यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो
विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ
च कृत्वापि
न निबध्यते।।
22।।
और
अपने आप जो
कुछ आ प्राप्त
हो, उसमें ही
संतुष्ट रहने
वाला और
द्वंद्वों से अतीत
हुआ तथा
मत्सरता अर्थातर्
ईष्या से रहित,
सिद्धि और
असिद्धि में समत्व भाव
वाला पुरुष
कर्मों को
करके भी नहीं बंधता है।
जो
प्राप्त हो
उसमें
संतुष्ट, द्वंद्वों
के अतीत--इन दो
बातों को ठीक
से समझ लेना
उपयोगी है।
जो
मिले, उसमें
संतुष्ट! जो
मिले, उसमें
संतुष्ट कौन
हो सकता है? चित्त तो जो
मिले, उसमें
ही असंतुष्ट
होता है।
चित्त तो
संतोष मानता
है उसमें, जो
नहीं मिला और
मिल जाए।
चित्त जीता है
उसमें, जो
नहीं मिला, उसके मिलने
की आशा, आकांक्षा
में। मिलते ही
व्यर्थ हो
जाता है। चित्त
को जो मिलता
है, वह
व्यर्थ हो
जाता है; जो
नहीं मिलता है,
वही सार्थक
मालूम होता है।
चित्त
सदा ही, सदा
ही असंतुष्ट
है। चित्त का
होना ही
असंतोष है।
अगर ऐसा कहें
तो ज्यादा ठीक
होगा कि चित्त
और असंतोष एक
ही चीज के दो
नाम हैं। ऐसा
नहीं कि चित्त
असंतुष्ट
होता है, बल्कि
ऐसा कि चित्त
ही असंतोष है।
क्योंकि जिस
क्षण
संतुष्टि आती
है, उसी
क्षण चित्त भी
चला जाता है।
असंतोष के साथ
ही मन भी चला जाता
है। जिनके
भीतर असंतोष न
रहा, उनके
भीतर मन भी न
रहा।
मन
उसकी
आकांक्षा में
ही जीता है, जो नहीं
मिला है।
इसलिए मन के
लिए जरूरी है
कि जो मिला है,
उससे
असंतुष्ट हो;
और जो नहीं
मिला है, उसमें
संतोष की
कामना में जीए।
जो नहीं मिला
है, उसमें
संतोष खोजे;
और जो मिल
जाए, उसमें
असंतोष खोजे।
यह हमारी
चित्त-दशा है।
ऐसा भी
नहीं है कि जो
आज हमें नहीं
मिला है और लगता
है कि कल मिल
जाए, तो संतोष
मिलेगा; तो
कल मिल जाने
पर संतोष मिल
जाएगा। ऐसा भी
नहीं है। कल
मिलते ही
अचानक हम पाएंगे
कि हमारा
असंतोष आ गया
उस पर, जो
मिला; और
हमारा संतोष
हट गया उस पर, जो अभी नहीं
मिला है।
करीब-करीब
जैसे आकाश का
क्षितिज है, हॅराइजन है। दिखता
है थोड़ी ही
दूर, आकाश
जमीन से मिलता
हुआ। चलें
खोजने। जितना बढ़ेंगे, उतना ही वह
आकाश भी आगे
बढ़ता जाता है।
वह कहीं
पृथ्वी को
छूता नहीं; सिर्फ छूता
हुआ मालूम
पड़ता है, प्रतीत
होता है। एपियरेंस
भर है स्पर्श
का, पृथ्वी
और आकाश का।
कहीं छूता
नहीं है। बढ़ते
जाएं; पूरी
पृथ्वी का
पूरा चक्कर
लगा लें, वह
कहीं छूता हुआ
मिलेगा नहीं।
और फिर भी
कहीं भी ऐसा न
होगा कि आगे
छूता हुआ न दिखाई
पड़े। हमेशा
आगे छूता हुआ
दिखाई पड़ेगा।
जब पहुंचेंगे
उस जगह, तब
तक वह आगे हट
चुका होगा।
संतोष
भी हमारे लिए
क्षितिज-रेखा
की भांति है, सदा आगे
दिखाई पड़ता
है--थोड़े और
आगे चलें, वहां
संतोष है!
जहां हैं, वहां
असंतोष है।
जहां हैं, वहां
आकाश छूता
नहीं, दूर
कहीं छूता है
संतोष, आकाश,
क्षितिज!
बढ़ें; पहुंचें
वहां; पाते
हैं पहुंचकर
कि आकाश आगे
हट गया।
आपकी
वजह से आकाश
आगे नहीं हटता
है। आपसे आकाश
इतना नहीं
डरता है। छूता
होता, तो
छूता ही रहता।
नहीं, आप
बढ़ गए, इसलिए
आकाश भाग नहीं
गया। आकाश
कहीं भी छूता
ही नहीं है; सिर्फ भ्रम
होता है छूने
का। आपके बढ़ने
से आकाश हटता
नहीं है। आकाश
कभी छूता ही
नहीं था; सिर्फ
आपको भ्रम हुआ
था छूने का।
ऐसे ही चित्त
सदा ही भविष्य
में संतोष के
भ्रम में जीता
है।
कृष्ण
उलटी बात कह
रहे हैं। वे
कहते हैं, जो पुरुष जो
मिल जाए, उसमें
संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध
नहीं बांधते।
इन
दोनों की
प्रक्रियाओं
को समझ लेना
चाहिए। जैसी
हमारी स्थिति
है, उसमें जो
मिलता है, वही
असंतोष लाता
है। रहस्य
क्या है? कारण
क्या है?
मैं एक
घर में मेहमान
था। बहुत
चिंतित थे
गृहपति! रात
नींद खो गई
थी। मैंने
उनकी पत्नी को
पूछा, बात क्या
है? उनकी
पत्नी ने कहा,
आप न ही
पूछें।
पूछेंगे तो आप
हंसेंगे, मजाक
उड़ाएंगे।
मैंने कहा, फिर भी! उसने
कहा, ऐसा
है कि इस साल
मेरे पति को
पांच लाख का
लाभ हो गया है;
इससे बड़े
चिंतित हैं।
मैंने कहा, इसमें
चिंतित होने
की क्या बात
है? तो
उसने कहा, आप
उनसे पूछना; वे आपको बताएंगे
कि पांच लाख
की हानि हो
गई। मैंने कहा,
तुम पहेलियां
बूझती हो? तुम
कहती हो, पांच
लाख का लाभ
हुआ। उनसे पूछूंगा,
तो वे बताएंगे,
पांच लाख की
हानि हुई!
उसने
कहा, ऐसा ही
हुआ है। लाभ
पांच लाख का
हुआ है। लेकिन
उनको पहले
खयाल था, दस
लाख का होगा।
इसलिए पांच
लाख की हानि
हो गई! वे बहुत
परेशान हैं।
सच ही, रात मैंने
उनसे पूछा, कुछ तकलीफ
है? चिंतित
दिखाई पड़ते
हैं! उन्होंने
कहा, तकलीफ
कुछ नहीं, बहुत
है। इस साल
पांच लाख की
हानि हो गई।
मैंने कहा, लेकिन आपकी
पत्नी कहती है,
पांच लाख का
लाभ हुआ है।
उन्होंने कहा,
वह कुछ भी
नहीं; दस
लाख बिलकुल
पक्के थे!
असंतोष
का राज है।
असंतोष की भी
अपनी कीमिया है, केमिस्ट्री
है! वह
केमिस्ट्री
यह है, जितना
बड़ा असंतोष
पाना हो, उतनी
बड़ी अपेक्षा
चाहिए। छोटी
अपेक्षा से बड़ा
असंतोष नहीं
पाया जा सकता।
अगर असंतोष
कमाना हो, तो
बड़ी अपेक्षाओं
के आकाश
फैलाने
चाहिए। जितनी
बड़ी अपेक्षा,
उतना बड़ा
असंतोष।
काश, इस आदमी की
अपेक्षा, दस
लाख की न होकर
पांच लाख की
होती, तो
हानि बिलकुल न
होती। अगर इस
आदमी की
अपेक्षा दो
लाख की होती, तो तीन लाख
अतिरिक्त लाभ
होता। अगर इस
आदमी की कोई
भी अपेक्षा न
होती, तो पांच
लाख का शुद्ध
लाभ था, हानि
का कोई प्रश्न
न था। अगर
इसकी अपेक्षा
बिलकुल न होती,
तो पांच नए
पैसे के लिए
भी यह
परमात्मा को
धन्यवाद दे
पाता।
अपेक्षा दस
लाख की थी; पांच
लाख के लिए भी
धन्यवाद नहीं
दे पा रहा है।
पांच लाख जो
नहीं मिले, उनके लिए
क्रोधित है।
अपेक्षा
जितनी बड़ी, उतना बड़ा
असंतोष।
अपेक्षा
जितनी छोटी, उतना कम
असंतोष।
अपेक्षा
शून्य, असंतोष
बिलकुल नहीं।
ऐसा गणित है।
कृष्ण
कहते हैं, जो पुरुष जो
मिल जाए, उसमें
संतुष्ट है...।
कौन-सा
पुरुष
संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित
जीता है, जिसका
कोई एक्सपेक्टेशन
नहीं है। जो
ऐसे जीता है, जैसे जीने
के लिए कोई
अपेक्षा की
जरूरत नहीं है।
फिर जो भी मिल
जाता है, वही
धन्यभाग।
उसके लिए ही
वह प्रभु को
धन्यवाद दे
पाता है।
फकीर
जुन्नैद एक
रास्ते से
गुजरता था।
जोर का एक
पत्थर रास्ते
पर पैर से
टकराया।
लहूलुहान हो
गया पैर। जुन्नैद
नीचे झुक गया
और हाथ जोड़कर
परमात्मा की
तरफ धन्यवाद
देने लगा। साथ
में मित्र थे, उन्होंने
कहा, जुन्नैद
पागल तो नहीं
हो गए! हमने
कभी सुना नहीं
कि किसी के
पैर में पत्थर
लगे, लहू
गिरे, और
वह परमात्मा
को धन्यवाद
दे! जुन्नैद
ने कहा, फांसी
भी लग सकती
थी। जुन्नैद
ने कहा, फांसी
भी लग सकती
थी। धन्यवाद
देते हैं
परमात्मा को
कि सिर्फ पैर
में पत्थर लगा,
और निपटे।
फांसी भी लग
सकती थी।
यह
जुन्नैद, जिन
मित्र की
मैंने कहानी
कही, उनसे
ठीक उलटा है।
यह कहता है, फांसी भी लग
सकती थी।
लेकिन
जुन्नैद को
अगर फांसी भी
लग जाए, तो भी
वह धन्यवाद दे
पाता; क्योंकि
फांसी से बड़े
दुख भी हैं।
धन्यवाद
का जो भाव है, वह उसी
व्यक्ति में
हो सकता है, जिसकी
अपेक्षा कोई
भी नहीं। जब
अपेक्षा कोई भी
नहीं, तो
जो भी मिल
जाता है, जो
भी, उसमें
भी वरदान खोजा
जा सकता है।
और जब अपेक्षा
बहुत होती है,
तो जो भी
मिल जाता है, उसमें ही
अभिशाप का
आविष्कार हो
जाता है; उसी
में अभिशाप
खोज लिया जाता
है। खोज हम पर
निर्भर है।
जो
प्राप्त हो
जाए, उसमें
संतुष्ट कौन
होगा? जिसने
और ज्यादा
प्राप्त नहीं
करना चाहा। सच,
जिसने
प्राप्त ही
कुछ नहीं करना
चाहा। उसे जो भी
मिल जाए, वही
काफी है, जरूरत
से ज्यादा है।
और एक
बार किसी
व्यक्ति को यह
रहस्य पता चल
जाए, तो संतोष
के आनंद की
कोई सीमा नहीं
है। असंतोष के
दुख की कोई
सीमा नहीं है;
संतोष के
आनंद की कोई
सीमा नहीं है।
असंतोष के
नर्क का कोई
अंत नहीं है; संतोष के
स्वर्ग का भी
कोई अंत नहीं
है। लेकिन
संतुष्ट...।
सुकरात
सुबह बैठा है
अपने घर के
द्वार पर। कुछ
बात चलती है।
कोई प्रश्न
पूछ रहा है
सुकरात से, वह जवाब दे
रहा है। उसकी
पत्नी चाय
बनाकर लाई है;
पीछे खड़ी
है। वह क्रोध
से भर गई है।
सुकरात ने उस
पर ध्यान नहीं
दिया; वह
अपनी बात में
तल्लीन है। स्वभावतः,
शायद
पत्नियों की
सबसे बड़ी
आकांक्षा, पति
उन पर ध्यान
दे, इससे
ज्यादा दूसरी
नहीं है।
क्रोध से भर
गई। इतने
क्रोध से भर
गई कि उसने
केतली भरी हुई
गर्म पानी की
सुकरात के ऊपर
डाल दी। उसका
आधा चेहरा जल
गया।
जो
प्रश्न पूछ
रहा था, वह
घबड़ा गया।
उसने सुकरात
से कहा कि यह
क्या हो गया? सुकरात ने
कहा, कुछ
भी नहीं हुआ।
आधा चेहरा बच
गया है! प्रभु
को धन्यवाद।
पूरा चेहरा भी
जल सकता था।
सुकरात हंस
रहा है, आधे
जले चेहरे
में। क्योंकि
उसकी दृष्टि
जले हुए चेहरे
पर नहीं, उसकी
दृष्टि बचे
हुए चेहरे पर
है।
पैर
में जरा-सा
काटा गड़ जाए
हमें, तो
ऐसा लगता है, सारी दुनिया
व्यर्थ हुई।
कोई परमात्मा
नहीं है। सब
बेकार है।
अन्याय चल रहा
है सारे जगत में।
मेरे पैर में,
और कांटा?
शरीर
के हजार-हजार
सुखों के लिए
कभी परमात्मा को
धन्यवाद न
दिया; एक
छोटे से कांटे
के लिए शिकायत
भारी है!
मैंने
सुना है, एक
फकीर बहुत
दिनों तक एक
बादशाह के साथ
था। और बादशाह
का बड़ा प्रेम
उस फकीर पर हो
गया। इतना
प्रेम हो गया
कि बादशाह
सोता भी रात, तो फकीर को
अपने कमरे में
ही सुलाता।
दोनों सदा साथ
होते। एक दिन
शिकार पर गए
थे, भटक गए
मार्ग। दिनभर
के
भूखे-प्यासे
एक वृक्ष के नीचे
पहुंचे।
लेकिन एक ही
फल वृक्ष में
लगा था।
बादशाह ने
अपने घोड़े पर
से हाथ बढ़ाकर
फल तोड़ा।
लेकिन जैसी
उसकी आदत थी, पहले फकीर
को खिलाता था
कुछ भी--प्रेम
से। फल की
उसने फांकें
काटीं, छह टुकड़े
किए, एक
फकीर को दिया।
फकीर
ने खाया और
उसने कहा कि
बहुत
स्वादिष्ट, अदभुत! ऐसा
फल कभी खाया
नहीं। एक फांक
और दे दें।
दूसरी फांक भी
फकीर खा गया।
कहा, बहुत
अदभुत! सम्राट
से कहा, एक
फांक और दे
दें। सम्राट
को थोड़ी
ज्यादती तो
मालूम पड़ी। फल
था एक, भूखे
थे दोनों।
लेकिन तीसरी
फांक भी दे
दी। फकीर ने
कहा, बहुत
खूब, एक
फांक और!
सम्राट को जरा
कठिन मालूम
पड़ा, लेकिन
फिर भी एक
फांक और दे
दी। फिर आखिर
में तो एक ही
फांक बची।
फकीर ने कहा, बस, एक और!
सम्राट ने कहा,
ज्यादती कर
रहे हो। मैं
भी भूखा हूं!
फकीर ने हाथ
से फांक छीन
ली। सम्राट ने
कहा, रुक
जाओ। फांक
वापस लौटा दो।
यह सीमा के
बाहर हो गया।
मेरा तुम पर
प्रेम है, इसका
क्या मतलब, तुम्हारा
मुझ पर जरा भी
प्रेम नहीं?
सम्राट
ने हाथ से
फांक वापस छीन
ली; मुंह में
रखी। कड़वी
जहर थी। थूक
दी। कहा, पागल
तो नहीं हो!
तुम पांच फांकें
खा क्यों गए? और शिकायत
क्यों न की? उस फकीर ने
कहा कि जिन
हाथों से बहुत
मीठे फल खाने
को मिले, उनकी
एक छोटे-से कड़वे
फल की शिकायत?
और इसीलिए
सब फांकें
लेता गया कि
कहीं पता न चल
जाए, अन्यथा
शिकायत पहुंच
ही गई। जिन
हाथों से इतने
मीठे फल खाने
को मिले, उन
हाथ से एक
छोटी-सी कड़वी
फांक की
शिकायत!
ऐसा
व्यक्ति
संतुष्ट हो
सकता है।
संतोष की भी
अपनी
केमिस्ट्री
है, अपनी
कीमिया है, अपना गणित
है।
जो है, उसे ठीक से
देखें, तो
संतोष के लिए
बहुत है। जो
नहीं है, उसके
प्रति आंखों
को दौड़ाते
रहें, तो
जो है, वह
कभी दिखाई
नहीं पड़ता; और जो नहीं
है, उसके
सपने मन को
घेर लेते हैं
और असंतोष को
पैदा कर जाते
हैं।
सत्य
संतोष के लिए
काफी है।
असंतोष के लिए
सपने चाहिए।
यथार्थ संतोष
के लिए काफी
है, असंतोष
के लिए कल्पना
चाहिए। सारे
जगत में लोग
कल्पना के
कारण
असंतुष्ट हैं,
यथार्थ के
कारण नहीं।
यथार्थ
पर्याप्त
संतोष दे सकता
है। लेकिन
कल्पना? कल्पना
सीमा के बाहर
पीड़ा देती है।
कृष्ण
कहते हैं कि
जो मिल जाए, उसमें जो
संतुष्ट
है--जो मिल जाए,
जो प्राप्त
हो जाए, उसमें
जो राजी है; आभार से भरा,
अनुगृहीत--और
द्वंद्व के
पार...। दूसरी
बात वे कहते
हैं, द्वंद्व
के पार, द्वंद्वातीत,
बियांड दि डुअलिटी।
दो के बाहर।
संतुष्ट
हो जाना भी
बहुत कठिन है, फिर भी उतना
कठिन नहीं, जितना
द्वंद्व के
बाहर हो जाना
है। द्वंद्व क्या
है?
सारा
जीवन ही
द्वंद्व है
हमारा। हम दो
में ही जीते
हैं। प्रेम
करते हैं किसी
को; लेकिन
जिसे प्रेम
करते हैं, उसे
ही घृणा भी
करते हैं।
कहेंगे, कैसी
बात कहता हूं
मैं! लेकिन
सारी मनुष्य-जाति
का अनुभव यह
है। और अब तो मनसशास्त्री
इस अनुभव को
बहुत प्रगाढ़
रूप से
स्वीकार कर
लिए हैं कि
जिसे हम प्रेम
करते हैं, उसे
ही घृणा करते
हैं।
द्वंद्व
है हमारा मन।
जिसे हम चाहते
हैं, उसे ही हम
नहीं भी चाहते
हैं। जिससे हम
आकर्षित होते
हैं, उसी
से हम विकर्षित
भी होते हैं।
जिससे हम
मित्रता
बनाते हैं, उससे हम
शत्रुता भी
पालते हैं। ये
दोनों हम एक
साथ करते हैं।
थोड़ा किसी
एकाध घटना में
उतरकर
देखेंगे, तो
खयाल में आ
जाएगा।
जिससे
आप प्रेम करते
हैं, उससे आप
चौबीस घंटे
प्रेम कर पाते
हैं? नहीं
कर पाते। घंटेभर
प्रेम करते
हैं, तो घंटेभर
घृणा करते
हैं। सुबह
प्रेम करते
हैं, तो
सांझ घृणा
करते हैं।
सांझ लड़ते हैं,
तो सुबह फिर
दोस्ती कायम
करते हैं।
पूरे समय घृणा
और प्रेम का
धूप-छांव की
तरह खेल चलता
है।
जिसको
आदर करते हैं, उसके ही
प्रति मन में
अनादर भी
पालते हैं।
मौके की तलाश
में होते हैं,
कब अनादर
निकाल सकें।
जिसको
फूलमाला
पहनाते हैं, किसी दिन उस
पर पत्थर
फेंकने की
इच्छा भी मन में
रहती है। वह
इच्छा दबी हुई
प्रतीक्षा
करती है। फिर
किसी दिन
बहाना खोजकर
वह इच्छा बाहर
आती है। पत्थर
भी फेंक लेते
हैं।
हमारा
मन प्रतिपल
दोहरा है, डबल-बाइंड।
इसलिए जो
बुद्धिमान
हैं, जैसे
कि चाणक्य
ने--जो कि चालाकों
में, अधिकतम
बुद्धिमान
आदमियों में
एक है--चाणक्य ने
कहा है, राजाओं
को सलाह दी है
कि अपने मित्र
को भी वह बात
मत बताना, जो
तुम शत्रु को
नहीं बताना
चाहते हो।
क्यों? क्योंकि
चाणक्य ने कहा,
भरोसा कुछ
भी नहीं है; जो आज मित्र
है, वह कल
शत्रु हो सकता
है।
पश्चिम
में चाणक्य का
समानांतर एक
आदमी हुआ, मैक्यावेली।
वह भी चालाकों
में इतना ही
बुद्धिमान
है। उसने कहा
है, ध्यान
रखना, जिस
बात को तुम
गुप्त नहीं रख
सकते, तुम्हारा
मित्र भी नहीं
रख सकेगा।
इसलिए मित्र को
भूलकर मत
बताना।
क्योंकि जब
तुम खुद ही
गुप्त नहीं रख
सके और मित्र
को बताना पड़ा,
तो तुम इस
भ्रांति में
मत पड़ना
कि तुम जिस
बात को गुप्त
नहीं रख सके, उसको
तुम्हारा
मित्र रख
सकेगा। वह भी
किसी को बता
देगा। और फिर,
जो आज मित्र
है, वह कल
शत्रु हो सकता
है।
मैक्यावेली
ने एक बात और
कही; उसने यह
कहा कि शत्रु
के प्रति भी
इस तरह की बातें
मत कहना, जिन्हें
कि कल लौटाना
मुश्किल हो
जाए। क्योंकि
जो आज शत्रु
है, वह कल
मित्र हो सकता
है। फिर कठिन
होगा। फिर लौटाना
मुश्किल
होगा।
असल
में शत्रु और
मित्र दो
चीजें नहीं
हैं, एक ही साथ
घटित होती
हैं। आप किसी
आदमी को बिना
मित्र बनाए
शत्रु बना
सकते हैं? बहुत
मुश्किल है।
अब तक तो नहीं
हो सका पृथ्वी
पर यह। बिना
मित्र बनाए
किसी को शत्रु
बनाया जा सकता
है? असंभव
है। शत्रु
बनाने के लिए
भी मित्र की
सीढ़ी से
गुजरना ही
पड़ता है।
शत्रु बनाने
के लिए भी
पहले मित्र ही
बनाना पड़ता
है। तो ऐसा भी
समझ सकते हैं
कि जिसको
मित्र बनाया,
अब उसके
शत्रु बनने की
संभावना
घनीभूत हो गई।
जब
कृष्ण कहते
हैं, द्वंद्वातीत...।
मन तो
जीता है
द्वंद्व में, सदा द्वंद्व
में। मन तो
जीता है सदा
विकल्प में।
सदा ही दो
विकल्प खड़े
रहते हैं। जो
आप करते हैं, उसके खिलाफ
भी आपका मन
पूरे वक्त
भीतर कहता रहता
है। एक पैर भी
आप उठाते हैं,
तो मन का
दूसरा हिस्सा
कहता है, मत
उठाओ। मन कभी
भी सौ प्रतिशत,
हंड्रेड परसेंट
नहीं होता। एक
हिस्सा
निरंतर ही
विरोध करता रहता
है। जिस आदमी
का मन ऐसी
हालत से भरा है,
वह आदमी
द्वंद्व में
घिरा है। वह
सदा ही द्वंद्व
में घिरा
रहेगा। यह
द्वंद्व अगर
बहुत तीव्र हो
जाए, तो वह
आदमी दो खंडों
में टूट जाएगा,
जिसको
मनोवैज्ञानिक
सीजोफ्रेनिया
कहते हैं। वह
आदमी दो खंडों
में टूट
जाएगा। वह एक
ही आदमी दो
आदमियों की
तरह हो जाएगा।
लेकिन
हम इतने
ज्यादा नहीं
टूटते। हमारी
टूट तरल होती
है, लिक्विड होती है। हम
बिलकुल नहीं
टूट जाते दो
खंडों में।
लेकिन हमारे
दो खंड जारी
रहते हैं।
लेकिन फिर भी
हैं तो सीजोफ्रेनिक,
हैं तो
दोहरे।
जो
आपकी प्रशंसा
करता है, कल
आपको एकदम
हैरानी होती
है कि उसने
आपकी निंदा
की। आप गलती
में हैं। आपको
मनोवैज्ञानिक
सत्य का पता
नहीं है।
जिसने
प्रशंसा की, वह बदला चुकाएगा।
वह आज नहीं कल,
कहीं निंदा
करेगा, तब कंपनसेशन
हो पाएगा।
उसने एक काम
कर दिया, अब
उससे उलटा काम
नहीं करेगा, तो संतुलन
नहीं हो
पाएगा। जिसने
एक तरफ प्रशंसा
की, वह कल
कहीं न कहीं
जाकर निंदा
करेगा। जब
प्रशंसा करे,
तभी समझ
लेना। निंदा
की प्रतीक्षा
मत करना, वह
कहीं करेगा।
फ्रायड
ने लिखा है
अपने
संस्मरणों
में, अगर घने
से घने मित्र
भी एक-दूसरे
के संबंध में
यहां-वहां जो
कहते हैं, वह
अगर उन्हें
पता चल जाए, तो इस
पृथ्वी पर एक
भी मित्रता
टिक नहीं
सकती। घने से
घने, इंटीमेट से इंटीमेट,
निकट से
निकट मित्र भी
एक-दूसरे के
खिलाफ यहां-वहां
जो कहते हैं, अगर वह सबको
पता चल जाए, तो इस
पृथ्वी पर एक
भी मित्रता
नहीं टिक
सकती।
कारण
है उसका। मन
सदा ही
परिपूर्ति
खोजता है। उसका
दूसरा हिस्सा
भी है, वह
मांग करता है
कि मुझे भी
पूरा करो।
स्कूल
में शिक्षक पढ़ाता है
बच्चों को।
कैसे डरे हुए
बैठे रहते हैं
बच्चे! सिर
नहीं हिलाते।
श्वास लेते
नहीं मालूम पड़ते।
और शिक्षक ने
पीठ फेरी ब्लैकबोर्ड
पर लिखने को, कि देखें, उनके चेहरे
बदल गए! जितना
शिक्षक ने
उनको डराया था
सामने से, पीठ
के पीछे अगर
उसको पता चल
जाए--अगर
शिक्षक के दो
आंखें खोपड़ी
के पीछे भी
हों--तो उसे
पता चले कि ये
बच्चे जो इतने
सीधे बैठे थे,
ये पीछे
क्या-क्या कर
लेते हैं! वे कंपनसेशन
कर रहे हैं, कुछ और नहीं
कर रहे।
वे
इतना ही कर
रहे हैं कि
इतनी देर तक
जो आदर मांगा, उसका बदला
चुका देते
हैं। फिर वे
हलके हो जाते
हैं। न चुका
पाएं, तो
बहुत कठिनाई
है। इसलिए
बहुत होशियार
लोगों ने ही
तख्ता उलटा
रखा हुआ है।
शिक्षक को
बीच-बीच में
घूमना पड़े, नहीं तो ये
बच्चे
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
अगर पांच-छह
घंटे इनको
इकट्ठा ही दबाव
करना पड़े एक
हिस्से का, तो ज्यादा
खतरनाक है।
इनका बीच-बीच
में निकास होता
रहे, कैथार्सिस
होती रहे।
शिक्षक जब भी मुड़ता है
तख्ते पर
लिखने को, तब
वे मुंह भी
बना लेते हैं,
टोपियां भी
उछाल देते हैं,
एक-दूसरे की
तरफ इशारा भी
कर देते हैं।
तब तक हलके हो
जाते हैं।
शिक्षक लौटा,
तब तक वे
फिर राजी हो
जाते हैं आदर
देने को।
ऐसी हम
सबकी चित्त की
दशा है। डबल-बाइंड है।
यह जो
द्वंद्व है, यह बहुत ऊपर
भी है, बहुत
गहरे भी है।
सतह पर भी है, गहराइयों
में भी है।
गहराइयों में
भी सदा द्वैत
चलता रहता है।
दिन में आदमी
ने उपवास किया
है, रात
भोजन के सपने
देखेगा। कंपनसेशन
है। दिन में
आदमी भला है, ईमानदार है,
रात सपने
में चोरी
करेगा। वह चोर
वाला हिस्सा भी
भीतर है।
ईमानदार के
साथ बेईमान भी
भीतर है। वह
बेईमान क्या
करेगा? अगर
आपने दिन भर
उसे बेईमानी न
करने दी, तो
रात बेईमानी
करके अपनी
तृप्ति कर
लेगा।
मैंने
सुना है, एकनाथ
तीर्थयात्रा
को गए। तो
गांव के लोगों
ने कहा कि हम
भी चलें; बहुत
लोग साथ हो
लिए। गांव में
एक चोर भी था।
उस चोर ने भी एकनाथ को
कहा, मैं
भी चलूं? एकनाथ
ने कहा, भाई
तू जाहिर आदमी
है। फिर बहुत
यात्री साथ होंगे,
कोई गड़बड़ हो,
परेशानी हो!
तो तू एक कसम
खा ले कि चोरी
नहीं करेगा, तो हम साथ ले
लें। तो उस
आदमी ने कहा, कसम खा लेता
हूं कि चोरी
नहीं करूंगा।
कसम खा ली, तो
एकनाथ ने
साथ ले लिया।
एक-दो
रातें तो ठीक बीतीं, लेकिन
तीसरी-चौथी
रात से
मुश्किल शुरू
हो गई। पर
मुश्किल बड़ी
अजीब थी। अजीब
यह थी, चीज
किसी की चोरी
नहीं जाती थी,
लेकिन एक के
बिस्तर की चीज
दूसरे के
बिस्तर में
चली जाती थी।
एक की पेटी की
चीज दूसरे की
पेटी में चली
जाती थी। मिल
जातीं सब
चीजें सुबह, लेकिन बड़ी
हैरानी होती
कि रात कौन
मेहनत लेता है?
और किसलिए
मेहनत लेता है?
एकनाथ
को खयाल आया
कि वह चोर तो
कुछ नहीं कर
रहा है! रात
जागते रहे।
देखा, कोई
बारह बजे रात
वह उठा। इस
बिस्तर की चीज
दूसरे बिस्तर
में कर दी, उस
पेटी की इसमें
कर दी। किसी
का तकिया
खींचकर किसी
के नीचे रख
आया।
एकनाथ
ने कहा, तू
यह क्या करता
है? उस चोर
ने कहा, मैंने
कसम चोरी न
करने की खाई
थी, लेकिन
कम से कम
अदल-बदल तो
करने दें!
क्योंकि दिनभर
किसी तरह अपने
को रोक लेता
हूं, लेकिन
रात बहुत
मुश्किल हो
जाती है। फिर
उस चोर ने कहा,
फिर लौटकर
मुझे अपना
धंधा भी तो
करना है! अगर अभ्यास
बिलकुल टूट
गया, तो आप
ही कहिए, क्या
हालत होगी? ऐसे अभ्यास
भी रहेगा। फिर
मैं किसी का
नुकसान भी नहीं
कर रहा हूं।
सुबह सब चीजें
मिल जाती हैं।
अक्सर तो मैं
ही बता देता
हूं कि जरा
उसके बिस्तर
में देख लो।
कहीं हो!
हम भी
अपनी रात में
यही कर रहे
हैं। दिन में
जो-जो चूक गया, रात कंपनसेशन
कर रहे हैं।
अगर भले
आदमियों के
सपने देखे
जाएं, तो
बड़ी हैरानी
होती है। अगर
बुरे आदमियों
के सपने देखे
जाएं, तो
भी बड़ी हैरानी
होती है।
भले
आदमियों के
सपने अनिवार्यतया
बुरे आदमी
जैसे होते
हैं। और बुरे
आदमी के सपने अनिवार्यतया
भले आदमी जैसे
होते हैं।
डबल-बाइंड
है माइंड।
अच्छे आदमी
बुरे सपने
देखते हैं; बुरे आदमी
अच्छे सपने
देखते हैं।
चोर और बेईमान
सपने में
साधु-संन्यासी
होने की बातें
सोचते हैं।
साधु और
संन्यासी
सपने में चोर
और बेईमान हो
जाते हैं! वह
दूसरा हिस्सा
है मन का। वह भीतर
प्रतीक्षा
करता है। वह
प्रतीक्षा
करता है कि कब?
अगर कहीं
मौका नहीं
मिला, तो
सपने में मौका
खोज लेता है।
यह जो
चित्त है, यह अनिवार्यतया
द्वंद्वात्मक
है, डायलेक्टिकल है। मन के
काम करने का
ढंग
द्वंद्वात्मक
है। इसलिए अगर
कोई विश्वासी
आदमी है, आस्थावान,
श्रद्धालु--तो
बहुत हैरानी
होगी--अगर
विश्वासी
आदमी है, तो
उसके भीतर
गहरे में
संदेह छिपा
रहेगा। अगर
बहुत संदेह
करने वाला
आदमी है, तो
उसके भीतर
गहरे में
विश्वास छिपा
रहेगा।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि जो
लोग जिंदगीभर
आस्तिक होते
हैं, मरने के
करीब-करीब
नास्तिक होने
लगते हैं। क्यों?
क्योंकि जिंदगीभर
तो उन्होंने
ऊपर विश्वास
को सम्हाला; वह संदेह का
हिस्सा भीतर
दबा रहा। फिर
वह धीरे-धीरे
उभरना शुरू
होता है। वह
कहता है, जिंदगीभर तो विश्वास
कर लिया, क्या
मिल गया? वह
भीतर का संदेह
ऊपर आना शुरू
होता है।
अक्सर ऐसा
होता है कि जिंदगीभर
के अविश्वासी
मरते समय
विश्वासी हो
जाते हैं।
भीतर का
विश्वास का
पहलू ऊपर उभर
आता है।
मन
द्वंद्वात्मक
है, दोहरा
है। मन का काम
ठीक वैसा ही
है, जैसे
इस जगत में
सारी चीजें
द्वंद्वात्मक
हैं, पोलर हैं। यहां
सारी चीजें
द्वंद्व से
जीती हैं। अगर
हम प्रकाश को
मिटा दें, तो
अंधेरा मिट
जाएगा। आप
कहेंगे, कैसी
बात कह रहा
हूं? प्रकाश
को बुझा देते
हैं, तो
अंधेरा तो और
बढ़ता है; मिटता
नहीं। लेकिन
प्रकाश का
बुझाना, प्रकाश
का मिटाना
नहीं है। अगर
पृथ्वी पर प्रकाश
बिलकुल न रह
जाए, तो
अंधेरा
बिलकुल नहीं
रहेगा। नहीं
रहेगा इसलिए
भी, कि
अंधेरे का पता
ही तब तक चलता
है, जब तक
हमें प्रकाश
का पता है।
अन्यथा पता भी
नहीं चल सकता।
रहे तो भी पता
नहीं चल सकता।
अगर हम
जन्म को बंद
कर दें, तो
मृत्यु मिट
जाएगी; क्योंकि
जन्म ही नहीं
होगा, तो
मरने को कोई
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा। अगर हम
मृत्यु को रोक
दें, तो
जन्म को रोकना
पड़ेगा।
यही तो
दिक्कत हुई है
सारी दुनिया
में। पिछले दो
सौ वर्षों के
चिकित्सा के
विकास ने
मृत्यु की दर
कम कर दी।
इसलिए अब
संतति निरोध
और बर्थ
कंट्रोल के
लिए हमें
कोशिश करनी पड़ती
है। उधर
मृत्यु की दर
कम हुई, इधर
जन्म की दर कम
करनी पड़ेगी।
जिंदगी
विरोधों के
बीच संतुलन
है। और जिंदगी
विरोध से चलती
है। सारी
जिंदगी
द्वंद्व है।
और सारी
जिंदगी के आधार
में मन है, माइंड है।
इसलिए
जो लोग, जैसे
माक्र्स, एंजिल्स और लेनिन और
माओ, जो
लोग मन के ऊपर
आत्मा में
भरोसा नहीं
करते, वे
लोग डायलेक्टिकल
मैटीरियलिज्म,
द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद की
बात करते हैं।
वे कहते हैं, पदार्थ
द्वंद्व से
चलता है।
इसलिए वे
वर्ग-संघर्ष की
बात करते हैं,
कि समाज भी
द्वंद्व से
चलेगा। गरीब
को अमीर के
खिलाफ लड़ाना
पड़ेगा, तब
समाज चलेगा।
सब समाज
द्वंद्व है।
अगर मन ही सब
कुछ है, तो
जिंदगी में
संघर्ष के
अलावा और कुछ
भी नहीं है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, द्वंद्वातीत,
द्वंद्व के
बाहर, द्वंद्व
के पार, बियांड डायलेक्टिक्स,
दो के बाहर
होता है
अर्जुन जो, वही केवल
कर्म के बंधन
से मुक्त होता
है।
लेकिन
दो के बाहर
कौन हो सकता
है? मन तो
नहीं हो सकता।
मन तो जब भी
रहेगा, दो
के भीतर ही
रहेगा। दो के
बाहर, मन
को भी जो
जानता है, वही
हो सकता है; मन को भी जो
पहचानता है, वही हो सकता
है। घृणा
द्वंद्व के
बाहर नहीं हो
सकती। प्रेम
द्वंद्व के
बाहर नहीं हो
सकता। लेकिन
जो प्रेम और
घृणा को जानने
वाला ज्ञाता है,
नोअर है, वह
बाहर हो सकता
है।
मैं
बैठा हूं।
सुबह हो गई, सूरज निकला।
देखा कि रोशनी
भर गई चारों
तरफ। फिर सांझ
आई, सूरज
डूबा। देखा कि
अंधेरा छा गया
चारों तरफ। फिर
सुबह हुई, फिर
सूरज निकला, फिर प्रकाश
फैल गया।
मैंने देखा
चारों तरफ अंधेरे
को आते, मैंने
देखा चारों
तरफ प्रकाश को
आते। मैंने देखा
जाते प्रकाश
को; मैंने
देखा जाते
अंधेरे को। लेकिन
मैं--जिसने
प्रकाश को भी
देखा और
अंधेरे को भी
देखा--न तो
प्रकाश हूं और
न अंधेरा हूं।
मैं दोनों से
अलग तीसरा हूं,
दि थर्ड।
यह जो
तीसरा है, अगर इसका
मुझे स्मरण आ
जाए, तो
मैं दो के
बाहर हो जाऊं।
तीसरे की याद
आ जाए, तो
दो के बाहर
हुआ जा सकता
है। यदि तीसरे
का स्मरण आ
जाए, तो दो
के बाहर हुआ
जा सकता है।
मन के
द्वंद्व के
बाहर वही हो
सकेगा, जिसे
तीसरे का
स्मरण आ जाए।
जब सुख
आए, तो भीतर
मैं जानूं कि
यह सुख आया, लेकिन मैं
सुख नहीं हूं।
क्योंकि अगर
मैं सुख हूं, तो दुख फिर
कभी नहीं आ
सकता। लेकिन
थोड़ी देर में
दुख आ जाता
है। जब दुख आए,
तो मैं
जानूं कि यह
दुख आया, लेकिन
मैं दुख नहीं
हूं! क्योंकि
अगर मैं दुख हूं,
तो फिर सुख
कभी नहीं आ
सकता। लेकिन
अभी सुख था और
फिर सुख आ
जाएगा।
सुख
आता है, दुख
आता है; घृणा
आती, प्रेम
आता; मित्रता
आती, शत्रुता
आती; हार
होती, जीत
होती; सम्मान
मिलता, अपमान
मिलता--सब
द्वंद्व हैं।
इनके पार अगर
मैं तीसरे को पकड़कर
स्मरण से भर
जाऊं कि मैं
इन दोनों से
भिन्न, दोनों
से अन्य, दोनों
से अलग जानने
वाला हूं, देखने
वाला हूं, विटनेस
हूं, साक्षी
हूं, तो
मैं द्वंद्व
के पार हो
जाता हूं।
कृष्ण
कहते हैं, जो द्वंद्व
के पार हो
जाता है
अर्जुन, वह
समस्त कर्मों
के बंधन से
छूट जाता है।
असल
में बंधन
मात्र
द्वंद्व के
हैं। निर्द्वंद्व
स्वतंत्र है।
द्वंद्व में
घिरा, बंधन
में है। घृणा
के भी बंधन
हैं, प्रेम
के भी बंधन
हैं। सम्मान
के भी बंधन
हैं, अपमान
के भी बंधन
हैं। और प्रशंसा
के भी बंधन
हैं, और
निंदा के भी।
मित्र भी बांध
लेते हैं, और
शत्रु भी।
अपने भी बांधते
हैं, और
पराए भी। सब
बांध लेता है।
हार भी बांध
लेती है, और
जीत भी।
लेकिन
जो दोनों को
जानता है और
दोनों के पार
अपने को देख
पाता है, वह
बंधन के पार
हो जाता है।
उसे फिर कोई भी
नहीं बांध
पाता। बांध भी
लो, तो भी
नहीं बांध
पाते। बंधे
हुए भी वह
बंधन के बाहर
ही होता है, क्योंकि वह
जानता है, मैं
अलग, मैं
भिन्न, मैं
पृथक।
यह जो
पृथकता का बोध
है, यह जो
साक्षी का भाव
है, वह द्वंद्वातीत
ले जाता है।
जो मिल
जाए, जो
प्राप्त हो, उसमें तृप्त,
चित्त के
द्वंद्वों के
पार जो
व्यक्ति है, वह कर्म
करते हुए भी
कर्म के बंधन
में नहीं पड़ता
है--ऐसा कृष्ण,
अत्यंत ही
वैज्ञानिक
बात, अर्जुन
से कहते हैं।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः
कर्म समग्रं
प्रविलीयते।।
23।।
क्योंकि
आसक्ति से
रहित ज्ञान
में स्थित हुए
चित्त वाले, यज्ञ के लिए
आचरण करते हुए
मुक्त पुरुष
के संपूर्ण
कर्म नष्ट हो
जाते हैं।
आसक्तिरहित, ज्ञानपूर्वक
कर्म करते हुए
पुरुष के
समस्त कर्मबंधन
क्षीण हो जाते
हैं; सब
बंधन, सब
परतंत्रताएं
गिर जाती हैं।
आसक्तिरहित, अनअटैच्ड,
अनआइडेंटिफाइड,
तादात्म्य-मुक्त!
इस सूत्र में
आसक्तिरहित का
क्या अर्थ है?
थोड़ा
आसक्ति में
उतरें, तो
खयाल में आ
जाए!
सुना
है मैंने, एक घर में आग
लग गई है।
स्वभावतः, गृहपति
छाती पीटता है
और रो रहा है।
भीड़ लगी गई
है। आग बुझाई
जा रही है, बुझती
नहीं। आंखें
आंसुओं से भरी
हैं। वह आदमी
होश खो दिया
है। तभी
पास-पड़ोस के
लोगों में से
कोई भागा हुआ
आया और उसने
कहा, रोओ
मत। घबड़ाओ
मत। जल जाने
दो। बेफिक्र
रहो। क्योंकि
तुम्हारे
लड़के ने, मुझे
पक्का पता है,
कल ही यह
मकान बेच
दिया। सौदा हो
चुका है।
आंख से
आंसू ऐसे
तिरोहित हो गए, जैसे थे ही
नहीं। रोना खो
गया। संयत हो
गया वह आदमी। जैसे
और सब लोग खड़े
थे, ऐसे वह
भी खड़ा हो
गया। उसने कहा,
मुझे कुछ
पता ही नहीं
था। उसके
ओंठों पर
मुस्कुराहट आ
गई। मकान अब
भी जल रहा है, वैसा ही, थोड़ा
ज्यादा ही।
लपटें और बढ़
गई हैं। लेकिन
इसके भीतर की
लपटें एकदम खो
गईं! वहां अब
भी आग है, लेकिन
यहां भीतर
हृदय में कोई
आग न रही, कोई
जलन न रही।
और तभी
उसका बेटा दौड़ा
हुआ आया और
उसने कहा कि
क्या खड़े
देखते हैं आप? क्योंकि उस
आदमी से बात
तो हुई थी, लेकिन
उसने आदमी
भेजकर खबर भेज
दी कि जले हुए मकान
को मैं खरीदने
वाला नहीं
हूं। बयाना
नहीं हो पाया
था। सौदा टूट
गया है।
आंसू
फिर वापस आ गए
हैं! आदमी फिर
छाती पीटकर चिल्लाने
लगा। मकान अब
भी जल रहा है!
वैसा ही जल रहा
है। भीतर फिर
आग आ गई।
इस बीच
क्या फर्क पड़ा? मकान को कुछ
पता भी नहीं
चला होगा
बेचारे को, कि इस बीच
बड़ा नाटक हो
गया है। लेकिन
हुआ क्या?
बीच
में थोड़ी देर
के लिए अनअटैच्ड
हो गया वह
आदमी। थोड़ी
देर के लिए
आसक्तिरहित हो
गया। जो अपना
नहीं है, बात
समाप्त हो गई।
अपना है, तो
बात समाप्त
नहीं होती।
मेरा था मकान,
तो आग भीतर
तक पहुंचती
थी। मेरा नहीं
है, तो आग
अब भीतर नहीं
पहुंचती। आग
अब भी जल रही
है। तो मेरे
से ही आग भीतर
तक पहुंचती थी,
मेरे के
मार्ग से।
मेरे को ही
हिलाकर आग
भीतर आती थी।
मेरे के द्वार
से ही आग भीतर
प्रवेश करती
थी। बीच में
पता चला, मेरा
नहीं है; द्वार
बंद हो गया।
मकान जलता रहा;
भीतर लपट
पहुंचनी बंद
हो गई। थोड़ी
देर को, इस
नाटकीय घटना
में, आसक्ति
टूट गई। मेरा
न रहा।
काश, वह आदमी
बुद्धिमान
होता! काश, इस
घटना को देख
पाता! तो फिर जिंदगीभर
के लिए लपटों
के बाहर हो
सकता था।
लेकिन वह नहीं
होगा।
क्योंकि वह
फिर रो रहा
है। वह वहीं फिर
उन्हीं लपटों
में घिर गया; वही दरवाजा
उसने फिर खोल
दिया।
आसक्तिरहित
का अर्थ है, इस जगत में
मेरा कुछ भी
नहीं है। मेरे
का भाव, मेरे
का भाव ही
मेरी आसक्ति
है। ममत्व ही
आसक्ति है।
लेकिन
मेरे के बड़े
विस्तार हैं।
मेरा बेटा भी मेरी
आसक्ति है।
मेरा मकान भी
मेरी आसक्ति
है। मेरा धर्म
भी मेरी
आसक्ति है।
मेरा शास्त्र भी
मेरी आसक्ति
है। मेरा
परमात्मा तक
मेरी आसक्ति
है। जहां-जहां
मेरा जुड़ेगा, वहां-वहां
आसक्ति जुड़
जाएगी।
जहां-जहां से
मेरा विदा हो
जाएगा, वहां-वहां
से आसक्ति
विदा हो
जाएगी।
लेकिन
मेरा कब विदा
होगा? जब तक
मैं है, तब
तक मेरा विदा
नहीं होगा। एक
जगह से हटेगा,
दूसरी जगह
लग जाएगा।
मैंने
कहा कि इस ड्रैमेटिक
घटना में, इस नाटकीय
घटना में थोड़ी
देर के लिए वह
आदमी आसक्तिरहित
हो गया, तो
आप गलत मत समझ
लेना। थोड़ी
देर के लिए वह
आदमी इस मकान
के प्रति
आसक्तिरहित
हो गया। लेकिन
उसकी आसक्ति
दूसरी तरफ चली
गई, उस धन
में, जो इस
मकान से मिलने
वाला है। मकान
बिक चुका; अपना
नहीं रहा।
बिकने से जो
मिल गया धन, वह अपना हो
गया। मेरा, हटा मकान से,
जुड़ गया
कहीं और।
इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि मेरा
कहीं भी जुड़ जाए।
कहीं भी जुड़
जाए, उतना ही
काम शुरू हो
जाता है। घर
छोड़कर कोई चला
जाए, तो
फिर मेरा आश्रम
हो जाता है।
मेरा मंदिर, मेरी
मस्जिद!
आश्चर्यजनक
है आदमी! मेरे
के बिना मानता
ही नहीं है।
मेरे को लेकर
ही चलता है
साथ। मंदिर भी
जाए, तो मेरा
बना लेता है।
परमात्मा का
कोई मंदिर नहीं
है पृथ्वी पर।
कोई इसका मेरा
मंदिर है, कोई
उसका मेरा
मंदिर है।
इसलिए तो फिर
दो मेरों
में कभी-कभी
टक्कर हो जाती
है। तो
मंदिरों-मस्जिदों
में आग लग
जाती है; खून-खराबा हो
जाता है।
अभी तक
हम पृथ्वी को
ऐसा नहीं बना
पाए, जहां कि
हम वह मंदिर
बना सकें, जो
कि मेरा न हो, तेरा
हो--उसका हो, परमात्मा का
हो। कोई मंदिर
नहीं बना पाए।
सब आशाएं की
थीं मंदिर
बनाने की इसी
तरह कि परमात्मा
का बन जाए, लेकिन
सब मंदिर आखिर
में किसी के
मेरे मंदिर सिद्ध
होते हैं।
यह जो
मेरा है, यह
बदल सकता है।
मिटता तब तक
नहीं, जब
तक मैं भीतर
केंद्र पर है।
ऐसा
समझें कि एक दीया
जल रहा है। और
दीए की रोशनी
चारों तरफ दीवाल
पर पड़ रही है।
वह जो दीवाल
पर रोशनी पड़
रही है, वह
मेरा है। और
वह जो दीए की
ज्योति जल रही
है, वह मैं
है। जब तक मैं
की ज्योति
जलती रहेगी, तब तक मेरे
की रोशनी कहीं
न कहीं पड़ती
रहेगी। दीवाल
से हटाइएगा,
तो कहीं और
पड़ेगी; कहीं
और से हटाइएगा,
तो कहीं और
पड़ेगी। जब तक
कि ज्योति न
बुझ जाए, मैं
की फ्लेम, वह
जो मैं का, अहंकार
का बीच में
जलता हुआ दीया
है, वह न
बुझ जाए, तब
तक मेरा बनता
ही रहेगा।
इस दीए
को उठाओ मकान
से और मंदिर
में रख दो। कोई
फर्क नहीं
पड़ता, मंदिर
मेरा हो जाएगा।
मंदिर की
दीवालों पर यह
रोशनी फैल
जाएगी। इस दीए
को उठाओ और
जंगल के झाड़
के नीचे रख दो;
जंगल के झाड़ों
पर इसकी रोशनी
फैल जाएगी। वे
मेरे हो
जाएंगे। इस
दीए को जहां
ले जाओ, वहीं
मेरा पहुंच
जाएगा। यह दीए
की जो ज्योति
है मैं की, यह
मेरे का स्रोत
है, उसका
मूल उदगम है।
आसक्तिरहित
केवल वही हो
सकता है, जो
अहंकाररहित
है।
आसक्ति
अहंकार के जुड़ने
का परिणाम है।
आसक्ति
अहंकार का विकीरण
है, रेडिएशन
है। जैसे दीए
से किरणें
दौड़ती हैं, ऐसा मैं से
मेरा दौड़ता
है। और जहां
भी पड़ जाता है,
वहीं पकड़
जाता है।
और भी
एक मजे की बात
है कि जिसे हम
मेरा समझ लेते
हैं, वह हमारे
मैं से आइडेंटिफाइड
हो जाता है; उसका
तादात्म्य हो
जाता है।
समझें, एक व्यक्ति
की पत्नी चल
बसती है। जब
पत्नी मरती है,
वह छाती
पीटता है, रोता
है। तो आप
इतना ही मत
सोचना कि
पत्नी मर गई
है, इसलिए
रोता है।
इसलिए तो रोता
ही है, बहुत
गहरे में उसके
मैं का भी एक
खंड मर गया। यह
मेरी पत्नी
सिर्फ मेरी
पत्नी ही न थी;
मेरे मैं का
भी एक हिस्सा
थी। मेरे भीतर
के मैं का एक
खंड टूट गया, बिखर गया।
अब मैं अधूरा
हूं कुछ। अब
मैं आधा-आधा
हूं। इसलिए
पत्नी को अगर अद्र्धांगिनी
या पति को अगर अद्र्धांग
कहने का खयाल
रहा है, तो
गहरा है।
जब भी
मेरा कुछ
मिटता है, टूटता है, तभी मैं भी
कुछ टूटता और
बिखर जाता
हूं। थोड़ा एक
क्षण को सोचें,
आपके पास
जो-जो चीज ऐसी
है, जिसको
आप मेरा कहते
हैं, अगर
वह छीन ली जाए,
तो आपके पास
कितना मैं
बचेगा? अगर
सब छीन ली जाए,
तो आपके मैं
की ज्योति
बहुत स्टार्व्ड,
भूखी हो
जाएगी, जैसे
दीए का सब तेल
निकाल लिया।
ज्योति रह गई बुझी-बुझी।
जलती भी है, तो ऐसा लगता
है कि अब गई, अब गई! तेल तो
सब निकल गया।
जब भी हमारा
कुछ मेरा
टूटता है, तो
भीतर मैं भी
टूटता है।
क्योंकि वह
मेरा सिर्फ
रोशनी ही नहीं
है, वह
मेरा तेल भी
बनता है।
इसलिए
आदमी मेरे को
बढ़ाता रहता है, ताकि मैं को
मजबूत कर ले।
जितना बड़ा
मकान हो, उतना
बड़ा मैं हो
जाता है।
जितना बड़ा
राज्य हो, उतना
बड़ा मैं हो
जाता है।
जितना बड़ा धन
हो, उतना
बड़ा मैं हो
जाता है। जब
धन चला जाता
है, तो
भीतर मैं भी
सिकुड़ जाता
है। तेल खो
गया; बाती
बुझने लगी।
बाती कष्ट में
पड़ जाती है।
कभी-कभी तो
इतने कष्ट में
पड़ जाती है कि
आदमी जी नहीं
सकता, आत्महत्या
कर लेता है।
तेल बिलकुल
नहीं बचता; मरने के
सिवाय उपाय
नहीं बचता। मर
ही जाता है।
मेरा गया कि
मैं भी मरने
की तैयारी
जुटा लेता है।
यह जो
कृष्ण का कहना
है, आसक्तिरहित
कर्म करता
हुआ...।
तब जब
कोई
आसक्तिरहित
कर्म करता है, तो उसका
कर्म कैसा है?
उसका कर्म
कहीं भी मेरे
को निर्माण
नहीं करता।
उसका जीवन
कहीं भी किसी
से तादात्म्य
स्थापित नहीं
करता। वह किसी
को नहीं कहता,
मेरा। कहीं
भी गहरे में
उसके भाव मेरे
का उठता नहीं।
जीता है, मेरे
से रहित होकर
जीता है। तब
जीवन यज्ञ हो
जाता है। तब
ऐसा कर्म
आसक्तिरहित, जीवन को
यज्ञ बना देता
है। तब पूरा
जीवन एक पवित्र
हवन हो जाता
है।
ऐसा
पुरुष, अर्जुन
से कृष्ण कहते
हैं, फिर
सारे बंधन
उसके क्षीण हो
जाते हैं।
फिर
कोई बंधन का
उपाय नहीं रह
जाता।
क्योंकि बंधन
पैदा ही होते
हैं मेरे से।
बंधन पैदा ही
होते हैं मैं
से। मैं से ही
जन्मते हैं
अंकुर और बनते
हैं जंजीरें।
मैं के ही
आधार पर ढालते
हैं हम अपने
कारागृह। मैं
से ही हम सजा
लेते हैं अपने
कारागृहों की
दीवालों को।
लेकिन इससे
फर्क नहीं
पड़ता। अगर
हमने कारागृह
की जंजीरों
को सोने की भी
बना लिया, और अगर हमने
कारागृह की
दीवालों को
सुंदर चित्रों
से भी सजा
लिया, तो
भी कारागृह कारागृह
है और हम कैदी
हैं।
हम सब
अपनी कैद को
अपने साथ लेकर
चलते हैं। वह मेरे
की कैद हमारे
साथ चलती रहती
है। इसलिए अगर
आपको अकेला
जंगल में छोड़
दिया जाए, तो आप थोड़े इम्पावरिश्ड
हो जाते हैं, दरिद्र हो
जाते हैं, दीन
हो जाते हैं।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट ने
अपने बेटे को
घर से निकाल
दिया। किसी
बात पर नाराज
हुआ और घर से
निकालने की आज्ञा
दे दी। फिर
बारह वर्ष बाद;
बूढ़ा बाप, एक ही था
बेटा; फिर
याद लौटने
लगी। फिर मन
के दूसरे
हिस्से ने
बहुत बार कहा
होगा, बहुत
बुरा किया।
इतना क्या बड़ा
अपराध था? इतनी
भी क्या बात
थी? माफ
किया जा सकता
था। फिर दूसरा
हिस्सा मन का लौट
आया। वजीरों
को भेजा खोजने,
कि खोज लाओ।
बारह
साल, वह राजा का
लड़का, कुछ
जानता तो नहीं
था। राजा का
लड़का था, जानने
का कोई सवाल
भी न था। न ठीक
से कभी पढ़ा-लिखा
था, न कभी
कुछ सीखा था।
बस, थोड़ा
नाच-गाने का
जरूर उसे शौक
था। तो गांवों
में भीख
मांगने लगा
नाच-गाकर। और
कुछ कर नहीं सकता
था।
बारह
साल बाद, भरी
दोपहर में, सूरज जल रहा
है, तेज
धूप बरसती है
आग जैसी, वह
नंगे पैर एक
साधारण-सी
होटल के सामने
अपने टीन के
कटोरे को
बजाकर गा रहा
है और लोगों
से पैसे मांग
रहा है। पैसे
मांग रहा है
कि पैरों में
फफोले पड़ गए
हैं। जूते की
सब नीचे की
तली टूट गई है,
उखड़ गई है।
मुझे कुछ पैसे
दे दो, तो
इस गरमी में...।
दस-पांच पैसे
उसके कटोरे
में पड़े हैं।
कपड़े वही
पुराने हैं, जो बारह साल
पहले पहने हुए
घर से निकला
था। पहचानना
बहुत मुश्किल
है।
लेकिन
एक वजीर का रथ
वहां से
गुजरा। रोका
उसने रथ को।
चेहरा पहचाना
मालूम पड़ा।
कपड़े पुराने थे, लेकिन शाही
थे। फट गए थे, चीथड़े हो गए थे, लेकिन
कहीं-कहीं से
जरी भी दिखाई
पड़ती थी। उतरा,
पास जाकर
देखा, चेहरा
तो वही था।
वजीर पैरों पर
गिर पड़ा। कहा,
क्षमा
करें। पिता ने
माफी मांगी
है। आपको वापस
बुलाया है।
एक
क्षण, और वह
राजकुमार
जैसे मेटामार्फोसिस
से गुजर गया।
सब ट्रांसफार्मेशन
हो गया। सब
रूपांतरण हो
गया। हाथ से
उसने फेंक दी
वह कटोरी, जिसमें
पैसे थे। पैसे
सड़क पर बिखर
गए। उसकी आंखों
की रोशनी बदल
गई। उसके
हाथ-पैर का
ढंग बदल गया।
उसकी रीढ़ सीधी
हो गई। उसने
वजीर से कहा कि
जाओ, पहले
स्नान का
इंतजाम करो।
अच्छे वस्त्र
लाओ। जूते
खरीदो। सारा
इंतजाम करो।
वह रथ
पर जाकर बैठ
गया। चारों
तरफ भीड़ लग
गई। जो उसे एक
पैसा देने में
भी इधर-उधर
मुंह कर रहे थे, वे सब आस-पास
खड़े हो गए और
कहने लगे कि धन्यभाग
हमारे कि आपके
दर्शन हुए।
लेकिन अब वह
देख भी नहीं
रहा है। अब वह
आदमी वह नहीं
है, जो था
एक क्षण पहले।
सब बदल गया!
क्या हो गया?
मेरा
वापस लौट
आया--राज्य, साम्राज्य,
सम्राट! अब
उसकी आंखें
जमीन की तरफ
नहीं देखती
हैं। अब जिनके
सामने वह हाथ जोड़कर खड़ा
था और जो उसकी
तरफ देख नहीं
रहे थे, वे
उससे कह रहे
हैं, महाराज!
कोई उसके पैर
दबा रहा है।
लेकिन वह बैठा
है। उसकी
आंखें आकाश की
तरफ देख रही
हैं। अब ये
कीड़े-मकोड़े
हैं। अब ये
आदमी नहीं हैं,
आस-पास जो
खड़े हैं। थोड़ी
देर पहले इनके
सामने वह
कीड़ा-मकोड़ा
था; आदमी
नहीं था। अगर
इन्होंने
एकाध पैसा
उसके कटोरे
में डाला था, तो सिर्फ
इसलिए कि हटो
भी, जाओ
भी। कोई दया
करके नहीं, सिर्फ
परेशानी
हटाने को।
क्या, हो
क्या गया?
अभी
मैं बिलकुल
बुझा-बुझा था!
अब मैं बिलकुल
सजग होकर, अब पूरी
शक्ति से जल
रहा है। मेरे
की दुनिया वापस
लौट आई। रथ, राज्य, साम्राज्य--सब
वापस आ गया।
अब दीए को तेल
मिल गया। अब
लपट जोर से जल
रही है। अब
मैं कोई साधारण
ज्योति न रही;
मशाल हो गई।
कृष्ण
कहते हैं, आसक्तिरहित
होकर पुरुष जब
बर्तता
है कर्मों में,
तो उसका
जीवन यज्ञ हो
जाता
है--पवित्र।
उससे, मैं
का जो पागलपन
है, वह
विदा हो जाता
है। मेरे का
विस्तार गिर
जाता है।
आसक्ति का जाल
टूट जाता है।
तादात्म्य का
भाव खो जाता
है। फिर वह
व्यक्ति जैसा
भी जीए, वह
व्यक्ति जैसा
भी चले, फिर
वह व्यक्ति जो
भी करे, उस
करने, उस
जीने, उस
होने से कोई
बंधन निर्मित
नहीं होते
हैं। क्यों?
क्योंकि
मैं की टकसाल
के अतिरिक्त
मनुष्य के बंधन
निर्माण का
कहीं कोई
कारखाना नहीं
है। क्योंकि
ईगो के, अहंकार
के अतिरिक्त जंजीरों
को ढालने के
लिए कोई और
फौलाद नहीं
है। क्योंकि
मैं के
अतिरिक्त
मनुष्य को
अंधा करने के
लिए, गङ्ढों में गिराने
के लिए और कोई
जहर नहीं है।
इसलिए आसक्तिरहित!
लेकिन
आसक्तिरहित
वही होगा, जिसका मेरा
खो जाए। मेरा
उसका खोएगा,
जिसका मैं
खो जाए।
शून्य की
तरह ऐसा पुरुष
जीता है।
शून्य की तरह
जीना यज्ञरूपी
जीवन को
उपलब्ध कर
लेना है। फिर
कोई बंधन निर्मित
नहीं होते
हैं।
ब्रह्मार्पणं
ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ
ब्रह्मणा
हुतम्।
ब्रह्मैव
तेन गन्तव्यं
ब्रह्मकर्मसमाधिना।।
24।।
अर्पण
अर्थात स्रुवादिक
भी ब्रह्म है, और हवि
अर्थात हवन
करने योग्य
द्रव्य भी
ब्रह्म है, और
ब्रह्मरूप
अग्नि में
ब्रह्मरूप
कर्ता के द्वारा
जो हवन किया
गया है, वह
भी ब्रह्म ही
है, इसलिए
ब्रह्मरूप
कर्म में
समाधिस्थ हुए
उस पुरुष
द्वारा जो
प्राप्त होने
योग्य है, वह
भी ब्रह्म ही
है।
सब, सर्व, जो
भी है--कर्म, कर्ता, किया
गया; बोला
गया, सुना
गया; देखा
गया, दिखाया
गया--इस जगत
में जो भी है, इस अस्तित्व
में जो भी है, कृष्ण इस
सूत्र में
कहते हैं, वह
सभी ब्रह्म
है। लेकिन ऐसा
कब दिखाई पड़ता
है?
जब तक
मैं दिखाई
पड़ता है, तब
तक ऐसा दिखाई
नहीं पड़ता कि
सभी ब्रह्म है।
ऐसा तभी दिखाई
पड़ता है, जब
मैं दिखाई
नहीं पड़ता; तभी दिखाई
पड़ता है कि सब
ब्रह्म है।
दो ही
तरह के अनुभव
हैं। जिनका
अनुभव मैं का
अनुभव है, उन्हें
कृष्ण का यह
वचन सरासर
व्यर्थ मालूम
पड़ेगा। है भी
फिर। फिर है
भी।
जिनका
एक ही अनुभव
है, मैं का, और जिनका
जगत मैं के
इर्द-गिर्द
बना हुआ एक
परकोटा है; जिन्होंने
सदा ही मैं को
केंद्र पर
रखकर जीवन को
देखा है--ऐसा
हम सभी ने
देखा है--जो ईगोसेंट्रिक
हैं, जो
अहं-केंद्रित
होकर जीए और
अनुभव किए हैं,
उनके लिए
कृष्ण का यह
वचन सरासर
व्यर्थ मालूम पड़ेगा।
क्योंकि कहां
है ब्रह्म? कहीं कोई
ब्रह्म दिखाई
नहीं पड़ता!
दिखाई भी नहीं
पड़ेगा। ऐसा
व्यक्ति
ब्रह्म को
देखने के लिए
अंधा है। और
जिस चीज के
प्रति हम अंधे
हैं, उस
चीज को हम
वापस आंख पाए
बिना देख नहीं
सकते।
अहंकार
अंधापन है
ब्रह्म को
देखने में।
ऐसा कब
दिखाई पड़ेगा, सभी
कुछ--यज्ञ भी
ब्रह्म, हवन
की विधि भी
ब्रह्म, हवन
में जलती
अग्नि भी
ब्रह्म, हवन
में चढ़ाई
गई आहुति भी
ब्रह्म, हवन
में चढ़ाने
वाला भी
ब्रह्म, हवन
में मंत्र उदघोष
करने वाला भी
ब्रह्म--ऐसा
कब दिखाई
पड़ेगा कि सब
ब्रह्म है?
यह तब
दिखाई पड़ेगा, जब एक
अंधापन मैं का
टूट जाता है।
उसके पहले यह
नहीं दिखाई
पड़ेगा। उसके
पहले तो यही
दिखाई पड़ेगा
कि मैं ही हूं;
और बाकी शेष
सब मेरा साधन
है। मैं ही
हूं सब कुछ। चांदत्तारे
मेरे लिए
घूमते हैं।
अस्तित्व
मेरे इर्द-गिर्द
चक्कर काटता
है। मैं ही
हूं सब कुछ, धुरी सारे
अस्तित्व की।
और सब मेरा
साधन है।
जब तक
ऐसा दिखाई
पड़ता है, जब
तक ऐसा ईगोसेंट्रिक
विजन है, जब
तक ऐसी दृष्टि
है
अहं-केंद्रित,
तब तक यह
ब्रह्म की बात
नितांत
व्यर्थ मालूम
पड़ेगी। यह
सिर्फ शब्दों
का जाल मालूम
पड?गी। सभी
ब्रह्म? नहीं;
ऐसा नहीं
मालूम पड़ सकता
है। यह कब
मालूम पड़ेगा?
पहले
सूत्र को
ध्यान में रखें, तो यह दूसरा
सूत्र खुल
सकेगा। पहले
सूत्र को ध्यान
में रखें, आसक्तिरहित
हुआ जो
व्यक्ति है, उसे बहुत
शीघ्र दिखाई
पड़ने लगेगा।
उसके डोर्स
आफ परसेप्शन,
उसके देखने
के नए द्वार
खुल जाएंगे।
उसे दिखाई
पड़ेगा कि सभी
में वही
है--सभी में, चारों ओर।
अभी तो
हम इसे थोड़ा
समझने की
कोशिश करें।
देखने की
कोशिश तो दुरूह
है, समझें।
लेकिन समझने
को जानना न
समझ लें। समझ
लें, पर
इतना भी समझ
लें कि यह
हमने समझा है,
जाना नहीं।
जानना तो बहुत
दुरूह, बहुत
आर्डुअस
है। लेकिन समझ
लेना भी बड़ा
सौभाग्य है।
क्योंकि समझ
लें, तो
शायद कल जानने
की यात्रा पर
भी निकल पाएं।
लेकिन हम बहुत
होशियार हैं।
हम समझने को
ही ज्ञान समझ
लेते हैं। हम
समझकर मान
लेते हैं कि
बिलकुल ठीक
है।
मेरे
पास एक सूफी
फकीर को लाया
गया। जो लाए
थे, उन्होंने
कहा, इन्हें
सब तरफ
परमात्मा ही
परमात्मा
दिखाई पड़ता
है। इन्हें
कण-कण में परमात्मा
दिखाई पड़ता
है। वृक्ष में,
पत्थर में,
पौधों में,
चांदत्तारों में, मकानों
में--सब तरफ
इन्हें
परमात्मा ही
दिखाई पड़ता
है। मैंने कहा,
बहुत शुभ
है। इससे
ज्यादा शुभ और
क्या हो सकता
है! मैंने उन
फकीर से पूछा
कि आपने यह
देखने का अभ्यास
किया, कि
आपको बस दिखाई
पड़ता है? उन्होंने
कहा, नहीं,
मैंने
अभ्यास किया
है, वर्षों
अभ्यास किया
है। वर्षों तक
देखने की कोशिश
की, तब
दिखाई पड़ा।
मैंने कहा, कैसे कोशिश
की? तो
उन्होंने कहा
कि बस, मैंने
इस तरह का भाव
करना शुरू
किया। वृक्ष
के पास खड़ा
होता, तो
मन में सोचता,
ब्रह्म है,
परमात्मा
है, प्रभु
है। वृक्ष
नहीं है, ईश्वर
है।
सोचता-सोचता,
तीस वर्ष
मैंने ऐसे
सोचते-सोचते
बिताए। तब मुझे
अब सब में
ब्रह्म दिखाई
पड़ता है।
मैंने कहा, एक तीन दिन
यह सोचना बंद
कर दें।
उन्होंने कहा,
उससे क्या
होगा? मैंने
कहा, आप
तीन दिन बंद
करें, फिर
हम बात करेंगे।
लेकिन
दूसरे दिन
सुबह वे मुझसे
बहुत नाराज हो
गए। और
उन्होंने कहा
कि आपने मेरी
बड़ी हानि कर
दी। मैंने रात
में ही सोचना
छोड़ा कि मुझे
दीवालें दीवालें
दिखाई पड़ने
लगीं! ब्रह्म
दिखाई नहीं
पड़ा। यह प्रोजेक्शन, मैंने उनसे
कहा, यह प्रोजेक्शन
हुआ।
अहंकार
अभ्यास कर
सकता है देखने
का कि सबमें
ब्रह्म है।
लेकिन वह
अभ्यास सिर्फ
एक सपना होगा।
अहंकार के रहते
हुए--मैं भी
हूं और सब में
ब्रह्म है, यह नहीं हो
सकता। हां, इतना हो
सकता है कि
मैं अपने को
धोखे में डाल
लूं। आटोहिप्नोटाइज
कर लूं, सम्मोहित
कर लूं कि हां,
सब ब्रह्म है।
ऐसा मानकर
चलने लगूं कि
सब ब्रह्म है।
मानता रहूं, मानता रहूं;
अपने को
धोखा देता
रहूं, धोखा
देता रहूं, तो एक दिन
ऐसी घड़ी आ
जाएगी कि मेरे
मन का ही जाल चारों
तरफ फैल जाएगा
और मुझे दिखाई
पड़ेगा, सब
ब्रह्म है।
लेकिन वह मन
का ही जाल
होगा। वह ब्रह्म
का अनुभव न होगा।
वह अहंकार का
ही धोखा और
डिसेप्शन
होगा। वह
ब्रह्म का
अनुभव न होगा।
ब्रह्म
का अनुभव
अभ्यास से
नहीं मिलता
है। ब्रह्म का
अनुभव अहंकार
के विसर्जन से
मिलता है। इस
बात को ठीक से
खयाल में ले
लेंगे।
ब्रह्म का
अनुभव अहंकार
के अभ्यास से
नहीं मिलता, ब्रह्म का
अनुभव अहंकार
के विसर्जन के
अभ्यास से
मिलता है। अहंकार
खो जाए, मैं
न रह जाऊं, तो
जो रह जाएगा, वह ब्रह्म
मालूम पड़ेगा।
मैं रहूं, और
जो दिखाई पड़ता
है, उस पर
ब्रह्म को
आरोपित करूं,
इम्पोज करूं, तो
धीरे-धीरे ऐसा
हो जाएगा कि
मुझे ब्रह्म
दिखाई पड़ने
लगे। लेकिन वह
ब्रह्म, ब्रह्म
नहीं, मेरा
ही भ्रम है।
वह ब्रह्म, ब्रह्म का
अनुभव नहीं, मेरी ही
कल्पना का
फैलाव है। वह
फैलाया जा सकता
है।
इस
सूत्र में
ध्यान रख लेना
जरूरी है कि
जब कृष्ण कहते
हैं, सभी कुछ
ब्रह्म हो
जाता है, ऐसे
व्यक्ति को, ऐसे पुरुष
को, ऐसी
चेतना को सभी
कुछ ब्रह्म हो
जाता है। कब? जब उस मैं की
ज्योति बुझ
जाती है, जब
उस मैं का
दीया टूट जाता
है। तब उपाय
नहीं रहता कुछ
और का, वही
बच रहता है।
ठीक
वैसे ही, जैसे
एक घड़ा है।
पानी से भरा
है, नदी
में चल रहा
है। नदी में
तैर रहा है, पानी से भरा
हुआ घड़ा। उस
पानी से भरे
हुए घड़े
को भी ऐसा
नहीं मालूम
पड़ता कि जो
पानी भीतर है,
वही बाहर
है। घड़ा कहता
है, यह
मेरा पानी है।
बाहर जो नदी
का पानी है, वह दूसरा है,
अन्य है।
मिट्टी
की एक पतली
दीवाल घड़े
के भीतर के
पानी को और
नदी के पानी
को अलग-अलग करती
है। टूट जाए
घड़ा, फूट जाए
घड़ा, पानी
बाहर का और
भीतर का एक हो
जाता है।
अहंकार
की झीनी-सी
दीवाल मुझे और
ब्रह्म को अलग-अलग
करती है। टूट
जाए दीवाल, फूट जाए
अहंकार का घड़ा,
मैं और
ब्रह्म एक हो
जाते हैं। और
तब ही दिखाई पड़ता
है कि सभी
कुछ--तब ऐसा भी
दिखाई नहीं
पड़ता है कि
ब्रह्म कण-कण
में है--तब ऐसा
दिखाई पड़ता है
कि ब्रह्म ही
कण-कण है, में
भी नहीं।
क्योंकि जब हम
कहते हैं, कण
में ब्रह्म है,
तो ऐसा लगता
है, कण भी
अलग है और
उसके भीतर
ब्रह्म भी
कहीं है।
नहीं, जब घड़ा
टूटता है मैं
का, तो ऐसा
नहीं दिखाई
पड़ता कि कण-कण
में ब्रह्म है।
ऐसा दिखाई
पड़ता है कि
कण-कण और ब्रह्म
एक ही चीज के
दो नाम हैं।
अस्तित्व और
ब्रह्म एक ही
चीज के दो नाम
हैं। फिर ऐसा
कहना भी अच्छा
नहीं मालूम
पड़ता है कि
ईश्वर है। फिर
तो ऐसा ही
कहना अच्छा
मालूम पड़ता है
कि है और ईश्वर,
एक ही बात
है। जो है, वह
ईश्वर ही है।
अस्तित्व ही
ब्रह्म है, अस्तित्व
ही!
ऐसी
प्रतीति के
लिए भीतर से
मैं की दीवाल
का टूट जाना
जरूरी है।
बहुत बारीक है
दीवाल, ट्रांसपैरेंट
भी है, पारदर्शी
है, इसलिए
पता भी नहीं
चलता। यह बहुत
मजे की बात है।
अगर
पत्थर की
दीवाल हो, ट्रांसपैरेंट
न हो, आर-पार
दिखाई न पड़ता
हो, तो
दीवाल का पता
चलता है। अगर
आप कांच की
दीवाल बनाएं,
ट्रांसपैरेंट
हो, तो पता
भी नहीं चलता
है कि दीवाल
है; क्योंकि
आर-पार दिखाई
पड़ता है।
इसलिए
मैं की दीवाल
अगर पत्थर
जैसी सख्त
होती, तब तो
हमें आर-पार
दिखाई ही न
पड़ता; हम
अपने मैं के
भीतर बंद हो
जाते और सारी
दुनिया बाहर
बंद हो जाती, आर-पार कोई
संबंध ही न
रहता। लेकिन
मैं की दीवाल ट्रांसपैरेंट
है, पारदर्शी
है; कांच
की दीवाल है।
आर-पार साफ
दिखाई पड़ता
है। इसलिए
खयाल ही नहीं
आता कि बीच
में कोई दीवाल
है।
कांच
के पास खड़े
हैं। बाहर का
सब दिखाई पड़
रहा है। सूरज
दिखाई पड़ता
है। चांदत्तारे
दिखाई पड़ते
हैं। कांच की
दीवाल दिखाई
नहीं पड़ती।
ऐसी कांच की
दीवाल है।
लेकिन है।
प्रमाण क्या
है कि है? प्रमाण
यही है कि मैं
आपसे अलग
मालूम पड़ता
हूं। जहां अलगपन
का बोध हो रहा
है, वहां
बीच में कोई
दीवाल है, कोई
फासला है, कोई
डिस्टेंस है,
वह दिखाई
पड़े या न
दिखाई पड़े।
कृष्ण
के इस सूत्र
में डिस्टेंसलेस, दूरीरहित हो जाने का
खयाल है। कोई
दूसरा नहीं है,
वही है। जिस
क्षण ऐसा
दिखाई पड़ता है
कि वही है, एक
ही है, उस
क्षण कैसा
बंधन? फिर
जंजीर भी वही
है। उस क्षण
कैसा शत्रु? फिर शत्रु
भी वही है। उस
क्षण कैसा दुख?
फिर दुख भी
वही है। उस
क्षण कैसी
बीमारी? फिर
बीमारी भी वही
है।
सुना
है मैंने, एक सूफी
फकीर के हृदय
में नासूर हो
गया। गहरा घाव।
उसमें कीड़े पड़
गए। जिंदगीभर
वह नमाज पढ़ने
मस्जिद में
जाता रहा; लेकिन
जब से उसके इस
घाव में कीड़े
पड़े, उसने
नमाज पढ़नी
बंद कर दी।
पास-पड़ोस के
लोगों ने कहा,
क्या काफिर
हुए जा रहे हो?
क्या आखिरी
वक्त में अपनी
जिंदगी खराब
करनी है? दोजख
में जाना है? नर्क में पड़ना
है? जिंदगीभर पुकारा
परमात्मा को,
अब नमाज
क्यों नहीं
पढ़ते हो?
उस
फकीर ने कहा, पढ़ता हूं अब
भी। लेकिन अब
झुक नहीं सकता
हूं, इसलिए
मस्जिद नहीं
आता। क्योंकि नमाज
में झुकना
पड़ेगा।
उन्होंने कहा,
पागल! नमाज
बिना झुके
होगी कैसे? और झुकने
में एतराज
क्या है? उस
फकीर ने कहा, झुकता हूं, तो ये जो
मेरे घाव में
कीड़े पड़ गए
हैं, ये
नीचे गिर जाते
हैं। फिर इनको
उठाकर रखना पड़ता
है। कभी-कभी
किसी को चोट
भी लग जाती
है। और कभी-कभी
कोई मर जाए!
उन्होंने कहा,
तुम कैसे
पागल हो! इन कीड़ों
के लिए इतने
परेशान क्यों
हो? उस
फकीर ने कहा, कीड़ों के लिए नहीं,
अपने लिए ही
परेशान हूं।
वे भी मैं ही
हूं। जिसकी
नमाज पढ़ रहा
हूं, जो
नमाज पढ़ रहा
है, नमाज
में जो कीड़े
गिर जाएं और
मर जाएं, वे
तीनों अलग-अलग
नहीं हैं।
ऐसी
प्रतीति हो, तो ही खयाल आ
सकता है इस
सूत्र का, कि
इस सूत्र का
क्या अर्थ है।
इस सूत्र का
अर्थ है कि एक
ही का विस्तार
है। दो की
भ्रांति है; एक का
विस्तार है।
इस
सूत्र को
कृष्ण ने
द्वंद्व के
अतीत होने के
बाद क्यों कहा
है? इसीलिए
कहा है कि जब
तक भीतर का
द्वंद्व न
मिटे, तब
तक बाहर का
द्वंद्व भी
नहीं मिट
सकता। इसलिए
पहले कहा कि द्वंद्वातीत
हो जाता है जो
पुरुष; फिर
कहते हैं, सब
ब्रह्म हो
जाता है।
भीतर
का द्वंद्व
टूट जाए, भीतर
के मन के दो
खंड मिट जाएं,
एक हो जाए
भीतर, तो
बाहर भी
ज्यादा दिन दो
नहीं रहेंगे।
भीतर का एक
बाहर के एक को
खोज लेगा। भीतर
के दो बाहर भी
दो को निर्मित
कर देते हैं।
हम
बाहर वही
देखते हैं, जो हमारे
भीतर है। हम
बाहर वही
खोजते हैं, जो हमारे
भीतर है। चोर चोर को खोज
लेता है।
बेईमान बेईमान
को खोज लेता
है। साधु साधु
को खोज लेता
है। एक ही गांव
में आज रात कई
यात्री
उतरेंगे। कोई
वेश्यालय को
खोज लेगा, कोई
मंदिर को खोज
लेगा--उसी
गांव में! हम
वही खोज लेते
हैं, जो हम
हैं।
सुना
है मैंने, एक रात एक
फकीर के घर
में एक चोर
घुस गया। आधी
रात थी। सोचा,
सो गया होगा
फकीर। भीतर
गया, तो
हैरान हुआ।
मिट्टी का छोटा-सा
दीया जलाकर
फकीर कुछ
चिट्ठी-पत्री
लिखता था।
घबड़ा गया चोर।
छुरा बाहर
निकाल लिया। फकीर
ने ऊपर देखा
और कहा कि
छुरा भीतर
रखो। शायद ही
कोई जरूरत
पड़े। फिर कहा
कि थोड़ा बैठ
जाओ, मैं
चिट्ठी पूरी
कर लूं, फिर
तुम्हारा
क्या काम है, उस पर ध्यान
दूं। ऐसी बात,
कि चोर भी घबड़ाकर
बैठ गया!
चिट्ठी
पूरी की। फकीर
ने पूछा, कैसे
आए? सच-सच
बता दो।
ज्यादा
बातचीत में
समय खराब मत करना;
अब मेरे
सोने का वक्त
हुआ। उस चोर
ने कहा, अजीब
हैं आदमी आप!
देखते नहीं, छुरा हाथ
में लिए हूं।
आधी रात आया
हूं। काले पकड़े
पहने हूं।
चोरी करने आया
हूं! फकीर ने
कहा, ठीक।
लेकिन गलत जगह
चुनी। और अगर
यहां चोरी करने
आना था, तो भलेमानस, पहले खबर भी
तो कर देते; हम कुछ
इंतजाम करते।
यहां चुराओगे
क्या? मुश्किल
में डाल दिया
मुझे आधी रात
आकर। और इतनी
दूर आ गए, खाली
हाथ जाओगे, यह भी तो
बदनामी होगी।
और पहला ही
मौका है कि
मेरे घर भी
किसी चोर ने
ध्यान दिया।
आज हमको भी
लगा कि हम भी
कुछ हैं। कभी
कोई आता ही नहीं
इस तरफ। तो
ठहरो, मैं
जरा खोजूं।
कभी-कभी
कोई-कोई कुछ
भेंट कर जाता
है। कहीं कुछ
पड़ा हो, तो
मिल जाए।
दस
रुपए कहीं मिल
गए। उस फकीर
ने उसको दिए
और कहा कि यह
तुम ले जाओ।
रात बाहर बहुत
सर्द है। अपने
शरीर पर जो कंबल
था, वह भी उसे
दे दिया। वह
चोर बहुत
घबड़ाया! उसने
कहा, आप
बिलकुल नग्न
हो गए! रात
सर्द है। फकीर
ने कहा, मैं
तो झोपड़े
के भीतर हूं।
लेकिन तुझे तो
दो मील रास्ता
भी पार करना
पड़ेगा। और
रुपयों से तो
कपड़े अभी मिल
नहीं सकते।
रुपयों से तन
ढंक नहीं
सकता। तो यह
कंबल ले जा!
फिर मैं तो
भीतर हूं। और
फिर कब! इस
गरीब की झोपड़ी
पर कोई कभी
चोरी करने आया
नहीं। तूने
हमें अमीर
होने का
सौभाग्य
दिया। अब हम
भी कह सकते हैं
किसी से कि
हमारे घर भी
चोरों का
ध्यान है! तू जा।
मजे से जा। हम
बड़े खुश हैं!
चोर
चला गया। फकीर
अपनी खिड़की पर
बैठा हुआ उसे
देखता रहा।
ऊपर आकाश में
चांद निकला है
पूर्णिमा का।
आधी रात।
चारों तरफ
चांदनी बरस
रही है। उस
रात उस फकीर
ने एक गीत
लिखा और उस
गीत की पंक्तियां
बड़ी अदभुत
हैं। उस गीत
में उसने लिखा
कि चांद बहुत
प्यारा है!
बेचारा गरीब
चोर! अगर मैं
यह चांद भी
उसे भेंट कर
सकता! लेकिन
अपनी
सामर्थ्य के
बाहर है। यह चांद
भी काश, मैं
उस चोर को
भेंट कर सकता!
बेचारा गरीब
चोर! लेकिन
अपनी
सामर्थ्य के
बाहर है।
फिर वह
चोर पकड़ा
गया--कभी, कुछ
महीनों बाद।
अदालत ने इस
फकीर को भी
पूछा बुलाकर
कि इसने चोरी
की? फकीर
ने कहा कि
नहीं।
क्योंकि जब
मैंने इसे दस
रुपए भेंट किए,
तो इसने
धन्यवाद
दिया। और जब
मैंने इसे
कंबल दिया, तो इसने
मुझे बहुत
मनाया कि आप
ही रखिए; रात
बहुत सर्द है।
यह आदमी बहुत
भला है। वह तो मैंने
ही इसे मजबूर
किया, तब
बामुश्किल, बड़े संकोच
में यह कंबल
ले गया था।
फिर
उसको दो साल
की सजा हो गई।
कुछ और
चोरियां भी
थीं। फिर सजा
के बाद छूटा, तो सीधा
भागा हुआ उस
फकीर के चरणों
में आया। उसके
चरणों में गिर
पड़ा कि तुम
पहले आदमी हो,
जिसने
मुझसे आदमी की
तरह व्यवहार
किया। अब मैं
तुम्हारे
चरणों में
हूं। अब तुम
मुझे आदमी
बनाओ। तुमने
व्यवहार
मुझसे पहले कर
दिया आदमी
जैसा, अब
मुझे आदमी
बनाओ भी। उस
फकीर ने कहा, और मैं कर भी
क्या सकता था?
जो
हमारे भीतर
होता है, वही
दिखाई पड़ता
है।
अगर
फकीर के भीतर
जरा भी चोर
होता, तो वह
पुलिस वाले को
चिल्लाता।
पास-पड़ोस में
चिल्लाहट मचा
देता कि चोर
घुस गया।
लेकिन फकीर के
भीतर अब कोई
चोर नहीं है।
तो मकान में
चोर भी आ जाए, तो भी चोर
नहीं मालूम
पड़ता, दुश्मन
नहीं मालूम
पड़ता; मित्र
ही मालूम पड़ता
है।
हमारे
भीतर जो है, वही हमें
बाहर दिखाई
पड़ने लगता है।
भीतर अगर द्वंद्व
है, तो
बाहर भी द्वंद्व
दिखाई पड़ने
लगता है।
सिमन
वेल
ने--पश्चिम की
एक बहुत
विचारशील
महिला, अभी-अभी
कुछ वर्षों
पहले मरी; कम
उम्र में मर
गई। पर उस
छोटी उम्र में
भी उसने बहुत
कीमत की बातें
लिखीं। उनमें
उसने एक कीमती
बात लिखी कि
मेरी तीस साल
की उम्र तक
मेरे सिर में
दर्द रहा सदा।
और जब तक मेरे
सिर में दर्द
रहा, मैं
नास्तिक थी।
मुझे ईश्वर पर
भरोसा न आया।
पर यह कभी
खयाल न आया कि
सिरदर्द भी
मेरी नास्तिकता
का कारण हो
सकता है। यह
तो जब मेरा
सिरदर्द ठीक
हो गया और मैं
स्वस्थ हुई, तब
धीरे-धीरे
मैंने पाया कि
मेरी
नास्तिकता चली
गई और मैं आस्तिक
हो गई! तब मुझे
खयाल में आया
कि वह सिरदर्द
ही मेरी
नास्तिकता का
कारण था।
भीतर
सिर में दर्द
बना रहे चौबीस
घंटे, तो
बाहर
परमात्मा
दिखाई पड़ना
मुश्किल हो
जाता है। जब
भीतर पीड़ा हो,
तो बाहर
पीड़ा दिखाई
पड़ने लगती है।
जब भीतर असंतोष
हो, तो
बाहर असंतोष
दिखाई पड़ने
लगता है।
भीतर
जो है, वही
बाहर
प्रतिफलित
होकर फैल जाता
है। संसार हमारा
ही बड़ा फैलाव
है; हम ही
जैसे बड़े मैग्नीफाइंग
ग्लास से देखे
गए हों। जैसे
हमको ही बहुत
बड़ा करके देखा
गया हो। संसार
हमारा ही बड़ा
फैलाव है।
जब तक
भीतर द्वंद्व
है, डुएलिटी है, तब तक
संसार में भी
द्वंद्व है।
तब तक पदार्थ
भी अलग दिखाई पड़ेगा,
आत्मा भी
अलग दिखाई
पड़ेगी। तब तक
सब चीजों में
द्वंद्व
दिखाई पड़ेगा।
तब तक ब्रह्म
दिखाई नहीं पड़
सकता।
क्योंकि
ब्रह्म अद्वंद्व,
अद्वैत, दुई-मुक्त
अनुभव है।
भीतर
द्वंद्व मिट
जाए...। इसलिए
कृष्ण ने पहले
सूत्र में कहा, द्वंद्वातीत होता जो
पुरुष, और
अब इस सूत्र
में कहते हैं,
सब कुछ
ब्रह्म हो
जाता है। और
जब सब ब्रह्म
हो जाता है, तो जीवन की
जो परम निधि
है, वह
उपलब्ध हो
जाती है।
एक
अंतिम श्लोक
और।
प्रश्न:
भगवान
श्री, पिछले
श्लोक के
काव्य, 'ब्रह्मरूपी कर्म में
समाधिस्थ
व्यक्ति' का
क्या अर्थ है?
यह
आखिरी बात ले
लें, श्लोक कल
सुबह लेंगे।
ब्रह्मरूपी
कर्म में
समाधिस्थ
व्यक्ति!
जब सब
ओर ब्रह्म ही
रह जाता है, कर्ता भी
ब्रह्म हो
जाता है फिर, फिर कर्म भी
ब्रह्म हो
जाता है। जब
सब ओर ब्रह्म
ही है, तो
मैं श्वास
लेता हूं, तो
भी ब्रह्म ही
भीतर जाता है;
श्वास
छोड़ता हूं, तो ब्रह्म
ही बाहर जाता
है। जन्मता
हूं, तो
ब्रह्म ही
जन्मता; विदा
होता हूं जीवन
से, तो
ब्रह्म ही
विदा होता।
लहर का उठना
भी वही, लहर
का गिरना भी
वही। जागता
हूं, तो
ब्रह्म जागता
है; सोता
हूं, तो
ब्रह्म सोता
है। खाता हूं,
तो ब्रह्म
खाता, और
ब्रह्म को ही।
भजता हूं, तो
ब्रह्म भजता,
और ब्रह्म
को ही। जब
ब्रह्म ही सब
कुछ है, एक
ही अस्तित्व
सब कुछ है, तो
सभी कर्म
ब्रह्म की ही
तरंगें हो
जाते हैं।
ब्रह्मरूपी
कर्म में
समाधिस्थ!
फिर
ऐसे व्यक्ति
को, जो इतने
कर्म में भी
लगा रहे, फिर
भी भीतर
समाधिस्थ
रहता है; क्योंकि
कर्म अब ब्रह्मरूपी
हुए। अब वह
श्वास भी लेता
है, तो उसी
की। भोजन भी
करता है तो
उसी का। उठता,
तो वही।
बैठता, तो
वही। अब जब
सभी ब्रह्मरूपी
हो जाता, तो
समाधि नहीं तो
और क्या होगा?
बीच में
समाधि खड़ी हो
जाती है।
जब सभी
ब्रह्म है, तो चिंता तो
मिट जाती। जब
सभी ब्रह्म है,
तो
असुरक्षा तो
मिट जाती। जब
सभी ब्रह्म है,
तो भय तो
मिट जाता। जब
सभी ब्रह्म है,
तो सारा
तनाव खो जाता।
तब सारे काम
होते, जैसे
हवाएं बहतीं--ऐसे;
जैसे पानी
बहता--ऐसे; जैसे
आकाश में बादल
चलते--ऐसे।
जैसे वृक्षों
में फूल
खिलते--ऐसे, सब कर्म सहज
होते हैं।
करने नहीं
पड़ते; ब्रह्म
ही कराता है।
और इसके बीच
में, वह जो
पुरुष ऐसे
अनुभव में
होता है, समाधिस्थ
हो जाता है।
समाधिस्थ का
अर्थ?
समाधि
शब्द बड़ा
कीमती है। बना
है वह उसी से, जिससे बनता
है समाधान।
ऐसा पुरुष
समाधिस्थ हो
जाता है
अर्थात
समाधान को
उपलब्ध हो
जाता है। उसके
जीवन में कोई
समस्या नहीं
रह जाती, कोई
प्राब्लम
नहीं रह जाता।
उसके जीवन में
कोई प्रश्न
नहीं रह जाता।
उसके जीवन में
कोई उलझन नहीं
रह जाती। सुलझ
जाता है।
समाधिस्थ
हो जाता है
अर्थात
समाधान को
उपलब्ध हो
जाता है, सुलझ
जाता है। उसके
जीवन में कुछ
भी पूछने
योग्य, खोजने
योग्य, जानने
योग्य, पाने
योग्य, कोई
भी प्रश्न
नहीं रह जाता
है। निष्प्रश्न
हो जाता है।
ब्रह्म
को सब ओर जो
अनुभव करता है, वह ब्रह्म
के साथ एक हो
जाता है। और
ब्रह्म जैसी
गहरी समाधि
में है, ऐसी
ही गहरी समाधि
में वह भी खो
जाता है।
कभी
छोटे-छोटे
प्रयोग करें, तो खयाल में
आ जाए। कभी
जमीन पर लेट
जाएं किसी बगीचे
के एकांत में
जाकर। आंखें न
झपकें।
पलकें खुली
रखें, अपलक।
आकाश को देखते
रहें एकटक।
बिना आंख झपके,
सिर्फ
विराट आकाश को
देखते रहें
थोड़ी देर। और आप
एक अदभुत
अनुभव से
गुजरेंगे। जब
बिना आंखें
झपके आकाश को
देखते रहेंगे,
देखते
रहेंगे, थोड़ी
देर में आप
पाएंगे, आपके
भीतर भी आकाश
है; बाहर
भी आकाश है।
और थोड़े गहरे
देखते रहेंगे,
तो पाएंगे
कि भीतर और
बाहर एक ही, आकाश ही
आकाश है। और
तब परम
विश्राम और
परम समाधान का
अनुभव होगा।
यह
छोटा-सा मैं
कह रहा हूं।
आकाश उतना बड़ा
नहीं है, जितना
ब्रह्म।
जब कोई
व्यक्ति अपने
बाहर सब तरफ
ब्रह्म को ही
देखता है; जैसे आपने
थोड़ी देर आकाश
को देखा, ऐसा
जब कोई
प्रतिपल
चारों ओर
ब्रह्म को ही
देखता है, तो
बाहर भी
ब्रह्म और
भीतर भी
ब्रह्म; और
दोनों के बीच बड़ा
सुर-संगीत
निर्मित हो
जाता है।
दोनों के बीच
बड़ा तालमेल है,
दोनों के
बीच बड़ी टयूनिंग
है।
आर.डब्लू.टाइन
ने एक छोटी-सी
किताब लिखी
है। उसका नाम
है, इन टयून
विद दि इनफिनिट--अनंत
के साथ एकरस, एकतान-बद्ध।
कभी
आकाश के साथ
प्रयोग करें; छोटा प्रयोग
है। परमात्मा,
ब्रह्म बड़ा
आकाश है, विराट
आकाश है।
लेकिन एक बड़ा
विराट
आकाश--हमारे
अनुभव के लिए
तो बहुत
विराट--हमारे
ऊपर छाया हुआ
है, छत की
भांति। कभी
उसके नीचे लेट
जाएं सीधे। सब
भूल जाएं।
आकाश को देखते
रहें। आंख बंद
न करें, अपलक
देखते रहें।
आंसू बहें,
बहने दें।
आकाश को देखते
रहें। थोड़ी ही
देर में
पाएंगे, भीतर
भी आकाश समा
गया। और जब
दोनों तरफ
आकाश होंगे, तो दोनों
आकाश की
वार्ता शुरू
हो जाएगी, डायलाग
शुरू हो
जाएगा। इन टयून
विद दि इनफिनिट।
और तब एक
सुर-संगम बजने
लगेगा। दोनों
के बीच एक
संगीत का
आदान-प्रदान
शुरू हो
जाएगा। और एक
समाधान की झलक
मिलेगी।
वह झलक
बड़ी छोटी
है--तिनके
जैसी है, एक
बूंद जैसी है।
कृष्ण जिस झलक
की बात कह रहे हैं,
वह विराट
सागर जैसी है।
लेकिन इससे भी
रस का पता
चलेगा कि जब
किसी व्यक्ति
को सारा जगत
ब्रह्म हो
जाता है, तो
उसके भीतर भी
ब्रह्म पूरा
का पूरा खड़ा
हो जाता है।
फिर इन दोनों,
बाहर और
भीतर के बीच, सुरत्तान एक हो जाती
है। फिर दोनों
मिट जाते हैं।
बाहर-भीतर का
बोध मिट जाता
है। फिर एक ही
रह जाता है।
उस एक के
अनुभव का नाम
समाधि है।
(शेष
कल सुबह। अभी
पांच मिनट
कीर्तन और
नृत्य संन्यासी
करेंगे। साथ
हों उनके; नाचें भी। ताली
बजाएं। उनको
प्रोत्साहन
भी दें। और उसके
बाद, पांच
मिनट के बाद
फिर हम यहां
से विदा हो
जाएंगे।)
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