प्रश्नसार:
1—मुझसे
न समर्पण होता
है और न मुझमें
संकल्प की शक्ति
है।
और आपसे दूरी
भी बरदाश्त नहीं
होती। क्या करूं?
2—आपका
कहना है कि प्यास
है तो जल भी होगा
ही, और प्यासा
ही जल को नहीं खोजता, जल भी प्यासे
को खोजता है...... ? मेरा मार्ग—निर्देश
करें।
3—आश्चर्य
है कि में आपके
प्रति अनाप—शनाप
बकता हूं कभी गाली
भी देता हूं,
ये क्या
है?
4—मेरी
विचित्र धारणाओं
के कारण आप मुझे
भगवान जैसे नहीं
लगते.... ?
5—मेरी
दिनचर्या आनंदचर्या
बन गयी है। अब पिधलूं और बहूं—बस यही
कह दें।
पहला
प्रश्न:
मुझ
से न समर्पण
होता है और न
मुझ में
संकल्प की
शक्ति ही है; बीच में
उलझा हूं।
आपने तो मेरे
लिए बड़ी झंझट खड़ी
कर दी है। हाल
यह है कि आपसे
दूरी भी बरदाश्त
नहीं होती, क्या करूं?
बेइख्तियार
मांग ली तेरे
सितम की खैर
उठते
नहीं हैं हाथ
अब दस्ते-दुआ के
बाद।
संकल्प
तो किया जाता
है--समर्पण
होता है।
इसलिए ऐसा
प्रश्न तुम
उठा ही न
सकोगे कि
समर्पण नहीं
होता। समर्पण
तुम्हारी
शक्ति की बात
नहीं है।
इसलिए ऐसा
प्रश्न तो
बुनियाद से ही
गलत है कि
समर्पण की
मुझमें शक्ति
नहीं है।
इसे
ठीक से समझना।
समर्पण
कोई कृत्य नहीं
है, जो तुम कर
सको। समर्पण
तो ऐसी चित्त
की दशा है, जहां
तुम पाते हो
कि अब मुझसे
तो कुछ भी
नहीं होता।
जरा भी आशा
बनी रही कि
मुझसे कुछ हो
सकता है तो
समर्पण न होगा;
तो
तुम्हारा
अहंकार बचा
है। तुम सोचते
हो, अभी
संभव है कि
मैं कुछ कर
लूं। लेकिन जब
तुम्हारा अहंकार
सभी तरफ से
जराजीर्ण
होकर बिखर
जाता है; जैसे
कोई पुराना
भवन गिर गया
हो; जैसे
कोई पुराना
वृक्ष, जड़
टूट गई, उखड़
गया हो--जिस
दिन तुम्हारा
अहंकार
परिपूर्ण रूप
से गिर जाता
है और तुम्हें
लगता है: मेरे किये
कुछ भी न होगा,
क्योंकि
मेरे किये अब
तक कुछ न हुआ।
जब तुम्हारे
करने ने
बार-बार हार
खायी; जब
तुमने किया और
हर बार असफलता
हाथ लगी; जब
कर-करके तुमने
सिर्फ दुख ही
पाया, और
कुछ न पाया; कर-करके
नर्क ही बनाया,
और कुछ न
बनाया--जब यह
पीड़ा सघन होगी,
जब तुम पूरे
असहाय मालूम
पड़ोगे, उस
असहाय क्षण
में ही समर्पण
घटित होता है।
वह तुम्हारा
कृत्य नहीं
है। वह
तुम्हारे कृत्य
की पराजय है।
हारे को
हरिनाम! जब
तुम्हारी हार
इतनी प्रगाढ़
हो गई कि अब
जीत की कोई
आशा भी न बची; जब तुम्हारी
हार अमावस की
अंधेरी रात हो
गई कि अब एक
किरण भी
अहंकार की शेष
नहीं रही, अब
तुम्हें लगता
नहीं है कि तुम
कुछ कर
पाओगे--पराजय
की
परिपूर्णता
में समर्पण
घटित होता है।
पूछा
है कि "मुझसे न
समर्पण होता
है, न संकल्प
की शक्ति ही
मुझमें है।' दूसरी बात
तो ठीक हो
सकती है कि
संकल्प की शक्ति
न हो; पहली
बात ठीक नहीं
हो सकती। और
अगर पहली बात
ठीक नहीं है
तो दूसरी भी
पूरी ठीक नहीं
हो सकती। तुम
कहते हो, संकल्प
की मुझमें
शक्ति
नहीं--यह भी
तुम कहते हो, मानते नहीं।
ऐसा तुम जानते
नहीं। कहीं
भीतर अभी भी
आशा बची है।
कोई किरण तुम
सम्हाले हुए हो।
तुम सोचते हो,
इस बार नहीं
हुआ, अगली
बार होगा; आज
नहीं हुआ, कल
हो जायेगा। आज
हार गया, वह
अपनी शक्ति की
कमी के कारण
नहीं; परिस्थिति
अनुकूल न थी।
आज हार गया, क्योंकि
भाग्य ने साथ
न दिया। आज
हार गया, क्योंकि
मैंने चेष्टा
ही पूरी न की।
यदि मैं चेष्टा
पूरी करता, ठीक सम्यक
मुहूर्त
चुनता, तो
बराबर जीतता।
सभी
हारे हुए हार
को समझा लेते
हैं। हार को
स्वीकार कौन
करता हूं!
हारा हुआ समझा
लेता है कि लोग
विरोध में थे।
हारा हुआ समझा
लेता है कि
चेष्टा पूरी न
हो सकी।
एक
हाथी खड़ा था।
और हाथी के
पास, पैरों के
पास, सुबह
की धूप थी।
सूरज निकला
था। सर्दी के
दिन थे। एक
चूहा बैठा था,
वह भी धूप
ले रहा था।
ऐसे साधारणतः
हाथियों को
चूहे दिखायी
नहीं पड़ते, लेकिन खाली
खड़ा था हाथी, कुछ काम भी न
था, इधर-उधर
देख रहा था, सुबह की धूप
ले रहा
था--चूहा
दिखाई पड़ा।
उसने कहा, "अरे!
आश्चर्य! इतना
छोटा प्राणी,
कभी देखा
नहीं!' चूहे
ने कहा, "आप
गलत न समझें!
मैं जरा कुछ
दिनों से
बीमार हूं।'
छोटा
कौन है! थोड़े
दिनों से
बीमार हूं!
जरा तबियत नासाज
है, इसलिए
छोटा दिखाई पड़
रहा हूं।
तुमने
भी नहीं समझा
लिया है
हजारों बार
अपने को? समझाना
छोड़ो! उस
समझाने में ही,
उस तर्क में
ही, तुम्हारा
अहंकार शेष रह
जाता है। जिस
दिन तुम अपनी
हार को स्वभाव
समझ लोगे कि
मेरे किये
होगा
क्या...नहीं कि
मैं आज कमजोर
हूं, कल
बलशाली हो जाऊंगा।
नहीं कि मुझे
ठीक विधि का
पता नहीं है, कल पता चल
जायेगा। नहीं
कि आज भाग्य
ने साथ न दिया,
कल देगा।
कोई हर्ज नहीं,
एक बार हारे
तो सदा थोड़े
ही हारेंगे।
कभी तो भाग्य
बरसेगा! कभी
तो किस्मत साथ
होगी! कभी तो
परमात्मा भी
दया करेगा!
किये जाओ!
नहीं, अहंकार
नपुंसक है
स्वभाव से।
उसके किये कुछ
होता ही नहीं।
तो मैं
तुमसे कहूंगा
कि तुम संकल्प
कर ही लो; जितना
तुमसे बन सके
कर लो। हारो
पूरी तरह। हार
में विजय छुपी
है। संकल्प की
हार में
समर्पण उठता
है। जीत गये
तो ठीक। अगर
संकल्प से जीत
गये तो ठीक; कोई जरूरत न
रही। कुछ लोग
जीत गये हैं।
इक्के-दुक्के
जीते हैं।
रास्ता बड़ा
कठोर है, बड़ा
दुर्गम है!
लेकिन कुछ लोग
जीते हैं। तो
अपनी पूरी
कोशिश कर लो।
अगर जीत गये, अगर संकल्प
से पा लिया तो
पा ही लिया।
अगर न जीते, तो भी पूरी कोशिश
कर लेने के
बाद हार समग्र
होगी। तो पूरी
तरह हार जाना।
तो अनेकों ने
हारकर पाया
है। और जीतकर
पाने से हारकर
पाने का मजा
ज्यादा है।
यह
प्रेम कुछ बात
ऐसी है कि
यहां हार, जीत है। तो
हारने से घबड़ाना
मत। मगर एक
बार तुम्हें
अपनी पूरी
ताकत दांव पर
लगा लेनी चाहिए।
कहीं मन में
यह लुका-छिपा
भाव न रह जाये
कि कर सकते
थे। अगर वह
भाव रहा तो
समर्पण न हो
पायेगा। ऐसा
ही दिखता है--
क्या
शै है मुहब्बत
भी कुहसार
को ढाए है
तिरतों
को डुबोये
है, डूबों को तिराए
है।
तुमने
देखा, कभी
कोई मर जाता
है तो नदी पर
तैर जाता है!
जिंदा डूब गया
था, मरकर
तैर जाता है!
मुर्दे को कोई
तरकीब पता है जो
जिंदे को
पता नहीं थी।
अगर जिंदा भी
मुर्दे की
भांति हो जाता
तो नदी ने तैरा
दिया होता, तो नदी
डुबाती न। अगर
जिंदा ने भी
स्वीकार कर लिया
होता कि चलो
राजी हैं, डुबाओ; तो
नदी डुबाती न।
जो राजी है
उसे कौन डुबाता
है! वह जो
डूबना नहीं
चाहता, जो
प्रतिरोध
करता है, संघर्ष
करता है, नदी
उसी को डुबा
देती है। तुम लड़ो मत!
मगर यह
न लड़ने की
घटना तभी
घटेगी जब
तुम्हारे लड़ने
की वृत्ति
पूरी तरह
पराजित हो
जाये; रत्ती
मात्र भी आशा
शेष न रहे।
तुम गहन
निराशा में
गिरो। वहीं से
सुबह है
समर्पण की।
संकल्प जहां
हारता है, वहां
समर्पण है।
जीत गये तो
जीत गये; न
जीते तो भी
हारे नहीं, क्योंकि फिर
हार में से
जीत निकल आती
है। इसलिए
धर्म के मार्ग
पर जानेवाला
कभी, कभी
भी हारता तो
है ही नहीं; जीतता है तो
जीतता है, हारता
है तो जीतता
है। परमात्मा
की तरफ
जानेवाला हर
हालत में
पहुंचता है।
क्योंकि सभी
रास्ते उसकी
तरफ जाते हैं।
जिन
मित्र ने पूछा
है, उनकी
अड़चन यह है कि
संकल्प का
पूरा प्रयोग
नहीं किया, और उस कमी को
समर्पण से
पूरा करना
चाहते हैं। संकल्प
पूरा नहीं हुआ,
तो समर्पण
कैसे पूरा
होगा? तुम्हारा
अहंकार पूरी
तरह धूल में
गिर जाना
चाहिए।
यही
तो अंजामे-जुस्तजू
है
कि ठोकरें
खाकर बुतकदों
की
जबीने-रुसवा
को रखकर अपनी
हरम की चौखट
पे सो गया हूं
जो
काफिला इस तरफ
से गुजरे,
वो एक ठोकर
मुझे लगा दे,
"जमील' मैं बीच
रास्ते में
इसी भरोसे
पे सो गया
हूं।
यही तो
अंजामे-जुस्तजू
है--यही तो खोज
का नतीजा है
कि ठोकरें खाकर
बुतकदों
की--कि बहुत पूजागृहों
की, मंदिरों
की, मूर्तिगृहों की, ठोकरें
खा-खाकर...
जबीने-रुसवा
को रखकर अपनी
हरम की चौखट
पे सो गया हूं
--अपने
बदनाम मस्तक
को अब तो तेरे
भवन के सामने सीढ़ियों
पर रखकर सो
गया हूं। अब
खोजता भी
नहीं।
जबीने-रुसवा
को रखकर अपनी
हरम की चौखट
पे सो गया हूं
जो
काफिला इस तरफ
से गुजरे
वो एक ठोकर
मुझे लगा दे
"जमील' मैं बीच
रास्ते में
इसी भरोसे
पे सो गया
हूं।
समर्पण
ऐसी घड़ी में
घटता है, जब
तुम बिलकुल
हारकर बीच
रास्ते पर
गिरकर सो गये
कि अब ठीक है, तुझे उठाना
हो उठा लेना!
तुझे जिलाना
हो जिला देना!
तुझे मारना हो
मार देना! न
अपनी अब कोई
खोज है, न
अपनी अब कोई
आकांक्षा है!
