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शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--034


वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान—(अध्याय ४) प्रवचन—छठवां

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 16।।

र्म क्या है और अकर्म क्या है, ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हैं, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा, जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार-बंधन से छूट जाएगा।

र्म क्या है और अकर्म क्या है, बुद्धिमान व्यक्ति भी निर्णय नहीं कर पाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह गूढ़ तत्व मैं तुझसे कहूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
अजीब-सी लगेगी यह बात; क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह तो मूढ़जन भी जानते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह बुद्धिमानजन भी नहीं जानते हैं।
हम सभी को यह खयाल है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व। तो फिर पुनर्विचार करना जरूरी है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा।

हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए हैं, रिएक्शन को एक्शन समझे हुए हैं। किसी ने गाली दी आपको, और आपने भी उत्तर में गाली दी। आप जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न हुआ; वह प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ। किसी ने प्रशंसा की, और आप मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न हुआ; प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ।
आपने कभी कोई कर्म किया है! या प्रतिकर्म ही किए हैं?
चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते हैं; हम रिएक्ट ही करते हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से सहज-जात नहीं होता, स्पांटेनियस नहीं होता। हमारा सब करना हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है।
किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो गदगद हो प्रेम बहने लगता है। लेकिन ये सब प्रतिकर्म हैं।
ये प्रतिकर्म वैसे ही हैं, जैसे बटन दबाई और बिजली का बल्ब जल गया; बटन बुझाई और बिजली का बल्ब बुझ गया। बिजली का बल्ब भी सोचता होगा कि मैं कर्म करता हूं जलने का, बुझने का। लेकिन बिजली का बल्ब जलने-बुझने का कर्म नहीं करता है। कर्म उससे कराए जाते हैं। बटन दबती है, तो उसे जलना पड़ता है। बटन बुझती है, तो उसे बुझना पड़ता है। यह उसकी स्वेच्छा नहीं है।
इसको ऐसा लें, किसी ने आपको गाली दी। और अगर आप गाली का उत्तर देते हैं, तो थोड़ा सोचें, यह गाली का उत्तर आपने दिया या देना पड़ा? अगर दिया, तो कर्म हो सकता है; देना पड़ा, तो प्रतिकर्म होगा।
आप कहेंगे, दिया, चाहते तो न देते। तो फिर चाहकर कोशिश करके देखें, तब आपको पता चलेगा। हो सकता है, ओंठों को रोक लें, तो भीतर गाली दी जाएगी। तब आपको पता चलेगा, गाली मजबूरी है; बटन दबा दी है किसी ने। और अगर कोई गाली दे, और आपके भीतर गाली न उठे, तो कर्म हुआ। तो आप कह सकते हैं, मैंने गाली न देने का कर्म किया।
कर्म का अर्थ है, सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है, प्रेरित, इंस्पायर्ड। कारण है जहां बाहर, और कर्म आता है भीतर से, वहां कर्म नहीं है।
हम चौबीस घंटे प्रतिकर्म में ही जीते हैं। बुद्ध, या महावीर, या कृष्ण, या क्राइस्ट जैसे लोग कर्म में जीते हैं। उनके जीवन में प्रतिकर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा।
एक आदमी बुद्ध के ऊपर आकर थूक गया है। तो वे मुस्कुराए। उन्होंने अपनी चादर से थूक को पोंछ लिया। और उस आदमी से पूछा, और कुछ कहना है?
वह आदमी भी विचलित हुआ होगा। क्योंकि जब किसी के ऊपर थूकें, तो शायद पृथ्वी पर इसके पहले किसी ने भी नहीं कहा होगा कि और कुछ कहना है!
वह आदमी थोड़ा झिझका। उत्तर उसे सूझा नहीं। क्योंकि बुद्ध ने बड़ी अड़चन में डाल दिया। बुद्ध कोई प्रतिकर्म करते, तो वह आदमी उत्तर तैयार लेकर आया होगा। प्रतिकर्म की हम सब की तैयारी है। बुद्ध अगर पूछते, क्यों थूका? तो शायद वह उत्तर तैयार करके लाया हो। जैसे परीक्षा में लोग अपने उत्तर तैयार करके ले जाते हैं, ऐसे हम जिंदगी में एक-एक कदम रिहर्सल पहले कर लेते हैं। पहले तैयारी कर लेते हैं कि अगर थूकूंगा, तो कोई यह कहेगा, तो मैं यह कहूंगा। लेकिन जो तैयारी होती है, वह प्रतिकर्म की होती है।
बुद्ध जैसा आदमी तो कभी-कभी हजारों वर्षों में मिलता है। तो बुद्ध जैसे आदमी की तो तैयारी नहीं होती। दोत्तीन-चार साल के, परीक्षार्थी, प्रश्नपत्र देख लेते हैं; क्वेश्चंस देख लेते हैं। तैयारी कर लेते हैं। लेकिन बुद्ध जैसा प्रश्न तो कभी लाखों-करोड़ों वर्ष में एक बार उठता है। क्योंकि कर्म ही कभी करोड़ों वर्षों में एक आदमी करता है; बाकी सारे लोग प्रतिकर्म करते हैं।
वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, आप भी क्या पूछते हैं! उसे कुछ और न सूझा
बुद्ध ने कहा, मैं ठीक ही पूछता हूं। कुछ और कहना है? उसने कहा, लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं, आपके ऊपर थूका है!
बुद्ध ने कहा, तुमने थूका, लेकिन मैं समझा कि तुमने कुछ कहा है। क्योंकि थूकना भी कहने का एक ढंग है। शायद मन में इतना क्रोध है तुम्हारे कि शब्दों से नहीं कह पाते, इसलिए थूककर कहा है।
कई बार शब्द असमर्थ होते हैं, बुद्ध ने कहा। मैं ही कई बार बहुत-सी बातें कहना चाहता हूं, शब्दों में नहीं कह पाता, तो फिर इशारों में कहनी पड़ती हैं। तुमने इशारा किया; मैं समझ गया।
उस आदमी ने कहा, लेकिन आप कुछ नहीं समझे! मैंने क्रोध किया है! बुद्ध ने कहा, मैंने बिलकुल ठीक समझा कि तुमने क्रोध किया है। तो उस आदमी ने पूछा, आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं?
बुद्ध ने कहा, तुम मेरे मालिक नहीं हो। तुमने क्रोध किया, इसलिए मैं भी क्रोध करूं, तो मैं तुम्हारा गुलाम हो गया। मैं तुम्हारे पीछे नहीं चलता हूं। मैं तुम्हारी छाया नहीं हूं। तुमने क्रोध किया, बात खतम हो गई। अब मुझे क्या करना है, वह मैं करूंगा।
बुद्ध ने कुछ भी न किया। वह आदमी चला गया। दूसरे दिन क्षमा मांगने आया, और बुद्ध से कहने लगा, क्षमा कर दो! सिर रख दिया पैरों पर; आंसू गिराए आंखों से। जब सिर उठाया, बुद्ध ने कहा, और कुछ कहना है?
उस आदमी ने कहा, आप आदमी कैसे हो!
बुद्ध ने कहा, मैं समझ गया। मन में कोई भाव इतना घना है कि नहीं कह पाते शब्दों से, आंसुओं से कहते हो; सिर को पैर पर रखकर कहते हो--गेस्चर्स, मुद्राओं से। कल भी, कल भी कुछ कहना चाहते थे, नहीं कह पाए; आज भी कुछ कहना चाहते हो, नहीं कह पाए।
उस आदमी ने कहा, मैं क्षमा मांगने आया हूं। मुझे क्षमा कर दें।
बुद्ध ने कहा, मैंने तुम पर क्रोध ही नहीं किया, इसलिए क्षमा करने का तो कोई उपाय ही नहीं है। जैसे कल मैंने देख लिया था कि तुमने थूका, ऐसे आज देखता हूं कि तुमने पैरों पर सिर रखा। बात समाप्त हो गई है। इससे ज्यादा इस कर्म में मैं नहीं पड़ता हूं।
बुद्ध ने कहा कि मैं तुम्हारा गुलाम नहीं हूं।
प्रतिकर्म गुलामी है, स्लेवरी है; दूसरा आपसे करवा लेता है। जब दूसरा आपसे कुछ करवा लेता है, तो आप गुलाम हैं, मालिक नहीं। कर्म तो वे ही कर सकते हैं, जो गुलाम नहीं हैं।
इसलिए कृष्ण अगर कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, कि बुद्धिमान भी नहीं समझ पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है।
अकर्म तो और भी कठिन है फिर। कर्म ही नहीं समझ पाते। प्रतिकर्म को हम कर्म समझते हैं; और अकर्मण्यता को हम अकर्म समझते हैं। अकर्मण्यता को, कुछ न करने को, बैठे-ठालेपन को, इनएक्शन को हम नान-एक्शन समझ लेते हैं। कुछ न करने को हम समझते हैं, अकर्म हो गया। एक आदमी कहता है कि हम कुछ नहीं करते, तो सोचता है, अकर्म हो गया।
लेकिन अकर्म बहुत बड़ी क्रांति-घटना है, म्यूटेशन है। सिर्फ न करने से अकर्म नहीं होता। क्योंकि जब आप बाहर नहीं करते, तो मन भीतर करता रहता है। जब आप बाहर करना बंद कर देते हो, मन भीतर करना शुरू कर देता है।
आपने देखा होगा, आरामकुर्सी पर बैठ जाएं, हाथ-पैर ढीले कर दें--अकर्म में हो गए; हम सब की परिभाषा में। कुछ भी नहीं कर रहा है आदमी, इनएक्टिव है, आरामकुर्सी पर लेटा है। लेकिन उस आदमी की खोपड़ी में एक खिड़की बनाई जा सके, तो पता चले कि वह आदमी कितने कामों में लगा हुआ है!
हो सकता है, इलेक्शन लड़ रहा हो; जीत गया हो; दिल्ली पहुंच गया हो। न मालूम क्या-क्या कर रहा हो! जितना वह कुर्सी पर से दौड़कर भी नहीं कर सकता था, उतना कुर्सी पर लेटकर कर सकता है। कुर्सी पर से दौड़कर कुछ करता, तो समय बाधा डालता। दिल्ली इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकता था। लेकिन कुर्सी पर लेटकर दिल्ली पहुंचने में समय का कोई व्यवधान नहीं; स्थान की कोई बाधा नहीं; न कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती है, न कोई हवाई जहाज पकड़ना पड़ता है; वोटर्स के सिरों की सीढ़ियां बनानी पड़ती हैं--कुछ नहीं करना पड़ता है। आरामकुर्सी पर लेटा, दिल्ली पहुंचा! इच्छा ही कर्म बन जाती है।
जो बाहर से काम रोककर बैठ जाते हैं, वे अकर्मण्य तो हो जाते हैं, कर्महीन दिखाई पड़ते हैं; लेकिन भीतर बड़ी सक्रियता, बड़े गहन कर्म का जाल चलने लगता है।
रात आप पड़े हैं, सोए हैं। दिखता है ऊपर से, बिलकुल ही अकर्म में पड़े हैं; लेकिन भीतर सपनों का जाल बुन रहे हैं। दिनभर भी जो नहीं बुन पाए, वह रातभर बुनेंगे। दिन में जो हत्याएं नहीं कर पाए, रात में करेंगे। दिन में जो व्यभिचार नहीं कर पाए, रात में करेंगे। दिन में जो नहीं हो सका, वह रात में पूरा किया जाएगा। रातभर गहन कर्म से चेतना गुजरेगी।
तो कृष्ण तो सोए हुए आदमी को भी नहीं कहेंगे कि यह अकर्म में है। वे कहेंगे, अकर्म का पता तो तब चलेगा, जब भीतर गहरे में कर्म की वासना न रह जाए, जब भीतर गहरे में मन शून्य और मौन हो जाए, जब भीतर गहरे में कर्म की सूक्ष्म तरंगें न उठें--तब होगा अकर्म।
और यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत ही मजे की बात है कि जिसके भीतर अकर्म होगा, उसके बाहर प्रतिकर्म कभी नहीं होता। जिसके भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है।
कर्म सहज है--दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं, दूसरे के प्रत्युत्तर में नहीं--सहज, अपने से भीतर से आया हुआ, जन्मा हुआ।
जिस व्यक्ति के भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है। और जिस व्यक्ति के भीतर गहन कर्म होता है, उसके बाहर प्रतिकर्म होता है, रिएक्शन होता है।
इसलिए कृष्ण अगर यह कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, गहन है यह राज, गूढ़ है यह रहस्य, बुद्धिमान भी तय नहीं कर पाते कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है! अर्जुन, तुझे मैं कहूंगा वह गूढ़ रहस्य; क्योंकि उसे जो जान लेता, वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है।
जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच की बारीक रेखा को पहचान लेता है, वह स्वर्ग के पथ को पहचान लेता है। जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच के बहुत नाजुक और सूक्ष्म विभेद को देख लेता है, उसके लिए इस जगत में और कोई सूक्ष्म बात जानने को शेष नहीं रह जाती।
तो दो बातें स्मरण रख लें। हम जिसे कर्म कहते हैं, वह प्रतिकर्म है, कर्म नहीं। हम जिसे अकर्म कहते हैं, वह अकर्मण्यता है, अकर्म नहीं। कृष्ण जिसे अकर्म कहते हैं, वह आंतरिक मौन है; वह अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव है; लेकिन बाहर कर्म का अभाव नहीं है।
जब अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव होता है, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि कर्ता का निर्माण अंतर में उठी हुई कर्म की तरंगों का संघट है, जोड़ है। भीतर जो कर्म की वासना है, वही इकट्ठी होकर कर्ता बन जाती है। अगर भीतर कर्म की कोई तरंगें नहीं हैं, तो भीतर का कर्ता भी विदा हो जाता है। तब बाहर कर्म रह जाते हैं। लेकिन वे कर्म कर्ता-शून्य होते हैं। उनके पीछे अकर्ता होता है, अकर्म होता है। और चूंकि पीछे अकर्ता होता है, इसलिए प्रत्युत्तर से नहीं पैदा होते वे। वे सहज-जात होते हैं। जैसे वृक्षों में फूल आते हैं, ऐसे उस व्यक्ति में कर्म लगते हैं। आप में कर्म लगते नहीं; दूसरों के द्वारा खींचे जाते हैं।
आप थोड़ा सोचें। अगर राबिन्सन क्रूसो की तरह आप एक निर्जन द्वीप पर छोड़ दिए जाएं, तो आपके कितने कर्म एकदम से बंद नहीं हो जाएंगे? अकेले हैं आप। आपका प्रेम बंद हो जाएगा; आपकी घृणा बंद हो जाएगी। आपका क्रोध बंद हो जाएगा। अहंकार किसको दिखाइएगा? साज-शृंगार किसके सामने करिएगा? सब बंद हो जाएगा। किसके सामने अकड़कर चलिएगा? सब बंद हो जाएगा। बाहर से सब गिर जाएगा।
सुना है मैंने, राबिन्सन क्रूसो की नाव जब डूबी, और वह एक निर्जन द्वीप पर लगा; द्वीप पर लगने के बाद उसे खयाल आया, नाव आधी डूबी हुई अभी भी दिखाई पड़ रही है। उसने सोचा, कुछ जरूरत की चीजें हों तो उठा लाऊं। खयाल आया, निर्जन द्वीप है, अकेला हूं; कुछ बच जाए सामान साथ, तो ले आऊं।
वापस गया। एक पेटी उठाई। खोली, मन प्रसन्न हो गया, स्वर्ण की अशर्फियां ही अशर्फियां थीं। फिर एकदम से खुशी खो गई, फिर मन उदास हो गया। फिर पेटी बंद करके उसने वहीं छोड़ दी।
क्या हुआ? स्वर्ण-अशर्फियां दिखाई पड़ीं, तो बड़ा प्रसन्न हुआ कि अच्छा हुआ, स्वर्ण-अशर्फियां मिल गईं। लेकिन पीछे खयाल आया क्षणभर बाद, निर्जन है द्वीप; न है बाजार, न है कोई और; स्वर्ण की अशर्फियों का करूंगा क्या? फिर वे स्वर्ण की अशर्फियां, जो बड़ी बहुमूल्य थीं, वहीं छोड़ दीं उसने, उसी डूबती नाव में छोड़ दीं; और तट पर बैठकर डूबती हुई नाव को, और अशर्फियों को डूबता हुआ देखता रहा। उन्हें बचाकर लाने की इच्छा ही न रही।
आप, पूना के पास नाव डूब रही हो, तो स्वर्ण की अशर्फियां ऐसे छोड़ पाएंगे? नहीं छोड़ पाएंगे। जब आप स्वर्ण की अशर्फियां बचाकर लौट रहे हों नदी से, और मैं आपसे पूछूं कि आपने स्वर्ण की अशर्फियां बचाने का कर्म किया? तो आप कहेंगे, हां। लेकिन कृष्ण कहेंगे, सिर्फ प्रतिकर्म किया। स्वर्ण की अशर्फियां बचाना भी आपका प्रतिकर्म है, क्योंकि वह एक बड़े बाजार की अपेक्षा में हो रहा है। अगर निर्जन द्वीप पर होता, तो आप न कर पाते। वह कर्म नहीं है।
इसलिए बुद्ध जैसे आदमी स्वर्ण की अशर्फियां यहीं बाजार की भीड़ में भी नहीं बचाएंगे। अगर बुद्ध और महावीर सारी धन-संपत्ति को छोड़कर, इस बड़े संसार में सड़कों पर भिखारी की तरह खड़े हो गए, तो उसका कारण है। क्योंकि धन और संपत्ति को बचाना प्रतिकर्म है, कर्म नहीं है। क्योंकि राबिन्सन क्रूसो ने एकांत द्वीप पर नहीं बचाईं, तो बुद्ध इस भरी हुई भीड़ के महासागर में भी नहीं बचाएंगे। वे जानते हैं कि अशर्फियां किसी और को दृष्टि में रखकर बचाई जा रही हैं। बेकार हो गईं। बुद्ध तो वही बचाएंगे, जो निर्जन एकांत द्वीप पर भी बचाने जैसा है। बुद्ध तो अपने को ही बचाएंगे, बाकी सबकी फिक्र छोड़ देंगे।
हमारा सारा कर्म प्रतिकर्म है, इसे अगर ठीक से देख लिया, तो हमारा सारा अकर्म भीतरी कर्म बन जाता है--यह भी दिखाई पड़ जाएगा।
और कृष्ण कहते हैं, इसकी ठीक मध्यम रेखा को देख लेने से व्यक्ति मुक्त होता है। इसलिए अर्जुन, मैं तुझसे कर्म और अकर्म की विभाजक रेखा की बात करूंगा।

वे अगले सूत्रों में उसकी बात करेंगे।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछली चर्चा के संबंध में एक प्रश्न है। कहा गया है, गुण और कर्म के अनुसार मानव के चार मोटे विभाग बनाए गए। अब यदि शूद्र घर में जन्म पाया हुआ आदमी ब्राह्मणों के लक्षणों से युक्त हो, तो उसे अपना निजी कर्तव्य निभाना चाहिए या ज्ञान-मार्ग और ब्राह्मण जैसा जीवन ही उसके लिए हितकर हो सकता है, कृपया इसे स्पष्ट करें।

समें दोत्तीन बातें खयाल में ले लें। एक तो, आज से अगर हम तीन हजार साल पीछे लौट जाएं और यही सवाल मुझसे पूछा जाए, तो मैं कहूंगा कि शूद्र के घर पैदा हुआ हो, तो उसे शूद्र का काम ही निभाना चाहिए। लेकिन आज यह न कहूंगा। कारण? कारण है।
जब भारत ने वर्ण की इस व्यवस्था को वैज्ञानिक रूप से बांटा हुआ था, विभाजन स्पष्ट थे। शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण के बीच कोई आवागमन न था, कोई विवाह न था, कोई यात्रा न थी। खून अमिश्रित, अलग-अलग था। तो जैसे ही कोई आत्मा मरती, उसे चुनने के लिए स्पष्ट मार्ग थे मरने के बाद। एक आत्मा जैसे ही मरती, वह अपने गुण-कर्म के अनुसार शूद्र के घर पैदा होती, या ब्राह्मण के घर पैदा होती।
भारत ने आत्मा को नया जन्म लेने के लिए चैनेल्स दिए हुए थे, जो पृथ्वी पर कहीं भी नहीं दिए गए। इसलिए भारत ने मनुष्य की आत्मा और जन्म की दृष्टि से गहरे मनोवैज्ञानिक प्रयोग किए, जो पृथ्वी पर और कहीं भी नहीं हुए।
जैसे कि एक नदी बहती है। नदी का बहना और है, अनियंत्रित। फिर एक नहर बनाते हैं हम। नहर का बहना और है, नियंत्रित और व्यवस्थित। भारत ने समाज के गुण-कर्म के आधार पर नहरें बनाईं नदियों की जगह, बहुत व्यवस्थित। उन व्यवस्थित नहरों का विभाजन इतना साफ किया कि आदमी मरे, तो उसकी आत्मा को चुनाव का सीधा-स्पष्ट मार्ग था कि वह अपने योग्य जन्म को ग्रहण कर ले। इसलिए बहुत कभी-कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक शूद्र ब्राह्मण के गुण का पैदा होता। कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक ब्राह्मण शूद्र के गुण का पैदा होता। अपवाद! अपवाद के लिए नियम नहीं बनाए जाते। और जब कभी ऐसा होता, तो उसके लिए नियम की चिंता करने की जरूरत नहीं होती थी।
कोई विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण में प्रवेश कर जाता। कोई नियम की चिंता न थी। क्योंकि जब कभी ऐसा अपवाद होता, तो प्रतिभा इतनी स्पष्ट होती कि उसे रोकने का कोई कारण न होता था। लेकिन वह अपवाद था; उसके लिए नियम बनाने की कोई जरूरत न थी। वह बिना नियम के काम करता था।
लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। भारत की वह जो विभाजन की व्यवस्था थी आत्मा के चुनाव के लिए, वह बिखर गई। अच्छे-भले लोगों ने बिखरा दी! कई दफे भले लोग ऐसे बुरे काम करते हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि जरूरी नहीं है कि भले लोगों की दृष्टि बहुत गहरी ही हो। और जरूरी नहीं है कि भले लोगों की समझ बहुत वैज्ञानिक ही हो। भला आदमी भी छिछला हो सकता है।
उखड़ गई सारी व्यवस्था। अब नहरें साफ नहीं हैं। हालत नदियों जैसी हो गई है। नहरें भी हैं, खंडहर हो गई हैं; उनमें से पानी इधर-उधर बह जाता है। अब कोई व्यवस्था साफ नहीं है। अब इतनी साफ नहीं कही जा सकती यह बात।
लेकिन नियम वही है। नियम में अंतर नहीं पड़ता। जो अंतर पड़ा है, वह व्यवस्था के जीर्ण-जर्जर हो जाने की वजह से है। आज भी, मौलिक रूप से, सिद्धांततः, जो व्यक्ति जहां पैदा हुआ हो, बहुत संभावना है, सौ में नब्बे मौके यही हैं कि अपने जीवन की व्यवस्था को वह उन्हीं मार्गों से खोजे, तो शीघ्रता से शांति को और विश्राम को उपलब्ध हो सकेगा; अन्यथा बेचैनी में और तकलीफ में पड़ेगा।
आज समाज में जो इतनी बेचैनी और तकलीफ है, उसके पीछे वर्ण का टूट जाना भी एक कारण है।
एक सुनियोजित व्यवस्था थी। चीजें अपने-अपने विश्राम से अपने मार्ग को पकड़ लेती थीं। अब हरेक को मार्ग खोजना पड़ेगा, निर्णायक बनना पड़ेगा, निर्णीत करना पड़ेगा। उस निर्णय में बड़ी बेचैनी, बड़ी प्रतिस्पर्धा, बड़ा कांप्टीशन, बड़ी स्पर्धा होगी। बड़ी चिंता और बड़ी बेचैनी पैदा होगी।
कुछ भी तय नहीं है। सब तय करना है। और आदमी की जिंदगी करीब-करीब तय करने में नष्ट हो जाती है। फिर भी कुछ तय नहीं हो पाता। कुछ तय नहीं हो पाता। लेकिन टूट गई व्यवस्था। और मैं समझता हूं कि लौटानी करीब-करीब मुश्किल है। क्यों?
क्योंकि भारत ने जो एक छोटा-सा प्रयोग किया था, वह लोकल था, स्थानिक था; भारत की सीमा के भीतर था। आज सारी सीमाएं टूट गई हैं। आज सारी जमीन इकट्ठी हो गई है। जिन कौमों ने कोई प्रयोग नहीं किए थे वर्ण के, वे सारी कौमें आज भारत की कौम और उन सब की दृष्टियां हमारी दृष्टियों के साथ इकट्ठी हो गई हैं। आज सारी दुनिया, गैर-वर्ण वाली दुनिया, बहुत बड़ी है। और वर्ण का प्रयोग करने वाले लोग बहुत छोटे रह गए।
और उन छोटे लोगों में भी, जो वर्ण के समर्थक हैं, वे नासमझ हैं; और जो वर्ण के विरोधी हैं, बड़े समझदार हैं। वर्ण के समर्थक बिलकुल नासमझ हैं। वे इसीलिए समर्थन किए जाते हैं कि उनके शास्त्र में लिखा है। लेकिन समर्थकों के पास भी बहुत वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है। और न उनके पास कोई मनोवैज्ञानिक पहुंच है कि वे समझें कि बात क्या है! वे सिर्फ इसलिए दोहराए चले जाते हैं कि बाप-दादों ने कहा था। उनकी अब कोई सुनेगा नहीं। अब कोई चीज इसलिए सही नहीं होगी भविष्य में, कि बाप-दादों ने कही थी।
डर तो यह है कि अगर बाप-दादों का बहुत नाम लिया, तो चीज सही भी हो, तो गलत हो जाएगी। बाप-दादों ने कहा था, तो जरूरत कुछ गलत कहा होगा; आज हालत ऐसी है।
और जो आज विरोध में हैं वर्ण की व्यवस्था के, वे बड़े समझदार हैं। समझदार मतलब, ज्ञानी नहीं; समझदार मतलब, बड़े तर्कयुक्त हैं। वे हजार तर्क उपस्थित करते हैं। उनके तर्कों का जवाब पुरानी परंपरा के लोगों के पास बिलकुल नहीं है। और ऐसे लोग आज न के बराबर हैं, जिनके पास आधुनिक तर्क की चिंतना हो और पुरानी अंतर्दृष्टि हो। ऐसे लोग न के बराबर हैं। इसलिए कठिनाई में पड़ गई है बात।
अगर मेरा वश चले, तो मैं चाहूंगा कि वह जीर्ण-जर्जर व्यवस्था फिर से सुस्थापित हो जाए। उदाहरण के लिए एक-दो बात आपसे कहूं कि कई दफे कैसी कठिनाई होती है।
आज से पचास साल पहले सारे यूरोप और अमेरिका ने बाल-विवाह की व्यवस्था तोड़ी। हिंदुस्तान में भी हिंदुस्तान के जो समझदार थे, और हिंदुस्तान के समझदार सौ साल से पिछलग्गू समझदार हैं। उनके पास कोई अपनी प्रतिभा नहीं है। जो पश्चिम में होता है, वे उसकी दुहाई यहां देने लगते हैं। लेकिन पश्चिम में जो होता है, पश्चिम के लोग तर्क का पूरा इंतजाम करते हैं। इन्होंने भी दुहाई दी कि बाल-विवाह बुरा है। फिर हमने भी बाल-विवाह के खिलाफ कानून बनाए। व्यवस्था तोड़ी। अब अगर आज कोई बाल-विवाह करता भी होगा, तो अपराधी है!
लेकिन आप जानकर हैरान होंगे कि विगत पंद्रह वर्षों...। अमेरिका के सौ बड़े मनोवैज्ञानिकों के एक आयोग ने रिपोर्ट दी है, और रिपोर्ट में कहा है कि अगर अमेरिका को पागल होने से बचाना है, तो बाल-विवाह पर वापस लौट जाना चाहिए।
अभी हिंदुस्तान के समझदारों को पता नहीं चला। इनको पता भी पचास साल बाद चलता है! क्यों लौट जाना चाहिए बाल विवाह पर? पचास साल में ही अनुभव विपरीत हुए। सोचा था कुछ और, हुआ कुछ और।
पहला अनुभव तो यह हुआ कि बाल-विवाह ही थिर हो सकता है। चौबीस साल के बाद किए गए विवाह थिर नहीं हो सकते। क्योंकि चौबीस साल की उम्र तक दोनों ही व्यक्ति, स्त्री और पुरुष, इतने सुनिश्चित हो जाते हैं कि फिर उन दो के बीच तालमेल नहीं हो सकता। वे दोनों अपने-अपने ढंग में इतने ठहर जाते हैं, फिक्स्ड हो जाते हैं, कि फिर समझौता नहीं हो सकता।
इसलिए पश्चिम में तलाक बढ़ते चले गए। आज अमेरिका में पैंतालीस प्रतिशत तलाक हैं। करीब-करीब आधे तलाक हैं। जितनी शादियां होती हैं हर साल, उससे आधी शादियां हर साल टूटती भी हैं। यह संख्या बढ़ती चली जाएगी।
बाल-विवाह एक बहुत मनोवैज्ञानिक तथ्य था। तथ्य यह था कि छोटे बच्चे झुक सकते हैं; लोच है उनमें। एक युवक और एक युवती, जब पक गए, तब उनमें झुकना असंभव हो जाता है। तब वे लड़ ही सकते हैं, झुक नहीं सकते। टूट सकते हैं, झुक नहीं सकते। इसलिए आज पश्चिम में पुरुष और स्त्री दुश्मन की भांति खड़े हैं। पति और पत्नी, एक तरह का युद्ध है, एक तरह की लड़ाई है।
एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ने किताब लिखी है, इंटीमेट वार। आंतरिक युद्ध, प्रेमपूर्ण युद्ध--ऐसा कुछ अर्थ करें। और प्रेमपूर्ण युद्ध, यानी विवाह। इंटीमेट वार जो है, विवाह के ऊपर किताब है; कि दो आदमी प्रेम का बहाना करके साथ-साथ लड़ते हैं, चौबीस घंटे! इसका कारण?
इसका कारण कुल इतना है। कोई बेटा अपनी मां को बदलने का कभी नहीं सोचता कि दूसरी मां मिल जाती, तो अच्छा होता। कोई बेटा अपने बाप को बदलने का नहीं सोचता कि दूसरा बाप मिल जाता, तो बहुत अच्छा होता। कोई भाई अपनी बहन को बदलने का नहीं सोचता कि दूसरी बहन मिल जाती, तो अच्छा होता। क्यों? क्या दूसरी बहनें अच्छी नहीं मिल सकतीं? क्या दूसरे बाप अच्छे नहीं मिल सकते? क्या दूसरी मां के अच्छे होने में कोई असुविधा है इतनी बड़ी पृथ्वी पर? नहीं; यह खयाल नहीं आता। क्योंकि इतने बचपन में जब कि मन बहुत नाजुक और कोमल होता है, बच्चा मां से राजी हो जाता है।
