सम्यक
ज्ञान मुक्ति
है—प्रवचन—आठवां
प्रश्नसार:
क्या प्रेम,
आनंद, ध्यान, समाधि भी क्रिया
ही है?
क्या क्रिया
का समझ से कोई संबंध
है?
2—तीर्थंकर
चौबीस ही क्यों,
ज्यादा क्यों
नहीं?
3—क्या
परंपरा की जरूरत
नहीं है?
क्या परंपरा से
हानि ही हानि हुई
है?
4—किसी
सुंदर युवती को
देख कर मन उसकी
और आकर्षित हो
जाता है। क्या
वासना यह है,
या प्रेम, या
सुंदरता की स्तुति?
पहला
प्रश्न:
आपने
कल कहा कि
सत्य संज्ञा
नहीं है, क्रिया है।
क्या इसी
भांति प्रेम,
आनंद, ध्यान,
समाधि जो भी
स्वभावगत है,
वह भी
संज्ञा नहीं,
वरन क्रिया
है? और
क्या क्रिया
का समझ से कोई
संबंध नहीं है?
कृपा कर
समझाएं।
क्रिया
है: जीवंतता।
संज्ञा है:
लाश। संज्ञा
का अर्थ है: जो
चीज हो चुकी।
क्रिया का अर्थ
है: जो अभी हो
रही, हो रही, हो रही।
जैसे नदी बह
रही है, नदी
क्रिया है; तालाब नहीं
बह रहा, तालाब
संज्ञा है।
बहाव जीवन है,
ठहराव
मृत्यु है।
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है, सभी
क्रिया जैसा
है। प्रेम भी
कोई वस्तु नहीं
है; प्रेम
भी प्रक्रिया
है। करो तो है,
न करो तो
गया। जो तुमसे
कहता है, मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं, उसका
प्रेम भी
उन्हीं
क्षणों में
होता है जब वह
करता है; जब
नहीं करता तब
प्रेम खो जाता
है।
प्रेम
को बनाये रखना
हो तो क्रिया
को जारी रखना
पड़े। ध्यान भी
तभी होता है
जब तुम करते
हो; जब तुम
नहीं करते, खो जाता है।
जो तुम करते
हो वही होता
है। श्वास भी
तुम जब तक ले
रहे हो, तभी
तक है; जब न
लोगे, तब
कैसी श्वास?
जीवन
का बड़ा गहनतम
सत्य है कि
यहां सभी
प्रक्रियाएं
हैं। विज्ञान
ने भी इस सत्य
को उदघोषित
किया है।
बड़े
वैज्ञानिक
एडिंगटन ने
लिखा है कि
"ठहराव' झूठा
शब्द है, क्योंकि
कोई चीज ठहरी
हुई नहीं है।
सब हो रहा है।
इसलिए ठहराव
को प्रदर्शित
करनेवाले सभी शब्द
अज्ञान-सूचक
हैं। हम कहते
हैं, वृक्ष
है। ऐसा कहना
नहीं चाहिए।
यह सत्य के अनुकूल
नहीं है। यह
अस्तित्व का
सूचक नहीं है।
कहना चाहिए, वृक्ष हो
रहा है। जब हम
कहते हैं
वृक्ष है, तब
ऐसा लगता है
कि होना बंद
हो चुका, कोई
चीज है। जब हम
कहते हैं
वृक्ष है, जितनी
देर हमने कहने
में लगाई कि
वृक्ष है, उतनी
देर में वृक्ष
कुछ और हो
चुका। कुछ
पुराने पत्ते
गिर गये। कुछ
नई कोंपलें
सरककर बाहर आ
गयीं। कोई कली
फूल बन गई।
कोई फूल बिखर
गया। वृक्ष
उतनी देर में
बूढ़ा हो रहा
है। हम कहते
हैं, मकान
है, लेकिन
मकान भी
जराजीर्ण हो
रहा है; आज
है कल नहीं हो
जायेगा, अन्यथा
महलों के
खंडहर कैसे
होते! हम कहते
हैं, यह
आदमी जवान है;
अगर हम गौर
से देखें तो
कहना पड़ेगा, यह आदमी
जवान हो रहा
है या यह आदमी
बूढ़ा हो रहा है।
"है' की कोई
अवस्था नहीं
है।
यूनान
के बहुत बड़े
मनीषी हैराक्लतु
ने कहा है, तुम एक ही
नदी में
दुबारा नहीं
उतर सकते।
दुबारा उतरने
को वही नदी
पाओगे कहां? पानी बहा जा
रहा है।
फिर हैराक्लतु
के एक शिष्य
ने कहा कि अगर हैराक्लतु
सही है तो एक
ही नदी में एक
बार भी कैसे
उतरा जा सकता
है? जब
तुम्हारे पैर
ने नदी की ऊपर
की सतह छुई, तब नदी और थी;
जरा पैर
नीचे गया, तब
नदी और हो गई; और तलहटी तक
पहुंचा, तब
तक नदी और हो
गई। गंगा बही
जाती है। बहाव
में गंगा है।
इसलिए सब हो
रहा है।
तुम हो, ऐसा
नहीं--तुम हो
रहे हो।
जीवन
एक घटना है, वस्तु नहीं।
और जिसने जीवन
का यह घटनामय
रूप देखा, उसके
भीतर जीवन बड़ी
प्रज्वलता
से जलेगा। तब
तुम यह नहीं
कहोगे कि
प्रेम कोई स्थायी
निधि है, कि
रखी है हृदय
में! प्रेम भी
श्वास जैसा है;
लो तो है, न लो तो नहीं
है।
तुम जो
करते हो, उस
कृत्य में ही
चीजें होती
हैं। तुम जो
हो उससे
तुम्हारी कोई
स्थिति का पता
नहीं चलता, सिर्फ
तुम्हारी
क्रिया का पता
चलता है। तुम
कहते हो, यह
आदमी साधु है।
इसका केवल
इतना ही अर्थ
हुआ, यह
आदमी साधु
होने में लगा
है। यह आदमी
साधुता को
सम्हाल रहा
है। तुम कहते
हो, यह
आदमी ध्यानी
है। इसका इतना
ही अर्थ होता
है कि यह
ध्यान की
श्वासें ले
रहा है।
यहां
सब चीज चल रही
है, कोई चीज
ठहरी नहीं है।
सब रूपांतरित
हो रहा है, प्रतिपल
रूपांतरित हो
रहा है।
प्रतिपल नया घट
रहा है, पुराना
जा रहा है।
इसलिए तो कहते
हैं, पुराने
से मोह मत रखो;
क्योंकि
तुम्हारा मोह
तुम्हें अटकायेगा।
और जीवन और
तुम्हारा छंद
टूट जायेगा।
इसलिए तो कहते
हैं, भविष्य
की चाह मत करो;
क्योंकि
भविष्य अभी
नहीं है। अतीत
न हो चुका, भविष्य
अभी नहीं है।
जो न हो चुका
उसे पकड़ोगे
तो मुश्किल
में पड़ोगे, अड़चन पैदा
होगी; जो
अभी नहीं है
उसे तो पकड़ोगे
कैसे? सिर्फ
कल्पना
करोगे। जो है,
उसे देखो।
और जो है, वह
प्रतिपल बहा
जा रहा है। इस
बहती गंगा का
साक्षात्कार
करो।
बुद्ध
के ऊपर कोई एक
व्यक्ति आया
और थूक गया। नाराज
था बहुत। बड़े
क्रोध में था।
बुद्ध जैसे व्यक्तियों
का होना भी
कुछ लोगों को
बड़े क्रोध से
भर देता है।
क्योंकि
बुद्ध जैसे
व्यक्तियों
के होने से
कुछ लोगों के
होने की
असंभावना
पैदा हो जाती
है। बुद्ध की
मौजूदगी
अहंकार को तोड़ती
है। बुद्ध की
मौजूदगी कहती
है कि तुम भी
ऐसे हो सकते
थे, न हो
पाये। बुद्ध
की मौजूदगी
तुम्हें तुम्हारे
सत्य से
परिचित कराती
है। बुद्ध का
फूल तुम्हें
तुम्हारे
कांटे की तरफ
इशारा करवाता
है। नाराजगी
पैदा होती है।
...थूका
बुद्ध के ऊपर।
बुद्ध ने पोंछ
लिया अपनी चादर
से। दूसरे दिन
वह आदमी क्षमा
मांगने आया। रात
भर सो न सका।
बुद्ध ने कहा,
"नहीं, क्षमा
की कोई बात
नहीं; क्योंकि
जो थूक गया था,
वह अब है ही
कहां! जिस पर
थूक गया था, वह भी अब
नहीं है। न
मैं वही हूं, न तुम वही
हो। छोड़ो
भी! जाने भी दो!
उन बातों में
पड़ने की जरूरत
कहां है? एक
तो तुमने थूककर
गलती की, फिर
रातभर व्यर्थ
की चिंता की।
अब पश्चात्ताप
कर रहे हो। अब छोड़ो! मेरी
तरफ देखो। मैं
वह नहीं हूं, जिस पर तुम
थूक गये थे।
तुम भी वह
नहीं हो।
आनंद, बुद्ध का
शिष्य, पास
बैठा था। उसने
कहा कि ठहरें,
यह बात
दर्शनशास्त्र
की नहीं है।
यह आदमी थूक गया
था और वही
आदमी है।
बुद्ध ने कहा,
"तुम थोड़ा
देखो आनंद! कल
यह थूक गया था,
आज यह क्षमा
मांगने आया
है--वही आदमी
हो कैसे सकता
है? जो थूक
गया था और जो
क्षमा मांगने
आया है, इसमें
तुम्हें भेद
नहीं दिखायी
पड़ता? तुम
चेहरे से धोखे
में आ रहे हो।
जरा भीतर देखो।
यह आदमी वही
नहीं है, नहीं
तो थूकता। यह
तो क्षमा
मांगता है। यह
कोई और है। यह
किसी नये का
आविर्भाव हुआ
है। तुम इस
नये के दर्शन
करो।'
लेकिन
आनंद मानने को
राजी नहीं है, क्योंकि
आनंद तो कल को
ही पकड़े
बैठा है। जो
तुम्हें कल
गाली दे गया
था, वह आज
जब तुम्हें
दुबारा मिले
तो तुम कल को पकड़कर मत
बैठना; अन्यथा
तुम जो आज आया
है, उसे न
देख पाओगे। हो
सकता है, क्षमा
मांगने आया
हो। कल जो
मित्र था, आज
शत्रु हो सकता
है। जो आज
शत्रु है, कल
मित्र हो सकता
है।
ध्यानी
अपने को सतत
खाली रखता है, निर्मल रखता
है, आंख
खुली रखता है।
बादल नहीं
इकट्ठे करता।
तथ्य को देखता
है, जैसा
अभी है। न तो
कल से तौलता
है, न
आनेवाले कल से
तौलता
है। जैसा अभी
है, उस
तथ्य को देखता
है। लेकिन इस
तथ्य को देखने
के लिए
तुम्हें भी
सत्य होना
पड़े। इसलिए
महावीर ने
सत्य को समस्त
धर्म का सार
कहा। तप और संयम,
और शेष सब
गुण उसमें
समाविष्ट
हैं।
सत्य
का अर्थ हुआ:
भीतर तुम जो
हो, वही रहो।
तो बाहर भी तुम
उसी को देख
पाओगे, जो
है। हम बाहर
वही देखते
रहते हैं, जो
नहीं हैं।
अतीत बड़ा
बोझिल है।
भविष्य भी बड़ा
बोझिल है। और
इन दोनों की
कशमकश में, इन दो चक्कियों
के पाट के बीच
वर्तमान का
छोटा-सा क्षण
पिस जाता है।
तुम या तो
कल्पना करते
हो, या
याददाश्तों
में खोये रहते
हो। तुम देखते
ही नहीं, जो
तुम्हारे पास
से गुजर रहा
है।
जीवन
को तथ्य में
देखो। लेकिन
उस देखने के
लिए तुम्हें सत्यमय
होना पड़ेगा।
जो सत्य है, वह सत्य को
देखेगा। और तब
तुम्हें संज्ञाएं
न दिखायी
पड़ेंगी, क्रियाएं
दिखायी
पड़ेंगी।
आत्मा
कोई वस्तु
थोड़े ही है कि
तुम उसे
मुट्ठी में
बांध ले सकते
हो--आत्मा तो तुम्हारे
भीतर चैतन्य
की सतत
प्रक्रिया
है। वह जो
चैतन्य का
आविर्भाव हो
रहा है पल-पल, वह जो
साक्षी जन्म
रहा है शून्य
से निरंतर--वही
है आत्मा।
मनस्विद
कहते हैं कि
आदमी जब पैदा
होता है तो
शून्य की तरह
पैदा होता है।
बच्चा पैदा
हुआ, शून्य की
तरह पैदा होता
है। अभी उसे
कुछ भी पता
नहीं है। वह
है, ऐसा भी
पता नहीं है।
इसे होने के
लिए भी थोड़ी देर
लगेगी। लेकिन
पैदा हुआ है, तो शून्य की
तरह--यह उसकी
पहली
जीवन-घटना है।
लेकिन जैसे ही
बच्चा पैदा
हुआ, मिटने
का भय समाने
लगता है। जब हुए,
तो मिटने का
भय भी आता है।
भूख लगती है, प्यास लगती
है--मिटने का
भय पकड़ने
लगता है। तो
पहली जो
तुम्हारे
भीतर गहनतम
स्थिति है, वह तो शून्य
की है। उसे
महावीर आत्मा
कहते हैं।
बुद्ध उसे अनात्मा
कहते हैं।
दोनों कहे जा
सकते
हैं--आत्मा, क्योंकि वह
तुम्हारा
स्वरूप है--अनात्मा,
क्योंकि
वहां "मैं' जैसा
कोई भाव नहीं,
शुद्ध
स्वरूप है।
"मैं' भी
नहीं है वहां।
लेकिन जैसे ही
बच्चा पैदा हुआ
कि डर पैदा
हुआ कि अब मैं
हूं, तो
कहीं मिट न
जाऊं। जहां
"हूं' आया,
वहां न होने
का भय भी आया।
जहां प्रकाश
आया, पीछे-पीछे
अंधेरा भी
आया। तो एक भय
की पर्त खड़ी
होती है।
शून्य है भीतर,
उसके आसपास
भय की पर्त
है। अमृत है
भीतर, उसके
आसपास मृत्यु
की पर्त है।
फिर
समाज बच्चे को
ढालना शुरू
करता है।
बच्चे को वैसा
ही नहीं छोड़
देता, जैसा
वह आया है।
संस्कार देने
हैं। शिक्षा
देनी है।
सभ्यता देनी
है। बहुत कुछ
काटना है, बहुत
कुछ बनाना है।
बहुत कुछ नया
उगाना है, बहुत
कुछ हटाना है।
समाज
कांट-छांट
शुरू करता है।
छैनी उठा लेता
है। तो बच्चे
के भीतर एक तीसरी
पर्त पैदा
होती है--नीति
की, समाज
की, संस्कार
की, संस्कृति
की। लेकिन
स्वभावतः यह
जो संस्कृति,
समाज की
पर्त है, यह
उसके स्वभाव
के प्रतिकूल
पड़ती है। नहीं
तो इसकी जरूरत
ही न होती।
इसकी जरूरत ही
इसलिए होती है
कि जैसा बच्चा
स्वभाव के
अनुसार है, वैसा समाज
को अंगीकार
नहीं है।
बच्चा बेवक्त हंसने
लगे, उसके
स्वभाव के
अनुकूल है कि
उसे हंसी आ
रही है, लेकिन
समाज नियमन
करेगा कि सब
स्थान सब समय
हंसने के
योग्य नहीं
हैं। कोई मर
गया हो और तुम
हंसने लगो...।
मेरे
एक शिक्षक मर
गये थे। बड़े
सीधे-साधे
शिक्षक थे।
रहने-सहने का
ढंग भी उनका
बड़ा सीधा-साधा
था। एक बड़ी पगड़ी
बांधते
थे। अकेले ही
थे उस पूरे
गांव में, जो उतना बड़ा पग्गड़ बांधते
थे। चलते भी
ऐसे ढीले-ढाले
थे। संस्कृत
के शिक्षक थे।
तो उनको लोग
पोंगा-पंडित
ही समझते थे।
स्कूल में
उनका नाम
बच्चों ने
"भोलेनाथ' रख
लिया था। जैसे
ही वे आते, बच्चे
कहने लगते: "जय
भोले बाबा!' उनकी कमीज
पर पीछे लिख
देते: "जय भोले
बाबा!' बोर्ड
पर लिख देते:
भोलानाथ। वे
नाराज भी होते
थे, लेकिन
उनकी नाराजगी
भी बड़ी
प्रीतिकर थी।
वे बड़ी
नाच-कूद भी
मचाते थे, बड़े
गुस्से में भी
आ जाते थे।
मरने-मारने की
जैसी हालत
होती, लेकिन
मारते-करते
किसी को न थे।
सीधे-साधे आदमी
थे। शोरगुल मचाकर चुप
हो जाते थे।
वे मरे
तो मैं अपने
पिता के साथ उनके
घर गया। उनकी
लाश पड़ी थी।
और उनकी पत्नी
आयी और उनकी
छाती पर गिर
पड़ी और कहा, "हाय, मेरे
भोलेनाथ!' भोलेनाथ
कहकर हम
उन्हें चिढ़ाते
थे। यह तो
किसी और को
पता न था, मुझको
ही पता था।
वहां तो सब
बड़े-बूढ़े थे।
तो वे तो चुप
रहे, लेकिन
मुझे बड़ी जोर
की हंसी आई कि
यह तो हद्द
मजाक हो गयी!
