मेरा अनुसरण करते चलो,
वह तुरंत हल हो जाएगी,
क्योंकि समस्या स्वयं अपने साथ उसका समाधान भी लिए हुए है।
समस्या है एक बीज के समान
और उसका समाधान है एक फूल के समान, जो बीज ही में छिपा हुआ है।
यदि तुम बीज को ठीक तरह से और पूरी तरह समझ लो,
तो समाधान वहां पहले ही से उपस्थित है।
एक समस्या को सुलझाना, वास्तव में उसको हल करना न होकर,
उसे समझना है।
उसका समाधान उससे कहीं बाहर नहीं है, वह उसी में अंतर्निहित है।
वह उसी में छिपा हुआ है। इसलिए उसे हल करने क्री ओर मत देखो,
केवल समस्या की गहराई में झांक कर देखो, और उसकी जड़ खोजो।
वास्तव में जड़ को भी काटने की जरूरत नहीं है।
एक बार तुमने उसे समझ लिया,
तो वह समझ ही जड़ का कटना बन जाती है।
इसलिए कदम-कदम मेरे पीछे चलते हुए देखते रहो
कि समस्या का किस तरह जन्म होता है;
और उसके समाधान में कोई भी दिलचस्पी मत लो-
क्योंकि इसी तरह से संसार में दर्शनशास्त्र का जन्म होता है।
उस जगह कोई समस्या है, मन उसका हल खोजना शुरू कर देता है,
और दार्शनिक प्रश्न उत्पन्न होने लगते हैं।
वहां कोई समस्या है, मन उसे समझने का प्रयास करता है,
तो धर्म का जन्म होता है।

एक बच्चा जन्मता है, और वह पूरी तरह असहाय होता है,
विशेष रूप से मनुष्य का बच्चा।
वह दूसरे की सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता।
इसलिए पहली चीज तो यह है
कि पशुओं, वृक्षों और पक्षियों के साथ कोई समस्या होती ही नहीं
वे सभी संदेहहीन तथा प्रश्नहीन जीवन जीते है, और परिपूर्णता से जीते हैं,
वे बिना किसी समस्या, व्यग्रता, बिना अल्सर और कैंसर के,
शुद्ध रूप में मजे से जीते हैं,
और वे जब तक रहते हैं, प्रत्येक क्षण उत्सव मनाते हैं।
उनके जीवन में कोई समस्या नहीं होती-
और न उन्हें समाप्त होने या मरने ही में कोई समस्या होती है-
वे एक प्रश्नविहीन जीवन जीते हैं।
केवल मनुष्य का बच्चा ही जन्म से असहाय होता है
अन्य दूसरे पशुओं, वृक्षों और पक्षियों के बच्चे
बिना माता-पिता के भी जीवित रह सकते हैं,
वे बिना किसी समाज और बिना किसी परिवार के जीवित रह सकते हैं।
यदि कभी-कभी सहायता की भी आवश्यकता होती है, तो बहुत थोड़ी सी,
कुछ दिनों की, अथवा अधिक से अधिक कुछ महीनों की।
लेकिन मनुष्य का बच्चा इतना अधिक असहाय होता है, कि उसे वर्षों तक
निर्भर रहना होता है।
और यही है वह जड़, जिसे खोज लेना है।
यह असहायता, मनुष्य के लिए समस्या उत्पन्न क्यों करती है?
बच्चा असहाय होता है: वह दूसरों पर निर्भर रहता है;
लेकिन बच्चे का अनजाना मन,
अन्य दूसरों पर आश्रित रहने की कुछ इस तरह व्याख्या करता है
जैसे मानो वही पूरे संसार का केंद्र बिंदु है।
बच्चा सोचता है
जब भी मैं रोता हूं मेरी मां तुरंत दौड़ी चली आती है।
जब भी मैं भूखा होता हूं केवल संकेत भर देना होता है
और उसे स्तन मिल जाता है।
जब मैं भीगे में पड़ा होता हूं तो केवल मेरे रोने चीखने से ही
कोई व्यक्ति तुरंत आता है, और मेरे कपड़े बदल देता है।
बच्चा एक सम्राट की भांति जीता है।
वास्तव में वह पूरी तरह असहाय और आश्रित है,
और उसके माता-पिता तथा पूरा परिवार
उसके जीवित बने रहने में सहायता कर रहे हैं।
वे बच्चे पर आश्रित नहीं हैं, बच्चा उन पर आश्रित है।
लेकिन बच्चे का अज्ञानी मन व्याख्या करता है
जैसे मानो वह ही पूरे संसार का केंद्र है।
और वास्तव में उसका पूरा संसार शुरू में बहुत छोटा होता है
एक ओर मां और दूसरे किनारे पर पिता-यही उसका पूरा संसार होता है,
और वे दोनों उसे प्रेम करते हैं।
बच्चा अधिक से अधिक अहंकारी बनता जाता है,
वह अनुभव करता है जैसे वह स्वयं ही पूरे अस्तित्व का केंद्र है।
अहंकार निर्मित होता है-
आश्रित होने, और निःसहाय होने के कारण।

वास्तव में स्थिति ठीक उल्टी है।
अहंकार के निर्मित होने का उस स्थान पर कोई कारण ही नहीं है।
लेकिन बच्चा पूरी तरह अज्ञानी है और वह समझने योग्य नहीं है।
इस चीज की जटिलता यही है: वह यह अनुभव नहीं कर सकता-
कि वह असहाय है। वह अनुभव करता है कि वह तानाशाह है।
और तब अपने पूरे जीवन भर वह तानाशाह ही बने रहने का प्रयास करेगा।
वह एक नेपोलियन, एक सिकंदर या एक एडोल्फ हिटलर बनेगा,
तुम्हारे अध्यक्ष, प्रधान मंत्री और तानाशाह ये सभी बचकाने हैं,
ये सभी उसी चीज का प्रयास कर रहे हैं,
वे पूरे अस्तित्व का केंद्र बिंदु बनना चाहते हैं:
वे चाहते है: संसार को उनके साथ ही जीना चाहिए
संसार को उनके साथ ही मरना चाहिए;
पूरा संसार उनकी परिधि है
और वे ही उसका अर्थ हैं, तथा जीवन का वास्तविक अर्थ उन्हीं में छिपा
हुआ है।
बच्चा निश्चित ही स्वाभाविक रूप से अपनी व्याख्या को ठीक पाता है,
क्योंकि वह अपनी मां की आंखों में देखता है
कि वह ही उसके जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।
और जब पिता घर वापस आते हैं, तो वह अनुभव करता है
कि वह ही पिता के जीवन का वास्तविक अर्थ है।
ऐसा तीन अथवा चार वर्ष तक ही रहता है-
और प्रारम्भिक जीवन के यह चार वर्ष ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं;
जीवन में इनकी सम्भावित शक्ति का समय,
फिर वहां कभी नहीं आएगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रारम्भ के चार वर्षों बाद
बच्चा लगभग पूर्ण हो जाता है।
उसका पूरा सांचा, पूरे जीवन भर के लिए तैयार हो जाता है;
वह इसी सांचे को विभिन्न परिस्थितियों में सिर्फ दोहराएगा
लेकिन सांचा तो पहले ही से तैयार है।

सात वर्ष का होते-होते बच्चा पूरी तरह विकसित हो जाता है:
अब कुछ अन्य उसमें विकसित होने नहीं जा रहा है।
उसके सभी व्यवहार और मुद्राएं स्थाई हो चुकी हैं, उसका अहंकार व्यवस्थित
हो चुका है।
अब वह संसार में आगे बढ़ता है, तब हर जगह
उसके लिए प्रत्येक स्थिति में लाखों समस्याएं होंगी,
और वह उसकी जड़ अपने साथ लिए चल रहा है।

एक बार परिवार के दायरे के बाहर आकर समस्याएं खड़ी होंगी,
क्योंकि तुम्हारी कोई भी फिक्र नहीं करेगा,
जितनी फिक्र कि तुम्हारे बारे में कभी तुम्हारी मां करती थी,
कोई भी तुममें दिलचस्पी नहीं लेगा, जितनी दिलचस्पी कभी तुममें तुम्हारा
पिता लेता था।
हर जगह पूरी उदासीनता और तटस्थता मिलेगी।
और अहंकार को चोट लगेगी।
लेकिन अब पूरा ढांचा व्यवस्थित हो चुका है।
भले ही चोट लगे या नहीं, बच्चा अब उस ढांचे को बदल नहीं सकता।
वह उसके अस्तित्व का प्रामाणिक 'ब्लू प्रिंट' बन चुका है।
वह बच्चा अब दूसरे बच्चों के साथ खेलेगा और उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास
करेगा।
वह स्कूल जाएगा और वहां भी बच्चों में वर्चस्व प्राप्त करने की कोशिश
करेगा,
दर्जे में प्रथम आने की कोशिश करेगा,
और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बनना चाहेगा।
उसे विश्वास होता है कि वह सभी में सर्वश्रेष्ठ है।
लेकिन दूसरे बच्चे भी इसी तरह से ऐसा ही विश्वास करते हैं।
तब वहां संघर्ष होता है। कई अहंकार आपस में टकराते हैं।
तब यही पूरे जीवन की कहानी बन जाती है