बाल-विवाह के पीछे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया थी कि जिस तरह मां से बच्चा राजी हो जाता है, उसी तरह वह पत्नी से भी राजी हो जाता है। फिर वह सोचता ही नहीं कि दूसरी पत्नी भी हो। जैसे मां दूसरी हो, ऐसा नहीं सोचता; पिता दूसरा हो, ऐसा नहीं सोचता; ऐसे ही पत्नी भी, पत्नी भी उसके साथ-साथ इतनी निकटता से बड़ी होती है कि स्वभावतः, दूसरी पत्नी हो या दूसरा पति हो, यह खयाल ही नहीं उठता।
लेकिन चौबीस साल या पच्चीस साल या तीस साल की उम्र में शादी होगी, तो यह बात बिलकुल असंभव है कि यह खयाल न उठे। जिसमें न उठे, वह आदमी बीमार होगा, उसका दिमाग खराब होगा। तीस साल की उम्र तक जिस युवक ने हजार स्त्रियों को देखा-पहचाना, हजार बार सोचा कि इससे शादी करूं कि उससे करूं; इससे करूं कि उससे करूं! तीस साल के बाद शादी की, फिर कलह और उपद्रव शुरू हुआ। उसे खयाल नहीं आएगा कि पड़ोस की स्त्री से शादी हो जाती तो ज्यादा बेहतर होता?
मैंने सुना है, एक पत्नी अपने पति को सुबह दफ्तर विदा करते वक्त कह रही है कि आपका व्यवहार ठीक नहीं है। सामने देखो; सामने की पोर्च में देखो। पति ने उस तरफ आंख उठाकर देखा। पत्नी ने कहा, देखते हैं! पति अपनी पत्नी से विदा ले रहा है, तो कितना गले लगकर चुंबन दे रहा है। ऐसा तुम कभी नहीं करते! उसके पति ने कहा, मेरी उस औरत से कोई पहचान ही नहीं है। वैसा करने का तो मेरा भी मन होता है, पर उस औरत से मेरी कोई पहचान ही नहीं है।
यह अमेरिका में मजाक घट सकती है। कल भारत में भी घटेगी। लेकिन भारत ऐसा पहले कभी सोच नहीं सकता था; इसको मजाक भी नहीं सोच सकता था। यह सिर्फ बेहूदगी मालूम पड़ती। यह मजाक भी नहीं मालूम पड़ सकती थी। इसके कारण थे। कारण बहुत साइकोलाजिकल थे, बहुत गहरे थे।
फिर एक और ध्यान लेने की बात है कि बाल-विवाह का मतलब है, दो बच्चों में सेक्स का तो खयाल नहीं उठता, सेक्स का कोई सवाल नहीं होता, कामवासना का कोई सवाल नहीं होता। दो छोटे बच्चों की शादी कर दी, तो उनके बीच कोई कामवासना नहीं होती। कामवासना आने के पहले उनके बीच मैत्री बन जाती है।
लेकिन जब दो बच्चे बच्चे नहीं होते, जवान होते हैं; और उनकी हम शादी करते हैं, मैत्री नहीं बनती पहले, पहले कामवासना आती है। और जब कामवासना पहले आएगी, तो संबंध बहुत जल्दी विकृत और घृणित हो जाएंगे। उनमें कोई गहराई नहीं होगी; छिछले होंगे। और जब कामवासना चुक जाएगी, तो संबंध टूटने के करीब पहुंच जाएंगे। क्योंकि और तो कोई संबंध नहीं है।
जिन दो बच्चों ने कामवासना के जगने के पहले मित्रता स्थापित कर ली, कल कामवासना भी विदा हो जाएगी, तो भी मित्रता बचेगी। लेकिन जिन दो जवानों ने कामवासना के बाद मित्रता स्थापित की, उनकी मित्रता स्थापित होती नहीं, मित्रता सिर्फ कामवासना का बहाना होती है। जब कल कामवासना क्षीण हो जाएगी, तब मित्रता भी टूट जाएगी।
आज अमेरिका में किन्से जैसा मनोवैज्ञानिक कहता है कि बाल-विवाह पर वापस लौट जाना चाहिए। अन्यथा पूरा समाज रोगग्रस्त हो जाएगा।
मैं आपसे कहता हूं, पचास साल बाद दुनिया के मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि वर्ण-व्यवस्था पर वापस लौट जाना चाहिए। लेकिन पचास साल बाद कहेंगे वे। और हिंदुस्तान के विचारक तो सौ साल बाद! जब वे कह चुकेंगे, तब इनकी बुद्धि में थोड़ा-सा हलन-चलन होगा।
वर्ण-व्यवस्था बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है। आप जानकर हैरान होंगे, अगर आज के भी मनोविज्ञान के सारे तथ्य आपके खयाल में आ जाएं, तो बहुत हैरान होंगे। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन वर्ष की उम्र में बच्चा अपनी जिंदगी का पचास प्रतिशत ज्ञान सीख चुका होता है। पचास प्रतिशत! तीन वर्ष की उम्र का बच्चा पचास प्रतिशत बातें सीख चुका जिंदगी की। अब बाकी जिंदगी में, सत्तर साल में पचास प्रतिशत ही सीखेगा।
और यह भी मजे की बात है कि यह जो पचास प्रतिशत तीन साल की उम्र में सीखा गया है, यह फाउंडेशन है, यह बुनियाद है। इसको अब कभी नहीं बदला जा सकता। बाद में जो सीखेगा, वह इसके ऊपर बनाया हुआ भवन है, जो बदला जा सकता है। जिसे बदला जा सकता है, वह बुनियाद नहीं है। और अगर इसकी बुनियाद बदली, तो यह बच्चा विक्षिप्त हो जाएगा।
इसलिए अगर वर्ण की व्यवस्था यह कहती है कि शूद्र के घर में पैदा हुआ बच्चा अपने ही परिवार की व्यवस्था, अपने ही जीवन के ढंग से अपने जीवन की नियति को पाने के प्रयास में लगे; ब्राह्मण का बच्चा अपनी ही नियति से, अपनी व्यवस्था से अपनी खोज में लगे, तो बहुत मनोवैज्ञानिक है यह बात। क्योंकि तीन साल की उम्र में आधा ज्ञान पूरा हो जाता है। और तेरह-चौदह साल की उम्र तक सारा ज्ञान करीब-करीब पूरा हो जाता है।
यह जानकर आप चकित होंगे, पिछले महायुद्ध में अमेरिका में मिलिट्री में भर्ती होने वाले स्नातकों, ग्रेजुएट्स की मानसिक परीक्षाएं ली गईं, तो जो औसत उम्र मिली ग्रेजुएट्स की, वह साढ़े तेरह साल--मानसिक उम्र! फौज में भर्ती होने वाले, युनिवर्सिटी से निकले हुए स्नातकों की मानसिक उम्र इतनी निकली, जितनी साढ़े तरह साल के बच्चे की होती है। उनकी उम्र किसी की बाइस होगी, किसी की चौबीस, किसी की बीस--शारीरिक उम्र। लेकिन मानसिक उम्र साढ़े तेरह वर्ष निकली! तब तो सारी दुनिया के मनोवैज्ञानिक चिंतित हो गए। इसका मतलब क्या हुआ?
इसका मतलब यह हुआ कि अगर हम सारी दुनिया की मानसिक उम्र निकालें, तो दस साल, नौ-दस साल से ज्यादा नहीं निकलेगी। इसका यह मतलब हुआ कि तेरह-चौदह साल की उम्र तक आदमी का मन करीब-करीब पक्का और मजबूत हो जाता है। अगर इस मन के विपरीत कुछ मार्ग उसने चुना, तो उसकी जिंदगी एक फ्रस्ट्रेशन और विषाद का मार्ग होगी।
लेकिन कठिनाई क्या है?
कठिनाई इसमें नहीं थी। शूद्र होने में कठिनाई नहीं है। ब्राह्मण होने में कठिनाई नहीं है। कठिनाई पैदा हुई जिस दिन हमने समझा, ब्राह्मण ऊपर है और शूद्र नीचे है। उस दिन शूद्र के मन में भी वासना जगी कि मैं ऊपर जाऊं। उस दिन ब्राह्मण के मन में भी डर जगा कि मुझे कोई नीचे न उतार दे। तब चीजें स्वस्थ न रह गईं। सब बीमार हो गया।
अगर वर्ण की व्यवस्था कभी लौटेगी--और मुझे लगता है, मनुष्य की जाति को अगर स्वस्थ होना हो, तो लौटेगी--अगर कभी लौटेगी, तो ऊपर-नीचे की तरह नहीं लौटेगी।
चार सीढ़ियों पर चार आदमी खड़े हो जाते हैं। एक ऊपर की सीढ़ी पर, एक नीचे की सीढ़ी पर, दो बीच की सीढ़ियों पर। ऐसी सीढ़ी दर सीढ़ी वर्ण की व्यवस्था नहीं लौटेगी। कृष्ण के मन में भी वैसी व्यवस्था नहीं है। किसी समझदार के मन में वैसी व्यवस्था नहीं रही।
चार आदमी एक ही जमीन पर खड़े हैं, एक समतल भूमि पर--ऐसी व्यवस्था लौटेगी। वर्ण समतल भूमि पर खड़े हो सकें, तो लौट सकते हैं। और तब प्रत्येक व्यक्ति को, उसकी जिंदगी जहां बड़ी हुई, जैसी बड़ी हुई, उसी मार्ग से खोज लेना शांति की दृष्टि से, आनंद की दृष्टि से, संतोष की दृष्टि से, अंततः चेतना की उपलब्धि की दृष्टि से उपयोगी है। और अगर वह यहां-वहां जाता है...।
यह प्रश्न करीब-करीब ऐसा है--अगर हम टेक्नोलाजिकली, तकनीकी ढंग से समझें--तो यह ऐसा है कि कोई हमसे पूछे कि एक डाक्टर अगर वकालत करना चाहे, तो हर्ज तो नहीं है कोई?
एब्सर्ड है! क्योंकि अगर उसने डाक्टर होने की शिक्षा ली है और जिंदगी के कीमती समय को डाक्टर होने में गंवाया है, तो अब वकालत करने वह जाएगा, तो उपद्रव ही होने वाला है। कोई अदालत उसको आज्ञा न देगी कि आप वकालत करें। अदालत कहेगी कि फिर वकील होने की ट्रेनिंग लें फिर से, तब लौटें। और तब भी, तब भी कठिनाई होगी। क्योंकि जो भी ट्रेनिंग हमने ले ली, उसको अनट्रेंड नहीं किया जा सकता। जो भी हमने जान लिया, उसको भुलाया नहीं जा सकता।
वर्ण की व्यवस्था एक बहुत तकनीकी व्यवस्था थी। उसमें शूद्र के जीवन का अपना ढंग है, अपनी व्यवस्था है। ब्राह्मण के जीवन का अपना ढंग, अपनी व्यवस्था है। क्षत्रिय के जीवन का अपना ढंग, अपनी व्यवस्था है। वह सारी की सारी व्यवस्था एक प्रशिक्षण है। वह बचपन से घर में मिल रहा है। बच्चा बड़ा हो रहा है और प्रशिक्षण मिल रहा है। बच्चा बड़ा हो रहा है बाप के साथ, मां के साथ, भाइयों के साथ, और प्रशिक्षण जारी है। उसकी ट्रेनिंग हो रही है; उसके खून, हड्डी, मांस, मज्जा में चीजें डाली जा रही हैं, पहुंच रही हैं। जब वह जवान होता है, तब वह निर्मित हो चुका। अब उचित है कि जो उसके भीतर निर्मित हुआ है, वह उस दिशा से ही खोजे
कठिनाई तो तब है, जब उस दिशा से पाया न जा सके। पाया जा सकता है। कोई ब्राह्मण ऐसे किसी सत्य को नहीं पा लिया है, जो शूद्र शूद्र रहकर न पा सकता हो। कोई शूद्र ऐसी किसी शांति को नहीं पा लिया है, जो कि ब्राह्मण ब्राह्मण होकर न पा सकता हो। कोई क्षत्रिय किसी ऐसी चीज को नहीं पा लिया है, जो कि शूद्र शूद्र रहकर न पा सकता हो।
न पा सकता हो, तब सवाल उठता है। लेकिन जहां तक आत्मिक अनुभव का संबंध है, जहां तक परमात्मा के द्वार की खोज की बात है, वहां तक कहीं से भी उसे पाया जा सकता है। और अपने ही कर्म में और अपने ही गुण के अनुसार बर्तते हुए सरलता से पाया जा सकता है, अन्यथा चीजें अकारण ही जटिल हो जाती हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, प्रश्न का दूसरा हिस्सा रह गया है, जिसमें आप यह कहना चाहते थे कि आज के युग में शूद्र के घर में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण क्या करेगा?

व्यवस्था विकृत हुई है। चीजें अस्तव्यस्त हो गई हैं। आज शूद्र के घर में उत्पन्न हुआ बेटा, पहली तो बात, मुझसे पूछने नहीं आएगा कि मैं क्या करूं। हमारे उत्तरों पर निर्भर नहीं रहेगा। शूद्र का बेटा, शूद्र का बेटा है, यह मानने को ही राजी नहीं है, पहली बात। इनकार कर चुका है। उसने ब्राह्मण होने की कोशिश शुरू कर दी है। ब्राह्मण ने वैश्य होने की कोशिश शुरू कर दी है। वैश्य ने कुछ और होने की कोशिश शुरू कर दी है। सब किसी और कोशिश में लगे हैं। वे सब कोशिश में लगे हैं कुछ और होने की।
पूरा समाज, जो जहां खड़ा है, वहां खड़े होने को राजी नहीं है। कहीं और जाने के लिए आतुर है। एक विक्षिप्तता है समाज में आज। आज तो कोई भी जहां है, वहां रहने को राजी नहीं है, दौड़ ही रहा है। उस दौड़ के दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे हैं।
मैं उन ब्राह्मणों के पक्ष में नहीं हूं, जो इसलिए भयभीत हैं कि अगर शूद्र ब्राह्मण हो जाएं, अगर शूद्र भी ज्ञानवान हो जाएं, तो उनकी कोई बपौती छिन जाएगी। उनके पक्ष में नहीं हूं। जिन ब्राह्मणों को ऐसा डर है कि उनकी बपौती छिन जाएगी, उनके पास कोई बपौती ही नहीं है। जिन ब्राह्मणों को यह डर है कि कोई और जान लेगा, तो उनका कुछ छिन जाएगा, उन्होंने कुछ जाना ही नहीं है। ब्रह्म किसी की बपौती नहीं है। ज्ञान और सत्य किसी की बपौती नहीं है।
ब्राह्मण को भयभीत होने की जरूरत नहीं है। भयभीत इसीलिए है कि वह ब्राह्मण नहीं है। शूद्र को भी भयभीत होकर कुछ और होने की जरूरत नहीं है। जरूरत इसीलिए पड़ रही है कि वह भी नहीं समझ पा रहा है कि शूद्र होने का क्या अर्थ है! शूद्र शब्द ही निंदा का हो गया है। ब्राह्मण शब्द ही पूजा का हो गया है। जब ऐसी विकृति हो गई है, तो शूद्र रोके नहीं जा सकते; वे तो दौड़ेंगे और ब्राह्मणों की पंक्ति में सम्मिलित होंगे। दौड़ेंगे, वैश्य बनेंगे। दौड़ेंगे, क्षत्रिय बनेंगे। और यह सारी की सारी दौड़ पूरे समाज को एक मिश्रित ढंग दे देगी। जैसा कि सारी दुनिया में है। सिर्फ भारत में एक अमिश्रित व्यवस्था थी, जहां चीजें बंटी थीं--पैरेलल, समानांतर। और हमने एक गहरा प्रयोग किया था।
मैं तो अपनी तरफ से यही सुझाव दूंगा कि शूद्र शूद्र होने के गुण और कर्म के अर्थ को समझे। वह बहुत मीनिंगफुल है। और अगर उसे ऐसा लगे कि नहीं, उसकी जीवन की नियति वह नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, उसे ऐसा लगे भीतर से कि उसकी नियति यह नहीं है, तो उसे जो लगे नियति, वह उस तरफ जाए। लेकिन दूसरे की स्पर्धा में न जाए। इसलिए ब्राह्मण न होना चाहे कि ब्राह्मण बहुत मजे लूट रहे हैं, इसलिए मैं ब्राह्मण हो जाऊं। तब वह अपने गुण-कर्म का विचार नहीं कर रहा है।
कोई ब्राह्मण इसलिए शूद्र न हो जाए कि शूद्र आज बड़ी प्रिफरेंस पा रहे हैं! प्रिविलेज्ड क्लास है इस वक्त शूद्रों की। इस वक्त शूद्र जो हैं, जैसे कभी ब्राह्मण प्रिविलेज्ड थे, ऐसे आज शूद्र हैं। आज, मुझे पता है भलीभांति कि न मालूम कितनी यूनिवर्सिटीज में, न मालूम कितने कालेजों और स्कूलों में, न मालूम कितने लड़कों ने अपने को शूद्र गिनाया हुआ है, जो कि शूद्र नहीं हैं। क्योंकि शूद्र को स्कालरशिप भी है; शूद्र को नौकरी में भी स्थान नियत है। आज नहीं कल, ब्राह्मण भी शूद्र होने को आतुर हो सकता है।
क्योंकि शूद्र किसलिए आतुर है ब्राह्मण होने को? क्योंकि ब्राह्मण कल तक प्रिविलेज्ड क्लास थी; महत्वपूर्ण थी। उसका ब्राह्मण होना ही पर्याप्त था। कल शूद्र होना भी महत्वपूर्ण हो सकता है। और जैसी हालत चल रही है, उसमें हो जाएगा। और जो शूद्र के घर में पैदा नहीं होगा, वह भगवान को कोसेगा कि एकदम गलत बात की। शूद्र के घर में पैदा करते, तो इलेक्शन में भी सुनिश्चित सीट थी। जगजीवनराम से पूछिए! शूद्र होना गुण है! और कोई भी गुण न हो, तो शूद्र होना भी गुण है अब! जैसा कभी ब्राह्मण होना गुण था!
तो मैं तो कहूंगा, जरा जल्दी मत करो शूद्रों से, ब्राह्मण होने की। ब्राह्मण शूद्र हो जाएंगे। जगजीवनराम कौन न होना चाहेगा? जगजीवनराम में वैसे कोई भी गुण न हों, लेकिन शूद्र होना बड़ा गुण है!
यह आज की जो विकृत स्थिति है, इसमें कोई मेरी सलाह से नहीं रुकने वाला है। लेकिन मेरी अपनी समझ यही है। आज तो दौड़ शुरू हो गई है। बीमारी चल चुकी है। रोकना करीब-करीब असंभव है। लेकिन जो मुझे ठीक लगता है, वही मुझे कहना चाहिए। मुझे तो ठीक यही लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण-कर्म को ठीक से जांच-पड़ताल कर ले, फिर आगे बढ़े।
अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिक सलीवान या पर्ल्स या और दूसरे मनोवैज्ञानिक इस सुझाव पर खड़े हैं कि प्रत्येक स्कूल में एक-एक मनोवैज्ञानिक होना चाहिए अनिवार्य रूप से, प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में। क्यों? क्योंकि वे कहते हैं कि जब तक बच्चे का गुणधर्म न समझा जा सके, तब तक तय नहीं करना चाहिए कि उसे क्या शिक्षा दी जाए। बाप तय नहीं करे; क्योंकि बाप को क्या पता कि बच्चे का गुणधर्म क्या है? यह बच्चा गणितज्ञ बन सकता है कि संगीतज्ञ, यह बाप कैसे तय करेगा? रुझान से, कि बाप को संगीत अच्छा लगता है, इसलिए तय कर ले कि मेरा लड़का संगीतज्ञ हो जाए? लेकिन लड़के में गुणधर्म है या नहीं? या बाप तय कर ले कि लड़का इंजीनियर हो जाए, क्योंकि इंजीनियर की बाजार में कीमत है, मार्केट वैल्यू है! तो फिर, लेकिन लड़का इंजीनियर होने का गुणधर्म लिए है या नहीं?
पश्चिम का मनोवैज्ञानिक कह रहा है कि आज जगत में जो इतना संताप है, उसका कुल कारण यह है कि कोई भी अपनी जगह पर नहीं है। इसका क्या मतलब हुआ? इसलिए वे कहते हैं, एक-एक मनोवैज्ञानिक बिठा दो हर प्राइमरी स्कूल में, जो चार साल बच्चों का निरीक्षण करके लिखे कि यह बच्चा क्या हो सकता है, इसका झुकाव क्या है, इसका एप्टिटयूड क्या है!
यह वही बात हो गई। अगर मनोवैज्ञानिक तय कर दे कि एप्टिटयूड क्या है, और वह कह दे कि इस बच्चे को शूद्र होना है, इसको मजदूर होना चाहिए; तो फिर क्या हुआ? फिर वापस वर्ण लौटा!
हमने जन्म से तय किया था; अब जन्म से तय न हुआ। जन्म से तय करना परमात्मा के हाथों में छोड़ना था। प्राइमरी स्कूल में एक मनोवैज्ञानिक के हाथ में छोड़ना है, जो कि परमात्मा जैसे कुशल हाथ नहीं हो सकते। कम से कम मनोवैज्ञानिक के हाथ, मनोवैज्ञानिक खुद आधे पागल हैं, इनके हाथ में तय करवाना कि बच्चा क्या बने--शूद्र, कि ब्राह्मण, कि क्षत्रिय, कि वैश्य--क्या बने? कहां जाए? इसकी जीवन-यात्रा क्या हो? एक मनोवैज्ञानिक तय करे!
हमने जो सोचा था, वह ज्यादा गहरा था। हमने सोचा था कि यह जीवन की व्यवस्था आत्मा का अपना झुकाव है। और परमात्मा के नियमों के अनुसार, जन्म के साथ ही क्यों न तय हो जाए? आत्मा क्यों न अपने ही चुनाव से उस घर में पैदा हो जाए, जहां उसका एप्टिटयूड हो, जहां उसका झुकाव हो।
यह बहुत आश्चर्य की बात है। हिंदुस्तान में शूद्रों को हुए कोई दस हजार वर्ष होते हैं। दस हजार वर्षों में शूद्रों ने कोई बगावत नहीं की, कोई विद्रोह नहीं किया। अगर शूद्र अपने भाग्य से बहुत नाखुश थे, तो बगावत हो जानी चाहिए थी। लेकिन वे नाखुश नहीं थे। उनका एप्टिटयूड मेल खा रहा था; वे नाखुश नहीं थे, असंतुष्ट नहीं थे।
इधर दो सौ वर्षों में अंग्रेजी-व्यवस्था के बाद नाखुश होने शुरू हुए। पहली बार एक ऐसी समाज-व्यवस्था सत्ता में आई इस मुल्क में, जिसको वर्ण की आंतरिक धारणा का कोई भी पता नहीं था। उसने चीजों को तोड़ना शुरू किया। उसने वर्णों और वर्गों को लड़ाना शुरू किया। उसने हिंदू को मुसलमान से लड़ाया, इतना ही नहीं; उसने शूद्र को ब्राह्मण से लड़ाया। उसने सारा अस्तव्यस्त कर दिया। उसने भारत की बहुत गहरी जड़ें, जो हजारों सालों में हमने आरोपित की थीं, सब हिला डालीं। आज तो सब अव्यवस्थित है।
फिर भी मैं यही कहूंगा कि व्यक्ति अपने गुणधर्म को ही सोचे। जन्म की बहुत फिक्र न भी करे, तो भी बहुत आंतरिक सोच-समझ, इंट्रास्पेक्शन से सोचे कि मैं क्या हो सकता हूं! अगर उसे लगता हो कि वह ब्राह्मण हो सकता है, तो ब्राह्मण की यात्रा पर निकल जाए। अगर उसे लगे कि वह शूद्र हो सकता है, तो शूद्र की यात्रा पर निकल जाए। नहीं तो मनोवैज्ञानिक से पूछे। मगर राजनीतिज्ञ से न पूछे। अभी वह राजनीतिज्ञ से पूछ रहा है। अंधे अंधों को मार्गदर्शन दें, तो जो हो सकता है, वह हो रहा है।

