सारसूत्र:
अप्पा कत्ता विकत्ता य,
दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं
च, दुप्पट्ठिय
सुप्पट्ठिओ।।
22।।
एगप्पा सजिए सत्तू,
कसाया इंदियाणि
य।
ते
जिणित्तु
जहानायं,
विहरामि अहं
मुणी।। 23।।
एगओ विरइं कुज्जा,
एगओ य पवत्तणं।
असंजमे जियत्तिं
च, संजमे
य पवत्तणं।।
24।।
रोगे दोसे य दो पावे,
पावकम्म
पवत्तणे।
ज
भिक्खू रूंभई निच्चं,
से न अच्छइ
मंडले।। 25।।
पहला
सूत्र :
अप्पा कत्ता विकत्ता
य, दुहाण य सुहाण
य।
अप्पा मित्तममित्तं
च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।।
"आत्मा
ही सुख-दुख का
कर्ता है। और
आत्मा ही सुख-दुख
का भोक्ता, विकर्ता है। सत्प्रवृत्ति
में स्थित
आत्मा अपना ही
मित्र और
दुष्प्रवृत्ति
में स्थित
आत्मा अपना ही
शत्रु है।'
महावीर
के चिंतन का
सारा विश्व
आत्मा है।
महावीर के उड़ने
का सारा आकाश
आत्मा है।
आत्मा के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। आत्मा से
अन्यथा को कोई
भी स्थान
महावीर की
धारणा में
नहीं है। न
संसार का कोई
मूल्य है, न परमात्मा
का कोई मूल्य
है--दूसरे का
कोई मूल्य ही
नहीं है।
मूल्य है तो
अपना।
अगर
ठीक से कहें
और गलत न
समझें तो
महावीर से बड़ा
स्वार्थी
आदमी कभी हुआ
नहीं। लेकिन
गलत मत समझ
लेना।
स्वार्थ
का अर्थ होता
है: अपना अर्थ, अपना
प्रयोजन।
स्वार्थ का
अर्थ होता है:
अपना हित, अपना
कल्याण, अपना
मंगल। जो
स्वार्थ को
पूरा साध लेते
हैं उनसे
परार्थ अपने
आप सध जाता
है। क्योंकि
जो अपने हित
में करता है
वह दूसरे के
अहित में कभी
कुछ कर ही
नहीं पाता। क्योंकि
जिसने अपने
हित को
पहचानना शुरू
किया, वह
धीरे-धीरे
जानने लगता
है: जो अपने
हित में है वह
दूसरे के हित
में भी है; और
जो अपने हित
में नहीं है, वह दूसरे के
हित में भी
नहीं है। इससे
विपरीत भी, कि जो दूसरे
के हित में
नहीं है, वह
अपने हित में
नहीं हो सकता;
और जो दूसरे
के हित में है
वही अपने हित
में हो सकता
है। क्योंकि
दूसरा भी मेरे
जैसा ही आत्मा
है। मेरे और
दूसरे के
स्वभाव में रत्तीभर
भेद नहीं है।
तो जो मुझे
प्रीतिकर है वही
दूसरे को
प्रीतिकर है।
जो दूसरे को
प्रीतिकर है
वही मुझे
प्रीतिकर है।
मैं और दूसरा
दो अलग-अलग
आयाम नहीं--एक
ही चैतन्य के
दो रूप हैं; एक ही
स्वभाव के दो
संघट हैं।
पर
महावीर की
शिक्षा परम
स्वार्थ की
है। परार्थ की
तो वे बात ही
नहीं करते।
परार्थ की वे
बात ही कैसे
करेंगे! "पर' को तो वे
कहते हैं, खयाल
ही छोड़ दो।
परार्थ के लिए
भी पर का खयाल
रखा तो पर से
उलझे रह
जाओगे। पर ही
तो संसार है। दूसरे
पर ध्यान रखना
ही तो संसार
है। दूसरे से
अपने ध्यान को
मुक्त कर लेना
समाधि है। अपने
पर लौट आए, अपने
घर आ गए। अपना
ध्यान अपने
में ही लीन कर
लिया। अपने से
पार अब कुछ भी
न बचा, जिसका
कोई मूल्य है।
इसलिए
तो महावीर ने
परमात्मा को
स्वीकार न किया।
क्योंकि
परमात्मा को
स्वीकार करने
का तो अर्थ ही
होता है, दूसरा
महत्वपूर्ण
बना ही रहेगा।
वस्तुओं से छूटेंगे, दुकान से छूटेंगे
तो मंदिर
महत्वपूर्ण
हो जाएगा। धन
से छूटेंगे
तो धर्म
महत्वपूर्ण
हो जाएगा। पद
से छूटेंगे
तो परमात्मा
का पद, परमपद,
उसकी
आकांक्षा
पैदा हो
जाएगी। लेकिन
हर हालत में
दूसरा
महत्वपूर्ण
बना रहेगा। और
महावीर का
गहरा
विश्लेषण यह
है कि जब तक
दूसरा है तब
तक संसार है।
जब तुम
अकेले
हो--इतने
अकेले कि
तुम्हें
अकेलेपन का
पता भी नहीं
चलता; अगर
अकेलेपन का
पता चलता हो
तो दूसरा अभी
मौजूद है।
अकेलेपन का
पता तभी चलता
है जब दूसरे
की याद आती है,
जब दूसरे की
आकांक्षा
जगती है।
दूसरे की कमी
मालूम होती है
तो अकेलेपन का
पता चला है।
अगर दूसरा
बिलकुल ही खो
गया है, तुम्हें
दूसरे की याद
भी नहीं आती
तो अकेलेपन का
पता कैसे
चलेगा? अकेलापन
तब परम हो
जाता है, पूर्ण
हो जाता है।
उसको महावीर
ने "कैवल्य' कहा है। वह
अकेलेपन की
परिपूर्णता
है।
तुम
इतने अकेले हो
कि अकेलेपन का
भी पता नहीं
चलता। पता
चलाने को तो
दूसरे की थोड़ी-सी
मौजूदगी
चाहिए--छाया
सही, स्मृति
सही। अपने घर
की तुम्हें
दीवाल बनानी होती
है, तो
पड़ोसी चाहिए;
पड़ोसी के
बिना कहां तुम
सीमा-रेखा खींचोगे?
पड़ोसी न भी
प्रवेश कर सके
तुम्हारी
भूमि में तो
भी पड़ोसी के
बिना तुम अपनी
भूमि किस भूमि
को कहोगे? तो
जहां तक
अकेलेपन का
पता चले वहां
तक अकेलापन
शुद्ध नहीं
हुआ--दूसरा
मौजूद है; किसी
अंधेरे कोने
में खड़ा है; दूर सही पर
मौजूद है।
उसकी भनक
पड़ेगी, उसकी
छाया होगी; प्रतिध्वनि
होगी।
इसे
समझना।
आत्मवान तुम
तभी हो सकोगे, जब दूसरे की
छाया की भी
जरूरत
तुम्हारी
परिभाषा के
लिए न रह जाए।
तभी तुम आत्मा
हो जब तुम
दूसरे से
मुक्त हो।
अगर
तुम्हें अपनी
आत्मा की
अनुभूति के
लिए भी दूसरे
का सहारा लेना
पड़ता है तो वह
अनुभूति भी
निर्भर हो गई, वह अनुभूति
भी सांसारिक
हो गई।
इसलिए
आत्मा की गहनतम
स्थिति में "मैं' का भी पता न
चलेगा, क्योंकि
"मैं' के
लिए तो "तू' का होना
जरूरी है। "तू'
के बिना
"मैं' का
क्या अर्थ? कैसे कहोगे
"मैं?' जब
भी कहोगे "मैं',
"तू' आ
जाएगा; "तू'
पीछे के
दरवाजे से
प्रवेश कर
जाएगा।
इसलिए
आत्मा का अर्थ
अहंकार मत
समझना, अस्मिता
मत समझना।
आत्मा तो तभी
परिपूर्ण
होती है जब
"मैं' का भी
भाव विलीन हो
जाता है। न
कोई "मैं' बचता,
क्योंकि बच
ही नहीं
सकता--"तू' ही
नहीं बचा। कोई
पर नहीं बचता,
तभी तुम
शुद्ध होते हो;
इतने अकेले
होते हो कि
तुम्हीं पूरा
आकाश--असीम--होते
हो।
महावीर
परम स्वार्थी
हैं।
सभी
धर्म अपनी
पराकाष्ठा
में स्वार्थी
होते हैं; क्योंकि
धर्म का
बुनियादी
आधार व्यक्ति
है, समाज
नहीं। यहीं तो
राजनीति और
धर्म का फर्क
है। यहीं तो
माक्र्स और
महावीर का
फर्क है। दूसरा
महत्वपूर्ण
है, तो
समाज। मैं
अकेला भर
महत्वपूर्ण
हूं, तो
व्यक्ति।
इससे तुम यह
मत समझ लेना
कि महावीर
समाज विरोधी
हैं। महावीर
समाज से मुक्त
हैं, विरोधी
नहीं। और तुम
इससे यह भी मत
समझ लेना कि
माक्र्स समाज
का पक्षपाती
है। समाज में
है, लेकिन
समाज का
पक्षपाती
नहीं है। यह
जरा जटिल है।
विरोधाभास
मालूम होगा।
इसे
फिर से मैं
दोहरा दूं।
महावीर अपने
स्वार्थ को
इतनी गहनता से
साधते हैं कि
उनके स्वार्थ
में सबका
स्वार्थ सध ही
जाता है; उसको
अलग से साधने
कि जरूरत नहीं
रह जाती। जहां
महावीर विचरण
करते हैं, वहां
भी सुख की
किरणें
छिटकने लगती
हैं। जहां वे
मौजूद होते
हैं, वहां
भी आनंद की
लहरें बिखरने
लगती हैं।
जो आनंदित
है, वह आनंद
की लहरें अपने
चारों तरफ
पैदा करता है।
जो दुखी है, वह दुख की
लहरें पैदा
करता है। तुम
दुखी हो, तो
तुम लाख चाहो
कि दूसरे को
सुख दे दूं, दोगे कहां
से? लाओगे
कहां से? अपने
लिए न जुटा
पाए, दूसरे
को कहां दोगे?
दूसरे को तो
देने की
संभावना तभी
है, जब
इतना हो
तुम्हारे पास
कि तुम्हारी
समझ में न आता
हो कि क्या
करें; जब
इतना हो
तुम्हारे पास,
बाढ़ की तरह
कि
कूल-किनारों
को तोड़कर
बहा जाता हो; तुम इतने
भरे हो आनंद
से कि न लुटाओगे
तो करोगे क्या?
बादल जब भर
जाता है जल से,
तो बरसता
है। फूल जब भर
जाता है गंध
से, तो गंध
को लुटाता है।
दीया जब रोशनी
से जगमगाता है,
भरा होता है,
तो रोशनी
लुटाता है।
करोगे क्या?
जो
व्यक्ति आनंद
को उपलब्ध हुआ, वह एक
आनंदित समाज
का आधार बनता
है--लेकिन चेष्टा
से
नहीं--अनायास।
सहज ही।
सोचकर
नहीं, विचारकर नहीं। वह
कोई समाजवादी
थोड़े ही होता
है। ऐसा घटता
है। जब भीतर
के केंद्र पर
अहर्निश
वर्षा होती है,
तो बाढ़ आती
है। अमृत
बरसता है तो
बाढ़ आती है। फिर
बाढ़ आती है तो
लुटना भी शुरू
हो जाता है।
जो
दूसरे को सुखी
करने की
चेष्टा में
लगा है, उस
पर जरा गौर
करना। तुमने
भी दूसरे को
सुखी करने की
चेष्टा की
है--कर पाए? कर
इतना ही पाए
कि उसे और
दुखी कर दिया।
पति पत्नी को
सुखी करने की
चेष्टा कर रहा
है। पत्नी से
पूछो। पत्नी
पति को सुखी
करने की
चेष्टा कर रही
है। पति से
पूछो। मां-बाप
बेटे-बच्चों
को सुखी करने
की चेष्टा कर
रहे हैं।
बच्चों से पूछो।
तुम चकित
होओगे!
राजनेता
समाज को सुखी
करने की कोशिश
कर रहे हैं।
समाज से पूछो।
राजनेताओं से
मत पूछो।
लोगों से
पूछो। कौन
किसको सुखी कर
पा रहा है? सभी सभी को
सुखी कर रहे
हैं और संसार
में सिवाय दुख
के कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता! सभी, सभी
को आनंद देने
की चेष्टा में
संलग्न हैं; मिलता है जो,
उस पर तो
खयाल करो!
तुम्हारी
अभिलाषा से
थोड़े ही आनंद बंटेगा--होगा
तो बंटेगा।
और होने की
यात्रा तो
निजी
है--आत्मा की
है।
तुम
वही दे सकोगे
जो तुम हो
जाओगे। इसके
पहले कि तुम
दो, हो जाओ।
क्योंकि हम
अपने को ही
बांट सकते हैं,
और तो कुछ
बांटने को
नहीं है। और
अपने को भी हम
तभी बांट सकते
हैं, जब
अनंत हो जाएं;
नहीं तो
कंजूसी होगी,
डर लगेगा कि
बांटा तो कुछ
कमी हो जाएगी,
छोटे हो
जाएंगे।
तो जब
तक तुम इतने
आत्मवान न हो
जाओ कि तुम्हारी
आत्मा का कोई
किनारा न हो, तुम तटहीन
सागर न हो जाओ,
तब तक तुम
बांट न सकोगे,
तब तक
कृपणता जारी
रहेगी। तो यह
विरोधाभास
खयाल रखना।
जो
दूसरों की
चिंता करते ही
नहीं, क्योंकि
चिंता करना ही
भूल गए हैं जो
दूसरे को सुख
देना ही नहीं
चाहते, न
देने का विचार
करते हैं, क्योंकि
एक सत्य उनकी
समझ में आ गया
है कि अपने
पास जो नहीं
है वह हम दे न
सकेंगे; जो
अपने ही सुख
को जन्माने
की सतत साधना
में लगे हैं, क्योंकि
उन्हें पता चल
गया है, जो
अपने भीतर
होगा, बढ़ेगा,
बहेगा भी, बिखरेगा भी, फैलेगा
भी, बंटेगा भी, वह
अपने से हो
जाता है, उसका
कोई हिसाब
नहीं रखना
होता--ऐसे सभी
व्यक्तियों
ने परम
स्वार्थ की
बात कही है।
मजहब
यानी मतलब।
धर्म यानी
स्वार्थ।
लेकिन स्वार्थ
इतना
महिमापूर्ण
है कि परार्थ
उसमें अपने-आप
सध जाता है।
इसलिए
तुम एक अनूठी
बात देखोगे, महावीर के
धर्म में सेवा
का कोई स्थान
नहीं है। और
अगर जैनियों
के पास सेवा
शब्द भी है, तो उसका
अर्थ उनका बड़ा
अनूठा है। जब
वे जैन मुनि
के दर्शन को
जाते हैं तो
वे कहते हैं, सेवा को जा
रहे हैं। यह
सेवा का बड़ा
अनूठा अर्थ
है। जिसको
तुम्हारी
सेवा की कोई
भी जरूरत नहीं
है, उसकी
सेवा को जा
रहे हैं। कोढ़ी
को जरूरत है, बीमार को
जरूरत है, दुखी
को जरूरत है।
इसलिए ईसाइयत
का दावा ठीक मालूम
पड़ता है कि
पूरब में पैदा
हुए सभी धर्म
स्वार्थी हैं;
इनमें सेवा
की कोई जगह
नहीं है। न
अस्पताल खोलने
की उत्सुकता
है, न
स्कूल चलाने
की उत्सुकता
है। लोग आंखें
बंद करके
ध्यान कर रहे
हैं--यह कैसा
धर्म है!
ईसाइयत
की बात में
सचाई है। पर
बात बुनियादी
रूप से भ्रांत
है। ईसाइयत
धर्म न बन
पायी, राजनीति
रही, समाजशास्त्र
रहा। सेवा तो
ईसाइयत ने की,
लेकिन जो
सेवा करने गए
उनके पास कुछ
देने को न था।
बांटने को तो
गए, बड़ी
शुभ-शुभ
आकांक्षा थी।
लेकिन कहते
हैं, नर्क
का रास्ता शुभाकांक्षाओं
से पटा पड़ा
है। गए तो
सेवा करने, गर्दनें काट
दीं। ईसाइयत
ने तलवारें
उठा लीं।
ईसाइयत ने जितने
लोग मारे, किसी
ने नहीं मारे।
जीसस ने तो
कहा था, कोई
चांटा मारे तो
दूसरा गाल कर
देना; लेकिन
सेवा की धुन
ऐसी चढ़ी
कि अगर दूसरा
सेवा करवाने
को राजी न हो
तो खतम करो
उसे, सेवा
करके ही
रहेंगे। सेवा
सीढ़ी बन गई
स्वर्ग चढ़ने
की। दूसरे से
प्रयोजन न
रहा।
कभी-कभी
मुझे डर लगता
है। कभी ऐसी
दुनिया होगी, न कोढ़ी
होगा, न
अंधा होगा, फिर ईसाइयत
क्या करेगी? धर्म खतम!
नहीं, खतम
न होगा। वे
अंधे को पैदा
करेंगे, कोढ़ी को
पैदा
करेंगे--सेवा
तो करनी ही
पड़ेगी, नहीं
तो मोक्ष कैसे
जाएंगे! स्वर्ग
कैसे जाएंगे!
महावीर, बुद्ध, कृष्ण,
किसी के
धर्म में सेवा
की कोई जगह
नहीं है। कारण?
क्या इनके
हृदय में
प्रेम पैदा न
हुआ? क्या
इनके भाव
करुणा के न थे?
थे। लेकिन
उन्होंने एक
बड़ा गहरा सत्य
जाना था कि
तुम दूसरे को
सुख देने की
चेष्टा से सुख
नहीं दे
सकते--दुख ही
दोगे।
ईसाइयत
युद्ध लायी, दुख लायी।
कौन सुखी हुआ!
कपड़े दिए
होंगे लोगों
को, दवा भी
दी होगी; लेकिन
आत्माएं
खंडित कर डालीं।
रोटी के सहारे,
दवा के
सहारे, लोगों
के प्राण तोड़
डाले, उनके
जीवन की दिशा
भटका दी।
महावीर
का धर्म कहता
है: तुम हो जाओ
परिपूर्ण! तुम
खिलो
दीये की
भांति! तुम बिखरो!
फिर तुम्हारे
जीवन में होता
रहेगा सब
जिससे दूसरे
को लाभ होगा।
मगर वह लाभ
प्रयोजन नहीं
है। वह लाभ
लक्ष्य नहीं
है। वह लाभ
परिणाम है। वह
सहज परिणाम
है। अपने से
होता है। सूरज
निकलता है तो
सोचता थोड़े ही
है, रात
हिसाब थोड़े ही
लगाता है कि
कितने फूल
खिलाने हैं, कि कितने
पौधों को
प्राण देने
हैं, कि
कितने
पक्षियों के
कंठ में गीत
बनाना है, कि
कितने मोर
नाचेंगे, कि
कितनी आंखें
प्रकाश से भरेंगी!
यह कोई हिसाब
लगाता है!
सूरज से पूछो
तो शायद उसे
पता भी न हो कि
फूल भी खिलते
हैं मेरे कारण,
कि सोए हुए
लोग जगते हैं
मेरे कारण, कि पक्षी
गीत गाने लगते
हैं, कि
भोर होती है
मेरे कारण!
उसे पता भी न
होगा। यह
स्वाभाविक, सहज परिणाम
है। सूरज करता
है, ऐसा
नहीं; ऐसा
सूरज की
मौजूदगी में
होता है। सूरज
तो केटालिटिक
है। उसकी
मौजूदगी काफी
है।
जब भी
कोई व्यक्ति
महावीर जैसा
स्वार्थ को
उपलब्ध होता
है--स्वार्थ
यानी आत्मा को; जिस दिन कोई
अपने में रम
जाता है--उसके
आसपास बहुत
पक्षी गीत
गाते हैं।
उसके आपपास
बे-मौसम फूल
खिल जाते हैं।
उसके आसपास
सोए हुओं की
आंखें खुल
जाती हैं।
उसके आसपास
जन्मों-जन्मों
से भटके हुए
लोग मार्ग पर
आ जाते हैं।
कोई अनजाना
तार खींचने
लगता है।
लेकिन
महावीर जैसा
व्यक्ति कुछ
करता नहीं; करने की
भाषा ही भूल
जाता है। होने
की भाषा। होता
है, करता
नहीं। सेवा
करता नहीं, सेवा होती
है। यह कोई
कृत्य नहीं है,
यह उसकी
भाव-दशा है।
इसलिए
इस बात को याद
रखना कि
महावीर के लिए
आत्मा से पार
कुछ भी नहीं
है। जो भी
आत्मा के पार
है, वह भटकानेवाला
है। अपने से
बाहर जिसने
देखने की
कोशिश की, वह
संसार में गया;
अपने से
भीतर जिसने
देखने की
कोशिश की, वह
मोक्ष में।
तो
महावीर कहते
हैं: आत्मा की
तीन दशाएं
हैं। एक बहिरात्मा, जिसको दूसरा
दिखाई पड़ता है,
जिसकी नजर
दूसरे पर लगी
है। फिर वह
दूसरा कोई भी
हो। धन हो कि
पद हो, कि
स्त्री हो कि
पुरुष हो, कि
परमात्मा हो,
वह दूसरा
कोई भी हो, बेशर्त,
दूसरे पर
आंख लगी है, वह आदमी बहिरात्मा।
इसलिए तुम जब
मंदिर जाते हो
पूजा करने, तब महावीर
तुमको बहिरात्मा
कहेंगे। पूजा
करने और मंदिर
गए! नजर बाहर
रखी! फूल-थाल
सजाए! पूजा
करने बाहर गए!
मंत्रोच्चार
किए। उच्चार
बाहर हुआ! तुम बहिरात्मा!
कहीं सिर
झुकाया, किन्हीं
चरणों में सिर
रखा, लेकिन
चरण बाहर थे, तो तुम बहिरात्मा।
अभी तुम्हें
भीतर आना
होगा। अभी तुम
आत्मा की सब
से दीन दशा
में हो। आत्मा
की दरिद्रतम
अवस्था जो है,
"सर्वहारा',
वह है बहिरात्मा--बाहर
जाता हुआ
व्यक्ति।
जितना बाहर
जाता है, उतना
ही भीतर के
स्वर दूर होते
जाते हैं, भीतर
का संगीत खोता
चला जाता है।
जितना बाहर जाता
है, उतनी
ही स्वभाव से
जड़ें उखड़ जाती
हैं, उतना
ही दुख, उतनी
ही क्लांति, उतनी ही
थकावट, उतनी
ही ऊब, उतना
ही जीवन भार, बोझिल हो
जाता है।
दूसरी
दशा, महावीर
कहते हैं, समझो
लौटो
घर--अंतरात्मा।
जिसने दूसरे
की तरफ पीठ कर
ली, नजर
अपनी तरफ कर
ली। अभी जहां
हम खड़े हैं
वहां दूसरे की
तरफ नजर है, पीठ अपनी
तरफ। हम अपनी
ही तरफ पीठ
किए हुए
हैं--यह
सांसारिक की
दशा है। धार्मिक
की--उसने पीठ
संसार की तरफ
की, सन्मुख
हुआ अपने, अपनी
तरफ चला, अब
ध्यान अपने पर
है। इसी को
महावीर
"सामायिक' कहते
हैं। इसी को
योग "ध्यान' कहता है। अब
अपनी तरफ
लौटने लगे।
फिर एक दिन जब
पहुंच गए, अपने
में पहुंच गए,
जिसके आगे
जाने की कोई
जगह न रही, ठहर
गए उस बिंदु
पर जहां से
चले थे, जो
स्रोत था जीवन
का, वर्तुल
वहीं आकर पूरा
हो गया--तो फिर
अब अंतरात्मा
भी कहना ठीक
नहीं।
क्योंकि
अंतरात्मा तो
वह है जो अपनी
तरफ नजर किए
है। लेकिन
अपने से अभी
फासला है। मुड़ा
है घर की तरफ, लेकिन घर
अभी दूर है, रास्ता बीच
में है। फिर
घर ही पहुंच
गया, तो अब
तो अपने में
और अपनी नजर
में कोई फासला
न रहा। अब तो
स्वयं का होना
और स्वयं को
देखना एक ही
हो गए। अब दो न
रहे। अब तो
डुबकी लग गई।
इस अवस्था को
महावीर कहते
हैं:
परमात्मा।
परमात्मा
महावीर के लिए
अवस्था
है--तुम्हारे
अंतर्तम की।
दूसरों के लिए
परमात्मा
बाहर, कहीं
स्वर्ग, कहीं
आकाश में बैठा
है; महावीर
के लिए
अंतर-आकाश
में।
महावीर
ने बड़ी से बड़ी
क्रांतिकारी उदघोषणा
की है कि तुम
परमात्मा हो।
जब तुम नहीं
जानते हो तब
भी हो। इससे
क्या फर्क
पड़ता है! जब
तुम्हें पता
नहीं है, तब
भी हो। भेद
सिर्फ पता का
है। महावीर ने
मनुष्य को
अंतिम इकाई
माना। मनुष्य
की महिमा ऐसी किसी
व्यक्ति ने
कभी न गायी
थी। मनुष्य के
ऊपर कुछ न कुछ
था।
चंडीदास
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है:
साबार
ऊपर मानुस
सत्य, ताहार ऊपर नाईं।
चंडीदास
ने जरूर
महावीर से
लिया होगा। या
चंडीदास
के भीतर भी
वैसी ही
भाव-ऊर्मि उठी
होगी, जैसी
महावीर के
भीतर। चंडीदास
कहते हैं: साबार
ऊपर मानुस
सत्य, सब
सत्यों के ऊपर
मनुष्य का
सत्य है; ताहार
ऊपर नाईं, उसके
ऊपर कुछ भी
नहीं।
इससे
बड़ी और महिमा, इससे बड़ा
गुणगान न हो
सकता था।
महावीर
ने परमात्मा
को इनकार किया, ताकि आत्मा
को परम पद
दिया जा सके।
क्योंकि परमात्मा
रहेगा तो
आत्मा दोयम
रहेगी, नंबर
दो रहेगी।
परमात्मा
रहेगा तो नजर
दूसरे पर ही
रहेगी। लाख
उपाय करो, नजर
अपने पर न आ
पाएगी।
यहीं
पूरब और
पश्चिम की
मनीषा का फर्क
स्पष्ट होता है।
नीत्से भी इसी
तर्क के करीब
पहुंच गया था
जहां महावीर
पहुंचे। सौ
वर्ष पहले
नीत्से भी करीब-करीब
इसी घटना के आ
गया, जहां उसे
एक बात समझ
में आने लगी
कि ईश्वर के रहते
मनुष्य
परिपूर्ण
स्वतंत्र न हो
सकेगा। कोई
ऊपर रहेगा।
कोई नजर
कौंधती ही
रहेगी। कोई जांचता ही
रहेगा। कोई
मालकियत
जतलाता ही
रहेगा। ठीक
वहीं उसी
बिंदु पर जहां
महावीर
पहुंचे, नीत्से
भी पहुंचा; लेकिन तब
रास्ते अलग हो
गए। महावीर तो
विमुक्त हुए,
नीत्से
विक्षिप्त
हुआ। क्या
फर्क पड़ गया? नीत्से ने
यह बात तो समझ
ली कि
परमात्मा
नहीं होना
चाहिए, लेकिन
बात दूसरी न
समझ पाया। यह
तो
निषेधात्मक
अंग हुआ कि
परमात्मा न
होना चाहिए।
दूसरी बात न
समझा कि अगर परमात्मा
नहीं है तो अब
आदमी को
परमात्मा होना
पड़ेगा। यह कोई
स्वतंत्रता
ही नहीं है, जुम्मेवारी भी है। यह
स्वच्छंदता
बन गई नीत्से
के लिए। तो
नीत्से ने कहा,
"गाड इज़
डैड। एंड नाउ
मैन इज़
फ्री टू डू
व्हाट सो एवर
ही वांट्स
टू डू।'...
"ईश्वर
मर गया और अब
आदमी
स्वतंत्र है,
जो भी करना
चाहे करे।'
यह
स्वच्छंदता
बनी। ईश्वर की
मृत्यु, आत्मा
का पुनर्जन्म
न बनी। इधर
ईश्वर तो मरा,
लेकिन उसकी
मृत्यु के
कारण आत्मा
जगी नहीं, बल्कि
आत्मा ने स्वच्छंदता
का मार्ग
लिया। आत्मा
ने कहा, फिर
ठीक है, अब
कोई मालिक
नहीं है; तो
अब जो मौज हो
करें; तो
अब तक जो-जो
बंधन थे, निषेध
थे, तोड़े; तो अब तक
जो-जो
प्रतिबंध थे,
उन्हें
उखाड़ें; तो
अब तक जो-जो
करने से रोके
गए थे, अब
कर ही लें।
जैसे
घर में बाप मर
जाए तो बेटे
में दो घटनाएं
घट सकती
हैं--या तो वह
नीत्से के
रास्ते पर जा
सकता है, या
महावीर के।
बाप मर जाए, तो
निषेधात्मक
तो यह होगा कि
बाप ने जो-जो
करने से रोका
था--कि मत जाना
शराबघर, मत
जाना वेश्या
के पास--अब कर
लो। अब कोई
रोकनेवाला न
रहा। दूसरी
घटना भी घट
सकती है कि अब
तक तो बाप
रोकनेवाला था,
अब वह भी न
रहा, अब
मुझे जागना
पड़ेगा! अब जो
काम बाप कर
देता था, वह
मुझे खुद ही
करना पड़ेगा।
तो अब तक तो डर
था कि किसी
दिन बाप की
आज्ञा तोड़कर
पहुंच भी जाता
शराबघर, अब
तो पहुंचने का
कोई उपाय न
रहा; अब तो
मेरी ही आज्ञा
है; मैं ही
जानेवाला
हूं। तो
अनुशासन पैदा
होगा। जब भी
बाप मरता है
तो दोनों
घटनाएं सामने
आती हैं। क्या
तुम चुनोगे, तुम्हारा
निर्णय है।
महावीर
ने भी कहा कि
कोई ईश्वर
नहीं है।
महावीर ने तो
और भी गहरी
बात कही है।
नीत्से
ने तो कहा, मर चुका है।
महावीर ने कहा,
कभी था ही
नहीं, मरने
का कोई सवाल
नहीं। कल्पना
थी।
लेकिन
वहीं से
उन्होंने
सूत्र अपने
हाथ में ले
लिया।
उन्होंने कहा, कोई
परमात्मा
नहीं है, इसलिए
अब प्रत्येक
को परमात्मा
होना पड़ेगा। परमात्मा
तो होना ही
चाहिए, और
कोई परमात्मा
नहीं है। बिना
परमात्मा के तो
न चलेगा। तो
अब जुम्मेवारी
बड़ी है, गहन
है, असीम
है।
स्वतंत्रता
उत्तरदायित्व
बनी।
इसलिए
महावीर जैसा
साधक खोजना
बहुत मुश्किल है।
क्योंकि कोई
सहारा भी नहीं
है, जिसके
चरणों में
बैठकर रो लेते;
जिससे
शिकायत-शिकवा
कर लेते; जिससे
कह देते कि तू
क्यों नहीं
उठा रहा है हमें,
हम तो उठने
को तैयार हैं,
जिससे कह
देते कि हम
असहाय हैं, अब तू कुछ कर;
हमारे किए
कुछ भी नहीं
होता, अब
तू सम्हाल, अब कोई भी न
रहा, अब
बिलकुल अकेले
हैं, अब
नितांत एकांत
है! इस एकांत
में अपने को
ही उठाना है।
इस एकांत में
अपने को ही
चलाना है। अपनी
दिशा खोजनी
है।
नीत्से
अनाथ हुआ, विक्षिप्त
हुआ। महावीर
अनाथ होकर
स्वयं नाथ हो
गये, स्वयं
भगवान हो गए।
जैनों
का "भगवान' शब्द
हिंदुओं के
"भगवान' शब्द
से अलग अर्थ
रखता है।
ध्यान रखना, शब्द तो हम
एक ही उपयोग
करते हैं, लेकिन
जब हमारी
भाव-दशाएं अलग
होती हैं तो
उनके अर्थ बदल
जाते हैं। हिंदुओं
के भगवान का
अर्थ होता है,
जिसने
सृष्टि की, जिसने सब
बनाया। जैनों
के भगवान का
अर्थ होता है,
जिसने अपने
को जाना। जो
जानकर परम
महिमा से भर
गया: भगवान।
भाग्यवान हो
गया जो! जिस पर
भाग्य की अतुल
वर्षा हुई!
जिसने अपने
भाग्य को खोज
लिया। जिसने
अपनी नियति को
खोज लिया।
नहीं कि
सृष्टि उसने
बनाई, बल्कि
जो अपना
स्रष्टा हो
गया। बड़ा फर्क
है। इसलिए
हिंदू सदा
पूछेगा कि
भगवान क्यों
कहते हो
महावीर को, क्या
इन्होंने
दुनिया बनाई?
वह बात ही
नहीं समझ रहा
है। वह अपनी
धारणा बीच में
ला रहा है।
महावीर
कहते हैं, दुनिया तो
कभी बनायी
नहीं गयी, कोई
बनानेवाला
नहीं है।
क्योंकि
बनाने की बात
ही बचकानी है।
भगवान बनाएगा
तो फिर सवाल
उठेगा, किसने
उसे बनाया? यह तो बकवास
कहीं रोकनी ही
पड़ेगी। इसमें
जाने में कुछ
सार नहीं है।
है--अस्तित्व
है--कोई स्रष्टा
नहीं है।
लेकिन
अस्तित्व कोई
अराजकता नहीं है;
जैसा कि
नीत्से ने
कहा। कोई
परमात्मा
नहीं है, तो
अस्तित्व
अराजक है। कोई
व्यवस्था
नहीं है इसमें,
तो फिर कर
लो जो करना
है। यह तो
पागलपन है, कर लो जो
करना है। यहां
व्यर्थ समय मत
गंवाओ, भोग
लो जो भोगना
है। दौड़ जाओ
इच्छाओं में
स्वछंद होकर!
देखो, एक ही घटना को
दो अलग
व्यक्ति कैसे
अलग लेते हैं!
महावीर ने कहा,
वहां कोई
व्यवस्थापक
नहीं है, इसलिए
सम्हलो, नहीं तो
पागल हो
जाओगे! जागो!
यहां कोई
सूत्रधार
नहीं है, तुम्हीं
अकेले हो! अगर
न जागे तो खो
जाओगे, भटक
जाओगे, यह
अटल अंधेरा
है! ये गहन
खाइयां हैं।
यहां कोई
मार्गदर्शक
नहीं है, कोई
मार्ग-द्रष्टा
नहीं है। कोई
आगे चल नहीं रहा
है, तुम
अकेले हो!
किन्हीं झूठे
सहारों पर
भरोसा मत रखो!
जिम्मेवारी
अपने हाथ में
लो! तुम ही अपने
मालिक हो!
"अप्पा कत्ता विकत्ता
य'--तुम ही
हो कर्ता, तुम
ही हो भोक्ता।
न कोई
करनेवाला है,
न कोई
तुम्हें भुगा
रहा है।
परमात्मा कोई
लीला नहीं कर
रहा है, तुम
ही कर रहे हो।
यह खेल सब
तुम्हारा है।
अगर तुम दुखी
हो तो तुम ही जुम्मेवार
हो। अगर सुखी
होना है तो
तुम्हें सुख
की नींवें
रखनी पड़ेंगी।
और अगर
सुख-दुख दोनों
के पार जाना
है, तो
तुम्हें ही
जाना पड़ेगा।
यहां कोई नाव
नहीं है, जिसमें
बैठकर तुम उतर
जाओ। तैरना
होगा! प्रत्येक
को अलग-अलग
तैरना होगा।
यहां कोई किसी
को कंधे पर बिठाकर
नहीं ले जा
सकता है।
महावीर
ने जो द्वार
खोला, वह
विमुक्ति का
द्वार बना।
नीत्से
ने जो द्वार
खोला, उसमें
वह खुद ही
पागल हो गया।
द्वार एक ही
था।
ध्यान
रखना, जो भी
मैं तुमसे कह
रहा हूं, अगर
तुम ठीक से न
समझे तो बड़ी
चूक हो जाएगी।
सत्य
के साथ संबंध
बनाना आग के
साथ खेलना है।
अगर जरा भी
चूके, कुछ
और का कुछ और
समझ लिये, तो
विक्षिप्तता
हाथ आती है।
विमुक्ति तो
दूर, जो
थोड़ी-बहुत
समझ-बूझ थी, वह भी खो
जाती है।
अभी
इंसानों को मानूसे-जमीं
होना है
महरो
महताब के ऐवान
नहीं दरकार
अभी।
महावीर
ने कहा, पृथ्वी
से तो परिचित
हो लो! जीवन के
सत्य से तो परिचित
हो लो! चांदत्तारों
के सपने छोड़ो!
यहां से
परिचित हो लो।
अपने तथ्य से
परिचित हो लो।
आकाशों
की आकांक्षाएं
छोड़ो!
स्वर्ग-नर्कों
के जाल छोड़ो!
अभी
इंसानों को मानूसे-जमीं
होना है
--पृथ्वी
से परिचित
होना है।
महरो
महताब के ऐवान
नहीं दरकार
अभी।
--अभी
इस उलझन में
मत उलझो
कि चांदत्तारों
में कौन निवास
कर रहा है।
महावीर
बड़े यथार्थवादी
हैं, प्रैगमेटिक,
व्यवहारवादी हैं। ठोस
जमीन पर पैर
रखने की उनकी
आदत है। सपनों
को हटा देते
हैं, काट
देते हैं।
तुम्हारा
परमात्मा भी
तुम्हारा
सपना है। तुम्हारा
परमात्मा भी
तुम्हारा
परिपूरक सपना है।
जिंदगी में जो
तुम नहीं कर
पाते, वह
तुम परमात्मा
के बहाने सपने
में करते हो।
यहां तुम्हें
जो नहीं मिलता,
वह स्वर्ग
में मांग लेते
हो। लेकिन
तुम्हारा
परमात्मा--तुम्हारा
परमात्मा है।
तुम गलत
हो--तुम्हारा
परमात्मा गलत
होगा।
सोचो, विक्षिप्त
आदमी का
परमात्मा भी
विक्षिप्त होगा!
अंधे आदमी का
परमात्मा भी
अंधा होगा।
क्योंकि
जिसने खुद
प्रकाश नहीं
देखा, वह
कल्पना भी
नहीं कर सकता
कि प्रकाश
क्या है और
प्रकाश को
देखना क्या है
और आंखें क्या
हैं!
बहरे
आदमी का
परमात्मा भी
बहरा होगा।
जिसने खुद
ध्वनि नहीं
सुनी कभी, वह कल्पना
भी कैसे करेगा
कि परमात्मा
ध्वनि सुनता
है, ध्वनि
है क्या?
तुम्हारा
परमात्मा
तुम्हारी प्रतिछवि
है। मंदिरों
में तुमने
मूर्तियां
नहीं बनाई हैं, दर्पण लगाए
हैं। उन
दर्पणों में
तुम अपने को ही
देखकर अपने ही
चरणों में झुक
जाते हो, घुटने
टेककर
अपने से ही
बातचीत कर
लेते हो। यह
एकालाप है। यहां
कोई उत्तर
देनेवाला भी
नहीं है। तुम
जो चाहते हो, वही अपने को
मना लेते हो, वही उत्तर अपने
को समझा लेते
हो। और इस तरह
जीवन के क्षण
व्यर्थ जाते
हैं।
महावीर
कहते हैं, हाथ में लो
बागडोर अपनी।
बहुत भटक चुके
दूसरों के
द्वारों पर।
बहुत हाथ
फैलाए भिक्षा
के, अब
मालिक बनो!
उत्तरदायित्व
लो! यह
बचकानापन छोड़ो।
इस बचपन के
बाहर आओ, प्रौढ़
बनो!
"आत्मा
ही सुख-दुख का
कर्ता है।'
इससे
मन में बड़ी
पीड़ा होती है।
इसलिए तो
महावीर को
बहुत अनुयायी
न मिले। मन
हमारा मानता
है कि सुख के
तो हो भी सकते
हैं कि हमने
निर्माण किया
हो; लेकिन
दुख, वह तो
दूसरों ने
किया है। जब
भी तुम दुखी
होते हो, तुम
तत्क्षण
आसपास कारण
खोजने लगते हो:
कौन दुखी कर
रहा है? पति
दुखी होता है
तो सोचता है, पत्नी दुखी
कर रही है।
बाप दुखी होता
है तो सोचता
है, बेटे
दुखी कर रहे
हैं, तुम
जरूर कोई न
कोई बहाना
खोजने लगते
हो: कौन दुखी
कर रहा है? क्योंकि
दुख जब आ रहा
है तो कोई न
कोई दुखी कर रहा
होगा। और यह
तो तुम मान ही
नहीं सकते कि
मैं अपने को
दुखी कर रहा
हूं; क्योंकि
यह बात तो बड़ी मूढ़ता की
होगी। जब तुम
दुखी नहीं
होना चाहते तो
क्यों कर रहे
हो? जरूर
कोई और कर रहा
है, मैं तो
कभी दुखी होना
ही नहीं
चाहता! इसलिए
मैं क्यों
करूंगा! यह तो
सीधा तर्क
मालूम होता है।
कौन दुखी होना
चाहता है! साफ
है कि कोई और
शरारत कर रहा
है।
जब
तुम्हें
प्रत्यक्ष
कोई कारण न
मिल पाए तो तुम
अप्रत्यक्ष
कारण खोजते
हो--समाज, अर्थव्यवस्था,
राजनीति।
अगर वहां भी
कोई निमित्त न
मिल पाए, तो
भाग्य
विडंबना, विधि,
भगवान। मगर
कोई, तुम
नहीं। यह मन
का जाल है। मन
तुम्हें एक
सत्य देखने से
अपरिचित रख
रहा है कि तुम
ही हो अपने
दुख के कारण।
कोई मर
गया--ऐसा
उदाहरण
लें--जिसमें
साफ ही दूसरा
दुख का कारण
मालूम होता
हो। पत्नी मर
गई। अब तो साफ
है कि पत्नी न
मरती तो पति
दुखी न होता! इसलिए
पत्नी मरकर
दुखी कर गई।
यह भी कैसा
वक्त चुना! यह
कोई समय था, अभी तो जवान
थी! अभी तो
विवाह करके, अभी तो फेरे रचाकर
लाये थे! तो
पति रो रहा
है।
इसको
कैसे समझाओ कि
दुख के कारण
तुम ही हो? वह तो कहेगा,
यह तो बात
साफ ही है कि
पत्नी न मरती
तो मैं सुखी
था; पत्नी
मर गई, इसलिए
दुखी हूं।
महावीर
कहते हैं, पत्नी का
मरना तो
निमित्त है।
तुम मृत्यु को
स्वीकार नहीं
कर पाते, वहां
से दुख आ रहा
है। जीवन में
मृत्यु तो होगी
ही। जन्म है
तो मौत है।
जन्म के साथ
ही मौत हो गई
है। थोड़े समय
की बात है।
जन्म के साथ
ही घटना घटनी
शुरू हो गई।
थोड़ा समय
लगेगा और घटना
पूरी हो
जाएगी। मरना
जन्म के साथ
ही शुरू हो
गया। तुम जन्म
के साथ मृत्यु
को स्वीकार
नहीं कर पाते
हो; वहां
तुम्हारे
अस्वीकार में
दुख है।
फिर, महावीर
कहेंगे, यह
स्त्री
तुम्हारी
पत्नी न होती,
और मर जाती,
तो तुम दुखी
होते? तुम
कहोगे, फिर
मैं क्यों
दुखी होता? इतनी
स्त्रियां मरती
रहती हैं। ऐसे
अगर हर स्त्री
के लिए दुखी होने
बैठूं तो फिर
सुखी होने का
मौका ही न आएगा;
फिर तो कोई
न कोई मरेगा, और रो रहे
हैं; कोई न
कोई मरेगा, रो रहे हैं।
अर्थी तो रोज
ही उठती है।
कितनी स्त्रियां
दुनिया में
मरती हैं रोज!
अब इसका कहां
हिसाब रखेंगे,
नहीं तो मर
गए।
नहीं, तो महावीर
कहते हैं, यह
तुम्हारी
पत्नी, यह
"मेरी' है,
उस "मेरे' में से दुख आ
रहा है। यही
पत्नी किसी और
की होती, मर
जाती, तुम्हें
कुछ भी न होता,
कोई रेखा भी
न खिंचती। तो
पत्नी "मेरी' है, इस
"मेरे' में
से दुख आ रहा
है।
फिर, तुम्हारा
खयाल है कि यह
पत्नी
तुम्हारे सुख
का आधार थी।
यह भी तुम्हारा
खयाल है।
क्योंकि सुखी
आदमी को कोई
सुख का आधार
नहीं चाहिए।
सुख भीतर से
उमगता है। और
दुखी आदमी
कितने ही आधार
खोज ले, सुखी
नहीं हो पाता।
तो पत्नी तो
तुम्हारे सुख का
आधार न थी।
तुम्हारी
कल्पना का, तुम्हारी
भावना का, तुम्हारी
वासना का--भला
पर्दे की तरह
काम किया हो
पत्नी ने
तुम्हारी
अपनी वासना को
फैलने के लिए;
पत्नी ने
तुम्हें मौका
दिया हो कि
फैला लो अपनी
वासना को मेरे
ऊपर, लेकिन
तुम्हारे सुख
और दुख, तुम्हारे
भीतर से उमगते
हैं।
आदमी
को कठिनाई है
यह बात मानने
में। आदमी
चाहता है, कोई और जुम्मेवार
हो। कोई भी हो जुम्मेवार,
कोई और जुम्मेवार
हो। इतिहास हो
जुम्मेवार
चलेगा।
पश्चिम
में जितने
विचार पैदा
हुए, उन सब में
कोई और जुम्मेवार
है।
ईसाइयत
कहती है, अदम
और ईव को
शैतान ने भड़काया
और शैतान ने
कहा कि खा लो
यह ज्ञान के
वृक्ष का फल।
उसने उकसाया।
भोले-भाले अदम
और ईव उसकी
बातों में आ
गए। शैतान जुम्मेवार
है। लेकिन कोई
शैतान से
पूछो! शैतान
तो अब तक कुछ
भी बोला नहीं
है। नहीं तो
शैतान भी कुछ जुम्मेवारी
बताएगा, किसी
और पर टालेगा।
अदम
कहता है, ईव
ने फुसलाया
मुझे। अब
पत्नी है, इसकी
बातों में कौन
नहीं आ जाए, आ ही गए! ईव
कहती है, मैं
क्या करूं, शैतान सांप
की शकल में
आया और मुझे
फुसलाया। सांप
बेचारा मौन है;
उसके पास
जबान नहीं, नहीं तो वह
भी कहता कि
किसने मुझे
फुसलाया, शैतान
ने मुझे
फुसलाया।
लेकिन कहीं न
कहीं बात
सरकती जाती।
और यह कहानी कहानी
नहीं रही है, यह पूरे
पश्चिम के
इतिहास पर
फैली है। हीगल
कहता है, इतिहास
जुम्मेवार
है, जो भी
दुख हो रहा है
उसके लिए।
माक्र्स कहता
है, अर्थव्यवस्था
जुम्मेवार
है। फ्रायड
कहता है, गलत
संस्कार जुम्मेवार
हैं। मां-बाप
ने जो व्यवहार
किया है
बच्चों के साथ,
वह जुम्मेवार
है। लेकिन कोई
न कोई जुम्मेवार
है!
अभी
पश्चिम का
मनोविज्ञान
इतना प्रौढ़
नहीं हुआ कि
कह सके कि तुम जुम्मेवार
हो। इसके लिए
बड़ी हिम्मत
चाहिए, बड़ी
प्रौढ़ता
चाहिए। ये
बचकानी बातें
कि कोई और जुम्मेवार
है, अपने
उत्तरदायित्व
को टालने की
बातें हैं।
महावीर, पतंजलि, बुद्ध
इस प्रौढ़ता
को उपलब्ध हुए
कि उन्होंने
कहा कि छोड़ो
बकवास, तुम
जुम्मेवार
हो! और ये
बहाने तुम जो
खोजते हो
दूसरों पर टालने
के, इनसे
कुछ राहत नहीं
मिलती, इनसे
सिर्फ धोखा
पैदा होता है।
इनसे ऐसा लगता
है, अब हम
करें क्या; दूसरों ने
किया है, हमारे
किए क्या
होगा! निराशा
पैदा होती है।
गुलामी पैदा
होती है। और
एक गहन हताशा
पैदा होती है।
अब करेंगे
क्या? अब
इतिहास को
बदलने का तो
कोई उपाय
नहीं। अब अर्थव्यवस्था
तो आज बदलेगी
नहीं, बदलने
में बदलनेवाले
तो मर ही
जाएंगे।
जिन्होंने
रूस में
क्रांति लायी,
वे तो मर
चुके; और
जो आज जिंदा
हैं, वे तड़फ
रहे हैं। वे
परतंत्रता से
दबे हैं।
लेनिन सोचकर
मरा होगा कि
हम बड़ा भारी
काम करके जा
रहे हैं।
लेकिन जो आज
उनके बच्चे
हैं, वे आज
परतंत्रता से
दबे हैं; वे
स्वतंत्र
होने के लिए
छटपटाते हैं। सोल्जेनित्सिन
से पूछो।
कारागृहों
में पड़े हैं।
लेनिन
ने तो सोचा था
कि बड़ा सुंदर
समाज निर्मित
होगा, लेकिन
वह हुआ नहीं।
वह कभी
होनेवाला
नहीं, क्योंकि
बुनियादी बात
गलत है। दूसरा
जुम्मेवार
है, जिस
शास्त्र का यह
आधार है, वह
शास्त्र गलत
है।
फ्रायड
ज्यादा
ईमानदार है इस
हिसाब से।
फ्रायड ने
अपने जीवन के
अंतिम दिनों
में लिखा कि
आदमी कभी सुखी
नहीं हो सकता।
हो ही नहीं
सकता। यह
असंभव है।
क्योंकि इतने
कारण हैं आदमी
के दुखी होने
के, उन
कारणों को कब
बदला जा सकेगा,
कौन बदलेगा,
कैसे
बदलेगा? असंभव
है। जाल बहुत
बड़ा है, आदमी
बहुत छोटा है।
फ्रायड
की हताशा
देखते
हो--जीवन भर की
चेष्टा, खोज
के बाद जब कोई
आदमी कहता है
कि आदमी कभी
सुखी न हो
सकेगा, सुख
सिर्फ कल्पना
है, भुलावा
है, आदमी
दुखी ही
रहेगा...!
लेकिन
महावीर, बुद्ध,
पतंजलि
कहते हैं:
आदमी परम आनंद
को उपलब्ध हो सकता
है। पर उसके
पहले एक बहुत
जरूरी बात समझ
लेनी जरूरी
है--वह यह कि
मैं जुम्मेवार
हूं। टालो मत,
हटाओ मत! तथ्य को
स्वीकार करो।
क्योंकि अगर
मैं जुम्मेवार
हूं अपने दुख
का, तो
मेरे हाथ में
बागडोर आ गई; अब मैं वे
काम बंद कर
दूं जिनसे दुख
पैदा होता है;
वे बीज बोना
बंद कर दूं
जिनसे कड़वे
फल आते हैं; उस फसल को
जला डालूं,
निर्जरा
करूं उन
कर्मों की
जिनके कारण
मैं दुखी हो
रहा हूं।
"आत्मा
ही सुख-दुख का
कर्ता है और विकर्ता, भोक्ता। सत्प्रवृत्ति
में स्थित
आत्मा अपना ही
मित्र है।'
महावीर
कहते हैं, न तो
तुम्हारा
मित्र
तुम्हारे
बाहर है, न
तुम्हारा
शत्रु। जब तुम
सत्प्रवृत्ति
में हो...क्या है
सत्प्रवृत्ति?...जब तुम जागे
हुए, शांत,
आनंद-मग्न,
निर्दोष
भाव से
ध्यानस्थ हो,
सम्यक हो, संतुलित हो,
तब तुम सत्प्रवृत्ति
में हो। तब
तुम मित्र हो।
दुष्प्रवृत्ति
में तुम ही
अपने शत्रु
हो। कोई
तुम्हारा
शत्रु नहीं।
इसलिए किसी और
से मत लड़ना।
लड़ना है तो
अपने से।
जीतना है तो
अपने को।
बदलना है तो
अपने को। होना
है तो स्वयं
में। सारा खेल
तुम्हारे भीतर
है।
"अविजित
एक अपना आत्मा
ही शत्रु है।'
अविजित, जो जीता
नहीं गया, ऐसा
अपना आत्मा ही
शत्रु है।
एगप्पा अजिए
सत्तू, कसाया
इन्दियाणि
य।
ते जिणित्तु
जहानायं, विहरामि अहं मुणी।।
"अविजित कसाय
और इंद्रियां
ही शत्रु हैं।
हे मुने!
मैं उन्हें
जीतकर
यथान्याय, धर्मानुसार विचरण करता
हूं।'
महावीर
कहते हैं, जब तक
तुम्हारी
इंद्रियां
तुम्हारे बस
में नहीं, तुम्हें
चलाती हैं और
तुम उनके पीछे
चलते हो, तब
तक दुख होगा।
होगा ही। अंधे
का सहारा लेकर
जो चलेगा, वह
गङ्ढे
में गिरेगा।
इंद्रियों के
पास कोई आंख
थोड़े ही है।
इंद्रियों के
पास कोई बोध
थोड़े ही है। तुम्हारी
जीभ कहती है, खाए जाओ।
जीभ के पास
बोध थोड़े ही
है, सिर्फ
स्वाद है। कब
रुकना है, कितना
खाना है, कब
नहीं खाना है,
कब बिना खाए
गुजार देना है,
कब पेट भर
गया, कब
पेट खाली है।
कब जरूरत है, कब जरूरत
नहीं है--जीभ
कैसे कहेगी? जीभ के पास
कोई बोध थोड़े
ही है। वह बोध
तो तुम्हारे
पास है। बोध
को तो तुमने
रख दिया है
बांधकर एक
तरफ। जीभ की
मानकर चलते हो,
उलझन होगी,
अड़चन होगी।
जननेंद्रिय
के पास कोई
बोध थोड़े ही
है।
जननेंद्रिय
की उत्तेजना
अगर तुम्हें
वासना में ले
जाती है, तो
तुम अंधे का
हाथ पकड़कर
चल रहे हो।
अंधों का हाथ पकड़कर चलनेवाले
गङ्ढों
में गिरेंगे।
सोचो!
बोध तुम्हारे
पास है। तो
तुम घोड़े की
मानकर मत चलो।
लगाम हाथ में
रखो। घोड़ा
बुरा नहीं है, शुभ है--लगाम
तुम्हारे हाथ
में होनी
चाहिए। लेकिन
अकसर, लोग
इतनी झंझट
नहीं लेते, क्योंकि
घोड़े को
सिखाना
पड़ेगा।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गधे पर
बैठकर कहीं जा
रहा था। बड़े
जोर से भागा
जा रहा था।
किसी ने पूछा,
कहां जा रहे
हो? उसने
कहा, गधे
से पूछो।
क्योंकि
मैंने तो यह
आशा ही छोड़ दी
कि इसको चलाना
संभव है। झंझट
खड़ी होती है।
बीच बाजार में
फजीहत होती
है। कई दफे
इसको चलाने की
कोशिश कर
चुका--गधा है।
मैं कहता हूं,
बाएं चल, वह दाएं जा
रहा है। बीच
बाजार में भीड़
लग जाती है; आखिर में
मुझे हारना
पड़ता है। इससे
मैंने फिर एक
तरकीब निकाल
ली: यह जहां
जाता है वहीं
हम जाते हैं।
अब कम से कम
फजीहत तो नहीं
होती। कोई यह
तो नहीं कह
सकता कि गधा
मेरी मानता
नहीं।
हालांकि मैं जानता
हूं कि वह
मानता नहीं है,
वह अपनी तरफ
से जाता है।
गधे की
अपनी यात्रा
है।
बहुत
लोग ऐसी ही
दशा में
हैं--अधिक
लोग। जहां इंद्रियां
जाती हैं, तुम चले
जाते हो; क्योंकि
कौन फजीहत करे,
कौन झगड़ा-झांसा
करे! अगर
इंद्रियों को
वहां ले जाना
है जहां
तुम्हें जाना
है, तो बड़ा
संयम चाहिए
पड़ेगा, बड़ा
अनुशासन, बड़ा
प्रशिक्षण।
इंच-इंच
इंद्रियां लड़ेंगी।
क्योंकि कौन
अपनी मालकियत
इतनी आसानी से
खोता है!
इंद्रियां
जन्मों-जन्मों
तक मालिक रहीं।
गधे ने
जन्मों-जन्मों
तक तुम्हारी
यात्रा तय की
है। आज अचानक
तुम कहने लगे
कि मेरी मानकर
चलो! गधा
कहेगा, सोचो
भी, क्या
कह रहे हो? किससे
कह रहे हो? होश
है कुछ? जो
सदा से होता
आया है, वही
होगा।
जद्दोजहद
होगी। गधा संघर्ष
देगा।
इंद्रियां लड़ेंगी।
लेकिन अगर तुम
इंद्रियों की
मानकर चलने
लगे, इसलिए
कि कौन संघर्ष
करे, तो
तुम्हारी
आत्मा कभी
पैदा न हो
पाएगी।
इसलिए
मैं कहता हूं, महावीर का
मार्ग संघर्ष
का, संकल्प
का, योद्धा
का। इसीलिए तो
उनको हमने
महावीर कहा। साधारण
वीर भी नहीं कहा,
महावीर
कहा। यह उनका
नाम नहीं है; यह तो लोगों
ने उनके
संघर्ष को
देखा। उनके
दुर्धर्ष
संघर्ष को
देखा। उनके
योद्धा के भाव
को देखा। देखा
कि उन्होंने
किसी चीज की
कभी चिंता न
की, संघर्ष
कितना ही लंबा
हो; लेकिन
जब तक विजय
निश्चित न
होगी, तब
तक वे रुके
नहीं, तब
तक वे लड़ते ही
रहे।
और एक
बार जब
इंद्रियां
तुम्हारे वश
में आ जाती
हैं, तो
तुम्हारे
जीवन में एक
प्रसाद पैदा
होता है, एक
सौंदर्य पैदा
होता
है--मालिक का
सौंदर्य, सम्राट
का सौंदर्य।
तभी तो हमने फकीरों को
पूजा और
सम्राटों की
फिक्र छोड़ दी।
कौन जानता है
आज, महावीर
के समय में
कौन-कौन
सम्राट थे? प्रसेनजित
को कौन जानता
है? बिंबिसार को कौन
जानता है? अगर
हम उनका नाम
भी जानते हैं
तो इसीलिए कि
महावीर के
जीवन में
कहीं-कहीं
उनका उल्लेख
है। कौन फिक्र
करता है उनकी?
चूंकि बिंबिसार
महावीर से
मिलने आया था,
इसलिए उसकी
भी याद है; कि
प्रसेनजित
नमस्कार करने
आया था, इसलिए
उसकी भी याद
है। जो नहीं
आए, उनके
तो नाम भी खो
गए। क्या हुआ?
फकीर इतने
मूल्यवान
कैसे हो गए? यह नंगा
आदमी, जिसके
पास कुछ भी न
था--जरूर इसके
पास कुछ रहा होगा
कि सम्राट
फीके हो गए।
एक दुर्धर्ष
बल था। इसने
चुनौती
स्वीकार की
थी। यह हारा
नहीं, इसने
अपने
पुरुषत्व को
सिद्ध किया
था। इसने अपनी
मालकियत की
घोषणा कर दी
थी। कुछ भी हो
जाए, इसने
एक बात जारी
रखी कि मालिक
मैं हूं।
होश
मालिक है। और
होश के अनुसार
सब चलना चाहिए।
यह बिलकुल ठीक
गणित है जीवन
का।
अमीरे-दो
जहां बन जा, असीरे-खारो-खस कब तक?
नई
सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां
कर ले।
--दो दुनियाओं
के तुम मालिक
बन सकते हो।
अमीरे-दो
जहां बन जा, असीरे-खारो-खस कब तक?
--यह कांटों
में, झाड़ियों
में कब तक
उलझे रहना?
नई
सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां
कर ले। लेकिन
फिर तुम्हें
एक नई दृष्टि
और एक नई शैली
खोजनी
होगी--अपने घर
को बनाने की।
नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां
कर ले--फिर
तुम्हें अपना नीड़ कुछ और
ढंग से बनाना
होगा। अभी
तुमने जो बनाया
है, वह गलत
है। इसमें
गुलाम मालिक
हो गया है, मालिक
गुलाम हो गया
है। इसमें
नौकर सिंहासन
पर बैठ गए हैं,
सम्राट
सोया है। उसे
पता ही नहीं
कि क्या हो
रहा है। सम्राट
को जगाना
होगा।
सम्राट
यानी
तुम्हारा
विवेक। जैसे
ही विवेक जगता
है उसके
साथ-साथ
वैराग्य की
व्यवस्था आती
है। विवेक सो
जाता है, उसके
साथ ही साथ
राग का अंधापन
आता है। राग
से मत लड़ो
विवेक को
जगाओ।
जैसे-जैसे
विवेक जगेगा--असली
लड़ाई वही है, विवेक को
जगाने की।
मुल्ला
नसरुद्दीन
चोरों से डरता
है। नए मकान, नए पड़ोस में
रहने गया, तो
एक कुत्ता
खरीद
लाया--उसने
कहा बड़े से
बड़ा कुत्ता जो
मिल सकता था, मजबूत से
मजबूत।
दुकानदार से
पूछा कि "यह
काम आएगा?' उसने
कहा, "काम
से
ज्यादा...देखते
हो इसको!
सम्हालकर
रहना। यह
खतरनाक है।' लेकिन जिस
दिन कुत्ता
खरीदकर लाया,
उसी रात
चोरी हो गई।
बड़ा परेशान
हुआ। वापिस भागा
हुआ दुकानदार
के पास पहुंचा
कि यह क्या
मामला है!
उसने कहा कि
इसमें क्या
मामला है। यह
कुत्ता इतना
बड़ा है, इसको
जगाने के लिए
एक छोटा कुत्ता
भी चाहिए। यह
सोया रहा, इसको
चोर-वोर...यह
कोई छोटा-मोटा
कुत्ता है! एक
छोटा कुत्ता और
खरीदो! वह घबड़ाहट
में चीखेगा,
चिल्लाएगा तो यह उठेगा;
नहीं तो यह उठनेवाला
भी नहीं है।
वह
तुम्हारे
भीतर का जो
मालिक है, कितने
जन्मों से घर्राटे
ले रहा है, सो
रहा है! साधना
कुछ भी नहीं
है, छोटे-छोटे
उपाय हैं
जिनसे वह सोया
हुआ मालिक जगने
लगे। इस भांति
अगर तुम साधना
को देखोगे
तो बड़े नए
अर्थ
खुलेंगे।
महावीर
ने महीनों तक
उपवास किए
हैं। वह कुछ
भी नहीं, वह
छोटा कुत्ता
खरीदना है।
उपवास में जब
तुम्हें भूख
लगेगी, और
तुम शरीर की न सुनोगे और
शरीर कहेगा, भूख लगी, भूख
लगी, भूख
लगी और तुम
शरीर की न सुनोगे,
तो भूख
धीरे-धीरे
शरीर से उतरकर
मन पर आएगी।
फिर भी तुम न सुनोगे।
मन चीखेगा,
चिल्लाएगा,
रोएगा, गिड़गिड़ाएगा,
हजार उपाय
करेगा; समझाएगा कि मर जाओगे;
ऐसे भूखे
रहे तो क्या
होगा
तुम्हारा, यह
शरीर
जीर्ण-शीर्ण
हुआ जाता
है--तब भी तुम न सुनोगे तो
भूख आत्मा तक
पहुंच जाएगी।
और जब भूख
आत्मा तक
पहुंचती है तो
आत्मा जगती
है। तुम शरीर
को ही तृप्त
कर देते हो, भूख मन तक ही
नहीं पहुंच
पाती; आत्मा
तक पहुंचने का
क्या सवाल है?
यह तो
चुभाना है तीर
का--उस सीमा तक
जहां
तुम्हारा
असली मालिक
सोया है।
तो
महावीर खड़े ही
खड़े साधना
करते थे, बैठते
नहीं थे, लेटते
नहीं थे।
क्योंकि वैसे
ही नींद गहरी
है और अब
बैठकर और
लेटकर, क्या
उसे और गहरी
करनी है? तो
महावीर खड़े ही
खड़े साधना
किये हैं, ताकि
जागरण बना
रहे। शरीर थक
जाता है। एक
घड़ी आती है, शरीर कहता
है, अब
बैठो, अब
विश्राम करो!
और महावीर
कहते, "छोड़
बकवास! हो गया
बहुत
विश्राम। अब
नहीं करना
विश्राम।' खड़े
ही रहते, खड़े
ही रहते, तब
थकान मन में
उतरती। मन
कहता, अब
यह बहुत हो
गया, अब तो
गिर जाओगे।
महावीर कहते
कि सुनना नहीं
है। जब तक कि
भीतर की चेतना
खड़ी न हो जाए, वे नहीं
सुनते।
धीरे-धीरे
थकान वहां तक
पहुंच जाती
है--उस गहरे तल
तक कि आत्मा
भी झिझककर
खड़ी हो जाती
है। क्योंकि
यह तो घड़ी
मरने की आ गई।
महावीर
ने हजार तरह
से मौत की घड़ी
को अपने पास लाए, क्योंकि मौत
की घड़ी ही जगा
सकती है। जीवन
तो जगा न पाया,
जीवन ने तो
खूब सुला
दिया।
मौत
का भी इलाज हो
शायद,
जिंदगी
का कोई इलाज
नहीं।
यह
जिंदगी तो
बहुत सुला गई।
यह जिंदगी तो
बहुत जिंदगी
सिद्ध न हुई; साथी-संगी
सिद्ध न हुई।
यह तो
मूर्च्छित कर
गई, बेहोश
कर गई। तो
महावीर ने मौत
का उपयोग
किया--जगाने
के लिए। भूखे,
प्यासे--खड़े
रहे।
एक
गांव में...खड़े
थे गांव के
बाहर। मौन
लिये हुए थे।
एक गडरिया कह
गया कि ये जरा
मेरी गायों को
देखते रहना, मैं अभी
आया। वे तो
कुछ बोलते न
थे, इसलिए
कुछ बोले
नहीं। और वह
जल्दी में था,
इसलिए उसने
कुछ फिक्र भी
न की। उसने
समझा: मौनं
सम्मति लक्षणम्।
खड़ा है फकीर, देख लेगा।
वह लौटकर आया,
गायें तो
सरक गईं, इधर-उधर
हो गईं, जंगल
में चली गईं।
वह बड़ा नाराज
हुआ। वह चिल्लाया
कि क्या हुआ, मेरी गायें
कहां गईं? तुम
खड़े-खड़े यहां
क्या कर रहे
हो? जरा
रोक लेते, तुम्हारा
क्या बिगड़
जाता? लेकिन
उसने देखा, यह आदमी तो
खड़ा ही है; यह
तो बोलता ही
नहीं; आंख
भी नहीं
झपकता। जैसे
इसने सुना ही
नहीं। उसने
कहा, क्या
बहरे हो? मगर
वह तब भी कुछ न
बोला। तो यह
सोचकर कि बहरा
ही है, वह
बेचारा भागा
कि इससे फिजूल
समय खराब करने
में कोई सार
नहीं है। पागल
है, या
बहरा है, या
क्या मामला
है! आंख भी
नहीं झपकता!
देखता ही चला
जाता है। और देखता
भी ऐसे है, जैसे
देखता ही नहीं
है। सुनता भी
नहीं। हिलाया-डुलाया
भी, लेकिन
ओंठ न हिले।
उसने यह भी न
कहा कि मैं
बहरा हूं।
वह
भागा।
खोज-खोजकर
जंगल में
भटकता रहा, सांझ होतेऱ्होते
लौटा तो देखा
कि गायें आकर
महावीर के पास
बैठी हैं।
अरे! उसने कहा,
यह तो बड़ा
चालबाज है।
होशियार है।
कहीं छिपा रखा
था, अब
भागने की
तैयारी कर रहा
था। देखता था
कि सूरज ढले, अंधेरा हो
जाए--ले भागे।
उसने कहा कि
इसने तो बड़ी
चालबाजी की।
इसलिए बना हुआ
खड़ा है। वह
क्रोध में आ
गया। उसने कहा,
मैं देखता
हूं, तेरा
यह बहरापन
नकली है। अब
मैं तुझे असली
बहरा बनाए
देता हूं।
उसने
दो लकड़ी की
खूंटियां
दोनों कानों
में ठोंक दीं।
महावीर खड़े
रहे, तब भी कुछ
न बोले।
कहानी
बड़ी प्रीतिकर
है। अब इतनी
प्रीतिकर कहानियां
घटती नहीं, क्योंकि लोग
काव्य की भाषा
भूल गए हैं; गणित का
गंदा हिसाब
सीख गए हैं।
कहानी
बड़ी
महत्वपूर्ण
है। इंद्र
घबड़ा गया। देवता
घबड़ा गए।
क्योंकि ऐसा देवपुरुष
मुश्किल से
होता है। वे
भागे हुए आए
और उन्होंने
कहा, "आप हमें
आज्ञा दें। आप
बड़े
असुरक्षित
हैं। ऐसे तो
कोई भी मार
डालेगा। हम
साथ रहेंगे।
हम सुरक्षा
रखेंगे। यह
दुबारा नहीं
होना चाहिए।'
महावीर
बोलते तो नहीं
थे, लेकिन यह
तो अंतर की
बात है; बाहर
से तो कुछ कहा
नहीं था, न
बाहर से कुछ
सुना गया था।
महावीर ने
भीतर से कहा
कि जो हुआ है, ठीक हुआ है।
यह तो देखो कि
मुझे कितनी
जाग मिली है।
तुम यही देख
रहे हो कि कान
में खीले
ठोंक दिए। कान
तो जाते ही, आज नहीं कल
अर्थी पर चढ़ते
ही, जल ही
जाते, टूट
ही जाते, इनका
क्या
लेना-देना है!
मिट्टी
मिट्टी में मिलती।
तुम यह तो
देखो, कितनी
जाग दे गया वह
आदमी! जब वह खीले
ठोंक रहा था, तब शरीर ने
पूरी चेष्टा
की थी कि बोल, रोक, लेकिन
उस समय मैं
संयम साधे
रहा। मैंने
कहा, "क्या
बोलना है? क्या
रोकना है? जो
मिटेगा वह मिट
रहा है। जो कल
मिटेगा, वह
आज मिट रहा
है। जो जलेगा
अग्नि में
उसको बचाना
क्या है? कौन
बचा पाया है? इधर कान में खीले
ठुकते गए, वहां
भीतर कोई
जागने लगा।
मैं शरीर से
अलग हो गया।
उसकी कृपा बड़ी
है। वह बड़ी
दया कर गया
है। सहायता
करनी हो, उसकी
करो, क्योंकि
वह मुझे जगा
गया है--जो
मुझसे नहीं हो
पाता था, वह
कर गया है।'
बड़ा
दुर्धर्ष
योद्धा का रूप
है महावीर का।
संघर्ष उनका
सूत्र है।
"अविजित एक
अपना आत्मा ही
शत्रु है।
अविजित कसाय
और इंद्रियां
ही शत्रु हैं।
हे मुने!
मैं उन्हें
जीतकर
यथान्याय
विचरण करता
हूं।'
यह
वचन बड़ा
बहुमूल्य है।
एगप्पा अजिए
सत्तू, कसाया
इंदियाणि
य।
ते
जिणित्तु
जहानायं, विहरामि अहं मुणी।।
उन्हें
जीतकर मैं उस
परम धर्म के
अनुसार आचरण करता
हूं।
इससे
बड़ी गलती होती
है। क्योंकि
अनुवाद या मूल
भी गलत समझा
जा सकता
है।..."यथान्याय' धर्मानुसार विचरण करता
हूं...तो
अनुयायियों
ने समझा कि धर्म
के अनुसार
विचरण करने से,
यथान्याय
आदमी विजेता
हो जाता है।
लेकिन महावीर
बिलकुल उलटी
बात कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, "हे
मुने! मैं
उन्हें
जीतकर...।' जीतना
पहले है।
जागना पहले
है।
"...यथान्याय धर्मानुसार
आचरण करता
हूं।' जाग
गया हूं, अब
धर्मानुसार
आचरण हो रहा
है। धर्म यानी
स्वभाव। धर्म
यानी विवेक
जाग्रत, सुप्रतिष्ठित;
तुम्हारी
भीतर की
ज्योति जलती
हुई; तुम्हारा
दीया बुझा हुआ
नहीं, जलता
हुआ; तुम्हारे
प्राण चमकते
हुए। फिर
स्वभावतः
आचरण धर्म का
होता है। फिर
तुम जो भी
करते हो वही
नीति है। फिर
तुम जो भी
करते हो वही
न्याय है। फिर
तुम जो भी
करते हो वही
शुभ है।
ध्यान
रखना, शुभ
को साधने की
चेष्टा नहीं
की जा सकती।
जागरण के साथ
शुभ के फूल
खिलते हैं।
एक
ट्रेन में एक
आदमी ने पूछा
कि क्या मैं
यहां सिगरेट
पी सकता हूं।
जिस रेलवे
कर्मचारी से
पूछा था, उसने
कहा, "जी
नहीं। यहां
सिगरेट पीना
सख्त मना है।'
"तो
फिर यह सिगरेट
के टुकड़े
किसके पड़े हैं?'
उस आदमी ने
कहा।
"यह
उन लोगों के
हैं जो इजाजत
नहीं मांगते।'
यहां
जो जिंदगी है, इसमें मैं
अकसर देखता
हूं, लोग
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं, "हम
ईमानदार हैं,
फिर भी जीवन
में कोई सुख
नहीं; और
बेईमान फल-फूल
रहे हैं। ये
भी बेईमान
हैं। मगर ये
इजाजत मांगकर
फंस गए हैं।
पीना तो ये भी
चाहते थे।
लेकिन इजाजत
मांगने में
उलझ गए। फिर
जब "नहीं' कह
दिया गया तो ये
हिम्मत न जुटा
सके करने की।
इन्होंने
शास्त्रों के
आदेश सुन लिये,
शास्ताओं
की आवाज सुन
ली। इन्होंने
मुनियों के
वचन सुन लिये,
सदगुरुओं की बात सुन
ली। पूछ बैठे।
अब तोड़ें तो
अपराध लगता है
मन में; न
तोड़ें तो पीड़ा
होती है। और
ये देखते हैं,
दूसरे पीए
जा रहे हैं।
उन्होंने
पूछने की ही
फिक्र न की।
अगर
तुम धार्मिक
जीवन जी रहे
हो, तो
तुम्हारे मन
में यह सवाल
कभी भी न
उठेगा कि अधार्मिक
मजे में हैं
और मैं दुख
में हूं। अगर
यह सवाल उठता
है तो इसका
अर्थ है कि
तुम्हारा धार्मिक
जीवन
झूठा-झूठा, उच्छिष्ट, उधार, बासा।
तुमने नियम पकड़े हैं, बोध नहीं
पकड़ा; अन्यथा
यह असंभव है
कि धार्मिक
आदमी और आनंद
में न हो। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
धार्मिक आदमी
को महल मिल
जाएंगे। मिल
भी सकते हैं, न भी मिलें।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
धार्मिक आदमी
राष्ट्रपति
या
प्रधानमंत्री
हो जाएगा। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
उसके आसपास
सोने-चांदी की
वर्षा हो
जाएगी। पर मैं
यह कह रहा हूं
कि धार्मिक आदमी
के पास कुछ भी
न हो तो भी
जिनके पास
सोने-चांदी की
वर्षा हो रही
है, उनसे
वह ज्यादा
आनंदित होगा।
जो पदों पर
हैं, उनसे
वह ज्यादा
प्रतिष्ठित
होगा। जिनके
पास सब है, उनसे
ज्यादा होगा
उसके पास, चाहे
कुछ भी न हो।
यह होना कुछ
भीतरी है।
अगर
तुम ईमानदार
हो तो
ईमानदारी
काफी है आनंद।
ईमानदार होने
का मजा इतना
है कि फिर कौन
फिक्र करता है, ईमानदारी से
कुछ और मिला
कि नहीं। कुछ
और की फिक्र
तो वही करता
है जो ईमानदार
नहीं है। यहां
बेईमान भी
अपने को
ईमानदार
समझते हैं।
तुमने कभी कोई
आदमी देखा जो
तुमसे कहता हो
कि मैं बेईमान
हूं? कोई
नहीं कहता।
एक
अदालत में
मजिस्ट्रेट
ने एक चोर से
पूछा कि तूने
इस दुकान में
रात में पांच
बार प्रवेश किया, पूरी रात?
उसने
कहा, "क्या
करूं मालिक!
ईमानदार
संगी-साथी मिलते
ही नहीं।
अकेले...जमाना
ऐसा खराब हो
गया है!'
खटपट
की आवाज से
मुल्ला नसरुद्दीन
की नींद उचट
गई। सीढ़ियां
उतरकर
उसने देखा कि
चोर रसोई घर
का सामान बोरे
में समेट रहा
है। दरवाजा मेढ़कर
उसने पीछे से ललकारा, "सारा सामान
यहीं रख दो, नहीं तो
तुम्हारी
खैरियत नहीं!'
बोरे में
चाय की छननी
डालकर चोर
बोला, "अब
इतने बेईमान
मत बनो सरकार!
इसमें आधा माल
तो आपके पड़ोसी
का है।'
चोर
भी..."इतने
बेईमान मत बनो
सरकार!' यहां
सभी बेईमानों
को ईमानदार
होने का खयाल
है। कसौटी यह
है कि अगर
तुम्हारी
ईमानदारी सुख न
लाए, जब
मैं कहता हूं,
तुम्हारी
ईमानदारी सुख
न लाए, तो
मेरा मतलब है:
जब तुम्हारी
ईमानदारी ही
सुख न हो जाए।
भाषा में तो
हमें आगे-पीछे
शब्द रखने
पड़ते हैं, क्योंकि
एक साथ सभी
शब्द नहीं
बोले जा सकते;
लेकिन जीवन
में ईमानदारी
और सुख
साथ-साथ घटता है।
कहने में तो
कहना पड़ेगा, ईमानदारी
सुख लाती है।
क्योंकि भाषा
लाइन में
जमानी पड़ती है,
पंक्तिबद्ध,
रेल के
डब्बों की
भांति, एक
डब्बे के पीछे
दूसरा डब्बा
रखना पड़ता है।
जीवन तो युगपत
है, साइमल्टेनियस है।
इधर
मैं बोल रहा
हूं, उधर
पक्षी गीत गा
रहे हैं, इधर
तुम सुन रहे
हो, हवाएं वृक्षों से
घूम रही हैं--यह
सब एक साथ हो
रहा है। लेकिन
अगर इसको भाषा
में रखना हो
तो एक के पीछे
दूसरे को रखना
पड़ेगा, नहीं
तो बड़ी गडमड
हो जाएगी। फिर
कुछ समझ में न आएगा।
इसलिए कहते
हैं कि
ईमानदारी सुख
लाती है।
लेकिन वह कहने
की बात है।
ईमानदारी सुख
है। ईमानदारी
सुख है, इसमें
भी तो सुख को
पीछे रखना पड़
रहा है।
ईमानदारी के
इतना भी पीछे
नहीं है।
ईमानदारी में
ही सुख है।
ईमानदारी
का सुख उसके
बाहर नहीं है।
बेईमान का सुख
उसके बाहर है।
इसे समझ लो।
कोई बेईमानी के
लिए ही थोड़ी
बेईमानी करता
है; कुछ और
पाने के लिए
करता है।
बेईमानी में
खुद थोड़ी
साध्य है, साधन
है। आदमी चोरी
भी करता है तो
चोर होने के लिए
थोड़े ही; हत्या
भी करता है तो
हत्यारा होने
के लिए थोड़े
ही--कुछ और
आकांक्षा है।
बेईमान की
आकांक्षा बेईमानी
के बाहर है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, अगर
तुम्हारे
जीवन की साधना
में तुम्हारे
जीवन का सुख
समाविष्ट न हो
तो तुम बेईमान
हो, अधार्मिक
हो। अगर तुम
कहो कि ध्यान
करने से क्या
मिलेगा तो तुम
बेईमान हो, अधार्मिक
हो। अगर तुम
कहो, प्रेम
करने से क्या
मिलेगा, तो
तुम दुकानदार
हो, बेईमान
हो।
प्रेम
"मिलना' है--आगे-पीछे
क्या? प्रेम
पर्याप्त है,
कुछ और
चाहिए नहीं।
तो जब
महावीर कहते
हैं, "हे मुने!
मैं उन्हें
जीतकर...' इंद्रियों के
ऊपर विवेक जाग
गया है।
इंद्रियों की
अंधेरी रात पर
विवेक का सूरज
उग आया है, सूर्यास्त
समाप्त हुआ है,
सूर्योदय
हुआ है।
"मैं
उन्हें जीतकर,
धर्मानुसार यथान्याय
आचरण करता
हूं।' इससे
ऐसा मत समझना
कि महावीर
सोच-सोचकर
आचरण करते
हैं। हमें ऐसा
ही लगता है।
इससे सारा
धर्म उलटा हो
जाता है हमारी
समझ में। एक
अंधा आदमी
टटोल-टटोलकर
दरवाजा खोजता
है, कहां
से बाहर जाऊं।
आंखवाला
आदमी निकल
जाता है, सोचता
थोड़े ही है!
इतना भी नहीं
सोचता कि दरवाजा
कहां है। आंख
है तो बस
दरवाजा दिखाई
पड़ता है।
सोचता कौन है!
पूछता भी नहीं
दरवाजा कहां
है। निकल जाता
है। टटोलता भी
नहीं।
ते जिणित्तु
जहानायं, विहरामि अहं मुणी।
--अब
मैं बिहार कर
रहा हूं, परम
आनंद में! हे मुने!
जीतकर
इंद्रियों को,
अब सुख ही
सुख है।
बिहार! अब
आनंद ही आनंद
है।
मौजे-सहबा
निगाह थी अपनी
रक्से-मस्ती
कलाम था अपना।
अगर
सूफियों की
भाषा में इसको
कहें, तो
शराब की लहरें
अब अपनी आंखों
में हैं।
मौजे-सहबा
निगाह थी
अपनी!
--शराब
की लहरें
आंखें हो गयी
हैं; या
आंखें शराब की
लहरें हो गई
हैं।
रक्से-मस्ती
कलाम था अपना।
--और
अब नृत्य की
मस्ती ही
हमारे भीतर का
गीत है, कलाम
है, कविता
है।
जिसका
भी विवेक जागा, उसकी मस्ती
जागी।
जिसका
विवेक जागा, उसका आनंद
जागा। आनंद और
मस्ती विवेक
के अनुषंग
हैं। ध्यान के
साथ मस्ती
वैसे ही आती
है, जैसे
तुम्हारे साथ
तुम्हारी
छाया आती है।
मस्ती गौण है,
जैसे छाया
गौण है। तुम आ
गए तो छाया भी
आ गई। अगर मैं
तुम्हें
निमंत्रण
देने जाऊं और
कहूं कि आना, तो तुम्हारी
छाया के लिए
अलग से निमत्रंण
नहीं देता।
तुम्हारी
छाया अपने से
आती है। जो
अपने से आती
है, तुम्हारे
आने के कारण
आती है, वही
छाया है।
मस्ती छाया
है।
"एक
ओर से निवृत्ति
और दूसरी ओर
से प्रवृत्ति
करना चाहिए।
असंयम से
निवृत्ति और
संयम में
प्रवृत्ति।' छाया को
बहुत लोगों ने
धर्म समझ लिया
है। वे छाया
को लाने की
कोशिश में लगे
हैं। मूल की
फिक्र ही भूल
गई है। कोई
उपवास कर रहा
है और खयाल ही
भूल गया है कि
उपवास छाया है,
विवेक मूल
है। अगर विवेक
को साधा तो
उपवास घटेगा। घटता
है। सधते-सधते
विवेक के एक
दिन ऐसी घड़ी आती
है कि शरीर की
याद ही भूल
जाती है। ऐसी महाघड़ी
आती है, इतना
आनंद भीतर
होता है कि
कौन शरीर की
याद करता है!
तुमने
कभी खयाल किया, शरीर की याद
दुख में ही
आती है! दुख के
कारण ही आती
है। पैर में
कांटा गड़े तो
पैर का पता चलता
है। सिर में
दर्द हो तो
सिर का पता
चलता है।
सिरदर्द गया
तो सिर भी
गया। जब शरीर
पूरा स्वस्थ
होता है तो
पता ही नहीं
चलता। और जब
भीतर महाआनंद
की घटना घटती
है, जब
आत्मा स्वस्थ
होती है--जरा
उसकी कल्पना
तो करो! उसे
कहना ही
मुश्किल है।
तो शरीर की
याद भूल जाती
है। न भूख का
पता चलता है, न प्यास का
पता चलता
है--ऐसा रम
जाता है चित्त,
ऐसा ठहर
जाता है। समय
रुक जाता है।
क्षेत्र भूल
जाता है।
मयाने-कल्ब-ओ-नजर
एक मुकाम है
उसका
मुकाम? मरहला? जो
भी कुछ है नाम
उसका
जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम
नहीं
हज़ार
ऐसी अदाएं
हैं जिनका नाम
नहीं।
--वह
एक ऐसी अदा है
जिसका कोई नाम
नहीं।
ध्यान
भी एक पड़ाव
है, वह भी अंत
नहीं।
मयाने-कल्ब-ओ-नजर
एक मुकाम है
उसका
--इन
दोनों आंखों
के बीच में एक पड़ाव है
ध्यान का।
मुकाम? मरहला? जो
भी कुछ है नाम
उसका
--कोई
भी नाम दो, पड़ाव
कहो, मुकाम
कहो।
जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम
नहीं
--लेकिन
उसे प्रगट
करने का उपाय
नहीं है।
हज़ार
ऐसी अदाएं
हैं, जिनका
नाम नहीं।
जिंदगी
में ऐसी हजार अदाएं हैं, जिनके लिए
कोई शब्द नहीं,
जिनके लिए
कोई नाम नहीं,
जिनकी कोई
अभिव्यक्ति
नहीं हो सकती।
बस इशारे, बस
इशारे, इंगित।
तो
महावीर कहते
हैं, "एक ओर से
निवृत्ति, दूसरी
ओर से
प्रवृत्ति
करना चाहिए।'
यह बड़ा
अनूठा सूत्र
है। लोग हैं, जो कहते हैं,
प्रवृत्ति
करनी चाहिए।
चार्वाक हैं,
कहते हैं, प्रवृत्ति
करो, प्रवृत्ति
ही सब कुछ है, निवृत्ति की
बकवास में मत पड़ना। मौत
आएगी, सब
खो जाएगा, कुछ
भी न बचेगा।
भोग लो। आज जो
है उसे भोग
लो। कुछ भी छोड़ो
मत; क्योंकि
जिसने छोड़ा वह
व्यर्थ गया, उसने व्यर्थ
समय गंवाया, तो चार्वाक
कहते हैं कि
घी भी पीना
पड़े उधार लेकर
तो पी लो। ऋणं
घृत्वा...!
कोई फिक्र
नहीं, ले
लो ऋण से, क्योंकि
कौन चुकाता
है! कौन
चुकाने के लिए
बच जाता है!
मौत सबको मिटा
देती है; न
कोई लेनेवाला
है, न कोई
देनेवाला
है--सब
हिसाब-किताब
खतम हो जाता
है। सब
हिसाब-किताब
यहीं की
बातचीत है। न
कोई कभी लौटता;
इसलिए न कोई
पुण्य है, न
कोई पाप। वे
कहते हैं, प्रवृत्ति।
फिर दूसरी
तरफ उनके
विपरीत लोग
हैं। वे कहते
हैं, त्याग!
त्याग करो।
भोगो मत। फंस
जाओगे। नर्क जाओगे।
छोड़ो, क्योंकि
छोड़ने का
मूल्य है
परमात्मा की
नजरों में। वे
प्रवृत्ति के
दुश्मन हैं।
तो भोगी हैं
चार्वाक, फिर
त्यागी हैं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि अगर
जैन मुनियों को
आज समझा जाए
तो वे महावीर
के अनुयायी
सिद्ध न
होंगे। वे
चार्वाक के
दुश्मन सिद्ध
होते हैं, लेकिन
महावीर के
अनुयायी
सिद्ध नहीं
होते। वे
चार्वाक के
विपरीत हैं, यह सच है; लेकिन
महावीर के साथ
नहीं है, यह
भी सच है। वे
कहते हैं, छोड़ो, छोड़ो, छोड़ना
ही...। एक कहता है,
भोगो, भोगो,
भोगना ही...।
महावीर
बड़े संतुलित
हैं। वे कहते
हैं, "एक ओर से
निवृत्ति, दूसरी
ओर से
प्रवृत्ति
करना चाहिए।'
असंयम से
निवृत्ति और
संयम में
प्रवृत्ति करनी
चाहिए, वे
कहते हैं, भोगो--संयम
को भोगो! छोड़ो--असंयम
को छोड़ो!
भोगो प्रकाश
को, छोड़ो अंधकार को।
भोगो आत्मा को,
छोड़ो शरीर को।
भोगो विवेक को,
वैराग्य को,
बोध को, बुद्धत्व
को! त्यागो
मूर्च्छा को,
मिथ्या
दृष्टि को, असम्यकत्व को। छोड़ो!
लेकिन
ध्यान रहे, महावीर कहते
हैं, निवृत्ति-प्रवृत्ति
दोनों दो पंख
की भांति हैं।
पक्षी उड़ न
पाएगा एक पंख
से।
भोगी
भी गिर जाता
है, त्यागी
भी गिर जाता
है। ऐसे भोगो
कि त्याग भी बना
रहे। ऐसे त्यागो
कि भोग भी बना
रहे। यह जीवन
की परम कला
है।
एगओ विरइं कुंजा, एगओ
य पवत्तणं।
असंजमे नियत्तिं
च, संजमे य पवत्तणं।।
जीवन
में जो भी
तुम्हारे पास
है, कुछ भी
छोड़ने योग्य
नहीं। उसका
उपयोग करना
है। पत्थर है,
सीढ़ी बना
लो। अनगढ़
पत्थर है, छैनी
उठा लो, प्रतिमा
बना लो।
इसलिए
तो मैं कहता
हूं, कामवासना
को
ब्रह्मचर्य
बना लो। क्रोध
को करुणा बना
लो। काटो मत।
काटने की कोई
जरूरत नहीं है,
क्योंकि जो
तुमने काटा, तो तुम कभी
पूरे न हो
पाओगे। वह जो
अंश तुमने काट
दिया है, उतनी
जगह सदा-सदा
खाली रह
जाएगी। वह छेद
की तरह
तुम्हारे
व्यक्तित्व
में रहेगी।
तुम परिपूर्ण
पुरुष न हो
सकोगे।
कुछ भी
मत छोड़ो।
सबका उपयोग कर
लो।
बुद्धिमान
वही है जो
जीवन में जो
मिला है, उन
सभी उपकरणों
का ठीक संयोजन
कर लेता है।
अभी सब
असंबंधित पड़ा
है। तार है, वीणा है, सब
टूटा-फूटा पड़ा
है। ठीक से जोड़ो।
इसी टूटे-फूटे
तार, इसी
टूटी-फूटी
वीणा से महासंगीत
पैदा हो सकता
है। कुछ भी
छोड़ना नहीं
है। तुम जैसे
हो, इसका
आयोजन बदलना
है। चीजें गलत
स्थानों पर रखी
हैं; जहां
होनी चाहिए
वहां नहीं
हैं। जो जहां
होना चाहिए
वहां नहीं है।
कुछ कहीं रखा
है, कुछ
कहीं रखा है।
लेकिन इसमें
से कुछ भी
छोड़ने योग्य
नहीं है।
क्योंकि जो भी
है, अकारण
नहीं है। उसका
कोई कारण है।
तुम्हारी समझ
में न आए तो
जल्दी मत
करना। तोड़ने,
काटने, हटाने
की भाषा गलत
है। संयोजन की,
साधन की
भाषा सही है।
"पापकर्म
के प्रवर्तक
राग और द्वेष,
ये दो भाव
हैं। जो
भिक्षु इनका
सदा निषेध
करता है, वह
मंडल में नहीं
रुकता, मुक्त
हो जाता है।'
संसार
तो नहीं
रुकेगा।
संसार तो चलता
ही रहेगा।
संसार तो चक्र
है। महावीर
उसे मंडल कहते
हैं। वह तो
घूमता रहेगा।
गाड़ी का चाक
घूमता रहेगा।
जब तक गाड़ी
में बैठी हुई
वासनाओं भरे
लोग हैं, गाड़ी
चलती रहेगी।
तुम इसे रोकने
की कोशिश मत करो।
तुम चाहो तो
गाड़ी से नीचे
उतर सकते हो।
तुम्हें कोई
रोकनेवाला
नहीं है।
अधिक
लोग इस कोशिश
में रहते हैं
कि संसार बदल जाए।
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं कि "इतना
दुख है संसार
में, आप
क्यों नहीं
कुछ करते?' दुख
संसार में है।
लोग दुख चाहते
हैं। मैं क्या
करूं? और
अगर वे दुख
चाहते हैं, तो यही उनका
सुख होगा।
उनके सुख में
बाधा देनेवाला
मैं कौन हूं? यह गाड़ी पर
जो लोग बैठे
हैं, यह
चाक जो लोग
चला रहे हैं, वे चलाना
चाहते हैं इसलिए
चला रहे हैं।
उन्हें उनके
दुख से
जबर्दस्ती
थोड़े ही छुड़ाया
जा सकता है।
हां, जिनकी
समझ में आ जाए
वे गाड़ी से
नीचे उतर जाएं।
रुकता
नहीं किसी के
लिए कारवाने-वक्त
मंजिल
है जुस्तजू की
न कोई मुकाम
है।
इस
संसार की न तो
कोई मंजिल है, न कोई मुकाम
है। और यह जो
कारवां है समय
का, यह
किसी के लिए
रुकता नहीं।
हां तुम चाहो
तो उतर सकते
हो। तुम चाहो
तो रुक सकते
हो। तुम्हें
यह रोकता भी
नहीं। इस बात
को खूब गहरे
हृदय में बैठ
जाने देना कि
तुम संसार में
तभी तक रुके हो
जब तक तुम
रुकना चाहते
हो। एक क्षण
को भी, क्षण
के अंशमात्र
को भी, संसार
तुम्हें रोक
नहीं सकता।
तुम उतरने को
राजी हो, तुम्हें
कोई रोक नहीं
सकता। और अगर
तुम सोचते हो
कोई और
तुम्हें रोक
रहा है, तो
तुम अपने को
धोखा दे रहे
हो।
महावीर
के समय की कथा
है। एक युवक
महावीर को सुनकर
घर लौटा।
नया-नया उसका
विवाह हुआ था।
स्नान करने
बैठा। पुरानी
कथा है, अब
तो ऐसी बात
होती नहीं।
पत्नी उसके
शरीर पर उबटन
लगा रही थी।
अब तो कौन
पत्नी लगाती
है! किसी तरह
शरीर ही बचाकर
घर से निकल गए
तो बहुत है।
वह उबटन लगा
रही थी, स्नान
करवा रही थी!
स्नान-गृह में
वह बैठा था चौकी
पर, पत्नी
उबटन लगा रही
थी, और
पत्नी ने कहा,
"सुनो! तुम
भी महावीर को
सुनने गए।
मेरा भाई भी कई
वर्षों से
सुनता है। और
वह सोच रहा है
संन्यास ले
लेने की।' वह
युवक हंसने
लगा। उसने कहा,
"सोच रहा है?
सोचने का
संन्यास से
क्या संबंध? लेना हो ले
ले, न लेना
हो न ले।
सोचने से क्या
मतलब? न
लेना हो तो
साफ समझे कि
नहीं लेना है,
लेना हो तो
ले ले। कौन
रोक रहा है?' उसकी पत्नी
ने कहा कि
"क्या तुम
सोचते हो, संन्यास
इतनी आसान चीज
है? आदमी
को सोचना पड़ता
है, विचार
करना पड़ता है।
तुम भी तो
सुनने गए थे, क्या तुम
संन्यास
तत्क्षण ले
सकते हो?'
वह
युवक उठकर खड़ा
हो गया। पत्नी
ने कहा, "कहां
जाते हो? यह
तो बातचीत ही
थी।' मगर
वह तो दरवाजा
खोलकर बाहर हो
गया। पत्नी ने
कहा, "नग्न
हो, कहां
जाते हो?' उसने
कहा, "खतम
हो गई बात।
लेना है--ले
लिया।' पत्नी
ने कहा, "अंदर
आओ! यह मजाक की
बात थी।'
"संन्यास
तो', उसने
कहा, "मजाक
में भी ले
लिया जाए तो
बात खतम।'
वह
नग्न ही
महावीर के पास
पहुंचा। सारे
गांव की भीड़
लग गई। महावीर
से उसने कहा
कि ऐसा-ऐसा हुआ।
उस क्षण में
मुझे लगा कि
ठीक है, यह
मैं क्या कह
रहा हूं।
दूसरे के लिए
कह रहा हूं कि
सोचे न, सोच
तो मैं भी रहा
था। मगर
तत्क्षण मुझे
बोध हुआ कि
अगर लेना है
तो ले लूं।
कौन रोक रहा
है? कौन
रोक सकता है?
जब
मरते वक्त
तुम्हें कोई न
रोक सकेगा, तो संन्यास
के वक्त कोई
तुम्हें कैसे
रोक सकता है? जो उतरना
चाहता है, उतर
जाता है।
लेकिन हम बड़े
बेईमान हैं।
हम हजार बहाने
करते हैं।
हमारी
बेईमानी यह है
कि हम यह भी
नहीं मान सकते
कि हम संन्यास
नहीं लेना
चाहते, कि
वैराग्य नहीं
चाहते। हम यह
भी दिखावा
करना चाहते
हैं कि चाहते
हैं, लेकिन
क्या करें!
किंतु-परंतु
बहुत हैं।
"पापकर्म
के प्रवर्तक
राग और द्वेष
ये दो भाव हैं।
जो भिक्षु
इनका निषेध
करता है, वह
मंडल संसार
में नहीं रुकता,
मुक्त हो
जाता है।'
रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे।
जे
भिक्खू रूंभई निच्चं, से न अच्छइ
मंडले।।
बस दो
बातें
हैं--राग और
द्वेष, इन
दो के सहारे
चक्र चलता है।
राग, कि
कुछ मेरा है।
राग, कि
कोई अपना है।
राग, कि
किसी से सुख
मिलता है। इसे
सम्हालूं, बचाऊं, सुरक्षा
करूं। द्वेष,
कि कोई
पराया है।
द्वेष, कि
कोई शत्रु है।
द्वेष, कि
किसी के कारण
दुख मिलता है।
द्वेष, कि
इसे नष्ट करूं,
मिटाऊं,
समाप्त
करूं। बाहर देखनेवाली
नजर हर चीज को
राग और द्वेष
में बदलती है।
तुमने
कभी खयाल
किया। राह से
तुम गुजरते हो, किसी की तरफ
राग से देखते
हो, किसी
कि तरफ द्वेष
से देखते हो।
कोई लगता है अपना
है, प्यारा
है; कोई
लगता है पराया
है, दुश्मन
है। कोई लगता
है आज अपना
नहीं, तो
कल अपना हो
जाए, ऐसी
आकांक्षा
जगती है। कोई
दूर है तो
आकांक्षा
होती है, पास
आ जाए, गले
लग जाए। और
कोई पास भी
खड़ा हो तो
होता है, दूर
हटे, विकर्षण
पैदा होता है।
तुम सारे
संसार को राग-द्वेष
में बांटते
चलते हो।
जाने-अनजाने।
इसे जरा होश
से देखना, तो
तुम पाओगे
प्रतिपल:
अजनबी आदमी
रास्ते पर आता
है, तत्क्षण
तुम निर्णय कर
लेते हो भीतर,
राग या
द्वेष का; मित्र
कि शत्रु; चाहत
के योग्य कि
नहीं; प्यारा
लगता है कि
दुश्मन; भला
लगता है, पास
आने योग्य कि
दूर जाने
योग्य। झलक भी
मिली आदमी की
राह पर और
चाहे तुम्हें
पता भी न चलता हो,
तुमने भीतर
निर्णय कर
लिया--बड़ा
सूक्ष्म राग का
या द्वेष का।
यह निर्णय ही
तुम्हें
संसार से
बांधे रखता
है।
एक कार
गुजरी, गुजरते
से ही एक झलक
आंख पर पड़ी, तुमने तय कर
लिया: ऐसी कार खरीदनी है
कि नहीं खरीदनी
है। लुभा गई
मन को कि नहीं
लुभा गई। कोई
स्त्री पास से
गुजरी। कोई
बड़ा मकान
दिखाई पड़ा।
सुंदर वस्त्र
टंगे दिखाई
पड़े, वस्त्र
के भंडार में।
राग-द्वेष
पूरे वक्त, तुम निर्णय
करते चलते हो।
यह
राग-द्वेष की
सतत चलती
प्रक्रिया ही
तुम्हारे चाक
को चलाए रखती
है।
तुम
मंडल में फंसे
रहते हो। फिर
क्या उपाय है?
एक
तीसरा सूत्र
है। बुद्ध ने
उसे उपेक्षा
कहा है। वह
बिलकुल ठीक
शब्द है।
महावीर इसको
विवेक कहते
हैं, बिलकुल
ठीक शब्द है।
वे कहते हैं, न राग न
द्वेष, उपेक्षा
का भाव। न कोई
मेरा है, न
कोई पराया है।
न कोई अपना है,
न कोई दूसरा
है। न कोई सुख
देता है, न
कोई दुख देता
है। चौबीस
घंटे भी एक
दफा तुम उपेक्षा
का प्रयोग
करके देखो, चौबीस घंटे
में कुछ हर्जा
न हो जाएगा।
चौबीस घंटे एक
धारा भीतर बनाकर
देखो कि कुछ
भी सामने आएगा,
तुम
उपेक्षा का
भाव रखोगे, न इस तरफ न उस
तरफ, न
पक्ष न विपक्ष,
न शत्रु न
मित्र--तुम
बांटोगे न, देखते रहोगे
खाली नजरों
से। चौबीस
घंटे में ही
तुम पाओगे: एक
अपूर्व शांति!
क्योंकि वह जो
सतत क्रिया
चाक को चला
रही थी, वह
चौबीस घंटे के
लिए भी रुक गई
तो चाक ठहर
जाता है।
ऐसा ही
समझो कि तुम
साइकल चलाते
हो, तो पैडल
मारते ही रहते
हो। दोनों तरफ
पैडल लगे हैं।
दोनों पैडल
एक-दूसरे के
विपरीत लगते
हैं, मगर
एक-दूसरे के
विपरीत नहीं
हैं; दोनों
एक-दूसरे के
सहयोगी हैं।
एक पैडल ऊपर
होता है तो
दूसरा नीचे
होता है। एक
बाएं तरफ है
तो दूसरा दाएं
तरफ है। दोनों
दुश्मन मालूम
पड़ते हैं, लेकिन
दोनों गहरे
संयोग में हैं,
और दोनों के
कारण ही चाक
चल रहा है, गाड़ी
चल रही है, साइकिल
चल रही हैं।
तुम पैडल रोक
दो, तो हो
सकता है, थोड़ी-बहुत
दो-चार-दस कदम
पुरानी गति के
कारण साइकिल
चल जाए, लेकिन
सदा न चल
पाएगी। पैडल
रोकते ही गति
क्षीण होने
लगेगी, साइकिल
लड़खड़ाने
लगेगी।
दो-चार-दस कदम
के बाद
तुम्हें
साइकिल से
नीचे उतरना
पड़ेगा, नहीं
तो साइकल
तुम्हें नीचे
उतार देगी।
राग और
द्वेष पैडल की
भांति हैं।
विपरीत दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन उन
दोनों के ही
पैडल मारकर
तुम जीवन के चके को
सम्हाले हुए
हो। उपेक्षा
को साधो!
उपेक्षा का
अर्थ है: पैडल
मत मारो, बैठे
रहो साइकिल पर,
कोई हर्जा
नहीं। कितनी
देर बैठोगे? इसलिए तो
मैं कहता हूं
अपने
संन्यासियों
को, भागने
की कोई जरूरत
नहीं, बैठे
रहो जहां हो।
साइकिल पर ही
बैठना है, बैठे
रहो। घर में
रहना है, घर
में रहो।
दुकान पर रहना
है, दुकान
पर रहो। थोड़ा
ध्यान सधने
दो, साइकिल
खुद ही गिराएगी
तुम्हें, तुम्हें
थोड़े ही छोड़ना
पड़ेगा। साइकल
खुद ही छोड़
देगी। साइकिल
कहेगी, अब
बहुत हो गया, उतरो!
जरा
उपेक्षा सधे, जरा विवेक
सधे, जरा
ध्यान सधे, जरा अमूर्च्छा
थोड़ी उठे, कि
जीवन में
अपने-आप
क्रांति घटित
होनी शुरू हो
जाती है।
चौबीस घंटे
शायद तुम्हें
लगे, बहुत
मुश्किल है, शायद डर भी
लगे कि कहीं
ऐसा न हो कि
साइकिल से गिर
ही जाएं, हाथ-पैर
न टूट जाएं; कहीं ऐसा न
हो जाए कि फिर
साइकिल पर
दुबारा चढ़ ही
न सकें--तो ऐसा
करो कि दिन
में एक घंटा
ही उपेक्षा
साधो। लेकिन
फिर एक घंटा
परिपूर्ण उपेक्षा
साधो। वह एक
घंटा भी
तुम्हें जीवन
का दर्शन करा
जाएगा। क्षणभर
को भी अगर
राग-द्वेष की
बदलियां
आंखों में न घिरी
हों, तो
जीवन का सत्य
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है। तब न कोई
मित्र है, न
कोई शत्रु है।
तब तुम्हीं
अपने मित्र हो,
तुम्हीं
अपने शत्रु
हो। सत्प्रवृत्ति
में मित्र हो,
दुष्प्रवृत्ति
में शत्रु।
खुदी
क्या है राजे-दुरूने-हयात
समंदर
है एक बूंद
पानी में बंद।
तुम्हारे
भीतर समंदर
बंद है।
समंदर
है एक बूंद
पानी में बंद!
लेकिन भीतर
नजर ही नहीं
जाती तो समंदर
का दर्शन नहीं
होता। तुम
नाहक छोटे बने
हो। तुम
व्यर्थ ही
अपने को
क्षुद्र समझे
हो। तुम अकारण
ही हीन माने
बैठे हो। और
हीन मान लिया, इसलिए
श्रेष्ठ बनने
की कोशिश में
लगे हो। थोड़ी
आंख भीतर आए, थोड़ी
उपेक्षा में
दृष्टि सम्हले,
थोड़ी
तुम्हारी
ज्योति
यहां-वहां न कंपे, राग-द्वेष
के झोंके न
आएं, तो
तुम अचानक
पाओगे: समंदर
है एक बूंद
पानी में बंद।
तब तुम विराट
हो जाओगे, विशाल
हो जाओगे। यही
तुम्हारा
परमात्म-भाव है।
किरण
चांद में है शरर संग
में
यह
बेरंग है डूब
कर रंग में
खुद
ही का नशेमन
तिरे दिल
में है
फलक
जिस तरह आंख
के तिल में
है।
जैसे
आंख के
छोटे-से तिल
में सारा आकाश
समाया हुआ
है...आंख खोलते
हो आकाश को
देखते हो, कितना विराट
आकाश आंख के
छोटे से तिल
में समाया हुआ
है।
खुदी
का नशेमन
तेरे दिल में
है
फलक
जिस तरह आंख
के तिल में
है।
वह
परमात्मा का
घर भीतर है।
वह तुम छोटे
मालूम पड़ते
हो...आंख का तिल
कितना छोटा है, सारे आकाश
को समा लेता
है!
तुम
छोटे मालूम
पड़ते हो, हो
नहीं। जिस दिन
तुम्हारा
भीतर का
विस्फोट होगा,
उस दिन तुम
जानोगे कि तुम
सदा-सदा से
अनंत को, निराकार
को, निर्गुण
को अपने भीतर
लिये चलते थे।
समंदर
है एक बूंद
पानी में बंद!
लेकिन
इसकी खोज नियम, मर्यादा, अनुशासन, नीति, सदाचार,
इतने से ही
न होगी। इतने
से तुम अच्छे
आदमी बन जाओगे--सभ्य।
सभ्य शब्द बड़ा
अच्छा है।
इसका मतलब:
सभा में बैठने
योग्य। और कुछ
खास मतलब नहीं
है। जहां चार
जन बैठे हों, वहां तुम
बैठने योग्य
हो जाओगे, सभ्य
हो जाओगे। कोई
तुम्हें दुतकारेगा
नहीं कि हटो
यहां से!
नीति-नियम सीख
जाओगे, शिष्टाचार।
लेकिन उस
परमात्मा के
जगत में इतने
से काफी नहीं
है। सभा में
बैठने योग्य
हो जाने से, तुम अपने
में बैठने
योग्य न बनोगे।
जो तुम्हें
सभा में बैठने
योग्य बना दे,
वह सभ्यता।
जो तुम्हें
अपने में
बैठने योग्य बना
दे, वही
संस्कृति।
शेख!
मकतब के
तरीकों से कुशादे-दिल
कहां
किस
तरह किबरीज़
से रोशन हो
बिजली का
चिराग।
शेख!
मकतब के
तरीकों से कुशादे-दिल
कहां--यह
उठने-बैठने के
निमय और
व्यवस्थाएं
और आचरण की
पद्धतियां, मकतब के
तरीके, इनसे
दिल का विकास
नहीं होता, इनसे आत्मा
नहीं बढ़ती, इनसे आत्मा
नहीं
फलती-फूलती।
किस
तरह किबरीज़
से रोशन हो
बिजली का
चिराग! यह तो
ऐसे ही है, जैसे कोई
तेल से या
गंधक से बिजली
के बल्ब को जलाने
की कोशिश करे।
कोई संबंध
नहीं है। तेल
भरना पड़ता है
दीये में।
गंधक के भी
दीये बन सकते
हैं। लेकिन बिजली
की रोशनी को
गंधक और तेल
की कोई भी
जरूरत नहीं
है।
किस
तरह किबरीज़
से रोशन हो
बिजली का
चिराग! मकतब
के तरीकों से, जीवन के
साधारण
शिष्टाचार के
नियमों को
जिसने धर्म
समझ लिया, वह
ऐसे ही है
जैसे एक बिजली
के बल्ब को
तेल भरकर
जलाने की
कोशिश कर रहा
हो। वह व्यर्थ
है।
जैसे
ही थोड़ी-सी
समझ को तुम उकसाओगे, वैसे ही तुम
पाओगे:
तुम्हारे
भीतर की रोशनी
न तो तेल
चाहती है न
गंधक; तुम्हारे
भीतर की रोशनी
ईंधन पर
निर्भर नहीं है।
तुम्हारे
भीतर की रोशनी
तुम्हारा
स्वभाव है।
अप्पा कत्ता विकत्ता
य, दुहाण य सुहाण
य।
अप्पा मित्तममित्तं
च दुप्पट्ठिय
सुप्पट्ठिओ।।
"आत्मा
ही सुख-दुख का
कर्ता, विकर्ता,
सत्प्रवृत्ति में स्थित
मित्र, दुष्प्रवृत्ति
में स्थित
अपना ही शत्रु
है।'
इस
सत्य को तुम
हृदयंगम करो।
इस सत्य को
भीतर ले जाओ।
इस सत्य का
साक्षात्कार
करो। इस सत्य
को खोजो अपने
जीवन में, क्या ऐसा ही
नहीं है? अगर
तुम्हें भी
ऐसा दिखाई
पड़ने
लगे--मेरे
कहने से नहीं,
महावीर के
वक्तव्य से
नहीं; ऐसा
तुम्हें भी
दिखाई पड़ने
लगे, ऐसी
तुम्हारी
दृष्टि हो
जाए--तो तुम
"जिन' होने
की यात्रा पर
निकल जाओगे।
और जैन कभी
होना मत
चाहना। होना
ही है तो जिन
होना। होना ही
है तो महावीर
होना।
अनुयायी होने
से क्या होगा?
अनुकरण
नहीं, आत्म-अनुसंधान।
जैन बनकर धोखा
मत देना। जैन
बनने का मतलब
है: सीख गए ऊपर
के मकतब के
तरीके; आत्मा
का नियम खिला
नहीं; आत्मा
के नियम में
बिहार न हुआ।
ऊपर-ऊपर की
व्यवस्था सीख
गए--कैसे उठना,
कैसे बैठना,
कैसे मंदिर
जाना, कैसे
पूजा करना, क्रियाकांड,
वह सब सीख
गए तो जैन हो
गए, हिंदू
हो गए, मुसलमान
हो गए, ईसाई
हो गए। लेकिन
जो होना था
उससे बच गए।
और
झूठे सिक्के
बड़े खतरनाक
होते हैं।
क्योंकि झूठे
सिक्कों का
बोझ और उनकी खनन-खनन
तुम्हें धोखा
दे सकती है और
ऐसा लग सकता
है, असली
सिक्के अपने
पास हैं। असली
सिक्का तो जिनत्व
का है। जिन
होना। अगर
होना ही हो तो
जिन होना। कुछ
और होने से
राजी मत होना।
सस्ते में
अपने को मत
बेच डालना।
परमात्मा ही
खरीदा जा सकता
है इस जीवन से;
इससे कम की आकांक्षा
मत करना।
यह हो
सकता है, क्योंकि
यह हुआ है। यह
हो सकता है, क्योंकि यह
तुम जैसे ही
मनुष्यों में
हुआ है। तुम
इसके मालिक
हो। यह
तुम्हारा
स्वभाव-सिद्ध
अधिकार है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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