दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः
पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।
25।।
और
दूसरे योगीजन
देवताओं के पूजनरूप
यज्ञ को ही
अच्छी प्रकार उपासते
हैं अर्थात
करते हैं और
दूसरे ज्ञानीजन
परब्रह्म
परमात्मा रूप
अग्नि में
यज्ञ के
द्वारा ही
यज्ञ को हवन
करते हैं।
यज्ञ
के संबंध में
थोड़ा-सा समझ
लेना आवश्यक
है।
धर्म
अदृश्य से
संबंधित है।
धर्म
आत्यंतिक से
संबंधित है।
पाल टिलिक
ने कहा है, दि अल्टिमेट
कंसर्न।
आत्यंतिक, जो
अंतिम है जीवन
में--गहरे से
गहरा, ऊंचे
से ऊंचा--उससे
संबंधित है।
जीवन के अनुभव
के जो शिखर
हैं, अब्राहिम मैसलो
जिन्हें पीक एक्सपीरिएंस
कहता है, शिखर
अनुभव, धर्म
उनसे संबंधित
है।
स्वभावतः, गहन अनुभव
जब अभिव्यक्त
किया जाए, तो
कठिनाई होती
है। उस अनुभव
के लिए हमारी
जिंदगी में न
तो कोई शब्द
होते हैं। उस
अनुभव के लिए
हमारे
व्यवहार में
प्रतीक खोजने
भी कठिन हो जाते
हैं। ठीक-ठीक
समानांतर
शब्दों की कोई
संभावना नहीं
है। इसलिए
धर्म मेटाफोरिक
हो जाता है; इसलिए धर्म
प्रतीकात्मक,
संकेतात्मक,
सिंबालिक हो जाता है।
वह जो
आत्यंतिक
अनुभव है, उसे
पृथ्वी की
भाषा में
प्रकट करने के
लिए रूपक, प्रतीक
और संकेत
चुनने पड़ते
हैं, निर्मित
करने पड़ते
हैं।
वे ही
संकेत
अभिव्यक्ति
भी लाते हैं, वे ही संकेत
अंत में अवरोध
भी बन जाते
हैं। अभिव्यक्ति
उनके लिए बनते
हैं वे संकेत,
जो उन
संकेतों पर
रुकते नहीं; इशारों को पकड़ते
नहीं, पार
निकल जाते
हैं। और जो उन
इशारों को पकड़कर
रुक जाते हैं,
उनके लिए
अवरोध हो जाते
हैं।
मील का
पत्थर लगा है।
तीर का निशान
बना है। जो उस
मील के पत्थर
के पास ही
मंजिल को
समझकर रुक जाता
है, वह मील का
पत्थर उसके
लिए अवरोध हो
गया। इससे तो
अच्छा होता कि
रास्ते पर कोई
मील के पत्थर न
होते। उसे
रुकने की कोई
जगह न मिलती।
वह मंजिल तक
पहुंच जाता।
लेकिन मील के
पत्थर लगाने
वाले ने चलने
के सहारे के
लिए मील के
पत्थर लगाए।
और वह जो तीर
का निशान है, वह कहता है
कि आगे, और
आगे। यहां
नहीं रुक जाना
है।
जो
गहरे देख पाता
है, उसे मील
का पत्थर
रोकता नहीं, बढ़ाता है।
जो गहरे नहीं
देख पाता, वह
मील के पत्थर
पर रुक जाता
है और बैठ
जाता है।
मील का
पत्थर बोल
नहीं सकता।
प्रतीक गूंगे
हैं, बोल नहीं
सकते। जो समझ
पाए, समझ
पाए। न समझ
पाए, न समझ
पाए।
धर्म
को बहुत-से
प्रतीक खोजने
पड़े, उस अनुभव
को बताने के
लिए, जो
पारलौकिक है।
दो-चार प्रतीक
मैं आपको खयाल
में दूं, तो
यज्ञ का
प्रतीक भी समझ
में आ सके। और
तब यह भी समझ
में आ सके कि
यज्ञ के साथ
भी मील के
पत्थर का
प्रयोग हो गया
है। कुछ लोग
प्रतीक को पकड़कर
मील के पत्थर
पर ही बैठ गए
हैं। वे आग
जला रहे हैं, घी डाल रहे
हैं, गेहूं फेंक रहे हैं--और
सोच रहे हैं, काम का अंत
हुआ! सोच रहे
हैं, बात
पूरी हुई।
यज्ञ के
प्रतीक का यह
अवरोध की तरह
उपयोग हुआ। यह
प्रतीक
गतिमान भी हो
सकता है, डायनेमिक हो सकता है, गत्यात्मक
हो सकता है, आगे ले जा
सकता है; लेकिन
उन्हीं को, जो इस
प्रतीक में
गहरे समझने के
लिए चेष्टा
करें।
मनुष्य
के अनुभव में
अग्नि गहरा
प्रतीक बन सकती
है। क्योंकि
अग्नि में कुछ
खूबियां
हैं। पहली
खूबी तो यह है
कि अग्नि की
लपट सदा ही
ऊपर की तरफ
दौड़ती है। सदा
ही। अग्नि की
लपट सदा ही
ऊपर की तरफ
दौड़ती है, ऊर्ध्वगामी
है। जैसे ही
मनुष्य की
चेतना धार्मिक
होनी शुरू
होती है, ऊर्ध्वगामी
हो जाती है, ऊपर की तरफ
दौड़ने लगती
है। इसलिए
बहुत प्रारंभ
में ही यह
खयाल आ गया कि
अग्नि प्रतीक
बन सकती है
भीतर की चेतना
के ऊर्ध्वगमन
का, ऊपर
उठने का।
दूसरी
खूबी अग्नि की
यह है कि
अग्नि में कुछ
भी अशुद्ध हो, तो जल जाता
है। सोने को
डाल दें, अशुद्ध
जल जाता है, शुद्ध निखरकर
बाहर आ जाता
है।
जिन्होंने
धर्म की चेतना
की ज्योति का
अनुभव किया, उनको भी पता
लगा कि उस
ज्योति में, जो भी
अशुद्ध है, वह जल जाता
है; और जो
शुद्ध है, वह
निखर आता
है। अग्नि और
भी गहरा
प्रतीक बन गई
धर्म का।
फिर
तीसरी अग्नि
की खूबी है कि
लपट थोड़ी दूर
तक ही दिखाई पड़ती
है, फिर
अदृश्य में खो
जाती है। जरा
दिखी, और
खोई। जिनको भी
चेतन के
ऊर्ध्वगमन का
अनुभव हुआ है,
वे जानते
हैं कि थोड़ी
दूर तक ही पता
चलता कि मैं
हूं, फिर
मैं होने का
पता नहीं चलता;
फिर तो
ब्रह्म में
लीन हो जाता सब।
जरा-सी झलक
अपने होने की,
और फिर सर्व
के होने में
खो जाता है।
इसलिए अग्नि
और भी गहरा
प्रतीक बन गई।
लपट झलकी भी
नहीं, और
खोई। ऊपर उठी
भी नहीं, और
ब्रह्म के साथ
एक हुई।
सागर
में गिर जाए
बूंद, खोजनी
बहुत कठिन है,
लेकिन फिर
भी कंसीवेबल
है कि हम खोज
लें। आखिर
बूंद कहीं तो
है ही। सागर
में गिर जाए
बूंद, खोजनी
कठिन है कि हम
उस बूंद को
फिर से पा लें,
लेकिन फिर
भी अकल्पनीय
नहीं है। सोच
तो सकते ही
हैं कि बूंद
कहीं तो होगी
ही। कोई न कोई
उपाय खोजा जा
सकता है कि
वापस खोज लें।
लेकिन अग्नि
की लपट खो जाए
आकाश में, तो
कंसीवेबल
भी नहीं है कि
हम उसे वापस
पा लें।
जो खो
गया ब्रह्म
में, वह
प्वाइंट आफ नो
रिटर्न पर
पहुंच जाता
है। वह वापस
नहीं लौट
सकता। वहां से
वापसी नहीं
है। इसलिए
अग्नि का
प्रतीक गहरा
प्रतीक बन
गया। और जब
पहली बार
अग्नि यज्ञ
बनी, तो मेटाफर
थी, सूचक
थी। ऋषियों के
आश्रम में
जलती ही रहती
सदा। यज्ञ की
ज्योति बढ़ती
ही रहती सदा
आकाश की तरफ।
आस-पास से
निकलते हुए
साधक निरंतर
स्मरण कर पाते
उस लपट से, रिमेंबर कर पाते, भीतर
की लपट को
निरंतर ऊपर
उठाने का।
उस
अग्नि में जो
भी आहुति डाली
जाती, उस
अग्नि में जो
भी डाला जाता,
वह सब प्रतीक
था अपने को
डालने का, स्वयं
को डालने का।
अपने को
निरंतर डालते
रहना है यज्ञरूपी
अग्नि में। वे
सब प्रतीक थे।
उन प्रतीकों
को निरंतर
उपस्थित रखना
अर्थपूर्ण
था।
अर्थपूर्ण
ऐसे ही, जैसे
एक आदमी बाजार
जाए; कुछ
लाना है
खरीदकर। भूल न
जाए, तो कुर्ते
के छोर में गांठ
लगा लेता है।
बाजार में दिन
में दस बार गांठ
पर नजर जाती
है, खयाल आ
जाता है, कुछ
लाना है। गांठ
से कोई संबंध
नहीं है लाने का।
बिना गांठ के
भी लाया जा
सकता है।
लेकिन गांठ
स्मरण के लिए
आधार बन सकती
है। चुभती
रहेगी; खयाल
बनाए रखेगी, कुछ लाना
है। स्मृति को
जगाए रखेगी।
दिन में
पच्चीस बार, हजार काम
में डूबे हुए
जब भी नजर
जाएगी कुर्ते
की गांठ पर, खयाल आएगा, कुछ लाना
है। सांझ होते
तक भूलना
मुश्किल होगा।
सांझ
होते-होते तक
भूलना
मुश्किल
होगा। सांझ घर
जो लाना है, लेकर आदमी
लौट आएगा।
गांठ के बिना
भूलना हो सकता
था। गांठ के
साथ भूलना
मुश्किल है।
लेकिन
कोई गांठ की
पूजा करने लग
जाए, तो भी भूल
जाएगा।
क्योंकि तब
गांठ स्मरण
नहीं कराएगी,
पूजा
करवाएगी।
सारे
प्रतीक गांठ
की तरह हैं।
गुरुकुल में
जलती हुई
अग्नि, यज्ञ
की उठती हुई
लपटें, रोज
सुबह दी गई
आहुति, पढ़े गए
मंत्र--रिमेंबरिंग
हैं, गांठ
हैं। और जिनको
उन प्रतीकों
का अर्थ पता था,
उनके लिए वह
सिर्फ अग्नि न
थी, वह
चेतना की लपट
थी। जिन्हें
प्रतीकों का
अर्थ पता था, उनके लिए
डाली गई आहुति
गेहूं
नहीं था, घी
नहीं था, जीवन
था। वे प्रतीक
थे; गांठ
की तरह प्रतीक
थे।
फिर खो
जाते हैं सब
प्रतीक। जड़
चीजें हाथ में
रह जाती हैं।
फिर पागलों की
तरह अग्नि
जलती रहती, उसमें लोग गेहूं और
घी और कुछ-कुछ
डालते रहते।
और कंठस्थ किए
हुए सूत्रों
को दोहराए
जाते! जो
दोहराने वाले
होते हैं, वे
भी खरीदे गए
होते हैं। हर
यज्ञ के पीछे झगड़ा होता
है, किस
ब्राह्मण को
ज्यादा मिल
गया, किसको
कम मिल गया; क्या हुआ, क्या नहीं
हुआ! किसकी
फीस कितनी!
फीस के
लिए कहीं यज्ञ
किए जा सकते
हैं? शुल्क
लेकर कहीं
धर्म की तरफ
इशारे किए जा
सकते हैं? धंधा
बनाया जा सकता
है धर्म को? जब धर्म
धंधा बन जाता
है, तब
धर्म नहीं रह
जाता। धंधे को
तो धर्म बनाया
जा सकता है; धर्म को
धंधा नहीं
बनाया जा
सकता। लेकिन
हुआ उलटा है।
धंधे को तो
धर्म कोई नहीं
बनाता; धर्म
को बहुत लोग
धंधा बना लेते
हैं।
यह
कृष्ण जिस
यज्ञ की बात
कर रहे हैं, वह
प्रतीकात्मक
है। तब पूरा
जीवन ही यज्ञ
है। तब पूरा
जीवन ही यज्ञ
है। और यह
स्मरण आ जाए, तो समस्त
कर्म यज्ञ
हैं। तब समस्त
जीवन आहुति है।
तब स्वयं को
बना लेना है
हवन का कुंड; सब समर्पित
कर देना है उस
कुंड में। डाल
देना है स्वयं
को; जला
देना है स्वयं
को। जल जाए
अहंकार।
पूछ
सकेंगे, पूछने
का मन होगा कि गेहूं
जैसी चीज
क्यों डाली गई?
वह भी
वैसा ही
प्रतीक है, जैसी अग्नि।
गेहूं है
बीज। छिपा है
सब उसमें, अभी
प्रकट नहीं
हुआ। अब इस
बीज को जमीन
में बो दें, तो प्रकट
होगा; अंकुर
निकलेगा; वृक्ष
बनेगा। और एक
बीज करोड़
बीज बन जाएगा।
जब गेहूं
को डालते हैं
यज्ञ में, तो प्रतीक
है इस बात का
कि अहंकार जब बीजरूप हो,
तभी डाल
देना। उसको बो
मत देना जमीन
में। अन्यथा
अहंकार में
अंकुर आ
जाएंगे। हर
अंकुर में सैकड़ों
बीज लग
जाएंगे। हर
बीज में फिर सैकड़ों
अंकुर लगने की
संभावना पैदा
हो जाएगी। और
अहंकार विराट
वृक्ष की तरह
बढ़ता चला
जाएगा। बीज की
तरह डाल देना
उसे। जब बीज
हो, तभी
डाल देना।
अंकुरित मत
करना। सींचना
मत। खाद मत
डालना। बढ़ाना
मत। उसको स्ट्रेंथन
मत करना, मजबूत
मत करना, पोषण
मत करना। जब बीजरूप ही
हो, तभी
डाल देना।
स्वभावतः, बीज के लिए
उन पुराने
दिनों में गेहूं
से निकट और
कोई चीज न थी!
निकटतम, अधिकतम
प्रभावी, जीवन
जिस पर निर्भर
था, उस गेहूं
को दग्ध कर
देना, राख।
ऐसे ही अहंकार
को दग्ध कर
देना, राख।
निर्बीज हो
जाना अहंकार
की दृष्टि से।
अब बीज
के साथ दो काम
किए जा सकते
हैं। जमीन में
गड़ाएं, तो बीज
अंकुरित होगा;
करोड़ों बीज
पैदा कर
जाएगा। आग में
डाल दें, तो
बीज अंकुरित
नहीं होगा, सिर्फ राख
हो जाएगा।
उसके पीछे कोई
रेखा नहीं छूट
जाएगी यात्रा
की।
अग्नि
में डाले गए
बीज, बीजरूपी अहंकार को
डालने के
प्रतीक थे।
घी भी
फेंका गया है
यज्ञ में।
क्यों फेंका
गया होगा? किस प्रतीक,
किस मेटाफर
के खयाल से?
देखा
होगा, घी को
डालें अग्नि
में, तो
अग्नि की
लपटें बढ़ती
हैं। घी के
डालने से
अग्नि की लपट
बढ़ती है, तीव्र
होती है, उज्ज्वल
होती है, प्रखर
होती है, तेज
होती है। घी
के डालते ही
अग्नि में
त्वरा आती है।
गेहूं को डालिएगा, तो अग्नि की
त्वरा कम
होगी। गति
क्षीण होगी, क्योंकि
अग्नि की ताकत
गेहूं को
जलाने में
लगेगी। तो जो
लपट बनने की
शक्ति थी, वह
बंटेगी।
लेकिन घी को
डालिए, तो
अग्नि की ताकत
घी को जलाने
में नहीं लगती,
घी की ताकत
ही अग्नि को
बढ़ाने में
लगती है।
जीवन
की जो ज्योति
है, उसमें दो
काम करने हैं।
उसमें बुराई
को डालकर दग्ध
करना है और
भलाई को डालकर
उस ज्योति को
बढ़ाना है। घी
भलाई का
निकटतम
प्रतीक हो सकता
था, जिन
दिनों वह
प्रतीक खोजा
गया। घी भलाई
का निकटतम
प्रतीक हो
सकता था। कई
कारणों से।
एक तो
स्निग्ध है, इसलिए उसका
दूसरा नाम
स्नेह भी है, प्रेम भी
है। और भी कई
कारणों से। घी
प्रकृति में
सीधा पैदा
नहीं होता। गेहूं
प्रकृति में
सीधे पैदा
होता है।
अहंकार प्रकृति
में सीधा पैदा
होता है, बुराई
सीधी पैदा
होती है। भलाई
को पैदा करने
के लिए बड़ा
श्रम उठाना
पड़ता है। वह
सीधी पैदा नहीं
होती; उसकी
डायरेक्ट
बर्थ नहीं
होती।
घी
सीधा पैदा
नहीं होता।
दूध बनेगा, दही बनेगा, मथा जाएगा, फिर घी
निकलेगा।
बहुत होगा दूध,
बहुत होगा
दही, थोड़ा-सा
घी निकलेगा।
बड़ा होगा श्रम,
छोटी-सी
भलाई
निकलेगी।
श्रम होगा
पीछे; रूपांतरण
होगा पीछे।
सीधे घी पैदा
नहीं होता--इसे
खयाल
रखें--पैदा
होने की
प्रक्रिया है,
प्रोसेस
है। पैदा
करेंगे, तो
ही पैदा होगा।
अगर आदमी न हो
पृथ्वी पर, तो घी पैदा
नहीं होगा।
दूध पैदा होगा,
घी पैदा
नहीं होगा।
मनुष्य की
चेतना ने घी
को जन्म दिया।
अगर
मनुष्य न हो
पृथ्वी पर, तो भलाई
पैदा नहीं
होगी। भलाई को
मनुष्य की चेतना
ने जन्म दिया।
इसलिए अगर घी
का प्रतीक खयाल
में आ गया हो, तो बहुत
आश्चर्यजनक
नहीं है। सहज
है। जिनके पास
थोड़ी-सी भी काव्य
की दृष्टि है,
वे उघाड़
सकते हैं बात
को कि क्यों
यह प्रतीक खयाल
में आ गया
होगा।
मथना
पड़ता है, मंथन
करना पड़ता है।
घी को जन्माना
पड़ता है। भलाई
मनुष्य के
श्रम का फल
है। ऐसे ही
नहीं मिलती। गेहूं
बिना आदमी के
भी होता
रहेगा। बीज
गिरते
रहेंगे।
अंकुर निकलते
रहेंगे। आदमी
नहीं होगा, तो भी पौधे
होंगे, बीज
होंगे; चलती
रहेगी
यात्रा।
लेकिन घी नहीं
होगा पृथ्वी
पर। आदमी नहीं
होगा, तो
भलाई नहीं
होगी पृथ्वी
पर। शुभ नहीं
होगा।
तो जिन
दिनों, जिस
कृषि के जगत
में गीता
जन्मी, जिस
कृषि के जगत
में वेद जन्मा,
जिस कृषि के
प्रतीकों की
दुनिया के बीच
यज्ञ की धारणा
जन्मी, घी
निकटतम
प्रतीक था शुभ
का।
अब यह
मजे की बात है, अशुभ को
डालें जीवन की
चेतना में, तो अशुभ जल
जाएगा, लेकिन
जीवन की चेतना
को क्षीण
करेगा। अशुभ
जलेगा, तो
भी जीवन की
चेतना को क्षीण
करेगा। शुभ को
भी डालें जीवन
की चेतना में,
तो शुभ जीवन
की चेतना को
क्षीण नहीं
करेगा, बढ़ाएगा।
दूसरी
बात भी खयाल
रख लें कि
अंततः शुभ को
भी जला देना
है। शुभ जलेगा
और ज्योति बढ़ेगी।
लेकिन जला
देना है उसे
भी। उसे भी
बचा नहीं लेना
है। अन्यथा वह
भी बंधन बन
जाएगा।
घी
रहस्यपूर्ण
है इन अर्थों
में। जल भी
जाता है, मिट
भी जाता है, जीवन की
धारा को ऊपर
की तरफ गतिमान
भी कर जाता है।
लपटों को
प्राण दे जाता
है, आकाश
की तरफ दौड़ने
का बल दे जाता
है; और जल
भी जाता है, खो भी जाता
है, विदा
भी हो जाता
है। कहीं कोई
रूपरेखा नहीं
छूट जाती।
कहीं कोई
रूपरेखा नहीं
छूट जाती। यज्ञ
में फेंका गया
घृत आस-पास
सिर्फ एक
सुवास छोड़
जाता है, सिर्फ
एक सुगंध छोड़
जाता है। शुभ
जब जलता है, तो सुगंध
छोड़ जाता है।
वह सुवास
व्याप्त हो जाती
है चारों ओर।
साधु
के पास शुभ
होता है। संत
के पास शुभ की
सिर्फ सुवास
होती है, शुभ
नहीं होता।
साधु अग्नि
में जलता हुआ
घृत है, संत
जल गया घृत
है। शुभ भी जल
गया है; सिर्फ
सुवास रह गई
है। जिनके पास
बहुत तीव्र नासारंध्र
हैं, वे ही
केवल उस सुवास
को पकड़
सकेंगे।
इसलिए
साधु को
पहचानना बहुत
आसान; संत
को पहचानना
बहुत कठिन।
साधु को कोई
भी पहचान लेता
है, क्योंकि
शुभ दिखाई
पड़ता है। संत
को पहचानना कठिन
हो जाता है, क्योंकि शुभ
दिखाई नहीं
पड़ता। शुभ अब
पारदर्शी भी
नहीं रह जाता।
शुभ अब चारों
तरफ स्पर्श नहीं
किया जा सकता।
अब शुभ खो
जाता है सुवास
में।
ऐसा यह
यज्ञ का
प्रतीक।
कृष्ण कहते
हैं, जीवन ही
जिसका यज्ञ हो
जाए; यज्ञ
को ही जो यज्ञ
में समर्पित
कर दे, ऐसा
व्यक्ति, ऐसा
व्यक्ति ही
जीवन का चरम
अनुभव है; ऐसी
चेतना ही परात्परब्रह्म
को जान पाती
है; अल्टिमेट को, आत्यंतिक
को जान पाती
है।
ये
प्रतीक सड़
जाते हैं। सब
प्रतीक सड़
जाते हैं; अपने कारण
नहीं, हमारे
कारण।
क्योंकि
हमारी जो
प्रतीकों की
पकड़ है, वह
नीचे के छोर
से होती है।
और जो
प्रतीकों को जन्म
देता है, वह
ऊपर के छोर से
जन्म देता है।
जो प्रतीक को
जन्म देता है,
वह आकाश की
तरफ से प्रतीक
को निर्मित
करता है। और
हम जब प्रतीक
को पकड़ते
हैं, तब
जमीन की तरफ
से पकड़ते
हैं।
जो
अग्नि के
प्रतीक को
देता है, वह
चेतना के लिए
प्रतीक खोजता
है। और हम जब
अग्नि को पकड़ते
हैं, तो
अग्नि को ही पकड़ते
हैं। फिर
अग्नि की पूजा
चलती है। फिर
हम गेहूं
को जलाते रहते
हैं। फिर हम
घी को जलाते
रहते हैं। फिर
हम सब भूल
जाते हैं कि
घी क्या है, अग्नि क्या
है, यज्ञ
क्या है। सब
भूल जाते हैं।
एक थोथा, मरा
हुआ, डेड
सिंबल हाथ में
रह जाता है।
फिर उसके
आस-पास हम
घूमते रहते
हैं, भटकते
रहते
हैं--सदियों
तक।
और बड़ी
कठिनाई तो तब
पैदा होती है
कि जब कोई व्यक्ति
इस भटकाव का
विरोध करे, तो धर्म का
दुश्मन मालूम
पड़ता है। कोई
कहे कि यह
पागलपन है, तो निश्चित
ही धर्म का
दुश्मन मालूम
पड़ेगा। क्योंकि
हम कहेंगे, कृष्ण तो
गीता में कहते
हैं, और आप
पागलपन कहते
हैं! लेकिन
जिसे कृष्ण
गीता में कहते
हैं और जिसे
आप पकड़े
हैं, उसमें
आकाश और जमीन
का फासला हो
गया। अगर कृष्ण
भी वापस लौट
आएं, तो
आपको पागल
कहेंगे।
प्रतीक
पकड़ने के
लिए नहीं, पार हो जाने
के लिए हैं, टु बी ट्रांसेंडेड।
हर प्रतीक पार
हो जाने के
लिए है। और जब
प्रतीक पार
नहीं होते, तो संप्रदाय
खड़े होते हैं।
मेरे
जैसे आदमी की
कठिनाई भारी
है। भारी इसलिए
है कि मैं
देखता हूं कि
प्रतीक के
पीछे प्राण
हैं। और भारी
इसलिए है कि मैं
देखता हूं कि
आपके हाथ में
लाश है। तब
मेरी कठिनाई
भारी है। तब
एक दिन मैं
कहता हूं, पागल हैं आप;
और फिर भी
मैं जानता हूं
कि प्रतीक
सार्थक है।
दूसरे दिन
कहता हूं, सार्थक
है प्रतीक। तब
आप पाते हैं
कि असंगत है
यह आदमी।
क्योंकि कल
कहा था कि गलत
है; आज
कहते हैं, सही
है। कल
तुम्हें गलत
कहा था, प्रतीक
को नहीं। आज
प्रतीक को सही
कह रहा हूं, तुम्हें
नहीं। दोनों
ही करना
पड़ेंगे।
प्रतीक
के भीतर गहरा
छिपा हुआ राज
है, उसे
बचाना जरूरी
है। लेकिन
आपके हाथ में
जो प्रतीक है,
वह मुर्दा
है, उसे
मिटाना भी
जरूरी है। और
ये दोनों
बातें हो पाएं,
तो धर्म का
रहस्य समझ में
आता है, अन्यथा
नहीं आता।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इसमें
दो प्रकार के
यज्ञों की बात
बताई गई है।
पहला है, योगीजन
देवताओं के पूजनरूप
यज्ञ की ही
अच्छी तरह
उपासना करते
हैं, लेकिन
दूसरे ज्ञानीजन
परमात्मा रूप
अग्नि में
यज्ञ के
द्वारा ही यज्ञ
को हवन करते
हैं। योगियों
का यज्ञ और
ज्ञानियों का
यज्ञ, कृपया
इनका अर्थ
स्पष्ट करिए।
जैसा
मैंने पहले
कहा, दो तरह की
निष्ठाएं
हैं, सांख्य
की और योग की।
इसलिए इन दो निष्ठाओं
के कारण धर्म
के सदा ही दो
रूप हो जाते
हैं। बस, दो
ही; इससे
ज्यादा नहीं
होते।
सांख्य
की निष्ठा है
कि ज्ञान ही
काफी है। सौ में
से एक आदमी
कभी सांख्य को
समझ पाता है।
योग की निष्ठा
है कि ज्ञान
काफी नहीं है; कुछ करेंगे,
कुछ कर्म
होगा--साधना, अभ्यास--तो
ही ज्ञान फलित
होगा। सौ में
से निन्यानबे
आदमी योग को
ही समझ पाते
हैं।
दो तरह
के लोग हैं, इसलिए दो
तरह की निष्ठाएं
हैं। कर्माभिमुख,
कर्म की तरफ
अभिमुख, एक्शन
ओरिएंटेड
लोग हैं। और ज्ञानाभिमुख,
ज्ञान की ओर
उन्मुख, नालेज ओरिएंटेड
लोग हैं। मोटा
विभाजन दो का
है। इसलिए
कृष्ण जगह-जगह
दो की बात करते
हैं। वे
जगह-जगह कहते
हैं, योगीजन,
ज्ञानीजन। वे दोनों
ही निष्ठाओं
को स्वीकार
करते हैं।
दोनों
ही निष्ठाएं
सही हैं, क्योंकि
दो तरह के लोग
हैं। अगर एक
ही निष्ठा सही
है, अगर
सांख्य ही सही
है, ऐसा
किसी का आग्रह
हो, तो
बाकी
निन्यानबे
प्रतिशत
लोगों को
परमात्मा तक
पहुंचने का
कोई मार्ग
नहीं है। अगर
योग ही सही है,
तो वह एक
प्रतिशत
लोगों को
परमात्मा तक
पहुंचने का
कोई मार्ग
नहीं है। नहीं;
जितने तरह
के लोग हैं, उतने तरह के
मार्ग हैं।
मोटा विभाजन
दो का है।
इसलिए
वे इस यज्ञ की
चर्चा में भी
दो की बात करते
हैं। वे कहते
हैं, योगीजन पूजन से...।
पूजन क्रिया
है। पूजन
पद्धति है। उस
पद्धति से
यज्ञ कर रहे
हैं। ज्ञानीजन
ज्ञान से ही; उनके लिए
ज्ञान ही यज्ञ
है, जानना
ही उनके लिए
करना है। योगी
के लिए करना ही
जानना है।
ज्ञानी के लिए
जानना ही करना
है। दोनों एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति को, जो ज्ञानी
और योगी
साथ-साथ हैं, जो दोनों को
जानते हैं, जो दोनों
मार्गों को
पहचानते हैं,
उनके लिए
कोई भेद नहीं
है।
अभी
रामकृष्ण ने
अपने जीवन में
एक अनूठा प्रयोग
किया, सदियों
बाद। एक अर्थ
में शायद
अनूठा।
रामकृष्ण को
अनुभव हुआ। तो
आमतौर से
अनुभव हो जाए,
तो बात
समाप्त हो
जाती है। एक
मार्ग से भी
आप मंजिल पर
पहुंच जाएं, तो आप फिर इस
चिंता में
नहीं पड़ते कि
दूसरे मार्गों
से भी पहुंचकर
देखें। क्या
जरूरत है? बात
समाप्त हो
जाती है।
लेकिन
रामकृष्ण को
अनुभव के बाद
दूसरे मार्गों
से भी पहुंचने
का खयाल आया।
तो उन्होंने
इस्लाम की भी
साधना की। उन्होंने
ईसाइयत की भी
साधना की।
उन्होंने सांख्य
के मार्ग को
भी खोजा।
उन्होंने योग
के मार्ग को
भी खोजा।
उन्होंने
भक्तों की, वैष्णवजनों की यात्रा
भी की।
उन्होंने सब
तरफ से देखा।
आखिर में पाया
कि सभी रास्ते
वहीं पहुंच
जाते हैं; सभी
मार्ग वहीं
पहुंच जाते
हैं। तो
रामकृष्ण ने
बाद में कहा
कि जैसे पहाड़
पर चढ़ने
वाले बहुत-से
रास्ते अंततः
शिखर पर पहुंच
जाते हैं, ऐसे
ही...।
जब वे
एक तरह की
साधना करते थे, तब ठीक
निष्ठा से
पूरा उसी में
डूब जाते। जब
वे इस्लाम की
साधना कर रहे
थे, सूफी
साधना से गुजर
रहे थे, तो
उन्होंने
मंदिर जाना
बंद कर दिया।
वे एक लुंगी
बांध लिए और
मस्जिद में ही
पड़े रहने लगे;
छह महीने।
फिर एक दिन
आकर
दक्षिणेश्वर
उन्होंने कहा,
पहुंच गया
वहीं। जहां यह
मंदिर ले गया,
वहीं
मस्जिद भी ले
गई।
जब वे
साधना करते थे
राधा संप्रदाय
की; तो राधा
संप्रदाय की
मान्यता है, कृष्ण ही
पुरुष हैं। और
जब कोई उस
साधना में जाता
है, तो
अपने को राधा
मानकर ही, चाहे
पुरुष हो तो
भी, अपने
को स्त्री
मानकर ही जाता
है। रामकृष्ण
जब छह महीने
तक अपने को
कृष्ण की राधा
मानकर साधना
करते थे, तो
बड़े अदभुत
अनुभव हुए।
साधारण अनुभव
नहीं, जो
भीतर घटते हैं;
असाधारण, जो बाहर तक
पहुंच जाते
हैं।
रामकृष्ण
की चाल बदल गई, स्त्रियों
जैसी हो गई।
उनके स्तन उभर
आए। उनकी आवाज
स्त्रैण हो
गई। और एक
बहुत बड़ा
चमत्कार घटित
हुआ कि वे
मासिक धर्म से
होने लगे।
यह अगर
दो-चार हजार
साल पहले घटी
हुई घटना होती, तो हम कहते, कहानी होगी।
अभी-अभी तक
इसके आंखों
देखे गवाह भी
मौजूद थे।
इतने भाव से
भर गए वे राधा
के, कि
स्त्रैण हो
गए। इतना
आत्मसात कर
लिया इस बात
को कि राधा
हूं, कि
भूल गए कि
पुरुष हूं। और
जब मन भूल जाए,
तो शरीर
उसके पीछे चला
जाता है। शरीर
सदा अनुगामी
है।
अगर
ठीक से समझें, तो जो भी
शरीर में
प्रकट होता है,
वह उसके
बहुत पहले बीजरूप
में मन में
प्रकट होता है,
अन्यथा
शरीर में
प्रकट नहीं
होता। अगर कोई
स्त्री है, तो वह भी
उसके पिछले
जन्म के मन का बीजरूप
अंकुर आज आया
है। और आज अगर
कोई पुरुष है,
तो वह भी
उसके पिछले
जन्म का बीजरूप
अंकुर आज आया
है। पिछले
जन्म की
यात्रा जहां छूट
जाती है, मन
में जो बीज रह
जाते हैं, वे
ही फिर सक्रिय
हो जाते हैं, गतिमान हो
जाते हैं।
रामकृष्ण
का अनेक-अनेक
मार्गों से
वहीं पहुंच
जाना। कृष्ण
ऐसी ही बात
कहते हैं पूरी
गीता में।
इसलिए गीता कई
अर्थों में
असाधारण है।
कुरान एक
निष्ठा का
शास्त्र है; दूसरी
निष्ठा की बात
नहीं है।
बाइबिल एक
निष्ठा का
शास्त्र है; दूसरी
निष्ठा की बात
नहीं है।
महावीर के वचन
एक निष्ठा के
वचन हैं; दूसरी
निष्ठा की बात
नहीं है।
बुद्ध के वचन
एक निष्ठा के
वचन हैं; दूसरी
निष्ठा की बात
नहीं है। गीता
असाधारण है।
मनुष्य के
अनुभव में
जितनी निष्ठाएं
हैं, उन
सारी निष्ठाओं
का निचोड़
है।
इसलिए
अगर मुसलमान
कहें कि कुरान
हमारा है, तो एक अर्थ
में सही कहते
हैं। लेकिन
हिंदू अगर
कहें कि गीता
हमारी है, तो
उस अर्थ में
सही नहीं कहते।
इसलिए सही
नहीं कहते कि
गीता सबकी हो
सकती है।
ऐसी
कोई निष्ठा
नहीं है जो
मनुष्य-जाति
में प्रकट हुई
हो, जिसके
सूत्र, बीज-सूत्र
गीता में नहीं
हैं। सब
मार्गों की, सब द्वारों
की इकट्ठी। यह
हो इसलिए सका,
यह नहीं
होता, अगर
अर्जुन--कृष्ण
ने पहले
सांख्य की बात
कही, अगर
अर्जुन राजी
हो जाए, तो
गीता आगे न
बढ़ती। लेकिन
अर्जुन समझ न
पाया सांख्य
की बात। इसलिए
फिर दूसरी बात
कृष्ण को करनी
पड़ी। अर्जुन
वह भी न समझ
पाया; फिर
तीसरी बात
करनी पड़ी।
अर्जुन वह भी
न समझ पाया; चौथी बात
करनी पड़ी!
यह
गीता का श्रेय
अर्जुन को है।
यह अर्जुन समझ
ही नहीं पाया।
वह सवाल उठता
ही चला गया।
जब एक मार्ग
लगा कृष्ण को
कि नहीं उसकी
पकड़ में आता, नहीं उसके
साथ बैठता
तालमेल, तब
उन्होंने
दूसरी बात की;
तब तीसरी
बात की; तब
चौथी बात की।
मोहम्मद
को भी अर्जुन
मिल जाता, तो कुरान
ऐसी ही बन
सकती थी; नहीं
मिला। महावीर
को भी मिल
जाता, तो
उनके वचन भी
ऐसे हो सकते
थे; नहीं
मिला। अर्जुन
जैसा पूछने
वाला कभी-कभी
मिलता है।
कृष्ण जैसे
उत्तर देने
वाले बहुत बार
मिलते हैं।
यह
ध्यान रखना, जो जानता है
उसे उत्तर
देना बहुत
आसान है; जो
नहीं जानता है,
उसे प्रश्न
भी ठीक से
पूछना बहुत
कठिन है।
इसलिए अर्जुन
एक अर्थों में,
पूरी
मनुष्य-जाति
ने जितने सवाल
उठाए हैं, उन
सबका सारभूत
है। पूरी
मनुष्य-जाति
में मनुष्य के
मन ने जितने
सवाल उठाए हैं,
उन सारे
सवालों को वह
उठाता चला
गया। वह पूरी मनुष्य-जाति
के रिप्रेजेंटेटिव
की तरह कृष्ण
के सामने अड़कर
खड़ा हो गया।
कृष्ण को उसके
उत्तर देने
पड़े। एक-एक वह
पूछता चला गया,
एक-एक
उन्हें उत्तर
देने पड़े। वह
एक-एक उत्तर को
नकारता गया; भुलाता गया; दूसरे
की खोज करता
चला गया।
इसलिए
कृष्ण बार-बार
दो मूल निष्ठाओं
की बात निरंतर
करेंगे। वे
कहेंगे, योगीजन;
वे कहेंगे,
ज्ञानीजन। दोनों एक
ही जगह पहुंच
जाते हैं।
लेकिन दोनों
के पहुंचने के
मार्ग बड़े
भिन्न हैं।
योगी कर्म, क्रिया, अभ्यास
से पहुंचते
हैं। ज्ञानी
अकर्म, अक्रिया,
अनभ्यास
से।
अगर इस
सदी में हम पकड़ना
चाहें, तो
पश्चिम में एक
आदमी हुआ, गुरजिएफ।
वह योगीजन
का ठीक-ठीक प्रतीक
है। आप कहेंगे
कि भारत से
कोई नाम नहीं
लेता!
दुर्भाग्य है;
कोई नाम है
नहीं ऐसा।
ठीक-ठीक
प्रतीक योगी
का था जार्ज
गुरजिएफ। अभी
कुछ वर्ष पहले
मरा। सांख्य
का अगर
ठीक-ठीक
प्रतीक खोजना
हो, तो
कृष्णमूर्ति।
सौभाग्य कि
भारत उनका नाम
ले सकता है।
अगर
गुरजिएफ और कृष्णमूर्ति
को आमने-सामने
खड़ा कर दें, तो दुश्मन
मालूम
पड़ेंगे--बिलकुल
दुश्मन! क्योंकि
गुरजिएफ
कहेगा, बिना
किए कुछ भी
नहीं हो सकता।
और
कृष्णमूर्ति
कहेंगे, कुछ
भी करने से
कुछ नहीं
होगा। करने का
कोई सवाल ही
नहीं है। किया,
कि फंसे।
किया, कि
कभी नहीं
पहुंचोगे। और
गुरजिएफ
कहेगा कि नहीं
किया, तो
डूबे; नहीं
किया, तो
तुम नहीं ही
कर रहे हो, कहां
पहुंच गए हो?
लेकिन
कृष्णमूर्ति
भी एक निष्ठा
की बात कर रहे
हैं, सांख्य
की। नई कोई
बात नहीं है।
नई लगती है, क्योंकि
सांख्य इतना
परम विज्ञान
है कि जब भी प्रकट
होता है, तभी
नया लगता है; उसकी परंपरा
नहीं बन पाती।
वह इतना गहन
और सूक्ष्म है
कि उसकी धारा
बार-बार टूट
जाती है। एक प्रतिशत
लोग तो
मुश्किल से
उसको समझ पाते
हैं। तो उसकी
धारा कैसे बने?
योग की
धारा बन जाती
है। क्योंकि
योग को निन्यानबे
प्रतिशत लोग
समझ सकते हैं, चाहें तो।
कोई कठिनाई
नहीं है।
इसलिए योग की
परंपरा बन
जाती है, ट्रेडीशन बन जाती है।
सांख्य की कोई
परंपरा नहीं
बनती। इसलिए
नहीं बनती कि
कभी-कभी कोई
एकाध आदमी ठीक
से समझ पाता
है कि न करने
से भी हो सकता
है।
इसलिए
जब भी सांख्य
प्रकट होता है, तो नया
मालूम पड़ता
है। और जब भी
योग प्रकट
होता है, तो
परंपरा मालूम
पड़ती है। और
सांख्य का
चिंतक कहेगा,
परंपरा से
कुछ भी न
होगा। और योग
का चिंतक कहेगा,
परंपरा के
बिना कुछ भी न
होगा।
लेकिन
कृष्णमूर्ति
को सुविधा है।
जो लोग भी एक
निष्ठा की बात
करते हैं, वे बहुत कंसिस्टेंट
हो सकते हैं, संगत हो
सकते हैं। जिंदगीभर
एक ही बात
कहनी है! तो
कृष्णमूर्ति
तीस-चालीस साल
से एक ही बात
कहे चले जाते
हैं। एक ही
स्वर! बिलकुल
संगत हैं।
उनमें असंगति
नहीं खोजी जा सकती।
गुरजिएफ में
भी असंगति
नहीं खोजी जा
सकती। बिलकुल
संगत हैं।
पूरी जिंदगी
एक ही बात कहता
है।
मेरे
जैसे आदमी में
असंगति खोजी
जा सकती है।
मैं दोनों निष्ठाओं
की बात कह रहा
हूं। मेरे
सामने जैसा
आदमी होता है, वैसी बात
कहता हूं। अगर
मुझे लगता है,
यह आदमी योग
से पहुंच सकता,
तो मैं कहता
हूं, क्रिया
से। अगर मुझे
लगता है, यह
आदमी योग से
नहीं पहुंच
सकता, तो
मैं कहता हूं,
अक्रिया
से। तब कठिनाई
खड़ी हो जाती
है। अगर वे
दोनों आदमी
मिल जाते हैं,
तो बहुत
कठिनाई खड़ी हो
जाती है। और
अक्सर तो मुझे
दोनों बातें
एक ही साथ
कहनी पड़ती
हैं।
इसलिए
कृष्ण की गीता
भी समझनी
मुश्किल है।
अगर गुरजिएफ
कृष्ण की गीता
पढ़ेगा, तो भी उसमें
गलतियां
निकाल लेगा।
वे गलतियां
निकाल लेगा, जो सांख्य
के वचन हैं।
अगर
कृष्णमूर्ति
गीता पढ़ेंगे,
तो वे भी
गलतियां
निकाल लेंगे।
वे गलतियां निकाल
लेंगे, जो
योग के वचन
हैं। लेकिन
दोनों हालत
में कृष्ण के
साथ अन्याय हो
जाएगा।
मार्ग
हैं अलग, मंजिल
है एक। और हर
मार्ग पर अलग
घटनाएं घटती
हैं। अगर मैं
बाएं तरफ के
रास्ते से पहाड़
चढ़ता हूं,
तो हो सकता
है, मुझे
फूलों से लदे
हुए वृक्ष
मिलें। और आप
अगर दाएं
रास्ते से
पहाड़ चढ़ते
हों, तो हो
सकता है, आपको
सिवाय
चट्टानों, पथरीली
चट्टानों के
कुछ भी न
मिले।
और हो
सकता है, जब
हम दोनों
मिलें, तो
हम कहें कि
हमारे दोनों
रास्ते
बिलकुल अलग
हैं, मंजिल
भी अलग होगी।
क्योंकि मेरे
रास्ते पर तो
फूल ही फूल
हैं, और
तुम्हारे
रास्ते पर
पत्थर ही
पत्थर हैं। अब
कहां फूल!
कहां पत्थर!
दोनों का कोई
मेल हो नहीं
सकता। हम
दुश्मन हैं।
और जो रास्ता
फूलों से
गुजरता है, वह वहीं
कैसे
पहुंचेगा, जहां
वह रास्ता
पहुंचता है, जो पत्थरों
से गुजरता है!
ऐसी हमारी
बुद्धि है।
लेकिन
पहाड़ को कोई
तकलीफ नहीं
आती। वह फूलों
वाले रास्ते
को भी शिखर पर
पहुंचा देता
है; और
पत्थरों वाले
रास्ते को भी
शिखर पर
पहुंचा देता
है। पहाड़ को
इसमें कोई
इनकंसिस्टेंसी
दिखाई नहीं
पड़ती। कोई
अड़चन ही नहीं
मालूम होती।
वह कहता है कि
इस रास्ते से
आओ, तो भी
शिखर पर आ
जाओगे। उस
रास्ते से आओ,
तो भी।
तुम्हारे
रास्ते पर लाल
फूल खिलते हों,
तो कोई हर्ज
नहीं; और
तुम्हारे
रास्ते पर
सफेद फूल
खिलते हों, तो कोई हर्ज
नहीं; और
तुम्हारे
रास्ते पर फूल
खिलते ही न
हों, तो
कोई हर्ज नहीं;
और
तुम्हारे
रास्ते पर
कांटे ही
कांटे खिलते हों,
तो भी कोई
हर्ज नहीं।
ध्यान एक ही
रखना जरूरी है
कि तुम ऊपर की
तरफ उठ रहे हो
कि नहीं उठ
रहे हो। अगर
ऊपर की तरफ उठ
रहे हो, तो
शिखर पर आ
जाओगे।
इसलिए
कृष्ण यज्ञ की
बात करते हैं।
वह ऊपर की तरफ
उठने का
प्रतीक है।
चाहे योगी
करते हों--भजन
से, पूजन से,
आसन से, प्राणायाम
से--किसी भी
तरह। और चाहे ज्ञानीजन
करते
हों--ध्यान से,
निदिध्यासन से, समाधि
से, न कुछ
करने में, न
कुछ करने
से--वे भी
पहुंच जाते
हैं। इसलिए दोनों
का उन्होंने
अलग उल्लेख
किया है।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु
जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु
जुह्वति।।
26।।
और
अन्य योगीजन
श्रोत्रादिक
सब इंद्रियों
को संयमरूप
अग्नि में हवन
करते हैं
अर्थात
इंद्रियों को विषयों
से रोककर अपने
वश में कर
लेते हैं और
दूसरे योगी
लोग शब्दादिक
विषयों को इंद्रियरूप
अग्नि में हवन
करते हैं
अर्थात
राग-द्वेष
रहित
इंद्रियों
द्वारा विषयों
को ग्रहण करते
हुए भी भस्मरूप
करते हैं।
फिर
कृष्ण ने दो निष्ठाओं
की बात कही।
एक वे, जो
इंद्रियों का
संयम कर लेते
हैं। जो
इंद्रियों को
विषयों की
तरफ--विषयों
की तरफ
इंद्रियों की
जो यात्रा है,
उसे विदा कर
देते हैं; यात्रा
ही समाप्त कर
देते हैं।
जिनकी इंद्रियां
विषयों की तरफ
दौड़ती ही नहीं
हैं। संयम का
अर्थ समझेंगे,
तो खयाल में
आए। दूसरे वे,
जो विषयों
को भोगते रहते
हैं, फिर
भी लिप्त नहीं
होते। ये
दोनों भी यज्ञ
में ही रत
हैं।
एक वे, जो
इंद्रियों को
विषयों तक
जाने ही नहीं
देते--उसकी
अलग साधना
है--इंद्रियों
और विषयों के
बीच में जो
सेतु है, ब्रिज
है, उसे ही
तोड़ देते हैं।
दूसरे वे, जो
इंद्रियों को
विषयों तक
जाने देते हैं,
लेकिन
इंद्रियों और
लिप्त हो जाने
में जो सेतु
है, उसे
तोड़ देते हैं।
अब यह
दो सेतुओं
का जो तोड़ना
है, वह खयाल
में ले लेना
जरूरी है।
दोनों ही
स्थितियों से
एक ही परम
अवस्था
उपलब्ध होती
है।
पहले, पहले को
खयाल में लें,
इंद्रियों
को विषयों तक
नहीं जाने
देते!
इंद्रियां
विषयों की तरफ
भागती ही रहती
हैं। रास्ते
पर गुजरे हैं
आप। सुंदर भवन
दिखाई पड़ गया, कि सुंदर
चेहरा दिखाई
पड़ गया, कि
सुंदर काया
दिखाई पड़ गई, कि सुंदर
कार दिखाई पड़
गई--आपको पता
ही नहीं चलता
कि जब आपने
कहा, सुंदर
है, तभी
इंद्रियां
दौड़ चुकीं।
ऐसा नहीं कि
सुंदर है, ऐसा
जानने के बाद
इंद्रियां
दौड़ना शुरू
करती हैं।
इंद्रियां
दौड़ चुकी होती
हैं। उनका कनक्लूजन
है यह, सुंदर
है, यह
निष्कर्ष है।
दौड़ गई
इंद्रियों का,
पहुंची
इंद्रियों का
निष्कर्ष है
यह कि सुंदर
है।
ऐसा मत
सोचना आप कि
आप सुंदर
चेहरा देखकर
आकर्षित होते
हैं; आप
आकर्षित होते
हैं, इसलिए
चेहरा सुंदर
दिखाई पड़ता
है। आकर्षण की
घटना सूक्ष्म
है और बड़े
अदृश्य में घट
जाती है। सौंदर्य
की घटना
सूक्ष्म नहीं
है और विचार
में पता चलती
है।
लेकिन
आमतौर से हम
उलटी बातें
करते हैं।
सूक्ष्म का
हमें पता नहीं
चलता। हम कहते
हैं, यह चेहरा
आकर्षक मालूम
पड़ता है, क्योंकि
सुंदर है।
सचाई उलटी है।
यह चेहरा सुंदर
मालूम पड़ता है,
क्योंकि
आकर्षित कर
चुका है।
क्योंकि यही
चेहरा दूसरे
को सुंदर नहीं
मालूम पड़ता; तीसरे को
सुंदर नहीं
मालूम पड़ता।
अगर उनको आकर्षित
नहीं कर पाया
है, तो
सुंदर नहीं
है। सुंदर
हमारी
निष्पत्ति है,
कारण नहीं।
सुंदर की वजह
से कोई
आकर्षित नहीं
होता; आकर्षित
होने की वजह
से सुंदर का
निष्कर्ष लेता
है। यह हमारा
बौद्धिक
निष्कर्ष है।
इंद्रियों ने
तो अनुभव किया
है आकर्षण का;
बुद्धि ने
निर्णय लिया
है सुंदर का।
इंद्रियां
पहुंच चुकीं;
इंद्रियों
ने स्पर्श कर
लिया।
इंद्रियों
की गति
सूक्ष्म है।
ऐसा नहीं कि
जब आप किसी के
शरीर को छूते
हैं, तभी
इंद्रियां
छूती हैं।
इंद्रियों के
छूने के
अलग-अलग मार्ग
हैं। आंख
देखती है, और
छू लेती है।
देखना आंख के
छूने का ढंग
है। सुनना कान
के छूने का
ढंग है।
स्पर्श हाथ के
छूने का ढंग
है। ये सब
छूने के ढंग
हैं। सब
इंद्रियां
छूती हैं। एक लिहाज
से हाथ का
रेंज उतना
ज्यादा नहीं
है छूने में, जितना आंख
का है, जितना
कान का है।
आंख बहुत दूर
स्पर्श कर
लेती है।
लेकिन आंख भी
स्पर्श करती
है।
जब आप
किसी के चेहरे
को अब दुबारा
देखें, तो
आप खयाल करना
कि आपकी आंख
ने उसके चेहरे
को स्पर्श
किया या नहीं!
लेकिन हमारा
खयाल यह है कि
हाथ से ही छुआ
जाता है; इसलिए
हम भूल में
पड़ते हैं। आंख
से भी छुआ जाता
है। कान से भी
छुआ जाता है।
गंध से भी छुआ
जाता है। ये
सब हमारे छूने
के ढंग हैं।
इंद्रिय
का अर्थ है, स्पर्श की
व्यवस्था, उपकरण।
सब इंद्रियां
स्पर्श करती
हैं।
सूक्ष्म
स्पर्श दूर से
हो जाते हैं।
स्थूल स्पर्श
पास से करने
पड़ते हैं। हाथ
सबसे स्थूल है; बहुत निकट न
आ जाए, तो
छू नहीं सकता।
इसलिए जिसे
हमारी
इंद्रियां
छूना चाहती
हों, हाथ
सबसे आखिर में
छूता है। पहले
आंख छुएगी,
फिर नाक छुएगी,
कान
छुएंगे। और जब
दूसरा
व्यक्ति आंख
से छूने के
लिए राजी हो
जाएगा, कान
से छुए जाने
को राजी हो
जाएगा, नाक
से छुए जाने
को राजी हो
जाएगा, तब
हाथ छुएंगे।
इससे
विपरीत काम भी
चलता है पूरे
समय। अगर स्त्रियां
परफ्यूम
डालकर निकलती
हैं या पुरुष, तो वे छूने
का दूसरा काम
कर रहे हैं।
वे छुए जाने
का काम कर रहे हैं।
शरीर से सबको
नहीं छुआ जा
सकता। लेकिन
एक परफ्यूम
डालकर बड़े
सूक्ष्म तल पर,
गंध से, सब
को छुआ जा
सकता है।
सभ्यता हाथ से
छूने की तो
आज्ञा सबको
नहीं देती।
नियंत्रण है,
लाइसेंस
है। लेकिन गंध
से तो सबको
छुआ जा सकता
है!
आवाज, गंध, ध्वनि,
दृश्य, दर्शन--वे
सब छूते हैं।
जब आप सज-संवरकर
घर से निकलते
हैं, तो आप
दूसरों की आंख
से छुए जाने
का निमंत्रण लेकर
निकल रहे हैं।
और अगर कोई
आंख से न छुए, तो आप बड़े
उदास
लौटेंगे।
दूसरों
की आंख का
स्पर्श भी
लोरी का काम
करता है, थपकी
का काम करता
है। जब आप
निकलते हैं और
कई आंखें आपको
छूती हैं, तब
आपके भीतर कोई
गुदगुदी छूट
जाती है।
यह
दोहरा काम चल
रहा है, छूने
का, छुए
जाने का।
इंद्रियां
प्रतिपल इस
काम में संलग्न
हैं। आपको पता
भी नहीं चलता
कि यह हो रहा
है। यह खयाल
में भी नहीं
आता।
बर्न
ने एक किताब
लिखी है, गेम्स दैट पीपुल
प्ले। उसमें
स्पर्श के भी
एक खेल की
उसने चर्चा की
है, और ठीक
चर्चा की है।
आप
रास्ते पर
निकलते हैं; और एक आदमी
कहता है, हलो!
उसने आपको
छुआ। यू हैव
बीन टच्ड,
आवाज से।
उसने एक थपकी
दी, अच्छे
तो हो! गदगद
हुए। रीढ़ ऊंची
हुई। अच्छा
लगा। लेकिन
वही आदमी एक
दिन पास से
निकला और उसने
हलो नहीं
कहा। आप छुए
नहीं गए। भीतर
कुछ उदास हुआ;
फ्रस्ट्रेशन हुआ। क्या
बात है? इस
आदमी ने आज हलो
नहीं कहा!
अगर
तीस दिन के
लिए आप गांव
के बाहर चले
गए और तीस दिन
बाद आए, और
जो आदमी आपको
रास्ते पर
मिलकर सिर्फ हलो कहता
था, उसने
अगर आज भी
सिर्फ हलो
कहा, तो भी
आप डिप्राइव्ड
अनुभव करेंगे,
क्योंकि
तीस हलो
उसके ऊपर ऋण
हैं! आपको
लगेगा कि यह
आदमी, उनतीस
हलो का
क्या हुआ? नहीं
तो तीस दिन के
बाद अगर वह
मिलेगा, तो
वह कहेगा, हलो।
कहिए, कैसे
हैं! तबियत तो
ठीक! बहुत दिन
से दिखाई नहीं
पड़े।
वह
स्ट्रोक दे
रहा है। वह
तीस स्ट्रोक
पूरे करे, तो तृप्ति
मिलेगी। अगर
नहीं पूरे किए,
और सिर्फ हलो कहकर
निकल गया, तो
आपको लगेगा, कुछ कमी है।
तीस दिन बाद
दिखाई पड़ा हूं,
तो तीस
स्ट्रोक उधार
हो गए। तीस
स्पर्श! वह पूरे
करने चाहिए।
तो वह करेगा
पूरा। वह खड़े
होकर कहेगा, कैसा है; मौसम
कैसा है? कहां
गए थे? अच्छे
रहे? कुछ
मतलब की बातें
नहीं हैं, लेकिन
स्पर्श।
स्पर्श मिल
जाएंगे; आप
तृप्त होकर
अपने रास्ते
पर बढ़ जाएंगे।
उसको भी
स्पर्श मिल
जाएंगे, वह
भी अपने
रास्ते पर बढ़
जाएगा। दोनों
खुश हैं! छू
लिया एक-दूसरे
को।
इंद्रियां
पूरे समय
स्पर्श को
लालायित और स्पर्श
देने को और
लेने को आतुर
हैं। ले रही
हैं।
तो जिस
व्यक्ति को
इंद्रियों को
विषयों तक जाने
से रोकना है, उसे
इंद्रियों की
इस सूक्ष्म
स्पर्श-व्यवस्था
के प्रति
जागरूक होना
पड़ेगा।
अत्यंत सूक्ष्म
व्यवस्था है।
आपको पता चलने
के पहले घटित
हो जाता है।
इतना शीघ्रता
से घटित होता
है इंद्रिय का
स्पर्श, कि
आपको पता ही
तब चलता है, जब घटित हो
जाता है। इसके
प्रति जागना
पड़े। इसे
देखना पड़े।
इसको स्मरण
रखना पड़े।
गुरजिएफ
कहेगा, रिमेंबरिंग।
मैंने कहा कि
वह इस युग के योगीजन
में से एक
कीमती
व्यक्ति! वह
कहेगा, रिमेंबर रखो; पूरे
वक्त स्मरण
रखो कि क्या
हो रहा है।
तुम्हारी
आंख सिर्फ देख
रही है या
स्पर्श भी कर
रही है, इन
दोनों में
फर्क है। एक
साधारण-सी
स्त्री चली आ
रही है, तो
आंख सिर्फ
देखती है, स्पर्श
नहीं करती।
सुंदर स्त्री
चली आ रही है, आंख देखती
ही नहीं, स्पर्श
भी करती है।
साधारण-सा
पुरुष चला आ
रहा है, तो
आंख सिर्फ
देखती है, जस्ट सीइंग।
सुंदर पुरुष
चला आ रहा है, तब देखती ही
नहीं, स्पर्श
भी करती है।
फर्क
कैसे पता
चलेगा? अगर
सिर्फ देखा हो,
तो पीछे कोई
लकीर नहीं छूटेगी।
और अगर स्पर्श
भी किया हो, तो पीछे
लकीर छूटेगी।
अगर सिर्फ
देखा हो, तो
लौटकर नहीं
देखना पड़ेगा;
अगर स्पर्श
भी किया हो, तो लौटकर भी
देखना पड़ेगा।
अगर सिर्फ
देखा हो, तो
स्मृति नहीं
बनेगी; अगर
स्पर्श भी
किया हो, तो
स्मृति
बनेगी। अगर
सिर्फ देखा हो,
तो कल भी
देखूं, ऐसी
आकांक्षा
नहीं जगेगी; अगर स्पर्श
किया हो, तो
फिर-फिर देखूं,
ऐसी
आकांक्षा
जगेगी।
आंख से
सिर्फ देखने
का काम लें, स्पर्श करने
का नहीं, तो
कृष्ण जो कह
रहे हैं, पहली
घटना घट सकती
है। हाथ से
सिर्फ छूने का
काम लें, स्पर्श
करने का नहीं।
अब आप कहेंगे,
छूना और
स्पर्श करना
तो बिलकुल एक
ही बात है।
वही फर्क जो
मैंने आंख के
लिए कहा, सिर्फ
देखने का काम
आंख से, स्पर्श
करने का नहीं।
कान से काम
सुनने का, स्पर्श
करने का नहीं।
कोई आवाज कान
सुनता है, ठीक।
लेकिन मीठी लग
गई, तो छू
ली गई। फिर
आकांक्षा
जगेगी, डिजायर पैदा
होगी--और, और,
और सुनूं।
और सुनाई पड़े,
तो स्पर्श
हो गया।
इंद्रिय ने रस
लेना शुरू कर
दिया।
इंद्रिय
सिर्फ उपकरण न
रही, मालिक
हो गई।
इंद्रिय ने
सिर्फ देखा
नहीं, इंद्रिय
ने पकड़ भी
लिया।
जो
योगी इंद्रिय
को विषय से तोड़ता
है, वह विषय
और इंद्रिय के
बीच स्पर्श को,
संस्पर्श
को तोड़ता
है। देखना तो
नहीं तोड़ा जा
सकता। देखने
से तोड़ने से
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। अगर
आपने आंखें फोड़ लीं, तो आप बहुत
हैरान होंगे।
अगर आपने
आंखें फोड़
लीं, तो जो
काम आंख से आप
करते थे, वह
ट्रांसफर
हो जाएगा कान
के पास। इसलिए
अंधों के कान
तेज हो
जाएंगे। आंख
से स्पर्श
करने का जो काम
था, वह काम
भी कान को मिल
जाएगा।
इसलिए
अंधों के कान
तेज हो
जाएंगे। अंधे
कान से दोहरा
काम लेने
लगेंगे।
सुनने का
स्पर्श भी उसी
से करेंगे; देखने का
स्पर्श भी उसी
से करेंगे।
इसलिए अंधे
आपके पैर की
आवाज भी
पहचानने
लगेंगे, कौन
आदमी आता है!
आंख वाला कभी
नहीं पहचान
सकता। आंख
वाले को कभी
पता ही नहीं
चलता कि पैर
में आवाज भी
होती है।
लेकिन अंधे को
बिलकुल पता
होता है। कमरे
में कौन आ रहा
है, अंधा
आदमी उसके पैर
के पदचाप से
जानता है--कौन आ
रहा है। उसको
आंख का काम भी
कान से ही
लेना पड़ता है।
कान को दोहरे
स्पर्श करने
पड़ते हैं।
आंख फोड़ लेने
से कुछ न
होगा। आंख से
स्पर्श विदा
होना चाहिए।
लेकिन कब होगा? जब आप
जागेंगे, तो
स्पर्श विदा
हो जाएगा।
क्या करेंगे?
जब भी
देखें, तब
होश से यह भी
देखें कि
स्पर्श हो रहा
है कि नहीं!
सिर्फ देख रहे
हैं? धीरे,
धीरे, धीरे,
फासला साफ
दिखाई पड़ने
लगेगा। जैसे
अक्सर होता है,
रात आप
बिजली बुझाते
हैं, तो
कमरे में
अंधेरा मालूम
पड़ता है। फिर
थोड़ी देर
देखते रहें, देखते रहें,
देखते रहें,
तो अंधेरा
फीका होने
लगता है। थोड़ी
रोशनी मालूम
पड़ने लगती है।
ठीक ऐसे ही; देखें, देखते-देखते
फासला दिखाई
पड़ने लगता है।
और साफ दिखाई
पड़ने लगता है
कि मैंने
स्पर्श किया,
कि देखा। और
जब आप पाएंगे
कि दिखाई पड़ने
लगा स्पर्श
किया, तभी
आपको अनुभव हो
जाएगा कि
इंद्रियां
जहां-जहां
स्पर्श करती
हैं, वहीं-वहीं
बंधन को
निर्मित करती
हैं। जहां-जहां
स्पर्श नहीं
करतीं, वहां-वहां
बंधन निर्मित
नहीं होता।
संयमी
का अर्थ है, जो
इंद्रियों से
उपकरण का काम
लेता, भोग
का नहीं।
संयमी का अर्थ
है, जो
इंद्रियों से
भोगता नहीं, केवल उपयोग
लेता है।
असंयमी का
अर्थ है, जो
इंद्रियों से
उपयोग कम लेता,
भोग ज्यादा
लेता। आंख से
देखना उपयोग
है। आंख से
भोगना, स्पर्श
करना, उपयोग
नहीं है; भोग
है। भोग बंधन
है, उपयोग
बंधन नहीं है।
इस
स्पर्श की
सूक्ष्म
व्यवस्था को स्मरणपूर्वक
देखने से
व्यवस्था
क्रमशः टूटती
चली जाती है।
लेकिन
आपने शायद ही
सोचा होगा कि
संयम का यह अर्थ
है! संयम का तो
यह अर्थ है, स्त्री
दिखाई पड़े, तो आंख बंद
कर लो। संयम
का तो यह अर्थ
है कि जहां
स्त्रियां
हों, वहां
रहो ही मत।
संयम का तो यह
अर्थ है, देखो
मत, सुनो
मत, छुओ
मत। ऐसा हमने
संयम का अर्थ
लिया हुआ है।
यह संयम का
अर्थ नहीं है।
इससे संयम
फलित नहीं होता,
सिर्फ दमन,
सप्रेशन
फलित होता है।
और दमन संयम
नहीं है। दमन
भीतर उबलता
हुआ असंयम है।
बाहर नहीं जा
पाता, भीतर
उबलता है।
और
ध्यान रहे, केटली से भाप बाहर
चली जाए, यही
उचित है, बजाय
भीतर रहे।
क्योंकि तब केटली
फूटेगी और
एक्सप्लोजन
होगा। दो-चार
की जान भी
लेगी। इसलिए
साधारण
असंयमी आदमी
इतना खतरनाक
नहीं होता, जितना दमित
असंयमी आदमी
खतरनाक होता
है। क्योंकि
उसके भीतर बहुत
जहर इकट्ठा हो
जाता है। जब
भी फूटता है, तो ज्यादा
दूर तक नुकसान
पहुंचाता है।
और जब भी
फूटता है, तो
फिर पूरी तरह
फूटता है।
सप्रेशन
संयम नहीं है; दमन संयम
नहीं है।
संयम
जागरण है--होश, रिमेंबरिंग,
स्मृति।
इसको प्रयोग
करके देखें।
प्रियजन
है आपका कोई।
हाथ हाथ
में ले लेते
हैं उसका
प्रेम से। तब
हाथ हाथ
में रखें, आंख बंद कर
लें, स्मरण
करें, स्पर्श
हो रहा है कि
सिर्फ छू रहे
हैं। बारीक है
फासला, पर
खयाल में आ
जाएगा; दिखाई
पड़ जाएगा। कभी
लगेगा, स्पर्श
कर रहे हैं।
कभी लगेगा, छू रहे हैं।
कभी लगेगा, दोनों काम
एक साथ चल रहे
हैं। और ध्यान
रहे, अगर
सिर्फ छू रहे
हैं, तो
थोड़ी ही देर
में पसीने के
सिवाय अनुभव
में और कुछ भी
नहीं आएगा।
अगर स्पर्श कर
रहे हैं, तो
कविता अनुभव
में आएगी; पसीने
का पता ही
नहीं चलेगा।
अगर
प्रियजन का
हाथ हाथ
में लेकर बैठे
हैं और अगर
सिर्फ छू रहे
हैं, तो थोड़ी
ही देर में ऊब
जाएंगे। और मन
होगा कि कब
हाथ से हाथ
छूटे अब।
लेकिन अगर
स्पर्श भी कर रहे
हैं, तो
ऐसा होगा कि
कोई हाथ न छुड़ा
दे। अब यह हाथ हाथ में ही
रहा आए। अब यह
हाथ हाथ
से जुड़ ही
जाए। कविता
पैदा होगी, स्वप्न पैदा
होगा, रोमांटिक,
रोमांच का
जगत शुरू
होगा।
इसे
देखते रहें और
प्रयोग करते
रहें, तो
पहली घटना घट
सकती है संयम
की, अर्थात
विषयों तक
इंद्रियों का
रस तिरोहित हो
जाता है। विषय
तक इंद्रियां
जाती हैं
उपयोग के लिए,
भोग के लिए
नहीं। सेतु
टूट गया। तब
जो व्यक्ति है,
वह संयमी
है। ऐसा संयमी
व्यक्ति, कृष्ण
कहते हैं, उपलब्ध
हो जाता है।
दूसरा, कृष्ण कह
रहे हैं, भोग
करते हुए भी, भोग में
होते हुए भी
इंद्रियों को
विषयों से बिना
तोड़े हुए, छूना
ही नहीं, स्पर्श
करते हुए भी, ज्ञानीजन बाहर हो
जाते हैं।
उसकी
प्रक्रिया और
भी सूक्ष्म
होगी, क्योंकि
वह एक प्रतिशत
के लिए है। यह
अभी जो मैंने
कहा, निन्यानबे
प्रतिशत के
लिए है। यह भी
कठिन है। वह
और भी कठिनतर
है। स्पर्श
करते हुए, इंद्रियों
का उपयोग ही
नहीं, भोग
करते हुए। फिर
क्या करें? फिर कैसे
सेतु टूटेगा?
भोग करते
हुए भी, पूरा
भोग करते हुए भी,
जो भोग के
क्षण में जाग
सकता है; भोग
के क्षण में...!
भोजन
कर रहे हैं।
स्वाद की
तरंगें बह रही
हैं। स्वाद
में उतरा रहे, डूब रहे।
ठीक उस क्षण
में स्वाद के
प्रति जो जाग
जाए, देखे
कि डूब रहा, उतरा रहा; भागता नहीं,
तोड़ता नहीं; डूब
रहा, उतरा
रहा, स्वाद
ले रहा, पूरी
तरह ले रहा।
पूरी तरह लूं
और होश से भर
जाऊं, तो
अचानक दिखाई
पड़ेगा, मैं
भोक्ता नहीं
हूं; भोग
है; मैं
द्रष्टा हूं।
भोग है; मैं
द्रष्टा हूं,
भोक्ता
नहीं हूं।
द्रष्टा
का भोक्ता-भाव
गिर जाता है।
तो वह भोगता
रहे! संगीत को
सुनेगा; कान
गदगद होंगे, आनंदातिरेक में
नाचने
लगेंगे। कान
के भीतर
तरंगें उठकर सुख
देने लगेंगी।
कान पूरी तरह
रसमग्न हो
जाएगा।
स्पर्श करेगा
ध्वनि को, संगीत
को। लेकिन
भीतर जो चेतना
है, वह जागकर
देखेगी: ऐसा
हो रहा है; दिस
इज़ हैपनिंग।
और ऐसे स्मरण
से कि ऐसा हो
रहा है, तत्काल
कोई गहरा सेतु
टूट जाता है; जहां से
भीतर की चेतना
भोक्ता नहीं
रह जाती, सिर्फ
द्रष्टा रह
जाती है।
इस
मार्ग से भी ज्ञानीजन
उस परात्पर
सत्य को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
कृष्ण ने फिर
ये दो बातें
कहीं। ये
अलग-अलग जरा
भी नहीं हैं।
व्यक्ति की
बात है, उसे
क्या निकटतम
सुलभ मालूम पड़
सकता है।
दूसरा
कठिन सिर्फ
इसलिए है कि
डर यही है कि
हम अपने को
धोखा दे लें।
वही उसकी
कठिनाई है।
डिसेप्शन का
डर है। आत्मवंचना
का डर है।
दूसरे की असली
कठिनाई आत्मवंचना
है। एक आदमी
कह सकता है कि
ठीक है। हम तो
वेश्या के घर
नृत्य देखते
हैं, साक्षी
रहते हैं। रस
लेते हैं पूरा,
लेकिन ज्ञानीजन
की तरह लेते
हैं! परीक्षा
बहुत कठिन है।
लेकिन
परीक्षाएं भी
निकाली गई
हैं। तंत्र ने
बहुत-सी
परीक्षाएं
निकालीं। एक
अदभुत परीक्षा
तंत्र ने
निकाली है, वह मैं आपसे
कहूं।
क्योंकि
विश्व में
वैसा प्रयोग
और कहीं हुआ
नहीं।
वह
परीक्षा यह थी
कि जो व्यक्ति
कहता है कि
मैं भोगते हुए
भी तटस्थ होता
हूं, द्रष्टा
होता हूं; तंत्र
ने कहा कि तुम
शराब पीओ और
शराब पीते हुए
तुम होश में
रहो; और हम
शराब पिलाए
चले जाएंगे, तुम होश में
रहना। अगर
घटना घट गई है
साक्षी की, द्रष्टा
की--भोगते
हुए--तो शराब
में भी होश
कायम रहना
चाहिए।
क्योंकि नशा
करेंगी
इंद्रियां; तुम जागे
रहना; तुम
मत सो जाना।
तो
तंत्र ने एक
अदभुत
प्रक्रिया
निकाली नशे की--शराब, गांजा, अफीम।
और आखिर तक
बात वहां
पहुंची कि जब
अफीम, गांजा,
इस सबका भी
कोई असर नहीं
हुआ साधक पर
और वह जागा ही
रहा, उतने
ही होश में, जितने होश
में वह बिना
नशे का था, तब
सांप से भी
जीभ पर कटाने
के प्रयोग किए
गए और उसमें
भी जागा रहा।
सांप जीभ पर
काट लिया है, जहर हो गया।
आदमी मर जाए!
और वह भीतर की
चेतना की
ज्योति जागी
हुई है।
यह
आमतौर से हमको
कठिन मालूम
पड़ता है कि
साधु-संन्यासी
गांजा पीएं, शराब पीएं।
वह कभी
परीक्षा थी।
कभी वह
परीक्षा थी, अब वह रोज का
उपक्रम है।
रोज सांझ को
गांजा पी रहे
हैं! कभी वह एक
बहुत गहरी
परीक्षा थी।
लेकिन दूसरे
वर्ग की ही
परीक्षा है, पहले वर्ग
की परीक्षा वह
नहीं है।
योगी
उस परीक्षा
में नहीं खरा
उतरेगा; वह
परीक्षा ही उसकी
नहीं है। उसने
तो स्पर्श को
ही तोड़ दिया
है। उसने
इंद्रिय और
विषय के बीच
संबंध ही तोड़
दिया है।
दूसरे की
परीक्षा है; जो कहता है, संबंध मैंने
कायम रखा है, लेकिन मैं
संबंध के रहते
हुए असंबंधित
और असंग हो
गया हूं। वह
उसकी परीक्षा
है। और अगर
बेहोशी
रासायनिक सारे
शरीर में
पहुंच गई, फिर
भी चेतना होश
में जागी हुई
है; उस
बिंदु पर कोई
अंतर नहीं पड़ा
है...।
यह
परीक्षा
क्यों निकाली
गई? क्योंकि आत्मप्रवंचना
का डर है, धोखे
का डर है। एक
आदमी कह सकता
है कि हम तो
अच्छे कपड़े
पहनते हैं, लेकिन कोई
रस नहीं है।
हम तो
साक्षी-भाव से
पहनते हैं।
दूसरे को कोई
नुकसान नहीं
है; नुकसान
उसी को है।
इसलिए अक्सर
पहली साधना में
आत्मवंचना
की संभावना न
होने से सुगम
है। दूसरी
साधना में आत्मवंचना
की संभावना
होने से
दुर्गम है।
लेकिन दोनों बातें
कृष्ण ने कहीं,
कि ऐसा भी
और ऐसा भी हो
सकता है।
महावीर
और बुद्ध पहली
साधना के
व्यक्ति हैं, संयम के।
कृष्ण खुद
दूसरी साधना
के व्यक्ति हैं।
इसीलिए तो
कृष्ण और
महावीर के
व्यक्तित्व
बिलकुल उलटे
मालूम पड़ सकते
हैं। तो
जैनियों ने
कृष्ण को तो
नर्क में डाल
दिया है।
स्वाभाविक है,
लाजिकल है।
जैन-चिंतन से
कृष्ण को नर्क
में डालना
बिलकुल उचित
है। क्योंकि
वह जो पहली निष्ठा
है, वह सोच
ही नहीं पा
सकती कि यह
स्त्रियों के
साथ नाचता हुआ
आदमी, यह सैकड़ों
स्त्रियों के
प्रेम में
मग्न आदमी, यह युद्ध
में खड़ा हुआ
आदमी, यह
हिंसा के लिए
अर्जुन को
प्रेरणा देता
हुआ आदमी
मुक्त कैसे हो
सकता है? वह
निष्ठा सोच ही
नहीं सकती।
इसलिए नर्क
में डाल दिया।
लेकिन
कृष्ण आदमी तो
कीमती थे।
तर्क ने तो कह दिया
कि नर्क में
डाल दो, लेकिन
हृदय भी तो
है। तो जैनों
ने कृष्ण को
नर्क में भी
डाला, लेकिन
फिर हृदय ने
बगावत भी की।
क्योंकि आखिर कृष्ण
को देखा भी है,
जाना भी है,
पहचाना भी
है। नाचा हो
स्त्रियों के
साथ, लेकिन
इस आदमी की
आंख में कोई
नाच नहीं था। लड़ा हो
युद्ध में, लेकिन इस
आदमी के हृदय
में कोई क्रोध
नहीं था।
तो
तर्क ने तो
कहा कि हमारी
निष्ठा के
बिलकुल प्रतिकूल
है, असंयमी
है, इसलिए
नर्क में तो
जाना ही
चाहिए। लेकिन
हृदय ने कहा, आंखें भी तो
देखी हैं; आदमी
भी तो देखा
है। इसलिए
जैनियों ने
आने वाले कल्प
में पहला
तीर्थंकर
कृष्ण को
बनाया। नर्क
में डाला अभी,
लेकिन आने
वाले कल्प में
पहले
तीर्थंकर
कृष्ण ही
होंगे। कंपनसेशन
है।
बुद्धि
ने कहा कि डालो
नर्क में, क्योंकि
असंयमी मालूम
पड़ता है। हृदय
ने कहा, लेकिन
आंख भी तो
देखो! इस आदमी
की चाल और ढंग
भी तो देखो।
रहा है
स्त्रियों के
बीच, लेकिन
गंध जरा भी
नहीं आती
स्त्रियों
की। नाचता रहा,
लेकिन थिर
है, वैसा
ही जैसा बुद्ध
अपने
सिद्धासन पर
थिर होते हैं।
युद्ध में खड़ा
रहा, लेकिन
हिंसा इस आदमी
के मन में
कहीं भी दिखाई
नहीं पड़ती।
इसकी आंखों
में वे रेशे
नहीं हैं, जो
क्रोध के और
हिंसा के रेशे
होते हैं।
मोर-मुकुट
बांधकर खड़ा
रहा, लेकिन
कोई गौर से
देखे, तो
कृष्ण के
मोर-मुकुट के
पीछे महावीर
की नग्नता, दिगंबरत्व साफ-साफ है।
मगर मोर-मुकुट
भी तो दिखाई
पड़ते हैं।
मोर-मुकुट की
वजह से नर्क
में डाला; लेकिन
पीछे जो
नग्नता दिखाई
पड़ती है कि
मोर-मुकुट के
पीछे भी यह
आदमी ऐसा ही
है, जैसे
दिगंबर हो, नग्न खड़ा हो;
उसकी वजह से
पहला
तीर्थंकर भी
बनाया!
यह
दूसरी निष्ठा
के व्यक्ति
हैं कृष्ण। और
ध्यान रहे, यह बड़े मजे
की बात है, दूसरी
निष्ठा का
व्यक्ति पहली
निष्ठा के व्यक्ति
को बिलकुल
विपरीत मालूम
पड़ेगा, स्वाभाविक।
पहली निष्ठा
के व्यक्ति को
दूसरी निष्ठा
का व्यक्ति
विपरीत मालूम
पड़ेगा, वैसे
ही दूसरी
निष्ठा के
व्यक्ति को
पहली निष्ठा
का व्यक्ति
विपरीत मालूम
पड़ेगा।
लेकिन
कृष्ण दोनों निष्ठाओं
को समान भाव
से गीता में
कहे चले जाते
हैं। दोनों निष्ठाओं
का अनुभव, दोनों निष्ठाओं
की यात्रा, दोनों निष्ठाओं
को आकाश से
देखने की
क्षमता; दोनों
निष्ठाएं
एक जगह पहुंचा
देती हैं, इसकी
प्रतीति उनकी प्रगाढ़
है। पूरी गीता
में जगह-जगह
समन्वय का यह
स्वर, यह
सिंथेटिक भाव
मिलेगा। वही
खूबी भी है।
अब शेष
सांझ लेंगे।
अभी पांच-दस
मिनट संन्यासी
कीर्तन में
डूबते हैं, आप भी
सम्मिलित हों,
अन्यथा
देखें।
आज इतना
ही।
यज्ञ की विभावना,प्रकल्पना,प्रारूप,.. और इससे सर्जित सबसे महत्वपूर्ण उनका प्रतीक जो उद्भवता हैं उसका रहसयोद्धातन ओशो ने जो किया हैं इतना एकीभूत कर देने वाला हैं कि सच में ओशो को साष्टांग प्रणाम हों जाता हैं !! हैं ओशो ! धन्यता के भाव से लबालब करके तूने मुझे आज अमीरी प्रदान की हैं !! हैं मारे प्यारे ओशो ! आपको शत-शत कोटि प्रणाम |
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