दिनांक
4 दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
अष्टावक्र
के साक्षी, लाओत्सु
के ताओ और
आपकी तथाता
में समता क्या
है और भेद
क्या है?
समता
बहुत है, भेद
बहुत थोड़ा।
लाओत्सु
ने जिसे ताओ
कहा है वह ठीक
वही है जिसे
वेदों में ऋत
कहा है—ऋतंभरा, या
जिसे बुद्ध ने
धम्म, धर्म
कहा; जो
जीवन को चलाने
वाला परम
सिद्धात है, जो सब
सिद्धातो का
सिद्धात है, जो इस विराट
विश्व के
अंतरतम में
छिपा हुआ सूत्र
है। जैसे माला
के मनके हैं
और उनमें धागा
पिरोया हुआ है;
एक ही धागा
सारे मनकों को
संभाले हुए
है। हजार—हजार
नियम हैं जगत
में, इन सब
नियमों को
संभालने वाला
एक परम नियम
भी होना चाहिए;
अन्यथा सब
बिखर जायेगा,
माला टूट
जायेगी। मनके
दिखाई पड़ते
हैं; भीतर
छिपा धागा
दिखाई नहीं
पड़ता। दिखाई
पड़ना भी नहीं
चाहिए; नहीं
तो माला ठीक
से बनायी नहीं
गयी।
जो
दिखाई पड़ता है, उसकी
खोज विज्ञान
करता है। तो
ग्रेविटेशन
का सिद्धात, जमीन की
कशिश, गुरुत्वाकर्षण,
प्रकाश का
नियम, मैगनेटिक,
चुंबकीय
क्षेत्रों का
नियम, और
हजार—हजार
नियम विज्ञान
खोजता है।
लेकिन इन सारे
नियमों के
मनकों के भीतर
कोई एक महानियम
भी होना
चाहिए। नहीं
तो इन सभी
नियमों को कौन
संभाले रखेगा
2: उस महानियम
को लाओत्सु
कहता है ताओ; वेद कहते
हैं ऋत्, ऋतंभरा;
बुद्ध कहते
हैं धर्म।
भक्त भगवान
कहता, परमात्मा
कहता, ब्रह्म
कहता है। यह
तो नाम की बात
है।
तो
लाओत्सु का
ताओ है परम
नियम। और
अष्टावक्र का
साक्षी है उस
परम नियम को
जानने की
विधि। जब तुम जागोगे, ऐसे
जागोगे कि
तुम्हारे
भीतर जाग ही
जाग की आग रह
जाएगी; तुम्हारे
भीतर एक विचार
भी न रह जाएगा,
जो उस आग को
ढांक ले, छिपा
ले, राख
जरा भी न रह
जाएगी, तुम
धधकते अंगारे
हो जाओगे; क्योंकि
राख तो ढांक
लेती है, जब
तुम्हारे
भीतर कोई
ढांकने वाली
चीज न रहेगी, तुम बिलकुल
अनढंके हो
जाओगे, खुले,
जागे, होशपूर्वक,
तो तुम जान
पाओगे उस परम
नियम को, ताओ
को, ऋत्
को।
लाओत्सु
का ताओ है परम
नियम जीवन का; साक्षी
है उसे जानने
की प्रक्रिया,
साधन, विधि,
मार्ग। और
जिसे मैं
तथाता कहता
हूं वह है
जिसने पा लिया
उसे, जो
ताओ के साथ एक
हो गया, जो
उस परम नियम
के साथ
निमज्जित हो
गया। जिसमें
और उस परम
नियम में अब
कोई भेद न रहा;
जिसने जाना
कि वह जो परम
नियम है, उसका
ही मैं अंग
हूं र उससे
भिन्न नहीं।
तो
तथाता है
मंजिल।
ऐसा
समझो।
लाओत्सु का
ताओ है
सिद्धात, साक्षी
है साधन, तथाता
है सिद्धि। तीनों
जुड़े हैं।
तीनों साथ—साथ
हैं। इसे कहो
त्रिवेणी।
इसे कहो संगम।
इसे कहो
ईसाइयों का
ट्रिनिटी का
सिद्धात, कि
तीन हैं। या
कहो हिंदुओं
की
त्रिमूर्ति, कि प्रभु के
तीन रूप हैं।
यह महानतम
त्रिकोण है जो
अस्तित्व के
भीतर छिपा है।
तथाता उपलब्धि
है, पहुंच
गये। साक्षी
मार्ग पर है।
और जहां
पहुंचना है, वह है ताओ।
तो तीनों में
भेद तो थोड़ा—
थोड़ा है; अभेद
बहुत है।
क्योंकि
तीनों एक ही
चीज से जुड़े
हैं। और तीनों
को समझो, यह
अच्छा है; किसी
एक में मत उलझ
जाना।
क्योंकि जो
ताओ की तरफ आंख
न रखेगा, वह
कभी तथाता को
उपलब्ध न हो
सकेगा। खोज तो
ताओ की करनी
है; जो
मिलेगा वह
तथाता है।
क्योंकि जब
मिलते हो तुम,
उस परम
स्थिति में जब
नदी गिरती है
सागर में, तो
ऐसा थोड़े ही
रह जाता है कि
सागर अलग और
नदी अलग। जब
सागर से मिलन
होता है नदी
का तो नदी सागर
हो जाती है।
खोजती थी सागर
को; खो
देती है स्वयं
को। जिस दिन
खोज पूरी होती
है उस दिन नदी
खो जाती है और
सागर ही बचता
है।
ताओ
की खोज है।
सत्य की खोज
कहो,
सत्य की खोज
है। ऋत् की
खोज है। धर्म
की खोज है।
लेकिन जिस दिन
तुम जान लोगे
उस दिन तुम
धर्ममय हो
जाओगे। उस दिन
तुम सत्यमय हो
जाओगे। कैसे
तुम जानोगे
गुर
जानने
की प्रक्रिया
साक्षी है।
जागोगे तो
जानोगे। सोये
रहे तो न जान
पाओगे। इसलिए
तीनों जुड़े
हैं,
और तीनों
में थोडा—
थोड़ा भेद है।
भिन्नता कहनी
चाहिए भेद
नहीं।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
कब तक भटकता
रहूंगा? दिल
की लगी पूरी
होगी या नहीं?
जब तक
मैं है, तब तक
भटकना पड़े। जब
तक हो, तब
तक भटकन है।
तुम्हीं हो
भटकन। कोई और
नहीं भटका रहा
है। मिटो तो
मिलन हो जाये।
बने रहे, अटके
रहोगे। गांठ
यही तो खोलनी
है। और ग्रंथि
क्या है? निर्ग्रंथ
होना है। यही
तो ग्रंथि है,
यही तो गांठ
है कि मैं हूं।
इस गांठ को
जाने दो। इस
गांठ के विसर्जन
पर तुम अचानक
पाओगे. जिसे
तुम खोजते थे
वह तुम्हारे
भीतर सदा से
विराजमान था।
खोज
के कारण ही
खोये बैठे थे।
खोज के लिए
दौड़ते थे, तो
जो भीतर था, दिखाई न
पड़ता था। दौड़
के कारण आंखें
अंधी थीं, धुएं
से भरी थीं।
दौड़ के कारण
दूर तो देखते
थे, पास का
दिखाई न पड़ता
था। दौड़ के
कारण बाहर तो
दिखाई पड़ता था,
लेकिन भीतर
न दिखाई पड़ता
था। भीतर के
लिए तो जरा आंख
बंद करके
बैठना पड़े।
अष्टावक्र
ने कहा है : आंख
खुली रहे तो
भीतर आंख बंद
रहती है। आंख
बंद हो जाये
तो भीतर आंख
खुल जाती है।
ये बाहर की
पलकें परदा बन
जायें, तुम्हारी
आंख बाहर से
थोड़ी देर के
लिए बंद हो
जाये, तो
भीतर जिसे तुम
तलाशते हो, जिसकी प्यास
है, वह
मौजूद है।
सरोवर दूर
नहीं है।
कबीर
ने कहा है.
मुझे बड़ी हंसी
आती है, मछली
सागर में
प्यासी!
जिन्होंने भी
जाना है वे
हंसे हैं। तुम
पर ही नहीं, अपने पर भी
हंसे हैं; अपने
अतीत पर हंसे
हैं। क्योंकि
अतीत में यही
भूल उनसे भी
हुई। कबीर की
मछली भी पहले
प्यासी रही
है। आज हंसी
आती है। जान
कर हंसी आती
है कि मैं
कैसा पागल था,
सागर में था
और प्यासा था!
सागर मै था और
सागर को खोजता
था!
लेकिन
इसके पीछे कुछ
कारण भी है।
मछली सागर में
ही पैदा होती
है,
सागर में
बड़ी होती है; सागर से दूर
जाने का कभी
मौका नहीं
मिलता, तो
पता ही नहीं
चलता कि सागर
क्या है। फिर
मछली तो
कभी—कभी सागर
से दूर भी चली
जाती है। मछुए
हैं, किनारे
पर बैठे जाल
फेंकते हैं, मछली को कभी
खींच भी लेते
हैं। कभी मछली
भी छलांग मार
कर रेत पर गिर
जाती है, तट
पर गिर जाती
है, तड़पती
है और अनुभव
कर लेती है कि
सागर कहां है,
तृप्ति
कहां है।
वापिस सरक आती
है, लौट कर
गिर जाती है
सागर में।
लेकिन
परमात्मा के
बाहर तो कोई
किनारा नहीं
है। और
परमात्मा के
किनारे पर
बैठे कोई मछुए
नहीं हैं।
परमात्मा के
बाहर कुछ भी
नहीं है।
इसलिए
तुम्हारी
मछली परमात्मा
के बाहर तो
गिर नहीं
सकती। गिर
जाये तो पता चल
जाये। गिर
जाये तो पता
चल. जाये कि
कैसी हंसी की
स्थिति है!
कैसी
हास्यजनक है
कि जिससे हम घिरे
थे, उसको
खोजते थे।
लेकिन बाहर
तुम जा नहीं
सकते। तो भीतर
रह कर ही
जानना पड़ेगा।
इसलिए
तो इतनी देर
लग जाती है, जन्म—जन्म
की देर लग
जाती है।
क्योंकि दूर
को समझना आसान
है, बुद्ध
भी समझ लेता
है; पास को
समझना कठिन है,
बहुत
बुद्धिमान
चाहिए। तुमने
सुना न, दूर
के ढोल
सुहावने होते
हैं! जो पास है
उसका पता ही
नहीं चलता, उसका बोध ही
मिट जाता है।
उसका खयाल ही
मिट जाता है।
जो मिला ही है
उसकी याद भी
हम क्यों
रखें! और जिसे
हमने कभी खोया
ही नहीं है
उसकी याद भी
कैसे आये? वह
तो हमारा
स्वभाव है।
इसलिए इतनी
देर लग जाती
है। अगर
परमात्मा
कहीं दूर होता,
गौरीशंकर
पर बैठा होता,
शिखर पर, तो हमने खोज
लिया होता।
हमारे हिलेरी
और तेनसिंग
वहां पहुंच
गये होते।
चांद पर होता,
हम पहुंच
जाते। नहीं, न चांद पर है,
न गौरीशंकर
पर है, न
मंगल पर
मिलेगा, न
और तारों पर
मिलेगा। दूर
होता तो हम
पहुंच ही
जाते। दूर पर
हमारी बड़ी पकड़
है। हम कितने
उपाय करते
हैं!
आदमी
अपने भीतर
जाने के इतने
उपाय नहीं
करता जितने
चांद पर जाने
के उपाय करता
है। और ऐसा
नहीं है कि
बाद में करता
है;
बच्चा पैदा
नहीं हुआ कि
चांद की तरफ
हाथ बढ़ाने
लगता है। चाँद
पकड़ना है!
बच्चे रोते
हैं कि मां, चांद को
पकड़ा दे। शुरू
से ही हम दूर
की यात्रा पर
निकल जाते
हैं। क्योंकि आंख
हमारी जैसे ही
खुली, जो
दूर है वह
दिखाई पड़ जाता
है। और आंख
बंद करने का
तो हमें स्मरण
ही नहीं है।
जब आंख बंद
करते हैं तो
हम नींद में
सो जाते हैं। आंख
खुली तो दौड़—
धूप, आपाधापी;
आंख बंद तो
सो गये।
इन्हीं दो के
बीच जीवन चल
रहा है।
आंख
कभी बंद करके
जागे रहो तो
ध्यान हो
जाये। आंख तो
बंद हो और
जागरण न खोये, तो
ध्यान हो
जाये। ध्यान
का और अर्थ
क्या है! इतना
ही अर्थ है कि
थोडा—सा जागरण
से ले लो और थोड़ा—सा
नींद से ले
लो—दोनो से
मिल कर ध्यान
बन जाता है।
जागरण से
जागरण ले लो
और नींद से शांति
ले लो, सन्नाटा
ले लो, शून्यता
ले लो; दोनों
को मिला लो, पक गयी रोटी
तुम्हारी। अब
तुम तृप्त हो
सकोगे।
पूछते
हो,
'मैं कब तक
भटकता रहूंगा?'
जब
तक तुम्हारी
मर्जी! भटकना
चाहते हो तो
कोई उपाय नहीं
है। भटकने में
मजा ले रहे हो, तब
तो फिर कोई
बात ही क्या
उठानी? भटकने
में मजा भी है
थोड़ा। मजा है
इस बात का।
तुमने
खयाल किया?