जो तेरी
मर्जी--वही पूरी
होने दे! तब
समर्पण उठता
है।
समर्पण
करने की बात
नहीं है, होने
की दशा है।
इसलिए तुम यह
तो पूछ ही
नहीं सकते कि
मुझमें
समर्पण की
शक्ति भी नहीं।
समर्पण का
शक्ति से क्या
लेना? शक्ति
की भाषा ही
समर्पण के
विपरीत है।
समर्पण तो
असहाय, बेसहारा,
पराजित...उससे
उठता है। अभी
तुम शक्ति की
भाषा में सोच
रहे हो, इसलिए
मैं कहता हूं,
थोड़ा
संकल्प कर लो।
महावीर के
रास्ते पर
थोड़ा चलो।
पहुंच गये तो
महावीर हो
जाओगे, न
पहुंचे तो
मीरा हो
जाओगे। घबड़ाना
क्या है? जो
चलता है, मैं
कहता हूं, पहुंच
ही जाता है।
महावीर
और बुद्ध
दोनों एक ही
रास्ते से
चले। दोनों का
रास्ता
संकल्प का
रास्ता था।
दोनों समसामयिक
भी थे।
थोड़े-से ही
वर्ष का फासला
था। महावीर
बारह वर्षों
तक जूझते रहे।
जूझकर
उन्होंने पा
लिया। बुद्ध
छह वर्ष के
बाद थक गये, हार गये।
रास्ता वही
था। इतने थक
गये, इतने
हार गये कि सब
छोड़कर एक दिन
वृक्ष के नीचे
बैठ गये कि बस
अब हो गया; न
संसार में कुछ
पाने योग्य है,
न आत्मा में
कुछ पाने योग्य
है--पाने
योग्य ही कुछ
नहीं तो
पाऊंगा क्या!
उस
सांझ
उन्होंने सब
छोड़ दिया। खोज
भी छोड़ दी।
उनके पांच
शिष्य, जो
उनके साथ थे
सदा, यह
देखकर कि
बुद्ध भ्रष्ट
हो गये, छोड़कर
चले गये।
उन्होंने कहा,
यह गौतम तो
अब भ्रष्ट हो
गया। इसने तो
साधना का पथ
ही छोड़ दिया।
लेकिन उसी रात
घटना घटी। उसी
रात बुद्धत्व
को बुद्ध
उपलब्ध हुए।
उसी रात दीया
जल गया।
महावीर
ने संकल्प से
पाया; बुद्ध
ने समर्पण से।
गये दोनों
संकल्प के रास्ते
पर थे। इसलिए
जैनों और
बुद्धों में
बड़ा बुनियादी
विरोध बना रहा
है; क्योंकि
जैनों को लगता
है, अगर
बुद्ध भी ठीक
हैं तो फिर
महावीर के ठीक
होने में
कठिनाई पड़ती
है। क्योंकि
बुद्ध ने तो
छोड़कर पाया, प्रयास
छोड़कर पाया; अप्रयास से
पाया। खोज ही
छोड़ दी, तब
पाया। और फिर
तो बुद्ध ने
इसे नियम बना
दिया कि तुम
तब तक न पा
सकोगे, जब
तक तुम्हारा
प्रयास
समाप्त न हो
जाये। क्योंकि
जिसे पाना है,
वह पाया ही
हुआ है; प्रयास
छोड़ो तो
दिखाई पड़
जाये। प्रयास
की आपाधापी
में दिखाई
नहीं पड़ता।
तुम दौड़ते हो,
चिल्लाते
हो, भागते
हो तो जो
मौजूद है उससे
चूक जाते हो।
महावीर
ने संकल्प से
पाया। इसलिए
बौद्धों को महावीर
प्रीतिकर
नहीं लगते।
क्योंकि अगर
महावीर ठीक
हैं तो फिर
बुद्ध का पाना
कैसे हुआ?
मैं
तुमसे कहता
हूं: दोनों
ठीक हैं। सत्य
कंजूस नहीं।
और परमात्मा
का एक ही
रास्ता नहीं।
जितने लोग हैं, उतने रास्ते
हैं। हर आदमी
वहीं से तो
चलेगा, जहां
है! तुम वहां
से चलोगे जहां
तुम हो। दूसरा
वहां से चलेगा
जहां वह है।
लेकिन सभी
रास्ते उस तक
पहुंच जाते
हैं। सत्य का
अर्थ ही यह है
कि सब द्वार
उसी तक पहुंचाते
हैं। असत्य का
बंधा हुआ
मार्ग होता
है। सत्य का
कोई बंधा हुआ
मार्ग नहीं
होता।
क्योंकि असत्य
की सीमा होती
है; सत्य
की कोई सीमा
नहीं होती।
अगर क्षुद्र
के पास जाना
हो तो सभी
रास्तों से न
पहुंच सकोगे।
अगर तुम्हें गंगा
जाना है तो
सभी रास्तों
से न पहुंच
सकोगे। लेकिन
अगर महासमुद्र
की तरफ जाना
है तो कहीं से
भी चलो, पहुंच
जाओगे। पूरब
जाओ, पश्चिम
जाओ, उत्तर
जाओ, दक्षिण
जाओ, देर-अबेर
सागर तुम्हें
मिल ही
जायेगा।
क्योंकि सागर
ने पृथ्वी को
सब तरफ से
घेरा है। कोई
रास्ते से करीब
मिलेगा, किसी
से थोड़ी दूर
मिलेगा। नाम
शायद अलग
होंगे, कहीं
हिंद महासागर
मिलेगा, कहीं
प्रशांत
महासागर
मिलेगा, कहीं
अरब सागर
मिलेगा--नाम
ही अलग होंगे,
सागर का
स्वाद एक है।
सत्य
महासागर जैसा
है; असत्य
छोटे-छोटे डबरे
हैं। अगर जरा
भी इधर-उधर
गये तो चूक
जाओगे।
समर्पण
घट सके, इसके
लिए संकल्प
पूरी तरह कर
लो।
दोनों
हालत में
संकल्प जरूरी
है। संकल्प से
पहुंचना हो तो
भी जरूरी है; समर्पण से
पहुंचना हो तो
भी जरूरी है।
संकल्प हर हाल
आवश्यक है--और
पूरा।
क्योंकि जो
थोड़ा तुमने
अधूरा किया, जो बच गया, वही तुम्हें
सतायेगा; वही
समर्पण को
घटित न होने
देगा।
और मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि इसी
मार्ग से चलोगे
तो पहुंचोगे।
अगर तुम्हें
पहुंचना है तो
ऐसा कोई भी
मार्ग नहीं है
जो तुम्हें
रोक पाये।
लेकिन
पहुंचने की एक
शर्त है: जो भी
करो, समग्र
भाव से करना।
अब समर्पण तो
किया नहीं जा
सकता, इसलिए
संकल्प ही
करो। तो यहां
भी मैं इतने
संकल्प के
प्रयोग
तुम्हें देता
हूं और समर्पण
की बात किये
चला जाता हूं।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, कभी-कभी वे
कहते हैं, आप
कहते हैं
समर्पण, कुछ
भी नहीं करना,
सिर्फ बहना
है। फिर क्यों
ध्यान? फिर
क्यों
पांच-पांच
ध्यान दिन में?
मैं जानता
हूं कुछ भी
नहीं करना, बहना है; लेकिन
तुम जैसे हो, अभी बह न
सकोगे। तुम
तैरने लगोगे।
तुम तड़फड़ाने
लगोगे।
मुर्दे
की भांति नदी
में छूट जाने
के लिए तैरने
की बड़ी गहरी
कुशलता
चाहिए। बड़ा
तैराक ही अपने
को छोड़ सकता
है नदी में।
क्योंकि बड़ा
तैराक ही भय
से मुक्त हो
जाता है। वह
जानता है कि
तैर लेंगे जब
जरूरत होगी।
अगर कोई
कठिनाई आ गई
तो तैरना तो
अपने पास है।
जितना बड़ा
तैराक हो, उतना ही
अपने को
निस्पंद छोड़
देता है।
हाथ-पैर भी
नहीं हिलाता।
क्योंकि वह
जानता है, डर
क्या है! हाथ
अपने पास हैं,
मैं सदा
मौजूद
हूं--अगर कोई
घड़ी ऐसी आई तो
तैर लूंगा।
लेकिन ऐसी घड़ी
का भय उसे
नहीं सताता।
जिसने
तैरना नहीं
जाना, उससे
मैं कहूं कि
तू कूद जा नदी
में, छोड़
दे अपने को, वह कूद भी
जाये किसी
प्रेरणा में,
किसी
उल्लास के
क्षण में, उत्साह
में, उत्तेजना
में, किसी
मदहोशी में, मेरी बात
में पड़ जाये, मेरा गीत
उसे पकड़ ले, नशे में आ
जाये, कूद
जाये--तो
कूदते ही भूल
जायेगा कि
मैंने क्या
कहा था। वह
तत्क्षण
हाथ-पैर
फेंकने
लगेगा। वह
हाथ-पैर
फेंकना अवश
होगा। उसे रोक
न सकेगा।
क्योंकि
रोकने का मतलब
होगा: मौत। उसके
सामने तो एक
ही सवाल होगा:
अगर जीना है
तो हाथ-पैर
फेंको, नहीं
मरे! नदी तो
भूल ही जायेगी,
मौत और जीवन
के बीच चुनाव
होगा। कौन
चिंता करता है
उस समय कि बहो!
तैरना जो नहीं
जानता है, वह
हाथ-पैर तड़फड़ाने
लगेगा। जो
तैरने में
बहुत कुशल है,
वही राजी
होगा; वह
कहेगा कि ठीक
है, बहकर
देख लें।
निर्भय
चित्त से बहना
संभव है।
संकल्प तुम पूरा
कर लो। उससे
तुम तैरना सीख
जाओगे। अगर
पहुंच गये
तैरने से, तो ठीक है, पहुंच ही
गये। अगर न
पहुंचे, तो
घबड़ाने
की कोई बात
नहीं। एक उपाय
शेष रह जाता
है--निरुपाय
होने का उपाय;
असहाय होने
का उपाय।
भक्ति
की वही भाषा
है। प्रेमी की
वही भाषा है।
सूफियों की, नानक की, कबीर
की, मीरा
की, चैतन्य
की, वही
भाषा है: छोड़
दो! लेकिन
इसके पहले वे
बड़े निष्णात
हो चुके हैं
तैरने में।
ऐसे ही, बिना
तैरना जाने
कौन कब छोड़
पाया है? तुम्हारे
अचेतन से इतने
जोर का भय उठेगा
कि उस भय से
तुम प्रभावित
हो जाओगे, तड़फड़ाने लगोगे; चिल्लाने
लगोगे: बचाओ!
कहते
हैं, जब कोई
संगीतज्ञ
परिपूर्ण रूप
से पारंगत हो
जाता है, तो
वीणा तोड़ देता
है; क्योंकि
फिर वीणा से
भी सूक्ष्म
संगीत में बाधा
पड़ती है। वीणा
भी तो कोलाहल
ही पैदा करती
है। मधुर कोलाहल,
पर है तो
कोलाहल ही। जब
कोई और गहरे
संगीत में उतरने
लगता है, जहां
शून्य की
ध्वनि बजती है,
जहां शून्य
का अनाहत नाद
है; तो
वीणा भी हटा
देता है, वीणा
भी छोड़ देता
है। अब तो
भीतर का
अंतरंग बजने
लगा, अब
बाहर के सहारे
कौन लेता है!
ऐसा ही
मैं तुमसे
कहता हूं। समर्पण
में जो उतरना
चाहता हो, संकल्प में
कुशल हो जाना
जरूरी है।
इसलिए तो इन
विपरीत
मार्गों की
तुमसे चर्चा
करता रहता हूं,
ताकि कोई
मार्ग
तुम्हें पकड़ न
ले। और इन
विपरीत का
उपयोग तुम रोज
करते हो
सामान्य जीवन
में; लेकिन
परमात्मा की
तरफ जाते वक्त
भूल जाते हो।
जरा
व्यवहारिक
बनो! चलते हो
तुम, तो
तुम्हारे
दोनों पैर एक
साथ नहीं चलते;
एक पैर खड़ा
रहता है तो
दूसरा उठता
है। दोनों विपरीत
काम करते हैं:
एक खड़ा रहता
है--अडिग, जमीन
को पकड़कर;
दूसरा उठता
है, आगे
जाता है। फिर
दूसरा खड़ा हो
जाता है तो
पहला उठता है,
आगे जाता
है।
तुमने
खयाल किया, इस वैपरीत्य
में ही
तुम्हारी गति
है। अगर दोनों
पैर एक साथ
उठा लो; गिरोगे,
बुरी तरह
गिरोगे, हाथ-पैर
तोड़ लोगे। फिर
कभी चल न
पाओगे। अगर दोनों
पैर जमाकर खड़े
हो जाओ तो भी न
चल पाओगे। चलना
हो तो एक पैर
समर्पण का, एक पैर
संकल्प का।
पक्षी उड़ता
है, दो पंख
चाहिए--दोनों
अलग-अलग
दिशाओं में
फैले हुए। एक
ही पंख से तो
पक्षी डूब
जायेगा।
एक
फकीर, सूफी
फकीर को उसके
शिष्य ने पूछा
कि "क्या अकेले
संकल्प से
पहुंचना न हो
सकेगा या
अकेले समर्पण
से?' वह
फकीर नदी के
किनारे खड़ा
था। वे नदी के
पार जाने की
तैयारी कर रहे
थे। उस फकीर
ने कहा, आओ
रास्ते में
उत्तर दे
दूंगा। नाव
में दोनों बैठ
गये।
साधारणतः तो
शिष्य ही नाव
को चलाता था, लेकिन उस
दिन गुरु ने
कहा, मैं
ही नाव चलाता
हूं। उसने एक
पतवार से नाव खेनी शुरू
कर दी। अब नाव
दो पतवार से
चलती है। एक
पतवार से तो
नाव गोल-गोल
घूमने लगी, वर्तुलाकार
चक्कर मारने
लगी। उसका
शिष्य हंसने
लगा। उसने कहा,
"आप क्या
मजाक कर रहे
हैं? आपको
मालूम नहीं
चलाना, मुझे
दें। कहीं एक
पतवार से नाव
चली है? ऐसे
तो हम यहीं
चक्कर खाते
रहेंगे।'
तो
गुरु ने कहा, एक पतवार का
नाम समर्पण है
और दूसरी
पतवार का नाम
संकल्प। और
जिसने एक से
चलाने की
कोशिश की, वह
मुश्किल में
पड़ेगा।
अब तुम
इसे ऐसा
समझो--बड़ा
विरोधाभास
लगेगा--समर्पण
करना हो तो भी
तो मूलतः
संकल्प
चाहिए। संकल्पहीन
कैसे समर्पण
करेगा? समर्पण
कोई छोटी घटना
है? किसी
के चरणों में
अपने को छोड़
देना, कोई
छोटा निर्णय
है? इससे
बड़ा और कोई
निर्णय हो
सकता है? हवाओं
के सहारे सूखे
पत्ते की
भांति अपने को
छोड़ देना, इससे
बड़ा कोई और
निर्णय हो
सकता है? इतना
अभय, इतना
गैर-डांवांडोल
चित्त...तो
समर्पण का भी
पहला कदम तो
संकल्प है। और
संकल्प की भी
आत्यंतिक
परिपूर्णता
समर्पण में
है। क्योंकि
करते-करते तो
तुम थकोगे
ही। कभी तो
ऐसी घड़ी आनी
चाहिए जब करने
से छुटकारा
हो--उसी को तो
हम मोक्ष कहते
हैं। करा, किया,
बहुत किया,
जन्मों-जन्मों
तक किया, कर-करके
ही तो हमने
अपने जीवन को
उलझा लिया है।
इसलिए इस
उलझाव के मूल
आधार को हम
कर्म कहते हैं।
कर्म का अर्थ
है: जो किया।
और हम कहते
हैं, कर्म
से कैसे
छुटकारा हो?
