3
दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
सानुरागां
स्त्रियं
दृष्ट्वां
मृत्युं वा
समुपस्थितम्।
अविह्वलमना
स्वस्थो
मुक्त एव
महाशय:।। 170।।
सखे
दुःखे नरे
नार्यां
संपत्सु च विपत्स
च।
विशेषो
नैव धीरस्थ
सर्वत्र
समदर्शिन:।।
171।।
न
हिंसा नैव
कारुण्य
नौद्धत्यं न च
दीनता।
नाश्चर्यं
नैव च क्षोभ:
क्षीणसंसरणे
नरो। 172।।
न
मुक्तो
विषयद्वेष्टा
न वा विषयलोलुप:।
असंसक्तमना
नित्यं
प्राप्ताप्राप्तमयाश्नते।।
173।।
समाधानासमाधानहिताहितविकल्यना:।
शून्यचित्तो
न जानाति
कैवल्यमिव
संस्थित:।।
174।।
निर्ममो
निरहंकारो न
किचिदिति
निश्चित:।
अंतर्गलित
सर्वाश:
कर्वन्नयि
करोति न।। 175।।
मन:
प्रकाशसंमोहस्वम्मजाड्यविवर्जित:।
पहला
सूत्र.
सानुरागां
स्त्रियं
दृष्ट्वा
मृत्यु वा समुपस्थितम्।
अविह्वलमना
स्वस्थो
मुक्त एव
महाशय:।।
’प्रीतियुक्त
स्त्री और
समीप में
उपस्थित
मृत्यु को देख
कर जो महाशय
अविचलमना और
स्वस्थ रहता है, वह
निश्चय ही
मुक्त है।’
यह
मुक्त पुरुष
की
परिभाषा—किसे
हम मुक्त कहें?
जीवन
के बंधन दो
हैं। एक तो
बंधन है राग
का और एक बंधन
है भय का। तुम
जिन
हथकड़ी—बेड़ियों
में बंधे हो, वे
राग और भय की
हैं। राग है
जीवन के प्रति;
भय है
मृत्यु के
प्रति। दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। क्योंकि
जीवन से राग
है, इसलिए
मृत्यु से भय
है। अगर जीवन
से राग चला जाए,
जीवेषणा
चली जाए, तो
मृत्यु का भय
भी गया। यदि
मृत्यु का भय
चला जाए, तो
जीवन का राग
भी गया। वे
साथ—साथ जुड़े
हैं। इसे खयाल
में लेना, तो
सूत्र बहुत
साफ हो जाएगा।
हम जीना चाहते
हैं।
हम
बिना जाने कि क्यों
जीना चाहते
हैं,
जीना चाहते
हैं। हजार
विपदाएं हों,
जीवन से कुछ
सार न मिले, तो भी जीने
की आकांक्षा
प्रबल रहती है,
मिटती ही
नहीं है।
हाथ—पैर टूट
जायें, अंधे
हो जायें, के
हो जायें, शरीर
सड़ने लगे, गलने
लगे, नाली
में पड़े हों, दुर्गंध में
डूबे हों—तो
भी जीना चाहते
हैं। जैसे
इससे कुछ फर्क
ही नहीं पड़ता
कि हमारी दशा
कैसी है!
तुम्हें
कभी खयाल आया
राह के किनारे
किसी भिखारी
को देख
कर—हाथ—पैर
टूटे हैं, अपंग
है, अंधा
है, घसिट
रहा है, एक—एक
पैसा मांग रहा
है, दुत्कारा
जा रहा है—कभी
ऐसा विचार
नहीं उठता कि
आखिर यह आदमी जीना
क्यों चाहता
है? जीने
से मिलेगा
क्या? अब
मिलने को क्या
है? आंखें
चली गयीं, हाथ—पैर
चले गये, देह
कृश हो गयी, कीड़े—मकोड़ों
की जिंदगी जी
रहा है, सब
तरफ से अपमान
है, सब तरफ
से दुर्दशा है;
फिर भी जीये
जा रहा है!
क्यों जीना
चाहता है? ऐसा
प्रश्न उठता
है कभी? लेकिन
तब तुम अपने
को उस आदमी की
जगह रख कर देखना
कि अगर तुम
अंधे हो, हाथ—पैर
टूट गये हों, भीख मांग कर
जीना पड़े, तो
जीयोगे या मर
जाना चाहोगे?
जल्दी मत
करना। उस आदमी
पर कठोर मत हो
जाना। तुम भी
जीना चाहोगे।
वह भी
तुम्हारे
जैसा ही आदमी
है।
जीवेषणा
बड़ी प्रबल है!
बड़ी अंधी
वासना है जीने
की! अकारण हम
जीना चाहते
हैं। कुछ नहीं
मिलता तो भी
जीना चाहते
हैं। ऐसी पकड़
क्यों होगी
जीवन पर? ऐसी
पकड़ का कारण
है।
जीवन
में हमने कुछ
पाया नहीं; आशा
कल पर लगी है।
कल होगा तो
शायद मिल जाये;
आज तक तो
मिला नहीं। आज
तक तो हम खाली
के खाली रहे
हैं। आज तक तो
हमारा जीवन
राख ही राख है।
कोई फूल खिला
नहीं; एक
आशा से जी रहे
हैं कि शायद
कल खिल जाये।
इसलिए मरे
कैसे?
अब
मैं तुमसे एक
विरोधाभास
कहना चाहता
हूं. जो आदमी
ठीक से जी
लेता है, उसकी
जीवेषणा मिट
जाती है। जो
आदमी नहीं जी
पाता, वही
जीना चाहता
है। जो आदमी
जितना कम जीया
है, उतना
ही ज्यादा
जीना चाहता
है। और जो
आदमी ठीक—ठीक
जी लिया है और
जीवन को भर— आंख
देख लिया है, वह आदमी
जीवन की वासना
से मुक्त हो
जाता है। उसकी
मौत अभी आये
तो वह स्वागत
करेगा। वह उठ
कर तैयार हो
जाएगा। वह
कहेगा, मैं
तैयार ही था।
वह क्षण भर की
देरी न
लगाएगा। वह
तैयारी के लिए
समय भी न
मांगेगा। वह
यह भी न कहेगा
कि कुछ अधूरे
काम पड़े हैं, वे निबटा
लूं घड़ी भर
में आया। कुछ
भी अधूरा नहीं
है। जीवन
जिसने
सीधा—सीधा देख
लिया, आंख
मिला कर देख
लिया.. न! मगर
आशा के कारण आंख
हमारी कहीं और
है।
कल
रात मैं एक
किताब पढ़ रहा
था। जिसने
लिखी है उससे
अधिक लोग राजी
होंगे। किताब
बहुत बिकी है।
किताब का नाम
है. 'होप फॉर दि
टर्मिनल मैन'
(आशा, अंतिम
आदमी के लिए)।
पुस्तक के कवर
पर ही उसने लिखा
है. 'बिना
भोजन के आदमी
चालीस दिन जी
सकता है; बिना
पानी के तीन
दिन; बिना
श्वास के आठ
मिनट, बिना
आशा के एक
सेकेंड भी
नहीं।’
अधिक
लोग राजी
होंगे। बिना
आशा के कैसे
जीयोगे एक
सेकेंड? आशा
जिला रही है।
अभी तक नहीं
हुआ, कल हो
जाएगा! कल तक
और जी लो! कल तक
और गुजार लो!
थोड़ी घड़ियां
दुख की हैं, इन्हें बिता
दो! रात है, सुबह
तो होगी! कभी तो
होगी!... इससे
मौत से डर है।
मौत
क्या करती है? मौत
तलवार की तरह
आती है और कल
को मिटा डालती
है। मौत के
बाद फिर कोई
कल नहीं है।
मौत तुम्हें
आज पर छोड़
देती है। एक
झटके में
रस्सी काट देती
है कल की।
भविष्य
विसर्जित हो
जाता है। मौत
तुम्हें थोड़े
ही मारती है; मौत भविष्य
को मार देती
है। मौत
तुम्हें थोड़े
ही मारती है; मौत आशा को
जहर बन जाती
है। अब तो कोई
आशा न रही।
इसलिए
आदमी ने
पुनर्जन्म के
सिद्धात में
बड़ी श्रद्धा
रखी। फिर हमने
नयी आशा खोज
ली. कोई हर्जा
नहीं, इस जीवन
में नहीं हुआ,
अगले जीवन
में होगा। मैं
यह नहीं कह रहा
हूं कि
पुनर्जन्म का
सिद्धात सही
है या गलत—यह
मैं कुछ नहीं
कह रहा हूं।
मैं इतना ही
कह रहा हूं कि
अधिक लोग जो
पुनर्जन्म के
सिद्धात में
मानते हैं, वे जानने के
कारण नहीं
मानते। उनकी
मान्यता तो बस
आशा का ही
विस्तार है।
मौत को भी
झुठला रहा है
उनका
सिद्धात। वे
कहते हैं. कोई
फिक्र नहीं, मौत आती है, कोई फिक्र
नहीं; आत्मा
तो रहेगी! जो
अभी नहीं कर
पाये हैं, अगले
जन्म में कर
लेंगे।
जीवन
की आकांक्षा
का अर्थ है.
जीवन से हम
अपरिचित रह
गये हैं। जीवन
की आकांक्षा
का अर्थ है. जीवन
मिला तो, लेकिन
पहचान न हो
पायी।
तुम्हें
पता ही नहीं, तुम
कौन हो! तुमने
कभी गहन में
यह पूछा ही
नहीं कि मैं
कौन हूं!
तुमने कभी यह
जानने की
चेष्टा ही न
की, यह
जीवन जो घटा
है, यह
क्या है? इसका
अर्थ, इसका
रहस्य, इसका
प्रयोजन, इसके
पीछे क्या
छिपा है? यह
रोज उठ आना, भोजन कर
लेना, दफ्तर
भागे जाना, दफ्तर से
भागे आ जाना, फिर भोजन कर
लेना, फिर
थोड़ी कलह
पत्नी से, फिर
थोड़ा सो जाना,
फिर सुबह...
यह तुम करते
रहे हों—इसे
तुम जीवन कह रहे
हो? और इसी
को तुम आगे भी
लंबाना चाहते
हो। तो तुमने
शायद जाग कर
देखा भी नहीं
कि तुम क्या
जी रहे हो।
कुछ भी तो
नहीं जी रहे हो,
फिर भी जीवन
की आशा है।
इसलिए जीवन की
आशा है। इसलिए
जीवन की बड़ी
पकड़ है। तुम
अंधे भिखमंगे
पर सोचना मत
कि यह क्यों
जी रहा है।
यह
जान कर तुम
हैरान होओगे, गरीब
जातियों में,
गरीब देशों
में
आत्महत्या कम
होती है।
जंगली आदिवासियों
में तो
आत्महत्या
होती ही नहीं।
कोई पागल है
जो अपने को
मारे!
आत्महत्या की
संख्या बढ़ने
लगती है
जैसे—जैसे
समाज समृद्ध
होता है। धनी
ही आत्महत्या
करते हैं, गरीब
नहीं।
भिखमंगों ने
कभी
आत्महत्या की
है, सुना
तुमने? भिखमंगा
तो जीवन को
इतने जोर से
पकड़ता है; तुम
कह रहे हो
आत्महत्या!
सोच भी नहीं
सकता, सपना
भी नहीं देख
सकता।
जिसने
जीवन जितना कम
जीया है उतना
ही जीवन को जोर
से पकड़ता है।
यह बात अगर
तुम्हें
स्पष्ट हो
जाये तो
रास्ते पर बड़ी
सुविधा हो
जायेगी। तुम
भी जीवन को
पकड़े हुए हो, बहुत
जोर से पकड़े
हुए हो!
पुनर्जन्म के
सिद्धात को
पकड़े हुए हो
कि कोई हर्जा
नहीं, यह
तो गया मालूम
पड़ता है अब, अब अगले में
भरोसा रखो!
लेकिन इस
भरोसे का, इस
अगले की आशा
का आधारभूत
कारण क्या है?
इतना ही कि
तुम जीवन को
देख नहीं
पाये। देख लेते
तो
मृगमरीचिका
थी।
पहला
सूत्र कहता
है. 'जो व्यक्ति
जीवन और
मृत्यु के बीच
अविचलमना है..!'
जिसका
मन विचलित
नहीं होता है, जो
स्वस्थ रहता
है; जीवन
आये तो ठीक, जाये तो ठीक;
मृत्यु आये
तो ठीक, न
आये तो ठीक; जिसके लिए
अब जीवन और
मृत्यु से कोई
भेद नहीं पड़ता।’वही निश्चय
रूप से मुक्त
है।’
अब
यहां एक
प्रतीक—शब्द
है,
जो समझना.
'प्रीतियुक्त
स्त्री और
समीप में
उपस्थित
मृत्यु को
देखकर..!'
तुम्हें
थोड़ी हैरानी
होगी कि
स्त्री और
मृत्यु को एक
ही वचन में और
एक तराजू के
दो पलड़े की तरह
रखने का कारण
क्या होगा? कारण
है।
पूरब
में जितना ही
हमने गौर से
समझ पायी, उतना
ही हमें दिखाई
पड़ा, कुछ
बातें दिखाई
पड़ी। एक, जन्म
मिलता है
स्त्री से तो
निश्चित ही
मृत्यु भी
स्त्री से ही
आती होगी।
क्योंकि जहां
से जन्म आता
है वहीं से
मृत्यु भी आती
होगी। स्त्री
से जब जन्म
मिलता है तो
मृत्यु भी
वहीं से आती
होगी। जहां से
जन्म आया है, वहीं से
जन्म खींचा भी
जायेगा।
तुमने
देखा, काली की
प्रतिमा देखी!
काली को मां
कहते हैं। वह
मातृत्व का
प्रतीक है। और
देखा गले में
मनुष्य के
सिरों का हार
पहने हुए है!
हाथ में
अभी—अभी काटा
हुआ आदमी का सिर
लिए हुए है, जिससे खून
टपक रहा है।’काली खप्पर
वाली!' भयानक,
विकराल रूप
है! सुंदर
चेहरा है, जीभ
बाहर निकाली
हुई है! भयावनी!
और देखा तुमने,
नीचे अपने
पति की छाती
पर नाच रही है!
इसका अर्थ
समझे? इसका
अर्थ हुआ कि
मां भी है और
मृत्यु भी। यह
कहने का एक
ढंग हुआ—बड़ा
काव्यात्मक
ढंग है। मां
भी है, मृत्यु
भी! तो काली को
मां भी कहते
हैं, और
सारा मृत्यु
का प्रतीक
इकट्ठा किया
हुआ है। भयावनी
भी है, सुंदर
भी है!
स्त्री
प्रतीक है।
स्त्री से तुम
'स्त्री' मत
समझ लेना, अन्यथा
सूत्र का अर्थ
चूक जाओगे।
स्त्री से तुम
यह
महत्वपूर्ण
बात समझना कि
स्त्री जन्मदात्री
है। तो जहां
से वर्तुल
शुरू हुआ है
वहीं समाप्त
होगा।
ऐसा
समझो, वर्षा
होती है बादल से।
पहाड़ों पर
वर्षा हुई, हिमालय पर
वर्षा हुई, गंगोत्री से
जल बहा, गंगा
बनी, बही, समुद्र में
गिरी। फिर
पानी भाप बन
कर उठता है, बादल बन
जाते हैं।
वर्तुल वहीं
पूरा होता है जहां
से शुरू हुआ
था। बादल बन
कर ही वर्तुल
पूरा होता है।
पूरब
में हमने हर
चीज को
वर्तुलाकार
देखा है। सब
चीजें वहीं आ
जाती हैं। का
फिर बच्चे
जैसा असहाय हो
जाता है। जैसे
बच्चा बिना दांत
के पैदा होता
है,
ऐसा का फिर
बिना दांत के
हो जाता है।
जैसा बच्चा
असहाय था और
मां —बाप को
चिंता करनी
पड़ती थीं—उठाओ,
बिठाओ, खाना
खिलाओ—ऐसी ही
दशा के की हो
जाती है। वर्तुल
पूरा हो गया।
जीवन
की सारी गति
वर्तुलाकार
है,
मंडलाकार
है। स्त्री से
जन्म मिलता है
तो कहीं गहरे
में स्त्री से
ही मृत्यु भी
मिलती होगी।
अब अगर स्त्री
शब्द को हटा
दो तो चीजें
और साफ हो
जायेंगी।
क्योंकि
हमारी पकड़ यह
होती है : स्त्री
यानी स्त्री।
हम
प्रतीक नहीं
समझ पाते; हम
काव्य के
संकेत नहीं
समझ पाते।
स्त्रियों को
लगेगा, यह
तो उनके विरोध
में वचन है।
और पुरुष
सोचेंगे, हमें
तो पहले ही से
पता था, स्त्रियां
बड़ी खतरनाक
हैं! यहां
स्त्री से कुछ
लेना—देना
नहीं है, तुम्हारी
पत्नी से कोई
संबंध नहीं
है। यह तो प्रतीक
है, यह तो
काव्य का
प्रतीक है, यह तो सूचक
है—कुछ कहना
चाहते हैं इस
प्रतीक के
द्वारा।
कहना
यह चाहते हैं
कि काम से
जन्म होता है
और काम के
कारण ही
मृत्यु होती
है। होगी ही।
जिस वासना के
कारण देह बनती
है,
उसी वासना
के विदा हो
जाने पर देह
विसर्जित हो
जाती है। वासना
ही जैसे जीवन
है। और जब
वासना की
ऊर्जा क्षीण
हो गयी तो
आदमी मरने
लगता है। के
का क्या अर्थ
है? इतना
ही अर्थ है कि
अब वासना की
ऊर्जा क्षीण हो
गयी; अब
नदी सूखने लगी,
अब जल्दी ही
नदी तिरोहित
हो जायेगी।
बचपन का क्या
अर्थ है? —गंगोत्री।
नदी पैदा हो
रही है। जवानी
का अर्थ है :
नदी बाढ़ पर
है। बुढ़ापे का
अर्थ है. नदी
विदा होने के
करीब आ गयी; समुद्र में
मिलन का क्षण
आ गया; नदी
अब विलीन हो
जायेगी।
कामवासना
से जन्म है।
इस जगत में जो
भी,
जहां भी
जन्म घट रहा
है—फूल खिल
रहा है, पक्षी
गुनगुना रहे
हैं, बच्चे
पैदा हो रहे हैं,
अंडे रखे जा
रहे हैं —सारे
जगत में जो
सृजन चल रहा
है, वह
काम—ऊर्जा है,
वह
सेक्स—एनर्जी
है। तो जैसे
ही तुम्हारे
भीतर से
काम—ऊर्जा
विदा हो
जायेगी, वैसे
ही तुम्हारा
जीवन समाप्त
होने लगा; मौत
आ गयी।
मौत
क्या है? काम—ऊर्जा
का तिरोहित हो
जाना मौत है।
इसलिए तो मरते
दम तक आदमी
कामवासना से
ग्रसित रहता
है, क्योंकि
आदमी मरना
नहीं चाहता।
तुम
चकित होओगे
जान कर, पुराने
ताओवादी
ग्रंथों में
इस तरह का
उल्लेख है—और
उल्लेख
महत्वपूर्ण
है—कि सम्राट
चाहे कितना ही
बूढ़ा हो जाये,
सदा नयी—नयी
जवान लड़कियों
से विवाह करता
रहे। कारण? क्योंकि जब
भी सम्राट नयी
लड़कियों से
विवाह करता है
तो थोड़ी देर
को भांति पैदा
होती है कि मैं
जवान हूं।
सम्राट जब का
हो जाये तो दो
जवान लड़कियों
को अपने दोनों
तरफ सुला कर
रात बिस्तर पर
सोये। जवान
लड़कियों की
मौजूदगी उसके
भीतर से वासना
को तिरोहित न
होने
देगी, और मौत
को टाला जा
सकेगा। मौत को
दूर तक टाला जा
सकेगा। इसमें
कुछ राज है।
बात में कुछ
सचाई है।
तुमने
कभी खयाल किया, तुम्हारी
उम्र पचास साल
है और अगर तुम
बीस साल की
युवती के
प्रेम में पड़
जाओ तो अचानक
तुम ऐसे चलने
लगोगे जैसे
तुम्हारी
उम्र दस साल
कम हो गयी; जैसे
तुम थोड़े जवान
हो गये; फिर
से एक पुलक आ
गयी; फिर
से वासना ने
एक लहर ली; फिर
तरंगें उठीं। बुढा
आदमी भी किसी
के प्रेम में
पड़ जाये तो
तुम पाओगे
उसकी आंख में
बुढ़ापा नहीं
रहा, वासना
तरंगित होने
लगी, धूल
हट गयी बुढ़ापे
की। धोखा ही
हो हट जाना, लेकिन हटती
है। जवान आदमी
को भी कोई
प्रेम न करे
तो वह जवानी में
ही बूढ़ा होने
लगता है, ऐसा
लगने लगता है,
बेकार हूं?
व्यर्थ हूं!
इसलिए तो
प्रेम का इतना
आकर्षण है और
मरते दम तक
आदमी छोड़ता
नहीं; क्योंकि
छोड़ने का मतलब
ही मरना होता
है।
इसलिए
कामवासना के
साथ हम अंत तक
ग्रसित रहते
हैं। उसी
किनारे को पकड़
कर तो हमारा
सहारा है। न
स्त्रियां
उपलब्ध हों तो
लोग नंगे
चित्र ही
देखते रहेंगे; फिल्म
में ही देख
आयेंगे जा कर;
राह के
किनारे खड़े हो
जायेंगे; बाजार
में
धक्का—मुक्की
कर आयेंगे।
कुछ जीवन को
गति मिलती
मालूम होती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने
छज्जे पर बैठा
था और अचानक
अपने नौकर को
कहा कि जल्दी
कर,
जल्दी कर, मेरे दांत
उठा कर ला। वह
जब तक आया दांत
ले कर, उसने
कहा : बहुत देर
कर दी। नौकर
ने कहा. अभी दांत
की अचानक
जरूरत क्या
पड़ी? अभी
तो कोई भोजन
आप कर नहीं
रहे? उसने
कहा. पागल! अभी
एक जवान लड़की
निकलती थी, सीटी बजाने
का मन हुआ!
जब
बूढ़ा आदमी
सीटी बजाता है, तब
उसकी उम्र उसे
भूल जाती है।
तब मौत करीब
है, यह भी
भूल जाता है।
के को दूल्हा
बना कर, घोड़े
पर बिठा कर
देखो, तुम
पाओगे वह का
नहीं रहा।
गठिया
इत्यादि था, वह सब शिथिल
हो गया है; चल
पाता है ठीक
से अब। वह जो
लकवा लग गया
था, उसका
पता नहीं
चलता। वह जो
लंगड़ाने लगा
था, अब
लंगड़ाता नहीं
है। जैसे जीवन
की ज्योति में
एक नया प्राण
पड़ गया; दीये
में किसी ने
तेल डाल दिया!
वासना, काम
जीवन है। जीवन
का पर्याय है
काम। और काम का
खो जाना है
मृत्यु।
इसलिए इन
दोनों को एक
साथ रखा है।
'प्रीतियुक्त
स्त्री और
समीप में
उपस्थित मृत्यु
को देख कर जो
महाशय
अविचलमना और
स्वस्थ रहता
हैँ, वह
निश्चय ही
मुक्त है।’
अगर
मरता हुआ आदमी
स्त्री को देख
कर वासना से भर
जाये तो मौत
को खड़ी देख कर
भी कंपेगा।
अगर मरता हुआ
व्यक्ति
स्त्री को ऐसा
देख ले जैसे कुछ
भी नहीं तो
मौत को भी देख
कर कंपेगा
नहीं। और जो
स्त्री के
संबंध में सच
है,
वह
स्त्रियों के
लिए पुरुष के
संबंध में सच
है। चूंकि ये
किताबें
पुरुषों ने
लिखी हैं और
उनको कभी खयाल
नहीं था कि
स्त्रियों के
संबंध में भी
कुछ कहें, स्त्रियों
के लिए
निवेदित नहीं
थीं, इसलिए
बात भूल गयी।
लेकिन मैं यह
तुम्हें याद दिला
दूं जो पुरुष
के संबंध में
सही है वही स्त्री
के संबंध में
सही है। मरते
क्षण स्त्री अगर
पुरुष को देख
कर—प्रीतियुक्त
पुरुष को देख कर,
जिसका
सौंदर्य
लुभाता, जिसका
स्वास्थ्य
आकर्षित करता,
जिसकी
स्वस्थ बलशाली
देह, जिसकी
भुजाएं, जिसका
वक्ष
निमंत्रण
देते और जो
तुम्हारे प्रति
प्रेम से भरा
है—ऐसे पुरुष
को देखकर अगर
मन में कोई
विचलन न हो, तो ऐसी
स्त्री
मृत्यु को भी
स्वीकार कर
लेगी।
कहने
का अर्थ इतना
है : जिस दिन
तुम कामवासना
से अविचलित हो
जाते हो, उसी
दिन तुम मृत्यु
से भी अविचलित
हो जाते हो।
यह सूत्र बड़ा
महत्वपूर्ण
है। तो मृत्यु
तो कभी आयेगी,
उसका तो आज
पक्का पता
नहीं है। और
मृत्यु की तुम
तैयारी भी
नहीं कर सकते,
क्योंकि
मृत्यु कोई
रिहर्सल भी
नहीं करती कि आये
और कहे कि अब
पंद्रह दिन
बाद आयेंगे, अब तुम
तैयार हो जाओ।
अचानक आ जाती
है। कोई
संदेशा भी
नहीं आता। कोई
नोटिस भी नहीं
निकलते कि
नंबर एक का
नोटिस, नंबर
दो, नंबर
तीन—जैसा इनकम
टैक्स आफिस से
आते हैं, ऐसा
नहीं होता।
सीधी अचानक
खड़ी हो जाती
है—कोई खबर
किये बिना!
मरने वाले को
क्षण भर पहले
तक भी आशंका
नहीं होती कि
मर जाऊंगा।
क्षण भर पहले
तक भी मरने
वाला आदमी जीवन
की ही योजनाएं
बनाता रहता
है! सोचता
रहता है—बिस्तर
से उठूंगा तो
क्या करना? किस धंधे
में लगना? कैसे
कमाना? कहां
जाना? मरता
हुआ आदमी भी
जीवन की
योजनाओं में
व्यस्त रहता
है। अधिकतर
लोग तो जीवन
की योजना में
व्यस्त रहते—रहते
ही मर जाते
हैं; उन्हें
पता ही नहीं
चलता कि मौत आ
गयी।
तो
मौत का तो
साक्षात्कार
एक ही बार
होगा, अनायास
होगा, अचानक
होगा, बिना
बुलाये
मेहमान की तरह
द्वार पर खड़ी
हो जायेगी।
मृत्यु को
अतिथि कहा है
पुराने
शास्त्रों
ने। अतिथि का
अर्थ होता है
जो बिना तिथि
को बताये आ
जाये। मृत्यु
अतिथि है!
लेकिन
एक उपाय है
फिर। और वह
उपाय है
कामवासना।
अगर कामवासना
के प्रति तुम
सजग होते जाओ
और कामवासना
की पकड़ तुम पर
छूटती जाये तो
जिस मात्रा
में कामवासना
की पकड़ छूट
रही है, उसी
मात्रा में
तुम्हारे ऊपर
मृत्यु का भय
भी छूट रहा है।
तो जीवन भर
तुम मृत्यु की
तैयारी कर
सकते हो। और
मृत्यु का
साक्षात्कार
बिना भय के
जिसने कर लिया
वह अमृत हो
गया। उसकी फिर
कोई मृत्यु
नहीं है।
तुम
बार—बार सुनते
हो,
आत्मा अमर
है। अपनी मत
सोच लेना।
तुम्हारी तो अभी
आत्मा है भी
कहां! आत्मा
तो तभी है जब
वासना गिर
जाती है। और
वासना के
गिरने के बाद
तुम्हारे
भीतर सिर्फ
चैतन्य शेष रह
जाता है। वही
आत्मा है। अभी
तो तुम्हारी
आत्मा इतनी
दबी है कि तुम्हें
उसका पता भी
नहीं हो सकता।
अभी तो जिसको
तुम अपनी
आत्मा समझते
हो वह बिलकुल
आत्मा नहीं
है। अभी तो
किसी ने शरीर
को आत्मा समझ
लिया है, किसी
ने मन को
आत्मा समझ
लिया है, किसी
ने कुछ और
आत्मा समझ ली
है। आत्मा का
तुम्हें अभी
साक्षात्कार
हुआ नहीं है।
वासना की धुंध
में आत्मा
खोयी है, दिखाई
नहीं पड़ती।
वासना की धुंध
छटे तो आत्मा का
सूरज निकले।
वासना का धुंआ
हटे तो आत्मा
की ज्योति
प्रगट हो!
आत्मा
निश्चित अमर
है। लेकिन इसे
तुम मत सोच लेना
कि तुम्हारे
भीतर जो तुम
जानते हो वह
अमर है। उसमें
तो कुछ भी अमर
नहीं है। अभी
अमर से तो
तुम्हारी
पहचान ही नहीं
हुई है। अगर
पहचान अमर से
हो जाये तो
तुम मृत्यु से
डरोगे नहीं। क्योंकि
तब तुम
जानोगे. कैसी
मृत्यु! किसकी
मृत्यु! जो
मरता है वह
मैं नहीं हूं।
शरीर मरेगा, क्योंकि
शरीर पैदा हुआ
था। मन मरेगा,
क्योंकि मन
तो केवल
संयोगमात्र
है। लेकिन जो शरीर
और मन के पार
है, दोनों
का अतिक्रमण
करता है, वह
साक्षी
बचेगा। पर
साक्षी को
जानोगे तब न!
और
साक्षी को
जानने का जो
गहरे से गहरा
प्रयोग है, वह
कामवासना के
प्रति साक्षी
हो जाना है।
क्योंकि वही
हमारी सबसे
बड़ी पकड़ है।
उससे ही छूटना
कठिन है। उसका
वेग अदम्य है।
उसका बल गहन
है। उसने हमें
चारों तरफ से
घेरा है। और
घेरने का कारण
भी है।
तुम्हारा
शरीर निर्मित
हुआ है काम—
अणु से—पिता
का आधा, मां
का आधा। —ऐसा
दान है
तुम्हारे
शरीर में। दोनों
के काम—अणुओं
ने मिल कर
पहला
तुम्हारा अणु
बनाया। फिर
उसी अणु से और
अणु पैदा होते
रहे। आज
तुम्हारे
शरीर में, वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
सात करोड़
कामाणु हैं।
ये जो सात
करोड़ कामाणुओं
से बना हुआ
तुम्हारा
शरीर है, इसके
भीतर छिपा है
तुम्हारा
पुरुष। पुरुष
यानी इस नगर
के भीतर जो
बसा है; इस
पुर के भीतर
जो बसा है। यह
जो सात करोड़
की बस्ती है, इसके भीतर
तुम कहीं हो।
निश्चित ही
सात करोड़ अणुओं
ने तुम्हें
घेरा हुआ है; सब तरफ से
घेरा हुआ है।
और उनकी पकड़
गहरी है। तुम
उस भीड़ में खो
गये हो। उस
भीड़ में
तुम्हें पता
ही नहीं चल
रहा है कि मैं
कौन हूं? भीड़
क्या है? किसने
मुझे घेरा है?
तुम्हें
अपनी याद ही
नहीं रह गयी
है। और इन सात
करोड़ के
प्रवाह में
तुम खिंचे
जाते हो। जैसे
घोड़े, बलशाली
घोड़े रथ को
खींचे चले
जायें, ऐसा
तुम्हारे
जीवन की
छोटी—सी
ज्योति को ये
बलशाली सात करोड़
जीवाणु खींचे
चले जाते हैं।
तुम भागे चले
जाते हो। यही
मौत में
गिरेंगे, क्योंकि
जन्म के समय
इनका ही
कामवासना से
निर्माण हुआ
था।
ऐसा
समझो : जो
कामवासना से
बना है वही
मृत्यु में
मरेगा। तुम तो
बनने के पहले
थे;
तुम मिटने
के बाद भी
रहोगे। लेकिन
यह प्रतीति तभी
तुम्हारी
स्पष्ट हो
सकेगी—शास्त्र
को सुन कर
नहीं; स्वयं
को जान कर, जाग
कर।
सानुरागा
स्त्रियं
दृष्टवा
मृत्युं वा
समुपस्थितम्।
पास
खड़ी हो प्रेम
से भरी हुई
स्त्री, युवा,
सुंदर, सानुपाती,
रागयुक्त, तुम्हारे
प्रति उगख, तुम्हारे
प्रति
आकर्षित, और
खड़ी हो मृत्यु,
इन दोनों के
बीच अगर तुम
अविचलमना, जरा
भी बिना
हिले—डुले खड़े
रहे, जैसे
हवा का झोंका
आये और दीये
की लौ न कंपे, ऐसे तुम
अकंप बने रहे,
तो ही जानना
कि तुम मुक्त
हुए हो।
जीवन—मुक्ति
की यह भीतर की
कसौटी है।
मुझसे
लोग आकर पूछते
हैं,
हम कैसे
समझें कि कोई
आदमी मुक्त
हुआ या नहीं? दूसरे को
समझने का उपाय
भी नहीं है, क्योंकि
दूसरे को तो
तुम कैसे
समझोगे? बस,
स्वयं को
समझने का उपाय
है। और यह
प्रश्न ही गलत
है कि तुम
समझने की
कोशिश करो कि
दूसरा मुक्त
हुआ या नहीं।
तुम्हारा
प्रयोजन? और
बाहर से तुम
समझोगे कैंसे?
बाहर से तो
जो मुक्त हुआ
है वह भी वैसा
ही है जैसे
तुम हो। भूख
लगती है तो
खाना खाता है,
तुम्हारे
जैसा ही। नींद
आती तो सो
जाता है, तुम्हारे
जैसा ही! हां, कुछ फर्क भी
है। लेकिन
फर्क भीतरी है,
उसका बाहर
से कोई पता
नहीं चलता। वह
जब भोजन करता
है तो
होशपूर्वक
करता है। मगर
वह होश तो
बाहर दिखाई
नहीं पड़ेगा।
वह जब सो जाता
है, तब भी
भीतर उसके कोई
जागा रहता है।
लेकिन उसे तो
तुम भीतर
जाओगे तो
जानोगे। अभी
तो तुम अपने
भीतर नहीं गये
तो दूसरे के
भीतर जाने की
तो बात ही
छोड़ो। वह
तुमसे न हो
सकेगा। यह तो
पूछो ही मत कि
मुक्त का
लक्षण क्या है?
अगर लक्षण
पूछते हो तो
अपने लिए
पूछो। यह सूत्र
तुम्हारे लिए
है। इससे तुम
दूसरे को
जांचने मत चले
जाना। नहीं तो
तुम कहोगे, कृष्ण अभी मुक्त
नहीं हुए।
देखो, सखियां
नाच रहीं और
कृष्ण
बांसुरी बजा
रहे और डोल
रहे हैं! तो ये
तो विचलित
होते मालूम
होते हैं। डोल
रहे हैं, देखो!
जैसा बीन
बजाने से सांप
डोलता है, ऐसे
कृष्ण डोल रहे
हैं। ये तो
विचलित मालूम
होते हैं। तो
ये फिर मुक्त
नहीं हैं।
जो
डोल रहा है, वही
अगर कृष्ण
होते तो
तुम्हारी बात
सही थी। इस
डोलने के बीच
में कोई
अनडोला खड़ा
है। यह
बांसुरी बज
रही है और
भीतर कोई बांसुरी
नहीं बज रही।
इस नृत्य के
बीच में कोई
बिलकुल शांत
है। इन लहरों
के बीच में
कोई बिलकुल
मौन है। मगर
उसे तुम कैसे
देखोगे? उसे
तो तुमने अपने
भीतर देख लिया
हो तो ही तुम
पहचान पाओगे।
तो तत्क्षण
तुम्हें
कृष्ण के भीतर
भी दिखाई पड़
जाएगी वह
ज्योति, वह
लपट।
जिन्होंने
कृष्ण को
पहचाना वे
पहले अपने को
पहचाने, तो
ही।
बुद्ध
से कोई पूछता
है एक दिन कि
हम कैसे आपको पहचानें? आपकी
घोषणा हमने
सुनी कि आप
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गये
हैं, कि
आपको महाज्ञान
फलित हुआ है, कि आपकी
मुक्ति हो गई,
कैवल्य हो
गया। हम आपको
कैसे पहचानें?
हमें कुछ
आधार दें।
बुद्ध ने कहा.
मुझे पहचानने
चलोगे तो भटक
जाओगे। तुम
अपने को
पहचानने में
लगो। जिस दिन
तुम अपने को
पहचान लोगे उस
दिन क्षण भर
की भी देर न
लगेगी, तुम
मुझे भी पहचान
लोगे।
इन
सूत्रों को
तुम दूसरों के
लिए उपयोग मत
करना। आदमी
बड़ा बेईमान
है! आदमी को
कुछ भी समझ
में आये तो
समझ का भी
दुरुपयोग ही
करता है। फिर
वह कहने लगता
है कि अच्छा, तो
फलां आदमी फिर
अभी मुक्ति को
उपलब्ध नहीं हुआ।
तुम
अपने भीतर इस
कसौटी को
संभाल कर रखो।
राह से निकलते
हो,
एक सुंदर
स्त्री पास से
गुजर गयी या
सुंदर पुरुष
पास से गुजर
गया; तुम्हारे
भीतर कुछ
कंपता है? अगर
नहीं कंपता तो
प्रसन्न हो
जाओ। थोड़ा—सा
तुम्हें जीवन
का स्वाद
मिला! अकंप है
जीवन! तुम थोड़े
बाहर हुए धुएं
के! खुशी मनाओ!
कुछ तुम्हें मिल
गया!
धीरे—
धीरे यही
अभ्यास सघन
होता जायेगा
तो किसी दिन
मौत आयेगी।
कामवासना का
अंतिम परिणाम
मृत्यु में ले
जायेगा। शरीर
चूंकि बना ही
कामवासना से
है,
इसलिए
मृत्यु तो
होगी। अगर तुम
कामवासना के प्रति
जागते रहे तो
एक दिन मृत्यु
में भी जाग जाओगे।
और जो जाग कर
मर जाता है, फिर उसका
लौटना नहीं है;
फिर उसका
पुनरागमन नहीं
है। तुमने
बार—बार सुना
है यह कि कैसे
आवागमन मिटे।
यह है रास्ता
आवागमन के
मिटने का।
जीते—जी
तुम मुक्त हो
सकते हो।
जीते—जी, जीवन—मुक्त
का अर्थ होता
है : जो काम से
मुक्त हुआ, जिसे अब
स्त्री या
पुरुष का
आकर्षण नहीं
खींचता। और सब
आकर्षण छोटे
हैं। धन का
आकर्षण है, गौण है। पद
का आकर्षण है,
वह भी गौण
है। काम का
आकर्षण सबसे
गहरा है। वस्तुत:
हम धन भी
इसीलिए चाहते
हैं ताकि
कामवासना को
तृप्त करना
सुगम हो जाये
और पद भी
इसीलिए चाहते
हैं ताकि
कामवासना को
तृप्त करना
सुगम हो जाये।
तुमने
देखा, राजाओं
को हजारों
स्त्रियां
रखने की
सुविधा थी! मन
तो सभी का है।
मन तो सभी के
राजा के हैं।
लेकिन रख नहीं
सकते, क्योंकि
एक ही रखना
महंगा पड़ जाता
है; एक के
साथ ही
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
सम्राटों की
हजारों
स्त्रियों की
कथा तुम पढ़ते
हो, वे
झूठी नहीं
हैं। उनके पास
सुविधा थी, धन था, पद
था, प्रतिष्ठा
थी। वे समाज, नीति—नियम
सबको तोड़ सकते
थे, मर्यादा
के
बाहर जा सकते
थे। कौन उनका
क्या बिगाड़
लेगा! कोई
उनका कुछ
बिगाड़ न सकता
था।
फ्रायड
ने कहा है कि
लोग धन खोजते, पद
खोजते, लेकिन
गहरे में खोज
यही है कि जब
बल होगा धन का,
पद का, तो
कामवासना को तृप्त
कर लेंगे। फिर
जैसा करना
चाहेंगे वैसा कर
लेंगे। लेकिन
सबसे गहरे में
कामवासना है।
अविह्वलमना
स्वस्थो
मुक्त एव
महाशय:।
'अविह्वलमना',
जिसका मन अब
विह्वल नहीं
होता, कंपता
नहीं, निष्कंप
हो गया है।
स्त्री
से प्रयोग करो, पुरुष
से प्रयोग
करो। जीवन इसी
का अवसर है।
थोड़े— थोड़े
जागते—जागते एक
दिन महाजाग भी
आयेगी।
रत्ती—रत्ती
प्रकाश इकट्ठा
करते—करते एक
दिन महासूर्य
भी प्रगट
होगा।
साथ
चलो तो मैं
खड़ा चलने को
तैयार
सन्नाटे
के बीच
सें—सन्नाटे
के पार।
जब
तुम पैदा हुए, सन्नाटे
से आये थे। जब
तुम मृत्यु
में जाओगे, फिर सन्नाटे
में जाओगे।
झेन फकीर कहते
हैं. अपने उस
चेहरे को खोज
लो जो जन्म के
पहले
तुम्हारा था
और मृत्यु के
बाद फिर
तुम्हारा
होगा। यह बीच
का चेहरा उधार
है। यह चेहरा
तो तुम्हारे
मां और पिता
से मिला है; यह चेहरा
तुम्हारा
नहीं। यह
मौलिक नहीं।
साथ
चलो तो मैं
खड़ा चलने को
तैयार
सन्नाटे
के बीच से
—सन्नाटे के
पार।
इसलिए
समस्त धर्म
सन्नाटे की
साधना है—शून्य
की,
मौन की, ध्यान
की।
तुमको
चिंता राह की, मुझको
चिंता और
यहीं
न हमको रोक ले
कोई मंजर—मौर।
राह
की बहुत फिक्र
मत करो। सब
राहें
परमात्मा की
तरफ जाती हैं।
एक ही फिक्र
करना कि
रास्ते पर कोई
अटकाव में अटक
मत जाना; किसी
पड़ाव को मंजिल
मत समझ लेना।
सब पहुंच जाते
हैं, अगर
चलते रहें, अगर चलते
रहें। रुके कि
अटक जाते हैं।
तुम कहीं भी
रुकना मत—धन
पर, पद पर, मोह पर, लोभ
पर, राग
पर। कहीं
रुकना मत।
चलते ही जाना।
जागते ही
जाना।
चढ़ो
न मन की पालकी
चलो न अपनी
छाव
बटमारों
का देश है, नहीं
सजन का गांव।
सबमें
सबकी आत्मा, सबमें
सबका योग
ऐसे
भी थे दिन कभी, ऐसे
भी थे लोग।
तुम
भी ऐसे ही हो
सकते हो। जो
अष्टावक्र को
हुआ,
तुम्हें हो
सकता है। जो
मुझे हुआ, तुम्हें
हो सकता है।
जो एक को हुआ, सभी को हो
सकता है।
सबमें
सबकी आत्मा, सबमें
सबका योग
ऐसे
भी थे दिन कभी, ऐसे
भी थे लोग।
नहीं, यह
बात समाप्त
नहीं हो गयी
है। ऐसा नहीं
है कुछ कि
बुद्धपुरुष
होना बंद हो
गये। कभी बंद
नहीं होते।
जहां सोये लोग
हैं वहां कोई
न कोई, कभी
न कभी जागता
ही रहेगा।
नींद में
जागने के कमल
खिलेंगे ही।
जहां पाप है, वहा पुण्य
भी प्रगट
होगा। और जहां
रात है, सुबह
भी होगी। अँधेरा
है तो प्रकाश
भी कहीं पास
ही होगा।
घबड़ाओ मत!
गोरी
अपने गांव में
पनपा ऐसा रोग।
हमसे
परिचय पूछते
हमीं हमारे
लोग।
भारी
रोग फैला है।
रोग एक ही है :
पता नहीं अपना
ही,
कि हम कौन
हैं! तुमसे जब
कोई पूछता है
आप कौन हैं, तो कभी
तुमने
ईमानदारी से
कहा कि मुझे
पता नहीं। तुम
जो भी पता
देते हो सब
झूठा है, सब
कामचलाऊ है।
तुम कहते हो, राम कि रहीम;
कि इस गांव
रहते कि उस
गांव रहते, कि इस
मोहल्ले रहते
कि उस मोहल्ले
रहते, कि
यह मेरे मकान
का नंबर है।
यह सब ठीक है, और फिर भी
कुछ ठीक नहीं।
तुम्हें अपना
पता ही नहीं
है।
गोरी
अपने गांव में
पनपा ऐसा रोग।
हमसे
परिचय पूछते
हमीं हमारे
लोग।
दूसरे
तो पूछते ही
हैं,
यह ठीक ही
है, तुम
खुद भी तो पूछ
रहे हो यही कि
मैं कौन हूं!
जन्म की जो
पहली
जिज्ञासा है
वह यही है। और
आखिरी
जिज्ञासा भी
यही है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चे को जो
पहला प्रश्न
उठता है, सबसे
पहला प्रश्न,
वह यही है
कि मैं कौन
हूं.। होना भी
यही चाहिए। हालाकि
इसका कोई
पक्का प्रमाण
नहीं है, क्योंकि
बच्चे बोलते
नहीं। और
बच्चों में क्या
पहला प्रश्न
उठता है, कहना
कठिन है।
लेकिन सब
हिसाब से यह
मालूम पड़ता है
यही प्रश्न
उठता होगा। और
कोई प्रश्न
उठने के पहले
यही प्रश्न
उठता होगा कि
मैं कौन हूं!
चाहे इस तरह
के शब्द न भी
बनते हों, सिर्फ
भावमात्र
होता हो; लेकिन
बच्चे को यह
तो खयाल होता
होगा कि मैं कौन
हूं। कभी—कभी
बच्चे पूछते
भी हैं कि मैं
कौन हूं? मैं
यहां क्यों
हूं? मैं
कहां से आया
हूं? मैं
ऐसा ही क्यों
हूं जैसा कि
मैं हूं? हम
सब टाल देते
हैं उनके
प्रश्न कि
ठहरो, जब
बड़े हो जाओगे
पता चलेगा।
बड़े हो कर
तुमको भी पता
नहीं चला है।
बड़े
हो कर किसी को
पता नहीं
चलता। बड़े
होने से पता
चलने का क्या
संबंध है? बड़े
हो कर पता
चलना और
मुश्किल हो
जायेगा, क्योंकि
और कूड़ा—कर्कट
तुम्हारी
खोपड़ी पर इकट्ठा
हो जायेगा।
अभी तो बच्चे
की बुद्धि
निर्मल थी, अभी बेईमान
न था, बड़ा
हो कर तो
बेईमान हो
जायेगा।
पहला
प्रश्न, मनस्विद
कहते हैं, होना
यही चाहिए
गहरे से गहरे
में कि मैं
कौन हूं? स्वभावत:
और प्रश्न
पैदा हों, इसके
पहले यह
जिज्ञासा तो
उठेगी ही कि
यह मैं कौन
हूं! और अंतिम
प्रश्न भी
मरते समय यही
होता है। होगा
भी। जो पहला
है, वही
अंतिम भी
होगा। जहां से
चलते हैं, वहीं
पहुंच जाते
हैं। मरते
क्षण भी यही
प्रश्न होता
है कि मैं कौन
हूं। जी भी
लिया, सुख—दुख
भी झेले
सफल—असफल भी
हुआ, खूब
शोरगुल भी
मचाया, झंझटें,
झगड़े—झांसे
भी किये; कभी
जमीन से उलझे,
कभी आसमान
से उलझे, सब
किया— धरा, सब
मिट्टी भी हो
गया; अब
मैं जा रहा
हूं और यह भी
पता नहीं चला
कि मैं कौन
हूं!
मैं
कौन हूं इसका
उत्तर उसी को
मिलता है, जो
अविचलमना हो
गया। जब तक मन
विचलित होता
है, इसका
पता नहीं
चलता।
क्योंकि
विचलन के कारण
तुम्हें अपनी
ठीक—ठीक छवि
दिखाई नहीं पड़
पाती। ऐसा
नहीं है कि
कहीं कोई
उत्तर लिखा
रखा है। इतना
ही है कि अगर
तुम बिलकुल शांत
हो जाओ एक
तरंग न उठे
चित्त में, तो उस
निस्तरंग दशा
में जिसे तुम
देखोगे, जानोगे,
वही तुम हो।
नाच उठोगे!
ऐसा
भी नहीं है कि
तुम दूसरों को
बता सकोगे कि मैं
कौन हूं। नहीं, ग्ते
का गुड! लेकिन
तुम जानोगे!
और तुम्हें
अगर कोई गौर
से देखेगा, तुम्हारे
पास बैठेगा, तुम्हारी
धारा में थोडा
बहेगा, तो
उसे भी थोड़ा—
थोड़ा रस
मिलेगा, उसे
भी थोड़ी— थोड़ी
सुगंध आयेगी।
अज्ञात लोक उसे
भी खींचने
लगेगा! लेकिन
जिंदगी भर तो
हम रेत के घर
बनाने में
बिताते हैं।
जिंदगी भर तो
हम कागज की
नावें तैराते
हैं! जिसको
तुम जिंदगी
कहते हो, सिवाय
कागज की नाव
बनाने के और
क्या है?
कुछ
अंधेरे रोशनी
के साथ आते
हैं
कुछ
उजाले हैं कि
साये छोड़ जाते
हैं
एक
वे हैं पांव
कल की सीढ़ियों
पर हैं
एक
हम इतिहास पर
जिल्दें
चढ़ाते हैं
जो
समय के साथ
समझौता नहीं
करते
एक
उपजाऊ धरातल
छोड़ जाते हैं
जिंदगी
का अर्थ हमने
यों लगाया है
हम
नदी में रेत
के टीले बनाते
हैं
कुछ
हवाएं हैं कि
इतनी तेज चलती
हैं
पत्थरों
के आदमी भी
थरथराते हैं
हम
हजारों
व्यक्तियों
से मिल चुके
होंगे
सब
हथेली पर यहां
सरसों उगाते
हैं
यहां
बड़े पागलपन
में लोग उलझे
हैं।
हम
हजारों
व्यक्तियों
से मिल चुके
होंगे
सब
हथेली पर यहां
सरसों उगाते
हैं
जिंदगी
का अर्थ हमने
यों लगाया है
हम
नदी में रेत
के टीले बनाते
हैं
मरते
वक्त तुम्हें
लगेगा, सब
किया अनकिया
हो गया; सब
बना, मिट
रहा है।
तुम्हीं मिट
रहे हो! जहां
तुम्हारा ही
रहना तय नहीं
है, वहा
तुम्हारा
बनाया हुआ
क्या रहेगा? जहां से तुम
हो हटा लिये
जाते हो, वहां
तुम्हारे
कर्तृत्व के,
तुम्हारे
कर्ता होने के
क्या चिह्न रह
जाएंगे!
अष्टावक्र
कहते हैं : तुम
अगर अविचल हो
जाओ तो तुम
उसे जान लो जो
न पैदा होता, न
मरता; तुम
उसे जान लो जो
न करता—जो बस
है! उस है—पन
में डूब जाना
परम शाति है, परम मुक्ति
है।’समदर्शी
धीर के लिए
सुख और दुख
में, नर और
नारी में, संपत्ति
और विपत्ति
में कहीं भी
भेद नहीं है।’
सुखे
दुःखे नरे
नार्यां
संपत्सु च
विपत्सु च।
विशेषो
नैव धीरस्य
सर्वत्र समदर्शिन:।
सुखे
दुःखे...!
सुख
और दुख हमें
दो दिखाई पड़ते
हैं। हमें दो
दिखाई पड़ते
हैं,
क्योंकि हम
सुख को चाहते
हैं और दुख को
नहीं चाहते।
हमारे चाहने
और न चाहने के
कारण दो हो जाते
हैं। तुम एक
दफा चाह
और
न—चाह दोनों
छोड़ कर देखो, तुम
अचानक पाओगे
सुख और दुख का
भेद खो गया, उनमें कुछ
भेद न रहा।
उनकी
सीमा—रेखा
हमारी चाह
बनाती है। इसे
समझो।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि जिस चीज को
तुम नहीं चाहते
थे क्षण भर
पहले तक, उसमें
दुख था, और
फिर तुम चाहने
लगे तो उसी
में सुख हो
गया। जो आदमी
सिगरेट नहीं
पीता, उसको
सिगरेट पिला
दो—आंख में आंसू
आ जाएंगे, खांसी
उठेगी, घबरायेगा,
चेहरा
तमतमा जाएगा,
सिगरेट
फेंक देगा।
कहेगा कि पागल
हो गये हो, यह
क्या भला—चंगा
था और तुमने
यह कहां का
रोग लगा दिया!
दुखी होता है।
लेकिन उससे
कहो कि धीरे—
धीरे अभ्यास
करो, यह
बड़ा
योगाभ्यास है,
यह कोई ऐसे
नहीं सधता, साधने से
सधता है, और
बड़ी कठिन बात
है, तुम
थोड़ा अभ्यास
करोगे तो सध
जायेगा। थोड़ा
अभ्यास करेगा
तो निश्चित सध
जायेगा। सध
क्या जायेगा,
अभ्यास
करने से वह जो
अब तक शरीर के
संवेदनशील
तंतु विरोध
किये थे, विरोध
नहीं करेंगे।
शरीर की
संवेदनशीलता
ने जो इंकार
किया था, वह
इंकार नहीं
आएगा। शरीर
राजी हो जाएगा
कि ठीक है, तुम्हारी
मर्जी, जो
करना हो करो।
खांसी नहीं
उठेगी, आंख
में आंसू नहीं
आएंगे। और यह
आदमी कहने
लगेगा, अब
सुख मिलने
लगा।
तुमने
शराब चखी? चखोगे
तो तिक्त और
कड्वी, स्वादहीन,
लेकिन चखते
ही चले जाओ तो
सब स्वाद
व्यर्थ हो
जाते हैं, शराब
का स्वाद ही
फिर एकमात्र
स्वाद रह जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी उससे
बहुत परेशान
थी। रोज पी कर
चला आए। एक
दिन सब समझा
कर हार चुकी
थी तो मधुशाला
पहुंच
गयी—सिर्फ
डरवाने। मुल्ला
भी घबराया, क्योंकि
वह यहां कभी
नहीं आयी थी।
घर ही घर बात करती
थी। आ गयी
मधुशाला, आकर
उसकी टेबल पर
बैठ गई और कहा :
आज तो मैंने
भी तय किया कि
मैं भी पीना
शुरू करती
हूं। तुम तो रुकते
नहीं, मैं
भी शुरू करती
हूं। मुल्ला
थोड़ा घबराया
भी कि यह क्या
मामला हो रहा
है! एक ही पीने
वाला घर में
काफी है। अब
उसको यह भी डर
लगा कि कहीं
यह भी पीने
लगे तो जो
बदतमीजी मैं
इसके साथ करता
रहा, वही
बदतमीजी अब यह
मेरे साथ
करेगी। मगर अब
कोई यह भी
नहीं कह सकता
कि मत पीओ, क्योंकि
अब किस मुंह
से कहे मत पीओ!
यही तो पत्नी
समझाती रही।
और
इसके पहले कि
वह कुछ कहे
पत्नी ने अपनी
गिलास में
शराब ढाल ली।
पहला ही घूंट
लिया कि हाथ
से गिलास पटक
दिया और उसने
कहा : अरे, यह
तो जहर है! यू—
यू किया।
मुल्ला ने कहा
: देखो! और तुम
समझती थी कि
मैं मजे लूट
रहा हूं! हजार
बार समझाया कि
यह बड़ी कठिन
चीज है। और
तुम यही सोचती
थी सदा कि मैं
बड़े मजे लूट
रहा हूं!
अभ्यास
करो तो दुख
सुख जैसा
मालूम होने
लगता है। चाह
पैदा हो जाए
तो दुख सुख हो
जाता है।
तुमने यह देखा? एक
स्त्री को तुम
चाहते; एक
पुरुष को तुम
चाहते—जब तक
चाह है तब तक
सुख है! विवाह
कर लिया, दोनों
साथ रह लिये, चाह क्षीण
हो गयी। अब
चाह तो खतम हो
गयी। अब सुख
नहीं मालूम
पड़ता। तुमने
किसी पति को
किसी पत्नी के
साथ सुखी देखा?
अगर रास्ते
से तुम देख लो
कि पति—पत्नी
दोनों सुख से
चले जा रहे
हैं तो समझ
लेना कि ये
पति—पत्नी
नहीं हैं।
मैं
एक ट्रेन में
सवार था और एक
महिला मेरे सामने
ही सीट पर
बैठी थी। हर
स्टेशन पर एक
आदमी उससे
मिलने आता—हर
स्टेशन पर।
फिर भाग कर
अपने डब्बे
में जाता, फिर
आता। कभी
शर्बत लाता, कभी कुछ।
मैंने उससे
पूछा कि
तुम्हारे पति
मालूम होते
हैं। उसने
कहा. हां।
मैंने पूछा:
कितने
दिन हुए विवाह
हुए?
उसने कहा कि
सात साल हो
गये। मैंने
कहा : झूठ तो मत
बोल। सात साल!
तो तू विवाहित
भी नहीं है
इनके साथ। सात
साल बाद कोई पति
दूसरे डब्बे
में से हर
स्टेशन पर.
शर्बत और चाय
और कॉफी और
आइसक्रीम कभी
ले कर आए, सुना
है? ऐसा
हुआ कहीं? कलियुग
में तो नहीं
होता। सतयुग
में भी होता था,
ऐसा भी कोई
उल्लेख किसी
पुराण में
नहीं है। तू
झूठ बोल ही मत।
तू सच—सच कह दे,
मैं किसी से
कहूंगा नहीं।
उसने कहा. 'आपने
कैसे पहचाना?
हम तो
विवाहित नहीं
हैं।’
इसमें
पहचानने की
बात ही क्या
है?
पति तो एक
दफा बिठा कर
जो नदारद होता,
फिर पूरी
यात्रा उसका
पता नहीं चलना
था। ऐसा सौभाग्य
तो कभी—कभी
मिलता है।
तुमने
देखा, पति—पत्नी
साथ बैठे हों,
कैसे उदास
और गंभीर
मालूम होते
हैं! कोई
मेहमान आ जाता
है तो दोनों
प्रफुल्लित
हो जाते हैं कि
चलो, कोई आ
गया तो कुछ
थोड़ा रस तो
आएगा।
मेरे
एक मित्र हैं, हिम्मतवर
आदमी हैं। ऐसा
एक दिन मुझसे
बात करते थे।
मैंने उनसे
पूछा कि अब कब
तक धंधे में
पड़े रहोगे न:
खूब कमा लिया।
उन्होंने कहा
कि जिस दिन
मैं पैंतालीस
साल का हो
जाऊंगा, उसी
दिन छोड़
दूंगा। सच में
हिम्मत के
आदमी हैं।
पैंतालीस साल
के हो गये तो
उन्होंने उसी
दिन सब बंद कर
दिया। मुझसे
पूछने लगे कि
अब बोलो क्या
करें, क्योंकि
अब मैं खाली
हूं! तो मैंने
कहा, अब
अच्छा है, तुम
किसी पहाड़ी
जगह पर चले
जाओ। सब
तुम्हारे पास
सुविधा है। अब
शाति से रहो।
उन्होंने कहा,
वह तो ठीक
है, लेकिन
यह भी तो देखो
कि पत्नी से, जब मेरी
उम्र पंद्रह
साल की थी, तब
मेरा विवाह
हुआ। तीस साल
से हम साथ
हैं। अब तो हम
दोनों अगर संग
रह जाते हैं
तो एकदम संकट
हो जाता है।
आप चलोगे हमारे
साथ पहाड़ पर
रहने? क्योंकि
हमें कोई एक
तो चाहिए ही, तो थोड़ा रस
रहता है। हम
तो किसी सफर
पर भी नहीं जाते
बिना मित्र को
लिये।
तुमने
देखा, पति—पत्नी
कहीं जा रहे
हैं तो किसी
मित्र को या
मित्र की
पत्नी को या
मित्र के परिवार
को साथ लेना
चाहते हैं!
कारण? अगर
पति—पत्नी
अकेले छूट गये
तो वे
एक—दूसरे को
उबाते हैं, और कुछ भी
नहीं। जो कहना
था कह चुके
बहुत बार, जो
करना था कर
चुके बहुत बार,
जो देखना था
देख चुके बहुत
बार; अब तो
सिर्फ ऊब हाथ
रह गयी है। अब
तो कोई उपाय नहीं
रह गया है। अब
तो कोई रस
नहीं रह गया
है। शायद इसी
स्त्री के लिए
दीवाने थे, इसी पुरुष
के लिए दीवाने
थे। और अब मिल
गये तो सब
शांत हो गया
है। दुख हो
जाता है।
सुख
को तुमने दुख
में बदलते
देखा या नहीं? जिस
दिन तुम यह
देख लोगे कि
दुख सुख में
बदल जाता है, सुख दुख में
बदल जाता है, उस दिन
तुम्हें एक
बात साफ हो
जायेगी कि
दोनों अलग—
अलग नहीं हैं।
तुम्हारी चाह
का ही भेद है।
चाहो तो सुख, चाहो तो
दुख। जैसा तुम
चाह लेते, बस
उसके अनुकूल
सुख—दुख की
सीमा—रेखा
खिंच जाती है।
लेकिन जिसकी
कोई चाह नहीं,
उसकी सोचो।
उसके लिए सुख
और दुख दोनों
विसर्जित हो
गये।
अष्टावक्र
कहते हैं :
सुखे
दुःखे नरे
नार्या
संपत्सु च
विपन्द्व च।
न
तो संपत्ति
में न विपत्ति
में,
न नर में न
नारी में, न
सुख में न दुख
में—ऐसे
व्यक्ति को
कोई भेद नहीं
रह जाता।
विशेषो
नैव धीरस्य
सर्वत्र
समदर्शिन:।
ऐसा
व्यक्ति सब
जगह एक ही
दर्शन में, एक
ही दृष्टि में
स्थिर रहता
है। उसे कुछ
भेद नहीं
दिखाई पड़ता।
उसका मतलब यह
मत समझ लेना
कि वह स्त्री
से कहने लगता
है कि आप कहां
जा रहे, या
पुरुष से कहने
लगता है कि
अच्छी आ गयीं,
बैठिये!
इसका यह मतलब
नहीं है कि
उसे भेद नहीं दिखाई
पड़ता। भेद सब ऊपरी
रह जाते हैं, व्यावहारिक
रह जाते हैं; आंतरिक भेद
नहीं रह जाता।
आंतरिक भेद
तुम्हारी देह
में है ही
नहीं; आंतरिक
भेद तो
तुम्हारी चाह
में है। जब
भीतर कामवासना
प्रगाढ़ होती
है तो स्त्री
अलग मालूम
पड़ती है, पुरुष
अलग मालूम
पड़ता है। जब
भीतर की
कामवासना गिर
गयी तो अब
स्त्री और
पुरुष बाहर
अलग हैं, यह
अंतर नहीं रह
जाता।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि तुम्हें
स्त्री स्त्री
नहीं दिखाई
पड़ती। स्त्री
अब भी स्त्री
दिखाई पड़ती
है। लेकिन यह
भेद औपचारिक
है,
सामाजिक है,
शारीरिक
है। इस भेद
में वस्तुत:
कोई भेद नहीं है।
भिन्नता
मालूम होती है;
भेद नहीं
मालूम होता
है। दोनों
अलग—अलग ढंग
से बने हैं, लेकिन दोनों
में एक का ही
वास है। ऊपर
का ढांचा थोड़ा
भिन्न है, शरीर
और रासायनिक
भिन्नता है; लेकिन भीतर
आत्मा एक ही
जैसी है। न
कोई पुरुष है
न कोई स्त्री
है। सब आत्मा
है। जो स्वयं
आत्मवान होता
है उसे सब तरफ
आत्मा का ही
दर्शन होता
है।
'क्षीण हो
गया है संसार
जिसका, ऐसे
मनुष्य में न
हिंसा है न
करुणा है, न
उद्दंडता और न
दीनता न
आश्चर्य न
क्षोभ।’
न
हिंसा नैव
कारुण्य
नौद्धत्यं न च
दीनता।
नाश्चर्यं
नैव च क्षोभ:
क्षीणसंसरणे
नरे।।
क्षीणसंसरणे
नरे—जिसका
संसार क्षीण
हो गया।
खयाल
करना, संसार
से मतलब यह
नहीं है जो
तुम्हारे
चारों तरफ
फैला है; यह
तो कभी क्षीण
नहीं होता।
कितने बुद्धपुरुष
हो गये, यह
तो चलता जाता
है।’संसार
क्षीण हो गया'
का अर्थ है.
जिसके भीतर अब
संसार के
प्रति कोई आकर्षण—विकर्षण
न रहा। हो तो
ठीक, न हो तो
ठीक। जैसा है
वैसा है।
इसमें अन्यथा
करने की कोई
वासना नहीं
है। आज खो
जाये तो ठीक; चलता रहे
अनंत—काल तक
तो ठीक। संसार
बाहर का तो
रहेगा ही, लेकिन
भीतर का संसार
खो जाता है।
भीतर
के संसार का
अर्थ है.
विचारों का, वासनाओं
का संसार।
क्षीणसंसरणे
नरे—जिस
व्यक्ति का यह
अंतर—संसार शांत
हो गया।
न
हिंसा नैव
कारुण्य—ऐसे
व्यक्ति में न
तो हिंसा रह
जाती, न
करुणा।
यह
समझने जैसी
बात है।
हम
कहते हैं.
महावीर
महाकरुणावान
हैं। वह हमारी
गलती है।
हमारी तरफ से
ठीक लगता है।
लेकिन महावीर
की तरफ से
सोचने पर गलती
है। जिसका क्रोध
ही चला गया, उसमें
करुणा कैसे
बचेगी? जिसमें
क्रोध ही न
रहा, उसमें
करुणा का क्या
उपाय है? और
जिसमें हिंसा
न बची, उसमें
अहिंसा कैसे
होगी? जो
दूसरे को दुख
नहीं देना
चाहता, वह
दूसरे को सुख
कैसे देना
चाहेगा? उसे
तो सुख — दुख
बराबर हो गये।
जो दूसरे को
मारना नहीं
चाहता, वह
दूसरे को
बचाना भी
क्यों चाहेगा?
क्योंकि वह
जानता है, अब
न तो कुछ मरता
है, न कुछ
बचाया जाता
है।
लेकिन
हमारी तरफ से
ठीक लगता है, क्योंकि
हम देखते हैं,
महावीर का
क्रोध खो गया,
हिंसा खो
गयी। तो तत्क्षण
हम नाम देते
हैं. अहिंसक, महाकरुणावान!
ये नाम हमारे
हैं, और
भ्रांत हैं।
हम भ्रांत हैं
तो हमारी दी
हुई सारी
व्याख्याएं
भी भ्रांत
होती हैं।
महावीर
की तरफ से
देखने पर
द्वंद्व चला
गया—हिंसा—अहिंसा
का,
प्रेम—घृणा
का, राग—द्वेष
का। सारा
द्वंद्व चला
गया। जहां—जहां
द्वंद्व है
वहा—वहां निर्द्वंद्वता
की स्थिति आ
गयी।
तो
सूत्र कहता
है. ऐसे
मनुष्य में न
हिंसा है न करुणा; न
उद्दंडता है
और न दीनता
है।
ऐसा
व्यक्ति न तो
अहंकारी होता
है और न निरहंकारी
होता है। ऐसा
व्यक्ति
विनम्र भी
नहीं होता, दंभी
भी नहीं होता।
इसलिए
तुम्हें बड़ी
कठिनाई होगी
ऐसे व्यक्ति
को पहचानने
में। ऐसा
व्यक्ति न तो
किसी को दबाता
और न किसी से
दबता।
तुम
दो तरह के
आदमी जानते हो
दबाने वाले और
दबने वाले।
तुम आदमी
जानते हो.
आज्ञाकारी और
उद्दंड, परंपरा
को मानने वाले
और परंपरा का
खंडन करने वाले,
आस्तिक और
नास्तिक। ऐसे
तुम आदमी
जानते हो।
बुद्ध
या महावीर न
तो आस्तिक हैं
न नास्तिक; न
तो परंपरा के
अंधे अनुयायी
हैं, न
क्रांतिकारी
हैं; न तो
आज्ञा मान कर
चलते समाज की,
न अवज्ञा
करते हैं। ये
बातें ही
व्यर्थ हो गयीं।
ये तो अपने
भीतर की सहजता
से जीते हैं।
इस सहजता से
तुम्हारा मेल
खा जाये तो
तुम्हें लगेगा,
समाज की
आज्ञा मानते
हैं। इससे मेल
न खाए तो तुम्हें
लगेगा समाज की
अवज्ञा करते
हैं। लेकिन ये
तुम्हारी
धारणाएं हैं।
ऐसे व्यक्ति
तो अपनी मौज
से जीते
हैं—स्वच्छंद
जीते, सहज
भाव से! उनकी
स्फुरणा आंतरिक
है। बहुत
मौकों पर
तुमसे मेल खा
जाता है; बहुत
मौकों पर तुमसे
मेल नहीं
खाता। लेकिन
तुमसे न तो
मेल बिठाने की
चिंता है और न
तुमसे तालमेल
तोड्ने की चिंता
है। यहीं तुम
फर्क समझ
लेना।
परंपरावादी
वह है, जो
हमेशा कोशिश
करता है. जो सब
चल रहे हैं, भेड़चाल, वैसी
ही चाल मेरी
रहे; जरा
भी अन्यथा न
हो जाऊं।
अन्यथा अड़चन
आती है, लोग
चौंक कर देखने
लगते हैं।
जैसे कपड़े
लोगों ने पहने
हैं, वैसे
ही मैं पहनूं;
जैसे बाल
उन्होंने
कटाये वैसे
मैं कटाऊं; जो बातें वे
करते हैं वही
बातें मैं
करूं; जिस
ब्रांड की
सिगरेट पीते
हैं वही मैं
पीऊं; जिस
फिल्म को
देखने जाते
हैं वही मैं
देखूं; जो
किताब पढ़ते
हैं वही मैं
पढूं। लोगों
से अलग होना
ठीक नहीं, क्योंकि
भीड़ नाराज
होती है कि
अच्छा, तो
तुम व्यक्ति
होने की
चेष्टा कर रहे,
तो तुम
विशिष्ट होने
की चेष्टा कर
रहे! भीड़ पसंद
नहीं करती।
भीड़
कहती है तुम
भीड़ के साथ
रहो। भीड़ को
इससे बड़ी
तृप्ति मिलती
है कि सब उसके
साथ हैं। भीड़
बड़ी डरी है।
देखा भेड़ों को
चलते—घसर—पसर
एक—दूसरे के
साथ! ऐसा आदमी
चलता है। अगर कोई
भेड़ अलग चलने
लगे तो पूरी
भीड़ उसके
विपरीत हो
जाती है। यह
एक बात हुई।
फिर
एक दूसरा आदमी
है,
जो इस
भेड़चाल से
घबरा जाता है
और जो
प्रतिक्रिया
में वही करने
लगता है, जो
भीड़ कहती है
मत करो; वही
करने लगता है
जिसका भीड़ में
विरोध है। भीड़
से विपरीत
करने लगता है।
खयाल करना, यह दूसरा
आदमी भी भीड़
से ही
प्रभावित हो
रहा है, जैसा
भीड़ कहती है, उससे विपरीत
करने लगता है,
लेकिन भीड़
के ही अनुसार
चलता है।
अनुकूल नहीं करता,
प्रतिकूल
करता है। भीड़
कहती है, शराब
मत पीयो तो वह
शराब पीयेगा।
भीड़ कहती है, लंबे बाल मत
बढ़ाओ तो वह
लंबे बाल बढ़ा
लेगा। भीड़
कहती है, स्नान
करो तो वह
स्नान न
करेगा।
हिप्पियों
को देख रहे
हैं! उन्होंने
सारे भीड़ के
मापदंड तोड़
दिये। वे ऐसे
जीएंगे जैसा
भीड़ चाहती है
कोई न जीए; मगर
अभी भी भीड़ से
ही प्रभावित
हैं। उनका भी
आदेश आता है
भीड़ से ही।
भीड़ स्नान
करती है तो वे स्नान
नहीं करते; भीड़ सुंदर
कपड़े पहनती है
तो वे गंदे
कपड़े पहनते
हैं।
मैंने
ऐसा भी सुना
है कि अमरीका
में ऐसी दूकानें
भी खुल गयी
हैं जहां कपड़े
गंदे तैयार
करके बेचे जाते
हैं। क्योंकि
हिप्पियों की
भी तो मांग है!
नया कपड़ा तो
हिप्पी पहन
नहीं सकता, क्योंकि
वह ताजा, साफ—सुथरा
मालूम पड़ता
है। तो
दूकानें हैं
जहां उनको
गंदे करके, चीर—फाड़ कर, खराब करके, पुराना ढंग
दे कर बेचते
हैं। उनके
विज्ञापन मैंने
पढ़े हैं। तब
खरीदेगा
हिप्पी कि ठीक,
अब ठीक है।
बासा, पुराना,
गंदा, कई
मौसम देख चुका,
घिसा—पिटा,
तब!
मेरे
एक मित्र हैं; नेपाल
में उनकी
फैक्टरी है।
उस फैक्टरी
में वे एक ही
काम करते हैं.
नयी
मूर्तियां
बनाते हैं, एसिड डाल कर
उनको खराब
करके जमीन में
गड़ा देते हैं।
साल—छ: महीने
बाद उनको जमीन
से निकाल लेते
हैं। कोई पांच
सौ साल पुरानी
बताते हैं, कोई हजार
साल पुरानी।
जो मूर्ति
पांच रुपये में
नहीं बिकती, वह पांच
हजार में
बिकती है।
उनका धंधा ही
यही है।
उनके
घर एक बार
मेहमान हुआ तो
मैंने कहा कि
तुम इतनी
पुरानी
मूर्तियां ले
कहां से आते
हो?
उन्होंने कहा.
'लाता कौन
है? पागल
हुए हैं आप? हम् बनाते
हैं।’ मैंने
कहा : पुरानी मूर्ति
कैसे बनाते
होओगे? उन्होंने
कहा. आपकी समझ
में न आयेगा।
इसमें बड़ा राज
है। सन
इत्यादि सब हम
लिखते हैं
इसमें पुराना।
पुरानी भाषा
आकते हैं। फिर
एसिड डालकर
खराब करते
हैं। किसी का
हाथ तोड़ दिया,
किसी की नाक
तोड़ दी, फिर
उसको जमीन में
गड़ा दिया। वह
जमीन में गड़ी साल—छ:
महीने में
पुरानी शक्ल
ले लेती है।
उसको बड़े से
बड़े पारखी ही
पहचान सकते
हैं कि वह पुरानी
नहीं है। वैसे
पांच रुपये
में बिकती; अब वह पाच
हजार में बिक
सकती है।
एंटीक .हो गयी! अब
उसकी कीमत
बहुत बढ़ गयी।
बहुत पुरानी
है!
हिप्पी
विपरीत जीता
है। लेकिन
ज्ञानी न तो
समाज के
अनुकूल जीता
है न
प्रतिकूल।
ज्ञानी तो स्वानुकूल
जीता है; स्वच्छंद—स्वयं
के छंद से
जीता है।
तुमसे मेल खा
जाये तो ठीक, तुमसे मेल न
खाये तो ठीक।
तुम्हारी
चिंता नहीं
करता, तुम्हारे
हिसाब से नहीं
चलता।
तो
न तो तुम उससे
कह सकते कि वह
उद्दंड है, न
तुम कह सकते
वह दीन है। न
तो वह
परंपरावादी है
और न क्रांतिकारी
है। ज्ञानी तो
अपने आत्मबोध
से जीता है।
'उसके जीवन
में न तो
क्षोभ है और न
आश्चर्य।’
यह
बहुत
महत्वपूर्ण
बात है। क्षोभ
कब होता है? तुम
दस हजार रुपये
पाना चाहते थे
और दस न मिले तो
क्षोभ होता
है। तुम्हें
दस भी .मिलने
की आशा न थी और
दस हजार मिल
गये तो
आश्चर्य होता
है। जो नहीं
होना था हो
जाता है, तो
बड़ा आश्चर्य
से भर जाता है
मन। जो होना
था और नहीं
होता, तो
बड़ा क्षोभ
होता है।
तुम्हारी
अपेक्षा के
प्रतिकूल हो
जाता है तो
तुम दुखी होते
हो। और छप्पर
फोड़ कर वर्षा
हो जाती है
स्वर्ण —अशर्फियों
की, तो तुम
गदगद हो जाते
हो।
ज्ञानी
के जीवन में न
तो आश्चर्य है
न क्षोभ है।
ज्ञानी तो जो
होता है उससे
अन्यथा चाहता
ही नहीं था।
उसने अन्यथा
सोचा नहीं था, विचारा
नहीं था। उसने
और कोई सपने न
देखे थे। उसने
पहले से कोई
धारणा ही न
बनायी थी।
पांच मिलें तो
ठीक, पचास
मिलें तो ठीक,
पचास करोड़
मिल जायें तो
ठीक; न
मिलें तो ठीक।
पास हैं जो वे
भी खो जायें
तो ठीक। उसके
जीवन में किसी
चीज से कोई
लहर नहीं उठती
है—न क्षोभ की,
न आश्चर्य
की।
ज्ञानी
प्रतिपल बिना
किसी अतीत को
अपने मन में
लिये जीता है।
इसलिए तुलना
का उसके पास
कोई स्थान
नहीं होता।
तुम ज्ञानी को
न तो क्षुब्ध कर
सकते हो और न
आश्चर्यचकित।
ऐसी कोई घटना
नहीं है जिस
पर ज्ञानी को
आश्चर्य हो।
क्योंकि ज्ञानी
मानता है, यह
जगत इतना महान
रहस्यपूर्ण
है कि आश्चर्य
हो तो इसमें
आश्चर्य क्या?
इस बात को
खयाल में
रखना—आश्चर्य
हो तो इसमें आश्चर्य
क्या? यह
सारा जगत
आश्चर्यों से
भरा है। एक—एक
पत्ती पर
आश्चर्य ही
आश्चर्य लिखा
है। एक—एक फूल
रहस्य की कथा
है। यहां सभी
चीजें अनजानी
हैं। फिर इसमें
आश्चर्य क्या?
किसी
ने हाथ से
भभूत निकाल दी, तुम
बड़े
आश्चर्यचकित
हो गये। इतना
विराट संसार
शून्य से निकल
रहा है और तुम
आश्चर्यचकित
नहीं हो! और
किसी मदारी ने
हाथ से भभूत
निकाल दी और
तुम
आश्चर्यचकित
हो गये! और तुम
एकदम बाबा के
पैर में गिर
पड़े कि
चमत्कार!
चमत्कार
प्रतिपल हो
रहे हैं। एक
छोटा—सा बीज तुम
डालते हो जमीन
में;
एक विराट
वृक्ष बन जाता
है। बीज को
फोड़ते, कुछ
भी न मिलता, न वृक्ष
मिलता, न
फूल मिलते, न फल मिलते; कुछ भी न था, खाली था, शून्य
था। उस शून्य
से इतना बड़ा
विराट वृक्ष पैदा
हो गया। इस पर
करोड़ों बीज लग
जाते हैं। एक
बीज से करोड़ों
बीज लग जाते! वनस्पतिशास्त्री
कहते हैं कि
एक बीज सारी
दुनिया को
जंगलों से भर
सकता है।
सिर्फ एक बीज!
और चमत्कार
क्या चाहते हो?
तुम्हारे
घर बच्चा पैदा
हो जाता
है—तुमसे पैदा
हो जाता है! और
तुम्हें
चमत्कार नहीं
होता! तुम
जैसा मुर्दा
आदमी! तुम्हें
अपने ही पैरों
में गिरना चाहिए
कि धन्य बाबा!
मुझ जैसा
मुर्दा आदमी
और एक जीवित
बच्चा पैदा हो
गया। नहीं, तुम
चमत्कार
क्षुद्र बातों
में देखते हो,
क्योंकि
तुम्हें
विराट
चमत्कार
दिखाई नहीं पड़
रहे। इस जीवन
में देखते हो,
उदास से
उदास, मुर्दा
से मुर्दा
आदमी में भी
परमात्मा
मौजूद है—और
तुम्हें
चमत्कार नहीं
दिखाई पड़ता!
हर आंसू के
पीछे
मुस्कुराहट
छिपी है और
तुम्हें चमत्कार
नहीं दिखाई
पड़ता! हर जीवन
के पीछे
मृत्यु खड़ी है
और तुम्हें
चमत्कार
दिखाई नहीं
पड़ता!
यहां
जो हो रहा है, वह
सभी
चमत्कारपूर्ण
है। यहां ऐसा
कुछ हो ही
नहीं रहा है
जिसमें
चमत्कार न हो।
इसलिए ज्ञानी
को कोई चीज
आश्चर्य नहीं
करती; क्योंकि
सभी आश्चर्य
है तो अब
आश्चर्य क्या
करना! आश्चर्य
ही आश्चर्य घट
रहे हैं।
प्रतिपल अनंत
आश्चर्यों की
वर्षा हो रही
है। इस बोध के
कारण ज्ञानी
को कोई चीज
आश्चर्य नहीं
करती।
और, किसी
चीज से क्षोभ
नहीं होता है।
क्योंकि ज्ञानी
जानता है कि
मेरे किये कुछ
नहीं होता है।
मेरे मांगे
कुछ नहीं
होता। मैं तो
सिर्फ देखने
वाला हूं; जो
होता है उसे
देखता
रहूंगा। उसका
रस तो एक बात
में है, साक्षी
में, कि जो
होता है देखता
रहूंगा। जो भी
हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, क्या
होता है! कभी
दुख होता है, कभी सुख
होता है; कभी
धन मिलता है, कभी
निर्धनता
मिलती है, कभी
सम्मान, कभी
अपमान—वह
देखता रहता
है। उसने तो
देखने में ही
सारा रस पहचान
लिया। अब
क्षुब्ध नहीं
होता है।
हम
तो आगे—पीछे
का बड़ा पागल
हिसाब ले कर
चलते हैं। हम
तो किसी घड़ी
को स्वतंत्र
नहीं छोड़ते।
हम तो
परमात्मा को
जरा भी मौका
नहीं देते कि
तुझे जैसा
होना हो वैसा
हो जा। हम तो
कहते हैं ऐसा
करो,
ऐसा हो। फिर
नहीं होता तो
दुखित होते
हैं। हो जाता
है तो बड़े
आनंदित होते
हैं। और ध्यान
रखना, जो
होना है वही
होना है। जो
होना था वही
होता है। और
जो हुआ वही
होना था।
तुम्हारे
चाहने
इत्यादि से कुछ
अंतर नहीं
पडता, जरा
भी अंतर नहीं
पड़ता! मगर तुम
बीच में नाहक
सुखी—दुखी हो
लेते हो।
टेलिफोन
की घंटी बजी।
रिसीवर उठाया
तो दूसरी ओर
से आवाज आयी : 'बहन
कैसी तबीयत है?'
'बेहद
परेशान
हूं—जवाब
मिला।’मेरे
सिर में दर्द
हो रहा है। टांगों
और कमर में
तीव्र पीड़ा
है। घर में
सभी चीजें
बिखरी पड़ी
हैं। बच्चों
ने मुझे पागल
बना दिया है।’
'सुनो'—दूसरी
ओर से आवाज
आयी—'तुम
लेट जाओ, मैं
तुम्हारे पास
आ रही हूं।
दोपहर का खाना
तैयार कर दूंगी।
घर साफ कर
दूंगी और
बच्चों को
नहला भी दूंगी।
तुम थोड़ी देर
आराम करना। पर
महेश आज कहा
है?'
'महेश? कौन
महेश? '—जवाब
मिला।
'तुम्हारा
पति, महेश।’
'मेरे पति का
नाम महेश
नहीं।’
पहली
महिला ने लंबी
सांस ली और
बोली. 'फिर
नंबर गलत मिल
गया। क्षमा
करें।’ काफी
देर खामोशी
रही। फिर
दूसरी महिला
ने उदास स्वर
में कहा : 'तो
तुम अब न आओगी?'
आदमी
जो नहीं हो
सकता, उसकी भी
आकांक्षा
करता है। अब
आने का कोई
कारण ही नहीं
रहा। यह फोन
ही गलत मिल
गया। मगर आशा
इसमें भी बांध
ली कि अब
आयेगी, भोजन
भी बना देगी, कपड़े—लत्ते
भी सुधार देगी,
बच्चों को
नहला भी
देगी।. 'तो
तुम अब नहीं
आओगी!'
क्षोभ
है। जो नहीं
होना है, उसके
लिए भी हम
क्षुब्ध होते
हैं। और जो
होना ही है
उसके लिए हम
नाहक आनंदित
होते हैं। जो
होना ही है
होता है, जो
नहीं होना है
नहीं होता है।
'मुक्त
मनुष्य न विषय
से द्वेष करने
वाला है और न
विषयलोलुप
है। वह सदा
आसक्ति—रहित
मन वाला हो कर
प्राप्त और
अप्राप्त
वस्तु का
उपभोग करता है।’
यह
बड़ी अदभुत बात
है। समझो।
न
मुक्तो
विषयद्वेष्टा
न वा
विषयलोलुप:।
असंसक्तमना
नित्यं
प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते।।
न
तो द्वेष करता
है किसी चीज
से और न किसी
चीज से उसका
कोई लोलुपता
का संबंध है।
राग—द्वेष
नहीं है। मांग
नहीं है। किसी
चीज से बचने
की आकांक्षा नहीं
है। और कोई
चीज मिल जाये
ऐसी आकांक्षा
नहीं है। और
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है कि
प्राप्त और
अप्राप्त
वस्तु का
उपभोग करता
है। इसे कैसे
समझोगे? प्राप्त
का उपभोग तो
समझ में आता
है। अप्राप्त
का उपभोग! इसे
समझने के लिए
तुम्हारी तरफ
से चलना पड़े।
तुम
ऐसे हो कुछ कि
तुम प्राप्त
से भी दुखी
होते हो और
अप्राप्त से
भी दुखी होते
हो। तुम्हें
प्राप्त भी
पीड़ा देता है
और अप्राप्त
भी पीड़ा देता
है। तब तुम
समझ लोगे कि
ज्ञानी की
स्थिति तुमसे
बिलकुल
विपरीत है।
तुमने खयाल
किया? तुम्हें
जो नहीं मिला
है, जो
नहीं हुआ है, उसकी भी
कितनी चिंता मन
में चलती है!
कितनी
परेशानी मन
में होती है!
मैंने
सुना है, एक
आदमी था, उसका
जहांज डूब
गया। वह बड़ा
आर्किटेक्ट
था। वह एक
जंगली टापू पर
लग गया। वहॉ
कोई भी न था।
यहूदी था वह
आर्किटेक्ट।
वर्षों बीत गये।
कुछ काम तो था
नहीं वहां।
लकड़ियां खूब
उपलब्ध थीं, पत्थर के
खूब ढेर लगे
थे—तो उसने कई
मकान बना डाले।
बैठे—बैठे
करता क्या? वही कला
जानता था। सड़क
बना ली।
कोई
बीस वर्ष बाद
कोई जहाज
किनारे लगा.।
उस आदमी को
देख कर उन्होंने
कहा कि तुम आ
जाओ,
हम तुम्हें
ले चलें
वापिस। उसने
कहा, इसके
पहले कि आप
मुझे ले चलें,
मैं सभी को
निमंत्रित
करता हूं कि
मैंने जो बीस
वर्षों में
बनाया उसे देख
तो लें! उसे
देखने फिर कभी
कोई नहीं
आयेगा। वे सब
देखने गये।
वे
बड़े चकित
हुए। उसने एक
मंदिर बनाया—सिनागॉग।
उसने कहा कि
यह मंदिर है
जिसमें मैं
रोज
प्रार्थना
करता हूं। और
सामने एक मंदिर
और था। तो उन
यात्रियों ने
पूछा कि यह तो
ठीक है; तुम
अकेले ही हो
इस द्वीप पर; तुमने एक
मंदिर बनाया;
पूजा करते
हो। यह दूसरा
मंदिर क्या है?
उसने कहा : 'यह वह मंदिर
है जिसमें मैं
नहीं जाता।’
अब
अकेला मंदिर
जिसमें हम
जाते हैं, उसमें
तो कुछ मजा ही
नहीं। मस्जिद
भी तो चाहिए न,
जिसमें तुम
नहीं जाते!
गिरजा भी तो
चाहिए, जिसमें
तुम नहीं
जाते! उसने वह
मंदिर भी बना
लिया है, जिसमें
नहीं जाता है!
काम पूरा कर
लिया है। जाने
के लिए भी मंदिर
बना लिया है; न जाने के
लिए भी मंदिर
बना लिया है।
न
जाने के लिए
मंदिर! लगेगा
व्यर्थ तुमने
श्रम किया, लेकिन
तुम अपने मन
में तलाश
करना। तुम वे
भी योजनाएं
करते हो जो
तुम्हें करना
है, तुम
उनकी भी
योजनाएं करते
हो जो तुम्हें
नहीं करना है।
तुम नहीं करने
की भी योजना
करते हो। तुम
उन चीजों से
भी जुड़े हो जो
तुम्हारे पास
हैं। तुम उनसे
भी जुड़े हो जो
तुम्हारे पास
नहीं हैं।
दूसरे के पास
हैं जो चीजें,
उनसे भी तुम
जुड़े हो।
पड़ोसी के
गैरेज में जो
कार रखी है
उससे भी तुम
जुड़े हो। उससे
तुम्हारा कुछ
लेना—देना
नहीं है; उससे
भी तुम जुड़े
हो। उससे भी
तुमने नाता
बना लिया है।
और
अप्राप्त के
कारण भी तुम
बड़े सुख—दुख
पाते हो।
मेरे
एक मित्र थे; डाक्टर
हैं। उनको एक
ही पागलपन था.
पहेलियां भरना।
डाक्टरी—वाक्टरी
चले न। चलने
की सुविधा ही
नहीं उनको, क्योंकि
पहेलियां
इतनी उनको
भरनी पड़े कि
मरीज आया, मरीज
से कहें कि
बैठो अभी, अभी
बीच में बोलना
मत। अभी पहेली
बिलकुल आ ही रही
थी कि तू कहां
से बीच में आ
गया! बिलकुल
शब्द जबान पर
रखा था, तूने
गड़बड़ कर दिया।
धीरे
— धीरे मरीज भी
उनके पास आने
बंद हो गये। मगर
उनको चिंता भी
न थी। उनको
चिंता एक ही
थी कि इस महीने
पचास हजार आ
रहा है; इस
महीने लाख आ
रहा है। मगर
वह कभी आये न।
जब भी मैं
जाऊं तो वे
हमेशा कहें.
अगले महीने.
पुरस्कार
बिलकुल
निश्चित है इस
बार!
मैंने
उनसे कहा कि
देखो, बरसों
हो गए सुनते, पुरस्कार
तुम्हें
मिलता नहीं।
तुम एक काम करो
तो शायद मिल
जाये। तुम
मेरे भाग्य को
अपने साथ जोड़
लो।
उन्होंने
कहा,
'ऐसी क्या
तरकीब?' वे
बड़े खुश हुए; बोले. 'बताओ।
पहले क्यों
नहीं कहा? जरूर
मेरे भाग्य
में खराबी तो
है, तभी तो
नहीं मिलता।
पर तुम्हारे
भाग्य को कैसे
जोड़ लूं?'
मैंने
कहा,
ऐसा काम
करो। तुम
इसमें से
कितना पैसा दान
कर दोगे, वह
तुम मुझसे कह
दो। फिर पक्का
मिलना है।
खुशी
में उन्होंने
कहा,
आधा दान कर
दूंगा। एक लाख
की संभावना
है। पचास हजार
दान कर
दूंगा।
मैंने
कहा,
पक्का हुआ!
यह पचास हजार
तुम मुझसे मत
पूछना कि
मैंने क्या
किये। यह मैं
इनको बांट
दूंगा। कहीं
भी कुछ भी
उपयोग हो
जायेगा।
इसमें मेरा
हिस्सा हो गया
पचास हजार का।
मैं
तो घर चला
गया। यह तो
मजाक की बात
थी। वे न्यारह
बजे रात करीब
घर आ गये।
दरवाजे पर
खटखट की।
गर्मी के दिन
थे। मैं ऊपर
छत पर सोया
था। मैंने
नीचे झांक कर
पूछा, क्या
मामला है? उन्होंने
कहा कि देखो, पचास बहुत
ज्यादा हो
जाएंगे!
पच्चीस से न
चलेगा?
अभी
कुछ मिले
नहीं! मैंने
कहा : तुम ठीक
से सोच लो; नहीं
तो रात तुम
फिर मुझे
जगाओगे।
पच्चीस में मैं
राजी हूं मगर
तुम ठीक से
सोच लो।
उन्होंने कहा
: अगर ऐसा ही है
तो ऐसा .है कि
पहली दफे मुझे
मिल रहा है।
सच तो यह है कि
पच्चीस भी
मुझे बहुत
कठिन पड़ेगा।
तो मैंने कहा
कि तुम पक्का
करके सुबह
मुझे बता
देना। जितना
तुम कहोगे, मैं राजी हो
जाऊंगा। मगर
अभी तुम कृपा
करो और जाओ।
सुबह
जब मैं निकला
उनके घर के
पास से तो
उनकी पत्नी ने
कहा कि वे रात
भर सो नहीं
सके। वे इसी उधेड़बुन
में पड़े हैं।
आपने भी कहां
की. एक पहेली
उनकी जान लिये
ले रही थी, आपने
और यह अपना
भाग्य जुड़वा
दिया! अब वे
इसमें पड़े
हैं! पहेली की
तो फिक्र ही
नहीं है। अब
तो फिक्र यह
है कि वह पैसा
कितना देना!
उठ—उठ कर बैठ
गये रात में, पूछने लगे
मुझसे. तेरा
क्या खयाल है?
मैंने
उनसे कहा कि
देखो, मैं
तुम्हें
मुक्त कर देता
हूं। तुम लाख
ही रखो। मगर
मेरा भाग्य
अलग हो जाता
है, फिर
तुम जानो।
उन्होंने कहा
: इस बार भर।
अगले महीने
जोड़ लूंगा
आपसे भाग्य।
इस महीने तो
ऐसा लग रहा है
कि बिलकुल
मिलने वाला
है।
आदमी
को जो नहीं
मिला है, उसके
साथ भी संबंध
बनाये हुए है;
उसके साथ भी
सुख—दुख जोड़ा
हुआ है। जो
मिला है उसके
साथ तो जोड़ा
हुआ ही है। और
मजा यह है कि
अज्ञानी दुख
ही. पाता है।
जो है उससे
दुख पाता है; जो नहीं है
उससे दुख पाता
है। अज्ञानी
के देखने का
ढंग ही ऐसा है
कि उससे दुख
ही निर्मित
होता है। वह
सुखी तो कभी
होता ही नहीं,
सुख की कला
ही उसे नहीं
आती।
यहां
अष्टावक्र
महा आनंद की
कला का सूत्र
दे रहे है। वे
कह रहे हैं.
प्राप्त और
अप्राप्त वस्तु
का उपभोग करता
है। जो मिला
है उसमें भी
आनंदित है; जो
नहीं मिला है
उसमें भी
आनंदित है।
दोनों में
आनंदित है।
मैंने
बार—बार तुम्हें
कहा है। एक
सूफी फकीर रोज
कहता था। हे
प्रभु, धन्यवाद!
मेरी जो जरूरत
होती है तू
सदा पूरी कर
देता है, तेरा
बड़ा अनुगृहीत
हूं! शिष्यों
को जंचती नहीं
थी यह बात, क्योंकि
कई बार
अनुगृहीत
होने का कोई
कारण ही न था।
उनको लगता था,
पुरानी आदत
हो गयी है के
की, कहे चला
जाता है।
एक
दिन तो ऐसा
हुआ कि
शिष्यों से
बर्दाश्त न हुआ।
तीन दिन से
भूखे थे. हज की
यात्रा पर जा रहे
थे। राह में
कोई भोजन देने
वाला न मिला।
जिन गांवों
में गये, वे
दूसरे
संप्रदाय के
गाव थे।
उन्होंने
इंकार कर दिया,
ठहरने भी न
दिया। भूखे
—प्यासे तीसरे
दिन एक वृक्ष
के नीचे बैठे
हैं। और सुबह
की जब उसने
नमाज पढ़ी, फकीर
ने, तो
उसने कहा. हे
प्रभु—उसी
प्रफुल्लता
से कहा—धन्यभाग,
हमारी जो भी
जरूरत होती है,
तू सदा पूरी
कर देता है।
फिर
शिष्यों से न
रहा गया।
उन्होंने कहा
: रुको, हर चीज
की सीमा होती
है। तीन दिन
से भूखे मर
रहे हैं; पानी
तक मुश्किल से
मिलता है।
छप्पर मिला
नहीं सोने को;
धूप में मर
रहे हैं; गर्मी
भारी है। रात
जंगल में सोना
पड़ता है, जंगली
जानवरों का डर
है। अब किस
बात का धन्यवाद
दे रहे हो? तीन
दिन से
भिखमंगे की
तरह भटक रहे
हैं और तुम्हें
धन्यवाद देने
की सूझी है! और
तुम कह रहे हो.
जो मेरी जरूरत
होती है, सदा
दे देता है!
वह
फकीर हंसने
लगा। उसने
कहा. पागलों, तीन
दिन से मेरी
यही जरूरत थी
कि भूखा रहूं
पानी न मिले, छप्पर न
मिले। जो मेरी
जरूरत है, वह
सदा पूरी कर
देता है। जो
वह पूरी करता
है, वही
मेरी जरूरत
होनी चाहिए।
उसमें, दोनों
में, भेद
ही नहीं है।
अगर तीन दिन
उसने भूखा रखा
तो मेरी जरूरत
न होती तो
क्यों रखता? कैसे रखता?
इस
बात को खयाल
में लो। शान
की जो गहरी से
गहरी दशा है, उसमें
ऐसा ही रस
बहता है। जो
है वह ठीक, जो
नहीं है वह भी
बिलकुल ठीक।
मिल जाये, वह
भी ठीक है; न
मिले, वह
भी ठीक है। वह
दोनों को भोग
लेता है, तुम
दोनों से चूक
जाते हो।
न
मिले, उसकी तो
बात छोड़ो; जो
मिल गया है, उससे चूके
जा रहे हो। जो
थाली
तुम्हारे
सामने परोसी
रखी है उसका
भी तुम्हें
स्वाद नहीं
मिल रहा है।
ज्ञानी उसका
भी स्वाद ले
लेता है जो थाली
कभी परोसी ही
नहीं गयी। वह
हर चीज का
स्वाद ले लेता
है। उसे स्वाद
लेने की कला आ
गयी है। उसके
पास कीमिया
है। उसके पास
एक जादू
है—जादू की
छड़ी है। वह हर
चीज को छूता
है और सोना हो
जाती है, जो
है वह तो हो ही
जाती है, जो
नहीं है वह भी
सोना हो जाती
है।
हम
तो रोते ही
रहते हैं—जो
पीछे छोड़ आये
उसके लिए..।
तुमने
देखा, किसी
आदमी ने बीस
साल पहले
तुम्हें गाली
दी थी, वह
अभी भी खटकती
है। किसी ने
अपमान कर दिया
था, वह अब
भी भारी है।
कोई नाराज हो
गया था, वह
चेहरा भूलता
नहीं, आंख
से हटता नहीं।
किसी से बदला
लेना चाहा था,
अभी भी मवाद
मौजूद है, घाव
हरा है। बरसों
बीत गये; पीछे
लौट—लौट कर
तुम फिर ताजा
कर लेते हो।
जो नहीं है अब,
अतीत तो जा
चुका, उसका
भी कष्ट भोग
रहे हो। हो
सकता है
दुश्मन मर
चुका हो, फिर
भी तुम पीड़ा
झेल रहे हो।
और भविष्य, जिसका
तुम्हारे हाथ
में कोई उपाय
नहीं है, उसके
हजार गणित
बिठा रहे हो, उनमें बेचैन
हो। और जो
मिला है अभी
वर्तमान के
क्षण में, वह
चूका जाता है।
छोड़
आये थे जिसे
हम खेत में
पक
गयी होगी
सुनहली धान
महकती
होगी हवा
घर—गांव की हर
देह
और
हसियों को छुआ
होगा कुंआरी
उंगलियों का
नेह
तोड़
आये थे जहां
हम बांसुरी
सिसकती
होगी अकेली
तान
डबडबायी
आंख में घुल
गया होगा छोह
खंडहर—सी
याद की पुर
गयी होगी
सांवली
मिट्टी तहा कर
खोह
जोड़
आये थे
जिन्हें हम
नाम से
पुल
हुए होंगे
अचीन्हें बाण
तोड़
आये थे जहां
हम बांसुरी
सिसकती
होगी अकेली
तान।
वे
तोड़ी
बांसुरिया
हैं अतीत की, लेकिन
तुम्हें लगता है,
अब भी वहां
स्वर सिसकता
होगा। वहा कुछ
भी नहीं है।
झेन
फकीर रिंझाई
अपने गुरु के
पास पहुंचा तो
गुरु ने जो
उससे पहली बात
पूछी, उसने
पूछा : तू किस
गांव से आता
है? तो
रिंझाई ने
अपने गांव का
नाम दिया कि
फला—फलां गांव
से आता हूं।
उसके गुरु ने
पूछा : वहां चावल
के दाम कितने
हैं? रिंझाई
हंसा और उसने
कहा : जिसे मैं
पीछे छोड़ आया
पीछे छोड़ आया,
और जो अभी
आया नहीं, आया
नहीं; मुझसे
अभी की बात
करो। गुरु
हंसने लगा।
उसने कहा :
तूने ठीक
किया। अगर तू
चावल के दाम
बता देता, निकाल
तुझे आश्रम के
बाहर कर देता।
ऐसे आदमी की
क्या जरूरत? जिस गांव को
छोड़ आया, वहा
चावल के क्या
दाम हैं, उनकी
याद रखे हुए
है! बात गयी सो
गयी, हुई
सो हुई।
हमें
पुल तोड़ देने
चाहिए। हमें
अतीत की सिसकती
हुई बांसुरियों
के स्वर नहीं
ढोने चाहिए।
और न ही हमें
भविष्य के
अजन्मे का
आग्रह रखना
चाहिए। जो है, है।
जो है वह भी, और जो नहीं
है वह भी। जो
उपस्थित है वह
भी और जो अनुपस्थित
है वह भी।
ज्ञानी
जो है उसे भोग
लेता है; जो
नहीं है, उसे
भी भोग लेता
है। बात के
कहने का कुल
इतना ही अर्थ
है कि ज्ञानी
भोगता और
अज्ञानी
सिर्फ रोता—झीखता
है। यह
तुम्हें बड़ी
उल्टी लगेगी
बात। तुम तो
साधारणत:
सोचते हो.
अज्ञानी का
नाम भोगी और ज्ञानी
का नाम
त्यागी। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं.
ज्ञानी ही
असली भोगी है।
अज्ञानी कहां
भोग पाता!
उसको क्यों
व्यर्थ भोगी
कहे चले जाते
हो? भोग की
आशा है; भोगा
कहां है २:
उपनिषद
कहते हैं : तेन
त्यक्तेन
भुजीथा:।
उन्होंने ही
भोगा
जिन्होंने
छोड़ा; उन्होंने
ही भोगा
जिन्होंने
त्यागा।
महावीर ने
भोगा; बुद्ध
ने भोगा; अष्टावक्र
ने भोगा; मुहम्मद
ने भोगा; जरथुस्त्र
ने भोगा।
जिनको तुम
भोगी कहते हो
उनको तो कृपा
करो, मत
कहो भोगी।
कहां भोग है? जीवन में
कोई तो रस
नहीं है। सब
रेगिस्तान है।
सब सूखा—सूखा
है। कहीं तो
कोई हरियाली
नहीं है। कहीं
तो कोई गान
नहीं। वीणा
छिड़ती कहां है? राग उठता
कहां है?
नाच कहां है? आंसू ही आंसू
हैं। इनको तुम
भोगी कहते हो?
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया और
उसने उनके सामने
हजारों रुपये
की ढेरी लगा
दी और कहा : यह आप
स्वीकार कर
लें।
रामकृष्ण ने
कहा : बड़ी मुश्किल
है। मैं
स्वीकार न कर
सकूंगा। तू
ऐसा कर, इन्हें
गंगा में फेंक
आ। उस आदमी ने
कहा. आप महात्यागी!
रामकृष्ण ने
कहा. यह झूठ
मत
बोल। त्यागी
तू है, भोगी हम
हैं। वह आदमी
बोला : हम समझे
नहीं। आप पहेली
बुझा रहे हैं!
रामकृष्ण ने
कहा : हमने
संसार छोड़ा और
परमात्मा
पाया। तुमने
परमात्मा
छोड़ा और संसार
पाया। इसमें
भोगी कौन है? इसमें
होशियार कौन
है? हमने
शाश्वत भोगा;
तुम
क्षणभंगुर
में मरे जा
रहे हो। भोग
कहां रहे हो? फांसी लगी
है। जरा मेरी
शक्ल देख, अपनी
शक्ल देख।
भोगी हम, त्यागी
तुम! परमात्मा
को छोड़ बैठे
हो, इससे
बड़ा त्यागी और
कोई मिलेगा
संसार में? सबको जिसने
छोड़ दिया और
क्षुद्र को
पकड़ लिया!
नहीं, ज्ञानी
भोग की कला
जानता है। जो
है और जो नहीं है...।
असंसक्तमना
नित्यं
प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते।
दोनों
को भोग लेता
है।
'शून्यचित्त
पुरुष समाधान
और असमाधान के,
हित और अहित
के विकल्प को
नहीं जानता
है। वह तो
कैवल्य जैसा
स्थित है।’
समाधानासमाधानहिताहितविकल्पना:।
शन्यचित्तो
न जानाति
कैवल्यमिव
संस्थित:।।
जो
अपने में ठहर
गया वह तो
मुक्त हो गया, स्थित
हो गया। जो
अपने में ठहर
गया वह शून्य
हो गया। और जो
शून्य हो गया
वही मोक्ष में
है; कैवल्य
जैसा स्थित
है। ऐसा
व्यक्ति न तो
समाधान जानता
है, न
असमाधान; न
तो कोई प्रश्न
उठते हैं, न
कोई उत्तर। न
तो कुछ हित है,
न कुछ अहित।
दर्पण जैसा जो
खड़ा है, उसे
क्या हित पू
क्या अहित?
जो होता है, झलकता रहता
है। कुछ नहीं
झलकता है तो
भी ठीक। कुछ
झलकता है तो
भी ठीक।
तुम
सोचते हो
दर्पण
प्रसन्न होता
होगा जब कोई सुंदर
स्त्री दर्पण
के सामने खड़ी
हो जाती है?
या दर्पण
अप्रसन्न
होता होगा जब
कोई कुरूप स्त्री
दर्पण के
सामने खड़ी हो
जाती है?
दर्पण को क्या
लेना—देना है? दर्पण का
क्या
बनता—बिगड़ता है? सुंदर हो या
कुरूप—दोनों
झलक जाते हैं।
दोनों के विदा
होने पर दर्पण
फिर खाली हो
जाता है। सच
तो यह है, जब
दर्पण में
प्रतिबिंब
बनता है, तब
भी दर्पण खाली
ही होता है।
प्रतिबिंब
में कुछ बनता
थोड़े ही है।
प्रतिबिंब तो
सिर्फ आभासमात्र
है।
साक्षीभाव
दर्पण की दशा
है—मुक्त, कैवल्य,
शांत! जो भी
होता है आसपास,
देखता रहता
है।’ भीतर
से गलित हो
गयी हैं सब
आशाएं जिसकी
और जो निश्चयपूर्वक
जानता है कि
कुछ भी नहीं
है—ऐसा ममता—रहित,
अहंकार—शून्य
पुरुष कर्म
करता हुआ भी
नहीं करता है।’
निर्ममो
निरहकारो न
किचिदिति
निश्चित:।
अंतर्गलित
सर्वाश:
कुर्वन्नपि
करोति न।
ऐसा
व्यक्ति सब
करता रहता है; जो
परमात्मा
करवाता, करता
रहता है; जो
परमात्मा
दर्पण के
सामने ले आता
है, उसका
प्रतिबिंब
बनाता रहता है;
लेकिन कुछ
करते हुए भी
कर्ता नहीं
होता। सब कुछ
करते हुए भी
कर्ता नहीं
होता।
कुर्वन्नपि
करोति न...।
करता
है,
फिर भी
कर्तृत्व का
भाव नहीं
होता।
उपकरणमात्र, निमित्तमात्र!
'जिसका मन
गलित हो गया
है और जिसके
मन के कर्म, मोह, स्वप्न
और जड़ता सब
समाप्त
हो
गये हैं, वह
पुरुष कैसी
अनिर्वचनीय
अवस्था को
प्राप्त होता
है।
मन:
प्रकांशसमोहस्वप्पजाड्यविवर्जित:।
दर्शा
कामपि
संप्राप्तो
भवेद्गलितमानस:।।
जिसका
मन गल
गया—गलितमानस:!
जिसकी
आकांक्षा न रही, वासना
न रही, कामना
न रही, जो
कुछ चाहता
नहीं, जो
है उसके साथ
परिपूर्ण
तृप्त है—ऐसे
व्यक्ति का मन
गल गया। ऐसा
व्यक्ति अ—मन
की दशा को उपलब्ध
हो गया, कबीर
ने जिसको 'अ—मनी
दशा' कहा
है। ऐसे
व्यक्ति के
सारे सम्मोहन,
सारे
स्वप्न, सारी
जड़ता समाप्त
हो गयी। ऐसा
व्यक्ति
स्वप्न नहीं
देखता है।
जिस
दिन तुम्हारे
भीतर सारे
स्वप्न
समाप्त हो
जाएंगे, जागते—सोते,
उस दिन
तुम्हारे
भीतर जो
निर्मल दशा
पैदा होगी, जिस दिन
तुम्हारे
भीतर एक भी
विचार का धुंआ
न उठेगा और
आकाश बादलों
से बिलकुल
खाली होगा, उस दिन
तुम्हारे
भीतर जो
कैवल्य की दशा
उत्पन्न
होगी...
अष्टावक्र
कहते हैं. वह
पुरुष कैसी अनिर्वचनीय
दशा को
प्राप्त होता
है! उस दशा का कोई
निर्वचन नहीं,
कोई
व्याख्या
नहीं। उस दशा
के लिए कोई
शब्द
नहीं—अतिक्रमण
कर जाती है सभी
शब्दों का।
भाषा असमर्थ
है उसे कहने
में, वाणी
नपुंसक है उसे
प्रगट करने
में। नहीं, उस गीत को
कभी गाया नहीं
गया है। बहुत
चेष्टा की गयी
है उसे कहने
की, उसे
नहीं कहा जा
सकता। उसे तो
सिर्फ हुआ जा
सकता है।
तुम
अगर उस
अनिर्वचनीय
दशा को जानना
चाहो तो चलो
साक्षीभाव
में। स्वाद से
ही जानोगे।
अनुभव से ही
प्रगट होगी।
और तुम अनुभव
के हकदार हो।
तुमने अब तक
अपना हक माया
नहीं, यह
तुम्हारी
जिम्मेवारी
है। तुम्हारे
भीतर मैं उस
दर्पण को
देखता हूं
निखालिस, अभी
मौजूद! तुम
जरा भीतर झांक
लो, वह
दर्पण
तुम्हें भी
दिखाई पड़ जाये,
तो तुम
अचानक पाओगे
रहते संसार
में संसार के
बाहर हो गये, प्राप्त को
तो भोगने ही
लगे, अप्राप्त
को भी भोगने
लगे, दृश्य
को तो भोगने
ही लगे, अदृश्य
के भी भोक्ता
हो गये। संसार
तो तुम्हारा
है ही, परमात्मा
भी तुम्हारा
हो गया। सब
तुम्हारा हो
गया! लेकिन सब
तुम्हारा तभी होता
है जब तुम
बिलकुल गलित
हो जाते हो, तुम बचते ही
नहीं।
यही
दुविधा है।
तुम जब तक हो, कुछ
भी तुम्हारा
नहीं; जब
तुम नहीं, तब
सब तुम्हारा।
वह
अनिर्वचनीय
दशा है—उपनिषद
जिसकी तरफ
दशारा करते
हैं, गीताए
जिसका गीत
गातीं, कुरान
जिस तरफ इंगित
करता, बाइबिल
जिस तरफ ले
चलने के लिए
मार्गदर्शिका
है, और
सारे
ज्ञानियों ने
उसी की यात्रा
पर तुम्हें, पुकारा है, चुनौती दी
है।
ये
जो अष्टावक्र
के सूत्र हैं, इन्हें
तुम ऐसा मत
समझ लेना कि
कुछ थोड़ी
जानकारी बढ़
गयी, समाप्त
हुई बात। नहीं,
इससे
तुम्हारा
जीवन बढ़े, जानकारी
नहीं, तुम्हारा
अस्तित्व बढ़े,
तो ही समझना
कि तुमने
सुना।
तुम्हारा
अस्तित्व
फैले। तुम
विराट हो, तुम्हें
उसकी याद आये।
यह सारा आकाश
तुम्हारा है :
तुम्हें उसकी
स्मृति आये।
तुम सम्राट हो।
उसका
बोधमात्र—और
सारा
भिखमंगापन
सदा के लिए समाप्त
हो जाता है।
बीच
जल में
कंपकपाती हैं
लौह
सांकल में
बंधी नावें!
एक
हमला रोज होता
है
काठ
की कमजोर
पीठों पर
घेरता
हर ओर से आ कर
एक
अजनबी भंवर का
डर
जल—महल
में थरथराती
हैं
पांव
पायल में बंधी
नावें!
नाव
का तो धर्म है
तिरना
है
जिसे रुकना
नहीं आता
रुक
गयी तो कापती
है खुद
चल
पड़ी तो नीर
थर्राता
मीन—सी
अब छटपटाती
हैं
जाल
से जल में
बंधी नावें!
तुमने
देखा, नाव
बंधी हो, जंजीर
से बंधी हो
किनारे से, लहर आती है
तो नाव थरथरा
जाती है! ऐसी
तुम्हारी दशा
है। बंधे हो
वासना की
जंजीर से, क्षुद्र
के किनारे से।
चल पड़ो तो
विराट
तुम्हारा। बंधे
रहो तो बस
किनारे की
दरिद्रता
तुम्हारी; चल
पड़ो तो सारा
सागर
तुम्हारा।
नाव
का तो है धर्म
तिरना
है
जिसे रुकना
नही आता
रुक
गयी तो कांपती
है खुद
चल
पड़ी तो नीर
थर्राता।
रुक
गये तो तुम
खुद कंपोगे।
चल पड़े तो
तुम्हारे कंपने
की. तो बात ही
क्या, सारा
अस्तित्व
तुम्हारे
चारों तरफ
कंपता रहे—तुम
निष्कंप बने
रहोगे।
तुम्हारे
चलने में, तुम्हारी
गति में, तुम्हारी
गत्यात्मकता
में, तुम्हारी
जीवंतता में
उपलब्धि है।
चुनौती
स्वीकार करो।
यह आवाहन है
विराट के शिखर
को छूने का।
और जब तक तुम्हारे
भीतर का
हिमालय, तुम्हारे
भीतर के
हिमालय के
शिखर अनजीते
पड़े हैं, तब
तक और सब जीत
व्यर्थ है।
वहीं जीतना
है! आत्मविजेता
बनना है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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