प्रश्न:

भगवान श्री, एक छोटा प्रश्न, उस पर कुछ कहिए। आधुनिक युग में डाक्टर, इंजीनियर और पोलिटीशियन को आप कौन-से वर्ण में रखेंगे?


डाक्टर, इंजीनियर इनको किस वर्ण में रखेंगे!

पोलिटीशियन?

पोलिटीशियन? वर्णसंकर! पोलिटीशियन का कोई वर्ण होता है? पोलिटीशियन का कोई वर्ण नहीं होता; वर्णसंकर! क्योंकि पोलिटीशियन कोई धंधा नहीं है; जैसे प्रास्टीटयूशन कोई धंधा नहीं है।
टेक्नीशियन जो है, वह शूद्र के वर्ण में जाएगा, किसी भी भांति का टेक्नीशियन। शूद्र, सब तरह के शिल्प शूद्र में जाएंगे। इंजीनियर शूद्र में जाएगा। सब तरह के टेक्नीशियन; जो किसी टेक्नीक पर जीते हैं, तकनीक पर जीते हैं, शिल्प पर जीते हैं, कार्य की कुशलता और क्राफ्ट पर जीते हैं, वे सब शूद्र में जाएंगे।
शूद्र छोटा वर्ण नहीं है, बहुत अदभुत है, और बहुत बड़ा है; और बहुत बहुमूल्य है। उसकी अपनी महत्ता है। समस्त शिल्पी शूद्र में जाएंगे।
लेकिन अगर कोई इंजीनियर इंजीनियरिंग न करता हो, प्योर इंजीनियर हो--जैसा प्योर मैथमेटीशियन होता है। एप्लाइड मैथमेटीशियन तो शूद्र में जाएगा; प्योर मैथमेटीशियन ब्राह्मण में जाएगा। एक इंजीनियर, जो कि कोई मकान न बनाता हो, कोई सड़क न बनवाता हो, कुछ करता न हो, लेकिन इंजीनियरिंग के संबंध में केवल मानसिक शोध और खोज करता हो, तो फिर वह ब्राह्मण में चला जाएगा।
एक डाक्टर अगर चीरा-फाड़ी करता हो, मलहम-पट्टी करता हो, तो शूद्र में जाएगा। शिल्पी है। लेकिन एक डाक्टर, न तो चीरा-फाड़ी करता हो, न मलहम-पट्टी करता हो, लेकिन मेडिसिन की खोज करता हो, सिर्फ औषधियों की खोज करता हो, तो फिर ब्राह्मण में चला जाएगा। एक डाक्टर अगर न औषधियों की खोज करता हो, न मलहम-पट्टी करता हो, सिर्फ दवाइयां बेचता हो, तो वैश्य में चला जाएगा।
यह निर्भर करेगा, इट डिपेंड्स कि वह आदमी क्या करता है। उसके करने से तय होगा कि वह किस वर्ण में जाता है। अगर वह शिल्पी है, काम महत्वपूर्ण है, तो वह शूद्र में चला जाएगा। अगर वह व्यवसायी है और धन महत्वपूर्ण है, तो वह वैश्य में चला जाएगा। अगर वह सिर्फ शक्ति की खोज में है, सत्ता की खोज में है; जो भी वह कर रहा है, उसके करने के माध्यम से वह शक्ति की ही पूजा कर रहा है...। अगर एक फिजिसिस्ट, एक भौतिकी वैज्ञानिक इसलिए अणु का विस्फोट कर रहा हो कि अणु के विस्फोट से वह प्रकृति पर विजय पा लेगा, तो वह क्षत्रिय है। लेकिन अगर वह अणु-विस्फोट सिर्फ इसलिए कर रहा हो कि अणु के विस्फोट से वह विश्व की मूल शक्ति के निकट पहुंच जाएगा, जिज्ञासा कर रहा हो, तो वह ब्राह्मण है।
ये जो चार वर्ण हैं, ये एप्टिटयूड हैं, ये झुकाव हैं। फिर मिश्रित वर्ण के लोग भी होंगे, कि जो दो काम कर रहे हैं, तीन काम कर रहे हैं, चार काम कर रहे हैं। तो वे मिश्रित होंगे; उनमें सब वर्णों के झुकाव होंगे। लेकिन फिर भी एक वर्ण उनमें महत्वपूर्ण होगा, जो केंद्रीय होगा।
पोलिटीशियन के लिए मैंने कहा कि वह वर्ण में नहीं होगा। उसके वर्ण में होने का उपाय नहीं है।
मैंने सुना, एक बहुत बड़े राजनीतिज्ञ से किसी ने पूछा...। चुनाव था और वह खड़ा था मंच पर। बड़ी मुश्किल में पड़ा था। बड़ी मुश्किल में इसलिए पड़ा था, जैसा कि राजनीतिज्ञ हमेशा पड़े रहते हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ा था, मुश्किल यह थी कि चुनाव की कांस्टिटयूएंसी, चुनाव का क्षेत्र और जो लोग मौजूद थे, वे आधे-आधे बंटे थे; आधे लेफ्टिस्ट थे, आधे राइटिस्ट थे। आधे वामपंथी थे, आधे वामपंथी नहीं थे; विरोधी थे। एक आदमी ने खड़े होकर पूछा कि आप लेफ्टिस्ट हैं? दक्षिणपंथी हैं, वामपंथी हैं--कौन हैं? वह मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वह कहे कि वामपंथी है, तो दक्षिणपंथी नाराज हो जाएं; वह कहे दक्षिणपंथी है, तो वामपंथी नाराज हो जाएं। उसने टालने की कोशिश की। फिर किसी ने पूछा कि ठीक से जवाब दो, आप बाएं जाओगे कि दाएं? उसने कहा, मैं तो सीधा जाऊंगा। बाएं-दाएं बिलकुल जाता ही नहीं।
लायड जार्ज एक चुनाव में खड़ा था। पिछले चुनाव में वह किसी और दल की तरफ से लड़ा; इस चुनाव में किसी और दल की तरफ से लड़ रहा था। किसी ने खड़े होकर पूछा कि आप क्या हैं? आप कंजरवेटिव हैं? लिबरल हैं? सोशलिस्ट हैं, कम्यूनिस्ट हैं--क्या हैं? उसने कहा, मैं पोलिटीशियन हूं; मैं सिर्फ राजनीतिज्ञ हूं। मैं और कोई नहीं हूं।
राजनीतिज्ञ का कोई धंधा नहीं है। असल में गैर-धंधी लोगों का धंधा है। जिनके पास कोई धंधा नहीं है, जिनके वर्ण का कोई ठिकाना नहीं है, कोई एप्टिटयूड नहीं है। जिंदगी में जिन्हें कुछ और करने योग्य नहीं लगता...।
लेकिन अगर ठीक व्यवस्था हो, अगर ठीक व्यवस्था हो तो जो लोग राजनीति पर सोचते हैं, पोलिटीशियंस नहीं, पोलिटिकल थिंकर्स--वे तो ब्राह्मण होंगे। लेकिन जो राजनीति को चलाते हैं, अगर ठीक व्यवस्था हो, सुसंगत व्यवस्था हो, तो वे टेक्नीशियन होंगे! तो वे शूद्र में जाएंगे।
लेकिन अभी उनकी कोई स्थिति नहीं है। अभी वे वर्णसंकर हैं। इसलिए मैंने वर्णसंकर कहा है।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यंविकर्मणः
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। 17।।

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।

हते हैं कृष्ण, कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप और निषिद्ध कर्म का स्वरूप जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।
निषिद्ध कर्म, वे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं, उनका स्वरूप भी जानना चाहिए।
पहले सूत्र में कर्म और अकर्म की बात की। अब वे तीसरा एक और तत्व जोड़ते हैं। वे कहते हैं, निषिद्ध कर्म, उसका स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है। गहन मतलब, सूक्ष्म, बारीक। पता नहीं चलता, रहस्यपूर्ण है। कब कर्म कर्म होता, कब अकर्म होता, यह तो है ही कठिनाई। कर्म कभी-कभी निषिद्ध कर्म भी होता है, तब और कठिनाई है। निषिद्ध कर्म के संबंध में थोड़ी बात खयाल में ले लेनी चाहिए।
निषिद्ध कर्म को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो, कि हम कुछ कर्मों को तय कर लें कि ये निषिद्ध हैं, जैसा कि अदालत करती है, कानून करता है। कानून, कर्म तय कर लेता है कि ये निषिद्ध हैं। चोरी करना निषिद्ध है; हत्या करना निषिद्ध है; आत्महत्या करना निषिद्ध है। कुछ कर्म तय कर लिए हैं। ये निषिद्ध हैं, ये नहीं करने चाहिए।
लेकिन कानून बहुत बारीक नहीं होता। धर्म और भी बारीक खोज करता है। धर्म जानता है कि कभी-कभी कोई कर्म किसी परिस्थिति में निषिद्ध हो जाता है और किसी परिस्थिति में निषिद्ध नहीं होता। हत्या साधारणतया निषिद्ध है, युद्ध के मैदान पर निषिद्ध नहीं होती है।
निषिद्ध निर्णीत चीज नहीं है; परिस्थिति के साथ बदल जाती है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि दो निषिद्ध कर्मों के बीच विकल्प खड़ा हो जाता है, आल्टरनेटिव हो जाता है। क्या करो? सच बोलो, तो हिंसा हो जाती है। हिंसा बचाओ, तो झूठ बोलना पड़ता है। फिर क्या करो? दो निषिद्ध कर्म आड़े खड़े हो जाते हैं। एक को बचाओ, तो दूसरा निषिद्ध कर्म होता है। दूसरे को बचाओ, तो पहला हो जाता है।
बहुत पुरानी एक तार्किक गुत्थी है। एक आदमी अपने रास्ते से गुजर रहा है, एक ब्राह्मण। सीधा-सादा आदमी है। एक कसाई भागा हुआ आया है। वह अपनी गाय को खोज रहा है, जो उसके हाथ से छूटकर भाग गई है। वह उस आदमी से पूछता है, ब्राह्मण से कि यहां से एक गाय भागी गई है? हाथ में उसके काटने की कुल्हाड़ी है। ब्राह्मण देखता है, कसाई है। आंखें बताती हैं, हाथ की कुल्हाड़ी बताती है, खून के धब्बे बताते हैं। वह कहता है, गाय यहां से गई है? गाय किस तरफ गई है?
वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया। बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने किताब में पढ़ा है कि झूठ बोलना निषिद्ध कर्म है। लेकिन सच बोले, तो यह कसाई गाय को पकड़ लेगा और हत्या करेगा। तो मैं भी भागीदार हो जाऊंगा। और गोहत्या तो निषिद्ध है ही। सभी हत्याएं निषिद्ध हैं। फिर हत्या में भागीदार होना निषिद्ध है। अब अगर झूठ बोलूं, तो भी निषिद्ध कर्म हो जाएगा; सच बोलूं, तो भी निषिद्ध कर्म होकर रहेगा। वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया।
उस कसाई ने कहा कि जल्दी बोलो। पता हो, तो बोलो; नहीं पता हो, तो कहो कि नहीं पता है। उस ब्राह्मण ने कहा, मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। जरा मुझे सोचने दो। निषिद्ध कर्मों का सवाल है। उस कसाई ने कहा, पागल, मैं पूछता हूं, मेरी गाय कहां है? निषिद्ध कर्मों का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ गाय का सवाल है। गाय कहां गई है? तू जानता हो, देखा हो, बोल! न जानता हो, न देखा हो, वैसा बोल! उसने कहा कि अभी ठहरो। सवाल निषिद्ध कर्मों का है।
जिंदगी जटिल है। उसमें चीजें ऐसी नहीं होतीं, जैसी शास्त्रों में होती हैं। शास्त्र सरल है, हालांकि लोग शास्त्रों को जटिल समझते हैं और जिंदगी को सरल समझते हैं। शास्त्र बिलकुल सरल हैं; जिंदगी बहुत जटिल है। क्योंकि शास्त्रों के सब सवाल निर्णीत सवाल हैं; जिंदगी के सब सवाल अनिर्णीत हैं। वहां प्रतिपल तय करना पड़ता है कि क्या करूं? और ऐसे क्षण रोज आ जाते हैं, जब कोई शास्त्र साथ नहीं देता, स्वयं ही निर्णय करना पड़ता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जटिल है, गहन है कर्म की गति। उस कर्म की गहन गति को ठीक समझने के लिए पहले तो निषिद्ध कर्म के तत्व को ठीक से समझ लेना चाहिए। कर्म और अकर्म को तो समझना ही चाहिए, निषिद्ध कर्म को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि कर्म और अकर्म तो अल्टिमेट है, आखिरी सवाल है। लेकिन निषिद्ध कर्म, डे टु डे, इमीजिएट है, रोज का सवाल है। उठे नहीं, कि तय करना पड़ता है कि क्या करें!
रात आप करवट बदलते हैं। निषिद्ध कर्म करते हैं करवट बदलकर! आप कहेंगे, क्या पागलपन की बात करते हैं! रात करवट नहीं बदलेंगे, तो क्या होगा? महावीर की किताब पढ़ें। महावीर का शास्त्र कहता है कि रात करवट बदलना निषिद्ध है। महावीर ने करवट नहीं बदली। रातों-रात एक ही करवट सोए। क्योंकि रात करवट बदलें, पास में कोई कीड़ा-मकोड़ा दब जाए, तो उसकी हत्या हो जाए। संभावना है, रात है, अंधेरा है, करवट बदली, कीड़ा-मकोड़ा दब जाए। तो एक ही करवट सोना, कम से कम हिंसा की संभावना रहेगी। एक करवट तो सोना ही पड़ेगा। जितने मर गए, मर गए। दूसरी करवट से बचो; निषिद्ध कर्म है।
महावीर जमीन पर पैर भी फूंककर रखेंगे। सूखी जमीन पर पैर रखेंगे; इसलिए महावीर वर्षा में यात्रा नहीं करेंगे। क्योंकि गीली जमीन में कीटाणु पैदा हो जाते हैं। पानी पड़ जाए, गीली जमीन हो, कीटाणु पैदा हो जाए। तो वर्षा में पैर ही मत रखो; निषिद्ध कर्म है।
किस चीज को निषिद्ध कहें? जीसस से पूछो, मोहम्मद से पूछो, महावीर से पूछो, राम से पूछो, कनफ्यूशियस से पूछो। अगर सबकी बातें सुन लो, तो आदमी हिल भी न सके, सांस भी न ले सके। देखा है न, जैन साधु-साध्वी मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं! वह सांस से बचाने के लिए, कि सांस की गर्म हवा आस-पास के कीटाणुओं को मार देगी, तो निषिद्ध कर्म हो जाए! तो नाक पर पट्टी बांधे हुए हैं। गर्म हवा पट्टी में रुक जाए, तो थोड़ी हवा के कीटाणुओं को बचाने की सुविधा हो जाएगी। मुश्किल है!
और ऐसा नहीं है कि इन बड़े तीर्थंकरों, अवतारों, समझदारों, बुद्धिमानों, ज्ञानियों की बात से मुश्किल होती है। जिंदगी जटिल है। वे जो भी कह रहे हैं, सब ठीक कह रहे हैं। लेकिन सभी की बातें जिंदगी के निश्चित पहलू को छू पाती हैं! और जिंदगी रोज अनिश्चित है। सब बदल जाता है।
महावीर ने कहा कि खेती मत करो, क्योंकि खेती निषिद्ध कर्म है; क्योंकि खेती में बहुत हिंसा होती है। होगी ही। इसलिए महावीर को मानने वाले लोगों ने खेती बंद कर दी। खेती बंद कर दी, लेकिन महावीर ने कभी सोचा न होगा कि खेती बंद करके ये और भी निषिद्ध कर्म न करने लगें! खेती तो बंद कर दी--और महावीर के अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, क्योंकि महावीर क्षत्रिय थे। अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, तलवार उठा नहीं सकते; क्योंकि जब खेती नहीं कर सकते, तो तलवार उठाना तो बहुत निषिद्ध हो जाएगा। युद्ध में जा नहीं सकते; सैनिक का काम कर नहीं सकते; क्षत्रिय रहे नहीं। खेती कर नहीं सकते; किसान रहे नहीं। अब क्या उपाय है? शूद्र होने की हिम्मत नहीं है। ब्राह्मण दरवाजे बंद किए बैठे हैं; वे भीतर घुसने न देंगे। सिवाय वैश्य होने के उन्हें कोई रास्ता नहीं रह गया। इसलिए समस्त महावीर के मानने वाले व्यापारी हो गए, वैश्य हो गए।
लेकिन वैश्य होकर उन्होंने इतनी हिंसा की, जितनी कि वे किसान होकर कभी न करते! कभी न करते इतनी हिंसा। लेकिन दिखाई नहीं पड़ती है। रुपए को आप हाथ में लो, हिंसा का बिलकुल पता नहीं चलता। रुपया बिलकुल साफ मालूम पड़ता है। उसमें कहीं खून का धब्बा नहीं होता। हालांकि रुपए में जितने खून के धब्बे होते हैं, किसी और चीज में नहीं होते। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। एकदम साफ है।
कहना चाहिए, स्वच्छ हिंसा है; एकदम साफ-सुथरी, क्लीन वायलेंस! कहीं कोई धब्बा नहीं, दाग नहीं। धुला हुआ रुपया है; तिजोरी में सम्हालकर रखा है। कहीं कुछ पता नहीं चलता कि किसकी गर्दन कटी इसमें; किसके प्राण गए इसमें; कौन सूली लटका; किसकी जमीन बिकी; किसका मकान मिटा; कौन विधवा हुई; क्या हुआ--इसका कुछ पता नहीं चलता।
रुपया बड़ा अदभुत है। वह सब तरह के खून से गुजरे, सब तरह के अपराध से गुजरे, हमेशा ताजा बाहर आता है। वह कभी बासा नहीं होता। कितने ही हाथों से गुजरे, कुछ भी उपद्रव उस पर बीते, वह हमेशा साफ धुला बाहर निकल आता है। जब आपके हाथ में आता है, तब उसके पास कोई इतिहास नहीं बचता। इतिहास खतम हो जाता है। रुपया सीधा-साफ होता है। रुपए का कोई इतिहास नहीं बचता।
फिर रुपए इकट्ठे किए। इसलिए महावीर को मानने वाले-- महावीर ने खुद कभी न सोचा होगा कि मेरे मानने वाले! महावीर नग्न खड़े हैं रास्तों पर; धन-दौलत छोड़ दी है सब; सोचा भी न होगा कि मेरे मानने वालों के पास इस मुल्क में सबसे ज्यादा धन-दौलत इकट्ठी हो जाएगी। मगर निषिद्ध कर्म से हो गई। कहा तो ठीक ही था; निषिद्ध कर्म बताया था, ठीक बताया था; लेकिन यह सोचा न था कि एक तरफ से निषिद्ध कर्म बचे, तो दूसरी तरफ से प्रकट हो सकता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म की गति गहन है। इधर से छोड़ो, उधर से पकड़ लेती है। उधर से छोड़ो, इधर से पकड़ लेती है। तो निषिद्ध कर्म क्या है, इसे ठीक से जान लेना जरूरी है। और जो इसे ठीक से नहीं जान पाए, तो कर्म-अकर्म को जानना तो बहुत दूर है; अक्सर वह निषिद्ध कर्मों में ही जीवन को गंवा देता है। एक से बचता है, दूसरे में उलझ जाता है। जिंदगी का रास्ता कुएं और खाई के बीच है। इधर गिरो तो कुआं है, उधर गिरो तो खाई है। और बीच में चलना बहुत कठिन है। बारीक है; तलवार की धार जैसा है। इतना बारीक है कि सम्हलना मुश्किल है बीच में।
किस चीज को कृष्ण निषिद्ध कहेंगे, वह उनके आगे के सूत्र में हम उनकी व्याख्या को समझें।

आखिरी सूत्र ले लें; फिर हम सुबह बात करेंगे।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः
बुद्धिमान्मनुष्येषुयुक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।। 18।।

जो पुरुष कर्म में अकर्म को देखे, और जो पुरुष अकर्म में कर्म को देखे, वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।

थोड़ी-सी बात इस संबंध में समझ लें।
कृष्ण कहते हैं, जो कर्म में अकर्म को देखे और अकर्म में कर्म को देखे, वह व्यक्ति ज्ञानवान है।
कर्म में अकर्म को देखे, उलटा। कर्म में अकर्म को देखने का अर्थ हुआ, करते हुए भी जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी ऐसा तभी जाना जा सकता है, जब साक्षी का भाव हो।
आप भोजन कर रहे हैं। भोजन करते हुए भी जाना जा सकता है कि आप भोजन नहीं कर रहे हैं। अगर साक्षी हों, तो आप देखेंगे कि शरीर को ही भूख लगी है, शरीर ही भोजन कर रहा है, मैं देख रहा हूं। कठिन नहीं है। थोड़े से जागकर देखने की बात है।
स्वामी राम अमेरिका की एक सड़क से गुजर रहे हैं। कुछ लोगों ने गालियां दीं; और कुछ लोगों ने मजाक किया। हंसते हुए लौटे। जहां ठहरे थे, वहां खिलखिलाकर आकर हंसने लगे। तो घर के लोग चिंतित हुए। उन्होंने कहा, क्या हो गया? अकारण हंसते हैं! राम ने कहा, अकारण नहीं हंसता। आज बड़ा ही मजा आया। रास्ते में ऐसा हुआ कि कुछ लोग राम को मिल गए।
घर के लोग थोड़े हैरान हुए। वे राम की भाषा से परिचित न थे। राम को मिल गए! ऐसा खुद राम कह रहे हैं?
और फिर वे लोग राम को गालियां देने लगे और हंसी-मजाक करने लगे। राम बड़ी मुश्किल में पड़े। राम बड़ी दिक्कत में पड़ गए। उनकी हंसी-मजाक और उनकी गाली के बीच--ऐसा राम कहने लगे--कि राम बड़ी मुश्किल में पड़े। हम भी खड़े देखते थे। राम बड़ी मुश्किल में पड़े। वे लोग गाली देने लगे। तो घर के लोगों ने कहा, आप बातें कैसी कर रहे हैं! होश में तो हैं? नशा वगैरह तो नहीं किया है!
राम ने कहा, नशे में तुम हो! मैं होश में हूं, इसीलिए ऐसी बात कर रहा हूं। नशे में होता, तो मेरी आंख से आग निकल रही होती और मुंह से गालियां निकल रही होतीं। नशे में होता, तो मैं समझ जाता कि वे मुझे ही गाली दे रहे हैं, मुझ पर ही हंस रहे हैं। होश में था, इसलिए मैंने देखा, राम को गाली पड़ रही है, राम पर हंस रहे हैं। हम खड़े देखते रहे।
राम, और हम खड़े देखते रहे, ये दो चीजें हो गईं।
जब आप भोजन कर रहे हैं, तो राम भोजन कर रहे हैं; आप जरा खड़े होकर देखें। आप जरा पीछे खड़े हो जाएं और देखें कि राम भोजन कर रहे हैं। राम को भूख लगी, राम को नींद लगी--आप खड़े पीछे देख रहे हैं। यह पीछे खड़े होकर देखने की कला ही कर्म को अकर्म बना देती है। तब व्यक्ति करते हुए न करने जैसा हो जाता है।
और इससे भी जटिल बात दूसरी कृष्ण कहते हैं कि तब न करते हुए भी कर्ता जैसा हो जाता है। वह और भी कठिन है बात समझनी। यह तो पहली बात समझ में आ सकती है कि अगर साक्षी-भाव हो, तो कर्म होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि मैं कर रहा हूं; देख रहा हूं कि हो रहा है। दूसरी बात और भी गहरी है कि न करते हुए भी कर रहा हूं। इसका क्या मतलब हुआ?
असल में जब कोई व्यक्ति पहली घटना को उपलब्ध हो जाता है कि करते हुए न करने को अनुभव करने लगता है, तब अनिवार्य रूप से दूसरी गहराई भी उपलब्ध हो जाती है कि वह न करते हुए भी अनुभव करता है कि कर रहा हूं। क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं साक्षी हूं, वह व्यक्ति अपने को स्वयं से तो तोड़ लेता है और सर्व से जोड़ देता है। जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं नहीं कर रहा हूं, सब हो रहा है, मैं देख रहा हूं, उसका परमात्मा और उसके बीच तादात्म्य हो जाता है।
फिर वह कुछ भी नहीं करता। हवाएं चल रही हैं, तो भी वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं। चांदत्तारे घूम रहे हैं, तो वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं।
राम कभी एक दिन बहुत खुशी में आ गए, तो उन्होंने हंसकर कहा कि तुम्हें पता है, मैंने ही सबसे पहले चांदत्तारों को गति दी थी। मैंने ही सबसे पहले चांदत्तारों को इशारा किया और चला दिया। लोगों ने कहा, आप? आपने? भरोसा नहीं आता। तो राम ने कहा, अगर तुम समझते हो कि राम ने चला दिया, तो ठीक समझते हो, भरोसे के लायक बात नहीं है। लेकिन मैं कह रहा हूं, मैंने चला दिया, राम ने नहीं। फिर वही बात।
वह जो भीतर है, अगर जान ले कि मैं साक्षी हूं, तो परमात्मा के साथ एक हो जाता है। फिर जो भी हो रहा है, वही कर रहा है। फिर वह अगर खाली भी बैठा हुआ है, तो भी वही कर रहा है। हवाएं भी वही चला रहा है, वृक्ष भी वही उगा रहा है, फूल भी वही खिला रहा है। वह जो बैठा हुआ है वृक्ष के नीचे आंखें मूंदे हुए, वही चांदत्तारे और सूरज भी चला रहा है।
लेकिन वह दूसरी घटना है। पहले तो कर्म में अकर्म का अनुभव हो, तो फिर अकर्म में कर्म का अनुभव होता है।
और जो इस गहन प्रतीति को उपलब्ध हो जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को, सत्य को, सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है।
और साथ ही आपसे यह भी कह दूं कि जो व्यक्ति साक्षी बन जाता है, उसे निषिद्ध कर्म क्या है, यह पहले से तय नहीं करना पड़ता। जब भी जरूरत होती है, जैसे ही वह साक्षी होता है, दिखाई पड़ जाता है कि यह निषिद्ध है और यह निषिद्ध नहीं है। इसे सोचना नहीं पड़ता। उसकी हालत ठीक ऐसे हो जाती है...।
जैसे एक कमरा है अंधेरा। एक अंधा आदमी है; उसे कमरे के बाहर जाना है, तो वह पूछता है, दरवाजा कहां है? स्वभावतः, अंधे आदमी को दरवाजे का पता नहीं है। वह पूछता है, दरवाजा कहां है? अगर कोई बता दे, बता भी दे, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। अंदाज हो जाता है, अनुमान हो जाता है; फिर भी लकड़ी से टटोलता है कि दरवाजा कहां है! बता दिया, तो भी टटोलता है! टटोलता है, तो भी सीधे दरवाजे पर थोड़े ही पहुंच जाता है। कौन टटोलने वाला सीधा पहुंच सकता है? कभी खिड़की को छूता है, कभी कुर्सी को छूता है। फिर टटोल-टटोलकर कहां दरवाजा है, पता लगाता है।
लेकिन आंख वाला आदमी? आंख वाला आदमी पूछता नहीं, दरवाजा कहां है? निकलना है; उठता है और निकल जाता है। आपने कभी खयाल किया, जब आप दरवाजे से निकलते हैं, पहले सोचते हैं, दरवाजा कहां है! फिर देखते हैं कि यह रहा दरवाजा। फिर सोचते हैं, इसी से निकल जाएं। फिर निकल जाते हैं। ऐसी कोई प्रक्रिया होती है? नहीं; आपको पता ही नहीं चलता कि दरवाजा कहां है और आप निकल जाते हैं। दिखता है, तो दरवाजे से निकल जाते हैं।
ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति की साक्षी-भावना गहरी हो जाती है, उसे दिखाई पड़ता है, निषिद्ध कर्म क्या है। दिखाई पड़ता है। टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, शास्त्र नहीं खोलने पड़ते। बस, दिखाई पड़ता है कि निषिद्ध कर्म क्या है। और जो निषिद्ध है, वह फिर नहीं किया जा सकता। और जो निषिद्ध नहीं है, वही किया जा सकता है। बस, वह निकल जाता है। आप उससे पूछेंगे, तो उसको पीछे पता चलेगा कि मैंने वह कर्म नहीं किया। उसे पता नहीं चलता कि मैंने नहीं किया, क्योंकि इतना पता चलना भी सिर्फ अंधों के लिए है। साक्षी-भाव आंख बन जाता है।
इस संबंध में हम सुबह और बात करेंगे।
(पांच मिनट आप रुकेंगे। संन्यासी पांच मिनट परमात्मा के लिए समर्पण का गीत गाएंगे, नाचेंगे। कोई मित्र उसमें सम्मिलित होना चाहें, उनके साथ सम्मिलित हो जाएं। अन्यथा पांच मिनट बैठे रहें; देखें; और फिर विदा हो जाएं।)

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