कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-10)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-दसवां
ओ. के., मैंने पोस्टस्क्रिप्ट में कितनी किताबों के बारे में बात कर ली है--चालीस?
‘‘मेरे खयाल से, तीस, ओशो।’’
तीस? अच्छा है। कितनी राहत की बात है यह, क्योंकि बहुत सारी पुस्तकें अभी भी प्रतीक्षा कर रही हैं। जो राहत मुझे मिली है उसको तुम केवल तभी समझ सकते हो जब तुम्हें हजार में से एक पुस्तक को चुनना हो। और ठीक यही कार्य मैं कर रहा हूं। पोस्टस्क्रिप्ट जारी है...
 पहली पुस्तक, ज्यां पाल सार्त्र की बीइंग एंड नथिंगनेस। यह मैं पहले ही बता दूं कि यह आदमी मुझे पसंद नहीं है। मैं इसे इसलिए पसंद नहीं करता, क्योंकि यह आदमी अभिमान से भरा हुआ है। यह इस सदी के सबसे अभिमानी लोगों में से एक है।
इसे मैं अभिमानी इसलिए कहता हूं, क्योंकि बिना यह जाने कि अस्तित्ववाद का मतलब क्या है, वह अस्तित्ववाद का नेता बन गया है। लेकिन पुस्तक अच्छी है--मेरे शिष्यों के लिए नहीं, लेकिन उन लोगों के लिए है जो थोड़े से पागल हैं, बस थोड़े से ही। यह पढ़ने में कठिन है।
यदि तुम थोड़े से पागल हो, तो यह पुस्तक तुम्हें होश में ला देगी। इस अर्थ में यह एक श्रेष्ठ रचना है--औषधि का काम करेगी। देवराज, इसे नोट करो: औषधीय। इस पुस्तक को सभी पागलखानों में भेज दिया जाना चाहिए। प्रत्येक पागल आदमी के लिए इसे पढ़ना, इसका अध्ययन करना अनिवार्य किया जाना चाहिए। अगर यह तुम्हें होश में नहीं ला सकती, तो कुछ नहीं ला सकता। लेकिन केवल थोड़े से पागलों के लिए--जैसे कि दर्शनशास्त्री, प्रोफेसर, गणितज्ञ, वैज्ञानिक आदि--जो थोड़े से पागल हैं, वे नहीं जो पूरे पागल हैं।
ज्यां पाल सार्त्र जिस अस्तित्ववाद का प्रतिनिधित्व करता है, वह एक मजाक है। ध्यान के बारे में कुछ भी जाने बिना वह बीइंगकी, ‘होनेकी बात करता है, और नथिंगनेसकी, ‘शून्यताकी बात करता है। अफसोस, कि ये दो बातें नहीं हैं: बीइंग ही नथिंगनेस है; इसीलिए बुद्ध ने बीइंग को अनत्ता कहा है--अनात्मा, नो-सेल्फ। गौतम बुद्ध इतिहास में अकेले व्यक्ति हैं जो आत्मा को अनात्माकहते हैं। बुद्ध से मैं एक हजार एक कारणों से प्रेम करता हूं; उनमें से एक कारण यह भी है। समय की कमी की वजह से यहां मैं एक हजार कारणों की बात नहीं कर रहा हूं। शायद किसी दिन मैं उन एक हजार कारणों पर भी चर्चा करूंगा...
लेकिन ज्यां पाल सार्त्र को मैं नापसंद करता हूं--बस नापसंद, घृणा भी नहीं करता, क्योंकि घृणाएक भारी शब्द है; इसे मैंने दूसरी पुस्तक के लिए बचा रखा है। ज्यां पाल सार्त्र अस्तित्व के विषय में कुछ भी नहीं जानता है, लेकिन उसने एक शब्दजाल पैदा कर दिया है, एक दार्शनिक शब्दजाल, बौद्धिक कसरत। और यह सच में कसरत ही है। अगर बीइंग एंड नथिंगनेसके दस पेज भी तुम पढ़ सके, तो या तो तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएंगे, या पागल हो जाओगे। लेकिन दस पेज पढ़ना एक कठिन काम है। जब मैं प्रोफेसर था, तो मैंने अपने कई विद्यार्थियों को इसे पढ़ने के लिए दिया, लेकिन कभी भी किसी ने इसे पूरा नहीं पढ़ा। कोई भी दस पेज से ज्यादा नहीं पढ़ सका--एक पेज ही बहुत ज्यादा था; सच में तो एक पैराग्राफ ही अपने आप में बहुत ज्यादा था। इसके सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं चलता। और फिर इसमें हजार से भी ज्यादा पेज हैं। यह एक मोटी पुस्तक है।
मैं इसे अपनी पोस्टस्क्रिप्ट में याद कर रहा हूं क्योंकि भले ही मुझे आदमी पसंद नहीं है, मुझे उसकी फिलॉसफी भी पसंद नहीं है... हां, मैं इसे फिलॉसफी कहता हूं, हालांकि वह चाहता था कि उसे एंटी-फिलॉसफी कहना चाहता था। मैं इसे एंटी-फिलॉसफी नहीं कह सकता, इसका सीधा सा कारण है कि हर एंटी-फिलॉसफी अंत में दूसरी फिलॉसफी सिद्ध होती है। अस्तित्व न तो दर्शनशास्त्रीय है और न ही गैर-दर्शनशास्त्रीय है। वह है।
मैं इस पुस्तक को शामिल कर रहा हूं, क्योंकि उसने एक तरह से अदभुत काम किया है। यह अब तक लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है, जिसमें एक तरह का कौशल भी है और तर्क भी। और आदमी बिलकल साधारण था, एक कम्युनिस्ट--यह भी एक कारण है कि मैं उसे नापसंद करता हूं। वह व्यक्ति जो अस्तित्व को जानता है वह कभी कम्युनिस्ट, साम्यवादी नहीं हो सकता है, क्योंकि उसे पता है कि समानता असंभव है। असमानता ही वस्तुओं के होने का ढंग है। कुछ भी समान नहीं है और न ही कोई चीज कभी समान हो सकती है। समानता बस एक सपना है, मूर्ख लोगों का सपना। अस्तित्व एक बहुआयामी असमानता है।

दूसरी: मैं प्रतीक्षा करूंगा... देवगीत के पेन की स्याही खत्म हो गई है। तुम्हारे पास कैसा फाउंनटेन पेन है! हे भगवान, लगता है यह आदम और हव्वा के जमाना का है! लिखते समय इससे कितनी आवाज आती है! लेकिन नूह की इस किश्ती में और क्या उम्मीद की जाए।
दूसरी है--क्योंकि आवाज बंद हो गई है--दूसरी पुस्तक है मार्टिन हाईडेगर की टाइम एंड बीइंग।मुझे यह आदमी बिलकुल पंसद नहीं है। वह न केवल एक कम्युनिस्ट था, बल्कि एक फासीवादी भी था, एडोल्फ हिटलर को मानने वाला। मुझे भरोसा नहीं होता कि जर्मन लोग क्या-क्या कर सकते हैं! वह इतना बुद्धिमान आदमी था, प्रतिभाशाली, और फिर भी उस मंदबुद्धि, मूर्ख एडोल्फ हिटलर का समर्थक था। इस बात पर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। लेकिन पुस्तक अच्छी है--फिर वही बात, मेरे शिष्यों के लिए नहीं, लेकिन जो पागलपन में बहुत आगे निकल चुके हैं उनके लिए। अगर तुम सच में ही पागलपन में बहुत आगे निकल चुके हो, तो टाइम एंड बीइंगपढ़ो। यह बिलकुल समझ में नहीं आती है। यह तुम्हारे सिर पर हौथोड़े की तरह चोट करेगी। लेकिन इसमें कुछ सुंदर झलकें हैं। हां, जब कोई तुम्हारे सिर पर हथौड़े से चोट करता है, तो दिन में भी तारे नजर आने लगते हैं। यह पुस्तक भी ऐसी ही है: इसमें कुछ तारे हैं।