ठीक तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे चारों ओर लाखों अहंकार होते हैं,
और प्रत्येक दूसरों पर अंतिम रूप से अधिकार जमाना चाहता है,
उन्हें अपने पूरे नियंत्रण में रखना चाहता है- अपने धन, शक्ति, राजनीति
और ज्ञान के द्वारा, झूठ, छल और बहानों के द्वारा, यहां तक कि धर्म और
नैतिकता के द्वारा भी।
और प्रत्येक व्यक्ति पूरे संसार को यह प्रदर्शित करते हुए कि
'मैं ही केंद्र हूं' अधिकार जमाने का प्रयास कर रहा है।
और यही सारी समस्याओं की जड़ है।
इस धारणा के कारण, तुम हमेशा किसी न किसी के साथ
लड़ाई, झगड़ा और संघर्ष ही करते रहोगे।
ऐसा नहीं है कि दूसरे लोग तुम्हारे शत्रु हैं,
यहां प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे जैसा ही है, वह भी उसी नाव में सवार है;
प्रत्येक व्यक्ति की हर दूसरे व्यक्ति के लिए वही स्थिति, और वही दशा है,
क्योंकि सभी का पालन-पोषण एक ही तरह से हुआ है।

पश्चिम में मनोविश्लेषकों का वहां एक विशिष्ट स्कूल है
जिन्होंने यह सुझाव दिया है
कि जब तक बच्चों का लालन-पालन, बिना उनके माता-पिता के नहीं किया
जाता,
संसार में कभी भी शांति न आ सकेगी।
मैं उन लोगों का समर्थन नहीं करता-
क्योंकि तब वे किसी से भी कभी विकसित न हो सकेंगे।
उनके सुझाव में कुछ चीज ऐसी जरूर है, जो आशिक सत्य है,
लेकिन यह बहुत खतरनाक प्रस्ताव है।
क्योंकि यदि बच्चों का लालन-पालन, बिना उनके माता-पिता और बिना
उनके प्रेम के एक नर्सरी में पूरे उदासीन वातावरण में किया गया,
तो उनके साथ अहंकार उत्पन्न होने की तो समस्या नहीं होगी
लेकिन फिर वहां दूसरी तरह की समस्याएं होंगी,
जो उसी तरह की खतरनाक, और उनसे भी कहीं अधिक होंगी।
यदि एक बच्चा पूरी तरह उदासीन और तटस्थता के वातावरण में पाला-पोसा
जाए
तो उसके अन्दर कोई केंद्र निर्मित ही न होगा
उसका अस्तित्व गड्ड-मढ़ और रुग्ण विधि से विकसित होगा,
वह यह नहीं जानेगा कि वह कौन है। उसकी अपनी कोई पहचान न होगी।
वह डरा-डरा सा भयभीत बन कर रहेगा, और बिना भय के-
वह एक कदम उठाने में भी समर्थ न हो सकेगा, क्योंकि किसी ने भी उसे
प्रेम नहीं किया है।
यह निश्चित है, वहां अहंकार न होगा,
लेकिन बिना अहंकार के, उसके कोई केंद्र भी न होगा।
वह कभी भी बुद्ध न हो सकेगा;
वह केवल सुस्त, बुझा-बुझा सा, हीनता से ग्रस्त, छू और सदा भयभीत रहने वाला एक प्राणी बनकर रहेगा।
भयमुक्त होने के लिए प्रेम की आवश्यकता है,
जो उसे यह अहसास दिला सके, कि कोई उसे प्रेम करता है, किसी ने उसे
स्वीकारा है और वह व्यर्थ नहीं है,
और उसे कबाड़ में नहीं फेंका जा सकता है।
यदि बच्चे ऐसे वातावरण में पाले जाएं जहां प्रेम की कमी हो,
तो यह ठीक है कि वे अहंकारी न होंगे।
उनके जीवन में इतने अधिक संघर्ष और लड़ाई न होंगे।
लेकिन वे बिस्कूल भी संघर्ष करने में समर्थ हो ही न सकेंगे
और वे हमेशा उड़े-उड़े से, पलायनवादी बनकर
प्रत्येक व्यक्ति से दूर भागने वाले, अपने अस्तित्व को छिपाने वाले गुफा
वासी जैसे होंगे।
वे कभी भी बुद्ध न हो सकेंगे,
वे जीवन ऊर्जा से दीप्तिवान न होंगे,
वे न तो केन्द्रित हो सकेंगे, और न विश्राममय होकर अपने घर पहुंच सकेंगे।
वे पूरी .तरह से अपने केंद्र से दूर एक विचित्र प्राणी बनकर रहेंगे,
और उनकी दशा किसी भी रूप में अच्छी न होगी।

इसलिए मैं इन मनोविश्लेषकों का समर्थन नहीं करता,
ये लोग मनुष्यों को नहीं, केवल यांत्रिक मानव अथवा रोबोट ही निर्मित करेंगे
रोबोट की वास्तव में कोई समस्याएं होंगी ही नहीं।
वे लोग मनुष्यों को भी जानवरों की भांति बनाना चाहते हैं;
जिनमें कम कामनाएं कम बुराइयां और कम भ्रष्टता होगी।
लेकिन इसमें प्राप्त करने जैसा कुछ भी नहीं है,
क्योंकि तब तुम विकसित होकर चेतना के उच्चतम शिखर पर नहीं पहुंचते
हो
तुम्हारा नीचे की ओर गिरकर पतन होता है, यह पूर्व अविकसित स्थिति में
जाना है।
वास्तव में यदि तुम एक पशु बन जाते हो
तो तुम्हें वेदना और भी कम होगी,
क्योंकि वहां चेतना भी काफी कम होगी।
और यदि तुम एक पत्थर या चट्टान ही बन जाते हो
तो वहां न कोई कामना होगी और न कोई व्यग्रता
क्योंकि वहां अन्दर कोई है ही नहीं, जो व्यग्रता और वेदना का अनुभव करे,
लेकिन यह स्थिति प्राप्त करने योग्य है ही नहीं,
प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा जैसा बनना चाहिए चट्टान जैसा नहीं।

और 'परमात्मा' शब्द का अर्थ ही है
जिसकी चेतना परिपूर्ण हो,
और फिर भी जिसके पास न चिंताएं हों, न व्यग्रता हो,
और न कोई समस्याएं हों;
जो स्वतंत्र पक्षी की भांति जीवन का आनंद ले सके।
और उसके पास ऐसी परिपूर्ण विकसित चेतना हो,
जिससे वह पक्षियों की भांति गीत गाते हुए
पीछे अविकसित जीवन में लौटते हुए नहीं
बल्कि विकसित होकर चेतना के श्रेष्ठतम सोपान को पाकर
जीवन में उत्सव- आनंद मना सके।

बच्चा अहंकार इकट्ठा करता है-यह सहज स्वाभाविक है,
इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता है, मैं इसे स्वीकार करता हूं।
लेकिन बाद में इसे अपने साथ ढोये चले जाने की कोई जरूरत नहीं है।
प्रारम्भ में अहंकार आवश्यक होता है-
जिससे बच्चा यह अनुभव कर सके, कि उसे स्वीकार कर,
उसका स्वागत किया गया है, उससे प्रेम किया गया है,
वह एक मेहमान है, वह बिना बुलाए हुए नहीं आया है
और उसके चारों ओर माता-पिता और परिवार की प्रेम भरी ऊष्मा है।
अहंकार उसे एक सुरक्षा देता है, उसे जमीन में जड़ें जमाने में
और मजबूती से विकसित होने में उसकी सहायता करता है।
यह अच्छा है। यह-यह ठीक एक बीज के खोल के समान है।
लेकिन एक खोल ही अंतिम चीज नहीं बन जाना चाहिए
अन्यथा बीज मर जाएगा।
यदि सुरक्षा बहुत अधिक हो जाती है,
तो वह एक कारागृह बन जाती है।
सुरक्षा का सुरक्षा बना रहना ही जरूरी है,
और जब बीज के लिए वह क्षण आता है,
तो बीज का कठोर खोल पृथ्वी में स्वयं गल जाता है,
उसे स्वाभाविक रूप से टूट कर मरना ही चाहिए
जिससे बीज अंकुरित हो सके, और जीवन का जन्म हो सके।

अहंकार ठीक एक सुरक्षा का खोल है-
बच्चे को उसकी जरूरत होती है, क्योंकि वह असहाय है;
बच्चे को उसकी जरूरत होती है, क्योंकि वह कमजोर है,
बच्चे को उसकी जरूरत होती है, क्योंकि उस पर आघात हो सकते हैं,
और उसके चारों ओर ऐसी लाखों शक्तियां हैं,
वह एक घर, एक आधार और एक सुरक्षा चाहता है,
सारा संसार उससे उदासीन हो सकता है,
लेकिन वह हमेशा अपने घर की ओर ही देख सकता है,
जहां वह महत्व प्राप्त कर सके।
लेकिन इस महत्व के साथ ही अहंकार आता है। वह अहंकारी बन जाता है।
और इस अहंकार से ही सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं,
एक हजार एक समस्याएं।
यह अहंकार तुम्हें प्रेम में गिरने की अनुमति नहीं देगा
और तुम्हारे जीवन में लाखों समस्याएं उठ खड़ी होंगी।
यह अहंकार चाहेगा कि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे आगे समर्पण करे,
यह अहंकार तुम्हें किसी के प्रति समर्पण करने की अनुमति नहीं देगा- और
प्रेम केवल तभी घटता है, जब तुम समर्पण करते हो।

