कुल पेज दृश्य

रविवार, 20 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--037

यज्ञ का रहस्य (अध्याय ४) प्रवचन—नौवां


दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।। 25।।

और दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।

ज्ञ के संबंध में थोड़ा-सा समझ लेना आवश्यक है।
धर्म अदृश्य से संबंधित है। धर्म आत्यंतिक से संबंधित है। पाल टिलिक ने कहा है, दि अल्टिमेट कंसर्न। आत्यंतिक, जो अंतिम है जीवन में--गहरे से गहरा, ऊंचे से ऊंचा--उससे संबंधित है। जीवन के अनुभव के जो शिखर हैं, अब्राहिम मैसलो जिन्हें पीक एक्सपीरिएंस कहता है, शिखर अनुभव, धर्म उनसे संबंधित है।

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--13

वासना ढपोरशंख है—प्रवचन—तेरहवां

सारसूत्र:

जीववहो अप्‍पवहो, जीवदया अप्‍पणो दया होइ।
ता सव्‍वजीवहिंसा, परिचत्‍ता अत्‍त कामेहिं।। 32।।

तुमं सि नाम स चव, जं हंतव्‍वं ति मन्‍नसि
तुमं सि नाम स चेव, जं अज्‍जावेयव्‍वं ति मन्‍नसि।। 33।।

रागादीणमणुप्‍पासो, अहिंसकत्‍तं त्ति देसियं समए
तेसिं चे उप्‍पत्‍ती, हिंसेत्‍ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।। 34।।

अज्‍झवसिएण बंधो, सत्‍ते मारेज्‍ज मा थ मारेज्‍ज
एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्‍छयणयस्‍स।। 35।।

हिंसा दो अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा हु।
तम्‍हा पमत्‍तजोग, पाणव्‍ववरोवओ णिच्‍चं।। 36।।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--036

मैं मिटा, तो ब्रह्म—(अध्याय ४) प्रवचन—आठवां

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः
समः सिद्धावसिद्धौकृत्वापिनिबध्यते।। 22।।

और अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और द्वंद्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थातर् ईष्या से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाव वाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।


जो प्राप्त हो उसमें संतुष्ट, द्वंद्वों के अतीत--इन दो बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
जो मिले, उसमें संतुष्ट! जो मिले, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त तो संतोष मानता है उसमें, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक मालूम होता है।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--035

कामना-शून्य चेतना—(अध्याय 4) प्रवचन—सातवां



यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। 19।।

और हे अर्जुन, जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।

कामना और संकल्प से क्षीण हुए, कामना और संकल्प की मुक्तिरूपी अग्नि से भस्म हुए...। चेतना की ऐसी दशा में जो ज्ञान उपलब्ध होता है, ऐसे व्यक्ति को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। इसमें दोत्तीन बातें गहरे से देख लेने की हैं।
एक तो, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
अज्ञानीजन तो पंडित किसी को भी कहते हैं। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो ज्यादा सूचनाएं संगृहीत किए हुए है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो शास्त्र का जानकार है। अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो तर्कयुक्त विचार करने में कुशल है।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--55)

परमात्‍मा हमारा स्‍वभावसिद्ध अधिकार है—प्रवचन--दसवां

दिनांक 5 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्रसार:

अष्‍टावक्र उवाच:

यस्य बोधोदये तावक्यम्नवद्भवति भ्रम:।
तस्मै सुखैकरूयाय नम: शांताय तेजसे।। 177।।
अर्जयित्वाउखिलानार्थान् भोगानाम्मोति पुष्कलान्।
नहि सर्वयरित्यागमतरेण सखी भवेत।। 178।।
कर्तव्यदु:खमार्तडब्बालादग्धांतरात्मनः।
कुतः प्रशमयीयूषधारा सारमृते सुखम्।। 179।।
भवोउयं भावनामात्रो न किंचित्यरमार्थत।
नात्‍स्‍यभाव: स्वभावानां भावाभार्वावभाविनाम्।। 180।।
न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मन: पदम्।
निर्विकल्प निरायासं निर्विकार निरंजनम्।। 181।।
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
वीतशोका विराजंते निरावरणदृष्टय:।। 182।।
समस्त कल्यनामात्रमात्मा मक्त: सनातन:।
इति विज्ञाय धीरो हि किमथ्यस्यति बालवत्।। 183।।

जिनसूत्र--(भाग-1) प्रवचन--12


संकल्‍प की अंतिम निष्‍पत्‍ति: समर्पण—प्रवचन—बारहवां

प्रश्‍नसार:

1—मुझसे न समर्पण होता है और न मुझमें संकल्‍प की शक्‍ति है।
  और आपसे दूरी भी बरदाश्‍त नहीं होती। क्‍या करूं?

2—आपका कहना है कि प्‍यास है तो जल भी होगा ही, और प्‍यासा ही जल को नहीं     खोजता, जल भी प्‍यासे को खोजता है...... ? मेरा मार्ग—निर्देश करें।

3—आश्‍चर्य है कि में आपके प्रति अनाप—शनाप बकता हूं कभी गाली भी देता हूं,
   ये क्‍या है?

4—मेरी विचित्र धारणाओं के कारण आप मुझे भगवान जैसे नहीं लगते.... ?

5—मेरी दिनचर्या आनंदचर्या बन गयी है। अब पिधलूं और बहूं—बस यही कह दें।

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--10

जिंदगी नाम है रवानी का—प्रवचन—दसवां

प्रश्‍नसार:

1—लोग आपको धर्म—भ्रष्‍ट करनेवाला कहते है, विरोध करते है।
  उनके साथ कैसे जीया जाए?

2—जो कुछ मुझे मिला है, वह कम नहीं—
   फिर भी आखिर क्‍या पाकर मुझे संतोष होगा?

3—कागा सब तन खाइयो, चुन—चुन खाइयो मांस।
  दो नैना नहिं खाईयो, पिया मिलन की आस।।

4—आप न जाने गुरूदेव मेरे, मैं तुम्‍हें पुकारा करती हूं।
   एक बार ह्रदय में छेद करो,वह क्षण मैं निहारा करती हूं।।

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--11


अध्‍यात्‍म प्रक्रिया है जागरण की—प्रवचन—ग्‍यारहवां

सूत्र:

अणथोवं वणथोवं, अग्‍गीथोवं कसायथोवं च।
न हु भे वीससियव्‍वं, थोवं पि हु तं बहु होई।। 26।।

कोहो पीइं पणसोइ, माणो विण्‍यनासणो
माया मित्‍ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।। 27।।

उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे
मायं चउज्‍जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। 28।।

जहा कुम्‍मे सअंगाई, सए देहे समाहरे
एवं पावाइं मेहावी, अज्‍झप्‍पेण समाहरे।। 29।।

से जाणमजाणं वा, कट्टं आहम्‍मिअं पयं
संवरे खिप्‍पंमप्‍पाणं वीयं तं न समायरे।। 30।।

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--09

अनुकरण नहीं—आत्‍म अनुसंधान—प्रवचन—नौवां

सारसूत्र:

अप्‍पा कत्‍ता विकत्‍ता, दुहाणसुहाण य।
अप्‍पा मित्‍तममित्‍तं, दुप्‍पट्ठिय सुप्‍पट्ठिओ।। 22।।

एगप्‍पा सजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य।
ते जिणित्‍तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी।। 23।।

एगओ विरइं कुज्‍जा, एगओपवत्‍तणं
असंजमे जियत्‍तिं, संजमेपवत्‍तणं।। 24।।
     
रोगे दोसे य दो पावे, पावकम्‍म पवत्‍तणे
भिक्‍खू रूंभई निच्‍चं, से न अच्‍छइ मंडले।। 25।।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--54)

साक्षी, ताओ और तथाता—प्रवचन—नौवां

      दिनांक 4 दिसंबर, 1976;
      श्री रजनीश आश्रम पूना।
     
प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

अष्टावक्र के साक्षी, लाओत्सु के ताओ और आपकी तथाता में समता क्या है और भेद क्या है?

 मता बहुत है, भेद बहुत थोड़ा।
लाओत्सु ने जिसे ताओ कहा है वह ठीक वही है जिसे वेदों में ऋत कहा है—ऋतंभरा, या जिसे बुद्ध ने धम्म, धर्म कहा; जो जीवन को चलाने वाला परम सिद्धात है, जो सब सिद्धातो का सिद्धात है, जो इस विराट विश्व के अंतरतम में छिपा हुआ सूत्र है। जैसे माला के मनके हैं और उनमें धागा पिरोया हुआ है; एक ही धागा सारे मनकों को संभाले हुए है। हजार—हजार नियम हैं जगत में, इन सब नियमों को संभालने वाला एक परम नियम भी होना चाहिए; अन्यथा सब बिखर जायेगा, माला टूट जायेगी। मनके दिखाई पड़ते हैं; भीतर छिपा धागा दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ना भी नहीं चाहिए; नहीं तो माला ठीक से बनायी नहीं गयी।

रविवार, 13 अप्रैल 2014

जिन सूत्र--(भाग-1) प्रवचन--08



सम्‍यक ज्ञान मुक्‍ति है—प्रवचन—आठवां

प्रश्‍नसार:

1—आपने कहा कि सत्‍य संज्ञा नहीं है, क्रिया है।
  क्‍या प्रेम, आनंद, ध्‍यान, समाधि भी क्रिया ही है?
  क्‍या क्रिया का समझ से कोई संबंध है?

2—तीर्थंकर चौबीस ही क्‍यों, ज्‍यादा क्‍यों नहीं?

3—क्‍या परंपरा की जरूरत नहीं है? क्‍या परंपरा से हानि ही हानि हुई है?

4—किसी सुंदर युवती को देख कर मन उसकी और आकर्षित हो जाता है। क्‍या वासना यह है, या प्रेम, या सुंदरता की स्‍तुति?


पहला प्रश्न:

आपने कल कहा कि सत्य संज्ञा नहीं है, क्रिया है। क्या इसी भांति प्रेम, आनंद, ध्यान, समाधि जो भी स्वभावगत है, वह भी संज्ञा नहीं, वरन क्रिया है? और क्या क्रिया का समझ से कोई संबंध नहीं है? कृपा कर समझाएं।

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--07

जीवन एक सुअवसर है—प्रवचन—सातवां

सूत्र:

सच्‍चाम्‍मविसदि तवो, सच्‍चाम्‍मि संजमो तह वसे तेसा वि गुणा।
सच्‍चं णिबंधणं हि, गुणाणमदधीव मच्‍छाणं।। 17।।

सुबण्‍णरूप्‍पस्‍सपव्‍वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया
नरस्‍स लुद्धस्‍सतेहि कींचि, इच्‍छा हु आगाससमा अणन्‍तिया।। 18।।

जहा पोम्‍मं जले जायं, नोवलिप्‍पइ वारिणा
एवं अलितं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं।। 19।।

जीवो बंभ जीवम्‍मि, चेव चरिया हविज्‍ज जा जदिणो
तं जाण बंभचेरं, विमुक्‍क परदेहनित्‍तिस्‍स।। 20।।


तेल्‍लो काडविडहनो, कामग्‍गी विसयरूक्‍खपज्‍जलिओ
जोव्‍वणतणिल्‍लचारी, जंडहइ सो हदइ धण्‍णों।।
जा जा वज्‍जई रयणी, ण सा पडिनियत्‍तई
अहम्‍मं कुणमाणस्‍स, अफला जन्‍ति राइओ।।21।।

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--034


वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान—(अध्याय ४) प्रवचन—छठवां

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 16।।

र्म क्या है और अकर्म क्या है, ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हैं, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा, जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार-बंधन से छूट जाएगा।

र्म क्या है और अकर्म क्या है, बुद्धिमान व्यक्ति भी निर्णय नहीं कर पाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह गूढ़ तत्व मैं तुझसे कहूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
अजीब-सी लगेगी यह बात; क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह तो मूढ़जन भी जानते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह बुद्धिमानजन भी नहीं जानते हैं।
हम सभी को यह खयाल है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व। तो फिर पुनर्विचार करना जरूरी है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--033

जीवन एक लीला— (अध्याय-3)—प्रवचन—पांचवां

प्रश्न:
भगवान श्री, कल के तेरहवें श्लोक की व्याख्या में आपने चार वर्णों की बात कही। कृष्ण इस श्लोक के दूसरे हिस्से में कहते हैं कि इन चारों वर्णों की गुण और कर्मों के अनुसार रचना करते हुए भी मैं अकर्ता ही रहता हूं।
कृपया इसे स्पष्ट करें कि वे कैसे अकर्ता रहे?

रते हुए भी मैं अकर्ता हूं, कृष्ण का ऐसा वचन गहरे में समझने योग्य है। पहली बात, कर्म से कर्ता का भाव पैदा नहीं होता। कर्म अपने आप में कर्ता का भाव पैदा करने वाला नहीं है। कर्ता का भाव भीतर मौजूद हो, तो कर्ता का भाव कर्म के ऊपर सवार हो जाता है। भीतर अहंकार हो, तो कर्म पर सवारी कर लेता है। ऐसे, कर्म अपने आप में, कर्ता के भाव का जन्मदाता नहीं है।
तो कृष्ण की बात तो छोड़ें एक क्षण को, हम भी चाहें, तो कर्म करते हुए अकर्ता हो सकते हैं। कर्म ही कर्ता का निर्माता नहीं है; कर्ता का निर्माता अहंकार का भाव है। और अहंकार का भाव इतना अदभुत है कि आप कुछ न करें, तो भी कुछ न करने का कर्ता भी बन जाता है।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--06

तुम मिटो तो मिलन हो—प्रवचन—छठवां

प्रश्‍नसार:

1—श्‍याम—श्‍याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्‍याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना है।

2—नककटे साधु की कहानी.......क्‍या आपके संन्‍यासियों की यही स्‍थिति नहीं है?

3—भीतर विचारों की भीड़ है और अहंकार से विक्षुब्‍ध हूं..... ?

4—बेमुरोबत बेवफा बेगाना—ए—दिल आप है।.......?

5—बहुत शुक्रिया बहुत मेहेरबानी
   मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए।।.....


पहला प्रश्न:

शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई।
आया नहीं शाम मेरा, ओसनूं मिलायो जी।।
"श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना।' आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं!

अष्‍टावक्र:महागीता--(प्रवचन--53)

धर्म अर्थात सन्‍नाटे की साधना—प्रवचन—आठवां  

3 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वां मृत्युं वा समुपस्थितम्।
अविह्वलमना स्वस्थो मुक्त एव महाशय:।। 170।।
सखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु च विपत्स च।
विशेषो नैव धीरस्थ सर्वत्र समदर्शिन:।। 171।।
न हिंसा नैव कारुण्य नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभ: क्षीणसंसरणे नरो। 172।।
न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुप:।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमयाश्नते।। 173।।
समाधानासमाधानहिताहितविकल्यना:।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थित:।। 174।।
निर्ममो निरहंकारो न किचिदिति निश्चित:।
अंतर्गलित सर्वाश: कर्वन्नयि करोति न।। 175।।
मन: प्रकाशसंमोहस्वम्मजाड्यविवर्जित:।
दशां कामयि संप्राप्तो भवेदगलितमानम:।। 176।।