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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--55)

परमात्‍मा हमारा स्‍वभावसिद्ध अधिकार है—प्रवचन--दसवां

दिनांक 5 दिसंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्रसार:

अष्‍टावक्र उवाच:

यस्य बोधोदये तावक्यम्नवद्भवति भ्रम:।
तस्मै सुखैकरूयाय नम: शांताय तेजसे।। 177।।
अर्जयित्वाउखिलानार्थान् भोगानाम्मोति पुष्कलान्।
नहि सर्वयरित्यागमतरेण सखी भवेत।। 178।।
कर्तव्यदु:खमार्तडब्बालादग्धांतरात्मनः।
कुतः प्रशमयीयूषधारा सारमृते सुखम्।। 179।।
भवोउयं भावनामात्रो न किंचित्यरमार्थत।
नात्‍स्‍यभाव: स्वभावानां भावाभार्वावभाविनाम्।। 180।।
न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मन: पदम्।
निर्विकल्प निरायासं निर्विकार निरंजनम्।। 181।।
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
वीतशोका विराजंते निरावरणदृष्टय:।। 182।।
समस्त कल्यनामात्रमात्मा मक्त: सनातन:।
इति विज्ञाय धीरो हि किमथ्यस्यति बालवत्।। 183।।


स्व बोधोदये तावक्यप्लवद्भवति भ्रम:।
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शांताय तेजसे।।

 'जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रांति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है, उस एकमात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।
परमात्मा को, सत्य को, अस्तित्व को हम तीन रूपों में देख सकते हैं।
एक —तू के रूप में; जैसा भक्त देखता है : स्वयं को मिटाता है, मैं को गिराता है और परमात्मा को पुकारता है। जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखता है। जैसे मां अपने बेटे को देखती है। खुद को भूल जाता है; परमात्मा 'तू की तरह प्रगट होता है।
फिर एक रास्ता है ज्ञानी का : अहं ब्रह्मास्मि! परमात्मा 'मैं' की भांति प्रगट होता है।
और एक रास्ता है—कहें कि न ज्ञानी का, न भक्त का—अत्यंत संतुलन का। वह परमात्मा को 'वह' के रूप में देखता है—न मैं न तू। क्योंकि मैं और तू में तो द्वंद्व है। कहो तू कितना ही मैं को मिटाओ, तू कहने के लिए मैं तो बना रहेगा। तू में अर्थ ही न होगा अगर मैं न हो। कितना ही कहो मैँ नहीं हूं यह कहते ही तुम तो हो जाओगे; मैं बन जायेगा। अपने को पोंछ दो बिलकुल, कहो कि पैरों की धूल हूं तब भी रहोगे।नहीं हूं ' ऐसी घोषणा में भी तुम्हारे होने की घोषणा ही होगी।
जब तक तू है जब तक मैं से बचना संभव नहीं है। क्योंकि मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; अलग किये नहीं जा सकते। तू का अर्थ ही यही है कि जो मैं नहीं। तू की परिभाषा ही न हो सकेगी अगर मैं बिलकुल गिर जाये।
जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है। प्रेमी ने द्वार पर दस्तक दी प्रेयसी के और पीछे से पूछा गया : 'कौन आया है? कौन है?' और प्रेमी ने कहा : 'मैं हूं तेरा प्रेमी।और भीतर सन्नाटा छा गया। प्रेमी ने दुबारा दस्तक दी और कहा : 'क्या मुझे पहचाना नहीं? मेरी आवाज, मेरे पदचाप पहचाने नहीं? मैं हूं तेरा प्रेमी!' प्रेयसी ने कहा : 'सब पहचान गयी, लेकिन यह घर बहुत छोटा है। प्रेम का घर बड़ा छोटा है—इसमें दो न समा सकेंगे; इसमें एक ही समा सकता है।
कबीर ने कहा है न, प्रेमगली अति साकरी, तामें दो न समाय।
और जलालुद्दीन अपनी कविता में कहता है कि प्रेमी चला गया। यह सूफियों की बड़ी मूलभूत धारणा है। प्रेमी चला गया। उसने वर्षों मेहनत की। चांद आये—गये। सूरज उगे—डूबे! उसने सब फिक्र छोड़ दी। उसने अपने मैं को बिलकुल मिटा डाला। फिर आया वर्षों के बाद; द्वार पर दस्तक दी। वही प्रश्न कौन है? इस बार उसने कहा तू ही है, और कोई नहीं। और रूमी कहता है, द्वार खुल गये। अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा, द्वार अभी खुलने नहीं चाहिए। अगर उपनिषदों से पूछो तो उपनिषद भी कहेंगे कि द्वार अभी खुलने नहीं चाहिए। जरा जल्दी खुल गये। यह कविता थोड़ी और आगे जानी चाहिए। क्योंकि जब प्रेमी ने कहा, तू ही है, तब कितना ही अप्रगट सही लेकिन मैं तो हो गया। नहीं तो तू कौन कहेगा? सन्नाटा नहीं है अभी। अभी तू की आवाज उठती है। तो तू की आवाज बिना मैं के तो उठ सकती नहीं। कहीं छिपा मैं मौजूद है। किसने दिया उत्तर?
अगर जलालुद्दीन रूमी कहीं मुझे मिल जाये तो उसे कहूंगा. कविता पूरी कर दो; यह अधूरी है। अगर मुझे कविता पूरी करनी हो तो मैं कहूंगा. प्रेयसी ने फिर कहा वही कि इस घर में दो न समा सकेंगे। यह घर बड़ा संकरा है। माना कि तुम अप्रगट हो कर आये हो, लेकिन अभी भी तुम हो, छिप कर आये हो, मगर अब भी तुम हो, परदा करके आये हो, परदे की ओट में आये हो, मगर अब भी तुम हो; घूंघट डाल कर आये हो, मगर अब भी तुम हो। बुरके से धोखा न होगा।
और मैं कहूंगा, प्रेमी फिर वापिस चला गया। और तीसरी बार आता ही नहीं है। क्योंकि कैसे आएगा? आने के लिए तो मैं चाहिए। तीसरी बार तो प्रेमी आता नहीं, प्रेयसी उसे खोजने जाती है—जिस दिन उसका मैं बिलकुल मिट जाता है।
तो मैं तुमसे कहता हूं. परमात्मा को पाने तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। तुम अगर बिलकुल न हो जाओ तो परमात्मा आता है। आना ही चाहिए; तुमने शर्त पूरी कर दी। तुम जाओगे भी खोजने कहा? तुम किसे खोजोगे? तुम जब तक खोजोगे, तुम रहोगे। खोजनेवाले में तो मैं छिपा ही रहेगा। खोजी तो रहेगा! और जब तक तुम खोजोगे, तुम्हारी नजर रहेगी। किसको खोजोगे? तुम्हारी कोई धारणा रहेगी। तुम्हारा कोई मन में छिपा हुआ भाव रहेगा। तुम वही तो खोजोगे न जो 'तुम' खोज सकते हो! परमात्मा को कैसे खोजोगे? तुम्हारी धारणा का परमात्मा होगा। जब तक तुम हो, तुम्हारी धारणा का जाल रहेगा।
और अगर कभी तुम्हें कोई परमात्मा मिल भी जाए तो वह तुम्हारा स्वप्न ही होगा। इसलिए हिंदू कृष्ण से मिल जाएगा; ईसाई क्राइस्ट के दर्शन कर लेगा; बौद्ध बुद्ध की प्रतिमा के सामने खड़े होते—होते धीरे— धीरे एक दिन अंतरप्रतिमा पैदा कर लेगा। वह कल्पना का ही जाल है; भावनामात्रम्; भावना से ज्यादा कुछ भी नहीं है। बड़ी प्यारी भावना है। लेकिन है तो भावना ही। है तो अपनी ही कल्पना का विस्तार। है तो आत्मसम्मोहन ही, ऑटोहिपनोसिस। इससे ज्यादा नहीं है। सुंदर है, शुभ है, प्रीतिकर है, फिर भी सत्य नहीं।
सत्य न तो सुंदर है, न असुंदर। सत्य न तो कडुवा है, न मीठा। सत्य न तो फूल है, न काटा। सत्य तो द्वंद्व के अतीत है। तो सत्य न तो मैं है न तू। सत्य तो 'वह' है। इसलिए उपनिषद कहते हैं. तत्वमसि श्वेतकेतु। हे श्वेतकेतु, तू वह है। वह बड़ी निष्पक्ष धारणा है—न मैं न तू दोनों के पार। पहला सूत्र है आज अष्टावक्र का, बड़ा अदभुत : यस्य बोधोदये—जिसके उदय से।
नहीं कहा प्रभु के उदय से। क्योंकि प्रभु कहो तो तू आ जाता है। नहीं कहा आत्मोदय से। क्योंकि आत्मोदय कहो, मैं आ जाता है। कहा, यस्य बोधोदये, जिसके उदय से। कोई नाम नहीं दिया, कोई सीमा नहीं बांधी। सिर्फ इशारा है; कोई परिभाषा नहीं।
यस्य बोधोदये तावन्स्पप्पवद्भवति भ्रम:
'उसके उदय से...।
जैसे सुबह सूरज निकलता और ओंस—क्या जो अभी— अभी क्षण भर पहले तक मोतियों के जैसे झलकते थे घास की पत्तियों पर, तिरोहित होने लगते हैं—ऐसे ही उसके उदय से, उस महासूर्य के तुम्हारे चैतन्य में प्रवेश करने से, वे जो तुम्हारे अब तक के मनोभाव थे, कल्पना के जाल थे, आकांक्षाएं थीं, वासनाएं थीं, तृष्णा थी, मोह था, क्रोध था, लोभ था, वे सब मोती जिन्हें तुमने संजो कर रखा था, ओस की बूंदों की तरह तिरोहित होने लगते हैं। सब भ्रम विसर्जित हो जाते हैं—उसके उदय मात्र से, उसकी मौजूदगी से।
अब इसमें फर्क समझना। साधारणत: आदमी सोचता है कि मैं मोह को मिटाऊं, क्रोध को मिटाऊं, लोभ को मिटाऊं, ये सारी बीमारियां मिटा डालूं र तब प्रभु का दर्शन होगा। यहां बात उल्टी है। प्रभु के दर्शन से ये सब मिटते हैं। सूरज के उदय होते ही सारे ओस—कण तिरोहित हो जाते हैं। और देखा, अंधेरा कैसा भागता है! और तुम अगर ओस—कणों की एक—एक मिटाने लगोगे तो क्या मिटा पाओगे? और अगर तुम अंधेरे को काटने लगोगे तो क्या काट पाओगे? उदय होते ही सूर्य के, अंधेरा नहीं रह जाता है। ओस—कण तिरोहित होने लगते हैं, विदा होने लगते हैं। उनकी घड़ी गयी; उनकी मृत्यु का क्षण आ गया। लेकिन अगर तुम ओस—कणों को मिटाने लगो तो कभी इस पृथ्वी से तुम ओस—कण न मिटा पाओगे। और अगर तुम अंधेरे को जलाने लगो, तलवारों से काटने लगो, धक्के दे कर हटाने लगो, तुम्हीं मिट जाओगे, अंधेरा न मिटेगा।
इस सूत्र में यह बात भी छिपी है कि असली सवाल तुम्हारे लोभ, क्रोध, मोह के मिटाने का नहीं है, असली सवाल उसके उदय का है। इसलिए मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप सिर्फ ध्यान के लिए कहते है! आप अपने शिष्यों को यह नहीं कहते कि कामवासना छोड़ो, क्रोध छोड़ो, मोह छोड़ो, लोभ छोड़ो। आप उनको संसार से भी अलग नहीं करते हैं, घर—गृहस्थी से भी अलग नहीं करते हैं। इस सब प्रपंच में पड़े रहने देते हैं। मैं कहता हूं : 'यस्य बोधोदये—उसके उदय से।और उसके उदय के लिए हम एक ही उपाय कर सकते हैं, वह है कि शांत चित्त, शून्य चित्त, विचार शून्य हो जाएं। अगर तुम विचार शून्य होने लगे तो उसके उदय के लिए तुमने जगह खाली कर दी। बस इतना ही तुम कर सकते हो। इससे अन्यथा आदमी के बस में नहीं है।
परमात्मा को पाना आदमी के बस में नहीं है। आदमी सिर्फ अपनी प्यास की अभिव्यक्ति कर सकता है। पुकार दे सकता है, लेकिन खींच लेना आदमी के बस में नहीं है। और जो परमात्मा आदमी के खींचने से जाए, वह परमात्मा नहीं है। वह तुमसे भी क्षुद्र हो गया जो तुम्हारी बाल्टी में भरकर चला आया; जो तुम्हारी मुट्ठी में आ गया। वह तुमसे भी गया—बीता हो गया जो तुम्हारी तिजोरी में बंद हो गया, जिसकी चाबी तुम्हारे हाथ में हो गयी।
नहीं, परमात्मा को तुम कभी खींच नहीं सकते; तुम सिर्फ पुकार सकते हो। तुम रो सकते हो।
तुम गीत गा सकते हो। तुम नाच सकते हो। तुम सिर्फ जगह खाली कर सकते हो। तुम सिर्फ कह सकते हो. घर तैयार है, अब तू आ जा! तुम दरवाजा खोल सकते हो। तुम सूरज की किरणों को भीतर थोड़े ही खींच कर ला सकते हो। दरवाजा खोल कर बैठ जाओ; जब आना होगा आ जाएगा। जब घड़ी पकेगी, मौसम पूरा होगा, समय आएगा—आ जाएगा।
वस्तुत: जो खोजी है वह कुछ भी नहीं करता है। वह सिर्फ अपने को ध्यान में उतारता है। ध्यान का अर्थ है : खाली हो कर बैठ जाता है, दरवाजा खोल कर बैठ जाता है। ध्यान का अर्थ है : तुम आओगे तो मुझे भरा न पाओगे, तुमने अगर द्वार पर दस्तक दी तो मैं सुन लूंगा, मैं अपने विचारों में उलझा न रहूंगा। नहीं तो बहुत बार होता है, द्वार पर वह दस्तक देता है. शायद रोज ही देता है। देता ही होगा, क्योंकि तुम्हीं तो उसे नहीं खोज रहे, वह भी तुम्हें खोज रहा है। यह खेल एकतरफा नहीं है। यह आग एकतरफा लगी नहीं है। यह दोनों तरफ लगी है। तो ही तो मजा है। तुम ही अगर प्रेयसी को खोज रहे हो, प्रेयसी तुममें उत्सुक ही नहीं है, तो यह प्रेम का फूल कभी खिलेगा नहीं। जब प्रेमी और प्रेयसी दोनों खोजते हैं, तभी प्रेम का फूल खिलता है। जब दोनों पागल हैं, तभी प्रेम का फूल खिलता है। परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। आता भी है।
रवींद्रनाथ का एक गीत है कि एक रात एक महामंदिर में मंदिर के बड़े पुजारी ने स्वप्न देखा कि प्रभु ने कहा है कि कल मैं आता हूं। पुजारी को भरोसा न आया।
पुजारी तो जगत में सबसे ज्यादा नास्तिक होते हैं। क्योंकि धंधे के भीतरी राज उनको मालूम होते हैं। वे आस्तिक हो नहीं सकते। आस्तिकता तो उनके लिए शोषण का उपाय है। तुम कभी किसी वैज्ञानिक को तो आस्तिक पा सकते हो; शायद कभी किसी कवि में तुम्हें झलक मिल जाए आस्तिकता की, कभी—कभी ऐसा भी हो सकता है कि कोई दार्शनिक भी अपने ऊहापोह से उठ कर एक दफा आंख खोले और आकाश की तरफ देखे। लेकिन पुरोहित नहीं। क्योंकि पुरोहित को तो पता ही है यह सब जाल है। वह तो जाल के भीतर बैठा है।
ऐसा ही समझो कि मदारी सबको धोखा दे देता, अपने को थोड़े ही धोखा दे सकता है। वह तो जानता है कि कहां छिपा रखी है चीज और कैसे निकलती है। वह तो जानता है कि पत्थर की मूर्ति है, बाजार से खरीद लाये हैं। वह तो जानता है कि रात चूहे भी चढ़ जाते हैं इस मूर्ति के ऊपर और मूर्ति कुछ नहीं कर पाती। और भोग वगैरह कितना ही लगाओ, यह मूर्ति कुछ लेती नहीं है, यह खुद ही ले जाता है सब भोग। पैसे इस पर चढ़ते हैं, पहुंचते उसकी जेब में हैं। वह सब जानता है कि खेल क्या है।
उस बड़े पुजारी को सपना तो आया, लेकिन भरोसा न आया। शायद परमात्मा ने सपने में दस्तक दी। लेकिन डरा भी, भयभीत भी हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि आ ही जाए! कभी आया न था। मंदिर हजारों वर्ष पुराना था। बड़ी प्रतिष्ठा का था। सौ तो पुजारी थे मंदिर में। तो थोड़ा बेचैन भी हुआ। बेचैनी दो तरह की थी। किसी को कहे, पुजारियों को कहे तो वे हंसेंगे, क्योंकि वे भी जानते हैं कि कभी आया कि कभी गया, सब बकवास है! लेकिन अगर न कहे और कहीं आ जाये तो फिर मैं ही फकत मुसीबत में। इसलिए दोपहर होते —होते उसने बात खोल दी। उसने सब पुजारियों को इकट्ठा किया, कहा कि मुझे भरोसा तो नहीं आता, भरोसे की बात भी नहीं है, सपना ही है, लेकिन तुम्हें कह दूं कि रात मैंने सपना देखा कि वह कहता है कि मैं आ रहा हूं; कल तैयारी कर रखना। पुजारी पहले तो हंसे। उन्होंने कहा पागल हो गये हैं आप? बुढ़ापे में दिमाग खराब हुआ है! जिंदगी हो गयी पूजा करते, हमारे बाप—दादे भी करते रहे, उनके बाप—दादे भी यही करते थे; सदियों पुराना यह मंदिर है, कभी परमात्मा आया नहीं। और आज अचानक बिना किसी कारण के, अकारण! लेकिन फिर वे भी चिंतित हुए। तो बड़े पुजारी ने कहा, अब तुम सोच लो, फिर जिम्मेवारी तुम्हारी रही। अगर आ जाए तो मुझे जिम्मेवार मत ठहराना। तब वे भी डरे। उन्होंने कहा, हर्ज भी क्या है, हम तैयारी कर लें। न आया तो चलेगा। मंदिर साफ—सुथरा हो जायेगा। और भोग जो हम बनाएंगे, जैसा रोज हम बनाते हैं, आज भी बना लें। लगायेंगे तो हम ही। आने वाला तो कोई है नहीं। तो ठीक है, चलो, एक उत्सव हो जायेगा।
उन्होंने सारा मंदिर घिसा, सारा मंदिर साफ किया। धूप—दीप जलाये, इत्र छिड़का, फूल सजाये, जानते हुए कि कोई आ नहीं रहा है, अच्छा पागलपन कर रहे हैं! जानते हुए कि यह सब मजाक हुई जा रही है एक सपने के पीछे। सांझ हो गई। उसके आने का कोई पता नहीं है। रात भी होने लगी। फिर तो वे कहने लगे कि हम भी बिलकुल पागल हैं; सपने के पीछे दिन भर मेहनत करते—करते बिलकुल थक गये; अब भोग लगा लें और सो जाएं। तो उन्होंने खूब भोजन कर लिया। दिन भर के थके—मांदे खूब भोजन कर लिया। स्वादिष्ट और गरिष्ठ भोजन बनाया था। फिर पड़ गये गहरी नींद में।
रात परमात्मा आया। उसका रथ। गड़गड़ाहट की आवाज। एक पुजारी ने नींद में सुना कि गड़गड़ाहट की आवाज है, जैसे रथ के पहिये हों। उसने कहा, सुनो, लगता है कि कोई आया है; रथ की गड़गड़ाहट है। लेकिन दूसरे पुजारी ने कहा, बंद करो यह बकवास! एक के सपने के पीछे दिन भर परेशान हुए, अब तुम्हें सपना आ रहा है! कोई गड़गड़ाहट नहीं, आकाश में बादल गरजते हैं। फिर वे सो गये।
फिर द्वार पर रथ आ कर रुका। वह उतरा; सीढ़ियां चढ़ा। उसने दरवाजे पर दस्तक दी। फिर किसी पुजारी को स्वप्न में ऐसा लगा कि कोई दस्तक दे रहा है। उसने फिर कहा कि सुनो भाई, लगता है कि कोई दस्तक दे रहा है। तब तो फिर बड़ा पुजारी भी चिल्लाया कि हर चीज की सीमा होती है। यद्यपि मैंने ही यह नासमझी शुरू की; लेकिन अब सोने भी दो। कोई कहता है, रथ गडूगड़ा रहा है; कोई कहता है कि द्वार पर दस्तक दी। कुछ नहीं, हवा का झोंका है। सो जाओ चुपचाप।
सुबह जब वे उठे, द्वार पर जब वे गये, रथ आया था, रथ के चिह्न थे। कोई सीढ़ियां चढ़ा था किसी के पैरों के चिह्न थे। किसी ने द्वार पर दस्तक दी थी; किसी के हाथ की छाप थी। तब वे बहुत रोने लगे।
रवींद्रनाथ की कविता का शीर्षक है : अवसर चूक गया।
शायद प्रभु आता भी है। यह कविता कविता नहीं है, गहरी सूझ है इसमें। लेकिन तुम कुछ व्याख्या कर लेते हो। तुम्हारा मन कुछ व्याख्या कर लेता है। तुम्हारा मन तुम्हें कुछ उत्तर दे देता है। तुम इतने भरे हो, तुम्हारे भीतर इतने विचारों का जाल है कि उस जाल को पार करके कोई सत्य तुम तक पहुंच नहीं पाता है। इसलिए मैं कहता हूं ध्यान। ध्यान का कुछ और अर्थ नहीं है। ध्यान का इतना ही अर्थ है. तुम जरा विचार को शिथिल करो, तुम अपनी व्याख्याएं जरा छोड़ो; तुम अपनी धारणाओं को बहुत मूल्य मत दो; तुम जरा द्वार खोलो, कपाट खोलो मंदिर के, तुम मंदिर के द्वार पर बैठो, राह देखो, प्रतीक्षा करो। इतना ही काफी है कि तुम खाली आंख देखो ताकि वह आए तो तुम पहचान लो।
तुम्हारा मन कोई व्याख्या —करके तुम्हें स्मृत न कर दे।
यस्य बोधोदये तावक्लप्लवद् भवति भ्रम:।
उसके अनुभव के आते ही, तुम्हारे चैतन्य के क्षितिज पर उसकी किरणों के फूटते ही तुमने अब तक जो जीवन जाना था सब भ्रम हो जाता है, सब स्वप्न हो जाता है।
तुम सुनते हो, तथाकथित पंडित, साधु —संत लोगों को समझाते रहते हैं, जगत माया है। जगत इतने सस्ते में माया नहीं है। महंगा सौदा है। ऐसे वह माया नहीं होता! जब तक ईश्वर सच न हो जाए, तब तक भूल कर जगत को माया मत कहना। अन्यथा तुम एक झूठ दोहरा रहे हो। वह तुम्हारा अनुभव नहीं है। माया कोई दार्शनिक सिद्धात नहीं है—एक अनुभूति, एक प्रत्यक्ष साक्षात्कार है। यह तो ऐसा ही है कि अंधेरे में तो बैठे हो, प्रकाश से तो कभी आंखों का मिलन न हुआ, प्रकाश से तो कभी भांवर न पड़ी और अंधेरे में बैठे—बैठे कहते हो. अंधेरा सब असत्य है। और उसी अंधेरे के कारण लड़खड़ाते हो, बार—बार गिर जाते हो, हाथ—पैर तोड़ लेते हो, हड्डी—पसलियां टूट जाती हैं, गड्डों में पड़ जाते हो, नालियों में गिर जाते हो और कहे चले जाते हो कि अंधेरा नहीं है। तुम्हारी हालत देखकर पता चलता है कि सिर्फ अंधेरा है, और कुछ भी नहीं है। और तुम्हारे वचन सुन कर लगता है कि अंधेरा कुछ भी नहीं है, सब भ्रम—जाल है, असली में तो प्रकाश है। लेकिन वह प्रकाश कहां है? और अगर प्रकाश हो तो तुम गड्डों में न गिरो, दीवालों से न टकराओ, तुम्हारे जीवन में राह हो, तुम्हारे जीवन में शांति हो, चैन हो, आनंद हो।
जब कोई आदमी तुमसे कहे, जगत माया है, तो जरा गौर से देखना, क्या उस आदमी की आंखों में प्रभु का प्रकाश है? क्या उस आदमी की वाणी में शून्य का स्वर है? क्या उस आदमी के चलने —बैठने में प्रसाद है? जरा गौर से देखना। क्या वह कहता है, इसका कोई मूल्य नहीं है।
संसार तभी माया होता है जब 'उसका' उदय हो जाता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले संसार ही सच है, परमात्मा माया है। तुम्हारे लिए परमात्मा झूठ है, संसार सच है। और अगर तुम ऐसा मान कर चलो तो शायद किसी दिन परमात्मा सच हो जाए और संसार झूठ हो जाए।
लेकिन तुम झूठ में खूब खोये हो। तुम मानते संसार को सच हो, जानते भी संसार को सच हो, और दोहराते हो कि संसार माया है। यह झूठा पाखंड है। पांडित्य अक्सर पाखंड ही होता है। तुमने उधार सत्य सीख लिया। सुन लिया तुमने अपनी नींद में किसी और का वचन, किसी बुद्ध की वाणी सुन ली नींद में पड़े—पड़े, और नींद में तुम उसे दोहराने लगे। उसका कोई संस्पर्श नहीं हुआ तुम्हारे जीवन में, वह छुई नहीं; तुम्हारे प्राण उससे बदले नहीं। अब कोई कितना ही लाख चिल्लाये कि सुबह हो गयी, सूरज निकला, अंधेरा झूठ है और हाथ में लालटेन लिये चल रहा हो, तो तुम क्या कहोगे गुम तुम कहोगे अगर सूरज निकल गया, अंधेरा झूठ है, तो यह लालटेन किसलिए लिये हो?
तुमने साधु—संन्यासियों को देखा त्र एक तरफ कहते हैं संसार माया है, दूसरी तरफ समझाते हैं कि छोड़ो, त्याग करो। अब माया है तो माया का कोई त्याग कर सकता है? जो है ही नहीं, उसका त्याग कैसे? एक तरफ कहते हैं, संसार है ही नहीं, और दूसरी तरफ कहते हैं, सावधान, कामिनी—काचन से बचना! जरा इनकी वाणी तो सुनो। लालटेन लटकाये हुए हैं हाथ में और कहते हैं, लालटेन सम्हाल कर रखना और तेल लालटेन में डालते रहना, हालांकि सूरज निकला हुआ है और अंधेरा झूठ है। इनका पागलपन तो देखो।
अगर वस्तुत: ईश्वर है और संसार माया है तो तुम्हारे जीवन में स्वच्छंदता होगी; नियम नहीं हो सकता। यही तो अष्टावक्र का महासूत्र है कि सत्य की सुगंध स्वच्छंदता है। और ध्यान रखना, स्वच्छंदता का अर्थ उद्दंडता नहीं है। स्वच्छंदता का अर्थ है. जो स्वयं के आंतरिक छंद से जीने लगा। अब कोई नियम नहीं रहे, अब बोध ही नियम है। अब जागरूकता ही एकमात्र अनुशासन है; अब बाहर का कोई अनुशासन नहीं है। अब ऐसा करना चाहिए और ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसी कोई मर्यादा नहीं है। अब तो जो उठता है, होता है। क्योंकि परमात्मा ही है तो अब तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए। उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं।
सच तो यह है : जैसे ही तुम्हें लगा कि संसार माया है, तुम्हें यह भी पता चल जाता है कि तुम भी माया हो। तो अब कौन नियम पाले? कौन मर्यादा सम्हाले 2: अब तो वही है—वही अमर्याद, वही स्वच्छंद; उसका ही रास है।
यस्य बोधोदये तावक्लप्पवद् भवति भ्रम:।
तब उसके बोधोदय पर, उसके जागरण पर.!
और इस 'बोधोदय' का क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ. वह तुम्हारे भीतर सोया पड़ा है, जाग जाये बस, जरा करवट लेकर उठ आये बस! कहीं जाना नहीं है, थोड़ी जाग लानी है। जैसे हो तुम, ऐसे ही थोड़ी आंख खोलनी है, थोड़े होश से भरना है। ऐसे मूर्च्छित—मूर्च्छित, सोये—सोये न चलो, थोड़े जाग कर चलने लगो।
तस्मै सुखैकरूपाय नम: शाताय तेजसे।
'उस एकमात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।
सुनते हैं? नमस्कार राम के लिए नहीं है, नमस्कार अल्लाह के लिए नहीं है, नमस्कार उस तेजोमय, आनंदरूप, शांतिधर्मा के लिए है। नमस्कार उस बोध के लिए, नमस्कार उस सूर्य के लिए, जिसके प्रगट होते ही सब अंधकार तिरोहित हो जाता है।
अष्टावक्र के ये वचन किसी संप्रदाय और किसी धर्म के लिए नहीं हैं। अष्टावक्र के इन वचनों का कोई नाता किसी जाति, किसी देश, किसी समाज से नहीं है। और जब तक तुमने अल्लाह को नमस्कार किया, तब तक तुम्हारा नमस्कार व्यर्थ जा रहा है—याद रखना। और जब तक तुमने राम को नमस्कार किया, तब तक तुम हिंदुओं को नमस्कार कर रहे हो, राम को नहीं। और जब तक तुमने बुद्ध के चरणों में सिर झुकाये, तब तक तुम बौद्ध हो, धार्मिक नहीं। जिस दिन तुम्हारा नमस्कार जागरण मात्र को, बोध मात्र को, उस दिन तुम्हारा नमस्कार सारे अस्तित्व के प्रति हो जाएगा। उस दिन तुम्हारे ऊपर किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे की कोई सीमा न रह जाएगी। उस असीम को नमस्कार करते ही तुम भी असीम हो जाओगे। होना भी ऐसा ही चाहिए। असीम को नमस्कार करो और तुम सीमित रह जाओ तो नमस्कार व्यर्थ गया।
नमस्कार का अर्थ क्या होता है?
नमस्कार का अर्थ होता है : झुक जाना; नमन; लीन हो जाना; अपने को डुबा देना। नमस्कार का अर्थ वही होता है जो अगर तुम नदी के साथ भागते हुए जाओ और जब नदी सागर में गिरती है, वहां जो घटता है, उसे देखो गौर से. नदी नमस्कार कर रही है सागर को; सागर में लीन हुई जा रही है। अगर नमस्कार के बाद तुम बच रहे तो नमस्कार नहीं। तो तुमने धोखा कर दिया। तो तुमने औपचारिक जय राम जी कर ली। तुम डूबे नहीं, तुम मिटे नहीं। नमस्कार के बाद बचोगे कैसे?
भट्टो जी दीक्षित बंगाल के एक बहुत अदभुत व्याकरणाचार्य हुए हैं। वे साठ वर्ष के हो गये। उनके पिता उन्हें बार—बार कहते कि तू व्याकरण में ही उलझा रहेगा? अरे, अब मंदिर जा, अब प्रभु को नमस्कार कर, पुकार प्रभु को! अब तू भी बूढ़ा होने लगा। बाप तो कोई अस्सी साल के हो गये थे। लेकिन यह बेटा सुनता —न था। यह सुन लेता, हंस लेता, टाल जाता। लेकिन एक दिन बाप ने कहा कि सुन, अब मुझे लगता है कि मेरी आखिरी घड़ी करीब आ रही है। और मेरे मन में एक दुख रह जाएगा कि तू मेरे देखते —देखते कभी मंदिर न गया, तूने कभी प्रभु का स्मरण न किया। छोड़ यह बकवास, यह व्याकरण में क्या रखा है? इस लिखने—पढ़ने में क्या धरा है? तू प्रभु को तो याद कर! भट्टों जी दीक्षित ने कहा कि अब आप मानते नहीं तो मुझे आपसे कहना पड़े। आपको मैं भी देख रहा हूं वर्षों से मंदिर जाते, लेकिन मैंने अभी तक देखा नहीं कि आपने नमस्कार किया हो। क्योंकि आप रोज वैसे के वैसे वापिस लौट आते हैं। नमस्कार के बाद कोई वापिस लौटता है? वैसा का वैसा वापिस लौटता है? पहले तो वापिस ही नहीं लौटना चाहिए, अगर नमस्कार हो गया है। और अगर लौटे भी तो कुछ दूसरा होकर लौटना चाहिए। चालीस—पचास साल से तो मुझे भी याद है, जब से मैंने होश संभाला है, आपको देख रहा हूं सुबह—शाम मंदिर जाते; मगर कोई क्रांति की किरण नहीं दिखी। तो मैंने सोचा, ऐसा नमस्कार करके मैं भी क्या कर लूंगा? मेरे पिता कुछ न कर पाये तो मैं क्या कर लूंगा? जाऊंगा एक दिन, लेकिन तुमसे कहे देता हूं बस एक बार याद करूंगा। और आप तो जानते हैं, मैं व्याकरण के पीछे पागल हूं। तो उसने कहा कि राम—राम क्या कहना, एक बार रामा: बहुवचन कह देंगे, खतम हुआ। बार—बार राम—राम, राग—राम कहते रहना, जिंदगी भर एकवचन कहने से क्या सार है? बहुवचन में ही एक दफा कह देंगे। समझ लेगा समझ लेगा; नहीं समझा, बात खतम हो गयी। दुबारा कुछ कहने को बचा नहीं।
और कहते हैं, वह गया और एक बार रामा: कहा और वहीं गिर गया। उड़ गये प्राण—पखेरू। घड़ी भर बाद लोगों ने आ कर घर खबर दी पिता को कि आप क्या बैठे कर रहे हैं, आपका बेटा तो जा चुका। सारा गांव इकट्ठा हो गया कि जो कभी मंदिर में न आया था, एक बार आ कर राम को एक बार पुकार कर अनंत यात्रा पर निकल गया! मामला क्या हुआ?
पिता रोने लगे। पिता ने कहा, वह ठीक ही कहता था कि एक ही बार कहूंगा, लेकिन प्राण—क्या से कह दूंगा। पूरा—पूरा कह दूंगा, सब लगा कर कह दूंगा। ऐसा रत्ती—रत्ती, रोज—रोज दोहराना—क्या सार है!
और अक्सर ऐसा होता है कि रोज—रोज दोहराने से, रत्ती—रत्ती दोहराने से तुम्हारी दोहराने की आदत हो जाती है। तुम यंत्रवत दोहराये चले जाते हो। लोग बिलकुल यंत्रवत झुकते हैं; मंदिर देखा, झुक गये। इसमें कुछ भी अर्थ नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। बचपन से बंधी एक यांत्रिक आदत है : हिंदू—मंदिर आ गया, झुक गये; जैन—मंदिर आ गया, झुक गये।
मैं एक यात्रा पर था। और एक दिगंबर जैन महिला मेरे साथ यात्रा पर थी। उसने कसम खा रखी थी कि जब तक वह मंदिर में जा कर नमस्कार न कर ले महावीर को, तब तक भोजन न करेगी। बड़ी झंझट खड़ी होती। सभी गांव में जैन मंदिर नहीं भी हैं। एक गांव में मैं गया तो मैंने देखा जैन मंदिर है, तो मैं भागा हुआ आया। मैंने उससे कहा, आज बड़े शुभ का समय है, तू जल्दी जा, मंदिर है। वह गयी वहां। वहां से उदास लौटी। उसने कहा कि वह हमारा मंदिर नहीं है, वह श्वेतांबर जैन मंदिर है। दिगंबर जैन मंदिर चाहिए। मैं तो नग्न महावीर को नमस्कार करती हूं। ये कोई महावीर, सजे —बजे, ये महावीर नहीं हैं! महावीर तो वीतराग रूप हों तो ही।
महावीर में भी फर्क है—श्वेताबर का महावीर, दिगंबर का महावीर।
जबलपुर में मैं वर्षों तक था। वहां गणेशोत्सव पर गणेश का जुलूस निकलता था। तो वहां नियम है कि ब्राह्मण का गणेश, ब्राह्मण टोले का गणेश पहले, फिर दूसरा टोला; ऐसे जैसा कि वर्ण—व्यवस्था से होना चाहिए। एक बार ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के टोले के गणेश के आने में थोड़ी देर हो गयी और चमारों के गणेश पहले पहुंच गये। तो ब्राह्मणों ने तो बर्दाश्त नहीं किया। उन्होंने तो जुलूस रुकवा दिया। उन्होंने कहा, हटाओ चमारों के गणेश को। चमारों के गणेश! हद हो गयी! आगे चले जा रहे हैं चमारों के गणेश! जैसे गणेश भी चमार हो गये। सत्संग का परिणाम तो होता ही है। चमारों की दोस्ती करोगे, चमार हो जाओगे। हटवा दिया। दंगा—फसाद की नौबत आ गयी। जब तक हटवा न दिया पीछे ब्राह्मणों ने गणेश को, अपने गणेश को आगे न कर लिया, तब तक जुलूस आगे न बढ़ सका।
ईश्वर की तुम्हारी धारणा भी बड़ी संकीर्ण है। तुम नमस्कार करते हो तो उसमें भी हिसाब रखते हो। नमस्कार का तो अर्थ ही होता है बेहिसाब। यह जो चारों तरफ विराट मौजूद है, इसमें झुको, इसमें नदी की तरह लीन हो जाओ, जैसे नदी सागर में खो जाती है।
तस्मै सुखैकरूपाय.......।
उस सुख—रूप में झुकता हूं।
नम: शाताय तेजसे।
उस तेजस्वी में झुकता हूं। उस शांति के सागर में झुकता हूं।
बुद्ध के पास लोग आते थे तो उनके चरणों में झुक कर कहते. बुद्धं शरणं गच्छामि। किसी ने बुद्ध से पूछा कि आप तो कहते हैं कि किसी के चरण में मत झुको, लेकिन लोग आपके चरणों में झुकते हैं और कहते हैं : बुद्धं शरणं गच्छामि। आप रोकते नहीं? तो बुद्ध ने कहा, मैं रोकने वाला कौन? वे मेरी शरण थोड़े ही झुकते हैं, बुद्ध की शरण झुकते हैं। बुद्धत्व कुछ मुझमें सीमित थोड़े ही है। बुद्धत्व यानी जागरण की दशा। मुझसे पहले हजारों बुद्ध हुए हैं, मेरे बाद हजारों बुद्ध होंगे। जो आज बुद्ध नहीं हैं; वे भी बुद्धत्व को तो भीतर संभाले हुए हैं। किसी दिन प्रगट होगा। अभी बीज हैं, कभी वृक्ष बनेंगे! अभी कली हैं; कभी फूल बनेंगे। अभी छुपे हैं; कभी प्रगट हो जाएंगे। बुद्धं शरणं गच्छामि। वे बुद्ध की शरण जाते हैं, उसका अर्थ यह नहीं है कि मेरी शरण जाते हैं। मैं कौन हूं? अगर मेरी शरण जाते हैं तो गलत जाते हैं। अगर बुद्धत्व की शरण जाते हैं तो ठीक जाते हैं। मैं रोकने वाला कौन? मैं बीच में आने वाला कौन?
नमन तुम्हारा उसके प्रति हो—प्रकाशरूप, शांतिरूप, सुखरूप—जिसके उदय से सारा संसार भ्रममात्र हो जाता है।
संसार में तो हमारे ऐसे लगाव हैं कि मरते दम तक नहीं छूटते। मरता—मरता आदमी भी नहीं छोड़ता है।
मैंने सुना, एक सेठ नदी में डूब रहा था। एक गरीब भिखमंगे ने दौड़ कर बचाया। कठिन था बचाना, क्योंकि सेठ भारी—वजनी था। बड़ा पेट, बड़ा सेठ! गरीब भिखमंगा, हड्डी—पसली सूखी; मगर किसी तरह खींच कर लाया। उनको बचाने में अपनी भी जान दाव पर लगा दी। सेठ ने जब आंखें खोलीं, थोड़ा होश संभाला, तो एक रुपये का नोट दिया उसे और कहा, तूने मुझे बचाया, यह रुपया ले, किसी दूकान से जा कर भुना ला, आठ आने तू रख लेना, आठ आना मुझको दे देना। उस भिखमंगे ने कहा, सेठ, यहां तो कोई आसपास दूकान दिखाई नहीं पड़ती और अब आठ आने के पीछे क्या पंचायत करनी? आप संभाल कर रखो। जब दुबारा डूबो तब पूरा नोट ही दे देना।
आदमी मरते दम तक भी पकड़ता है, छोड़ता नहीं। स्वाभाविक है एक अर्थ में, क्योंकि जिसमें हम मूल्य मानते हैं, उसको पकड़ते हैं। हमारा सारा मूल्य धन में है, पद में है, प्रतिष्ठा में है; चूंकि हमने मूल्य सब वहां रख दिया। हमारा परमात्मा धन में है तो हम धन को पकड़ते हैं। हमारा परमात्मा पद में है तो हम पद को पकड़ते हैं। जहां तुमने परमात्मा को मान लिया, उसी को तुम पकड़ते हो। तुमने संसार में परमात्मा को मान लिया। परमात्मा यानी सुख।
तुमने यह परिभाषा तो बहुत सुनी कि लोग कहते हैं, ब्रह्म जो है, परमात्मा जो है वह सच्चिदानंद— रूप, आनंद—रूप है। लेकिन तुम उल्टी तरफ से भी सोचो। जहां तुम आनंद मान लेते हो वहीं तुम्हें परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं। धन में मान लिया तो धन में होने लगे। फिर तुम धन के दीवाने हो जाते हो। फिर तुम धन की पूजा करते हो। देखते न दीवाली आती है तो लोग धन की पूजा करते हैं! धन का उपयोग तक भी ठीक था; कम से कम पूजा तो मत करो। कहते हैं लक्ष्मी—पूजा कर रहे हैं। धन की पूजा! इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि धन परमात्मा हो गया। अब तो धन की पूजा भी हो रही है! धन का उपयोग करते, धन साधन था, उपयोगी था। मैं यह नहीं कहता कि धन उपयोगी नहीं है। धन बड़ा उपयोगी है; विनिमय का माध्यम है; हजार सुविधाएं उससे आती हैं। लेकिन पूजा! तो तुमने फिर धन में परमात्मा को देखना शुरू कर दिया। फिर तो रुपया जो है रुपया न रहा, प्रभु की प्रतिमा हो गयी। अब तुम इसकी पूजा कर रहे, इसको नमन कर रहे हो।
लोग जिस चीज को नमन करें, खयाल करना कि वहीं उनका परमात्मा है। राजनेता गांव में आ जाये तो लाखों लोग इकट्ठे हो जाते हैं। यह नमन किसलिए हो रहा है? पद में पूजा है। पद में परमात्मा दिखाई पड़ता है। जिसके पास ताकत है..! यही राजनेता कल पद पर न रह जाएगा तो स्टेशन पर लेने कुत्ते भी नहीं जाते! आदमी की तो बात छोड़ो, खुद का कुत्ता भी पूंछ नहीं हिलाएगा कि छोड़ो भी; जब थे तब थे! और लोग सलाह देने आते हैं : अब छोड़ो भी अकड़! रस्सी जल गयी, अकड़ रह गयी। अब है ही क्या पास में? लेकिन अगर राजनेता पद पर है, या संभावना भी हो कि कल पद पर हो सकता है, तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है।
तुम्हारा परमात्मा पद में है।
बुद्ध एक गांव में आए। उस गांव के राजा से उस गांव के मंत्री ने कहा कि बुद्ध आते हैं, हम उनके स्वागत को चलें। राजा अकड़ीला था। उसने कहा, हम क्यों जाएं? है क्या बुद्ध के पास?
भिखारी ही हैं न आखिर! और मैं कोई उनसे पीछे तो हूं नहीं, तो मैं जाऊं क्यों? आना होगा, खुद आ जायेंगे महल। मिलना होगा, खुद मिल जायेंगे। उस मंत्री ने कहा, तो मेरा इस्तीफा लें। वह मंत्री बड़ा उपयोग का था। उसके हाथ में सारी कुंजियां थीं राज्य की। राजा घबराया। वह तो लंपट किस्म का राजा था। उसको तो कुछ पता भी न था, कैसे राज्य चलता है, क्या होता है। वह तो सिर्फ नाममात्र को था; असली तो वजीर था। उस वजीर ने कहा, फिर मुझे छोड़े। वह राजा कहने लगा, इसमें नाराज होने की बात क्या है? छोड़ने की जरूरत क्या है।
उसने कहा कि नहीं, अब आपके पास बैठना ठीक नहीं है। गांव में बुद्ध आते हों और जो उनको नमस्कार करने न जाये, उसके पास बैठना ठीक नहीं है। इसके पास रहने में तो खतरा है। यह तो बीमारी लगने का डर है। मैं अब आपके पास रुक नहीं सकता। अब आप चाहे चलो भी तो भी नहीं रुक सकता। याद रखना कि बुद्ध के पास यह राज्य था और उन्होंने छोड़ दिया; तुम्हारी अभी भी छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ी है। वे तुमसे आगे हैं। यह बुद्ध का भिखमंगापन साधारण भिखमंगापन नहीं है। यह बुद्ध का भिखमंगापन बड़ा समृद्ध है; साम्राज्यों से ऊपर है, सम्राटों से पार है। और अगर तुम यहां नमन करने को नहीं जाते तो 'तुम्हारे जीवन में फिर नमन कहां से आयेगा? और जिसके. जीवन में नमन नहीं है, नमस्कार नहीं है, उसके पास रुकना ठीक नहीं। क्योंकि उसके जीवन में सिवाय अहंकार के जहर के और कुछ भी नहीं हो सकता। नमस्कार तो अमृत है।
'सारे धन कमा कर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है, लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता।
अर्जयित्वगिखलानार्थान् भोगानाम्नोति पुष्कलान्।
नहि सर्व परित्यागमतरेण सुखी भवेत।।
दूसरा सूत्र : 'सारे धन कमा कर......।
खयाल रखना—'सारे धन'। सारे धन का अर्थ हुआ, जिस चीज में भी तुम्हें लगता है .सुख मिलेगा, वह कोई भी हो चीज, वही धन हो गयी। जिसको भी तुम सुख का माध्यम समझते हो, वही धन है। तो कोई आदमी रुपये इकट्ठा करता है, कोई आदमी डाक टिकटें इकट्ठी करता है। जो रुपये इकट्ठा करता है, वह कहता है, क्या मूढ़ता कर रहे हो, डाक टिकटें इकट्ठी कर रहे हो, होश संभालो! क्या करोगे इनका? लेकिन उसे उसमें सुख है तो उसके लिए धन हो गया। धन का अर्थ ही यही होता है, जिसमें तुम्हें सुख है। कोई आदमी कुछ इकट्ठा करता है, कोई आदमी कुछ। कोई आदमी शान इकट्ठा करता है, वह उसके लिए धन हो गया। और कोई आदमी बिलकुल व्यर्थ की चीजें इकट्ठी करता हो सकता है। तुम्हें व्यर्थ की लगती हैं। अगर उसे उनमें सुख की आशा है तो वह उसके लिए धन हो गया।
सूत्र कहता है. सारे धन कमा कर —अर्जयित्वा अखिलान् अर्थान्—सारे धन इकट्ठे कर लिए, भोगान् आप्नोति पुष्कलान्—और अतिशय भोगों को भी पाता है, लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता।
अष्टावक्र भोग और सुख में फर्क कर रहे हैं।
अब इसे समझो। साधारणत: तो तुम सोचते हो : भोग यानी सुख। लेकिन भोग को अगर तुम
गौर से देखो तो तुम पाओगे कि भोग में कभी सुख होता नहीं। भोग में तो एक तनाव है, उत्तेजना है। भोग में तो एक ज्वरग्रस्त दशा है, शांति नहीं। और शांति के बिना सुख कहां! जो आदमी धन इकट्ठा कर रहा है, वह सोचता है कि इकट्ठा कर लूंगा तो सुख होगा। उसका सुख सदा भविष्य में होता है। कभी होता नहीं, वह कितना ही इकट्ठा कर ले, इकट्ठा करने में दुख बहुत होता है, क्योंकि चिंता करनी पड़ती है, बेचैन रहना पड़ता है, नींद खो जाती है, अल्सर पैदा हो जाते हैं, सिरदर्द बना रहता है, रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदय के दौरे पड़ने लगते हैं।
अमरीका में तो वे कहते हैं कि जिस आदमी को चालीस साल की उम्र तक हृदय का दौरा न पड़े वह असफल आदमी है। सफल आदमी को तो पड़ना ही चाहिए। क्योंकि चालीस साल और सफल आदमी को हृदय का दौरा न पड़े!
मेरे गांव में ऐसा समझा जाता था कि मारवाड़ी जब एक—दूसरे के यहां विवाह करते हैं तो वे पता लगा लेते हैं कि कितनी बार दिवाला डाला। क्योंकि दिवाले डालने से पता चलता है कि कितना धन होगा। धनी आदमी का लक्षण है. कितनी बार दिवाला डाला। अगर दिवाला नहीं डाला तो हालत खराब है, खस्ता है।
ठीक ऐसा अमरीका में कुछ दिन में लोग जरूर पूछने लगेंगे कि कितने हार्ट — अटैक हुए? नहीं हुए तो क्या भाड़ झोंकते रहे? करते क्या रहे 2: नाम— धाम, पद—प्रतिष्ठा.. .हार्ट — अटैक तो होना ही चाहिए। रक्तचाप कितना है ग्र साधारण, तो जिंदगी गंवा रहे हो! कुछ कमाना नहीं है? यह साधारण रक्तचाप तो आदिम, आदिवासियों का होता है! और असफल आदमी या भिखमंगे, आवारागर्द लोग, इनको नहीं होते हृदय के दौरे वगैरह।
चिंतातुर आदमी, जो बड़ी महत्वाकांक्षा से भरा है, उसके पेट में अल्सर तो हो ही जाने चाहिए। घाव तो हो ही जाने चाहिए। क्योंकि चिंता घाव बनाती है; चिंता एसिड की तरह गिरती है पेट में और घाव बनाती है। तो सभी महत्वाकांक्षी अल्सर से तो ग्रस्त होंगे ही। तो जो आदमी धन के लिए दौड़ता है, वह सुख तो कभी नहीं पाता। ही, सुख की आशा में दौड़ता है, यह सच है। सुख की आशा में दुख बहुत पाता है। पाता दुख है; सुख की आशा रखता है। और सुख की आशा के कारण सब दुख झेल लेता है। कहता है, कोई हर्जा नहीं; आज अल्सर है, आज हृदय का दौरा पड़ा, आज रक्तचाप बढ़ गया, कोई फिक्र नहीं, कल तो सब ठीक हो जाएगा। कल सब ठीक हो जाएगा; नहीं तो अगले महीने, नहीं तो अगले वर्ष! कभी न कभी तो सब ठीक हो जाएगा। लोग कहते हैं कि देर हो सकती है, अंधेर थोड़े ही है। कभी न कभी तो प्रभु प्रसन्न होगा। कभी तो हमारे भाव को समझेगा, हमारी चेष्टा को समझेगा; कभी तो पुरस्कार मिलेगा।
अष्टावक्र कहते हैं : 'सारे धन कमा कर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है।
तो भोग का फिर क्या अर्थ हुआ? ऐसा समझो।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। कलकत्ता के बड़े से बड़े धनी व्यक्ति थे। मैं ग्‍यारह बजे रात सो हूजाता हूं। तो जब मैं सोने के लिए जाने लगा तो वे बोले कि आप सोएंगे अब? तो मैंने कहा, क्या इरादा है? उन्होंने कहा, नहीं, मुझे तो नींद ही नहीं आती। तो मैं तो सोचता था, कुछ और देर बैठेंगे, बात करेंगे। मैंने कहा : नींद नहीं आती, क्या तकलीफ है? अच्छा बिस्तर उपलब्ध नहीं है, अच्छी
शैथ्या नहीं है? उन्होंने कहा, अच्छी शैव्या तो है; इससे अच्छी और क्या हो सकती है!
'तुम्हारे पास कमी क्या है? न बेटा है न बेटी है! और धन बहुत है।
तुमने देखा कि अक्सर धनियों को बेटे—बेटी भी गोद लेने पड़ते हैं! जीवन—ऊर्जा इस तरह विकृत हो जाती है, जीवन—ऊर्जा इस तरह नष्ट हो जाती है! धन इकट्ठे करने में लग गयी तो अब बेटा पैदा करना मुश्किल हो जाता है।
खूब धन कमा लिया है। अब नींद में अड़चन क्या है? सो क्यों नहीं जाते?
और उन्होंने धन अपने ही हाथ से कमाया; बपौती से नहीं मिला है। और मैंने कहा, कमाया किसलिए इतना अगर नींद गंवा दी?
उन्होंने कहा, मैं यही सोचता था कमाई की दौड़ में कि एक दिन जब सब ठीक हो जाएगा! चलो, कुछ दिन न सोये तो चलेगा। धीरे— धीरे न सोना आदत का हिस्सा हो गया। चिंताएं इतनी हैं भाग—दौड़ की, अब हालांकि चिंता का कोई कारण नहीं है, लेकिन अब पुरानी आदत पड़ गयी। अब घाव में हाथ डाल कर आदमी पुराने घाव को ही उघाड़ता रहता है। कुछ न बचे चिंता को, तो भी मस्तिष्क चलता रहता है, मशीन चलती रहती है। अब वह चुप नहीं होता मस्तिष्क। पचास साल तक निरंतर जिस तरह दौड़ाया, वैसी दौड़ने की आदत हो गयी। अब वह विक्षिप्त हो गया है। तो अच्छी शैव्या है, लेकिन नींद खो गयी। भोग का साधन उपलब्ध है, लेकिन भोग की सुविधा न रही। अच्छा भोजन उपलब्ध है, लेकिन खाना पड़ता है साग— भाजी; इससे ज्यादा कुछ खा नहीं सकते। दाल का पानी पीते हैं। भोग का सब साधन उपलब्ध है, लेकिन अब भूख खो' गयी। जीवन गंवा दिया इकट्ठा करने में। सुख तो तुम्हारी संवेदनशीलता पर निर्भर है।
ऐसा समझो कि फूल इकट्ठे करने में तुम्हारी नाक कट गयी। जब तक फूल इकट्ठे हो पाये, तब तक नाक न बची। अब सुगंध लेने की क्षमता न रही। महल बनाया था कि इसके भीतर शांति से विश्राम करेंगे। महल तो बन गया, लेकिन महल बनाने में जो श्रम करना पड़ा, जो दौड़— धूप करनी पड़ी, वह आदत अब एकदम नहीं छूट सकती। अब मकान तो बन गया, अब भीतर बैठे हैं, लेकिन विश्राम नहीं कर सकते।
विश्राम करना कोई छोटी—मोटी बात थोड़े ही है कि जब चाहा कर लिया। उसका भी जीवन में एक तारतम्य होना चाहिए। हर कोई थोड़े ही विश्राम कर सकता है। विश्राम के लिए एक गहरी कला होनी चाहिए कि तुम अपने को विराम दे सको। तुम अपने मन को जब चाहो तब कह सको कि बस' ठहर और मन ठहर जाये, तो विश्राम हो सकता है। मन को कभी ठहराया नहीं, ध्यान का कभी एक क्षण न जाना, प्रेम का कभी एक क्षण न जाना। प्रेम की फुर्सत कहा है? जिसको धन की दौड़ लगी है, उसको प्रेम की फुर्सत नहीं है। और धन का पागल प्रेम से बचता भी है। क्योंकि प्रेम में खतरा है।
मैं एक घर में कुछ दिनों तक रहता था। वे जो सज्जन थे, जिनका घर था, उनको मैं गौर से देखता था। न तो वे कभी अपनी पत्नी से बात करते दिखाई पड़ते, न अपने बच्चों के साथ खेलते दिखाई पड़ते। वे एकदम तीर की तरह घर में आते, सीधा देखते जमीन की तरफ, और तीर की तरह जाते। मैंने एक दिन उन्हें रोका। मैंने कहा, मामला क्या? बात क्या है। आप कभी पत्नी के पास बैठे दिखाई नहीं पड़ते कि गपशप करते हों। कभी आपके घर मेहमान दिखाई नहीं पड़ते आते हुए। कभी यह भी नहीं होता कि मैं आपको बच्चों के साथ बगीचे में देखूं। कभी आपको बगीचे में भी नहीं देखता। बगीचा बहुत सुंदर है, लेकिन आप कभी वहां दिखाई नहीं पड़ते। मामला क्या है?
उन्होंने कहा कि मामला यह है. अगर बच्चे से जरा ही मीठा बोलो, वह फौरन रुपये की मांग कर देता है। मीठा बोले नहीं कि फंसे। वह जेब में हाथ डालता है। पत्नी से जरा ही मीठा बोलो कि समझो कोई हार खरीदना, कि कोई गहना बाजार में आ गया है, कि नयी साड़ी आ गयी। तो धीरे— धीरे मैंने यह देख लिया कि मुस्कुराहट तो बड़ी कीमती है, महंगी पड़ती है। तो मैं अपने को बिलकुल दूर रखता हूं; मैं बातचीत में पड़ता ही नहीं। क्योंकि बातचीत में पड़ने का मतलब उलझाव है।
अब यह आदमी धन कमा रहा है, लेकिन प्रेम इसके जीवन से खो गया। जो अपने बेटे से बोल नहीं सकता पास बैठ कर, घड़ी दो घड़ी बाप और बेटे के बीच चर्चा नहीं हो सकती दिल खोल कर; क्योंकि डर है इसे कि बेटा जेब में हाथ डाल देगा। जो अपनी पत्नी के पास बैठ कर बात नहीं करता, भयभीत है कि जब भी कुछ कहो महंगा पड़ जाता है, जो हमेशा सख्त और तना हुआ रहता 'है—यह इसकी सुरक्षा का उपाय है। धन तो इकट्ठा हो जाएगा; लेकिन जिस जीवन से प्रेम खो गया, वहां सुख कहां?
तो हम करीब—करीब साधन तो इकट्ठे कर लेते हैं, साध्य खो जाता है। और फिर जब सुख नहीं मिलता तो लोग बड़े हैरान होते हैं। वे कहते हैं, सब तो है, और सुख क्यों नहीं?
सुख का कोई संबंध धन से नहीं है, सुख का संबंध जीवन की किन्हीं और गहराइयों से है। तुम्हारी क्षमताएं प्रखर होनी चाहिए; तुम्हारा बोध गहरा होना चाहिए। जीने की कला आनी चाहिए। तब कभी रूखी रोटी में भी इतना स्वाद हो सकता है! नहीं तो मिष्ठान्न भी, बहुमूल्य से बहुमूल्य भोजन भी व्यर्थ है। कभी रूखी—सूखी रोटी भी ऐसी तृप्ति दे सकती है, लेकिन तृप्ति की कला आनी चाहिए। वह बड़ी और बात है। धन के इकट्ठे करने से उसका कोई संबंध नहीं है।
अक्सर तो मैं देखता हूं कि धनी अविकसित रह जाता है। उसके जीवन की कलियां खिल नहीं पातीं, पंखुड़ियां खिल नहीं पातीं। एक ही दिशा में दौड़ने के कारण वह करीब—करीब और सब दिशाओं के प्रति अंधा हो जाता है। वह हर चीज में धन ही देखता है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान तो करें, लेकिन ध्यान से फायदा क्या है? सुन रहे हैं उनका प्रश्न! वे सोचते हैं, ध्यान से भी कुछ बैंक—बैलेंस बढ़े। फायदा, लाभ, इससे होगा क्या? उनके जीवन में ऐसी कोई चीज नहीं रह जाती जो वे स्वांत: सुखाय कर सकें, जो वे कह सकें कि सुख के लिए कर रहे हैं। वे पूछते हैं नाचने से फायदा क्या है? अब नाचने से फायदा क्या? पक्षी अगर पूछने लगें, गीत गुनगुनाने से फायदा क्या, तो सारी दुनिया सूनी हो जाये। मगर रोज उठ आते हैं, सूरज के स्वागत में नाचते हैं, गाते हैं, आनंदित हैं, सुखी हैं। धन बिलकुल नहीं है पक्षियों के पास, लेकिन सुख है। वृक्ष फूले चले जाते हैं। कोई वृक्ष पूछता ही नहीं। अभी तक कोई अर्थशास्त्री वृक्षों में पैदा ही नहीं हुआ, जो उनको समझाये कि क्यों रे नासमझो, व्यर्थ फूले चले जा रहे हो, फायदा क्या? एक बार वृक्षों को कोई यह खयाल डाल दे उनके दिमाग में कि फायदा कुछ भी नहीं है फूलने से, फायदा क्या है, तो वृक्ष फूलने बंद हो जाएं। चांद—तारे रुक जायें—फायदा क्या? सूरज ठहर जाये—यह रोशनी बरसाने से फायदा क्या है?
यह सारा जगत अर्थशास्त्रियों की बिना सलाह के चल रहा है, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। और आदमी अर्थशास्त्रियों की सलाह के कारण बड़े अनर्थ में पड़ गया है। उसके जीवन से सारा अर्थ खो गया है। बस एक ही बात वह पूछता है : फायदा?
स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा। किसी ने पूछा तुलसी को : क्यों गायी तुमने राम की कथा? तो कहा : स्वांत: सुखाय। कुछ पाने के लिए नहीं; कुछ राम को रिझाने के लिए भी नहीं। वे तो रीझे ही हुए हैं। कोई रिश्वत भी नहीं दी उनको कि तुम्हारी स्तुति गायेंगे तो जरा मुझे स्वर्ग में अच्छी, ठीक—सी जगह दे देना। नहीं, किसीलिए नहीं। गाने में मजा आया; स्वांत: सुखाय, सुख आया।
तुम खयाल करना, जब भी तुम कोई काम बिना कुछ पाने की आकांक्षा के करते हो, तभी सुख आता है। और जहां भी कुछ पाने की आकांक्षा है, वहीं दुख है, वहीं तनाव है। धन से तो सुख मिल नहीं सकता, क्योंकि धन का मतलब ही यह है कि धन साधन है और सुख बाद में आएगा। रुपया हाथ में रखने से तो सुख किसी को भी आता नहीं। कितने ही रुपये के ढेर लग जायें तो भी सुख नहीं आता, सुख मिलेगा धन के इकट्ठे होने से, पहले हम धन इकट्ठा कर लें, फिर सुख मिलेगा—ऐसे लोग तैयारियां ही करते रहते हैं और तीर्थयात्रा पर कभी नहीं निकलते। टाइम—टेबिल ही देखते रहते हैं कि जाना है; जाते नहीं। क्योंकि तैयारी ही कभी पूरी नहीं हो पाती तो जायें कैसे!
तुम चकित होओगे, इस जगत के बड़े से बड़े धनी लोग भी निर्धन से भी ज्यादा निर्धन होते हैं। उनका बाहर का धन तुम देखोगे तो पाओगे बहुत धनी हैं, उनके भीतर जरा झाकोगे तो पाओगे राख ही राख है। वहां अंगार भी नहीं है। वहां जरा भी ज्योति नहीं जलती। मुर्दा ही मुर्दा। धनी आदमी को जीवित तुम मुश्किल से पाओगे। कारण पू क्योंकि जीवन ही बेच—बेच कर तो धन इकट्ठा कर लिया। जीवन की सारी संवेदनाएं, जीवन की सारी क्षमताएं, जीवन का सारा काव्य तो बेच डाला और धन इकट्ठा कर लिया—इस आशा में कि फिर कुछ मिलेगा।
इसे मैं तुम्हें कह दूं. इस क्षण में है सुख। और अगर तुमने अगले क्षण में सोचा तो तुम धन— लोलुप हो। इसलिए मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि सिर्फ धनी ही पागल है; जो सोच रहा है स्वर्ग में मिलेगा, वह भी उतना ही पागल है। जो सोच रहा है परमात्मा को पा लूंगा, फिर सुख मिलेगा, वह भी पागल है। क्योंकि सबका तर्क एक ही है। तर्क यह है कि कुछ होगा, मिलेगा, फिर सुख। सुख जैसे परिणाम में आएगा। नहीं, सुख या तो अभी या कभी नहीं।
तुम यहां बैठे हो। अगर तुम सोच रहे हो कि मुझे सुनकर तुम समझ लोगे, समझ में सारे निचोड़ लोगे, फिर अपने जीवन का वैसा व्यवस्थापन करोगे, तब तुम सुख को पाओगे—तुम चूक गये। तब यही तुमने धन बना लिया। फिर यह भी धन हो गया। फिर यहां भी लोभ आ गया।
लोग आते हैं। एक डाक्टर हैं। उनको मैंने कहा कि तुम बैठे—बैठे नोट क्यों लेते रहते हो? उन्होंने कहा कि नोट इसलिए लेता हूं कि बाद में काम पड़ेंगे। मैंने कहा, हद हो गयी। मैं समझा—समझा कर परेशान हुआ जाता हूं कि बाद की फिक्र मत करो। बाद काम पड़ेंगे! अभी मैं तुम्हारे सामने कुछ मौजूद कर रहा हूं तुम सुख ले लो। तुम सुखी हो जाओ। सुखी भवेत। अभी और यहीं। तुम यह क्षण जो सुख का बह रहा है मेरे और तुम्हारे बीच, इसे नोट ले कर खराब कर रहे हो। तुम धन इकट्ठा कर रहे हो फिर। नोट यानी धन। फिर पीछे काम पड़ेंगे। फिर देख लेंगे उल्टा कर कापी, फिर संभाल कर रख लेंगे।
फिर इसके अनुसार जीवन को बनाएंगे। यह टाइम—टेबिल बन जाएगा, लेकिन यात्रा कभी न होगी। एक गांव में रामलीला हो रही थी। लंका से लौटते हैं राम, सीता, हनुमान तो उतरता है पुष्पक विमान। रामलीला का विमान तो एक रस्सी से बांध कर एक डोला नीचे उतारा हुआ था। वे उसमें बैठते और रस्सी खींच ली जाती। अब ऊपर जो चढ़ा था, अंधेरे में बैठा हुआ, उसको कुछ ठीक समय का बोध न रहा। इसके पहले कि रामचंद्र जी चढ़ते, उसने डोला खींच लिया। तो खड़े रह गये रामचंद्र जी, लक्ष्मण जी, हनुमान जी। हनुमान जी ने थोड़ी उछल—कूद भी की, मगर फिर भी न पहुंच पाये। डोला एकदम चला ही गया। छोटे—छोटे बच्चे थे गांव के, जो बने थे राम—लक्ष्मण। तो लक्ष्मण ने पूछा अपने भाई रामचंद्र जी से कि बड़े भइया, अगर आपके सूटकेस में टाइम—टेबिल हो तो देख कर बतायें, दूसरा हवाई जहांज कब छूटेगा?
कुछ लोग तो छिपाये हुए हैं टाइम—टेबिल सब जगह। टाइम—टेबिल का भी अध्ययन लोग ऐसे करते हैं जैसे कुरान—बाइबिल का कर रहे हों।
मैं ट्रेन में बहुत दिनों तक सफर करता था तो मैं देखता था, लोग टाइम—टेबिल ही लिए बैठे हैं, उसका अध्ययन कर रहे हैं! मैं कभी कहता भी कि आप घंटों से टाइम—टेबिल का अध्ययन कर रहे हैं; इसमें अध्ययन करने जैसा है भी क्या? वे कहते, तो बैठे —बैठे क्या करें न: तो टाइम—टेबिल का ही अध्ययन कर रहे हैं। योजना ही बना रहे होंगे मन में कुछ; ट्रेनों का इंतजाम बिठा रहे होंगे कुछ।
तुम अपने जीवन को गौर से देखना। कहीं तुम्हारा जीवन समय—सारिणी का अध्ययन ही तो नहीं हो गया है? धन होगा, पद होगा, प्रतिष्ठा होगी, बड़ा मकान होगा, बड़ी कार होगी, तब तुम सुख से रहोगे? तो तुम कभी सुख से न रहोगे। सुख से रहना हो तो अभी, अन्यथा कभी नहीं।
'सारे धन कमा कर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है, लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता।
और ध्यान रखना, अष्टावक्र के त्याग का यह अर्थ नहीं है कि तुम सब छोड़ कर जंगल भाग जाओ। क्योंकि वह जो सब छोड़ कर जंगल भागता है, उसकी भी दृष्टि अभी भ्रांत है। वह सोच रहा है कि अब जंगल पहुंच कर सुखी होऊंगा। फिर धन की यात्रा शुरू हो गयी। अष्टावक्र का सूत्र यही है. तत्‍क्षण, अभी, यहीं, जहां हो वहीं सुखी हो जाओ!
तुम त्याग भी धन की ही भाषा में करते हो। एक आदमी त्याग करता है तो वह सोचता है, भीतर गणित बिठाता है : इतना त्याग करेंगे तो कितना मोक्ष मिलेगा? वहां भी सौदा है। इतने उपवास करेंगे तो स्वर्ग की किस सीढ़ी पर पहुंचेंगे? कितने उपवास करने से और कितना शरीर को गलाने —तपाने से सिद्धशिला पर विराजमान होंगे? हिसाब लगा रहा है। दूकानदार ही है यह। इसकी दूकानदारी बंद न हुई। इसने दूकानदारी नये आयाम में फैला दी।
नहीं, धार्मिक व्यक्ति वही है जो कहता है. सुख पाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। सुख हमारा स्वभाव है। उसे कल नहीं पाना है; अभी उपलब्ध है। अभी इसी क्षण उसमें हम डूब सकते हैं, लीन हो सकते हैं।
'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य के ताप से जला है अंतर्मन जिसका, ऐसे पुरुष को शांतिरूपी अमृतधारा की वर्षा के बिना सुख कहां है?'

कर्तव्यदु:खमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मन:।
कुछ: प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्।।
'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य के ताप से जला है अंतर्मन जिसका!'
खयाल करना, तुम जो भी धन इकट्ठा करते हो, इसीलिए इकट्ठा करते हो कि तुम सोचते हो कि तुम इकट्ठा कर सकते हो, तुम कर्ता हो। जो है वह मिला है; उसे इकट्ठा करने की जरूरत ही नहीं है। परमात्मा मिला है; उसे अर्जित नहीं करना है। वह तुम्हारा स्वभाव है। सच्चिदानंद तुम हो। लेकिन आदमी सोचता है, अर्जित करना होगा, कमाई करनी होगी, सुख के लिए इंतजाम करना होगा, तो आदमी कर्ता बन जाता है। वह कहता है, ऐसा करूंगा, ऐसा करूंगा, इतना—इतना कर लूंगा—फिर तुम कर्ता बने कि तुम जले।
यह वचन सुनो. 'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य के ताप से जला है अंतर्मन जिसका।
जो कर्ता के कारण ही दग्ध हुआ जा रहा है कि मुझे करना है। यह इतना विराट विश्व चल रहा है; तुम कभी आंख खोल कर नहीं देखते कि कोई कर्ता नहीं दिखाई पड़ता और सब हो रहा है!
जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है. देखो खेत में लगे फूलों को। लिली के ये छोटे—छोटे फूल न तो श्रम करते हैं, न अर्जन करते हैं, फिर भी कैसे सुंदर हैं! कैसे मनमोहक! सम्राट सोलोमन भी अपनी सारी साज—सज्जा में इतना सुंदर न था।
क्या अर्थ हुआ इसका?
इसका अर्थ हुआ, जरा गौर से देखो, इतना विराट अस्तित्व चला जा रहा है, चल रहा है। तो जो इस विराट को चला रहा है, वही मुझको भी चला लेगा। ऐसा भाव जिसे आ गया, नमस्कार हो गया। ऐसा भाव जिसे आ गया, उसने अपनी सीमा छोड़ दी; असीम के साथ गठबंधन बांध लिया। उसने कहा : कर्ता है परमेश्वर, मैं कर्ता नहीं। उसने अपने मैं का जो केंद्र था, उसे विसर्जित कर दिया। उसने कहा : तूने ही पैदा किया; तू ही श्वास ले रहा है, तू ही भोजन पचाता है; तू ही भोजन को खून बनाता है; तू ही जवान करता है; तू ही बूढ़ा करता है; एक दिन तू ही उठा ले जाएगा। जब सभी तू कर रहा है तो बीच में हम कर्ता क्यों बनें रूम तू सभी कर! हम सिर्फ होने देंगे। हम कर्ता न रहेंगे। हम केवल उपकरण हो जाएंगे—निमित्त मात्र। तेरी धारा हमसे बहे; जैसे बासुरीवादक की धारा बहती है बांस की पोगरी से। बांस की पोंगरी सिर्फ खाली स्थान है जहां से स्वर बह सकते हैं। हम बांस की पोगरी होंगे।
कबीर ने कहा है यही कि मैं बास की पोंगरी हूं। तुम गाओ तो गीत बहे; तुम न गाओ तो गीत चुप रहे। मैं न गाऊंगा। मैं न गुनगुनाऊंगा। मैं बीच में न आऊंगा। ऐसी जो भावदशा है, वही नमस्कार है, वही नमन है। वही समर्पण है। कहो श्रद्धा, कहो प्रार्थना, भक्ति, आस्तिकता, जो भी कहना हो। लेकिन सार—सूत्र की बात इतनी है कि कर्ता परमात्मा है, हम कर्ता नहीं हैं।
'कर्तव्य से पैदा हुए दुखरूप सूर्य से जला है जिसका अंतर्मन, ऐसे पुरुष को शांतिरूपी अमृतधारा की वर्षा के बिना सुख कहां है?'
नहीं, तुम्हारे कमाये सुख न कमाया जा सकेगा। शांतिरूपी वर्षा तुम्हारे ऊपर बरसे। तुम्हारी कमाई नहीं है शांति। तुम केवल द्वार दे दो और प्रभु बरसे, तुम्हारे भीतर भर जाये।
देखा तुमने, वर्षा होती है पहाड़ पर, पहाड़ खाली का खाली रह जाता है, क्योंकि पहले से ही भरा है। फिर वही वर्षा नीचे आती है, गड्डों में भर जाती है और झीलें बन जाती हैं, मानसरोवर निर्मित हो जाते हैं। क्यों? झील भर जाती है, क्योंकि झील खाली थी। जो खाली है वह भर जाएगा; जो भरा है वह खाली रह जाएगा।
तो अगर तुम अपने अहंकार से बहुत भरे हो कि मैं कर्ता, मैं कर्ता, मैं धर्ता, मैं यह, मैं वह, अगर तुम्हारे भीतर ये सब बातें भरी हैं, तो तुम खाली रह जाओगे। परमात्मा बरसता है, लेकिन तुम झील न बन पाओगे। तुम खाली हो तो उसकी अमृतधारा तुम्हें भर दे। और तभी है शांति।
कुत: प्रशमपीयूषधारा सारमृते सुखम्।
उसकी अमृतधारा की वर्षा के बिना किसको शांति मिलती है! शांति तुम्हारे करने का परिणाम नहीं है; तुम्हारे अकर्ता हो जाने की सहज दशा है।
'यह संसार भावना मात्र है। परमार्थत: यह कुछ भी नहीं है। भावरूप और अभावरूप पदार्थों में स्थित स्वभाव का अभाव नहीं।
'यह संसार भावना मात्र है.।
इस संसार में तुम जो देख रहे हो, वैसा नहीं है। क्योंकि तुम्हारे पास देखने वाली कोरी आंख नहीं है। तुम्हारी आंख किन्हीं भावनाओं से भरी है। तो तुम्हारी भावना प्रक्षेपित हो जाती है। संसार के परदे पर तुम वही देख लेते हो जो तुम देखना चाहते हो, या देखने को आतुर हो। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना।
तुम वही नहीं देखते, जो है। जो है, उसे तो वही देखता है जिसके भीतर बोधोदय हुआ, जिसके भीतर परमात्मा की किरण उतरी, जो जागा। तुम तो अभी वही देखते हो जो देखना चाहते हो।
ऐसा समझो। एक आदमी भूखा सो गया, तो रात सपना देखता है कि राजमहल में भोजन पर आमंत्रित हुआ है। न कोई राजमहल है, न कोई भोजन है। लेकिन भूखा आदमी भोजन के सपने देखता है। देखेगा। तुमने अगर कभी उपवास किया हो तो तुम्हें पता होगा, न किया हो तो करके देखना। महत्वपूर्ण अनुभव है; उपवास का नहीं, रात सपने में भोजन का। जो भी तुम्हारे जीवन में वंचित रह गया है और वासना बनी रह गयी है, तुम रात सपने में उसे दोहरा लेते हो।
लेकिन तुम्हारा दिन भी तुम्हारी रात से बहुत भिन्न नहीं है। होगा भी नहीं। तुम्हारी रात है; तुम्हारा दिन है। वही मन रात में है, वही मन दिन में है। दिन में जरा तुम होशियारी करते हो, रात में बिलकुल होशियारी छोड़ देते हो। मगर दोनों में कोई गुणात्मक भेद नहीं है; परिमाण का भेद है। तुम वही देख लेते हो, जो तुम देखना चाहते हो।
मैं एक मित्र के साथ गंगा के किनारे बैठा था। अचानक मित्र उठा और उसने कहा कि रुके, मुझसे न रहा जायेगा। यह स्त्री जो तट के किनारे बाल संवार रही है, उसे मैं देख कर आऊं। सुंदर मालूम होती है। मैंने कहा, देख आओ, क्योंकि भाव उठा है तो अब रुकना ठीक नहीं। वह वहां गया; वहां से सिर पीटता लौटा। मैंने कहा, मामला क्या है? वह कहने लगा, वह तो एक साधु है। पीठ थी हमारी तरफ, साधु महाराज के बड़े बाल थे, सुंदर देह थी। वह सिर पीटता लौट आया। मैंने कहा, क्या मामला हुआ? क्या स्त्री कुरूप निकली? उसने कहा, स्त्री ही न निकली। कुरूप भी निकलती तो भी
ठीक था। मगर स्त्री ही न निकली। कोई साधु महाराज हैं। इन साधुओं के कारण भी बड़ी झंझट है, वह कहने लगा। मैंने कहा, अब साधु का इसमें क्या कुसूर है? तुम्हारी धारणा तुम आरोपित कर लेते हो। साधु को तो बेचारे को पता भी नहीं है। तुम्हारे लिए उसने यह आयोजन भी नहीं किया है।
इस संसार में तुम्हारी जो वासना है, उसका प्रक्षेपण होता रहता है। यह संसार तुम्हारी वासना तुम्हारी भावना का प्रक्षेपण है। जिस दिन तुम भावना—शून्य हो जाते हो, उसी दिन दिखाई पड़ता है वह, जो है। तब तुम बड़े चकित होओगे। अनंत— अनंत चीजें जो कल तक दिखाई पड़ती थीं, एकदम खो गयीं; अब दिखाई ही नहीं पड़ती।
एक महिला ने संन्यास लिया। एक महिला जैसी होनी चाहिए वैसी महिला। उनके घर मैं रुकता था कभी—कभी। और नहीं तो कम से कम तीन सौ साड़ियां तो उसकी अलमारी में होंगी ही। बहुत दिन तक वह रुकती रही। बार—बार कहती कि और तो मुझे कोई अड़चन नहीं है, साड़ियों का क्या होगा? मैंने उससे कहा कि देख, अगर यही भाव रहा तो मर कर साड़ी होगी। साड़ियों का क्या होगा? साड़ियों का जो होना होगा, होगा। तू नहीं थी तब साड़ियों का कुछ हो रहा था? तू नहीं होगी तब भी साड़ियों का कुछ होगा। बांट दे।
आखिर उसने हिम्मत कर ली, संन्यास ले लिया। अब तो गैरिक वस्त्र बचा। अब इतनी साड़ियों का कोई उपाय न रहा। कोई तीन महीने बाद उसने मुझे आ कर कहा कि एक बड़ी हैरानी की बात है। पहले मैं बाजार से निकलती थी तो मुझे हजार कपड़े की दूकानें दिखाई पड़ती थीं, अब नहीं दिखाई पड़ती। पहले कपड़े की दूकान दिखाई पड़ जाती तो मैं फिर जा ही नहीं सकती थी। हजार काम छोड़ कर भीतर जाती थी। जब तक देख न लूं कि कोई नयी साड़ी तो नहीं आ गयी, कोई नया कपड़ा तो नहीं आ गया..। लेकिन अब अचानक कुछ ऐसा हो गया है।
मैंने कहा, अचानक नहीं हो गया; कारण से हुआ है। अब गैरिक वस्त्र ही पहनना है तो और वस्त्र पहनने का भाव गिर गया। बचा नहीं भाव तो उसकी खोज बंद हो गयी। खोज बंद हो गयी तो अब कपड़े की दूकान में क्या अर्थ है?
चमार को बिठा दो सड़क के किनारे, वह सिर्फ तुम्हारे जूते देखता है; वह तुम्हारा चेहरा देखता ही नहीं। उसको सारी दुनिया जूतो से भरी है। जूते चल रहे हैं; जूते आ रहे हैं, जूते जा रहे हैं। अच्छे जूते, बुरे जूते, गरीब जूते, अमीर जूते, पढ़े—लिखे, गैर—पढ़े—लिखे, सब जूते! उसे कुछ और दिखाई नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन पकड़ लिया गया; हवालात में बंद कर दिया गया। मैं गया उसे देखने। मैंने कहा. बड़े मियां, यह मामला क्या है? कैसे पकड़े गये? उसने कहा, सर्दी—जुकाम के कारण। मैंने कहा : सर्दी—जुकाम के कारण? सर्दी—जुकाम से तो मैं परेशान हूं; मुझे पकड़ा जाना था। तुम्हें किसने पकड़ा? उसने कहा कि अब समझो बात पूरी। एक आदमी की जेब में मैंने हाथ डाला, सर्दी—जुकाम के कारण पड़ाक से छींक आ गयी। धरपकड़ा; वहीं पकड़ा गया।
चोरी के कारण नहीं पकड़ा गया है वह! सर्दी—जुकाम के कारण।
आदमी अपने हिसाब से कारण भी खोजता है। कारण भी सत्य नहीं होते। कारण में भी और कारण होते हैं। कारण के भीतर कारण होते हैं। तुम जो कारण बताते हो, वह सच नहीं होता है। तुम
बेटे पर नाराज हो रहे हो। कोई तुमसे पूछता है : मत हो नाराज। तुम कहते हो. नाराज न होंगे तो यह सुधरेगा कैसे? लेकिन कारण के भीतर कारण होंगे। जरा गौर से देखना, इसको सुधारने में सच में तुम उत्सुक हो? या कि तुमने कुछ कहा था और उसने माना नहीं, इसलिए अहंकार को चोट लग गयी। अब तुम अहंकार का बदला ले रहे हो, मगर छिपा कर ले रहे हो, आडू में ले रहे हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सुधारने से कोई संबंध ही नहीं है। दफ्तर में मालिक तुम पर नाराज हो गया था और मालिक से तुम नाराज न हो सके, क्योंकि वह जरा महंगा सौदा था। क्रोध भरा चला आया; अब घर में कमजोर बच्चे को देख कर निकल रहा है। जो मालिक पर निकलना था वह बच्चे पर निकल रहा है। जरा गौर से देखना, कारण के भीतर कारण है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन रात दो बजे सड़क से निकल रहा है। एक पुलिस वाले ने उसे पकड़ा और कहा कि महानुभाव, रात के दो बजे तुम कहां जा रहे हो? तो उसने कहा, भाषण सुनने। कमाल है, उस कॉन्सटेबुल ने कहा, रात के दो बजे भाषण सुनने? कौन बैठा है भाषण देने को यहां दो बजे रात? होश की बातें करो! पी—पा कर तो नहीं चल रहे हो?
नसरुद्दीन ने कहा. आपको मेरी पत्नी का पता नहीं है हुजूर, दो बजे क्या, पूरी रात बैठी रहेगी, जब तक मैं न जाऊं; जब तक मुझे भाषण न सुनाये, तब तक वह सो नहीं सकती। भाषण सुनने जा रहा हूं।
कारण के भीतर कारण है। अपने— अपने कारण हैं। तुम जरा गौर से देखना। तुम जीवन की पर्त—दर—पर्त में ऐसा पाओगे।
'यह संसार भावना मात्र है।
भवोग्यं भावनामात्रो न किचित्परमार्थत।
'इसकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं है।
तुमने जो संसार अब तक देखा है वह तुम्हारी भावनाओं का ही संसार है। तुमने वह तो देखा ही नहीं, जो है। जिसे कृध्यर्शित कहते हैं, दैट व्हिच इज, वह जो है, वह तो तुमने देखा ही नहीं। तुमने वही देख लिया है जो तुम देखना चाहते थे। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपने अंधेपन में। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपनी बेहोशी में। तुमने वही देख लिया है जो तुम देख सकते थे अपनी विक्षिप्तता में। तुमने कुछ का कुछ देख लिया है।
देखा तुमने, रास्ते पर रस्सी पड़ी है, तुमने सांप देख लिया! भागे, हांफने लगे, कि गिर पड़े। मेरे गांव में एक कबीरपंथी साधु थे। अब तो चल बसे। उनका व्याख्यान सुनने मैं सदा जाता था। वे व्याख्यान में कुछ ऐसी बातें कहते थे जिनका उनके जीवन से कोई तालमेल नहीं था। मैं यही सुनने जाता था कि आदमी कितना गजब कर सकता है। वे कहते, संसार माया है, और एक—एक पैसे पर उनकी पकड़ थी। अब वे कहते थे कि यहां रखा क्या है? यह सब तो जैसे रेत में बच्चे मकान बनाते हैं। और उनको मैं देखता था कि वे चौबीस घंटे छाता लिये भर दुपहरी में खड़े हैं और आश्रम बनवा रहे हैं। सोचता, बड़े मजे की बात है। भर दुपहरी में खड़े रहते और पसीना चूता रहता और ये रेत के घर बना रहे हैं जो गिर जाने वाले हैं। मामला क्या है? इतने परेशान क्यों हो रहे हैं? कहते, पैसे —लत्ते में तो कुछ भी नहीं है। लेकिन एक—एक पैसे पर उनकी पकड़ ऐसी थी कि गांव में उनसे ज्यादा कंजूस
आदमी नहीं था। उनकी बातें मैं सुनने जाता था—यही देखने कि आदमी कितनी दूर की बातें कह सकता है। वे सदा कहते थे कि यह संसार तो ऐसा है जैसे रस्सी में सांप दिखाई पड़ जाये।
यह मैंने इतनी बार सुना........। करीब—करीब वे रोज ही कहते थे : रज्यू में सर्प दिखाई पड़ जाये, ऐसा। सुन—सुन कर मुझे एक खयाल आया। मैंने कहा, इन पर प्रयोग करना चाहिए। वे रोज मेरे मकान के सामने से ही सांझ को निकलते थे। तो एक रस्सी में पतला धागा बांध कर रस्सी को दूसरी तरफ सड़क की नाली में डाल कर मैं एक खाट के पीछे मकान में जा कर छिप कर बैठ गया। और धागा हाथ में रख लिया। जब वे आ रहे थे वहां से, तो मैंने वह धागा खींचा। रस्सी नाली से बाहर निकली। वे तो ऐसे भागे कि कोई पांच—सात कदम पर उनकी लुंगी फंस गयी और गिर पड़े। इतना मैंने भी न सोचा था। और मैं पकड़ भी लिया गया, क्योंकि सारी भीड़ इकट्ठी हो गयी। और मेरे पिता ने मुझसे पूछा, यह तुमने किया क्यों? के आदमी हैं, हाथ—पैर टूट जायें, कुछ हो जाये; यह कोई मजाक की बात है? मैंने कहा, मैंने किया भी नहीं, इन्होंने सुझाव दिलवाया। ये रोज कहे जाते हैं। आखिर एक सीमा होती है सुनने की भी। मैं सुनते —सुनते थक गया तो मैंने यह सोचा कि कम से कम इनको तो न दिखाई पड़ेगा। इनको दिखाई पड़ गया। ये भूल ही गये।
रस्सी में सांप दिखाई पड़ता है— भय के कारण। वह भय का प्रक्षेपण है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है वह हमारा प्रक्षेपण है। जब अष्टावक्र जैसे मनीषी कहते हैं कि संसार भ्रमवत है, माया है, तो तुम यह मत समझना कि वे यह कह रहे हैं कि यह झूठ है। वे इतना ही कह रहे हैं. जैसा है वैसा तुमने नहीं जाना, कुछ का कुछ जान लिया; कुछ का कुछ दिखाई पड़ गया। क्योंकि भय है, लोभ है, मोह है, क्रोध है, ईर्ष्या है, जलन है। हजार तुम्हारे भीतर परदे हैं; उन परदों में से सब विकृत हो जाता है। कुछ सीधा—सीधा दिखाई नहीं पड़ता। आंख साफ—सुथरी नहीं है; बहुत धुएं से भरी है।
भवोउयं भावनामात्रो न किचित्परमार्थत।
यह संसार, जो तुम जानते हो, तुम्हारे पास है, यह सिर्फ तुम्हारी भावना है। किसी को पत्नी मान लिया है, किसी को बेटा मान लिया है; किसी को अपना, किसी को शत्रु, किसी को मित्र। सब मान्यता है। कौन तुम्हारी पत्नी? बीस—पच्चीस वर्ष तक एक—दूसरे से अपरिचित जीये; फिर एक दिन किसी पंडित ने बिठा दी कुंडली तुम्हारी दोनों की। ये पंडित अपनी ही कुंडली बिठा नहीं पाये हैं। इनके और इनकी पत्नी के जरा दर्शन तो करो जा कर कि क्या चल रहा है। और ये हजारों की कुंडली बिठाये जा रहे हैं। उस आधार पर विवाह हो गया। हवन—यज्ञ करके सात चक्कर लगवा दिये।
एक सज्जन मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। अब विवाह हो गया, भांवर पड़ गयीं, सात चक्कर लग गये; अब बनती तो बिलकुल नहीं है। ऐसा कष्ट झेल रहे हैं दोनों कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। तो मैंने कहा कि तुम उल्टे चक्कर क्यों नहीं लगा लेते सात? खतम करो मामला। यह चक्कर ही का मामला है न? ऐसे लगाये थे, अब वैसे लगा लो। गांठ बंध गयी, गांठ खोल लो। करना क्या है? इसमें इतने परेशान क्यों हुए जा रहे हो? दो जीवन क्यों खराब किये ले रहे हो?
नहीं, वे कहते हैं, अजी, यह कैसे हो सकता है?
अब जब बंध सकते हैं सात फेरे डालने से, तो खुल क्यों नहीं सकते; मेरी समझ में नहीं आता। तुम्हारे जीवन के जो राग, संबंध, आसक्तिया, द्वेष हैं, उन सब का जो जाल है, उसको ही संसार कह रहे हैं।
'यह संसार भावनामात्र है। परमार्थत: यह कुछ भी नहीं है। भावरूप, अभावरूप पदार्थों में स्थित स्वभाव का अभाव नहीं है।
बस, एक चीज यहां सच है। और वह है तुम्हारा साक्षी— भाव, तुम्हारा स्वभाव। कुछ है; कुछ नहीं भी है। कुछ नहीं को तुमने है जैसा मान लिया है, कुछ 'है' को तुमने 'नहीं है' जैसा मान लिया है। यह सब तो ठीक है, लेकिन इन सब के बीच अगर एक ही कोई चीज सत्य है, पारमार्थिक रूप से आत्यंतिक रूप से सत्य है, सत्य थी, सत्य है, और सत्य रहेगी, तो वह तुम्हारा साक्षी— भाव है। इसलिए उसको ही खोज लो। बाकी उलझाव में कुछ भी बहुत अर्थ नहीं है। दौड़— धूप होगी बहुत पहुंचोगे कहीं भी नहीं। हाथ कुछ भी न लगेगा। मुट्ठी खाली की खाली रह जाएगी।
देखते हो, दुनिया में बड़ा अदभुत होता है। बच्चे आते तो बंधी मुट्ठी आते हैं, जाते तो खुली मुट्ठी चले जाते हैं। ऐसा लगता है आदमी कुछ लेकर आता है और गंवा कर लौट जाता है। बच्चों में तो कुछ मालूम भी होता है कि कुछ होगा आनंद, कुछ पुलक, कोई रस; के बिलकुल सूख जाते हैं। होना तो उल्टा चाहिए। कुछ और जान कर लौटते। यह संसार तो एक पाठशाला थी, कुछ सीख कर लौटते, कुछ और होश से भर कर लौटते। लेकिन और बेहोश हो कर लौट जाते हैं।
'आत्मा का स्वभाव दूर नहीं है। वह समीप या परिच्छिन्न भी नहीं है। वह निर्विकल्प, निरायास निर्विकार और निरंजन है।
न दूर न च संकोचाल्लब्धमेवात्मन पदम्।
न तो आत्मा दूर है और न पास है; क्योंकि आत्मा भीतर है। दूर और पास तो परायी चीज होती है। वस्तुत: जिसको हम पास कहते हैं वह भी तो दूर है। थोड़ी कम दूर है, लेकिन दूर तो है ही। कोई मेरे से पांच फीट दूर बैठा, कोई दस फीट दूर बैठा, कोई पंद्रह फीट, कोई हजार फीट, कोई हजार मील, कोई करोड़ मील, मगर दूर तो सभी हैं। जिसको हम पास कहते हैं वह भी तो दूर ही है। पास भी तो दूर को ही नापने का ढंग हुआ। पास होकर भी कौन पास हो पाता है? ज्ञानी तो कहते हैं, यह देह भी दूर है। बहुत पास है, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ चैतन्य, तुम्हारा साक्षी— भाव, तुम्हारे भीतर जलती बोध की अग्नि, वही मात्र तुम हो। वह न तो दूर है न पास।
न दूर न च संकोचात् लब्ध एव आत्मज पदम्।
वह जो आत्मा है, वह जो स्वभाव है आत्मा का या आत्मा में छिपा जो परमात्मा है, न दूर न पास, न प्रगट न अप्रगट है।
निर्विकल्प निरायासं निर्विकार निरंजनम्।
वह निर्विकल्प है। विचार खो जायें, अभी तुम जान लो। निर्विकल्प हो जाओ, अभी तुम जान लो। निरायास, उसको जानने के लिए आयास भी नहीं करना, प्रयास भी नहीं करना, प्रयत्न भी नहीं करना है। निरायास, वह तो मिला ही हुआ है। तुमने उसे कभी गंवाया नहीं। इसलिए तुम जरा जाग जाओ तो पता चल जाये कि खजाना सदा से पड़ा है। निर्विकार। और वहां कोई विकार कभी गये नहीं। लाख तुम्हारे साधु—संन्यासी तुम्हें समझाएं कि पापी हो, भूल में मत पड़ना। और लाख तुम्हें कोई
समझाये, पुण्यात्मा हो, भूल में मत पड़ना। न तो पुण्य है वहां, न पाप है वहां। वहां निर्विकार है। तुमने क्या किया और क्या नहीं किया, सब सपने की बकवास है। उस एक को जानते ही सब किया—अनकिया सब खो जाता है, भ्रममात्र हो जाता है।
और निरंजन। उस पर कोई चीज रंग नहीं चढ़ा सकती। अलिप्त है। तुम चाहे कितनी ही काल—कोठरियों से गुजरो, उस पर कालिख नहीं लग सकती। और तुम चाहे नर्क की यात्रा करो तो भी नर्क उस पर छाया नहीं डाल सकता। तुम्हारे भीतर ऐसा परमधन ले कर तुम चल रहे हो जो छीना नहीं जा सकता, विकृत नहीं किया जा सकता, चोर चुरा नहीं सकते। मगर तुम्हें उसकी याद नहीं है। तुम बाहर देख रहे हो। तुम्हें उसकी याद नहीं है।
तुमने कभी—कभी देखा न कि आदमी चश्मा लगाये रहता और चश्मे को खोजता है! चश्मा ही लगाये है और चश्मे को खोजता है। जल्दी में ट्रेन पकड़नी, कि बस पकड़नी, कि कुछ काम आ गया है तो भूल जाता है एकदम। देखा कि आदमी कान पर पेंसिल खोंसे रहता और सारी टेबल खोज डालता है। ऐसी ही कुछ भूल हो गयी है। बस ऐसी ही भूल हो गयी है। भीतर पड़ा है और तुम यहां—वहां खोज रहे हो। फिर जब नहीं मिलता यहां—वहां तो बेचैनी बढ़ती है। बेचैनी में और भूल होती है। फिर जब बिलकुल नहीं मिलता, कितने ही दौड़ते हो, मीलों की यात्रा करते हो, जन्मों —जन्मों की यात्रा और नहीं मिलता, तो बहुत घबड़ा जाते हो। उस घबड़ाहट में और होश खो जाता है।
जरा बैठो। ध्यान का इतना ही अर्थ है. जरा बैठो। दौड़ो मत, खोजो भी मत; जरा शांत होकर बैठ जाओ। शायद जो तुम्हारे तल में पड़ा है, वह प्रगट हो जाये। शायद शांत अवस्था में तुम्हें अपने स्वभाव का स्मरण हो जाये।
मैंने सुना है, एक पुरानी कथा है। तुमने भी सुनी होगी। थोड़े—से फर्क उसमें करना चाहता हूं। पुरानी कथा है। दस मूढ़ व्यक्ति नदी पार किए। नदी पूर पर थी—वर्षा की नदी। उस पार जा कर उन्होंने सोचा कि गिनती कर लें, कहीं कोई खो न गया हो। तो उन्होंने गिनती की। जिसने भी गितनी की उसने नौ ही गिने, क्योंकि अपने को छोड़ गया। एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ। सब ने गिना और सबने पाया कि बात बिलकुल सही है; एक खो गया है। क्योंकि सभी अपने को छोड़ कर गिनती करते थे। वे तो बैठकर रोने लगे। वे तो छाती पीटने लगे कि साथी खो गया। पुरानी कथा कहती है कि कोई पंडित, बुद्धिमान पुरुष पास से गुजरा। उसने देखा, पूछा, क्यों रोते हो? कहा कि दस आये थे, नदी पार किये, नौ रह गये, एक खो गया। उसने नजर डाली, देखा दस के दस हैं, मूढ़ मालूम होते हैं। उसने कहा. खड़े होओ, मैं गिनती करता हूं। उसने गिनती की। पहले उसने गिनती करवायी देखने लिए कि ये किस तरह की गिनती करते हैं। देखा। तो एक आदमी ने गिनती की—एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ। और उसने अपने को छोड़ दिया। तो उसने उसकी छाती पर हाथ रख कर जोर से कहा : पागल, दसवां तू है। तब उन्हें होश आ गया। वे दसों बड़े प्रसन्न हुए, उसे बड़ा धन्यवाद देने लगे कि आपने बड़ी कृपा की कि दसवां साथी मिल गया। नहीं तो खो ही गया था बिलकुल, गंवा बैठे थे।
अब यह कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। लेकिन इसमें कहानी कहती है कि दस मूड व्यक्ति थे। मैं तुमसे कहूंगा, दस पंडित व्यक्ति नदी के पार गये। इतना फर्क करूंगा। क्योंकि मूड कहीं गिनती की फिक्र करते हैं? सुना तुमने, कहीं मूड और गिनती की फिक्र करें? मूढ़ का मतलब ही होता है छ जिसको गिनती नहीं आती। नौ तक जिसको आती है वह कोई मूढ़ है? उसको तो सारी गिनती आ गयी। नहीं, दस पंडित व्यक्तियों ने नदी पार की। बड़े ज्ञानी थे, वेद के ज्ञाता थे। कोई चतुर्वेदी, कोई त्रिवेदी, कोई द्विवेदी। बड़ी खोपड़ी में गिनती भरी थी! सारे सिद्धात, विचार, सब; उनके मालिक थे वे। उन्हें खयाल आया, पंडित थे, सोचा कि कहीं कोई खो तो नहीं गया। और पंडित हों तो सीधे रास्ते तो जाते नहीं। पंडित तो तिरछा जाता है। वह तो कान भी पकड़ता है तो घूम कर, उल्टी तरफ से पकड़ता है। तो उन्होंने गिनती की। और स्वभावत: जैसा कि पंडित करेगा, वह अपने को छोड़ जाता है। वह दूसरे को सलाह देता है, अपने को छोड़ जाता है। वह दूसरे को ज्ञान बांटता है, खुद अज्ञानी रह जाता है। वह सारी दुनिया को बदलने में लगा रहता है, खुद नहीं बदलता है, जैसा कि पंडित की आदत होती है। उसने गिनती की। नौ तक तो गिन लिया, दसवां चूक गया। रोने लगे।
वहां से कोई सीधा—साधा आदमी आता था। कहता हूं सीधा—साधा; न पंडित, न मूढ़। क्योंकि मूड हो तो गिनती नहीं जानता है, पंडित हो तो गिनती गड़बड़ा जाती है। सीधा—साधा, सरल चित्त आदमी। न इतना मूढ़ कि गिनती न कर सके, न इतना पंडित कि गिनती गड़बड़ कर ले। दोनों अतियों से मुक्त, कोई बुद्धपुरुष, मध्य में ठहरा हुआ, दोनों अतियों के पार, मज्जिम निकाय पर, ठीक संतुलित, न पंडित न मूढ़। ये दोनों तो असंतुलन हैं। मूढ़ बिलकुल नहीं जानता है और पंडित जरूरत से ज्यादा जान लेता है। दोनों बीमारियां हैं। एक बायें झुक गया, एक दायें। दोनों गिरेंगे। ठीक तो वही है जो रस्सी पर बीच में सम्हला है। कोई सीधा—सीधा आदमी आता था। उसे देख कर बड़ी हंसी आयी कि पागल, क्यों रोते हो? और यह देख कर और भी हंसी आयी कि सब बड़े पंडित हैं।
इतना फर्क कहानी में कर देना चाहता हूं। कहानी महत्वपूर्ण है।
और तुम्हारा गुरु इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कर सकता कि तुम्हारी छाती पर हाथ रखकर कहे कि दसवां तू है! बस इससे ज्यादा गुरु और क्या कर सकता है? खोया नहीं है किसी को। जिसे तू खोज रहा है, वह तू है। तत्वमसि श्वेतकेतु।
'मोह मात्र के निवृत्त होने पर और अपने स्वरूप के ग्रहण मात्र से वीतशोक और निरावृत्त दृष्टिवाले पुरुष शोभायमान होते हैं।
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
वीतशोका विराजते निरावरण दृष्टय:।।
जिसका यह सपनों में मोह छूट गया। जिसने ये मन में उठती रागात्मक वृत्तियों को जाग कर देख लिया और इनका विचार छोड़ दिया और जो चीजों को सीधा—सीधा देखने लगा।
व्यामगेहमात्रविरतौ...।
मोहमात्र जिसका निवृत्त हुआ। जो अब ऐसा नहीं कहता है कि यह मेरा है और यह मेरा नहीं है। क्या मेरा है, और क्या तेरा है?
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रत:।
और जिसने अपने स्वरूप को ग्रहण कर लिया। शब्द का अर्थ समझना।
स्वरूप को पाना थोड़े ही है—है ही। लेकिन तुम भूल गये हो। भूल को सुधार लिया। दो और
दो पांच जोड़ रहे थे, दो और दो चार जोड़ लिये। दो और दो चार ही थे। जब तुम पांच जोड़ते थे तब भी चार ही थे। तुम पचास जोड़ो तो भी चार ही रहेंगे। तुम कुछ भी जोड़ो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम न भी जोड़ो तो भी दो और दो चार ही हैं।
स्वरूपादानमात्रत:।
और जिसने अब अपने स्वरूप को अंगीकार कर लिया; जो था उसे स्वीकार कर लिया, जो था उसकी स्मृति से भर गया।
वीतशोका विराजते निरावरण दृष्टय:।
वह सारे दुख के पार हो जाता है। और एक ऐसे सिंहासन पर विराजमान हो जाता है जहां निर्मल दृष्टि है; जहां सब निर्मल है, निर्विकार है। ऐसी निर्विकार दृष्टि वाला व्यक्ति ही शोभायमान है। हमने इस देश में ऐसे व्यक्ति की ही महिमा गायी है। धन की नहीं, पद की नहीं, सम्राटों की नहीं, साम्राज्यों की नहीं। हम तो एक ही साम्राज्य पर भरोसा करते हैं, वह है भीतर का, स्वभाव का स्वच्छंद, स्वयं के गीत का। ऐसा ही व्यक्ति केवल शोभायमान है।
वीतशोका विराजते निरावरणदृष्टय:।
जिसकी दृष्टि निरावरण हो गयी। जिसकी आंख पर कोई परदा न रहा, कोई आवरण न रहा। जो देखने लगा सीधा—सीधा। जिसकी देखने की कोई आकांक्षा न रही कि ऐसा देखूं कि ऐसा हो, जो सीधा—सीधा देखने लगा। ऐसी निरावरण दृष्टि को उपलब्ध व्यक्ति ही एकमात्र जगत में शोभायमान है।
'समस्त जगत कल्पना मात्र है और आत्मा मुक्त और सनातन है, ऐसा जानकर धीरपुरुष बालकों की भांति क्या चेष्टा करता है!'
यह बड़ा अदभुत सूत्र—आखिरी सूत्र आज के लिए।
समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्त: सनातन:।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्।।
सारा जगत कल्पना मात्र है, ऐसा जिसने जाना, ऐसा जानते ही दूसरी बात भी जान ली साथ ही साथ, युगपत, कि आत्मा सनातन और मुक्त है। जब तक संसार सत्य है, आत्मा बंधन में मालूम होती है। जैसे ही संसार मालूम हुआ मिथ्या—आत्मा मुक्त है। संसार की भ्रांति ही बंधन है। बंधन वास्तविक नहीं है। तुमने मान रखा है कि बंधन है, इसलिए है। तुम छोड़ दो मान्यता, छूट जाता है।ऐसा जान कर धीरपुरुष क्या बालकों की भांति चेष्टा करता है!'
बच्चे अभ्यास करते हैं। भाषा सीखनी है तो अभ्यास करना पड़ता है। भाषा फनी हो तो भी क्या अभ्यास करना पड़ेगा? कुछ कमाना हो तो अभ्यास करना पड़ता है। कुछ गंवाना हो तो अभ्यास करना पड़ेगा?
रामकृष्ण के पास एक आदमी ने पांच सौ मोहरें ला कर रख दीं, कहा कि आप को दान करना है। रामकृष्ण ने कहा : तू एक काम कर, दान तो हम ले लिये, हमने स्वीकार कर लिया; अब हमारी तरफ से इनको गंगा में फेंक आ। वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ा। इंकार ही कर देते तो अपने घर तो ले जाता, यह और उपद्रव कर दिया। स्वीकार भी कर लिया और अब कहते हैं गंगा में फेंक आ।
और अब कहते हैं मेरी तरफ से, इसलिए अब मेरा कोई वश भी नहीं है। वह गया। बड़ी देर लगा दी। तो रामकृष्ण ने कहा : पता लगाओ, गया कि नहीं गया? कहां है? कितनी देर लगा दी? इतनी देर की जरूरत क्या?
कोई गया तो देखा, उसने वहां भीड़ इकट्ठी कर रखी थी। वह एक—एक अशर्फी को पटकता सीढ़ी पर, बजाता, खनखनाता, फिर फेंकता और गिनती करता। तो देर लग रही थी।
रामकृष्ण भागे गये और कहा : पागल, जब कमाना हो तो गिनती करनी पड़ती है; जब फेंकना है तो गिनती किसलिए कर रहा है? यह खनखना किसलिए रहा है? अब तुझे क्या फिक्र पड़ी है कि सही है कि खोटी है, कि असली है कि नकली है। कमाते वक्त की तेरी आदत है। मगर गंवाने में? फेंक, इकट्ठा फेंक!
अभ्यास करना पड़ता है, जब हम कमाते हैं। भोग का अभ्यास करना पड़ता है, त्याग का अभ्यास नहीं करना पड़ता। त्याग तो एक क्षण में घट जाता है। भोग तो जन्मों—जन्मों में नहीं घटता और त्याग एक क्षण में घट जाता है। त्याग के लिए समय की जरूरत ही नहीं है। ज्ञान के लिए अभ्यास की जरूरत नहीं है, क्योंकि ज्ञान तुम्हारा स्वभाव है। अभ्यास तो उसका करना पड़ता है जो स्वभाव नहीं है।

बच्चा पैदा होता है तो कोई भाषा ले कर तो पैदा नहीं होता। न जर्मन, न जापानी, न हिंदी, न मराठी, न गुजराती—कोई भाषा तो ले कर पैदा नहीं होता। बच्चा तो बिना भाषा के आता है। तो भाषा स्वभाव नहीं है। लेकिन मौन तो स्वभाव है। मौन तो लेकर सभी बच्चे आते हैं। जापान में पैदा हों कि चीन में, कि जर्मनी में, कि महाराष्ट्र में, कि गुजरात में, क्या फर्क पड़ता है? मौन तो सभी बच्चे ले कर आते हैं। तो जिस दिन तुम मौन होना चाहो, क्या मौन का अभ्यास करना पड़ेगा?
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। यह यह कह रहा है कि जो स्वाभाविक है, उसका अभ्यास नहीं करना पड़ता। तुम अगर मौन होना चाहते हो, वस्तुत: होना चाहते हो, इसी क्षण हो सकते हो। भाषा सीखी हुई है, मौन तो अनसीखा हुआ है; तुम्हारा स्वभाव है।

अष्टावक्र की इस सारी महागीता का सार—सूत्र इतना है कि जो तुम्हें पाना है वह मिला हुआ है। तुम बस जागो और मालिक हो जाओ। दावा करो और मालिक हो जाओ। परमात्मा तुम्हारा स्वभावसिद्ध अधिकार है।

हरि ओंम तत्सत्!


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