पुस्तक अधूरी है। मार्टिन हाइडेगर ने दूसरा भाग प्रकाशित करने का वादा किया था। वह बार-बार अपने पूरे जीवन भर वादा करता रहा, लेकिन वह दूसरा भाग कभी तैयार नहीं कर पाया, शुक्र है परमात्मा का! मुझे ऐसा लगता है कि वह खुद ही नहीं समझ पाया होगा कि उसने क्या लिखा है, तो वह इसके आगे क्या लिखता, दूसरा भाग कैसे प्रकाशित करता? और दूसरा भाग उसके दर्शनशास्त्र का शिखर होने वाला था। यह तो अच्छा हुआ कि पुस्तक नहीं लिखी गई, और वह हंसी का पात्र नहीं बना। दूसरा भाग लिखने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। लेकिन फिर भी पहला भाग पहुंचे हुए पागलों के लिए अच्छा है--और पहुंचे हुए पागल बहुत हैं; और यही कारण है कि मैं इन पुस्तकों के बारे में बात कर रहा हूं और अपनी सूची में शामिल कर रहा हूं।

तीसरी: यह पुस्तक उन लोगों के लिए है जो सच में ही पूरी तरह से पागलपन में उतर चुके हैं, जो मन की सभी चिकित्साओं, मनोविश्लेषण के पार जा चुके हैं, जो लाइलाज हैं। तीसरी पुस्तक भी एक जर्मन ने लिखी है, लुडविग विटगिंस्टीन। जरा इस पुस्तक का नाम तो सुनो: ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसॉफिक्स।हम बस इसे ट्रैक्टेटसकहेंगे। यह अस्तित्व में मौजूद सबसे कठिन पुस्तकों में से एक है। यहां तक कि जी. ई. मूर जैसा आदमी, एक महान अंग्रेज दार्शनिक, और बर्ट्रेंड रसल, एक और महान दार्शनिक--जो न केवल इंग्लैंड के, बल्कि पूरी दुनिया के एक महान दार्शनिक माने जाते हैं--दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि विटगिंस्टीन उन दोनों से श्रेष्ठ था।
लुडविग विटगिंस्टीन सचमुच एक प्यारा आदमी था। मैं उससे घृणा नहीं करता, लेकिन नापसंद भी नहीं करता। मैं उसे पसंद करता हूं और प्रेम भी करता हूं, लेकिन उसकी पुस्तक से नहीं। उसकी पुस्तक केवल जिम्नास्टिक, दिमागी कसरत है। कभी-कभार पन्ने पर पन्ने पलटने के बाद सिर्फ तब कहीं कोई एकाध वाक्य ऐसा मिलता है जो अर्थपूर्ण होता है। उदाहरणार्थ के लिए: दैट व्हिच कैन नॉट बी स्पोकन, शुड नॉट बी स्पोकन। जो नहीं कहा जा सकता, उसे नहीं कहना चाहिए; व्यक्ति को उसके संबंध में चुप ही रह जाना चाहिए।अब यह एक सुंदर वक्तव्य है। यहां तक कि संतों, रहस्यवादियों, कवियों को इस वाक्य से बहुत कुछ सीखना चाहिए। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहना ही नहीं चाहिए।
विटगिंस्टीन एक गणितीय ढंग से लिखता है, छोटे-छोटे वाक्यों में, यहां तक कि पैराग्राफ भी नहीं--सिर्फ सूत्रों में। लेकिन पागलपन में बहुत आगे निकल चुके आदमी के लिए यह बहुत मददगार साबित हो सकती है। यह न केवल उसके सिर पर, बल्कि ठीक उसकी आत्मा पर चोट कर सकती है। यह उसके अंतर्तम अस्तित्व में एक कांटे की तरह चुभ जाती है। यह उसे उसके दुखस्वप्न से जगा सकती है।
लुडविग विटगिंस्टीन प्यारा आदमी था। उसे ऑक्सफोर्ड में फिलॉसफी के सबसे प्रतिष्ठित पद के लिए निमंत्रित किया गया था। उसने इंकार कर दिया। यही कारण है कि मैं उससे प्रेम करता हूं। उसने किसान और मछुआरे का जीवन चुन लिया। इस आदमी में यही बात प्यारी है। यह ज्यां पाल सार्त्र की तुलना में ज्यादा अस्तित्ववादी है, हालांकि विटगिंस्टीन ने अस्तित्ववाद की कभी बात नहीं की। वैसे भी अस्तित्ववाद के बारे में बात नहीं की जा सकती है; तुम्हें इसे जीना होगा, और कोई रास्ता नहीं है।
यह पुस्तक तब लिखी गई थी जब वह जी. ई. मूर और बर्ट्रेंड रसल के मार्गदर्शन में अध्ययन कर रहा था। ब्रिटेन के दो महान दार्शनिक, और एक जर्मन...ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलॉसॉफिक्सलिखने के लिए काफी थे। अनुवाद करने पर इसका अर्थ होगा: विटगिंस्टीन, मूर और रसल। अपनी तरफ से मेरी यही इच्छा थी कि काश, मूर और रसल के साथ अध्ययन के बजाय विटगिंस्टीन गुरजिएफ के चरणों में बैठ गया होता। यही उसके लिए सही जगह थी, लेकिन वह चूक गया। शायद अगली बार, मेरा मतलब है अगले जन्म में...उसके लिए कह रहा हूं, मेरे लिए नहीं। मेरे लिए यह काफी है, यह आखिरी जन्म है। लेकिन उसके लिए, कम से कम एक बार उसे गुरजिएफ या च्वांगत्सु, बोधिधर्म जैसे लोगों के साथ की आवश्यकता है--लेकिन मूर, रसल या व्हाइटहेड जैसे लोगों की नहीं। वह इन लोगों से, गलत लोगों के साथ जुड़ा था। गलत लोगों के साथ एक सही आदमी, और यही साथ उसे ले डूबा।
मेरा अनुभव है, सही सोहबत में गलत आदमी भी सही हो जाता है, और इससे उलटा भी सच है: गलत सोहबत में, यहां तक कि सही आदमी भी गलत हो जाता है। लेकिन यह सिर्फ अज्ञानियों पर लागू होता है, सही या गलत, दोनों। बुद्धपुरुष इससे प्रभावित नहीं होता। वह किसी के भी साथ उठ-बैठ सकता है--जीसस तो मेग्दलीन, एक वेश्या के साथ उठे-बैठे; बुद्ध का एक हत्यारे के साथ संपर्क हुआ, एक ऐसा हत्यारा जो नौ सौ निन्यानबे लोगों की हत्या कर चुका था। उसने एक हजार लोगों की हत्या करने का व्रत लिया था, और वह बुद्ध को भी मारने जा रहा था; इस तरह वह बुद्ध के साथ संपर्क में आया।
हत्यारे का नाम तो मालूम नहीं है। लोगों ने उसे अंगुलीमाल नाम दिया था, जिसका मतलब है, ‘जो आदमी अंगुलियों की माला पहनता है।यही उसका ढंग था। जब वह एक को मारता, तो उसकी अंगुलियां काट लेता और अपनी माला में लगा लेता था, सिर्फ संख्या की गिनती रखने के लिए कि उसने कितने लोगों की हत्या कर दी है। केवल दस अंगुलियां बाकी थी एक हजार में; दूसरे शब्दों में केवल एक आदमी और... फिर उसे बुद्ध दिखाई दिए। वे बस अपने रास्ते एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। अंगुलीमाल ने चिल्ला कर कहा: ‘‘रुक जाओ!’’
बुद्ध ने कहा: कमाल है, यही तो मैं लोगों से कहता फिर रहा हूं: रुक जाओ! लेकिन, मेरे मित्र, सुनता कौन है?’’
अंगुलीमाल आश्चर्यचकित हो गया: यह आदमी पागल है क्या? और बुद्ध अंगुलीमाल की ओर चलते रहे। अंगुलीमाल फिर चिल्लाया, ‘‘रुक जाओ! लगता है तुम्हें पता नहीं कि मैं हत्यारा हूं, और मैंने एक हजार आदमियों को मारने का व्रत लिया है, अब तो मेरी मां भी मेरे पास नहीं आती है, क्योंकि मारने के लिए एक ही व्यक्ति बाकी है। मैं तुम्हें मार डालूंगा...लेकिन तुम इतने सुंदर लगते हो कि यदि रुक जाओ और वापस लौट जाओ तो मैं तुम्हें नहीं मारूंगा।’’
बुद्ध ने कहा: ‘‘इसके बारे में भूल जाओ। अपने जीवन में मैं कभी पीछे नहीं लौटा हूं, और जहां तक रुकने का सवाल है, मैं चालीस साल पहले ही रुक चुका हूं; तब से चलने वाला कोई नहीं बचा है। जहां तक मेरी हत्या का प्रश्न है, वह तुम कर सकते हो। जो भी पैदा हुआ है उसे मरना ही है।
अंगुलीमाल ने बुद्ध को देखा, उनके चरणों पर गिर पड़ा, और रूपांतरित हो गया। अंगुलीमाल बुद्ध को नहीं बदल सका, बल्कि बुद्ध ने अंगुलीमाल को बदल दिया। मेग्दलीन नाम की वेश्या जीसस को नहीं बदल सकी, बल्कि जीसस ने उस स्त्री को बदल दिया।
तो मैंने जो कहा है वह तथाकथित सामान्य मानवता के लिए लागू होता है, यह उन पर लागू नहीं होता जो संबुद्ध हैं। विटगिंस्टीन संबुद्ध हो सकता था; वह अपने इसी जीवन में संबुद्ध हो सकता था। दुख की बात है कि वह गलत लोगों की संगत में पड़ गया। लेकिन जो लोग तीसरे तल के पागल हैं, उनके लिए यह पुस्तक बहुत सहायक हो सकती है। यदि वे इसे समझ पाएं, तो उनका मानसिक स्वास्थ्य वापस आ सकता है।

चौथी: चौथी पुस्तक का नाम लेने से पहले मैं अस्तित्व के प्रति अत्यधिक आभार अनुभव कर रहा हूं... अब मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बात करने जा रहा हूं जो संख्याओं के पार है, विमलकीर्ति। उनकी पुस्तक का नाम है: निर्देश-सूत्र।अपने संन्यासी विमलकीर्ति ही अकेले विमलकीर्ति नहीं थे; सच तो यह है कि जिनकी मैं बात करने जा रहा हूं उन्हीं विमलकीर्ति के कारण मैंने उसे यह नाम दिया था। उनके वक्तव्यों को विमलकीर्ति निर्देश-सूत्रकहा जाता है। निर्देश-सूत्रका मतलब है गाइडलाइंस, दिशा-निर्देश।
विमलकीर्ति सबसे अदभुत लोगों में से एक थे; यहां तक कि बुद्ध को भी उनसे ईर्ष्या हो सकती थी। वे बुद्ध के शिष्य थे, लेकिन कभी भी औपचारिक रूप से शिष्य नहीं हुए, बुद्ध ने बाह्य रूप से उन्हें कभी दीक्षा नहीं दी। और वे इतने तेजस्वी थे कि बुद्ध के सभी शिष्य उनसे डरते थे। वे कभी नहीं चाहते थे कि विमलकीर्ति बुद्ध के शिष्य हो जाएं। बस रास्ते में भेंट हो जाए, या कोई उनसे अभिवादन करे, उसी समय ही वे कोई ऐसी बात कह देते थे कि सुनने वाला हिल जाता था। झकझोरना ही उनकी विधि थी। गुरजिएफ उनको बहुत पसंद करता--या कौन जाने, गुरजिएफ भी चौंक गया होता। वे सचमुच खतरनाक आदमी थे, एक असली आदमी।
कहा जाता है कि वे बीमार थे और बुद्ध ने सारिपुत्र से कहा कि जाओ और उन वृद्ध व्यक्ति से भेंट करो और उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछो। सारिपुत्र ने कहा, ‘‘मैंने कभी आपकी किसी बात से इनकार नहीं किया, लेकिन इस बार मैं इनकार करता हूं, और पूरे प्राणों से इनकार करता हूं: नहीं! मैं जाना नहीं चाहता। किसी और को भेज दें। वह आदमी सच में खतरनाक है। यहां तक कि अपनी मृत्युशय्या पर भी वे मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर देंगे। मैं जाना नहीं चाहता।’’
बुद्ध ने हर किसी से पूछा, और कोई भी जाने के लिए तैयार नहीं हुआ सिवाय एक आदमी के, मंजुश्री, जो बुद्ध के शिष्यों में सबसे पहले बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। वे गए, और इस तरह इस पुस्तक की रचना हुई। यह एक संवाद है। इन्हीं विमलकीर्ति के नाम पर मैंने अपने विमलकीर्ति को यह नाम दिया। असली विमलकीर्ति अपनी मृत्युशय्या पर थे, और मंजुश्री उनसे प्रश्न पूछ रहे थे, या यूं कहें कि उनके प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे। इस तरह विमलकीर्ति निर्देश-सूत्रका जन्म हुआ--यह सच में एक महान रचना है।
लगता है किसी ने भी इस पुस्तक की परवाह नहीं की, क्योंकि यह किसी भी धर्म विशेष की पुस्तक नहीं है। यह बौद्धों की पुस्तक भी नहीं है, क्योंकि वे कभी भी बुद्ध के औपचारिक शिष्य नहीं रहे। लोग बाहरी रूप को इतना सम्मान देते हैं कि आत्मा को भूल ही जाते हैं। मैं सभी सच्चे साधकों को इस पुस्तक को पढ़ने का सुझाव देता हूं। उन्हें इसमें हीरों की एक खान मिल जाएगी।

पांचवीं: मैं फिर से जे. कृष्णमूर्ति की तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं। पुस्तक का नाम है: कॉमेंट्रीज ऑन लिविंग।यह कई भागों में है। यह उसी तत्व से बनी है जिससे सितारे बने हैं।
कॉमेंट्रीज ऑन लिविंगकृष्णमूर्ति की डायरी है। कभी-कभार वे अपनी डायरी में कुछ लिखते हैं... एक सुंदर सूर्यास्त, एक प्राचीन पेड़, या सिर्फ एक संध्या...पक्षियों का घर वापस लौटना...कुछ भी...एक सरिता का सागर की ओर दौड़ना...जो कुछ भी उन्हें महसूस होता है, वे कभी-कभी उसे लिख लेते हैं। इस तरह इस पुस्तक का जन्म हुआ। यह व्यवस्थित रूप से नहीं लिखी गई है, यह एक डायरी है। फिर भी, सिर्फ इसे पढ़ना ही तुम्हें किसी और ही लोक में पहुंचाने के लिए काफी है--सौंदर्य का जगत, या इससे भी अच्छा, धन्यता का जगत। क्या तुम मेरे आंसुओं को देख सकते हो?
कुछ समय से मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन सिर्फ इस पुस्तक का उल्लेख मेरी आंखों में आंसू लाने के लिए पर्याप्त है। मुझे इस पुस्तक से प्रेम है। यह अब तक की लिखी गई श्रेष्ठतम पुस्तकों में से एक है। मैंने पहले कहा था कि कृष्णमूर्ति की फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडमउनकी सबसे अच्छी पुस्तक है, जिससे श्रेष्ठ वे कभी नहीं लिख पाए--निस्संदेह कोई भी पुस्तक नहीं, क्योंकि कॉमेंट्रीजकेवल डायरी है, यह कोई पुस्तक नहीं है, लेकिन फिर भी मैं इसे शामिल करता हूं।

छठवीं...क्या मेरा नंबर सही है?
‘‘हां, ओशो।’’
कितना अच्छा लगता है ‘‘हां, ओशो।’’ सिर्फ हां सुनना इतना अच्छा लगता है, कितना पुष्टिदायी, कितना जीवनदायक। इसके लिए मैं पर्याप्त रूप से आभार भी प्रकट नहीं कर सकता हूं। संसार भर में मेरे हजारों संन्यासी हैं जो यस ओशो यसगाते रहते हैं। इस पृथ्वी पर या अन्य ग्रह पर हुए व्यक्तियों में मैं अपने आप को सबसे अधिक सौभाग्यशाली मानता हूं।
छठवीं है...छठवीं किताब को भी कॉमेंट्रीजकहा जाता है, यह मॉरिस निकल की पांच भागों वाली विशाल पुस्तक है। याद रहे, मैंने उसके नाम को हमेशा मोरिस निक्कोलही बोला है। बस इसी शाम मैंने गुड़िया से पूछा कि उसका असली, सही, और उचित अंग्रेजी उच्चारण क्या है, क्योंकि वह अंग्रेज था। गुड़िया ने बताया, ‘‘निकल।’’
मैंने कहा, ‘‘हे भगवान! जीवन भर मैं उसको निक्कोलकहता रहा, सिर्फ स्पेलिंग की वजह से: एन-आइ-सी-ओ-एल-एल। मुझे आश्चर्य होता है कि इसको निकलकैसे बोला जाता होगा। निक्कोलही सही उच्चारण लगता है। लेकिन सही हो या गलत, अब गुडिया कह रही है तो--वह स्वयं अंग्रेज है--तब मैं भी कहूंगा ठीक है। मैं भी उसे मॉरिस निकल कहूंगा...और उसकी कॉमेंट्रीज।
निकल गुरजिएफ का शिष्य था, और ऑस्पेंस्की के विपरीत, उसने कभी धोखा नहीं दिया, वह जुदास नहीं था। अपनी अंतिम श्वास और उसके बाद भी वह पक्का शिष्य बना रहा। निकल की कॉमेंट्रीजबहुत विस्तृत है। मैं नहीं सोचता कि कोई उसे पढ़ता भी होगा--हजारों हजार पेज हैं। लेकिन यदि कोई उसको पढ़ने का कष्ट उठा सके तो बहुत लाभान्वित होगा। मेरी राय में निकल की कॉमेंट्रीजको संसार की श्रेष्ठम पुस्तकों में गिना जाना चाहिए।

सातवीं: फिर से गुरजिएफ के एक दूसरे शिष्य हार्टमैन की पुस्तक। पुस्तक है अवर लाइफ विद गुरजिएफ।हार्टमैन--पता नहीं इसका सही उच्चारण क्या है...क्योंकि मुझे कहीं से खिलखिलाने की आवाज सुनाई पड़ रही है, लेकिन उच्चारण के बारे में चिंता मत करो। हार्टमैन और उसकी पत्नी दोनों गुरजिएफ के शिष्य थे। हार्टमैन एक संगीतकार था और गुरजिएफ के नृत्य के कार्यक्रमों के लिए संगीत बजाया करता था। गुरजिएफ नृत्य का उपयोग ध्यान की तरह करते थे; न केवल अपने शिष्यों के लिए बल्कि उन लोगों के लिए भी जो शिष्यों को नृत्य करते हुए देखते थे।
