कुल पेज दृश्य

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--033

जीवन एक लीला— (अध्याय-3)—प्रवचन—पांचवां

प्रश्न:
भगवान श्री, कल के तेरहवें श्लोक की व्याख्या में आपने चार वर्णों की बात कही। कृष्ण इस श्लोक के दूसरे हिस्से में कहते हैं कि इन चारों वर्णों की गुण और कर्मों के अनुसार रचना करते हुए भी मैं अकर्ता ही रहता हूं।
कृपया इसे स्पष्ट करें कि वे कैसे अकर्ता रहे?

रते हुए भी मैं अकर्ता हूं, कृष्ण का ऐसा वचन गहरे में समझने योग्य है। पहली बात, कर्म से कर्ता का भाव पैदा नहीं होता। कर्म अपने आप में कर्ता का भाव पैदा करने वाला नहीं है। कर्ता का भाव भीतर मौजूद हो, तो कर्ता का भाव कर्म के ऊपर सवार हो जाता है। भीतर अहंकार हो, तो कर्म पर सवारी कर लेता है। ऐसे, कर्म अपने आप में, कर्ता के भाव का जन्मदाता नहीं है।
तो कृष्ण की बात तो छोड़ें एक क्षण को, हम भी चाहें, तो कर्म करते हुए अकर्ता हो सकते हैं। कर्म ही कर्ता का निर्माता नहीं है; कर्ता का निर्माता अहंकार का भाव है। और अहंकार का भाव इतना अदभुत है कि आप कुछ न करें, तो भी कुछ न करने का कर्ता भी बन जाता है।
आप रास्ते पर चल रहे हैं; चलने की क्रिया घटित होती है। अगर इस चलने के कर्म को बहुत गौर से देखें, तो आप भीतर कहीं भी चलने वाले को न पाएंगे, सिर्फ चलने की क्रिया ही मिलेगी। कितना ही खोजें, चलने वाला कहीं न मिलेगा। क्योंकि भीतर जो मौजूद है, वह चलता ही नहीं है। क्रिया चलने की बाहर ही होती है; भीतर चलने वाला कोई भी नहीं है। भीतर तो जो है, वह अचल है, चलता ही नहीं। कभी चला ही नहीं। आप हजारों मील की यात्रा कर चुके हों, तो भी भीतर जो है, वह अपनी ही जगह है। वह इंचभर भी नहीं चला है। लेकिन अहंकार का भाव चलने की क्रिया पर सवार हो जाता है और कहता है, मैं चलता हूं।
रास्ते पर चलते वक्त गौर से देखना, चलने वाला कहीं भी मिलता है खोजने से? चलने की क्रिया है; सच। चलने वाला कहीं भी नहीं है। लेकिन हमारी भाषा में कुछ बुनियादी भूलें हमारे अहंकार के कारण प्रवेश कर गई हैं। हमें ऐसा लगता है कि जब चलने की क्रिया है, तो चलने वाला भी होना ही चाहिए।
यह करीब-करीब बात वैसी ही है, जैसे हम कहते हैं कि आकाश में बिजली चमकती है। यह वाक्य बिलकुल ही गलत है। अस्तित्व की दृष्टि से बिलकुल ही गलत है। इसमें ऐसा लगता है, बिजली कुछ और है और चमकना कुछ और है। बिजली चमकती है। सच बात इतनी है कि चमकने का नाम बिजली है। इसमें चमकने वाला और, और चमकने की क्रिया और--ऐसी भ्रांति पैदा होती है वाक्य से। बिजली चमकती है, ऐसा ठीक नहीं है। चमकता है जो, उसका नाम बिजली है। चमकना बिजली है।
हम कहते हैं, वर्षा बरसती है। एकदम ही गलत बात कहते हैं। वर्षा का मतलब है, जो बरस रही है। अब वर्षा बरसती है, यह रिपीटीशन है, यह पुनरुक्ति है; यह व्यर्थ ही हम कह रहे हैं।
अगर हम किसी भी क्रिया के भीतर प्रवेश करें, तो हम कर्ता को कभी न पाएंगे; सिर्फ क्रिया ही मिलेगी। भीतर कौन मिलेगा लेकिन? भीतर जरूर कोई है। वह कर्ता नहीं है, द्रष्टा है, साक्षी है। समस्त क्रियाओं के भीतर द्रष्टा है, साक्षी है।
आपके पेट में भूख मालूम होती है। आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। जैसे कि आप भूख को लगा रहे हैं; जैसे कि आप कर्ता हैं! सचाई उलटी है। सचाई इतनी ही है कि आपको पता चलता है कि भूख लगी है। आपको भूख नहीं लगती। भूख की क्रिया घट रही है; आप सिर्फ जानते हैं कि भूख लगी है। अगर ठीक से हम कहें, तो कहना चाहिए कि मैं जान रहा हूं कि भूख लगी है। ऐसा नहीं कहना चाहिए, मुझे भूख लगी है।
आपके सिर में दर्द है, तो भी आप में दर्द नहीं है; आप सिर्फ जान रहे हैं कि सिर में दर्द है। और जब आपको दर्द के मिटाने वाली दवा दे दी जाती है, एस्पिरिन दे दी जाती है, तो आप यह मत सोचना कि दर्द मिट गया। दर्द अपनी जगह है। लेकिन दर्द का जानने वाले तक पहुंचने का रास्ता टूट गया। अब आप जान नहीं रहे कि दर्द हो रहा है। जान नहीं रहे हैं, इसलिए अब आप कहते हैं कि अब सिर में दर्द नहीं हो रहा है।
पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ कि फ्रांस में एक सैनिक के पैर में बहुत चोट लगी। वह बेहोश हो गया। चोट ऐसी थी कि पैर बचाया नहीं जा सका। रात बेहोशी में ही घुटने से नीचे का हिस्सा काट दिया गया। अंगूठे में बहुत तकलीफ थी, जब वह होश में था। सुबह जब वापस होश में आया, तो उसने कहा कि मेरे अंगूठे में बहुत तकलीफ है। पर अंगूठा तो अब था ही नहीं! पास की नर्स ने कहा, आप जरा फिर से सोचें। अंगूठे में तकलीफ है? मजाक में ही कहा। उसने कहा, बहुत तकलीफ है।
नर्स ने कंबल उठाकर बताया कि पैर के नीचे का हिस्सा तो अब है ही नहीं। जो अंगूठा नहीं है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? उस आदमी ने देखा और उसने कहा कि दिखाई पड़ रहा है मुझे भलीभांति कि पैर घुटने से नीचे का काट दिया गया है; नहीं है। लेकिन फिर भी मुझे अंगूठे में तकलीफ है। मैं भी क्या कर सकता हूं? उस सैनिक ने कहा, अगर अंगूठे में तकलीफ है, तो मैं भी क्या कर सकता हूं?
डाक्टर बुलाए गए। समझा कि कुछ भ्रम हो गया है उस आदमी को। बहुत तकलीफ थी; भूला नहीं है। अब तो हो नहीं सकती। समझाने-बुझाने की कोशिश की। लेकिन उस आदमी ने कहा, मैं पूरे होश में हूं। मुझे दिखाई पड़ रहा है कि अब पैर नहीं बचा, इसलिए तकलीफ होनी नहीं चाहिए। तर्कयुक्त मुझे भी मालूम पड़ती है बात। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं! तकलीफ है!
फिर और खोजबीन की गई, तो पाया गया कि वह आदमी ठीक कहता था, तकलीफ थी। तो बहुत मुश्किल हो गई। जो अंगूठा नहीं है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? खोजबीन से पता चला कि अंगूठे की तकलीफ जिन तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है, वे अभी भी खबर दे रहे हैं। अंगूठा तो बहुत दूर है मस्तिष्क से, बीच में तो तारों का जाल है, जो खबर पहुंचाते हैं। वे कंपते हैं और कंपकर खबर पहुंचाते हैं। वे अभी भी कंप रहे हैं। मस्तिष्क के पास जो छोर है तंतु का, वह अभी भी कंपकर खबर दे रहा है कि दर्द है। अंगूठा नहीं है, और दर्द है!
असल में मस्तिष्क तक चेतना में कोई दर्द नहीं है। चेतना को सिर्फ पता चलता है। अगर पता चलता रहे, तो ऐसा दर्द भी मालूम पड़ेगा, जो नहीं है। और अगर पता न चले, तो ऐसा दर्द भी मालूम नहीं पड़ेगा, जो है।
चेतना सिर्फ ज्ञाता है, नोअर है, विटनेसिंग है। सिर्फ एक साक्षी-भाव है।
हम भी क्रिया के भीतर कर्ता नहीं हैं। कर्ता हमारा भ्रम है। परमात्मा को ऐसा भ्रम नहीं हो सकता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह सब करते हुए भी मैं अकर्ता हूं। हम भी जिस दिन जानेंगे, पाएंगे यही कि सब करते हुए भी अकर्ता हूं। लेकिन वह दिन दूर है। जिस दिन हम यह जानेंगे, उस दिन हम भी परमात्मा का हिस्सा हो जाएंगे।
एक तो इस दृष्टि से इस सूत्र को समझें। यह साधक के लिए उपयोगी है कि वह धीरे-धीरे अकर्ता होता चला जाए, साक्षी बनता चला जाए। एक दिन ऐसी घड़ी आ जाए कि उसकी जिंदगी में कर्ता का कोई बोध ही न बचे। बस, वह सिर्फ जानने वाला रह जाए।
जिस दिन यह घड़ी आती है, उसी दिन समाधि फलित हो जाती है। उसी दिन जीवन का परम सौभाग्य का क्षण आ जाता है। उसी दिन हम वहां पहुंच जाते हैं, जहां जन्मों से पहुंचने की आकांक्षा है। उस दिन मंजिल मिल जाती है। वह यात्रा-पथ समाप्त होता है; मुकाम आ जाता है। उस दिन हम मंदिर में प्रविष्ट होते हैं। उस दिन तीर्थ आ गया, जिस दिन हमने जाना कि अब कर्ता कोई भी नहीं है; सिर्फ देखने वाला, जानने वाला है।
दूसरे अर्थों में भी कृष्ण के कहने का प्रयोजन है। परमात्मा के पास अहंकार नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि अहंकार अहंकारों के बीच में ही हो सकता है; अकेला नहीं हो सकता। दो परमात्मा जगत में नहीं हैं। अहंकार, मैं का भाव सदा तू के भाव से जुड़ा हुआ है। अगर तू न बचे, तो मैं नहीं बच सकता। कोई अर्थ नहीं रह जाता उसमें।
इसलिए जितने आप भीड़ में होते हैं, उतने अहंकार से भर जाते हैं। जितने एकांत में होते हैं, उतने अहंकार से खाली हो जाते हैं।
अगर साधक एकांत की तरफ भागता रहा है, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह समाज से भाग रहा है। उसका बहुत गहरे में कारण यही है कि अकेले में उसे अहंकार के विसर्जन की सुविधा मालूम पड़ती है। जैसे ही दूसरा मौजूद हुआ कि मेरा मैं भी खड़ा हो जाता है।
आप अपने कमरे में अकेले बैठे हैं, कोई नहीं है। तब अहंकार बहुत क्षीण होता है। होता है, क्योंकि आपके मन में दूसरे मौजूद होते हैं। कमरे में तो मौजूद नहीं होते, मन में मौजूद होते हैं। मन में मौजूद होने के कारण थोड़ा-सा अहंकार शेष रहता है।
रात गहरी नींद में सो गए हैं। जब तक सपना चलता है, तब तक अहंकार थोड़ा-सा मौजूद रहता है। लेकिन जब सपना भी बंद हो जाता है, तब कोई अहंकार मौजूद नहीं रह जाता; तब आपके भीतर मैं का कोई भाव नहीं होता। इसलिए सुबह जब आप उठकर कहते हैं कि रात बड़ी गहरी नींद आई, बड़ा आनंद आया; वह आनंद गहरी नींद का नहीं है; वह आनंद मैं से मुक्त हो जाने के क्षणों का है। क्षणभर के लिए भी रात अगर इतनी गहरी नींद हो गई कि मैं न रहा, तो बड़ी गहरी ब्लिस, बहुत गहरे आनंद के लोक से संस्पर्श हो जाता है। एक स्वर्ग उस गहराई से आ जाता है, जो परमात्मा का है।
इसलिए सुषुप्ति समाधि के बहुत करीब है, और बहुत दूर भी। करीब इसलिए है कि जैसे समाधि में मैं मिट जाता है, वैसे ही सुषुप्ति में भी मिट जाता है। दूर इसलिए, कि सुषुप्ति में प्राकृतिक मूर्च्छा के कारण मैं मिटता है; और समाधि में व्यक्ति की सजगता के कारण मैं मिटता है।
मैं की मौजूदगी के लिए तू का होना जरूरी है। तू के बिना मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है। मैं और तू पोलेरिटी है। जैसे कि बिजली ऋण और धन के बिना नहीं हो सकती। पाजिटिव इलेक्ट्रिसिटी अकेली नहीं हो सकती, निगेटिव के बिना। निगेटिव अकेली नहीं हो सकती, पाजिटिव के बिना। जैसे इस पृथ्वी पर पुरुष अकेले नहीं हो सकते, स्त्रियों के बिना; स्त्रियां अकेली नहीं हो सकतीं, पुरुषों के बिना।
आपको शायद खयाल न आया हो, जब स्त्री आपके सामने मौजूद होती है, तब आपके भीतर का पुरुष बहुत सक्रिय हो जाता है। जब स्त्री मौजूद नहीं होती, तब निष्क्रिय हो जाता है। जब स्त्री के सामने पुरुष मौजूद होता है, तब स्त्रैणता आ जाती है; जब पुरुष नहीं रह जाता, तो स्त्रैणता विलीन हो जाती है।
दूसरा पोल सदा मौजूद चाहिए। मैं का दूसरा हिस्सा तू है। मैं और तू एक ही घटना के दो छोर हैं; जैसे एक ही डंडे के दो छोर। अगर तू गिर जाए, तो भी मैं गिर जाता है; अगर मैं गिर जाए, तो भी तू गिर जाता है। परमात्मा के लिए कोई तू नहीं है। इसलिए मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, विशेषकर पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिक पियागेट, जिसने पूरी जिंदगी, बच्चों में मैं का भाव कैसे पैदा होता है, इस पर समर्पित की है; उसकी बड़ी हैरानी की खोजें हैं। वह कहता है कि बच्चे में मैं का भाव बाद में पैदा होता है, तू का भाव पहले पैदा होता है। बच्चे को पहले दूसरों का पता चलता है, फिर अपना पता चलता है। ठीक भी यही है। बच्चे को पहले पता चलता है और लोगों का।
इसलिए अक्सर बच्चे ऐसा नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। छोटा बच्चा कहता है, इसको भूल लगी है। यह भी उसके लिए दि अदर, और की तरह मालूम पड़ता है। छोटे बच्चे अक्सर अपना नाम लेते हैं, वे कहते हैं, बबलू को भूख लगी है! उनका नाम बबलू है। वे ऐसा नहीं कहते, मुझे भूख लगी है। अभी मुझे का भाव बहुत गहरा नहीं हुआ है। अभी बबलू भी थर्ड पर्सन है। कहता है, बबलू को नींद आ रही है।
पियागेट कहता है कि बच्चों को पहले तू का पता चलता है; फिर धीरे-धीरे मैं का पता चलता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं, क्योंकि मैं का पता चलने में जरा देर है अभी। अभी मैं का छोर निर्मित हो रहा है। जब निर्मित हो जाएगा, तो बच्चे कठिन और कठोर हो जाएंगे।
इसलिए जब बच्चों में पहली दफा मैं पैदा होता है, तब रिबेलियन पैदा होता है। इसलिए एक उम्र है बच्चों की, जो रिबेलियन की है, विद्रोह की है, बगावत की है। जब पहली दफे बच्चे में मैं आता है, तब वह सब तरफ मैं की परीक्षा करता है। बाप के खिलाफ, मां के खिलाफ, गुरु के खिलाफ वह मैं की परीक्षा करता है--मैं हूं।
तो अगर मां कहती है कि यह मत करो, तो वह करके दिखाता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं! अगर बाप कहता है, वहां मत जाओ, तो वह जाकर बताता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं? इसलिए बड़ी स्वाभाविक बात है कि बच्चे कुछ दिनों मां-बाप के खिलाफ लड़ते हैं। वह खिलाफ लड़कर ही, वे अपनी ईगो को मजबूत करते हैं।
यह मैंने इसलिए कहा कि परमात्मा के लिए मैं का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि तू का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं करता हुआ भी अकर्ता हूं। मैं होते हुए भी न होने जैसा हूं। हूं, और फिर भी मैं नहीं हूं। क्योंकि तू का तो कोई उपाय नहीं है। परमात्मा किसको कहे तू? कोई उपाय नहीं है। इसलिए भी उनका यह वचन बहुत अर्थपूर्ण है। और एक तीसरे अर्थ में भी।
परमात्मा के लिए अस्तित्व ऐसे ही है, जैसे हमारे लिए शरीर। एक आर्गेनिक यूनिटी है। मैं अपने हाथ को तू नहीं कहता; मैं अपने हाथ को मैं ही कहता हूं। मैं अपने पैर को तू नहीं कहता; मैं अपने पैर को मैं ही कहता हूं। मेरा शरीर मेरा ही विस्तार है। परमात्मा के लिए समस्त अस्तित्व उसका ही विस्तार है। वही है। इसलिए जब परमात्मा कुछ निर्माण भी करता है, सृजन भी करता है, क्रिएट भी करता है, तो वह सृजन भी पराए का सृजन नहीं है। उस सृजन को भी समझ लेना उचित है।
एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। तो जब चित्रकार चित्र बनाता है, तो चित्र अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। फिर चित्रकार मर भी जाए, तो भी चित्र नहीं मरेगा; चित्र बना रहेगा। चित्र का अपना अस्तित्व हो गया। एक मूर्तिकार मूर्ति निर्माण करता है। मूर्ति अलग बन गई। मूर्तिकार न भी रहे, तो अब मूर्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे मां ने बेटे को जन्म दे दिया; अब मां मर जाएगी, तो भी बेटा रहेगा। अब बेटे का अस्तित्व अलग हो गया। ऐसे ही मूर्तिकार ने मूर्ति को जन्म दे दिया। मूर्ति अलग हो गई। मूर्ति जन्मते ही तू हो गई। मूर्तिकार अब मूर्ति को मैं नहीं कह सकता, अब उसको तू ही कहना पड़ेगा। अब मूर्ति का अपना अस्तित्व है।
लेकिन एक नृत्यकार है, एक डांसर है। वह नाचता है। नाच अलग नहीं हो पाता। कितना ही नाचे, तो भी नृत्य और नर्तक एक ही रहते हैं। इसलिए हमने परमात्मा को नृत्य करते हुए नटराज की तरह सोचा; मूर्ति बनाते हुए नहीं सोचा; चित्र बनाते हुए नहीं सोचा। नृत्य करते हुए सोचा। उसका गहरा रहस्य है। उसका कुल कारण यह है कि जैसे नर्तक और नृत्य एक ही हैं; अगर नर्तक रुक जाए, तो नृत्य रुक जाएगा। और बड़े मजे की बात है, अगर नृत्य रुक जाए, तो नर्तक नर्तक नहीं रह गया; क्योंकि नर्तक तभी तक नर्तक है, जब तक नृत्य चल रहा है। नर्तक और नृत्य के बीच एक एकात्मता है; एक ही हैं वे। नर्तक नृत्य को अलग रखकर तू नहीं कह सकता और न नर्तक नृत्य को अलग रखकर नर्तक रह सकता है।
तो परमात्मा के और सृष्टि के बीच जो संबंध है, वह नर्तक और नृत्य का है। न तो परमात्मा स्रष्टा रह सकता है सृष्टि को बंद करके--इसलिए बंद ही नहीं कर सकता; नहीं तो स्रष्टा नहीं रह जाएगा। बंद होना होगा ही नहीं। सृष्टि शाश्वत चलती ही रहेगी। क्योंकि स्रष्टा और सृष्टि एक हैं। दि क्रिएटर एंड दि क्रिएशन आर वन। नर्तक और नृत्य की भांति। इसलिए सृष्टि को भी परमात्मा तू नहीं कह सकता। वहां भी तू के लिए कोई उपाय नहीं है, गुंजाइश नहीं है, अवकाश नहीं है, जगह नहीं है, जहां वह तू को खड़ा कर सके।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सब करते हुए भी मैं अकर्ता हूं। कर्ता मुझे नहीं पकड़ पाता। मैं मुझे नहीं पकड़ पाता। कर्म अहंकार को निर्मित नहीं कर पाते हैं।
करीब-करीब ऐसे ही, जैसे कभी गर्मी के दिनों में देखा हो अंधड़। कभी हवा का तेज अंधड़ आता है गर्मी के दिनों में। धूल का बवंडर उठता है वर्तुलाकार। धूल के आकाश में बवंडर ऊंचे उठते चले जाते हैं। जब बवंडर चला जाए, तो जाकर जमीन को देखना, तो बहुत हैरानी होगी। बड़ा बवंडर था, बड़ा तूफान था। निशान बन गए होंगे जमीन पर, उसके घूमने के। लेकिन बीच में एक सूनी खाली जगह भी होगी--शून्य; जहां कोई निशान नहीं होगा। उसी शून्य पर सारा बवंडर घूमा। जैसे कील पर चाक घूमता है। उस खाली शून्य पर सारे बवंडर का तूफान आया; बीच में सब शून्य था।
परमात्मा एक बवंडर की तरह अस्तित्व है। बीच में कोई मैं नहीं है, वहां सब बीच में शून्य है। चारों तरफ अस्तित्व की विराट लीला है।
इसीलिए हम जगत को परमात्मा की लीला कहते हैं। सृष्टि से भी सुंदर शब्द है वह, लीला, प्ले। क्योंकि खेल में अहंकार नहीं होता।
हमें हो जाता है। और जब खेल में अहंकार हो जाता है, तो खेल काम हो जाता है, फिर खेल नहीं रह जाता। हमें तो खेल में भी हो जाता है। दो आदमी ताश भी खेल रहे हों, तो अकड़ आ जाती है। शतरंज भी खेल रहे हों, तो तलवारें खिंच जाती हैं। हमें तो खेल में भी अहंकार आ जाता है, हार-जीत जोर से पकड़ जाती है। फिर वह खेल नहीं रहा, फिर तो वह काम ही हो गया; दुकान ही हो गई।
खेल तभी तक है, जब तक भीतर मैं नहीं है। लीला चल रही है। हारे, तो भी ठीक है; जीते, तो भी ठीक है। कोई खास फर्क नहीं पड़ता। हां, कभी-कभी ऐसा होता है। अगर बाप कभी बच्चे के साथ खेल खेलता है, तो ऐसा होता है। बाप बच्चे के साथ खेल खेलता है, तो ऐसा होता है, क्योंकि बच्चे के साथ अहंकार पकड़ने में बाप को भी नासमझी मालूम पड़ती है। फिर हारने की, जीतने की फिक्र नहीं करता। कई दफे तो खुद ही हार जाता है, क्योंकि बच्चा नहीं तो जीतेगा कैसे? खुद लेट जाता है; बच्चे को छाती पर बिठा लेता है; और बच्चा खुशी से भर जाता है। और बच्चे की जीत की खुशी बाप की भी खुशी बन जाती है--हारकर। अब यह खेल है।
परमात्मा के लिए जगत एक खेल है। कई बार हमें जिताता भी है। बस, बच्चे की तरह। कई बार हम उसकी छाती पर भी होते हैं; पर बच्चे की तरह। भीतर उसके लिए कोई अहंकार नहीं है। ऐसी निरहंकार स्थिति की घोषणा, कृष्ण ने इस वचन में की है। उसे समझें। और धीरे से वह जीवन में कभी उतर आए, तो बड़ा सौभाग्य है।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्नबध्यते।। 14।।

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते। इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।

कृष्ण कहते हैं, कर्मों के फलों में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं कर पाते हैं। और जो मुझे ऐसा जानता है, वह भी कर्मों के लिप्त होने से मुक्त हो जाता है।
कर्मों के फलों में स्पृहा नहीं है; कर्मों के फलों की आकांक्षा नहीं है। खेल और कर्म का यही फर्क है। फल की आकांक्षा हो, तो खेल भी कर्म बन जाता। फल की आकांक्षा न हो, तो कर्म भी खेल बन जाता। बस, कर्म और खेल का फर्क ही फल की आकांक्षा है।
आप सुबह-सुबह घूमने निकले हैं--घूमने, जस्ट फार ए वाक--कोई पूछता है, कहां जा रहे हैं? आप कहते हैं, कहीं जा नहीं रहा; घूमने जा रहा हूं। कहते हैं, कहीं जा नहीं रहा, घूमने जा रहा हूं, अर्थात फल का कोई सवाल नहीं है; कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन नहीं है। कहीं पहुंचने को नहीं जा रहा। कोई मंजिल नहीं है, कोई मुकाम नहीं है, जहां के लिए जा रहा हूं। बस, घूमने जा रहा हूं।
इसी रास्ते से दोपहर को आप दुकान की तरफ भी जाते हैं। तब आप बस घूमने नहीं जा रहे हैं, कहीं जा रहे हैं। रास्ता वही है, आप वही हैं, पैर वही हैं। लेकिन कभी आपने फर्क देखा कि सुबह के घूमने का आनंद और है; और दोपहर को दुकान की तरफ जाने का बोझ और है। रास्ता वही, आप वही, पैर वही, हवाएं वही, सूरज वही, फर्क कहां है?
फर्क--सुबह खेल था; दोपहर काम हो गया। सुबह स्पृहा न थी फल की। कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन न था। कर्म ही फल था। कर्म के बाहर कोई फल न था। घूम लिए, काफी है। घूमना अपने आप में अंत था, एंड इन इटसेल्फ। पार कहीं कोई बात न थी। कहीं जाना न था; कुछ पाना न था। कुछ पाने को न था; घूमना ही पाना था। वही क्षण, वही कृत्य सब कुछ था। उसके बाहर कोई स्पृहा न थी। तब एक हल्कापन था पैरों में; पक्षियों के परों का हल्कापन था। मन में हवाओं की ताजगी थी; आंखों में फूलों की सरलता थी। कहीं जा न रहे थे; कोई तनाव न था, कोई टेंशन न था। एक-एक कदम स्पांटेनियस था। कहीं भी रुक सकते थे और कहीं से भी वापस लौट सकते थे। कोई दबाव न था। कहीं खींचे न जा रहे थे; कहीं से धकाए न जा रहे थे। न तो पीछे से कोई धक्का दे रहा था कि जाओ; न आगे से कोई खींच रहा था कि आओ। प्रत्येक कदम अपने आप में पूरा था, टोटल इन इटसेल्फ। कहीं भी रुक सकते थे, वापस लौट सकते थे। कोई न कहता कि वापस क्यों लौटते हो? मन न कहता कि अरे, बिना मुकाम पाए वापस क्यों जाते हो? घूमने में खेल था; कर्म की स्पृहा न थी।
परमात्मा कहीं पहुंचने को नहीं कर रहा है। यह परमात्मा का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का कोई उद्देश्य नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है समझनी।
अस्तित्व निरुद्देश्य है। निरुद्देश्य ही खिलते हैं फूल। निरुद्देश्य ही गीत गाते हैं पक्षी। निरुद्देश्य ही चलते हैं चांदत्तारे। निरुद्देश्य ही पैदा होता है जीवन और विलीन। हमें बहुत कठिन हो जाएगा!
ह्यूमन माइंड, मनुष्य का मन उद्देश्य के बिना कुछ भी नहीं समझ पाता। हमें लगता है, बिना उद्देश्य! फिर किसलिए? यानी मतलब, हम फिर से पूछते हैं कि फिर उद्देश्य क्या? निरुद्देश्य है जीवन। इसका दूसरा अगर पर्याय बनाएं, तो होगा जीवन आनंद है अपने में, उसके बाहर कहीं कोई पहुंचने की बात नहीं है।
कृष्ण यही कहते हैं, परपजलेसनेस। कहते हैं, मेरे लिए कोई ऐसा नहीं है कि जो मैं कर रहा हूं, उसमें कोई मजबूरी, कोई कंपल्शन नहीं है; आनंद है। सुबह बच्चे उठकर खेल रहे हैं, नाच रहे हैं--बस, ऐसे ही। बस, ऐसे ही सारा अस्तित्व आनंदमग्न है, आनंद के लिए ही।
इसलिए कृष्ण के जीवन को हम लीला कहते हैं। राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन बड़ा गंभीर है। बड़े उद्देश्यपूर्ण चलते मालूम पड़ते हैं। एक-एक बात का चुनाव है। यह करेंगे और यह न करेंगे। ऐसा ठीक है और ऐसा गलत है।
राम के जीवन में उद्देश्य की बड़ी स्पष्टता है। कृष्ण के जीवन में उद्देश्य बिलकुल ही मटियामेट हो जाते हैं। कृष्ण के जीवन में बड़ी निरुद्देश्यता है। इसलिए राम को हम आंशिक अवतार ही कह पाए; पूर्ण अवतार न कह सके। कृष्ण को हम पूर्ण अवतार कह सके, क्योंकि परमात्मा जिस तरह पूरा निरुद्देश्य है, ऐसा ही यह व्यक्ति भी पूरा निरुद्देश्य है। एक-एक कृत्य खेल की तरह है, काम की तरह नहीं है।
पर कृष्ण जो यह वक्तव्य देते हैं, फल की स्पृहा नहीं है। हमें समझना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि हम तो कहेंगे, फल की स्पृहा न हो, तो हम कदम ही न उठाएंगे। अगर फल न पाना हो, तो हम कुछ करेंगे ही क्यों? हमें तो सारा कर्म फल प्रेरित है, रिजल्ट ओरिएंटेड है। फल आता हो, तो हम करेंगे। फल न आता हो तो? फल न आता हो, तो हम क्यों करेंगे? हमारा जीवन वर्तमान में नहीं, सदा भविष्य में है। हम आज नहीं जीते; सदा कल जीते हैं।
कल कभी जी नहीं सकते, सिर्फ खयाल में ही रहते हैं। इसलिए हम जीते कम, मरते ही ज्यादा हैं। हम कहते हैं, कल। फल सदा कल है। फल का मतलब, कल।
फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल भी आ जाएगा, तब भी फल आगे कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज बनेगा, तो कर्म ही होगा।
आज सदा कर्म है; फल सदा कल है। आज, वर्तमान। कल, भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का कोई अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि परमात्मा कल्पना में नहीं जीता।
कल्पना में कौन जीते हैं? इसे समझ लें, तो कृष्ण की यह बात समझ में आ जाएगी। कल्पना में कौन जीते हैं? जो फ्रस्ट्रेटेड हैं, वे कल्पना में जीते हैं। जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना से वे अपने विषाद की परिपूर्ति करते हैं, सब्स्टीटयूट करते हैं।
आज जिंदगी इतनी उदास है कि कल के फल की आशा से उस उदासी को हम मिटाए चले जाते हैं। आज तो जिंदगी में कुछ भी नहीं है। कल के फूलों की आशा में आज को सजाए चले जाते हैं। आज तो सब खाली और रिक्त है। कल का शृंगार, कल की आशा, आज पैरों को गति देती है।
कल भी यही हुआ था; कल भी यही होगा। आज होगा सदा खाली, और कल होगा सदा भरा हुआ! और अंत में जब जिंदगी का जोड़ लगाइएगा, तो ध्यान रखें, जिंदगी कल का जोड़ नहीं है, जिंदगी आज का जोड़ है। सब खाली आज जब आखिर में जुड़ेंगे, तो पता चलेगा, हाथ खाली के खाली रह गए। क्योंकि जिंदगी आज का जोड़ है, कल का जोड़ नहीं है।
आज अस्तित्व है; कल तो सिर्फ कल्पना है, इमेजिनेशन है। कल कभी आता नहीं। पर आज है पीड़ा से भरा। अगर कल भी न रह जाए, तो बहुत मुश्किल हो जाए; पैर का उठना मुश्किल हो जाए।
यह जो हमारी दुख से भरी स्थिति है, इसके लिए हम फलातुर हैं। परमात्मा आनंदमग्न है। फलातुर होने की जरूरत नहीं है। सिर्फ दुखी आदमी फलातुर होता है; दुखी चित्त फलातुर होता है। आनंदित चित्त फलातुर नहीं होता। आप भी जब कभी आनंद में होते हैं, तो भविष्य मिट जाता है और वर्तमान रह जाता है। जब भी!
अगर आप किसी के प्रेम में पड़ गए, तो भविष्य मिट जाता है। अगर आपका प्रेमी आपके पास बैठा है, तो वर्तमान ही रह जाता है। फिर आप यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आप वही जानते हैं, जो अभी हो रहा है। कल खो जाता है।
जब आप संगीत में डूब जाते हैं, तो कल खो जाता है। फिर आप यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आज ही, अभी, दिस वेरी मोमेंट, यही क्षण काफी हो जाता है। जब कोई भजन में लीन हो गया, कीर्तन में डूब गया, तब यही क्षण सब कुछ हो जाता है। सारा अस्तित्व इसी क्षण में समाहित हो जाता है। सब सिकुड़कर, सारा अस्तित्व इसी क्षण में केंद्रित हो जाता है। इस क्षण के बाहर फिर कुछ भी नहीं है।
जीवन के जो भी आनंद के क्षण हैं, वे वर्तमान के क्षण हैं। परमात्मा तो प्रतिपल आनंद में है। इसलिए उसकी कोई फलाकांक्षा नहीं हो सकती।
कृष्ण कहते हैं, जिस दिन कोई इस सत्य को समझ लेता है, उस दिन वह भी फलातुर नहीं रह जाता।
अब मैं दूसरी बात आपसे कहूं। मैंने कहा, दुखी आदमी फलातुर होता है। और अब मैं आपसे यह भी कहूं कि फलातुर आदमी दुखी होता चला जाता है। यह विसियस सर्किल है, यह दुष्टचक्र है। दुखी होंगे, तो फल की आकांक्षा करेंगे। फल की आकांक्षा करेंगे, दुखी होंगे। ये जुड़ी हुई बातें हैं दोनों। क्यों? दुखी होंगे, तो मैंने समझाया, फल की आकांक्षा क्यों करेंगे! क्योंकि इस क्षण के दुख को मिटाने का भविष्य की कल्पना के अतिरिक्त आपके पास कोई भी उपाय नहीं है। दिखाई नहीं पड़ता, उपाय तो है।
कृष्ण उसी उपाय को बताते हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमें यही दिखाई पड़ता है कि कल्पना में भूल जाओ। इस क्षण को भूल जाओ। भरोसा रखो, कल सब ठीक हो जाएगा। आज जिंदगी अभिशाप है, कल वरदान बन जाएगी। आज कांटे हैं, कल फूल हो जाएंगे। भरोसा रखो! कल तो आने दो; कल सब ठीक हो जाएगा। कल तक प्रतीक्षा करने में इससे सहारा मिल जाता है। कंसोलेशन, सांत्वना बन जाती है। फिर कल आ जाता है।
लेकिन दुख के कारण फल के तीर हमने भविष्य में पहुंचाए। दुख के कारण कामना के सेतु बनाए--इंद्रधनुष के सेतु, रेनबो ब्रिजेज--जिन पर चल नहीं सकते, जो सिर्फ दिखाई पड़ते हैं। पास जाओ, खो जाते हैं। इसलिए कभी इंद्रधनुष के पास नहीं जाना चाहिए। खो जाता है। दूर से लगता है कि बड़ा सेतु बना है। चाहो तो जमीन से आकाश में चले जाओ चढ़कर। पास भर न जाना। जाना खतरनाक है।
तो इच्छाओं के सेतु बनाते हैं कल में। बड़े प्रीतिकर लगते हैं। इंद्रधनुष के सब रंग होते हैं उनमें। शायद इंद्रधनुष से भी ज्यादा रंग होते हैं। फिर कल आता है और इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है। तब दुख पैदा होता है। दुख था, इसलिए इंद्रधनुष बनाया; फिर इंद्रधनुष नहीं मिलता, तो दुख पैदा होता है। फिर और बड़े इंद्रधनुष बनाते हैं। लगता है, शायद छोटे बनाए थे, इसलिए मिल नहीं सके। लगता है, शायद थोड़ी कम मेहनत की, इसलिए कल्पनाएं अधूरी रह गईं। लगता है, शायद थोड़ा दौड़ने में कंजूसी हुई, इसलिए पहुंच नहीं पाए। और जोर से दौड़ो, और बड़े धनुष बनाओ, और फैलाओ कल्पना के जाल को, तो कल तृप्ति होगी।
फिर वह कल भी आ जाता है। फिर वे कल्पना के जाल भी अधूरे और टूटे के टूटे रह जाते हैं। टूटे हुए इंद्रधनुष फिर बड़ा दुख देते हैं। फिर और बड़ा करो। फिर जीवन से मृत्यु तक यही करते रहो। बनाओ इंद्रधनुष और खंडों को बटोरो। टूटे हुए इंद्रधनुषों को इकट्ठे करते चले जाओ। फिर आखिर में जिंदगी एक खंडहर, आर्चिओलाजी के काम का, और किसी काम का नहीं। खंडहर-- पुरातत्व के शोधियों के काम का। हाथ में कुछ भी नहीं; सिर्फ आशाओं के खंडहर; भग्न आशाओं के सेतु; खो गए सब! और मौत सामने है। फिर सेतु बनाना भी मुश्किल हो जाता है।
इसलिए मौत से हम डरते हैं। मौत से डरने का कारण यह नहीं है कि मौत से हम डरते हैं। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे! जिसे हम जानते नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे! जिसे हमने कभी देखा नहीं, उससे डरेंगे कैसे! डरने के लिए भी थोड़ा परिचय जरूरी है। मौत से हम नहीं डरते। डरते हम इससे हैं कि मौत का मतलब है, कल अब नहीं होगा। मौत का मतलब है, नो टुमारो नाउ। मौत का मतलब है, अब आगे कल नहीं है। फिर हमारे इंद्रधनुषों का क्या होगा? फिर हमारी कल्पनाओं के जाल का क्या होगा? हम तो सदा कल में ही जीए थे; आज तो कभी जीए नहीं थे। मौत कहती है, बस, अब आज है; कल नहीं। तो हम क्या करें?
इसलिए मौत उदास कर जाती है। मौत नहीं करती उदास, कल का अभाव, कल का समाप्त हो जाना। अब कोई कल नहीं है; अब आज ही है। अब हम मरे! अब हम अपने पर ही फेंक दिए गए। थ्रोन बैक टु वनसेल्फ। अब कोई कल का उपाय न रहा, जिसमें हम भरोसे खोज लें। अब कल का कोई उपाय न रहा, जिसमें हम सहारे बना लें। अब कल न रहा, जिसमें हम सपने गूंथ लें, सपने बुन लें। अब ड्रीम की कोई जगह न रही। अब रिअलिटी है; अब तथ्य ही सामने रह गया। अब आज ही बचा।
आज के साथ जीने की हमारी कोई आदत नहीं है। कल के साथ ही सदा जीए थे। अब जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए हम मौत से डरते और भयभीत होते हैं। मौत, कल की मौत है; इससे हम डरते हैं।
कृष्ण कहते हैं--वह जो परम सत्ता है, उसकी तरफ से--कि मैं आज ही जीता हूं, अभी और यहीं। फल की स्पृहा नहीं है। कल की आकांक्षा नहीं है। टुडे इज़ इनफ, आज काफी है।
जीसस अपनी प्रार्थना में कहते हैं, गिव मी टुडेज ब्रेड, आज की रोटी पर्याप्त है।
न्यू मैन ने अपने गीत में लिखा है, आई डू नाट लांग फार दि डिस्टेंट सीन, दूर के दृश्यों की आकांक्षा नहीं है मुझे। वन स्टेप इज़ इनफ फार मी, एक कदम काफी है। दूर के दृश्यों की आकांक्षा नहीं मुझे; एक कदम काफी है।
कृष्ण कहते हैं, अभी और यहीं--हियर एंड नाउ--सब है। फल की स्पृहा नहीं है मुझे। दो कारणों से।
एक तो आनंदमग्न चित्त अभी और यहीं होता है। और जैसा मैंने कहा कि दुख से कल की आकांक्षा पैदा होती; कल की आकांक्षा से दुख घना होता; ऐसे ही यह भी आपसे कहूं, आनंदित चित्त में कल की आकांक्षा पैदा नहीं होती। और कल की आकांक्षा जिस चित्त में पैदा नहीं होती, उसका आनंद सघन होता है। उसका भी अपना एक वर्तुल है।
जितना-जितना कल की आकांक्षा नहीं होती, उतना-उतना आज सघन आनंद से भरता चला जाता है। अनंत आनंद आज ही सिकुड़कर मिलने लगता है।
परमात्मा क्षणजीवी है। लेकिन उसका क्षण इटरनिटी है; उसका क्षण अनंत है। एक क्षण ही अनंत है। हम भविष्यजीवी हैं। लेकिन हमारा भविष्य सिवाय मृत्यु के और कुछ नहीं लाता। हमारा भविष्य अमावस की रात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निर्मित करता। हमारा भविष्य प्राणों में सिर्फ घाव छोड़ जाता है; अनजीए घाव। घाव उस जीवन के, जो हमने जीया नहीं और जिसे हम चूक गए हैं।
कृष्ण कहते हैं, जो इस बात को समझ लेता, जो मेरे इस स्वरूप को समझ लेता, वह भी मेरे जैसा हो जाता है।
आनंद की जिन्हें भी तलाश है, वे कल से मुक्त हो जाएं। सत्य की जिन्हें भी खोज है, वे भविष्य को विदा कर दें। हां, दुख की जिन्हें तलाश है, वे कल को खोजें। नर्क के द्वार पर जिनको खटखटाना है, वे भविष्य में सेतु बनाएं स्वप्नों के। स्वर्ग के द्वार को जिन्हें खोल लेना है, उनके लिए द्वार अभी और यहीं है।
लेकिन अभी और यहीं होने का राज क्या है, सीक्रेट क्या है? सीक्रेट है--फल की स्पृहा नहीं; कर्म काफी है। जो कर रहे हैं, उतना ही काफी है। लेकिन वह कब होगा काफी? जब कर्म खेल बन जाए, लीला बन जाए।
लेकिन हम तो खेल को भी कर्म बना लेते हैं। हम तो इतने कुशल हैं कि हम खेल को कर्म बना लेते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म को खेल बनाओ। हम दूसरे छोर हैं, ठीक उलटे। हम खेल को कर्म बना लेते हैं! कृष्ण कहते हैं, जीवन नाटक हो जाए। हमने उलटी कुशलता अर्जित की है। हम नाटक को जीवन बना लेते हैं।
देखा है, सिनेमागृह में बैठे लोगों को? रूमाल गीले कर रहे हैं; आंसू पोंछ रहे हैं। पर्दे पर कुछ भी नहीं है, सिवाय छायाओं के। सिवाय प्रकाश के और छायाओं के मेल-जोल के, पर्दे पर कुछ भी नहीं है। खाली पर्दा है। आंसू पोंछ रहे हैं! हृदय की धड़कन बढ़ गई है। कोई का ब्लडप्रेशर बढ़ गया होगा! निकलते हैं सिनेमागृह से, देखें लोगों के चेहरे, तो पता चलेगा, नाटक जिंदगी बन गई है। वह तो सिनेमागृह में अंधेरा रहता है, यह बड़ा अच्छा है। आदमी अपना चुपचाप रो लेता है; पोंछ लेता है; बैठ जाता है। देखें सिनेमागृह में! अब की बार सिनेमा न देखें, जाएं तो देखने वालों को देखें। अच्छा तो यह हो, अपने को देखें, तो और मजा आएगा कि क्या कर रहे हैं! यह क्या हो रहा है!
कृष्ण कहते हैं, यह पूरा जीवन ही नाटक है। हम कहते हैं, नाटक! नाटक खुद ही जीवन है। अगर यह बात दिखाई पड़ जाए कि फिल्म के पर्दे पर सिवाय विद्युत के किरणों के जाल के और कुछ भी नहीं, तो किसी दिन यह भी पता चल जाएगा कि इस पृथ्वी पर भी विद्युत की किरणों के जाल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यहां भी कुछ भी नहीं है। तब यह सब नाटक हो जाता है, तब एक अभिनय हो जाता है।
इसलिए कृष्ण एक कुशल अभिनेता हैं। बांसुरी भी बजा सकते हैं, सुदर्शन भी उठा सकते हैं। परम ज्ञान की बात भी कर सकते हैं, गंवार ग्वालों के साथ नाच भी सकते हैं। गीता का उपदेश भी दे सकते हैं, स्त्रियों के वस्त्र उठाकर वृक्ष पर भी बैठ सकते हैं। ऐसा इनकंसिस्टेंट, ऐसा असंगत आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है।
लेकिन उस असंगति में एक राज है। इतना असंगत वही हो सकता है, जो बिलकुल गंभीर नहीं है। सिर्फ खेल समझ रहा है। इसलिए ठीक है।
उसे राम का पार्ट दे दो, तो भी पूरा कर देगा; रावण का दे दो, तो भी पूरा कर देगा। वह यह नहीं कहेगा कि रावण का पार्ट हम पूरा नहीं करते! खेल ही है, तो झंझट क्या है; चलेगा। राम का दे दो, तो वह कहेगा, चलेगा। राम और रावण में उसे असंगति नहीं दिखाई पड़ेगी। इसलिए कि वह कहता है, पर्दे के पीछे न कोई राम है, न कोई रावण है। वह पर्दे के बाहर खेल है, जो मर्जी; हम पूरा किए देते हैं। गंभीर नहीं है, क्योंकि खेल है जिंदगी। स्पृहा नहीं है भविष्य की, फल की, क्योंकि खेल है जिंदगी। परम अस्तित्व के लिए तो सभी कुछ खेल है; भविष्य है ही नहीं।
यह आखिरी बात इस सूत्र में आपसे कहूं। हम समय को तीन हिस्सों में बांटते हैं--हम, ह्यूमन माइंड, मनुष्य का मन समय को तीन हिस्सों में बांटता है--भविष्य, वर्तमान, अतीत; पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर। समय बंटा हुआ नहीं है। परमात्मा से अगर जाकर पूछेंगे, तो वह कहेगा, तीन? समय तो सदा वर्तमान है। समय न तो पास्ट है, और न फ्यूचर है। समय सिर्फ वर्तमान ही है। हम बांटते हैं।
सच तो यह है कि अगर हम और थोड़ी बुद्धिमानी करें, तो हमें वर्तमान को अलग कर देना चाहिए, क्योंकि वर्तमान का हमें कोई अनुभव ही नहीं है। हमें या तो अतीत का अनुभव है या भविष्य का। या तो हमें उस राख के ढेर का पता है, जो हमारी आकांक्षाओं की हमारे पीछे लग गई है। या तो हमें उस सबका पता है, जो बीत गया--अतृप्ति के ढेर। और या हमें पता है वह, जो अभी नहीं बीता; होना चाहिए, होगा--आकांक्षाओं के इंद्रधनुष। वर्तमान का हमें कोई भी पता नहीं है। हमारे लिए समय अतीत और भविष्य है।
वर्तमान हम किसे कहते हैं? हम वर्तमान उस क्षण को कहते हैं, जिस क्षण में हमारा भविष्य अतीत बनता है, दि फ्यूचर पासेस इनटु दि पास्ट। हम उस संक्रमण के क्षण को, ट्रांजीशन को, उस दरवाजे को वर्तमान कहते हैं, जिससे भविष्य अतीत बनता है; जिससे जीवन मृत्यु बनती है; जिससे जो नहीं था, वह नहीं था में वापस चला जाता है।
हमारे लिए वर्तमान सिर्फ एक द्वार है, बहुत बारीक, जिसे हम कभी नहीं पकड़ पाते हैं कि वह कहां है। जब हम पकड़ पाते हैं, तब तक अतीत हो चुका होता है। जब तक हम नहीं पकड़ पाते हैं, तब तक वह भविष्य रहता है। लेकिन परमात्मा की स्थिति बिलकुल और है। परमात्मा के लिए भविष्य है ही नहीं। और कोई अतीत भी नहीं है। परमात्मा के लिए सिर्फ वर्तमान है; मात्र वर्तमान। इसलिए परमात्मा के लिए समय इटरनिटी है, एक अनंतता है। बहाव नहीं है, एक अनंतता है; एक ठहरी हुई अनंतता। सब ठहरा हुआ है, सरोवर की भांति।
परमात्मा के लिए काज और इफेक्ट नहीं हैं, कार्य और कारण नहीं हैं। हमारे लिए हैं। कार्य का मतलब, भविष्य; कारण का मतलब, अतीत। वर्तमान, जिसमें से कारण कार्य बनता है या कार्य पुनः कारण बनता है। परमात्मा के लिए कार्य-कारण नहीं हैं।
हमारी स्थिति करीब-करीब ऐसी है, पूरे हमारे दिमाग की, चाहे वह वैज्ञानिक का दिमाग हो, चाहे दार्शनिक का हो, चाहे गहरे से गहरे सोचने वाले का हो। मनुष्य के मस्तिष्क के सोचने का ढंग करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि एक छोटा-सा छेद हो दीवाल में और एक बिल्ली कमरे के भीतर बंद हो। धुंधला प्रकाश हो। और हम छेद से देख रहे हों।
बिल्ली निकले छेद के सामने से। पहले उसका चेहरा दिखाई पड़े। छेद छोटा है। चेहरा दिखाई पड़ता है। फिर उसकी पीठ दिखाई पड़ती है। फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर बिल्ली लौटती है; फिर उसका चेहरा पहले दिखाई पड़ता है, फिर उसकी पीठ दिखाई पड़ती है, फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर हम कहते हैं, हेड मस्ट बी दि काज एंड टेल मस्ट बी दि इफेक्ट। क्योंकि हमेशा सिर के पीछे पूंछ है। कहीं से भी बिल्ली घूमती हो कमरे में, हमारे छेद में से दिखाई पड़ता है पहले सिर, फिर पीठ, फिर पूंछ। निश्चित ही सिर कारण है, पूंछ कार्य है।
बेचारी बिल्ली को पता ही नहीं। वहां हेड, टेल एक ही हैं; वहां कोई कार्य-कारण नहीं हैं। वहां दोनों ही एक हैं। वहां बिल्ली के लिए सिर और पूंछ एक ही चीज के दो हिस्से हैं।
परमात्मा के लिए बीज और वृक्ष, कार्य और कारण नहीं हैं; एक ही चीज के दो हिस्से हैं। परमात्मा के लिए जन्म और मृत्यु, अतीत और भविष्य नहीं हैं; एक ही चीज के दो छोर हैं। हेड एंड टेल, सिर और पूंछ। हमारे लिए सब दिक्कत है। हमारे देखने के ढंग की वजह से सारी दिक्कत है। बहुत छोटा छेद है हमारे सोचने का। वह छोटा छेद क्यों है? क्योंकि वर्तमान बहुत छोटा है हमारा, इसलिए छेद छोटा है। वर्तमान बड़ा हो जाए, छेद बड़ा हो जाए। वर्तमान ही रह जाए, तो सब दीवाल गिर जाती है। फिर अस्तित्व को हम वैसा ही जानते हैं, जैसा वह है। अस्तित्व में न तो कुछ बीता है, न कुछ होने वाला है। सब है। सब मौजूद है।
कृष्ण इसलिए कहते हैं, फल की कोई स्पृहा नहीं। भविष्य ही नहीं, फल की स्पृहा कैसे करेंगे! यही क्षण सब कुछ है। ऐसा जो जान लेता है, वह भी इसी स्थिति को उपलब्ध हो जाता है।
इस सूत्र को गहरे में अनुभव करने की जरूरत है। यह सार सूत्रों में से एक है।

प्रश्न:

भगवान श्री, बारहवें श्लोक में कहा गया है कि कर्मफलों को चाहने वाले लोग देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों की सिद्धि भी शीघ्र ही होती है। परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए तू मेरे को ही सब प्रकार से भज। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करें। और दूसरी बात, आठवें श्लोक में है, कि धर्म के संस्थापन के लिए मैं आता हूं। धर्म के संस्थापन का अर्थ भी कृपया समझाएं।

कर्मफलों की चाहना करने वाले लोग देवताओं को भजते हैं! कर्मफल की चाहना करने वाला व्यक्ति परमात्मा को नहीं भज सकता। कर्मफल की चाहना करने वाला व्यक्ति देवताओं को ही भज सकता है। क्यों? क्योंकि परमात्मा के भजने की शर्त है, कर्मफल की चाहना न करना। परमात्मा के भजन का एक ही अर्थ है, कर्मफल की चाहना छोड़ देना; फल की आकांक्षा छोड़ देना।
तो फल के लिए तो परमात्मा को भजा ही नहीं जा सकता। वह कंडीशन में ही नहीं आता। वह बेशर्त! परमात्मा की शर्त ही यही है कि तू मेरे पास आएगा तभी, जब बिना कुछ मांगता हुआ आएगा। कुछ मांगा, तो मुझसे दूरी हो जाएगी। तेरी मांग ही दूरी बन जाएगी।
असल में मांग बताती है कि परमात्मा की हमें जरूरत नहीं है। परमात्मा की सेवाओं की जरूरत है। सर्विसेस आर नीडेड; परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। एक आदमी को अपनी दुकान में सफलता पानी है; चुनाव में जीत जाना है। किसी को धन कमाना है; किसी को बीमारी से मुक्ति पानी है। किसी को चाहे गए व्यक्ति से विवाह करना है। परमात्मा की सेवाओं की जरूरत है, कि उससे विवाह करा दो, जिससे करना चाहता हूं; उस कुर्सी पर पहुंचा दो, जहां चढ़ना चाहता हूं। लेकिन मांग बताती है कि परमात्मा की जरूरत नहीं है। मांग ही फासला है। फल की जरूरत है! और परमात्मा मिलता है उसको, जिसको फल की आकांक्षा नहीं है।
इसलिए कर्मों के फल की चाहना करने वाला मेरे निकट नहीं आता, कृष्ण कहते हैं, मेरे निकट आएगा ही नहीं। क्योंकि मेरी शर्त ही पूरी नहीं करता। दि कंडीशन इज़ नाट फुलफिल्ड। शर्त ही यही है कि बिना कुछ चाहे मेरे पास आओ, तो ही मेरे पास आ सकते हो।
अस्तित्व की भी शर्तें हैं। सौ डिग्री तक पानी गर्म हो जाए, तो भाप बन जाता है। निन्यानबे डिग्री तक गर्म हो, तो भी भाप नहीं बनता; तो भी पानी ही रहता है। तो भाप कह सकती है कि सौ डिग्री तक बनो तुम, तो आ जाओगे मेरे पास। आकाश कह सकता है कि सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, तो बदलियां बन जाओगे, मुझमें तैर सकोगे। लेकिन अगर सौ डिग्री तक गर्म नहीं होते, तो फिर पानी ही रहो और पृथ्वी पर ही चलो। फिर पानी ही रहो और नीचे की तरफ बहो।
कभी खयाल किया है आपने? पानी नीचे की तरफ बहता है, भाप ऊपर की तरफ उठती है! सिर्फ सौ डिग्री की शर्त पूरी हो जाने से ऐसा हो जाता है कि भाप आकाश की तरफ उठने लगती है। समुद्र आकाश की तरफ दौड़ने लगता है। और पानी हिमालय पर, गौरीशंकर पर भी हो, तो भी गङ्ढों की तरफ दौड़ता चला जाता है; नीचे उतरता चला जाता है।
कर्मफलों की आकांक्षा परमात्मा के बीच व्यवधान है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो कर्मों के फल के लिए भजता है, वह मुझे नहीं भज सकता। वह मेरी जगह सिर्फ देवताओं को भजता है।
देवताओं का मैंने रात आपको अर्थ किया, वे आत्माएं जो शरीर नहीं ले पातीं, लेकिन अत्यंत शुभ हैं। लेकिन शरीर लेने को आतुर हैं अभी; अभी मुक्त नहीं हो गई हैं।
ध्यान रहे, मुक्त वही होता है, जो न शुभ रह जाता, न अशुभ; न गुड, न बैड। शुभ आत्मा भी मुक्त नहीं होती; अशुभ आत्मा भी मुक्त नहीं होती। अशुभ आत्मा भी बंधी रहती है अपने अशुभ कर्मों से, लोहे की जंजीरों से। शुभ आत्मा बंधी रहती है अपने शुभ कर्मों से, सोने की जंजीरों से। जंजीरों में फर्क है। बुरी आत्मा के पास लोहे की जंजीरें हैं, कुरूप, जंग खाई हुई। शुभ आत्मा के पास चमकदार, पालिश्ड, सुसंस्कृत, सोने की जंजीरें हैं, हीरे-जवाहरातों से जड़ी। बाकी बंधन दोनों के हैं।
शुभ आत्माएं भी मुक्त नहीं होती हैं। मुक्त तो वही होता है, जो शुभ-अशुभ के पार हो जाता है। बंधन के ही पार हो जाता है। कर्म के ही पार हो जाता है। कर्ता के ही पार हो जाता है। इसलिए शुभ आत्माएं जन्म लेने को आतुर हैं और शुभ करने को आतुर हैं। इसलिए जो लोग कर्मों के फल चाहते हैं, वे देवताओं को भजते हैं। वे शुभ आत्माओं से सहायता मांगते हैं। इनसे सहायता मिल सकती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मुक्ति के लिए तो तू मुझको भज। शक्ति के लिए भजना हो, तो देवताओं को भज। मुक्ति के लिए भजना हो, तो तू मुझको भज।
लेकिन परमात्मा के निकट जाने की शर्त बड़ी कठिन है। सौ डिग्री तक गर्म होना पड़े, भाप बनना पड़े, इवोपरेट होना पड़े। अहंकार जब तक भाप न हो जाए, हवा-हवा न हो जाए, तब तक आकाश की तरफ उड़ान नहीं होती है। और अहंकार तब तक नहीं मिटता, जब तक फल-आकांक्षा शेष रहती है।
इसलिए वे कहते हैं कि तू अगर मुक्त होना चाहे अर्जुन, अगर तू सब दुखों से, सब संतापों से, सब पीड़ाओं से, सब बंधनों से मुक्त होना चाहे, तो तू मुझे भज।
लेकिन मुझे भजने का मतलब क्या? मुझे भजने का मतलब यह है कि जैसे मैं कर्म की स्पृहा से, फल की स्पृहा से, भविष्य की आकांक्षा से, फलाकांक्षा से मुक्त हूं, ऐसा ही तू भी फलाकांक्षा से मुक्त हो जा। मेरे भांति बर्त। कर्म कर, कर्ता न रह जा। चल, चलने वाला न रह जा। उठ-बैठ, उठने-बैठने वाला न रह जा। कर, लेकिन भीतर से कर्ता को विदा कर दे। होने दे, जो होता है। परम शक्ति के हाथों में साधन मात्र हो जा--समर्पित, निमज्जित। अपने को छोड़। तो तू समस्त दुखों से, समस्त बंधनों से मुक्त हो सकता है।
और दूसरी बात पूछी है, धर्म-संस्थापना के लिए, इसका क्या अर्थ है?
धर्म नष्ट कभी नहीं होता। कुछ भी नष्ट नहीं होता, तो धर्म तो नष्ट होगा ही नहीं! धर्म कभी नष्ट नहीं होता, लेकिन लुप्त होता है। लुप्त होने के अर्थों में नष्ट होता है। उसकी पुनर्संस्थापना की निरंतर जरूरत पड़ जाती है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा की निरंतर जरूरत पड़ जाती है।
अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। जैसे धर्म कभी अस्तित्वहीन नहीं होता, अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। लेकिन बार-बार, फिर भी उस अस्तित्वहीन अधर्म को हटाने की जरूरत पड़ जाती है।
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी! जो धर्म कभी नष्ट नहीं होता, उसकी संस्थापना की क्या जरूरत है? और जो अधर्म कभी होता ही नहीं, उसके मिटाने की क्या जरूरत है? लेकिन ऐसा भी है।
अंधेरा है। अंधेरा है नहीं। रोज मिटाना पड़ता है, और है बिलकुल नहीं! अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा एक्झिस्टेंशियल नहीं है। अंधेरा कोई चीज नहीं है। फिर भी है।
यह मजा है, यह पैराडाक्स है जिंदगी का, अंधेरा है नहीं, फिर भी है। काफी है। घना होता है। डरा देता है। प्राण कंपा देता है। और नहीं है! अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है। सिर्फ एब्सेंस है। जैसे कमरे में आप थे और बाहर चले गए; तो हम कहते हैं, अब आप कमरे में नहीं हैं। अंधेरा इसी तरह है। अंधेरे का मतलब इतना ही है कि प्रकाश नहीं है।
इसलिए अंधेरे को तलवार से काट नहीं सकते। अंधेरे को गठरी में बांधकर फेंक नहीं सकते। दुश्मन के घर में जाकर अंधेरा डाल नहीं सकते, कि डाल दो इसके घर में अंधेरा, दुश्मन के। अंधेरा डाल नहीं सकते। अंधेरा घर के बाहर निकालना हो, तो धक्का देकर निकाल नहीं सकते। धक्का देते-देते आप घर के बाहर निकल जाओगे, अंधेरा पीछे ही रहेगा।
अंधेरा है नहीं। सब्स्टेंशियल नहीं है। अंधेरे में कोई सब्स्टेंस नहीं है। कोई कंटेंट नहीं है। अंधेरे में कोई वस्तु नहीं है। अंधेरा अवस्तु है, नो-थिंग है, नथिंग है। अंधेरे में कुछ है नहीं। लेकिन फिर भी है। रात प्राण कंप जाते हैं अंधेरे में। डर लगता है जाने में। इतना तो है कि डरा दे। इतना तो है कि कंपा दे। इतना तो है कि गङ्ढे में गिरा दे। इतना तो है कि हाथ-पैर टूट जाएं।
अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। जो नहीं है, उसके होने से आदमी गङ्ढे में गिर जाता है। अब यह कहना नहीं चाहिए, क्योंकि एब्सर्ड है। जो नहीं है, उसके होने से आदमी गङ्ढे में गिर जाता है! जो नहीं है, उसके होने से हाथ-पैर टूट जाते हैं! जो नहीं है, उसके होने से चोर चोरी कर ले जाते हैं! जो नहीं है, उसके होने से हत्यारा हत्या कर देता है!
नहीं तो है बिलकुल। वैज्ञानिक भी कहते हैं, नहीं है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है प्रकाश का। अब जिसका अस्तित्व है, उसको रोज लाना पड़ता है। रोज सांझ दीया जलाओ। न जलाओ, तो अंधेरा खड़ा है।
तो कृष्ण कहते हैं, धर्म संस्थापनार्थाय! धर्म की संस्थापना के लिए; दीए को जलाने के लिए, अधर्म के अंधेरे को हटाने के लिए। अधर्म, जो नहीं है; धर्म, जो सदा है।
सूरज स्रोत है प्रकाश का। अंधेरे का स्रोत पता है, कहां है? कहीं भी नहीं है। सूरज से आ जाती है रोशनी। अंधेरा कहां से आता है? फ्राम नो व्हेयर। कोई सोर्स नहीं है।
कभी आपने पूछा, अंधेरा कहां से आता है? कौन डाल देता है इस पृथ्वी पर अंधेरे की चादर? कौन आपके घर को अंधेरे से भर देता है? प्रकाश का तो स्रोत है--सूरज। अंधेरे का स्रोत कहां है?
स्रोत नहीं है, क्योंकि है ही नहीं अंधेरा, नहीं तो स्रोत भी होता। कहीं से आता, कहीं जाता। जब सुबह सूरज आ जाता है, तो अंधेरा कहां चला जाता है? कहीं सिकुड़कर छिप जाता है? कहीं नहीं सिकुड़ता, कहीं नहीं जाता। है ही नहीं; कभी था नहीं। अंधेरा कभी नहीं है, फिर भी रोज उतर आता है! प्रकाश सदा है, फिर भी रोज सांझ जलाना पड़ता और खोजना पड़ता है।
ऐसा ही धर्म और अधर्म है। अंधेरे की भांति है अधर्म; प्रकाश की भांति है धर्म। रोज, प्रतिदिन खोजना पड़ता है।
युग-युग में, कृष्ण कहते हैं, लौटना पड़ता है। मूल स्रोत से धर्म को फिर वापस पृथ्वी पर लौटना पड़ता है। सूर्य से फिर प्रकाश को वापस लेना पड़ता है। यद्यपि जब प्रकाश नहीं रह जाता सूर्य का, तो हम मिट्टी के दीए जला लेते हैं। केरोसिन की कंदील जला लेते हैं। उससे काम चलाते हैं। लेकिन काम ही चलता है। कहां सूरज! कहां कंदीलें! बस, काम ही चलता है।
तो जब कृष्ण जैसे व्यक्तित्व नहीं होते पृथ्वी पर, तब छोटे-मोटे दीए, कंदीलें केरोसिन की, धुआं भी काफी निकलता है उनमें-- रोशनी कम ही निकलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है--लेकिन उनसे भी काम चलाना पड़ता है। तथाकथित साधु-संतों की भीड़ ऐसी है, केरोसिन आयल, मिट्टी का तेल। मगर रात में बड़ी कृपा है उसकी। रात में बड़ी कृपा है उसकी, थोड़ा-सा धीमा-धीमा, दो-चार-दस फीट पर रोशनी पड़ती रहती है। लेकिन बार-बार अंधेरा सघन हो जाता है, और बार-बार करुणावान चेतनाओं को लौट आना पड़ता है, जो आकर फिर सूरज से भर दें। कई बार ऐसा भी होता है कि सूरज जैसी चेतनाओं को आमने-सामने नहीं देखा जा सकता।
आपने कभी खयाल किया, सूरज को कभी आप आमने-सामने नहीं देखते, दीए को मजे से देखते हैं। इसलिए साधु-संतों से सत्संग चलता है, कृष्ण जैसे लोगों के आमने-सामने मुश्किल हो जाती है। एनकाउंटर हो जाता है, झंझट हो जाती है, कई दफे तो आंखें चौंधिया जाती हैं। सच, सूरज की तरफ देखें, तो रोशनी कम मिलेगी, आंखें बंद हो जाएंगी, अंधेरा हो जाएगा। सूरज को आदमी तभी देखता है, जब ग्रहण लगता है, अन्यथा नहीं देखता कोई।
अब यह बड़े मजे की बात है! ग्रहण लगे सूरज को लोग देखते हैं। पागल हो गए हैं? सूरज बिना ग्रहण के रोज अपनी पूरी ताकत से मौजूद है; कोई नहीं देखता। ग्रहण लगा कि लोग देखते हैं। क्या बात है? ग्रहण लगने से थोड़ा भरोसा आता है, अपन भी देख सकते हैं। थोड़ा सूरज कम है। अधूरा है। शायद इतने जोर से हमला नहीं करेगा।
इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तियों को कभी भी समझा नहीं जाता; हमेशा मिसअंडरस्टैंड किया जाता है। और जिनको आप समझ लेते हैं, समझ लेना, केरोसिन की कंदील। अपने घर में जलाई-बुझाई; अपने हाथ से बत्ती नीची-ऊंची की। जैसी चाही, वैसी की। जब जैसी चाही, वैसी की। जिनको आप समझ पाते हैं, समझ लेना कि घर के मिट्टी के दीए। जिनको आप कभी नहीं समझ पाते, आंखें चौंधिया जाती हैं, हजार सवाल उठ जाते हैं, मुश्किल पड़ जाती है--समझना कि सूरज उतरा।
इसलिए कृष्ण को हम अभी तक नहीं समझ पाए। न क्राइस्ट को समझ पाए। न बुद्ध को, न महावीर को, न मोहम्मद को। इनको हम किसी को नहीं समझ पाते। इस तरह के व्यक्ति जब भी पृथ्वी पर आते हैं, हमारी आंखें चौंधिया जाती हैं। फिर नहीं समझ पाते, तो फिर हजारों साल तक समझने की पीछे कोशिश करनी पड़ती है। जब वे हट जाते हैं, तब हजारों साल तक; जब आंख के सामने नहीं रहते, तब हम अपने-अपने मिट्टी के दीए जलाकर और समझने की कोशिश करते हैं।
पुनः संस्थापना के लिए!
नष्ट नहीं होता धर्म कभी, खो जरूर जाता है। अधर्म कभी स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। ऐसा समझ में आ सके, तो ठीक। अधर्म कभी स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। धर्म कभी नष्ट नहीं होता, खो जरूर जाता है। उसे पुनः-पुनः खोजना पड़ता है। पुनः-पुनः स्थापित करना पड़ता है।
एक श्लोक और ले लें।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।। 15।।
पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर कर्म किया गया है; इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा जानकर, ऐसा स्पृहा से फल की मुक्त होकर, कर्ता से शून्य होकर, अहंकार से बाहर होकर, पहले भी पूर्वपुरुषों ने भी कर्म किया है, ऐसा ही तू भी कर्म कर।
पूर्वपुरुषों ने भी ऐसा ही कर्म किया है, कर्ता से मुक्त होकर। जैसे, जनक। कहीं जनक का नाम भी कृष्ण ने पहले लिया है--जनकादि। वे कर्म करते रहे हैं कर्ता से मुक्त होकर। यह क्यों याद दिलाते हैं कृष्ण? क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि जब तक हम फल की स्पृहा करते हैं, तब तक कर्म करते हैं। और जब हम कहते हैं फल की स्पृहा नहीं करते, तो हम फिर अकर्म करते हैं। फिर हम कहते हैं, अब हम जाते हैं।
दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो कर्म भी छोड़ेंगे
इसलिए दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने वाले संन्यासी। दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने वाले गृहस्थ; फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ देने वाले संन्यासी--ये एक ही चीज के दो पहलू हैं। गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? तो छोड़ देता है।
कृष्ण बहुत तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर और फल की आकांक्षा छोड़ दे। आर्डुअस है, बड़ा सूक्ष्म है; पर बड़ा रूपांतरकारी है; बड़ा ट्रांसफाघमग है।
अगर एक आदमी ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो खूबी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में कुछ खूबी नहीं है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी खूबी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह तो गृहस्थ ही पीठ करके खड़ा हो गया; मन जरा भी नहीं बदला।
कृष्ण कहते हैं, कर्म तो तू कर, कर्ता मत रह जा। कृष्ण कहते हैं, गृहस्थ तो तू रह, और संन्यासी हो जा। और कहते हैं, ऐसा पूर्वपुरुषों ने भी किया है। यह सिर्फ भरोसे के लिए, आश्वासन के लिए--कि तू घबड़ा मत! ऐसा मत सोच कि ऐसा कभी नहीं किया गया है। ऐसा पहले भी किया गया है।
सच में ही इस पृथ्वी पर जो लोग ठीक से जाने हैं, उन्होंने कर्ता को छोड़ दिया और कर्म को जारी रखा है।
ठीक संन्यास: कर्ताहीन, कर्म-सहित। ठीक संन्यास: अहंकार-मुक्त, कर्म-संयुक्त। ठीक संन्यास: स्वयं को छोड़ देता, शेष सबको जारी रखता है। ऐसे ठीक-ठीक संन्यास की, सम्यक संन्यास की, ऐसे राइट रिनंसिएशन की कृष्ण अर्जुन को शिक्षा देते हैं।

(शेष हम रात बात करेंगे। पांच मिनट आप रुकेंगे। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। कर्ता को छोड़कर नाचें। पांच मिनट आनंद से भरें। और विदा हो जाएं।)



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें