सूत्र:
अणथोवं वणथोवं,
अग्गीथोवं
कसायथोवं
च।
न
हु भे वीससियव्वं,
थोवं पि
हु तं बहु होई।।
26।।
कोहो पीइं पणसोइ,
माणो विण्यनासणो।
माया
मित्ताणि
नासेइ,
लोहो सव्वविणासणो।।
27।।
उवसमेण हणे कोहं,
माणं मद्दवया
जिणे।
मायं चउज्जवभावेण,
लोभं संतोसओ
जिणे।। 28।।
जहा कुम्मे सअंगाई,
सए देहे
समाहरे।
एवं
पावाइं मेहावी,
अज्झप्पेण
समाहरे।।
29।।
से
जाणमजाणं
वा, कट्टं
आहम्मिअं
पयं।
संवरे खिप्पंमप्पाणं
वीयं तं न समायरे।। 30।।
सव्वंगंथविमुक्तो,सीईभूओ पसंतचित्तो
अ।
जं पावइ
मुत्ति सुहं,
चक्कवट्टी
वि तं लहई।।31।।
कुछ
मिटे-से नक्से-पा
भी हैं जुनूं
की राह में
हमसे
पहले कोई
गुजरा है यहां
होते हुए।
शास्त्र
का सम्यक
उपयोग भी है, असम्यक
उपयोग भी।
शास्त्र को जो
अंधे की तरह स्वीकार
कर ले, शास्त्र
उसके लिए बोझ
हो जाता है।
शास्त्र को जो
समझे, शास्त्र
को जो
निष्पक्ष
होकर विचार
करे, शास्त्र
को जो जागरूक
होकर ध्यान
करे, तो
शास्त्र से
बड़ी सुगंध
उठती है, बड़ी
मुक्तिदायी
सुगंध उठती
है।
शास्त्र
को पकड़ना
मत--सोचना।
शास्त्र को
अंधे की तरह
स्वीकार मत
करना। अंधे की
तरह स्वीकार
करने में
शास्त्र का
अपमान है। आंख
खोलकर, शास्त्र
में उतरना, शास्त्र को
स्वयं में
उतरने
देना--तो
शास्त्र का
सम्मान है।
कोई भी
सदगुरु
तुम्हें अंधा
नहीं बनाना
चाहता है।
क्योंकि वस्तुतः
तो, तुम्हारी
आंख में ही
तुम्हारा
गुरु छिपा है।
तो सभी सदगुरु
तुम्हारी आंख
खोलना चाहते
हैं। उतनी ही
देर तुम्हारे
साथ होना
चाहते हैं कि
तुम्हारी आंख
खुल जाये, कि
तुम्हें अपने
भीतर का गुरु
मिल जाये।
महावीर
के ये वचन जैन
पढ़ते हैं, अंधे की
तरह। और अ-जैन
तो पढ़ेंगे
क्यों! गीता
हिंदू पढ़ते
हैं, अंधे
की तरह।
गैर-हिंदू तो
फिक्र क्यों
करेंगे! कुरान
मुसलमान पढ़ते
हैं, दोहराते
हैं तोते की
तरह। गैर-मुसलमान
तो फिक्र ही
क्यों करेगा!
मेरे
जाने, तुम
शास्त्र को
तभी समझ सकोगे
जब तुम न
हिंदू हो, न
मुसलमान हो, न जैन हो।
क्योंकि अगर
पक्षपात पहले
से ही तय है, अगर तुमने
जन्म से ही तय
कर रखा है कि
क्या ठीक है, तो अब ठीक की
खोज कैसे
करोगे? मान
ही लिया हो कि
सत्य कहां है,
तो
आविष्कार का
उपाय कहां रहा?
तुमने
जल्दी
स्वीकार कर
लिया, खोजे बिना
स्वीकार कर
लिया, तो
तुम खोज से
वंचित रह
जाओगे।
ये
महापुरुषों
के चरण-चिह्न
तुम्हें बांध
लेने को नहीं
हैं, तुम्हें
मुक्त करने को
हैं। और ये
चरण-चिह्न बड़े
मिटे-मिटे से
हैं। काफी समय
बीत गया, इन
राहों पर और
लोग भी गुजर
चुके हैं। इन
चरण-चिह्नों
को अंधे की
तरह मत मानकर
चलना, अन्यथा
भटकोगे।
जागना, खोजना।
इन
चरण-चिह्नों
में अपने
चरणों की गति को
खोजना है, अपनी
चरणों की
शक्ति को
खोजना है।
कुछ
मिटे-से नक्से-पा
भी हैं जुनूं
की राह में
हमसे
पहले कोई
गुजरा है यहां
होते हुए।
और
सौभाग्यशाली
हैं हम कि
हमसे पहले लोग
यहां गुजरे
हैं। वे जो कह
गये हैं, उनके
जीवन का अनुभव
जो बिखेर गये
हैं, उससे
तुम बहुत कुछ
पा सकते हो।
लेकिन पाने के
लिए बड़ी
समझदारी
चाहिए।
समझो।
जीवन से बहुत
कुछ पाया जा
सकता है। लेकिन
तुम तो जीवन
से भी नहीं
पाते हो।
शास्त्र तो
जीवन की छाया
मात्र हैं, प्रतिफलन
हैं। शास्त्र
जीवन से
निकलते हैं, जीवन
शास्त्र से
नहीं निकलता।
तुम्हें जीवन मिला
है, उससे
तुम कुछ नहीं
पाते, तो
बहुत कठिन है
कि तुम
शास्त्र से
कुछ पा सकोगे।
क्योंकि मूल
से नहीं मिलता
कुछ, छाया
से क्या
मिलेगा?
जो
जानते हैं, जो जागकर
जीते हैं, जो
हिम्मत और
साहस से जीते
हैं, जिनके
जीवन का आधार
सुरक्षा, सुविधा
नहीं है, साहस
है--वे जीवन से
भी निचोड़
लेते हैं सत्य
को। वे
शास्त्र से भी
निचोड़
लेते हैं सत्य
को। जो जागकर
जीते हैं वे
तो छाया से भी
मूल को खोज
लेते हैं
क्योंकि छाया
में भी--"कुछ मिटे-से
नक्से-पा'
कुछ धुंधले
हो गये पैरों
के चिह्न हैं।
अभागे
हैं वे, जो
जीवन से भी
वंचित रह जाते
हैं।
सौभाग्यशाली
हैं वे, जो
कि शास्त्रों
से भी खोज
लेते हैं।
इधर
महावीर के
वचनों पर हम
चर्चा कर रहे
हैं--इसलिए नहीं
कि तुम उन्हें
मान लो। मानने
से कभी कुछ हुआ
नहीं। मानना
तो कमजोर की
आदत है।
वह
कहता है, "कौन
चले, कौन
झंझट करे! ठीक
ही कहते
होंगे। हम
पूजा करने को
तैयार हैं। हम
शास्त्र को
फूल चढ़ा
देंगे। कहो, शोभायात्रा
निकाल देंगे।
लेकिन हमसे
जीवन बदलने को
मत कहो। वह जरा
ज्यादा हो
गया।'
पूजा
हमारी तरकीब
है शास्त्र से
बचने की। मंदिर
तुम्हारे
धर्म के
प्रतीक नहीं; धर्म के साथ
तुमने जो
चालाकी की है,
उसके
प्रतीक हैं।
मन बड़ा
चालाक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने नौकर
से कहा था कि
मेरे जूतों पर
पालिश कर दे।
"अरे फजलू, इतनी देर हो
गई और अभी तक
मेरे जूतों पर
पालिश भी नहीं
हो पायी?'
"सरकार! यह
दूसरा बूट
हाथों में है।'
"और
पहला...?'
नौकर
ने कहा, "उसे
इसके बाद हाथ
में लूंगा
सरकार।'
पहला!
दूसरे के बाद!
मन
बहुत चालाक
है! बड़ी
तरकीबें
खोजता है। ऐसी
तरकीबें
खोजता है कि
दूसरे तो धोखा
खाते ही हैं, खुद भी धोखा
खा जाता है।
इस मन से थोड़े
जागना। मन ही
तुम्हें मनन
नहीं करने
देता है। मन
ही तुम्हें
उतरने नहीं
देता। जहां भी
जाते हो, तुम्हारी
गंदी छाया पड़
जाती है।
शास्त्र पढ़ते
हो, तुम्हारी
छाया में
शास्त्र दब
जाता है। शब्द
सुनते हो, तुम्हारे
पास तक पहुंचते-पहुंचते
उनका अर्थ
रूपांतरित हो
जाता है।
ये
महावीर के वचन
बड़े बहुमूल्य
हैं। आज के
सूत्र
तुम्हारे
जीवन को बदल
देनेवाले हो
सकते हैं। ये
तथ्यगत हैं।
महावीर का कोई
रस सिद्धांतों
में नहीं है।
महावीर कोई
दार्शनिक
नहीं हैं।
महावीर तो
सीधे पथ के
वैज्ञानिक खोजी
हैं।
इन
शब्दों को
समझना, मनन
करना। बन सके,
थोड़ा-थोड़ा
उतारना।
क्योंकि उतारोगे,
तभी इनका
अर्थ खुलेगा।
इनका अर्थ
इनके पढ़ने और
इनके सुन लेने
में नहीं है।
इनका अर्थ
इनके साथ थोड़ी
देर जीने में
है। क्षणभर
को भी अगर तुम
इनके साथ जीये,
तो तुम
पाओगे इनकी
सचाई, इनकी
गहनता, इनकी
गंभीरता। और क्षणभर भी
तुम जीये
तो ये सत्य
तुम्हारी
धरोहर हो
जायेंगे; ये
तुम्हारा
हिस्सा हो
जायेंगे। ये
तुम्हारे खून,
हड्डी, मांस-मज्जा
में समा
जायेंगे।
इन्हें समाने
देना।
पहला
सूत्र:
"ऋण
को थोड़ा, घाव को छोटा,
आग को तनिक
और कसाय को
अल्प मानकर मत
बैठ जाना।
क्योंकि ये
थोड़े बढ़कर बड़े
हो जाते हैं।'
"ऋण
को थोड़ा...।' जो
भी आदमी ऋण
लेता है, पहले
थोड़ा ही मानकर
लेता है और
सोचता है:
"चुका देंगे।
इतना-सा तो ऋण
है। ब्याज भी
कुछ ज्यादा
नहीं है, चुका
देंगे।' जो
भी ऋण लेते
हैं, इसी
आशा में लेते
हैं कि चुका देंगे।
ऋण चुकता नहीं
मालूम होता
फिर, बढ़ता
जाता है।
ब्याज घना
होता जाता है।
ब्याज ही नहीं
चुकता, मूल
का चुकाना तो
बहुत दूर। और
यह साधरण
जीवन के ऋण की
बात तो छोड़ दो,
जो जीवन का
बहुत गहरा ऋण
है, वह तो
कभी चुकता
नहीं मालूम
पड़ता। ले सभी
लेते हैं, फंस
जाते हैं।
महावीर
कहते हैं, सभी ले लेते
हैं तो जरूर
मन में कोई
कारण होगा ले
लेने का। सभी
सोचते हैं, थोड़ा है।
थोड़ा श्रम कर
लेंगे, चुक
जायेगा।
"ऋण
को थोड़ा, घाव
को छोटा...।' कितना
ही छोटा घाव
हो, यह सोच
के कि छोटा है,
क्या फिक्र
करनी है, बैठ
मत जाना, आश्वस्त
मत हो जाना, क्योंकि घाव
प्रतिपल बड़ा
हो रहा है; जैसे
छोटा-सा बीज
बड़ा वृक्ष हो
जाता है। बीज
को मिटा देना
बड़ा आसान था, वृक्ष को
काटना बहुत
मुश्किल हो
जायेगा। तो जो
जानकार हैं, वे ऋण लेते
ही नहीं। वे
कहते हैं, गरीबी
में जी लेंगे;
लेकिन ऋण
लेकर अमीर
होने में कुछ
सार नहीं, क्योंकि
वह अमीरी ऊपर
होगी, धोखे
की होगी, भीतर
जलन होगी और
भीतर
दरिद्रता
होगी। रूखी रोटी
खाकर सो लेंगे,
एक बार खा
लेंगे, पर
ऋण न लेंगे; क्योंकि ऋण
बढ़ेगा। शायद
पेट में तो
रोटी पड़ जायेगी,
लेकिन
प्राणों की
शांति खो
जायेगी। शायद
ऊपर-ऊपर से तो
सब रौनक हो
जायेगी, भीतर-भीतर
अंधेरा हो
जायेगा।
महावीर
साधारण ऋण की
बात नहीं कर
रहे हैं; वे
तो उदाहरण
हैं। लेकिन
जीवन में हम
ऐसे बहुत ऋण
लिये हैं।
हमारा सारा
जीवन ऋण से
भरा है। महावीर
तो कहते हैं, परमात्मा से
भी मत लेना।
लेने की आदत
ही मत डालना।
क्योंकि आदत
बढ़ती है। बीज
वृक्ष होता
है। आज थोड़ा
लोगे, कल
और थोड़ा
ज्यादा लोगे,
परसों और
थोड़ा ज्यादा
लोगे--भिखमंगे
हो जाओगे।
यहां तो
सम्राट भी भिखमंगे
हैं; लेते
चले जाते हैं।
महावीर
कहते हैं, ऋण लेना ही
मत। और जब बीज
की तरह छोटा
अंकुर उठे, भीतर भाव
उठे, पहली
लहर उठे, तभी
रोक देना। घाव
को छोटा मत
मानना, क्योंकि
छोटे-छोटे घाव
बड़े होकर
नासूर हो जाते
हैं। जो
उन्हें प्रथम
चरण में रोक
देता है, वही
रोक पाता है।
महावीर
कहते हैं, घाव बड़ा हो
जाये, फिर
चिकित्सा
करने की चिंता
में पड़ोगे; बड़ी आसानी
से घाव को
रोका जा सकता
है, जब वह
बहुत छोटा है,
या जब अभी
पैदा ही नहीं
हुआ। पैदा
होने के पहले
ही मार देना।
क्रोध
की लहर उठती
है--एक घाव उठा
आत्मा में। तुम
कहते हो, आज
तो कर लें, कल
से न करेंगे।
अब आज तो जो हो
गया, हो
जाने दो!
क्रोध करके
तुम पछताते हो;
निर्णय भी
लेते हो, कल
न करेंगे।
लेकिन जब
क्रोध उठता है,
तब तो तुम
कर ही लेते
हो। और फिर
तुम कहते हो, यह तो
छोटा-सा क्रोध
है, कोई
युद्ध तो खड़ा
नहीं किया, किसी की जान
तो ली नहीं।
दो कड़े
शब्द कह दिये
तो क्या बिगड़
गया? और
फिर, बिना कड़े शब्द
कहे कहीं काम
चला है! कहीं
संसार चला है!