जब तुम किसी को समर्पण करने के लिए बाध्य या विवश करते हो,
तो वह पूर्ण होती है, प्रेम नहीं होता। उससे सब कुछ बरबाद हो जाता है।
और यदि वहां जीवन में प्रेम ही नहीं है
तो तुम्हारा जीवन बिना किसी कविता और बिना किसी ऊष्मा के होगा,
तो वह गद्य की तरह समतल मैदान सा, तर्कपूर्ण और हिसाबी-किताबी होगा।
लेकिन कोई भी व्यक्ति बिना काव्य के कैसे रह सकता है!
गद्य ठीक है, उपयोगी है, और जरूरी भी है,
लेकिन वह जीवन नहीं हो सकता
क्योंकि वह कभी भी उत्सव-आनंद नहीं बन सकता,
वह कभी भी एक त्योहार नहीं बन सकता
और जब जीवन एक त्योहार अथवा समारोह न हो, वह उबाऊ होता है।
तभी कविता की जरूरत है, लेकिन काव्य के लिए तुम्हें समर्पण करना होगा,
तुम्हें इस अहंकार को फेंक देने की जरूरत होगी।
यदि तुम ऐसा कर सकते हो तो कुछ क्षणों के लिए ही, उसे एक तरफ उठा
कर रख दो।
तुम्हें अपने जीवन में ही कुछ सुन्दर और दिव्य झलकें दिखाई देंगी।
बिना काव्य के तुम सही अर्थों में जीवित नहीं रह सकते, तुम केवल रह भर
सकते हो।
प्रेम ही एक काव्य है।
और यदि प्रेम करना ही सम्भव नहीं है, तो तुम प्रार्थना कैसे कर सकते हो?
तब प्रार्थना करना लगभग असम्भव बन जाएगा,
और बिना प्रार्थना के, तुम केवल एक शरीर मात्र बने रहोगे,
तुम अपने अंतर्तम आत्मा के बारे में कभी भी सचेत न हो सकोगे,
केवल प्रार्थना में ही तुम उन शिखरों पर पहुंचते हो।
प्रार्थना अनुभव का सर्वोच्च शिखर है,
लेकिन प्रेम ही उसका द्वार खोलता है।
प्रार्थना तुम्हें जीवन के सबसे अधिक आतरिक रहस्य में प्रवेश करने की
अनुमति देती है।

जब तुम प्रार्थना नहीं कर सकते, तभी लाखों समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
कार्ल गुस्ताव जुंग ने, हजारों लोगों के पूरे जीवन के अध्ययन के बाद
हजारों रुग्ण लोगों के उलझे मनोवैज्ञानिक रूप से बिगड़े;--
मामलों का अध्ययन करने के बाद
अपनी अंतिम घोषणा में कहा:
मैं अभी तक ऐसे किसी मनोवैज्ञानिक रूप से रुग्ण व्यक्ति से नहीं मिला,
चालीस वर्ष की आयु के बाद जिसकी असली समस्या धर्म न रही हो,
चालीस वर्ष के बाद:
यह ठीक वैसा ही है, जैसे चौदह वर्ष की आयु के बाद प्रत्येक
लड़के और लड़की को सेक्स की समस्या को सुलझाना होता है,
और यदि तुम उन समस्याओं को गलत ढंग से निपटा
तो वे समस्याएं एक ही स्थान पर चक्कर लगाती बनी ही रहेंगी।
जैसे कि सेक्स चौदह वर्ष की आयु में परिपक्व होता है
ठीक वैसे ही बयालीस वर्ष की आयु में एक नया आयाम खुलता है।
क्योंकि प्रत्येक सात वर्ष बाद तुम्हारे अस्तित्व में शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और
आध्यात्मिक परिवर्तन होते हैं-
प्रत्येक सात वर्ष बाद।
बचपन सातवें वर्ष में समाप्त हो जाता है,
चौदहवें वर्ष से किशोरावस्था चली जाती है,
और इक्कीसवें वर्ष में फिर नए परिवर्तन होते हैं-
प्रत्येक सात वर्ष बाद, जीवन की लय कुछ और होती है।
बयालीस वर्ष की आयु आने पर एक नया आयाम खुलता है,
प्रार्थना का आयाम, धर्म का आयाम।
और यदि तुम ठीक से तय नहीं कर पाते
और तुम यह समझ नहीं पाते कि तुम्हें क्या करना है
तो तुम रुग्ण हो जाओगे,
तुम सारा सुख-चैन खो दोगे और बेचैन बन जाओगे।
यदि तुम चौदह वर्ष की आयु में प्रेम नहीं कर सकते,
तो तुम बयालीस वर्ष की आयु में प्रार्थना करने में समर्थ न हो सकोगे।

तुम चूकते रहे हो,
और तुम्हारा पूरा विकास एक निरंतरता है।
यदि तुम एक कदम चूक जाते हो तो वह निरन्तरता टूट जाती है।
बच्चा अहंकार इकट्ठा करता है-वह प्रेम नहीं कर सकता,
और न वह किसी अन्य के साथ विश्राममय हो सकता है।
अहंकार निरंतर संघर्ष करता रहता है।
तुम शांत और मौन बैठ सकते हो, लेकिन अहंकार निरंतर संघर्ष करता हुआ
केवल यह देखता और निरीक्षण करता रहता है-
कि कैसे वर्चस्व प्राप्त किया जाए कैसे तानाशाह बना जाए
और कैसे संसार भर में सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति बना जाए।
इससे हर कहीं समस्याएं उत्पन्न होती हैं,
मित्रता में, सेक्स में, प्रार्थना, प्रेम और समाज में भी-
तुम प्रत्येक स्थान पर संघर्ष ही में रहते हो।
यहां तक कि अपने माता-पिता के साथ भी, जिन्होंने तुम्हें यह अहंकार दिया
था, वहां भी संघर्ष होता है।
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पुत्र अपने पिता को क्षमा कर दे,
बहुत कम कोई पुत्री अपनी मां को क्षमा कर पाती है।

गुरूजिएफ ने अपने कमरे में एक वाक्य लिख छोड़ा था
और वह लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया देखा करता था।
यह पूरी तरह से अविश्वसनीय लगता है, कि गुरूजिएफ जैसे व्यक्ति ने
दीवार पर ऐसा साधारण वाक्य क्यों लिखा?
वह वाक्य था: '' यदि तुम अपने माता और पिता के साथ अभी भी
अपने को सुविधामय और सुगम नहीं पाते हो, तब यहां से चले जाओ,
मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। ''
आखिर क्यों? क्योंकि यह समस्या एक बिंदु पर खड़ी होती ही है,
और वहीं उसका समाधान भी किया जाना है।
यही कारण है कि पूरब की सारी परम्पराएं यही कहती हैं
अपने पिता को प्रेम करो, अपने पिता का जितनी गहराई तक सम्भव हो सके,
सम्मान करो, क्योंकि उस जगह अहंकार उठ खड़ा होता है,
वह उसकी भूमि है। उसका वहीं समाधान या शमन करना है,
अन्यथा वह तुम्हारे अन्दर हर कहीं घूमता ही रहेगा।
अब मनोविश्लेषक ठोकरें खाने के बाद इस तथ्य को जान सके हैं
कि सारा मनोविश्लेषण तुम्हें पीछे उन समस्याओं की ओर ले जाता है
जो तुम्हारे माता-पिता और तुम्हारे मध्य बनी रही हैं,
और वह किसी तरह उन्हीं को हल करने का प्रयास करता है।
यदि तुम अपने माता-पिता के साथ के संघर्ष को सुलझा सकते हो
तो बहुत से दूसरे संघर्ष पूरी तरह से मिट जाएंगे,
क्योंकि वे मूल संघर्ष पर ही आधारित हैं।

उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जो अपने पिता के साथ सहज और
सुविधामय होकर नहीं रहा है, परमात्मा पर विश्वास नहीं कर सकता,
क्योंकि परमात्मा, पिता की आकृति जैसा है, वह सम्पूर्ण जगत का पिता है।
एक व्यक्ति जो अपने पिता के साथ सहज और सुविधामय होकर नहीं रहा
है, आफिस में अपने बॉस के साथ भी कभी सहज होकर नहीं रह सकता,
क्योंकि वह भी पिता की ही आकृति जैसा है।
एक व्यक्ति जो अपने पिता के साथ सहज और सुविधामय नहीं रहा है,
वह अपने सद्‌गुरु के साथ भी सहज होकर नहीं रह सकता,
क्योंकि वह भी पिता की ही आकृति का है।
अपने माता-पिता के साथ तुम्हारा छोटा सा संघर्ष भी
तुम्हारे सभी सम्बन्धों में निरंतर प्रतिबिम्बित होता रहता है।
यदि तुम अपनी मां के साथ सहज और सुविधामय होकर नहीं रहे हो,
तो तुम अपनी पत्नी के साथ भी सहज होकर नहीं रह सकते,
क्योंकि वह स्त्री का प्रतिनिधित्व करती रहेगी,
और तुम ऐसी स्त्री के साथ सहज और सुविधामय होकर नहीं रह सकते,
क्योंकि तुम्हारी मां ही पहली स्त्री है
वह स्त्री का पहला प्रतिरूप और आदर्श है।
यदि तुम अपनी मां से घृणा करते हो
अथवा यदि तुम्हारे मन में कोई विशिष्ट संघर्ष है
यदि तुम अपनी मां के साथ एक लम्बी अवधि तक नहीं रह सकते हो
तुम ऊब कर उससे दूर भाग जाना चाहते हो
तो तुम संसार में किसी भी स्त्री के साथ सहजता और सुविधा का अनुभव न
कर सकोगे।
क्योंकि जहां कहीं भी कोई स्त्री है, तुम्हारी मां वहां मौजूद है,
और एक सूक्ष्म रिश्ता निरंतर बना रहता है।