लोग
मुझसे पूछते
भी हैं
कभी-कभी आकर, कर्म से
कैसे छुटकारा
हो? लेकिन
मुझे लगता है,
उन्हें ठीक
याद नहीं रहा
कि कर्म का
अर्थ क्या
होता है--करने
से कैसे
छुटकारा हो? अकर्ता-भाव
का कैसे जन्म
हो? कब ऐसी
घड़ी आयेगी जब
मैं सिर्फ हो
सकूं और करने
की कोई रेखा न
बचे?
करने
को कुछ भी न
रहे, होना
परिपूर्ण हो
जाये--उसको हम
मोक्ष कहते हैं।
मोक्ष का अर्थ
है: जहां तुम
हो, विश्व
के साथ ऐसी
संगति में, विश्व के
साथ ऐसे
तारतम्य में,
विश्व के
साथ ऐसे संगीत
में लयबद्ध; कि तुम कुछ
भी नहीं करते,
विश्व ही
करता है; तुम
उसके साथ बहते
हो।
संकल्प
का भी अंतिम
परिणाम
समर्पण है; और समर्पण
की भी शुरुआत,
प्रथम चरण
संकल्प है।
इसलिए मैं
तुमसे कहूंगा,
तुम अभी
संकल्प की ही
चिंता कर लो।
दूसरा
प्रश्न:
आपका
कहना है कि
प्यास है तो
जल भी होगा
ही। यही नहीं, प्यास इसलिए
है कि कहीं जल
है। और आपने
तो यहां तक
कहा कि प्यासा
ही जल को नहीं
खोजता, जल
भी प्यासे को
खोजता है। तब
जानना चाहता
हूं कि प्यासे
और पानी के
बीच कभी-कभी
इतनी दूरी मालूम
देती है कि
प्यासा पानी
तक नहीं जा
पाता; या
कि प्यासा
अंधा और बहरा
है कि न उसे जल
दीखता है, न
उसका कलकल नाद
सुनाई देता
है। और
कभी-कभी तो जल
के बीच रहकर
भी आदमी
प्यासा रह
जाता है। मुझे
अपने बारे में
कुछ ऐसा ही
लगता है।
कृपापूर्वक
मुझे
मार्ग-निर्देश
दें।
निश्चित
ही यह खोज
एकतरफा नहीं
है। एकतरफा हो
तो कभी पूरी न
होगी। अगर
तुम्हीं सत्य
को खोज रहे हो
और सत्य
तुम्हें न खोज
रहा हो, तो
मिलने की कोई
संभावना नहीं
है। अगर सत्य
भी आतुर न हो
तुमसे मिल
जाने को, तो
सत्य फिर अपने
को छिपाये चला
जायेगा। तुम उघाड़े
जाओगे, वह
छिपाये
जायेगा। फिर
तो ऐसा हो
जायेगा जैसे द्रौपदी
का चीर बढ़ता
गया। वह उघड़ने
को राजी न थी।
वह उस दरबार
में नग्न होने
को राजी न थी।
नग्न करने की
चेष्टा दरबारियों
की थी, दुर्योधन
की थी, उसके
मित्रों की
थी--पर
द्रौपदी
सहयोगी न थी। चीर
बढ़ता चला गया।
वे उघाड़ते
गये, चीर
बढ़ता चला गया,
द्रौपदी
ढकती चली गई।
यह
कहानी बड़ी
बहुमूल्य है, बड़ी प्रतीकात्मक
है। लेकिन
द्रौपदी जब
किसी को प्रेम
करती होगी, तब तो नग्न
हो जाती होगी।
तब तो भीतर
गहन में यह
आकांक्षा
होती होगी, कोई उघाड़ ले,
किसी के
सामने सब खोल
दूं, कुछ
भी छिपाया हुआ
न रह जाये!
अगर
परमात्मा तुम
से बच रहा है
तो एक बात
पक्की है--इस
दौड़ में तुम
जीत न
पाओगे--वह
बचना चाह रहा
है और तुम खोज
रहे हो। वही
जीतेगा। उसके
पास विराट
ऊर्जा है, बड़ी शक्ति
है; तुम्हारे
पास है क्या? अगर वह परम
सत्य ही तुमसे
बचना चाह रहा
है तो फिर तुम
जीत नहीं सकते,
तुम्हारी
हार निश्चित
है। लेकिन
आदमी जीते हैं।
महावीर जीते,
बुद्ध जीते,
कृष्ण, क्राइस्ट
जीते। आदमी
जीते हैं। एक
बात साफ है कि
वह भी उघड़ने के
लिए राजी है।
वह घूंघट
मारकर बैठा हो,
मगर चाहता
है कि तुम
घूंघट उठाओ।
बड़ी भीतर आकांक्षा
है कि तुम पास
आओ, खोजो।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि पानी भी
तुम्हारे
द्वारा पीये
जाने को
प्यासा है।
तुम्हीं जल को
नहीं खोज रहे
हो, जल भी
तुम्हें खोज
रहा है।
गर
न होतीं कैदे-रस्मो-राह
की मजबूरियां
शमा
खुद उड़कर
पहुंचती अपने
परवानों के
पास।
--अगर
जीवन के नियम
न होते, व्यवस्था
के सूत्र न
होते...। गर न
होतीं कैदे-रस्मो-राह
की मजबूरियां!
हजार नियम हैं,
व्यवस्था
है। और कम से
कम व्यवस्था
जिसने बनाई है,
वह तो पालेगा
ही।
गर
न होतीं कैदे-रस्मो-राह
की मजबूरियां
शमा
खुद उड़कर
पहुंचती अपने
परवानों के
पास।
--परमात्मा
खुद तुम्हारे
पास आ जाता।
शायद आता भी
है, तुम
पहचान नहीं
पाते।
क्योंकि जब तक
तुम उस खोज पर
न निकलो, तुम
न पहचान
पाओगे। यह खोज
दोनों तरफ से
हो, यह आग
दोनों तरफ से
लगी हो, तो
ही परिणाम हो
सकता है। अगर
भक्त अकेला
भगवान, भगवान,
भगवान
चिल्लाता रहे;
भगवान बहरा
हो, या
सुनने को राजी
न हो, या
बचना चाहता हो,
तो
तुम्हारी
चीख-पुकार
सूने आकाश में
खो जायेगी।
लेकिन नहीं, पुकार सुनी
गई है।
प्रार्थना
कभी न कभी उस
हृदय तक पहुंच
जाती है। अगर
न पहुंचती हो
तो कारण यह
नहीं है कि वह
सुनने को
उत्सुक नहीं
है, कारण
कुछ और होंगे।
या तो तुम गलत
दिशा में चिल्ला
रहे हो; या
तुम पूरे मन
से बुला ही
नहीं रहे हो; या बुलाने
के साथ-साथ
तुम भीतर डरे
भी हो कि कहीं
सुन ही न लेना!
मैंने
सुना है, एक
आदमी लौटता था
लकड़ियां
अपने सिर पर
लेकर। थक गया
है, बूढ़ा
हो गया है
सत्तर साल का।
लकड़ी
काटते-काटते
जिंदगी बड़ी ऊब
हो गई है।
जैसा कि अनेक
बार लोग कहते
हैं, ऐसा
ही उसने कहा।
मुहावरा था, कुछ मतलब न
था। ऐसे ही कहा
कि हे भगवान!
अब कब तक और
जिंदगी घसिटवानी
है? मौत को
मुझे ही क्यों
नहीं भेजता? जवानों को आ
जाती है, मुझे
क्यों लटकाये
हुए है? अब
तो भेज! अब तो
मैं मरने को
राजी हूं कि
यह जीवन बहुत
हो गया! यह
सुबह से रोज
लकड़ी काटना, यह दिनभर
लकड़ी इकट्ठी
करना, सांझ
बेचकर किसी
तरह रोटी पेट
के लिए जुटानी,
रात सो जाना,
फिर सुबह
यही! आखिर सार
क्या है? अब
तो भेज दे मौत
को!
ऐसा
होता नहीं
अकसर कि इतनी
जल्दी मौत आ
जाये, पर उस
दिन आ गई। मौत
को सामने
देखकर लकड़हारा
घबड़ा गया।
अपने गट्ठर को
नीचे रखकर
सुस्ता रहा था
झाड़ के नीचे, मौत ने कहा,
"मैं आ गई।
बोलो, क्या
काम है?'
उसने
कहा, "कुछ और
नहीं है, यहां
कोई दिखाई न
पड़ता था, गट्ठर
उठवाकर मेरे
सिर पर रखना
है। इतनी कृपा
करो, इस
गठरी को मेरे
सिर पर वापस
रख दो। बहुत
धन्यवाद! और
आगे बुलाऊं
भी तो ऐसा
कष्ट मत करना!'
तुम
बुलाते भी हो
तो तुम्हारा
बुलावा पूरा
है? हार्दिक
है? तुम्हारा
रोआं-रोआं
उसमें
सम्मिलित है
कि एक पर्त
इनकार किये
चली जा रही है?
एक पर्त
कहती है, अभी
कोई
प्रार्थना के
दिन हैं, अभी
तो तुम जवान
हो! ये तो
बुढ़ापे की
बातें हैं।
बुढ़ापे की भी
कहां, लोग
जब मरने लगते
हैं तभी! जब
जीभ लड़खड़ा
जाती है, जब
खुद बोलते भी
नहीं बनता, तब किराए के
पंडित-पुरोहित
कान में
राम-राम जप
देते हैं!
जिंदा
रहते-रहते तो
आदमी और हजार
वासनाओं में
उलझा रहता है,
परमात्मा
की वासना
निर्मित कहां
होती है?
जब
सारी वासनाएं
उस एक वासना
में तिरोहित
हो जाती हैं, जैसे सभी नदियां
समुद्र में
गिर जाती हैं;
ऐसे जब
तुम्हारी
सारी आकांक्षाएं
एकजुट
परमात्मा की
तरफ प्रवाहित
होती हैं, अभीप्सा
होती है, तब
प्रार्थना
पैदा होती है।
फिर क्षणभर
भी देर नहीं
लगती। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि फिर
अगर परवाना न
भी जाये तो
शमा उड़कर
उसके पास आ
जाती है।
तुम्हीं
नहीं खोज रहे, वह भी खोज
रहा है।
इजिप्त
में पुराना
वचन है कि अगर
उसने न खोजा होता
तो तुम्हारे
मन में उसे
खोजने की बात
भी पैदा न
होती। कहते
हैं कि जो
उसकी खोज पर
निकलता है, वह वही है, जिसे
परमात्मा ने
खोज ही लिया।
तुम प्यासे ही
तब होते हो
उसके लिए, जब
किन्हीं गहरे
अर्थों में, कहीं किसी
गहरी गहराई पर
उसने
तुम्हारे
हृदय पर हाथ
रख दिया। सभी
तो उसे खोजने
नहीं निकलते।
कभी-कभी कोई
दीवाना हो
उठता है। जरूर
उसने अपने
मधु-पात्र से
कोई मदिरा तुम
में उंड़ेल
दी। शायद
तुम्हें भी
पता नहीं है, इतनी गहराई
पर उंड़ेली।
शायद तुम्हारे
प्राणों के
प्राण, तुम्हारे
केंद्र पर उंड़ेली।
वहां तो तुम
कभी जाते नहीं,
तुम तो
बाहर-बाहर
घूमते रहते
हो। तुम तो घर
कभी आते नहीं।
मेरे
देखे भी ऐसा
ही है। जो
परमात्मा को
चुनता है, वह इसकी खबर
दे रहा है कि
परमात्मा ने
उसे चुन लिया।
तिब्बत
में भी ऐसी एक
लोकोक्ति है
कि शिष्य थोड़े
ही गुरु को
चुनता है, गुरु शिष्य
को चुनता है।
लगता यही है
कि शिष्य ने
चुना; क्योंकि
शिष्य का
अहंकार अभी
"मैं' के
आसपास जीता
है। वह कहता
है, मैं
दीक्षित हो
रहा हूं! वह
कहता है, मैंने
इस गुरु को
चुना! लेकिन
जिन्होंने
तिब्बत में यह
लोकोक्ति
बनाई होगी, वे जानते
थे। तिब्बत
में
गुरु-शिष्य की
परंपरा अति
प्राचीन है, अति शुद्ध
है। वे ठीक
जानते हैं। वे
ठीक कह रहे
हैं कि गुरु
शिष्य को
चुनता है।
कहता नहीं, क्योंकि
कहने से भी हो
सकता है, शिष्य
छिटक जाये।
कहने से भी हो
सकता है, शिष्य
में प्रतिरोध
पैदा हो जाये।
कहने से भी हो
सकता है, उसके
अहंकार को चोट
लग जाये, घाव
बन जाये और जो
पास आता था, दूर निकल
जाये। गुरु
कुछ कहता भी
नहीं। वह यह भी
स्वीकार कर
लेता है कि
तुमने मुझे
चुना। लेकिन
मैं भी यही
तुमसे कहता
हूं कि जब तक
गुरु ने
तुम्हें नहीं
चुना है, तुममें
चुनने का सवाल
ही न उठेगा, तुम्हें यह
भाव ही पैदा न
होगा, यह
हिम्मत ही न
आयेगी, यह
साहस ही न जन्मेगा।
तो
अड़चन कहां
होगी? तुम
भी खोजते हो, परमात्मा भी
खोजता
है--अड़चन कहां
है? मिलन
होता क्यों
नहीं?
पहली
बात--तुम लगते
हो कि खोजते
हो, खोजते
नहीं। दांव पर
तुम कुछ भी
नहीं लगाते।
तुम परमात्मा
को मुफ्त पाना
चाहते हो। तुम
क्षुद्र
चीजों की तलाश
में भी जीवन
दांव पर लगा
देते हो। मजनू
लैला को खोजता
है, तो
जैसा दांव पर
लगा देता है; ऐसा तुमने
परमात्मा की
खोज में अपने
को दांव पर
लगाया? नहीं,
तुम
परमात्मा को
भी अपने जीवन
में थोड़ी जगह
देते हो, चौबीस
घंटे में पांच
मिनट
पूजा-प्रार्थना
कर लेते हो।
वह भी
जल्दी-जल्दी
निपटा देते
हो। वह भी एक
औपचारिकता है,
जिसको कर
लेना है; वह
भी तुम्हारी
चालाकी, होशियारी
का हिसाब है
कि पता नहीं, परमात्मा हो
ही, तो यह
कहने को तो
रहेगा कि
ध्यान रख, रोज
पांच मिनट
तेरी
प्रार्थना
करते थे, कितनी
मालाएं सरकाईं, रोज गीता
पढ़ते थे! कहीं
मौत के बाद
ऐसा हो ही कि परमात्मा
हो, तो
हमारे पास कुछ
कहने को होगा,
कुछ
बैंक-बैलेंस
होगा, हम
खाली हाथ न
होंगे! न हुआ
तो कुछ बिगड़ता
नहीं है।
पांच-दस मिनट
खर्च भी हो
गये तो क्या
हर्ज है! हुआ
तो काम आ
जायेगी बात।
तुम
होशियार हो!
तुम दो नावों
पर सवार रहते
हो। तुम्हारी
प्रार्थना भी
तुम्हारा
गणित है। वहीं
तो प्रार्थना
मर जाती है।
क्योंकि प्रार्थना
गणित हो ही
नहीं सकती।
उन्माद है
प्रार्थना।
पागलपन है
प्रार्थना।
दीवानगी है
प्रार्थना।
एक नशा है।
गणित नहीं, हिसाब-किताब
नहीं।
तुम्हारी
प्रार्थना जब
पागल हो
जायेगी, तो
पूरी हो
जायेगी। जब
परमात्मा
तुम्हें सब तरफ
से घेर लेगा, सुबह भी
उसकी, सांझ
भी उसकी, भर
दोपहरी भी
उसकी, तुम
उठोगे-बैठोगे
तो भी उसमें
ही लीन रहोगे;
बाजार भी
जाओगे तो
ऊपर-ऊपर बाजार
होगा, भीतर-भीतर
उसकी याद होगी;
दुकान पर भी
बैठोगे तो
ऊपर-ऊपर से
ग्राहक को देखोगे,
भीतर-भीतर
उसी का दर्शन
होगा--जब
तुम्हारा चौबीस
घंटे का जीवन
अहर्निश; भीतर-बाहर
आती
श्वास-प्रश्वास
की भांति उस
पर समर्पित
होगा--तो मिलन
हो जायेगा।
तो
पहली तो बात, तुम बातें
करते हो मिलने
की, दांव
पर कुछ नहीं
लगाते। और यह
दांव कुछ ऐसा
है कि पूरा ही
पूरा लगाओगे
तो ही लगेगा; रत्तीभर भी
बचाया तो चूक
जाओगे।
क्योंकि उस बचाने
में ही
अश्रद्धा आ
गई। उस बचाने
में ही चालाकी
आ गई, भोलापन
खो गया।
प्रार्थना तो
निर्दोष भाव
है। पूरा का पूरा
कोई अपने को
रख देता है, जरा भी
बचाता नहीं।
यह नहीं सोचता
कि ऐसे कहीं
ऐसा न हो कि
दांव खतम हो
जाये, नाहक,
थोड़ा तो बचा
लूं!
इसलिए
मैं कहता हूं:
प्रार्थना
जुआरी कर सकता
है, दुकानदार
नहीं।
दुकानदार तो
सोच-समझकर
चलता है, "इतना
लगाऊंगा, कितना
मिलेगा? अगर
खोया भी तो
बहुत ज्यादा
तो न खो
जायेगा? इतना
खोये कि जिसकी
पूर्ति हो
सके।'
जुआरी
सब दांव पर
लगा देता है, कुछ बचाता
नहीं। उतना
साहस चाहिए और
जुआरी तो वस्तुएं
दांव पर लगाता
है, धन-पैसा
दांव पर लगाता
है; भक्त, प्रार्थी, अपने को
दांव पर लगाता
है। क्योंकि
परमात्मा को
पाना हो तो
स्वयं को ही
दांव पर लगाना
पड़ेगा। स्वयं
की कीमत पर ही
मिलता है।
तो
पहली बात, तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी है, मिथ्या
है। तुम्हारी
पूजा औपचारिक
है; लोक-व्यवहार
है, पूजा
नहीं है।
दूसरी बात, तुम
परमात्मा को
चाहते हो या
परमात्मा के
नाम पर कुछ और
चाहते हो? प्रार्थना
तुम्हारी
झूठी है, परमात्मा
भी तुम्हारा
अंतिम गंतव्य
नहीं है। लोग
परमात्मा को
चाहते हैं कि
चलो, उसकी
प्रार्थना से
धन मिलेगा, पद मिलेगा, प्रतिष्ठा
मिलेगी, तो
वस्तुतः तो पद,
प्रतिष्ठा
और धन चाहते
हैं; परमात्मा
का तो साधन की
तरह उपयोग कर
लेना चाहते
हैं। वे तो
परमात्मा को
भी चाकर की
तरह अपने काम
में लगा लेना
चाहते हैं।
लेकिन उनका
असली लक्ष्य
और है। अगर
शैतान उन्हें
धन दे, तो
वे शैतान की
पूजा करेंगे।
जो उन्हें धन
दे, उसकी
पूजा करेंगे।
जो उन्हें पद
दे, उसकी
पूजा करेंगे।
जो उन्हें पद
दे, वही
उनका परमात्मा
हो जायेगा।
परमात्मा गौण
है, कुछ और
मूल्यवान है,
कुछ और पाने
की तलाश है।
तो तुम
परमात्मा को
साधन नहीं बना
सकते हो; बनाओगे
तो चूक जाओगे।
परमात्मा परम
साध्य है।
अपने को तुम
उसका साधन बना
लो, फिर
मिलने में देर
न होगी।
तीसरी
बात, परमात्मा
बहुत निकट है,
निकट से भी
निकट है। निकट
कहना भी गलत
है, क्योंकि
निकट में भी
थोड़ी दूरी आ
जाती है। परमात्मा
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
समाया है। वह
इतने पास है
कि तुम्हारे
और उसके बीच
स्थान नहीं है,
जगह नहीं
है। इसलिए भी
चूकना होता
रहता है। जब
तुम इतने शांत
हो जाओगे, जब
तुम इतने थिर
हो जाओगे, जब
तुम्हारे
जीवन की लौ
अकंप हो
जायेगी, तभी
तुम देख पाओगे,
जो निकट से
भी निकट है।
मुहम्मद
ने कहा है कि
गर्दन में जो
प्राण को प्रवाहित
करनेवाली
नाड़ी है, जिसके
काट देने से
आदमी मर जाता
है। वह भी दूर है;
परमात्मा
उससे भी
ज्यादा पास
है। लेकिन
इतने पास को
जानने के लिए
तुम्हें भी
पास आना पड़ेगा।
तुम अपने से
बहुत दूर निकल
गये हो।
तुम्हारी
वासनाएं जहां
हैं, वहीं
तुम हो।
वासनाएं
तुम्हारी बड़ी
दूर भविष्य
में फैली हैं।
तुम पास आते
ही नहीं।
निर्वासना जब
पैदा होती है,
तो
प्रार्थना
पैदा होती है।
तुम अपने पास
आ जाते हो।
पास जैसे-जैसे
आने लगते हो, उसकी धुन
बजने लगती है।
जैसे-जैसे पास
आते हो, उसकी
सुगंध आने
लगती है।
जैसे-जैसे पास
आते हो, उसका
कलकल-नाद
सुनाई पड़ने
लगता है, अनाहत
सुनाई पड़ने
लगता है। फिर
तो तुम नाचने
लगते हो। फिर
तुम चलते
नहीं। फिर
नाचकर दौड़ते हो
घर की तरफ।
फिर तो
तुम्हारे
जीवन में
घूंघर बंध जाते
हैं गीत बंध
जाते हैं। फिर
तो तुम मस्ती
में तरोबोर
हो जाते हो।
लेकिन
अपने पास आओ।
परमात्मा के
पास आने का एक
ही उपाय है:
अपने पास आओ!
परमात्मा कोई
दूसरा नहीं है, तुम्हारा ही
परम अस्तित्व
है, तुम्हारी
नियति है। तुम
अगर बीज हो तो
परमात्मा
वृक्ष है। तुम
अगर कली हो तो
वह फूल है। वह
तुम्हारा ही
पूरा-पूरा खिलाव
है। पास आओ।
करीब आओ। अपने
में थिर बनो।
मैं
सुन रहा हूं
तेरे दिल की धड़कनें पैहम
है
तेरा दिल मुतजस्सिस
कहीं जरूर
मेरा।
मैं
अपने हृदय में
भी तेरे ही
दिल की धड़कनें
सुन रहा हूं।
मैं सुन रहा
हूं तेरे दिल
की धड़कनें
पैहम--लगातार, सतत, अनवरत!
इस दिल की
धड़कन में भी
उसकी ही धड़कन
है। सुननेवाला
चाहिए।
तुम्हारे कान
इतनी व्यर्थ
की आवाजों
से भरे हैं कि
तुम्हें अपने
दिल की धड़कन
सुनाई ही नहीं
पड़ती।
पश्चिम
के एक विचारक
ने अपनी डायरी
में लिखा
है--बड़ा
संगीतज्ञ
है--कि अमरीका
में एक
प्रयोगशाला
में वह गया।
गया था कुछ
कारण से। उसे
खबर मिली थी
कि वहां एक
प्रयोगशाला
बनाई गई है, जो परिपूर्ण
रूप से
साउंड-प्रूफ
है, सौ
प्रतिशत। कोई
आवाज, किसी
तरह की आवाज
भीतर नहीं
आती। तो वह
गया। वह जानना
चाहता था कि
परम सन्नाटा
कैसा होता है।
क्योंकि संगीतज्ञ
था और परम
सन्नाटे से
पहचान चाहता
था। क्योंकि
संगीत भी उसी
तरफ ले जाता
है। वह भीतर गया
तो वह बड़ा
हैरान हुआ:
बिलकुल
सन्नाटा था, लेकिन दो
आवाजें आ रही
थीं। वह
साफ-साफ सुन
सका। उसने, जो आदमी उसे
दिखा रहा था
प्रयोगशाला, उससे पूछा
कि तुम तो
कहते हो कि यह
सौ प्रतिशत साउंड-प्रूफ
है, ध्वनि
किसी तरह की
यहां नहीं आ
सकती; लेकिन
मैं दो आवाजें
सुन रहा हूं।
वह जो साथ था, हंसने लगा।
उसने कहा, वे
दो आवाजें
आपके भीतर हैं;
वे बाहर से
नहीं आ रहीं।
एक आवाज है
तुम्हारे हृदय
की। इतने जोर
से धक-धक हो
रही थी कि उसे
याद भी न रहा कि
यह हृदय की
आवाज हो सकती
है। और दूसरी
आवाज है
तुम्हारे खून
की गति की; रगों
में जो खून
दौड़ रहा है, उसका
कलकल-नाद। ये
आवाजें बाहर
से नहीं आ रही हैं।
लेकिन
बाहर की
आवाजें जब
बिलकुल बंद
थीं, तब ये
सुनाई पड़ीं।
हो तो यह
तुम्हें भी
रही हैं; उसको
भी हो रही थीं,
रोज चौबीस
घंटे चल रही
हैं। लेकिन
इतना शोरगुल
है कि उसमें
ये धीमी-धीमी
आवाजें खो
जाती हैं।
हृदय की धड़कन,
खून की गति,
ये भी तुमसे
बाहर हैं। एक
और आवाज है
जहां हृदय की
धड़कन भी बंद
हो जाती है और
खून की गति भी
बंद हो जाती
है, तब
सुनी जाती है।
उसको हमने
ओंकार कहा है,
अनाहत-नाद
कहा है, प्रणव
कहा है।
मैं
सुन रहा हूं
तेरे दिल की धड़कनें पैहम
है
तेरा दिल मुतजस्सिस
कहीं जरूर
मेरा।
--और
इससे मुझे ऐसा
लगता है कि
मैं ही तुझे
नहीं खोज रहा,
तेरा दिल भी
मेरी तलाश कर
रहा है--चूंकि
तेरी आवाज मैं
अपने हृदय में
सुनता हूं।
तुम्हारे
भीतर उसी ने
रूप धरा है।
उसी ने तुम्हारे
जीवन में रंग
भरा है। जिसकी
तुम तलाश कर
रहे हो, वह
तुम्हारे घर
में आकर बैठा
है। तुम
दरवाजे पर आंख
लगाये अतिथि
की राह देख
रहे हो--और
अतिथि कभी घर
के बाहर गया
नहीं। तुम
बाहर बैठे हो,
आंगन में
खड़े हो, राहगीरों
को देख रहे हो
कि कब आयेगा
मेहमान, वह
प्यारा कब
आयेगा! हर
राहगीर की
आवाज में तुम्हें
भनक आती है, शायद आ गया!