जिंदगी में भी
"भोलेनाथ', मरकर
अब कोई और
कहने को नहीं
तो खुद पत्नी
कह रही है, "हाय मेरे, भोलेनाथ।' जितना मैंने
रोकने की
कोशिश की, उतनी
मुश्किल हो
गयी। आखिर
हंसी निकल ही
पड़ी। पिता
नाराज हुए।
कहा, दुबारा
अब कभी ऐसी
जगह न ले
जायेंगे। और शिष्टाचार
सीखो। यह कोई
ढंग हुआ? वहां
कोई मरा पड़ा
है, लोग रो
रहे हैं--और
तुम हंस रहे
हो!
मैंने
उनसे कहा, मेरी भी तो
सुनो। वहां
किसी को पता
ही नहीं था, जो राज मुझे
पता है। जिस
वजह से मुझे
हंसी आयी--वह
हंसी यह थी कि जिंदगीभर
इस आदमी को हम
भोलानाथ कहकर चिढ़ाते रहे,
मरकर भी
मजाक तो देखो!
कोई और नहीं
तो खुद पत्नी
कह रही है, "हाय मेरे
भोलेनाथ!' यह
आदमी, इसकी
आत्मा वहां भी
उछलने-कूदने
लगी होगी, नाराज
हो गई होगी कि
हद्द हो गई!
आखिरी विदा के
क्षण में भी!
लेकिन
तब से
उन्होंने
मुझे ले जाना
बंद कर दिया।
कहीं कोई मर
जाये, कुछ
हो तो वे मुझे
न ले जाते।
संस्कार
देना जरूरी
है। परिवार की
अपनी अड़चन है।
समाज की अपनी
असुविधा है।
बच्चे को वैसे
ही नहीं छोड़ा
जा सकता, कुछ
न कुछ
काट-छांट करनी
पड़ेगी। वह जो
काट-छांट है, उसमें बच्चे
के स्वभाव के
प्रतिकूल उस
पर कुछ थोपा
जाता है। जहां
रोना चाहता है,
रो नहीं
सकता है। जहां
हंसना चाहता
है, हंस
नहीं सकता।
जहां क्रोध
करना चाहता है,
क्रोध नहीं
कर सकता। जहां
प्रेम नहीं
करना है, वहां
प्रेम
दिखलाना पड़ता
है। जिनके पैर
नहीं छूने, उनके पैर
छूने पड़ते
हैं। जो नहीं
खाना है, वह
खाना पड़ता है।
जो खाना है, वह खाने को
मिलता नहीं
है। तो तीसरी
पर्त खड़ी होती
है--संस्कार
की, समाज
की, नियंत्रण
की। कारागृह
बनता है।
फिर
जैसे ही बच्चा
बड़ा होता है, धीरे-धीरे
जैसे-जैसे
उसके पास ताकत
आती है, वह
पीछे के दरवाजों
से अपने
स्वभाव की
पूर्ति के
रास्ते खोजता
है। कमजोर है
बच्चा, छोटा
है, तब तक
तो स्वीकार कर
लेता है; लेकिन
जैसे-जैसे समझ
आने लगती है, ताकत आने
लगती है, वह
कोई रास्ते
निकालने लगता
है, छिप-छिपकर
करने लगता है
काम, जो
उसे करने हैं।
धोखा पैदा
होता है। तो
चौथी पर्त
पैदा होती है
जो समझौते की
पर्त है। वह समाज
जो मानता है, चाहता है, वैसा दिखाता
है; और जो
उसे करना है, वैसा करता
है। तो दोहरा
व्यक्तित्व
बनता है। यह
चौथी पर्त है।
फिर पांचवीं
एक पर्त है, जो सबसे
ऊपर-ऊपर
है--लोकाचार
की, शिष्टाचार
की। किसी को
तुम मिलते हो
तो कहते हो, "कहिए, कैसे
हैं? बड़ी
खुशी हुई
मिलकर। बड़े
दिनों बाद दर्शन
हुए। बड़े दिन
से आंखें
तरसती थीं।'
ये सब
बातें हैं। यह
औपचारिक पर्त
है। इससे थोड़ा
संबंधों में
सुगमता बनी
रहती है। जयराम
जी, हैलो--इससे थोड़ा
दो
व्यक्तियों
के बीच में
स्निग्धता
बनी रहती है--लुब्रिकेशन।
नहीं तो कोई
मिला और सीधे
खड़े हो गये।
वह भी खड़ा है, तुम भी खड़े
हो--कहां से
चलें, क्या
कहें, क्या
न कहें! तो
अड़चन खड़ी होगी,
तो कहा जयराम
जी! बातचीत
शुरू हुई।
"मौसम कैसा है?'
"अच्छा है।'
"पति-पत्नी,
बच्चे, घर,
सब कुशल हैं?'
सिलसिला चल
पड़ा। अब आगे
बात चल सकेगी।
कहीं से शुरू
तो करना होगा।
तो पांचवीं
पर्त है उपचार
की। ये
तुम्हारी
पर्तें हैं।
पहली जो घटना
थी शून्य की, वह तुम्हारा
सत्य है। अब
इन चार पर्तों
के नीचे दबा
है सत्य। इन
पर्तों को
धीरे-धीरे
छांटना होगा।
इन पर्तों को
धीरे-धीरे
हटाना होगा।
जैसे कि नदी
पर पत्ते छा
जाते हैं, सैवाल
फैल जाता है, तो हम हटाकर
देखते हैं, नीचे जलधार
बह रही है--इन
चार पर्तों के
नीचे तुम्हारा
स्वभाव बह रहा
है, तुम्हारी
गंगा बह रही
है। इनको
हटाने का नाम
ही साधना है।
ये चारों
पर्तें जड़
हैं। ये चारों
पर्तें
संज्ञा की
हैं। और
तुम्हारा
स्वभाव क्रिया
का है। इन
चारों पर्तों
के साथ समाज
राजी है, तुम्हारे
स्वभाव से
राजी नहीं है;
क्योंकि ये
चारों पर्तें
तुम्हें
नियंत्रण में
ला देती हैं।
तुम्हारा
स्वभाव तो बड़ी
विस्फोटक
घटना है।
इसलिए
तो महावीर जब
जिंदा होते
हैं तो स्वीकार
नहीं होते।
बड़े विस्फोटक
आदमी हैं।
अपने रंग में
जीते हैं। कोई
समझौता नहीं
करते। अपने
स्वभाव में
जीते हैं, चाहे कोई भी
कीमत चुकानी
पड़े। अगर नग्न
होने में मजा
आया तो नग्न
जीते हैं।
चाहे दुनिया
कुछ भी कहे।
भला कहे, बुरा
कहे--कोई
चिंता नहीं
लेते।
तो
महावीर तो एक
बगावती हैं, एक
क्रांतिकारी
हैं। धर्म
बगावत है, क्रांति
है। हां, जब
महावीर मर जाते
हैं तो उनके
पीछे जो
इकट्ठे होते
हैं, वे
कोई बगावती
नहीं हैं। या
हो सकता है, पहली जो
संख्या, पहले
लोग जो महावीर
के पास आये थे,
वे बगावती
रहे हों; लेकिन
उनके बेटे तो
बगावती नहीं
होंगे। उनके बेटे
तो पैदाइश से
जैन होंगे।
जिन्होंने
महावीर को
चुना था अपनी
स्वेच्छा से,
उन्होंने
तो बड़ी हिम्मत
की थी, बड़ा
साहस किया था।
क्योंकि
महावीर बदनाम
थे। गांव-गांव
से खदेड़े
जाते थे।
पत्थर मारे
गये। कान में
खीलें ठोंक
दिये किसी ने।
कहीं स्वीकार
न थे।
जिन्होंने उन्हें
स्वीकार किया
था, वे तो
बड़े हिम्मतवर
लोग रहे होंगे,
बड़े साहसी।
तो
शिष्यों का जो
पहला समूह
होता है, वह
तो हिम्मतवर
होता है।
लेकिन जो
दूसरी पीढ़ी
आती है, वह
तो फिर वैसी
ही होती है।
इसलिए तो सभी
धर्म खो जाते
हैं। जब सदगुरु
जीवित होता है
तो धर्म भी
जीवित होता
है। जब सदगुरु
विदा हो जाता
है तो
धीरे-धीरे सदधर्म
की ध्वनि भी, प्रतिध्वनि
बनती जाती
है--दूर, दूर,
दूर--फिर खो
जाती है। फिर
महावीर पूज्य
हो जाते हैं।
फिर कोई अड़चन
नहीं रह जाती
है। फिर तुम उनकी
मूर्ति बनाकर पूजो। फिर
तुम्हें जो
करना हो
महावीर के साथ,
बेशक करो।
दिगंबर
हैं, नग्न
मूर्ति की
पूजा करते
हैं। उनकी
मौज! श्वेतांबर
हैं, नग्न
मूर्ति की
पूजा नहीं
करते। उनकी
मौज! दिगंबर
आंख-बंद
महावीर की
पूजा करते
हैं--उनकी मौज।
अब महावीर कुछ
कह नहीं सकते
कि जरा ठहरो, मुझे आंख
खोलनी है। वे
फौरन रोक
देंगे कि बंद करो
बकवास, आंख
बंद रखो! नियम
से चलो!
दिगंबर बंद
आंख की पूजा
करते हैं; श्वेतांबर
खुली आंख की
पूजा करते
हैं। कुछ मंदिर
हैं, जो
दोनों के हैं।
तो आधा दिन
दिगंबर पूजा
करते हैं, आधा
दिन
श्वेतांबर
पूजा करते
हैं। अब बड़ी
मुश्किल है, पत्थर की
मूर्तियां
हैं। वैसा कुछ
आसान भी नहीं
है कि आंख खोल
दो, लगा
दो। तो झूठी
आंख चिपका
देते हैं। जब सुबह
दिगंबर पूजा
करेंगे, तो
वे खाली
मूर्ति की
पूजा कर जाते
हैं। जब श्वेतांबरों
की घड़ी आती है
बारह बजे के
बाद, तो वे
आकर नकली आंख,
खुली आंख
चिपका देते
हैं; कपड़े
पहना देते
हैं। पूजा
शुरू हो जाती
है। महावीर न
तो कह सकते कि
ये कपड़े मुझे
पसंद नहीं, न कह सकते कि
मुझे नग्न
रहना है, न
कह सकते हैं
कि मुझे ठंडी
लग रही है, अभी
नग्न मत करो, कि अभी बहुत
गर्मी है, कुछ
कह नहीं सकते।
अब तुम्हारे
हाथ के खिलौने
हैं।
तुम्हारे
महावीर, तुम्हारे
बुद्ध, तुम्हारे
कृष्ण, तुम्हारे
हाथ के खिलौने
हैं। असली
महावीर, असली
कृष्ण और
बुद्ध जलते
हुए अंगारे
थे। उनको हाथ
में रखने के
लिए बड़ी
हिम्मत चाहिए
थी। जो दग्ध
होने को राजी
थे वे उनके
पास आये थे।
कमजोर तो उनसे
दूर भागे थे।
कमजोर तो उनके
दुश्मन थे।
लेकिन पीछे...।
मेरे
पास संन्यासी
आते हैं। कोई
पिता आता है, कोई मां आती
है। वह कहते
हैं, हमारे
बेटे को भी
संन्यास दे
दें। उनका भाव
मैं समझता
हूं। उन्हें
जो सुख मिला
है, उन्हें
जो शांति मिली
है, वे
चाहते हैं
उनके बेटे को
भी मिल जाये।
लेकिन
उन्होंने तो
मुझे चुना है,
बेटे को वे
ले आये हैं।
बेटे ने मुझे
नहीं चुना है।
बेटे ने
स्वेच्छा से
मुझे नहीं
चुना है, बाप
के साथ चला
आया है। बाप
कहता है, संन्यास
तेरा भी
करवाना है, तो वह कहता
है, ठीक
है। लेकिन यह
संन्यासी और
ढंग का
संन्यासी
होगा। यह तो
मजबूरी का
संन्यासी
होगा।
ऐसी
स्त्रियां
मेरे पास आती
हैं, वे कहती
हैं, "गर्भ
में बच्चा है,
उसे
संन्यास दे
दें।' उनका
भाव मैं समझता
हूं। उनका
प्रेम मैं
समझता हूं। मगर
उनके भाव और
प्रेम से थोड़े
ही संसार चलता
है। उनकी भाव
की बात बड़ी
शुद्ध है।
उनका भाव यह है
कि उनका बच्चा
पैदा होते से
ही संन्यासी
हो। ठीक है, शुभ है।
लेकिन बेटे से
तो पूछो! वह जो
अभी पैदा ही
नहीं हुआ है, उसे जुआरी
बनना है कि
शराबी बनना है,
कि
संन्यासी
बनना है, कि
हिंदू बनना है
कि मुसलमान
बनना है--उससे
तो पूछो!
लेकिन उससे
अभी पूछने का
कोई उपाय नहीं
है।
तो
जैसे जैन घर
में पैदा होने
से कोई जैन हो
जाता है, मेरे
संन्यासी के
घर में पैदा
होने से कोई
संन्यासी हो
जायेगा। लेकिन
दूसरी पीढ़ी
मुर्दा होगी।
शायद दूसरी पीढ़ी में
भी थोड़ा
घिसटता-लंगड़ता
हुआ धर्म रह
जाये, क्योंकि
उसने पहली पीढ़ी
के दर्शन किये
होंगे; कम
से कम पहली पीढ़ी
के पास रही
होगी; उस
हवा में पली
होगी। लेकिन
तीसरी पीढ़ी?
वह तो और
दूर हो
जायेगी। चौथी पीढ़ी और...।
फिर पच्चीस
सौ साल हो गये
महावीर को हुए, अब तो सब
मुर्दे हैं।
अब तो जैन के
नाम से जो है वह
मुर्दा है। वह
उतना ही
मुर्दा है
जैसे मुहम्मद
का मुसलमान
मुर्दा है और
ईसा का ईसाई
मुर्दा है। यह
स्वाभाविक
है। इसे टाला
नहीं जा सकता।
जैसे व्यक्ति
पैदा होते हैं,
जवान होते
हैं, मर
जाते हैं--ऐसे
ही धर्म पैदा
होते हैं, जवान
होते हैं, बूढ़े
होते हैं और
मर जाते हैं।
इस संसार में
जो भी चीज
जन्मती है, वह मरती भी
है। वह जो परमधर्म
है, जो कभी
पैदा नहीं
होता, कभी
नहीं मरता, उसका तो कोई
नाम नहीं है--न
हिंदू, न
जैन, न
मुसलमान, न
ईसाई। उसकी हम
बात नहीं कर
रहे। लेकिन
जैन, हिंदू,
मुसलमान, ईसाई जिस
धर्म का नाम
है, यह कभी
पैदा हुआ, कभी
मरेगा।
ये जो
चार पर्तें
हैं तुम्हारे
ऊपर, ये सब
संज्ञा की तरह
हैं। तुमने
जिसे जैन धर्म
कहा है, वह
संज्ञा है।
मैं जिसे जैन
धर्म कह रहा
हूं, वह
क्रिया है।
तुम जिसे जैन
धर्म कह रहे
हो, वह
तुम्हारी
पैदाइश, तुम्हारे
जन्म, तुम्हारे
संयोग की घटना
है। मैं जिसे
जैन धर्म कह
रहा हूं, वह
तुम्हारा
आविष्कार है,
तुम्हारी
खोज है।
फिर-फिर
तुम्हें
खोजना होगा।
मेरा जो जैन
धर्म है, वह
हिंदू धर्म के
विपरीत नहीं
है। मेरा जो
जैन धर्म है, वह इस्लाम
के विपरीत
नहीं है। मेरा
जो जैन धर्म
है, वह सभी
धर्मों का सार
है। वहां
बाइबिल और
कुरान और गीता
और धम्मपद और
जिन-सूत्र, सब एक हो
जाते हैं।
तुम्हारा जो
जैन धर्म है, वह राजनीति
है। वह हिंदू
के खिलाफ है, वह मुसलमान
के खिलाफ है।
तुम्हारा जो
जैन धर्म है, वह एक
संप्रदाय है,
धर्म नहीं।
वह एक जड़, मरी
हुई वस्तु है।
निश्चित
ही, जैसे
सत्य एक जीवंत
आग है, लपटें
जल रही
हैं--ऐसे ही
प्रेम भी, आनंद
भी, ध्यान
भी, समाधि
भी, जो भी
जीवंत है, वह
लपट की तरह
बहता हुआ है, गंगा की तरह
प्रवाहमान
है। जो भी मर
गया, वह
राख की तरह
है। फिर उसमें
कोई गति नहीं।
तुम
मुर्दा से जरा
सावधान रहना!
और मुर्दे तलों
को बहुत मत पकड़ना, अन्यथा तुम
उन्हीं के
नीचे दबोगे
और मर जाओगे। कब्रों
में तो लोग
बहुत बाद में
प्रवेश होते
हैं, उनके
बहुत पहले मर
जाते हैं।
मरने के बहुत
पहले मर जाते
हैं, क्योंकि
मुर्दे से साथ
जोड़ लेते हैं।
बहुत सजग होना;
क्योंकि
मुर्दे का बड़ा
आकर्षण है; क्योंकि
मुर्दा
प्राचीन है, उसकी परंपरा
है।
अगर
मैं कुछ कहता
हूं तो नयी
बात होगी। मुझ
पर भरोसा करने
में खतरा भी
हो सकता है; यह आदमी कुछ
जाना-माना तो
नहीं है।
महावीर की बात
में भरोसा
करना आसान
होता है; पच्चीस
सौ साल से
जानी-मानी बात
है। अगर गलत होता
तो पच्चीस सौ
साल तक
हजारों-लाखों
लोग इसे मानते
क्यों? जब
इतने लोग
मानते हैं, तो ठीक ही
मानते होंगे।
फिर शास्त्र
गवाह होंगे कि
ठीक है; परंपरा
गवाह होगी कि
ठीक है; लंबी
धारा जो लोगों
ने अनुकरण की
पैदा की है, वह गवाह
होगी कि ठीक
है। मेरी बात
तो तुम्हें सीधी-सीधी
स्वीकार करनी
होगी, बिना
किसी परंपरा
के। बड़ी
हिम्मत चाहिए!
हां, पच्चीस
सौ साल बाद
मेरी बात भी
इतनी ही आसान
हो जायेगी। तब
मेरे माननेवाले
फिर धर्म के
विपरीत खड़े हो
जायेंगे।
जो
अतीत को पकड़ता
है, वह हमेशा
धर्म का
दुश्मन है।
क्योंकि धर्म
तो सदा नित
नूतन है, नया
है, अभी है,
ताजा
है--अभी खिलते
फूल की भांति!
धर्म तो सदा खिलता
हुआ फूल है!
जिसको तुम
धर्म कहते हो,
वह तो
मुर्दा फूलों
का निचोड़ा
हुआ इत्र है।
फूल तो कभी के
खो गये। उनका
खिलना तो कभी
का बंद हो
गया। फूल तो
बचे भी नहीं, लेकिन तुमने
मुर्दा फूलों
का लहू निचोड़
लिया है। उसको
पकड़कर
तुम बैठे हो।
और तुमने
निश्चित ही
अपने मतलब से निचोड़
लिया है।
एक
आदमी जुआरी है, बड़ा जुआरी
है! सब गंवा
दिया है। एक
रात घर लौटा देर
से। जूआ खेलकर
ही लौटा था।
पत्नी नाराज
थी। उसने कहा,
"तुम फिर
पहुंच गये
जुआ-घर! अब बचा
क्या है?' उसने
कहा, "जुआ-घर
नहीं गया था, महाभारत हो
रही थी रास्ते
में, वहां
बैठकर सुन रहा
था। रास्ते से
निकला, वहां
महाभारत हो
रही थी, वह
देखता आया था।'
कुछ और
बहाना न मिला
तो यही उसने
कह दिया। पत्नी
ने कहा, "मैं
मान नहीं सकती,
तुम और
महाभारत
सुनने गये!
तुम्हारे
कपड़े से, तुम्हारे
चेहरे से
जुए-घर की बास
आती है।'
उसने
कहा, "सुन
देवी! और वहां
मैंने यह भी
सुना महाभारत
में कि
युधिष्ठिर
खुद जुआ खेलते
थे। धर्मराज!
और जुआ खेलते
थे। तू मेरे
पीछे नाहक पड़ी
है। इससे साफ
सिद्ध होता है
कि जुआ एक
धार्मिक
कृत्य है--युधिष्ठिर
खेलते थे और
धर्मराज थे।'
पत्नी
ने कहा, "तो
फिर ठीक है।
तो सोच राखिओ,
कि द्रौपदी
के पांच पति
थे।'
लोग
अपने मतलब की
बातें निकाल
रहे हैं। तुम
जो धर्म खड़ा
कर लेते हो, वह तुम्हारा
मतलब है। तुम
बड़े चालाक हो,
होशियार हो,
बड़े कुशल
हो--अपने को
धोखा देने
में।
जब कोई
जीवित गुरु
होता है, महावीर
जब जिंदा होते
हैं, तब तो
तुम धोखा नहीं
दे सकते।
क्योंकि
महावीर जगह-जगह
कहेंगे, "गलत!
यह मैंने कहा
नहीं। यह
तुमने सुन
लिया होगा।' जब महावीर
जा चुके, फिर
कोई कहने वाला
न रहा; फिर
तुम्हें जो
कहना है, तुम्हें
जो मानना है, उसे तुम
बनाये चले जाओ,
माने चले
जाओ।
एक
मित्र ने पूछा
है कि क्या
जैन धर्म में
चौबीस ही
तीर्थंकर हो
सकते हैं, ज्यादा नहीं?
सभी
धर्म अपने
दरवाजे बंद कर
लेते हैं
देर-अबेर।
क्योंकि अगर
दरवाजा खुला
रहे तो धर्म
पुराना कभी भी
न हो पायेगा।
और अगर दरवाजा
खुला रहे तो
धर्म संज्ञा
कभी न बन
पायेगा, क्रिया
ही बना रहेगा।
तो इतने तूफान
और उथल-पुथल
होते रहेंगे
कि तुम कभी
आश्वस्त न हो
पाओगे। तो सभी
धर्म अपने
दरवाजे बंद कर
लेते हैं; कोई
देर, कोई
अबेर। और जब
दरवाजे बंद
करते हैं, तब
याद रखना, ऐसी
घड़ी में करते
हैं जब उनका
सबसे ऊंचा
शिखर आ जाता
है। महावीर पर
जैन दृष्टि ने
सबसे ऊंचे
शिखर को छू
लिया। बस, फिर
पीछे चलनेवालों
को लगा कि अब
दरवाजे बंद कर
दो। अब बहुत
हो चुका। सबसे
ऊंचा शिखर छू
लिया--अब
दरवाजे बंद!
अब कोई
तीर्थंकर न
होगा। क्योंकि
तीर्थंकर और
होते रहेंगे,
इसका अर्थ
है कि
नित-नूतन धर्म
होता रहेगा।
कोई नया
तीर्थंकर नयी
बात कहेगा।
महावीर ने भी
बहुत-सी नयी
बातें कहीं, जो पार्श्वनाथ
ने न कही थीं।
महावीर ने
बहुत-सी बातें
नयी कहीं, जो
आदिनाथ ने न
कही थीं। और
अब तो मजा यह
है कि जो
महावीर ने कहा,
उसी के आधार
पर हम सोचते
हैं कि ऋषभ ने,
आदि ने, नेमी
ने क्या कहा
होगा। अब तो
महावीर
प्रमाण हो
गये। अंतिम
प्रमाण हो
जाता है, वह
सबको रंग देता
है। लेकिन
महावीर ने कुछ
बातें कही हैं,
जो निश्चित
ही ऋषभ ने
नहीं कही
होंगी। कारण
भी साफ है।
वेद
हिंदुओं के ग्रंथ
हैं। ऋषभ का
बड़े सम्मान से
उल्लेख करते हैं।
लेकिन महावीर
का किसी
हिंदू-ग्रंथ
ने उल्लेख
नहीं किया।
ऋषभ में अड़चन
मालूम न हुई
होगी; कोई
बहुत
क्रांतिकारी
व्यक्ति न रहे
होंगे। तो वेद
भी उनका
उल्लेख करता
है--सम्मान से,
बड़े सम्मान
से। लेकिन
महावीर की बात
भी नहीं
उठाता।
महावीर की बात
भी कोई
हिंदू-शास्त्र
में नहीं है।
महावीर के अगर
माननेवाले
न हों, तो
महावीर का कोई
प्रमाण भी
नहीं रह
जायेगा। क्योंकि
हिंदू-धर्म के
ग्रंथों ने
कोई उल्लेख नहीं
किया। महावीर
निश्चित ही
बड़े खतरनाक रहे
होंगे। इस
आदमी की बात
भी उठानी खतरनाक
थी। बुद्ध से
ज्यादा
खतरनाक रहे
होंगे, क्योंकि
बुद्ध को तो
हिंदुओं ने
बाद में धीरे-धीरे
अपना एक अवतार
स्वीकार कर
लिया। लेकिन महावीर
का तो नाम भी
उल्लेख न
किया। इस आदमी
का नाम भी
खतरनाक रहा
होगा। यह आदमी
खतरनाक था!
तुम
जरा थोड़ा
सोचो! जैन
धर्म ने अपनी
आखिरी
क्रांति छू
ली। फिर पीछे
चलनेवाला
अनुयायी घबड़ा
गया कि अब
बहुत हो चुका; अब
द्वार-दरवाजा
बंद करो; अब
कहो कि अब और
कोई तीर्थंकर
न होगा।
अन्यथा तीर्थंकर
आते रहेंगे।
अन्यथा
नये-नये उन्मेष,
नयी-नयी
क्रांतियां--तो
हम ठहरेंगे
कहां? रोज
कोई आयेगा और
पुराने भवन को
गिरायेगा
और नये बनाने
की योजना
रखेगा, तो
भवन बनेगा कब?
मुहम्मद
के साथ
मुसलमानों ने
अपने दरवाजे
बंद कर लिये।
मुहम्मद के
साथ ही इस्लाम
ने अपनी आखिरी
ऊंचाई छू ली।
मुहम्मद पहले
और आखिरी तीर्थंकर
हैं इस्लाम
के। पहले और
आखिरी पैगंबर।
फिर इस्लाम ने
इतनी भी हिम्मत
न की, जितनी
हिम्मत
जैनियों ने की
थी, कम से
कम चौबीस को
तो बरदाश्त
किया!
मुसलमानों ने
इतनी भी
हिम्मत न की; बड़ा कमजोर
धर्म साबित
हुआ। दरवाजे
बंद कर लिये।
ईसाइयों ने भी
यही किया, दरवाजे
बंद कर लिये।
अब कोई नहीं
होगा। आखिरी पैगाम
आ गया
परमात्मा का,
अब इसमें कोई
तरमीम न होगी,
कोई सुधार न
होगा, कोई
संशोधन न
होगा।
जिंदगी
रोज चली जाती
है, तुम्हारे
धर्म कहीं न
कहीं रुक जाते
हैं। जो धर्म
जिंदगी के साथ
नहीं चलता, वह अधर्म हो
जाता है।
तो मैं
तो तुमसे कहता
हूं, प्रतिपल
तीर्थंकर
होंगे, प्रतिपल
पैगंबर
होंगे। और
तुम्हें अब जब
भी कभी मौका
मिले और
तुम्हें दो
पैगंबरों के
बीच में चुनना
हो, तो नये
को चुनना, पुराने
को मत चुनना।
क्योंकि
पुराने को
चुनने में तुम
अपने को
चुनोगे। नये
को चुनने में
तुम अपने को छोड़ोगे तो
ही चुन सकोगे।
जब तुम पुराने
को चुनते हो तो
तुम अपने को
ही चुनते हो, क्योंकि
पुराने के साथ
तो तुम
आत्मसात हो
गये हो। तुमने
पुराने को तो
पिघला लिया
है। तुमने पुराने
को तो अपने ही
ढंग का बना
लिया है। तुमने
तो पुराने में
काफी तरमीम और
कांट-छांट कर ली
है। पुराने से
तुम्हें कोई
खतरा नहीं रहा
है; नया
फिर तुम्हें
डगमगाता है, फिर
तुम्हारी
जड़ें उखाड़ता
है, फिर
तुम्हें
जलाता है, फिर
अग्नि में
फेंकता है। जब
भी चुनना हो
तो नये को
चुनना।
एक
और मित्र ने
पूछा है कि आप
कहते हैं, धर्म परंपरा
नहीं है; लेकिन
क्या परंपरा
की जरूरत नहीं
है? क्या
परंपरा से
हानि ही हानि
हुई कि कुछ
लाभ भी...?
यह
मैंने कहा
नहीं कि
परंपरा की
जरूरत नहीं
है। अगर
तुम्हें जड़
रहना हो, परंपरा
की बड़ी जरूरत
है। अगर
तुम्हें
मुर्दा रहना
हो, तो
परंपरा औषधि
है। अगर
तुम्हें
रूपांतरित न होना
हो तो परंपरा
बड़ी सुरक्षा
है। कायरों के
लिए, कमजोरों के लिए, परंपरा
शरण-स्थल है।
बड़ी जरूरत है,
क्योंकि
कायर हैं
दुनिया में।
आखिर उनके लिए
भी तो कोई जगह
होनी चाहिए। आत्महीन
लोग हैं
दुनिया
में--आखिर
उनके लिए भी
तो कोई सहारा
होना चाहिए!
आत्मवंचक हैं
दुनिया
में--आखिर
उनको भी तो
कोई उपाय होना
चाहिए कि अपने
को धोखा दे
लें! परंपरा
की बड़ी जरूरत
है।
मैंने
नहीं कहा कि
जरूरत नहीं
है! जरूरत न
होती तो
परंपरा होती
ही न। है, जरूरत
होगी कहीं!
कहीं बड़ी
जरूरत होगी, क्योंकि
इतने
महापुरुष हुए,
जिन्होंने
परंपरा को
तोड़ने की
हजार-हजार कोशिशें
की, परंपरा
नहीं टूटती।
महावीर कोशिश
करते, बुद्ध
कोशिश करते, कृष्ण कोशिश
करते, क्राइस्ट
कोशिश
करते--परंपरा
तोड़ने की; कुछ
नहीं होता, परंपरा नहीं
टूटती। लोग
इन्हीं को छोड़
देते हैं, परंपरा
को नहीं
छोड़ते। या
इन्हीं को
परंपरा में
आत्मसात कर
लेते हैं, लेकिन
परंपरा को
नहीं छोड़ते।
वे इन्हीं को
परंपरा में
रंग देते हैं।
वे कहते हैं, हम तुम्हारी
भी पूजा
करेंगे, लेकिन
हमें बख्शो।
हमें परेशान
मत करो! तुम भी
परंपरा के
हिस्से बन
जाओ। और
तुम्हारे लिए
भी हमारे
मंदिर में जगह
है। तुम्हारी
प्रतिमा भी रख
देंगे। तुम ज्यादा
शोरगुल न मचाओ।
तुम भी
स्वीकार!
परंपरा
की जरूरत जरूर
होगी, अन्यथा
टूट गयी होती
परंपरा। बहुत
थोड़े-से लोग, बड़े
हिम्मतवर, जिंदादिल
लोग, बिना
परंपरा के
जीते हैं।
क्योंकि बिना
परंपरा के
जीने का अर्थ
होता है:
जागरण से
जीना। तब तुम्हें
प्रतिपल अपना
जीवन-निर्णय
करना होगा।
परंपरा बड़ी
सुविधापूर्ण
है, बड़ी सुरक्षापूर्ण
है। तुम्हें
कुछ तय नहीं
करना होता।
परंपरा ने तय
कर दिया है, तुम चुपचाप
अंधे की तरह
अनुसरण किये
चले जाते हो।
सब लिखा है
किताब में, नक्शे हाथ
में हैं--तुम
उनका अनुसरण
कर लेते हो।
परंपरा
मार्गदर्शक
जैसी है। वह
तुम्हें बताये
चली जाती है।
तुम कभी गये?
कल एक
मित्र ने
संन्यास
लिया। वे
खजुराहो में
मार्गदर्शक
हैं। खजुराहो
के मंदिर-मूर्तियों
को, आए
यात्रियों को,
अतिथियों
को समझाते हैं,
दिखाते
हैं। अगर तुम
खजुराहो के
मंदिर में बिना
किसी
मार्गदर्शक
के जाओ तो बड़ी
अड़चन होगी। वर्षों
लग जायेंगे।
क्योंकि
तुम्हें एक-एक
चीज की खुद ही
खोजबीन करनी
होगी। तुम्हें
एक-एक मूर्ति
को भर आंख
स्वयं देखना
होगा।
तुम्हें एक-एक
मूर्ति पर
स्वयं ध्यान
करना होगा।
तभी शायद तुम
थोड़ा-सा रहस्य,
थोड़ा-सा राज
इकट्ठा कर
पाओगे। सस्ता
उपाय है, तुम
मार्गदर्शक
को साथ ले
लेते हो, वह
बताये चला
जाता है कि यह
मूर्ति कितनी
पुरानी है, किसने बनाई,
कब बनाई
इसका क्या
इतिहास है।
तुम भी बहरे
की भांति
सुनते चले
जाते हो, अंधे
की भांति देखे
चले जाते हो।
घंटे दो घंटे
में सब मंदिर
देख डाले--चले
आये। जिन
मंदिरों को
बनने में
सदियां लगीं,
जिन
मूर्तियों पर
हजारों लोगों
के जीवन निछावर
हुए तब बनीं, तुम उनको
घड़ी भर में निपटाकर
घर आ जाते हो, कहते हो, "खजुराहो हो
आये हैं। अजंता
देख डाला। ऐलोरा
घूम आये।' सारी
पृथ्वी का
चक्कर लगा
लेते हो।
अगर
तुम अपने ही
हिसाब से चलो
तो बड़ी
मुश्किल होगी।
और यह कोई
जिंदगी
मूर्तियों का, मंदिरों का
हिसाब नहीं
है। यहां
एक-एक पल तुम्हें
अपना निर्णय
लेना पड़ेगा, अगर
तुम्हारे पास
कोई परंपरा न
हो। किसी ने
गाली दी, अब
क्या करना? तुम्हें खुद
ही जागकर
प्रतिध्वनि
करनी होगी।
कोई परंपरा
नहीं है। तुम
परंपरा में
मानते नहीं
हो। न तुम
किसी और की
बनाई परंपरा
में मानते हो,
न अपनी बनाई
हुई लीक को
मानते
हो--क्योंकि
कल किसी ने
गाली दी थी, तुमने क्रोध
किया था; परसों
भी किसी ने
गाली दी थी, तुमने क्रोध
किया
था--क्रोध
तुम्हारी
परंपरा है। आज
फिर कोई गाली
देता है, तुम
परंपरा की सुनोगे
या आज तुम जागकर
इस गाली को
समझोगे और तय
करोगे, क्या
करूं? परंपरा
के आधार पर नहीं--होश
के आधार पर।
बीते कल के
आधार पर
नहीं--आज के, इस क्षण के
आघात के आधार
पर। यह जो
प्रत्याघात
अभी हुआ है, इसको तुम
सीधा-सीधा
दर्पण की तरह
लोगे? इसका
उत्तर दोगे? कठिन होगा।
तब तो प्रतिपल
तुम्हारी
जिंदगी लहरों
में होगी, तूफानों में होगी, आंधियों में होगी।
कुछ तय न हो
पायेगा। कुछ
बंधी लकीरें न
होंगी। कुछ
पिटी लकीरें न
होंगी। राज-पथ
न होगा, पगडंडियां
होंगी।
तुम्हीं को
बनाना पड़ेंगी।
लोग
सस्ता रास्ता
चुनते हैं।
परंपरा को मान
लेते हैं। ठीक
है, परंपरा
की जरूरत है; क्योंकि
दुनिया में
कायर हैं।
दुनिया में बड़े
कमजोर दीनऱ्हीन
लोग हैं।
दुनिया में
ऐसे लोग हैं
जो अपनी चेतना
पर भरोसा नहीं
कर सकते।
दुनिया में
ऐसे लोग हैं
जिनकी
श्रद्धा जीवन
में नहीं है, मृत्यु में
है; जो मर
जाओ, तभी
भरोसा करते
हैं।
तुमने
कभी खयाल
किया! गांव
में कोई मर
जाता है, फिर
उसके खिलाफ
कोई भी नहीं बोलता।
सभी कहते हैं:
"स्वर्गीय हो
गये।' पूरा
गांव उनके
खिलाफ रहा हो
भला, और
सभी जानते हैं
कि अगर नर्क
कहीं है तो वे
निश्चित
पहुंच गये; या अगर कहीं
स्वर्ग है और
ये पहुंच गये
तो नर्क बनाकर
छोड़ेंगे--मगर
कहते हैं, स्वर्गीय
हो गये!
मुर्दा
जब कोई हो
जाता है, तो
तुम देखते हो,
कैसी लोग
स्तुति करते
हैं, उसके
गुणगान करते
हैं कि बड़े
महापुरुष थे,
अंधेरा छा
गया, दीया
बुझ गया; यह
पूर्ति अब कभी
हो न सकेगी जो
जगह खाली हुई!
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक मित्र
को फोन किया।
पत्नी फोन पर
आयी। मुल्ला
ने घबड़ाकर
पूछा कि "कहां
हैं, पति कहां
हैं?' उसने
कहा, "ऐसे
क्या घबड़ा रहे
हो? क्या
मामला है? स्नानगृह
में स्नान
करते हैं।' मुल्ला ने
कहा, "फिर
ठीक। क्योंकि
गांव में कई
लोगों से
मैंने उनकी
प्रशंसा सुनी
है, मैंने
समझा कि मर
गये।'
क्योंकि
बिना मरे तो
कोई किसी की
प्रशंसा करता
ही नहीं है।
जिंदा की
निंदा है, मुर्दे की
प्रशंसा है।
क्योंकि
मुर्दे के साथ
तुम अपना
समझौता कर
लेते हो।
जिंदा
के साथ समझौता
नहीं कर पाते।
तुम यह
मत सोचना कि
महावीर और
बुद्ध की तुम
जो इतनी
प्रशंसा करते
हो, वह कोई
धर्म की
प्रशंसा
है--वह मुर्दा,
मृत्यु की
प्रशंसा है।
जब जीवित थे
तो तुम्हीं ने
इन पर पत्थर
फेंके। तुम जब
कहानी पढ़ते हो
कि किसी ने
महावीर के
कानों में खीले
ठोक दिये, तुमने
कभी सोचा कि
यह तुम भी हो
सकते हो जिसने
खीले
ठोके हों? तुमने
कभी फिर से
सोचा कि अगर
महावीर आज आ
जायें और
बाजार में
तुम्हें मिल
जायें, तो
तुम क्या व्यवहार
करोगे? अगर
नंग-धड़ंग
"ब्लू डायमंड
होटल' के
सामने खड़े हुए
मिल जायें, तो तुम क्या
व्यवहार
करोगे और कोई
बतानेवाला न
हो कि ये
महावीर हैं? तो पहला तो
काम, तुम
पुलिस में
इत्तला
करोगे। तुम
सम्मान करोगे?
तुम झुककर
पैर छुओगे?
हां, अगर
कोई कह दे कि
महावीर हैं, भगवान
महावीर आ गये,
तो शायद झुक
भी जाओ, क्योंकि
भगवान महावीर
शब्द के साथ
तुम्हारा बड़ा
लगाव बन गया
है। वह तो कोई
और भी खड़ा हो
जाये...।
जैसे
देखा, रामलीला
होती है, कोई
आदमी राम बन
जाता है, तो
लोग उसके पैर
छूते हैं!
क्या अंधापन
है! जानते हैं
भलीभांति, गांव
का छोकरा है।
लेकिन उसके
पैर छूते हैं।
राम-नाम की
ऐसी ग्रंथि
बंध गई है।
नाटक में राम
बना है, तो
भी पैर छूते
हैं, फूल चढ़ाते हैं,
शोभाऱ्यात्रा निकलती है।
अंधापन कैसा
गहरा है!
मेरे
पास लोग आते
हैं। अब जैसे
कि मैं
जिन-सूत्र पर
बोल रहा हूं, तो जैन आ गये
हैं। मैं जो
बोल रहा हूं
वही बोल रहा
हूं; न
मुझे
जिन-सूत्र से
कुछ लेना है, न शिव-सूत्र
से कुछ लेना
है। मैं
शिव-सूत्र में
भी यही बोलता
हूं, मगर
तब जैन नहीं
आते:
"शिव-सूत्र है,
अपने को
क्या
लेना-देना है!'
हिंदू आते
हैं, वे
कहते हैं, "महाराज!
गीता पर फिर
कब बोलेंगे?' गीता ही बोल
रहा हूं। उसी
के गीत गा रहा
हूं। मगर नहीं,
शब्द की पकड़
है। बस शब्द
की पकड़ है।
लकीरों की पकड़
है। तुम्हें
अगर मैं हीरा
भी दूं और
कहूं कंकड़-पत्थर
है, तो तुम
कहते हो, क्या
करेंगे! और
मैं तुम्हें कंकड़-पत्थर
भी दूं और
कहूं हीरा है,
तो तुम कहते
हो, लायें सम्हालकर
रख लें!
तुम
शब्दों से
जीते हो? शब्द
सत्य हैं? शब्दों
से थोड़ा जागो।
शब्दों की
परंपरा होती
है, सत्यों
की कोई परंपरा
नहीं।
और
पूछते हो, "क्या हानि
ही हानि हुई, या लाभ भी
हुआ?'
दुकानदारी
कब मिटेगी
तुम्हारी? तुम
हानि-लाभ का
ही हिसाब करते
रहोगे? धर्म
का कोई संबंध
हानि-लाभ से
नहीं है। धर्म
का संबंध
दोनों के
त्याग से है।
हानि भी नहीं,
लाभ भी
नहीं।
क्योंकि लाभ
के पीछे हानि
छिपी है, हानि
के पीछे लाभ
छिपा है--वे एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
धर्म
का संबंध उस
परम जागरण से
है, जहां तुम
कहते हो, अब
न हानि की कोई चिंता
है, न लाभ
की कोई
आकांक्षा है।
धर्म से कोई
हानि-लाभ थोड़े
ही होता है।
धर्म से तो
तुम हानि-लाभ
से मुक्त होते
हो। वह चिंताधारा
ही गलत है।
अगर उस चिंताधारा
से चले, तो
जो तुम्हारी
मर्जी, वही
तुम खोज लोगे।
अगर तुम्हें
हानि खोजनी है
तो परंपरा की
हानि खोज लोगे।
अगर तुम्हें
लाभ खोजने हैं,
तुम लाभ खोज
लोगे।
एक
आदमी ने एक
किताब लिखी
है। पश्चिम के
मुल्कों में
तेरह का आंकड़ा
बुरा समझा
जाता है। तो
बड़ी होटलों
में तेरहवीं
मंजिल ही नहीं
होती, क्योंकि
वहां कोई
ठहरता नहीं
तेरहवीं
मंजिल पर।
बारहवीं
मंजिल के बाद
सीधी चौदहवीं
होती है।
चौदहवीं कहने
से हल हो जाता
है, है वह
तेरहवीं; मगर
चौदहवीं कह दी
तो उतरनेवाले
को क्या फिक्र
है! लेकिन
तेरहवीं कहो
तो कोई उतरने
को राजी नहीं।
तेरह नंबर का
कमरा नहीं होता।
तेरह तारीख को
लोग यात्रा
करने नहीं
जाते। तो एक
आदमी ने बड़ी
किताब लिखी
है। उसने सारे
आंकड़े इकट्ठे
किये हैं कि
तेरह निश्चित
ही खतरनाक आंकड़ा
है। तेरह
तारीख को
कितने युद्ध
शुरू हुए, उसने
सब हिसाब
बनाया है।
तेरह तारीख को
कितनी कार-दुर्घटनाएं
होती हैं; तेरह
तारीख को
कितने लोग
कैंसर से मरते
हैं; तेरह
तारीख को
कितने तलाक
होते
हैं--तेरह तारीख,
तेरहवीं
मंजिल, तेरह
का जहां-जहां
संबंध है, उसने
बड़े हजारों
आंकड़े इकट्ठे
किये हैं।
कोई
मित्र मुझे
दिखाने लाया
था, वह भी बड़ा
प्रभावित था।
उसने कहा कि
देखो, अब
तो तथ्य सामने
हैं। मैंने
उससे कहा, तू
चौदह तारीख की
खोज कर, इतने
ही तथ्य, चौदह
तारीख में भी
मिल जायेंगे।
चौदह को भी
लोग मरते हैं।
चौदह को भी
कार-दुर्घटनाएं
होती हैं। और
चौदहवीं
मंजिल से भी
लोग गिरते हैं।
तू कोई भी
तारीख के पीछे
पड़ जा। जिंदगी
इतनी बड़ी है, तुम कोई भी
पक्ष तय कर लो,
तुम्हें
प्रमाण मिल
जायेंगे।
इसलिए
सत्य की खोज
पर जो निकलता
है, उसे पहले
से पक्ष लेकर
नहीं चलना
चाहिए। नहीं तो
वह जो खोज रहा
है, खोज
लेगा। यही तो
बड़े से बड़ा
खतरा है जगत
में कि तुम जो
खोजना चाहते
हो खोज ही
लोगे। तुम अपनी
मान्यता को
सिद्ध कर
लोगे। सत्य के
खोजी को कोई
मान्यता नहीं
होनी चाहिए।
उसे तो खुली
आंख रखनी
चाहिए--निष्पक्ष,
निर्दोष--तो
तथ्य का दर्शन
होता है।
परंपरा
के लाभ भी हैं, हानियां भी
हैं। लेकिन
धर्म परंपरा
नहीं है। और
हानि-लाभ से
धर्म का कोई
संबंध नहीं
है।
तुम्हें
हानि-लाभ में
रहना हो, धर्म
से बचना, सावधान
रहना।
तुम्हें
हानि-लाभ से
ऊपर उठना हो, तो धर्म के
द्वार पर
दस्तक देना।
और धर्म के
द्वार पर
दस्तक देनी हो,
परंपरा को
वहीं छोड़ आना
जहां जूते
उतार आते हो।
अगर
परंपरा को
लेकर धर्म के
मंदिर में आये
तो तुम धर्म
के मंदिर में
कभी आओगे ही
नहीं; तुम्हारी
परंपरा
तुम्हें घेरे
रहेगी। तुम आओगे
भी और नहीं भी
आ पाओगे।
धर्म के
जगत में जिसे
जाना हो उसे
महावीर जैसा
दिगंबर होना
चाहिए--परिपूर्ण
नग्न, सारे
आवरणों से
मुक्त।
लेकिन
बुद्धिमान
आदमी हानि-लाभ
की सोचता है। बुद्धि
का ही धर्म से
कुछ लेना-देना
नहीं है।
तेरे
सीने में दम
है, दिल नहीं
है
तेरा
दिल गर्मि-ए-महफिल
नहीं है
गुजर
जा अक्ल से
आगे कि यह नूर
चिरागे-राह
है, मंजिल
नहीं है।
यह जो
बुद्धि का
छोटा-सा
टिमटिमाता
दीया है, "चिरागे-राह
है', राह पर
इसका थोड़ा
उपयोग कर लो।
चिरागे-राह है,
मंजिल नहीं
है। इस बुद्धि
के दीये को
आखिरी मंजिल
मत समझ लेना।
यह टिमटिमाता
दीया, इस
पर ही उलझ मत
जाना। यह
हानि-लाभ का
विचार, शुभ-अशुभ
का विचार, स्वर्ग-नर्क
का हिसाब, यह
गणित
बिठाना--अगर
इसमें ही लगे
रहे तो तुम धीरे-धीरे
पाओगे कि
खोपड़ी तो
तुम्हारी बड़ी
होती जाती है,
हृदय सिकुड़ता
जाता है। धर्म
का संबंध हृदय
से है, बुद्धि
से नहीं, सोच-विचार
से नहीं। गहन
भाव की दशा है
धर्म।
तेरे
सीने में दम
है, दिल नहीं
है
तेरे
सीने में दम
है, दिल नहीं
है
तेरा
दिल गर्मि-ए-महफिल
नहीं है
गुजर
जा अक्ल से
आगे कि यह नूर
चिरागे-राह
है, महफिल
नहीं है।
ध्यान
हम कहते ही
उसे हैं जहां
तुम इस
चिरागे-राह को
फूंककर
आगे निकल जाते
हो। इसलिए तो
बुद्ध और
महावीर ने उसे
"निर्वाण' कहा है।
निर्वाण शब्द
का शाब्दिक
अर्थ होता है:
दीये को बुझा
देना। जब सारे
दीये बुझा
देते हैं तो
निर्वाण है।
अब बड़े
मजे की बात है, जैन दीवाली
मनाते हैं; क्योंकि उस
रात महावीर का
निर्वाण हुआ।
और दीये जलाते
हैं। उस रात
तो सब दीये
बुझा दो, पागलो!
निर्वाण का
अर्थ होता है:
दीये बुझा दो।
जैन दीवाली पर
दीये जलाते
हैं--खुशी में
कि महावीर का
निर्वाण हुआ।
लेकिन
निर्वाण शब्द
का अर्थ होता
है: दीये बुझा
दो। ये बुद्धि
के, हिसाब
के, किताब
के दीये बुझा
दो। ये तर्क
के, विचार
के दीये बुझा
दो। उस गहन
मौन और शून्य
और शांत
अंधेरे में खो
जाओ, जो
तुम्हारा
स्वभाव है।
महावीर
ने भी खूब रात
चुनी--अमावस
की रात--मुक्त
होने को।
पूर्णिमा
चुनते तो कुछ
हिसाब-किताब
समझ में आता।
अमावस की रात!
लेकिन ठीक
चुनी। ऐसा ही
गहन स्वभाव
है। गहन
अंधकार, शांत,
असीम!
प्रकाश में तो
थोड़ी
उत्तेजना है।
इसलिए तो
प्रकाश जलता
हो कमरे में
तो सोना
मुश्किल हो
जाता है। आंखें
उत्तेजित
रहती हैं।
इसलिए तो दिन
में नींद
मुश्किल होती
है। रात नींद
के लिए है।
दीये भी बुझा
देते हैं। सब
उत्तेजना खो
जाती है।
कभी
तुमने खयाल
किया, प्रकाश
को जलाओ तो है,
बुझाओ तो मिट जाता
है! अंधेरा
सदा है, शाश्वत
है। अंधेरा
सत्य के संबंध
में बड़ी गहरी
खबर देता है।
और अंधेरे में
बड़ी गहन शांति
है। तुम्हें
डर लगता है, यह दूसरी
बात है। ध्यान
में सभी को डर
लगता है, समाधि
में सभी को डर
लगता है।
तुम्हें डर
लगता है, इस
कारण तुम दीये
को पकड़ लो, यह
दूसरी बात है।
लेकिन महावीर
तो कहते हैं, जो अभय को
उपलब्ध हुआ, वही उस गहन आत्मभाव
में प्रवेश
करता है। वह
जो भीतर का
शून्य है, वहां
तो सब ये
चिराग, ये
दीये, ये
हिसाब-किताब,
ये तर्क, ये प्रमाण, ये शास्त्र,
ये
परंपराएं, सब
छोड़कर जाना
पड़ता है।
जिसकी हिम्मत
हो अंधेरे में
जाने की, वही
आये। जिसकी
हिम्मत हो
जीते-जी
मृत्यु में प्रवेश
की, वही
आये। क्योंकि
समाधि जीते-जी
मृत्यु का स्वेच्छा
से वरण है।
इसीलिए तो हम
साधु की कब्र को
भी समाधि कहते
हैं। सभी की
कब्र को समाधि
नहीं कहते, लेकिन जिसने
अपने भीतर
समाधि अनुभव
कर ली हो, उसकी
मृत्यु को भी
हम समाधि कहते
हैं। दोनों एक
हैं।
ये जो
चार पर्तें
मैंने
तुम्हें बताईं, जब ये मर
जाती हैं, तब
तुम शून्य में
प्रवेश करते
हो। तुम वहीं
पहुंच जाते हो
जहां तुम जन्म
के पहले थे।
और यह
पहुंचना
प्रक्रिया
है। यह
पहुंचना संज्ञा
नहीं है।
जिंदगानी
है फकत गर्मि-ए-रफ्तार
का नाम
मंजिलें
साथ लिये राह
पे चलते रहना।
मंजिल
कहीं ऐसी दूर
नहीं है कि
तुम उस तरफ जा
रहे हो।
जिंदगानी
है फकत गर्मि-ए-रफ्तार
का नाम
मंजिलें
साथ लिए राह
पे चलते रहना।
मंजिल
तुम्हारे साथ
ही है, तुम्हारे
चलने में है, तुम्हारी
गति में है।
मंजिल गंतव्य
नहीं है, तुम्हारी
गति की
प्रखरता का
नाम है; तुम्हारी
गति की
तीव्रता, त्वरा
का नाम है। जब
तुम इतने
गतिमान होते
हो कि
तुम्हारे
भीतर केवल
गत्यात्मकता
होती है, कोई
और नहीं होता,
कोई थिर, जड़ वस्तु
नहीं होती, सब प्रवाह
होता है, जब
तुम गंगा होते
हो--तब मंजिल
वहीं मिल गई।
तुम्हारा
होना, अहंकार,
एक जड़ वस्तु
है, पत्थर
की तरह है।
इसे पिघला लो।
इसे जिंदगी की
गर्मी में
पिघल जाने दो।
तुम मिटो
तो ही
तुम्हारा
शून्य प्रगट
हो सकेगा।
महावीर उस
शून्य को
आत्मा कहते
हैं, क्योंकि
वह तुम्हारा
स्वभाव है।
ध्यान
रखना, दृष्टि
की सारी बात
है।
साहिल
भी एक लय है
अगर कोई सुन
सके
उमड़े
हुए सकूत
से तूफान बन
सके।
दृष्टि
की बात है।
तूफान शांति
बन सकता है, शांति तूफान
बन सकती है।
तुम्हारी
दृष्टि की बात
है। तुम अगर
शांति से
तूफान को देखो
तो तूफान भी
एक अदभुत लयबद्धता
है। और अगर
तुम अशांति से
शांति को भी
देखो, तो
शांति भी खो
जाती है और
केवल एक
बेचैनी और एक
उन्माद रह
जाता है।
यह जो
जिंदगी का
प्रवाह है, इसे तुम
दुश्मन की तरह
मत देखो, और
इससे लड़ो
मत। लड़ने से
तुम्हारा
अहंकार और
मजबूत होता चला
जायेगा। इसके
साथ बहो। इसे
होने दो। इसे
स्वीकार करो।
इसके सत्य को
स्वीकार करो
और अपने सत्य
को स्वीकार
करो। और जब
दोनों सत्य
मिलते
हैं--तुम्हारे
भीतर का सत्य,
प्रवाहमान;
और
तुम्हारे
बाहर का सत्य,
प्रवाहमान--जब
इन दोनों प्रवाहों
का मिलन होता
है, उस
मिलन का नाम
ही समाधि है।
उस आलिंगन का
नाम ही समाधि
है।
और इस
प्रश्न का
दूसरा हिस्सा
है: "और क्या
क्रिया का समय
से कोई संबंध
नहीं है?'
जब तुम
परिपूर्ण
क्रिया में
होते हो, समय
मिट जाता है।
जब तुम किसी
भी क्रिया में
पूरे लीन होते
हो, समय
मिट जाता है।
एक चित्रकार
चित्र बना रहा
है; जब वह
पूरा-पूरा
डूबा होता है
तो समय मिट
जाता है। नहीं
कि घड़ी ठहर
जाती है, घड़ी
चलती रहेगी; घड़ी का समय
कोई असली समय
थोड़े ही है।
लेकिन उस चित्रकार
के लिए सब ठहर
गया। जब कोई
गीतकार गीत
गाता है, और
सिर्फ
प्रदर्शन
नहीं करता, वस्तुतः
गाता है, और
ऐसे ओंठ ही
नहीं हिलाता,
हृदय से
प्रवेश हो
जाता है, तो
समय ठहर जाता
है। जब कोई
नर्तक नाचता
है और नाच ही
हो जाता है, तो समय ठहर
जाता है। जहां
भी क्रिया
परिपूर्ण है,
वहीं समय
ठहर जाता है।
जहां भी
क्रिया
अपूर्ण है, वहीं समय
चलने लगता है।
जहां क्रिया
बहुत अपूर्ण
है, झटके
ले लेकर चलती
है, तुम
चलना भी नहीं
चाहते और चलते
हो, मजबूरी
होती है--वहां
समय लंबा होने
लगता है।
तुमने
कभी खयाल
किया! कोई
प्रेमी घर आ
जाये, घंटा
बीत जाता है, क्षणभर मालूम पड़ता
है। और कोई उबानेवाले
सज्जन घर आ
जायें और
बकवास करें, दो-चार-पांच
मिनट भी ऐसे
लगते हैं जैसे
कि घंटों
लगाये दे रहे
हैं। क्या हो
जाता है? समय
में इतना अंतर
क्यों हो जाता
है?
समय
बड़ा लोचपूर्ण
है। जब तुम
सुख अनुभव
करते हो, समय
छोटा हो जाता
है। तब तुम
मित्र की
बातें सुन रहे
हो, साधारण-सी
बातें हैं, बड़ी मधुसिक्त
हो जाती हैं।
जब कोई आ जाता
है उबानेवाला,
चाहे बातें
वह बड़ी मधुर
कर रहा हो, लेकन
तुम्हें रास
नहीं आता। तो
एक भेद पड़
गया। तुम उस
चर्चा में डूब
नहीं पाते।
चर्चा की
क्रिया गतिमान
नहीं हो पाती,
ठहर-ठहर
जाती है, लंगड़ाती है। तुम
जबर्दस्ती
बार-बार घड़ी
देखते हो, जम्हाई
लेते हो, कोई
तरह इशारा
करते हो कि
भाई देखो, अब
जाओ भी!
अल्बर्ट
आइंस्टीन के
जीवन में
उल्लेख है कि
एक मित्र के
घर गया था।
भुलक्कड़ आदमी
था। बात चलती
रही, भोजन हो
गया। फिर बात
चलती रही।
मित्र बार-बार
घड़ी देखे, जम्हाई
ले। आइंस्टीन
भी बार-बार
घड़ी देखे, जम्हाई
ले; लेकिन
उठे न। आखिर
मित्र ने कहा,
"दो बज रहे
हैं, पत्नी
राह देखती
होगी...।' आइंस्टीन ने
कहा, "मतलब?'
मित्र
ने कहा, "मेरा
मतलब यह है कि
पत्नी राह
देखती होगी...।
वैसे कोई
हर्जा नहीं है,
आप बैठें
और।' आइंस्टीन
घबड़ाकर
खड़ा हो गया।
उसने कहा, "हद्द
हो गई, मैं
तो सोचता था
कि कब आप
जायें तो मैं
सोऊं। मैं तो
यही सोच रहा
था कि मैं
अपने घर में
हूं।'
दोनों
घड़ी देख रहे
हैं, दोनों
जम्हाई ले रहे
हैं। समय बड़ा
लंबा मालूम पड़ता
है।
जब तुम
किसी क्रिया
के साथ लीन
नहीं हो पाते, वही क्रिया,
ठीक वही
क्रिया...।
तुम
नाच रहे
हो--किसी और के
लिए, नाचना
नहीं चाहते, तो समय
रहेगा। तुम
नाच रहे हो
अपने लिए, या
किसी के लिए
जिसके लिए तुम
नाचना चाहते
हो--समय मिट
जायेगा। समय
तनाव है। जहां
तनाव नहीं वहां
समय नहीं।
जहां तुम बेत्तनाव
हो, वहां
समय नहीं; तुम
समयातीत
हो गये, कालातीत
हो गये।
और यही
बात जो समय के
संबंध में सच
है वही बात क्षेत्र
के संबंध में
भी सच है।
टाइम-स्पेस, समय और
क्षेत्र यह
दोनों एक साथ
खो जाते हैं, जब तुम्हारी
लीनता
परिपूर्ण
होती है। भक्त
अपनी भक्ति
में भूल जाता
है--सब भूल
जाता है। भगवान
को भी भूल
जाता है। धुन
रह जाती है।
मस्ती रह जाती
है। ध्यानी
अपने ध्यान
में भूल जाता
है--ध्यान को
भी भूल जाता
है। फिर बस एक
सुवास रह जाती
है। वह सुवास
इस पृथ्वी की
नहीं है। उस सुवास
को न तो समय
घेरता है, न
स्थान घेरता
है। वह सुवास
समय-क्षेत्र
अतीत है।
दिल
की बस्ती अजीब
बस्ती है
लूटनेवाले
को तरसती है
हिम्मत
चाहिए लुटने
की। जहां भी
लुट जाओ, वहीं
से धर्म का
द्वार खुल
जायेगा। वहीं
गुरुद्वारा
है।
इसलिए
इसकी बहुत
फिक्र मत करो
कि कैसे। जो
तुम्हें रास आ
जाये, जो
तुम्हें जम
जाये--भक्ति
तो भक्ति, ज्ञान
तो ज्ञान, कर्म
तो
कर्म--लेकिन
कहीं से भी
ऐसी घड़ी बना
लो, जहां
समय मिट जाये;
जहां तुम
इतने डूब सको,
इतने डूब
सको कि कोई
रेखा तनाव की
न रह जाये--समग्र
मन से, समग्र
तन से। नहीं
तो जिंदगी में
दुख ही दुख होगा,
पीड़ा ही
पीड़ा होगी।
पीड़ा
का अर्थ है:
तनाव की
पर्तें। दुख
का अर्थ है:
परमात्मा से
चूकते जाना।
दुख का अर्थ
है: सत्य से
चूकते जाना।
दुख का
अपने-आप में
कोई अस्तित्व
नहीं है। सत्य
से तुम्हारी
जितनी दूरी है
उतना ही दुख
है।
नारद
उसे ईश्वर
कहते हैं।
महावीर उसे
सत्य कहते
हैं। पर इशारे
उनके एक ही की
तरफ हैं।
हर
तरफ छा रही है
तारीकी
आओ
मिल जुल के जिक्रऱ्यार
करें।
जिनको
उस परमात्मा
का प्रेम की
भाषा में स्मरण
करना हो--आओ
मिल जुल के जिक्रेऱ्यार
करें! चलो उस
परमात्मा की
बात करें, उसका गीत
गायें, उसके
लिए नाचें।
जिन्हें
यह रास न आता
हो, जिन्हें
यह बात कुछ
स्त्रैण लगती
हो, जिन्हें
यह बात जमती न
हो, जिनके
संकल्प को यह
बात बाधा
डालती हो--तो
महावीर कहते
हैं, छोड़ो यह फिक्र, तुम्हारे
लिए भी मार्ग
है। जिस दिन
तुम बने उसी दिन
तुम्हारा
मार्ग भी
तुम्हारे साथ
निर्मित हो
गया है। तुम
अपना मार्ग
अपने साथ लाये
हो। ऐसा कोई
भी नहीं है जो
परमात्मा से
चूके। हां, अगर
तुम्हारी
मर्जी ही
चूकने की हो
तो परमात्मा
बाधा नहीं डाल
सकता। जो
चूकना चाहता
है वही चूकता
है। जिसको
पहुंचना है वह
पहुंच जाता
है।
मैंने
सुना है, एक
शराबी बैठा था
राह के किनारे
और एक आदमी ने कार
रोकी और उसने
कहा कि मुझे
स्टेशन जाना
है, कहां
से जाऊं।
रास्ता भूल
गया हूं।
अजनबी हूं यहां।
शराबी
ने झकझोर कर
अपने को जरा
सजग किया। और
उसने कहा, ऐसा करो, पहले
बायें जाओ--दो फर्लांग।
फिर चौरस्ता
पड़ेगा। फिर
तुम उससे
दायें मुड़ जाना--दो
फर्लांग।
फिर उसने कहा
कि नहीं-नहीं,
यह तो गलत
हो गया। तुम
यहां से दायें
जाओ। चार फर्लांग
के बाद मस्जिद
पड़ेगी। बस
मस्जिद के पास
से तुम बायें
मुड़ जाना।
उसने कहा कि नहीं-नहीं,
यह फिर गलत
हो गया। अब तो
वह अजनबी भी
थोड़ा मुश्किल
में पड़ा कि यह
मामला क्या
है। उसने फिर
कहा कि तुम
ऐसा करो कि
जहां से तुम
आये हो उसी तरफ
लौट जाओ। आठ फर्लांग
के बाद नदी
पड़ेगी, पुल
आयेगा। उसने
कहा, कि
नहीं-नहीं फिर
गलत हो गया।
उस
ड्राइवर ने
कहा, "महानुभाव!
मैं किसी और
से पूछ लूंगा।'
उसने कहा कि
तुम किसी और
से ही पूछ लो
तो अच्छा, क्योंकि
जहां तक मैं
समझता हूं, यहां से
स्टेशन
पहुंचने का
कोई उपाय ही
नहीं है।
जो
जैसा है वहीं
से उपाय है।
जो जहां है
वहीं से उपाय
है। निराश मत
होना। संकल्प
सधे, संकल्प; न सधे, चिंता
मत करना।
साधनों की
बहुत फिक्र मत
करना, साध्य
को स्मरण
रखना। राह की
कौन चिंता
करता है, वाहन
की कौन फिक्र
करता है, बैलगाड़ी से पहुंचे
कि हवाई जहाज
से
पहुंचे--पहुंच
गये। हवाई
जहाज के भी
मजे हैं, बैलगाड़ी के भी मजे
हैं। हवाई
जहाज में समय
बच जाता है, लेकिन बैलगाड़ी
में जो
सौंदर्य का, दोनों तरफ
के रास्तों का
अनुभव होता है,
वह नहीं हो
पाता। बैलगाड़ी
में थोड़ा समय
लगता है, लेकिन
दोनों तरफ
पृथ्वी के
सुहावने
दृश्य उभरते
हैं।
मेरे
एक मित्र हैं, बड़े धनी हैं;
लेकिन चलते
हमेशा
पैसेंजर गाड़ी
से। एक दफा मुझे
उनके साथ चलना
पड़ा। तीन दिन
लग गये
पहुंचने में
जहां एक घंटे
में पहुंच
सकते थे।
मैंने
कहा कि मामला
क्या है। वे
कहने लगे कि मुझे
पसंद ही नहीं
कुछ और। उनके
साथ चला तो
मुझे भी समझ
में आया कि
बात तो वे भी
ठीक कहते हैं।
पैसेंजर गाड़ी
का चलना, हर
स्टेशन पर
ठहरना। और
उनको, वे काफी
यात्रा करते
रहे हैं तो हर
स्टेशन पर उनकी
पहचान है।
कहां के भजिये
अच्छे हैं, कहां की
गुजिया अच्छी
है, कहां
का दूध, कहां
की चाय, कहां
की चाय केसर
मिली है--वह
सारा
हिंदुस्तान
का उनको हिसाब
है। वे कहते
हैं, यह भी
कोई चलना कि
बैठे हवाई
जहाज में, यह
कोई यात्रा
है! इधर बैठे, उधर उतर गये!
यह कोई बात
हुई? चलने
का मजा ही न
रहा।
अपनी-अपनी
मौज है। बैलगाड़ी
का भी मजा है।
हवाई जहाज का
भी मजा है।
संकल्प से भी
पहुंचते हैं
लोग, समर्पण
से भी पहुंचते
हैं लोग।
जैसा
उस शराबी ने
कहा था, यहां
से पहुंचने का
कोई उपाय नहीं
है--मैं भी एक
शराबी हूं, मैं तुमसे
कहता हूं, यहां
से पहुंचने के
सब उपाय हैं।
और जो भी रास्ते
हैं सब उसी की
तरफ जाते हैं।
तुम बायें चलना
चाहते हो तो
बायें से
पहुंचने का
उपाय है। तुम
दायें चलना
चाहते हो तो
दायें से
पहुंचने का
उपाय है। तुम
लौटना चाहते
हो पीछे तो लौटकर
पहुंचने का
उपाय है। तुम
न चलना चाहो
तो खड़े-खड़े
पहुंच जाने का
उपाय है।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
कारण है कि
महावीर का
"जिन' मात्र
जैन बनकर रह
गया?
सदा
ही ऐसा होता
है। महावीर के
ही अनुयायी के
साथ ऐसा हुआ, नहीं; सभी
के साथ ऐसा
होता है। ऐसा
ही होगा।
प्रकृति का
नियम है। जब
महावीर जीवित
होते हैं तब जिनत्व
होता है; जब
वे जा चुके
होते हैं तब
"जैन' का
प्रादुर्भाव
होता है।
जैन का
अर्थ है: जो
जिन तो नहीं
हुआ, जो जिन
होना भी नहीं
चाहता; लेकिन
परंपरा से, संस्कार से,
जैन घर में
पैदा हुआ है।
यह संस्कार
उधार हैं; स्वेच्छा
से वरण नहीं
किये गये। और
जो धर्म
स्वेच्छा से
वरण नहीं किया
गया है, वह
केवल बौद्धिक
है, आत्मिक
नहीं है। यह
सभी के साथ
होगा। यह
स्वाभाविक
है।
एक
डाक्टर ने
नौकर को आदेश
दे रखा था कि
कोई काम उनसे
पूछे बगैर न
करे। एक दिन
वे दवाइयों की
डोज़ देख
रहे थे कि
नौकर आकर बोला, "सर! चाय में
कितनी चीनी
दूं?'
"दो
या तीन चम्मच
भर', डाक्टर
ने कहा।
नौकर
थोड़ी देर बाद
फिर आया और
बोला, "सर!
सब्जी में नमक
कितना देना है?'
"दो
या तीन चम्मच
भर', थोड़ा
नाराज होते
डाक्टर बोला।
फिर
थोड़ी देर में
लौटकर नौकर
आया और उसने
कहा कि सर, चावल कितना
बनेगा? "कितनी
बार कहा', डाक्टर
चीखा, "दो
या तीन चम्मच
भर।'
चावल
दो या तीन
चम्मच भर!
लेकिन
धीरे-धीरे लकीरें
बन जाती हैं।
उत्तर
निर्णीत हो
जाते हैं। बहुत
बार जो बात
तुमने कही है, तुम उसे
कहने के लिए
धीरे-धीरे अवश
हो जाते हो।
बहुत बार जिस
मंदिर के
सामने तुम
झुके हो, तुम
झुक जाते हो
मूर्च्छा में,
झुकना सच
नहीं होता।
तुम्हें
पक्का भी नहीं
होता।
मेरे
एक मित्र हैं।
मेरे साथ
घूमने जाते
थे। हनुमान के
भक्त हैं। अब
हनुमान के
भक्त की बड़ी दिक्कत
है, क्योंकि
जितने हनुमान
के मंदिर, मूर्ति
इधर-उधर सब
जगह हैं...।
जहां जाएं, वहीं उनको...।
तो उनको
जगह-जगह
नमस्कार...।
और
हनुमान के साथ
खतरा है कि
नाराज न हो
जायें! एक और
झंझट! तो
मैंने उनसे
कहा कि यह तुम
क्या करते हो दिनभर? तुमको कोई
काम दूसरा
नहीं सूझता? चलो तो
मुसीबत।
रिक्शा रोककर
उतरते हैं, पहले
नमस्कार।
हनुमान जी
नाराज न हो
जायें!
मैंने
कहा, "और जहां
तक मैं देखता
हूं, न तो
तुम्हारे
नमस्कार में
कोई रस है।
मैं देखता हूं,
एक तरह की
फजीहत, एक
तरह की
परेशानी! तुम झिझियाये
से, खिझियाये से नमस्कार
करते हो।'
बोले, "बात तो ठीक
है क्योंकि
बचपन से यह
आदत मेरे पिताजी
ने डाल दी है।
वे भी यही
करते थे। वे
भी खिझियाए
रहते थे।
क्योंकि गांव
क्या है, जहां
देखो वहीं
हनुमान जी
बैठे हैं। इस
झाड़ के नीचे
बैठे हैं, उस
झाड़ के नीचे
बैठे हैं। हनुमानजी
के बैठने में
दिक्कत नहीं
लगती। कहीं भी
पत्थर रख दो, लाल रंग से
रंग दो। झंझट
खड़ी हो गई। अब
ये हनुमान जी हैं,
अब अगर न
इनको नमस्कार
करो तो नाराज
हो जायेंगे।
तो
मैंने कहा, तुम एक काम
करो। तुम एक
तीन दिन नियम
रखो कि नमस्कार
न करोगे
हनुमान जी को।
बोले कि "अगर
नाराज हो
गये...तो?'
"वह
मेरा जुम्मा।
मैं निपट
लूंगा। तीन
दिन मैं कर
लूंगा
तुम्हारी तरफ
से नमस्कार।
लेकिन तुम तीन
दिन...।'
उन्होंने
कहा कि बड़ा
मुश्किल
होगा। मैंने
कहा, तुम
कोशिश तो करो।
तीन दिन संभव
न हो पाया। वे शाम
को उसी दिन
आये।
उन्होंने कहा,
मुश्किल
है। वह तो याद
ही नहीं रहती,
एकदम से हाथ
झुक जाता है।
अब यह
पूजा हुई? यह
प्रार्थना
हुई? यह तो
एक मजबूरी हो गई,
एक बेहोशी
हो गई। यह तो
एक आदत हो गई; जैसे सिगरेट
पीनेवाले
को सिगरेट की
तलफ लगती है, हाथ खीसे
में चला जाता
है, पैकेट
बाहर निकल आता
है, सिगरेट
ठोंकने
लगता है पैकेट
पर। एक
यांत्रिक
प्रक्रिया हो गई।
जब तुम
धर्म को बिना
स्वेच्छा के
स्वीकार कर लेते
हो, आदतवश, संस्कारवश,
परंपरावश,
तब तुम एक
खतरे में पड़
रहे हो, क्योंकि
धर्म तो तभी
धर्म होता है
जब तुम स्वेच्छा
से, सावचेत,
सावधानी से
स्वीकार करो।
धर्म तो तभी
धर्म होता है
जब तुम्हें जगाये, सुलाये न।
तो तुम
दोहरा सकते
हो। जैन दोहरा
रहा है। "जिन' होना हो तो
जीना पड़ेगा; दोहराने से
काम न होगा।
महावीर के वचन
याद कर लेने
से कुछ भी न
होगा। जीना
पड़ेगा।
उन्हें फिर से
खोजना पड़ेगा
कि जीवन की
सचाई उनमें है
या नहीं।
तुम्हें
प्रमाण बनना
पड़ेगा
शास्त्र का।
तुम्हें खबर
देनी पड़ेगी
अपने खुद के
अन्वेषण से कि
ठीक है, मेरा
अन्वेषण भी मुझे
वहीं ले आता
है जहां
महावीर का
अन्वेषण ले गया;
मैं भी
तालमेल पाता
हूं; उन्होंने
जो कहा, ठीक
कहा है; यह
मेरा अनुभव भी
कहता है--तब तो
तुम "जिन' हो
पाओगे।
लेकिन
अगर तुम
दोहराते रहे, तो दोहराते
रह सकते हो।
तुम जैन
बने-बने सड़
जाओगे।
तुम
कहीं पहुंच न
पाओगे।
फिर
शास्त्रों से
हम जो अर्थ
लेते हैं, उस अर्थ के
लिए भी बड़ी
साक्षी
भाव-दशा चाहिए,
तो ही अर्थ
का फूल
तुम्हारे
भीतर खिलेगा।
शब्द तो मिल
जाते हैं
शास्त्र से, अर्थ कहां
से लाओगे? अर्थ
तो तुम्हें
डालना होगा।
एक
रोगी ने अपने
डाक्टर से आकर
कहा कि बड़ी
कठिनाई है; जो आपने कहा
था, हो
नहीं पाता।
डाक्टर ने कहा
कि मैंने ऐसी
कोई कठिन बात
तुमसे कही न
थी। इतना ही
तो कहा था कि जो
तुम्हारा
बच्चा खाता है,
वही भोजन
तुम लो। इसमें
क्या अड़चन है?
कुछ दिन तक
जो तुम्हारा
बच्चा लेता है,
वही भोजन
तुम लो, तो
तुम्हारा
शरीर ठीक
रास्ते पर आ जायेगा।
उसने
कहा कि मैंने
प्रयत्न तो
किया, पर
सफल न हो सका।
डाक्टर ने कहा,
"क्या
बेवकूफी है? इतनी-सी बात
तुमसे न हो
सकी कि
तुम्हारा
बच्चा जो खाता
है वही तुम
खाओ? दूध
पीता है तो
दूध पीओ। खिचड़ी
खाता है तो खिचड़ी
खाओ। और जितनी
थोड़ी मात्रा
में खाता है
उतनी ही मात्रा
में खाओ। यह
भी तुमसे न हो
सका?'
उसने
कहा कि महाराज, मेरा बच्चा
मोमबत्ती, कोयला,
मिट्टी, जूते
के फीते, ऐसी
कौन-सी चीज है
जो नहीं खाता!
वही तो मैं
मरा जा रहा
हूं खा-खाकर।
मेरी हालत और
खराब हो गई है।
थोड़ी
सावधानी
चाहिए। अर्थ
तो तुम
डालोगे!
महावीर
कहते हैं, उपवास; तुम
पढ़ोगे, अनशन।
महावीर कहते
हैं, सत्य
में संयम छिपा
है; तुम पढ़ोगे,
संयम में
सत्य छिपा है।
ऐसे चूकते चले
जाओगे। फिर
तुम अपनी मतलब
की बात सदा
निकाल लोगे।
आदमी अपनी
मतलब की बात
निकाल लेता
है।
मैं
जबलपुर बहुत
वर्षों तक
रहा। एक बूढ़े
सिंधी की
दुकान थी।
पुरानी
किताबें, पुराना
कागज, खरीदता
और बेचता। मैं
भी उसकी दुकान
पर पुरानी
किताबों की
तलाश में जाता
था। कभी-कभी
बड? महत्वपूर्ण
शास्त्र उसकी
किताब की
दुकान पर से
मिल गये। उस
सिंधी
को...सिंधियों
में ऐसी मान्यता
थी कि वह कुछ
धार्मिक है, वे उसको
साईं कहते थे।
मैं भी
किताबें
पुरानी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते,
सुनता रहता
था उसकी बातें;
उसके कुछ
शिष्य-शागिर्द
भी कभी-कभी
बैठे रहते थे।
एक दिन एक
आदमी आया जो फाउन्टेनपेन
खरीदकर ले गया
था। पुरानी और
चीजें भी वह
खरीदता-बेचता
था। वह आदमी
बड़ा नाराज था।
उसने कहा कि
यह तुमने धोखा
दिया। यह तो फाउन्टेनपेन
चार आने का भी
नहीं है और
लिखा है इस पर
"मेड इन यू. एस.
ए.।' यह है नहीं
"अमरीका का
बना।'
वह
सिंधी नाराज
हुआ। उसने कहा, "कहा किसने
कि यह अमरीका
का बना है?' पर
उसने कहा, "इस
पर लिखा हुआ
है: मेड इन यू.
एस. ए.। तो वह
सिंधी नाराज
हुआ। उसने कहा,
"कोई यू. एस.
ए. ने यू. एस. ए.
लिखने का ठेका
ले रखा है? अरे,
यू. एस. ए. का
मतलब होता है: उल्हासनगर
सिंधी
एसोसिएशन।'
अपने-अपने
हिसाब हैं, अपने-अपने
मतलब हैं। यू.
एस. ए. की चीज
खरीदते वक्त उल्हासनगर
के सिंधियों
को याद रखना।
तुम ही तो
अर्थ डाल लोगे।
शब्द तो
बेचारा क्या
करेगा! अर्थ
तो तुम जोड़ोगे!
अर्थ तो तुम निकालोगे!
महावीर
की नग्नता
हुई--सहज, स्वाभाविक,
सहजस्फूर्त।
मेरे
एक मित्र हैं
जैन-संन्यासी।
उनके गांव के
पास से गुजरता
था तो मैंने
गाड़ी रुकवाई।
मैंने कहा कि
उनको मिलता
चलूं, वर्षों
से मिला नहीं।
देखा खिड़की से
तो वे अपनी
छोटी-सी कोठरी
में--दूर जंगल
में रहते
हैं--नग्न टहल
रहे थे। जब
मैं दरवाजे पर
गया और मैंने
दस्तक दी तो
वे आए तो चादर
लपेटे थे।
मैंने पूछा, "मामला क्या
है? अभी तो
मैंने खिड़की
से देखा, तुम
नग्न थे; चादर
क्यों लपेट ली?'
वे हंसने
लगे।
उन्होंने कहा
कि जरा अभ्यास
कर रहा हूं।
"काहे का
अभ्यास कर रहे
हो?'
वे अभी
ब्रह्मचारी
हैं, जैनियों
की पहली सीढ़ी
पर हैं
संन्यास की।
मुनि जब नग्न
होते हैं, तो
वे पांचवीं
सीढ़ी हैं। तो
उन्होंने कहा,
थोड़ा
अभ्यास कर रहा
हूं। मैंने
कहा, कैसे
अभ्यास करोगे?
उन्होंने
कहा, "पहले
अकेले में
करता हूं।
नग्न होने की
थोड़ी आदत हो
जाये। फिर
मित्र, परिचितों
के बीच
रहूंगा। फिर
धीरे-धीरे
गांव में जाऊंगा।
फिर शहर में
भी। ऐसे
हिम्मत बढ़
जायेगी। अभी तो
बड़ा संकोच
लगता है।'
मैंने
उनसे पूछा, "तुमने कभी
सुना कि
महावीर ने ऐसा
अभ्यास किया था।
नग्नता अभ्यास
से आये तो
निर्दोष कहां
रही? अभ्यास
तो हर चीज को
दोषी बना देता
है। अभ्यास का
तो मतलब हुआ--परफार्मेन्स।
अभ्यास का तो
अर्थ
हुआ--नाटक। यह
तुम रिहर्सल
कर रहे हो मुनित्व
का, मुनि
होने का? तैयारी
कर रहे हो? यह
कोई नाटक है
या जीवंत घटना
है? माना
कि तुम संकोच
छोड़ दोगे
अभ्यास करने
से; अभ्यास
से जो संकोच
छूट जायेगा
उससे क्या निर्दोषता
आयेगी? निर्दोषता
तो तब आती है
जब समझ से
संकोच गिरता
है, अभ्यास
से नहीं।'
समझ
अभ्यास बन गई।
फिर चूक हो
गई। तो "जिन' तो खो गये, जैन हैं।
और ऐसा
ही सभी धर्मों
के साथ हुआ
है। ऐसा ही मैं
जो तुमसे कह
रहा हूं, मेरे
साथ होगा। यह
प्रकृति का
नियम है।
इसलिए इस पर
नाराज मत
होना। जब
तुम्हें समझ
में आ जाये तो
तुम खिसक जाना
इसके घेरे के
बाहर, बस।
इस पर नाराज
होने जैसा कुछ
नहीं है। ऐसा
सदा होगा।
आखिर मैं अपने
शब्दों का
अर्थ करने कितनी
देर बैठा रहूंगा?
एक न एक दिन
तुम मेरे
शब्दों का
अर्थ करने के
मालिक हो
जाओगे। फिर
मैं कुछ न कर
सकूंगा। तुम जो
अर्थ निकालोगे,
तुम्हारी
मौज।
इसलिए
तो इतने
धर्मों के
संप्रदाय
पैदा होते हैं।
अब महावीर के
भी संप्रदाय
हो गये।
छोटी-सी
संख्या है
जैनों की; उसमें भी
दिगंबर हैं, श्वेतांबर
हैं; फिर
श्वेतांबरों
में भी स्थानकवासी
हैं, और तेरापंथी
हैं; और एक
गच्छ, दूसरा
गच्छ। फिर दिगंबरों
में भी तारणपंथी
हैं। और
छोटे-छोटे
पंथ! और उनके
झगड़े क्या
हैं--बड़े
छोटे-छोटे!
हंसने जैसे!
कुछ मुद्दा
नहीं है
उनमें।
लेकिन
सवाल यह नहीं
है। सवाल यह है
कि जब सदगुरु
जा चुका तो
अनुयायी
अपने-अपने तरह
से अर्थ करेंगे।
अर्थों में
भेद हो
जायेंगे।
भेदों के माननेवाले
अलग-अलग हो
जायेंगे, संप्रदायों
में टूट
जायेंगे। यह
भेद कुछ महावीर
के वचनों में
नहीं है। यह
भेद अर्थ
करनेवालों की
व्याख्या में
है। सब
व्याख्याएं
तुम्हारी
होंगी।
तो
क्या उपाय है?
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
अगर तुम्हें
कोई जीवित
गुरु मिल सके, तो खोज लेना;
अगर न मिल
सके तो मजबूरी
में शास्त्र
में उतरना।
क्योंकि
शास्त्र में
तुम अकेले छूट
जाओगे।
तुम्हीं अर्थ
करोगे, तुम्हीं
पढ़ोगे।
कौन निर्णय
देगा कि तुमने
जो पढ़ा, ठीक
पढ़ा? कि
तुमने जो अर्थ
किया वह ठीक
किया? बहुत
बेईमानी की
संभावना पैदा
हो जाती है, जब तुम
अकेले छूट
जाते हो। तुम
बेईमान हो!
अपनी इस
बेईमानी के
प्रति सावचेत
रहना। कहीं
ऐसे व्यक्ति
को खोजो, जो
तुमसे चार कदम
भी आगे हो तो
भी चलेगा। कम
से कम चार कदम
तो तुम
सुरक्षा से
प्रकाश में चल
सकोगे! फिर चार
कदम के बाद वह
काम का न रह
जाये, किसी
और को खोज
लेना।
आदमियों
से थोड़े ही
बंधना
है--सत्य की
खोज करनी है!
जहां से जितना
इशारा मिल
जाये, जीवंत,
उतना ले
लेना और आगे
बढ़ते जाना। एक
दिन ऐसी घड़ी
भी आ जायेगी
कि तुम अपना
भी प्रकाश
पैदा कर लोगे।
तब फिर किसी
गुरु की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती।
आखिरी
प्रश्न:
किसी
सुंदर युवती
को देखकर जाने
क्यों मन उसकी
ओर आकर्षित हो
जाता है, आंखें उसे
निहारने लगती
हैं! मेरी
उम्र पचास हो
गई है, फिर
भी ऐसा क्यों
होता है? क्या
यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता
की स्तुति? कृपया मेरा
मार्ग-निर्देश
करें।
ऐसा
होता है
निरंतर; क्योंकि
जब दिन थे तब
दबा लिया। तो
रोग बार-बार
उभरेगा। जब
जवान थे, तब
ऐसी किताबें
पढ़ते रहे
जिनमें लिखा
है: ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।
तब दबा लिया।
जवानी
के साथ एक
खूबी है कि
जवानी के पास
ताकत
है--दबाने की
भी ताकत है।
वही ताकत भोग
बनती है, वही
ताकत दमन बन
जाती है।
लेकिन जवान
दबा सकता है।
मेरे
अनुभव में
अकसर ऐसी घटना
घटती रही है, लोग आते रहे
हैं, कि
चालीस और
पैंतालीस साल
के बाद बड़ी
मुश्किल खड़ी
होती है, जिन्होंने
भी दबाया।
क्योंकि
चालीस-पैंतालीस
साल के बाद, वह ऊर्जा जो
दबाने की थी
वह भी क्षीण
हो जाती है।
तो वह जो दबाई
गई वासनाएं
थीं, वे
उभरकर आती
हैं। और जब
बे-समय आती
हैं तो और भी
बेहूदी हो
जाती हैं।
जवान
स्त्रियों के
पीछे भागता
फिरे, कुछ
भी गलत नहीं
है; स्वाभाविक
है; होना
था, वही हो
रहा है। बच्चे
तितलियों के
पीछे दौड़ते फिरें, ठीक
है। बूढ़े
दौड़ने
लगें--तो फिर
जरा रोग मालूम
होता है।
लेकिन रोग
तुम्हारे
कारण नहीं है,
तुम्हारे
तथाकथित
साधुओं के
कारण है--जिनने
तुम्हें जीवन
को सरलता से
जीने की
सुविधा नहीं
दी है। बचपन
से ही जहर
डाला गया है:
कामवासना पाप
है! तो
कामवासना को
कभी पूरे
प्रफुल्ल मन
से स्वीकार
नहीं किया।
भोगा भी, तो
भी अपने को
खींचे रखा।
भोगा भी, तो
कलुषित मन से,
अपराधी भाव
से; यह मन
में बना ही
रहा कि पाप कर
रहे हैं।
संभोग में भी
उतरे तो जानकर
कि नर्क का
इंतजाम कर रहे
हैं।
अब तुम
सोचो, जब
तुम संभोग में
उतरोगे और
नर्क का भाव
बना रहेगा, क्या खाक
उतरोगे? संभोग
की सुरभि
तुम्हें क्या घेरेगी? वह नृत्य
पैदा न हो
पायेगा। तो
तुम बिना उतरे
वापिस लौट
आओगे। शरीर के
तल पर संभोग
हो जायेगा; मन के तल पर
वासना अधूरी
अतृप्त रह
जायेगी। मन के
तल पर दौड़
जारी रहेगी।
तो जब बूढ़े
होने लगोगे और
शरीर कमजोर होने
लगेगा और शरीर
की दबाने की
पुरानी शक्ति
क्षीण होने
लगेगी और मौत
दस्तक देने
लगेगी दरवाजे
पर और लगेगा
कि अब गये, अब
गये--तब ऐसा
लगेगा, यह
तो बड़ा गड़बड़
हुआ; भोग
भी न पाये और
चले! डोली तो
उठी नहीं, अर्थी
सज गई! तो मन
बड़े वेग से
स्त्रियों की
तरफ दौड़ेगा,
पुरुषों की
तरफ दौड़ेगा।
यह
तथाकथित समाज
के द्वारा
पैदा की गई
रुग्ण अवस्था
है। बच्चे को
उसके बचपन को
पूरा जीने दो, ताकि जब वह
जवान हो जाये
तो बचपन की
रेखा भी न रह
जाये; ताकि
वह पूरा-पूरा
जवान हो सके।
जवान को पूरा जीने
दो, उसे
अपने अनुभव से
ही जागने दो; ताकि जवानी
के जाते-जाते
वह जो जवानी
की दौड़-धूप थी,
आपाधापी थी,
मन का जो
रोग था, वह
भी चला जाये; ताकि बूढ़ा
शुद्ध बूढ़ा हो
सके। और जब
कोई बूढ़ा शुद्ध
बूढ़ा होता है
तो उससे सुंदर
कोई अवस्था नहीं
है। लेकिन जब
बूढ़े में जवान
घुसा होता है,
तब एक भूत
तुम्हारा
पीछा कर रहा
है। तब तुम एक प्रेतात्मा
के वश में हो।
तब तुम्हें
बड़ा भटकायेगा।
तब तुम्हें
बड़ा बेचैन
करेगा। और
जैसे-जैसे शरीर
अशक्त होता
जायेगा
वैसे-वैसे तुम
पाओगे, वेग
वासना का बढ़ने
लगा।
एक
स्त्री के
संबंध में
मैंने सुना
है। वह चालीस
से ऊपर की हो
चुकी थी। मोटी
हो गई थी, बेहूदी
हो गई थी, कुरूप
हो गई थी। फिर
भी बनती बहुत
थी। दावत में
पास बैठा युवक
उसकी बातों से
उकता गया
था और भाग
निकलने के लिए
बोला, "क्या
आपको वह बच्चा
याद है जो
स्कूल में
आपको बहुत तंग
करता था...?' उसका
हाथ पकड़कर
स्त्री ने कहा,
"अच्छा, तो
वह तुम थे?'
उसने
कहा, "नहीं, जी नहीं, मैं
नहीं। वे मेरे
पिताजी थे।'
एक
उम्र है तब
चीजें शुभ
मालूम होती
हैं। एक उम्र
है तब चीजों
को जीना जरूरी
है। उसे अगर न
जी पाये तो
पीछा चीजें
करेंगी। और तब
चीजें बड़ी
वीभत्स हो
जाती हैं।
एक
सिनेमा-गृह में
ऐसा घटा। एक
महिला पास में
बैठे एक
बदतमीज बूढ़े
से तंग आ गई थी, जो आधे घंटे
से सिनेमा
देखने की बजाय
उसे ही घूरे
जा रहा था।
आखिर
उसने फुसफुसाकर
उस आदमी से
कहा, "सुनिए, आप अपना एक
फोटो मुझे
देंगे?'
आदमी
बाग-बाग हो
गया: "जरूर
जरूर! एक तो
मेरी जेब में
ही है। लीजिए!
हां, क्या
कीजिएगा मेरे
फोटो का?'
उसने
कहा, "अपने
बच्चों को डराऊंगी।'
सावधान
रहना। वही जो
एक समय में
शुभ है, दूसरे
समय में अशुभ
हो जाता है।
वही जो एक समय में
ठीक था, सम्यक
था, स्वभाव
के अनुकूल था,
वही दूसरे
समय में अरुचिपूर्ण
हो जाता है, बेहूदा हो जाता
है।
जिन
मित्र ने पूछा
है, उनको थोड?ा जागकर
अपने मन में
पड़ी हुई, दबी
हुई वासनाओं
का
अंतर्दर्शन
करना होगा। अब
मत दबाओ! कम से
कम अब मत दबाओ!
अभी तक दबाया
और, उसका
यह दुष्फल
है। अब इस पर
ध्यान करो।
क्योंकि अब
उम्र भी नहीं
रही कि तुम
स्त्रियों के
पीछे दौड़ो
या मैं तुमसे
कहूं कि उनके
पीछे दौड़ो।
वह बात जंचेगी
नहीं। वे
तुमसे फोटो
मांगने
लगेंगी। अब जो
जीवन में नहीं
हो सका, उसे
ध्यान में घटाओ।
अब एक
घंटा रोज आंख
बंद करके, कल्पना को
खुली छूट दो।
कल्पना को
पूरी खुली छूट
दो। वह
किन्हीं
पापों में ले
जाये, जाने
दो। तुम रोको
मत। तुम
साक्षी-भाव से
उसे देखो कि
यह मन जो-जो कर
रहा है, मैं
देखूं।
जो शरीर के
द्वारा नहीं
कर पाये, वह
मन के द्वारा
पूरा हो जाने
दो। तुम जल्दी
ही पाओगे कुछ
दिन के...एक
घंटा नियम से
कामवासना पर
अभ्यास करो, कामवासना के
लिए एक घंटा
ध्यान में लगा
दो, आंख
बंद कर लो और
जो-जो
तुम्हारे मन
में कल्पनाएं उठती
हैं, सपने
उठते हैं, जिनको
तुम दबाते
होओगे
निश्चित
ही--उनको प्रगट
होने दो! घबड़ाओ
मत, क्योंकि
तुम अकेले हो।
किसी के साथ
कोई तुम पाप
कर भी नहीं
रहे। किसी को
तुम कोई चोट
पहुंचा भी
नहीं रहे।
किसी के साथ
तुम कोई अभद्र
व्यवहार भी
नहीं कर रहे
कि किसी
स्त्री को
घूरकर देख रहे
हो। तुम अपनी
कल्पना को ही
घूर रहे हो।
लेकिन पूरी
तरह घूरो।
और उसमें
कंजूसी मत
करना।
मन
बहुत बार
कहेगा कि "अरे, इस उम्र में
यह क्या कर
रहे हो!' मन
बहुत बार
कहेगा कि यह
तो पाप है। मन
बहुत बार
कहेगा कि शांत
हो जाओ, कहां
के विचारों
में पड़े हो!
मगर इस
मन की मत
सुनना। कहना
कि एक घंटा तो
दिया है इसी
ध्यान के लिए, इस पर ही
ध्यान
करेंगे। और एक
घंटा जितनी
स्त्रियों को,
जितनी
सुंदर
स्त्रियों को,
जितना
सुंदर बना सको
बना लेना। इस
एक घंटा जितना
इस कल्पना-भोग
में डूब सको, डूब जाना।
और साथ-साथ
पीछे खड़े
देखते रहना कि
मन क्या-क्या
कर रहा है।
बिना रोके, बिना निर्णय
किये कि पाप
है कि अपराध
है। कुछ फिक्र
मत करना। तो
जल्दी ही
तीन-चार महीने
के निरंतर
प्रयोग के बाद
हलके हो
जाओगे। वह मन
से धुआं निकल
जायेगा।
तब तुम
अचानक पाओगे:
बाहर
स्त्रियां
हैं, लेकिन
तुम्हारे मन
में देखने की
कोई आकांक्षा
नहीं रह गई।
और जब
तुम्हारे मन
में किसी को देखने
की आकांक्षा
नहीं रह जाती,
तब लोगों का
सौंदर्य
प्रगट होता
है। वासना तो अंधा
कर देती है, सौंदर्य को
देखने कहां
देती है!
वासना ने कभी सौंदर्य
जाना? वासना
ने तो अपने ही
सपने फैलाये।
और
वासना दुष्पूर
है; उसका कोई
अंत नहीं है।
वह बढ़ती ही
चली जाती है।
एक
बहुत मोटा
आदमी दर्जी की
दुकान पर
पहुंचा। दर्जी
ने अचकन के
लिए बड़ी
कठिनाई से
उसका नाप लिया।
फिर एक सौ
रुपये की
सिलाई मांगी।
वे महाशय बोले, "टेलीफोन पर
तो तुमने
पच्चीस रुपये
सिलाई कही थी,
अब सौ रुपये?
हद्द हो गई!
बेईमानी की भी
कोई सीमा है!'
दर्जी
ने कहा, "महाराज!
वह अचकन की
सिलाई थी, यह
शामियाने की
है।'
अचकनें
शामियाने बन
जाती हैं।
वासना फैलती ही
चली जाती है।
तंबू बड़े से
बड़ा होता चला
जाता है। अचकन
तक ठीक था, लेकिन जब
शामियाना
ढोना पड़े
चारों तरफ तो
कठिनाई होती
है।
मैं
अड़चन समझता
हूं। लेकिन
अड़चन का तुम
मूल कारण खयाल
में ले लेना:
तुमने दबाया
है। तुमने दमन
किया है। तुम
गलत शिक्षा और
गलत
संस्कारों के
द्वारा
अभिशापित हुए
हो। तुमने
जिन्हें साधु-महात्मा
समझा है, तुमने
जिनकी बातों
को पकड़ा है--न
वे जानते हैं,
न उन्होंने
तुम्हें
जानने दिया
है।
मेरे
पास साधु
संन्यासी आते
हैं तो कहते
हैं, "एकांत
में आपसे कुछ
कहना है।' मैं
कहता हूं, सभी
के सामने कह
दो; एकांत
की क्या जरूरत
है? वे
कहते हैं कि
नहीं, एकांत
में। अब तो
मैंने एकांत
में मिलना बंद
कर दिया है।
क्योंकि एकांत
में...जब भी
साधु-संन्यासी
आयें तो वे
एकांत ही
मांगते हैं।
और एकांत में
एक ही प्रश्न है
उनका कि यह
कामवासना से
कैसे छुटकारा
हो! कोई सत्तर
साल का हो गया
है, कोई
चालीस साल से
मुनि है--तो
तुम क्या करते
रहे चालीस साल?
कहते हैं, क्या बतायें,
जो-जो
शास्त्र में
कहा है, जो-जो
सुना है--वह
करते रहे हैं।
उससे तो हालत
और बिगड़ती
चली गई है।
मवाद
को दबाया है, निकालना था।
घाव पर तुमने
ऊपर से
मलहम-पट्टी की
है; आपरेशन
की जरूरत थी।
तो जिस मवाद
को तुमने भीतर
छिपा लिया है,
वह अब तुम्हारी
रग-रग में फैल
गई है; अब
तुम्हारा
पूरा शरीर
मवाद से भर
गया है।
तो
थोड़ी सावधानी
बरतनी पड़ेगी।
आपरेशन से गुजरना
होगा। और
तुम्हीं कर
सकते हो वह
आपरेशन; कोई
और कर नहीं
सकता।
तुम्हारा
ध्यान ही तुम्हारी
शल्यक्रिया
होगी। तब एक
घंटा रोज...।
तुम चकित
होओगे, अगर
तुमने एक-दो
महीने भी इस
प्रक्रिया को
बिना किसी
विरोध के भीतर
उठाये, बिना
अपराध भाव के
निश्चिंत मन
से किया, तो
तुम अचानक
पाओगे: धुएं
की तरह कुछ
बातें खो गईं!
महीने दो
महीने के बाद
तुम पाओगे:
तुम बैठे रहते
हो, घड़ी
बीत जाती है, कोई कल्पना
नहीं आती, कोई
वासना नहीं
उठती। तब तुम
अचानक पाओगे:
अब तुम चलते
हो बाहर, तुम्हारी
आंखों का रंग
और! अब
तुम्हें
सौंदर्य
दिखाई पड़ेगा!
क्योंकि सब
सौंदर्य
परमात्मा का
सौंदर्य है।
स्त्री का, पुरुष का
कोई सौंदर्य
होता है? फूल
का, पत्ती
का, कोई
सौंदर्य होता
है? सौंदर्य
कहीं से भी प्रगट
हो; सौंदर्य
परमात्मा का
है, सौंदर्य
सत्य का है।
लेकिन
सौंदर्य को
देख ही वही
पाता है, जिसने
वासना को अपनी
आंख से हटाया।
वासना का पर्दा
आंख पर पड़ा
रहे, तुम
सौंदर्य थोड़े
ही देखते हो!
सौंदर्य तुम
देख ही नहीं
सकते।
वासना
कुरूप कर जाती
है सभी चीजों
को। इसलिए
तुमने जिसको
भी वासना से
देखा, वही
तुम पर नाराज
हो जाता है।
कभी तुमने
खयाल किया? किसी स्त्री
को तुम वासना
से देखो, वही
बेचैन हो जाती
है। किसी
पुरुष को
वासना से देखो,
वही थोड़ा
उद्विग्न हो
जाता है।
क्योंकि जिसको
भी तुम वासना
से देखते हो, उसका अर्थ
ही क्या हुआ? उसका अर्थ
हुआ कि तुमने
उस आदमी या उस
स्त्री को
कुरूप करना
चाहा। जब भी
तुम किसी को
वासना से
देखते हो, उसका
अर्थ हुआ कि
तुमने किसी का
साधन की तरह उपयोग
करना चाहा; तुम किसी को
भोगना चाहते
हो। और
प्रत्येक व्यक्ति
साध्य है, साधन
नहीं है। तुम
किसी को चूसना
चाहते हो? तुम
किसी को अपने
हित में उपयोग
करना चाहते हो?
तुम किसी के
व्यक्तित्व
को वस्तु की
तरह पद-दलित
करना चाहते हो?
वस्तुओं
का उपयोग होता
है, व्यक्तियों
का नहीं।
लेकिन जब तुम
वासना से किसी
को देखते हो, व्यक्ति खो
जाता है, वस्तु
हो जाती है।
इसलिए वासना
की आंख को कोई
पसंद नहीं
करता। जब
वासना खो जाती
है तो सौंदर्य
का अनुभव होता
है। और जब
सौंदर्य का
अनुभव होता है,
तो
तुम्हारे
भीतर प्रेम का
आविर्भाव
होता है।
प्रेम
उस घड़ी का नाम
है, जब
तुम्हें सब
जगह परमात्मा
और उसका
सौंदर्य दिखाई
पड़ने लगता है।
तब तुम्हारे
भीतर जो ऊर्जा
उठती है, जो
अहर्निश गीत
उठता है--वही
प्रेम है। अभी
तो तुमने जिसे
प्रेम कहा है,
उसका प्रेम
से कोई दूर का
भी संबंध नहीं
है। वह प्रेम
की
प्रतिध्वनि
भी नहीं है।
वह प्रेम की
प्रतिछाया भी
नहीं है। वह
प्रेम का
विकृत रूप भी
नहीं है। वह
प्रेम से
बिलकुल उलटा
है।
इसलिए
तो तुम्हारे
प्रेम को घृणा
बनने में देर
कहां लगती है!
अभी प्रेम था, अभी घृणा हो
गई। एक क्षण
पहले जो मित्र
था, क्षणभर बाद दुश्मन
हो गया। क्षणभर
पहले जिसके
लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको
मारने को
तैयार हो गये।
तुम्हारा
प्रेम प्रेम
है? घृणा का
ही बदला हुआ
रूप मालूम
पड़ता है।
प्रेम सिर्फ
तुम्हारी
बातचीत है।
प्रेम तो उनका
अनुभव है
जिनकी आंख से
वासना गिर गई;
जिन्हें
सौंदर्य
दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ
उसके नृत्य का
अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ
परमात्मा की
पगध्वनि
सुनाई पड़ने लगी।
फिर प्रेम का
आविर्भाव
होता है।
प्रेम यानी
प्रार्थना।
प्रेम यानी
पूजा। प्रेम
यानी अहोभाव,
धन्यता, कृतज्ञता।
नहीं, अभी तुम्हें
प्रेम का
अनुभव नहीं
हुआ। अभी तो तुमने
वासना को भी
नहीं जाना, प्रार्थना
को तुम जानोगे
कैसे? वासना
को जानो, ताकि
वासना से
मुक्त हो जाओ।
जब मैं निरंतर
तुमसे कहता
हूं, वासना
को जानो, तो
मैं यही कह
रहा हूं कि
वासना से
मुक्त होने का
एक ही उपाय है:
उसे जान लो।
जिसे हम जान
लेते हैं, उसी
से मुक्ति हो
जाती है।
सत्य
बड़ा
क्रांतिकारी
है। जान लेने
के अतिरिक्त
और कोई
रूपांतरण
नहीं है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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