जैसे ही बच्चा
थोड़ा बड़ा होता
है, वह मां
—बाप की बात को
इंकार करने
लगता है। वह कहता
है नहीं, नहीं
करेंगे।
मां—बाप कहते
हैं, सिगरेट
मत पीयो; वह
कहता है, पी
कर रहेंगे, दिखा कर
रहेंगे।
मां—बाप कहते
हैं, सिनेमा
मत जाओ, वह
जरूर जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
एक बगीचा है।
उसमें सेव और
नासपातिया और
अमरूद इतने
लगते हैं कि
वह बेच भी
नहीं पाता।
क्योंकि गांव
में उतने
खरीददार भी
नहीं हैं। सड़
जाते हैं
वृक्षों पर, या
खुद
मोहल्ले—पड़ोस
में मुफ्त
बांट देता है।
एक दिन मैंने
देखा कि
पांच—सात
बच्चे उसके
बगीचे में घुस
गये हैं और वह
उनके पीछे
गाली देता हुआ
और बंदूक लिये
दौड़ रहा है।
मैंने कहा कि
नसरुद्दीन, तुम वैसे ही
इतने फलों का
कुछ उपयोग
नहीं कर पाते,
न कोई
खरीददार है, न तुम्हें
जरूरत है
बेचने की, तुम
बांटते हो; इन बच्चों
ने अगर
दो—चार—दस फल
तोड़ भी लिये
तो ऐसी क्या
परेशानी? बंदूक
ले कर कहां
दौड़े जा रहे
हो? उसने
कहा, अगर
बंदूक ले कर न
दौडूगा तो ये
दुबारा फिर आएंगे
ही नहीं। यह
तो निमंत्रण
है। बंदूक ले
कर दौड़ता हूं;
तुम कल
देखना। आज
पांच—सात हैं,
कल
चौदह—र्पद्रह
होंगे। कल तो
मैं हवाई फायर
भी करूंगा।
फिर ये पूरे
स्कूल को ले
आएंगे।
छोटा
बच्चा भी, जहां
नहीं जाना
चाहिए, वहां
जाने में आतुर
हो जाता है; जो नहीं
करना चाहिए
उसे करने में
उत्सुक हो जाता
है।
भटकने
में कुछ मजा
है। समझो।
भटकने में मजा
है अहंकार का।
भटकने पर ही
पता चलता है कि
मैं हूं; नहीं
तो पता कैसे
चले? अगर
तुम हमेशा 'हा' कहो
तो तुम्हें
अपने अहंकार
का पता कैसे
चले? 'नहीं'
कहने से
अहंकार के
चारों तरफ
रेखा बनती है।
तो जैसे—जैसे
बच्चा बड़ा
होने लगता है,
वह नहीं
कहने लगता है।
वह कहता है
नहीं, ये
तो माता—पिता
मुझे लील ही
जाएंगे। ये
कहें बैठो तो
बैठ जाऊं, ये
कहें खड़े हो
तो खड़ा हो
जाऊं—तो फिर
मैं कहां हूं?
तो फिर मैं
कौन हूं? तो
फिर मेरी
परिभाषा क्या
है? उसकी
परिभाषा
बनाता है वह
इंकार करके।
सिगरेट न पीओ,
पिता कहता
है; वह
कहता है ठीक, इसीलिए पीता
है। पी कर
दिखा देता है
दुनिया को कि
मैं हूं मेरा
होना है!
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
हर बच्चे को
अपने अहंकार
की तलाश है।
इसलिए
ईसाइयों की
पहली
कहानी
है कि ईश्वर
ने कहा कि
ज्ञान के
वृक्ष के फल
मत खाना—अदम
को। और अदम ने
खाये। वह हर
बच्चे की कहानी
है। यह कहानी
बड़ी सच है। यह
हर अदम की
कहानी है। यह
आदमी मात्र की
कहानी है। तुम
अपनी तरफ गौर
से देखो, तुमने
वे ही फल चखे
जो इंकार किये
गये थे। जहां—जहां
लगी थी तख्ती,
' भीतर आना
मना है', वहां—वहां
तुम गये।
तुमने हर तरह
की जोखिम उठायी
और तुम गये।
जाना ही पड़ा।
क्योंकि बिना
जोखिम उठाये
तुम्हारा अहंकार
कैसे निर्मित
होता? अगर
तुम 'ही' ही 'ही' कहते चले
जाओ, अगर
तुम
आज्ञाकारी ही
बने रहो, तो
अहंकार कैसे
निर्मित होगा?
अहंकार
का मजा है।
भटकने में मजा
है। तुम ईश्वर
से मिलना नहीं
चाहते, क्योंकि
मिलने का मतलब
तो लीन हो
जाना होगा।
तुम डरते हो।
तुम कहते जरूर
हो, 'कब तक
भटकता रहूंगा?'
पूछते भी हो
कि कोई रास्ता
है? वह
शायद इसीलिए
पूछ रहे हो कि
रास्ता अगर
पक्का पता चल
जाये तो उस
रास्ते पर कभी
न जाएं। कहीं
ऐसा न हो कि
भूले — भटके, हम तो सोच
रहे हों भटक
रहे हैं, और
चले जा रहे हैं
उसी की तरफ!
रवींद्रनाथ
की एक कहानी
है,
गीत है, कि
मैं खोजता था
परमात्मा को
जन्मों—जन्मों
से, बहुत
जगह—जगह खोजा,
हर जगह खोजा
और वह न मिला।
ही, कभी—कभी
उसकी झलक
मिलती थी।
बहुत दूर किसी
तारे के
किनारे से
गुजरता हुआ
दिखाई पड़ता
उसका रथ, कभी
सूरज की
किरणों के रथ
पर सवार, कभी
चांद के पास, कभी तारों
के पास, मगर
सदा दूर, पास
कभी नहीं। और
जब तक मैं उस
तारे के पास
पहुंचता
खोजता—खोजता,
मुझे
जन्मों लग
जाते, जब
तक मैं वहा
पहुंचता तब तक
वह वहां से जा
चुका होता।
फिर कहीं दूर।
ऐसा खेल चलता
रहा; ऐसी
छिया—छी चलती
रही।
फिर
एक दिन ऐसा
हुआ कि अंततः
मैं जीता।
मेरी विजय—यात्रा
पूरी हुई। मैं
उसके द्वार पर
पहुंच गया जहां
तख्ती लगी थी
कि परमात्मा
का भवन आ गया।
सीढ़ियां चढ़
गया खुशी में।
कुंडी हाथ में
ले कर खटकाने
ही जा रहा था
कि एक विचार
मन में उठा कि
अगर वह मिल
गया तो फिर
क्या करोगे? अब
तक तो खोज ही
सहारा थी; खोज
के सहारे ही
जीते थे। वही
एक मजा था, वही
एक धुन थी।
अगर मिल ही
गया, फिर
क्या करोगे? थोड़ा सोच
लो। क्योंकि
फिर करने को
कुछ भी न बचेगा।
अब तक करना
यही तो था कि
परमात्मा को
खोजना था। फिर
परमात्मा मिल
गया तो अब
क्या करोगे?
तो
रवींद्रनाथ
ने उस गीत में
कहा है कि
मैंने आहिस्ता
से सांकल छोड़
दी कि कहीं
आवाज न हो
जाये। डर के
कारण अपने
जूते पैर से
निकाल लिये कि
कहीं सीढ़ियों
पर पगध्वनि न
हो जाये। और
फिर मैं जो
भागा हूं तो
मैंने पीछे
लौट कर नहीं
देखा। और अब
मुझे पता है
कि उसका घर
कहा है। बस
वहां छोड़ कर
सब जगह खोजता
हूं।
तुम्हारे
कर्ता होने का
मजा समाप्त हो
जायेगा जिस
क्षण प्रभु से
मिलन हुआ।
क्योंकि
प्रभु से मिलन
का अर्थ है :
महामृत्यु।
इस शब्द को तुम
खयाल में ले
लो तो तुम्हें
समझ में आ
जाएगा कि
क्यों भटके
हुए हो। अगर
भटकने में
अहंकार है तो
मिलने में मौत
है। क्योंकि
यह अहंकार
जाएगा, समर्पण
करना होगा।
इसे रख देना
होगा उसके चरणों
में। धोखे न
चलेंगे वहा कि
कुछ फूल—पत्ते
तोड़ लाये और
चढ़ा दिये
पैरों पर।
नहीं, अपने
को ही तोड़ कर
चढ़ाना होगा।
अपना ही फूल
चढ़ाना होगा।
यह अहंकार
तुम्हारा फूल
है। यह अस्मिता
तुम्हारा फूल
है। ऐसे बाजार
से खरीदे गये फूल—पत्ते
न चलेंगे। और
दूसरों की
बगिया से तोड़
लाये, ये न
चलेंगे।
तुम्हीं को
चढ़ाना होगा
अपने को।
कर्ता
— भाव को चढ़ाना
होगा; वही
बनेगा
नैवेद्य, अर्चन।
अगर उतनी
हिम्मत नहीं
है तो फिर हम
भटकते रहते
हैं, और हम
पूछते भी रहते
हैं। इस पूछने
में एक मजा भी
है। मजा यह है
कि खोज तो रहे
हैं, अब और
क्या करें?
'मैं कब तक
भटकता रहूंगा',
पूछते हो
तुम।
एक
क्षण भी
ज्यादा भटकने
की जरूरत नहीं
है। जिस क्षण
तुम चाहोगे कि
अब तैयार हूं
समर्पण को, उसी
क्षण मिलन हो
जाएगा। तल्लण
मिलन हो
जाएगा।
'दिल की लगी
पूरी होगी या
नहीं?'
दिल
की लगी.! अब
पूछने जैसा है
: यह दिल क्या
है?
किस दिल की
बात कर रहे हो?
कहीं यह
अहंकार की
धड़कन को ही तो
तुम दिल नहीं कह
रहे हो? अगर
अहंकार की
धड़कन को दिल
कह रहे हो, यह
'मैं' होने
को दिल कह रहे
हो, तो यह
लगी पूरी कभी
न होगी।
क्योंकि यह
दिल तो
मिटेगा। यह
धड़कन तो बंद
होगी।
ही, एक
और गहरी बात
है। अहंकार के
पीछे भी छिपा
तुम्हारा
अस्तित्व है।
उसकी लगी पूरी
होगी। मगर ये
दोनों साथ—साथ
नहीं हो
सकतीं।
आदमी
की आकांक्षा
यही है कि
अहंकार भी
तृप्त हो जाए
और परमात्मा
से मिलन भी हो
जाए। आदमी
असंभव की माग
कर रहा है।
मिटना भी नहीं
चाहता और
मिटने से जो
मजा मिलता है
वह भी लेना
चाहता है।
खोना भी नहीं
चाहता और खोने
में जो अपूर्व
अमृत की वर्षा
होती है, उस
सौभाग्य को भी
पाना चाहता
है। खाली भी
नहीं होना
चाहता, भरा
रहना चाहता, और खालीपन
में जो भराव
आता है, उसकी
भी मांग करता
है। ऐसी
दुविधा में
आदमी है। इस
दुविधा में
पिसता है। दो
पाटन के बीच
में..! ये पाट
तुम्हीं चला
रहे हो दोनों।
फिर पिस रहे
हो। साफ—साफ
समझ लो।
मेरे
देखे, अगर
तुम्हें
अहंकार में रस
अभी बाकी हो
तो छोड़ो
परमात्मा की
बकवास; अहंकार
को पूरा कर
लो। नास्तिक
हो जाने में
बुराई नहीं
है। आस्तिक हो
जाने में
बुराई नहीं
है। यह डांवांडोल
चित्त—दशा बड़ी
विकृत है। और
अधिक लोग मुझे
ऐसे ही लगते
हैं. एक पांव
नास्तिक की नाव
पर सवार, एक
पांव आस्तिक
की नाव पर
सवार। दोनों
में से कुछ भी
नहीं खोना
चाहते हैं।
दोनों जहान बच
जायें, ऐसी
चेष्टा में
पिस जाते हैं।
कुछ भी नहीं
मिलता, कुछ
हाथ नहीं
लगता।
तुम्हारे
भीतर तुम अभी
तैयार नहीं
हो। तैयार
नहीं हो तो
साफ—साफ कह
दो।
एक
छोटे स्कूल
में पादरी ने
पूछा बच्चों
से—रविवार की
धार्मिक
शिक्षा दे रहा
था—कि जो —जो स्वर्ग
जाना चाहते
हैं वे हाथ
ऊपर उठा दें।
सब बच्चों ने
उठा दिये, एक
बच्चे को छोड़
कर। उसने उससे
पूछा : तुमने
सुना नहीं? जो स्वर्ग
जाना चाहते
हैं हाथ ऊपर
उठा दें। तुम
क्या स्वर्ग
जाना नहीं
चाहते? उसने
कहा, जाना
तो मैं चाहता
हूं लेकिन इस
गिरोह के साथ नहीं।
अगर यही स्वर्ग
में भी जाने
वाले हैं तो
क्षमा। यही
यहां सता रहे
हैं, यही
वहां
सतायेंगे।
इससे तो नर्क
जाने को भी तैयार
हूं।
तुम
भी स्वर्ग
जाना चाहते हो, लेकिन
तुम्हारी
शर्तें हैं।
और तुम्हारी
कुछ ऐसी शर्त
है जो पूरी
नहीं की जा
सकती। तुम अहंकार
को भी 'स्मगल'
करना चाहते
हो; उसको
भी ले चलो
अंदर, कहीं
पोटली वगैरह
में छिपा कर।
क्योंकि इसके बिना
मजा क्या होगा?
प्राप्ति
का सारा मजा
अहंकार को
मिलता है। और अहंकार
ही—तुम कहते
हो—छोड़ आओ
बाहर, तो
मजा कौन लेगा?
मेरे
पास लोग आकर
कहते हैं : आप
कहते हैं, मिट
जाओ; अगर
मिटने पर शांति
मिलेगी तो फिर
सार ही क्या? उनकी बात भी
मैं समझता
हूं। वे कह
रहे हैं यह कि
हम शांत होने
आये हैं; आप
मिटना सिखाते
हो। हम आये थे
बीमारी
मिटाने; आप
कहते हैं मरीज
को ही मिटा
दो। मरीज ही
मिट गया तो
फिर सार क्या
है?
लेकिन
आध्यात्मिक
जगत में बीमार
ही बीमारी है।
वहा बीमारी
अलग नहीं है।
तुम ही बीमारी
हो। तो आदमी
इस बात के लिए
भी राजी है कि
अगर दुख में भी
रहना पड़े तो
रहेंगे, मगर
रहेंगे! इस
जिद्द में तुम
अटके हो। दिल
की लगी तो
पूरी हो सकती
है, लेकिन
किस दिल की
बात कर रहे हो?
हाथ से छूट
सड़क पर गिरा
धूप
का भेंट—सुदा
चश्मा
हमारे
संबंधों की
तरह
किरच
सब बिन जीवन
हो गये
स्वर्ण
दिन आये क्या; लो
गये
समय
का खलनायक
जीता
त्रासदी
की फिल्में हो
गयीं
मुट्ठियों
को खालीपन थाम
पकेपन
में स्याही बो
गयीं
ना
लौटे सपनों के
अनुमान
खोजने
हरियाली जो
गये
कांच
के परदे के इस
पार
सांस
की घुटन सजीवन
हुई
दृष्टि
में आलेखों को
बांध
अस्मिता
कापी छुई—मुई
भरे
मौसम तक
पहुंचे हाथ
अचानक
पिघल हवा हो
गये।
ये
तुम्हारे जो
हाथ हैं, ये
परमात्मा तक
पहुंचते—पहुंचते
पिघल कर हवा हो
जाएंगे। अगर
इन्हीं हाथों
सेर तुम
परमात्मा को
पाना चाहते हो
तो परमात्मा
नहीं मिलेगा।
इन हाथों से
तो वस्तुएं ही
मिल सकती हैं;
क्योंकि ये
हाथ पदार्थ के
बने हैं, मिट्टी,
हवा, पानी
के बने हैं।
मिट्टी, हवा,
पानी पर
इनकी पकड़ है।
अगर परमात्मा
को पाना है तो
चैतन्य के हाथ
फैलाने
होंगे। कुछ और
हाथ। अगर
इन्हीं आंखों
से परमात्मा
देखना चाहते
हो तो ये आंखें
तो अंधी हो
जाएंगी। वह
रोशनी बड़ी है;
पथरा
जाएंगी ये आंखें।
ये तो चमड़े की
बनी आंखें हैं,
चमड़े को ही
देख सकती हैं;
उससे पार
नहीं। अगर
परमात्मा को
देखना है तो कोई
और आंख खोलनी
होगी—कोई और आंख,
जो चमड़े से
नहीं बनी हैं।
अगर इन्हीं
पैरों से
पहुंचना है
परमात्मा तक
तो छोड़ो, यह
मंजिल पूरी
होने वाली
नहीं है। ये
पैर तो जमीन
पर चलने को
बने हैं; जमीन
से बने हैं।
ये जमीन के ही
हिस्से हैं, जमीन से पार
नहीं जाते।
कोई और पैर
खोजने होंगे—
ध्यान के। तन
के नहीं, मन
के नहीं, ध्यान
के।
अभी
तो तुमने जो
भी जाना है इन
हाथों से, वह
ऐसा है जो आता
है और चला
जाता है।
स्वर्ण
दिन आये क्या, लो
गये!
सुख
आ भी नहीं
पाता और चला
जाता है।
मिट्टी की इस
देह से तो जो
भी पकड़ में
आता है, वह
क्षणभंगुर
है।
स्वर्ण
दिन आये क्या, लो
गये!
इधर
आये नहीं कि
उधर गये नहीं।
मेहमान टिकता
कहा है? एक
द्वार से आता,
दूसरे
द्वार से निकल
जाता है।
लेकिन
परमात्मा ऐसा
मेहमान है जो
आया तो आया; फिर
जाता नहीं। तो
उसके लिए कुछ
नये द्वार बनाने
पड़े। ये
तुम्हारे
द्वार जिनसे
तुमने संसार
के मेहमानों
का स्वागत
किया है, आते—जाते
स्वागत और
विदा दी है, ये द्वार
काम न आएंगे।
चैतन्य का कोई
नया द्वार
खोजना पड़े।
न
लौटे सपनों के
अनुमान
खोजने
हरियाली जो
गये
इस
जगत में तुम
जिस हृदय से
धड़क रहे हो, उसमें
कभी हरियाली
मिली? उससे
कभी हरियाली
मिली?
न
लौटे सपनों के
अनुमान
खोजने
हरियाली जो
गये
कभी
कुछ लौटा? मरुस्थल
ही हाथ आता
है।
परमात्मा
परम हरियाली
है,
शाश्वत
हरियाली है।
उस शाश्वत के
स्वाद के लिए
तुम्हें भी
शाश्वत को
जन्माना
पड़ेगा। तुम थोडे
परमात्मा
जैसे होने लगो,
तो ही
परमात्मा को
पा सकोगे। और
परमात्मा जैसा
होने का अर्थ
है, तुम्हारा
अहंकार— भाव
विसर्जित हो,
तुम्हारी
सीमा टूटे, तुम्हारी
परिधि बिखरे,
तुम्हारा
केंद्र मिटे।
तुम ऐसे हो
जाओ जैसे नहीं
हो। तुम्हारे
भीतर से 'नहीं'
समाप्त हो
जाये।
तुम्हारे
भीतर 'ही' का स्वर
एकमात्र रह
जाये।
आस्तिक
का मैं यही
अर्थ करता
हूं। आस्तिक
का मेरा यह
अर्थ नहीं है
कि जो ईश्वर
को मानता है। क्योंकि
करोडों लोग
ईश्वर को
मानते हैं, और
मैंने उनमें
कोई आस्तिकता
नहीं देखी।
मंदिर जाते, मस्जिद जाते,
गुरुद्वारा
जाते—और
आस्तिकता से
उनका कोई संबंध
नहीं है।
मैंने कुछ ऐसे
नास्तिक भी
देखे हैं जो
आस्तिक हैं; जिन्होंने
ईश्वर की बात
ही कभी नहीं
उठायी। फिर
आस्तिक की
परिभाषा
ईश्वर से नहीं
करनी चाहिए।
मैं आस्तिक की
परिभाषा करता
हूं जिसने
जीवन को 'ही'
कह दिया, और 'ना' कहना बंद कर
दिया। कहो
तथाता, कहो
साक्षी भाव, कहो स्वीकार,
परम
स्वीकार।
जिसने जीवन को
'ही' कहना
सीख लिया।
उसका 'ना' जैसे—जैसे
गिरता है, वैसे—वैसे
अहंकार गिरता
है। तुम्हारा अहंकार
तुम्हारे कहे
गये नकारों का
ढेर है। तुमने
जहां—जहां 'ना' कहा
है, वहीं—वहीं
अहंकार की
रेखा खिंची
है।’नहीं'
यानी
नास्तिकता; 'ही' यानी
आस्तिकता।
तुम
जीवन को 'ही' कहो, बेशर्त
'ही' कहो।
और तुम पाओगे,
दिल की लगी
पूरी होती है,
निश्चित
होती है। होने
के ही लिए लगी
है। नहीं तो
लगती ही न।
यह
जो प्यास
तुम्हारे
भीतर है
परमात्मा को
पाने की, यह
होती ही न, अगर
परमात्मा न
होता। तुमने
जीवन में कभी
देखा, ऐसी
किसी चीज की
प्यास देखी, जो न हो? प्यास
लगती है तो
पानी है; प्यास
के पहले पानी
है। भूख लगती
है तो भोजन है,
भूख के पहले
भोजन है।
प्रेम उठता है
तो प्रेयसी है,
प्रेमी है;
प्रेम के
पहले मौजूद
है। इस जगत
में जो भी तुम्हारे
भीतर है प्यास,
उसको तृप्त
करने का कहीं
न कहीं उपाय
है। अगर परमात्मा
की प्यास है
तो प्रमाण हो
गया कि परमात्मा
भी कहीं है।
तुम्हारी
प्यास प्रमाण
है। तुम प्यास
पर भरोसा करो।
प्यास को 'ही'
कहो। आस्था
रखो। और प्यास
में सब भांति
अपने को डुबा
दो—इस भांति, कि प्यास ही
बचे और तुम न
बचो। तुम गये
नहीं कि परमात्मा
आया नहीं।
तुम्हारा
जाना ही उसका
आना है।
तीसरा
प्रश्न :
मैंने
अपनी माला पर
तीस मिनट
ध्यान किया।
मैंने आपके
चित्र को देखा
किया। कुछ देर
में आपकी आंखें
मेरी ओर
उन्मुख ' और
मैंने कहा :
भगवान, समूह
साधना ' कैसे
करूं जब कि
मेरे पास
रुपया ही नहीं
है? इस पर
आपने उत्तर
में कहा :
चिंता मत करो,
तुम्हारा
रुपया मैं दे
दूंगा। तब
मैंने पूछा : यह
भ्रम तो नहीं है?
और आपने कहां
: ही, भ्रम
ही है।
हां भ्रम
ही है, यह
उत्तर इतना सच
है कि भ्रम हो
नहीं सकता। इस
उत्तर की को
समझो। अगर यह
सपना ही होता
तो ऐसा उत्तर
आने वाला नहीं
था। यह
तुम्हारे मन से
तो नहीं आया।
तुम्हारे
मन की कामना
तो स्वभावत:
यही होती कि
जो तुम देख
रहे हो वह सच
हो। सपना मधुर
था;
सपना
मनचाहा था, मनचीता था।
और क्या तुम
चाह सकते थे? सपना
तुम्हारी चाह
का ही फैलाव
था। तुम्हारी तो
पूरी मर्जी
यही होती है
कि जो हो रहा
है वह सच हो; मैंने सच
में ही आंखें
उठायी हों
चित्र से, तुम्हारी
तरफ देखा हो, और तुमने जो
मांगा था, तुम्हें
देने का वचन
दिया हो; इससे
अन्यथा तुम और
क्या चाह सकते
थे!
तो
जो अंतिम
उत्तर है वह
तुम्हारी चाह
से तो नहीं
आया। तुम तो
चौंक गये
होओगे, जब वह
उत्तर आया।
जैसा अभी
सुननेवाले
हंस उठे। इनको
भी भरोसा नहीं
था कि ऐसा
उत्तर आयेगा। उत्तर
इतना सच है कि
तुम्हारा तो
नहीं हो सकता।
मैं नहीं कहता
कि मेरा है।
इतना ही कहता
हूं तुम्हारा
तो नहीं हो
सकता। तुम
जहां हो उस
जगह से तो
नहीं आया; उसके
पार से आया
है। तुम्हारी
किसी गहराई से
आया है जिससे
तुम अपरिचित
हो।
मेरा
चित्र तो
प्रतीक हुआ।
तुम मेरे
चित्र पर आंखें
लगाये थे, यह
तो बहाना हुआ।
मूर्तिया सभी
बहाने हैं। उनके
बहाने तुम
अपने ही अचेतन
में डुबकी
लगाते हो।
मूर्ति को सतत
देखते—देखते,
देखते—देखते
तुम्हारा जो
साधारण चेतन
मन है, वह शांत
हो जाता है और
तुम्हारे
अचेतन से
खबरें आनी शुरू
हो जाती हैं।
स्वभावत: वे
खबरें
तुम्हें ऐसी
लगती हैं जैसे
कहीं और से
आयी हैं।
क्योंकि तुम
इन गहराइयों
से परिचित ही
नहीं हो कि ये
तुम्हारी
हैं।
तुम्हारा ही
अंतःकरण बोला
है। तुम ही
बोले हो। मगर
ऐसी जगह से बोले
हो जिस जगह से
तुमने अब तक
अपना कोई
परिचय नहीं
बनाया।
तुम्हारे
भीतर ही बहुत
से प्रदेश
अछूते पड़े हैं
जिन तक तुम
कभी नहीं गये।
तुमने अपने
पूरे भवन को
कभी
जांचा—परखा
नहीं; पोर्च
में ही डेरा
डाले पड़े हो।
सोचते हो यही भवन
है। भीतर
द्वार पर
द्वार खुलते
हैं। गहराइयों
पर गहराइयां
हैं। तलघरों
पर तलघरे हैं।
यह तुम्हारे
ही भीतर से
आयी आवाज है।
जब भक्त
मूर्ति के
सामने तल्लीन
हो कर खड़ा हो
जाता है और
आवाज सुनता
है। सूफी फकीर
कहते हैं. परमात्मा
बोला।
परमात्मा
नहीं बोलता
है। लेकिन एक
अर्थ में
परमात्मा ही
बोलता है।
तुम्हारे
भीतर की
अंतरतम गहराई
परमात्मा ही
है।
यह
मूर्ति तो
बहाना है। यह
कीर्तन और भजन
और प्रार्थना
तो बहाना है।
यह तो सिर्फ
इस बात के लिए
सहारा है कि
तुम्हारा
सक्रिय मन
निष्किय हो
जाये।
क्योंकि
तुम्हारे
सक्रिय मन के
कारण
तुम्हारी
गहराई की आवाज
आती भी है तो
भी तुम तक
पहुंच नहीं
पाती—तुम इतने
शोरगुल से भरे
हो! वह धीमी सी
आती हुई आवाज
तुम्हारे
तूतीखाने में
खो जाती है।
वहां नगाड़े बज
रहे हैं। प्रभु
फुसफुसाता है; चिल्लाकर
नहीं आवाज
देता। और
चिल्लाकर भी
दे, तो भी
तुम सुनोगे
नहीं।
क्योंकि
तुम्हारे कान
इतने शोरगुल
से भरे हैं, तुम्हारे
भीतर इतने
विचारों की
तरंगें चल रही
हैं, तुम
इतने व्यस्त
हो!
तुमने
कभी खयाल किया, कभी
अचानक तुम शांत
हो कर बैठो तो
दीवाल पर लगी
घड़ी की
टिक—टिक सुनाई
पड़ने लगती है,
अपने हृदय
की धड़कन सुनाई
पड़ने लगती है।
श्वास का
आना—जाना
दिखाई पड़ने
लगता है। शांत
बैठे हो तो
सूई भी गिर
जाये तो सुनाई
पड़ती है। सांप
भी सरक जाये
बगिया में
कहीं, तो
सरसराहट
मालूम हो जाती
है। हवा का
जरा—सा झोंका
पत्तियों को
कंपा जाये तो
उसका कंपन भी
तुम्हें बोध
में आ जाता
है। लेकिन जब
तुम व्यस्त हो,
चिंता से
घिरे हो, विचारों
के बादलों में
दबे हो, तब
पहाड़ भी बिखर
जायें, आकाश
में गर्जन
होता रहे
बिजलियों का,
तो भी
तुम्हें पता
नहीं चलता।
तुम्हें
पता उसी
मात्रा में
चलता है, जिस
मात्रा में
तुम शांत होते
हो।
तो
ये तीस मिनट
तक तुम मेरे
चित्र पर
ध्यान करते
रहे,
तुम शांत हो
गये। तुम एकटक
बंधे रह गये।
तुम्हारे
चित्त से और
सारे विचार
दूर हो गये, मेरा चित्र
ही रह गया।
तुम उसी में
मंत्रमुग्ध
डूबे रहे, डूबे
रहे, डूबे
रहे, तब
तुम्हारे
भीतर
तुम्हारे ही
गहरे अचेतन से
कुछ आवाज उठनी
शुरू हो गयी।
लेकिन वह
लगेगी बाहर से
आ रही है। और
चूंकि तुम
इतने जोर से
व्यस्त थे
मेरे चित्र
में कि उस
आवाज ने उस
चित्र का सहारा
ले लिया, उसी
चित्र के
सहारे वह तुम
पर प्रकट हो
गयी। यह सिर्फ
सहारा है। मैं
नहीं बोला
हूं। तुम्हीं
बोले हो।
और
प्रमाण है कि
तुम जो बोले
ठीक जगह से
बोले हो।
क्योंकि
तुमने पूछा कि
'यह भ्रम तो
नहीं है? और
आपने कहा ही, भ्रम ही है।’
अगर मैं कह
देता कि ही, सच है, भ्रम
नहीं, तो
डर था कि तुम्हारी
चाह बोली; तो
डर था कि
तुम्हारी
कल्पना बोली;
तो डर था कि
जैसा तुम
चाहते थे वैसा
तुमने बोल लिया।
वह भ्रम होता।
यह तुम्हें
बड़ा विरोधाभासी
लगेगा।
मैं
कहता हूं अगर
मैंने कहा
होता कि ही, यह
सच है, तो
भ्रम होता। और
चूंकि मैंने
कहा कि ही, यह
भ्रम ही है, इसलिए सच
है। समझने की
कोशिश करना।
तुम्हारे
सपने भी एकदम
भ्रम नहीं
होते हैं। तुम्हारे
सपने में भी
तुम्हीं
बोलते हो।
इसलिए तो
मनोवैज्ञानिक
सपनों की बड़ी छानबीन
करता है। वह
तुम्हारे
जागरण की
चिंता नहीं
करता; वह
तुमसे पूछता
है, सपने
क्या देख रहे
हो तुम? क्योंकि
जागरण में तुम
इतने बेईमान
हो गये हो, तुम्हारे
जागरण का कोई
भरोसा ही नहीं
है। तुम दूसरे
को ही धोखा
देते हो, ऐसा
थोड़े ही है; धोखा वहां
थोड़े ही रुक
गया है, धोखा
तुम अपने को
दे रहे हो। तो
ऐसा थोड़े ही
है कि तुमने
दूसरों को
समझा दिया कि
तुम बहुत भले
आदमी हो, तुमने
अपने को भी
समझा लिया कि
तुम बहुत भले
आदमी हो। चोर
भी ऐसा मान कर
चलता है कि वह
चोरी भी कर
रहा है तो
किसी भले कारण
से कर रहा है; शायद
संपत्ति का
समान वितरण
करने की कोशिश
कर रहा है, समाजवादी
है। आदमी अपने
बुरे से बुरे
काम के लिए
अच्छे से
अच्छा कारण
खोजने में
कुशल है।
हिटलर
ने लाखों लोग
मार डाले, लेकिन
हिटलर भीतर से
बड़ा
साधुपुरुष
था। साधुपुरुष,
यानी अपने
को मना लिया
था कि मैं
साधुपुरुष हूं।
और मनाने के सब
उपाय भी उसके
पास थे। तुम
जरा सोच लेना,
उसके उपाय
क्या थे? हिटलर
सिगरेट नहीं
पीता था, यह
तो साधुपुरुष
का लक्षण है।
मांस नहीं
खाता था। अब
और क्या चाहिए?
पक्का जैन,
शाकाहारी, ब्राह्मणों
से भी बड़ा
ब्राह्मण।
क्योंकि ब्राह्मण
भी—बहुत
ब्राह्मण तो
मांसाहारी
हैं ही, कहीं
मछली खाते हैं,
कहीं मांस
खाते हैं।
कश्मीरी
ब्राह्मण...
नेहरू से तो
ज्यादा ही
ब्राह्मण था।
बंगाली ब्राह्मण
मछली खाता है।
हिटलर
मांसाहार
नहीं करता था,
सिगरेट
नहीं पीता था,
शराब नहीं
पीता था। नियम
से
ब्रह्ममुहूर्त
में उठता था।
कभी देर तक
नहीं सोता था।
अब और क्या
चाहिए? अब
लाइसेंस मिल
गया. मारो! अब
साधु हो गया।
अब और क्या? और क्या
प्रमाण—पत्र
चाहिए?
और
मार भी इसलिए
रहा है कि
सारी दुनिया
का हित करना
है। उसने समझा
लिया अपने को
कि जब तक यहूदी
हैं,
दुनिया में
बुराई रहेगी,
और
यहूदियों के
मिटते ही
बुराई समाप्त
हो जायेगी।
यहूदी पाप हैं;
संसार की
छाती पर कोढ़
का दाग हैं, इनको साफ कर
देना है।
दूसरों को भी
समझा लिया, अपने को भी
समझा लिया।
तुम
थोड़े चौंकोगे, क्योंकि
तुम इससे बहुत
दूर रहे। न
तुम यहूदी हो
और न तुम
यहूदी—विरोधी
हो। तो
तुम्हें यह लगेगा
कि क्या
बेवकूफी की
बात है। लेकिन
तुम भी ऐसा ही
अपने को समझा
लेते हो।
हिंदू सोचते
हैं, जब तक
मुसलमान हैं
तब तक दुनिया
बुरी रहेगी। मुसलमान
सोचते हैं, जब तक ये
हिंदू हैं तब
तक दुनिया
बुरी रहेगी। दोनों
ने अपने को
समझा लिया है।
आदमी
जो समझाना
चाहे समझा
लेता है। आदमी
जो करना चाहे
कर लेता है और
अच्छे बहाने
खोज लेता है।
जहर के ऊपर
शक्कर चढ़ा
लेता है; फिर
गटकना आसान हो
जाता है। फिर
जहर की गोली भी
गटक जाओ, मीठी—मीठी
लगती है। कम
से कम थोड़ी
देर तो लगती है;
फिर पीछे जो
परिणाम होगा,
होगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, तुम्हारे
जागरण पर तो
भरोसा नहीं
किया जा सकता
है; तुम्हारी
नींद में
उतरना पड़ेगा।
क्योंकि वहां
तुम्हारा
नियंत्रण
शिथिल हो जाता
है, वहां
तुम्हारे
दोहराये गए
झूठों का
प्रभाव कम हो
जाता है। तो
एक आदमी हो
सकता है जागा
हुआ तो साधु
बन कर चलता है,
जमीन पर आंख
रखता है, स्त्री
को आंख उठा कर
नहीं देखता है;
लेकिन इसके
सपने में
खोजो। सपने
में हो सकता है
यह नग्न
स्त्रियों को
देखता हो।
सपने में साधु
अक्सर
स्त्रियों को
देखते हैं।
असाधु नहीं
देखते। असाधु
तो ऐसे ही
बाहर इतना देख
रहे हैं कि ऊब
गये हैं।
असाधु तो सपने
में देखते हैं
कि संन्यास ले
लिया, भिक्षापात्र
ले कर
भजन—कीर्तन कर
रहे हैं, कि
मंजीरा पीट
रहे हैं।
असाधु ऐसा
देखते हैं, क्योंकि
असाधुओं की
यही वासना
अतृप्त पड़ी है।
जो
अतृप्त वासना
है,
वही स्वप्न
बनती है।
स्वप्न भी
तुम्हारा ही है।
तुमने जो —जो
दबा रखा है, वह सपने में
उभर कर आ जाता
है। सपने की
भी बड़ी सचाई
है। झूठा सपना
भी एकदम झूठा
नहीं है, क्योंकि
तुम्हारे
संबंध में कुछ
संकेत देता है।
अब
हो सकता है कि
तुम बाहर के
जीवन में तुम
बहुत सादगी से
रहते हो, और
सपने में
सम्राट हो
जाते हो। तो
सपने पर जरा
विचार करना।
तुम्हारी
सादगी धोखा
है। तुम बाहर
के जीवन में
बड़े अहिंसक हो,
पानी छान कर
पीते हो; रात
भोजन नहीं
करते।
मांसाहार
नहीं करते और
रात सपने में
उठा कर किसी
की गर्दन काट
देते हो। तो
सपने पर ध्यान
रखना। वह सपना
ज्यादा सच कह
रहा है। वह कह
रहा है.
असलियत यह है,
वह जो तुमने
ऊपर से ओढ़
लिया है, वह
बहुत काम का
नहीं है।
स्वामी
सरदार
गुरुदयाल ने
एक सपना मुझे
कहा कि
गुरुदयाल और
स्वामी आनंद
स्वभाव सपने
में एक घने
जंगल में भटक
गये। बड़े
प्यासे हैं, भूखे
हैं। और बड़े
आनंदित हो
गये। एक झोपड़े
पर तख्ती लगी
है.
अन्नपूर्णा
होटल! यहां
जंगल में! जहां
आदिवासी नंगे
घूम रहे हैं, यहां कहां
की
अन्नपूर्णा
होटल! और
उसमें नीचे लिखा
है : तुरंत
सेवा। भागे, भीतर घुसे।
एक नग्न
आदिवासी
स्त्री ने
स्वागत किया।
थोड़े चौंके भी
कि यह किस
प्रकार की होटल
है। अमरीका
में हैं
होटलें जहां
टॉपलेस वेट्रेस
हैं। लेकिन यहां
तो कपड़े ही
नहीं हैं। ऊपर
का कपड़ा ही
नदारद नहीं, कपड़े ही
नदारद हैं। ये
नग्न हैं। कहा,
दो कप चाय। तत्क्षण
दो कप चाय
प्रगट हो गयी।
स्वभाव
ने एक घूंट
प्याली से
लिया और कहा, दूध
की कमी है। और
उस स्त्री ने
क्या किया, उसने अपने
स्तन से दूध
की धार लगा
दी। और गुरुदयाल
के मुंह से
निकल गया. वाह
गुरुजी की फतह,
वाह .गुरु
जी का खालसा!
और उसी में
उसकी नींद टूट
गयी।
वह
जब मुझे सपना
सुनाने आया तो
मैंने कहा : और
तो सब ठीक है, यह
वाह गुरुजी की
फतह, वाह
गुरु जी का
खालसा, यह
तूने क्यों
कहा? उसने
कहा. अब आप
समझें। गुरु
ने बचाया, क्योंकि
अगर स्वभाव ने
न मांगा होता
दूध तो मैं
गरम पानी
मायने जा रहा
था।
मतलब
समझे? गुरु ने
बचाया!
तुम्हारे
सपने
तुम्हारे
हैं।
तुम्हारे सपने
तुम्हारी
सचाइयां हैं।
वह जो
तुम्हारे मन
में सब सरकता
रहता है, वह
सपनों में रूप
लेता है, आकृति
ग्रहण करता
है। अपने
सपनों पर थोड़ा
विचार करना।
आध्यात्मिक
साधक को अपने
सपनों पर बहुत
विचार करना
चाहिए। तुम
जागरण की
डायरी न रखो
तो चलेगा, सपने
की डायरी बड़ी
कीमती है। रोज
सुबह उठ कर अपना
सपना लिख
लिये। चाहे एकदम
अर्थ साफ भी न
हो कि क्या
अर्थ है।
धीरे—धीरे
अर्थ साफ
होगा। अर्थ
साफ अगर न हो, तो उसका इतना
ही अर्थ है कि
तुमने अपने को
इस भांति झुठला
लिया है कि अब
तुम्हें अपने
सपने का अर्थ
भी साफ नहीं
दिखाई पड़ता।
तुम्हारी आंखें
इतनी विकृत हो
गयी हैं। मगर
लिखते जाना।
धीरे— धीरे
सफाई होगी।
धीरे — धीरे
बिंब और उभरकर
आएंगे।
और
अगर तुम सपनों
को धीरे— धीरे
समझने लगो तो
तुम्हारा
अपने
व्यक्तित्व
के संबंध में
बोध गहन हो
जाएगा। सपने
को
समझते—समझते
एक ऐसी स्थिति
आ सकती है कि
तुम सपने में
भी थोड़ा सा
होश रख सको कि
यह सपना चल
रहा है। जिस
दिन यह होश आ
जाता है कि यह
सपना चल रहा
है,
उसी दिन
सपने बंद हो
जाते हैं। और
सपने का बंद
हो जाना बड़ी
क्राति है'।
सपने
जिसके बंद हो
गये,
गलितधी, उसकी
बुद्धि गल
गयी। फिर रात
जिसके सपने
बंद हो जाते
हैं, उसके
दिन में विचार
बंद हो जाते
हैं। जड़ें कट गयीं।
दिन के विचार
तो पत्तों
जैसे हैं; रात
के सपने जड़ों
जैसे हैं। जब
सपने और विचार
दोनों खो जाते
हैं, तब जो
है वही सत्य
है।
यह
ठीक ही हुआ जो
तुम्हें
उत्तर मिला कि
ही,
भ्रम ही है।
यह उत्तर बड़ी
गहराई से आया
है। मेरी सलाह
है—पूछा है
देव निरंजन
नें—मेरी सलाह
है, तुम इस
प्रयोग को
जारी रखो। तुम
चित्र पर तीस मिनट
रोज ध्यान
जारी रखो।
तुम्हारा
अचेतन तुमसे
बोला है।
तुम्हारे हाथ
अचानक एक
कुंजी लग गयी
है। इसको ऐसे
ही गंवा मत
देना। और बहुत
कुछ अचेतन तुमसे
बोलेगा। और
धीरे— धीरे
तुम कुशल हो
जाओगे समझने
में अचेतन की
भाषा। और वह
कुशलता अध्यात्म
के मार्ग पर
बड़ा सहारा है,
बड़ा सहयोग
है।
इतना
ही तुमसे कहना
चाहता हूं कि
जो अंतिम चरण
है तुम्हारे
इस स्वप्न
का—इसको मैं स्वप्न
ही कह रहा हूं; तुमने
जागते —जागते
देखा है तो भी
स्वप्न ही कह
रहा हूं —वह
बहुत
महत्वपूर्ण
है। मैंने
सुना है, जैसे
हिंदी भाषी
क्षेत्रों
में
अकबर—बीरबल के
किस्से बहुत
प्रसिद्ध हैं,
वैसे ही आध
प्रदेश में
विश्वनाथ
सत्यनारायण
को ले कर ऐसी
ही कहानिया चल
पड़ी हैं।
तेलगु के एक
बड़े लेखक ने
अपनी वृहत
आकार की
पुस्तक
विश्वनाथ
सत्यनारायण
को समर्पित की
है। उन्होंने
पुस्तक को इधर
से उधर देखा
और कहा : बहुत
मामूली
पुस्तक है।
लेखक उदास—मन
अपने घर लौटा।
उसने
सत्यनारायण
के विचार अपनी
पत्नी को
सुनाये।
पत्नी ने पूछा
: सत्यनारायण
ने तुम्हारी
पुस्तक का
अवलोकन कितनी
देर तक किया? लेखक ने
बताया : पांच—छ:
मिनट। पत्नी
ने कहा : तुम्हारी
पुस्तक
निश्चित रूप
से
महत्वपूर्ण
है। जिस
पुस्तक की
निरर्थकता को
समझने में
सत्यनारायण
को पांच—छ:
मिनट लगे, वह
पुस्तक
साधारण नहीं
हो सकती।
जिस
स्वप्न के
पीछे यह उत्तर
आया कि यह सब
भ्रम है, वह
सपना साधारण
नहीं है, असाधारण
है। क्योंकि
यह सत्य की
घोषणा है। जिस
स्वप्न ने
अपने को
स्वप्न कह
दिया है, वह
सपना बड़ा
संदेश ले कर
आया है। उससे
तुम्हें कुछ
मार्गनिर्देश
मिला है। अब
तुम रोज इसको
ध्यान ही बना
लो। रोज—रोज गहराई
बढ़ेगी।
रोज—रोज नये
तल खुलेंगे।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि आकस्मिक
रूप से ध्यान की
कोई विधि हाथ
लग जाती है।
और जो विधि
आकस्मिक रूप
से तुम्हारे
हाथ लग जाती
है,
वह ज्यादा
कारगर है।
क्योंकि उससे
तुम्हारे स्वभाव
का ज्यादा
तालमेल है। वह
तुमने ही खोज
ली है। जो विधि
कोई बाहर से
देता है वह
बैठे न बैठे, तालमेल पड़े
न पड़े; लेकिन
जो विधि
तुम्हारे
भीतर से आ गयी
है वह विधि तो
निश्चित ही
तालमेल रखती
है।
अमरीका
में एक बहुत
अदभुत आदमी
हुआ इस सदी
में कायसी।
उसे धीरे —
धीरे एक विधि
सध गयी, अचानक
सधी।
एक
आदमी बीमार
था। और यह
छोटा बच्चा था
कायसी। और वह
आदमी मरने के
करीब था। और
उस आदमी से
इसे बड़ा प्रेम
था—पड़ोसी था
और इस बच्चे
को खिलाता रहता
था,
इसको साथ
घुमाने ले
जाता था। उससे
बड़ा लगाव था।
और
चिकित्सकों
ने कह दिया कि
यह आदमी बचेगा
नहीं। तो यह
छोटा बच्चा
बड़ा दुखी हुआ।
यह क्या करे?
यह
उस आदमी की
खाट के पास
बैठ कर रोने
लगा। रोते—रोते
उसको झपकी लग
गयी। वह
करीब—करीब
बेहोश हो गया।
और बेहोशी में
कुछ बोला। वह
आदमी खाट पर
पड़ा सुन रहा
था। वह जो
बेहोशी में
बोला, वह बड़ी
अजीब बात थी।
उसने एक दवाई
का नाम लिया
बेहोशी में।
यह छोटा बच्चा,
इसको दवाई
का तो कोई पता
ही नहीं था।
और ऐसी दवाई
का नाम लिया
कि वह जो आदमी
पड़ा था, उसको
भी पता नहीं
था। और उसने
उस बेहोशी की
हालत में कहा.
यह दवा लेने
से तू ठीक हो
जाएगा।
वह
आदमी तो उठ कर
बैठ गया। उसने
अपने डाक्टरों
को पूछा।
डाक्टरों ने
कहा. इस तरह की
दवा हमने सुनी
नहीं, लेकिन
पता करना
चाहिए, हो
सकता है। वह
दवा मिल गयी।
वह अमरीका में
तो न मिली, इंग्लैंड
में मिली। और
वह दवा लेने
से वह आदमी
ठीक हो गया।
तो
कायसी के हाथ
में कुंजी लग
गयी। उसके बाद
तो उसने जीवन
भर करोड़ों लोगों
का इलाज किया।
और दवा वगैरह
का तो कोई उसे
पता ही नहीं
था। बरन, वह
बैठ जायेगा
मरीज के पास, आंख बंद कर
लेगा, थोड़ी
देर में उसका
शरीर कंपेगा,
गिर पड़ेगा।
और तब तुम
उससे पूछ लो
कि यह आदमी बीमार
है, यह
क्या लेने से
ठीक होगा? कभी—कभी
तो उसने ऐसी
दवाएं बतायीं जो
कि अभी पैदा
ही नहीं हुई
थीं, जो
अभी बनी ही
नहीं थीं; दो
साल बाद बनीं;
साल भर बाद
बनीं। लेकिन
जैसे ही वह
दवा ली, बीमार
ठीक हो गये।
कायसी
से लोग पूछते
थे,
तुम कैसे
करते हो? वह
कहता. मुझे
कुछ पता नहीं।
मैं तो करता
ही नहीं हूं।
मैं तो बिलकुल
बेहोश हो जाता
हूं। उस
बेहोशी में
कुछ होता है।
कायसी
अपने अचेतन
में उतर जाता
था। आकस्मिक यह
घटना घटी।
लेकिन इसने
कायसी का पूरा
जीवन बदल
दिया। और न
केवल कायसी का
जीवन बदल दिया, लाखों—करोड़ों
लोगों का जीवन
बदल दिया।
इससे हजारों
लोगों को
सहायता मिली;
हजारों
प्रकार से
सहायता मिली।
यह
तुम्हें जो
घटा है, एक
कुंजी हाथ लगी
है। इसका
उपयोग करो। हो
सकता है, यही
तुम्हारी
आत्म—उपलब्धि
का मार्ग बनने
को हो।
चौथा
प्रश्न :
दुनिया
करे सवाल तो
हम क्या जवाब
दें? मैं
लापता हो गया
हूं मेरे
प्रभु, मुझे
मेरा पता
बतायें।
पूछते हैं लोग
कि मैं कहां
से हूं?
ईमानदारी
बरतना। अगर
उत्तर भीतर से
न आ रहा हो तो
कह देना : मुझे
कुछ पता नहीं।
सचाई से इंच
भर डगमगाना
मत। जो पता न
हो तो कह देना, पता
नहीं है। जो
पता नहीं है, नहीं
है—करोगे क्या?
और मैं अगर
तुम्हें
उत्तर दे दूं
तो तुम्हें पता
थोड़े ही हो
जायेगा। वह
उत्तर मेरा
होगा। मैं
तुमसे कह दूं
कि तुम ब्रह्म
हो, परमात्मा
हों—इससे क्या
होगा? ये
सब बातें तो
तुमने सुनी
हैं। रोज तो
मैं तुम्हें
कहता हूं : तुम
आत्मा हो!
इससे क्या
होगा?
नहीं, यह
उत्तर काम न
आयेगा, क्योंकि
यह उत्तर किसी
और से आया है।
शुभ घड़ी आयी
है तुम्हारे
जीवन में कि
तुम लापता हो
गये। आधी घटना
तो घट गयी।
आधी घटना तो
यही है और बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना घट गयी, कि तुम्हें
अपना पुराना
पता—ठिकाना
थोड़ा भूल गया
है। अच्छा
हुआ। कचरा तो
हटा! अब जो
वास्तविक
उत्तर है वह
तुम्हारे
भीतर पैदा
होगा। थोड़ी
प्रतीक्षा
करो। क्योंकि
अगर तुमने
जल्दी की तो
तुम फिर बाहर
से कोई उत्तर
ले लोगे। अभी
बाहर के
उत्तरों से ही
तो छुटकारा
हुआ है, इसीलिए
तो लापता हो
गये।
तुम्हारे
पिता ने कहा
था तुम्हारा
नाम यह है। तुम्हारी
मां ने कुछ
कहा था कि
तुम्हारा
पता—ठिकाना यह
है। तुम्हारे
स्कूल, तुम्हारे
शिक्षक, तुम्हारे
मित्र, प्रियजनों
ने तुम्हारा
पता तुम्हें
बताया था कि
तुम कौन हो।
उन्होंने
तुम्हारी
परिभाषा की
थी। वह उधार
थी। वह बाहर
से थी।
तुम्हें कुछ
पता न था।
बाहर से लोगों
ने समझा दिया
नाम, धर्म,
जाति, देश—सब
समझा दिया; ठोक—ठोक कर
समझा दिया। सब
लेबिल बाहर से
चिपका दिये और
तुम भीतर कोरे
के कोरे हो।
तुम्हें कुछ
पता नहीं कि
तुम कौन हो।
किसी ने कह
दिया राम
तुम्हारा नाम
है, हिंदू
तुम्हारी
जाति है, ब्राह्मण
तुम्हारा
वर्ण
है—चतुवेंदी,
कि
द्विवेदी, कि
त्रिवेदी—स्ब
बता दिया। सब
तरह के लेबिल
चिपका दिये
डब्बे के ऊपर
से। डब्बा
भीतर खाली है।
उसे कुछ पता
नहीं। भीतर
शून्य है। इन
लेबलों के
पीछे तुम लड़े
भी, मरे भी;
झगड़ा—झांसा
भी किया; किस—किस
से न उलझ गये!
किसी ने धक्का
दे दिया और तुम्हें
पता चल गया कि
शूद्र है, तो
मारपीट हो
गयी। तुम
ब्राह्मण!
लेबिल का ही फर्क
है। उसके ऊपर
शूद्र का
लेबिल लगा है,
तुम्हारे
ऊपर ब्राह्मण
का लेबिल लगा
है। लेबिल के
भ्रम में आ
गये। खूब धोखा
खाया। किसी ने
बता दिया
हिंदू हो तो
हिंदू हो गये;
मुसलमान हो,
तो मुसलमान
हो गये। जिसने
जैसा बता दिया
वैसा मान
लिया।
ध्यान
के प्रयोग से, इधर
मेरे पास
बैठ—बैठ कर, सत्संग में,
धीरे— धीरे
तुम्हारा
कूड़ा—कर्कट हट
गया, लेबिल
हट गये। अब
घबराहट हो रही
है। क्योंकि अब
तुम्हें लगता
है, तुम
खाली हो। खाली
तो तुम —तब भी
थे जब लेबिल
लगे थे। अब
लेकिन पता चला
कि तुम खाली
हो। तो तुम बड़ो
जल्दी में हो।
तुम कहते हो
मुझसे कि आप
कुछ लिख दें
इस डब्बे पर।
फिर मैं लिख
दूंगा, फिर
वही हो
जायेगा। फिर
लिखा बाहर से
होगा।
इस
बार ठहरो।
जल्दी मत करो।
प्रतीक्षा
करो। आने दो
उत्तर को भीतर
से जैसे बीज
टूटता और अंकुर
भीतर से आता
है—ऐसे ही तुम
टूटो और अंकुर
को भीतर से
आने दो। खिलने
दो तुम्हारे
वृक्ष को।
लगने दो फूल।
वही फूल
तुम्हारा उत्तर
होगा। उसके
पहले कोई
उत्तर नहीं
है। उसके पहले
सब उत्तर
व्यर्थ हैं।
पूछते
हो : 'दुनिया करे
सवाल तौ हम
क्या जवाब दें?'
वही
जवाब दो जो
तुम्हारी
वास्तविकता
है। कहो कि
लेबिल तो सब
उखड़ गये; न अब
मैं हिंदू हूं
न हिंदुस्तानी,
न जैन, न
बौद्ध, न
सिक्स, न
पारसी। मेरा
नाम भी
कामचलाऊ है।
राम कहो कि रहीम
कहो—चलेगा।
मेरा नाम
कामचलाऊ है।
देखते
हैं,
संन्यास
मैं देता हूं
तो नाम बदल
देता हूं! नाम
सिर्फ इसलिए
बदल देता हूं
ताकि तुम्हें
पता चल जाये
कि नाम तो
सिर्फ
कामचलाऊ है।
किसी भी नाम
से काम चल
जाता है।
कामचलाऊ है, काम चलाने
के लिए है।
कोई नाम चाहिए,
नहीं तो
दुनिया में
जरा मुश्किल
होगी। पोस्टमैन
कहां तुम्हें
खोजेगा बिना
नाम के? कोई
चिट्ठी कैसे
लिखेगा बिना
नाम के? बैंक
में जाओगे तो
खाता कैसे
खोलोगे बिना
नाम के? मुश्किल
होगी।
व्यावहारिक
है। नाम एक
व्यावहारिक
सत्य है, पारमार्थिक
सत्य नहीं। तो
नाम बदल देता
हूं —सिर्फ
यही याद
दिलाने को कि
देखो यह
पुराना नाम
ऐसे बदल जाता
है क्षण में।
इसमें कुछ
मूल्य नहीं
है। यह नया दे
दिया। नये से
काम चला लेना।
यह तो पुराने
का लंबे, तीस—चालीस
साल तुमने उपयोग
किया था, तुम
उसके साथ
तादात्म्य कर
लिये थे। उसे
खिसका दिया।
यह तो सिर्फ
इसलिए, ताकि
तुम्हें पता
चल जाये कि
अरे, नाम
तो कोई भी काम
दे देता है।
कोई फर्क नहीं
पड़ता। अ, ब,
स, द से
भी काम चल
जायेगा। नंबर
से भी काम चल
जायेगा।
और
इस बात का
खतरा है कि
जिस तरह संख्या
दुनिया में बढ़
रही है, जल्दी
ही नाम से काम
न चलेगा, नंबर
ही रखने
पड़ेंगे, जैसा
मिलिट्री में
रखते हैं।
क्योंकि नाम
बहुत
पुनरुक्त
होते हैं।
नामों की सीमा
है। वही नाम, वही
नाम—उससे झंझट
बढ़ती है। थोड़ी
संख्या थी तब
ठीक था। अब
इतनी विराट
संख्या के लिए
नये नाम कहां
से लाओगे? तो
नंबर..।
नंबर
से भी काम चल
जायेगा। बी—
३००१ —चलेगा।
ए— २००५
—चलेगा। क्या
कठिनाई है? एक
लिहाज से
अच्छा भी
होगा। बी—
१०००३ ज्यादा सुखद
है। न हिंदू
का पता चलता, न मुसलमान
का, न ईसाई
का। कुछ पता
नहीं चलता कि
हिंदुस्तानी है
कि चीनी है, कि जापानी
है। ज्यादा
शुद्ध है, कम
विकृत है।
ब्राह्मण है
कि शूद्र
है—कुछ पता
नहीं चलता।
अच्छा होगा।
नाम
इसीलिए मैं
बदल देता हूं
ताकि तुम्हें
स्मरण आ जाये
कि नाम कोई
बड़ी मूल्यवान
चीज नहीं है, कोई
संपत्ति नहीं
है। खेल है।
खेल—खेल में
बदल देता हूं।
इसलिए बहुत
आयोजन भी नहीं
करता। मेरे
पास कुछ लोग
आकर कहते हैं।
वे कहते हैं, संन्यास आप
ऐसे ही दे
देते हैं! और
कहीं तो दीक्षा
होती है तो
कितना
बैड—बाजा बजता
और स्वागत—समारोह,
रथ—यात्रा
निकलती, महोत्सव
होता, भीड़—
भाड़ इकट्ठी
होती। आप ऐसे
ही दे देते
हैं!
मैं
उनसे कहता हूं
: संन्यास को
मैं खेल बनाना
चाहता हूं
गंभीर नहीं!
तुम्हारे
अहंकार का
आभूषण नहीं
बनाना चाहता।
नहीं तो
संन्यास
संन्यास ही न
रहा। बैंड—बाजे
बजे,
तो जिसको
बैंड—बाजे
बजवाने हों, वह संन्यास
ले लेगा।
जुलूस निकला,
लोगों ने आ
कर चरण छुए, फूलमालाएं पहनायीं
और लोगों ने
कहा, तुम
धन्यभागी हो,
किस महाश्य
का परिणाम कि
तुम इस यात्रा
पर निकल गये।
हम हैं
दीन—हीन पापी
कि हम अभी भी
संसार में सड़
रहे हैं; नाली
के कीड़े! तुम
तो देखो आकाश
में उड़ने लगे।
हो गये हंस!
—जिनको इस तरह
के अहंकार की
पूजा करवानी
है वे जरूर उस
मार्ग पर चले जायेंगे
जहां पूजा
होती है।
मेरे
देखे अगर लोग
संन्यासियों
को बहुत सम्मान
देना बंद कर
दें तो
तुम्हारे सौ
में से निन्यानबे
संन्यासी
वापिस दुनिया
में लौट आयें।
वे सम्मान के
कारण वहां
अटके हैं।
इसलिए मैं
संन्यासियों
को बिलकुल
सामान्य, खेल
की तरह—कोई
स्वागत नहीं,
कोई समारंभ
नहीं, चुपचाप
तुम्हारा नाम
बदल दिया।
किसी को कानोंकान
खबर न हुई।
तुम्हारे
कपड़े बदल दिये,
कानोंकान
खबर न हुई। और
तुमसे मैं कोई
विशिष्ट आचरण
की भी
आकांक्षा
नहीं रखता।
क्योंकि विशिष्ट
आचरण हमेशा
अहंकार का
आभूषण बन जाता
है। मैं तुमसे
कहता हूं कोई
हर्जा नहीं।
होटल में बैठ
कर खाना खा
लिया, कोई
हर्जा नहीं।
संन्यासी
कहता है हम
होटल में बैठ
कर खाना
खायें! कभी
नहीं! हमारे
लिए विशेष
भोजन बनना
चाहिए।
ब्राह्मणी
पीसे, फिर
बनाये। सब
शुद्ध हो, तब
हम लेंगे। हम
कोई साधारण
व्यक्ति थोड़े
ही हैं!
नहीं, मैं
तुम्हें बिलकुल
साधारण बनाना
चाहता हूं।
तुम्हें मैं ऐसा
साधारण बना
देना चाहता
हूं कि
तुम्हारे भीतर
अहंकार की
रेखा न बने।
तुम ऐसे ही
जीना जैसे और
सब लोग जी रहे
हैं। कुछ
विशिष्टता
नहीं।
इसीलिए
तुम्हें लग
रहा है कि
लापता हो गया।
पुराना नाम
गया। पुराना
ठिकाना गया।
पुरानी जात—पात
गयी। और नयी
कुछ मैंने
बनायी नहीं।
नया तुम्हें
कुछ दिया
नहीं। खाली
तुम्हें छोड़
दिया। क्योंकि
इसी खालीपन
में फूटेगा
तुम्हारा बीज और
अंकुर उठेगा।
तुम चाहते हो
मैं तुम्हें
कुछ दे दूं।
मगर मैं
तुम्हें कुछ
दे दूं तो मैं
तुम्हारा
दुश्मन। फिर
मैंने जो तुम्हें
दिया वह
तुम्हारी
छाती पर पत्थर
बन कर बैठ
जायेगा। फिर
तुम उसको पकड़
लोगे। फिर वह
तुम्हारा पता
हो गया। फिर
तुम चूके। फिर
आत्मज्ञान
से चूके।
आत्मज्ञान
के लिए
प्रतीक्षा
चाहिए। जब तक
पता न हो, कोई
पूछे तो उससे
कहना : क्षमा
करें, जो—जो
मुझे पता था
वह गलत सिद्ध
हुआ और जो—जो
ठीक है उसकी
मैं राह देख
रहा हूं। जब
आयेगा, आ
कर आपको खबर
कर दूंगा—अगर
कभी आया। अगर
कभी न आया तो
क्षमा करें।
मुझे स्वीकार
कर ले ऐसा ही
जैसा मैं
हूं—लापता।
ईमानदार
रहना।
प्रामाणिक
रहना।
हमें
प्रामाणिक
रहना किसी ने
सिखाया नहीं।
हम ऐसी बातो
के उत्तर देते
हैं जिनका
उत्तर हमें
पता ही नहीं। बाप
बेटे से कहता
है : झूठ कभी मत
बोलना। और बेटा
पूछता है कि
ईश्वर है और
बाप कहता है :
ही,
है! अब इससे
बड़ी झूठ तुम
कुछ बोलोगे? तुम्हें पता
है ईश्वर के
होने का? किस
अकड़ से तुम कह
रहे हो? इस
भोले — भाले
बेटे के प्रश्न
को किस बुरी
तरह मार रहे
हो! इसके
प्रश्न में तो
एक सचाई थी, तुम्हारा
उत्तर सरासर
झूठ है।
तुम्हें कुछ भी
पता नहीं है।
और आज नहीं कल
इस बेटे को भी
पता चल जायेगा
कि तुम्हें
कुछ पता नहीं।
तब इसकी श्रद्धा
टूट जायेगी।
मेरे
देखे अगर
बच्चे अपने मा
—बाप को
श्रद्धा नहीं
दे पाते तो
बच्चे इसके
लिए अपराधी
नहीं हैं; मां—बाप
अपराधी हैं।
तुम श्रद्धा
के योग्य ही नहीं
हो। तुम इतनी
झूठे बोले
हो.।
मेरे
एक शिक्षक थे।
वे स्कूल में
तो सिखाते कि
सच बोलना
चाहिए। एक दिन
मैं उनके घर
बैठा कुछ. .गणित
उन्होंने
दिया था, वह कर रहा
था। एक आदमी
ने द्वार पर
दस्तक दी।
उन्होंने
मुझे कहा कि
जा कर कह दो कि
वे अभी घर में
नहीं हैं। मैं
बड़े सोच में
पड़ा कि अब
करना क्या? कहते हैं सच
बोलो, आज
कह रहे हैं कि
कह दो कि घर
में नहीं हैं!
तो स्वभावत:
मैंने दोनों
के बीच कोई
रास्ता
निकाला।
मैंने जा कर
उनसे कहा कि
सुनिये, हैं
तो घर में, लेकिन
कहते हैं कि
घर में नहीं
हैं। अब आप
समझ लें।
क्योंकि
उन्होंने
मुझे सच बोलने
को भी कहा है, तो मैं झूठ
भी नहीं बोल
सकता। और जो
उन्होंने कहा
है वह भी मुझे
कहना ही
चाहिए।
क्योंकि वही
उन्होंने कहा
है, मैंने
उसमें कुछ जोड़ा
नहीं। इसलिए
बात पूरी आपके
सामने रख दी, अब आप समझ
लो।
वे
शिक्षक मुझ पर
बड़े नाराज
हुए।
उन्होंने कहा
तुमसे कहा था
न कि कह दो घर
में नहीं हैं।
मैंने कहा :
मैंने कहा। वे
बोले : तुमसे
यह किसने कहा
था कि कह दो कि
यह भी मैं ही
कह रहा हूं घर
में बैठा हुआ।
मैंने कहा : आप
स्कूल में सदा
कहते हैं कि
सच बोलो। आप कह
दो कि झूठ
बोलो, तो मैं
उसका पालन
करने लगूंगा।
वे
बड़ी बेचैनी
में पड़े। वे
मुझे कभी
क्षमा न कर
सके। उस दिन
के बाद मुझे
स्कूल मेँ भी
मैं उनको
देखता तो
इधर—उधर आंख
करते।
श्रद्धा
कैसे उत्पन्न
हो?
बाप बेटे से
कहता है झूठ
मत बोलो। और
ऐसी सरासर
झूठे बोलता
है! शायद
सोचता है, बेटे
के हित में ही
बोल रहा हूं।
शायद इसीलिए कह
रहा है कि हां,
ईश्वर है कि
कहीं बेटा
अनीश्वरवादी
न हो जाये।
बेटे के हित
में ही बोल
रहा है। लेकिन
झूठ किसी के
हित में हो
सकती है? कितनी
ही दिखाई पड़े
हित में, लेकिन
हित में हो
नहीं सकती। जो
हित में है वह सच
है। जो सच है
वही हित में
है। सत्य के
अतिरिक्त और
कोई कल्याण
नहीं है। सत्य
के अतिरिक्त और
कोई मंगल नहीं
है।
तो
तुम्हें जो
स्थिति है
उससे अन्यथा
मत कहना।
कहना.
खाली—खाली लग
रहा हूं।
पता—ठिकाना खो
गया। अभी नये
का पता नहीं
चल रहा। चलेगा
तो निवेदन कर
दूंगा। नहीं
चला तो मैं
क्या कर सकता
हूं?
इस, सचाई
से जीने का
नाम ही
संन्यास है।
जो है उससे
अन्यथा न करने
का नाम
संन्यास है।
जैसा है वैसा
ही स्वीकार
करने का नाम
संन्यास है।
खतरा
क्या है, इसमें
गड़बड़ क्या है?
तुम्हें
तकलीफ क्या हो
रही है? तकलीफ
यह हो रही है
कि लोग
समझेंगे, अज्ञानी
हो। अरे, तुम्हें
यह भी पता
नहीं कि तुम
कौन हो? वह
जो पूछने वाला
है वह इसीलिए
पूछ रहा है कि
बताओ कहां से
आये हो? कौन
हो? कहां
जा रहे हो? वह
तुम्हें
देखता है
गैरिक
वस्त्रों में
तो सोचता है कि
महात्मा आ रहे
हैं। उसे पता
नहीं, ये
मेरे महात्मा
बहुत भिन्न
प्रकार के
हैं! यह
पुराने ढंग का
ढकोसला नहीं
है। पुराने
संन्यासी को
तो मैं
सत्यानाशी
कहता हूं। यह
और ही ढंग का
संन्यासी है।
यह परम
स्वतंत्रता
और स्वच्छंदता
में जीने वाला
संन्यासी है।
इसके ऊपर कोई
बाह्य आरोपण
नहीं है। इसका
भीतर का छंद
ही इसके जीवन
की व्यवस्था
है। इसका आंतरिक
अनुशासन ही
एकमात्र
अनुशासन है।
मैंने
तुम्हें
संन्यास दिया
है—इसलिए नहीं
कि तुम
संन्यासी
रहोगे तो कभी
मुक्त हो
जाओगे। मैंने
तुम्हें
संन्यास देने
में ही
तुम्हें
मुक्त कर दिया
है। यह एक
मुक्त चित्त
की दशा है।
इसे लोग नहीं
समझेंगे। कोई
चिंता भी नहीं
है। लोग समझें, इसकी
जरूरत भी क्या
है? लोगों
के समझने पर
निर्भर भी
क्यों रहना?
तुम्हारी
अड़चन मैं
समझता हूं। जब
लोग तुमसे पूछते
हैं,
'आप कौन? आपका
स्वरूप क्या?
कहां से आ
रहे? कहा
जा रहे? तो
वे बड़ी ज्ञान
की, ब्रह्मज्ञान
की बातें पूछ
रहे हैं।
तुम्हारा भी
दिल होता है, ब्रह्मज्ञान
का ही उत्तर
दें। क्योंकि
ज्ञानी बनने का
मजा किसको
नहीं होता! और
तुम्हें अड़चन
भी आती है, क्योंकि
ब्रह्मज्ञान
अभी हुआ नहीं
है।
तो
तुम मुझसे पूछ
रहे हो. 'दुनिया
करे सवाल तो
हम क्या जवाब
दें?'
यह
सवाल दुनिया
का नहीं है जो
तुम्हें
कांटे की तरह
चुभ रहा है।
कांटे की तरह
यह बात चुभ
रही है कि
जवाब दोगे तो
झूठ होगा। और
न जवाब दो तो
अज्ञानी
सिद्ध होते
हो।
मैं
तुमसे कहता
हूं. स्वीकार
कर लेना कि
मैं अज्ञानी
हूं। मैं अपने
संन्यासियों
को इतना हिम्मतवर
चाहता हूं कि
वे स्वीकार कर
सकें कि मैं
अज्ञानी हूं।
मैं अपने
संन्यासी को
इतना हिम्मतवर
चाहता हूं कि
वह स्वीकार कर
सके कि मैं
पापी हूं। मैं
अपने
संन्यासी को
इतना
हिम्मतवर
चाहता हूं कि
वह स्वीकार कर
सके कि जो
साधारण
मनुष्य की
सीमाएं हैं वे
ही मेरी
सीमाएं भी हैं; मैं
विशिष्ट
नहीं। और यही
तुम्हारी
विशिष्टता
बनेगी। यही
तुम्हारा
नवीन रूप
होगा। तुम अज्ञानी
हो तो कह दो कि
अज्ञानी हूं;
मुझे पता
नहीं, मैं
बिलकुल
अज्ञानी हूं।
अज्ञान में
दंश कहां है? सच तो यह है
कि अज्ञान
तुम्हारे
तथाकथित ज्ञान
से ज्यादा
निर्मल, ज्यादा
निर्दोष है।
तुम्हारा
तथाकथित ज्ञान
तो उधार और
बासा है, दूसरे
से लिया है।
अज्ञान
तुम्हारा है।
कम से कम
तुम्हारा तो
है! कम से कम
अपना, निजी
तो है! अंधेरा
सही, पर
अपना तो है।
यह रोशनी तो
किसी और के
हाथ के दीये
की है। यह तो
दूसरे के हाथ
में रोशनी है।
इसका बहुत
भरोसा मत
करना। यह कब
फूंक देगा या
कब रास्ते पर
अलग चल
पड़ेगा...।
अंधेरा
तुम्हारा है।
जो अपना है
उससे अन्यथा
का दावा मत
करना।
और
फिर एक और
तुमसे गहन बात
कहना चाहता
हूं। कुछ
बातें हैं
जिनका ज्ञान
कभी नहीं
होता। इसीलिए
तो जीवन
रहस्यमय है।
जैसे परम सत्य
कभी भी ज्ञान
नहीं
बनता—अनुभव तो
बनता है, ज्ञान
नहीं बनता।
तुम जान तो
लेते हो, लेकिन
जना नहीं
सकते।
तुम्हें तो
पता चल जाता
है, लेकिन
तुम दूसरे को
पता नहीं बता
सकते। वह जो परम
अवस्था है
सत्य की—ऋत्, तथाता, ताओ,
साक्षी—उसका
तुम्हें
अनुभव तो हो
सकता है, लेकिन
तुम दूसरे को
न कह सकोगे, क्या है। वह
ग्ते का गुड़
है। ग्ते केरी
सरकस! स्वाद
तो आ जायेगा, ओंठ बंद हो
जायेंगे।
तो
घबराना मत। शांत, मौन
खड़े रह जाना।
अगर कुछ भी
कहने को न आता
हो तो यही
तुम्हारा
कहना है कि शांत
और मौन खड़े रह
जाना।
बुद्ध
बहुत बार चुप
रह जाते थे।
लोग प्रश्न पूछते।
वैसा तो कभी न
घटा था। भारत
तो ज्ञानियों
का देश है।
यहां तो पंडितो
की भरमार है।
यहां तो पान
की दूकान पर
बैठा हुआ आदमी
भी
ब्रह्मज्ञान
से नीचे नहीं
उतरता। यहां
तो सभी
ब्रह्मज्ञान
पर सवार हैं।
यहां तो कोई
नीचे है ही
नहीं।
ब्रह्मज्ञान
तो यहां ऐसी
साधारण बात है
कि जिसका कोई
हिसाब नहीं है।
बुद्ध बड़े
हिम्मतवर
आदमी थे। पंडितो
के
इस देश में, ज्ञानियों
के इस देश में,
धार्मिकों
के इस तथाकथित
देश में बुद्ध
चुप रह गये।
बहुत मामलों
में चुप रह
जाते थे। कोई
पूछता, ईश्वर
है? वे चुप
रह जाते। जरा
हिम्मत देखते
हो बुद्ध की!
इसको मैं साहस
कहता हूं।
कितनी बड़ी
उत्तेजना न
रही होगी। कुछ
भी उत्तर दे
सकते थे। आखिर
मूड उत्तर दे
रहे हैं तो
बुद्ध को
उत्तर देने
में क्या अड़चन
थी? कुछ भी
उत्तर दे सकते
थे। लेकिन
बुद्ध बिलकुल चुप
रह जायेंगे।
देखते रहेंगे
उस आदमी की
तरफ। वह कहेगा,
'आपने सुना
नहीं? मैं
पूछता हूं
ईश्वर है या
नहीं? पता
हो तो कह दें।
अगर न पता हो
तो वैसा कह
दें।’ लेकिन
बुद्ध फिर भी
चुप हैं।
वह
आदमी के ऊपर
ही छोड़ दिया
कि जो तुझे
सोचना हो सोच
लेना, लेकिन
यह बात ऐसी है
कि कही नहीं
जा सकती। और इतना
भी कहने को
राजी नहीं हैं
कि यह बात ऐसी
है कि कही
नहीं जा सकती।
क्योंकि
बुद्ध कहते
हैं जो नहीं
कही जा सकती
उसके संबंध
में यह कहना
भी व्यर्थ है
कि नहीं कही
जा सकती।
फायदा क्या? यह भी तो
कहना हो गया न,
थोड़ा—सा तो
कह ही दिया।
एक गुण तो बता
ही दिया। उसका
एक गुण तो यह
हो गया कि उसे
कहा नहीं जा
सकता। तो
परिभाषा थोड़ी
तो बनी!
नकारात्मक
सही, लेकिन
इशारा तो हुआ।
सीधा न सही, घूम—फिर कर
सही, कान
पकड़ा तो, उल्टी
तरफ से सही।
यह कहा कि
नहीं कहा जा
सकता उस संबंध
में कुछ—तो
तुमने इतना तो
कह दिया उस संबंध
में।
बुद्ध
बड़े ईमानदार
हैं। वे चुप
रह जाते हैं।
उनमें से कोई
होता समझदार
तो बुद्ध के
इस मौन को
समझता। चरण
छूता।
आनंद—विभोर हो
जाता। लेकिन
वैसा तो सौ में
कभी एकाध
होता।
निन्यानबे तो
यही सोच कर जाते
कि अरे, तो
अभी इसको पता
नहीं चला! तो
बेचारा अभी भी
भटक रहा है।
इससे तो हमारे
गांव का पंडित
अच्छा।
दिन—दहाड़े
चिल्ला कर तो
कहता है कि ही,
ईश्वर है और
ईश्वर ने
संसार बनाया।
और न मानो तो
वेद से प्रमाण
लाता हूं। और
ज्यादा गड़बड
की तो लकड़ी
उठा कर खड़ा हो
जाता है। सिर
तोड़ देगा।
तर्क से मानो
तर्क से, नहीं
तो लट्ठ से
मना देगा।
आखिर
हिंदू—मुसलमान
लड़ कर क्या कर
रहे हैं? जो
तर्क से सिद्ध
नहीं होता वह
गर्दन काट कर
सिद्ध कर रहे
हैं। कहीं
गर्दन काटने
से सत्य सिद्ध
होता है? तुम
किसी को मार
डालोगे, इससे
क्या यह सिद्ध
होता है कि
तुम जो कहते
थे वह सही था।
सत्य का इससे
क्या संबंध है?
मगर
सौ में कभी एक
जरूर ऐसा होता
जो बुद्ध के मौन
के उत्तर को
स्वीकार कर
लेता, समझता, शांत हो
जाता। देखता
इस अपूर्व
घटना को। यह
बड़ी महत्वपूर्ण
घटना घटी कि
बुद्ध चुप रह
गये। ऐसा इसके
पहले कभी न
हुआ था।
बुद्ध
ने
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
एक नया अध्याय
जोड़ा। वह
अध्याय यह था
कि जो नहीं
कहा जा सकता, मत
कहो। चुप रह
कर ही कहो।
मौन से ही कह
दो। फिर दूसरे
पर छोड़ दो।
अगर वह
तुम्हें
अज्ञानी समझता
है तो वह जाने,
यह उसकी
समस्या है।
तुम क्यों
इससे परेशान?
लेकिन
मैं तुम्हारी
अड़चन समझता
हूं। तुम अगर उत्तर
नहीं दे पाते
तो लोग समझते
हैं. अरे, तो
तुम अभी भी
अज्ञानी!
संन्यासी
होकर भी अज्ञानी!
गेरुवा
वस्त्र पहन
लिया और
अज्ञानी!
तुम
कहना कि मैं
अज्ञानी ही
हूं। और
ज्ञानी का कोई
दावा मत करना।
और मैं तुमसे
कहता हूं.
अज्ञान का यह
स्वीकार खाद
बन जायेगा
तुम्हारे बीज
को तोड्ने
में। अज्ञान
का यह स्वीकार
वर्षा हो जायेगी
तुम्हारे
ऊपर। आखिर
दूसरे के
सामने सिद्ध करने
की कोशिश कि
मैं जानता हूं
क्या अर्थ
रखती
है?
इतना ही
अर्थ रखती है
कि मेरा
अहंकार दूसरे
की मान्यता पर
निर्भर होता है।
अहंकार दूसरे
का सहारा
चाहता है। तुम
अकेले में
ज्ञानी नहीं
हो सकते। कोई
कहे तो ही ज्ञानी
हो सकते हो।
जंगल में बैठ
जाओ अकेले तो
तुम ज्ञानी कि
अज्ञानी? पशु
—पक्षी तो कुछ
कहेंगे नहीं
कि महाराज, ज्ञान
उपलब्ध हुआ कि
नहीं? अभी
ब्रह्म का पता
चला कि नहीं? वे फिक्र ही
न करेंगे।
दूसरा मनुष्य
चाहिए जो कहे
कि ज्ञानी, कि अज्ञानी?
अगर कोई अज्ञानी
कहे तो
स्वीकार कर
लेना कि ठीक
कहते हैं, यही
तो मेरी दशा
है। कुछ भी तो
मुझे पता नहीं
है। अगर कोई
ज्ञानी कहे तो
उससे कहना कि
तुम्हें कुछ भूल
हो रही होगी, क्योंकि
मुझे कुछ पता
नहीं है।
उपनिषद
कहते हैं : जो
कहे मैं जानता, जान
लेना कि नहीं
जानता।
सुकरात
ने कहा है :
जानकर मैंने
एक ही बात
जानी कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं।
बनी
सुकरात! सीखो
एक रहस्य कि
दूसरों की
मान्यताओं पर
ठहरने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। और जिस
दिन तुमने
दूसरों की
मान्यताओं की
चिंता छोड़ दी
उसी दिन तुम
समाज से मुक्त
हो गये। समाज
से भाग कर
थोड़े ही कोई
मुक्त होता
है! वह जो समाज
से भाग जाता
है वह भी जंगल
में बैठ कर
सोचता है कि
समाज उसके
संबंध में
क्या सोच रहा
है। राहगीर
आते—जाते हैं
तो उनसे भी वह
घूम—फिर कर
बात निकलवा
लेता है कि गांव
में क्या
इरादा है? लोग
क्या कह रहे
हैं? पता
चल गया कि
नहीं कि मैं
बिलकुल
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध हो
गया हूं? कुछ
गांव में
सनसनी फैली कि
नहीं, क्योंकि
मैंने तो सुना
था जब शान को
कोई उपलब्ध हो
जाता है तो
जंगल में भी
बैठा रहे तो
वहां भी लोग
चले आते हैं, खोजते। सत्य
के खोजी कब तक
आयेंगे, कुछ
बताओ तो!
वहा
बैठा—बैठा भी
भीतर तो रस
समाज में ही
लेता रहता है।
वहां भी खबर
लगाता रहता है
कि कोई राष्ट्रपति
ने इस वर्ष
पद्यश्री या
भारतरत्न की
उपाधि की
घोषणा मेरे
लिए तो नहीं की।
क्योंकि यहां
मैं महर्षि
हुआ बैठा हूं
और अभी तक कुछ
खबर नहीं आयी।
वहा
भी बैठे—बैठे
अचेतन मन यही
गुनतारा
बिठाता रहता
है।
नहीं, यह
कोई समाज से
जाना न हुआ।
और अगर कोई
आदमी आ कर
तुमसे कह दे
कि अरे, तुम
क्या नाहक
बैठे हो, वहा
तुम्हारी बड़ी
बदनामी हो रही
है। तो तुम
बड़े दुखी हो
जाओगे कि हम यहां
अकेले भी बैठे
हैं, और
बदनामी हो रही
है! हमने सब
छोड़ दिया, और
बदनामी हो रही
है! हम यहां
ध्यान कर रहे
हैं, अब तो
कुछ हम किसी
का बिगाड़—बना
भी नहीं रहे
हैं, और
बदनामी हो रही
है! तो
तुम्हारा दिल
होगा कि दुर्वासा
बन जाओ और दे दो
अभिशाप इस
सारे समाज को
कि सब नर्क
में पड़े। समाज
की मान्यता से
जो चिंता नहीं
लेता, समाज
अच्छा सोचता
है कि बुरा
सोचता, वह
फिक्र ही नहीं
करता। वह कहता
है तुम्हारी मर्जी।
यह तुम्हारा
मजा। अच्छा
सोचो तो, बुरा
सोचो तो।
जिसमें
तुम्हें मजा
आये वैसा सोचो।
जो समाज की
मान्यता पर
जरा भी ध्यान
नहीं देता—ऐसा
व्यक्ति समाज
से मुक्त है।
फिर जंगल जाने
की कोई जरूरत
नहीं है, बीच
बाजार में
बैठे रहो, समाज
तुम्हें
छुएगा नहीं.
तुम कमलवत हो
गये।
तो
मैं तुमसे
कहूंगा
प्रतीक्षा
करो। थोड़ा और कसे
जाओगे। थोड़ा
और कसे जाने
की जरूरत है।
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
ऐसी
ठोकर दो
मिजराब की अदा
से
गूंज
उठे सन्नाटा
सुरों की सदा
से
ठंडे
सांचों में
मैं ज्वाल ढाल
पाऊं।
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
खूंटियां
न तड़के यदि
मीडूं मैं
ऐठूं
मंजिल
नियराये जब
पांव तोड़
बैठूं
मुंदी—मुंदी
रातो को धूप
मैं उगाऊं।
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
न
बाहर— भीतर के
द्वंद्वों का
मारा
चिपकाये
शनि चेहरे पर
मंगल तारा
क्या
बरसा परती
धरती निहार
आऊं।
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
ढीले
संबंधों को
आपस में कस
दूं
सूखे
तर्कों को मैं
श्रद्धा का रस
दूं
पथरीले
पंथों पर दूब
मैं उगाऊं।
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
तुम
मुझसे उत्तर न
मांगो। तुम तो
मुझसे कहो :
और
कसो तार, तार—सप्तक
मैं गाऊं।
पांचवां
प्रश्न :
कल
कहा गया कि
ज्ञान के आगमन
पर बुद्धि (धी)
गलित हो जाती
है। क्या
ज्ञान और
बुद्धि
विरोधी आयाम
हैं?
बुद्धत्व
और बुद्धि में
क्या थोड़ा—सा
भी मेल नहीं? हिंदुओं का
जो प्रसिद्ध गायत्री
मंत्र है वह
इसी बद्धि (धी)
के लिए प्रार्थना—सा
लगता है। इस
उलझन को दूर
करने की
अनुकंपा
करें।
जहां बुद्धि
शून्य हो जाती
है वहाँ बुद्धत्व
पैदा होता है।
बुद्धि और
बुद्धत्व विरोधी
आयाम नहीं
हैं। बुद्धि की
सीडी से जहां
तुम ऊपर पैर
रखते हो वहा
बुद्धत्व
शुरू होता है।
तो विरोधी मत
समझ लेना, सहयोगी
है। विरोधी तो
तब बनते हैं
जब तुम बुद्धि
की सीढ़ी को
जोर से पकड़ लो
और तुम कहो सब
मिल गया। तो
फिर अड़चन हो गयी।
तो जो आगे की
सीढ़ी है उसका
विरोध हो गया।
बुद्धि के
कारण विरोध
नहीं होता है,
बुद्धि को
पकड़ लेने के
कारण विरोध
होता है।
तुम
सीढ़ियां चढ़
रहे हो। तुमने
नंबर एक की
सीढ़ी पर पैर
रखा और तुमने
कहा कि बस, आ
गया घर, अब
आगे नहीं
जाना। तो
तुम्हारी
नंबर एक की
सीढ़ी नंबर दो
की सीढ़ी के
विरोध में हो
गयी। थी तो नहीं
विरोध में, थी तो पक्ष
में, थी तो
सहयोग में।
पहली सीढ़ी बनी
ही इसलिए थी कि
तुम दूसरी
सीढ़ी पर जाओ।
लेकिन अब
तुमने जो पकड़
बिठा ली, जो
आसक्ति बना ली
उससे अड़चन हो
गयी। सीढ़ी
विरोध में
नहीं, तुम्हारी
आसक्ति विरोध
में हो सकती
है।
बुद्धि
जहां शांत
होती, शून्य
होती, जहां
बुद्धि की
रेखा समाप्त
होती, वहीं
से बुद्धत्व
शुरू होता।
बुद्धि बड़ी
सीमित है, बुद्धत्व
विराट है।
बुद्धि तो ऐसी
है जैसे कोई
खिड़की पर खड़ा
आकाश को देखे।
तो आकाश पर भी
खिड़की का
चौखटा लग जाता
है। आकाश पर
कोई चौखटा नहीं
है। लेकिन
खिड़की के पीछे
खड़े हो कर
देखते हैं तो
आकाश ऐसा लगता
है, फ्रेम
किया हुआ, चौखटे
में जड़ा हुआ।
फिर तुम खिड़की
से छलांग लगा
कर बाहर आ
जाओ। खिड़की
कहती थोड़े ही
है कि रुको।
खिड़की तो
द्वार खोलती
है। खिड़की तो
बुलाती कि आओ
बाहर; थोड़ा—सा
आकाश दिखा
दिया, अब
भीतर किसलिए
खड़े हो? यह
थोड़ा—सा आकाश
तो स्वाद के लिए
था। यह
थोड़ा—सा स्वाद
दे दिया, अब
भीतर किसलिए
खड़े हो? तो
खिडकी ने तो
निमंत्रण
दिया कि खिड़की
को छोड़ो, बाहर
आओ। अब बड़ा
आकाश है। इतने
में इतना रस
पाया तो उतने
में कितना न
पाओगे।
तुम
जब मुझे सुनते
हो तो बुद्धि
थोड़ा—सा खिड़की
खोलती है। उस
पर रुक मत
जाना। सुन कर
इतना रस पाया
तो जान कर
कितना न
पाओगे। शब्द से
इतना रस पाया
तो निःशब्द से
कितना न
पाओगे! किसी
को मिला, उसके
पास बैठ कर
मस्त हो गये
तो खुद के
भीतर जब खुलेगा
द्वार तो कैसी
मस्ती न
आयेगी!
मधुशाला पूरी
की पूरी मिल
जायेगी। मैं
तो जैसे
प्याली में
ढाल—ढाल कर दे रहा
हूं!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक मधुशाला
खरीद ली—यह सोच
कर कि क्या
ऐसा बार—बार
दूसरे की
दूकान पर जा
कर पीना! तीन
पियक्कड़ों ने
विचार किया कि
यह तो बात ठीक
नहीं, रोज
पीते हैं आकर
और नुकसान भी
होता, और
यह कमाई भी कर
रहा है! तो हम
खरीद ही क्यों
न लें! तीनों
ने अपनी
संपत्ति
इकट्ठी करके
मधुशाला खरीद
ली। और जिस
दिन उन्होंने
मधुशाला
खरीदी
उन्होंने
तख्ती वगैरह
निकाल दी
दूकान पर से।
और दूकान पर
एक बड़ा बोर्ड
लगा दिया कि
दूकान सदा के
लिए बंद है।
और पियक्कड़
आये, उन्होंने
कहा : यह मामला
क्या है? तो
मुल्ला ने
खिड़की खोली और
उसने कहा क्या
समझा, तुम्हारे
लिए खरीदी
दूकान? अब
हम तीनों मजा
करेंगे। हो
गया बहुत! अब
यह दूकान बंद
है। खरीदी ही
इसलिए कि अब
हम तीनों अंदर
मजा करेंगे।
अब कोई
बेचना—बाचना
नहीं है।
जब
तुम्हारे
भीतर मधुशाला
के तुम पूरे
मालिक हो जाओ।
उसकी तुम आज
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
अभी तो एक
किरण भी
तुम्हारे
भीतर उतर जाती
है तो पुलकित
कर जाती है।
कभी मेरे तार से
तुम्हारा तार
मिल जाता है——
क्षण भर को ही
मिलता—तुम डोल
जाते। लेकिन
जब तुम्हारी
वीणा पूरी की
पूरी प्रभु से
मिल कर बजने
लगेगी, तब की
सोचो! हजारों
गुना, हजार—हजार
गुना, कल्पना
करो।
तो
बुद्धि तो
थोड़ी सी झलक
दे सकती है।
वहां रुक मत
जाना। बुद्धि
निश्चित झलक
देती है। विरोध
तो तब पैदा
होता है जब
तुम रुक गये
और पकड़ कर बैठ
गये और तुमने
कहा. आ गये! तो
तुम—ऐसा
समझो—मील का
पत्थर पकड़ कर
बैठ गये, जिस
पर लिखा है :
दिल्ली, और
तीर बना आगे
कि चलो आगे।
तुम पकड़ कर
बैठ गये कि यह
रही दिल्ली; साफ तो लिखा
है दिल्ली! और
तीर देखा
नहीं। या समझा
है कि तीर
किसी ने सजावट
के लिए बनाया
होगा। दिल्ली
यह रही। बैठ
गये लाल पत्थर
को लग कर। ऐसे
दिल्ली नहीं
आती। दिल्ली
दूर है। तीर
पर ख्याल
रखना। हर सीढ़ी
पर तीर लगा है
आगे के लिए।
क्योंकि हर
सीढ़ी आगे के
लिए तैयार
करती है।
बुद्धि
तुम्हें बुद्धि
के पार जाने
के लिए तैयार
करती है।
दूसरी
बात पूछी है
कि हिंदुओं का
जो प्रसिद्ध गायत्री
मंत्र है वह
इसी बुद्धि
(धी) के लिए प्रार्थना—सा
लगता है।
अब
इस संबंध में
समझना होगा कि
संस्कृत, अरबी
जैसी पुरानी
भाषाएं बड़ी
काव्य— भाषाएं
हैं। उनमें एक
शब्द के अनेक
अर्थ होते
हैं। वे गणित
की भाषाएं
नहीं हैं।
इसलिए तो
उनमें इतना
काव्य है।
गणित की भाषा
में एक बात का
एक ही अर्थ
होता है। दो
अर्थ हों तो
भ्रम पैदा
होता है।
इसलिए गणित की
भाषा तो
बिलकुल चलती
है सीमा
बांधकर। एक
शब्द का एक ही
अर्थ होना
चाहिए।
संस्कृत, अरबी
में तो एक—एक
के अनेक अर्थ
होते हैं।
अब
' धी' इसका
एक अर्थ तो
बुद्धि होता
है. पहली सीढ़ी 1
और धी से ही
बनता है
ध्यान—वह
दूसरा अर्थ, वह दूसरी
सीढ़ी। अब यह
बड़ी अजीब बात
है। इतनी तरल
है संस्कृत
भाषा। बुद्धि
में भी थोड़ी
सी धी है; ध्यान
में बहुत
ज्यादा।
ध्यान शब्द भी
' धी' से
ही बनता है, धी का ही
विस्तार है।
इसलिए गायत्री
मंत्र को तुम
कैसा समझोगे,
यह तुम पर
निर्भर है., उसका अर्थ
कैसा करोगे।
यह
रहा गायत्री
मंत्र
ओंम
भू भुव: स्व:
तत्सवितुर् देवस्य
वरेण्यं भगो:
धीमहि: या: न
धिय प्र
चोदयात्।
'वह परमात्मा
सबका रक्षक
है—ओंम!
प्राणों से भी
अधिक प्रिय
है— भू:। दुखों
को दूर करने
वाला है—भुव:।
और सुख रूप
है—स्व:।
सृष्टि का
पैदा
करनेवाला और
चलानेवाला है,
सर्वप्रेरक—
तत्सवितुर्।
और दिव्य
गुणयुक्त परमात्मा
के—देवस्य। उस
प्रकाश, तेज,
ज्योति, झलक,
प्राकटच या
अभिव्यक्ति
का, जो
हमें
सर्वाधिक
प्रिय
है—वरेण्यं
भगो। धीमहि:
—हम ध्यान
करें।’
अब
इसका तुम दो
अर्थ कर सकते
हो : धीमहि: —कि
हम उसका विचार
करें। यह छोटा
अर्थ हुआ, खिड़कीवाला
आकाश। धीमहि:
—हम उसका
ध्यान करें :
यह बड़ा अर्थ
हुआ। खिड़की के
बाहर पूरा आकाश।
मैं
तुमसे कहूंगा
पहले से शुरू
करो,
दूसरे पर
जाओ। धीमहि:
में दोनों
हैं। धीमहि: तो
एक लहर है।
पहले शुरू
होती है खिड़की
के भीतर, क्योंकि
तुम खिड़की के
भीतर खड़े हो।
इसलिए अगर तुम
पंडितो से
पूछोगे तो वे
कहेंगे धीमहि:
का अर्थ होता
है विचार करें,
चिंतन करें,
सोचें। अगर
तुम ध्यानी से
पूछोगे तो वह
कहेगा धीमहि:,
अर्थ सीधा
है : ध्यान
करें। हम उसके
साथ एकरूप हो
जायें।
अर्थात वह
परमात्मा—यत्,
ध्यान
लगाने की
हमारी
क्षमताओं को
तीव्रता से
प्रेरित करे—न
धिया: प्र
चोदयात्।
अब
यह तुम पर
निर्भर है।
इसका तुम फिर
वही अर्थ कर
सकते हो—न
धिया: प्र
चोदयात्—वह
हमारी बुद्धियों
को प्रेरित
करे। या तुम
अर्थ कर सकते
हो कि वह
हमारी ध्यान
की क्षमताओं
को उकसाये। मैं
तुमसे कहूंगा, दूसरे
पर ध्यान
रखना। पहला
बड़ा संकीर्ण
अर्थ है, पूरा
अर्थ नहीं।
फिर
ये जो वचन हैं
गायत्री
मंत्र जैसे, ये
बड़े संगृहीत
वचन हैं। इनके
एक—एक शब्द
में बड़े गहरे
अर्थ भरे हैं।
यह जो मैंने
तुम्हें अर्थ
किया यह शब्द
के अनुसार।
फिर इसका एक
अर्थ होता है
भाव के
अनुसार। जो
मस्तिष्क से
सोचेगा, उसके
लिए यह अर्थ
कहा। जो हृदय
से सोचेगा
उसके लिए
दूसरा अर्थ
कहता हूं।
वह
जो ज्ञान का
पथिक है, उसके
लिए यह अर्थ
कहा। वह जो
प्रेम का पथिक
है, उसके
लिए दूसरा
अर्थ। वह भी
इतना ही सच
है। और यही तो
संस्कृत की
खूबी है। यही
अरबी, लैटिन
और ग्रीक की
खूबी है। जैसे
कि अर्थ बंधा
हुआ नहीं है।
ठोस नहीं, तरल
है। सुनने
वाले के साथ
बदलेगा।
सुनने वाले के
अनुकूल हो
जायेगा। जैसे
तुम पानी
ढालते, गिलास
में डाला तो
गिलास के रूप
का हो गया। लोटे
में ढाला तो
लोटे के रूप
का हो गया।
फर्श पर फैला
दिया तो फर्श
जैसा फैल गया।
जैसे कोई रूप
नहीं है, अरूप
है, निराकार
है।
अब
तुम भाव का
अर्थ समझो.
'मां की गोद
में बालक की
तरह मैं उस
प्रभु की गोद
में बैठा
हूं——। मुझे
उसका असीम
वात्सल्य प्राप्त
है— भू। मैं
पूर्ण निरापद
हूं — भुव:। मेरे
भीतर
रिमझिम—रिमझिम
सुख की वर्षा
हो रही है। और
मैं आनंद में
गदगद
हूं—स्व:।
उसके रुचिर प्रकाश
से, उसके
नूर से मेरा
रोम—रोम
पुलकित है तथा
सृष्टि के अनंत
सौंदर्य से
मैं परम मुग्ध
हूं —तत्स् वितुर्
देवस्य। उदय
होता हुआ
सूर्य, रंग—बिरंगे
फूल, टिमटिमाते
तारे, रिमझिम—रिमझिम
वर्षा, कलकलनादिनी
नदियां, ऊंचे
पर्वत, हिमाच्छादित
शिखर, झरझर
करते झरने, घने जंगल, उमड़ते —घुमड़ते
बादल, अनंत
लहराता
सागर—धीमहि:।
ये सब उसका
विस्तार है।
हम इसके ध्यान
में डूबे। यह
सब परमात्मा है।
उमड़ते —घुमड़ते
बादल, झरने,
फूल, पत्ते,
पक्षी, पशु—सब
तरफ वही झांक
रहा है। इस सब
तरफ झांकते परमात्मा
के ध्यान में
हम डूबे; भाव
में हम डूबे।
अपने जीवन की
डोर मैंने उस
प्रभु के हाथ
में सौंप
दी—या: न धिया प्र
चोदयात्। अब
मैं सब
तुम्हारे हाथ
में सौंपता
हूं? प्रभु।
तुम जहां मुझे
ले चलो मैं
चलूंगा।
भक्त
ऐसा अर्थ
करेगा।
और
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
इनमें कोई भी
एक् अर्थ सच
है और कोई
दूसरा अर्थ
गलत है। ये
सभी अर्थ सच
हैं।
तुम्हारी
सीडी पर, तुम जहां
हो वैसा अर्थ
कर लेना।
लेकिन एक खयाल
रखना, उससे
ऊपर के अर्थ
को भूल मत
जाना, क्योंकि
वहां जाना है,
बढ़ना है, यात्रा करनी
है।
आखिरी
प्रश्न:
हरी
ओंम तत्सत् को
समझाने की कृप
करे।
कुछ तो
छोड़ दो बिना समझा
हुआ।
आज
इतना ही।
हरी
ओम तत्सत
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