उड़ते पत्ते
तुम्हें भ्रम
दे जाते हैं
कि शायद आ गया!
हवा के झोंके
वृक्षों में सरसराहट
करते हैं और
तुम्हें लगता
है, शायद आ
गया! तुम
चौंक-चौंक
उठते हो। तुम
चौबीस घंटे
तने रहते हो
कि शायद अब
आये, अब
आये, पता
नहीं कब आये!
और कहीं ऐसा न
हो कि वह आये
और तैयारी
अधूरी हो! तो
तुम राह पर
खड़े राह देखते
रहते हो! वह
तुम्हारे घर
में बैठा है।
वह तुम्हारे
होने से पहले
तुम्हारे घर
में बैठा है।
मेजबान के
पहले मेहमान आ
गया है। घर आओ!
तुम उसे भीतर
बैठा पाओगे।
बोधिधर्म
जब ज्ञान को
उपलब्ध हुआ तो
कहते हैं, वह बड़े जोर
से खिलखिलाकर
हंसा। उसके
आसपास और भी
साधक थे।
उन्होंने
पूछा, "क्या
हुआ?' उसने
कहा, "हद्द
हो गई! मजाक की
भी एक सीमा
होती है।
जिसकी हम तलाश
करते थे, उसे
घर में बैठा
पाया। जिसे हम
खोजने निकले
थे, वह खोजनेवाले
में ही छिपा
था। खूब मजाक
हो गई।' फिर
बोधिधर्म
कहते हैं, जिंदगी
भर हंसता ही
रहा। जब भी
कोई परमात्मा
की बात करता, वह हंसने
लगता। वह कहता,
यह बात ही
मत छेड़ो।
यह बड़े मजाक
की बात है। यह
बड़ा गहरा
व्यंग्य है।
चूकोगे
इसलिए नहीं कि
वह दूर है--चूक
रहे हो इसलिए
कि वह
बहुत-बहुत पास
है, पास से भी
पास है। लौटो!
पहले घर में
तलाश कर लें, फिर बाहर निकलें।
क्योंकि बाहर
तो बड़ा
विस्तार है। चांदत्तारों
तक कहां खोजते
रहोगे? घर
को तो पहले
खोज लो। वहां
न मिले तो फिर
बाहर जाना।
लेकिन जिसने
भी घर में
खोजा है, उसे
पा ही लिया
है। इसका
अपवाद कभी भी
नहीं हुआ है।
तीसरा
प्रश्न:
आप
मुझे
बहुत-बहुत
अच्छे लगते
हैं। मुझे
आपके प्रेम
में रोने के
अतिरिक्त कुछ
नहीं सूझता। कैसे
कहूं उस प्रेम
को! और
आश्चर्य है कि
मैं अकसर आपके
प्रति
अनाप-शनाप भी
बकता हूं; कभी-कभी
गाली भी देता
हूं। यह क्या
है?
मैं
एक बार मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर मेहमान
था। वह अपने
बेटे को समझा
रहा था, डरा
रहा था; क्योंकि
बेटा भद्दी
गालियां
पास-पड़ोस से सीखकर आ
जाता था। तो
उसने एक तख्ती
पर लिखकर कमरे
में बेटे के
टांग दिया था,
कि अगर तूने
"बदमाश' शब्द
का उपयोग किया
तो पांच पैसा
जुर्माना; अगर
"गधे' शब्द
का उपयोग किया
तो दस पैसे
जुर्माना, अगर
"साला' शब्द
का उपयोग किया
तो बीस पैसे
जुर्माना, अगर
"हरामजादा' शब्द का
उपयोग किया तो
चालीस पैसे
जुर्माना। पचास
पैसे वह अपने
बेटे को
जेब-खर्च के
लिए रोज देता
है।
बेटा
हंसने लगा। वह
सुनता रहा और
देखता रहा और
हंसने लगा। तो
उसने पूछा, "तू हंसता
क्यों है? बात
क्या है?'
उसने
कहा कि मुझे
ऐसी भी
गालियां आती
हैं कि रुपया
भी कम पड़ेगा।
गालियां
तुम्हें आती
हैं, तो तुम
जिससे भी संबंध
बनाओगे उसी की
तरफ बहने
लगेंगी। जो
तुम्हें आता
है वही तो
बहेगा।
गालियां ही
तुमने जीवन
में सीखी हैं,
तो तब जब
तुम प्रेम में
भी पड़ते हो तो
प्रेम में भी
तुम्हारी
गालियां
प्रवाहित
होने लगती हैं।
आखिर तुम्हीं
तो बहोगे न
अपने प्रेम
में? तो
तुमने जीवनभर
में जो
दुर्गंध
इकट्ठी की है,
वह
तुम्हारे
प्रेमी पर भी
तो पड़ेगी।
आखिर प्रेम
"तुम' करोगे
तो तुम्हारी
गालियां कहां जायेंगी?
इसे
समझने की
कोशिश करना।
तुम शायद
सोचते हो, तुम शत्रुओं
को ही गाली
देते हो--गलत।
अगर गाली देना
तुम्हारी आदत
में शुमार है,
अगर गाली
देने की तुम्हारी
भीतर संभावना
है, तो
शत्रु को तुम
प्रगट में
देते होओगे, मित्र को
तुम अप्रगट
में देते
होओगे--मगर
दोगे जरूर। जो
तुम्हारे पास
है वह तो तुम
बांटोगे।
मित्र को शायद
मजाक में
दोगे--मगर
दोगे जरूर।
ऐसे
लोग हैं कि जब
तक उनमें
गाली-गुफ्ता
का संबंध न हो
तब तक वे
मित्रता ही
नहीं मानते।
जब तक "आइये', "बैठिये',
"आप कैसे
हैं' इत्यादि
शब्दों का
प्रयोग करना
पड़ता है, तब
तक मित्रता
नहीं, परिचय
है। जब गाली-गुफ्ता
शुरू हो जाती
है, तब
मित्रता है।
इसे
थोड़ा देखना।
यह कैसी
मित्रता हुई?
लेकिन
तुम्हारी
मजबूरी है। जो
तुम्हारे पास
है, वह
तुम्हारी
मित्रता पर भी
छाया डालेगा।
दो तरह
के लोग हैं।
कुछ लोग हैं
जो एक आदमी को
मित्र बना
लेते हैं और
दूसरे को
शत्रु बना
लेते हैं। वे
अपने को बांट
लेते हैं।
जो-जो बुरा है वह
शत्रु की तरफ
प्रवाहित
करते हैं, नहर खोद
लेते हैं; जो-जो
अच्छा है, वह
मित्र की तरफ
प्रवाहित
करते हैं, नहर
खोद लेते हैं।
लेकिन जब तुम
मेरे प्रेम में
पड़ोगे तो पूरे
के पूरे ही
पड़ोगे। तब नहर
खोदने से काम
न चलेगा। तब
तुम्हारी
गाली भी मेरे पास
आयेगी, तुम्हारी
प्रार्थना भी
मेरे पास
आयेगी।
तुम्हें
जागना होगा!
और गालियों से
निस्तार पाना
होगा। अन्यथा
तुम्हारा
प्रेम भी
कलुषित हो जायेगा, तुम्हारी
प्रार्थना भी
कलुषित हो
जायेगी।
अच्छा
है कि इस
बहाने
तुम्हें
तुम्हारी
गालियां
दिखाई पड़ने
लगीं; अब
धीरे-धीरे उन
गालियों से
अपने बंधन को खोलो। अब
धीरे-धीरे जागो।
क्योंकि वे
गालियां
तुम्हें उड़ने
न देंगी, वजनी
हैं; पत्थर
की तरह
तुम्हारी
गर्दन में
अटकी रह जायेंगी।
मेरे और
तुम्हारे बीच
पत्थरों की
तरह अटकी रह जायेंगी।
प्रवाह ठीक से
न हो पायेगा।
तुम जब भी
गाली दोगे, सिकुड़
जाओगे। जब भी
गाली दोगे, तुम्हारे
भीतर
अपराध-भाव
उठेगा। जब भी
गाली दोगे, ग्लानि
मालूम होगी।
अच्छा
है कि प्रश्न
पूछा; कम से
कम ईमानदारी
तो की। अब
इतना और होश
सम्हालो।
गाली देना बंद
करने को नहीं
कह रहा हूं मैं;
क्योंकि
अगर तुमने
जबर्दस्ती
बंद की तो तुम
किसी और को
देने लगोगे।
तब तुम्हें एक
और गुरु चाहिए
पड़ेगा, जिसको
तुम गाली दो
और एक गुरु
जिसकी तुम
प्रशंसा करो।
यही तो लोग कर
रहे हैं। अगर महावीर
की प्रशंसा
करते हैं, तो
बुद्ध को गाली
देते हैं।
गालियां कहां
जायें? नहर
खोदनी पड़ती
है। अगर राम
की प्रशंसा
करते हैं तो
कृष्ण को गाली
देते हैं। अगर
कृष्ण की प्रशंसा
करते हैं तो
राम को गाली
देते हैं।
लेकिन
थोड़ा जागो!
मैंने
सुना है कि एक
बहुत बड़ा
आर्किटेक्ट, एक बड़ा
शिल्पी
समुद्र में
जहाज डूबने से,
समुद्र में तैरतेत्तैरते
एक अनजान
द्वीप पर लग
गया। अकेला
था। वहां द्वीप
पर कोई भी न
था। बड़ा कुशल
शिल्पी था। और
कोई काम भी न
था उसे। बड़े
फल थे, वृक्ष
लदे फलों से, तो भोजन की
कोई कमी न थी।
जंगल में लकड़ियां
थीं। सुंदर
पत्थर थे।
उसने
धीरे-धीरे
बैठे-बैठे
क्या करेगा, बनाना शुरू
कर दिया। मकान
बनाये।
दुकानें बनाईं।
चर्च बनाये।
वर्षों बाद, कोई बीस
वर्ष बाद, जब
उसका पूरा नगर
आबाद हो गया, तब एक जहाज
किनारे लगा
आकर। तो उस
शिल्पी ने कहा
जहाज के
यात्रियों को,
कैप्टन को,
कि इसके
पहले कि हम
छोड़ें, इसके
पहले कि मैं
जहाज पर सवार
हो जाऊं, आओ,
मैंने जो
बनाया है उसे
तो देख लो! तो
उसने जाकर दिखाया।
और सब तो ठीक
था, लेकिन
लोग बड़े हैरान
हुए: उसने दो
चर्च बनाये।
उन्होंने कहा,
दो चर्च का
क्या करोगे? एक चर्च समझ
में आता है।
तो उसने कहा, एक चर्च वह
जिसमें मैं
जाता हूं और
एक चर्च वह जिसमें
मैं नहीं जाता
हूं।
थोड़ा
सोचो। अकेले
एक चर्च से
काम न चलेगा, जिसमें तुम
जाते हो। वह
चर्च भी चाहिए,
जिसमें तुम
नहीं जाते।
मंदिर से काम
न चलेगा, मस्जिद
भी चाहिए जिसमें
तुम नहीं
जाते। गिरजे
से ही काम
नहीं चलेगा, गुरुद्वारा
भी चाहिए
जिसमें तुम
नहीं जाते। मजा
ही क्या है
अगर अकेला वही
चर्च हो
जिसमें तुम
जाते हो! तो
फिर तुम्हारा
गलत जो है वह
तुम कहां
रखोगे?
तो
अकसर लोग दो
गुरु चुनते
हैं: एक, जिसके
पक्ष में; और
एक जिसके विपक्ष
में। दो
प्रेमी चुनते
हैं: एक को
मित्र कहते
हैं, एक को
शत्रु।
ध्यान
से देखना, अगर
तुम्हारा
शत्रु मर जाये
तो तुम्हें
बड़ी कमी मालूम
होगी। तुम बड़े
खाली-खाली
मालूम पड़ोगे।
अब तुम क्या
करोगे? शत्रु
के मरने से
भी--जिसको तुम
सदा चाहते थे
कि मर जाये, जिसके लिए तुम
प्रार्थना
करते थे कि मर
जाये--वह भी जब
मरेगा तो तुम
रोओगे भीतर।
क्योंकि
तुमको लगेगा,
अब तुम क्या
करोगे? जो
तुम शत्रु की
तरफ बहा रहे
थे, अब वह
कहां जायेगा?
फिर
तुम्हें कोई
शत्रु खोजना
पड़ेगा।
लोग
बिना शत्रु के
नहीं रह सकते, क्योंकि
उनके भीतर बड़ी
शत्रुता छिपी
है।
तो दो
उपाय हैं: या
तो तुम एक
गुरु और खोज लो, एक चर्च और
बनाओ जिसमें
तुम नहीं जाते,
जिसकी तुम
नहीं सुनते, जिसके तुम
दुश्मन हो, जो गलत है, पाखंडी है।
और दूसरा उपाय
यह है कि
तुम्हारे भीतर
ये जो गालियां
उठ रही हैं, इन्हें समझो,
देखो, अपने
भीतर के कलुष
को पहचानो, अपने भीतर
के कूड़ा-कर्कट
को समझो-बूझो।
पहला
उपाय सार्थक
नहीं है, क्योंकि
उससे तुम
बदलोगे न; तुम
जैसे हो वैसे
ही रहोगे।
उससे तो यही
बेहतर है कि
तुम मुझे
प्रेम भी किये
जाओ और
गालियां भी
दिये जाओ।
क्योंकि यह
स्थिति
ज्यादा दिन न चल
सकेगी; तुम्हारा
प्रेम ही भीतर
सकुचाने
लगा है; तुम्हारा
प्रेम ही भीतर
कष्ट पाने लगा
है। अच्छा है,
कोई फिक्र
नहीं। ऐसे ही जीये जाओ।
धीरे-धीरे तुम
खुद ही सोचोगे,
यह मैं क्या
कर रहा हूं! एक
हाथ से बनाता
हूं, दूसरे
हाथ से मिटाता
हूं। यह भवन
फिर कैसे बनेगा?
एक हाथ से
श्रद्धा की
ईंट रखता हूं,
दूसरे हाथ
से अश्रद्धा
का जहर डालता
हूं। एक हाथ
से बीज बोता
हूं, दूसरे
हाथ से अग्नि
बरसाता हूं।
यह भवन, यह
बगीचा
निर्मित कैसे
होगा?
तुम
कुछ मेरा
नुकसान कर रहे
हो, ऐसा मत
सोचना। तुम
अपना ही
नुकसान कर रहे
हो। तुम अपने
भोजन में ही
गंदगी डाल रहे
हो। वह
तुम्हें ही
भोजन करना है।
वह तुम्हारे ही
खून में
बहेगा। उससे
तुम्हारी ही
हड्डी बनेगी।
गाली देने से
उसका थोड़े ही
नुकसान होता है
जिसे गाली
दी--गाली
देनेवाले का
नुकसान होता
है। उसकी जीभ
खराब हुई।
उसका हृदय
धूमिल हुआ।
उसके प्राण
क्षुद्र हुए।
पूछा
है, "यह क्या
है?'
यह
तुम्हारे
भीतर का सीजोफ्रेनिया, तुम्हारे
भीतर का
विभक्त
व्यक्तित्व।
तुम दो हो, एक
नहीं। इस "दो'
को हटाओ
और एक को जन्माओ।
अन्यथा तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे--ऐसे
जैसे तुम्हारे
भीतर दो
व्यक्ति हैं
और तुम्हारे
भीतर एकता
नहीं है।
जिसने पूछा है,
उसे मैं
जानता हूं।
अगर वह ऐसे ही
चलता रहा तो
आज नहीं कल
पागल-घर में
होगा, पागलखाने
में होगा।
जैसे
तुम्हारा एक
पैर एक तरफ
जाये, दूसरा
पैर दूसरी तरफ
जाये; एक
आंख कुछ देखे,
दूसरी आंख
कुछ देखे--तो
तुम धीरे-धीरे
खंडित हो
जाओगे; तुम्हारे
भीतर का
सुर-संगीत खो
जायेगा; सामंजस्य,
समन्वय टूट
जायेगा।
यह एक
तरह का पागलपन
है। इससे जागो!
और इसमें रस
मत लो।
क्योंकि
प्रश्नकर्ता
के प्रश्न से
ऐसा लगता है, जैसे वह कोई
बड़ी बहुमूल्य
बात कर रहा
है। क्योंकि
उसने यह भी
लिखा है पीछे
कि जब मैं इस
तरह गालियां
इत्यादि देता
हूं तो लोग
मुझे "नासमझ' कहते हैं और
मुझे उन पर
हंसी आती है।
ऐसा लगता है, तुम रस ले
रहे हो। कोई
हर्जा नहीं।
अगर इससे ऊपर
न उठ सको तो यह
भी ठीक है। कम
से कम गाली
देते हो, तब
भी मेरी याद
तो कर ही लेते
होओगे, मगर
याद करने के
बेहतर ढंग हो
सकते हैं। यह
याद करने का
तुमने बड़ा
बेहूदा ढंग
चुना।
मैं
तुमसे कहता
हूं, अगर
अनाप-शनाप
बकना हो, गाली
देना हो, तो
प्रेम को हटा
दो, कम से
कम इकहरे
इकट्ठे तो
रहोगे। अगर
प्रेम करना हो
तो गाली-गलौज
से छुटकारा पा
लो। क्योंकि
मेरा सवाल
नहीं है। मुझे
गाली देने से
मेरा क्या
हर्ज है!
लेकिन
तुम्हारी
गाली तुम्हीं
को तोड़ती
जायेगी। तुम
धीरे-धीरे
अपने से ही
अलग होने लगोगे।
और इन दोनों
छोरों को
मिलाना
मुश्किल हो
जायेगा।
एक रात
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने बेटे को
सुलाकर अपने
कमरे में आ
गया। एक घंटे
से ऊपर हो गया, मगर वह बेटा
बार-बार
चिल्लाये जा
रहा था: "पापा!
मुझे प्यास लगी
है।'
"चुपचाप
सो जाओ', मुल्ला
ने जोर से
चिल्लाकर
कहा। "अगर अब
और तंग किया
तो उठूंगा
और थप्पड़
लगाऊंगा।'
"पापा,
जब थप्पड़
लगाने उठो तो
एक गिलास पानी
भी लेते आना', बेटे ने
कहा।
ठीक
कहा। कम से कम
इतना तो कर ही
लेना। उठोगे तो
ही।
तो अगर
कोई और उपाय न
हो, और याद
करने का यही
ढंग तुम्हें
आता हो, कोई
हर्जा नहीं।
चलो, यह भी
ठीक, गाली
ही दे लेना।
याद तो जारी
रहेगी। लेकिन
दोनों में अगर
चलते रहे तो
तुम दो घोड़ों
पर सवार हो, तुम बड़ी
अड़चन में
पड़ोगे। या तो
प्रेम को जाने
दो। यह भी
प्रेम क्या? या गाली को
जाने दो।
एक
स्वर बनो, तो ही शांत
हो सकोगे।
अन्यथा शांति
का कोई उपाय
नहीं है।
शांति कुछ भी
नहीं है--एकस्वर
हो गये आदमी
की अवस्था है।
अशांति कुछ भी
नहीं है--दो
स्वरों में, अनेक स्वरों
में बंटे और
टूटे हुए आदमी
की विक्षिप्तता
है।
उन्हीं
मित्र ने
दूसरा सवाल भी
पूछा है:
भगवान के
संबंध में
मेरे मन में
जो पुरानी और
विचित्र
धारणाएं जमी
हैं, उनके
कारण आप मुझे
भगवान जैसे
नहीं लगते; किंतु आप जो
मेरे लिए हैं,
उसे मैं कोई
नाम देने में
असमर्थ पाता
हूं अपने को।
आप इतने विराट
और हम जैसे ही
लगते हैं। कृपा
कर इस पर कुछ
प्रकाश
डालें।
भगवान
जैसा मैं हूं
भी नहीं, तो लगूंगा
कैसे? "भगवान
जैसे' का
अर्थ समझे कि
जो भगवान नहीं
है, भगवान
जैसा है!
मैं तुमसे
कहता हूं, मैं
भगवान हूं, भगवान जैसा
नहीं। और
तुमसे भी मैं
कहता हूं, तुम
भगवान हो, "भगवान
जैसे' नहीं।
"जैसे' शब्द
में तो बड़ा
झूठ छिपा है, बड़ा असत्य छिपा
है। "जैसे' का
तो अर्थ हुआ:
खोटा सिक्का;
असली
सिक्के जैसा
लगता है, है
नहीं।
रही
भगवान की
धारणा, तो
क्या भगवान की
तुम्हारी
धारणा है, इस
पर सब निर्भर
करेगा, क्या
तुम्हारी
परिभाषा है।
भगवान शब्द तो
बड़ा साफ-सुथरा
है। इसका मतलब
केवल होता है:
भाग्यवान।
उसका अर्थ
होता है: द ब्लेसिड
वन। उसका इतना
ही अर्थ होता
है कि जिसने
अपनी नियति को
पा लिया, अपने
भाग्य को
उपलब्ध हो गया;
जो होने को
था, हो
गया। बस इतना
ही। जब कली
फूल बन जाती
है, तब
भगवान है। जो
हो सकती थी, हो गई। बीज
में पड़ी थी, तब भगवान न
थी। वृक्ष में
छिपी थी, तब
भगवान न थी।
कली थी, तब
भी भगवान न
थी। भगवान
होने के
रास्ते पर थी।
फिर फूल हो
गई। भगवान हो
गई। भाग्य खिल
गया।
मेरे
लिए तो "भगवान' शब्द का
इतना ही अर्थ
है कि तुम जो
होने को हो वही
हो जाओ।
निश्चित ही, प्रत्येक की
भगवत्ता
भिन्न होगी।
कोई पिकासो
होगा और उसके
जीवन में बड़े
चित्रकारी के
फूल खिलेंगे।
कोई कालिदास
होगा; उसके
जीवन में
काव्य के बड़े
फूल खिलेंगे।
हर व्यक्ति की
भगवत्ता उसकी
अपनी निज
होगी। क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति का
बीज
अनूठे-अनूठे
ढंग से
खिलेगा।
इसलिए
तो महावीर
महावीर जैसे
हैं, बुद्ध
बुद्ध जैसे
हैं, कृष्ण
कृष्ण जैसे
हैं। इनके लिए
तुलना भी तो नहीं
खोजी जा सकती
कि किसके जैसे
हैं। अब कृष्ण
को महावीर से
कैसे तौलोगे?
और तुमने
अगर भगवान का
अर्थ बड़ा
सीमित कर लिया
कि कृष्ण
भगवान हैं, तो फिर अड़चन
आ जायेगी; फिर
राम भगवान न
हो सकेंगे।
फिर तुम्हारा
भगवान का
दायरा बड़ा
छोटा है। वह
एक आदमी पर
समाप्त हो
गया। फिर
बुद्ध भगवान न
हो पायेंगे।
फिर महावीर को
कहां रखोगे? फिर मुहम्मद
को कहां रखोगे,
क्राइस्ट
को कहां रखोगे,
मूसा को
कहां रखोगे? फिर नानक और
कबीर और दादू
और रैदास...? नहीं,
फिर तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे। फिर
करोड़ों भगवान
हुए हैं। जो
भी खिल गया, वह भगवान हो
गया, भाग्यवान
हो गया। तो
फिर तुम उनको
कहां रखोगे? अगर तुमने
फूल के खिलने
की कोई ऐसी
परिभाषा बना
ली कि जैसा
चंपा का फूल
खिलता है, वही
खिलना है, तो
फिर गुलाब के
फूल को तुम
क्या कहोगे? तुम कहोगे,
"यह कोई
खिलना है? खिलता
तो चंपा का
फूल है।' तो
फिर तुम्हारा
फूल शब्द बड़ा
सीमित है। फिर
तो चंपा का ही
फूल फूल है; और गुलाब और
कमल, फिर
कोई फूल न
रहे। लेकिन
गुलाब भी फूल
है, कमल भी
फूल है, चंपा
भी फूल है, चमेली
भी। एक ही फूल
शब्द सबके लिए
उपयोग करते
हो। क्योंकि न
तो रंग से फूल
का कोई संबंध
है, न
आकृति से कोई
संबंध है--फूल
का संबंध तो खिलने से
है, फूलने
से है, प्रफुल्ल
होने से है, खुल जाने
से। तो जो भी
खुल जाता है, वही फूल है।
गुलाब भी
खुलता है, कमल
भी खुलता है।
गंध अलग, रंग
अगल, रूप, ढंग
अलग--इससे कोई
लेना-देना
नहीं है। फूल
का संबंध है, खुल गया; पूरा
हो गया; जो
छिपा था वह
प्रगट हुआ; जो गीत अनगाया
पड़ा था, वह
गाया गया; जो
नाच
अभिव्यक्त
नहीं हुआ था, अभिव्यक्त
हो गया!
बीजरूप
से सभी भगवान
हैं। फूलरूप
से सभी भगवान
हो सकते हैं।
तुम्हारी
परिभाषा पर
निर्भर है।
तुम्हारी
परिभाषा अगर
बहुत क्षुद्र
और संकीर्ण है
तो अच्छा ही
है कि तुम मुझे
उसके बाहर रखो, क्योंकि
उतनी संकीर्ण
परिभाषा में
जीना मुझे रुचेगा
नहीं: तुम यही
समझो कि यह
आदमी भगवान
नहीं है। लेकिन
तुम ध्यान
रखना, अगर
परिभाषा
तुम्हारी
बहुत छोटी है,
तो तुम भी
भगवान न हो
सकोगे।
तुम्हारी परिभाषा
में अगर मैं
नहीं समा सकता
तो तुम कैसे समाओगे?
मित्र
ने पूछा है कि
"आप तो हमें हम
जैसे ही लगते
हैं!'
तो यही
दोष है कि मैं
तुम्हें तुम
जैसा लगता हूं।
तो फिर
तुम्हारा
क्या होगा? तुम जैसे
लगने के कारण
भी परिभाषा
में नहीं समाता,
तो
तुम्हारी
क्या गति होगी?
तुम तो
बिलकुल
परिभाषा के
बाहर पड़
जाओगे। मैंने
तो चाहा है कि
तुम्हें याद आ
जाये कि तुम
भगवान हो, लेकिन
तुम्हारी कोई
धारणा होगी।
उस धारणा से मैं
मेल न खाता
होऊंगा। तुम
अगर हिंदू हो
तो कृष्ण...अगर
जैन हो तो
महावीर...।
निश्चित ही
मैं नग्न नहीं
खड़ा हूं, कपड़े
पहने हुए हूं,
तो महावीर
तो हूं ही
नहीं। तो उस
अर्थ में भगवान
नहीं हूं।
निश्चित ही
मैं बुद्ध
जैसा नहीं हूं।
और न ही किसी
बोधि-वृक्ष के
नीचे बैठा हूं।
निश्चित ही
बुद्ध नहीं
हूं। न कृष्ण
जैसा हूं; मोरमुकुट
नहीं बांधा, बांसुरी हाथ
में नहीं है, पीतांबर
नहीं पहना, तो कैसे
कृष्ण जैसा
हूं? तो
तुम्हारी
परिभाषा में
तो मैं न आऊंगा।
लेकिन
तुम याद रखना, कृष्ण के
समय में बहुत
लोग थे जो
कृष्ण को भगवान
नहीं मान सकते
थे। नहीं माना
था उन्होंने,
क्योंकि
उनकी और
पुरानी
परिभाषाएं
थीं जिसमें वे
नहीं बैठते
थे। नया भगवान
कभी भी पुराने
भगवान वाली
परिभाषा में
नहीं बैठ सकता,
क्योंकि वह
परिभाषा उसके
लिए बनी न थी।
वह परिभाषा
किसी और के
लिए बनी थी।
अब जिन्होंने
राम को भगवान
माना है, वे
कृष्ण को कैसे
भगवान मानें?
इधर राम
हैं--एक पत्नीव्रता!
इधर कृष्ण
हैं--कहते हैं,
सोलह हजार
उनकी रानियां
हैं! अनब्याही,
दूसरों की
ब्याही हुई
स्त्रियों को
भी उठा लाये
हैं! यह कोई
भगवान जैसी
बात है? तो
बहुतों को तो
कृष्ण लंपट ही
मालूम होते
हैं। बहुतों
को राम भी कुछ
बहुत ऊंचाई पर
नहीं मालूम
होते।
तुम्हें
मैं समझाने की
कोशिश में कुछ
उदाहरण दूं।
भगवान सभी को
एक जैसा
उपलब्ध है; जैसे सूरज
का प्रकाश सब
पर पड़ रहा है।
लेकिन कोई
वृक्ष हरा
मालूम हो रहा
है, कोई
फूल लाल मालूम
हो रहा है, कोई
फूल सफेद
है--और प्रकाश
सब पर एक जैसा
पड़ रहा है।
भौतिकी, फिजिक्स के
जानकारों का
कहना है कि
प्रकाश की
किरण तो सब पर
पड़ रही है।
लेकिन जो पत्ते
प्रकाश की हरी
किरण को वापस
लौटा देते हैं,
वे हरे
मालूम हो रहे
हैं। जो चीजें
प्रकाश की किरणों
को पूरा पी
जाती हैं, वे
काली मालूम
होती है। जो
चीजें प्रकाश
को पूरा का
पूरा लौटा
देती हैं, वे
सफेद मालूम
होती हैं। जो
चीजें जिस
किरण को
लौटाती हैं, वे उसी किरण
के रंग की हो
जाती हैं।
अंधेरे में
सभी वस्तुओं
का रंग खो
जाता है--यह
तुम जानकर
हैरान होओगे।
अंधेरे में
तुम यह मत
सोचना कि जो
हरे वृक्ष थे,
वे अभी भी
हरे
होंगे--भूल
में मत पड़ना।
फिजिक्स
कहती है, वृक्ष
हरे नहीं होते
अंधेरे में।
और यह मत सोचना
कि जब अंधेरा
होता है तो
गुलाब का फूल
और चमेली का
फूल अभी भी सफेद
और लाल होगा।
गलती में हो
तुम। रंग के
लिए प्रकाश
चाहिए। जब
अंधेरा होता
है तो सब रंग
खो जाते हैं; कोई वस्तु
का कोई रंग
नहीं होता। न
काली वस्तुएं
काली होती हैं,
न सफेद
वस्तुएं सफेद
होती हैं; क्योंकि
रंग वस्तुओं
में नहीं है, रंग तो
वस्तुओं और
प्रकाश के बीच
के अंतर्संबंध
में है; जिस
चीज में भोग
की गहन वृत्ति
है...।
इसलिए
हम राक्षसों
को काला
प्रतीक मानते
रहे हैं। वह
प्रतीक
बिलकुल ठीक
है। जरूरी
नहीं है कि
रावण काला रहा
हो, लेकिन
प्रतीक की तरह
बिलकुल ठीक
है। काले का
अर्थ है: जो सब पी
जाये, कुछ
छोड़े न; सब
पर कुंडली
मारकर बैठ
जाये, कुछ
दान न करे; जिसके
जीवन से प्रेम
न उठता हो; जो
सब चीजों के
लिए कृपणता से
इकट्ठा करता
चला जाये। ठीक
है कि रावण की
लंका सोने की
थी, रही
होगी। सारा
सोना उसने
इकट्ठा कर
लिया होगा
सारे संसार से।
काला रंग
राक्षस, शैतान,
असुर उसका
रंग है।
साधारणतः
हममें से अधिक
लोग भगवान के
साथ यही करते
हैं। भगवान हम
पर बरस रहा
है। वह प्रकाश
की भांति है।
लेकिन हम उसे
पीकर बैठ जाते
हैं। हम उसे
सिकोड़ लेते
हैं। हम सब
तरफ से उस पर
कुंडली मार
लेते हैं। हम
उसे बांटते नहीं।
हम उसे लौटने
नहीं देते।
उसके कारण हम
बेरंग हो जाते
हैं, काले हो
जाते हैं।
बांटो!
जितना तुम
बांटोगे उतना
तुम्हारे जीवन
में रंग आने
लगेगा। अगर
तुमने एक किरण
लौटा दी तो
हरा रंग आ
जायेगा; अगर
दूसरी किरण
लौटा दी तो
लाल रंग आ
जायेगा। अगर
तुमने सब लौटा
दिया तो तुम
शुभ्र हो
जाओगे।
दुनिया के
सारे धर्मशास्त्र
शैतान को काला
रंगते
हैं, राक्षस
को काला रंगते
हैं।
जरथुस्त्र
अहरिमन को
काला रंगता
है। ईसाई डेविल
को, मुसलमान
शैतान को, सब
काले रंगते
हैं। वह काला
बिलकुल
प्रतीक है। वह
जैसा भौतिक-शास्त्र
का अंग है, वैसे
ही अध्यात्म-शास्त्र
का भी अंग है।
जब भी
तुम किसी चीज
को पीकर बैठ
जाते हो, तुम
काले हो जाते
हो। तब तुम
बीज की भांति
हो; सब
भीतर बंद है
और एक खोल ऊपर
से चढ़ी
है। जब तुम सब
छोड़ देते हो, इसलिए सफेद
त्याग का
प्रतीक है।
जैनों
ने सफेद
वस्त्र चुने
मुनियों के
लिए--त्याग की
वजह से। सब
छोड़ देता है।
सब त्याग कर
देता है।
तो एक
तरफ शैतान है।
फिर जो सब छोड़
देता है; जैसे
राम, जैसे
महावीर, सब
छोड़ देते
हैं--शुभ्र
हैं। तो राम
मर्यादा पुरुषोत्तम
हैं। उनका
जीवन बड़े संयम,
विवेक, संतुलन,
अनुशासन का
जीवन है।
महावीर का
जीवन परम त्याग
का जीवन है; सब छोड़ दिया
है; सब छोड़
दिया; कुछ
भी नहीं रखा
है--शुभ्र हो
गये हैं!
जैनों
के दो पंथ हैं:
दिगंबर और
श्वेतांबर।
महावीर ने
वस्त्र तो
पहने नहीं, रहे तो वे
नग्न ही; लेकिन
फिर भी
श्वेतांबर
दृष्टि में भी
सार है। यह
कहना कि वे
सफेद
वस्त्रों में ढके थे, बिलकुल
सार्थक है।
जैसे शैतान को
काला रंगने में
सार्थकता है,
वैसे ही
महावीर को
शुभ्र
वस्त्रों में,
श्वेतांबर
बनाने में भी
सार्थकता है।
यद्यपि वे
नग्न थे, लेकिन
उनके जीवन का
लक्षण सफेद, शुभ्र, श्वेत
वस्त्र
हैं--श्वेतांबर
हैं। सब
उन्होंने छोड़
दिया। यह
दूसरा उपाय
है।
अगर
परमात्मा को
तुम सिकोड़कर
बैठ गये, तो
तुम कुछ भी हो
सकते हो: पशु, पत्थर, आदमी।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर सिकुड़ा
पड़ा रहेगा।
बांटो!
खोलो इन
जालों को जो
भीतर बंधे
हैं! तोड़ो खोल
को, अंकुर
उठने दो! तुम
पाओगे: शुभ्र
परमात्मा का उदय
हुआ।
ये
साधारण विभाजन
हैं। फिर एक
तीसरी भी
स्थिति है।
जैसे कि कोई
पारदर्शी
कांच का टुकड़ा, वह किरणों
को लौटाता
नहीं है, पीता
भी नहीं, पार
हो जाने देता
है; शुभ्र
भी नहीं है, काला भी
नहीं है।
क्योंकि काला
होने के लिए
पी जाना जरूरी
है। शुभ्र
होने के लिए
लौटा देना जरूरी
है। कांच का
टुकड़ा पार हो
जाने देता है;
पारदर्शी
है। सफेद
दीवाल है; वह
लौटा देती है।
काला पत्थर है,
वह पी जाता
है। कांच है, वह पार हो
जाने देता है।
तो
महावीर, बुद्ध,
राम, मोज़िज़ शुभ्र
वस्त्रों की
भांति हैं, शुभ्र दीवाल
की भांति हैं।
लाओत्सु
पारदर्शी
कांच की भांति
है। तो अगर
कांच पूरा
पारदर्शी हो
तो तुम्हें
दिखाई ही नहीं
पड़ेगा। उसके
पार क्या है, वह दिखाई
पड़ेगा; कांच
दिखाई नहीं
पड़ेगा। अगर
कांच दिखाई
पड़ता है तो
उसका मतलब है,
थोड़ी
अशुद्धि रह
गई। तो
लाओत्सु अगर
तुम्हारे पास
भी बैठा रहे
तो तुम्हें
पता न चलेगा।
अगर महावीर
तुम्हारे पास बैठें, तो
तुम्हारी
आंखें चमचमा जायेंगी; शुभ्रता
तुम्हें घेर
लेगी। अगर
रावण तुम्हारे
पास बैठे तो
तुम घबड़ाने
लगोगे; वह
तुम्हें
चूसने लगेगा,
खींचने
लगेगा। वह
तुम्हारी
सीता को
चुराने में लग
जायेगा। वह
तुम्हें भी पी
जाना चाहेगा। जरूरी
नहीं है कि वह
तुम्हें भोगे,
क्योंकि
भोगने के लिए
भी थोड़ा
त्यागना पड़ता
है। वह तो
सिर्फ कुंडली
मारकर बैठ
जायेगा।
इसलिए
मैं...रामायण
में जो कथा है
कि वह सीता को चुराकर
ले गया, फिर
उसने
अशोक-वाटिका
में उन्हें रख
दिया, उन्हें
छुआ भी नहीं।
असली कंजूस
छूता भी नहीं।
धन को छूता भी
नहीं; बस
उसको रखकर तिजोड़ी
में बैठ जाता
है। उसने सीता
को भोगा नहीं।
उसमें
प्रयोजन भी न
था। बस सुंदर
स्त्री मेरे
कब्जे में आ
गई, इतना
काफी है। उसका
रस कब्जे का
रस है।
तो अगर
रावण जैसा
आदमी
तुम्हारे पास
बैठे तो तुम
पाओगे, जैसे
कोई अंधकार
तुम्हें
खींचे लेता हो,
पी जाना
चाहता है। अगर
राम और महावीर
जैसे व्यक्ति
तुम्हारे पास
खड़े हों, तो
तुम पाओगे कि
तुम्हारी
आंखें किसी
शुभ्रता में झपकपाने
लगीं। उन्हें
झेलना
मुश्किल
मालूम पड़ेगा।
लाओत्सु
जैसा व्यक्ति
अगर तुम्हारे
पास भी बैठा
हो तो तुम्हें
पता न चलेगा
कि कोई बैठा है
या नहीं बैठा
है। इसलिए तो
लाओत्सु के
पीछे कोई धर्म
न बन सका।
धर्म बने कैसे? धर्म बनने
के लिए दिखाई पड़ना
चाहिए।
लाओत्सु तो
ना-कुछ है, शून्यवत है। यह भी
परमात्मा का
एक रूप है।
परमात्मा
का पहला रूप
है:
शैतान--सबसे
नीचा रूप।
दूसरा रूप है:
शुभ्र। कुछ उस
ढंग से प्रगट
होते हैं
परमात्मा।
फिर लाओत्सु
है; वह भी एक
रूप है
परमात्मा
का--पारदर्शी।
फिर एक चौथा
रूप भी
है--दर्पण की
भांति; किरणें
लौटती ही नहीं
सिर्फ, तुम्हारा
प्रतिबिंब भी
बनाती हैं।
तुम अगर दर्पण
के पास जाओगे
तो तुम्हारी
तस्वीर तुम्हें
दिखाई पड़
जायेगी। कुछ
में परमात्मा
इस रूप में भी
प्रगट हुआ
है--पतंजलि।
अगर पतंजलि के
पास जाओगे तो
तुम्हें अपनी
तस्वीर दिखाई
पड़ने लगेगी।
महावीर के पास
न दिखाई पड़ेगी
तुम्हें अपनी
तस्वीर।
सिर्फ तुम्हें
उनकी शुभ्रता
घेर लेगी; जैसे
चांदनी के फूल
तुम पर बरस
पड़ें! लेकिन
पतंजलि के पास
तुम्हें अपना
ही रूप दिखाई
पड़ जायेगा; तुम्हारी
झलक बनेगी। और
पतंजलि
तुम्हें आत्म-आविष्कार
के लिए बड़ा
सहयोगी हो
सकेगा। लाओत्सु
के साथ तो वे
लोग चल सकेंगे,
बहुत
मुश्किल, विरले,
जिनके पास
इतनी सूक्ष्म
दृष्टि है कि
पारदर्शी को
भी देख सकें।
पतंजलि के साथ
बहुत लोग चल
सकेंगे।
महावीर के साथ
भी लोग चल
सकेंगे, राम
के साथ भी चल
सकेंगे; लेकिन
राम और महावीर
से अभिभूत
होंगे, रूपांतरित
बहुत नहीं
होंगे।
क्योंकि खुद
का दर्शन नहीं
होगा। महावीर
का दर्शन होगा
अगर उनके पास
जाओगे।
पतंजलि की
खूबी और! उसके
पास तुम्हें
तुम्हारा दर्शन
होगा!
तुम्हारा
चेहरा विकराल
है तो विकराल
दिखाई पड़ेगा,
सुंदर है तो
सुंदर दिखाई
पड़ेगा। तुम
जैसे हो, पतंजलि
के पास तुम
वैसे ही प्रगट
हो जाओगे। कुछ
लोग पतंजलि के
पास से नाराज
होकर लौटेंगे,
क्योंकि
उनका कुरूप
चेहरा दिखाई
पड़ेगा, उनकी
वीभत्सता
दिखाई पड़ेगी।
ऐसे लोग
महावीर से
नाराज न होंगे,
क्योंकि
महावीर के पास
सिर्फ महावीर
के फूल दिखाई
पड़ेंगे। तुम
महावीर की
पूजा कर लोगे।
महावीर के साथ
पूजा
पर्याप्त हो
जायेगी।
पतंजलि के साथ
साधना जरूरी
होगी। लेकिन
जो भी पतंजलि
के साथ जायेगा
उसके जीवन में
क्रांति
निश्चित है।
फिर एक
और पांचवां
रूप
है--प्रिज्म
की भांति। किरण
गुजरती है
तिकोन कांच के
टुकड़े से, तो
इंद्रधनुष
पैदा हो जाता
है। कृष्ण ऐसे
हैं जैसे
इंद्रधनुष।
किरण पार भी
होती है, लेकिन
लाओत्सु जैसी
नहीं।
प्रिज्म में
से पार होती
है। सीधा-सरल
कांच का टुकड़ा
नहीं है। बड़े
कोणों वाला
कांच का
टुकड़ा! बड़े
पहलुओं वाला
कांच का टुकड़ा!
कृष्ण
बहुआयामी हैं,
बड़े पहलू
हैं! और जब
कृष्ण से किरण
गुजरती है तो
सात रंगों में
टूट जाती है।
बड़ा नृत्य, बड़ा गीत, बड़ा
रास पैदा होता
है। इसलिए
मोर-मुकुट है।
इसलिए मोर-पंख
बंधे हैं।
इसलिए हाथ में
बांसुरी है।
इसलिए पैर में
घूंघर बंधे
हैं। इसलिए
पीतांबर वेश
है। इसलिए
सिल्क, शुद्धतम
सिल्क के
वस्त्र हैं।
गले में हार
है। बाहुएं
आभूषणों से
सजी हैं।
करधनी बांधी
हुई है। कृष्ण
बड़े रंगीले
हैं, बड़े सजे हैं।
परमात्मा बड़े
शृंगार में
प्रगट हुआ है।
अगर नाचना हो
तो कृष्ण के
साथ। अगर गीत
की धुन सुननी
हो तो कृष्ण
के पास।
कृष्ण
पतंजलि जैसे
शिक्षक नहीं
हैं, न महावीर
जैसे हैं, अभिभूत
कर लें, ऐसे
हैं। न
लाओत्सु जैसे
कि शून्य में
खो गये हों, ऐसे हैं।
कृष्ण के साथ
महोत्सव है, उत्सव है।
कृष्ण के साथ
राग-रंग है।
और सभी
रूप परमात्मा
के हैं। अब
इसमें से जो
किसी एक रूप
से जकड़ गया उसको
दूसरा रूप
पहचान में न
आयेगा। अगर
तुमने कृष्ण
की रंग-रेली
देखी और उसको
तुमने
परमात्मा का
रूप जाना, तो फिर
महावीर
तुम्हें
सूखे-सूखे, रूखे-रूखे
मालूम
पड़ेंगे। तुम
कहोगे, "ये
कैसे भगवान
हैं? बांसुरी
तो बजती ही नहीं,
भगवत्ता
कहां है? संगीत
तो पैदा ही
नहीं होता, गीत तो बरसते
ही नहीं, ये
कैसे भगवान?' बड़े मरुस्थल
जैसे मालूम
होंगे।
और अगर
तुम महावीर से
अभिभूत हो गये
और तुमने कहा, यही भगवान
का रूप है तो
कृष्ण में
तुमको लगेगा,
कुछ गड़बड़ हो
रही है। यह
नाच कैसा? परम
वीतराग पुरुष
कहीं नाचता है?
यह बांसुरी
कैसी? क्योंकि
सब बांसुरी तो
राग है। सब
रास राग है।
यह आसपास खड़ी
हुई सुंदर
स्त्रियां, नाचतीं,
डोलतीं,
यह सब क्या
हो रहा है? यह
तो संसार है।
तुम्हारी
परिभाषा पर
निर्भर है। और
मैं धार्मिक
व्यक्ति उसको
कहता हूं, जिसकी
परमात्मा की
कोई परिभाषा
नहीं; जो
परमात्मा को
अपरिभाष्य
मानता है, अनिर्वचनीय
मानता है। और
जिस रूप में
भी परमात्मा
प्रगट होता है,
पहचान लेता
है, खोज
लेता है; क्योंकि
रूप तो सब उसी
के हैं। इसलिए
धोखे का कोई
उपाय नहीं है।
तामीरे-कायनात
को गहरी नज़र
से देख
वह
जर्रा कौन-सा
है यहां जो
अहम् नहीं।
जरा
गहरी नजर से
देखो सृष्टि
को! यहां कण-कण
महत्वपूर्ण
है! उसकी
महिमा से
आपूरित है!
उसकी ही
विभूति है, उसका ही
प्रसाद है।
लेकिन
तुम्हारा
जितना बड़ा
प्याला होगा,
उतनी ही तुम
क्षमता जुटा
पाओगे
परमात्मा के प्रसाद
की। इसलिए
छोटी-छोटी
परिभाषाओं के
प्याले लेकर
मत चलो। जब
प्याला ही लेना
है तो बड़ा लो
कि सागर समा
जायें। नहीं
तो आज नहीं कल,
तुम पाओगे
कि तुम्हारे
प्याले में
बड़ा थोड़ा है।
और थोड़ा
तुम्हें कष्ट
देगा। और कष्ट
तुम्हारे
प्याले के
कारण हो रहा
है। तुमने
प्याला बड़ा
चुना होता तो
परमात्मा बड़े
प्याले में भी
उतरने को राजी
था।
अनिर्वचनीय
को पकड़ो!
अव्याख्य की
व्याख्या मत
करो।
अव्याख्य को
अव्याख्य
रहने दो।
नाम-रूप मत धरो
उसके। तो फिर
जिस रूप में
भी आयेगा, तुम पहचान
लोगे। तुम हर
रूप में पहचान
लोगे। तुम
रावण में भी
देख लोगे, राम
में तो देख ही
लोगे। वह भी
उसी का रूप है;
विपरीत चला
गया, गलत
हो गया, बेस्वाद
हो गया--लेकिन
उसी का स्वाद
है।
साकिए-दौरां
से शिकवा
बेश-कम का है
फिजूल
जर्फ
जितना उसने
देखा उतनी
पैमाने में
है।
साकिए-दौरां
से शिकवा
बेश-कम का है
फिजूल--साकी
से कम-ज्यादा
की शिकायत
करनी व्यर्थ
है। जर्फ
जितना उसने
देखा, उतनी
पैमाने में
है। उसने देखा,
कितनी तुम
पचा सकोगे, उतनी
तुम्हारे
पैमाने में
है।
बड़ी
करो परिभाषा!
मेरी मानो तो
परिभाषा को छोड़ो; इतनी
बड़ी करो कि
परिभाषा बचे
न। तो
तुम्हारा जर्फ
बड़ा होगा, तुम्हारी
क्षमता और
पात्रता बड़ी
होगी।
तब मैं
ही तुम्हें
भगवान नहीं, तुम भी, तुम्हारा
बेटा भी, तुम्हारी
पत्नी भी--सभी
तुम्हें
भगवान दिखाई पड?ने लगेंगे।
कोई बीजरूप
है, कोई वृक्षरूप
हुआ, कोई
कली बना, कोई
फूल बना। और
फूलों की
हजारों-हजारों
किस्में हैं;
ऐसे ही
परमात्मा के
हजार-हजार रूप
हैं।
फिर जो
मुझे भगवान कहते
हैं, वे केवल
अपना प्रेम
प्रदर्शित
करते हैं। जिससे
प्रेम हो जाये,
वहीं भगवान
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है। वह प्रेम
ही क्या
जिसमें भगवान
दिखाई न पड़े? तुम मेरी तो छोड़ो, तुम
अगर किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गये तो वहां
भी दिव्यता की
झलक दिखाई
पड़ेगी। तुम
अगर किसी
पुरुष के
प्रेम में पड़
गये तो वहां
भी अचानक
पुरुष-भाव खो
जायेगा, परमात्म-भाव
प्रगट होगा।
शबाब
आया, किसी बुत
पर फिदा होने
का वक्त आया
मेरी
दुनिया में
बंदे के खुदा
होने का वक्त
आया।
जब कोई
जवान होता है, शबाब आया, जवानी आई, किसी बुत पर
फिदा होने का
वक्त आया! अब
किसी प्रतिमा
पर पागल हो
जाने का समय आ गया।
मेरी
दुनिया में
बंदे के खुदा
होने का वक्त
आया।
अब
कोई बंदा खुदा
जैसा दिखाई
पड़ेगा।
यह तो
साधारण प्रेम
में हो जाता
है। यह तो मजनू
को लैला में
दिखाई पड़ने
लगता है। यह
तो शीरी
को फरिहाद
में दिखाई पड़
जाता है। तो
आत्मिक प्रेम
में तो घटना
और भी गहरी
घटती है।
अब
जिनका मुझसे
प्रेम है, उन्हें
भगवान दिखाई
पड़ जायेगा।
तुम्हारा हो या
न हो, मेरा
तुमसे है; मुझे
तुम में दिखाई
पड़ता है। अगर
तुम्हें न दिखाई
पड़े तो तुम
व्यर्थ ही
वंचित रह
जाओगे।
और
ध्यान रखना, अगर मैं
तुमसे कहूं कि
परमात्मा मुझ
में है और
किसी में नहीं,
तो खतरनाक
बात कह रहा
हूं। तुम भी
यही सुनना चाहते
हो, क्योंकि
फिर तुम्हारा
अहंकार मजे से
रस ले सकेगा।
लेकिन मैं
कहता हूं, परमात्मा
सबकी
सामान्यता
है। परमात्मा
कोई विशेष बात
नहीं है, कोई
विशिष्टता
नहीं है।
परमात्मा सभी
के होने का
ढंग है, सभी
का स्वभाव है।
जानो न जानो, तुम
परमात्मा हो,
जब तक न
जानोगे, बंद
रहोगे; जिस
दिन जान लोगे,
खुल जाओगे।
इसलिए
कहीं अगर
तुम्हें कोई
फूल मिल जाये
तो उसके पास
थोड़े रह लेना, क्योंकि
सत्संग
संक्रामक
होता है। फूल
के पास शायद
तुम्हारी कली
भी खुलने का
ढंग सीख जाये।
बस इतना ही
सत्संग का अर्थ
होता है।
आखिरी
प्रश्न:
कुछ
कहना था, नहीं कह पा
रहा हूं। हृदय
की पीड़ा प्रेम
बनकर बिखर
जाती है। मेरी
दिनचर्या आनंदचर्या
बन चुकी है।
मेरी आंखें अब
झपकने-सी लगी
हैं, क्योंकि
आपकी आंखों
में जादू है।
अब पिघलूं
और बहूं--बस
यही कह दें!
तथास्तु!
आज
इतना ही।
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