भारत में प्राचीन समय के उपनिषद काल में
जब एक नव विवाहित दम्पत्ति, किसी बुद्ध के निकट आशीर्वाद
मांगने जाते थे, तो वह उन्हें दस बच्चों के माता-पिता होने का
आशीर्वाद देते थे, और स्त्री से कहते थे:
सदा यह स्मरण रखना कि जब तक तुम्हारा पति
तुम्हारा ग्यारहवां बच्चा न बन जाए
तुम्हारा विवाह करना अधूरा है।
ऐसा आखिर क्यों? पति को ग्यारहवां बच्चा क्यों बनना चाहिए-
अन्यथा विवाह पूरा न होकर अधूरा है?
कारण यही है, कि यदि उस पुरुष के अपनी मां से सम्बन्ध सहज रहे हैं
वह अपनी पत्नी में भी अंतिम रूप से मां को खोज लेगा।
एक पुरुष बच्चा ही बना रहता है और एक स्त्री जन्मजात मां होती है।
इसलिए स्त्री की सर्वोच्च खिलावट
पूरे संसार की मां बनना है।
यही कारण है कि मैं अपनी संन्यासिन को 'मां' कहकर पुकारता हूं।
और एक पुरुष का सर्वोच्च शिखर है-बच्चे जैसा बन जाना,
बच्चे की ही भांति निर्दोष हो जाना;
तब पूरा अस्तित्व और पूरा संसार उसके लिए मां बन जाता है
यही उसकी सहज स्वाभाविक सम्भावना है-
लेकिन इसके लिए एक व्यक्ति के अपने माता-पिता के साथ
सम्बन्ध सहज और सुविधामय होना चाहिए।
वहां अहंकार उत्पन्न हो जाता है, जिससे वहां निपटना होगा,
अन्यथा तुम वृक्ष की शाखाएं और पत्तियां काटते रहोगे
और जड़ें अनछुई बनी रहेंगी।
यदि तुम्हारा माता-पिता के साथ सारा विवाद सुलझकर
एक युति बन जाती है
तो इसका अर्थ है कि तुम पूरी तरह विकसित हो गए हो,
अब वहां कोई भी अहंकार नहीं है।
अब तुम यह समझ गए हो कि तब तुम असहाय थे,
अब तुम यह समझते हो कि तुम आश्रित थे,
और तुम संसार के केंद्र भी नहीं थे।
वास्तव में तुम पूरी तरह आश्रित थे,
अन्यथा तुम जीवित ही नहीं रह सकते थे।

इस समझ के साथ अहंकार धीमे-धीमे मिट जाता है,
और जब एक बार तुम जीवन से संघर्ष नहीं कर रहे होते हो
तुम विश्राममय, सहज और सरल बन जाते हो।
तब तुम जैसे बहते हो।
तब संसार शत्रुओं से भरा हुआ नहीं होता
वह एक पूरा परिवार होता है, एक आगिक इकाई होता है;
और संसार की धारा तुम्हारे विरुद्ध प्रवाहित नहीं होती
तुम उसके साथ बह सकते हो।
यही अर्थ है इस छोटी सी बोध कथा का।

जेन के लोगों और ताओवादियों द्वारा इस बोध-कथा का प्रयोग किया जाता है,
और इसमें प्रवेश करने से पूर्व मैं कुछ चीजें इस बारे में-
बताना आवश्यक समझता हूं।
ताओवादी और जेन के लोग हमेशा कन्फ्यूशियस के बारे में
हंसी-मजाक करते रहते हैं।
यह बोध कथा भी वास्तव में एक चुटकुला जैसा ही है,
क्योंकि उनके लिए कन्फ्यूशियस तार्किक मन का एक शिखर है
कन्फ्यूशियस उनके लिए पूर्ण अहंकार का एक आदर्श है-
जो बहुत सूक्ष्म, सुसंस्कृत और परिष्कृत है।
कम्प्यूशियस का पूरा दर्शन शास्त्र यही है:
तुम कैसे अपने अहंकार को इस तरह से परिष्कृत करो
कि वह बिना दूसरों के साथ संघर्ष किए हुए भी बना रहे।
यही होता है एक सुसंस्कृत मनुष्य।
एक सुसंस्कृत मनुष्य विनम्र नहीं होता है, नहीं, कभी भी नहीं;
एक सुसंस्कृत मनुष्य का अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है।
वह बहुत बेईमान और चालाक होता है।
वह अपने अहंकार को किसी भी सम्बन्ध के मध्य नहीं लाएगा।
वह उसे छिपाएगा, और वह यह दिखाने का प्रयास करेगा-
कि वह कितना अधिक विनम्र है?
वह मुस्कराएगा और अपना सिर नीचे झुकाएगा,
और तुम यह भली भांति देख सकोगे कि यह केवल कूटनीतिक है।
कनफ्यूशियस कहता है तुम्हें इस संसार में रहने के लिए।
तुम्हें दूसरों के अहंकारों के साथ रहना है
और तुम दूसरों से कैसे व्यवहार करो, तुम्हें इस बारे में
बहुत-बहुत बुद्धिमान और होशियार होना चाहिए।
अन्यथा अनावश्यक परेशानियां उत्पन्न होती हैं।
एक मनुष्य को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए इसके लिए
कन्फ्यूशियस के पास तीन हजार तीन सौ नियम हैं।
प्रत्येक कदम उठाने के लिए उसने नियम बनाए हैं:
किसी को किस तरह वस्त्र पहनना चाहिए...

ताओवादियों, जेन और कनफ्यूशियस को मानने वालों के मनों के मध्य
इस अंतर को समझने का प्रयास करो।
क्योंकि इसी तरह से पूरे विश्व में, यह भेदभाव बना हुआ है:
एक नैतिक व्यक्ति एक धार्मिक व्यक्ति से भिन्न है।
यह अंतर बहुत सूक्ष्म है।
एक नैतिक व्यक्ति विनम्र बनने का प्रयास करता है:
और एक धार्मिक व्यक्ति विनम्र होता ही है।
एक नैतिक व्यक्ति चारों ओर से विनम्र होने का दिखावा करता है
यह एक ढोंग है, यह उसके द्वारा विकसित की गई एक मुद्रा है।
एक धार्मिक व्यक्ति पूरी तरह विनम्र होता है, वह उसका दिखावा नहीं
करता।
यह जानकर कि अहंकार अर्थहीन है
यह जानकर कि अहंकार के बने रहने का कोई आधार ही नहीं है,
यह जानकर कि अहंकार केवल एक बचकाना सपना है
यह जानकर कि वह अज्ञान की एक गलतफहमी है,
एक धार्मिक मनुष्य पूर्ण रूप से निरहंकारी हो जाता है।
वह अहंकार के लिए कोई स्थान खोज नहीं पाता, और वह वाष्प की भांति
उड़ जाता है।
ऐसा नहीं कि वह व्यक्ति विनम्र बनता है, नहीं,
वह सामान्य रूप से अहंकार से मुक्त हो जाता है।
जब वहां अहंकार है ही नहीं, तो वह कैसे विनम्र बन सकता है?

केवल अहंकार ही विनम्र बन सकता है, इस लिए कौन विनम्र बनना चाहेगा?
वह सामान्य रूप से जान लेता है कि वह है ही नहीं,
वह इस विराट आंगिक ब्रह्माण्ड का केवल एक छोटा सा खण्ड है।
वह उससे पृथक नहीं है,
इसलिए कौन जा रहा अहंकारी बनने, और कौन जा रहा अहंकारी बनने?
वह है ही नहीं।
वह अखण्डरूप से पाता है कि उसके अन्दर केंद्र जैसी कोई चीज है ही नहीं:
वह केंद्र है बह्माण्ड में, और वह उसका एक खण्ड है।

धार्मिक लोग कहते हैं कि यदि वहां कोई परमात्मा है,
तो केवल उसे ही 'मैं' शब्द का प्रयोग करने की अनुमति दी जा सकती है,
किसी अन्य व्यक्ति को 'मैं' शब्द का प्रयोग करना ही नहीं चाहिए
क्योंकि वहां अस्तित्व में केवल एक ही केंद्र है।
वहां लाखों केंद्र हो ही नहीं सकते, क्योंकि वहां लाखों ब्रह्माण्ड न होकर
केवल एक ब्रह्माण्ड है।
इसलिए वहां यदि केंद्र है, तो केवल एक केंद्र ही हो सकता है।
हम सभी उसी में सम्मलित हैं।
लेकिन हम यह दावा नहीं कर सकते कि वह केन्द्र हमारा है।
इसी वजह से जेन कहते हैं  विनम्र मत बनो, अनात्मा बनो,
क्योंकि विनम्रता अहंकार की एक चाल है,
वह कुरूप ही न होकर, परिष्कृत अहंकार है।
इसलिए यहां दो तरह के अहंकार हैं

भद्दे और कुरूप अहंकार को तो तुम असभ्य, असंस्कृत,
और अशिक्षित व्यक्तियों में पाओगे।
तब दूसरा है सुसंस्कृत अहंकार,
जो परिष्कृत, परिशुद्ध और बहुत सूक्ष्म होता है;
तुम उसे खोज नहीं सकते, वह हमेशा विनम्रता ओढ़े हुए रहता है।
विनम्रता, सादगी-ये सभी उसके मुखौटे और मुद्राएं हैं।
कनफ्यूशियस  सभ्य मनुष्यों का एक आदर्श है,
वह सभ्यता में विश्वास करता है और कहता है:
नियमों का अनुसरण करना चाहिए और चूंकि जीवन एक संघर्ष है,
इसलिए कड़े अनुशासन को लगाए जाने की आवश्यकता है।
और किसी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से उकसा मत
अपनी ऊर्जा को बचा कर रखो, क्योंकि किसी लड़ाई में तुम्हें उसकी जरूरत
होगी।
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के साथ लड़ते ही मत जाओ,
क्योंकि वह अनावश्यक है। अपनी ऊर्जा को बचा कर रखो।
तब जहां वास्तव में जरूरत हो, तुम लड़ सकते हो,
लेकिन वह लड़ाई भी उसके लिए जमीन तैयार कर, मानवीय शक्तियों के
विकास के लिए लड़ी जानी चाहिए।
कैसे बैठना चाहिए कैसे खड़े होना चाहिए
कैसे चलना चाहिए कैसे व्यवहार करना चाहिए-
कनफ्यूशियस  ने इन सभी के लिए नियम बनाए हैं।
क्योंकि यहां लाखों अहंकार हैं
इसलिए अहंकारों के इस विशाल जंगल के मध्य
यदि तुम अपने लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हो,
तुम्हें अपना मार्ग खोज लेना है,
तो अनावश्यक रूप से प्रत्येक व्यक्ति के साथ संघर्ष मत करो।
कहीं से होकर यदि गुजरना है, तो इतनी विनम्रता से गुजरो
कि कोई व्यक्ति तुम्हें बाधा न पहुंचाए।
इसलिए यह विनम्रता एक कूटनीतिक है, यह राजनीतिक है, धार्मिक नहीं
है।
कनफ्यूशियस एक धार्मिक व्यक्ति है ही नहीं।
कम्प्यूशियस के कारण ही, चीन साम्यवाद का शिकार बन सका;
क्योंकि कम्प्यूशियस ही चीन की केंद्रीय शक्ति बना रहा।

बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि ऐसा हुआ कैसे,
कि चीन जैसा एक धार्मिक देश, पूर्ण भौतिकतावादी दर्शन को अपना कर
साम्यवाद का शिकार कैसे बन गया है।
यह एक संयोग नहीं है।
चीन में बुद्ध की शिक्षाओं का प्रवेश हुआ;

वहीं लाओत्से और च्यांग्त्सु जैसे बुद्ध निवास करते रहे,
लेकिन वे कभी भी चीन की केंद्रीय शक्ति न बन सके।
केंद्रीय शक्ति कश्व्शियस ही बना रहा,
कनफ्यूशियस  और मार्क्स दोनों सहयात्री हैं
इसलिए वहां कोई समस्या उत्पन्न ही नहीं हुई।
भारत के लिए साम्यवादी बनना कठिन है।
लेकिन चीन के लिए साम्यवादी बनना बहुत-बहुत आसान था-
और वह भी इतनी अधिक आकस्मिकता और सरलता से,
क्योंकि कनफ्यूशियस की प्रवृत्ति
पूरी तरह राजनीतिक, कूटनीतिक और भौतिकतावादी है।

जेन और ताओवादी हमेशा कम्प्यूशियस के बारे में हास-परिहास करते रहते
हैं, और यह बोध कथा, उनमें से ही एक सूक्ष्म परिहास है।
इसे समझने का प्रयास करें।

कनफ्यूशियस लुलियांग के विशाल जलप्रपात को देख रहा था।
वह दो सौ फीट की ऊंचाई से नीचे गिरता है,
और उसके झाग पंदह मील दूर तक पहुंचते हैं।
मछली-घड़ियाल जैसे जीव भी उसके प्रवाह में जीवित नहीं रह पाते।
फिर भी कनफ्यूशियस ने एक वृद्ध व्यक्ति को उसके अन्दर जाते हुए देखा।

यह सोचते हुए कि वह वृद्ध, किसी मुसीबत से पीड़ित होकर ही
अपने जीवन को समाप्त करने के लिए इच्छुक है
कनफ्यूशियस ने अपने एक शिष्य को आदेश दिया:
कि वह किनारे-किनारे दौड़ते हुए वहां जाकर
उसे बचाने का प्रयास करे।
तभी उसे वह वृद्ध व्यक्ति दस कदम आगे
जल से बाहर अपना सिर निकालता दिखाई दिया।
उसके केश जल के ही साथ बहे जा रहे थे
और वह मस्ती से गीत गाता किनारे की ओर बढ़ रहा था।
कनफ्यूशियस  अपने शिष्य का पीछा करता वहां आ पहुंचा;
और उसने वृद्ध व्यक्ति की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा:
श्रीमान! मैं सोच रहा था कि आप एक दिव्यात्मा हैं,
लेकिन अब मैं देख रहा हूं कि आप एक मनुष्य हैं।
कृपया मुझे बताने का कष्ट करें
कि इस उफनते और तीव्र गति से वहते जल के साथ सम्बन्ध जोड़ने का
आखिर कौन-सा मार्गहै?


कनफ्यूशियस को यह लगभग असम्भव दिखाई देता है
कि इतने बड़े जलप्रपात में
जिसके साथ नदी दो सौ फीट ऊंचाई से नीचे गिर रही हो
और इतना अधिक झाग उत्पन्न कर रही हो, जो पंद्रह मील दूर तक फैला है,
एक वृद्ध व्यक्ति स्नान करने जा रहा हो, नदी की वेगमान धारा में
स्नान करना तो असम्भव है।
प्रपात की प्रचण्ड ऊर्जा उस व्यक्ति को मार डालेगी,
वह तेज प्रवाह की शक्ति द्वारा चट्टानों से टकरा कर नीचे तली में पहुंच जाएगा।
पहले उसका खयाल था कि यह व्यक्ति
जरूर आत्महत्या करने के लिए ही आया है
क्योंकि तुम इस जलप्रपात से बाहर जीवित नहीं निकल सकते।
इसलिए उसने अपने एक शिष्य से कहा, कि वह किनारे-किनारे जाकर
उसे बचाने का प्रयास करे।
लेकिन वह व्यक्ति तभी उछला और तब कुछ कदम आगे
वह पूरी तरह से जीवित नदी के बाहर निकल कर आया।
यह अविश्वसनीय था।
क्यों? कनफ्यूशियस  के लिए वह अविश्वसनीय क्यों था?
क्योंकि वह संघर्ष और युद्ध करने में विश्वास रखता है
वह नहीं जानता कि प्रकृति के साथ कैसे बहा जाता है, कैसे प्रवाहित हुआ जाता है।
यही परिहास है इसमें, कि वह इतना भी नहीं जानता।
जो जान सके,
कि कैसे तैरा जाए सभी नियम और कायदे इसके लिए तो बनाए गए हैं।

लेकिन वह इतना भी नहीं जानता कि नदी के साथ कैसे बहा जाए?
वह समर्पण के रहस्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता।
इसलिए वह अपनी आंखों पर विश्वास ही न कर सका।
उसका खयाल था कि इस व्यक्ति को जरूर कोई दिव्य आत्मा होना चाहिए:
क्योंकि भौतिक शरीर तो प्रपात के नीचे जीवित रह ही नहीं सकता,
क्योंकि वह सभी नियमों के विरुद्ध है।
वह उस व्यक्ति के पीछे भागा और जब उसे पकड़ पाया तो उससे पूछा:
श्रीमान्! मेरा खयाल था कि आप कोई दिव्यात्मा हैं,
लेकिन अब मैं देख रहा हूं कि आप तो एक मनुष्य हैं।
कृपया मुझे बताएं: इस तरह के जल के साथ सम्बन्ध जोड़ने का कौन-सा मार्ग है?

तुमने एक चमत्कार किया है: यह अविश्वसनीय है।
क्या ऐसा कोई विशिष्ट मार्ग है, जिससे इस जल प्रवाह के साथ सम्बन्ध जोड़ा
जा सके?
कनफ्यूशियस हमेशा रास्तों, विधियों, उपायों और मार्ग पर विश्वास करता है।
अहंकार का विश्वास इसी तरह से होता है।

यहां ऐसे लोग भी हैं, जो मेरे पास आते हैं, और मुझसे पूछते हैं :
प्रेम में कैसे गिरा जाए? क्या इसका कोई रास्ता है?
कैसे प्रेम में पड़ा या गिरा जाए?
वे इसके लिए कोई मार्ग कोई विधि या कलापटुता के बाबत पूछते हैं।
वे नहीं जानते कि वे क्या पूछ रहे हैं?
प्रेम में गिरने का अर्थ ही है कि अब वहां न कोई रास्ता है, न कोई विधि है
और न कलापटुता ही किसी काम आ सकती है,
इसी वजह से इसे 'गिरना' या 'पड़ना' कहते हैं:
अब तुम और अधिक उसके नियंत्रणकर्त्ता न रहे, तुम पूरी तरह गिर गए।
इसी कारण जो लोग बुद्धि प्रधान हैं
वे कहेंगे  प्रेम अंधा होता है
जब कि केवल प्रेम के पास ही आंख होती है, एक दृष्टि होती है,
लेकिन वे कहेंगे कि प्रेम अंधा है और वे सोचेंगे,
कि यह व्यक्ति तो पागल हो गया है। उसके पागल दिखाई देने का तर्क है,
क्योंकि तर्क ही सबसे बड़ा नियंत्रक है।
किसी भी चीज पर जब नियंत्रण खो जाता है
तर्क को वह चीज खतरनाक लगने लगती है।
इसीलिए कनफ्यूशियस ने मार्ग के लिए पूछा:
तुम कैसे इस तरह की नदी के साथ व्यवहार करते हो?
तुम कैसे उन भयंकर भंवरों में जीवित बने रहते हो, श्रीमान!
इसमें जरूर कोई कला पटुता अथवा यांत्रिक कौशल होना चाहिए।

यह मन तकनीकी प्रधान है,
संसार में सारी तकनीक और विधियां मन ने ही सृजित की हैं।
लेकिन यहां मनुष्य के हृदय का भी संसार है और यहां मनुष्य के अस्तित्व
और चेतना का भी एक पृथक संसार है
जहां कोई भी तकनीक सम्भव ही नहीं है।
सभी तकनीकी ज्ञान पदार्थ के साथ ही सम्भव है:
चेतना के साथ कोई भी तकनी कें सम्भव ही नहीं हैं।
वास्तव में नियंत्रण करना सम्भव नहीं है
नियंत्रण करने का अधिक प्रयास ही
अथवा कोई चीज प्रयास से घटे, यह धारण ही अहंकारपूर्ण है।
कनफ्यूशियस यह जानता ही नहीं कि यहां समर्पण जैसी भी कोई चीज होती
है।
यदि तुम नदियों के प्रेमी और दीवाने रहे हो,
और यदि तुम उनमें तैरने का आनंद लेते रहे हो,
तो जो कुछ उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा, तुम उसे समझ जाओगे।
मुझे स्वयं नदियों से अत्यधिक प्रेम रहा है
और एक भंवर में गिरना मेरे सबसे अधिक सुन्दर अनुभवों में से एक है।
बरसात में जब कि नदियों में बाढ़ आई हुई हो,
तो बहुत ही शक्तिशाली और खतरनाक भंवर उत्पन्न हो जाते हैं।
पानी एक पेच की तरह तेजी से गोल-गोल घूमने लगता है।
यदि तुम भंवर में फंस जाओ,
तो तुम बलपूर्वक नदी के तल की ओर खींच लिए जाओगे,
और तुम जितने गहरे जाओगे, वह भंवर और शक्तिशाली बन जाता है।
अहंकार की स्वाभाविक प्रवृत्ति उसके साथ लड़ने और संघर्ष करने की होती
है, क्योंकि निश्चित ही सामने मृत्यु खड़ी दिखाई देती है
और अहंकार को मृत्यु से बहुत अधिक भय लगता है।
अहंकार उस भंवर के साथ लड़ने का प्रयास करता है,
और यदि तुम एक बाढ़ग्रस्त नदी में
अथवा किसी जलप्रपात के निकट, जहां पानी में बहुत से भंवर पड़ते हैं-
किसी भंवर के साथ संघर्ष करते हो तो तुम मिट जाओगे,
क्योंकि भंवर इतना अधिक शक्तिशाली होता है कि तुम उससे लड़ नहीं
सकते।
हिंसा और संघर्ष से कुछ नहीं होने का-
तुम उसके साथ जितना अधिक लड़ोगे, तुम उतने ही कमजोर
और शिथिल होते जाओगे,
क्योंकि भंवर तुम्हें अपनी ओर खींचता चला जाता है, और तुम उससे लडू रहे
होते हो।

लड़ने के प्रत्येक प्रयास के साथ, तुम अपनी शक्ति खोते जाते हो।
शीघ्र ही तुम थक जाओगे और भंवर तुम्हें नीचे की ओर चूस लेगा।
और यह भंवर ऐसी ही एक महत्वपूर्ण चीज है:
सतह पर तो यह चक्कर बहुत बड़ा होता है;
लेकिन तुम जितने गहरे जाओ यह घेरा या चक्कर
छोटे सा छोटा होता जाता है-
बहुत अधिक शक्तिशाली, लेकिन आकार में छोटे से छोटा।
और करीब-करीब भंवर के तल में जाकर वह इतना अधिक छोटा हो जाता है
कि तुम बिना संघर्ष के सरलता से उससे बाहर हो जाते हो।

वास्तव में भंवर तुम्हें स्वयं अपने से बाहर तल के निकट फेंक देता है।
लेकिन तुम्हें उसके तल तक पहुंचने की प्रतीक्षा करनी होगी।
यदि तुमने सतह पर ही संघर्ष करना शुरू कर दिया, जो तुम करते हो,
तो तुम जीवित नहीं बच सकते।
मैंने बहुत से भंवरों को आजमाया है;
और उनका अनुभव बहुत प्यारा है।
यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि गहरे ध्यान में घटता है,
क्योंकि वहां तुम संघर्ष नहीं करते हो।
जब तुम्हारे अन्दर का अस्तित्व श्वांस बाहर फेंकते हुए जमुहाई लेता है
तो एक खाई जैसा द्वार खुल जाता है, जो भंवर जैसा ही चक्र है।
यदि तुम संघर्ष करना शुरू कर देते हो, तो तुम कुचल दिए जाओगे।
तुम्हें केवल उसे स्वीकार करना है, पूरी तरह से उसके साथ ही गति करो।
उसके साथ संघर्ष मत करो।
तुम उसके साथ-साथ ही गतिशील रहो: वह जहां ले जाए जाओ।
अपनी ऊर्जा सुरक्षित रखो, ऊर्जा का एक अणु भी नष्ट न हो,
क्योंकि तुम संघर्ष नहीं कर रहे हो, तुम अपने अन्दर खुली उस शून्यता की
खाई जैसे चक्र के साथ घूम रहे हो,
तुम पूरी घटना का आनंद ले रहे हो,
जैसे मानो तुम चक्रवात के पंखों पर सवार होकर उड़े जा रहे हो।
एक क्षण के अन्दर ही तुम उसके तल द्वारा खींच लिए जाओगे,
क्योंकि उस भंवर में ऊर्जा व शक्ति होती है। वह बहुत से लोगों को मार देती
है। और नीचे के तल के निकट, तुम सरलता से सरक कर बाहर आ सकते हो
यहां तक कि बाहर सरक कर आने की भी जरूरत नहीं
तुम सरक कर बाहर आ ही जाओगे, क्योंकि वह स्थान इतना छोटा है
कि वह तुम्हें अपने साथ नहीं रख सकता।

ठीक ऐसा ही गहरे ध्यान में भी होता है।
तुम्हें दम घुटने जैसा अनुभव होता है, तुम्हें लगता है कि किसी चीज ने
तुम्हें पकड़ कर अपने अधिकार में ले लिया है,
कोई चुम्बकीय शक्ति तुम्हें अपनी ओर खींच रही है।
तुम संघर्ष और प्रतिरोध करना शुरू कर देते हो।
यदि तुम प्रतिरोध करते हो, केवल तभी तुम्हारी ऊर्जा चूस ली जाती है।

जीसस एक बहुत अविश्वसनीय बात कहते हैं।
और ईसाइयों की समझ में नहीं आता कि वे कैसे उसकी व्याख्या करें?
इन दो हजार वर्षों में भी वे उसका अर्थ समझने में समर्थ नहीं हो सके हैं।

जीसस कहते हैं; बुराई तक का प्रतिरोध मत करो।
वह भले ही बुराई हो, दुष्टता हो, उसका प्रतिरोध मत करो।
क्योंकि यदि तुम प्रतिरोध करोगे, तो बुराई जीत जाएगी।
तुम्हारे पास इतनी थोड़ी सी ऊर्जा है, प्रतिरोध करके उसे नष्ट मत करो।
यदि तुमने बहुत संघर्ष किया, तो हार निश्चित है।
लडो ही मत, और कोई भी तुम्हें हरा नहीं सकता।
भले ही अत्यधिक दानवी शक्ति, शैतान भी वहां हो,
यदि तुम उससे लड़े नहीं, तो वह तुम्हें हरा नहीं सकता।
यदि तुमने लड़ना शुरू कर दिया, तो तुम पहले ही पराजित हो गए।
यदि लड़े तो असफलता पूरी तरह निश्चित है;
यदि नहीं लड़े, तो असफल होने की कोई सम्भावना ही नहीं।
क्योंकि यदि तुम लड़े ही नहीं, तो तुम असफल हो कैसे सकते हो?
यही जूडो और जू-जिल्लू की कला है: न लड़ने की।
जापान में उन्होंने ओ की अत्यन्त सूक्ष्म कला विकसित की है।
जो व्यक्ति जूडो में प्रशिक्षित किया जाता है, उसे पराजित नहीं किया जा सकता,
क्योंकि वह लड़ता ही नहीं। भले ही तुम उस पर प्रहार करो,
तुमने अपने प्रहार या चोट करने के द्वारा जो ऊर्जा फेंकी है, वह उसे
अवशोषित कर लेता है।
वह प्रतिरोध नहीं करता; वह लड़ता ही नहीं।
और कुछ ही मिनटों में एक बहुत मजबूत व्यक्ति भी,
एक निर्बल व्यक्ति के द्वारा, यदि वह ओ जानता है, हराया जा सकता है।

तुम अपने चारों ओर भी कई बार ऐसा होते हुए देखते हो।
प्रतिदिन तुम छोटे-छोटे बच्चों को पूरे दिन गिरते हुए देखते हो।
वे गिरते हैं और वे फिर उठ खड़े होते हैं, और वे उसके बारे में भूल जाते हैं।
लेकिन यदि तुम एक छोटे बच्चे की भांति गिर जाओ,
तो तुम्हें हमेशा अस्पताल की ही शरण लेनी होगी।
क्या होता है, जब एक बच्चा नीचे गिरता है?
वह पूरी तरह से गिर जाता है; वह कोई रुकावट खड़ी नहीं करता।
वह पृथ्वी की गुरुत्त्वाकर्षण शक्ति और खिंचाव के साथ गतिशील होता है।
वह समग्रता से गिर ही जाता है, कोई बाधा खड़ी नहीं करता, जैसे एक
तकिया नीचे गिर जाता है।
जब तुम नीचे गिरते हो तो तुम प्रतिरोध करते हो। पहले तुम न गिरने का
प्रयास करते हो।
तुम्हारा रेशा-रेशा, तुम्हारी सारी अस्थियां खिंच कर तनावग्रस्त हो जाती हैं।
जब तनी हुई हड्डियां और तनाव से भरा हुआ नाड़ी संस्थान,
संघर्ष करते हुए अनिच्छा से नीचे गिरता है, तब बहुत सी चीजें टूट जाती हैं,
गुरुत्त्वाकर्षण शक्ति के कारण नहीं, बल्कि तुम्हारे प्रतिरोध के कारण।
कभी-कभी तुमने किसी शराबी को सड़क पर गिरते, और नीचे नाली में
पड़े हुए देखा होगा-उसे कुछ भी नहीं होता
सुबह होते ही वह पूरी तरह से ठीक हो जाता है।
वह आफिस जाता है और हर रात नशा कर वह फिर गिरता है।
वह जरूर ही कोई तरकीब जानता है, जिसे तुम नहीं जानते।
आखिर वह ऐसा क्या जानता है? बहुत साधारण सी बात है-
वह इतना अधिक नशे में धुत होता है कि वह प्रतिरोध नहीं कर सकता।
वह कोई बाधा खड़ी न कर पूरी तरह से गिर जाता है
जैसे कोई पंख, बिना किसी अन्दर के प्रतिरोध के उड़ान भरने के बाद नीचे
गिर जाता है,
यही कारण है कि वह सुबह पूरी तरह फिर से ठीक होकर
हंसता-मुस्कराता दफ्तर चल पड़ता है।

यदि तुम किसी शराबी की भांति गिर पड़, तो तुम्हें तुरंत अस्पताल भेजना
होगा
कई हड्डियां टूट चुकी होंगी,
और वह हड्डियां तुम्हारे संघर्ष करने के कारण ही टूटती हैं।
ओ में वे किसी व्यक्ति को न लड़ने के लिए ही प्रशिक्षित करते हैं।
यदि कोई तुम पर आक्रमण करता है तुम पूरी तरह से उस आक्रमण को
अपने अन्दर अवशोषित कर लेते हो।
यदि वह तुम्हारे सिर पर प्रहार करता है, तुम उस प्रहार को सोख लेते हो।
जब कोई व्यक्ति तुम्हारे सिर पर प्रहार करता है,
तो ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा उसके हाथ में आ जाती है।

यदि तुम लड़ते हो, तो दो ऊर्जाएं एक दूसरे से टकरा कर नष्ट हो जाती हैं।
यदि तुम नहीं लड़ते हो, तो तुम ग्रहणशील या ग्राहक बन जाते हो।
यह बहुत कठिन कला है। इसे सीखने में वर्षों लग जाते हैं,
क्योंकि अहंकार बार-बार आड़े आ जाता है।
यदि एक बार तुम यह दक्षता प्राप्त कर लेते हो,
तब तुम अपने शत्रु की पूरी ऊर्जा को अवशोषित कर लेते हो।
और शीघ्र ही, अपनी ऊर्जा बाहर फेंक कर शत्रु निर्बल हो जाता है,
और तुम धीमे- धीमे और अधिक शक्तिशाली बन जाते हो।
वह अपने ही प्रयास के द्वारा हार जाता है
और तुम बिना किसी प्रयास के जीत जाते हो।

यही तो कहा था उस वृद्ध व्यक्ति ने।
नहीं? उस वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया:
न कोई उपाय है, और न कोई मार्ग।
मैं डुबकी लगाकर, भंवर के साथ गोल-गोल घूमते हुए उसके बाहर आ जाता हूं।
मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। यह सब कुछ गोल-गोल घूमता हुआ भंवर ही करता है।
मैं उसके अन्दर आता नहीं, मैं उसके ही साथ घूमता हूं..
उस चक्र के साथ गोल-गोल घूमते हुए उसके ही साथ नीचे आकर मैं भंवर
के बाहर हो जाता हूं।
मैं केवल अपने को जल के प्रवाह और गति के अनुकूल बना लेता हूं।

मनुष्य की सभी समस्याओं का यही एक समाधान है। कठिनाई केवल यह है-
अहंकार पूरे संसार को अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करता है,
एक व्यक्ति जिसके पास कोई अहंकार नहीं है,
वह स्वयं संसार के अनुकूल बन जाता है।
वास्तव में यह कहना भी ठीक नहीं है कि वह अनुकूल बनता है-
सामान्य रूप से वह पाता है कि वह उसके अनुकूल हो गया है।
अहंकार प्रत्येक चीज को अपने अनुकूल बनाना चाहता है

यह बच्चों की तरह बहुत बचकाना कार्य है।
एक बच्चा चाहता है कि प्रत्येक बात सोचते ही तुरंत पूरी हो जाए;
वह जो भी इच्छा करे, उसे तुरंत पूरा होना चाहिए।
यदि वह चांद भी चाहता है,
तो चांद को भी ठीक अभी प्राप्त होना चाहिए।
वह प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता।
एक बच्चा चाहता है कि प्रत्येक चीज और प्रत्येक व्यक्ति उसके अनुकूल बन
जाए।
बच्चा एक तानाशाह होता है, और जब भी एक बच्चे का
परिवार में जन्म होता है, वह पूरे वातावरण को बदल देता है।
वह प्रत्येक व्यक्ति को अपना सेवक बना लेता है,
उसकी तानाशाही का कहीं अंत नहीं होता-
और इसी बचपन में ही अहंकार का जन्म होता है।
अहंकार सबसे अधिक अविकसित चीज है
वह एक बचकानापन और अपरिपक्वता है,
जो नहीं जानती कि वह क्या कर रही है?
तुम हो कौन? पूर्ण अस्तित्व को तुम्हारे अनुकूल क्यों होना चाहिए?
तुम सागर की ठीक एक लहर की भांति हो;
और तुम प्रयास कर रहे हो, और सागर को अपने अनुकूल बनाना चाह रहे हो
स्पष्ट रूप से यह निपट मूर्खता और छूता है।
पूर्ण अस्तित्व को तुम्हारे अनुकूल बनने की कोई आवश्यकता नहीं है,
यह कभी सम्भव हो ही नहीं सकता; यह असम्भव है।
तुम इसके बारे में कितना भी सोचो, लेकिन तुम असफल होगे ही।
अहंकार सदैव असफल ही होता है, क्योंकि वह असम्भव की मांग करता
नेपोलियन, हिटलर और सिकंदर इन सभी से पूछो;
अंत में वे सभी बुरी तरह असफल हुए।
अत्यधिक धनी व्यक्ति-उनसे भी पूछो, उन्होंने बहुत अधिक धन संचित
कर लिया;
लेकिन अंत में वे अपने गहरे में असफलता का अनुभव करते हैं।
तुम कई तरह से शक्ति का संचय कर सकते हो

लेकिन अंत में तुम्हें असफल ही होना है।
अहंकार कभी भी विजेता नहीं बन सकता।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बच्चे को कहानियां सुना रहा था।
मैं भी उन्हें सुन रहा था और बच्चा नई कहानी सुनाने का आग्रह कर रहा था।
इसलिए उसने एक नई कहानी की ईजाद करते हुए कहा:
वहां एक कीड़ा रहता था, जो सुबह जल्दी जाग जाने वाला कीड़ा था।
वह सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही, यह सोचते हुए उठ जाता था-
क्योंकि धार्मिक और नीतिवादी शिक्षक हमेशा कहते हैं
कि सुबह जल्दी उठना बहुत सुन्दर चीज है।
लेकिन एक दिन वह और भी जल्दी सुबह जाग जाने वाली चिड़िया द्वारा
पकड़ लिया गया, जिसका स्वयं उस धार्मिक धारणा पर यह विश्वास था,
कि जल्दी जाग जाना शुभ होता है।
बच्चा बहुत अधिक उत्तेजित होकर बोला:
फिर उस दूसरे कीड़े का क्या हुआ?
आपने कहा था कि एक कीड़ा सुबह जल्दी उठ जाता था-और दूसरा?
मुल्ला ने कहा: हां वह देर से उठने वाला बहुत आलसी जीव था।
लेकिन एक बच्चे ने जब उसे सोते हुए पाया तो उसे मार डाला।
बच्चा थोड़ी सी उलझन में पड़ गया। उसने पूछा:
लेकिन इस कहानी का आदर्श वाक्य क्या है?
मुल्ला ने कहा: आदर्श वाक्य यही है- कि तुम कभी भी जीत नहीं सकते।

तुम चाहे कुछ भी करो, जल्दी उठो या देर से,
अंत में प्रत्येक व्यक्ति को मरना ही है।
यह अहंकार के बारे में पूरी तरह से सत्य है-तुम कभी जीत नहीं सकते।
चाहे कुछ भी करो तुम भले ही अच्छा बनो या सदाचारी,
पर यदि यह सदाचार और अच्छाई अहंकार पर आधारित है
तुम कभी भी जीत नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे पास हार का बीज तुम्हारे
अन्दर पहले ही से मौजूद है।
तुम लोगों की सेवा कर सकते हो, एक बहुत बड़े समाज सेवक बन सकते हो
लेकिन उसका आधार यदि अहंकार है, तो तुम कभी जीत नहीं सकते।
तुम लाखों अच्छे कार्य कर सकते हो, लेकिन यदि अहंकार है वहां,
तो वहां विष ही है। तुम जो कुछ भी करोगे, वह उसे विषैला बना देगा।
चाहे गरीब बनो या अमीर, धार्मिक बनो या अधार्मिक:
नास्तिक बनो या आस्तिक नैतिक बनो या अनैतिक:
अपराधी बनो या संत-इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता।
यदि वहां अहंकार है, तो तुम कभी भी जीत नहीं सकते,
क्योंकि अहंकार ही असफलता का बीज है।
और यदि वहां अहंकार नहीं है तो तुम्हें पराजित नहीं किया जा सकता।
क्योंकि वहां कोई है ही नहीं; जिसे हराया जा सके।
तुम्हारी विजय सुनिश्चित है।
यही जेन की सबसे अधिक रहस्यमय सिखावन है।
पूर्ण अस्तित्व के साथ सहमत होकर उसके ही साथ बने रहो, उसके ही साथ
गति करो;
नदी के साथ बहो, यहां तक कि तैरो भी मत।
लोग धारा के विरुद्ध तैरने का प्रयास करते हैं
और तब वे हार जाते हैं।
तैरो भी मत। क्या तुम उसके साथ बह नहीं सकते?
क्या तुम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि नदी तुम्हें अपने साथ ले चले?
नदी को स्वीकृति दो। तुम बस उसके साथ बहो।
जीवन-सरिता के साथ विश्रामपूर्ण होकर रहो, और वह तुम्हें जहां ले जाए
वहां जाओ।
वह सागर तक पहुंचती ही है, तुम्हें फिक्र करने की कोई जरूरत ही नहीं है।

उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा:
मैं केवल अपने को जल के प्रवाह और गति के अनुकूल बना लेता हूं
न कि जल को अनुकूल बनाने का प्रयास करता हूं।
यह तुम्हारा पक्का स्मरण बन जाए।
यह अडिग होश ही तुम्हारी अत्यधिक सहायता करेगा।
तुम्हें जब भी ऐसा लगे कि तुम संघर्ष करने जा रहे हो, विश्रामपूर्ण हो जाओ।
चाहे जैसी भी स्थिति हो, तुम बस वही, लड़ाई में पड़ ही मत,

और तब निश्चित है, तुम लक्ष्य तक स्वयं पहुंच जाओगे।
वास्तव में तब वहां भविष्य के लिए कोई लक्ष्य होता ही नहीं;
ठीक अभी, इसी प्रामाणिक क्षण में, तुमने उसे प्राप्त कर लिया है-
प्रकृति के साथ सहज, सरल और विश्राम पूर्ण होकर बहो
प्रकृति को अपनी चाल से चलने की अनुमति दो,
किसी भी तरह से उसे बलात विवश मत करो।
हिंसक और आक्रामक न होकर निष्क्रिय बने रहो।
ठीक उसी तरह जैसे एक छोटा बच्चा अपने पिता के साथ टहलने जाता है-
पिता जहां भी जाता है, बच्चा खुश-खुश, बिना यह जाने हुए कि वह कहां
जा रहा है,
और क्यों जा रहा है, उसके साथ-साथ जाता है।
यदि पिता, बच्चे की हत्या करने भी जा रहा है
फिर भी बच्चे के लिए वहां कोई समस्या होती ही नहीं।

ईसाइयों में एक कहानी कही जाती है।
एक बार एक आदमी को ऐसा खयाल आया, कि उसे परमात्मा ने अपने बेटे
को जान से मार देने का आदेश दिया है।
इसलिए उसने बेटे को अपने साथ जंगल में ले चलने का निश्चय किया।
यह जानकर उसका पुत्र बहुत हर्षित और उत्तेजित था।
तड़के सुबह होते ही उन्हें चल पड़ना था।
और बेटा आधी रात को ही जागकर पिता से पूछने लगा-
हम लोग जंगल में कब चलेंगे?
पिता बहुत परेशान था, क्योंकि वह तो जंगल में अपने पुत्र को मारने ले जा
रहा था,
और पुत्र इतना अधिक उत्तेजित और व्यग्र था,
वह नहीं जानता था कि वहां क्या होने जा रहा था?
लेकिन उस आदमी को परमात्मा की आवाज पर पूरा भरोसा था,
अपने परमपिता की बात का उस आदमी को पूरा विश्वास था,
और बच्चे को अपने पिता पर विश्वास ही नहीं, पूरी श्रद्धा थी।
पिता बच्चे को लेकर जंगल चला, और बच्चा बहुत खुश था।
वह कभी भी आज तक जंगल गया ही नहीं था।
तब पिता ने अपनी तलवार की धार तेज बनाना शुरू किया
जिससे वह उसे मारने जा रहा था।
बच्चा बहुत उत्तेजना के साथ पिता की सहायता कर रहा था।
पिता अन्दर ही अन्दर रो रहा था, क्योंकि यह बच्चा इस बात को-
नहीं जानता कि अब क्या घटने जा रहा था।
तभी बच्चे ने पूछा: आप इस तलवार से क्या करने जा रहे हैं?
पिता ने कहा: तुम नहीं जानते मैं तुम्हें मारने जा रहा हूं।
और बच्चा हंस पड़ा। वह बहुत आनंदित था। उसने पूछा-कब
वह पहले ही से तैयार था।
यही है वह जिसका अर्थ होता है-साथ-साथ बहना।
पिता ने तलवार ऊपर उठाई
और बच्चे ने मुस्काते हुए खुश-खुश अपना सिर नीचे झुका दिया:
वह एक खेल था।
मैं नहीं जानता कि यह कहानी सत्य है अथवा नहीं
लेकिन यह सच्ची प्रतीत होती है, उसे सच होना भी चाहिए।
क्योंकि यह अपने साथ एक गहरा अर्थ लिए हुए है।
ठीक तभी बीच ही में एक आवाज सुनाई दी;
'रुक जा? तूने मुझ पर भरोसा किया, और यह पर्याप्त है।'
और बच्चा कह रहा था: पिता जी! आप रुक क्यों गए?
इसे पूरा कीजिए। यह खेल बहुत अच्छा है।
बच्चा तो खेलने के मूड में था।

जब तुम जीवन पर श्रद्धा करते हो, तुम परमात्मा पर भी श्रद्धा करते हो,
क्योंकि जीवन ही परमात्मा है और वहां कोई दूसरा परमात्मा नहीं है।
जब तुम श्रद्धा रखते हुए उसके साथ बहते हो, तो मृत्यु भी अपना स्वभाव
बदल देती है।
तब वहां कोई मृत्यु होती ही नहीं।
तुमने उससे पृथक कभी रहने का प्रयास किया ही नहीं,
इसलिए तुम मर कैसे सकते हो?
अखण्ड सदैव जीवित रहता है: केवल व्यक्तिगत और अलग-अलग लोग
आते हैं और जाते हैं
लहरें आती-जाती रहती हैं: सागर वैसा ही बना रहता है।
अहंकार की एक पृथक लहर की भांति, तुम स्वयं अपने पर ही विश्वास नहीं
करते।
तुम कैसे मर सकते हो?
तुम अखण्ड के साथ, हमेशा-हमेशा बने ही रहोगे।
तुम पहले भी रहे हो, जब तुम थे ही नहीं,
और जब तुम सोच रहे हो कि तुम हो, तुम ठीक अभी उसे जी रहे हो,
और तुम आगे भी रहोगे, जब तुम इस स्थान पर नहीं होगे।
तुम्हारा अखण्ड से अलग होने का सपना ही अहंकार है,
और अहंकार ही संघर्ष उत्पन्न करता है।
संघर्ष के द्वारा ही तुम बिखर जाते हो, और मर जाते हो।
संघर्ष के द्वारा ही तुम दुःखी होते हो।
संघर्ष के द्वारा ही तुम वह सब कुछ खो देते हो, जिसे पाना तुम्हारे लिए
सम्भव था-
तुम्हारे ऊपर लाखों आशीष बरसना सम्भव हैं।
सम्भवत: प्रत्येक क्षण एक वरदान बन जाए
संभवत: प्रत्येक क्षण एक परमानंद बन जाए लेकिन तुम चूकेजा रहे हो।
तुम चूक रहे हो, क्योंकि तुम संघर्ष कर रहे हो।

उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा:
मैं केवल अपने को जल के प्रवाह और गति के अनुकूल बना लेता हूं
न कि जल को अनुकूल बनाता हूं

और मैं अपनी इसी कार्य प्रणाली से
उससे सम्बन्ध जोड़ने में समर्थ होता हूं।

लेकिन यह कोई विधि नहीं है, यह कोई तकनीक भी नहीं है, और न कोई
मार्ग है;
यह केवल एक समझ है।
और स्मरण रहे, अंत में या अहंकार रह सकता है अथवा समझ।
दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।
यदि अहंकार रहता है, तो तुम्हारे पास समझ नहीं होती;
तुम ठीक एक अज्ञानी बच्चे की भांति होते हो,
जिसे यह विश्वास होता है कि वह ही पूरे संसार का केंद्र है,
और खोजने पर जब तुम ऐसा नहीं पाते, तो तुम दुखी हो जाते हो।
जब तुम अपने को संसार का केंद्र होना नहीं पाते, तो तुम अपना नर्क निर्मित
कर लेते हो।

समझ का अर्थ होता है-सम्पूर्ण स्थिति की समझ।
अपने जीवन की सभी घटनाओं को,
अन्दर और बाहर समग्रता से देखते ही अहंकार विसर्जित हो जाता है।
समझ के साथ अहंकार रहता ही नहीं,
समझ ही मार्ग है, वही एक रास्ता है।
तब तुम एक सहमति में, एक लय और तान के साथ
जीवन के साथ कदम-कदम चलते हो
और अचानक तभी तुम्हें ऐसा अनुभव होता है
कि तुम जल के उस भंवर के साथ गोल-गोल घूमते हुए गोता लगाकर नीचे
तल में पहुंच कर, उस भंवर के बाहर निकल आए हो।
और यह खेल शाश्वत है-
चक्र के साथ गोल-गोल घूमते हुए नीचे गहराई में जाकर-
तुम संसार के भंवर जाल से मुक्त हो जाते हो-
यह खेल शाश्वत है।
इसी को हिन्दु 'लीला' कहते हैं,
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का यह महान खेल निरंतर चल रहा है।
तुम कभी एक लहर की भांति आते हो और तब तुम विलुप्त हो जाते हो।
तब तुम फिर एक लहर की भांति आते हो, और तुम मिट जाते हो।
और यह खेल निरंतर चला जा रहा है,
न उसका कोई आदि है और न अंत।

अहंकार का प्रारम्भ भी है, और अहंकार का अंत भी है,
लेकिन बिना अहंकार के तुम, अनादि और अनंत हो।
तुम्हीं हो वह अखण्ड शाश्वतता,
लेकिन अखण्ड में, अखण्ड के साथ पूरी तरह सहमत होते हुए।

अखण्ड के विरुद्ध संघर्ष करते हुए
तुम स्वयं अपने लिए ही एक दुःस्वप्न हो।
इसलिए या तो वहां अहंकार होता है अथवा होती है समझ।
चुनाव तुम्हारा है।
यहां विनम्र होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है,
केवल समझ ही पर्याप्त है।
और यह ऐसा है, जैसे मानो तुम अंधेरे कमरे में एक मोमबत्ती जला दो और
अचानक अंधेरा वहां रहता ही नहीं।
क्योंकि प्रकाश और अंधकार दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।
इसी तरह अहंकार और समझ भी दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।

आज इतना ही 

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