यहां अगर
बुद्ध बनकर
बैठ गये तो
लोग बुद्धू
समझेंगे।
यहां
जोर-जबर्दस्ती
की दुनिया है।
यहां अगर हमला
न किया तो
दूसरे लोग
हमला कर
देंगे। यहां
अगर किसी ने
आंख दमकाई और
उसको जवाब न
दिया, तो
सभी लोग आंख दमकाने
लगेंगे। फिर
तो जीना
मुश्किल हो
जायेगा।
तुम
बहाने खोज
लेते हो। तुम
तरकीबें खोज
लेते हो। फिर
तुम कहते हो, इतना-सा तो
है, इसमें
क्या बिगड़
जायेगा? कौन
महानर्क
हुआ जा रहा है,
कौन-सा
महापाप हुआ जा
रहा है! छोटा
है, क्षमा
मांग लेंगे, प्रार्थना
कर लेंगे, गंगा-स्नान
कर आयेंगे, पूजा कर
लेंगे, दान
कर देंगे--कुछ
कर लेंगे; लेकिन
अभी तो कर लो।
"घाव
को छोटा, आग
को तनिक...।'
छोटी-सी
चिनगारी
महलों को जला
देती है।
"और
कसाय को अल्प
मान...।' क्रोध
है, लोभ है,
माया-मोह
है--कसाय है।
"कसाय' शब्द
महावीर का बड़ा
बहुमूल्य
है--जिससे तुम
कसे हो, जिससे
तुम बंधे हो, जो तुम्हारा
बंधन है। जैसे
हिंदू-शास्त्र
में "पशु' शब्द
है। जो पशु का
अर्थ है वही
जैन-शास्त्रों
में कसाय का
अर्थ है। पशु
का अर्थ होता
है: जो पाश में
बंधा है। पशु
यानी पाश में
बंधा, बंधन
में पड़ा। पशु
का अर्थ सिर्फ
जानवर नहीं है।
पशु का अर्थ
है: जो बंधा है,
चारों तरफ
जिसके
जंजीरें हैं।
जो बंधा है, वह पशु। जो
मुक्त हुआ, वही मनुष्य
है। तो सभी
मनुष्य दिखाई पड़नेवाले
लोग मनुष्य
नहीं हैं।
काश! मनुष्यता
इतनी सस्ती
होती कि दिखाई
पड़ने से मिल
जाती।
नहीं, जिनके बंधन
गिर गये, जिन्होंने
अपनी पशुता
काट दी, पाश
काट डाले, जो
मुक्त
हुए--वही
मनुष्य हैं।
जो मनन को
उपलब्ध हुए, वही मनुष्य हैं।
जो मनु बने, वही मनुष्य
हैं।
जैनों
का शब्द "कसाय' वही अर्थ
रखता है--जो
बांध ले, कस
दे, जो बांधती
चली जाये और
तुम सिकुड़ते
जाओ और छोटे
होते जाओ, और
बंधन बोझिल
होते चले
जायें।
"कसाय'
को अल्प मान,
विश्वस्त
होकर मत बैठ
जाना। अल्पता
तो धोखा है।
यह तो
तरकीब है
"कसाय' की
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
की। यह तो
बीमारी का उपाय
है तुम्हारे
भीतर घर बनाने
का। यह तो बीज
का ढंग है
पृथ्वी के
गर्भ में
प्रवेश करने
का।
तुम
थोड़ा सोचो कि
बीज बहुत बड़ा
होता, असंभव
था वृक्षों का
होना! उतना
बड़ा बीज पृथ्वी
में प्रवेश
कैसे करता? बीज बड़ा छोटा
है, यह
वृक्षों की
तरकीब है। बड़ा
छोटा बीज
बनाते हैं।
बड़े से बड़ा
वृक्ष भी बड़ा
छोटा-सा बीज
बनाता है। कोई
भी रंध्र, कोई
भी जरा-सा छेद
पाकर घुस
जायेगा
पृथ्वी में।
पृथ्वी को पता
भी न चलेगा।
लेकिन अगर
जितने बड़े
वृक्ष हैं, इतने ही बड़े
उनके बीज होते,
तो वृक्ष खो
जाते। कहां से
पृथ्वी में
प्रवेश होता?
इतनी बड़ी रंध्रें, इतने बड़े
छिद्र कहां
खोजते?
बीज, वृक्ष कितना
ही बड़ा हो, छोटे
ही बनाता है।
छोटे में
तरकीब है।
वृक्ष अपने को
पुनः पुनः
जन्माना
चाहता है। कई
तरकीबें करता
है वृक्ष। फूल
उगाता है
सुंदर, तितलियों
को लुभाने के
लिए। क्योंकि
तितलियों के
पैरों में लगकर,
बीज के
छोटे-छोटे
कण-पराग, नर
पौधे तक पहुंच
जायेंगे, नारी
पौधे तक पहुंच
जायेंगे।
मिलन हो
जायेगा नर और
मादा का। तो
फूल जो है
विज्ञापन है
वृक्ष का; बुलावा
है तितली को, कि आओ।
तितली से
प्रयोजन नहीं
है, तितली
के पैरों में
पराग लग जाये
तो नर मादा को
खोज ले, मादा
नर को खोज ले, तो
बीज-निर्माण
हो, तो
संतति आगे
बढ़े।
सेमर
के फूल देखे!
बीज के पास
रुई को पैदा
करते हैं। क्योंकि
सेमर बड़ा
वृक्ष है। अगर
बीज नीचे ही
गिरे तो वृक्ष
की छाया के
कारण बड़े न हो
पायेंगे। वृक्ष
बड़ी होशियारी
कर रहा है। वह
साथ में रुई
पैदा कर रहा
है। तुम्हारे
तकियों के लिए
नहीं, अपने
बीज को हवा की
यात्रा पर
भेजने को, ताकि
बीज दूर चला
जाये, नीचे
न गिरे। ठीक
वृक्ष के नीचे
गिर जायेगा तो
मर जायेगा।
इतने बड़े
वृक्ष की छाया
में कैसे पनपेगा,
कैसे बड़ा
होगा? धूप
न मिलेगी।
पानी न
मिलेगा।
क्योंकि बड़ा
वृक्ष सब पी जायेगा।
पूरी भूमि को निचोड़
लेगा। ये
छोटे-छोटे बीज
तो मर
जायेंगे। इन
बेटे-बेटियों
के लिए वह
थोड़ी-सी रुई
पैदा करता है।
वे रुई के
बहाने हवा पर तिर जाते
हैं, हवा
के झोंके में
दूर निकल जाते
हैं। कहीं दूर
जाकर जमीन खोज
लेंगे। फिर
वहां वे भी
बड़े होकर खड़े
हो जायेंगे।
काम, क्रोध, लोभ,
मोह भी बीज
की तरह
तुम्हारे मन
की भूमि में
आते हैं।
इसलिए महावीर
का सूत्र बड़ा
बहुमूल्य है।
वे यह कहते
हैं, छोटे
मानकर मत सोच
लेना कि क्या,
क्या बिगड़ता
है। जरा-सा
बच्चे पर
क्रोध कर लिया,
क्या हर्ज।
अपना ही बच्चा
है। उसके ही
सुधार के लिए क्रोध
कर रहे हैं।
और फिर क्रोध
जरा-सा है। एक चांटा
भी मार दिया
तो क्या, अपना
ही तो है! ऐसे
छोटे-छोटे
बहाने खोजकर
क्रोध प्रवेश
करता है, माया
प्रवेश करती
है, मोह
प्रवेश करता
है, लोभ
प्रवेश करता
है। आदमी कहता
है, कोई
ज्यादा तो मैं
मांग नहीं रहा,
थोड़ा-सा ही
मांग रहा हूं।
इस संसार में
तो इतनी-इतनी
वासनाओं भरे
लोग हैं; मैं
तो कुछ मांगता
नहीं।
परमात्मा, एक
छोटा-सा मकान
मांगता हूं, छोटी-सी
घर-गृहस्थी हो,
सुख-शांति
हो!...
छोटा
मिल जायेगा तब
तुम बड़ा
मांगना शुरू
करोगे। क्योंकि
छोटा मिलते ही
इतना छोटा हो
जायेगा कि
तुम्हारी
वासना उसमें
समा न सकेगी।
फिर तुम कहोगे, "और...।' फिर तुम
कहोगे, "और...।'
बीज की तरह
जो प्रवेश हुआ
था, वह
जल्दी ही
वृक्ष की तरह
पनपने लगेगा।
और बीज की तरह
जिसे मिटाना
अति सुगम था, फिर वृक्ष
को काटना
मुश्किल हो
जायेगा; क्योंकि
इस वृक्ष की शाखायें
तुम्हारी
आत्मा में फैल
जायेंगी।
फिर इस वृक्ष
को उखाड़ने
में तुम्हें
लगेगा, तुम्हारे
प्राण उखड़े।
तुम जराजीर्ण
होने लगोगे।
कभी
खयाल किया, जो आदमी
जिंदगी भर
क्रोध करता
रहा है, वह
कितना सोचता
है क्रोध छोड़
दे! कौन नहीं
सोचता!
क्योंकि
क्रोध जलाता
है, व्यर्थ
की आग में
गिराता है, जहर से भरता
है, जीवन
से सारा
सुख-चैन खो
जाता है। कौन
नहीं चाहता!
लेकिन क्रोधी
क्रोध छोड़
नहीं पाता।
लाख सोचता है,
छोड़ दे; छोड़
नहीं पाता।
क्योंकि अब
उसे समझ में
ही नहीं आता
कि जड़ें उखाड़े
कहां से! अब तो
उसे ऐसा भी डर
लगने लगता है
कि मैंने सदा
ही क्रोध ही
तो किया है, क्रोध ही तो
मेरा होना है।
अगर क्रोध ही
गया तो मैं
कहां बचूंगा,
मैं क्या
बचूंगा। उसको
अपनी प्रतिमा
ही खोती मालूम
पड़ती है।
क्रोध के बिना
वह अत्यंत दीन
मालूम पड़ेगा।
क्रोध ही उसका
बल था। क्रोध
में ही उसकी
महिमा थी।
क्रोध में ही
वह दूसरों की
छाती पर चढ़
गया था। क्रोध
में ही उसने
किसी को पराजित
किया था।
क्रोध में ही
बाजार में
प्रतियोगिता
की थी, प्रतिस्पर्धा
की थी। क्रोध
में ही उसने
बड़ा मकान बना
लिया था।
क्रोध की ही
तरंगों पर चढ़कर
उसने जीवन को
जाना है। आज
अचानक क्रोध
छोड़ देने की
बात उठती है; उठती है, उसी
के मन में
उठती है, कोई
न कहे तो भी
उठती
है--क्योंकि
क्रोध दुख देता
है। लेकिन, क्रोध उसकी
प्रतिमा में
इतना
प्रविष्ट हो
गया है
रग-रेशे में, जड़ें फैल गई
हैं छोटे-छोटे
स्नायुओं में,
तंतु-जाल हो
गया है!
कभी किसी
बड़े वृक्ष को
पृथ्वी से उखाड़कर
देखा! कितने
दूर-दूर तक
जड़ें फैल जाती
हैं! दूसरे
वृक्षों की
जड़ों को भी
अपने में अटका
लेती हैं।
तुम्हारे
मकान की भूमि
में चली जाती
हैं। मकान की
नींव में
प्रवेश कर
जाती हैं।
मकान की ईंटों
को जकड़ लेती
हैं।
बैंकाक
के पास बुद्ध
की एक प्रतिमा
है, बड़ी
मूल्यवान
प्रतिमा है!
एक वृक्ष उस
प्रतिमा में
समाकर बैठ गया
है। प्रतिमा
खंड-खंड हो गई
है। वृक्ष ने
प्रतिमा के
कोने-कोने में
जड़ें पहुंचा
दी हैं। तुम
कहोगे, वृक्ष
को अलग क्यों
नहीं कर देते?
लेकिन अब
वृक्ष को अलग
किया कि
प्रतिमा
गिरेगी। वृक्ष
तोड़ रहा है
प्रतिमा को, लेकिन वृक्ष
ही जोड़े भी
हुए है। उसकी
ही जड़ों में
प्रतिमा अटकी
है, खंड-खंड
हो गई है, टुकड़े-टुकड़े
हो गए हैं।
नाक अलग है, लेकिन जड़ों
में अटकी है।
हाथ टूट गया
है, लेकिन
जड़ों में फंसा
है।
जब भी
मैं इस
प्रतिमा को
चित्रों में
देखा हूं, तभी मुझे
आदमी की याद
आई। अब भक्त
चाहते हैं कि इससे
छुटकारा हो
जाये। यह तो
मिटाये डाल
रही है। इतनी
बहुमूल्य
प्रतिमा को
नष्ट कर डाला
इस वृक्ष ने।
लेकिन इस
वृक्ष को पानी
देते हैं, दुश्मन
को पानी देते
हैं। क्योंकि
जिस दिन इस वृक्ष
को हटाया, उसी
दिन प्रतिमा
खंड-खंड होकर
गिर जायेगी।
तोड़ा भी इसी
ने है, जोड़े
भी यही है।
यही अड़चन है।
क्रोध
ही तुम्हें
तोड़ रहा है, क्रोध ही
तुम्हें जोड़े
भी है। लोभ ही
तुम्हें तोड़
रहा है, लेकिन
लोभ ही
तुम्हें
सम्हाले भी
है। लोभ ही तुम्हें
नर्क की तरफ
ले जा रहा है, लेकिन लोभ
ही तुम्हारी
नाव भी है। अब
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
नाव छोड़ो
तो डूबे। नाव
में बैठे तो
नाव सरक रही
है नर्क की
तरफ। छोड़ना भी
तुम चाहते हो,
एक पैर उठा
भी लेते हो; लेकिन छोड़ा
तो डूबे।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, सचेत हो
जाना! सावधान
हो जाना!
"ऋण
को थोड़ा, घाव
को छोटा, आग
को तनिक और कसाय
को अल्प मानकर
विश्वस्त मत
हो जाना।' ये
छोटे जो आज
हैं, कल
बड़े हो
जायेंगे; क्योंकि
ये थोड़े ही
बढ़कर बहुत हो
जाते हैं।
मां के
गर्भ में जब
पिता का बीज
पड़ता है, तो
क्या होता है?
इतना छोटा
होता है कि
खाली आंख से
देखा भी नहीं
जा सकता। इतना
छोटा होता है
कि दूरबीन
चाहिए, खुर्दबीन
चाहिए। एक
संभोग में कोई
एक करोड़
जीवाणु पिता
के वीर्य से
मां में
प्रवेश करते
हैं। एक करोड़!
वीर्य की एक
बूंद में
लाखों होते
हैं। इतने छोटे!
फिर वही
गर्भाधान में
बड़ा होने लगता
है। वही बीज
एक से दो होता
है, दो से
चार होता है, चार से आठ
होता है--इस
तरह बढ़ता है।
अपने को ही तोड़ता
है। एक होता
है, बड़ा
होता है, पोषण
मिलता है, दो
हो जाता है।
टूटकर दो
टुकड़े हो जाते
हैं, चार
हो जाते हैं, आठ हो जाते
हैं, फैलता
जाता है। फिर
तुम्हारा
पूरा शरीर उसी
से निर्मित
हुआ है।
कोई
सात अरब
जीवाणु
तुम्हारे
शरीर में हैं।
एक से शुरू
हुए, सात अरब
तक पहुंच गए
हैं। और बहुत
जल्दी पहुंच
जाते हैं। दिन
दूने, रात
चौगुने
होते चले जाते
हैं। जो आंख
से नहीं दिखाई
पड़ता था, वही
आज तुम्हारा
मित्र होगा, तुम्हारा
भाई होगा, तुम्हारा
बेटा होगा, तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारी
प्रेयसी। जो
अदृश्य था, जिसको देखने
के लिए
खुर्दबीन
चाहिए थी, इतना
छोटा इतना बड़ा
हो जाता है!
फैलाव
प्रकृति का
नियम है। यहां
किसी भी चीज को
जगह दी, वह
फैलेगी।
फैलना स्वभाव
है। इसलिए तो
हिंदू विश्व
को ब्रह्म
कहते हैं।
ब्रह्म यानी
जो फैलता चला
जाता है; जो
जानता ही नहीं
कैसे रुके, जो फैलता ही
चला जाता है; अनंत जिसका
विस्तार है; जिसके फैलाव
की कोई सीमा
नहीं। यहां
छोटी-सी चीज
पकड़ो, जल्दी
ही बड़ी होने
लगती है। इन
छोटी-छोटी
बातों के कारण
तुम भटकते चले
जाते हो।
कभी-कभी
तुम्हें खयाल
भी नहीं होता।
तुम जरूरी काम
से जा रहे थे, मां बीमार
पड़ी थी और तुम
उसके लिए दवा
लेने जा रहे
थे और किसी
आदमी ने
रास्ते में
गाली दे
दी--भूल गए मां,
भूल गए दवा,
भूल गए
इलाज-चिकित्सा,
उससे झगड़ने
खड़े हो गए, पहले
इससे निपटारा
कर लेना है!
चाहे इसमें
मां मर जाए, लौटकर घर आओ
और पाओ कि मां
जा चुकी, फिर
चाहे पछताओ--लेकिन
क्षुद्र भी, अति क्षुद्र
भी, अति
व्यर्थ भी, जब आता है
तुम्हारी
आंखों में, तो तुम्हें
परिपूर्ण घेर
लेता है। इसी
तरह तो मंजिल
खोती चली गई
है। तुम
बिलकुल हवा की
तरंगों में
भटकते लकड़ी के
टुकड़े हो; जहां
हवा आ जाती है,
जहां पानी
की तरंग ले
जाती है, वहीं
चल पड़ते हो।
तुम सांयोगिक
हो गये हो--ऐक्सीडेंटल।
तुम्हारे
जीवन में कोई
दिशा नहीं है,
कोई बढ़ाव, कोई विकास, कोई गंतव्य,
कोई मंजिल!
कहां तुम जा
रहे हो, क्यों
तुम जा रहे
हो--कुछ भी
नहीं है।
आकस्मिक घटनाएं,
दुर्घटनाएं,
तुम्हारे
जीवन की
निर्णायक हो
गई हैं। कुछ
भी उठ आता है, जिससे
तुम्हारी कोई
संगति नहीं है,
तुम वह करने
में लग जाते
हो।
मैं
विश्वविद्यालय
में भर्ती
होने गया, तो मैं अपना
फार्म भर रहा
था। मेरे पास
ही एक लड़का
खड़ा था, वह
भी भर्ती होने
आया था। उसने
मेरे फार्म
में देखा।
उसने कहा, "तो
आप
दर्शनशास्त्र
ले रहे हैं? तो मैं भी
लूंगा।'
मैंने
कहा, "तू रुक।
तुझे इससे
क्या प्रयोजन?
यह भी
बिलकुल
सांयोगिक है
कि मैं यहां
खड़ा अपनी दर्खास्त
भर रहा हूं, तू भी भर रहा
है; मेरी दर्खास्त
को एक तो
देखने की कोई
जरूरत नहीं; देख भी ली तो
तुझे कोई विषय
इसलिए लेने की
जरूरत नहीं...।
न तू मुझे
जानता।' उसने
कहा, "यह भी
आप ठीक कहते
हैं। मैंने यह
सोचा ही नहीं।'
तुमने
कभी जिंदगी
में देखा! इस
तरह रोज हो
रहा है। दुकान
पर तुम गये थे; कुछ खरीदने
गये थे, कुछ
खरीद लाये।
क्योंकि
दुकानदार बड़ा
कुशल था। उसने
बेच दिया कुछ।
दुकान पर गये
थे, दुकानदार
ने कुशलता भी
न की हो, लेकिन
दुकान की
खिड़की में सजी
हुई चीजों में
कुछ चीज जंच
गई, जिसकी
तुम्हें क्षणभर
पहले तक कोई
भी जरूरत न थी,
क्षणभर पहले तक
तुम्हें सपना
भी न आया था
उसका; लेकिन
बस आंख में पड़
गई, सरक
गये तुम। शायद
जरूरी काम
छोड़कर, जो
तुम लेने गये
थे, कुछ और
लेकर आ जाओ।
तुम जो लेने
जाते हो, वही
लेकर लौटते हो?
पश्चिम
में
मनोविज्ञान
इस पर बड़ी खोज
करता है कि
लोग क्या
खरीदते हैं।
और उन्होंने
बड़ी तरकीबें
खोजी हैं। और
बड़े हैरानी के
निष्कर्ष हाथ
लगे हैं।
एक
उपन्यास
बिकता नहीं था; छप गया और
बिका नहीं।
विशेषज्ञों
से सलाह ली तो
उन्होंने कहा,
इस किताब का
नाम बदल दो, नाम ठीक
नहीं है, नाम
खींचता नहीं
है। नाम बदल
दिया, किताब
बिकी। ऐसी
बिकी, लाखों
की प्रतियों
में बिकी। सालभर
से छपी पड़ी थी,
कोई खरीदनेवाला
न था। किताब
वही की वही, सिर्फ नाम
बदलने से कुछ
भी नहीं बदला,
एक शब्द
भीतर नहीं
बदला है, सिर्फ
कवर, खोल
बदल गई--और
किताब बिकने
लगी!
मनोवैज्ञानिकों
ने हिसाब
लगाया है कि
चीजें बेचते
हैं तो डब्बे
का रंग क्या
होना चाहिए। क्योंकि
उन्होंने सब
रंगों के
डब्बे रखकर
देखे।
स्त्रियां
खरीदने आती
हैं, तो वे
हिसाब लगाते
हैं कि कौन-से
रंग से ज्यादा
आकर्षित होती
हैं। कुछ रंग
हैं जिनकी तरफ
कोई ध्यान ही
नहीं देता।
अगर उस रंग का
डब्बा तुमने
अपनी चीज को
बेचने के लिए
बना लिया है
तो तुम्हारा
दिवाला
निकलेगा। अब
रंग से भीतर
की चीज का कोई
भी संबंध नहीं
है, लेकिन
लोग सांयोगिक
हैं। लोग एक्सीडेंटल
हैं। रंग उन्हें
पहले खींचता
है। डब्बा
खाली हो तो भी
चलेगा, लेकिन
रंग, रंग
आंख को खींच
लेता है।
कितनी ऊंचाई
पर दुकान पर
डब्बा होना
चाहिए, तब
आंख जल्दी पकड़
में आती है।
पांच फीट, तो
ठीक आंख की
सीध में होता
है। लोग ऐसे अलाल हैं
कि आंख भी ऊपर
उठाकर कौन
देखता है। अगर
जरा डब्बा ऊपर
रखा हो, या
डब्बा बहुत
नीचे रखा
हो...तो अब तो
विशेषज्ञ हैं
इस संबंध में,
जो बताते
हैं कि तुम जब
कोई चीज बनाकर
बाजार में बेचो
तो डब्बे का
रंग क्या हो, कितने बड़े
अक्षरों में
नाम हो, कितनी
ऊंचाई पर
दुकान में रखा
जाये, कितनी
दूरी पर
ग्राहक खड़ा हो,
तो काउंटर
कितने फासले
पर बनाया जाये,
बेचनेवाला
क्या कहे, कैसे
शब्दों का
उपयोग करे, क्योंकि
जरा-जरा-सी
बातें हैं...।
एक
भिखमंगा एक घर
में भीख
मांगने गया।
सुंदर है, स्वस्थ है, जवान है।
महिला बाहर
निकली और उसने
कहा कि जवान
हो, स्वस्थ
सुंदर हो, कोई
काम क्यों
नहीं करते? जिंदगी में
सफल हो सकते
हो, भीख
मांगने की
जरूरत क्या है?
उस आदमी
ने कहा, "अब
तुमसे क्या
कहें! दुनिया
में बहुत
स्त्रियां
देखीं, तुम
जैसी सुंदर
स्त्री नहीं
देखी। फिल्म अभिनेत्रियां
हैं, लेकिन
तुम्हारे
मुकाबले कुछ
भी नहीं। तुम
इस घर में
क्या कर रही
हो? तुम तो
फिल्म
अभिनेत्री हो
सकती थीं।' उस स्त्री
ने कह, "रुक,
रुक। मैं
अभी तेरे लिए
भोजन लाती
हूं।'
भिखमंगे
को भी समझना
पड़ता है, क्या
कहे, किन
शब्दों का
उपयोग करे!
क्योंकि लोग
अंधे हैं।
लोगों को पता
नहीं, वे
क्या कर रहे
हैं, क्यों
कर रहे हैं।
तुम से लोग
करवा रहे हैं।
तुमने सैंकड़ों
चीजें खरीद ली
हैं जो बेचनेवालों
को बेचनी
थीं, तुम्हें
खरीदनी
नहीं थीं।
पुराने
अर्थशास्त्र
का नियम था कि:
जहां-जहां मांग
होती है, वहां-वहां
पूर्ति होती
है। नये
अर्थशास्त्र का
नियम है:
जहां-जहां
पूर्ति होती
है वहां-वहां
मांग पैदा हो
जाती है। तुम
चीज तो बनाओ!
इसकी तुम
फिक्र ही मत करो
कि इसकी कोई
मांग है या
नहीं। मांग
पैदा कर ली
जायेगी। लोग
पागल हैं।
बर्नार्ड
शा ने जब पहली
दफा अपनी
किताबें लिखीं
तो बिकी नहीं।
क्योंकि नाम
बिकता है। कोई
नाम तो था
नहीं। कोई
जानता तो था
नहीं
बर्नार्ड शा
को। तो क्या
किया उसने? वह खुद ही
चक्कर लगाकर
किताबों की
दुकानों पर जाता
था
पूछने--"जार्ज
बर्नार्ड शा
की किताब है?' दुकानदार
पूछता, "कौन
जार्ज
बर्नार्ड शा?'
"...अरे!
तुम्हें
जार्ज
बर्नार्ड शा
का पता नहीं? क्या खाक
किताबों का
धंधा करते हो?
इस-इस नाम
की किताब छपी है।'
ऐसा वह खुद
ही दुकानों पर
चक्कर लगाता।
पता बता आता
उनको। तरकीब
से समझा आता।
और जब उसने अपने
मित्रों को भी
कह दिया कि
तुम जब निकलो
कहीं से, कोई
विशेष रूप से
जाने की जरूरत
नहीं, लेकिन
रास्ते में
अगर किताब की
दुकान पड़ जाये,
इतनी कृपा
मुझ पर करना, पूछ लेना--जार्ज
बर्नार्ड शा
की फलां-फलां
किताब है? कई
ग्राहक आने
लगे, रोज
आने लगे--कि
"है कौन जार्ज
बर्नार्ड शा?'
दुकानदारों
ने पता लगाया,
किताबें
खरीदकर लाये।
जार्ज
बर्नार्ड शा
ने कहा, ऐसे
मेरी किताबों
का बिकना शुरू
हुआ।
चीज
होनी चाहिए, फिर चीज के
आसपास कांटा,
कांटे के
आसपास आटा
होना चाहिए।
फिर कोई न कोई
फंस जायेगा।
संसार बड़ा मूढ़
है। तुम जरा जागो!
महावीर
का इतना ही
प्रयोजन है कि
तुम जरा जागो, अन्यथा ऐसे
तो यह रास्ता
बड़ा ही होता
चला जायेगा।
इसका कोई अंत
न होगा।
अजल
से गर्मे-सफर
हूं, मगर मुझे
अब तक
बिछुड़
गया था मैं
जिससे वोह
कारवां न
मिला।
तुम
अपने स्वभाव
से छूट गये
हो। संयोग में
उलझ गये हो।
बिछड़
गया था मैं
जिससे वोह
कारवां न
मिला!
अजल
से गर्मे-सफर
हूं, मगर मुझे
अब तक
--शुरू
से, जगत के
प्रारंभ से
खोज रहा हूं
अपने को--और
मिल नहीं पाता
हूं। क्योंकि
और दूसरी
चीजें बीच में
मिल जाती हैं
जो अटका लेती
हैं। कभी धन, कभी पद, कभी
प्रतिष्ठा, कभी यश, कभी
रूप, कभी
रंग, कभी
शब्द, कभी
गंध--इंद्रियों
के हजार जाल
हैं! कोई न कोई मिल
जाता है। अपने
घर तक पहुंच
ही नहीं पाते।
कोई न कोई
अटका लेता है।
ध्यान
रखना, कोई
तुम्हें
अटकाता नहीं।
तुम अटकने
को तैयार ही
बैठे हो। कोई
न भी अटकाये,
तो भी अटकने
की कोई तरकीब
खोज लोगे।
छोटे
को छोटा मत
मानना। सब
चीजें बड़ी
हैं। सत्य का
खोजी जीवन की
रत्ती-रत्ती
का होश रखता
है। सब चीजें
बड़ी हैं। वही
करता है जो
करना जरूरी
है। उसी तरफ
जाता है जहां
जाना जरूरी
है। व्यर्थ को
काटता है, ताकि सार्थक
ही बचे। जो
नहीं करना है,
उसे नहीं ही
करता है। खिलवाड़
नहीं करता
जिंदगी के
साथ।
जिंदगी
उसकी एक साधना
है, एक
उपक्रम है, एक सोपान
है। उसकी
जिंदगी में एक
दिशा है। वह कहीं
जा रहा है।
अगर
ऐसे तुम सब
दिशाओं में
भागते रहे, तो तुम कहीं
भी न
पहुंचोगे।
अगर तुम कहीं
नहीं पहुंचे
हो तो कारण तो
खोजो! कारण
यही है कि दो
कदम चलते हो बायें
तरफ, फिर
दिल बदल गया; फिर दो कदम
चलते हो दायें
तरफ, तब तक
फिर दिल बदल
गया।
तुम्हारा दिल
है कि पारा है?
छितर-छितर
जाता है।
जितना पकड़ो
उतना ही छितरता
जाता है। सब
दिशाओं में
बिखर जाता है।
ऐसे तुम बिखर
गये हो। इस बिखरेपन
के कारण ही
आत्मा का
तुम्हें कोई
अनुभव नहीं होता।
महावीर
कहते हैं, छोटे को
छोटा मत
जानना। छोटा
बड़ा हो जाता
है। इसलिए
जिससे बचना हो,
उसके
बीजारोपण के
पहले ही
जागना।
"क्रोध
प्रीति को
नष्ट करता है।
मान विनय को
नष्ट करता है।
माया मैत्री
को नष्ट करती
है। लोभ सब
कुछ नष्ट करता
है।'
कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो।
माया
मित्ताणि
नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।।
"क्रोध
प्रीति को
नष्ट करता
है...।'
अब लोग
हैं, प्रेम
चाहते हैं।
कौन है जो
नहीं चाहता!
ऐसा आदमी खोजा,
ऐसे प्राण
तुमने कभी
पाये जो प्रेम
न मांगते हों?
सभी तो
प्रेम के भूखे
हैं। निरपवाद
रूप से सभी
प्रेम के लिए
प्यासे हैं।
फिर प्रेम खो
कहां गया है? जहां सभी
लोग प्रेम
चाहते हैं और
जहां सभी लोग
सोचते हैं कि
प्रेम दें, वहां प्रेम
के फूल खिलते
दिखायी नहीं
पड़ते। प्रेम
खो कहां गया
है? तो
महावीर कहते
हैं, प्रेम
प्रेम की बात
करने से क्या
होगा? क्रोध,
प्रीति को
नष्ट करता है।
तुम क्रोध के
बीजों को तो
जगह देते जाते
हो और प्रेम
की पुकार और
गुहार मचाये
रखते हो।
चिल्लाते
रहते हो, प्रेम,
प्रेम, प्रेम--और
क्रोध के बीज पनपाये
जाते हो! बोते
हो जहर, अमृत
की मांग करते
रहते हो! फिर
अगर जहर का
झाड़-झंखाड़
तुम्हारे
जीवन को भर
देता है और
अमृत की कोई वर्षा
नहीं होती--तो
कसूर किसका है,
उत्तरदायित्व
किसका है?
"क्रोध,
प्रीति को
नष्ट करता
है...।'
अगर
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम नहीं है
तो जानना कि क्रोध
होगा--चाहे
बहुत-बहुत
करने की वजह
से तुम्हें
याद भी न आती
हो अब, ऐसे
रग-पग गये होओ
क्रोध में कि
अब तुम्हें पहचान
भी नहीं पड़ता
कि क्रोध है।
किसी क्रोधी
को कहो। वह
फौरन कहता है,
"कौन कहता
है, मैं
क्रोध में हूं?
मैं क्रोध
में नहीं हूं।'
क्रोधी भी
यही कहे चला
जाता है, मैं
क्रोध में
नहीं हूं। तुम
भी जब क्रोध
में पकड़े
जाते हो तो
तुम स्वीकार
नहीं करते कि
मैं क्रोध में
हूं। क्रोध को
कोई स्वीकार
ही नहीं करता
और प्रेम की
लोग मांग किये
जाते हैं।
अगर
क्रोध है तो
स्वीकार करो, क्योंकि
स्वीकार
निदान बनेगा।
क्रोध है तो
स्वीकार करो
कि है, तो
मिटाने का कोई
उपाय हो सकता
है। जिसे तुम
स्वीकार ही न
करोगे, उसे
मिटाओगे कैसे?
और अगर
प्रेम न हो तो
महावीर का
सूत्र यह कह
रहा है: अगर
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम न हो तो
निश्चित
जानना कि
क्रोध है, चाहे
तुम्हें पता
चलता हो न पता
चलता हो, पुरानी
आदत हो, मजबूत
आदत हो, खून
में घुल-मिल
गई हो, क्रोध
तुम्हारा
स्वभाव जैसा
हो गया हो कि
अब तुम्हें
याद भी न आता
हो कि अक्रोध
क्या है, तो
भेद करना
मुश्किल हो
गया हो--लेकिन
अगर जीवन में
प्रेम न हो तो
क्रोध है।
"क्रोध,
प्रीति को
नष्ट करता है।
मान, विनय
को नष्ट करता
है...।'
अहंकार, तुम्हारी
विनम्रता को
नष्ट कर देता
है। और विनम्रता
नष्ट होती है,
बड़ा
बहुमूल्य कुछ
तुम्हारे
भीतर समाप्त
हो जाता है।
सीखने की
क्षमता खो
जाती है।
विनम्र सीखने
में सक्षम
होता है।
विनम्र खुला
होता है।
विनम्र तत्पर
होता है। कुछ
भी नया आये, उसके द्वार
बंद नहीं
होते। और
विनम्र जीवन
के सत्य को
पहचानता है कि
मैं एक खंड
मात्र हूं इस
विराट का।
अहंकारी
एक बड़ी
भ्रांति में
जीता है।
अहंकारी की
भ्रांति यह है
कि जैसे मैं
केंद्र हूं सारे
विश्व का, जैसे सब
मेरे लिए हैं
और मैं किसी
के लिए नहीं; जैसे सब मेरे
साधन हैं और
मैं साध्य
हूं।
अहंकार
को अगर हम ठीक
से समझें तो
उसका अर्थ होता
है: सारा जगत
साधन है और
मैं साध्य
हूं। मेरे
जीवन के लिए
अगर सबको मरना
भी पड़े तो भी
उचित है। मेरे
सुख के लिए
अगर सबको दुखी
भी होना पड़े
तो भी ठीक है।
क्योंकि मैं
साध्य हूं, और सब साधन
हैं। सबके
कंधों पर मेरे
पैर रखने पड़ें
मुझे और सबके
सिरों से मुझे
सीढ़ियां
बनाकर चढ़ना
पड़े राजमहलों
तक, चढूंगा। क्योंकि
और सब सीढ़ियां
होने को ही
बने हैं।
अहंकारी
अपने को
अस्तित्व का
केंद्र मान
रहा है।
विनम्र का
क्या अर्थ है? विनम्र कहता
है: मैं कैसे
केंद्र हो
सकता हूं? मैं
नहीं था, तब
भी अस्तित्व
था। मैं नहीं
हो जाऊंगा,
तब भी
अस्तित्व
होगा। मेरे
होने न होने
से क्या फर्क
पड़ता है? एक
तरंग हूं माना,
मैं भी एक
लहर हूं इस
विराट की, पर
बस एक लहर
हूं। विराट
सत्य है। मेरा
होना तो एक
सपना है; रात
देखा, सुबह
खो जायेगा। यह
मेरा होना कोई
ठोस पत्थर की
तरह नहीं है, पानी की
लकीर है।
तो
विनम्र सीख
पाता है जीवन
के सत्यों को।
और अंततः
परमात्मा को
भी सीख पाता
है, क्योंकि
उसने पहली
शर्त पूरी कर
दी। उसने झूठ को
अंगीकार न
किया। उसने
सत्य से ही
शुरुआत की।
सत्य से
शुरुआत हो तो सत्य
पर अंत होता
है। असत्य से
ही शुरुआत हो
जाये, तो
फिर सत्य कहां
मिलेगा? फिर
तो असत्य बढ़ता
चला जायेगा।
अहंकारी
धीरे-धीरे मद
में चूर होता
जाता है। आंखें
देखने की
क्षमता खो
देती हैं। बोध
विलुप्त हो
जाता है। एक
तंद्रा और
निद्रा में
जीता है।
"मान,
विनय को नष्ट
करता है...।' और
अगर तुम्हारे
जीवन में
विनम्रता न हो
तो तुम जान
लेना कि कहीं
अहंकार का
शत्रु घात
लगाये छिपा
बैठा है।
"माया,
मैत्री को
नष्ट करती
है...।' कपट, छल-छिद्र
मैत्री को
नष्ट करता है।
मैत्री का अर्थ
ही होता है कि
तुम किसी के
साथ ऐसे हो
जैसे अपने साथ।
मैत्री का
अर्थ होता है:
तुम्हारे और
मित्र के बीच
कोई रहस्य
नहीं, कोई छुपाव
नहीं, कोई
दुराव नहीं।
मैत्री का
अर्थ होता है:
तुम अपने को
अपने मित्र के
सामने बिलकुल
नग्न करने में
समर्थ हो। तुम
जानते हो, तुम्हें
भरोसा है
प्रेम का। तुम
जानते हो कि तुम
जैसे हो, तुम्हारा
मित्र
तुम्हें
स्वीकार
करेगा। उसका
प्रेम बेशर्त
है। अगर मित्र
से भी तुम्हें
कुछ छिपाना
पड़ता हो, तो
तुम मित्र को
भी शत्रु मान
रहे हो।
मैक्यावली
ने लिखा है...।
ठीक महावीर से
उलटा है मैक्यावली।
इसलिए महावीर
को समझना हो
तो मैक्यावली
को भी समझना
उपयोगी होता
है। मैक्यावली
ने लिखा है:
मित्र से भी
ऐसी बात मत
कहना जो तुम शत्रु
से न कहना
चाहते होओ; क्योंकि कौन
जाने, जो
आज मित्र है
कल शत्रु हो
जाये। फिर तुम
पछताओगे कि
अच्छा होता, इससे यह बात
न कही होती। मैक्यावली
यह कह रहा है
कि तुम मित्र
के साथ भी ऐसा
ही व्यवहार
करना, जैसा
तुम शत्रु के
साथ करते हो; क्योंकि
मित्र यहां
शत्रु भी हो
जाते हैं। महावीर
से पूछो तो
महावीर
कहेंगे: मित्र
की तो बात ही छोड़ो, तुम
शत्रु के साथ
भी ऐसा
व्यवहार करना
जैसा मित्र के
साथ करते हो; क्योंकि कौन
जाने जो आज
शत्रु है, कल
मित्र हो
जाये। तो ऐसी
कुछ बातें मत
कह देना जो कल
फिर लौटाना बड़ी
मुश्किल हो
जाये। फिर थूके
को चाटने
जैसा होगा।
जिससे
दुश्मनी है, उसको हम ऐसी
बातें कहने
लगते हैं जो
बिलकुल अतिशयोक्तिपूर्ण
हैं। कहते हैं,
राक्षस है।
कल तक नर में
छिपा नारायण
था, आज
राक्षस! लेकिन
कल अगर यह
मैत्री फिर
बनी, तो
फिर कहां मुंह
छुपाओगे?
फिर कैसे लौटाओगे? फिर कैसे
कहोगे कि यह
नर में नारायण,
फिर राक्षस
नहीं है।
महावीर
कहते हैं:
मैत्री को तुम
आधार मानकर चलना।
जो आज मित्र
है, वह तो
मित्र है ही; जो आज नहीं
है, वह भी
हो सकता है कल
मित्र हो
जाये। जो आज
शत्रु है वह
भी मित्र हो
सकता है। और
महावीर की बात
मानकर जो
चलेगा, धीरे-धीरे
पायेगा: उसके
शत्रु मित्र
हो गये। और मैक्यावली
की जो मानकर
चलेगा, वह
पायेगा: उसके
मित्र
धीरे-धीरे
शत्रु हो गये;
क्योंकि
तुमने कभी
उनसे मित्र
जैसा व्यवहार ही
नहीं किया।
अगर मित्र से
भी छिपाना पड़े,
इसी को
महावीर माया
कहते हैं।
"माया,
मैत्री को
नष्ट करती
है...।'
माया
का अर्थ है: सच
न होना। माया
का अर्थ है: धोखे
देना। माया का
अर्थ है: जो
तुम नहीं हो, वैसे
दिखाना। माया
का अर्थ है:
प्रामाणिक न
होना। माया का
अर्थ है:
प्रवंचना।
माया का अर्थ है:
दिखावा, धोखा;
आंख में
आंसू भरे थे, लेकिन
मुस्कुराने
लगे, तो यह
मैत्री न हुई।
मित्र के
सामने तो हम
रो भी सकते
हैं। और किसके
सामने रोओगे?
अगर मित्र
के सामने भी
नहीं रो सकते
तो फिर और कहां
रोओगे? मित्र
के सामने तो
हम अपना दुख, पीड़ा, दैन्य,
सभी कुछ
प्रगट कर सकते
हैं। मित्र के
सामने तो हम
अपना कलुष, अपना पाप, अपना अपराध,
सभी प्रगट
कर सकते हैं।
क्योंकि हम
जानते हैं, प्रेम का
भरोसा है। उस
प्रेम की छाया
में सब स्वीकार
है। क्योंकि
मित्र ने हमें
चाहा है--किन्हीं
कारणों से
नहीं; अकारण
चाहा है। तो
किन्हीं
कारणों से टूटेगी
नहीं मैत्री।
ऐसा नहीं है
कि मित्र देख
लेगा कि अरे, तुमने और
ऐसा पाप किया!
दोस्ती खतम!
नहीं, मित्र
तुम्हारे पाप
के प्रति भी
करुणा का भाव रखेगा।
वह कहेगा, सभी
से होता है, मनुष्य
मात्र से होता
है। मित्र
तुम्हें समझने
की कोशिश
करेगा। मित्र
तुम्हारी
निंदा नहीं
करेगा। जरूरत
होगी तो
आलोचना करेगा,
निंदा
नहीं। लेकिन
आलोचना भी इस
खयाल से करेगा
कि श्रेष्ठतर
का आगमन हो
सके। आलोचना
भी इस खयाल से
करेगा कि तुम
और बड़े होने
को हो, तुम
अभी और खुलने
को हो; यह
कली इतने ही
होने को नहीं,
तुम्हारी
नियति और बड़ी
है।
मित्र
अगर तुम्हारी
आलोचना भी
करेगा तो
उसमें गहन
प्रेम होगा।
और शत्रु अगर
तुम्हारी
प्रशंसा भी
करता है तो
उसमें भी
व्यंग्य होता
है; उसमें भी
कहीं गहरी
निंदा का स्वर
होता है, कहीं
कटाक्ष होता
है।
मैत्री
तो संभव है
तभी, जब माया
बीच में न हो।
इसलिए दुनिया
में मैत्री
धीरे-धीरे
खोती गई है।
लोग नाममात्र
को मैत्री कहते
हैं; उसे
परिचय कहो, बस ठीक है; इससे ज्यादा
नहीं। दुनिया
से मैत्री का
फूल तो
करीब-करीब खो
गया है।
क्योंकि
मैत्री के फूल
के लिए सरलता
चाहिए, निष्कपटता
चाहिए। कपट, माया अगर
बीच में आई तो
मैत्री
समाप्त हो
जाती है। अगर
गणित बीच में
आया तो मैत्री
समाप्त हो
जाती है।
मैत्री तो एक
काव्य
है--गणित नहीं,
तर्क नहीं।
मित्र के
सामने हम अपने
को वैसा ही
प्रगट कर देते
हैं जैसे हम
हैं। इसलिए तो
मित्र के पास
राहत मिलती
है। कम से कम
कोई तो है जिसके
पास जाकर हमें
झूठ नहीं होना
पड़ता; नहीं
तो चौबीस घंटे
झूठ। पत्नी है
तो उसके सामने
झूठ। दफ्तर है,
मालिक है, तो उसके
सामने झूठ।
बाजार में
संगी-साथी हैं,
उनके साथ
झूठ। सब तरफ
झूठ है। तो
तुम कहीं खुलोगे
कहां? तुम
बंद ही बंद मर
जाओगे। हवा का
झोंका, सूरज
की किरणें
तुममें कहां
से प्रवेश
करेंगी? तुम
कब्र बन गये।
कहीं कोई तो
हो कहीं, जहां
तुम शिथिल
होकर लेट जाओ;
जहां तुम
जैसे हो वैसे
ही होने को
स्वतंत्र होओ;
जहां कोई
मांग नहीं है;
जहां मित्र
की आंख यह
नहीं कह रही
है कि ऐसे नहीं,
ऐसे होओ।
मैत्री
बड़ी अनूठी
घटना है। शब्द
ही बचा है संसार
में। मैत्री
के फूल बहुत
कम खिलते हैं।
क्योंकि
मैत्री के फूल
के खिलने
के लिए दो ऐसे
व्यक्ति
चाहिए जो
निष्कपट हों, जिनके बीच
माया न हो।
"माया,
मैत्री को
नष्ट करती है।
और लोभ, सब
कुछ नष्ट कर
देता है।' अगर
तुम्हारी
जिंदगी में
खंडहर ही
खंडहर मालूम
पड़ता हो, मरूद्यान
का कहीं कोई पता
न चलता हो, मरुस्थल
ही मरुस्थल, तो एक बात
जान लेना कि
तुमने लोभ के
ढंग से ही जीना
सीखा है, तुम
और कुछ नहीं
जान पाये। लोभ,
सब कुछ नष्ट
कर देता है।
यह
महावीर निदान
कर रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं, अगर
तुम्हारी
जिंदगी में
कोई रस-वर्षा
न होती हो, तो
दोष मत देना
किसी को--इतना
ही जानना कि
तुम लोभ में
बड़े गहरे उतर
गये हो। तुमने
लोभ की बड़ी
गहरी सीढ़ियां
पार कर ली
हैं। तुम लोभ
के कुएं में
डूब गये हो।
तो ही ऐसा
होता है कि सब
नष्ट हो जाये।
उसने
मंशाए-इलाही
को मुकम्मिल
कर दिया
अपनी
आंखों पर
जिसने लिये
मुहब्बत के
कदम।
जिसने
मैत्री सीखी, जिसने प्रेम
सीखा, जिसने
मैत्री के लिए
माया छोड़ी,
जिसने
प्रेम के लिए
क्रोध छोड़ा, जिसने विनय
के लिए मान
छोड़ा, और
जिसने जीवन को
सृजनात्मक
गति देने के
लिए लोभ से
विदा ली--उसने मंशाए-इलाही
को मुकम्मिल
कर दिया; उसने
परमात्मा की
आकांक्षा
पूरी कर दी।
अपनी
आंखों पर
जिसने लिए
मुहब्बत के
कदम।
--फिर
उसकी आंखों पर
मुहब्बत की
छाया पड़ने
लगी। फिर उसके
हृदय में
मुहब्बत के
कमल खिलने
लगे।
प्रेम
परम घटना है।
अब इसे हम
समझें।
महावीर
कहते हैं, लोभ से सब
नष्ट हो जाता
है और प्रेम
से सब उपलब्ध
हो जाता है।
महावीर कहते
हैं, "मित्ति मे सव्वभुएषु।'
सबसे
मैत्री, सबसे
प्रेम, सर्वभूतों से।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, एक से
ही प्रेम करने
में इतने कमल
खिलते हैं, जरा सोचो, सबसे प्रेम!
प्रेम
तुम्हारा
स्वभाव बन
जाये। प्रेम
संबंध न रहे।
ऐसा नहीं कि
किसी से प्रेम
और किसी से
नहीं; क्योंकि
ऐसे प्रेम में
तो कुछ न कुछ
कमी रह जायेगी।
ऐसे प्रेम में
तो सीमा होगी।
बस प्रेम। प्रेम,
तुम्हारे
होने का ढंग।
प्रेम, तुम्हारे
होने की सुगंध,
सुरभि।
प्रेम, तुम्हारे
होने की
व्यवस्था।
कोई न भी हो, तुम अकेले
कमरे में बैठे
हो तो भी
प्रेम से भरे
बैठे हो। उस
शून्य में ही
प्रेम उंडेल
रहे हो।
वृक्षों के
पास बैठे हो
तो वृक्षों से
प्रेम-वार्ता
चल रही है। चांदत्तारों
को देखा है तो
वहीं प्रेम का
आलिंगन होने
लगा।
सरिता-सागर के
पास गये हो तो
वहीं मैत्री
का सुर बजने
लगा। अकेले कि
भीड़ में, अकेले
कि साथ में, सुख में कि
दुख
में--लेकिन
प्रेम की वीणा
बजती ही रहे; वह तुम्हारे
भीतर श्वास हो
जाये अहर्निश!
पता हो न पता
हो, श्वास
जैसे चलती
रहती है, ऐसा
प्रेम भी
डोलता रहे!
इस
प्रेम की परम
घटना के लिए
महावीर ने
अहिंसा नाम
दिया है। इस
प्रेम को जीसस
ने ईश्वर कहा
है। प्रेम
ईश्वर है।
लोभ, सब कुछ नष्ट
कर देता है। "लोहो सव्वविणासणो!'
लोभ और
प्रेम विपरीत
हैं। इसे
समझो। लोभी
व्यक्ति
प्रेम नहीं कर
पाता--कर ही
नहीं सकता। क्योंकि
प्रेम में
बांटना पड़ता
है, देना
पड़ता है। लोभी
कृपण होगा, बांटेगा कैसे? लोभ
तो इकट्ठा
करता है। लोभ
तो जो इकट्ठा
कर लेता है, उसकी रक्षा
में लग जाता
है--उसमें से
कोई एक पैसा
खींच न ले!
इसलिए तो इस
देश में कहावत
है कि जब कोई
लोभी मरता है,
मरकर सांप
हो जाता है; मंडली मारकर,
कुंडली
मारकर, बैठ
जाता है अपने खजाने पर।
अब सांप कोई
सोने को भोग
नहीं
सकता--भोगने का
सवाल भी नहीं
है।
लोभी
बड़ा अदभुत
आदमी है। जरा
उसको समझो।
क्योंकि वह
सबके भीतर
छिपा है, उसे
समझना जरूरी
है। लोभी बड़ा
अनूठा आदमी
है। साधारण
घटना नहीं है
लोभी। लोभी
उतनी ही बड़ी असाधारण
घटना है जितनी
बड़ी असाधारण
घटना प्रेमी
है। दोनों छोर
हैं, अतियां
हैं। लोभी
भोगता नहीं, सिर्फ भोग
की आशा को
भोगता है। धन
इकट्ठा कर
लेता है, उसे
खर्च नहीं
करता। खर्च
में तो कम
होगा। धन इकट्ठा
कर लेने में
ही उसका भोग
है। धन तो सिर्फ
संभावना है।
तुम सोने की
ईंट रखकर बैठे
रहो कि मिट्टी
की ईंट रखकर
बैठ लो, कुछ
फर्क न पड़ेगा।
फर्क तो तब
पड़ेगा जब तुम
भोगने जाओगे;
बिना भोगे
तो मिट्टी की
ईंट और सोने
की ईंट बराबर
है। तुम्हारे
खीसे में
रुपया है या
नहीं, इसका
पता तो तभी
चलेगा जब तुम
भोगने जाओगे।
जब बाजार में
कुछ खरीदने
जाओगे, तब
पता चलेगा कि
रुपया है या
नहीं। अगर खरीदने
कभी गये ही
नहीं तो खीसे
में रुपया था
या नहीं, बराबर
है।
लोभी
बड़ा अदभुत
आदमी है। वह
रुपया तो
इकट्ठा करता
है, लेकिन
भोगता नहीं।
तो लोभी के
पास धन होकर
भी लोभी
निर्धन ही
होता है; क्योंकि
धन का तो पता
ही तब चलता
है...। रुपया धन थोड़े
ही है। जिस
क्षण तुम रुपये
को खर्च करते
हो, उस
क्षण धन बनता
है।
इसे
थोड़ा समझना।
तुम्हारे
खीसे में एक
रुपया पड़ा है।
इसमें कई
चीजें छिपी
हैं: चाहो तो
एक आदमी रातभर
मालिश करे--इस
एक रुपये में
छिपा पड़ा है।
अब एक आदमी को
खीसे में रखकर
चलो, बहुत वजन
हो जायेगा, भारी पड़ेगा।
चाहो तो गिलासभर
दूध पी लो, इस
रुपये में वह
छिपा पड़ा है।
चाहो तो जाकर
तीन घंटे
फिल्म में बैठ
जाओ। चाहो तो
होटल में भोजन
कर लो। चाहो
तो किसी को
दान दे दो, किसी
भूखे का पेट
भर जाये। हजार
संभावनाएं हैं
एक रुपये में।
यही तो रुपये
की खूबी है।
रुपया
बड़ा अदभुत
साधन है!
क्योंकि अगर
तुम्हें एक ही
चीज पकड़नी
हो...तो
तुम्हें एक
आदमी से अगर
मालिश करवानी
है तो आदमी रख
लो, लेकिन
फिर उस आदमी
का तुम दूसरा
उपयोग न कर सकोगे।
नाश्ता करना
चाहो तो क्या
करोगे? सिनेमा
देखने जाना
चाहा तो क्या
करोगे? रुपया
बड़ी अनूठी चीज
है! मनुष्य की
बड़ी गहरी ईजादों
में एक ईजाद
है रुपया।
इसमें सब
चीजें समाई
हैं। लेकिन
अभी कोई भी
चीज
प्रत्यक्ष
नहीं है, सब
अप्रत्यक्ष
है। अभी कोई
भी चीज
वास्तविक नहीं
है, सिर्फ
संभावना है।
इसलिए तो अनंत
संभावनाएं रुपये
में छिपी हैं।
इसलिए तो लोग
रुपये के लिए
इतने पागल हैं;
क्योंकि रुपया
तिजोड़ी
में है तो
अनंत
संभावनाएं
हाथ में हैं।
लेकिन
रुपया बिलकुल
खाली है, जब
तक उसका उपयोग
न करो--है ही
नहीं रुपया।
उसका कोई मतलब
नहीं है। तिजोड़ी
में बंद है तो
व्यर्थ है।
रुपये की
सार्थकता तभी
है, जब वह
तुम्हारे हाथ
से दूसरे हाथ
में जाता है।
बीच में रुपया
धन होता है।
देने में धन
है। भोगने में
धन है। रोकने
में तो धन
मिट्टी हो
जाता है।
और यह
सारे जीवन के
धन के संबंध
में सही है।
वही चीज
तुम्हारे पास
है जो तुम दे
देते हो। यह बड़ा
विरोधाभास
लगेगा। जो
तुम्हारे पास
है और तुमने
कभी भी न दी वह
तुम्हारे पास
थी ही नहीं; क्योंकि हो
कैसे सकती थी?
चीज तो
प्रगट तब होती
है जब तुम
देते हो।
आदान-प्रदान
में धन प्रगट
होता है।
मुट्ठी में
बंद, तो मर
जाता है, होता
ही नहीं। क्या
फर्क पड़ता है
कि तुम्हारे पास
एक लाख रुपया तिजोड़ी
में था या
नहीं था? तिजोड़ी
बंद रही, तुम
जीये तिजोड़ी
के बाहर, मरे
तिजोड़ी
के बाहर। लाख
रुपया बंद था
कि नहीं था
बंद, क्या
फर्क पड़ता है?
कोई भी तो
फर्क नहीं
पड़ता। फर्क पड़
सकता था, अगर
तुम बांटते।
लोभी बांटता
नहीं। बाहर के
धन को ही नहीं,
जब बाहर के
धन को ही नहीं
बांटता तो
भीतर के धन को
क्या खाक बांटेगा?
जब क्षुद्र
रुपये नहीं
बांट सकता, तो जीवन की
महिमा क्या बांटेगा? ठीकरे नहीं
बांट सकता, तो हृदय
कैसे लुटायेगा?
और प्रेम के
लिए तो चाहिए
हृदय लुटानेवाला,
बांटनेवाला,
देनेवाला।
प्रेम
है बांटने की
कला। लोभ है
इकट्ठा करने की
कला। मगर तुम
जो इकट्ठा
करते हो, वह
व्यर्थ है। इसलिए
लोभी से
ज्यादा
दरिद्र कोई भी
आदमी नहीं है।
देखना, कभी
देते वक्त उस
पुलक को, उस
उमंग को! उस
घड़ी को गौर से
देखना, जब
तुम कुछ देते
हो! एक पैसा हो
कि लाख रुपया
हो, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। वह
रुपया न भी हो,
इससे भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता। तुमने
किसी का हाथ
ही प्रेम से
हाथ में ले
लिया हो, तुम
किसी के पास
ही दो क्षण
गहरी
सहानुभूति से
बैठ गये हो।
तुम एक फूल, जंगली फूल
रास्ते के
किनारे से तोड़कर
किसी को दे
दिये हो--उस
घड़ी जरा जागकर
देखना, क्या
घटता है! जब
तुम कुछ देते
हो, तब
तुम्हारे
भीतर कैसा
आविर्भाव
होता है! कैसा
प्रसाद! कैसा
बरसाव हो जाता
है!
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है, जब
तुमसे कोई कुछ
लेने को राजी
हो जाये तो
उसका धन्यवाद
भी करना। उसे
देना तो, साथ
में दक्षिणा
भी देना।
दक्षिणा यानी
धन्यवाद में
भी कुछ देना।
क्योंकि अगर
वह इनकार कर
देता तो
तुम्हारा धन,
धन न हो
पाता। तुमने
एक पैसा जाकर
किसी गरीब को
दे दिया, उस
गरीब ने लेकर
तुम्हारे
पैसे को पैसा
बनाया; उसके
पहले वह पैसा
नहीं था। उस
गरीब ने उसको
धन बनाया।
धन्यवाद कौन
किसका करे?
पुराने
शास्त्र कहते
हैं कि तुम
उसे धन्यवाद में
भी अब कुछ
देना, कि
तेरी बड़ी कृपा,
तू इनकार भी
कर सकता था; तू कहता, नहीं
लेते--फिर?
प्रेम
की दुनिया में, जो लेनेवाला
है वह भी कुछ
दे रहा है।
यही तो प्रेम
का मजा है! जो
लेनेवाला है
वह भी कुछ दे
रहा है।
देनेवाला ही
नहीं दे रहा
है, लेनेवाला
भी दे रहा है।
दोनों दे रहे
हैं। और कोई
घाटे में नहीं
है। किसी ने
धन दिया, किसी
ने लिया; लेकर
उसने उस धन की
हुंडी को स्वीकारा।
अभी तक हुंडी
थी, अब धन
हुई। उसने
तुम्हें धनी
बना दिया।
तुम्हारी दया
को स्वीकार
करके तुम्हें
दयालु बना दिया।
तुम्हारे
प्रेम को
स्वीकार करके
तुम्हें
प्रेमी बना
दिया।
तुम्हारे हाथ
से जब देने की
घटना घटी, उस
क्षण
तुम्हारे
हृदय में कोई
फूल खिल गया।
देकर
आदमी धन्यभागी
होता है।
लोभी
प्रेम नहीं कर
सकता।
क्योंकि
प्रेम की यात्रा
तो बिलकुल
उलटी है; वह
बांटने की है
और देने की
है। लोभी
सिर्फ रोकता
है। लोभ एक
तरह की
कब्जियत है, बीमारी है।
लो भी, दो भी--जीवन
लेना-देना है।
अब एक
और बात तुमसे
कह देना चाहता
हूं: कुछ लोगों
को ऐसी
भ्रांति पकड़
जाती है--या तो
वे कहते हैं
कि हम देंगे
नहीं; या वे
कहते हैं, हम
लेंगे नहीं।
लोभी हैं:
पहले धन को पकड़ते
थे; वे
कहते थे कि हम
देंगे नहीं।
फिर समझ में
आया कि यह धन
तो सब मिट्टी
हुआ जा रहा है,
यह तो पकड़
से ही मिट्टी
हुआ जा रहा है,
तो वे कहते
हैं, हम
देंगे, अब
लेंगे नहीं।
तुम ऐसे आदमी
को धार्मिक
कहते हो। यह
आदमी धार्मिक
नहीं है। यह
अधार्मिक आदमी
है; क्योंकि
यह किसी दूसरे
को मौका नहीं
देता कि उसकी
मिट्टी धन हो
जाये। यह कैसी
बात हुई? परम
धार्मिक तो वह
है जो
लेने-देने में
कुशल है, दोनों
में कुशल है।
यह तो धार्मिक
न हुआ, अहंकारी
हुआ। यह कहता
है, हम तो
सिर्फ देंगे,
हम ले नहीं
सकते--मैं और
लूं!
एक
बहुत बड़े धनी
व्यक्ति हैं, मेरे मित्र
हैं। एक दफा
मेरे साथ
यात्रा पर गये
तो अपने दिल
की बातें खोलने
लगे। काफी समय
तक साथ था, तो
छिपा न सके; कुछ-कुछ
बातें करने
लगे। एक
उन्होंने
अपने बड़े दिल
की, दुख की
बात कही कि
"मैंने अपनी
जिंदगी में
अपने सब
रिश्तेदारों
को खूब दिया, मित्रों को
दिया।' और
यह सच है, मैं
जानता हूं, उन्होंने
दिया। "लेकिन
कैसा मेरा
अभाग्य है कि
जिनको भी मैं
देता हूं, वे
कोई भी मुझसे
प्रसन्न नहीं!'
और यह भी
मैं जानता हूं
कि जिनको भी
उन्होंने दिया
है, वे सब
उनसे नाराज
हैं। और वे
झूठ नहीं कह
रहे हैं; उन्होंने
दिया है, खूब
दिया है! उनके
पास खूब था, खूब है। हर
रिश्तेदार को
उन्होंने
लखपति बना दिया
है। हर मित्र
को लखपति बना
दिया है।
जिसके साथ भी
उनका संबंध
रहा है, वह
जल्दी ही
लखपति हो गया।
लेकिन जिनने
भी उनसे लिया,
वे सब उनसे
नाराज हैं। तो
वे मुझसे कहने
लगे, कि
क्या हो गया!
मेरा
दुर्भाग्य
कैसा है? मैंने
क्या कमी की, मेरा कसूर
क्या है?
मैंने
कहा, कसूर
तुम्हारा यह
है, कि
तुमने सिर्फ
दिया और उनको
तुमने देने का
कभी मौका नहीं
दिया। तुम
थोड़ा उनको भी
मौका देते।
लेन-देन होता
तो ठीक था।
तुमने दिया ही
दिया। और तुम
अहंकारी हो।
और तुम लेने
पर राजी नहीं
हो। तुम दाता
बने रहना
चाहते हो।
तो अगर
तुम दाता ही
रहोगे तो
जिसको तुमने
दीन बना दिया
देकर, वह
अगर नाराज हो
तो आश्चर्य
क्या? वह
अगर तुम्हें
क्षमा न कर
सके तो
आश्चर्य क्या?
वह तुमसे
बदला लेगा।
तुमने उसके
अहंकार को बड़ी
चोट पहुंचा
दी।
मैंने
कहा, कभी उनको
भी मौका दो।
धन की तुम्हें
जरूरत नहीं; लेकिन हजार
और चीजों की
जरूरत है। जिस
मित्र को
तुमने लाखों
दिये हैं, कभी
उससे इतना ही
कह दिये कि आज
मुझे जरा कार
की जरूरत है, भेज दो। वह
कार तुम्हारी
ही दी हुई है, लेकिन उसे
भी तो थोड़ा
मौका दो कि
तुम्हारे लिए
कुछ कर सके।
पर वे
कहने लगे, मुझे जरूरत
ही नहीं है।
मेरे पास ऐसे
ही काफी है।
"कभी
तुम बीमार
पड़ते हो, किसी
मित्र को फोन
करके कहो कि
आओ, मेरे
पास बैठ जाओ; तुम्हारा
होना मुझे सुख
देगा। यह भी
तुमने कभी
नहीं किया।
तुम कुछ तो
करो।
तुम्हारे
बेटे की शादी
हो तो अपने
मित्रों को
कहो कि आओ, तुम्हारे
बिना शादी न
हो सकेगी। कुछ
तो करो। तुम
बिलकुल पत्थर
की तरह हो।
तुम देते तो
हो, लेकिन
देना भी
तुम्हारा
अहंकार से भरा
है; क्योंकि
लेने के लिए
तुम्हारा हाथ
कभी नहीं फैलता।
इसलिए जिसको
तुम देते हो, वही तुम पर
नाराज है।
जिसको तुम
देते हो, वही
अनुभव कर रहा
है कि तुमने
उसे नीचे
गिराया।
तुमने हाथ सदा
ऊपर रखा; दूसरों
के हाथ सदा
नीचे रखे।'
मेरे
लिए धार्मिक
आदमी वह है जो
तुम्हें देता भी
है और तुमसे
लेता भी है--और
लेन-देन बराबर
रखता है। कोई
क्षुद्र-सी
चीज तुमसे ले
लेता है। मगर
तुम्हें मौका
देता है देने
का भी। क्योंकि
तुम भी तो खिलो!
अगर देने से
ही लोग खिलते
हैं तो तुम भी
तो खिलो!
कोई छोटी-मोटी
चीज। चीजों के
मूल्यों का
कोई सवाल नहीं
है। कोई तुमसे
इतना ही कह दे
कि वह जो
पत्थर पड़ा है, मेरे लिए
उठाकर ला दो, और तुम्हें
धन्यवाद दे दे,
तो भी तुम
भर जाओगे।
क्योंकि जब भी
तुम कुछ दे पाते
हो, तभी
तुम्हारी
आत्मा भरती है
और खिलती है।
तो मैं
तुम्हारी एक
भ्रांति को
स्पष्ट कर देना
चाहता हूं।
प्रेम सिर्फ
देना ही देना
नहीं है; नहीं
तो वह तो
अहंकार हो
जायेगा, वह
प्रेम नहीं
होगा। प्रेम
तो लेने-देने
की छूट है।
प्रेम तो देता
भी खूब है, लेता
भी खूब है।
प्रेम न तो इस
तरफ कंजूस है,
न उस तरफ
कंजूस है।
प्रेम अकड़ा
हुआ नहीं है।
प्रेम विनम्र
है। वह कभी
हाथ नीचे भी
कर लेता है।
वह कभी हाथ
ऊपर भी कर
देता है।
प्रेम लेने और
देने को खेल
मानता है। इस
आवागमन में
ऊर्जा के आने-जाने
में, जीवन
ताजा रहता है।
और खेल बड़ा महिमावान
है, क्योंकि
दोनों इस
लेने-देने में
निखरते हैं; दोनों बड़े
होते हैं; दोनों
खिलते हैं, विकसित होते
हैं।
सुनो!
इसे गुनो!
तुम
त्यागियों
जैसे अहंकारी
मत बना जाना, जो कहते हैं,
हमने सब
त्याग किया।
ये लोभी
हैं--शीर्षासन
करते हुए--जो
कहते हैं, हम
कुछ न लेंगे।
एक बड़ा
अदभुत आदमी है
बंबई में: रमणीक
जौहरी। वह
मेरे पास आया।
वह एक मोतियों
का हार बना
लाया था। उसकी
आंखों में
आंसू थे। उसने
मुझे हार
पहनाया। उसने
कहा कि आप मना
मत करना। पर
मैंने कहा, तुम रो
क्यों रहे हो?
वह कहने लगे,
मैं खुशी से
रो रहा हूं।
मैंने कहा, "तुम मुझे
पूरी बात कहो।'
वे जैन
हैं, तेरापंथी जैन हैं। तो
उसने कहा, मैं
आचार्य तुलसी
का भक्त हूं।
उसी घर में, उसी परंपरा
में पैदा हुआ।
उनको मैं कुछ
देना चाहता
हूं, लेकिन
वे तो कुछ ले
नहीं सकते।
इसलिए मेरा
कोई संबंध ही
नहीं बन पाता।
संबंध तो तब
बनता है जब
दोनों तरफ से
कुछ
आदान-प्रदान
हो। वे मुझसे
कुछ ले ही
नहीं सकते; क्योंकि वे
कहते हैं, वे
त्यागी हैं।
इसलिए आपसे
मैंने
प्रार्थना की।
मैं किसी को, जो मुझसे
बड़ा हो, कुछ
देना चाहता
हूं। क्योंकि
उस देने में
मैं भी बड़ा हो जाऊंगा, मैं भी कुछ खिलूंगा।
आप मना मत
करना!
उस दिन
जो आंसू उसकी
आंखों से बहे, वे बड़े
बहुमूल्य थे।
मोतियों का
हार मुझे
पहनाकर वे अति
प्रसन्न हो
लिया। वह
बार-बार मुझे
धन्यवाद देने
लगा कि मैं
डरा हुआ था कि
कहीं आप भी
मना न कर दें।
मैंने कहा, मैं किसी भी
तरफ से कंजूस
नहीं हूं। जो
मेरे पास है, तुम्हें
देता हूं; जो
तुम्हारे पास
है, लेने
को हमेशा
तैयार हूं। यह
बात तो जरा
गलत है और अहंकार
की है कि मैं
सिर्फ दूंगा,
लूंगा
नहीं। मैं और
लूं! मैं और
इतना छोटा हो
जाऊं कि तुमसे
लूं! क्षुद्र
सांसारिक
पुरुषों से
कुछ लूं!
मैंने
कहा, तुम
फिक्र छोड़ो;
क्योंकि
मेरे लिए कोई
क्षुद्र नहीं
है। परमात्मा
ही दोनों तरफ
बैठा है। अगर
तुम्हें कुछ
लगा है कि
मुझसे
तुम्हें मिला
है और तुम
बेचैनी अनुभव
करते हो बिना
कुछ दिए--और
ठीक है बेचैनी,
अनुभव होनी
चाहिए; जिसके
भीतर भी धड़कता
हुआ दिल है, अनुभव
होगी--तो तुम
ले आना, तुम्हारे
पास जो हो ले
आना। मैं न तो
भोगी हूं न
त्यागी हूं।
मैं कृपण हूं
ही नहीं। भोगी
भी कृपण है, त्यागी भी
कृपण है। एक
ने भोग को
पकड़ा है, एक
ने त्याग को
पकड़ा है। मैं
सिर्फ जीवंत
हूं। आओ, जाओ।
तुमने मेरे
लिए हृदय खोला
है, तो
मेरा हृदय भी
तुम्हारे लिए
खुला है। और
मैं तुम्हारे
आंसू समझ सकता
हूं। तुम कुछ
और बड़ा लाना
चाहते थे; तुम
जानते हो, कंकड़-पत्थर
लाये हो।
लेकिन क्या
करो, तुम्हारी
मजबूरी है! जो
तुम्हारे पास
था वही तुम
लाये हो। लाने
के भाव का
मूल्य है; क्या
तुम ले आये हो,
यह थोड़े ही
सवाल है!
खयाल
रखना, मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
प्रेम का अर्थ
होता है: बस
दो। मैं तुमसे
यह कह रहा हूं,
प्रेम का
अर्थ होता है:
तुम भी बड़े
होओ, दूसरे
को भी बड़ा
होने दो; तुम
भी फैलो दूसरे
को भी फैलने
दो। दो भी, लो
भी। और
तुम्हारे बीच
लेने-देने में
एक संतुलन हो।
ये दोनों पंख
तुम्हें उड़ायें
खुले आकाश
में।
और
जल्दी करो।
लेन-देन कर
लो। क्योंकि
बाजार जल्दी
ही उठ जायेगा।
दुकानें बंद होने
का वक्त भी आ
गया। सांझ
होने लगी। लोग
अपने-अपने
पसारे इकट्ठा
करने में लगे
हैं। ऐसा न हो
कि पीछे तुम पछताओ--जब
जा चुके बाजार, न कोई लेने
को हो, न
कोई देने को
हो।
शराबे-जीस्त अभी
सेर हो के पी
भी नहीं
कि
सुन रहा हूं सदाए
शिकस्त सागर
की
--अभी
जीवन की मदिरा
को तुम पी भी
तो नहीं पाये;
लेकिन देखो,
मदिरा-पात्र
के टूटने की
आवाज आने लगी!
शराबे-जीस्त अभी
सेर हो के पी
भी नहीं
--अभी
मन भरकर पी भी
नहीं पाये
जीवन के मधु
को,
कि
सुन रहा हूं सदाए
शिकस्त सागर
की।
--और
यह तो मधु-पात्र
के टूटने की
आवाज आने लगी।
जन्म
के साथ ही तो
मधु-पात्र के
टूटने की आवाज
आने लगती है।
इसके पहले कि
मधु-पात्र टूट
जाये, पीयो,
पिलाओ। लो,
दो। मिलो-जुलो।
फैलो, दूसरों
को फैलने दो।
गतिमान, गत्यात्मक
हो तुम्हारा
जीवन! कहीं भी
जकड़ा न हो; न
इस किनारे न
उस किनारे।
उठने दो लहरें
इस किनारे से
उस किनारे तक! आने
दो लहरें उस
किनारे से इस
किनारे तक!
तुम दोनों
किनारों के
बीच का फैलाव
बनो! तब
तुम्हारे
जीवन में
सम्यक धर्म का
उदय होता है।
"क्षमा
से क्रोध को हरें, क्षमा
से क्रोध का
हनन करें, नम्रता
से मान को जीतें,
ऋजुता से
माया को, और
संतोष से लोभ
को।'
"क्षमा से
क्रोध को...।' जब तुम
क्रोध करते हो
तो क्या कर
रहे हो? क्रोध
तुम्हारा एक
दृष्टिकोण
है। क्रोध तुम्हारा
ऐसा
दृष्टिकोण है
जो तुमसे कहता
है: जो नहीं
होना चाहिए था
वह हुआ है।
किसी ने कुछ
कहा, क्रोध
का अर्थ है:
तुम यह कहते
हो कि नहीं यह
कहना चाहिए
था। तुम्हारी
कुछ और
अपेक्षा थी।
क्रोध के पीछे
अपेक्षा छिपी
है। अगर एक
कुत्ता आकर
भौंक जाये तो
तुम नाराज नहीं
होते; क्योंकि
तुम जानते हो
कुत्ता है, भौंकेगा। लेकिन
आदमी आकर भौंक
जाये तो तुम
नाराज हो जाते
हो। आदमी है
तो तुम्हारी
बड़ी अपेक्षा
थी।
क्षमा
का अर्थ है:
तुम्हारी कोई
अपेक्षा नहीं; जो दूसरा कर
रहा है, वही
कर सकता था, इसलिए कर
रहा है। जो
गाली दे सकता
था, गाली
दे रहा है। जो
गीत गा सकता
था, गीत गा
रहा है। क्षमा
एक दृष्टिकोण
है। क्षमा का
यह अर्थ है कि
हमारी कोई
अपेक्षा नहीं;
हम हैं कौन,
जो तुमसे
अपेक्षा
करें। मैं हूं
कौन, जो
तुमसे
अपेक्षा करूं
कि तुम ऐसा
व्यवहार करो
तो ठीक, ऐसा
न करोगे तो
मैं क्रोधित
हो जाऊंगा!
एक झेन
फकीर राह से
गुजर रहा था, एक आदमी आकर
उसको लट्ठ मार
दिया। घबड़ाहट
में वह आदमी
भागने को था, उसकी लकड़ी
भी हाथ से छूट
गई, तो उस
फकीर ने लकड़ी
उठाकर उसको दे
दी और कहा, भाई
लकड़ी तो ले
जा। फकीर के
साथ एक युवक
चल रहा था।
उसने कहा, "यह
माजरा क्या है?
इस आदमी ने
तुम्हें चोट पहुंचाई; तुम उलटे
उसकी लकड़ी
उसको उठाकर दे
रहे हो? तुम
कुछ कहे ही
नहीं?'
उसने
कहा, "अब कहना
क्या है? रास्ते
से गुजर रहा
हूं, और एक
वृक्ष से शाखा
गिर पड़े और
मेरा सिर तोड़
दे, तो
क्या कहूंगा?
कुछ भी नहीं
कहूंगा। यह
क्या कहने की
बात है? संयोग
की बात है कि
वृक्ष की शाखा
टूटने को थी और
हम गुजरते थे।
हो गया मिलन
आकस्मिक, अब
कहना क्या है?
इस आदमी को
मारना था किसी
को, हम मिल
गये। वृक्ष की
शाखा टूटी, समय पर सिर
पर पड़ गई।
इससे कहना
क्या है? और
यह जो कर सकता
था, वही
इसने किया है;
न कर सकता
होता तो करता
ही क्यों? जो
इसके भीतर हो
सकता था, हुआ
है। मैं कौन
हूं?'
यह
संसार मेरी
अपेक्षा से
चले, इससे ही
तो क्रोध पैदा
होता है।
जिस-जिस को
तुमने अपनी
अपेक्षा से
चलाना चाहा, उसी पर
क्रोध होता
है। इसलिए
जिनसे
तुम्हारी जितनी
ज्यादा
अपेक्षा होती
है, उनसे
तुम्हारा
उतना ही क्रोध
होता है।
पत्नी पति पर
आग-बबूला हो
जाती है; हर
किसी पर नहीं
होती। हर किसी
पर होने का
सवाल ही कहां
है? अपेक्षा
ही नहीं है।
जिससे
अपेक्षा है...।
बाप बेटे पर
क्रोधित हो
उठता
है--अपेक्षा
है। बड़ी आशाएं
बांधी हैं इस
बेटे से और यह
सब तोड़े दे
रहा है। सोचा
था, यह
बनेगा, वह
बनेगा, बड़े
सपने देखे
थे--और यह सब
उलटा ही हुआ
जा रहा है।
जिससे
तुम्हारी
अपेक्षा है, ध्यान रखना
वहीं-वहीं
क्रोध पैदा
होता है।
जिनसे
तुम्हारे कोई
संबंध नहीं
हैं, कोई
क्रोध पैदा
नहीं होता।
पड़ोसी का लड़का
भी बर्बाद हो
रहा है, वह
भी शराब पीने
लगा है--मगर
इससे तुम्हें
चिंता नहीं
होती।
सुना
है मैंने एक
यहूदी अपने
धर्मगुरु के
पास गया और
उसने कहा, "मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ा हूं। मेरा
लड़का अमरीका
गया था, लौटकर
आया तो वह
ईसाई हो गया।
मेरा लड़का और
ईसाई! और हम
परंपरा से बड़े
रूढ़िवादी
यहूदी हैं। यह
बर्दाश्त
नहीं हो रहा।
आत्महत्या
करने का मन
होता है।'
धर्मगुरु
ने कहा, "बहुत
चिंता न करो।
मेरी तो सुनो।
तुम्हारा तो एक
लड़का है। हो
गया, कोई
बात नहीं है।
फिर तुम कोई
धर्मगुरु
नहीं हो, मैं
धर्मगुरु
हूं। मेरे
लड़के के साथ
भी यही हुआ।
वह भी अमरीका
गया, वहां
से बिगड़कर
आ गया। वह भी
ईसाई हो गया।
और मैं
धर्मगुरु हूं।
कम से कम मेरा
लड़का तो होना
ही नहीं
चाहिए।'
तो उन
दोनों ने कहा, अब क्या
करें? उन्होंने
कहा, हम
परमात्मा से
प्रार्थना
करें, और
क्या कर सकते
हैं! उन दोनों
ने प्रार्थना
की जाकर सिनागाग
में, कि हे
प्रभु! यह
क्या दिखला
रहे हो? मेरा
लड़का...मैं
प्राचीन
परंपरा से
यहूदी हूं, मेरा लड़का
ईसाई हो गया!
दूसरे ने कहा,
मैं
धर्मगुरु
हूं।
तुम्हारा
प्रतिनिधि
हूं इस पृथ्वी
पर। कम से कम
मेरा तो कुछ
खयाल रखते!
मेरा लड़का भी
ईसाई हो गया।
और
कहते हैं, ऊपर से आवाज
आई कि "तुम
बकवास क्या कर
रहे हो? मेरी
तो सोचो। मेरा
लड़का ईसा मसीह
मैंने भेजा था,
वह भी...।'
अपनी-अपनी
अपेक्षाएं
हैं। "और मैं
ईश्वर हूं।
तुम तो
धर्मगुरु ही
हो।'
जहां
अपेक्षा है, वहां क्रोध
है। क्षमा का
अर्थ है:
तुमने अपेक्षा
छोड़ दी। तुम
हो कौन? माना,
बेटा तुमसे
पैदा हुआ है, लेकिन तुम
हो कौन? तुम
एक रास्ते थे
जिससे बेटा
आया। तुमने
जगह दी आने
की। तुमने
बेटा बनाया
थोड़े ही है, बनानेवाला
कोई और है।
तुम तो केवल माध्यम
थे, निमित्त
थे। तुम
निर्णायक
थोड़े ही हो।
जो हो
जाये, अपेक्षा-शून्य
व्यक्ति
स्वीकार कर
लेता है। उसी
स्वीकार में
क्षमा है।
अब इसे
समझना।
साधारणतः
धर्मगुरु
तुम्हें
समझाते
हैं--कुछ ऐसी
बात समझाते
हैं जिससे
लगता है क्षमा
क्रोध के उलटी
है। वे ऐसा
समझाते हैं कि
तुम क्रोध मत
करो, क्षमा कर
दो इस आदमी को;
इसने पाप
किया, क्रोध
मत करो, क्षमा
कर दो! लेकिन
मानते वे भी
हैं कि इसने
पाप किया; नहीं
तो क्षमा क्या
खाक करोगे? जब इसने कुछ
गलती ही नहीं
की तो क्षमा
क्या करना है?
क्षमा तो
गलत हो गया, तभी की जाती
है। तो फिर क्रोध
और क्षमा में
एक बात तो
समान रही कि
इसने गलती की
है। कोई क्रोध
करता है गलती
पर, कोई
क्षमा करता है
गलती पर; लेकिन
गलती दोनों
स्वीकार कर
लेते हैं।
मेरी
क्षमा का अर्थ
और महावीर की
क्षमा का अर्थ
बिलकुल अलग
है। महावीर जब
कहते हैं, क्षमा करो, तो वे इतना
ही कह रहे हैं:
समझो कि तुम
हो कौन गलती
और सही का निर्णय
करनेवाले? अपेक्षा
मत करो और
क्षमा आ
जायेगी।
क्षमा
क्रोध के
विपरीत नहीं
है--क्षमा
क्रोध का अभाव
है।
इसलिए
क्षमा करनी
नहीं पड़ती; अपेक्षा के
गिरते ही हो
जाती है।
"क्षमा
से क्रोध का
हनन करें, नम्रता
से मान को जीतें...।'
नम्रता
का क्या अर्थ
है?--अपनी
स्थिति को
जानना। यह कोई
साधना नहीं है,
सिर्फ अपने
तथ्य को
पहचानना: क्या
है मेरी स्थिति?
सांसों में
अटका हूं।
सांस बंद हो
गई, समाप्त
हो जाऊंगा।
स्थिति क्या
है? आज हूं,
कल नहीं हो जाऊंगा।
अभी जमीन पर
चल रहा हूं, कल जमीन
मेरे ऊपर
होगी। अभी
सबके सिर पर
बैठने की
कोशिश की है, कल इन्हीं
के चरण मेरे
ऊपर पड़ेंगे।
नम्रता
का अर्थ है:
अपनी
वास्तविक
स्थिति को जानना
कि हमारा होना
ही क्या है? अहंकार किस
बलबूते पर? अपने को "मैं'
कहना भी किस
बलबूते पर? एक तरंग है, आई-गई!
"नम्रता
से मान को जीतें,
ऋजुता से
माया को...।'
ऋजुता
का अर्थ है:
सरलता, प्रामाणिकता,
सीधा-सादापन।
तुम्हारे
साधु भी तिरछे
हैं, वे भी
ऋजु नहीं हैं।
ऋजुता का तो
अर्थ है: बच्चे
जैसा भोला-भालापन।
साधु तो
तुम्हारे
बहुत अऋजु
हैं, बहुत
उलटे हैं। ऋजु
नहीं हैं, इरछे-तिरछे
हैं, बड़े
जटिल हैं।
एक-एक बात को
गणित से कर
रहे हैं। अगर
उपवास रखा है
तो हिसाब भी
रखा है साथ
में कि उपवास
किया है। इस
साल कितने
उपवास किये, वह भी हिसाब
है। यह
परमात्मा के
सामने पूरे खाते-बही
लेकर मौजूद
होंगे। इनकी
जिंदगी में सरलता
नहीं है। इनकी
जिंदगी में
बड़ा गणित है।
अगर क्रोध
छोड़ा है, माया-मोह
छोड़ा है, तो
स्वर्ग पाने
की आकांक्षा
में छोड़ा है; लेकिन कुछ
पाने की
आकांक्षा है।
यह छोड़ना सीधा,
साफ, सरल
नहीं है।
ऋजुता
बड़ा बहुमूल्य
शब्द है--सीधी
लकीर की तरह।
दो बिंदुओं के
बीच जो निकटतम
दूरी है, निकटतम
दूरी है वह
लकीर है।
निकटतम! अगर
जरा लंबा किया
तो इरछा-तिरछा
हो जायेगा। दो
व्यक्तियों
के बीच जो निकटतम
दूरी है, वह
ऋजुता है। दो
बिंदुओं के
बीच जो निकटतम
दूरी है, वह
लकीर है, पंक्ति
है, रेखा
है।
जब कोई
व्यक्ति
तुमसे कुछ
पूछता है, तब तुम दो
तरह का
व्यवहार कर
सकते हो: या तो
इरछे-तिरछे
जाओ, गली-कूचों
से घूमो, सीधे न जाओ, सीधी बात न
करो, चालबाजी
चलो; कुछ
कहना चाहते हो,
कुछ कहो; कुछ बताना
चाहते हो, कुछ
बताओ।
कहते
हैं, मुल्ला नसरुद्दीन
बचपन से ही
उलटी खोपड़ी
था। उलटी
खोपड़ी यानी उससे
जो भी कहो, वह
उससे उलटा
करेगा। तो
मां-बाप समझ
गये थे। क्या
करोगे, अब
उलटी खोपड़ी
है...। तो उसको
वे वही कहते
जो वे चाहते
थे कि वह न
करे। और जो वे
चाहते कि वह
करे, उससे
उलटा कहते।
जैसे अगर उनको
चाहिए कि वह
चुप बैठे तो
वे कहते, "बेटा!
जरा शोरगुल
कर।' तो वह
चुप बैठ जाता।
समझ गये एक
दफे गणित, तो
वे वैसे ही
चलते।
एक दिन
बाप बेटे के
साथ लौट रहा
था, नदी पार
कर रहे थे।
गधे पर शक्कर
के बोरे लादे हुए
थे। बीच नदी
में बाप ने
देखा कि बोरे
बाईं तरफ झुके
जा रहे हैं। नसरुद्दीन
के गधे पर जो
बोरे थे वे
बाईं तरफ झुके
जा रहे हैं।
तब वह चाहता
था कि बेटा
उन्हें दाईं
तरफ थोड़ा सरकाये।
लेकिन वैसा
कहो कि दाईं
तरफ सरकाओ
तो तो वह कभी सरकायेगा
नहीं। तो उसने
कहा, "बेटा,
बोरों को
जरा बाईं तरफ
सरका।' बाईं
तरफ वे खुद ही
सरक रहे थे।
मगर उस दिन
चकित होकर बाप
को देखना पड़ा
कि बेटे ने
उनको बाईं तरफ
ही सरका दिया।
सब बोरे नदी
में गिर गये।
बाप ने कहा, "यह तेरा
व्यवहार आज
कुछ संगत
नहीं!' उसने
कहा, "अट्ठारह
साल का हो गया;
अब मैं भी
समझने लगा
तरकीब। अब तो
तुम जो कहोगे,
उसके उलटा न
करूंगा; अब
तो तुम जो
चाहते हो, उसके
उलटा करूंगा।'
लेकिन
बाप भी आखिर नसरुद्दीन
का बाप! उसने
भी तरकीब
निकाल ली। अब
बात और भी तिरछी
हो गई।
अगर
बाप को चाहिए
कि बोरे दाएं
तरफ सरकाये
जाएं, तो
पहले तो वह
कहता था कि
बाएं तरफ सरकाओ;
अब अगर दाएं
तरफ ही
सरकवाना हो तो
कहना पड़ता है
कि दाएं तरफ सरकाओ।
क्योंकि बेटा
सोचेगा, यह
बाएं तरफ
सरकवाना
चाहता है, इसलिए
दाएं तरफ सरकवायेगा।
अब और तिरछी
हो गई बात।
गणित और उलझ
गया।
दो
बिंदुओं के
बीच जो सीधी
रेखा है, वही
ऋजुता है। जो
कहना है, जो
करना है, जो
चाहना है--वही
कहो। जो कहते
हो वही हो जाओ:
ऋजुता का अर्थ
है। नहीं तो
उलटा होता है।
तुम जाते हो
किसी के पास, तुम कहते
हो...। तुम हंस
रहे हो इस बात
पर, लेकिन
अगर खोजोगे
तो इस उलटी
खोपड़ी को हर
खोपड़ी में
छिपा हुआ पाओगे।
तुम किसी के
पास जाते हो, तुम कहते हो
कि आप के चरण
की धूल हूं, मैं तो कुछ
भी नहीं! तुम
चाहते यह हो
कि वह कहे, "अरे आप और
चरण की धूल! आप
बड़े महापुरुष
हैं।' अब
समझो कि वह
दूसरा आदमी
कहे कि बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं आप, चरण
की धूल तो हैं
ही, इसमें
कहने का क्या
है! तो आप
नाराज हो
जायेंगे कि
हद्द हो गई; इस आदमी को
शिष्टाचार भी
नहीं आता!
तुम
जरा खयाल करना, तुम्हारी
जिंदगी में यह
उलटी खोपड़ी
काफी समायी
हुई है। तुम
चाहते कुछ और
हो, कहते
कुछ और हो। यह
धोखा फैला चला
जाता है।
महावीर
कहते हैं, "ऋजुता से
माया को...।'
वह जो
कपट है, तिरछापन
है, उसको
ऋजुता से जीत
लो। क्योंकि
जितने तुम कपट
से भरते जाओगे,
उतनी जीवन
में उलझन होगी;
उतना
तुम्हारा
जीवन पांखों
में कट
जायेगा।
सरल
व्यक्ति शांत
होता है। देखा
तुमने! जब भी तुम
झूठ बोलते हो, तभी अशांति
होती है।
क्योंकि फिर
याद रखना पड़ता
है झूठ को कि
किससे क्या
बोले। जो आदमी
झूठ ही बोलता
रहता है सबसे,
उसका जरा
हिसाब तो
समझो। एक बात
तो माननी पड़ेगी,
उसकी
स्मृति की दाद
देनी पड़ेगी।
याददाश्त तो देखो!
याद रखना पड़ता
है। सत्य को
याद रखने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। जो
व्यक्ति सचाई
से जीता है, उसे
याददाश्त की
जरूरत ही नहीं
है; क्योंकि
सच हमेशा वही
का वही है।
लेकिन तुमने एक
से कुछ कहा, दूसरे से
कुछ कहा, तीसरे
से कुछ
कहा--फिर
हिसाब रखना
पड़ता है, पहले
से क्या कहा, दूसरे से
क्या कहा, तीसरे
से क्या कहा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
दो स्त्रियों
के प्रेम में
था। बहुत कम
लोग हैं जो एक
स्त्री के
प्रेम में
हों। द्वैत
हमारा सभी जगह
होता है। तो
एक स्त्री से
कहता है कि तुझसे
सुंदर इस जगत
में कोई भी
नहीं; दूसरी
से भी यही
कहता है कि
तुझसे सुंदर
इस जगत में
कोई नहीं।
दोनों बातें
झूठ थीं। कम
से कम एक तो
झूठ थी ही। एक
दिन संयोग की
बात, दोनों
स्त्रियां
साथ मिल गईं
और दोनों को
शक तो था ही।
उन्होंने नसरुद्दीन
से पूछा, "अब
कहो कि कौन
स्त्री
दुनिया में
सबसे ज्यादा सुंदर
है?'
नसरुद्दीन
थोड़ा झिझका।
उसने कहा कि
तुम एक-दूसरे
से ज्यादा सुंदर
हो!
एक-दूसरे
से ज्यादा
सुंदर! आदमी
तरकीब निकाल ही
लेता है।
लेकिन हम झूठ
बोलते चले
जाते हैं। जाल
उलझता चला
जाता है।
धीरे-धीरे तो
बहुत बार झूठ बोलकर ऐसी
हालत आ जाती
है कि हमें भी
लगता है कि
शायद यही सच
होगा; क्योंकि
इतने दिन से
बोल रहे हैं, याद भी नहीं आती
कि कब शुरू
किया था। बहुत
बार बोलने से,
बहुत बार
पुनरुक्त
होने से झूठ
स्वयं को भी
सच जैसा मालूम
पड़ने लगता है।
तब तुम अऋजु
हो गये। तब
तुम अर्जुन हो
गये--अऋजु!
कृष्ण
की पूरी
चेष्टा गीता
में, इरछे-तिरछे
अर्जुन को
सीधा करने की
है। नाम "अर्र्जुन'
का बड़ा सार्थक
है। कृष्ण की
पूरी चेष्टा
यही है कि तू
सीधा-साफ हो; क्षत्रिय है,
क्षत्रिय
की बात बोल।
अचानक, यह
अर्जुन कभी भी
अहिंसा की बात
नहीं बोला था,
आज अचानक
अहिंसा बोलने
लगा। और
अहिंसा इसकी सच्ची
नहीं है।
क्योंकि अगर
ये इसके
प्रियजन न होते,
संबंधी न
होते, भाई-भतीजे,
गुरु, पितामह,
चचेरे, सब
तरह के, मौसी,
मामा के
रिश्तेदार, सब इकट्ठे
थे--अगर ये
इसके अपने न
होते, अपनों
को देखकर यह
जरा डरा। इसने
कहा कि यह तो सब
अपनों को ही
मार डालूंगा।
अब यह
थोड़ा सोचने
जैसा है।
अर्जुन को
सवाल उठा कि
आदमी धन भी
कमाता है, पद भी कमाता
है, सिंहासन
पर भी बैठता
है, तो मजा
तो तभी आता है
जब अपने देखने
को मौजूद हों।
तुम अगर दूसरे
किसी गांव में
जहां तुम्हें
कोई भी नहीं
जानता, सम्मानित
भी हो जाओ तो
तुम्हें वह
मजा न आएगा जो
अपने गांव में
सम्मानित
होकर आयेगा।
दूसरे गांव
में जहां कोई
जानता ही नहीं,
वहां
सम्मानित भी
हो गये तो
क्या खाक
सम्मान! तुम्हारी
इच्छा उस
दूसरे गांव
में यह होगी
कि अपने गांववालों
को पता चल
जाये कि कैसा
सम्मान मिल
रहा है, कैसी
प्रतिष्ठा
मिल रही है!
अगर तुम्हें
ऐसा कुछ हो कि
तुम दुनिया के
सम्राट हो
जाओगे, लेकिन
तुम्हें
जाननेवाले सब
मर जायेंगे, तो तुम भी
अर्जुन की
हालत में खड़े
हो जाओगे। तुम
भी सोचोगे, सार क्या!
अगर जंगल में
जाकर राजा हो
गये, जहां
कोई आदमी नहीं,
तो जंगली
जानवरों के
बीच राजा होने
का सार क्या!
इससे तो
डिप्टी
कलेक्टर होना
अच्छा, पुलिस
इंसपेक्टर
होना अच्छा, पटवारी होना
अच्छा--लेकिन
कम से कम अपने
गांव में!
जहां कोई जानता
है, पहचानता
है, वहीं
अकड़ का मजा
होता है।
उन्हीं के
सामने तो हम
सदा सिद्ध
करना चाहते
हैं कि देखो, तुम वहीं के
वहीं रह गये, हम कहां
पहुंच गये, जिनके साथ
हमने यात्रा
शुरू की थी! अब
अर्जुन इन्हीं
के साथ बड़ा
हुआ, यही
भाई-बंधु, इन्हीं
के साथ जिंदगी
का दांव था, इन्हीं के
साथ सारी
स्पर्धा थी
बचपन से लेकर
अब तक, यही
सब खतम हो
जायेंगे--फिर
सिंहासन पर भी
बैठ जाओगे, तो आसपास
गिद्ध बैठे
होंगे, सियार
आवाज कर रहे
होंगे और
अजनबी साधरण-से
लोग होंगे
जिनसे
तुम्हारी कोई
झंझट ही न थी, कोई
प्रतिस्पर्धा
न थी, जिनका
होना न होना
बराबर होगा।
तो अर्जुन के
मन में उठी तो
है असल में
अहंकार की बड़ी
गहरी पकड़, बड़ा
मोह। इन्हीं
के सामने तो
सिद्ध करने का
मजा है।
दुर्योधन रहे,
और हम जीतें।
भीष्म पितामह
रहें, और
देखें कि
अर्जुन
सिंहासन पर
है। और ये सारे
कर्ण, और
ये सारे
संबंधी
पराजित खड़े
हों, तो ही
मजा है। नहीं
तो मजा क्या
है? उठा तो
यह था, लेकिन
बात उसने
दूसरी की।
उसने कहा कि
मैं मारना
नहीं चाहता, हिंसा तो
बड़ा पाप है! आज
तक हिंसा ही
करता रहा, मांसाहारी;
आज अचानक
अहिंसक हो
गया! कृष्ण को
धोखा देना संभव
न था। वे
अर्जुन को
खींच-खींचकर
सीधा करने लगे।
गीता
पूरी की पूरी
अर्जुन को ऋजु
बनाने की चेष्टा
है। वे उसको
पकड़-पकड़कर
सीधा कर रहे
हैं कि जरा
अकल ला, वापिस
लौट, कहां
की बातें कर
रहा है? संन्यास
तुझे सोहता
नहीं। यह तेरे
भीतर की बात
नहीं। अन्यथा
इतने दिन तक कौन
तुझे रोकता था
संन्यास लेने
से? आज
अचानक युद्ध
के मैदान पर
संन्यास की
भाषा उठने लगी
है! इस
संन्यास में
कहीं कुछ और
छिपा है।
तुम
अपने भीतर
ऋजुता को
खोजना। जब भी
तुम कुछ कहो
तो जरा गौर से
देखना, तुम
यही कहना
चाहते हो? यही
तुम्हारी गहनतम
आकांक्षा है
या इससे
विपरीत? तो
जो सीधा-साफ
हो, उसी को
धीरे-धीरे
साधना।
ऋजुता
से जटिलता कट
जाती है, माया
हार जाती है।
संतोष से लोभ
जीत लिया जाता
है। जो
तुम्हारे पास
हो, उसमें
आनंदित, उसमें
मग्न होना।
संतोष का अर्थ
है: इतना मिला
है, थोड़ा
धन्यवाद तो
दो! इतना मिला
है, अनुग्रह
तो मानो!
आंखें हैं कि
तुम रोशनी देख
सके, कि
सूरज में खिले
फूल देख सके, कि वृक्षों
की यह हरियाली
देख सके! जरा
सोचो तो, अंधे
भी हैं दुनिया
में, जिन्हें
रंग नहीं
दिखाई पड़े! और
जिन्होंने रंग
न जाना, उन्होंने
क्या खाक
दुनिया जानी!
जिन्हें रूप न
दिखाई पड़ा, जिन्हें
चेहरा और
आंखों में जो
परमात्मा
प्रगट होता है
उसकी कोई झलक
न मिली...!
तुम्हारे पास
कान हैं, तुम
गहनतम
संगीत को
सुनने में
समर्थ हो, पक्षियों
का नाद, नदी
की कलकल, सागर
में उठे तूफानों
की दहाड़, बादलों
की गड़गड़ाहट!
जरा सोचो तो
कि जिनके पास कान
नहीं हैं, उनका
जीवन कैसा
खाली-खाली, सूना-सूना
होगा! जहां
कोई ध्वनि
नहीं गूंजी,
कैसा
मरुस्थल जैसा
होगा! कितना
तुम्हें मिला है!
इन पांचों
इंद्रियों से
कितनी वर्षा
तुम पर हुई है!
इस भीतर के
बोध से कितने
आनंद के द्वार
खुले हैं, खुलते
रहे हैं! एक
बंद हुआ है तो
दूसरा खुला
है!
लेकिन
नहीं, लोभी
कहता है, इसमें
क्या धरा है? तिजोड़ी! धन! जो मिला
है उसकी तो
फिक्र नहीं
करता; जो
नहीं मिला है
उसकी दौड़ में,
आपाधापी
में नष्ट होता
है।
महावीर
कहते हैं, संतोष से
लोभ को जीत
लो। जरा देखो
जो मिला है। उस
पर नजर लाओ जो
मिला है।
दुनिया
में दो तरह के लोग
हैं।
एक--जिनकी नजर
उसको ही देखती
है, जो नहीं
मिला है। वे
लोभी हैं।
दूसरे--जिनकी
नजर वही देखती
है, जो
मिला है। वे
संतोषी हैं।
और संतोषी को
बहुत मिलता
है। क्योंकि
मिलने पर उसकी
नजर होती है, तो और मिलता
है। और लोभी
को कुछ भी
नहीं मिलता, क्योंकि न
मिलने पर उसकी
नजर होती है।
न मिलना ही
बढ़ता जाता है।
लोभ से और लोभ
बढ़ता है।
संतोष से और
संतोष बढ़ता है।
जो थोड़ा संतोष
में डूबेगा वह
पायेगा--
काफिले
या मिट गए या
बढ़ गए
अब गुबारे-राह
भी उठता नहीं।
वे जो
वासनाओं के, असंतोष के, अतृप्तियों के, लोभ
के, कामनाओं
के काफिले थे--काफिले
या मिट गए या
बढ़ गए--या तो
मिट गये, या
कहीं और हट
गये।
अब गुबारे-राह
भी उठता नहीं।
--अब
तो रास्ते पर
गुबार भी नहीं
है। काफिलों
के बीत जाने
के बाद जो
थोड़ी गुबार
उठती रहती है,
वह भी नहीं
है।
ध्यान
रखना, भोग
जब बीत जाता
है तो त्याग
की गुबार रह
जाती है। भोग
का काफिला तो
निकल जाता है,
तब त्याग की
धूल रह जाती
है। लेकिन परम
शांति तभी
मिलती है, जब
भोग भी गया, त्याग भी
गया।
काफिले
या मिट गए या
बढ़ गए
अब गुबारे-राह
भी उठता नहीं।
तब एक
परम तृप्ति, एक अहर्निश
शांति की
वर्षा होने
लगती है! तब तुम
पहली दफा पाते
हो: जीवन क्या
है! और कितने अहोभागी
हैं कि हम हैं!
तब होना मात्र
ही इतनी बड़ी
संपदा है कि
और कुछ चाहने
की बात ही
नादानी है।
"जैसे
कछुआ अपने
अंगों को अपने
शरीर में समेट
लेता है, वैसे
ही मेधावी
पुरुष पापों
को अध्यात्म
के द्वारा
समेट लेता है।'
अध्यात्म
यानी जागरण की
प्रक्रिया; आत्मवान
होने का
शास्त्र।
जैसे कछुआ
सिकोड़ लेता है
अपनी
इंद्रियों को;
जहां-जहां
पाता है भय है,
जहां-जहां
पाता है चिंता
है, वहीं
भीतर सिकुड़
जाता है, अपनी
गहरी सुरक्षा
में डूब जाता
है--ऐसे ही जहां-जहां
तुम्हें लगे
भय है, दुख
है, पीड़ा
है, असंतोष
है, अभाव
है, चिंता
है, संताप
है, वहां-वहां
से अपने
चैतन्य को हटा
लेना। और अंतरात्मा
की गहनता में
सब है जो तुम
पाना चाहते हो।
यकीन
रख कि यहां हर
यकीन में है
फरेब
बका
तो क्या है, फना का भी ऐतबार
न कर।
होश को
सम्हालो! यहां
भरोसा मत करो।
यहां बड़े धोखे
भरे पड़े हैं।
यहां अब तक
तुम जिन चीजों
में डोले
हो, सभी में
धोखा है। यहां
जिंदगी की तो
बात छोड़ो,
मौत भी धोखा
दे जाती है।
क्योंकि मौत
भी कहां मौत
सिद्ध होती है,
फिर पैदा हो
जाते हो!
यकीन
रख कि यहां हर
यकीन में है
फरेब
बका
तो क्या है, फना का भी ऐतबार
न कर।
यह
सब फरेब है
नजरे-इम्तियाज
का
दुनिया
में वरना कोई
भी अच्छा-बुरा
नहीं।
न यहां
कुछ अच्छा है, न बुरा है।
अच्छा तुमने
समझा कुछ--मोह
पैदा हुआ, राग
पैदा हुआ।
बुरा समझा
कुछ--द्वेष
पैदा हुआ, विराग
पैदा हुआ।
यहां न कुछ
अच्छा है, न
बुरा है। सब
दृष्टि की बात
है। तुम
दृष्टि को
भीतर मोड़ लो, एक गहन
संतुलन पैदा
होता है, जहां
बुरा और अच्छा
सब मिट जाता
है, न कोई
मित्र न कोई
शत्रु।
"जान
या अजान में
कोई अधर्मकार्य
हो जाये तो
अपनी आत्मा को
तुरंत उससे
हटा लेना
चाहिए। फिर
दूसरी बार वह
कर्म न किया
जाये।'
जान या
अजान में अधर्मकार्य
हो जाये तो
तुरंत, उसे
पूरा भी मत
करना! अगर
क्रोध करने के
क्षण में आधा
वचन बोले थे
गाली का और
याद आ जाये तो
आधा ही बोलना
और क्षमा मांग
लेना; उसे
पूरा भी मत
करना।
अगर
वासना में एक
कदम उठ गया था
और दूसरा उठने
को था और याद आ
जाये तो जो
नहीं उठा है, उसे मत
उठाना; जो उठ
गया है, उसे
वापिस मोड़
लेना।
बहुत
सम्हलकर
चलोगे तो ही
पहुंच पाओगे।
रास्ता बड़ा
कंटकाकीर्ण
है, चढ़ाव भारी है--और
तुम्हारी आदत
उतरने की, फिसलने
की है। तुम तो
धर्म से भी
फिसलने का उपाय
खोज लेते हो।
एक
व्यक्ति ने
डाक्टर से
पूछा, "आखिर
मुझे हुआ क्या
है?'
"आप
बहुत अधिक
खाते हैं', कहा
डाक्टर ने, "बहुत शराब
पीते हैं, और
सुस्त हैं, महाकाहिल,
महासुस्त हैं। यही
आपकी बीमारी
है।'
उस
आदमी ने कहा, "डाक्टर
साहिब! कृपा
करके इसे अपनी
डाक्टरी भाषा
में लिख देंगे,
जिससे मैं
दफ्तर से एक
महीने की
छुट्टी प्राप्त
कर सकूं!'
सुस्त
है, शराब
पीता है, अतिशय
खाता
है--उसमें से
भी एक महीने
की छुट्टी
निकालने की
आशा रखता है, तो और
सुस्ती बढ़ेगी,
और खायेगा,
और पीकर पड़ा
रहेगा। लेकिन
डाक्टरी भाषा
में लिख दें, क्योंकि
सुस्ती से तो
बात चलेगी
नहीं।
शास्त्र
तुम्हारे लिए
डाक्टरी भाषा
सिद्ध होते
हैं। तुम
उनमें से अपना
मतलब निकाल
लेते हो। उनसे
भी फिसल जाते
हो।
जान या
अजान में कोई अधर्मकार्य
हो जाये तो
अपनी आत्मा को
तुरंत उससे
हटा लेना
चाहिए। फिर
दूसरी बार वह
कार्य न किया
जाये। और एक
बार जहां भूल
दिखाई पड़ गई
हो, आधे में
दिखाई पड़ी हो,
तो वहीं से
लौट आना चाहिए।
और फिर दुबारा
स्मरण रखना
चाहिए कि इस यात्रा
पर दुबारा कदम
न उठे। ऐसा
याद रखोगे; रखोगे, रखोगे,
धीरे-धीरे
याद पकेगी,
मजबूत
होगी। फिर बीज
से ही वह जो
गलत है, तुम्हारे
भीतर प्रवेश न
कर पायेगा।
उसके
चक्कर में
दुबारा तो मैं
आने का नहीं
ढूंढती
फिरती है क्यों
गर्दिशे-दौरां
मुझको।
--अब
संसार के
चक्कर में
दुबारा आने का
नहीं है। एक
बार होश सम्हला,
फिर कितना
ही ढूंढे
संसार की विपत्तियां
तुम्हें, फिर
कितना ही लोभ
के विषय
तुम्हारे
चारों तरफ खड़े
रहें, और
कामवासना के
लिए कितनी ही
अप्सराएं
तुम्हें
निमंत्रण
देती रहें--नहीं,
फिर तुम न
जा सकोगे। जो
जागने लगता है,
होश करने
लगता है, अपने
जीवन की
स्थिति को जांचने-परखने
लगता है, स्वाभाविक
है कि जहां आग
है वहां से
हाथ खींच ले।
इश्क
बाबस्तए-जंजीरे-जुनूं
कब है "रविश'
हुस्ने-खुदबीं
की तमन्ना है
तो खुद होश
में आ।
तुम्हारी
अंतरात्मा, तुम्हारा
गहन हृदय किसी
जंजीर में
बंधा हुआ नहीं
है। तुम्हारा
प्रेम
कारागृह में
बंद नहीं है।
सिर्फ तुम
बेहोश हो। अगर
वास्तविक
सौंदर्य का
अनुभव करना है
तो बस एक काम
कर लो--
हुस्ने-खुदबीं
की तमन्ना है
तो खुद होश
में आ।
--बस
होश में आ
जाओ। बेहोशी
ही तुम्हारा
कारागृह है।
वही तुम्हारी
जंजीरें हैं।
महावीर
का सर्वाधिक
जोर होश पर
है। बेहोशी पाप
है, होश
पुण्य है।
"संपूर्ण
परिग्रह से
मुक्त, शांतिभूत,
शीतिभूत,
प्रसन्नचित्त
श्रमण जैसा
मुक्ति-सुख
पाता है, वैसा
सुख
चक्रवर्ती को
भी नहीं
मिलता।'
अगर
तुम सम्राट भी
हो जाओ सारे
संसार के, छहों द्वीप
के चक्रवर्ती
हो जाओ, तो
भी तुम उस सुख
को न पा सकोगे
जो उस भिक्षु
को मिलता है, उस श्रमण को,
या उस
ब्राह्मण को;
जो परिग्रह
से मुक्त, लोभ
से मुक्त, शीतिभूत, भीतर शांत
हुआ, शीतल
हुआ, प्रसन्नचित्त!
ये
सारे सूत्र
बड़े बहुमूल्य
हैं। जीवन में
तुमने अभी
गर्मी जानी है, शीत नहीं
जानी। जीवन का
तुमने एक ही
काल जाना है--ऊष्ण; अभी
शीतल क्षण
नहीं जाने।
अभी तुम उबले
हो, जले हो,
शांत नहीं
हुए, ठंडे
नहीं हुए।
धीरे-धीरे
अपने को शीतल
करो, शांत
करो। जो-जो
चीज तुम्हें
उबालती हो, ईंधन बनती
हो तुम्हारी
वासना में, तुम्हें
जलाती हो, उससे
धीरे-धीरे जागो
और दूर हटो।
तो तुम उस
शांति को, उस
मुक्ति-सुख को
पाने में
समर्थ हो
जाओगे, जो
सारे संसार का
मालिक भी कोई
हो जाये तो
नहीं पाता।
अपने मालिक
होकर ही पाया
जाता है वह।
कहीं
से ढूंढ़ कर ला
दे हमें भी ऐ गुलेतर!
वोह
जिंदगी, जो
गुजर जाए
मुस्कुराने
में।
लेकिन
किसी से
मांगने से वह
जिंदगी न
मिलेगी। वह
जिंदगी तो तुम
खोजोगे
तो ही, बनाओगे
तो ही। तुम
वही पाओगे, जो बना
लोगे। आत्मा
तुम्हारा
निर्माण है, तुम्हारा
सृजन है।
कौन
कहता है ख्वाबे-रायगां
है जिंदगी
ऐ अमीने होश! कैफे-जाविदां
है जिंदगी
जादा
पैमां, कारवां-दर-कारवां
है जिंदगी
जिंदगी
मौजे-रवां, जूए-रवां,
बहरे-रवां
--किसने
कहा कि जीवन
व्यर्थ है!
कौन
कहता है ख्वाबे-रायगां
है जिंदगी।
किसने
कहा कि जिंदगी
सपना है! होशवाले!
थोड़ा होश को
सम्हाल! ऐ अमीने
होश! कैफे-जाविदां
है जिंदगी।
जिंदगी तो परम
आनंद है, स्थायी
आनंद है।
जादा
पैमां, कारवां-दर-कारवां
है जिंदगी!
यह तो
एक यात्री-दल
है जीवनऱ्यात्रा
पर निकला, प्रतिक्षण
गतिमान।
जिंदगी
मौजे-रवां, जूए-रवां,
बहरे-रवां।
जीवन
आनंद की लहर
है! आनंद की
सरिता है!
आनंद का सागर
है! लेकिन
उनके लिए ही, जिन्होंने
अपने को कछुए
की भांति
सिकोड़ लिया; उनके लिए ही,
जिन्होंने
अपने को जगा
लिया। और
जिनको जीने का
यह ढंग नहीं
आता, वे
जीवन के
विपरीत बातें
करने लगते हैं;
उनसे
सावधान रहना!
महावीर
जीवन के
विपरीत नहीं
हैं। महावीर
तुम्हारे
तथाकथित जीवन
के विपरीत हैं, ताकि तुम असली
जीवन को पा
सको।
न
आया जिसे शेवए-जिंदगी
वही
जिंदगी से खफा
हो गया।
और
जिसको भी
जिंदगी जीने
का ढंग न आया, वही नाराज
हो गया।
नाराजगी धर्म
नहीं है--समझ, होश।
महावीर
महासुख
के पक्षपाती
हैं। उस महासुख
को ही वे
मोक्ष कहते
हैं। तो
उन्होंने
जितनी जिंदगी
के खिलाफ
बातें कही हैं, हमेशा याद
रखना, तुम्हारी
जिंदगी के
खिलाफ कही
हैं। जिंदगी जो
कहीं गलत हो
गई, जहर हो
गई; जिंदगी
जो कहीं रोग
हो गई; जिंदगी
जो कहीं
विक्षिप्त हो
गई--उसके
खिलाफ कही
हैं। और
इसीलिए खिलाफ
कही हैं, ताकि
असली जिंदगी
की तलाश में
तुम निकल सको।
इसीलिए कही
हैं, ताकि
तुम्हें अगर
तुम्हारी
जिंदगी दुख
मालूम पड़े, तो तुम जागो।
दुख
जगाता है। दुख
की याद आने
लगे, समझ आने
लगे, तो
फिर सुख की
दिशा की खोज
पैदा होती है।
महावीर
जीवन-विपरीत
नहीं, विरोध
में नहीं।
महावीर महाजीवन
के पक्षपाती
हैं। खोटे
सिक्कों के
विरोध में हैं,
क्योंकि
असली सिक्के
मौजूद हैं और
तुम खोटे सिक्कों
से अपने को भरमाये
चले जाते हो। जागो!
आज
इतना ही।
thank you guruji
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