न्यूयार्क में, जब गुरजिएफ ने पहली बार नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत किया, तो उसमें हार्टमैन पियानो बजा रहा था, शिष्य नृत्य कर रहे थे, और जिस क्षण गुरजिएफ चिल्लाया ‘‘स्टॉप!’’--यह एक स्टॉप एक्सरसाइज थी। देवगीत, तुम मत रुको, तुम लिखना जारी रखो। जब गुरजिएफ चिल्लाया ‘‘स्टॉप!’’ नर्तक सच में रुक गए, नृत्य के मध्य में! वे स्टेज के एकदम किनारे पर थे। वे सभी जमीन पर एक-दूसरे के ऊपर गिर पड़े, लेकिन फिर भी कोई हिला नहीं! दर्शक तो अवाक रह गए। वे भरोसा ही नहीं कर सके कि लोग इतने आज्ञाकारी हो सकते हैं। हार्टमैन ने अवर लाइफ विद गुरजिएफपुस्तक लिखी है, और यह एक शिष्य द्वारा लिखा गया सुंदर वर्णन है। वे सभी लोग जो इस पथ पर हैं उनके लिए यह सहायक होगी।
कौनसा नंबर है?
‘‘यह नंबर सात था, ओशो।’’
ठीक है, तुम सुन रहे हो।

आठवीं...और सिखाने का मेरा तरीका देखते हो? और तुम देखते हो यहां तक कि जब मैं तुम्हें चिढ़ाने की कोशिश करता हूं तो वह सिर्फ तुम्हें सिखाने के लिए है जिसके बारे में तुम्हें अभी होश भी न होगा? लेकिन किसी दिन तुम कृतज्ञता अनुभव करोगे।

सातवीं...ठीक है न?
‘‘यह नंबर आठवां है, ओशो।’’
एक शिष्य द्वारा सुधारा जाना कितना अच्छा लगता है, बहुत ही अच्छा। एक सदगुरु हमेशा धन्य अनुभव करता है यदि एक शिष्य सदगुरु की गलती में सुधार कर दे। और यह तो सिर्फ नंबरों का प्रश्न है। जब मैं तुम सभी को सुधारने का प्रयास कर रहा हूं, तो जहां तक नंबरों का संबंध है कम से कम वहां तो मैं तुम्हें थोड़ा सा खुश होने की अनुमति दे सकता हूं। तो अब कौन सा नंबर है?
‘‘यह नंबर आठ है, ओशो।’’
ठीक है। कभी-कभी मैं हंसना चाहता हूं... आठवां? ठीक है।

आठवीं पुस्तक जिसके बारे में मैं बात करने जा रहा हूं उसे एक हिंदू रहस्यदर्शी रामानुज ने लिखा है। पुस्तक का नाम है श्री पाश।यह ब्रह्मसूत्रपर लिखा गया एक भाष्य है। ब्रह्मसूत्र पर कई भाष्य लिखे गए हैं--बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर मैं पहले ही बात कर चुका हूं। रामानुज ने उस पर जो भाष्य लिखा है वह एक तरह से अनूठा है।
मौलिक पुस्तक बहुत रूखी-सूखी है, बिलकुल मरुस्थल जैसी। निस्संदेह मरुस्थल का अपना सौंदर्य और अपनी सच्चाई है, लेकिन रामानुज ने अपने श्री पाशमें इसे एक उपवन बना दिया है, एक मरूद्यान। उन्होंने इसे दिलचस्प बना दिया है। जो पुस्तक रामानुज ने लिखी है मुझे पसंद है। स्वयं रामानुज तो मुझे पसंद नहीं हैं, क्योंकि वे एक परंपरावादी थे। परंपरावादी, रूढ़िवादी लोगों से मुझे सख्त घृणा है, मैं उन्हें कट्टरपंथी मानता हूं--लेकिन मैं कर क्या सकता हूं, पुस्तक सुंदर है; कभी-कभार यहां तक कि एक कट्टरपंथी भी कुछ सुंदर कर सकता है। इसलिए इस पुस्तक को शामिल करने के लिए मुझे माफ करना।

नौवीं: पी. डी. ऑस्पेंस्की की पुस्तकें मुझे हमेशा अच्छी लगी हैं, हालांकि वह स्वयं मुझे कभी प्रसंद नहीं आया। वह एक स्कूल मास्टर की तरह लगता था, एक सदगुरु की तरह नहीं, और क्या तुम एक स्कूल मास्टर से प्रेम कर सकते हो? मैंने प्रयास किया था जब मैं स्कूल में था और विफल रहा; कॉलेज में, और विफल; युनिवर्सिटी में, और विफल। मैं यह नहीं कर पाया, और मैं नहीं समझता कि कोई भी स्कूल मास्टर को प्रेम कर सकता है--खासकर अगर स्कूल मास्टर एक महिला हो; तब तो यह असंभव है! कुछ बेवकूफ तो ऐसी महिलाओं से विवाह भी कर लेते हैं जो स्कूल मास्टर हैं! वे जरूर उसी रोग से पीड़ित होने चाहिए जिसे मनोवैज्ञानिक मैसोचिज्म’--‘स्वयं को सताने वालाकहते हैं; वे जरूर स्वयं को सताने के लिए किसी को खोज रहे होंगे।
मुझे ऑस्पेंस्की पसंद नहीं है। वह सच में स्कूल मास्टर जैसा था, यहां तक कि गुरजिएफ की देशना पर व्याख्यान देते समय भी। वह हाथ में एक चाक लेकर ब्लैक-बोर्ड के सामने खड़ा होता, सामने एक मेज और कुर्सी के साथ, बिलकुल एक स्कूल मास्टर की तरह... साथ में चश्मा लगाए और सब, कुछ भी छूटा नहीं था। और जिस तरह से वह सिखाता था--मैं समझ सकता हूं क्यों बहुत ही कम लोग उसके प्रति आकर्षित हुए, यद्यपि वह एक स्वर्णिम संदेश ला रहा था।
दूसरी बात, मैं उससे घृणा करता हूं इसलिए कि वह एक जुदास था। जो भी धोखा देता है उसे मैं प्रेम नहीं कर सकता हूं। धोखा देना आत्महत्या करने जैसा है, आध्यात्मिक आत्महत्या। जुदास को भी जीसस के सूली लगने के चौबीस घंटे के भीतर आत्महत्या करनी पड़ी। ऑस्पेंस्की से मुझे कोई प्रेम नहीं है, लेकिन मैं कर भी क्या सकता हूं?--वह एक सक्षम लेखक था, एक बुद्धिमान, एक प्रतिभाशाली। यह पुस्तक जिसका में उल्लेख करने जा रहा हूं वह उसके मरणोपरांत प्रकाशित हुई है। अपने जीवनकाल में वह इसे प्रकाशित करना नहीं चाहता था। शायद वह भयभीत था। शायद उसने सोचा हो कि यह पुस्तक उसकी आशा के अनुरूप न सिद्ध हो पाए।
यह एक छोटी सी पुस्तक है, इसका नाम हैं दि फ्यूचर साइकोलॉजी ऑफ मैन।अपनी वसीयत में उसने लिखा था कि इस पुस्तक को मेरे मरने के बाद ही प्रकाशित किया जाए। मुझे यह आदमी पसंद नहीं है, लेकिन अपनी नापसंदगी के बावजूद मैं कहूंगा इस पुस्तक में उसने करीब-करीब मेरे और मेरे संन्यासियों के बारे में भविष्यवाणी की है। उसने भविष्य के मनोविज्ञान की भविष्यवाणी की है, और यही कार्य मैं यहां कर रहा हूं, भविष्य का मनुष्य, नया मनुष्य। मेरे सभी संन्यासियों को इस छोटी सी पुस्तक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।

दसवीं...क्या मैं अब भी सही हूं?
‘‘हां, ओशो।’’
ठीक है।

जिस पुस्तक के बारे में मैं बात करने जा रहा हूं वह एक सूफी पुस्तक है, ‘दि बुक ऑफ बहाउद्दीन।मौलिक सूफी रहस्यदर्शी बहाउद्दीन ने सूफी परंपरा निर्मित की। उनकी इस छोटी सी पुस्तक में सभी कुछ समाहित है। यह एक बीज की तरह है। प्रेम, ध्यान, जीवन, मृत्यु... उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा है। इस पर ध्यान करो।

आज इतना ही। 

2 टिप्‍पणियां: