कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--10

जिंदगी नाम है रवानी का—प्रवचन—दसवां

प्रश्‍नसार:

1—लोग आपको धर्म—भ्रष्‍ट करनेवाला कहते है, विरोध करते है।
  उनके साथ कैसे जीया जाए?

2—जो कुछ मुझे मिला है, वह कम नहीं—
   फिर भी आखिर क्‍या पाकर मुझे संतोष होगा?

3—कागा सब तन खाइयो, चुन—चुन खाइयो मांस।
  दो नैना नहिं खाईयो, पिया मिलन की आस।।

4—आप न जाने गुरूदेव मेरे, मैं तुम्‍हें पुकारा करती हूं।
   एक बार ह्रदय में छेद करो,वह क्षण मैं निहारा करती हूं।।


पहला प्रश्न:

मेरे घरवाले तथा दूसरे भी आपको धर्म को भ्रष्ट करने वाला कहते हैं। लेकिन मेरा मन कहता हैः
परवरदिगार आलम तेरा ही है सहारा
तेरे बिना जहां में कोई नहीं हमारा।
किंतु यह तो मेरा मत हुआ। रहना तो उन लोगों के साथ है जो आपके विरोध में हैं। अतः कृपापूर्वक बताएं कि कैसे अपने सत्य की रक्षा करूं?

हली बात, घरवाले ठीक ही कहते हैं। उनसे नाराज मत होना। जिसे वे धर्म कहते हैं, उसे निश्चित ही मैं भ्रष्ट करता हूं। उनकी बात में कुछ भूल नहीं है। उनकी बात सीधी-साफ है। मेरे और उनके धर्म की परिभाषा अलग है। अगर तुम्हारी भी परिभाषा उनके धर्म की परिभाषा से अलग हो जाये, तो तुम नाराज न होओगे, तुम परेशान भी न होओगे। तुम्हारी परेशानी यह है कि तुम्हारी भी धर्म की परिभाषा वही है जो उनकी परिभाषा है। इसलिए उनकी बात चोट करती है, उनकी बात से पीड़ा होती है। तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं धर्म को नष्ट नहीं करता। तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं तो धर्म को, धर्म-चक्र को प्रवर्तित करता हूं। लेकिन धर्म के संबंध में तुम्हारी भूल है।
उन्होंने जो धर्म जाना है, वह है परंपरा का धर्म। मैं परंपरा के विपरीत हूं। क्योंकि मैंने जो धर्म जाना है, वह है नितनूतन, प्रतिक्षण नया, शाश्वत, लेकिन फिर भी नितनूतन। उन्होंने जो धर्म जाना है, वह शास्त्र से आता है। मैंने जो धर्म जाना है, वह स्वयं से आता है।
निश्चित ही, शास्त्र भी कभी स्वयं से आये थे। लेकिन वह घटना घटे बहुत देर हो गई। उस घटना पर बहुत राख जम गई समय की। उस घटना पर बहुत व्याख्याओं की पर्तें जम गईं। जब कृष्ण ने बोला था तो उन्होंने तो अंतस्थल से बोला था। लेकिन गीता पर तो बहुत धूल जम गई। गीता के तो बहुत अर्थ हो गए। इतने अर्थ हो गए कि अनर्थ हो गया।
इसलिए जिन्होंने शास्त्र में धर्म को जाना है, उन्हें तो लगेगा, मैं नष्ट करता हूं। क्योंकि मैं कहता हूं, शास्त्र से मुक्त हो जाओ। मेरी गीता में उत्सुकता नहीं, कृष्ण के चैतन्य में उत्सुकता है। गीता तो उस चैतन्य से निकला हुआ उच्छिष्ठ है। अगर होना ही है कुछ तो कृष्ण ही हो जाओ। लेकिन कृष्ण होने के लिए तो भीतर जाना पड़े। कृष्ण होने के लिए तो जीवन दांव पर लगाना पड़े। कृष्ण होने के लिए तो मरना पड़े, तो ही पुनर्जन्म हो, तो ही नया जीवन हो। वह तो सौदा महंगा है।
लोग सस्ता धर्म चाहते हैं। वे चाहते हैं, बिना कुछ किए मिल जाए; बिना कुछ किए धार्मिक होने का सुख मिलने लगे; बिना कुछ किए अहंकार पर धर्म भी आभूषण की तरह सजावट दे, शृंगार दे।
मैं जो धर्म की बात कर रहा हूं, वह तुम्हें जलाएगा, गलाएगा, मिटाएगा। यह सिर्फ थोड़े से लोगों के लिए हो सकता है।
भीड़ सदा ही शास्त्र को मानेगी। क्योंकि भीड़ इतनी हिम्मतवर भी नहीं है कि कह दे कि हम अधार्मिक हैं, कह दे कि हम नास्तिक हैं। और इतनी हिम्मतवर भी नहीं है कि सत्य को स्वयं खोजने की यात्रा पर निकले। भीड़ समझौतावादी है। भीड़ कहती है, हम धार्मिक हैं। लेकिन धर्म ऐसा मरा लाश की तरह कि उससे दुर्गंध उठती है, कोई सुगंध नहीं उठती।
निश्चित ही मैं कहता हूं, इस लाश को फेंको। क्योंकि इस लाश के कारण तुम मरे जा रहे हो। लाश के साथ रहोगे तो मरोगे। जो जिसके साथ रहेगा, वैसा हो जाता है। अगर तुम शास्त्र के साथ रहोगे तो धीरे-धीरे शब्द ही शब्द रह जायेंगे, सत्य खो जाएगा। अगर तुम अतीत की परंपरा के पीछे ही चलते रहोगे, तुम्हारी आंखें धीरे-धीरे अंधी हो जाएंगी; उनके उपयोग की जरूरत ही न होगी। तुम सदा किसी के पीछे चलोगे।
जो अपने पैरों से चलता है, जो खुद खोजता है, जो खुद खोजने का खतरा लेता है, उसकी आंखें सजग होती हैं। वह जागने लगता है। प्र्रतिपल चुनौती होती है। उसी चुनौती में आविष्कार होता है।
जो परिवार के लोग, पास-पड़ोस के लोग, तुम्हारे मित्र, प्रियजन, जिसे धर्म कहते हैं, वह संप्रदाय है--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन। मैं जिस धर्म की बात कर रहा हूं, वह न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है। मैं उस धर्म की बात कर रहा हूं, उस अंगारे की, जो बुझकर कभी ईसाई हो गया, बुझकर कभी हिंदू हो गया, बुझकर कभी जैन हो गया। लेकिन ये बुझे हुए अंगारे हैं, राख के ढेर हैं।
मैं उस धर्म की बात कर रहा हूं, जो जीवंत है। लेकिन जीते हुए अंगारे को हाथ पर लेना, जीते हुए अंगारे को हृदय पर लेना तो थोड़े से दुस्साहसियों का काम है। भीड़ वैसा न कर सकेगी। तुम भीड़ से वैसी अपेक्षा भी न करना।
वे ठीक ही कहते हैं। जब वे ऐसा कहते हैं तो वे अपनी रक्षा कर रहे हैं। तुम्हारे कारण खतरा पैदा हो गया। तुम्हारे कारण उनके जीवन में पहली दफा खलल पड़ा। तुम्हारे कारण तरंगें पैदा हुई हैं, उन्हें सोचने को मजबूर होना पड़ा है।
वे सब तरह से झंझट करेंगे। वे सब तरह से तुम्हें गलत सिद्ध करने की कोशिश करेंगे। तुम्हें गलत सिद्ध करने में उनकी उत्सुकता नहीं है; उनकी उत्सुकता यह है कि "हमारी सुरक्षा तो मत छीनो। हम तो अब तक सोचते थे कि शास्त्र में धर्म है, तुम कहते हो नहीं है, तो तुम हमारे पैर के नीचे की भूमि खींचे ले रहे हो। हमारा क्या होगा?'
जब लोग विरोध करते हैं तो विरोध में उनका रस नहीं है, आत्मरक्षा कर रहे हैं वे। तुम उन पर दया करना। उनका आक्रमण, उनकी आत्मरक्षा का उपाय है। वे कहेंगे यह व्यक्ति धर्म भ्रष्ट करता है। ऐसा कहेंगे, ऐसा मानेंगे, तो मेरे पास आने से बच सकेंगे। ऐसा न कहेंगे, न मानेंगे तो फिर किसी दिन मेरे पास आना पड़े। वह सौदा करने की अभी उनकी तैयारी नहीं है।
तो पहली तो बात, वे ठीक ही कहते हैं। मैंने तुम्हें धर्म की नई परिभाषा देनी शुरू की है। तुम उसे समझो। मैं तुम्हें हिंदू नहीं बना रहा हूं, मुसलमान नहीं बना रहा हूं, ईसाई नहीं बना रहा हूं--मैं तुम्हें सिर्फ धार्मिक बना रहा हूं। मैं तुम्हें कोई मंदिर, मस्जिद नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें आत्म-रूपांतरण की प्रक्रिया दे रहा हूं। मैं तुम्हें परमात्मा से सीधा जोड़ना चाहता हूं। बीच में कोई मध्यस्थ नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मैं देखता हूं कि मध्यस्थ पहुंचानेवाले तो सिद्ध नहीं होते, रोकनेवाले सिद्ध हो जाते हैं। जिनको तुम बीच में ले लेते हो, वे ही दीवारें बन जाते हैं।
मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बना रहा हूं, क्योंकि सब ज्ञान अहंकार को भर देते हैं। मैं तुम्हें त्यागी नहीं बना रहा हूं, क्योंकि त्याग भी बड़े सूक्ष्म अहंकार को जन्माता है। मैं तुम्हें सरल, सीधा, साफ प्रामाणिक बना रहा हूं। मैं तुम से कह रहा हूं, आदमी हो जाना काफी है। अगर तुम आदमी ही हो जाओ तो परमात्मा आ जाए। इतना काफी है कि तुम सरल हो जाओ, सीधे-साफ हो जाओ। तुम जीवन जैसा तुम्हें मिला है, उसे अंगीकार कर लो। और जीवन तुम्हें जो अनुभव देने के लिए द्वार खोला है, उन अनुभवों से गुजर जाओ, क्योंकि उससे बड़ा कोई और विश्वविद्यालय नहीं है।
सबसे बड़ा विश्वविद्यालय अनुभव है
पर इसकी देनी पड़ती है फीस बड़ी।
लोग सस्ता अनुभव चाहते हैं, उधार चाहते हैं, कोई दे दे, खुद न लेना पड़े, खुद न गुजरना पड़े आग से। लेकिन न तो तुम्हारे लिए कोई जी सकता है, न तुम्हारे लिए कोई प्रेम कर सकता है, न तुम्हारी जगह कोई मर सकता है--तो तुम्हारी जगह कोई सत्य का अनुभव कैसे ले सकता है?
निजी है जीवन में जो भी श्रेष्ठ है। संप्रदाय का अर्थ होता है: भीड़। संप्रदाय का अर्थ होता है: संगठन। परमात्मा से भीड़ का और संगठन का कुछ लेना-देना नहीं। परमात्मा से संबंध हमारा निजी है, वैयक्तिक है। एक-एक जाता है उसकी तरफ, अकेला-अकेला जाता है। और जब भी कोई जाता है तो भीड़ को छोड़कर जाना पड़ता है; क्योंकि भीड़ चलती है राजपथ पर, चौड़े सीमेंट-पटे पथ पर, सुरक्षित। और परमात्मा बड़ा जंगली है। परमात्मा अभी भी सभ्य नहीं हुआ, सौभाग्य है कि सभ्य नहीं हुआ। परमात्मा अभी भी सरल और प्राकृतिक है।
तो जिसे परमात्मा को खोजना है उसे सरल और प्राकृतिक होना पड़ता है। उसे उतरना पड़ता है राजपथ से, अपनी पगडंडी खोजनी पड़ती है झाड़-झंखाड़ में, कंाटों-भरे रास्ते पर। न कोई मार्गदर्शक, न कोई हाथ में नक्शा, न कोई किताब--अकेले, सिर्फ जीवन पर भरोसा!
मैं तुम्हें जीवन पर भरोसा दे रहा हूं और सारे भरोसे छीन रहा हूं। तुम्हारे और सारे भरोसों ने तुम्हें नपुंसक बना दिया है। तुम्हारा आत्मविश्वास खो गया है। जीवन पर तुम्हारी श्रद्धा खो गई है।
मैं कहता हूं, एक ही श्रद्धा करने योग्य है और वह जीवन की श्रद्धा है। तुम यह मानकर चलो कि जिसने तुम्हें जन्माया है, जो तुम्हारे भीतर जन्मा है, वह तुम्हें मंजिल की तरफ भी ले जाएगा। तुम सुनो उसकी, गुनो उसकी। डरो मत। भीड़ को मत पकड़ो। जो तुम्हें यहां तक ले आया है, वह वहां भी पहुंचा देगा। लेकिन डर के कारण हम भीड़ से चिपटते हैं। अगर तुम हिंदू नहीं हो, जैन नहीं हो, मुसलमान नहीं हो तो तुम्हें डर लगेगा, तुम हो कौन! कोई सहारा चाहिए, कोई नाम-पट चाहिए, कोई व्याख्या-परिभाषा चाहिए। हिंदू होने से लगता है, मैं कुछ हूं। मुसलमान होने से लगता है, मैं कुछ हूं। शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय होने से लगता है, मैं कुछ हूं। त्याग किया, मंदिर गए, पूजा की--लगता है, मैं कुछ हूं।
मैं तुम्हें यहां सिखा रहा हूं कि तुम कुछ भी नहीं हो, परमात्मा है। तुम हो ही नहीं, तुम जगह दो। तुम जगह खाली करो। तुम सिंहासन पर बहुत बैठ चुके हो, उतरो। तो मेरी पुकार तो केवल उनके लिए है, जो अतिदुस्साहसी होंगे। धर्म आत्यंतिक साहस है--कमजोरों का रास्ता नहीं। इसलिए कमजोर धर्म के नाम पर भी राजनीति चलाते हैं। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, ईसाई हैं, ये सब राजनीतियां हैं। नाम धर्म के हैं; पताकाएं धर्म की हैं--भीतर राजनीति है। चर्च हैं, मंदिर हैं, पुजारी हैं, पंडे-पुरोहित हैं--बातें धर्म की हैं; भीतर अगर थोड़ा गहरे उतरोगे, राजनीति पाओगे। संसार की दौड़ है, पद की, प्रतिष्ठा की, संपदा की, साम्राज्य की। ईसाइयत चाहती है, सारे संसार पर छा जाए। परमात्मा पाने में उतना रस नहीं है, जितना संसार पर छाने में रस है। इस्लाम चाहता है, सारी दुनिया को मुसलमान बना ले। तलवार के बल तो तलवार के बल सही। चाहे काटने पड़ें लोग, लेकिन उनके हित में उन्हें काटना ही पड़ेगा! जलाने पड़ें गांव, बस्तियां उजाड़नी पड़ें; लेकिन आदमी को मुसलमान बनाना ही पड़ेगा!
यह क्या पागलपन है? आदमी आदमी होने से पर्याप्त है। उसे हिंदू और मुसलमान और ईसाई बनाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन सब राजनीतियां हैं।
इधर हिंदू परेशान रहते हैं। मेरे पास आ जाते हैं लोग। वे कहते हैं, "आप कुछ करिए! ईसाई मिशनरी हिंदुओं को ईसाई बना रहे हैं।' मैं उनसे कहता हूं, अगर वे जितने अच्छे आदमी पहले थे उससे अच्छे आदमी ईसाई होकर हो रहे हैं, तो क्या हर्जा है? हां, अगर जैसे पहले थे, उससे बुरे हो रहे हैं तो कुछ करें। अगर वे वैसे के वैसे ही रह रहे हैं, जैसे हिंदू थे वैसे ईसाई होकर रहेंगे, तो क्या चिंता है? होने दो! इससे क्या फर्क पड़ता है?
नहीं, लेकिन वे कहते हैं, फर्क पड़ता है, हमारी संख्या कम होती जाती है। संख्या कम होती है तो राजनीति में बल कम होता चला जाता है। संख्या कम होती है तो मत कम हो जाते हैं। अगर ऐसा ही होता रहा तो ईसाइयों का राज्य हो जाएगा। गौर से देखो तो धर्म के भीतर तुम राजनीति छुपी पाओगे। हिंदू कहता है, हिंदू धर्म को बचाना है। धर्म से कुछ लेना देना नहीं--हिंदू राजनीति को बचाना है! ईसाई कहता है, ईसाइयत को फैलाना है। ईसाइयत से क्या लेना देना है? ईसा से क्या ईसाइयत का संबंध रहा है! वह यह कह रहा है, अपनी राजनीति को फैलाना है, अपने साम्राज्य को, शक्ति को फैलाना है। कोई भी बहाना हो, आदमी राजनीति में डूबा है।
ध्यान रखना, जहां तुम्हारा भीड़ में रस हुआ, वहां राजनीति आई। तुम अपने में रस लो। धर्म नितांत वैयक्तिक घटना है। परमात्मा घटेगा तुम्हारे अंतर्तम में, तुम्हारे एकांत में। किसी को कानों-कान खबर भी न होगी। तुम्हारी पत्नी भी पास होगी, उसे भी पता न चलेगा। तुम्हारे बेटे को पता न चलेगा, जो तुम्हारा ही खून, हड्डी, मांस का हिस्सा है।
धर्म जब घटता है तो नितांत वैयक्तिक है। राजनीति सामूहिक है। जहां धर्म समूह बनता है, वहां राजनीति हो जाती है। मेरी राजनीति में कोई उत्सुकता नहीं। मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है, समूहों में नहीं।
यहां भी तुम बैठे हो, तो मैं एक-एक से बात कर रहा हूं, समूह से नहीं। मेरी नजर तुम पर है--एक-एक पर। तुम्हारी भीड़ से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि "सत्य साईंबाबा की सभा में हजारों लोग होते हैं। पांडूरंग महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। डोंगरे जी महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। आपकी सभा में थोड़े-से लोग क्यों होते हैं?'
मैं आश्चर्यचकित होता हूं कि इतने भी क्यों हैं! इतने भी होने नहीं चाहिए हिसाब से। जो मैं कह रहा हूं वह इतनों को भी पट जाता है, यह भी आश्चर्य की बात है। और ऐसा नहीं है कि भीड़ मेरे पास नहीं थी। भीड़ मेरे पास भी थी। मैंने सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए। वे हजारों लोग मेरे पास भी थे। लेकिन मैंने पाया, वह हजारों लोगों का मनोरंजन होगा। उनके जीवन में कोई क्रांति की आकांक्षा न थी। जलसा था, तमाशा था। क्रांति की आकांक्षा भीड़ में नहीं है। भीड़ को मैंने छोड़ा। अब तो हर तरह के मैंने उपाय किए हैं कि भीड़ का आदमी पहुंच ही न पाए। सब तरह के द्वार-दरवाजे बिठा दिए कि भीड़ को आने ही न दिया जाए। वे ही थोड़े-से लोग जो सच में रूपांतरित होना चाहते हैं, मेरे पास तक पहुंच पाएं। अन्यों में मेरा रस नहीं है।
इसलिए इतने तुम हो यहां, यह चमत्कार है। तुम गणित के सब नियमों को तोड़कर यहां हो।
भीड़ को इकट्ठा कर लेने से सस्ता कोई काम दुनिया में और है? भीड़ की मूढ़ता को समझो। जहां भीड़ है वहां एक बात पक्की हो जाती है कि कुछ गलत चल रहा होगा। ठीक के साथ तो भीड़ हो ही नहीं पाती। इतने लोग कहां कि जहां ठीक चलता हो वहां भीड़ हो जाए? इतने आदमी कहां? नाममात्र के आदमी हैं। रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। एक-दूसरे को गाली-गुफ्ता कर रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। हजार जरूरी काम छोड़कर वहां खड़े हो जाते हैं। इस भीड़ को इकट्ठा करके भी क्या होगा?
लेकिन राजनीतिज्ञ इसी भीड़ में उत्सुक हैं। और जिन्हें तुम धर्मगुरु कहते हो, वे भी इसी भीड़ में उत्सुक हैं; क्योंकि भीड़ में बल है। जितनी बड़ी भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होती है, उतने तुम बलशाली हो जाते हो। लेकिन बलशाली होने की आकांक्षा तो अहंकार की ही यात्रा है।
निर्बल के बल राम। मैं तो तुम्हें सिखाता हूं: निर्बल हो जाओ। कोई ताकत तुम्हारे पास न हो, न पद की, न धन की, न मत की। कोई सहारा तुम्हारे पास न हो, तुम बिलकुल बे-सहारे हो जाओ। जब तुम बिलकुल बे-सहारे हो तब तुम्हें परमात्मा का सहारा मिलता है। जब तक तुम्हारा अपना कोई सहारा है, परमात्मा को सहारा देने की जरूरत भी नहीं है।
सुना है मैंने, कृष्ण भोजन को बैठे हैं बैकुंठ में। अचानक बीच थाली से उठ पड़े। भागे द्वार की तरफ। रुकमणि ने कहा, "कहां जाते हैं?' लेकिन इतनी जल्दी में थे, जैसे घर में आग लग गई हो, कि उत्तर भी न दिया; लेकिन फिर द्वार पर रुक गए, वापिस लौट आए। कुछ उदास मालूम पड़े। रुकमणि ने पूछा, "क्या हुआ? कुछ समझ में न पड़ा। अचानक भागे। कौर भी जो हाथ में लिया था, पूरा न लिया, उसे भी छोड़ दिया। मैंने पूछा तो जवाब न दिया। फिर लौट क्यों आए?'
कृष्ण ने कहा, "मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा है। मेरा एक फकीर एकतारा बजाता, गीत गाता। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे हैं। लहूलुहान, खून उसके माथे से बह रहा है। लेकिन उसका गीत बंद नहीं होता। वह कृष्ण और कृष्ण की धुन लगाए जाता है। जाना जरूरी हो गया। इतना असहाय, उत्तर भी नहीं देता! पत्थर भी नहीं उठाता। वीणा भी बजे जा रही है। वह गीत भी गुनगुनाए जा रहा है, खून भी बहा जा रहा है। जिसने इतना मुझ पर छोड़ा, मैं बैठकर भोजन करूं? तो भागा।'
रुकमणि ने कहा, "ठीक! यह समझ में आता है। यह गणित साफ है। फिर लौट क्यों आए?' कृष्ण ने कहा, "जाने की जरूरत न रही। जब तक मैं द्वार तक पहुंचा, उसने एकतारा तो फेंक दिया है, पत्थर उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर दे रहा है; अब मुझे कुछ उत्तर देने की जरूरत न रही।'
धार्मिक व्यक्ति अपने को असहाय करता जाता है। असहाय हो जाने में ही उसकी पूजा, उसकी प्रार्थना है। वह धीरे-धीरे अपने सब सहारे तोड़ता जाता है। वह अपने को एक ऐसे सागर में छोड़ देता है एक दिन, न नाव, न कोई कूल, न कोई किनारा! उस घड़ी में ही परम आलंबन मिलता है। उस घड़ी में ही प्रभु का हाथ तुम्हारी तरफ आता है। उसका अर्थ यह हुआ...जब तुमने सब अपने सहारे छोड़ दिए, उसका अर्थ यह हुआ कि अब तुम्हें भरोसा आया, अब तुम्हें श्रद्धा हुई। इसके पहले तुम्हारी श्रद्धा अपनी चीजों पर थी। धन पर थी, पद पर थी, मत पर थी, भीड़ पर थी, राज पर थी। तुम्हारी कोई श्रद्धा और थी। लेकिन जिस दिन तुमने अपनी और सारी श्रद्धाएं छोड़ दीं, उसी दिन उस परमशून्य में, उस श्रद्धा का जन्म होता है जिसको धर्म कहें। उस दिन परमात्मा के सिवाय तुम्हारा कोई सहारा न रहा। उस दिन उसी घड़ी में, वह महाक्रांति घटती है। उसी घड़ी में तुम उठा लिए जाते हो। उसी घड़ी में तुम्हारे भीतर जो कूड़ा-कर्कट है, जल जाता है; जो सोना है निखर जाता है।
इसलिए भीड़ में मेरी उत्सुकता नहीं है। धर्म मेरे लिए अभिजात्य है, अरिस्टोक्रेटिक है। भीड़ का उससे कुछ लेना-देना नहीं है। कभी-कभी कोई आदमी इतने अभिजात्य को उपलब्ध होता है, ऐसी अंतर्तम की अरिस्टोक्रेसी को...!
तुम समझो इसे। कोई कवि है। जितना श्रेष्ठतर कवि होगा, उतने ही कम लोग उसे सुनने जाएंगे। क्योंकि ज्यादा लोग सुनने तभी आ सकते हैं जब वह निकृष्ट हो, जब वह नीचा हो; जब वह उन्हीं की भाषा में बोल रहा हो जिस भाषा में लोग समझ सकते हैं; जब वह उन्हीं मनोवेगों को छेड़ रहा हो जिनको लोग समझ सकते हैं; जब वह कामवासना के गीत गा रहा हो। जहां लोग हैं, जब उसकी कविता भी वहीं हो, तभी लोग उसे समझ पाएंगे; तभी लोग आंदोलित होंगे।
उपन्यास वही बिकेगा जो अत्यंत सस्ता से सस्ता हो; दाम में ही नहीं, जिसकी आत्मा ही सस्ती हो, जिसमें कुछ भी न हो विशेष। गीत वही गुनगुनाया जायेगा जो जितना क्षुद्र, निम्न हो, जितने नीचे तल पर पुकार हो। संगीत भी वही सुना जाएगा जिसमें आदमी की क्षुद्र वासनाओं की संतुष्टि हो। फिल्म भी वही चलेगी। फिल्म भी वही चलेगी जो लोगों की कामवासना को थिरकाती हो। हिंसा हो, कामवासना हो, हत्या हो, तो फिल्म चलेगी, तो लोग खिंचे हुए चले जाएंगे। अब किसी फिल्म में समाधि का दर्शन हो, कौन जाएगा? बुद्ध बैठे रहें, बैठे रहें वृक्ष के तले, समाधि के फूल खिलें--कौन जाएगा? लोग ऊब जाएंगे। लोग बीच फिल्म में झगड़ा-फसाद करने को खड़े हो जाएंगे, कि न मार-काट, न कोई हत्या, न कोई सनसनीखेज बात--यह मामला क्या है?
ऐसा हुआ है! सेमुअल बेकेट ने एक फिल्म बनाई। अनूठा आदमी था। छोटी-छोटी किताबें उसने लिखी हैं, बड़ी-बड़ी गहन-गंभीर! उसने एक फिल्म भी बनाई। उस फिल्म में कुछ भी नहीं है। एक आदमी घर लौटता है--कई वर्षों के बाद। घर भी खंडहर जैसा हो गया है। पत्नी कहां गई, पता नहीं। बच्चे कहां गए, पता नहीं। उसका आना, घर में उसका प्रवेश, अतीत को खोजती उसकी आंखें! द्वार पर, दीवार पर, चित्र पर, केलेंडर पर, फर्नीचर पर--सारा अतीत उसका छाया है। वह खोया है, स्तब्ध खड़ा है। वह एक-एक चीज को उठाकर देखने लगता है। एक शब्द नहीं बोला जाता, सिर्फ उसकी श्वास बढ़ने लगती है। वह घबड़ा गया है। यह सारा अतीत है उसका। और सब सूत्र खो गए हैं। कहां है बेटा, कहां पत्नी--कुछ भी पता नहीं है। यह भी कुछ कहा नहीं जाता; यह भी देखनेवाले को समझना है। अभी तक एक शब्द बोला ही नहीं गया है--सिर्फ उसकी बढ़ती हुई सांस की आवाज है। वह एक-एक चीज को उठाता है, आंख से आंसू बहने लगते हैं। सिसकियां आ जाती हैं। उसके रोने की आवाज और गहन अंधकार हो जाता है। फिल्म खतम हो जाती है।
जहां चली, वहीं झगड़े हो गए। वहीं लोगों ने कुर्सियां तोड़ डालीं, पर्दे तोड़ डाले। लोगों ने कहा, "यह धोखा है। यह कोई फिल्म है?'
बड़ा सूक्ष्म चित्रण है। कुछ ऐसे भावों को उसकी आंखों से प्रगट किया है जो शब्दों में नहीं कहे जा सकते। उसके उठने में, बैठने में, उसकी श्वास की बढ़ती हुई आवाज में, उसकी आंखों से टपकते हुए टप-टप आंसुओं में, फिर अंधेरे में खो गई उसकी सिसकियों में--आदमी की पूरी जिंदगी है। यही तो जिंदगी है।
एक दिन तुम भी तो यही पाओगे कि जहां सब बसाया था वहां सिर्फ खंडहर है। बेटे भी खो गए, पत्नी भी खो गई, पति भी खो गये--सब खो गये। अकेला रह जाता है आदमी। सांस की आवाज बढ़ती जाती है और टूट जाती है। अंधेरा! मौत! सिसकियां! हाथ खाली के खाली! और है क्या जिंदगी में? सारी जिंदगी को उसमें रख दिया है; लेकिन कहीं भी फिल्म चल न सकी। और जहां भी चली वहीं उपद्रव हुआ। जनता ने कहा, पैसे वापस!
नहीं, भीड़ को एकत्रित करना हो तो निकृष्ट होना जरूरी है। सत्य साईंबाबा के पास भीड़ इकट्ठी होगी; क्योंकि तुम्हारी जो क्षुद्रतम आकांक्षाएं हैं उनकी तृप्ति का भरोसा है। भरोसा दिया जा रहा है, आश्वासन दिया जा रहा है। किसी को मुकदमा जीतना है। किसी को सुंदर पत्नी पानी है। किसी को धन कमाना है। किसी को बीमारी मिटानी है। आदमी की जो सामान्य जीवन की चिंताएं हैं...तो सत्य साईंबाबा के पास लगता है कि पूरी होंगी। चमत्कार घटते हैं। स्विस घड़ियां हाथ में आ जाती हैं। सूने आकाश से राख आ जाती है। वस्तुएं निकल आती हैं। तो जो आदमी ऐसा चमत्कारी है उससे आशा बंधती है कि जो शून्य से घड़ियां निकाल देता है, उसे क्या असंभव है! अगर उसकी कृपा हो जाए तो तुम्हारे ऊपर धन भी बरस सकता है। अगर उसकी कृपा हो जाए तो तुम मुकदमा भी जीत सकते हो। अगर उसकी कृपा हो जाए तो तुम्हारी बीमारी भी दूर हो सकती है। यह आश्वासन जगता है। यह मदारीगिरी है; तुम्हारे भीतर वह जो छुपी हुई वासनाएं हैं, उनको सुगबुगाती है।
स्वभावतः भीड़ इकट्ठी हो जाती है। क्योंकि भीड़ बीमारों की है। भीड़ अदालतबाजों की है। भीड़ धन के पागल प्रेमियों की है। भीड़ पद के आकांक्षियों की है। तो राजनेता भी पहुंच जाता है चरण छूने, क्योंकि मुकदमा उसको भी लड़ना है, चुनाव उसको भी जीतना है। कोई आशीर्वाद, ईश्वर का भी सहारा मिल जाए उसे। वह भी ताबीज ले आता है। वह भी भभूत ले आता है, संभालकर रख लेता है।
दिल्ली में ऐसा एक भी राजनीतिज्ञ नहीं है, जिसका गुरु न हो। और जब कोई राजनीतिज्ञ जीत जाता है, तब तो भूल भी जाए; लेकिन जब हार जाता है तो गुरुओं के चरणों में जाने लगता है। कहीं से कोई आशा की किरण...।
स्वभावतः मेरे पास तुम किसलिए आओगे?
न मैं तुम्हारी बीमारी दूर करूंगा, न मैं तुम्हें मुकदमे जिताऊंगा, न तुम्हारे लिए सुंदर पत्नियों की तलाश करूंगा, न तुम्हारे लिए धन का आयोजन करनेवाला हूं--उलटे तुम्हारे पास जो होगा वह भी ले लूंगा।
यहां तो तुम्हें कुछ छोड़ना होगा। यहां तो थोड़े-से हिम्मतवरों का काम है। जो मिटने को राजी हों, उनके लिए मेरा निमंत्रण है। जिनको अभी जीवेषणा है, वे कहीं और जाएं। और ठीक है कि वे यहां न आएं, क्योंकि यहां वे व्यर्थ का उपद्रव करते हैं।
मेरे पास भी कभी-कभी इतने बंधनों के बाद भी लोग आ जाते हैं, इतने इंतजाम के बाद भी आ जाते हैं। कहते हैं कि ध्यान के संबंध में समझना है। लेकिन जब पूछने मेरे पास पहुंच जाते हैं, तो मैं उनसे कहता हूं, "सच में ही ध्यान के संबंध में समझना है?' अब वे कहते हैं, "अब आप से क्या छिपाना...सब तरह की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन दीनता नहीं मिटती, दारिद्रय नहीं मिटता। कुछ आशीर्वाद दे दें!'
आते हैं ध्यान को पूछने। शायद उन्हें भी साफ नहीं है कि उनकी जो अशांति है, वह अशांति ध्यान के लिए नहीं है, वह अशांति धन के लिए है। धन नहीं है, इसलिए अशांत हैं।
पूछते हैं मुझसे लोग कि "ध्यान करेंगे तो सफलता मिलेगी जीवन में?' जीवन की सफलता के लिए ध्यान को साधन बनाना चाहते हैं। ध्यान तो उनके लिए है जिन्होंने यह जान लिया कि जीवन का स्वभाव असफलता है--हारे को हरिनाम! जिन्होंने जान लिया है कि जीवन में तो हार ही हार है, यहां जीत होती ही नहीं!
मैं तुम्हें किसी तरह के धोखे देने में उत्सुक नहीं हूं। कोई कारण भी नहीं है कि तुम्हें धोखा दूं, क्योंकि भीड़ में मेरी कोई उत्सुकता नहीं है। मैं इधर अकेला हूं, तुम भी अगर अकेले होने के लिए राजी हो गए हो तो मेरे पास आओ।
तो ठीक ही है, लोग कहेंगे कि मैं धर्म को भ्रष्ट कर रहा हूं। और निश्चित ही मैं ऐसी बातें कह रहा हूं, कि जो धर्म समझा जाता रहा है वह भ्रष्ट होगा। वह होना चाहिए। वह धर्म नहीं है। जो बातें मैं कह रहा हूं, वे अजनबी हैं।
शरहे-फिराक मदहे-लबे-मुश्कबू करें
गुरबतकदे में किससे तेरी गुफ्तगू करें।
जैसे कोई परदेस में खो गया, जहां न कोई अपनी भाषा समझता है, न अपनी कोई शैली समझता है--वहां अगर तुम अपने प्रेमी की चर्चा करने लगो और अपने प्रेमी की जुदाई की बात करने लगो, कौन समझेगा? और वहां अगर तुम अपने प्रेयसी और प्रेमी के सुगंधित ओंठों का वर्णन करने लगो, महिमा का गान करने लगो, कौन समझेगा?
शरहे-फिराक मदहे-लबे-मुश्कबू करें
--किससे कहें अपने प्रेमी के सुगंधित ओंठों की बात! इस बिछुड़न में कैसे कहें!
गुरबतकदे में किससे तेरी गुफ्तगू करें!
--इस परदेस में किससे तेरी चर्चा करें!
तो मैं तो दीवानों की तलाश में हूं, जो इस चर्चा को समझ सकें। तुम्हारे कारण मैं नीचे उतरने को राजी नहीं हूं। हां, मेरे कारण तुम ऊपर चढ़ने को राजी हो तो मेरे द्वार खुले हैं। यह मेरा संगीत नीचे न उतरेगा, ताकि तुम जहां हो वहां तुम समझ सको। तुम्हें अगर मेरे संगीत को समझना है तो तुम्हें ही सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी और वहां आना होगा जहां मैं हूं।
दो ही उपाय हैं मेरे और तुम्हारे मिलने के। एक तो यह है कि मैं नीचे उतरूं, जो कि असंभव है; क्योंकि कोई कभी ऊपर जाकर नीचे नहीं उतर सकता। जो नीचे उतरा हुआ मालूम पड़े, वह नीचे होगा ही, ऊपर गया नहीं है।
दूसरा उपाय है कि तुम मेरी तरफ चढ़ो, मेरी बात तुम्हें पकड़ ले, मेरे शब्द तुम्हारे प्राणों को जकड़ लें, मेरी पुकार तुम्हें सुनाई पड़ जाये, तुम्हारी निद्रा में, तुम्हारे स्वप्न में थोड़ी खलल पड़ जाए, एक धागा भी तुम मेरे शब्दों का पकड़कर उठने लगो--तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम ऊपर उठोगे वैसे-वैसे मेरी बात साफ होगी। जैसे-जैसे तुम ऊपर उठोगे वैसे-वैसे तुम्हें लगेगा कि धर्म क्या है। अनुभव तुम्हारा गहरा होगा तो तुम पाओगे कि मैं धर्म के खिलाफ बोल रहा था, क्योंकि मैं धर्म के पक्ष में हूं; चूंकि मैं शास्त्र के खिलाफ बोल रहा था, क्योंकि मैं शास्त्र के पक्ष में हूं। लेकिन मैं जीवंत अनुभव तुम्हें देना चाहता था। राख पर मेरा भरोसा नहीं है। अंगारे मैं अपनी झोली में लिये बैठा हूं, जो भी जलने को राजी हों।
तो घर के लोग ठीक ही कहते हैं। उनसे बेचैन मत होना। उनसे विवाद मत करना। उनसे नाहक माथा-पच्ची मत करना। क्योंकि माथा-पच्ची में तुम व्यर्थ ही अपना समय गंवाओगे। कह देना कि हां ठीक कहते हैं आप; अब मैं क्या करूं, मैं पागल हो गया हूं। तुम पागल होकर अपने को बचा लेना। व्यर्थ के विवाद, व्यर्थ की चर्चा, व्यर्थ के सिद्धांतों के विश्लेषण--और इस सब में समय मत खोना। क्योंकि उनका तो कुछ न खोएगा--उनके पास कुछ भी नहीं है--तुम्हारा कुछ खो जाएगा। तुम्हारे पास कुछ है; या उतर रहा है। तुम्हारी एक-एक घड़ी बहुमूल्य है। तुम बाजार में खड़े होकर दुकानों पर चर्चा करने में मत समय व्यतीत करना। तुम्हारे पास ध्यान की संभावना है। तुम तो उनसे कह देना, आप ठीक कहते हैं, लेकिन कुछ हो गया, मैं पागल हो गया! वे तुम्हें पागल भी समझ लें तो कुछ हर्ज नहीं।
तुम मेरी आंखों की तरफ देखो! मैं तुम्हें क्या समझता हूं, इसकी फिक्र करो! और लोग तुम्हें क्या समझते हैं, इसकी चिंता छोड़ो! अगर तुम्हें मुझ पर थोड़ा भी भरोसा है तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम उस राह पर हो, जहां पागल हो जाना भी बुद्धिमानी है। और दूसरे लोग, जो तुमसे कह रहे हैं कि तुम गलत राह पर गए हो, समझदार रहकर भी सिर्फ बुद्धिहीनता कर रहे हैं। और उन्हें समझाने का एक ही उपाय है कि तुम बदलो। तुम्हारी क्रांति उन्हें छुएगी। तुम्हारे जीवन में उठी नई ऊर्जा उन्हें प्रभावित करेगी। तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा आनंद। तुम्हारा तर्क नहीं। तुम्हारे शब्द नहीं। तुम्हारा अस्तित्व। तुम कुछ ऐसे हो जाओ, जो मैं कह रहा हूं वैसे हो जाओ। फिर तुम देखना, वे खुद ही तुमसे पूछने लगेंगे, "कहां से यह तृप्ति आई?' अंधे थोड़े ही हैं वे लोग! वे भी आंखवाले हैं। हीरे दिखाई पड़ने लगें तो वे भी समझेंगे, कितनी देर न समझेंगे! तुम हीरा बनो! तुम्हारे भीतर चमक आए। वही तुम्हारा तर्क होगा।
मैं तुमसे शाब्दिक विवाद में पड़ने को नहीं कहता हूं। और तुम इसकी बिलकुल फिक्र मत करना कि तुम्हें मेरी रक्षा करनी है। मेरी रक्षा की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरा होना न होना, लोग क्या कहते हैं, इस पर निर्भर नहीं है। मैं हूं। वे पक्ष में हों कि विपक्ष में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे होने पर कोई रेखा नहीं पड़ती इससे। इसलिए तुम इसकी फिक्र ही मत करना।
मेरे शिष्यों को मुझे बचाने की चिंता ही नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जिस गुरु को बचाने के लिए शिष्यों को चेष्टा करनी पड़ती हो, वह गुरु ही नहीं। जो शिष्यों के आधार पर बचता हो, वह बचाने योग्य भी नहीं। तुम इसकी फिक्र छोड़ दो।
तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, वह मैं जानता हूं। जब तुम्हारे गुरु को कोई गाली देता है, तो तुम्हीं को गाली देता है परोक्ष से। जब कोई कहता है कि तुम्हारा गुरु धर्म भ्रष्ट करने वाला है, तो वह तुमसे यह कह रहा है कि तुम धर्म भ्रष्ट हो रहे हो। जब कोई कहता है, तुम्हारा गुरु गलत है, तो वह कहता है तुम गलत हो। तुम्हारे मन को चोट लगती है। शिष्य का मन होता है कि सारी दुनिया कहे कि तुम्हारा गुरु सबसे बड़ा गुरु! क्योंकि तुम सबसे बड़े गुरु के शिष्य हो, तो सबसे बड़े शिष्य हो गये! तुम्हारा अहंकार तृप्त होगा। लोग मेरी पूजा में थाल सजाएं, लोग मेरा गुणगान करें, तो तुम्हारा भी गुणगान उसमें छिपा होगा। तुम भी मेरे हो। मेरी पूजा अनजाने तुम्हारी भी पूजा होगी। यह अहंकार छोड़ो! यह बकवास बंद करो। यही तो चलता रहा है।
जैनों से पूछो तो महावीर सबसे ऊपर; किसी को महावीर के ऊपर नहीं रख सकते। ऊपर रखने की तो बात छोड़ो, महावीर के साथ भी नहीं रख सकते। कृष्ण को तो नर्क में डाल दिया है। राम संसारी हैं। बुद्ध से जरा अड़चन है, क्योंकि न तो बुद्ध संसारी हैं, न कृष्ण जैसे किसी युद्ध में खड़े हैं, न युद्ध करवाने वाले हैं--लेकिन फिर भी महावीर की ऊंचाई पर तो नहीं रख सकते! तो महावीर को "भगवान' कहते हैं, बुद्ध को "महात्मा' कहते हैं।
एक जैन विचारक मेरे पास आते थे। कहते हैं अपने आपको, सहिष्णु हूं, सभी धर्मों में समभाव रखता हूं। जैन हैं। उन्होंने एक किताब लिखी है। भगवान बुद्ध तो नहीं लिखा: महात्मा बुद्ध; और महावीर को "भगवान' लिखा। "भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।' किताब मेरे पास लाए, कहा कि "देखें, जैन हूं; लेकिन मेरा सदभाव सब की तरफ है।' तो मैंने कहा कि "सदभाव ही था, इतनी कंजूसी क्यों कर गए? इधर थोड़ी हिम्मत और बढ़ा लेते।'
महात्मा का अर्थ होता है: जो भगवान होने की तरफ जा रहा है, अभी पहुंचा नहीं । महात्मा का अर्थ होता है: जो अंतरमुखी है, अंतरात्मा की तरफ जा रहा है। भगवान का अर्थ होता है: जो पहुंच गया। तो उन्होंने कहा कि "वह तो ठीक है, लेकिन बुद्ध अभी महात्मा ही हैं, तो मैं क्या करूं?'
बौद्धों से पूछो, तो बौद्धों ने जो मिथ्या दृष्टियां गिनाई हैं, उनमें एक महावीर की दृष्टि भी है। बौद्धों ने बड़ा मजाक उड़ाया महावीर का। क्योंकि महावीर के शिष्य कहते थे कि महावीर सर्वज्ञ हैं, तीनों काल के ज्ञाता हैं। तो बौद्ध शास्त्रों में बड़ा मजाक उड़ाया है कि महावीर एक घर के सामने भीख मांग रहे हैं, और उन्हें यह भी पता नहीं कि घर में कोई नहीं है, घर खाली है। और त्रिकालज्ञ हैं, तीनों काल के ज्ञाता हैं और इतना भी पता नहीं है कि जिस घर के सामने भिक्षापात्र लिये खड़े हैं, वहां भीतर कोई भी नहीं। बाद में पता चलता है, घर खाली है। राह से गुजरते हैं, सुबह का अंधेरा है। राह पर सोए कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ जाता है। जब कुत्ता भौंकता है तब पता चलता है। त्रिकालज्ञ हैं!
बौद्ध मजाक उड़ा रहे हैं।
शिष्यों को हमेशा बड़ी तकलीफ होती है। शिष्यों की तकलीफ यह है कि हमारा गुरु श्रेष्ठतम होना ही चाहिए! नहीं तो हम चुनते? हम जैसे बुद्धिमान ने जिसे चुना, वह श्रेष्ठतम से कम हो सकता है, असंभव!
तुम जरा ध्यान रखना, जब कोई मुझे गाली दे, कोई मेरा खंडन करे, तब अपने अहंकार का खयाल रखना, वह भी सहयोग कर रहा है। वह भी तुम्हारे अहंकार को काट रहा है। उससे कहना, "काट! ठीक से काट।' वह मेरे खिलाफ कुछ कह रहा है या नहीं कह रहा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हें फर्क पड़ता है। तुम्हें अड़चन होती है। तुम लड़ने-मारने को, झगड़ने को उतारू हो जाते हो। तुम्हारे गुरु को कुछ कह दिया तो यह जीवन-मरण का सवाल हो गया।
देखना, यह सब अहंकार का सवाल है; जीवन-मरण का इससे कुछ लेना-देना नहीं। और यहां मेरी पूरी शिक्षा है कि अहंकार तोड़ देना है, गिरा देना है। तो ये भी तुम्हारे मित्र हैं। ये भी तुम्हारे अहंकार को तोड़ने के लिए साथ दे रहे हैं। इनको भी धन्यवाद देना।
तो जैसे-जैसे तुम शांत भाव से लोगों की बात सुनने लगोगे, उनकी बातें इतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ेंगी--सोये हुए लोगों की बकवास है। नींद में बड़बड़ा रहे हैं। अपना उन्हें पता नहीं है, तुम्हारा क्या पता होगा, मेरा क्या पता होगा? उनकी बात को ज्यादा मूल्य मत देना।
जिंदगी नाम है रवानी का
क्या थमेगा बहाव पानी का
जिंदगी है कि बेताल्लुक-सा
एक टुकड़ा किसी कहानी का।
--अप्रासांगिक, जैसे किसी कहानी का एक टुकड़ा उड़ता हुआ हवा में, कागज का एक टुकड़ा तुम्हारे हाथ लग जाये, उसे तुम पढ़ो, कुछ प्रारंभ का पता चले, न कुछ अंत का पता चले।
जिंदगी है कि बेताल्लुक-सा
एक टुकड़ा किसी कहानी का।
--अप्रासांगिक, लोग कहे जा रहे हैं। लोग बोले जा रहे हैं। लोग होश में नहीं हैं। तुम समय मत गंवाना। तुम हर घड़ी को अपना होश साधने में लगाना।
एक और मित्र ने पूछा है कि जब भी आपके पास आते हैं तो कुछ लोग हैं, वे कहते हैं, "वहां जाने से क्या फायदा? क्या मिलेगा वहां? वहां कुछ भी नहीं है। सत्य साईंबाबा के पास जाओ, अगर महिमा देखनी है।'
वे भी ठीक कहते हैं। यहां कुछ भी नहीं है। यहां मेरा सारा शिक्षण ही ना-कुछ होने के लिए है। वे बिलकुल ठीक कहते हैं। यहां तुम्हें देने का कोई सवाल ही नहीं है; तुम्हारे पास जो-जो होने की भ्रांति है, उसे भी खंडित करना है, तोड़ना है, मिटाना है; तुम्हें भी शून्य की तरफ ले आना है। इतना शून्य हो जाए तुम्हारे भीतर कि कहनेवाला भी कोई न बचे, देखनेवाला भी कोई न बचे तो ही समाधि फलित होगी।
वे बिलकुल ठीक कहते हैं। महिमा देखनी हो तो कहीं और जाना चाहिए। मैं कोई मदारी नहीं हूं। और तुम्हारी किन्हीं वासनाओं को तृप्त करने में मेरी कोई उत्सुकता नहीं है। तुम मुझे महिमावान समझो, ऐसी भी मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। तुम्हारी आंखों को मैं दर्पण नहीं बनाना चाहता, जिसमें मैं अपनी तस्वीर देखूं। मैंने अपने को देख लिया है, अब किसी दर्र्र्पण की मुझे कोई जरूरत नहीं है।
तो तुम जब मेरे पास आते हो तो यह जानकर ही आना कि खतरे में जा रहे हो। मरने जा रहे हो। क्योंकि जीवन का गहनतम राज मरने की कला में छिपा है।
प्राचीन शास्त्र कहते हैं: गुरु मृत्यु है। वे बिलकुल ठीक कहते हैं। कठोपनिषद में पिता ने अपने बेटे को यम के पास भेज दिया--वह गुरु के पास भेजा है। मृत्यु के पास भेजा। क्योंकि जब तक तुम मिटोगे न, तब तक तुम वह न हो सकोगे जो तुम्हें होना चाहिए। यह तुम जो अभी हो गए हो, यह जो गलत ढांचा तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठा हो गया है, यह जो तुम समझते हो अभी मैं हूं--यह तुम्हारा वास्तविक होना नहीं है, यह तुम्हारा स्वभाव नहीं, यह तुम्हारा स्वरूप नहीं।
तो लोग ठीक कहते हैं। अगर महिमा देखनी हो, कहीं और जाना चाहिए। अगर महिमा वगैरह देखने से ऊब चुके हो, वैराग्य जगा है, देख ली कि जिंदगी बेकार है, अब और खेलत्तमाशा देखने की आकांक्षा नहीं रही है, अब सब खिलौनों से ऊब गए हो, तो मेरे पास आना। उस आखिरी घड़ी में ही मेरे पास आने का कुछ सार है।
तो पहले तो तुम भटक लो। तुम सब के पास हो आओ। तुम सब जगह देख लो। अगर कहीं सत्य मिल जाए तो बहुत अच्छा। अगर न मिले तो फिर मेरे पास आना।
लोग ठीक ही कहते हैं। लोगों से नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है।
क्या मैकदों में है कि मदारिस में वो नहीं
अलबत्ता एक वां दिले-बेमुद्दआ न था।
बड़ा मधुर वचन है। तथाकथित ज्ञानियों के स्कूलों में कौन-सी चीज की कमी है? कुछ ऐसी चीज की कमी है जो कि मधुशाला में भी है, लेकिन ज्ञानियों के स्कूलों में नहीं है।
क्या मैकदों में है कि मदारिस में वो नहीं!
--मदरसे में जो नहीं है, वह मधुशाला में है। वह क्या है?
अलबत्ता एक वां दिले-बेमुद्दआ न था।
--निष्काम हृदय, आकांक्षा से रहित हृदय, वासना से शून्य हृदय, तत्वज्ञानियों के मदरसों में भी नहीं है। वहां भी लोग वासना से ही जाते हैं। ईश्वर को भी खोजने जाते हैं ऐश्वर्य की तलाश में। स्वर्ग को भी मांगते हैं सुख की आकांक्षा में। भगवान को भी भजते हैं भय के कारण। बेमुद्दआ न था! अभी उनके मन की फलाकांक्षा समाप्त नहीं हुई। फलाकांक्षा समाप्त हो, तो ही धर्म से तुम्हारा संबंध जुड़ता है। फलाकांक्षा समाप्त हो, कुछ पाने जैसा न लगे, तो ही परमात्मा पाया जाता है। परमात्मा भी पाने जैसा न लगे, तो ही परमात्मा पाया जाता है। जब तुम  परमात्मा को भी चाहने की उत्सुकता में नहीं हो; तुम कहते हो, सब चाह व्यर्थ हो गई; देख लीं सब चाहतें और सभी चाहतें व्यर्थ पायीं; चाह मात्र व्यर्थ हो गयी, अचाह पैदा हुई--बस उसी अचाह में परमात्मा उपलब्ध होता है।
यहां जो महिमा है वह शून्य की है। यहां जो महिमा है वह मृत्यु की है, महामृत्यु की है। और जो मैं तुम्हें सिखा रहा हूं वह बहुत गहरे अर्थों में आत्मघात है--तुम कैसे अपने को मिटा लो, पोंछ डालो...!
समझा था न समझा है, न समझेगा "रजा' कुछ
दीवाना था, दीवाना है, दीवाना रहेगा।
यहां तो मैं पागलों को बुलाया हूं। क्योंकि जो बुद्धिमान नहीं पा सकते, वह पागल पा लेते हैं। जो ज्ञानी नहीं पा सकते, वह प्रेमी पा लेते हैं। जो ज्ञानियों के मदरसे में न मिलेगा, वह मस्तों के मैकदे में मिल जाता है।
यह तो एक मधुशाला है। यहां तो जो मेरे साथ उस आत्यंतिक गहराई पर नाचने को उत्सुक हैं...। वे गहराइयां दिखाई भी नहीं पड़तीं, उन गहराइयों के लिए शब्द भी नहीं हैं। वे निराकार की हैं। तो तुम जैसे-जैसे मेरे सरगम में बैठोगे, जैसे-जैसे पास आओगे, जैसे-जैसे मेरे और तुम्हारे बीच उपनिषद का संबंध बनेगा--उपनिषद यानी पास बैठने का! उपनिषद के वचन उन गुरुओं के वचन हैं, जिनके पास कुछ शिष्य बैठ गए। ये गुरुओं ने कहे कम हैं, शिष्यों ने पकड़े ज्यादा हैं।
जब मेरे और तुम्हारे बीच उपनिषद का संबंध बनेगा, जब तुम पास आते-आते इतने पास आ जाओगे कि मेरे अंतरराग से तुम्हारा राग मिल जायेगा, मेरी वीणा और तुम्हारी वीणा साथ-साथ कंपित होने लगेगी, स्पंदन सहयोग में होने लगेगा; मेरी श्वासें और तुम्हारी श्वासें एक साथ चलने लगेंगी, मेरा हृदय और तुम्हारा हृदय एक साथ धड़कने लगेगा, मेरा होना और तुम्हारा होना दो अलग सीमाओं में बंटा हुआ न होगा, एक-दूसरे में डूबने लगेगा--ऐसे मिलन में उपनिषद का संबंध बनता है। उस क्षण तुम्हें महिमा पता चलेगी, जो यहां हो रहा है उसकी। यहां हाथ से भभूत नहीं गिरायी जा रही है, न स्विस मेड घड़ियां प्रगट की जा रही हैं। यहां कुछ और हो रहा है, जो उन्हीं को दिखाई पड़ेगा जिन्हें आंख बंद करने की कला आ गई। यहां कुछ और घट रहा है जो उन्हीं को दिखाई पड़ेगा, जिन्होंने संसार को खूब देख लिया, खूब देख लिया और कुछ भी न पाया। अगर देखने की कुछ और महिमा की आकांक्षा रह गई हो तो भटक लेना, उसे पूरा कर लेना। हार जाओ सब भांति, तब मेरे पास आ जाना। हारे को हरिनाम!
मैं दीवाना भला, मुझको मेरे सहरा में पहुंचा दो
कि मैं पाबंदे-आदाबे-गुलिस्तां हो नहीं सकता
मेरे पास आने का उनके लिये निमंत्रण है जो बगीचे के नियमों में ठीक-ठीक न बैठ पाये, जो समाज की व्यवस्था में ठीक-ठीक न बैठ पाये। कि मैं पाबंदे-आदाबे-गुलिस्तां हो नहीं सकता--कि जो बगीचे की व्यवस्था और क्यारियों में, बंटाव में, आयोजन में, शिष्टाचार में ठीक न बैठ पाये--जो जंगली पौधे हैं, जो माली के काटने को बर्दाश्त नहीं करते, जिन्होंने अपने होने की परिपूर्ण स्वतंत्रता को स्वीकार किया है, जो वही होना चाहते हैं जो परमात्मा ने उन्हें होने के लिये भेजा है। अन्यथा नहीं। जो किसी और नीति-नियम, और किसी मर्यादा को नहीं मानते, जो जीवन पर परम श्रद्धालु हैं--उन्हीं के लिए निमंत्रण है। और वे ही आयेंगे तो आ पायेंगे। दूसरे आ भी जायेंगे भूले-भटके तो मुझसे उनका कोई संबंध न बन सकेगा। वे आयेंगे, परदेशी रहेंगे। वे मेरे अंग न हो पायेंगे। न मैं उनका अंग हो पाऊंगा। वे आयेंगे और मुझसे बिना परिचित हुए लौट जाएंगे। बहुत आते हैं, लौट जाते हैं। सभी आते हैं, सभी का परिचय थोड़े ही हो पाता है! हजार आते हैं तो दस रुक पाते हैं। दस रुकते हैं तो एक का परिचय हो पाता है।
"किंतु यह तो मेरा मत हुआ। रहना तो उन लोगों के साथ है, जो आपके विरोध में हैं। अतः कृपापूर्वक बताएं कि कैसे अपने सत्य की रक्षा करूं!'
सत्य अपनी रक्षा स्वयं करता है। तुम डरे हो। तुमने अभी मेरे सत्य को जाना नहीं है। माना होगा, इसलिए डर है। इसलिए तुम्हें रक्षा करने का खयाल पैदा होता है। इसलिए तुम सोचते हो, कहीं वे खंडन न कर दें। सत्य का कभी कोई खंडन कर पाया?
मजनू प्रेम में पड़ गया है लैला के। गांव के राजा ने उसे बुलाया और कहा, "तू बिलकुल पागल है! यह लैला साधारण-सी बदशकल औरत है। तेरी दीवानगी और तेरा पागलपन देखकर मुझे भी दया आती है।' उसने अपने महल से बारह सुंदरियां बुलवाईं और कहा, तू कोई भी चुन ले। परम सुंदरियां थीं--राजा के महल की सुंदरियां थीं। मजनू ने गौर से देखा और उसने कहा, "लेकिन लैला इनमें कोई भी नहीं।' राजा ने कहा, "पागल हुआ है? लैला इनके पैर की धूल भी नहीं है।'
मजनू हंसने लगा और उसने कहा, "हो सकता है। लैला को आपने कभी देखा?'
राजा ने कहा, "बिना देखे नहीं कह रहा हूं। तेरी दीवानगी देखकर मैं भी उत्सुक हो गया था कि कुछ होगा। तो मैंने भी लैला को देखो, कुछ भी नहीं है। पागल! अपने को होश में ला...।' मजनू ने कहा कि फिर आपने देखा ही नहीं। असल में लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए--मुझसे आंखें उधार लेते तो ही देख सकते थे--तुम्हारी आंखों से यह न हो सकेगा।
तो अगर तुमने मेरे प्रेम को पहचाना है, मेरे सत्य को पहचाना है, तो फिर रक्षा की फिक्र नहीं है। सत्य अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है। सत्य कितनी ही असुरक्षा में हो, सुरक्षित है। तुम बस उसे जीने में लग जाओ। मैं जो तुमसे कह रहा हूं, उसको तुम केवल शब्दों का विलास मत बनाओ--जीवन की तरंगें बनने दो। तुम जीने में लग जाओ। तुम उनकी मत सुनो, वे क्या कहते हैं। मैंने जो कहा है, उसे गुनो और उसे जीवन में उतारने लग जाओ। तुम जैसे-जैसे सत्यतर होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम पाओगे, सत्य के लिए किसी सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। सत्य सूली पर भी लटका हो तो भी सिंहासन पर ही होता है।

दूसरा प्रश्न:

आखिर मैं क्या चाहता हूं? जो कुछ भी मुझे मिला है और मिल रहा है, वह कम नहीं। लेकिन मन में एक बेचैनी बनी ही रहती है आखिर मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा?

पाकर कभी कोई संतुष्ट हुआ? बात ही गलत पूछ रहे हो। दिशा ही गलत पकड़ी है। जिसने ऐसा सोचा कि कुछ पाकर संतुष्ट होऊंगा वह तो कभी संतुष्ट नहीं हुआ। संतुष्ट तो वही होता है, जो यह समझ लेता है कि पाने से संतोष का कोई संबंध नहीं है। पाने में ही तो असंतोष छिपा है। दस हजार हैं तो लाख होने चाहिए: लाख हैं तो दस लाख होने चाहिए। दस लाख हैं तो करोड़ होने चाहिए। वह दस गुने का फासला बना ही रहता है। जितना पाते चले जाते हो, उतनी ही पाने की आकांक्षा आगे हटती जाती है। कभी ऐसी घड़ी नहीं आती, जब तुम कह सको कि पा लिया।
हां, ऐसा नहीं है कि लोग संतुष्ट नहीं हुए हैं; लेकिन संतुष्ट वे हुए हैं जिन्होंने यह असंतोष का पागलपन ठीक से पहचाना, कि यह तो पूरा होनेवाला नहीं है। तुम कितना ही पा लो, तुम्हारी पाने की आकांक्षा और जो तुमने पाया है, उसमें कभी मेल नहीं होगा। तुम जो भी पाओगे, उससे श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकते हो--बस खतम हो गई बात! और मनुष्य का यही तो सारा भव-जाल है कि वह श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकता है।
सुंदरतम स्त्री पा ली, लेकिन क्या ऐसी स्त्री तुम पा सकते हो जिसमें तुम भूल-चूक न खोज पाओगे? क्या तुम ऐसी स्त्री पा सकते हो जिससे सुंदर की कल्पना न कर पाओगे? क्या तुम ऐसी स्त्री पा सकते हो जिससे सुंदर का सपना न देख पाओगे? फिर कैसे संतुष्ट होओगे?
तुमने एक बड़ा मकान बना लिया, क्या तुम सोचते हो मकान ऐसा हो सकेगा जिसमें कोई तरमीम और सुधार न हो सके, जिससे बेहतर न हो सके? अगर बेहतर हो सकता है, असंतोष शुरू हो गया।
कल्पना श्रेष्ठ की तो कभी भी मौजूद रहेगी। संतोष कैसे होगा? तुम कुछ भी हो जाओ, तुम कुछ भी पा लो--इससे तुम्हारे संतोष होने का कोई संबंध नहीं है। फिर संतोष का किस बात से संबंध है? संबंध है इस बात से कि तुम यह असंतोष की प्रक्रिया समझ लो। इसे जान लो। इसे देख लो। इसके देखने और जानने में ही यह पूरा जाल गिर जाता है: अचानक तुम पाते हो कि असंतुष्ट होने का कोई कारण ही नहीं है।
संतोष अभी और यहीं होने का ढंग है। असंतोष, कल बेहतर हो सकता है, उस आकांक्षा के पीछे दौड़ है। संतोष जो है, इससे बेहतर हो ही नहीं सकता, इस भावदशा का नाम है। इस क्षण जो है इससे बेहतर हो ही नहीं सकता। जो बेहतर से बेहतर हो सकता था वह हो गया है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, इस संसार से बेहतर संसार हो ही नहीं सकता।
उमरखैयाम का एक गीत है कि हे परमात्मा! अगर तू हमें एक मौका दे तो हम दुनिया को फिर से मिटाकर अपने हृदय के अनुकूल बना लें।
लेकिन क्या तुम अपने हृदय के अनुकूल दुनिया को कभी भी बना पाओगे? यह मौका भी दिया जा सकता है। यह मौका ही तो दिया गया है। संसार और क्या है? यह मौका ही है कि तुम अपने हृदय के अनुकूल बना लो। अपना घर, अपना बगीचा, धन-दौलत, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, अपनी प्रतिमा, पत्नी-बच्चे--तुम बना लो अपने हिसाब से।
लेकिन कौन कब तृप्त हो पाया है! सिकंदर भी खाली हाथ विदा होते हैं।
खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम विदा होते हैं।
लेकिन अगर तुम महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के वचन समझो, तो वे कहते हैं, भरे प्राण हम आते हैं, भरे प्राण हम रहते हैं, भरे प्राण हम जाते हैं। खाली हाथ पर नजर ही गलत है। हृदय पर ले जाओ नजर; हृदय भरा ही हुआ है। इसी क्षण जो होना था हुआ है।
इसी को मैं आस्तिकता कहता हूं कि इस क्षण जो हुआ है, परम है, आत्यंतिक है। इससे श्रेष्ठ का कोई उपाय नहीं। फिर अचानक तुम संतुष्ट हो। फिर सब दौड़ खो गई। अभी और यहां हो जाना ही संतोष है।
किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में "नदीम'
मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
वसंत आया हुआ है। फूल खिले हुए हैं। पक्षी गीत गुनगुना रहे हैं। सूरज निकला है। सब तरफ किरणों का जाल फैला है। मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू। लेकिन मामला क्या है? वसंत चारों तरफ बरस रहा है। और तुम क्यों उजड़े-उजड़े खड़े हो?
किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में "नदीम'
मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
--तू किन सपनों में खोया हुआ है? किन सपनों की बहारों में खोया हुआ है? दुनिया को विजित कर लेने की, दुनिया को जीत लेने की, किन कल्पनाओं में तू तल्लीन है कि वसंत को देख नहीं पा रहा है जो चारों तरफ मौजूद है।
किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में "नदीम'
मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
वसंत तो है। परमात्मा है। अब और क्या होना है? जीयो! जीने की योजना मत बनाओ! गाओ! वसंत तो आ गया, द्वार पर दस्तक दे रहा है। जागो! नाचो! उत्सव मनाओ! पाने को यहां कुछ भी नहीं है; जो पाने को है वह तुम्हें मिला ही हुआ है। उसे तुम लेकर ही जन्मे हो। वह तुम्हारा स्वभाव है। स्वभाव को देखते ही व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है। संतोष स्वभाव के अनुभव की छाया है। स्वभाव के प्रतिकूल, स्वभाव से अन्य की योजना, कल्पना में, भटकता हुआ आदमी असंतुष्ट हो जाता है। असंतोष, स्वभाव से अन्य होने की चेष्टा की छाया है।
मैंने मासूम बहारों में तुझे देखा है
मैंने मौहूम सितारों में तुझे देखा है
मेरे महबूब तेरी पर्दानशीनी की कसम
मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है।
फूलों की तो बात और, आंसुओं में भी उसी के दर्शन होंगे।
मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है।
एक बार देखने की कला आ जाये, आंख आ जाये, नजर आ जाये, तो कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं। साधारण-सा भोजन परम प्रसाद हो जाता है। साधारण-सा घर महलों को मात करने लगता है। हवा का जरा-सा झोंका, अपरिसीम कृपा की वर्षा हो जाता है। नजर की बात है। नजर न हो तो हीरे-जवाहरात भी कंकड़-पत्थर; महल भी झोपड़े; जीवन की परमधन्यता का कोई पता ही नहीं चलता। सब बासा-बासा लगता है। नजर की ही बात है। नजर को बदलो
अगर लगता है असंतोष है, तो किसी गलत नजर को पकड़े बैठे हो।
पूछा है, "आखिर मैं क्या चाहता हूं?'
चाहने को कुछ है ही नहीं, मिला ही हुआ है। इसीलिए तो कितना ही चाहो, मुश्किल में पड़ोगे। जो मिला ही हुआ है, उसे तुम खोज-खोजकर थोड़े ही पा सकोगे! खोज छोड़ो, ताकि चैतन्य घर पर लौट आये! खोज छोड़ो! क्योंकि खोज के कारण ही तुम अपने बाहर गए हो और उसे नहीं देख पा रहे हो जो तुम हो। रुको! परमात्मा को खोजना थोड़े ही है! सब खोज छोड़ देनेवाला व्यक्ति अचानक पाता है, परमात्मा है। तुम्हारी हालत ऐसी है कि हीरा सामने पड़ा है, लेकिन तुम कहीं दूर आंखें लगाए बैठे हो, चांदत्तारों पर, कहीं दूर तुम्हारा सपना तुम्हें भटका रहा है। यहां तुम देखते ही नहीं, यहां तुम अंधे हो जाते हो।
मेरे देखे, लोगों की एक ही बीमारी है--वह सब दूरदृष्टि हैं। दूर का तो देख पाते हैं, पास का नहीं देख पाते। निकट-दृष्टि नष्ट हो गई है। ऐसा होता है न कभी-कभी आंखों में, किसी की आंख पर चश्मा होता है, जिसमें वह पास का देख पाता है। क्योंकि पास का बिना चश्मे के नहीं देख पाता, किताब नहीं पढ़ सकता है; हालांकि चांदत्तारे देख सकता है। दूर का दिखाई पड़ता है, लेकिन पास का नहीं दिखाई पड़ता। कुछ होते हैं जिन्हें पास का दिखाई पड़ता है, दूर का नहीं दिखाई पड़ता। तो दो तरह के चश्मे होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन में एक ही तरह की बीमारी है। भीतर की आंख की एक ही बीमारी है। वह बीमारी है कि पास जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दूर की आकांक्षा होती है। दूर के ढोल सुहावने! तो मन भटकता है।
किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में "नदीम'
मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
पास देखने की दृष्टि का नाम धर्म है। जो मिला हुआ है, उससे पहचान बनाने का नाम धर्म है। जिसे कभी खोया ही नहीं है उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका ही नाम धर्म है।
"आखिर मैं क्या चाहता हूं? जो कुछ भी मुझे मिला है और मिल रहा है, वह कम नहीं है।'
लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। कम न होगा। कम नहीं है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। क्योंकि मन कहे जाता है: और मिल सकता है, और मिल सकता है, और मिल सकता है।
परसों रात एक संन्यासिनी मुझसे चप्पल मांगने लगी कि आपकी चप्पल दें। वह पहले भी आयी थी, तब भी उसने चप्पल मांगी थी। मैंने उसे कुछ दिया था; क्योंकि सवाल, क्या देता हूं, यह थोड़े ही है। मैंने दिया। उसे कुछ दिया था, मैंने कहा, यह ले जा। क्योंकि चप्पल मांगने का रोग बढ़ जाये तो मैं मुसीबत में पड़ जाता हूं! कितनी चप्पलें दूं? और एक के पास दिखती है तो दूसरा मांगने आ जाता है, तीसरा मांगने आ जाता है। फिर किसको मना करो। तो मैंने उसे काष्ठ की एक छोटी डब्बी दी थी। इस बार वह फिर आई, उसने फिर मांगा कि चप्पल। तो मैंने उससे कहा, पहले मैंने तुझे कुछ दिया था? उसने कहा, कुछ नहीं, एक छोटी-सी डिब्बी दी थी। अब अगर इसे मैं चप्पल भी दूं तो अगले साल यह आकर कहेगी, "क्या दिया था--चप्पल!' क्योंकि सवाल...।
मैं तुम्हारे हाथ में खाली हाथ दूं, तो भी कुछ दे रहा हूं। देखने की आंख चाहिए। और ऐसे मैं उठकर तुम्हारे घर भी चला आऊं, तो भी तुम कहोगे, "यह और एक मुसीबत कहां से घर आ गई! अब इनकी कौन साज-सम्हाल करे!'
दृष्टि की बात है। बहुत मिल रहा है, मगर तुम्हारे पास जो मन है, वह उसे देख ही नहीं पाता, जो है। मन की आदत अभाव को देखने की है।
कभी पता है, दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है! जब तक था, कभी न गई। जब टूट जाता है तो वहीं-वहीं जाती हैं। खाली जगह। अभाव!
तुम लाख सरकाते हो वहां से कि क्या सार है; पता तो चल गया एक दफे कि दांत टूट गया है--लेकिन फिर, भूले-चूके फिर तुम पाओगे, जीभ वहीं टटोल रही है। जैसे जीभ अभाव को टटोलती है, ऐसे ही मन जो नहीं है उसको टटोलता है। जो है, उसे देखने की मन की आदत ही नहीं है।
लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता। वह दिखाई इसीलिए नहीं पड़ता कि वह इतना ज्यादा है, इतना घना है, सब ओर से है, बाहर-भीतर है; देखनेवाला भी वही है, दिखाई पड़नेवाला भी वही है--इसीलिए चूके जा रहे हैं। इसलिए थोड़े ही कि वह कहीं दूर है, बहुत दूर है।
अगर बहुत दूर होता, हम पा ही लेते उसे। चांद पर पहुंच गए, कितनी दूर होगा!
जब पहला रूसी अंतरिक्षऱ्यात्री वापिस लौटा, तो कहते हैं ख्रुश्चेव ने उससे पहली बात पूछी, "ईश्वर मिला?' तो उसने कहा कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं मिला, चांद बिलकुल खाली है। तो रूस में लेनिनग्राड में उन्होंने अंतरिक्षऱ्यात्रा के लिए एक अनुसंधानशाला बनाई है। उसके द्वार पर ये वचन लिख दिए गए हैं कि "हमारे अंतरिक्षऱ्यात्री चांद पर पहुंच गए और उन्होंने वहां पाया कि ईश्वर नहीं है।'
जिनको जमीन पर नहीं मिलता उनको चांद पर कैसे मिलेगा, यह भी तो थोड़ा सोचो! तुम तो तुम ही हो! देखने की नजर तुम्हारी ही है। मिलता होता तो यहां मिल जाता।
रवींद्रनाथ ने बुद्ध के संबंध में एक कविता लिखी है। कविता बड़ी मधुर है।
बुद्ध वापिस लौटे हैं, बारह वर्षों के बाद। यशोधरा ने उनसे पूछा है कि मैं तुमसे एक ही प्रश्न पूछती हूं, इस एक प्रश्न पूछने के लिए जीती रही हूं, कि तुम्हें जो वहां मिला, वह यहां नहीं मिल सकता था? जो तुम्हें जंगल में जाकर मिला, वह घर में नहीं मिल सकता था? बस एक ही प्रश्न मुझे पूछना है।
बुद्ध को कभी किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा स्तब्ध नहीं रहते देखा गया, जैसे बुद्ध स्तब्ध खड़े रह गए। यह तो वे भी न कह सकेंगे कि यहां नहीं मिल सकता था। नजर की बात थी। अब तो यहां भी है। एक दफा आंख खुल गई, तो घर में भी वही है, बाहर भी वही है। दुकान पर भी वही है, मंदिर में भी वही है। इसलिए असली सवाल आंख का है।
तुम यह मत पूछो कि क्या चाहता हूं। और यह भी मत पूछो कि मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा। कुछ भी पाकर संतुष्ट न होओगे। पानेवाला कभी संतुष्ट हुआ? पानेवाले का असंतोष आगे सरकता जाता है, बड़ा होता चला जाता है, फैलता चला जाता है--गुब्बारे की तरह। इसलिए तो अमीर भी गरीब बना रहता है और सम्राट भी भिखारी बने रहते हैं।
फरीद अकबर के पास गया था। गांव के लोगों ने भेज दिया। कहा कि गांव में एक मदरसा चाहिए। कह दो अकबर को। तुम्हें इतना मानता है। फरीद गया। अकबर प्रार्थना कर रहा था, सुबह की नमाज पढ़ रहा था। फरीद पीछे खड़ा रहा। अकबर ने अपने दोनों हाथ फैलाये, नमाज की पूर्णता पर और कहा, "हे परमात्मा! और धन दे, और दौलत दे! तेरी कृपा की दृष्टि हो!' फरीद लौट पड़ा। अकबर उठा, देखा, फरीद सीढ़ियों से नीचे जा रहा है! कहा, कैसे आए? क्योंकि फरीद कभी आया भी न था। जब भी जाता था, अकबर ही उसके पास जाता था।
कैसे आए और कैसे चले? फरीद ने कहा, "मैंने सोचा था कि तुम सम्राट हो। यहां भी भिखारी को देखा, इसलिए लौट चला। और फिर मैंने सोचा कि तुम जिससे मांग रहे हो उसी से मैं मांग लूंगा। बीच में और यह एक...एक दलाल बीच में और क्यों! गांव के लोगों ने भेजा था कि एक मदरसा खोल दो, यह मांगने आया था; लेकिन अब नहीं। इससे तुम्हारी दौलत में थोड़ी कमी हो जाएगी। मैं तुम्हें दरिद्र हुआ न देखना चाहूंगा। मेरी तो एक ही आकांक्षा है, सभी समृद्ध हों। लेकिन तुम भिखारी हो।'
तुम्हारा सम्राट भी तो मांग ही रहा है। और मांग रहा है। और मांग रहा है। जिनके पास है वे भी मांग रहे हैं।
तो एक बात तय है कि मिलने से मांगना नहीं मिटता--त्यागने से मांगना मिटता है।
इसलिए तो एक अनूठी घटना इस पूरब में घटी कि सम्राट तो हमने पाए कि भिखारी हैं और कभी-कभी हमने कुछ भिखारी पाए जो सम्राट...। महावीर, बुद्ध भिखारी होकर खड़े हो गए, कुछ भी उनके पास न था। क्योंकि उन्हें एक बात दिखाई पड़ गई कि दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, पहुंचोगे न। ठहरो, खड़े हो जाओ!
खड़े होते ही तुम्हारे संबंध शाश्वत से जुड़ जाते हैं।
तो मैं तुम से यह नहीं कह सकता कि क्या पाकर तुम संतुष्ट होओगे; मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि पाने से संतोष का कोई संबंध नहीं है। तुम पाने की व्यर्थता देखो। उस व्यर्थता के दर्शन में ही पाने की दौड़ गिर जायेगी। तुम अचानक अपने को खड़ा हुआ पाओगे, दौड़ते हुए नहीं। अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर की प्रज्ञा थिर हो गई, कंपित नहीं हो रही। उस एक अकंपन के क्षण में ही तुम तृप्त हो जाओगे।
और एक बार तृप्ति की झलक मिल जाये तो राज हाथ आ गया, तो आंख हाथ आ गई, तो देखने का ढंग आ गया। परमात्मा तो है, देखने का ढंग चाहिए।
हुस्न की दुनिया को आंखों से न देख
अपनी एक तर्ज़े-नज़र ईजाद कर।
यह जो परमात्मा के सौंदर्य का जगत है, यह जो परम सौंदर्य का जगत है, इसको साधारण आंखों से देखने की कोशिश मत करो, अन्यथा असंतुष्ट रहोगे, अभाव में जीयोगे। भिखारी रहोगे!
हुस्न की दुनिया को आंखों से न देख
अपनी एक तर्ज़े-नज़र ईजाद कर।
एक नया ढंग, एक नई शैली देखने की खोजो। संतुष्ट हो कर देखो। अभी तुमने असंतुष्ट होकर देखा है। असंतुष्ट हो कर देखा है तो असंतोष बढ़ता चला गया है। तुम्हारी आंख में है तो फैलता चला गया है। संतुष्ट होकर देखो, संतोष आंख में होगा, तुम पाओगे संतोष फैलता जाता है।
तुम्हारे जीवन की दृष्टि ही तुम्हारे जीवन का सत्य हो जाती है। जो तुम विचारते हो वही वास्तविकता हो जाती है। अभी तक तुमने असंतोष, असंतोष, असंतोष, इसको ही साजा-संवारा, इसके ही बीज बोए, इससे ही देखा--निश्चित ही, असंतोष बढ़ता चला गया। जो बीज बोओगे, उसकी ही फसल तो काटोगे। यह छोटे-से गणित को पहचानो। थोड़ा संतोष से देखो। थोड़ा ऐसे देखो कि कोई असंतोष नहीं है, सब है। भरी आंख, प्रफुल्ल चित्त, कृतज्ञता से भरे, कृतज्ञता में डूबे, पगे--ऐसा देखो। अचानक तुम पाओगे, कहीं तो कुछ कमी नहीं है! सब तो पूरा-पूरा है! सब तो भरा-भरा है! कहीं तो कुछ खाली नहीं है! क्या है मांगने को और?
ऐसी झलकें धीरे-धीरे आएंगी, बढ़ती जाएंगी। पहले थोड़े बीज खिलेंगे, फिर और बीज खिलेंगे, फिर और बीजों में से फूल लगेंगे; फूलों में और और नए बीज लगेंगे। एक दिन तुम पाओगे, वसंत तुम्हारे चारों तरफ लहराने लगा। उस परम सौंदर्य, उस वसंत का नाम ही परमात्मा है। वही संतुष्टि है। वही परम तृप्ति है।

तीसरा प्रश्न:

तेरी दिव्य आग में जल-जलकर राख हुआ जा रहा हूं। अब तो सारे शब्द बंद हो चुके--एक आस लिए जी रहा हूं।
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दो नैना नहीं खाइयो, पिया मिलन की आस।।

हीं, इन दो आंखों से कोई उस प्यारे को मिलता नहीं। दो के कारण ही तो मिल नहीं पाता। उसको पाने के लिए तो एक आंख चाहिए। इसलिए तो हम तीसरी आंख की बात करते हैं।
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दो नैना नहीं खाइयो, पिया मिलन की आस।।
वचन प्यारा है; लेकिन कवि का है, ऋषि का नहीं। आकांक्षी का है, जाननेवाले का नहीं। इन दो आंखों से तो जो प्यारा मिलता है, वह बाहर का है। प्रेयसी मिलती है, प्रियतम मिलता है, पति मिलता है, पत्नी मिलती है। इन दो आंखों से तो जो मिलता है, वह बाहर का है। ये दो आंखें तो बाहर से जोड़ने के द्वार हैं। नहीं, उससे मिलना हो तो एक तीसरी आंख चाहिए। परम प्यारे से मिलना हो जो तुम्हारे भीतर ही घर बसाए बैठा है, तुम्हारी प्रतीक्षा करता है कि कब आओ, कब वापिस लौटो, कितने जन्म हो गये तुम्हें गए, कब घर आओगे; परदेश में कैसे लुभा गए--उसे पाने के लिए तो एक आंख...।
क्योंकि दो आंख से जो मिलता है, वह द्वैत; और एक से जो मिलेगा, वही अद्वैत।
दो आंखें ही तो दो में तोड़ देती हैं सारे संसार को। फिर ये दो आंखें तो बाहर देखती हैं, भीतर नहीं देख सकतीं। इसलिए तो समस्त ध्यान की प्रक्रियाओं में आंख बंद कर लेनी पड़ती है, ताकि यह दो आंखों का संसार तो खो जाये, मिट जाये। एक तीसरी आंख--इन दोनों आंखों से बहती हुई ऊर्जा, एक तीसरी आंख में संघट हो जाये। दोनों भू्र-मध्यों के बीच, इन दोनों आंखों की ऊर्जा संगृहीत होती है, इकट्ठी होती है--और एक नई ही आंख पैदा होती है, जो भीतर देखती है।
ठीक है, आकांक्षा बिलकुल ठीक है; ठीक दिशा में है। और जलना होगा। राख होना होगा। यह भी सच है।
जिंदगी यूं भी गुजर ही जाती
क्यों तेरा राहगुजर याद आया?
जो उस प्रेमी के द्वारा पुकारे गए हैं, उनको ऐसा ही लगा है: जिंदगी ऐसे ही गुजर जाती है; और एक मुसीबत आ गई कि तूने पुकारा है। ऐसे ही दुख कुछ कम थे? अब तेरे विरह की आग जलाती है।
जिंदगी यूं भी गुजर ही जाती
क्यों तेरा राहगुजर याद आया?
तेरी याद आ गई, फिर तेरी राह भी मिल गई; अब यह एक नयी पीड़ा का सूत्रपात हुआ।
संसार में जो पीड़ा तुमने जानी है, वह विध्वंसक पीड़ा है। उसमें सिर्फ तुम गलते हो, मिटते हो, पाते कुछ भी नहीं।
परमात्मा के मार्ग पर भी पीड़ा है, जलन है; पर बड़ी सृजनात्मक है। तुम गलते भी हो, मिटते भी हो, कुछ नया आविर्भूत होता है। मृत्यु अकेली नहीं है वहां। प्रत्येक मृत्यु के साथ नया जन्म है।
हजारों बार मर-मरकर भी न मर पाया प्रेमी कभी।
मरण हर बार आ-आकर नये ही प्राण देता है।।
उस रास्ते पर बहुत बार मरना होता है, प्रतिपल मरना होता है। क्योंकि जैसे ही तुम थोड़ी देर के लिए न मरे अहंकार इकट्ठा हो जाता है। इसे पल-पल जलाना होता है। इसे मिटाते ही जाना होता है। नहीं तो जरा ही तुम चूके कि धूल फिर जमी, फिर "मैं' खड़ा हुआ। यह "मैं' इतना सूक्ष्म है, धन से खड़ा होता है, पद से खड़ा होता है, त्याग से खड़ा होता है--यहां तक कि विनम्रता के भाव से खड़ा हो जाता है कि मैं तो ना-कुछ हूं। उसमें भी खड़ा हो जाता है।
हजारों बार मर-मरकर भी न मर पाया प्रेमी कभी।
मरण हर बार आ-आकर नये ही प्राण देता है।।
यह सतत मरण की प्रक्रिया ही ध्यान है, प्रार्थना है, पूजा है, अर्चना है।
"तेरी दिव्य आग में जल-जलकर राख हुआ जा रहा हूं।'
घबड़ाना मत। धन्यवाद देना उसे। सौभाग्य कि तुम्हें उसने इस योग्य समझा कि तुम्हें जलाये! धन्यभाग कि तुम पर उसकी नजर गई कि तुम्हें जलाए! क्योंकि इस जलन में ही, इस मिटने में ही नये का सूत्रपात है। सूर्योदय होगा। घबड़ाना मत। पीड़ा भी हो तो रो लेना, आंसू बहा लेना; पर यह आकांक्षा मत करना कि बंद कर, रोक!
जीसस तक को ऐसी घड़ी आ गई थी। सूली पर लटके हुए, आखिरी क्षण में, ऊपर की तरफ आंख उठाकर उन्होंने कहा कि "हे परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? बंद कर!' सूली पर किसको न लगेगा ऐसा! लेकिन फिर उनको होश आ गया, सम्हल गए, तत्क्षण बात बदल दी। वक्त पर बदल दी, ठीक क्षण में बदल दी, अन्यथा चूक जाते। तत्क्षण फिर आंखें ऊपर उठाईं और कहा, "हे परमात्मा, क्षमा कर! तेरी मर्जी पूरी हो! अगर तू जलाना चाहता है तो यही शुभ होगा! अगर तू मिटाना चाहता है, सूली देना चाहता है, तो जरूर यही मेरे हित में होगा! मेरे कल्याण को तू मुझसे बेहतर जानता है! तेरी मर्जी पूरी हो!'
थक गई है जुबां तो चुप होकर
काम में आंसुओं को लाए हैं।
रो लेना। कहते न बने, कहना मुश्किल हो जाये, आंसुओं से कह देना। मगर विपरीत की प्रार्थना मत करना। पीड़ा को भोग लेना। जलन को स्वीकार कर लेना।
लोग समझाएंगे। लोग कहेंगे, लौट आओ, भले-चंगे थे। यह क्या झंझट मोल ले ली?
मीरा को समझाया लोगों ने। चैतन्य को समझाया लोगों ने। बुद्ध को समझाया लोगों ने, "लौट आओ! यह क्या पागलपन सवार हुआ है? अपनी बुद्धि को सम्हालो!' सारी दुनिया बुद्धिमान है।
तो तुम जब विरह में रोओगे और जब उसकी आग तुम्हें जलाएगी, और जब तुम्हारा हृदय कटेगा इंच-इंच, हर कोई तुमसे पूछेगा, "क्या हुआ है?' तुम न तो लोगों की सुनकर लौटना, न लोगों को समझाने लग जाना। क्योंकि कुछ बातें हैं, जो समझने-समझाने की नहीं हैं।
सबब हर एक मुझसे पूछता है मेरे रोने का
इलाही सारी दुनिया को मैं कैसे राजदां कर लूं!
कैसे सभी को इस राज में भागीदार बना लूं! सभी पूछते हैं, "क्यों रो रहे हो? क्यों गा रहे हो, क्यों नाच रहे हो?' "क्यों' तो खड़ा ही है। जरा भी तुमने अन्यथा किया, लोगों से भिन्न किया कि लोगों ने पूछा, "क्यों?' लोग चाहते हैं, तुम ठीक वैसे ही रहो जैसे वे हैं, रत्ती भर भेद न हो; तुम मूर्तिवत, यंत्रवत चलते रहो भीड़ के साथ। जब तुम रोओगे, गाओगे, कभी मस्ती में हंसोगे--यह सब होगा, क्योंकि भीतर की यात्रा तुम्हें सभी भावों में से गुजारेगी। हर भाव का तीर्थ मिलेगा। कभी-कभी ऐसा भी होगा कि तुम बिलकुल पागल मालूम पड़ोगे--हंसोगे भी, रोओगे भी, साथ-साथ।
सबब हर एक मुझसे पूछता है मेरे रोने का
इलाही सारी दुनिया को मैं कैसे राजदां कर लूं!
मैंने पूछा कि है मंजिले-मकसूद कहां
खिज्र ने राह बतलाई मुझे मयखाने की।
--पूछा मैंने कि वह आखिरी मंजिल कहां है, तो सदगुरु ने मुझे राह बताई मधुशाला की।
मैंने पूछा कि है मंजिले-मकसूद कहां
खिज्र ने राह बतलाई मुझे मयखाने की।
--मस्ती की, बेहोशी की, प्रेम की, प्रार्थना की!
खोओ अपने को! जब मैं कहता हूं, जलोगे, उसका इतना ही अर्थ है कि मिटोगे, डूबोगे। धीरे-धीरे तुम पाओगे, पुराने से संबंध टूट गया और एक नई ही चेतना का जन्म हुआ है। इस चेतना में मस्ती भी होगी, होश भी होगा। इस चेतना में ऐसी मस्ती होगी कि जिसमें होश है। इस चेतना में बेहोशी भी होगी; जैसा महावीर कहते हैं, निवृत्ति संसार से, प्रवृत्ति स्वयं से। इस बेहोशी में संसार के प्रति बेहोशी होगी, परमात्मा के प्रति होश होगा। "पर' के प्रति बेहोशी होगी, "स्व' के प्रति होश होगा। बाहर से तो तुम देखोगे, लुट गए; और भीतर से अनंत धन तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा, खजाने उपलब्ध हो जाएंगे।
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएं जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम।
परवाने को देखा है? जलता है! फिर शमा जलती है, फिर दीया जलता है, फिर परवाना आया! कितनी बार जल चुका है, लेकिन फिर-फिर आ जाता है, फिर शमा में खो जाता है। निश्चित ही परवानों में तर्क, चिंतन, विचारवाले लोग नहीं; अन्यथा कहते, पागल है, दीवाना है। आदमी तो कहते ही हैं।
यह धर्म का प्रेमी भी परवाने की तरह है। हमें लगता है कि जलने चला, लेकिन परवाने से तो कोई पूछे, उसके भीतर हृदय से तो कोई पूछे!
फिर नजर में फूल महके दिल में फिर शमएं जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम।
उसे तो याद आते ही अपने प्रेमी की, उसकी बैठक की धुन पड़ते ही चारों तरफ फूल खिल जाते हैं, चारों तरफ दीये जल जाते हैं!
परमात्मा प्रेम की खोज है। इसमें तुम हिसाब मत लाना। इसमें तुम पूरे के पूरे जाना। तुम यह भी मत कहना कि: दो नैना नहिं खाइयो, पिया मिलन की आस! तुम इतना भी मत कहना। तुम तो कहना, सब तरह डुबा दो! यह पिया मिलन की आस इतनी गहन हो जाए कि आस जैसी भी मालूम न पड़े। आस करनेवाला कोई न बचे भीतर।
जैसे कोई मरुस्थल में भटक गया हो कई दिनों से और जल न मिला हो, तो पहले प्यास लगती है। प्यास के साथ भीतर यह भाव भी होता है कि मैं प्यासा हूं। फिर प्यास बढ़ती जाती है, जल नहीं मिलता। फिर धीरे-धीरे प्यास इतनी सघन होने लगती है कि भीतर कभी-कभी ऐसा खयाल आता है कि मैं प्यासा हूं, अन्यथा प्यास ही प्यास मालूम पड़ती है। फिर और एक ऐसी घड़ी आती है, आखिरी घड़ी, जब सिर्फ प्यास ही रह जाती है, प्यासा भी नहीं रहता। इतनी भी अब शक्ति नहीं बचती कि अपने को अलग कर ले और कहे कि मैं प्यास का देखनेवाला हूं, कि मैं प्यास का जाननेवाला हूं। प्यास ही हो जाती है। सारा प्यासा प्यास में रूपांतरित हो जाता है। पूरे प्राण प्यास में जल उठते हैं। उसी घड़ी में मिलन होता है, जब तुम पूरे के पूरे डूब जाओगे! बचाने की आकांक्षा अपने को करना ही मत। दो आंख भी बचाने की आकांक्षा मत करना। क्योंकि सब बचाने की आकांक्षा में तुम अपने को ही बचा लोगे। अपने को गंवाना है, खोना है।

आखिरी प्रश्न:

आप न जानो गुरुदेव मेरे!
नित तुम्हें पुकारा करती हूं
एक बार हृदय में छेद करो
वह क्षण मैं निहारा करती हूं
कृपा करो, बचाओ! जल जाऊं, ऐसी भीख दो!

"प न जानो'--ऐसा कैसे होगा? जिन्होंने मुझसे संबंध जोड़ा है, कुछ भी उन्हें घटेगा, उसे मैं जानूंगा। संबंध न जोड़ा हो तो बात अलग। जिन्होंने मुझसे संबंध जोड़ा है, जिन्होंने इतनी हिम्मत की है मेरे साथ चलने की--क्योंकि मेरे साथ चलकर मिलेगा क्या? न धन, न प्रतिष्ठा, न पद। होगी पद-प्रतिष्ठा, खो जायेगी। लोक-लाज खोनी पड़ेगी। गंवाओगे ही मेरे साथ, कमाओगे क्या?
तो जिसने मेरे साथ चलने की हिम्मत की है और साहस किया है, उसके भीतर कुछ भी घटे, मुझे पता चलेगा। तंतु जुड़ गए! उसी को तो मैं संन्यास कहता हूं--मुझ से जुड़ जाने का नाम। वहां तुम्हारे हृदय में कुछ खटका होगा तो मुझे पता चलेगा। तुम्हें भी पता चलेगा, शायद उसके भी पहले पता चल जाए।
"आप न जानो'--ऐसा होगा नहीं। बस एक शर्त तुम पूरी कर देना--जुड़ने की--उसके बाद शेष मैं सम्हाल लूंगा। पहली ही शर्त पूरी न हुई तो फिर शेष नहीं सम्हाला जा सकता। और घबड़ाओ मत।
सबा ने फिर दरे-जिंदा पे आ के दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराये।
सुबह की हवा आ गई, कारागृह पर उसने फिर से दस्तक दी!
सबा ने फिर दरे-जिंदा पे आ के दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए
इधर मैं आया हूं, तुम्हारे हृदय पर दस्तक दी है। अगर तुम्हें सुनाई पड़ गई है--सहर करीब है, दिल से कहो न घबराए
ये जो पीड़ा के क्षण होंगे, किसी दिन तुम इनके लिए अपने को धन्यभागी समझोगे। आज तो पीड़ा होगी ही। राह पर पीड़ा होती है। मंजिल पर पहुंचकर यात्री को पता चलता है कि जो पीड़ा थी वह तो कुछ भी न थी; जो पाया है वह अनंत गुना है।
खुशबुओं के सफर में गुजरी है
चांदनी के नगर में गुजरी है
भीख है, बाकी जिंदगी है वही
जो तेरी रहगुजर में गुजरी है।
एक दफा पहुंचकर पता चलता है कि और सब--
खुशबुओं के सफर में गुजरी है
चांदनी के नगर में गुजरी है।
भीख है--और सब भीख है--चाहे खुशबुओं का रास्ता हो, चाहे चांद की नगरी हो।
...बाकी जिंदगी है वही।
जो तेरी रहगुजर में गुजरी है।
जो परमात्मा को खोजने में गुजरी है, वही जिंदगी है। बाकी जिंदगी का नाममात्र है।
तो एक तरफ से तो तुमसे कहता हूं, सब गंवाना होगा। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो गंवाने को राजी हैं। क्योंकि वे ही सभी कुछ पाने के अधिकारी हो जाते हैं। एक तरफ से तो लगेगा, तुम खोने लगे; दूसरी तरफ से तुम पाओगे, पाने लगे।
खोया हुआ-सा रहता हूं अक्सर मैं इश्क में
या यूं कहो कि होश में आने लगा हूं मैं।
संसार छूटने लगेगा--सत्य मिलने लगेगा। जुआरी चाहिए! अपने को दांव पर लगानेवाले चाहिए। अगर तुमने अपने को दांव पर लगा दिया तो तुम फिक्र मत करो। तुमने अगर संबंध बनाने की हिम्मत कर ली है तो कुछ उत्तरदायित्व मेरा भी है। जब तुम मुझसे जुड़ते हो, तुम अकेले ही थोड़े ही जुड़ रहे हो; मैं भी तुमसे जुड़ रहा हूं। इतना ही खयाल रखना कि "तुम मुझसे जुड़े हो?' कहीं ऊपर-ऊपर तो नहीं है बात? कहीं कहने भर की तो नहीं है बात? क्योंकि बहुत लोग आ जाते हैं। कोई आता है, मुझसे कहता है, बस अब आपके चरणों में सब समर्पण है। तो मैं कहता हूं, ठीक, तो अब संन्यास ले लो! वह कहता है, यह जरा मुश्किल है। सब समर्पण है! यह जरा कठिन है।
क्या कह रहे थे अभी क्षणभर पहले? सब समर्र्पण है! सब समर्पण का तो अर्थ यह था कि संन्यास की तो छोड़ो, अगर मैं कहता कि जाओ, डूब मरो नदी में, तो भी चले गए होते। अगर बचाना होता तो मैं भागा हुआ आता। तुम्हें चिंता की जरूरत न थी। लेकिन लोग शब्दों का उपयोग करते हैं, शायद अर्थ का भी उन्हें बोध नहीं। औपचारिक बातें लोग सीख गए हैं। उपचार निभाते हैं। सब समर्पण है! सब में संन्यास समाविष्ट न था? सब में तो मौत भी समाविष्ट थी।
बस इतना ही तुम खयाल रखना, तुम्हारी तरफ से पूरा हो, प्रामाणिक हो, तुम्हारी तरफ से हार्दिक हो--फिर यह न होगा कि मैं न जानूं। जो भी हो रहा है, मैं जानता रहूंगा।
तुम्हारी प्रार्थना जरूरी नहीं कि पूरी करूं, क्योंकि तुम तो जल्दी ही घबड़ा जाते हो। तुम कहते हो, अब मत रुलाओ, अब बहुत हो गया! तुम तो कहते हो, अब मत जलाओ, अब बहुत हो गया! तुम तो जल्दी ही उकता जाते हो, जल्दी ही घबड़ा जाते हो। मेरा उपयोग ही यही है तुम्हारे साथ कि तुम्हें हिम्मत बंधाऊं, कि बस थोड़ी दूर और, ज्यादा नहीं चलना है।
बुद्ध एक बार एक गांव के पास से गुजरे, दूसरे गांव जा रहे थे। गांव में लोगों से पूछा, कितनी दूर है? गांव के लोगों ने कहा, यही कोई दो कोस। फिर कोई दो कोस चल चुके जंगल में। लकड़हारा आता था, उससे पूछा कि भई दूसरा गांव कितनी दूर? उसने कहा, बस यही कोई दो कोस। बुद्ध मुस्कुराए। आनंद जरा क्रोध में आ गया। उसने कहा, गांव के बदतमीज बेईमान लोग! दो कोस हम चल भी चुके और अभी भी दो कोस है, यह कहता है!
फिर कोई दो कोस चल चुके, अब तो सांझ भी होने लगी, सूरज भी ढलने लगा और एक आदमी से पूछा, तो उसने कहा, यही कोई दो कोस, बस अब पहुंचते ही हैं। आनंद ने कहा कि इस तरह के झूठ बोलनेवाले लोग मैंने कभी नहीं देखे। यात्रा करते जिंदगी हो गई!
बुद्ध ने कहा, ये झूठ बोलनेवाले लोग नहीं हैं; ये मेरे जैसे लोग हैं। ये बड़े अच्छे लोग हैं। ये हिम्मत बंधाते हैं। ये कहते हैं, बस, जरा दो कोस! ये तुम्हें चलाए जा रहे हैं। देखो, छह कोस तो चला ही चुके!
अब मैं भी तुमसे कहता हूं, दो ही कोस है।
तुम कई बार थक जाते हो, बैठ जाना चाहते हो, तुमसे कहना पड़ता है, बस होने को ही है।
सबा ने फिर दरे-जिंदा पे आ के दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए

आज इतना ही।


1 टिप्पणी: